आस्था के आयाम : क्यों उड़ गए अभय के होश

जून का अंतिम सप्ताह और आकाश में कहीं बादल नहीं. अभय को आज हर हाल में रामपुर पहुंचना है वरना ऐसी गरमी में वह क्यों यात्रा करता? वह तो स्टेशन पहुंचने से ले कर रिजर्वेशन चार्ट में अपना नाम ढूंढ़ने तक में ही पसीनापसीना हो गया. पर अपने फर्स्ट क्लास एसी डब्बे में पहुंचते ही उस ने राहत की सांस ली. सामने की सीट पर एक सुंदर महिला बैठी थी. यात्रा में ऐसे सहयात्री का सान्निध्य अच्छा लगता है.

‘‘सामान सीट के नीचे लगा दो,’’ अभय ने पानी की बोतल को खिड़की के पास की खूंटी से टांगते हुए कुली से कहा.

अभय ने महिला को कनखियों से देखा. वह एक बार उन लोगों को उचटती नजर से देख कुछ पढ़ने में व्यस्त हो गई है. इस बीच कुली ने सामान सीट के नीचे रख दिया. जेब से पर्स निकाल कर कुली को मुंहमांगी मजदूरी के साथसाथ अभय ने 10 रुपए बख्शिश भी दी. कुली के डब्बे से उतरते ही गाड़ी ने रेंगना शुरू कर दिया. गाड़ी स्टेशन, शहर पीछे छोड़ती जा रही थी. अब बेफिक्र हो कर अभय ने पूरे डब्बे में नजर दौड़ाई. पूरे डब्बे में सिर्फ वे दोनों ही थे. ऐसा सुखद संयोग पा कर अभय खुश हो उठा. थोड़ी देर बाद अपने जूते उतार कर, बाल संवार कर वह बर्थ पर इस प्रकार टेक लगा कर बैठा कि उस महिला को भलीभांति निहार सके. महिला वास्तव में सुंदर थी. वह लगभग 34-35 वर्ष की तो रही होगी पर देखने से काफी कम आयु की लग रही थी.

अभय उस महिला से संवाद स्थापित करने हेतु व्यग्र हो उठा. पर महिला अपने आसपास के वातावरण से बेखबर पढ़ने में व्यस्त थी. उस की बर्थ पर एक ओर कई समाचारपत्र और पत्रिकाएं रखी हुई थीं और वह एक पुस्तक खोले उस से अपनी नोटबुक में कुछ नोट करती जा रही थी. अभय के बैग में भी 2-3 पत्रिकाएं रखी थीं. पर उन्हें निकालने के बजाय महिला से संवाद करने के उद्देश्य से उस ने शालीनता से पूछा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी मैडम, क्या मैं यह मैगजीन देख सकता हूं?’’ महिला ने एक बार सपाट नजर से उसे देखा. 36-37 वर्ष का स्वस्थ, ऊंचे कद का व्यक्ति, गेहुआं रंग और उन्नत मस्तक. कुल मिला कर आकारप्रकार से संभ्रांत और सुशिक्षित दिखाई देता व्यक्ति. महिला ने बिना कुछ कहे मैगजीन उस की ओर बढ़ा दी. तभी अचानक उसे लगा कि इस व्यक्ति को उस ने कहीं देखा है? पर कब और कहां?

दिमाग पर जोर देने पर भी उसे कुछ याद नहीं आया. थक कर उस ने यह विचार मन से झटक दिया और पुन: अपने काम में मशगूल हो गई. गाड़ी लखनऊ स्टेशन पर रुक रही थी. महिला को अपना सामान समेटते देख कर अभय इस आशंका से भयभीत हो उठा कि कहीं यह सुखद सान्निध्य यहीं तक का तो नहीं? अभी तो कोई बात भी नहीं हो पाई है. तभी महिला ने दूसरी नोटबुक और किताब निकाल ली और पुन: कुछ लिखने में व्यस्त हो गई. अभय ने यह देख राहत की सांस ली.

