Serial Story: जिंदगी बदगुमां नहीं (भाग-1)

दिल्ली की आउटररिंग रोड पर भागते आटो में बैठा पदम उतावला हो रहा था, घर कब आएगा? कब सब से मिलूंगा.

आटो से बाहर झांका, सुबह का झुटपुटा निखरने लगा था. एअरपोर्ट से उस का घर 18 किलोमीटर होगा. यहां से उस के घर की दूरी एक घंटे में पूरी हो जाएगी और फिर वह अपने घर पर होगा. पूरे 22 बरस बाद लौटा है पदम. उसे मलकागंज का भैरोंगली चौराहा, घर के पास बना पार्क और उस के पास बरगद का मोटा पेड़ सब याद है. इन सब के सामने वह अचानक खड़ा होगा, कितना रोमांचक होगा. नहीं जानता, वक्त के साथ सबकुछ बदल गया हो. हो सकता है मम्मीपापा, भैया कहीं और शिफ्ट हो गए हों. उस ने 2 दशक से उन की खोजखबर नहीं ली. आंखें बंद कर के वह घर आने का इंतजार करने लगा.

22 बरस पहले की यादों की पोटली खुली और एक ढीठ बच्चा ‘छोटा पदम’ सामने खड़ा हुआ. हाथ में बैटबौल और खेल का मैदान, यही थी उस छोटे पदम की पहचान. कुशाग्रबुद्धि का था पदम. सारा महल्ला उसे ‘मलकागंज का गावस्कर’ के नाम से जानता था. एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाला यह बच्चा टीचर्स का भी लाड़ला था. किंतु वह अपनी मां को ले कर हैरान था. जहां जाता, मां साथ जाती. 9 बरस के पदम को मम्मी स्कूल के गेट तक छोड़ कर आती और वापसी में उसे वहीं खड़ी मिलती. यहां तक कि पार्क में जितनी देर वह बैटिंगफील्ंिडग करता, वहीं बैंच पर बैठ कर खेल खत्म होने का इंतजार करती.

मां के इस व्यवहार से वह कई बार खीझ जाता, ‘मम्मी, मैं कोई बच्चा हूं जो खो जाऊंगा? आप हर समय मेरे पीछे घूमती रहती हो. मेरे सारे दोस्त पूरे महल्ले में अकेले घूमते हैं, उन की मांएं तो उन के साथ नहीं आतीं. फिर मेरे साथ यह तुम्हारा पीछेपीछे आना क्यों?’

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मम्मी आंखों में आंसू भर कर कहती, ‘बस, कुछ साल बाद तू अकेला ही घूमेगा, मेरी जरूरत नहीं होगी.’ मां की यह बात उस की समझ से परे थी.

‘‘बाबूजी, आप तो दिल्ली निवासी हो?’’ आटो वाले सरदारजी ने उस की सोच पर शब्दकंकरी फेंकी. उस ने चौंक कर वर्तमान को पकड़ा, ‘‘हां, नहीं, मुझे दिल्ली छोड़े बहुत बरस हो गए.’’

‘‘बाबूजी, आप विदेश में रहते हो?’’ हां, यहां बस किसी से मिलने आया हूं.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर सरदारजी ने आटो की स्पीड बढ़ा दी. सच ही तो है…वह तो परदेसी बन गया था. याद आया 22 बरस पहले का वह मनहूस दिन. उस दिन क्रिकेट का मैच था. पार्क में सारे बच्चों को इकट्ठा होना था.

पदम को घर में छोड़ कर मम्मी बाजार चली गई थी. बाहर से ताला लगा था. पदम पार्क में जाने के लिए छटपटा रहा था कि तभी उस के दोस्त अनिल ने खिड़की से आवाज दी, ‘यार, तू यहां घर में बैठा है और हम सब तेरा पार्क में इंतजार कर रहे हैं.’ ‘कैसे आऊं, मम्मी बाहर से ताला लगा गई हैं.’

‘छत से कूद कर आ जा.’ ‘ठीक है.’

पड़ोस की छतों को पार करता पदम पहुंच गया पार्क में. उसे देखते ही सारे दोस्त खुशी से चिल्लाए, ‘आ गया, हमारा गावस्कर, आ गया. अब आएगा मैच का मजा.’ बस, फिर क्या था, जम गया मैदान में. बल्ला घूमा और 30 रन बटोर कर आ गया. आउट हो कर वह बैंच पर आ कर बैठा ही था कि अचानक पता नहीं कहां से एक व्यक्ति उस के पास आ बैठा. उस ने बड़ी आत्मीयता से उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘बेटा, क्रिकेट बहुत बढि़या खेलते हो. लो, इसी खुशी में चौकलेट खाओ. और उस ने हथेली फैला दी. पदम ने चौकलेट उठा कर मुंह में डाल ली. उस के बाद पता नहीं क्या हुआ?

होश आया तो महसूस हुआ कि वह अपनों के बीच नहीं है. जगह और आसपास बैठे लोग सब अनजाने हैं. वह किसी बदबूदार कमरे में गंदी सी जगह पर था. सड़ांध से उस का जी मिचला गया था. कुशाग्रबुद्धि का पदम समझ गया था उसे अगवा कर लिया गया है. लेकिन क्यों? उस ने सुना था कि पैसे वालों के बच्चों को अगवा किया जाता है. बदले में पैसा मांगा जाता है. सब जानते हैं कि उस के पिता एक साधारण से टीचर हैं. वे भला इन लोगों को पैसा कहां से देंगे? वह भी जानता है कि घर में बमुश्किल रोटीदाल चल पाती है. फिर उसे उठा कर इन लोगों को क्या मिलेगा? उस की समझ से परे था. वह घबरा कर रोने लगा था. 2 गुंडा टाइप मुश्टडों ने उसे घूरा, ‘चौप्प, साला भूखा है, तभी रो रहा है. वहीं बैठा रह.’

‘मुझे पापा के पास जाना है.’ ‘खबरदार, जो उस मास्टर का नाम लिया. बैठा रह यहीं पर.’

पदम वहीं बैठा रहा बदबूदार दरी पर. उसे उबकाई आ गई, सारी दरी उलटी से भर गई. सिर भन्ना गया उस का.

शाम होतेहोते उसे कहीं और शिफ्ट कर दिया गया. फिर तो हर 10-12 दिनों बाद उसे किसी और जगह भेज दिया जाता. 4 महीने में 10 जगहें बदली गईं. वह अकेला नहीं था, 3 बच्चे और थे उस के साथ. इस बीच न जाने कितनी ही रातें उस ने आंखों में बिताई थीं और कितनी बार वह मम्मीपापा को याद कर के रोया था. यहां उसे अपनों का चेहरा तो दिखा ही नहीं, सारे बेगाने थे.

इंदौर, उदयपुर, जयपुर, शेखावटी न जाने कहांकहां उस को रखा गया. इन शहरों के गांवों में उसे रखा जाता जहां सिर्फ तकलीफ, बेज्जती और नफरत ही मिलती थी जिसे उस का बालमन स्वीकार नहीं करता था. इन सब से वह थक चुका था. तीव्रबुद्धि का पदम जानता था कि यह भागमभाग, पुलिस से बचने के लिए है. गंदे काम कराए जाते. गलती करने पर लातघूंसे, गाली और उत्पीड़न किया जाता था. रोटी की जगह यही सब मिलता था.

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जब टोले वालों को ज्यादा गुस्सा आता तो उसे शौचालय में बंद कर दिया जाता. टोले के मुखिया की उसे सख्त हिदायत थी कि अपना असली नाम व शहर किसी को मत बताना और नाम तो हरगिज नहीं. टोले वालों ने उस को नया नाम दिया था पम्मी.

उदयपुर के गांव में उसे ट्रेनिंग दी गई. चोरी करना, जेब काटना, उठाईगीरी और लोगों को झांसा दे कर उन की कीमती चीजों को साफ करना. ये सब काम करने का उस का मन न करता, किंतु इसे न करने का विकल्प न था.

सुबहसवेरे होटल से लाई पावभाजी खा कर उसे व उस के साथियों

को रेलवेस्टेशन भीड़भाड़ वाले बजारों या रेडलाइट पर छोड़ दिया जाता. शाम को टोले का एक आदमी उन्हें इकट्ठा करता और पैदल वापस ले आता. याद है उसे, एक रोज उस ने अपने एक दोस्त से पूछा, ‘ये हम से गलत काम क्यों कराते हैं?’

‘अबे साले, हिज्जू से और क्या कराएंगे. हम हिजड़ों को यही सब करना पड़ता है.’ ‘ये हिज्जूहिजड़ा क्या होता है?’

‘तुझे नहीं पता, हम सब हिजड़े ही तो हैं. तू, मैं, कमल, दीपू सब हिजड़े हैं.’ ‘मतलब.’

‘हम सब न लड़का हैं न लड़की, हम तो बीच के हैं.’ वह बच्चा बड़ी देर तक विद्रूप हंसी हंसता रहा था, साथ में गंदे इशारे भी करता रहा था.

पदम को आज भी याद है, ये सब देख कर उसे भरी सर्दी में पसीना आ गया था. तनबदन में आग सी लग गई थी. यह क्या है? ऐसा क्यों हो रहा है? जिन लोगों के बीच वह पल रहा है वह हिजड़ों की मंडली है? कुशाग्रबुद्धि के पदम को काफीकुछ समझ में आ गया था. समझ गया था कि वह ऐसे चक्रवात में फंस गया है जहां से निकलना आसान नहीं है. उस रात उसे बड़े डरावने सपने आते रहे. अब तक तो आंखें बंद करता था तो मम्मी, पापा, राम भैया और मुन्ना अंकल सपनों में रहते थे पर उस दिन के बाद उसे डरावने सपने ही आते. वह चौंक कर आंखें खोल देता था.

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Serial Story: जिंदगी बदगुमां नहीं (भाग-2)

बस, इस सब के साथ एक आस थी, हो सकता है पापा या भैया उसे ढूंढ़ते हुए कहीं स्टेशन या शहर की रेडलाइट पर मिल जाएं. पर ऐसा कभी नहीं हुआ. वह यह सब सहतेसहते पत्थर हो गया था. दुख, घुटन, बेजारी, गाली, तिरस्कार, उस के जीवन के पर्याय हो गए थे. कई बार दुख की पराकाष्ठा होती तो जी करता रेल की पटरी पर लेट कर अपने जीवन का अंत कर ले. दूसरे ही पल सोचता, नहीं, मेरा जीवन इतना सस्ता नहीं है. वह 12 बरस का हो गया था. अब उसे अपने शरीर में कसाव और बेचैनी महसूस होती थी. लेकिन कौन उसे बताता कि यह सब उस के साथ क्यों हो रहा है? खुले आसमान के नीचे बैठ कर अपनी बेनामी मजबूरी पर उसे आंसू बहाना अच्छा नहीं लगता था.

वहां उस का अपना कोई भी तो न था जिस के साथ वह सब साझा करता. लेदे कर बड़ी बूआ (केयरटेकर) थी. उस के आगे वह अकसर दिल खोलता था तो वह समझती, ‘बेटा यह नरक है, यहां सब चलतेफिरते मुरदे हैं. नरक ऐसा ही होता है. इस नरक में कोई नहीं, जिस से तू अपना दर्द बांट सके. मैं तेरी छटपटाहट को समझती हूं. तू यहां से निकलभागने को बेताब है. पर ध्यान रहे टोले वाले बड़े निर्दयी होते हैं. पकड़ा गया तो हाथपैर काट कर सड़क पर छोड़ देंगे भीख मांगने को. तब तेरी हालत बद से बदतर हो जाएगी.’

बूआ की बात सुन वह डर तो गया था पर हां, अगले ही पल उस का निश्चय, ‘कुछ तो करना पड़ेगा’ और दृढ़ हो गया. उसे अपनी इच्छाशक्ति पर कभीकभी हैरानी होती कि क्यों वह इतना खतरा मोल ले रहा है. ‘नहीं, कुछ तो करना होगा, यह सब नहीं चलेगा.’ यह सच था कि उसे अब दर्द सहने की आदत पड़ गई थी, पर और दर्द वह नहीं सहेगा. ‘बस, और नहीं.’

याद है उसे अहमदाबाद की वह रेडलाइट और सरदारजी की लाल गाड़ी. जब भी सरदारजी की लाल गाड़ी रुकती, वह ड्राइविंग सीट पर बैठे सरदारजी के आगे हाथ फैला देता. वे मुसकरा कर रुपयादोरुपया उस की हथेली पर रख देते. एक रोज सरदारजी ने पूछा, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’

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‘पम्मी.’ ‘पढ़ते हो?’

