गिद्ध- भाग 2: क्यों परिवार के होते हुए भी अकेली पड़ गई भगवती

उन दोनों के बीच बड़ी बहू किरण कूद पड़ी, ‘‘हम बड़ी हैं. पहले हमारा हक है. फिर तुम दोनों का. ये जिज्जी को क्या पड़ी है मायके में आ कर दखल देने की?’’

‘‘क्या पता? वह तो सब से तेज निकलीं. जब तक हम तुलसी बटोरने गए, उतनी देर में जिज्जी अम्मा के बदन और अलमारी दोनों में हाथ साफ कर गईं,’’ उषा बोली.

‘‘तुम दोनों आपस में बंदर की तरह लड़ती रही हो, इसी का वे हमेशा बिल्ली की तरह फायदा उठाती रहीं. वे तो हमेशा से अम्मा को भड़का कर, अपना माल बटोर कर चल देती थीं. तुम दोनों के घर बैठ बुराई कर, मालपुए उड़ाने में लगी रहीं. अब देखो, तुम दोनों की नाक के नीचे से जेवर उठा ले गईं. तुम अब भी आपस में ही भिड़ी हो,’’ किरण डपट कर बोली.

‘‘जब तुम इतनी सयानी थी तो पहले क्यों नहीं बोली?’’ संध्या गुस्से से बोली.

‘‘क्या कहें? तुम लोग अपने को किसी से कम समझती हो क्या? कुछ बोलो तो बुरे बनो. जब किसी को कुछ सुनना ही नहीं था तो कहें किस से? हम ने तो जिज्जी को कभी मुंह लगाया ही नहीं, इसी से हमें बदनाम करती रहीं वे. करते रहो क्या फर्क पड़ गया? तुम दोनों तो उन की खूब सेवा में लगी रहीं, तो तुम्हें कौन सा मैडल पहना गईं.’’

‘‘अम्मा तुम से हमेशा नाराज क्यों रहती थीं?’’ उषा ने पूछा.

‘‘हम जिज्जी की हरकतों पर अपनी शादी के पहले दिन से ही नजर रखे हुए थे. जब ससुरजी चल बसे, तब मुश्किल से

6 महीने हुए थे हमारे विवाह को. तब भी बड़की जिज्जी शोक के समय अम्मा के बक्से पर नजर रखे बैठी रहीं. 6 महीने बाद जब अम्मा को जेवर का होश आया तो पता चला नथ, मांगटीका, मंगलसूत्र, पायल, बिछिया सब जिज्जी उठा ले गई हैं.’’

‘‘ऐसे कैसे उठा ले गईं?’’ संध्या बोली.

‘‘यही अम्मा ने पूछा तो बोल पड़ीं, ‘अब तो पिताजी रहे नहीं, तुम अब ये सुहागचिन्ह पहन नहीं सकतीं, इसे मैं अपनी बिटिया की शादी में उसे नानी की तरफ से दे दूंगी. तुम्हारा नाम भी हो जाएगा.’ हम वहीं खड़े थे. हम से बोलीं, ‘जाओ, चाय बना लाओ बढि़या सी.’ हमारी पीठ पीछे अम्मा को भड़का कर बोलीं, ‘बड़ी मनहूस बहू है तुम्हारी, आते ही ससुर को खा गई.’ बस, उस दिन से अम्मा ने मन में गांठ बांध ली, जो वो जीतेजी खोल न पाईं.’’

‘‘अब क्या फायदा इन सब बातों का? इस कमरे में भी ताला डालो या न डालो, जिज्जी तो पहले ही डकैती डाल कर चलती बनीं. जरा बाहर जा कर देखो, लोगों के आगे कैसे रोनेधोने का नाटक कर रही हैं,’’ संध्या तिलमिलाई.

बड़की जिज्जी से जुड़े ये शब्द बाहर बैठकी में  बैठी बड़की के कानों से टकरा रहे थे. वे सोच रही थीं, कब गरुड़पुराण की कथा को पंडितजी विराम दें और वे लपक कर बहुओं के बीच उन को धमकाने पहुंच जाएं.

बड़की ने चोर नजरों से रुक्मणि और लीला पर नजर डाली. उसे लगा कहीं अंदर की आवाजें इन्होंने तो नहीं सुन लीं. वे दोनों कथा की समाप्ति पर जैसे ही उठ खड़ी हुईं, वह लपक कर उन के पास पहुंच गई.

‘‘‘अरे, बैठो न चाची, तुम्हें देख कर अम्मा की याद ताजा हो जाती है. आप दोनों तो अम्मा की खास सहेलियां रही हो. बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ यह कह कर बड़की ने उन्हें जबरदस्ती बैठने पर मजबूर कर दिया.

‘‘सुन बिटिया, हम तेरे कहने से कुछ देर बैठ जाती हैं, मगर चाय नहीं पिएंगी,’’ मृतक परिवार में तेरहवीं से पहले वे जलपान का परहेज करने के लिहाज से बोलीं.

‘‘अच्छा रुको, मैं फल काट कर लाती हूं,’’ उस ने एक नजर अपने भाई के सामने रखे, रिवाजानुसार लोगों द्वारा लाए, फलों के ढेर की तरफ देख कर कहा.

‘‘अरे, बैठ न तू भी, अब 2 दिनों बाद तेरहवीं हो जाएगी. फिर हम यहां बैठने तो आएंगे नहीं. भगवती की याद खींच लाती है. इसीलिए रोज ही चले आते हैं,’’ लीला ने बड़की का हाथ पकड़ कर बैठा लिया.

बड़की ने इधरउधर ताका, उसे अपनी भाभियां नजर नहीं आईं. बैठकी से भी सभी उठ कर बाहर चले गए थे. सिर्फ बड़ा भाई कोने में जलते दीपक की लौ ठीक करने में लगा हुआ था. फिर अपने जमीन में लगे बिस्तर में दुबक गया. उसे तेरहवीं तक अपनी निर्धारित जगह में रहने का निर्देश मिला था.

बड़की उन दोनों महिलाओं के पास सरक आई और कहने लगी, ‘‘अब आप से क्या छिपा है चाची. इन बहूबेटों की वजह से मेरी मां का जीवन कितना दुश्वार हो गया था. यह भाई, जो अभी बगुलाभगत बना बैठा है, पूरा जोरू का गुलाम है. अपनी औरत से पूछे बिना लघुशंका भी न जाए. इस की औरत बिलकुल बर्र है. ऐसा शब्दबाण छोड़ती है कि बर्र का डंक भी फीका हो. अम्मा को तो वर्षों हो गए इन से अबोला किए हुए.’’

फिर उठ कर बड़की बैठकी के दरवाजे तक आ कर झांक आई कि कहीं कोई कान लगा कर न सुनता हो, फिर पास बैठ कर फुसफुसाई, ‘‘यह जो मझला पुलिस में है, उस की बीवी तो अपनेआप को घर में दारोगा से कम नहीं समझती. गालीगलौज और मारपीट सब हो चुकी है उस की अम्मा से. हमारे पिताजी जल्दी चले गए वरना वे सुधार कर रखते सब को.’’ फिर इधरउधर नजरें घुमाईं.

उस ने देखा बड़े भाई के खर्राटे गूंजने लगे हैं, तो फिर अपनी आवाज का सुर थोड़ा बढ़ा कर बोली, ‘‘छोटे बेटे से तो ज्यादा ही लगाव रहा अम्मा का. हर समय ‘छोटा है, अभी सुधर जाएगा’ कहती रहीं. मगर हुआ क्या? शादी करते ही सब से पहले उस ने अपनी गृहस्थी अलग कर ली. मझली को अम्मा ने ही अलग कर दिया था वही रोजरोज की मारपीट, धमकियों से तंग आ कर. बड़ी साथ में रही भी तो इतने खुरपेंच जानती थी कि रोटी का एक निवाला तोड़ना दूभर हो गया था अम्मा का. फिर तो खुद ही अपनी रसोई अलग कर ली अम्मा ने.’’

‘‘हां, मुझे सब पता है. तभी तो मैं ने भगवती को समझाया था कि तू बेटी के घर चली जा रहने को, उसे ही खर्चापानी देती रहना. तभी तो वह कुछ महीने के लिए तेरे घर चली गई थी,’’ लीला बोली.

‘‘अरे, वहां भी मन न लगा अम्मा का, हर समय यही कहें ‘एकएक ईंट जोड़ कर घर बनाया. आज मैं कुत्ते की तरह दूसरे की ड्योढ़ी पर पड़ी हूं.’ वहां से भी लौट आईं,’’ बड़की ने सफाई पेश की. तभी दीनानाथ कमरे में दाखिल हुआ. तो बड़की बड़े प्रेम से बोली, ‘‘चाची, तुम लोग अभी बैठो, मैं जरा भाइयों के लिए फल काट कर ले आऊं. इन्हें तो 12 दिनों तक एक समय ही भोजन करना है.’’

‘‘नहींनहीं,’’ दोनों ने एकसाथ कहा और घर से बाहर को चल दीं.

शाम को एक नया नाटक शुरू हो गया.

‘‘सुनो दीनू, अम्मा के हिस्से के खेत के कागज नहीं मिल रहे हैं, तुम ने संभाले क्या?’’ ये सोमनाथ थे, दीनानाथ के बड़े भाई.

‘‘अरे, इसी ने छिपा के रखे होंगे, सोचता होगा कि मैं तो पुलिस में हूं, कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा,’’ अब छोटा भाई रमेश भी ताल ठोंक कर लड़ाई के मैदान में कूद पड़ा.

‘‘अम्मा की जमीन में मेरा भी हिस्सा लगेगा. तुम तीनों अकेले हजम करने की न सोच लेना,’’ बड़की जिज्जी भी तुरंत बोल पड़ी. ऐसे भले ही कम सुनती हो, मगर जमीन, जायदाद, रुपयोंपैसों की बात तुरंत सुनाई पड़ जाती है.

‘‘तुम्हें तो अम्मा पहले ही खेत में हिस्सा दे चुकी हैं. अब दोबारा क्यों?’’ सोमनाथ चीखे.

‘‘मैं कुछ नहीं जानती, अगर हमें हिस्सा न मिला तो मैं कोर्टकचहरी करने से पीछे न हटूंगी. मैं  एकलौती बहन हूं, मुझे ही तुम लोग मायके में बरदाश्त नहीं कर पा रहे हो, 4-6 होतीं तो क्या करते?’’

‘‘तुम अकेली ही दस के बराबर हो. दस को विदा करना आसान है. मगर तेरी विदाई न जाने कब होगी. जमीन, जायदाद, रुपया, जेवर सब में सेंध लगा कर भी तुझे चैन कहां?’’