अचानक डब्बे का दरवाजा खुला. टीटी ने अंदर झांका और फिर सौरी कह कर दरवाजा बंद कर दिया. दरवाजा फिर खुला और सफेद वरदी में एक व्यक्ति, जो उस महिला का अरदली था और द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर रहा था, ने आ कर उस महिला से सम्मान से पूछा, ‘‘मेम साहब, चाय, कौफी या फिर ठंडा लाऊं?’’

‘‘हां, स्ट्रौंग कौफी ले आओ,’’ महिला ने बिना नजरें उठाए कहा.

जब अरदली जाने लगा तो अभय ने उसे आवाज दे कर बुलाया, ‘‘सुनो, 1 कप कौफी मेरे लिए भी ले आना.’’

अरदली ने ठिठक कर महिला की ओर देखा और उस की मौन स्वीकृति पा कर चला गया. महिला अब अभय के बारे में सोचने लगी कि पुरुष मानसिकता की कितनी स्पष्ट छाप है इस की हर गतिविधि में. थोड़ी ही देर में अरदली 2 कप कौफी दे कर लौट गया. अभय ने कौफी का सिप लेते ही कहा, ‘‘कौफी अच्छी बनी है.’’

मगर महिला बिना कुछ बोले कौफी पीती रही. अभय समझ नहीं पा रहा था कि अब वह महिला से कैसे संवाद स्थापित करे. वह कुछ बोलने ही जा रहा था कि तभी बैरा अंदर आ गया. उस ने पूछा, ‘‘साहब, लंच कहां सर्व किया जाए?’’

‘‘लखनऊ में तो दूसरा बैरा आया था, अब तुम कहां से आ गए?’’ अभय ने पूछा.

‘‘नहीं तो साहब… लखनऊ में भी मैं ही इस डब्बे के साथ था.’’

दोनों के वार्त्तालाप के मध्य हस्तक्षेप कर महिला ने कहा, ‘‘वह बैरा नहीं, मेरा अरदली था.’’ यह सुन कर अभय लज्जित हो उठा. उस ने बैरे को फौरन लंच के लिए और्डर दे कर विदा कर दिया. महिला ने पहले ही अपने लिए कुछ भी लाने को मना कर दिया था. वह मन ही मन सोच रहा था कि उच्चपदासीन होने के बावजूद उस के जीवन में अब तक ऐसी कोई महिला नहीं आई, जिस से संवाद स्थापित करने की ऐसी प्रबल इच्छा होती. कार और सुंदर बंगला मिलने के प्रलोभन में ऐसी पत्नी मिली, जिस से उस का मानसिक स्तर पर कभी अनुकूलन न हो सका. ‘काश, ऐसी महिला आज से कुछ वर्ष पहले मेरे जीवन में आई होती.’

अभय ने पुन: वार्त्ता का सूत्र जोड़ने का प्रयास किया, ‘‘मैडम, आप ने लंच और्डर नहीं किया. क्या आप हरदोई या शाहजहांपुर तक ही जा रही हैं?’’

महिला ने उसे ध्यान से देखा. उसे खीज हुई कि यह व्यक्ति उस की रुखाई के बावजूद निरंतर उस से बात करने का प्रयास किए जा रहा है. ‘इसे पहले कहीं देखा है’ एक बार फिर इस प्रश्न के कुतूहल ने सिर उठाया, पर व्यर्थ. उसे कुछ याद नहीं आ रहा था. फिर अपने दिमाग पर अनावश्यक जोर देने के बजाय उस ने संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘‘नहीं, मैं बरेली तक जा रही हूं.’’

‘‘क्या वहां आप का मायका है?’’

‘‘नहीं, मेरा मायका तो फैजाबाद में है. दरअसल, मैं बरेली में एडीशनल मजिस्ट्रेट के पद पर तैनात हूं.’’

यह सुनते ही अभय के मन में एक हूक सी उठी. फिर उस ने लुभावने अंदाज में कहा, ‘‘आप जैसी शख्सीयत से मिलने पर बहुत खुशी हो रही है.’’