‘नहीं.’ ‘पढ़ना चाहते हो?’

‘साब, हम भिखारियों का पढ़नालिखना कहां?’ ‘पढ़ना चाहोगे? तुम्हारी जिंदगी बदल जाएगी. ऐसे तो बेटा, जिंदगी इस रेडलाइट की तरह बुझतीजलती रहेगी.’

उसे लगा, किसी ने थपकी दी है. एक दिन उस ने सरदारजी को वहीं खड़ेखड़े संक्षिप्त में सब बता दिया.

‘अगर छुटकारा पाना है तो कल मुझे यहीं मिलना.’ गाड़ी चली गई. उस का दिल धड़का. बस, यही मौका है. यह सोच वह अगले दिन सरदारजी की गाड़ी में फुर्र हो गया.

‘‘अरे बाबूजी, मलकागंज तो आ गया. ‘‘पर भैरोंगली…आप किसी से पूछ लो.’’ आटो वाले ने अचानक उस के सोचने का क्रम तोड़ा.

वह वर्तमान से जुड़ गया. ‘‘ओह, ठहरो, मैं उस सामने खड़े पुलिस वाले से पूछता हूं.’’ पुलिस वाले ने फौरन पूछा, ‘‘किस के घर में जाना है?’’

‘‘भैरोगली में शिशिर शर्मा के घर.’’ ‘‘सीधे चले जाओ, आखिरी घर शिशिर बाबू का ही है.’’

पदम की आंखें चमक उठीं. आखिर, उस ने अपना घर ढूंढ़ ही लिया. अगले पल वह अपने घर के दरवाजे पर था. एकटक घर को देख रहा था या कहें, घर उसे देख रहा था.

सामने बाउंड्रीवाल से सटा नीम का पेड़, घर की छत को छूती मालती की बेल…सब कितने बड़े हो गए हैं. पर सब वही हैं कुछ भी तो नहीं बदला. वह सब तो है किंतु यदि भैया, पापा ने उसे न पहचाना तो… डोरबैल पर कांपती उंगली रखी तो अंदर से आवाज आई. ‘‘ठहरो, आ रहा हूं.’’

यह आवाज पापा की नहीं है. कोई और ही होगा. दरवाजा खुला. एक अति बूढ़ा व्यक्ति सामने था. ‘‘कौन हो तुम, किस से मिलना है?’’ पहचान गया ये मुन्ना बाबू थे. पापा के बचपन के दोस्त.

‘‘मैं पदम हूं. शिशिर बाबू का बेटा.’’ ‘‘शिशिर बाबू का तो एक ही बेटा है राम और वह भी अमेरिका में है. वैसे, शिशिर घर पर नहीं हैं, पत्नी के साथ बाहर गए हैं. थोड़ी देर बाद आएंगे.’’

इतना कह कर उन्होंने भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया. कैसी विडंबना थी, अपने ही घर के दरवाजे पर वह अजनबियों की भांति खड़ा है. वह वहीं बरामदे में पड़ी कुरसी पर बैठ गया कि सामने से मम्मीपापा को आते देखा. वह दौड़ कर मां से चिपट गया. ‘‘मम्मी…’’

मम्मी को जैसे उसी का इंतजार था. कहते हैं, मां अपने बच्चे को पहचानने में कभी गलती नहीं करती चाहे बच्चा कितना ही बड़ा क्यों न हो जाए. मां का स्पर्श बरसों बाद. कितना सुखदायी था वह क्षण.

‘‘अरे, तुम कौन हो?’’ अचानक शिशिर बाबू बोले. ‘‘अरे राम के पापा, ये अपना पदम. हमारा छोटा बेटा,’’ रुंधे गले से शिशिर बाबू की पत्नी रेवा ने कहा.

‘‘ओ, तुम तो ऐसे ही सब को गले लगा लेती हो. जाओ, अंदर जाओ,’’ वे गुस्से में दहाड़े, ‘‘पता नहीं कौन अनजान पदम बन कर हमें बेवकूफ बना रहा है.’’ इसी क्षण घर का दरवाजा खुला. मुन्ना बाबू भी इस दृश्य में शामिल हो गए. ‘‘अभी कुछ देर पहले यही लड़का आया था. मैं ने भी इसे टाल दिया था. कहता था, ‘मैं पदम हूं.’ रेवा भाभी ठीक कह रही हैं, यह शायद पदम ही है.’’ अब मुन्ना बाबू भी उसे पहचान गए थे, ‘‘यह तेरा वही छोटा बेटा है जो गुम हो गया था. 22 साल पहले.’’

‘‘ओह…’’ गला उन का भी रुंध गया था. रेवा ने बेटे को कस कर गले से लगा लिया. कभी माथा चूमती, कभी तन पर हाथ फेरती. पगली मां की आंखों से खुशी से गंगाजमुना बह रही थी.

शिशिर बाबू भी अपने को रोक न सके. निशब्द मांबाप की ममता से उस की झोली भरती रही.

शिशिर बाबू के कानों में डाक्टर की कही वह बात अभी भी गूंज रही थी. पदम के जन्म पर उस ने कहा था, ‘आप का बेटा शिखंडी है. बचा कर रखना इसे. शिखंडियों का टोला ऐसे बच्चों को चुपचाप अगवा कर लेता है. पतिपत्नी उस की बड़ी सावधानी से देखभाल करते. पर वही हुआ जिस का डर था. काफी सतर्कता के बाद भी पदम को अगवा कर लिया गया.

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पुलिसथाना, पेपर में ‘मिसिंग है’ का विज्ञापन छपवाया. इस सब के बावजूद कुछ न हुआ. हर सुबह रेवा पति से पूछती, ‘कुछ पता लगा?’ वे सिर झुका कर इनकार कर देते.

बेटे को याद कर रेवा अकसर रोती. मुन्ना समझाता, ‘भाभी, मुझे विश्वास है हमारा पदम एक दिन हमें जरूर वापस मिलेगा.’ महीने, साल, दशक बीत गए.

मुन्ना को लगता था, शिशिर ने बच्चे को ढूंढ़ने का विशेष प्रयास नहीं किया वरना पता तो जरूर लगता. पदम का मुन्ना से सिर्फ पापा के दोस्त का नाता था. पर मुन्ना इस घर का खास आदमी माना जाता था. वह घर की राईरत्ती जानता था.

रेवा को रोते देख उस का दिल भर आता परंतु शिशिर की पदम के लिए ठंडी सोच उन से छिपी न थी. एक दिन पत्नी को रोते देख आखिर शिशिर को गुस्सा आ ही गया, ‘छोड़ो, रोनाधोना. अब राम के भविष्य, उस के कैरियर पर ध्यान दो. मैं सब भूल कर राम के लिए सोचने लगा हूं. मेरा सपना है राम को अमेरिका भेजना.’

यह सुन कर मुन्ना से रहा न गया, ‘शिशिर, सच तो कुछ और ही है. वह सुनना चाहते हो? सच यह है कि तू राम को ले कर धृतराष्ट्र बन गया है. राम को ले कर तू इतना महत्त्वाकांक्षी बन गया है कि भाभी के आंसुओं और ममता की परवा भी नहीं है तुझे. लगता है पदम आ जाएगा तो राम के अमेरिका जाने का सपना कहीं खटाई में न पड़ जाए.

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मुझ से शादी करोगी: सुजाता और सोमनाथजी की प्रेमकहानी

Serial Story: मुझ से शादी करोगी (भाग-3)

अब तक आप ने पढ़ा:

मीरा और सुजाता रोज पार्क में सैर करने जाती थीं. एक दिन मीरा की तबीयत खराब होने की वजह से वह सैर पर न आ सकी और सुजाता की मुलाकात सोमनाथजी से हो गई. धीरेधीरे सुजाता और सोमनाथजी एकदूसरे से खुल गए. पति कुणाल के बाद सुजाता की जिंदगी में आया खालीपन भी धीरेधीरे भरने लगा था. मगर इस रिश्ते को कोई नाम मिलने के आसार नजर नहीं आ रहे थे.

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गोवा जाने के लिए छोटी लग्जरी बस का इंतजाम किया गया था, जिस में कुल मिला कर जाने वालों की संख्या 12 थी. तय हुआ कि बस सुजाता के घर पर आ जाएगी और सोमनाथजी भी वहीं से बैठ जाएंगे.

सुबह के 7 बजे के करीब सोमनाथजी ने एक छोटे से ट्रौली बैग के साथ सुजाता के घर में प्रवेश किया.

‘‘अरे वाह, आज तो आप कमाल के लग रहे हैं… गजब की डैशिंग पर्सनैलिटी है आप की,’’ कह सुजाता उन्हें देखती ही रह गई.

औफव्हाइट टीशर्ट और ब्लू जींस में सोमनाथजी वाकई बहुत हैंडसम लग रहे थे. अपने आधे काले आधे सफेद बालों पर उन्होंने स्टाइलिश गौगल लगा रखा था.

‘‘सब आप की संगत का असर है,’’ सोमनाथजी ने मुसकराते हुए कहा.

बस में सुजाता ने सोमनाथजी का सभी से परिचय करवाया. कुछ देर में सोमनाथजी सभी से ऐसे घुलमिल गए जैसे वर्षों की पहचान हो. गोवा के इस सुहाने सफर ने दोनों के बीच की रहीसही हिचक को भी मिटा दिया. पूरे सफर के दौरान सोमनाथजी और सुजाता ने एकदूसरे का पूरा खयाल रखा. सुजाता यहां एक नए सोमनाथजी को देख रही थी.

हमेशा कहीं खोए और बुझेबुझे से रहने वाले सोमनाथजी इस ट्रिप के दौरान नदारद थे. उन की हाजिरजवाबी, सरल व्यवहार के सभी कायल हो चुके थे. सुजाता वाकई उन के लिए बहुत खुश थी. दोनों ने जैसे एकदूसरे की जिंदगी की कमी को पूरा कर दिया था.

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इधर मीरा भी अपनी दोस्त सुजाता के लिए बहुत खुश थी. सुजाता और सोमनाथजी की मस्ती भरी जुगलबंदी ने पूरे ट्रिप के दौरान सभी को हंसाहंसा कर लोटपोट कर दिया. 1 हफ्ते की इस आउटिंग से सुजाता बहुत ही फ्रैश फील रही थी. इस दौरान करीब रोज ही पलक से फोन पर उस की बात होती रही थी.

घर आने के बाद सुजाता ने अपनी मेड सर्वेंट संगीता के साथ मिल कर सब से पहले बंद पड़े घर की साफसफाई की. फिर उस ने पूरा दिन आराम किया.

समय के पंखों की उड़ान जारी थी. सुजाता और सोमनाथजी काफी सारा वक्त एकदूसरे के साथ बिताने लगे. एक अदृश्य भावनात्मक डोर से वे एकदूसरे के साथ बंधे जा रहे थे. इस रिश्ते में कहीं भी उथलापन नहीं था. बीचबीच में अखिलेश आ कर उन दोनों से मिलता रहता था. पापा को एक बार फिर से जिंदगी जीते देख वह बहुत खुश था.

सुजाता तो सोमनाथजी का साथ पा कर जैसे खिल उठी थी. जिंदगी से उसे कोई शिकायत पहले भी न थी, किंतु सोमनाथजी से मिल कर उस ने जाना कि कुणाल के जाने से उस के दिल का एक कोना तो जरूर सूना हो चुका था, जिसे सोमनाथजी के प्यार ने एक बार फिर से गुलजार कर दिया था.

एक सुबह सोमनाथजी को सैर पर न पा कर वह कुछ चिंतित हो उठी.

‘‘अरे, कोई काम आ गया होगा,’’ मीरा ने उसे समझाना चाहा.

‘‘अगर कोई काम होता तो वे मुझे फोन कर सकते थे,’’ वह बहुत ही तेजी से घर जा कर सारे काम जल्दीजल्दी निबटा कर सोमनाथजी के घर चल पड़ी.

वहां पहुंचते ही बाहर गेट पर ही उन की कामवाली सुजाता से उस की मुलाकात हो गई तो पूछा, ‘‘सोमनाथजी ठीक तो हैं’’

‘‘साहब तो बिलकुल ठीक हैं, पर उन की फ्रूटी नहीं रही.’’

‘‘क्या? क्या कह रही हो तुम?’’ सुजाता अविश्वास से चीख पड़ी, ‘‘अभी कल ही तो मैं उस से मिल कर उसे खिला कर गई थी.’’

‘‘हां, कल दोपहर को उसे किसी जहरीले सांप ने काट लिया. साहब अस्पताल भी ले कर गए, पर वह नहीं बच पाई,’’ बाई ने बताया.