गिद्ध- भाग 3: क्यों परिवार के होते हुए भी अकेली पड़ गई भगवती

यह सुन कर बड़की क्रोध में आ गई. थोड़ी देर में ही घर कुरुक्षेत्र के मैदान में तबदील हो गया. एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप लगने लगे.

‘‘अरे, कुछ तो शर्म करो. तुम्हारी मां ने क्या यही सोच कर धन इकट्ठा किया था कि तुम लोग धन के लिए एकदूसरे के शत्रु बन जाओ. अभी तो 13 दिन भी न हुए,’’ पड़ोसी बुजुर्ग महिला रुक्मणि ने आ कर सब को शांत किया. सब आपस में अबोला कर शांत बैठ गए, समाज को दिखाने के लिए.

दूसरे दिन भगवती के घर से लौटती रुक्मणि और लीला को उषा ने बाहर गेट के पास रोक लिया. ‘‘चाची, देखा न आप ने, कैसी संतानें हैं इन की. अरे अम्मा तो हमेशा हम बहुओं को ही कोसती रहीं कि ‘कैसे घर की हैं? कैसे संस्कार दिए तुम्हारे मांबाप ने?’ अब देख लो इन की संस्कारी औलादों को. अरे चाची, हम बहुएं रुपए, गहनों को ले कर झगड़ पड़े तो समझ आती है बात. मगर ये लोग तो एक ही मां की औलाद हैं, भाई, बहन है. एकदूसरे के कंधे पर सिर रख कर रोने के बजाय मां के मरते ही बैठ कर रुपयोंपैसों की लूट में जुट गए.’’

‘‘हां, कल रात को हल्लागुल्ला सुन कर मैं भाग कर आई थी,’’ रुक्मणि ने लीला को बताया.

‘‘मेरी शादी भी इसी लालच में की थी कि खूब दहेज मिलेगा. मेरे पिता तो दारोगा थे उस समय. बड़की जिज्जी की ससुराल से रिश्तेदारी है हमारी. एक बार मेरे पिताजी जुएं के अड्डे से छापा मार कर लौट रहे थे. मूसलाधार बारिश में उन की जीप पानी के गड्ढे में फंस कर बंद हो गई. एक जीप तो आगे थाने को निकल गई, जिस में जुआरी थे. पिताजी के पास रुपयों से भरा बैग और एक सिपाही ही रह गया. दूसरा मैकेनिक को लेने चला गया. पिताजी को याद आया कि ये घर दो फलांग की दूरी पर ही है तो वे सिपाही को गाड़ी के पास छोड़ कर यहां चले आए कि गाड़ी ठीक हो जाए तो चल पड़ेंगे. जानती हो चाची, फिर क्या हुआ?’’

‘‘हां, याद आया जब दीनानाथ पुलिस भरती की तैयारी कर रहा था, तभी उस की शादी तय कर दी थी,’’ लीला बोली.

‘‘हां चाची, तुम्हारी याददाश्त बहुत तेज है. उस समय पिताजी और बैग दोनों ही बुरी तरह से भीगे हुए थे. पिताजी ने अपने को तौलिए से पोंछ कर जब बैग खोल कर देखा, सारे नोट भीग गए थे. पिताजी ने तुरंत बैठकी के गद्दे में नोट बिछा दिए और नोट सुखाने को पंखा चला दिया. पता है कितने रुपए थे?’’

‘‘नहीं, यह बात तो नहीं पता हमें,’’ रुक्मणि जानने को बेताब थी.

‘‘एक लाख 10 हजार के

लगभग, इन सब की तो

आंखें खुली की खुली रह गईं, सोचा, पुलिस की नौकरी में तो नोट ही नोट हैं. पिताजी ने बताया था कि  ये रुपए थाने में जमा करने के लिए हैं. मगर इन्हें लगा ये सब ऊपरी कमाई के हैं. अपने बेटे की शादी उसी दिन मेरे साथ तय कर दी. जिस से मैडिकल, साक्षात्कार में सहूलियत मिल जाए और दूसरा शादी में तगड़ा दहेज भी. अरे चाची, मुझे भी इन लोगों ने खूब सुनाया, ‘क्या लाई? कैसा लाई? हमारी खातिरदारी ठीक से नहीं हुई’ बहुत सुना मैं ने भी. जब एक दिन मेरे पिताजी का नाम ले कर अम्मा बोलीं कि ‘तेरे बाप ने तो कोरी लड़की विदा कर दी.’ बस, उसी दिन से मैं ने भी लिहाज करना छोड़ दिया. मैं ने कह दिया, ‘तुम्हारी बिटिया की तरह नहीं हूं कि हर सामान के लिए मायके में कटोरा ले कर खड़ी हो जाऊं. जितनी मेरे आदमी की कमाई है, उसी में घर चलाना जानती हूं.’ बस, चिढ़ कर मेरा चूल्हा अलग कर दिया. मेरी भी जान छूटी.’’

तभी सामने से बड़ी बहू किरण को आते देख, उषा वहां से खिसक ली.

‘‘क्या सुना रही थी उषा, कल रात का किस्सा?’’ आते ही उस ने पूछा.

‘‘नहीं, पुरानी यादें ताजा कर गई,’’ लीला व्यंग्य से बोली.

‘‘देखा न चाची, जरा सी जमीनजायदाद के लिए इतना झगड़ा? मेरे मायके में तो यहां से दसगुना ज्यादा जायदाद है. मां, पिताजी अब रहे नहीं. हमारे पिताजी हमें कुछ जमीनजायदाद तो दे नहीं गए. हमारी अम्मा भी यही बोली थीं कि तुम्हारा हिस्सा तुम्हारी शादी में खर्च हो गया. पिछले साल तो हम 2 बहनों ने सोचा कि चलो, अब कानून भी बन गया है, पिताजी वसीयत नहीं कर गए हैं, तो अपने मायके से कुछ कोर्ट में अर्जी लगा कर ही ले लें. केवल सोचा था, किया नहीं था. जानती हैं क्या हुआ तब, चाची.’’

‘‘नहीं,’’ दोनों बोल पड़ीं.

‘‘अरे इसी बड़की, जो अब अपनी मां के मरे दस दिन में ही चीखचीख कर कोर्टकचहरी करने की बात कर रही है, हम बहनों की चुगली सब जगह लगा दी. हमारे भाइयों तक बात पहुंच गई. हमारे मायके से संबंध भी खराब हो गए और मिला भी कुछ नहीं. यहां भी आ कर सौ बात सुना गई कि ‘हमारे मांबाप, खानदान का नाम डूब जाएगा जब इस घर की औरतें कोर्ट में खड़ी हो जाएंगी.’ मेरे आदमी को भी ‘जोरू का गुलाम’ और न जाने क्याक्या कह कर भड़काया. गुस्से में आ कर इन्होंने मेरा सिर दीवार में पटक दिया था. यह देखो यहां 3 टांके लगे हैं. अब अपनी बहन का सिर फोड़ कर दिखाएं. अब इन के खानदान की इज्जत में बट्टा नहीं लग रहा.’’

‘‘ठीक कहती हो बहन, यह बहुत ही शातिर औरत है. अपनी बारी आते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लेती है. मेरी शादी की शौपिंग में क्या किया, पता है?’’ तीसरी बहू संध्या कब इस बातचीत के बीच में शामिल हो गई, उन्हें भान ही नहीं हुआ.

‘‘तुम तो चूल्हे में दूध उबाल रही थीं. गैस बंद कर दी?’’ किरण ने पूछा.

‘‘हां, बंद कर के आई हूं. हां, तो मैं क्या सुना रही थी?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘शादी की शौपिंग बता रही थी,’’ लीला जानने की गरज से बोली.

‘‘मेरे आदमी की कोई खास कमाई तो होती नहीं थी दुकान से. नईनई दुकान होने के कारण शादी का खर्चा भी घर में नहीं दे सकते. अम्मा ने जिज्जी से ही सारी शौपिंग करवाई.’’

‘‘मुझ पर और उषा पर भरोसा

ही कहां था अम्मा को.

अपनी बेटी को ही रुपए पकड़ाती थीं. ये ले आना, वो ले आना. जिज्जी ही तो भड़का के रखती थीं कि बहुएं पैसे मार लेंगी. हूं, अब देख लो हरिशचंद भाई और बहन को,’’ किरण बीच में बोल पड़ी.

‘‘अरे मेरी पूरी बात तो सुनो, मेरी शादी में गिनीचुनी 7 साडि़यां ससुराल से मिलीं. उन में से भी 2 साडि़यों में मैं ने फौल के पास जंग लगा देखा. जैसे लोहे के बक्से में साड़ी रखने से लग जाता है. मैं ने सभी से कहा, ‘ये साडि़यां पुरानी दे दी हैं दुकानदार ने, इसे बदलवा दो.’ जिज्जी ने तुरंत कहा ‘अब तो महीनाभर हो गया. अब दुकानदार न बदलेगा.’

गिद्ध- भाग 4: क्यों परिवार के होते हुए भी अकेली पड़ गई भगवती

बाद मैं मैं ने खुद दुकानदार से बात की तो वह हंसने लगा और बोला, ‘बहिनजी, इतनी बड़ी मेरी दुकान है, मैं पुरानी साड़ी नहीं बेचता हूं.’ मुझे सब समझ आ गया कि साड़ी जिज्जी ने ही बदल दी थी. तभी दोबारा दुकान जाने को तैयार न हुई,’’ संध्या गुस्से से बोली.

‘‘हां, तेरी शादी की साड़ी की बात तो मुझे भी अच्छे से याद है. मैं भी हैरान हो गईर् थी कि जिज्जी शौपिंग में कैसे ठग गई.’’ किरण हंसने लगी, ‘‘तूने गलती की, जब पता चल ही गया था तो साड़ी ला कर जिज्जी के मुंह पर दे मारती.’’

‘‘हम तो शुरू से लिहाज ही करते रह गए. उसी का नतीजा है कि आज भी हमारी छाती में मूंग दलने को बैठी है,’’ संध्या ने मुंह बनाया.

‘‘मूंग से याद आया, कल के लिए उड़द भिगोनी हैं अच्छा चाची, कल तेरहवीं के भोज में जरूर आना,’’ कह कर दोनों भीतर चली गई.

दिन का भोज खत्म होते ही बेटों ने तुरंत टैंट समेट दिया, लोगों को हाथ जोड़ कर विदा कर दिया. फिर से इकट्ठे हो कर सभी हिसाब लगाने में जुट गए. कितना खर्चा हो गया और कितना अभी वार्षिक श्राद्ध में करना बाकी है. सोमनाथ कहने लगे, ‘‘2 बार मैं ने मां को हौस्पिटल में भरती किया था, उस हिसाब को भी इस में जोड़ो.’’