फिर अभय सहसा अपने बारे में बताने के लिए बेचैन हो उठा. बोला, ‘‘मैडम, मैं भी जनपद फैजाबाद का रहने वाला हूं. इस समय मैं हरिद्वार में पीडब्लूडी में अधीक्षण अभियंता के पद पर हूं. अभय प्रताप सिंह नाम है मेरा. मेरे पिता ठाकुर विक्रम प्रताप सिंह भी अपने क्षेत्र के नामी ठेकेदार हैं.

‘‘मेरा विवाह सुलतानपुर के एक संभ्रांत ठाकुर घराने में हुआ है. मेरे ससुर भी हाइडिल विभाग में उच्चाधिकारी हैं,’’ अभय नौनस्टौप बोले जा रहा था.

पर ठाकुर विक्रम प्रताप सिंह का नाम सुनते ही महिला को कुछ और सुनाई देना बंद हो गया. एक झटके से विस्मृति के सारे द्वार खुल गए. उसे अपने जीवन की घनघोर पीड़ा का वह अध्याय याद हो आया, जिसे वह अब तक भूल न सकी थी. फिर एक गहरी सांस छोड़ कर महिला ने सोचा कि कुदरत जो करती है, अच्छा ही करती है.

एक दिन इसी अभय से उस की सगाई हुई थी. वह तो मन ही मन उसे अपना पति मान चुकी थी, पर धनसंपदा के प्रलोभन में अभय के पिता ने यह सगाई तोड़ दी थी. बड़ा अपमान हुआ था उस के सीधेसादे बाबूजी का. मगर उसी अपमान के तीखे दंश उसे निरंतर आगे बढ़ने को प्रेरित करते रहे. अपने बाबूजी के खोए सम्मान को वापस पाने हेतु उस ने कड़ी मेहनत की. आज उस के पास सब कुछ है फिर भी उस में एक अजब सा वैराग्य आ गया है, जो शायद इसी व्यक्ति के प्रति कभी रहे उस के गहन अनुराग को ठुकराए जाने का परिणाम है. पर आज अभय की आंखों में अपने प्रति सम्मान और प्रशंसा देख कर उस की सारी गांठें जैसे अपनेआप खुलती चली गईं. गाड़ी बरेली स्टेशन पर रुकी. अरदली ने महिला का सामान उठाया. महिला डब्बे से बाहर जाने के लिए बढ़ी, फिर अनायास अभय की ओर मुड़ी और बोली, ‘‘पहचानते हैं मुझे? मैं उन्हीं ठाकुर विजय सिंह की बेटी निकिता हूं, जिस से कभी आप की सगाई हुई थी,’’ और फिर अभय को अवाक छोड़ डब्बे से उतर गई. बाहर उस के पति और बच्चे उसे रिसीव करने आए थे.

मौसमी बुखार: पति के प्यार को क्यों अवहेलना समझ बैठी माधवी?

‘‘उठो भई, अलार्म बज गया है,’’ कह कर पत्नी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना राकेश ने फिर करवट बदल ली.

चिडि़यों की चहचहाहट और कमरे में आती तेज रोशनी से राकेश चौंक कर जाग पड़ा, ‘‘यह क्या तुम अभी तक सो रही हो? मधु…मधु सुना नहीं था क्या? मैं ने तुम्हें जगाया भी था. देखो, क्या वक्त हो गया है? बाप रे, 8…’’

जल्दी से राकेश बिस्तर से उठा तो माधवी के हाथ से अचानक उस का हाथ छू गया, वह चौंक पड़ा. माधवी का हाथ तप रहा था. माधवी बेखबर सो रही थी. राकेश ने एक चिंता भरी नजर उस पर डाली और सोचने लगा, ‘यदि मौसमी बुखार ही हो तो अच्छा है, 2-3 दिन में लोटपोट कर मधु खड़ी हो जाएगी. अगर कोई और बीमारी हुई तो जाने कितने दिन की परेशानी हो जाए,’ सोचतेसोचते राकेश बच्चों को जगाने पहुंचा.