‘‘उफ…’’ सुजाता के मुंह से निकला और फिर वह तेजी से अंदर चली गई.

हौल में सोमनाथजी सोफे पर बैठे उस कोने को निहार रहे थे, जहां फ्रूटी बैठा करती थी. सामने से आती सुजाता को देख कर उन की आंखें छलक उठीं और वे बच्चों की तरह बिलख पड़े, ‘‘फ्रूटी नहीं रही सुजाता. 12-13 साल का साथ छूट गया. अब कैसे जिऊंगा मैं.’’

सोमनाथजी की यह हालत देख कर सुजाता ने उन्हें सीने से लगा लिया. सांत्वना के सभी शब्द आज छोटे लग रहे थे. फ्रूटी के प्रति उन के अगाध प्रेम से विह अनजान नहीं थी.

‘‘आंटी, अब आप ही इन्हें समझाइए. कल रात से बच्चों की तरह रोए जा रहे हैं. न कुछ खाया न पिया. ऐसे तो अपनी तबीयत खराब कर लेंगे ये.’’ किचन से चाय की ट्रे लाते हुए अखिलेश ने कहा.

बहुत देर तक सुजाता सोमनाथजी को सांत्वना देती रही. फिर अखिलेश और उस ने जबरदस्ती उन्हें कुछ खिलाया और फिर सुला दिया.

‘‘आंटी मैं चला जाऊंगा तो पापा बिलकुल अकेले पड़ जाएंगे. पहले तो फ्रूटी से उन का मन लगा रहता था, मगर अब मुझे उन की बहुत चिंता हो रही है,’’ अखिलेश ने उदास स्वर में कहा.

‘‘तुम बिलकुल चिंता न करो, मैं हूं न इन के साथ,’’ सुजाता ने उसे तसल्ली देते हुए कहा.

लेकिन अखिलेश की चिंता निर्मूल नहीं थी. फ्रूटी की मौत के सदमे ने उन्हें अवसाद में ला दिया था. अकेलेपन के शिकार सोमनाथजी के लिए फ्रूटी एक साथ ही नहीं, बल्कि उन के जीने का सबब भी थी. जब तक सुजाता वहां होती, उन्हें कुछ तसल्ली रहती, पर उस के जाने के बाद वे फिर तनावग्रस्त हो जाते.

ऐसे में सुजाता उन्हें बिलकुल अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी. अत: उस ने सोमनाथजी को अपने घर शिफ्ट करने की ठान ली.

‘‘तू ने अच्छी तरह सोच लिया है… लोगों की नजरें और उन में तैरते प्रश्न. इतना आसान नहीं है. जितना तू समझ रही है,’’ मीरा ने उसे चेताते हुए कहा.

‘‘मैं ने निर्णय ले लिया है. जो होगा देखा जाएगा,’’ कहते हुए सुजाता ने अखिलेश को भी फोन कर अपने इस निर्णय के बारे में बता दिया.

सुन कर अखिलेश ने खुशी जाहिर की. सोमनाथजी के बहुत मना करने के बाद भी आखिर सुजाता जिद कर उन्हें अपने घर ले आई. उस की भावनात्मक सपोर्ट और उचित देखभाल से उन में जल्द की सकारात्मक बदलाव देखने को मिला.

तभी एक शाम पलक के आए फोन ने उसे तनिक चिंता में डाल दिया. समर को अपने औफिस के किसी काम से एक हफ्ते के लिए इंदौर आना था, तो पलक भी अगले हफ्ते भर समर के साथ इंदौर आने वाली थी.

अब न ही सुजाता सोमनाथजी से कुछ कह सकती थी और न ही पलक को घर आने से मना कर सकती थी. अजीब उलझन में फंस गई थी. उस ने सोमनाथजी से इस बाबत कोई बात नहीं की. वरना वे वापस अपने घर जाने की जिद पकड़ लेते. हलके तनाव में घिरी सुजाता ने यह फैसला हालफिलहाल वक्त पर ही छोड़ दिया.

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मगर सुजाता की निगाहों की बेचैनी व चिंता सोमनाथजी की आंखों से न छिप सकी.

उन्होंने सुजाता को सच बताने पर मजबूर कर दिया. तब उसे मजबूरन उन्हें बच्चों के आने की जानकारी देनी पड़ी. सुन कर सोमनाथजी ने बहुत ही प्यार से उसे समझाया कि देखो तुम ने मुझे तब सहारा दिया जब मुझे जरूरत थी. अब जबकि मैं पूरी तरह ठीक हो चुका हूं, तो मैं वादा करता हूं कि अपना पूरा ध्यान रखूंगा. अभी तुम खुश हो कर सिर्फ अपने बच्चों का स्वागत करो.’’

सुजाता ने जब यह कहा कि एक न एक दिन तो हमें अपने रिश्ते का सच बताना ही है तो अभी क्यों नहीं, तो इस पर सोमनाथजी ने कहा कि हर काम को करने का एक सही वक्त होता है और वह तभी किया जाए तो ही अच्छा रहता है.

बुधवार सुबह नौ बजे पलक की फ्लाइट लैंड करने वाली थी. सुजाता को बेसब्री से अपने बच्चों का इंतजार था. बच्चों की गाड़ी को गेट पर आया देख वह खुशी से झूम उठी. दोनों मांबेटी करीब 6 महीनों के बाद मिल रही थीं. सुजाता ने कस कर बेटी को गले से लगा लिया.

‘‘मम्मा कैसी हैं आप? बहुत अच्छा किया जो आप घूमने गईं…कैसा रहा आप का ट्रिप? मुझे वहां खींचे गए फोटो भी दिखाओ…मुझे मालूम है आप सभी ने मिल कर बहुत मस्ती की होगी,’’ पलक बहुत ऐक्साइटेड थी.

‘‘हांहां दिखाती हूं, पहले अंदर तो आओ,’’ सुजाता ने हंसते हुए कहा.

‘‘मम्मीजी कैसी हैं आप?’’ सुजाता के पैरों को छूते हुए समर ने पूछा.

‘‘बिलकुल ठीक हूं बेटा,’’ चायनाश्ता करने के बाद पलक बोली, ‘‘मम्मा गोवा के फोटो दिखाओ न.’’

‘‘ओके बाबा, यह ले अभी तो मोबाइल पर ही देख ले,’’ कहते हुए उस ने अपना मोबाइल पलक को पकड़ा दिया. पलक और समर फोटो देखने में व्यस्त हो गए और सुजाता उन के खानेपीने की तैयारी के लिए संगीता को निर्देश देने लगी.

‘‘मौम, ये अंकल कौन हैं? इन्हें पहले कभी नहीं देखा?’’ ज्यादातर फोटोज में सुजाता के पास खड़े सोमनाथजी को देखते हुए पलक ने पूछा.

‘‘बेटा ये सोमनाथजी हैं, पास ही अन्नपूर्णा कालोनी में रहते हैं. ये भी हमारे साथ ट्रिप पर गए थे.’’

पलक और भी कुछ पूछना चाहती थी, लेकिन तभी समर ने किसी काम के लिए उसे आवाज दी.

‘‘जी, आई,’’ कह कर वह उस वक्त तो चली गई. लेकिन उस की निगाहों में तैरते प्रश्न सुजाता की अनुभवी नजरों ने तुरंत ताड़ लिए.

रात को बिस्तर पर अपने साथ सोई बेटी के बालों में प्यार से उंगलियां फिराते हुए सुजाता सोचती रही कि वक्त आ गया है पलकको अपने व सोमनाथजी के रिश्ते की सचाई बताने का… मेरी बेटी है वह और उसे यह जानने का पूरा हक है. वैसे भी अगर यह सचाई उसे किसी और से पता चलती है, तो उसे बहुत बुरा लगेगा. लेकिन पलक को किस तरह बताए यह सुजाता की समझ में नहीं आ रहा था.

सुबह मौम को सैर के लिए गया देख कर पलक ने अपने लिए चाय बनाई. चाय पी कर सुजाता का इंतजार करने लगी. समर अपने औफिस के काम के लिए निकल चुका था. कुछ देर बाद मौम को उन्हीं अंकल के साथ आता देख वह कुछ आश्चर्य से भर उठी.

‘‘मेरा राजा बेटा जग गया… इन से मिलो ये वही सोमनाथ अंकल हैं, जिन के बारे में मैं ने तुम्हें कल बताया था.’’

‘‘जी, नमस्ते अंकल,’’ पलक ने कुछ उदास स्वर में कहा. शायद उन अंकल से मां का इतना खुला व्यवहार उसे अच्छा नहीं लगा.

सोमनाथ कुछ देर वहां बैठ कर लौट गए. उन्होंने अपनी ओर से बहुत सहज व्यवहार करने की कोशिश की, पलक की बेरुखी ने जैसे सारे माहौल को बोझिल बना दिया था.

‘‘पलक तुझ से कुछ जरूरी बात करनी है,’’ दोपहर के खाने के बाद सुजाता ने उसे अपने पास बैठाते हुए कहा.

‘‘हां मौम, बोलो न,’’ पलक ने कुछ ठंडे स्वर में कहा.

‘‘बेटा, तू तो जानती है, तेरे पापा के जाने के बाद भी मैं ने खुद को कभी अकेला नहीं महसूस किया. लेकिन तेरे सुसराल चले जाने के बाद मेरे जीवन में खालीपन सा आ गया है,’’ सुजाता ने गंभीर होते हुए कहा.

‘‘मैं जानती हूं मां. इसीलिए तो कहती हूं कि आप बाहर निकलो, घूमाफिरो, नएनए दोस्त बनाओ. कुछ सोशल ऐक्टिविटीज जौइन करो,’’ पलक ने मां की तकलीफ को समझते हुए ढेर सारे सुझाव दे डाले.

‘‘पिछले कुछ दिनों से सोमनाथ अंकल मेरे बहुत अच्छे दोस्त बन चुके हैं. गोवा के ट्रिप के दौरान हम ने एकदूसरे को और अच्छी तरह जानासमझा है. मुझे लगता है कि मैं उन के साथ बहुत खुश रहूंगी… तुम्हारा इस बारे में क्या खयाल है?’’ स्पष्ट रूप से अपनी बात रखने के बाद सुजाता ने इस मुद्दे पर बेटी की राय जाननी चाही.

‘‘यह आप क्या कह रही हैं मौम? यह सच है कि हम आज बहुत ही ऐडवांस स्टेज में जी रहे हैं और आप की किसी के साथ हुई दोस्ती पर भी मुझे कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन सोमनाथजी अंकल से आप का कोई मैच नहीं है. पहली बात तो यह कि वे बंगाली हैं, मीटमछली खाने वाले और हम ब्राह्मण, दूसरे वे उम्र में भी आप से काफी बड़े हैं. सोचो मां…मेरे ससुराल वालों को, समर को इस बारे में पता चलेगा तो वे सब क्या सोचेंगे,’’ पलक ने कुछ तेज स्वर में तैश के साथ कहा.

‘‘बेटा मेरी इस समय की स्थिति में उम्र का यह अंतर बहुत माने नहीं रखता. माने रखती है तो सिर्फ यह बात कि हमारी आपस में अंडरस्टैंडिंग कैसी है. उन के साथ रहते हुए मुझे उम्र का यह फासला कभी महसूस ही नहीं होता… मेरा यकीन करो, जितना मैं उन्हें जानती हूं, वे एक अच्छे और सच्चे इंसान हैं. मैं उन के साथ बेहद खुश रहूंगी,’’ सुजाता ने साफ शब्दों में पलक से अपने मन की बात कह डाली.

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‘‘मां मुझे आप की इस दोस्ती का कोई सुखद भविष्य नजर नहीं आ रहा है,’’ पलक जैसे अपनी मौम की मां ही बन बैठी. यह कह कर उस ने साफ इशारा दे दिया कि सुजाता और सोमनाथजी के रिश्ते पर उसे कड़ा ऐतराज है.

मां से नाराज पलक शाम होते ही कुछ देर के लिए मीरा आंटी के घर चली गई. वह जानना चाहती थी कि क्या मीरा आंटी को मौम की इस रिलेशनशिप के बारे में पता है और यदि पता है तो उन का इस पर क्या कहना है. बचपन से ही मीरा आंटी उन दोनों मांबेटी के बीच में छिटपुट विवादों को सुलझाती आईर् थीं.

पलक को घर आया देख मीरा बहुत खुश हुई. मारे खुशी के उस ने पलक को गले से लगा लिया, पर पलक की आंखों में आंसू देख उस का मन बहुत दुखी हुआ. पलक से पूरी बात सुनने के बाद तुरंत ही उस ने सब से पहले सुजाता को चुपचाप फोन कर के यह बता दिया कि पलक उस के पास है. और वह समर को भी फोन कर औफिस से सीधे अपने घर बुला लेगी. वह परेशान न हो.