‘‘यह हिसाब छोड़ो, पहले जो जमीन बची है, उसे बेच कर मेरा हिस्सा अलग करो.’’

‘‘जमीन का हिसाब बाद में, अभी इन 13 दिनों का हिसाब पहले करो. सब से ज्यादा मेरे रुपए खर्च हुए हैं.’’

‘‘लाओ मुझे दो, मैं सारा हिसाब लिख कर बताता हूं,’’ दीनानाथ हाथ में कागजपैन ले कर खड़े हो गए.

‘‘तुम तो रहने ही दो. पुलिस में हो न, कुछ भी उलटीसीधी रिपोर्ट बनाने में माहिर.’’

‘‘मैं यह हिसाबकिताब कुछ नहीं जानती, मेरा हिस्सा मुझे दो, बस.’’

फिर वही झगड़ा, वही जमीन, जायदाद को ले कर हंगामा शुरू हो गया. इस से पहले हाथापाई पर बात पहुंचती, बड़ी बहू के तानों से विराम लग गया.

‘‘मैं तो कहती हूं अम्माजी और पिताजी रहते तो यह सब देखतेसुनते. मैं ने तो खूब ताने सुने, सास, ससुर, ननद, देवर सभी के मुख से, हमेशा मेरे मांबाप को कोसा गया. कभी दहेज को ले कर, कभी मेरे चालचलन को ले कर. अब दोनों सासससुर मिल कर देखें अपनी औलादों को और उन के चालचलन को भी. तुम्हारे खानदान से तो लाख गुना बेहतर हमारा खानदान है.’’

‘‘तुम हमारे मांबाप तक कैसे पहुंच गईं?’’ बड़की चीखी.

‘‘तुम लोगों के लक्षण ही ऐसे हैं, जो मांबाप की परवरिश को बट्टा लगा रहे हैं,’’ यह उषा थी.

अब लड़ाई चारों महिलाओं के बीच शुरू हो गई.

तभी असिस्टैंट सब इंस्पैक्टर दीनानाथ शास्त्री, खाई में गिरी बस दुर्घटना की खबर मिलते ही दुर्घटनास्थल को रवाना हो गए. बस रात में 12 से 2 बजे के बीच दुर्घटनाग्रस्त हुईर् थी. इस समय सुबह के 5 बज रहे थे. अप्रैल के महीने में सुबह का हलका सा उजाला भर दिख रहा था. रातभर हुई बारिश से इस पहाड़ी रास्ते में जगहजगह चट्टान और मलबे के ढेर ने रुकावट डाल रखी थी. हर आधे घंटे की चढ़ाई के बाद जीप को रोकना पड़ता.

7 बजे तक जीप दुर्घटनास्थल तक पहुंची. चारों तरफ चीखपुकार, भीड़ और अफरातफरी का माहौल था. कुछ स्वयंसेवी संगठन, राहतबचाव कार्य में मुस्तैदी से डटे थे.

‘‘बचाओ, मार डाला.’’ का करुण क्रंदन गूंज उठा. दीनानाथ ने आवाज की ओर सिर घुमाया तो सामने से 2 युवाओं को तेजी से भागते हुए देखा.

‘‘रुक बे, इधर आ, कहां भागे जा रहे हो?’’ दीनानाथ चीखा.

‘‘साहिब, मोर माई को पानी चाही, वही लावे जात हैं,’’ उन में से एक युवक हड़बड़ा कर बोला.

‘‘झोले में क्या है?’’

‘‘माई का सामान है.’’

‘‘इधर दिखा बे,’’ झोले को उन के हाथों से छीनते हुए दीनानाथ को माजरा समझते देर न लगी.

दोनों युवकों ने फिर उलटी दिशा में दौड़ लगानी चाही, मगर दीनानाथ ने दबोच लिया.

‘‘झोले को पलटते ही उस में से कटी हुई उंगलियां, सोने की चूडि़यां, मंगलसूत्र, पाजेब आदि जेवर बिखर गए.

‘‘आदमखोर हो क्या, ये उंगलियां क्यों काटीं?’’ दीनानाथ ने घुड़का.

‘‘अंगूठी उंगली में फंसी हुईर् थी, निकली नहीं, तो काटनी पड़ीं.’’

‘‘चल तेरी भी खाल निकलवाता हूं,’’ कह कर दीनानाथ ने उन के हाथ बांधे.

‘‘अरे साहब, इन जैसे लुटेरे तो जहां ऐक्सिडैंट की खबर सुनते हैं तुरंत घायलों व मुर्दों को नोचनेखसोटने को दौड़ जाते हैं. अभी यहां इन के और भी साथी भीड़ में छिपे होंगे,’’ सिपाही उन दोनों को जीप के अंदर धकेलते हुए बोला.

‘‘मारो सालों को, अभी सब उगलेंगे, मैं नीचे घटनास्थल का मुआयना कर के आता हूं,’’ अपने साथ 4 सिपाहियों को ले कर दीनानाथ तेजी से चल पड़े.

शाम के 6 बजे तक सभी घायलों और मृतकों को बरामद कर लिया गया.

‘‘एक बार फिर से सारी झाडि़यों का मुआयना कर लो. कोई जीवित या मृत छूटना नहीं चाहिए. इस इलाके में बहुत गिद्ध हैं. सुनसान होते ही मांस नोचने को टूट पड़ेंगे,’’ दीनानाथ ने दूर पेड़ों की फुनगियों में बैठे गिद्धों को देख कर कहा.

शाम तक सब इंस्पैक्टर भी पहुंच गए.

‘‘क्या प्रोग्रैस है दीनानाथ?’’

‘‘साहब, बरात की बस थी. इस में 40 लोग सवार थे. जिन में से 6 मृत और 4 गंभीर घायलावस्था में अस्पताल को रवाना कर दिए गए हैं. बाकी सभी की प्राथमिक चिकित्सा कर, उन के गंतव्य को भेज दिया गया है. ये हैं वे 4 लुटेरे, जो मृतकों के शरीर को, गिद्धों की तरह, नोचतेखसोटते हुए मौका ए वारदात से पकड़े गए हैं,’’ दीनानाथ ने अपनी जीप की तरफ इशारा कर बताया. इन सब कार्यवाही में बहुत समय लग गया.

दीनानाथ को घर पहुंचने में रात हो गई थी. रात गहरा गई. आंगन में खटिया डाले दीनानाथ को देररात तक नींद ही नहीं आई. एक झपकी सी आईर् थी कि लगा की किसी ने फिर उठा दिया, ‘जल्दी जगो, पास के जंगल में बस पलट गई है.’ चारों तरफ चीखपुकार मची थी. एक बुढि़या जोरजोर से चीख रही थी, ‘बचाओ बचाओ,’ उस ने पलट कर देखा, बुढि़या को गिद्ध नोचनोच कर खा रहे थे. कोई उस के गले पे चिपका है, कोई कान पे. वो गिद्ध भगाने को डंडा खोजने लगा. बुढि़या का चेहरा, मां का जैसा दिख रहा था. उस ने चीखना शुरू कर दिया ‘अम्मा, अम्मा.’ अचानक उसे गिद्धों में जानेपहचाने चेहरे दिखने लगे. उस के भाई, भाभी, बहन, पत्नी, अन्य परिवारजन.

वह पसीने से तरबतर हो उठा. उस की नींद पूरी तरह से खुल चुकी थी.

सब उसे घेर कर खड़े थे, ‘‘बुरा सपना देखा?’’

‘‘अम्मा दिखी क्या?’’

‘‘कुछ मांग तो नहीं कर रही,’’

‘‘कुछ कमी रह गई हो, तो ऐसे ही सपने आते हैं.’’

जितने मुंह उतनी बातें.

‘जीतेजी तो अम्मा को किसी ने पानी भी न पूछा. वे अपनी अलग रसोई बनाती, खाती रहीं. अब उन्हीं के रुपयों से पंडित को सारी सुखसुविधा की वस्तुएं दान भी कर दो, तो क्या फायदा? अब, जब अम्मा की मृत्यु हो गई तो भी चैन कहां हैं सब को? अब उन के सामान को ले कर छीनाझपटी मची हुई है. तुम लोग भी किसी गिद्ध से कम हो क्या? तुम सभी जीतेजी तो अम्मा का खून पीते रहे और अब मरने पर उन की बची संपदा की लूटखसोट में लगे हो. जाओ यहां से, मुझे सब समझ आ गया है.

‘‘वैसे, तुम से अच्छे तो वे गिद्ध हैं जो मरेसड़े को खा कर वातावरण को स्वच्छ रखने में अपना योगदान देते हैं. वे लुटेरे भी कई गुना बेहतर हैं जो अनजान को लूट कर अपने परिवार को पालते हैं. तुम लोग तो उन से भी अधिक गिरे हुए हो जो अपनी ही सगी मां को लूट कर खा गए. हट जाओ मेरे आगे से,’’ कह कर दीनानाथ अपना मुंह ढांप कर बिस्तर पर पड़ गया.

शादी: रोहिणी ने पिता को कैसे समझाया

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एक मुलाकात ऐसी भी- भाग 1: निशि का क्या था फैसला

मौल में पहुंचे ही थे कि मिशिका को उस के फें्रड्स सामने दिख गए और वह मुझे तेजी से बायबाय कह कर उन के साथ हो ली. वह नोएडा के एमिटी कालिज से इंजीनियरिंग कर रही है. उस के सभी मित्रों को अच्छी कैंपस प्लेसमेंट मिल गई थी सो इसी खुशी में उस के ग्रुप के सभी साथी यहां पिज्जा हट में खुशियां मना रहे थे.

नोएडा का यह मशहूर जीआईपी यानी ‘गे्रट इंडिया प्लेस’ मौल युवाओं का पसंदीदा स्थान है. हम गाजियाबाद में रहते हैं. मिशिका अकेले ही रोज गाजियाबाद से कालिज आती है मगर इस तरह पार्टी आदि में जाना हो तो मैं या उस के पापा साथ आते हैं. यों अकेले तैयार हो कर बेटी को घूमनेफिरने जाने देने की हिम्मत नहीं होती. एक तो उस के पापा का जिला जज होना, पता नहीं कितने दुश्मन, कितने दोस्त, दूसरे आएदिन होने वाले हादसे, मैं तो डरी सी ही रहती हूं. क्या करूं? आखिर मां हूं न…

बच्चे अपने मातापिता की भावनाओं को कहां समझ पाते हैं. उन्हें तो यही लगता है कि हम उन की आजादी पर रोक लगा रहे हैं. कई बार मिशिका भी बड़ी हाइपर हुई है इस बात को ले कर कि ममा, आप ने तो मुझे अभी तक बिलकुल बच्चा बना कर रखा है. अब मैं बड़ी हो गई हूं. अपना ध्यान रख सकती हूं. अब उस नादान को क्या समझाएं कि मातापिता के लिए तो बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं. चाहे वे कितने भी बड़े क्यों न हो जाएं.