चाय बना कर माधवी को जगाते हुए राकेश बोला, ‘‘उठो, मधु, चाय पी लो.’’

माधवी ने आंखें खोलीं, ‘‘क्या समय हो गया? अरे, 9. आप ने मुझे जगाया नहीं. आज बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे?’’

राकेश मुसकरा कर बोला, ‘‘बच्चे तो स्कूल गए, तुम क्या सोचती हो, मैं कुछ कर ही नहीं सकता. मैं ने उन्हें स्कूल भेज दिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘चिंता न करो. टिफिन दे कर ही भेजा है.’’

माधवी को खुशी भी हुई और अचंभा भी कि राकेश इतने लायक कब से बन गए? वह सोई रह गई और इतने काम हो गए.

राकेश पुन: बोला, ‘‘मधु और बिस्कुट लो, तुम्हें बुखार लगता है. यह रहा थर्मामीटर. बुखार नाप लेना. अब दफ्तर जा रहा हूं.’’

‘‘नाश्ता?’’

‘‘कर लिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘जरूरत नहीं, वहीं दफ्तर में खा लूंगा. यह दवाइयों का डब्बा है, जरूरत के मुताबिक गोली ले लेना,’’ एक सांस में कहता हुआ राकेश कमरे से बाहर हो गया.

पर दूसरे ही पल फिर अंदर आ कर बोला, ‘‘अरे, दूध तो गैस पर ही चढ़ा रह गया,’’ शीघ्र ही राकेश थर्मस में दूध भर कर माधवी के पास रखते हुए बोला, ‘‘थोड़ी देर बाद पी ले.’’

राकेश के जाते ही माधवी सोचने लगी, ‘इतनी चिंता, इतनी सेवा,’ फिर भी खुश होने के बजाय उस का मन भारी होता जा रहा था, ‘इतना भी नहीं हुआ कि माथे पर हाथ रख कर देख लेते. खुद बुखार नाप लेते तो लाट- साहबी पर धब्बा लग जाता? कितने मजे से सब संभाल लिया. वही पागल है जो सोचती रहती है कि उस के बिना सब को तकलीफ होगी. दिन भर जुटी रहती है सब के आराम के लिए. देखो, सब हो गया न? उस के न उठने पर भी सब काम हो गया? वह सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी बन कर नाचती रहती है और सब उसे नचाते रहते हैं. आज तो सब को सबकुछ मिल गया न? लगता है सब जानबूझ कर उसे परेशान करते हैं.’

सोचतेसोचते माधवी का सिर दुखने लगा. चाय के साथ एक गोली सटक कर वह फिर लेट गई. झपकी आई ही थी कि बिन्नो की आवाज से नींद खुल गई, ‘‘बहूजी, आज दरवाजा कैसे खुला पड़ा है? अरे, लेटी हो. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

माधवी की आंखें छलछला आईं, ‘‘बिन्नो, जरा देखना, स्नानघर में कपड़े पड़े होंगे. धो देना. गीले कपड़े मेरी छाती पर बोझ बढ़ाते हैं. सब यह जानते हैं पर कपड़े ऐसे ही फेंक गए होंगे.’’

बिन्नो ने स्नानघर से ही आवाज लगाई, ‘‘बहूजी, स्नानघर एकदम साफ है. यहां तो एक भी कपड़ा नहीं.’’

‘क्या एक भी कपड़ा नहीं?’ विस्मय से माधवी ने सोचा. उस की मनोस्थिति ऐसी हो रही थी कि राकेश और बच्चों के हर कार्य से उसे अपनेआप पर अत्याचार होता ही महसूस हो रहा था.

बिन्नो ने काम खत्म कर के उस का सिर और हाथपैर दबा दिए. माधवी कृतज्ञता से भर गई, ‘घर वालों से तो महरी ही अच्छी है. बेचारी कितनी सेवा करती है, अब की दीवाली पर इसे एक अच्छी सी साड़ी दूंगी.’