समर औफिस से सीधे मीरा के घर आ गया. पलक का उतरा चेहरा देख उसे बड़ी हैरानी हुई. पूछा, ‘‘क्या हुआ तुम इतनी दुखी क्यों लग रही हो?’’

‘‘बैठो बेटा. मैं आप को पूरी बात समझाती हूं,’’ समर को आया देख मीरा ने प्यार से कहा.

उसे चायनाश्ता करवा कर मीरा ने पलक की परेशानी समर से साझा की और यह भी बताया कि इस बारे में वह पहले से जानती है तथा उस ने सोमनाथजी को पूरी तरह परखा है. सुजाता का यह बिलकुल सही चुनाव है.

पूरी बात समझने के बाद समर ने पलक की ओर देखा मानो जानना चाहता हो कि इस सब में उसे परेशानी कहां आ रही है.

पलक ने कहा, ‘‘मुझे मौम की दूसरी शादी से कोई ऐतराज नहीं है. मैं जानती हूं कि मेरे जाने के बाद वे बिलकुल अकेली हो चुकी हैं, पर हमें उन दोनों की उम्र का अंतर भी देखना चाहिए. मुझे लगता है उन अंकल ने मेरी मौम को बहकाया है.’’

पलक की परेशानी समझ समर जोर से हंस पड़ा, ‘‘अरे वे तुम्हारी मौम हैं कोई छोटी बच्ची नहीं, जो किसी की बातों में आ जाएंगी. उन्होंने हम से ज्यादा दुनिया देखी हैं. वे इंसान को पहचानने का हुनर हम से ज्यादा रखती हैं. तुम क्यों चिंता करती हो… और फिर देखा जाए तो यह अच्छा ही है… हमतुम उन के साथ हर पल तो नहीं रह सकते… वैसे भी इतनी बड़ी जिंदगी अकेले काटना कोई समझदारी नहीं है. फिर तुम्हें भी तो हर वक्त मौम की चिंता लगी रहती है. फिर परेशानी क्या है. इस मुकाम पर उम्र का अंतर बहुत ज्यादा माने नहीं रखता है. चलो तुम्हारी शंका के निवारण के लिए मैं भी उन अंकलजी से मिल लूंगा,’’ समर ने उसे समझाते हुए कहा.

पलक उस समय तो ऊपरी तौर पर चुप रही पर अभी भी अंदर ही अंदर वह इस रिश्ते से नाखुश थी.

थोड़ी देर बाद डोरबैल बजी. ‘‘शायद मां होंगी. मैं उन्हें बिना बताए आ गई थी,’’ पलक ने उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, तुम बैठो. मैं देखती हूं,’’ कहते हुए मीरा ने उठ कर दरवाजा खोला, ‘‘आओआओ, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी,’’ अखिलेश को देखते ही मीरा के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आ गए. मीरा ने अखिलेश से समर और पलक का परिचय करवाया तभी मीरा के पति भी आ गए.

‘‘दोस्तो, मीरा ने सभी को संबोधित करते हुए कहा,’’ सुजाता मेरी सब से प्यारी सहेली है. पलक के पापा के जाने के बाद उस ने किसी को अपना दुख महसूस नहीं होने दिया. यहां तक की पलक को भी नहीं. लेकिन मैं उस दुख और तकलीफ की स्वयं साक्षी हूं, जो सुजाता ने उठाए हैं. कुणाल के जाने के बाद पहली बार किसी ने सुजाता के दिल पर मरहम रखा, उस के दिल को छुआ. बिना स्वार्थ व लालच के उस से दोस्ती की, उसे निभाया और उस का खयाल रखा. दूसरी ओर सुजाता ने भी सोमनाथजी के जीवन का अकेलापन दूर कर उन्हें जिंदगी से एक बार फिर मिलवाया. जिंदगी के हर पल को जीना सिखाया,’’ कहतेकहते मीरा थोड़ी भावुक हो उठी.

‘‘मेरा मानना है कि किसी भी रिश्ते को निभाने के लिए प्रेम, समर्पण और विश्वास का होना जरूरी है, जोकि सुजाता और सोमनाथजी में एकदूसरे के लिए बहुत है. मैं ने अखिलेश को भी यहां इसीलिए बुलाया है कि दोनों के बच्चे आज अपने मातापिता के लिए फैसला लें और उन्हें इस विवाह के लिए राजी करें, क्योंकि वे शायद आप से इस बाबत कभी कह न पाएं. वे एकदूसरे को चाहते रहेंगे, एकदूसरे के साथ रहेंगे, पर शायद विवाह के लिए उम्र में इतनी आसानी से न मानें. इसीलिए मैं उन की भावनाओं को आप सभी के समक्ष रख रही हूं,’’ कह मीरा चुप हो गई.

‘‘मैं आंटीजी की बात से पूरी तरह सहमत हूं…’’ मैं मम्मीजी को इस शादी के लिए राजी करूंगा,’’ समर ने उठ कर तालियां बजाते हुए कहा.

‘‘मैं भी अपने पापा और होने वाली मां के लिए बहुत खुश हूं. मुझे विश्वास है कि मैं भी अपने पापा को मना लूंगा,’’ अखिलेश ने समर से हाथ मिलाते हुए कहा.

पलक ने भी उठ कर आखिर अपनी मौन स्वीकृति दे दी. फिर तय किया गया कि दोनों की कौर्ट मैरिज करवाई जाएगी और फिर कुछ दोस्तों को बुला कर छोटी सी पार्टी दे दी जाएगी.

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उधर सुजाता मन ही मन बहुत दुखी थी कि यह उस ने क्या किया, कितने दिनों बाद पलक घर आई और उस ने उसे दुखी कर दिया. आखिर उस ने पलक के सामने यह बात छेड़ी ही क्यों? वह पलक को दुखी कर के कोई निर्णय नहीं लेना चाहती थी, आखिर पलक उस की इकलौती बेटी थी. पर दूसरी तरफ वह सोमनाथजी को भी दुखी नहीं करना चाहती थी. वह बड़ी दुविधा में थी. 11 बजने को थे. बच्चे अभी तक घर नहीं आए थे. वह सोचने लगी कि मीरा के घर आखिर क्या चल रहा है. पलक के जिद व गुस्से को भी वह अच्छी तरह जानती थी.

तभी बैल बजी. घबराई सुजाता ने जल्दी से दरवाजा खोला तो अखिलेश, समर, पलक खड़े नजर आए. उसे कुछ समझ नहीं आया. तभी उन के पीछे से निकलते हुए सोमनाथजी को मुसकराता देख सुजाता स्तब्ध रह गई.

तभी समर ने उसे बांहों से थाम कर सोफे पर बैठाते हुए कहा, ‘‘मां, अब जब हमें पता चल ही गया है कि आप और सोमनाथजी अंकल एकदूसरे को चाहते हैं, तो कृपया समय की बरबादी न करते हुए दोनों की भलाई इसी में है कि शादी के लिए हां कह दें.’’

वातावरण को सहज बनाने के लिए एक मनोरंजक अंदाज में समर द्वारा सुजाता को मनाने का यह तरीका देख सब हंस पड़े.

‘‘हां आंटी, देखिए न मैं ने भी अपने पापा को मना लिया है. अब आप दोनों मिल कर अपने जीवन की नई शुरुआत कीजिए,’’ कहते हुए अखिलेश ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए.

यह सुन कर सुजाता ने पलक की ओर देखा. ‘‘वैसे तो मैं आप का प्यार किसी के साथ बांटना नहीं चाहती, लेकिन सिर्फ आप की खुशी के लिए मुझे आप दोनों की शादी मंजूर है मां. आप दोनों का प्यार और साथ हमेशा बना रहे, मैं यह कामना करती हूं,’’ कह कर पलक ने दोनों का हाथ पकड़ कर एकदूसरे के सामने खड़ा कर दिया.

तभी सुजाता के सामने खड़े सोमनाथजी ने उस की आंखों में देख कर बड़ी अदा से झुकते हुए पूछा, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

सभी का सम्मिलित स्वर ठहाके के रूप में कमरे में गूंज उठा और सुजाता लजा कर सोमनाथजी के सीने से लग गई.

Serial Story: मुझ से शादी करोगी (भाग-1)

सुजाता की हंसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. मीरा ने उसे सचेत किया. सुबह की सैर कर रहे सभी लोगों की निगाहें उसी पर आ कर टिक गईं. कितना विचित्र था, पर 50 वसंत पार कर चुकी सुजाता आज भी लाइफ को मस्त, बेपरवाह, जिंदादिली से जीती थी. लेकिन कभीकभी उस का यही बिंदासपन किसी सार्वजनिक जगह पर लोगों के बीच आकर्षण का केंद्र भी बन जाता था. ऐसा ही उस दिन सुबह हुआ था.

रोज की तरह सुबह सैर पर निकली दोनों सखियां अपनी ही किसी बात पर खिलखिला कर हंस पड़ी थीं. मीरा ने तो जल्द ही अपनी हंसी को काबू कर लिया पर आदत से मजबूर सुजाता अपनी हंसी को रोक नहीं पा रही थी.

मिनी मुंबई बन चुके इंदौर के सुदामानगर स्थित गोपुर चौराहे से राजेंद्र नगर की ओर जाने वाले रिंग रोड पर सुबह की सैर के लिए लोगों का मेला सा लग जाता है. पास में आईडीए की कालोनी अभी पूरी तरह खाली है, पर उस की पहले से बन चुकी शानदार सड़कें फिलहाल लोगों के सुबहशाम टहलने या बच्चों के क्रिकेट खेलने के काम ही आती हैं.

वहीं पास ही वैशाली कालोनी में सुजाता का खूबसूरत घर है. पति आर्मी से रिटायर थे. 2 साल पहले ही एक सड़क हादसे में गुजर चुके थे.

कुणाल एक निडर, निर्भीक व साहसी इंसान थे, जिन के साथ सुजाता ने खुशहाल जिंदगी जी थी. उन के साथ बेखौफ जीवन जीने वाली सुजाता उन के जाने के बाद नियति को बड़ी ही सहजता से स्वीकार कर आगे बढ़ चली थी. उस के लिए शायद यही कुणाल को दी जाने वाली सच्ची श्रद्धांजलि थी.

करीब 6 महीने पहले सुजाता ने अपनी इकलौती बेटी पलक की शादी बहुत ही धूमधाम से पुणे में सौफ्टवेयर इंजीनियर समर से की थी. समर बहुत ही प्रतिभाशाली और खुशमिजाज युवक था. शुरू से अनुशासित जिंदगी की पक्षधर सुजाता अपने बेहतर खानपान और नियमित व्यायाम करने के कारण वास्तविक उम्र से बहुत कम उम्र की दिखाई देती थी.

उस दिन मीरा की तबीयत ठीक न होने पर सुजाता अकेले ही सैर पर आई. उस की चाल में रोज की अपेक्षा कुछ तेजी थी. अपनी सैर पूरी कर वह घर जाने के लिए मोड़ पर आई ही थी कि अचानक एक कुत्ता दौड़ता आता दिखा. जब तक वह उस के रास्ते से हटती वह उस के ऊपर से छलांग लगा कर आगे निकल चुका था.

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सुजाता ने संभलने की बहुत कोशिश की, पर गिर गई. आसपास से जा रहे लोग उस के पास जमा हो गए. एक भद्र महिला ने उस की उठने में मदद की. तभी उसी कुत्ते को पकड़े एक 60-65 वर्षीय सज्जन उस के पास आ कर उस से माफी मांगते हुए बोले, ‘‘मैं फ्रूटी की इस हरकत पर बहुत शर्मिंदा हूं. आमतौर पर यह बहुत ही शांत स्वभाव की है, पर पता नहीं आज इसे क्या हो गया… आप को ज्यादा तो नहीं लगी?’’

‘‘नहीं, कोई बात नहीं. मैं बिलकुल ठीक हूं,’’ अपनी कुहनी पर लगी खरोंच को साफ करते हुए सुजाता ने कहा.

‘‘लीजिए इस से साफ कर लीजिए,’’ सफेद कुरतापाजामा पहने उन सज्जन ने एक रूमाल आगे करते हुए कहा.

उन दोनों को आपस में रजामंद देख लोग अपने रास्ते चल दिए. रूमाल ले कर सुजाता अपने कपड़ों को साफ करने लगी. फिर वे सज्जन उस से बात करते हुए उस के साथ ही चलने लगे.