हां, मेरी तरह शायद जज साहब से वह इतना कुछ नहीं कह पाती. उन की लाडली, सिर चढ़ी जो है. जो बात मनवानी होती है, मनवा ही लेती है. बात तो शायद मैं भी उस की मान ही लेती हूं लेकिन उसे बहुत कुछ समझाबुझा कर, जिस से वह मुझ से खीझ सी जाती है.

अब क्या करूं, जब मुझे इस तरह के आधुनिक तौरतरीके पसंद नहीं आते तो. मैं तो हर बार इसे ही तरजीह देती हूं कि वह अपने पापा के संग ही आए. दोनों बापबेटी के शौकमिजाज एक से हैं. कितनी ही देर मौल में घुमवा लो, दोनों में से कोई पहल नहीं करता घर चलने की. मैं भी कभीकभी बस फंस ही जाती हूं. जैसे आज वह नहीं वक्त निकाल पाए. कोर्ट में कुछ जरूरी काम था.

मैं थोड़ी देर तक यों ही एक दुकान से दूसरी दुकान में टहलती रही. खरीदारी तो वैसे भी मुझे कुछ यहां करनी नहीं होती है. वह तो मैं हमेशा अपने शहर की कुछ चुनिंदा दुकानों से ही करती हूं. सरकारी गाड़ी में अर्दलियों और सिपाहियों के संग रौब से जाओ और बस, रौब से वापस आ जाओ. सामान में कोई कमी हो तो चाहे महीने भर बाद दुकान पर पटक आओ. यहां मौल में, इतनी भीड़ में किस को किस की परवा है, कौन पहचान रहा है कि जज की बीवी शौपिंग कर रही है या कोई और. शायद इतने सालों से इसी माहौल की आदी हो गई हूं और कुछ अच्छा ही नहीं लगता.

खैर समय तो गुजारना ही था. यों ही बेमतलब घूमते रहने से थकान सी भी होने लगी थी. घड़ी पर नजर डाली तो बस, आधा घंटा ही बीता था. सोचतेविचरते मैं मैकडोनाल्ड की तरफ आ गई. कार्य दिवस होने के बावजूद वहां इतनी भीड़ थी कि बस, लगा कालिज बंक कर के सब बच्चे यहीं आ गए हों. माहौल को देख कर मिशिका का खयाल फिर दिलोदिमाग पर छा गया कि पता नहीं, यह क्या मौलवौल में पार्टी करने का प्रचलन हो गया है. अरे, तसल्ली से घर में मित्रों को बुलाओ, खूब खिलाओपिलाओ, मौजमस्ती करो, कोई मनाही थोड़े ही है.

थोड़ी देर में ही सही, मेरा भी कौफी का नंबर आ ही गया था. कौफी और फ्रेंचफ्राइज ले कर भीड़ से बचतेबचाते मैं एक खाली सीट पर जा कर बैठ गई और अपने चारों तरफ देखती कौफी का सिप भरती जा रही थी.

तभी मेरे पास एक बड़ी स्मार्ट सी महिला आईं और खाली पड़ी सीट की ओर इशारा कर बोलीं, ‘‘क्या मैं यहां बैठ सकती हूं?’’

‘‘हांहां. क्यों नहीं…आप चाहें तो यहां बैठ सकती हैं,’’ इतना कहने के साथ ही मेरी इधरउधर की सोच पर वर्तमान ने बे्रक लगा दिया.

मैं उस संभ्रांत महिला को कौफी पीतेपीते देखती रही. उस ने कांजीवरम की भारी सी साड़ी पहन रखी थी. उसी से मेल खाता खूबसूरत सा कोई नैकलेस डाल रखा था. पर्स भी उस के हाथ में बहुत सुंदर सा था. कुल मिला कर वह हाइसोसाइटी की दिख रही थी.

मुझ से रहा नहीं गया. अटपटा सा लग रहा था कि उस के सामने मैं फे्रंचफ्राइज का मजा अकेले ही ले रही थी और वह सिर्फ कौफी ले कर बैठी थी. संकोच छोड़ मैं ने अपने चिप्स उस की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अकेले ही शौपिंग हो रही है…’’

अपने होंठों पर हलकी सी हंसी ला कर वह बोलीं, ‘‘शौपिंग नहीं, आज तो अपने बेटे के संग आई हूं. दरअसल, आज बच्चों की गेटटूगेदर है. मेरे पति रिटायर्ड आई.ए.एस. हैं. यहीं सेक्टर 30 में हमारा छोटा सा घर है. पति तो अपनी ताशमंडली में व्यस्त रहते हैं और मैं बस, कभी क्लब, कभी किटी और कभी समाज- सेवा…रिटायर होने के बाद कहीं न कहीं तो अपने को व्यस्त रखना ही पड़ता है न.’’

‘‘आज मेरा छोटा बेटा समर्थ बोला कि ममा, मेरे संग मौल चलिए, आप को अच्छा लगेगा. सो आज यहां का कार्यक्रम बना लिया,’’ उस ने दोचार फ्रेंचफ्राइज बिना किसी झिझक के उठाते हुए बताया.

हम समझ गए थे कि हमारे बच्चे एक ही ग्रुप में हैं. थोड़ी देर में ही हम सहज हो क र बातें करने लगे. कुछ अपने परिवार के बारे में वह बता रही थीं और कुछ मैं. बीचबीच में हम खानेपीने की चीजें भी मंगाते जा रहे थे. अब किसी के संग रहने से अच्छा लगने लगा था. बातोंबातों में ही पता चला कि उन के 2 बेटे थे. छोटा समर्थ, मिशिका के संग पढ़ रहा था और बड़ा पार्थ इंजीनियरिंग के बाद पिछले साल सिविल सर्विस में सिलेक्ट हो गया था. इस समय लाल बहादुर शास्त्री एकेडमी, मसूरी में उस की टे्रनिंग चल रही थी.

मैं ने सोचा कि बापबेटा दोनों आईएएस. शुरू में ही मुझे लग गया था कि मेरी तरह यह महिला कोई ऊंची हस्ती है.

उन का बेटा आईएएस है और जल्दी ही वह उस की शादी करने की इच्छुक हैं, यह जान कर तो मेरी रुचि उन में और भी बढ़ गई. मैं तो खुद मिशिका के लिए अच्छा वर ढूंढ़ने की कोशिश में थी और एक आईएएस लड़के को अपना दामाद बनाना तो जैसे मेरे ख्वाबों में ही था.

ब्लैंक चेक- भाग 3: क्या सुमित्रा के बेटे का मोह खत्म हुआ

उस दिन से आज तक दोनों के बीच सारे संबंध समाप्त हो गए थे. चूंकि अर्णव और आन्या एक ही स्कूल में पढ़ते थे इसलिए सुमित्रा को आन्या की ऊंचाइयों को छूने की सारी दास्तां पूरी तरह से मिलती रहती थी.

अर्णव ट्यूशन के सहारे बस पास भर होता रहा. परंतु उन के लाड़ में बिगड़ा हुआ वह ब्रैंडेड कपड़ों के शौक में उलझा रहा. वे हमेशा से चाहती थीं कि उन का बेटा विदेश में जा कर डौलर में कमाई करे.

अपनी इच्छापूर्ति के चक्कर में सुमित्रा को इंजीनियरिंग के ऐडमिशन के लिए अपने प्रौविडैंट फंड से बड़ी रकम निकाल कर डोनेशन के लिए देनी  पड़ी थी.

श्रीकांत एक बड़ी दुकान में सैल्समैन ही तो थे. कभी बेटे के लिए बाइक जरूरी हो गई थी तो कभी नए मौडल का एंड्रौएड फोन तो कभी ब्रैंडेड गौगल्स. प्राइवेट कालेज की फीस और बेटे का लंबाचौड़ा हाथ खर्च देतेदेते उन के फंड से काफीकुछ निकलता जा रहा था.

सुमित्रा सपनों में डूबी हुई थीं. ‘कांत, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? मेरा राजकुमार तो ब्लैंक चैक है. उस की शादी में मनचाही रकम भर के वसूल लेना. यह अमेरिका जा कर इतने डौलर कमाएगा कि आप रुपए गिन भी नहीं पाएंगे.’

कांत नाराज हो कर बोले थे, ‘हवा में मत उड़ो. अब समय बदल गया है, दहेज के बारे में सोचना भी अपराध है.’

एक दिन अपने मित्रों के सामने वे अपने दिल का दर्द उड़ेल बैठे थे, ‘आजकल बच्चों की पढ़ाई में जितना खर्च हो जाता है उतने में तो बेटी का ब्याह भी हो जाए.’

सभी जोर से ठहाका लगा कर हंस पड़े थे कि मित्र ने कहा था, ‘बात तो सही कह रहे हो पर लड़कियां भी तो बेटे के बराबर ही पढ़ती हैं. अब मेरी बेटी भी इंजीनियरिंग कर रही है. वह तो गवर्नमैंट कालेज में पढ़ रही है और उसे स्कौलरशिप भी मिल रही है. उस का तो कैंपस सलैक्शन भी हो गया है. जिस के घर जाएगी, पैसे से उस का घर भर देगी.’

अर्णव का कैंपस सलैक्शन नहीं हुआ था. उसे कौल सैंटर में नौकरी मिली थी. अमेरिका के हिसाब से उसे रात में जा कर काम करना पड़ता था. वह शाम  7 बजे जाता था और सुबह 8 बजे लौट कर आता था. उस का शरीर रात की नौकरी नहीं झेल पाया था. वह बीमार हो कर घर लौट आया था. काफी दिनों तक उस का इलाज चलता रहा था. वहां पर उस के कई दोस्त बन गए थे जो विदेशों में पढ़ाई के साथसाथ नौकरी कर रहे थे. अर्णव भी अमेरिका जाने को उतावला हो उठा था. उस ने जीआरई के लिए तैयारी करनी शुरू कर दी. कोचिंग और फीस उस ने स्वयं ही दी थी.

उस ने 2 बार जीआरई की परीक्षा दी परंतु असफल रहा था. वहीं पर वह उन दलालों के चंगुल में फंस गया जो ठेके पर लड़कों को अमेरिका, इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया भेजते थे. वे लड़कों को अपने जाल में फंसाने के लिए सारे हथकंडे आजमाया करते थे.