कुछ तो हाथपैर दबाए जाने से और कुछ दवा के असर से दर्द कम हो गया था. इसलिए माधवी दोपहर तक सोती ही रही.

अचानक ही आंखें खुलीं तो प्रिय सखी सुधा को देख माधवी आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर गई, ‘‘तू आज अचानक कैसे?’’

सुधा ने हंस कर कहा, ‘‘मन ने कहा और मैं आ गई,’’ सुधा सुरीले स्वर में गुनगुनाने लगी, ‘‘दिल को दिल से राह होती है. तू बीमार पड़ी है, अकेली है, कितने सही समय पर मैं आई हूं.’’

माधवी कुछ बोले बिना एकटक सुधा को देखती रही. फिर उस की आंखें छलछला आईं. सुधा ने अचरज से पूछा, ‘‘अरे, क्या हुआ?’’

भीगे हुए करुण स्वर में अपने दिन भर के विचारबिंदु एकएक कर सुधा के सामने परोस दिए माधवी ने. स्वार्थी राकेश और बच्चों के किस्से, उस की सेवाटहल में की गई कोताही, जानबूझ कर उस से फायदा उठाने के लिए की गई लापरवाहियों के किस्से, उदाहरण सब सुनाते हुए अंत में न चाहते हुए भी माधवी के मुंह से वह निकल गया जो उसे सवेरे से परेशान किए था, ‘‘देखो न, मेरे बिना भी तो सब का काम होता है. मेरी इन लोगों को जरूरत ही क्या है? सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी की तरह नाचती हूं. मुझ से तो राकेश ज्यादा कार्यकुशल है, सुबह फटाफट बच्चों को स्कूल भेज दिया.’’

सुधा मुंह दबा कर मुसकान रोक रही थी. उस पर नजर पड़ते ही  माधवी भभक उठी, ‘‘तुम हंस रही हो? हंसो, मैं ने बेवकूफी में जो इतने साल गंवाएं हैं, उन के लिए तुम्हारा हंसना ही ठीक है.’’

सुधा ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘सच मधु, तुम बहुत भोली हो,’’ फिर गंभीर होते हुए समझाने लगी, ‘‘क्या मैं अपनेआप आ गई हूं? राकेश भैया ने ही मुझे फोन किया था कि आप की मित्र बहुत बीमार है, कृपया दोपहर में उन्हें देख आइएगा. जरूरत पड़े तो डाक्टर को दिखा दीजिए.’’

‘‘अब यही बचा है? मेरी बीमारी का ढिंढ़ोरा सारे शहर में पीटना था. खुद नहीं दिखा सकते थे डाक्टर को? डाक्टर की बात छोड़ो, माथा तक छू कर नहीं देखा. क्या पहले कभी मुझे छुआ नहीं?’’

सुधा हंस कर बोली, ‘‘खुद छुआ है भई, इस में क्या शक है? पर मधु इतना गुस्सा केवल इसीलिए कि माथा छू कर बुखार नहीं देखा? तुम्हें डाक्टर को दिखाने के लिए क्या वे बिना छुट्टी लिए घर बैठ जाते? तुम्हीं सोचो जो काम तुम 3 घंटे में करती हो, बेचारे ने इतनी जल्दी कैसे किया होगा?’’

‘‘यही तो बात है, मेरी उन्हें अब जरूरत ही नहीं. इतने कार्यकुशल…’’

‘‘खाक कार्यकुशल,’’ सुधा गुस्से से बोल पड़ी, ‘‘तुम्हारे आराम के लिए खुद कितनी परेशानी उठाई उन्होंने? इस में तुम्हें उन का प्यार नहीं दिखता? अच्छा हुआ, मैं आ गई. डाक्टर से ज्यादा तुम्हें मेरी जरूरत थी. ऐसा करो, आंखों से गुस्से की पट्टी उतार कर देखो चुपचाप. आंखें खुली, जबान बंद. सब पता लग जाएगा कि सचाई क्या है और उन लोगों को तुम्हारी कितनी जरूरत है? तुम्हारी चिंता कम करने के लिए ही वे सब तुम्हारी देखभाल कर रहे हैं.’’