‘‘मेरा नाम सोमनाथ है. आप?’’ सोमनाथजी ने प्रश्नवाचक निगाहों से सुजाता की तरफ देखा.

‘‘जी, मैं सुजाता, थैंक्स…’’ कह कर सुजाता ने उन का रूमाल उन्हें पकड़ा दिया. फिर कुछ देर बाद ही उस का घर आ गया.

‘‘ओके, फिर मिलते हैं,’’ कह कर सुजाता अपने घर की तरफ मुड़ी ही थी कि ऐक्सक्यूज

मी की आवाज ने उसे मुड़ कर देखने को मजबूर कर दिया.

‘‘जी?’’ कह सोमनाथ पर उस ने एक प्रश्नवाचक नजर डाली.

‘‘क्या 1 गिलास पानी मिलेगा?’’ सोमनाथजी के पूछने के अंदाज पर सुजाता को हंसी आ गई.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. आइए न,’’ ताला खोलते हुए सुजाता बोली.

फू्रटी को वहीं गेट पर बांध कर सोमनाथ घर के भीतर आ गए. जब तक सुजाता पानी ले कर आई तब तक उन्होंने पूरे कमरे का मुआयना कर लिया. खूबसूरत कमरे में बहुत ही करीने से लगी हर चीज घर के मालिक के शौक व सुगढ़ता को बयां कर रही थी.

‘‘लीजिए… बैठिए न, सुजाता सोमनाथ के सामने पानी की ट्रे लिए खड़ी थी.’’

‘‘थैंक्स, वाकई बहुत प्यास लगी थी,’’ एक ही सांस में सोमनाथजी ने गिलास खाली कर दिया.

‘‘आप के पति व बच्चे नजर नहीं आ रहे?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘मेरे पति अब इस दुनिया में नहीं हैं. 1 बेटी है, जिस की शादी हो चुकी है.’’

‘‘उफ, माफ कीजिएगा मुझे मालूम नहीं था,’’ सोमनाथजी ने बेहद कोमल स्वर में कहा.

‘‘इस में माफी मांगने की क्या बात है? जो होना होता है वह हो कर ही रहता है. कृपया आप शर्मिंदा न हों,’’ सुजाता ने संजीदगी से कहा.

सुजाता के पूछने पर सोमनाथजी ने अपने बारे में बताया कि वे तलाकशुदा हैं. पत्नी से तलाक के बाद वे अपना घर छोड़ कर अन्नपूर्णा कालोनी में ही किराए पर रह रहे हैं. 1 बेटा है, जो शादीशुदा है और अपनी पत्नी व बच्चों के साथ उन की पत्नी यानी अपनी मां के साथ मालवीय नगर में बने उन के अपने घर में रह रहा है.

सोमनाथजी के चले जाने पर सुजाता कुछ देर तक उन के बारे में सोचती रही. कितना शांत व सौम्य व्यक्तित्व है, लेकिन उन आंखों में कितना खालीपन और नीरसता समाई है. कहने को तो मुझ से बातें करते रहे, लेकिन आंखों की खामोशी बरकरार रही. हुंह, मुझे क्या करना… सब की अपनीअपनी कहानी है सोच कर वह अपने रोजमर्रा के काम में लग गई. वैसे भी उदास  हो कर बैठ जाना उस की फितरत में नहीं था.

दूसरे दिन सैर के लिए निकली सुजाता की निगाहें किसी को ढूंढ़ रही थीं. तभी सामने से सोमनाथजी को आता देख उस की आंखों में चमक आ गई. बोली, ‘‘गुडमौर्निंग सोमनाथजी.’’

‘‘वैरी गुडमौर्निंग सुजाताजी.’’

‘‘आज आप की फ्रूटी नहीं आई?’’

‘‘आज उसे पहले घुमा दिया है. कल उस ने आप को बहुत परेशान किया था न,’’ सोमनाथजी ने शांत भाव से कहा.

‘‘अरे, ऐसा करने की क्या जरूरत थी. मेरा मतलब है मुझे उस से कोई दिक्कत नहीं है. सुजाता ने हंसते हुए कहा.’’

‘‘आप की सहेली आज भी नहीं आईं?’’

‘‘हां, शायद कल से आ जाए. वैसे आप को कैसे पता मेरे साथ मेरी सहेली भी आती है?’’ सुजाता ने घोर आश्चर्य से पूछा.

‘‘आप दोनों को रोज एकसाथ घूमते देखता हूं, इसलिए पूछा.’’

‘‘पर मैं ने तो आप को कल पहली बार देखा,’’ सुजाता मुसकराई.

‘‘आप अपनी बातों में ही इतनी मस्त रहती हैं कि आप को पता ही नहीं चलता कि आप के आसपास और कौन है?’’

‘‘माफ कीजिएगा… मैं बस ऐसी ही हूं. मस्त और बेपरवाह… शायद मुझ में यह बहुत बड़ी कमी है, पर क्या करूं, मैं ज्यादा देर तक सीरियस नहीं रह सकती,’’ सुजाता ने कुछ गंभीर स्वर में कहा.

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‘‘अरे, आप तो बुरा मान गईं. मेरी बात का यह मतलब हरगिज नहीं था. प्लीज, मुझे माफ कर दीजिए,’’ सोमनाथजी ने बेचारगी से कहा.

‘‘लगता है हम दोनों एकदूसरे से सिर्फ माफी ही मांगते रहेंगे,’’ कह कर सुजाता फिर जोर से हंस पड़ी.

इधर कुछ पारिवारिक उलझनों की वजह से मीरा हफ्ता भर सुबह की सैर पर नहीं आ सकी. तब तक सुजाता और सोमनाथ अच्छे दोस्त बन चुके थे. हालांकि दोनों के व्यक्तित्व एकदूसरे से बिलकुल मेल नहीं खाते थे. जहां एक ओर सुजाता मिलनसार, बातूनी और खुशमिजाज स्वभाव की थी, वहीं दूसरी ओर सोमनाथ कुछ अंतर्मुखी और गंभीर व्यक्तित्व के इंसान थे. फिर भी दोनों को एकदूसरे का साथ पसंद था.

लगभग 1 हफ्ते बाद सुजाता ने साथ आई मीरा से सोमनाथजी का परिचय

करवाया. पर मीरा के साथ सैर करते हुए दोनों ही कुछ असहज फील कर रहे थे.

उस दिन मीरा सैर पर से सीधे सुजाता के साथ उस के घर आ गई. सुजाता चाय बनाने लगी और मीरा उस के साथ किचन में आ कर वहीं किचन स्टैंड पर बैठ गई. फिर बोली, ‘‘ये सब क्या चल रहा है सुजाता?’’

‘‘मतलब? मैं समझी नहीं?’’

‘‘तू अच्छी तरह जानती है मैं क्या और किस के बारे में पूछ रही हूं,’’ मीरा ने कुछ जोर दे कर कहा.

‘‘अच्छा… तू मेरे और सोमनाथजी के बारे में जानना चाहती है तो सुन,’’ फिर कुछ रुक कर सुजाता बोली, ‘‘सोमनाथजी मेरे अच्छे दोस्त हैं. उन से मिलना, बात करना मुझे अच्छा लगता है. अब तो हो गया न तेरी शंका का समाधान?’’ सुजाता ने अपने चिरपरिचित अंदाज में पूछा.

‘‘नहीं, बल्कि मेरा प्रश्न यहां से शुरू हो रहा  है. आगे क्या?’’ मीरा ने चिंता जताते हुए कहा.

‘‘पता नहीं मीरा, पर उस इंसान में कुछ बात तो है, जो उसे दूसरों से अलग करती है. आगे की आगे देखी जाएगी. तू चिंता मत कर, जिंदगी का प्रवाह जिस ओर ले जाए गिला नहीं,’’ सुजाता ने मीरा को तसल्ली देनी चाही.

‘‘सब कुछ ठीक है, पर तू जो भी करे, पलक को ध्यान में रखते हुए करना,’’ मीरा ने उसे आगाह किया.

‘‘बिलकुल,’’ सुजाता ने मीरा को आश्वस्त किया.

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Serial Story: मुझ से शादी करोगी (भाग-2)

मीरा के जाते ही सुजाता सोच में पड़ गई कि सही तो कह रही है मीरा, वह उसे प्यार करती है और उस की सच्ची हमदर्द है… अब सच्चे रिश्तों के नाम पर 2-4 नामों की ही मौजूदगी उस की जिंदगी में दर्ज है. दरअसल, कुणाल के जाने के बाद उस से जुड़े सभी रिश्तों की असलियत उस के सामने बेपरदा हो चुकी थी. कुणाल के सामने कभी उस की जीहुजूरी करने वाले रिश्तेदार उस के जाने के बाद अपने फायदे के लिए साजिश रचने वाले पुतले बन चुके थे. यहां तक कि उस की संपत्ति हथियाने के लिए दोनों मांबेटी की जान के दुश्मन तक बन गए थे.

यह तो गनीमत थी कि दामाद के रूप में उसे समर जैसा बहुत ही होनहार व लायक लड़का मिल गया था, जो उसे अपनी मां के समान ही स्नेह और आदर देता था. पलक को उसे जीवनसंगिनी के रूप में सौंप कर वह भी निश्चिंत हो गईर् थी. हां, पलक के ससुराल जाने के बाद उस की जिंदगी में एक खालीपन सा जरूर आ गया था. एक मीरा ही थी, जो उसे समझती थी. वैसे तो अपनी सोशल लाइफ में वह बहुतों से जुड़ी थी, पर सब के चेहरों पर लगे मुखौटों को भी वह अच्छी तरह पहचानती थी.

हां, सोमनाथजी की आंखों में सुजाता ने ईमानदारी की झलक अवश्य देखी थी, परंतु वह उन्हें अभी जानती ही कितना थी. उन से मिले कुल 1 हफ्ता ही तो हुआ था. लेकिन न जाने फिर भी क्यों उन की बातों पर विश्वास करने को जी चाहता था. उन का साथ, उन की बातें सुजाता को दिली सुकून देती थीं. उन से अपने दिल की बातें कह कर उस का मन हलका हो जाता था.

‘‘अगले हफ्ते हम सभी गोवा जाने का प्लान कर रहे हैं. तुम साथ आना चाहेगी.’’ एक सुबह मीरा ने सुजाता से पूछा.

‘‘पर मैं वहां अकेली क्या करूंगी? तुम सभी तो अपनेअपने पतियों के साथ रोमांटिक डेट पर बिजी हो जाओगे?’’ सुजाता ने पीछा छुड़ाने की गरज से कहा.

‘‘तो तुम भी अपने दोस्त सोमनाथजी के साथ एक डेट पर क्यों नहीं चल देतीं? उन्हें भी साथ ले लो,’’ मीरा ने उसे छेड़ते हुए कहा.

‘‘अरे वाह, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं,’’ घूमने की शौकीन सुजाता ने झट से हां कह दी.

जब तक कुणाल था, सुजाता साल में 2 बार कहीं बाहर घूमने जरूर जाती थी, पर कुणाल के जाने के बाद यह सिलसिला बंद हो चुका था. लेकिन चूंकि चलती का नाम जिंदगी है अत: घर के अकेलेपन से दूर कुछ दिनों के लिए ही सही वह सोमनाथजी के साथ गोवा जाना चाहती थी. घर के सभी काम निबटाने के बाद उस ने सोमनाथजी के मोबाइल पर कौल की.

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‘‘अरे नहींनहीं, मैं वहां जा कर क्या करूंगा? वैसे भी मैं आप के किसी दोस्त को नहीं जानता और फिर फ्रूटी की भी समस्या है, उसे कौन रखेगा?’’ सुजाता के पूछते ही सोमनाथजी ने साफ मना कर दिया.

‘‘उफ, न जाने कितने बहाने हैं आप के पास… यकीन मानिए मेरे दोस्तों से मिल कर आप बिलकुल भी बोर नहीं होंगे और रही फू्रटी की बात तो उसे हम डौगहाउस में छोड़ देंगे,’’ सुजाता ने कहा.

उसी दिन शाम को सुजाता लोगों से पता पूछतेपूछते सोमनाथजी के घर जा पहुंची.

‘‘अरे, आप? यहां?’’ दरवाजे पर खड़ी सुजाता को देख कर सोमनाथ आश्चर्य से भर गए.

‘‘अंदर आने को नहीं कहेंगे?’’ सुजाता के बोलने के अंदाज पर सोमनाथजी को हंसी आ गई.

‘‘आइएआइए, स्वागत है,’’ दरवाजे से एक तरफ हटते हुए सोमनाथजी ने कहा.

‘‘अरे वाह, आप का घर तो बहुत प्यारा है,’’ पूरे कमरे में निगाहें दौड़ाती हुई सुजाता हौल में रखे दीवान पर जा विराजी.