एक दिन वह अपने मित्र सुधांशु को ले कर आया था. ‘पापा, सुधांशु अमेरिका जा रहा है. मां, प्लीज आप पापा को समझाइए. सब की जिंदगी बदल जाएगी. वहां मुझे स्कौलरशिप भी मिल जाएगी. मैं वहां से पोस्ट ग्रेजुएट कर के आऊंगा तो यहां मुझे बहुत बड़ा पैकेज मिलेगा. वहां रहूंगा तो डौलर में कमाऊंगा. सोचिए जरा, बड़ा सा बंगला, बड़ी सी गाड़ी, क्या ठाट होंगे आप के.’

‘कांत नाराज हो कर बोले थे, ‘सुधांशु तो नेता का बेटा है. अपने पिता के पैसे पर ऐश कर रहा है. मेरे पास पैसा कहां रखा है जो मैं दे दूं.’

‘पापा, प्लीज आप कहीं से कर्ज ले लीजिए. मैं एकएक पैसा लौटा दूंगा.’

परंतु श्रीकांत नहीं पिघले थे.

वह घर में पड़ा रहता. न मां से बात करता, न पापा से. वह सूख कर कांटा हो गया था.

‘कहीं नौकरी क्यों नहीं कर लेता?’

‘दिनभर नौकरी ही तो लैपटौप पर बैठाबैठा ढूंढ़ता रहता हूं.’

फिर किसी बीपीओ में उस की नौकरी लग गई थी. सालभर करता रहा था. कुछ रुपए इकट्ठे कर लिए थे.

अब उस ने बैंक में लोन के लिए अर्जी डाल दी थी. सीधा फौर्म ले कर गारंटर की जगह हस्ताक्षर करने का हुक्मनामा सुना दिया था. घर के पेपर्स उस ने श्रीकांत से पूछे बिना ही निकाल लिए थे.

कई दिनों तक घर में अशांति छाई रही थी. परंतु हमेशा की तरह ही सुमित्रा बेटे के समर्थन में खड़ी हो कर बोली थीं, ‘पेपर बैंक में रखने से उस का भविष्य सुधर जाता है तो इस में क्या परेशानी है? कर दीजिए हस्ताक्षर.

‘बेटे को पंख लग जाएंगे. वह आकाश की ऊंचाइयों को छू लेना चाहता है तो आप क्यों बाधा बने हुए हैं. हम लोगों का क्या? थोड़ी सी जिंदगी जी लेंगे किसी तरह. बेटा दुखी रहेगा, तो हम इस मकान का भला क्या करेंगे.’

कांत चिल्ला कर बोले थे, ‘जब तक जिंदा हूं, सिर पर छत चाहिए कि नहीं? एकएक ईंट जोड़ कर इस 2 कमरे का घर किसी तरह बना पाया हूं, वह भी जीतेजी गिरवी रख दूं. मैं ने इस घर को बनाने में अपना खूनपसीना बहाया है. तब जा कर यह बना पाया हूं.’

अर्णव भी कम नहीं था. वह बचपन से जिद्दी था. जो सोच लेता था, वह कर के रहता था. दलाल ने

उसे ऐसे सपने दिखाए थे मानो अमेरिका की सड़कों पर डौलर बिखरे पड़े हैं. वहां पहुंचते ही वह बटोर कर अपनी झोली में भर लेगा.

आखिरकार सुमित्रा के दबाव में कांत को मजबूर हो कर उस पर हस्ताक्षर करने ही पड़े थे. परंतु उस समय उन की आंखों से आंसू भरभर कर निकल पड़े थे. उस दिन सुमित्रा का भी मन खराब हुआ था पर बेटे की खुशी के लिए वे सबकुछ करने को तैयार थीं. आखिर वह उन का ब्लैंक चैक जो था.

बैंक से 10 लाख रुपए लोन ले कर सुमित्रा ने अर्णव को दे दिए थे. बेटे को खुश देख कर सुमित्रा को तसल्ली तो हुई थी परंतु कांत उस रात खून के आंसू रोए थे.

अर्णव उसी दिन मुंबई चला गया था. कुछ दिन फोन करता रहा था. फिर जल्दी ही शायद वह वहां की अपनी रंगीन दुनिया में खो गया और मांबाप, घरद्वार सब को पूरी तरह से भूल गया था.

आज सुमित्रा अपनी गलतियों पर पछता कर सिसक रही थीं. परंतु ‘अब पछताए होत का, जब चिडि़या चुग  गई खेत.’ तभी दरवाजे की घंटी बजी  थी. उन्होंने घबरा कर घड़ी पर  निगाह डाली, सुबह के  6 बजे थे.

सुमित्रा ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने शची खड़ी थी. वे उस से लिपट कर जोरजोर से सिसक पड़ी. ‘‘भाभी, आप ने फोन करने में इतनी देर क्यों कर दी,’’ शची बोली थी.

शची के हाथ से छूट कर ब्लैंक चैक हवा में फड़फड़ा रहा था.

सुलगते सवाल- भाग 4: क्या बेटी निम्मी के सवालों का जवाब दे पाई गार्गी

उस रात वह एकदो बार निन्नी के कमरे में गई पर चुपचाप लौट आई. मन कह रहा था, माफी मांग लूं, मस्तिष्क कह रहा था, कैसे, क्यों? यह सोच तो घुट्टी में पिलाई गई है. तू लड़की है, औरत है, तेरा वजूद कुछ नहीं. यह आभास तो पलपल दिलाया गया है. बचपन से पढ़ाया गया है.

सुबह गार्गी नीचे आ कर बैठ तो गई किंतु बारबार रात की अधूरी नींद उस की पलकों पर आ बैठती.

बच्चे स्कूल चले गए, निन्नी अपने काम पर. यहां मौसम का तो यह हाल है, न सुबह होती है न दोपहर, बस सांझ ही सांझ रहती है. कभीकभी बादलों के बीच से थोड़ा सा सूरज का मुंह बाहर निकलता है तब पतलीपतली छाया पूर्व से पश्चिम की ओर भागने लगती है. तब होंठों पर दबी सी मुसकराहट आ मिलती है.

घर पर काम भी अधिक न था. जितना गार्गी को समझ आता, कर लेती थी. गार्गी का मन अपने घर जाने को उचाट होने लगा था. मांबेटी में संकोच और तनाव की चट्टान खड़ी हो गई. दोनों अपनीअपनी चुप्पी की रेखाएं खींचे दिन काट रही थीं.

एक दिन बच्चे अपने स्कूल का काम करने में व्यस्त थे. गार्गी ने चुप्पी भंग करते हुए कहा, ‘‘निन्नी बेटा, तेरे पापा कह रहे थे कि अब तक तो निन्नी संभल गई होगी. तुम्हें गए भी 4 महीने हो गए हैं. कमल की शादी तय हो गई है. अगले महीने तक आ जाओ.’’

‘‘शादी? चाचाजी की? अभी 2 महीने पहले ही तो चाचीजी की मृत्यु हुई है. उन की तो राख भी ठंडी नहीं हुई. शादी है या मजाक?’’

‘‘निन्नी, क्या हो गया है तेरी बुद्धि को. कमल पुरुष है. भला कैसे संभाल सकता है गृहस्थी को? उस की भी व्यक्तिगत कई तरह की जरूरतें हैं. जीवन का रथ दो पहियों से ही चलता है. लड़की भी देखीभाली है. उस की साली है. बच्चों की मौसी. बच्चों के साथ सौतेला व्यवहार भी नहीं करेगी. स्थिति को ध्यान में रखते हुए मेरा वापसी का टिकट कटा दे.’’

‘‘मां, मैं कुछ भी कहती हूं तो आप को बुरा लगता है. मेरी इस बात को गलत मत लेना, समझना. जिस दिन से आप आई हैं, आप के मुख से ‘तेरा भाई’, ‘तेरा मामा’, ‘तेरा चाचा’ तीनों की पत्नियों के देहांत होते ही उन की दुलहनें तैयार खड़ी थीं. कभी उन सब की सालियों से भी पूछा या फिर उन की मजबूरी का लाभ उठाया. एक ही तर्क के साथ कि आदमी हैं, उन के जीवन की नाव अकेले कैसे चलेगी? बच्चे कैसे संभलेंगे? उन की जरूरतें हैं? नौकरियां करते हैं जबकि घर पर दादादादी, बूआ, चाचाचाची, नौकरचाकर सभी हैं. दूर क्या जाना, अर्णव भैया जान छिड़कते थे भाभी पर. भाभी के जाते ही, आप ही तूफान ले आई थीं, ‘हाय मेरा बेटा अकेला रह गया है. कैसे काटेगा जीवन? कौन करेगा उस की देखभाल?’ भैया तो आप के साथ ही रहते थे. क्या भैया सचमुच अकेले थे? उन को खाना नहीं मिल रहा था? कपड़े धुले हुए नहीं मिल रहे थे? बच्चे नहीं पल रहे थे? इतनी जल्दी भी क्या थी? क्या पुरुष इतना कमजोर है? या हम औरतों ने उसे बना दिया है? सदियों से हम नारियों का पुरुष की इतनी हिफाजत करने का परिणाम देखा है, इसीलिए वह अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत बना कर हम पर अत्याचार करता आया है और करता रहेगा.

‘‘पिछले 4 महीनों से देख रही हूं, आप को सब की चिंता है. अपनी भी. केवल मेरी नहीं. कभी सोचा है मेरे बारे में. इस बियाबान घर में, परदेस में छोटेछोटे बच्चों के साथ लंबीलंबी सूनी रातें कैसे काटूंगी? क्या मेरे बच्चों को बाप की और मुझे पति की जरूरत नहीं? क्या मेरी जरूरतें नहीं हैं, क्यों? क्योंकि मैं बेटा नहीं हूं.
‘‘पापा ने तो कभी भेदभाव किया नहीं, फिर आप में भेदभाव के इतने तीक्ष्ण लक्षण कैसे आ गए? माताएं बेटों को

18 महीने पेट में रखती हैं क्या? बेटा पैदा होने पर अधिक पीड़ा होती है क्या? क्या बेटा आप को उतना ही प्यार देता है जितना बेटियां? मां, अपने अंतर्मन में झांक कर देखो. अगर हम औरतें ही बेटेबेटियों में भेदभाव रखेंगी तो कैसे मिलेगा बराबर का सम्मान लड़कियों को? कौन देगा? पति, ससुराल या समाज?

‘‘पैदा होते ही लड़कियों को मांबाप के घर में पलपल सुनना पड़ता है, पढ़ाना मत लड़की को? पैसा मत बरबाद करना बेटियों पर? वे पराया धन हैं. वहीं ससुराल में पैर पड़ते ही उन्हें सुनना पड़ता है, बाहर से आई है, पराई है, अपनी भला कैसे बन सकती है?

‘‘अब आप ही बताइए, क्या पहचान है बेटियों की? इन का कौन सा घर है, मांबाप का, ससुराल का या कोई नहीं? बेघर.

‘‘मां, आप को याद है मेरी सहेली गुड्डो? तलाक के बाद उस ने पूरे परिवार को अमेरिका में बुला कर स्थापित किया. बहनभाइयों की शादियां कीं. मांबाप भी सदा उसी के साथ रहे. पिछले 30 वर्षों में उन्हें एक बार भी ध्यान नहीं आया कि गुड्डो को भी पति की और उस के बेटे को बाप की जरूरत हो सकती है. मांबाप का फर्ज नहीं कि बेटी की दूसरी शादी कर दें?

‘‘आप बेफिक्र रहिए, मेरा दूसरी शादी करने का अभी कोई विचार नहीं है. मैं तो आप की दबी सोच की चेतना को जगा रही हूं. आप को एहसास दिला रही हूं. इस लड़कालड़की के भेदभाव को मिटाने का बीड़ा अगर हम स्त्रियां नहीं उठाएंगी तो कौन उठाएगा? अगर हम एक दीपक जलाएंगे, उस के संगसंग हजारों दीपक दिलों में उजाला करते जाएंगे.’’

उस दिन निन्नी ने गार्गी की वर्षों से सुप्त चेतना पर बर्फीला पानी डाल कर जगा दिया. आज बेटी के ताने, उलाहने, कटाक्ष अर्थहीन नहीं थे. उन का अर्थ था, उन में लौ थी. ठीक ही तो कह रही थी निन्नी, मां, तुम्हारी सोच अपाहिज हुई बैठी है. गूंगेबहरे व अंधों की तो लाचारी है पर आप तो जानबूझ कर अंधीबहरी हुई बैठी हैं उस कबूतर की भांति यह जानते हुए भी कि वह उड़ सकता है. किंतु बिल्ली को देखते ही आंखें मूंद लेता है और बिल्ली उसे खा जाती है. जान किस की जाती है, कबूतर की न?

‘‘मां, बेशक नारी पर समाज के अंकुश लगे हैं किंतु उस की सोच तो स्वतंत्र है, पराधीन नहीं.’’

गार्गी सोचने पर मजबूर हो गई. क्यों आज उस की सोच आजाद नहीं? क्यों उस ने अपनी सोच को समाज के रंग में ढलने दिया? उस ने स्वयं को च्यूंटी काट कर महसूस किया और बड़बड़ाने लगी, ‘मैं तो हाड़मांस की जिंदा औरत हूं. घर में भेदभाव का बीज तो मां ही बीजती है. क्या कभी सुना है ससुर ने बहू पर अत्याचार किए, उसे जला डाला? इसी सोच के कारण आज नारी की अस्मिता संकट में है.’

उस रात गार्गी मन में जागृति की लौ ले कर चैन से सोई. उस ने ठान लिया था, सुबह साहस बटोर कर बेटी से माफी मांग लेगी. फिर जरूर अपनी सोच बदलने का दीपक जलाएगी, जिस की लौ से और दीपक जलेंगे. मन ही मन भयभीत भी थी बेटी की सोच से.
सुबह उठते ही गार्गी डरतेडरते बोली, ‘‘बेटा निन्नी, बेटा मुझे…’’
‘‘जी मां, कहिए.’
‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं,’’ माफी शब्द उस के गले में अटका रहा.
दोनों के लिए एक नई सुबह थी. निन्नी ने संक्षिप्त मुसकराहट से कहा, ‘‘मां, बस, एक बार बेटी को बुढ़ापे की लाठी बनने का अवसर दे कर देखिए. उसे बेटे सा सम्मान दे कर देखिए.’’

गार्गी ने निन्नी की ओर प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘बेटा, कुछ इच्छाएं याद आ रही हैं. कुछ कामनाएं घुमड़ रही हैं. अब तो क्रिसमस के बाद ही जाऊंगी.’’

आज फिर गार्गी का अहं यानी ईगो आड़े आ खड़ा हुआ. एक बार फिर वह ‘माफी’ शब्द निगल गई और सवाल सुलगते रह गए.

सुलगते सवाल- भाग 3: क्या बेटी निम्मी के सवालों का जवाब दे पाई गार्गी

गार्गी भी ऊपर अपने कमरे में आराम करने चली गई. कब उस की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला. सुबह की खटपट से उस की आंख खुली. बच्चे स्कूल के लिए तैयार हो रहे थे, निन्नी काम के लिए.

सुबह से शाम तक टैलीविजन देखना गार्गी की दिनचर्या में आ गया था. निन्नी कब घर वापस आई, कब गई, उसे पता ही नहीं चलता.

शाम को काम निबटा कर दोनों मांबेटी बैठी थीं. बच्चे स्कूल का काम कर रहे थे. गार्गी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘निन्नी, आज कमरे की खिड़कियां बंद करते समय मेरी निगाह पूरण की अलमारी पर पड़ी. बेटा, तुम क्यों नहीं उस का सामान समेट देतीं. सुनो, यह कुरसी भी हटा दो यहां से. इसे देख कर अकसर तुम उदास हो जाती हो.’’

इतना सुनते ही निन्नी तिलमिला उठी, ‘‘मां, बात यहीं समाप्त कर दीजिए. यह पूरण का घर है. हम उस की ही छत के नीचे खड़े हैं. उस की मिट्टी को मत कुरेदो. मर चुका है वह. नहीं आएगा अब वापस. कभी नहीं आएगा. बहुत कोस चुकी हैं आप उसे, अब बंद करो कोसना. मैं ने पति को और मेरे बच्चों ने पिता को खोया है. मां, आप के आगे हाथ जोड़ती हूं, मुझे जबानदराजगी के लिए मजबूर मत करो. पूरण की चीजें आसपास होने से मुझे उस के होने का एहसास होता है. उस के कपड़ों में से उस की महक आती है. मेरे उदास, कमजोर क्षणों में उस की चीजें मरहम का काम करती हैं. मेरा यही तरीका है अपने दुख से निबटने का. कई बार तो ऐसा लगता है, अगर कहीं वह लौट आया तो उसे क्या उत्तर दूंगी,’’ इतना कहते ही वह फूटफूट कर रोने लगी.

रोतेरोते कहती रही, ‘‘बचपन से ही आप के मुख से यह सुनती आई थी, उस की नाक पकौड़ा है, चीनी लगता है, वह टुंडा है, उस के चुंदीचुंदी आंखें हैं. बड़ी अकड़ से आप ने उसे चुनौती दी थी. वह भी शतप्रतिशत खरा उतरा था आप की चुनौती पर. इतना बड़ा घर, रुतबा इज्जत सभी कुछ तो प्राप्त किया था उस ने.’’

कहतेकहते वह फिर सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘गलत ही क्या कहा है मैं ने? 2 बेटों की जिम्मेदारी छोड़ गया है. मुझे यहां और नहीं रहना. टिकट कटा दे मेरा वापसी का,’’ गार्गी ने झुंझला कर कहा.

‘‘बस, यही औजार रह गया है आप के पास?’’

एकाएक कमरे में बोझिल सा सन्नाटा छा गया. निन्नी और गार्गी के बीच चुप्पी की दीवार खड़ी हो गई थी. गार्गी ने अपना मुंह बंद रखने की ठान ली. समय कब पतझड़ व गरमियों का घेरा पार कर सर्दी की गोद में सिमट गया, पता ही नहीं चला. सर्दी बढ़ती जा रही थी. बर्फ, कोहरा, सर्द हवाओं ने अपना काम शुरू कर दिया था.

सुबह के 9 बजने को थे. अभी तक कोहरे की धुंध नहीं छटी थी. सूरज उगा या नहीं इस का अनुमान लगाना कठिन था. प्रतिदिन घर से सब के चले जाने के बाद गार्गी टैलीविजन में लीन रहती.

स्कूल से घर आते ही आज दोनों नाती चिल्लाने लगे, ‘‘नानी, भूख लगी है.’’

‘‘थोड़ा सा इंतजार करो. अभी तुम्हारी मम्मी आ जाएंगी,’’ इतना कह कर गार्गी फिर टीवी सीरियल में लीन होे गई.

सड़कों पर बर्फ पड़ने के कारण निन्नी को घर पहुंचने में देर हो गई. घर पहुंचते ही बच्चे बोले, ‘‘मम्मी, देर से क्यों आई हैं आप? भूख के मारे दम निकल रहा है.’’

‘‘नानी से क्यों नहीं कहा?’’ निन्नी ने झुंझलाते हुए कहा.

‘‘कहा था, नानी ने कहा कि मम्मी आने वाली हैं.’’

निन्नी ने चायनाश्ता बना कर सब को परोसा. रात के खाने के बाद बच्चे अपने कमरे में चले गए.

‘‘निन्नी, जब से आई हूं तब से तुम से कह रही हूं कि अपने कमल चाचा को चाची के पूरे होने पर शोक प्रकट कर दो,’’ गार्गी ने कहा.

निन्नी बोली, ‘‘मां, मैं हर रोज देखती हूं कि जब मैं काम से घर आती हूं, आप टीवी में इतनी मगन होती हैं कि मेरी उपस्थिति का भी एहसास नहीं होता आप को, क्यों? क्योंकि मैं भैया नहीं हूं. यों कहूं तो ज्यादा ठीक होगा, लड़का जो नहीं हूं.

‘‘मुझे याद है, जब भी भैया के काम से घर आने का समय होता तो भाभी के होते हुए भी आप समय से पहले ही उन के लिए चायपकौड़े या समोसे मेज पर तैयार रखतीं और बच्चों से कहतीं, ‘पापा से दूर रहना, तुम्हारे पापा काम से हारेथके आए हैं.’ यही नहीं, उन के हाथमुंह धोने के लिए तौलियापानी सबकुछ तैयार रहता. अगर गरमी होती तो आप उन्हें पंखा भी झलतीं. ठीक कह रही हूं न? जवाब दो? यहां मैं भी तो नौकरी करती हूं. घर चला रही हूं. मां के कर्तव्यों के संग पिता की भूमिका भी निभा रही हूं. मुझे तो चाय का प्याला क्या देना, मुझी से सभी अपेक्षाएं करते हैं. आप एक औरत होते हुए भी आखिर क्यों औरत को उस की अहमियत से दूर कर रही हैं? क्यों उसे बारबार याद दिलाती हैं कि वह अस्तित्वहीन है? इतना भेदभाव क्यों, मां?

‘‘आप अपनी अहमियत जतलाने से कभी नहीं चूकतीं कि मैं मां हूं. यहां तक कि जब कोई पूरण का शोक प्रकट करने आता है, आप उस के सामने अपनी समस्याएं रख कर उसे अपने बखेड़ों में उलझा लेती हैं. आप क्यों भूल जाती हैं कि आप मेरे पति की मृत्यु पर शोक प्रकट करने व बेटी को सहारा देने आई हैं. छुट्टियां मनाने नहीं.’’