‘‘घर तो घर वालों से होता है. यह तो सिर्फ एक मकान है,’’ सोमनाथजी के भीतर की कराह ने जैसे सुजाता के दिल पर दस्तक की.

‘‘सच में आप का घर बहुत व्यवस्थित है. लगता ही नहीं कि आप यहां अकेले रहते हैं,’’ सुजाता ने बात बदलने के लिए कहा.

‘‘इस का क्रैडिट तो मेरी कामवाली को जाता है. दरअसल, वही आ कर सारी साफसफाई कर देती है. दोपहर का खाना भी बना जाती है. हां, फ्रूटी की देखभाल मुझे ही करनी पड़ती है,’’ सोमनाथजी को तुरंत अपनी गलती का भान हुआ कि उन्हें सुजाता के सामने इस तरह से अपनी दीनता जाहिर नहीं करनी चाहिए.

‘‘अरे हां, मैं फ्रूटी के बारे में पूछने ही वाली थी. कहां है वह?’’ सुजाता ने पूछा ही था कि फ्रूटी बाहर से आती दिखाई दी. सुजाता को वहां बैठे देख दौड़ कर खुशी से उस के इर्दगिर्द चक्कर काटने लगी. उस के पीछे लगभग 30 साल के एक सुदर्शन युवक ने भी हौल में प्रवेश किया.

‘‘ओ हाय… मेरी प्यारी फ्रूटी,’’ कह कर सुजाता ने उसे पुचकारा.

‘‘ये हैं मेरी मित्र सुजाता और सुजाताजी यह है मेरा बेटा अखिलेश,’’ आगंतुक से सुजाता का परिचय करवाते हुए सोमनाथजी ने कहा.

‘‘हैलो आंटी,’’ कहते हुए अखिलेश ने सुजाता के पैर छुए.

‘‘खुश रहो बेटा, बैठो,’’ सुजाता ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘पापा, आज तो फ्रूटी बहुत जल्दी थक गई,’’ अखिलेश ने फ्रूटी को प्यार करते हुए कहा.

‘‘हां, वह भी अब बूढ़ी हो चली है. पता नहीं कब तक साथ निभाएगी,’’ कहते हुए सोमनाथजी की आंखें छलछला उठीं, ‘‘अब तो हम दोनों के जीवन की सांझ हो चली है,’’ न चाहते हुए भी सोमनाथजी का स्वर प्रवाह में बह चला था.

‘‘उफ, मैं तो आज आप के हाथों की गरमगरम चाय पीने आई थी, लेकिन आप ने तो पानी तक न पूछा और लगे फिलौसफी झाड़ने,’’ सुजाता ने शिकायती लहजे में कहा.

‘‘माफ कीजिएगा, बस अभी हाजिर हुआ,’’ कहते हुए सोमनाथजी ने किचन की ओर रुख किया.

सोमनाथजी के चाय बनाने तक सुजाता उन के बेटे से बातें करती रही. अखिलेश ने उसे मम्मी और पापा के रिश्तों की हकीकत से रूबरू करवाया. उस ने बताया, ‘‘एक रईस बाप की इकलौती बिगड़ैल संतान से शादी कर पापा ने न जाने कितनी तकलीफें झेलीं. मम्मी का ईगो हमेशा पापा के पौरुष को चुनौती देता रहा, पर पापा ने मेरी खातिर हमेशा झुकना स्वीकार किया और फिर मेरी शादी होते ही उन्होंने अपनी अलग राह चुन ली. मम्मी का स्वभाव आज भी वैसा है, पर पापा के समझाने पर ही मैं ने उन के साथ रहना स्वीकार किया. वे नहीं चाहते हैं कि इस उम्र में मम्मी अकेलेपन का दंश झेलें.

‘‘लेकिन मुझे पापा की बहुत फिक्र होती है. वे तो अपनी बात भी किसी के सामने नहीं कह पाते. आज उन्होंने मुझे बुला कर पहली बार

आप के बारे में बताया और यह भी कहा कि

आप उन्हें अपने साथ गोवा ले जाना चाहती हैं. आंटी, आप हमारी ओर से बिलकुल निश्चिंत रहे, मैं बस अपने पापा को खुश देखना चाहता हूं. आप उन्हें न सिर्फ अपने साथ ले जाएं, बल्कि जिंदगी से दोबारा उन का परिचय भी करवाएं. हमें कोई आपत्ति नहीं है,’’ अखिलेश ने भावुक होते हुए कहा.

‘‘तुम चिंता मत करो. ऐसा ही होगा.’’

आज सुजाता को सोमनाथजी की सूनी आंखों का दर्द समझ आ रहा था. एक ऐसा व्यक्ति जो जिंदगी भर प्यार दे कर अपने लिए नफरत खरीदता रहा. कैसी होगी वह पत्नी जो इतने अच्छे इंसान को नीचा दिखाती रही. सोमनाथ की पीड़ा से साक्षात्कार होते ही उस ने मन ही मन कुछ ठान लिया.

‘‘कल सुबह 11 बजे हम बाजार चलेंगे, आप के लिए कुछ कपड़े लेने,’’ चाय की चुसकियां लेते हुए सुजाता ने कहा.

‘‘लेकिन मेरे पास बहुत कपड़े हैं,’’ सोमनाथजी ने कहना चाहा.

‘‘कपड़े नहीं सिर्फ कुरतेपाजामे हैं, जब देखो उन्हें ही पहने दिखाई देते हैं. गोवा जाने से पहले आप का मेकओवर भी करना होगा,’’ कहते हुए सुजाता ने अखिलेश की ओर देखा.

‘‘जी आंटी, सही कह रही हैं आप, पापा आप फ्रूटी की चिंता भी मत कीजिए, उसे मैं संभाल लूंगा,’’ कहते हुए अखिलेश ने एक विजयी मुसकान सुजाता पर डाली.

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दूसरे दिन नियत समय पर मार्केट जाने के लिए दोनों गोपुर चौराहे से सिटी बस में सवार हुए, सारा दिन खूब घूमघूम कर सुजाता ने सोमनाथजी के लिए ढेर सारे कपड़ों की शौपिंग की. सुजाता को जींस खरीदते देख तो सोमनाथ वाकई हक्केबक्के रह गए, पर सुजाता की जिद के आगे उन की एक न चली. सोमनाथजी ने सुजाता को भी अपनी ओर से एक प्यारा सा पर्स दिलाया.

शौपिंग खत्म होतेहोते उन्हें जोर की भूख लगने लगी. पास ही के एक रेस्तरां में दोनों ने खाने का और्डर दे दिया. लौटते समय शाम का धुंधलका होने लगा था. इस वक्त बसों में अमूमन बहुत भीड़ हो जाती है, क्योंकि यह वक्त औफिस से लौटने वालों का होता है. सोमनाथजी के टैक्सी के लिए कहने पर भी सुजाता ने साफ मना कर दिया और सामने लगी बस में चढ़ गई. बस के अंदर लेडीज सीटें भी भरी थीं. अत: वे दोनों बीच में ही खड़े हो गए.

‘‘आंटीजी आप यहां बैठ जाइए,’’ कहते हुए एक लड़के ने सुजाता को अपनी सीट औफर कर दी.

‘‘थैंक यू बेटा,’’ कह कर सुजाता सीट पर बैठ तो गई पर भारी भीड़ में आदमियों के बीच बैठी बहुत ही असहज फील कर रही थी. लेकिन सोमनाथजी ने उस की सीट के पास खड़े हो कर अपने हाथों से उस के आसपास मानो एक सुरक्षाकवच बना दिया. उन बांहों के साए में सुजाता अब अपनेआप को बहुत सुरक्षित महसूस कर रही थी.

लगभग 8 बजे दोनों घर लौटे. सुजाता को उस के घर छोड़ कर सोमनाथजी पैदल ही अपने घर चल पड़े. वर्षों बाद आज उन का मन उल्लास से भरा था. उन के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी.

सुजाता गोवा जाने की तैयारी में व्यस्त थी. इसी बीच पलक का फोन आया, ‘‘हाय मौम, क्या हो रहा है?’’

‘‘बेटा गोवा जाने की तैयारी कर रही हूं. तुम बताओ तुम कैसी हो? समर कैसा है?’’

‘‘हम दोनों ही ठीक हैं. आप बताओ किस के साथ जाने की प्लानिंग है आप की?’’ पलक ने बेसब्री से पूछा.

‘‘तुम्हारी मीरा आंटी और हमारा पूरा ग्रुप,’’ सुजाता ने जानबूझ कर सोमनाथजी का नाम नहीं लिया. वह सामने बैठ कर ही पलक को इस बारे में सब कुछ बताना चाहती थी. काफी देर तक बेटी से बातें करने के बाद सुजाता फिर से तैयारी में व्यस्त हो गई.

आगे पढ़ें-सुबह के 7 बजे के करीब सोमनाथजी ने…

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अपने अपने शिखर: जुड़वां बहनों की बदलती किस्मत की कहानी

Serial Story: अपने अपने शिखर (भाग-4)

पिछला भाग- अपने अपने शिखर: भाग-3

‘‘डाक्टर, इंसान कर्तव्य के प्रति कितना भी कठोर हो, लेकिन कभीकभी वह अपने मन की करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए. कभी दिल के किसी कोमल भाव के कारण और कभी स्वार्थवश. मैं ने वह काम भावुकता में किया था और अपने स्वार्थ के लिए भी. वह राज मैं ने दिल में छिपाए रखा. लेकिन जब तक बहुत मजबूरी न हो तो कोई भी इंसान किसी गहरे राज को ले कर मरना नहीं चाहता. किसी को तो बताने का मन करता ही है. अभी तक मैं ने उस बात का जिक्र किसी से नहीं किया था, लेकिन डाक्टर आप ने बात छेड़ी है तो आज मैं आप को बताना चाहती हूं. आप का नेचर मुझे बहुत अच्छा लगता है इसलिए. हालांकि उस बात से अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. बहुत साल हो गए, पता नहीं कौन कहां होगा. फिर भी मैं आप से एक वादा चाहूंगी कि उस घटना को आप एक डाक्टर की हैसियत से नहीं, एक खुले दिल के इंसान के रूप में सुनें.’’

‘‘वादा,’’ साखी ने अपना दाहिना हाथ मेट्रेन मारिया की ओर बढ़ाया.

मेट्रेन मारिया ने साखी का हाथ अपने दोनों हाथों में थाम लिया और कहा, ‘‘मैं रावनवाड़ा के हौस्पिटिल में नर्स थी और उस वक्त यंग थी. मेरा अल्बर्ट से अफेयर था. अल्बर्ट टैंपरेरी ड्राइवर था हौस्पिटल में. उस की सरकारी ड्राइवर की पक्की नौकरी का चक्कर चल रहा था. उन्हीं दिनों एक सरकारी औफिसर की वाइफ डिलिवरी के लिए हमारे हौस्पिटल में भरती हुई थीं. अल्बर्ट ने बताया था कि नौकरी देना इन्हीं साहब के हाथ में है. मुझे भरोसा था कि अपनी सेवा से अगर मैं मैडम का दिल जीत सकूं तो अल्बर्ट को नौकरी दिलवा सकती हूं.’’

मेट्रेन मारिया ने गहरी सांस ली. फिर बोलीं, ‘‘उन मैडम का केस कौंप्लिकेटेड था. उन्होंने काफी कोशिशों के बाद एक फीमेल बेबी को जन्म दिया. उस समय एक और प्रैगनैंट लेडी भी डिलिवरी के लिए हौस्पिटल में भरती थीं. उन को जुड़वां लड़कियां पैदा हुईं. एनआईसीयू में तीनों बच्चियां मेरी निगरानी में थीं. मेरे देखते ही देखते सरकारी औफिसर की वाइफ की बेबी नहीं रही. मुझे उस समय पता नहीं क्या सूझा, मैं ने एक जुड़वां बेबी से उसे बदल दिया. शायद मेरे मन में कोई ऐसी भावना रही होगी कि आगे और कोई संतान को जन्म देना उन के लिए बहुत रिस्की है. मैं उन्हें दुखी नहीं देखना चाहती थी, क्योंकि तब मैं उन से अल्बर्ट की नौकरी की सिफारिश न कर पाती. मेरी उस हरकत से उन की गोद सूनी नहीं रही और अल्बर्ट को सरकारी नौकरी मिल गई. बाद में अल्बर्ट ने मुझे धोखा दिया और शादी अपनी एक रिश्तेदार से कर ली. वह दिन मुझे अच्छी तरह याद है. वह भूलने वाला दिन नहीं है.’’