गार्गी ने बेटी के सवालों का उत्तर न देने की मंशा से गूंगेबहरे सी नीति अपना ली.
मांबेटी में परस्पर विरोधी विचारों का युद्ध चलता रहा. विचारों का अथाह समुद्र फैल गया जिस की तूफानी लहरों ने दोनों के दिलोदिमाग को अशांत कर दिया.
गार्गी अपने सोने के कमरे में चली गई. उस का सिर चकरा रहा था. कमरे में रात का धुंधलका चुपके से घिर आया था. मानो कनपटियों से धुएं की 2 लकीरें ऊपर उठती हुई सिर के बीचोंबीच मिलने की चेष्टा कर रही हों. उस के सीने में बेचैनी उतर आई थी. निन्नी ने उस की जंग लगी सोच का बटन दबा दिया था. उस के मस्तिष्क में उथलपुथल होने लगी, गार्गी नाराज नहीं थी. सोच रही थी, निन्नी ठीक कहती है. अपने ममत्व का गला घोंटते समय उसे यह एहसास क्यों नहीं हुआ. वह भी बहनभाइयों में पली है?

वह स्वयं के ही प्रश्नों में उलझ गई. क्या सचमुच अनपढ़ होने से मेरी सोच की सूई में विराम लग गया है? छिछिछि… शर्मिंदा थी वह अपने व्यवहार से, सोच से. माफी की सोचते ही उस का अहं आड़े आ जाता. सोचने लगती, क्या मां होने के नाते सभी अधिकार उसी के हैं. मां जो थी, गलत कैसे हो सकती थी? उस रात निन्नी की बातें उस के जेहन में उमड़तीघुमड़ती रहीं. एक शब्द ‘भेदभाव’ उस के जेहन में घर कर गया. गार्गी की वह रात बहुत भारी गुजरी. उसे ऐसा लगा, धरती से आकाश तक गहरी धुंध भर आई हो. गार्गी अपनी सोच का मातम मनाती रही.

सुलगते सवाल- भाग 2: क्या बेटी निम्मी के सवालों का जवाब दे पाई गार्गी

गार्गी शर्मिंदगी का घूंट पीते हुए बोली, ‘‘बेटा, मैं ने अभी बात पूरी ही कहां की है. जानती हूं, अलका भी मेरी बेटी है.’’

‘‘मां, केवल कहने के लिए. बहुत दकियानूस हो. अपनी ही संतानों में भेदभाव करती हो.’’

स्थिति को भांपते हुए गार्गी ने अपने मुंह को बंद रखना ही उचित समझा और व्यंग्य से बड़बड़ाने लगी, ‘आगे से ध्यान रखूंगी मेरी मां.’

घर पहुंच कर निन्नी का विशाल मकान देख कर गार्गी हक्कीबक्की रह गई. न इधर, न उधर, न दाएं, न बाएं कोई भी तो घर दिखाई नहीं दे रहा था. उसे ऐसा लगा, मानो विशाल उपवन में एक गुडि़या का घर ला कर रख दिया गया हो. अभी घर के भीतर जाना शेष था. दरवाजा खुलते ही नानी, नानी करते नाती नानी से लिपट गए.
कुछ समय बैठने के बाद निन्नी ने बच्चों से कहा, ‘‘बेटा, नानी को उन का कमरा दिखाओ.’’

‘‘चलो नानी, सामान अंकल ऊपर ले जाएंगे.’’

‘‘मां, यहां नौकरोंचाकरों का चक्कर नहीं है. सबकुछ खुद ही करना पड़ता है.’’

सांझ के 4 बज चुके थे. पतझड़ का मौसम था. आसपास फैली हुई झाडि़यों की परछाइयां घर की दीवार पर सरकतीसरकती गायब हो चुकी थीं. रात का अंधकार उतर आया था. घर के पीछे चारों ओर बड़ेबड़े छायादार वृक्ष अंधकार में और भी काले लग रहे थे. ऐसा लगता था जैसे उन वृक्षों के पीछे एक दुनिया आबाद हो. वह हतप्रभ थी. चारों ओर धुंध उतर आई थी.

‘‘अमर बेटा, तुम्हें यहां डर नहीं लगता?’’ गार्गी ने प्यार से कहा.
‘‘नानी, डोंट वरी. यहां कोई नहीं आता,’’ 8 वर्ष के अमर ने नानी को आश्वासन देते हुए कहा.
‘‘नहीं नानी, आप को पता है, रात को यहां तरहतरह की आवाजें आती हैं,’’ नटखट अतुल ने शरारती लहजे में कहा जो अभी 5 वर्ष का ही था.
‘‘अतुल, प्लीज मत डराओ नानी को.’’

उस दिन आधी रात तक गार्गी डर के मारे जागती रही. उस ने जीवन में इतना भयावह सन्नाटा पहली बार महसूस किया था. उसे गली के चौकीदार के डंडे की ठकठक व आवारा कुत्तेबिल्लियों की आवाजें याद आने लगीं. घर में कोई पुरुष भी नहीं था. अब तक तो देवर भी अपने घर चले गए थे. फिर सोचती, मुझे यहां स्थायी रूप से थोड़े ही रहना है.

धीरेधीरे उस ने निन्नी के रहनसहन से समझौता कर लिया. घर में सभी सुविधाओं के होते हुए भी उस का मन नहीं टिक रहा था. अकेलापन व सूनापन उसे बहुत कचोटता. इंसान तो क्या, कोई परिंदा तक दिखाई नहीं देता था. डाकिया न जाने कब पत्र डाल जाता.

एक सप्ताह बाद निन्नी ने काम पर जाते समय मां को घर के तौरतरीके, गैस हीटिंग, टैलीफोन पर संदेश लेना, टैलीफोन करना व कुछ अंगरेजी के शब्द, थैंक्यू, प्लीज वगैरह सिखा दिए. रहीसही कसर अमर और अतुल ने पूरी कर दी.

काम पर जातेजाते निन्नी ने कहा, ‘‘मां, आप का मन करे तो घर का काम कर सकती हैं वरना कोई जरूरत नहीं.’’

गार्गी ने जीवन में पहली बार तनमन को जिम्मेदारियों के बोझ से मुक्त पाया था.

वह सारा दिन हिंदी के सीरियल देखती रहती. बच्चों के घर आ जाने पर उन के साथ अंगरेजी सीरियल देखती. अंगरेजी न आते हुए भी अंगरेजी रिश्तों के तानेबाने हावभाव से समझ जाती. किंतु उन सीरियलों के पतिपत्नी के संबंध दूसरे लोक के लगते. सोचती, ऐसा भी होता है क्या? उन के दृष्टिकोण, सोच बहुत अजीब लगते. काम पर जाने से पहले निन्नी मां को खाना परोस कर जाती थी. जब भूख लगती तो गार्गी माइक्रोवेव में खाना गरम कर के खा लेती. संपूर्ण स्वतंत्रता का एहसास उसे पहली बार हुआ था.

शाम को अमर व अतुल के बिस्तर में जाने के बाद मांबेटी दोनों बैठी रहतीं. अपने पति पूरण की खाली कुरसी को टुकरटुकर देखतेदेखते अकसर निन्नी की आंखें छलछला आतीं.

ऐसी स्थिति में गार्गी के लिए संयम रखना सहज न था. बस, भड़क उठती. ‘‘6 महीने हो गए हैं उसे गए, अगर मेरी बात मान लेती तो आज माथे पर विधवा का टीका न लगा होता.’’

‘‘हांहांहां, ऊपर से कोई अपनी लंबी उम्र का पट्टा लिखा कर थोड़े ही आता है. आप ने तो पूरा जोर लगा लिया था कि हमारी शादी न हो. मेरे जीवन में कितनी लक्ष्मणरेखाएं खींच दी थीं आप ने? जब तक उन पर चलती रही, ठीक था. जब नहीं मानी तो हर समय वही व्यंग्य, कटाक्षों की बरसात. पूरण के मांबाप पुराने विचारों के हैं. तू मन चाहे कपड़ेलत्ते नहीं पहन सकेगी. वगैरहवगैरह.’’

‘‘निन्नी, गरम जुराबें तो देना. बहुत सर्दी है,’’ गार्गी ने बात को दूसरा मोड़ देते हुए कहा.

‘‘यह लो मां, मेरी बात अभी समाप्त नहीं हुई. बलि चढ़ाना चाहती थीं मुझे, लड़की थी न? और भैया, जिस का नाम लिया उस से शादी कर दी, लड़का था न इसलिए,’’ निन्नी ने गुस्से में कहा.

अचानक वातावरण में एक घुटा सा सन्नाटा छा गया.

‘‘कैसे कैंची सी जबान चलाती है. मां हूं तेरी. आगे एक शब्द नहीं सुनूंगी.’’

कुछ क्षण दोनों के बीच नाराजगी व औपचारिकता में गुजरे. कुछ मिनट बाद गार्गी गुस्से में बड़बड़ाती हुई सोने के कमरे में चली गई.

गार्गी ने खिड़की से बाहर झांका. तेज हवा चल रही थी. चारों ओर व्यापक वीरान, चुप्पी से डर लग रहा था. हवा के झोंकों से परदों का हिलनाडुलना उसे और डराने लगा. डरतेडरते न जाने

कब उस की आंख लगी और सुबह भी हो गई. निन्नी की आज छुट्टी थी.

‘‘मां, शौपिंग करनी है तो आधे घंटे में तैयार हो जाइएगा,’’ निन्नी ने कहा.

बडे़बड़े शौपिंग मौल देख कर गार्गी की आंखें खुली की खुली रह गईं.

निन्नी ने गार्गी की सोच पर ब्रेक लगाते हुए कहा, ‘‘मां, लिस्ट निकालो अपनी.’’

एक ही सांस में गार्गी ने अपनी लिस्ट दोहरा दी.

‘‘तुम्हारे भाई के लिए डिजिटल कैमरा, भाभी के लिए चमड़े का पर्स, सुधांशु के लिए फुटबाल और टिसौट की घड़ी, विधि के लिए सुंदर सी फ्रौक और एक बढि़या सी घड़ी. कुछ तुम्हारी नई मामी के लिए.’’

‘‘नई मामी? अभी तो मामीजी की मृत्यु को 6 महीने भी नहीं हुए?’’

‘‘हां, मेरे आने से 1 महीना पहले ही उस की शादी उस की छोटी साली से हुई. अकेले बच्चे पालना बहुत कठिन है मर्दों के लिए.’’

‘‘हांहां, सब जानती हूं. मुझ से मर्दऔरतों की बातें मत किया करो. अब अलका की लिस्ट निकालो.’’