आगे मेट्रेन मारिया ने क्याक्या कहा, साखी ध्यान से नहीं सुन सकी. वह अपनेआप में खो चुकी थी. बीते दिनों को याद कर साखी देर तक सो न सकी. रात के सन्नाटे में तेज रोशनी से नहाई पत्थर कोठी को उस ने कई बार देखा. पत्थर कोठी के पास या उस के अंदर जाने का उसे कभी अवसर नहीं मिला था. सोचती रही कि सांची का सच से सामना कैसे करा पाऊंगी? सोचतेसोचते उसे कब झपकी लगी, पता नहीं चला.

सुबह तैयार हो कर चर्च जाने के लिए निकलने ही वाली थी कि डोरबैल बजी. देखा तो दीना था. विनम्रता से बोला, ‘‘पत्थर कोठी वाली बीबीजी ने गाड़ी भेजी है. आप को बुलाने के लिए. प्लीज आप चलिए.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘साहब के बेटे की तबीयत खराब है.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘बुखार है.’’

‘‘तबीयत ज्यादा खराब तो नहीं?’’

‘‘नहीं, ज्यादा तो नहीं लगती. बीबीजी डाक्टर को बुलाने को कह रही थीं तो मैं आप को बुलाने चला आया.’’

यह सुन कर उसे अच्छा लगा. दीना से फोन मिला कर बात कराने को कहा.

साखी फोन पर बोली, ‘‘हैलो मैडम, बच्चे का बुखार कैसा है?’’

‘‘अब शायद नौर्मल है. सो रहा है.’’

‘‘चिंता करने की जरूरत नहीं है. मैं आ रही हूं… और मैडम, क्या मैं आप को हैप्पी बर्थडे बोल सकती हूं?’’

‘‘थैंकयू, आप कौन?’’

‘‘गेस कीजिए.’’ फिर कुछ देर चुप रह कर बोली, ‘‘नहीं पहचाना न? अरे, मैं तुम्हारे बेटे की मौसी बोल रही हूं… साखी… डाक्टर साखी कांत. कोई अपना बर्थडे भूल सकता है क्या?’’

साखी फोन रख कर दीना को डाक्टरी बैग उठाने का इशारा करते हुए तेजी से बाहर निकली. कौटेज के बाहर बत्ती वाली चमचमाती सफेद कार खड़ी थी. ड्राइवर ने आदर में झुक कर कार का दरवाजा खोल दिया. वह अभिवादन स्वीकार करते हुए कार में जा बैठी.

दोनों एकदूसरे को देख लिपट गईं. एक पुरानी सखी को पा कर अति उत्साहित थी तो दूसरी की भावुकता को मापा नहीं जा सकता था. वह अपनी बहन को पा कर आंसू नहीं रोक पा रही थी. ड्राइवर, दीना व अन्य नौकर उन का आगाध प्रेम देखते हुए चुपचाप खड़े खुश हो रहे थे. साखी के अंदर की हलचल शांत नहीं हो पा रही थी. बड़ी मुश्किल से उस ने सामान्य दिखने की कोशिश में सोते हुए बच्चे को गोद में उठा लिया और कहा, ‘‘क्या नाम रखा है बच्चे का?’’

‘‘अशेष.’’

‘‘बहुत प्यार नाम है. जीजाजी कहां हैं?’’

‘‘आज सुबह ही अचानक उन्हें बाहर जाना पड़ा, कल वापस आएंगे.’’

‘‘ठीक है, आज तुम्हारी और मेरी जौइंट बर्थडे पार्टी है, मेरे कौटेज पर. तुम्हें रात वहीं रुकना होगा, मेरे साथ. बहुत सी बातें करनी हैं. माना अब तुम बड़े औफिसर की बीवी हो, लेकिन उस से पहले मेरी भी कुछ खास हो. फिर आज तो जीजाजी बाहर हैं. आओगी न? हां बोलो हां.’’

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‘‘हां.’’

‘‘अशेष जाग गया था. साखी ने चूमचूम कर उसे बहुत लाड़प्यार किया. फिर बिस्तर पर लेटा कर चैकअप किया और बोली, ‘‘एकदम फर्स्ट क्लास है. एक दवा मैं अपने हाथ से पिलाए देती हूं, दूसरी दोपहर में पिला देना. चिंता की कोई बात नहीं. एकदम फिट रहेगा. शाम को अपनी मौसी और मदर की बर्थडे पार्टी ऐंजौय करेगा. शाम को जल्दी आ जाना और रात मेरे साथ ही रहने का मन बना कर आना. ओ.के.?’’

‘‘ओ.के.’’

साखी ने स्पैशल जौइंट केक बनवा कर केक पर डबल ‘एस’ लिखवाया और दीवार पर भी चमकीले कागज से डबल ‘एस’ चिपकाया. पार्टी में सौम्यता तो थी ही, सांची के आ जाने से भव्यता का भी समावेश हो गया. परिस्थिति ऐसी बनी कि मेट्रेन मारिया इस पार्टी में नहीं थीं. वे कहीं बाहर गई थीं. अगर होतीं तो जौइंट बर्थडे सैलिब्रेशन का कुछ न कुछ अनुमान जरूरी लेतीं.

मेहमानों के जाने के बाद वे दोनों बैड पर लेटी थीं. अशेष गहरी नींद में सो रहा था. सांची की बातें खत्म नहीं हो रही थीं, लेकिन साखी के मन में पिछले बर्थडे पर उजागर हुआ राज घुमड़ रहा था, जिसे वह आज सांची को बताना चाहती थी. वह राज हजम कर पाना उस के लिए बड़ा मुश्किल हो रहा था. वह इस के परिणाम की आशंका से दुविधाओं में घिरी थी. लेकिन इस से अच्छा अवसर और कब मिल सकता था. बैडरूम के एकांत और धीमी रोशनी में उसे अपनी बात कहने का संबल मिल रहा था. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘सांची, क्या तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि हम जुड़वां बहनें हैं.’’

‘‘लगता तो है. मैं इस के बारे में अपनी मम्मी से भी पूछ चुकी हूं.’’

‘‘मैं ने जब मैडिकल लाइन का वातावरण देखा तो मुझे भी लगने लगा है कि ऐसी संभावना है.’’

‘‘सचाई कैसे पता चल सकती है साखी?’’

‘‘सचाई पता चल चुकी है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘तुम यकीन करो, हम जुड़वां बहनें ही हैं. चाहो तो डीएनए टैस्ट करवा लो,’’ कहते हुए साखी ने बगल में लेटी सांची को पूरी तरह अपने से लिपटा लिया.

सांची ने आश्चर्य से कहा, ‘‘सच?’’

‘‘हां सच. एकदम सच. मेरी मां की जुड़वां लड़कियां हुई थीं और उसी समय तुम्हारी मम्मी को एक कमजोर लड़की पैदा हुई थी. नवजात शिशु केयर रूम में उस की डैथ हो गई. वहां ड्यूटी पर जो नर्स थी, उस ने स्वार्थवश भावुकता में मृत लड़की को एक जुड़वां लड़की से बदल दिया. वह तुम हो और एक मैं हूं.’’

‘‘कैसे पता चला?’’

‘‘उसी नर्स ने बताया जो उस समय रावनवाड़ा के अस्पताल में थी और अब रिटायर होने वाली है. तुम चाहो तो कभी उस से मिलवा सकती हूं, अगर फिर भी डाउट रहता है तो डीएनए टैस्ट से प्रूव हो जाएगा.’’ सांची असमंजस में पड़ गई.

साखी ने कहा, ‘‘लेकिन अब यह राज अगर हम दोनों के बीच ही रहे तो अच्छा है. नहीं तो हमारे परिवारों में बहुत उथलपुथल होगी जिस का प्रभाव हमारे जीवन पर भी पड़ेगा. इस के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे, सारे समीकरण बदल जाएंगे. तब पता नहीं क्या हो. इसलिए उलझनों से दूर रहना है तो फिलहाल यही उचित होगा कि सिर्फ हमतुम ही जानें कि हम जुड़वां बहनें हैं. सिर्फ हमतुम.’’

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Serial Story: अपने अपने शिखर (भाग-1)

पत्थरकोठी में नए साहब आ गए हैं, यह शहर के लिए नई खबर थी. डाक्टर साखी कांत को तो इस खबर का इंतजार था. यह जान कर उसे सुखद आश्चर्य हुआ था कि प्रशांत कुमार राय, आईएएस इस संभाग के नए कमिश्नर हो कर आ रहे हैं.

वह यहां के मिशनरी अस्पताल में बाल रोग विशेषज्ञा है. एमडी की डिगरी पाते ही अनुभव प्राप्त करने की इच्छा से उस ने यहां जौइन किया था. उस के पहले और बाद में इस अस्पताल में कई डाक्टर आएगए. कुछ ने सरकारी नौकरी कर ली, तो कुछ ने धनी बनने की लालसा में अपने नर्सिंग होम खोल लिए.

यहां के वातावरण और अस्पताल प्रशासन के सेवा मिशन से उस का निश्छल मन कुछ ऐसे मिला कि वह यहां ठहर गई या कहा जाए कि यहां रम गई. यहां के शांत और नैसर्गिक हरेभरे वातावरण ने उसे बांध लिया. दिन, महीने, साल बीतते चले गए और समयबद्ध व्यस्त दिनचर्या में उस के 15 वर्ष कैसे बीते पता नहीं चला. अब वह यहां की अनुभवी और सम्मानित डाक्टर है.

चौड़ेऊंचे पठार पर बने अस्पताल के बाहर उसे एक सुसज्जित छोटा सा कौटेज मिला है, जिस के 3 तरफ हराभरा बगीचा और आसपास गुलमोहर और अमलतास के वृक्ष हैं. सामने दूसरे पठार पर चर्च की ऊंची इमारत और चर्च से लगी हुई तलहटी में पत्थरों की चारदीवारी से घिरा कब्रिस्तान है. उस के आगे पहाड़ीनुमा सब से ऊंचे पठार पर दूर हट कर पत्थर कोठी है, जिसे सरकारी भाषा में कमिश्नर हाउस कहा जाता है. चर्च के बगल से लगा हुआ कौन्वैंट स्कूल है. इस ऊंचेनीचे बसे शहर की उतारचढ़ाव व कम आवागमन वाली सड़क घुमावदार है, जो एक छोटे से पुल पर से हो कर गहरी पथरीली नदी को पार करती है. उस की कौटेज से यह नयनाभिराम दृश्य एक प्राकृतिक दृश्य सा दिखाई देता है.

पत्थर कोठी, कब्रिस्तान की चारदीवारी, गिरजाघर और अस्पताल की बिल्डिंग स्लेटी रंग के स्थानीय पत्थरों से बनी है. तलहटी में फैले कब्रिस्तान के सन्नाटे में साखी संगमरमरी समाधियों के शिलालेख पढ़तेपढ़ते इतना खो जाती है कि वहां पूरा दिन गुजार सकती है. वहां से वनस्पतियों और मौसमी फूलों से घिरी उस की कौटेज खूबसूरत पेंटिंग सी लगती है.

डिनर के बाद जब वह फूलों की खुशबू से महकते लौन में चहलकदमी कर रही होती है तो मेहंदी की बाड़ के पार कच्ची पगडंडी पर पत्थर कोठी से लौटता हुआ दीना अकसर दिखाई दे जाता है. दीना पत्थर कोठी में कुक है और कौटेज के पीछे बने स्टाफ क्वार्टर्स में रहता है. वह उस के पास आने पर उसे नमस्ते करता है, जिसे वह मौन रहते हुए सिर हिला कर स्वीकार करती है.

आज उसे दीना का बेसब्री से इंतजार था क्योंकि कब अपने जन्मदिन के फंक्शन पर अच्छा खाना बनाने के अनुरोध के बहाने वह उसे रोक कर उस से बात करना चाहती थी, जिस से पत्थर कोठी का हालचाल जान सके.

दीना काम से छुट्टी पा कर थकावट भरी चाल में कोई अस्पष्ट सा गीत गुनगुनाते हुए लौट रहा था. उस के पास आने पर वह नमस्ते बोल कर ठिठक गया, जैसे कुछ कहना चाह रहा हो. उस के अकस्मात ठहराव को साखी ने अनदेखा नहीं किया. लैंप पोस्ट की रोशनी में ठहरे दीना से उस ने पूछा, ‘‘रुक क्यों गए? कुछ कहना चाहते हो?’’

‘‘जी डाक्टर साहब. आज हमारे नए साहब आ गए हैं. बीबीजी बहुत अच्छी हैं, आप जैसी. आप की बहन सी लगती हैं.’’

‘‘अच्छा, क्या नाम है उन का?’’ वह प्रश्न तो कर गई, परंतु मुसकरा उठी कि इस को कमिश्नर की पत्नी के नाम से क्या लेनादेना. इस के लिए तो बीबीजी नाम ही पर्याप्त है. वह चुप रहा. फिर सिर झुकाए थोड़ी देर खड़ा रह कर चल पड़ा. फिर दीना जब तक ओझल नहीं हो गया वह उसे जाते हुए देखते रही. उस के होंठों पर हंसी आई और ठहर गई. दीना की बात सच है. कौन उन्हें बहनें नहीं समझता था.

दोनों ने तीखे नैननक्श पाए थे और कदकाठी और रूपरंग भी एक से. सगी बहनों सा जुड़ाव था दोनों के बीच. बौद्धिक स्तर भी लगभग समान. कोई किसी से उन्नीस नहीं. संयोग ही था कि दोनों ने कालेज में उस वर्ष जीव विज्ञान वर्ग में 11वीं कक्षा में प्रवेश लिया था और पहले दिन दोनों क्लास में साथसाथ बैठी थीं.

टीचर ने हाजिरी लेते समय पुकारा, ‘‘सांची राय.’’

‘‘यस मैडम,’’ उस की साथी सांची ने हाजिरी दी.

‘‘साखी कांत.’’

‘‘यस मैडम.’’

‘‘टीचर ने मौन साधा और चश्मे को नाक पर नीचे खिसका कर उन की तरफ गौर से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम दोनों जुड़वां हो क्या?’’

‘‘नहीं तो मैडम,’’ सांची ने उत्तर दिया.

‘‘तुम दोनों की डेट औफ बर्थ एक है और दोनों बहन लगती भी हो. नाम भी मिलतेजुलते पर सरनेम अलग,’’ टीचर ने बात वहीं खत्म कर हाजिरी लेना जारी रखा. टीचर की बात पर दोनों एकदूसरे को आश्चर्य से देख गहराई से मुसकराई थीं, जैसे 2 भेदिए एकदूसरे का कोई भेद जान गए हों. पीरियड पूरा होने तक वे जान गईं कि उन का जन्मस्थान भी एक है. लेकिन वे यह नहीं जानती थीं कि उन का जन्म एक ही अस्पताल में हुआ है, लगभग एक ही समय पर.

उन के जन्म पर 2 परिवार खुश थे. बहुत खुश. दोनों के मातापिता का प्रथम परिचय नर्सिंग होम में ही हुआ. उन्होंने एकदूसरे को मिठाइयां खिलाते हुए बताया कि लड़कियां शुभ घड़ी में आई हैं. दोनों के पापा की पदोन्नति की सूचनाएं आज ही मिली हैं और स्थानांतरण के आदेश आते ही होंगे. खुशियों से सराबोर दोनों के द्वारा एकदूसरे को बधाइयां दी गईं और भविष्य में न भूलने का वादा किया गया. तभी दोनों के नामकरण एक ही अक्षर से किए गए सांची और साखी.

सांची राय के परिचय में उस के पिता आनंद भूषण राय के नाम का उल्लेख हो ही जाता. वे महत्त्वपूर्ण सरकारी अधिकारी जो थे. साखी कांत के नाम को पूर्णता उस के पिता के नाम अमर कांत से मिली. उसे अपना नाम अच्छा लगता था और पूर्ण भी, परंतु बहुतों को उस का नाम अधूरा लगता था क्योंकि उस से किसी जाति विशेष का आभास नहीं मिल पाता था. नाम सुन कर लोगों की जिज्ञासा अशांत सी रह जाती. उन का आशय समझ वह बहुत तेज मुसकराती, अपनी बड़ीबड़ी पलकें कई बार झपकाती और हंसी बिखेरते हुए खनकती आवाज में बात को हंसी में उड़ा देती, ‘‘जी, कांत कोई सरनेम नहीं है. मेरे पापा के नाम का हिस्सा है.’’ जिज्ञासु लगभग धराशायी हो जाता.

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Serial Story: अपने अपने शिखर (भाग-3)

पिछला भाग- अपने अपने शिखर: भाग-2

‘‘देख साखी, मैं सीरियसली बात कर रही हूं और तू बात को हवा में उड़ा रही है. सचसच बोल, कोई है?’’

‘‘है तो पर बताऊंगी नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि तुम अपने बारे में तो कुछ बताओगी नहीं.’’

‘‘कोई हो तो बताऊं.’’

‘‘तो समझ मेरा भी कोई नहीं.’’ फिर थोड़ी सी चुप्पी के बाद बोली, ‘‘अच्छा बताती हूं.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां सच. आनन वर्मा को जानती है?’’ साखी ने पूछा.

‘‘वही आनन, जो अपने साथ बायो की कोचिंग में था, जो तुम्हें चाहता था.’’

‘‘चाहता तो वह दोनों को था, लेकिन तुम से डरता था तुम्हारे पापा के पद के कारण. आजकल यहीं है. मैडिकल में हो नहीं पाया तो बी फार्मा कर रहा है. कभीकभी मिलने आता है. मैं भी एकाध बार गई हूं उस के घर. उस के मांबाप मुझे बहुत चाहते हैं. उस के लिए मेरे दिल में भी सौफ्ट कौर्नर है.’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘फिर क्या? मेरी लव स्टोरी यहीं खत्म. यहां पढ़ाई से फुरसत नहीं. तुम क्या समझती हो, यहां बौलीवुड की तर्ज पर मैं प्रेम कहानी तैयार कर रही हूं?’’

‘‘देखो साखी, तुम मेरी बात को हमेशा हवा में उड़ा देती हो.’’

‘‘देखो भई, मैं ने अपनी शादी का काम अपने मम्मीपापा पर छोड़ दिया है. जिस दिन वे मुझ से सुपर लड़का ढूंढ़ कर मुझे बता देंगे, मैं जा कर चुपचाप मंडप में बैठ जाऊंगी. लेकिन मैं जानती हूं कि वे अपनी बिरादरी में सुपर लड़का नहीं ढूंढ़ पाएंगे और इंटरकास्ट मैरिज तो मेरे परिवार में किसी के गले ही नहीं उतर सकती. वैसे एक बात बताऊं सांची, अब मेरी विवाह में कोई खास रुचि बची नहीं है. क्या मिलता है विवाह से? थोड़ी सी खुशी और बदले में झंझटों का झमेला. अगर सब ठीक हुआ तो जिंदगी ठीकठाक कट जाती है वरना पूरी जिंदगी ऐडजस्टमैंट करतेकरते गुजार दो, घुटते हुए. नहीं करो तो बस एक ही गम रहता है कि शादी नहीं हुई. अब तुम बताओ अपनी प्रेम कहानी, लेकिन कमरे में चल कर. यहां खड़ेखड़े थकान होने लगी है.’’

वे कमरे में आ गईं और अधलेटी हो कर बतियाने लगीं.

‘‘साखी, तुम तो जानती हो कि मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ा जाता है. जिस चीज की जरूरत हो, हाजिर. अगर कभी बाजार से पेनपैंसिल, किताबकौपी खरीदने का मौका भी मिला तो एक चपरासी अंगरक्षक की तरह साथ में रहता है. अभी तक ऐसा कोई टकराया ही नहीं, जो मुझ से खुल कर कुछ कहे और मुझे भी अभी तक कुछकुछ हुआ नहीं.’’

‘‘तो फिर आज शादी की परिचर्चा क्यों की जा रही है?’’

‘‘इसलिए कि आजकल मेरी शादी के प्रस्ताव बहुत आ रहे हैं. एक से बढ़ कर एक. मेरी बिरादरी में अच्छे रिश्तों की कोई कमी नहीं. कोई बड़ा व्यवसायी है, तो कोई प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवार का होनहार. कोई छोटा अधिकारी है, तो कोई बड़ा अधिकारी. मेरे पापा जब से दिल्ली ट्रांसफर हुए हैं, तब से चर्चे कुछ ज्यादा ही हैं. पापा प्रिफर करते हैं कि आईएएस मिले और शायद यह उन के लिए मुश्किल नहीं,’’ सांची ने बिना झिझक के बताया. साखी चुपचाप उस का मुंह देखती रही.

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कुछ महीने बाद साखी को एक भारीभरकम निमंत्रण पत्र मिला, जो सांची के पिता द्वारा भेजा गया था. उस की शादी प्रशांत राय, आईएएस से दिल्ली के एक पंचसितारा होटल में होने जा रही थी. लेकिन शादी की तारीख वाले दिन साखी का पोस्ट ग्रैजुएशन मैडिकल ऐंट्रैंस ऐग्जामिनेशन था, इसलिए चाह कर भी वह शादी में न जा सकी.

जन्मदिन जीवन का खास दिन लगता है. हर साल आता है और चला जाता है. उस के बाद जीवन फिर उसी ढर्रे पर चलने लगता है. लेकिन साखी का पिछला जन्मदिन ऐसा नहीं था. उस दिन वर्षों से पड़ी उस के मन की एक गांठ खुल गई थी. डाक्टर होने के नाते वह अकसर जिस बात को ले कर शंकित रहती थी, परेशान हो उठती थी, उस का समाधान हो गया था. उस के बाद वह सामान्य नहीं रह पाई. बहुत से विचार उस के मस्तिष्क में घुमड़ते रहते थे. पूरा साल ऐसे ही व्यतीत हुआ.

जन्मदिन के अवसर पर साखी सीमित  लोगों को आमंत्रित करती थी, जिस में उस के विभाग में काम करने वाले डाक्टर्स व अन्य काम करने वाले लोग होते थे. उस बार उस ने मेट्रेन मारिया को आमंत्रित कर लिया था. मेट्रेन मारिया उम्रदराज और अनुभवी थीं. मिशन के दूसरे अस्पताल से तरक्की पा कर आई थीं. दीना उन का ही इकलौता बेटा था. कोई स्थायी नौकरी न मिलने के कारण दीना अपनी मां के साथ आया था और छोटेमोटे फंक्शन में कुक का काम कर लेता था. अच्छा कुक होने की तारीफ सुन कर खानपान का जिम्मा दीना को दिया गया था.

अतिथियों के जाने के बाद दीना और उस के सहायक बचा हुआ खाना व सामान समेट रहे थे. मेट्रेन मारिया को दीना के साथ वापस जाना था, इसलिए वे रुकी थीं. गार्डन के एक कोने में पड़ी कुरसियों पर मेट्रेन मारिया और साखी बैठी थीं. समय बिताने के लिए औपचारिक बातचीत में साखी ने ऐसे ही पूछ लिया, ‘‘मेट्रेन आप कहांकहां रहीं?’’

मेट्रेन मारिया ने कई जगहों के नाम गिनाए. उन में रावनवाड़ा का नाम भी आया. साखी चौंकना पड़ी. साखी का चौंकना मेट्रेन मारिया नहीं देख पाईं. उन्होंने अपना चश्मा उतार लिया था और उंगलियों से अपनी पलकें बंद कर के सहला रही थीं.

‘‘रावनवाड़ा, कब?’’ साखी के मुंह से निकल गया था.

‘‘आप रावनवाड़ा जानती हैं? वह तो कोई मशहूर जगह नहीं.’’

‘‘हां, नाम सुना है, क्योंकि मेरी एक क्लासमेट वहीं की थी,’’ साखी ने सामान्य होते हुए कहा. मेट्रेन ने जो कालाखंड बताया उस में साखी के जन्म का वर्ष भी था. साखी ने शरीर में सनसनी सी महसूस की और सचेत हो कर पूछा, ‘‘मेट्रेन, आप को तो बहुत तजरबा है. नर्स की नौकरी में आप ने बहुतों के दुखसुख और बहुत से जन्म और मृत्यु देखे होंगे. बहुतों के दुखसुख भी बांटे होंगे. कोई ऐसा वाकेआ जरूर होगा, जो आप के जेहन में बस गया होगा.’’

मेट्रेन मारिया कुछ देर को चुप रहीं, जैसे कुछ सोच रही हों. फिर दोनों हाथ उठा कर धीमे स्वर में बोलीं, ‘‘डाक्टर, मेरे इन हाथों से ऐसा कुछ हुआ है, जिस से एक ऐसी मां की गोद भरी है, जो हमेशा खाली रहने वाली थी. लेकिन जो कुछ मैं ने किया, वह मेरे पेशे के खिलाफ था और मुझे वह बात किसी से कहनी नहीं चाहिए. कम से कम एक डाक्टर के सामने तो बिलकुल ही नहीं.’’ इतना कह कर वे चुप हो गईं. साखी उन के चेहरे के भाव अंधेरे में पढ़ नहीं पा रही थी.

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