‘‘उस के लिए पैसे बचे तो लूंगी. उस का पति जो है, वही ले कर देगा.’’

निन्नी ने गार्गी की बात को सुनाअनसुना करते हुए कहा, ‘‘मां, अगर ऐसी बात है तो आप ने अर्णव भैया का ठेका क्यों लिया है? वे भी तो शादीशुदा हैं, कमाते हैं, क्या अलका को कूड़े के ढेर से उठा कर लाई थीं मेरी भांति?’’

गार्गी ने निन्नी की बातों को नजरअंदाज कर के पलक झपकते ही 200 पाउंड खर्च कर डाले. इतने पैसों की अहमियत से अनजान थी वह? शायद पहली बार उसे पैसे खर्च करने की छूट मिली थी.
‘‘निन्नी, तुम बेकार में अपने भाई के पीछे क्यों पड़ी रहती हो? शायद भूल रही हो, वंश उसी से चलने वाला है.’’

ऐसी बातें सुन कर निन्नी के होंठों पर फीकी मुसकान उभर आई. घर पहुंचते ही सब ने गरमागरम चाय पी, निन्नी सोफे पर आंखें मूंद आराम करने लगी.

सुलगते सवाल- भाग 1: क्या बेटी निम्मी के सवालों का जवाब दे पाई गार्गी

वह खिलखिलाता सन्नाटा आज भी उस की आंखों के सामने हंस रहा था. बच्चे तो बसेरा छोड़ चुके थे. पति 10 वर्ष पहले साथ छोड़ गए. धूप सेंकतेसेंकते वह न जाने सुधबुध कहां खो बैठी थी. बड़बड़ाए जा रही थी, ‘बड़ी कुत्ती चीज है. दबीदबी न जाने कब उभर आती है. चैन से जीने भी नहीं देती. जितना संभालो उतना और चिपटती जाती है. खून चूसती है. उस से बचने का एक ही विकल्प है. मार डालो या उम्रभर मरते रहो. मारना कौन सा आसान है. यह शै बंदूकचाकू से मरने वाली थोड़ी ही है. स्वयं को मार कर मारना पड़ता है उसे.

हर कोई मार भी नहीं सकता. शरीफों को बहुत सताती है. बदमाशों के पास फटकती नहीं. पीछे पड़ती है तो मधुमक्खियों जैसे. निरंतर डंक मारती रहती है. नींद भी उड़ा देती है. नींद की गोली भी काम नहीं करती है. वह जोंक की तरह खून चूसती है. चाम चिचड़ी की भांति चिपक जाती है.’

वह बहुत कोशिश करती है उसे दूर भगाने की पर वह रहरह कर उसे घेर लेती. वह क्या चीज है जो इतना परेशान करती रहती है उसे. मानो तो बहुत कुछ और न मानो तो कुछ भी नहीं.

वह सोचती है, मां हूं न, इसलिए तड़प रही हूं. भूल तो हुई थी मुझ से. सोच कुंद हो गई थी. समय का चक्र था. उसे पलटा भी नहीं जा सकता. देखो न, उस वक्त तो बड़ी आसानी से सोच लिया था, मां हूं. उस वक्त मुझे अपनी बच्ची की चिंता कम, बहुरुपिए समाज की चिंता अधिक थी. अपनी कोख की जायी का दुख चुपचाप देखती रही. बच्ची के दुख पर समाज हावी हो गया. अरसे से वही कांटा चुभ रहा है. मन ही मन हजारों माफियां मांग चुकी हूं. किंतु यह ‘ईगो’ कहो या ‘अहं’, नामुराद बारबार आड़े आ खड़ा हो गया. दोषी तो थी उस की. फिर भी दोष स्थिति पर मढ़ती आई. शुक्र है, कोई सुन नहीं रहा. खुद से ही बातें कर रही हूं.

नियति कब और कहां करवट बदलती है, कोई नहीं जानता. अब स्थिति यह है कि न तो वह निन्नी से अपने दुख कहती है, न वह ही अपने दुख बताती है. दोनों एकदूसरे की यातनाओं से घबराती हैं. वह अपने शहर में बताती है, ‘मैं आराम से हूं.’ और वह भी यही कहती है. वह आज तक भूमिका बांध रही है, ‘माफी मांगने की.’

बात 3 दशक पहले की है. अचानक यूके से उसे किसी डोरीन का फोन आया:
‘‘मिसेज पुरी, आप के दामाद मिस्टर भल्ला का अचानक हार्टफेल हो गया है.’’
सुनते ही परिवार को मानसिक आघात लगा. पति ने कहा, ‘‘गार्गी, तुम चलने की तैयारी करो.’’
बेटे अर्णव ने भी पिता का साथ देते कहा, ‘‘हां मां, दीदी वहां बच्चों के साथ अकेली हैं. आप के वहां होने से निन्नी दीदी को बहुत सहारा होगा. मैं पासपोर्ट, वीजा, टिकट व दूसरी औपचारिकताएं पूरी कराता हूं.’’

‘‘अर्णव, बेटा, तू क्यों नहीं चला जाता? मैं तो अनपढ़गंवार. एक शब्द अंगरेजी का नहीं आता. मेरा वहां जाने का क्या फायदा?’’

‘‘मां, मुझे कोई आपत्ति नहीं. आजकल प्राइवेट सैक्टर में छुट्टी का कोई सवाल ही नहीं उठता. आप का जाना ही ठीक रहेगा. आप तसल्ली से वहां 5-6 महीने बिता भी सकती हैं. पापा की चिंता मत करना,’’ अर्णव ने आश्वासन देते हुए कहा.

‘‘ठीक है, जैसा तुम दोनों बापबेटे कहते हो, ठीक ही होगा,’’ गार्गी ने तैयारियां शुरू कर दीं. समय बीतता गया. ‘‘बेटा, 2 महीने होने को आए हैं. अब तक तो मुझे निन्नी के पास होना चाहिए था,’’ गार्गी ने विक्षुब्ध हो अर्णव से कहा.

‘‘मां, दूतावास के लोग भी फुजूल की औपचारिकताओं में उलझाए रखते हैं. बैंक का खाता, मकान के कागजात, एक मांग की पूर्ति नहीं होती कि दूसरी मांग खड़ी कर देते हैं.’’

आखिरकार 3 महीने बाद पासपोर्ट तैयार हो गया. उड़ान शनिवार की थी. गार्गी मन ही मन सोच रही थी, उसे तो निन्नी के पास 3 महीने पहले ही होना चाहिए था. गरमियां भी समाप्त हो चुकी थीं. टीवी पर यूके की बर्फ को देखदेख उस की हड्डियां जमने लगीं. भीतरभीतर उसे एक अज्ञात डर सताने लगा. उसे अपनी क्षमता पर शंका होने लगी, कैसे संभालेगी वह स्थिति को, पराए देश में अनजान लोगों के बीच.

गार्गी पहली बार विदेश के लिए अकेली सफर के लिए चल दी. लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर निन्नी के साथ गार्गी के रिश्ते के देवर भी लेने आने वाले थे. उसे इमीग्रेशन से निकलतेनिकलते 2 घंटे लग गए. सुबह के 8 बज चुके थे. बाहर पहुंचते ही चमचमाती नगरी की रोशनी से उस की आंखें चुंधिया गईं. उस रोशनी में उस की बेटी का दुख न जाने किस अंधियारे कोने में दुबक गया. उस की आंखें निन्नी व अपने देवर को ढूंढ़ने में नहीं बल्कि गोरीगोरी अप्सराओं पर टिकी की टिकी रह गईं.

अचानक ‘मां’ शब्द ने उस का ध्यान भंग किया. निन्नी आज मां के गले लग कर खूब रोना चाहती थी. मां ने दूर से ही उसे सांत्वना देते कहा, ‘‘बेटा, संभालो खुद को, तुम्हें बच्चे संभालने हैं,’’ एक बार फिर मां ने जिम्मेदारियों का वास्ता दिया जैसा कि बचपन से करती आई थीं.
मोटरवे पर पहुंचते ही देवर ने कहा, ‘‘भाभीजी, लिवरपूल पहुंचतेपहुंचते 5 घंटे लग जाएंगे. आप लंबा सफर तय कर के आई हैं. चाहें तो कार में आराम कर सकती हैं.’’

‘‘ठीक है, जब मन करेगा तो आंखें मूंद लूंगी,’’ गार्गी ने कहा. मोटरवे पर कार तेज रफ्तार से दौड़ रही थी. सड़क के दोनों ओर खेत नजर आ रहे थे. उन में पीलीपीली सरसों लहलहा रही थी. इतना खूबसूरत दृश्य देख कर गार्गी को यों लगा मानो अभीअभी सूरज की पहली किरण दिखाई दी हो. वह सोचने लगी, कितना अच्छा हो, अर्णव और उस का परिवार भी यहीं पर बस जाएं. घर चल कर निन्नी से बात करूंगी. मां, बच्ची का गम भूल कर अपने बेटे को बसाने की बात सोचने लगीं.

निन्नी टुकुरटुकुर मां की ओर देखती रही. गार्गी प्यार से निन्नी का सिर अपनी गोद में रख सहलाने लगी. सहलातेसहलाते उस का मन इंपोर्टेड चीजों की शौपिंग की ओर चला गया. मन ही मन खरीदारी की सूची तैयार करने लगी. वातावरण में कुछ देर के लिए चुप्पी सी छा गई.

‘‘मां, क्या सोच रही हो? अभी तो भैया से अलग हुए 24 घंटे भी नहीं हुए?’’ निन्नी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं बेटा, कोई विशेष बात नहीं.’’

‘‘मां, विशेष नहीं तो अविशेष बता दीजिए?’’

बिना सोचेसमझे उत्सुकता से गार्गी ने शौपिंग की सूची दोहरा दी.

‘‘यह तेरे भाई अर्णव व बच्चों की सूची है. तुम मुझे 300 पाउंड दे देना. अर्णव हिसाब कर देगा.’’

निन्नी खामोश रही.

गार्गी को गलती का एहसास होते ही उस की ममता कच्ची सी पड़ गई. सोचने लगी, ‘यह मैं ने क्या कर दिया, कैसे भूल गई? मैं तो उस का दुख बांटने आई हूं. वह अपनी बचकाना हरकत पर शर्मिंदा सी हो गई.’

गार्गी की बात सुनते ही निन्नी हैरान हुई. कुछ क्षण के लिए दोनों में मौन का परदा गिर गया. वह गुस्से में बड़बड़ाते बोली, ‘‘मां, भैया व उस के परिवार के लिए ही क्यों, छोटी बहन अलका व उस का परिवार भी तो है दिल्ली में?’’

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