माधवी को सुधा की बातें कुछ समझ आईं, कुछ नहीं पर उस ने तय किया कि जबान बंद और आंखें खुली रख कर देखने की कोशिश करेगी. शाम को एकएक कर सब घर लौटे. पहले बच्चे, फिर राकेश. उस ने आते ही पूछा, ‘‘क्या हाल है? बिन्नो आई थी? दवा ली?’’

‘‘हां, एक गोली ली थी,’’ माधवी ने धीरे से कहा.

ठीक है, आराम करो. और कोई तो नहीं आया था?’’

‘‘नहीं तो. किसी को आना था क्या?’’

‘‘नहीं भई, यों ही पूछ लिया.’’

‘‘हां, याद आया, सुधा आई थी,’’ माधवी बोली. सुनते ही राकेश के चेहरे पर इतमीनान झलक उठा. वह उत्साह से बोला, ‘‘चलो बच्चो, दू पी लो. फिर हम सब खिचड़ी बनाएंगे.’’

गुडि़या सोचते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमें खिचड़ी बनानी तो आती नहीं है.’’

‘‘अच्छा, तो क्या बनाना आता है?’’

गुडि़या चुप हो गई क्योंकि उसे तो कुछ भी बनाना नहीं आता था. उसे देख कर सब हंसने लगे.

राकेश उत्साहपूर्वक बोला, ‘‘चलो, हम सब मिल कर बनाएंगे. तुम्हारी मां आराम करेंगी.’’

रसोई से आवाजें आ रही थीं. माधवी सुन रही थी, ‘‘पिताजी, चावलदाल बीनने होंगे?’’

‘‘नहीं बेटा, धो कर काम चल जाएगा.’’

‘‘पर पिताजी मां तो शायद बीनती भी हैं.’’

‘‘शायद न? तुम्हें पक्का तो नहीं मालूम?’’

माधवी का मन हुआ कि चिल्ला कर बता दे, ‘चावल, दाल बीने जाएंगे,’ पर फिर सोचा, ‘हटाओ, कौन उस से पूछने आ रहा है जो वह बताने जाए?’

खिचड़ी बन कर आई. राकेश ने पहली प्लेट उसी को पेश की. पहला चम्मच मुंह में डालते ही कंकड़ दांतों के नीचे बज गया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोचार कौर के बाद राकेश ने खिसियाते हुए कहा, ‘‘कंकड़ हैं खिचड़ी में.’’

पप्पू बोला, ‘‘पिताजी, कहा था न कि चावल, दाल बीनने पड़ेंगे.’’

‘‘चुप, पिताजी क्या रोज बनाते हैं? जैसा मालूम था बेचारों को वैसा बना दिया,’’ गुडि़या पप्पू को घूरते हुए बोली.

‘‘बेटा, डबलरोटी खा लो,’’ राकेश ने धीरे से कहा.

‘‘पिताजी, सवेरे से बस डबलरोटी ही तो खा रहे हैं. नाश्ते में, टिफिन में, दूध के साथ, अब फिर?’’ पप्पू गुस्से से बोला. गुडि़या बिगड़ कर बोली, ‘‘तू एकदम बुद्धू है क्या? मां इतनी बीमार हैं, एक दिन डबलरोटी खा कर तू दुबला हो जाएगा? पिताजी ने भी सवेरे से क्या खाया है? कितने परेशान हैं?’’

गुडि़या की इस बात से कमरे में  सन्नाटा छा गया. सब अपनीअपनी प्लेटों के सामने चुप बैठे थे.

पप्पू अपनी प्लेट छोड़ कर उठा और मां की बगल में लेटता हुआ बोला, ‘‘मां, आप कब ठीक होंगी? जल्दी ठीक हो जाइए, कुछ सही नहीं चल रहा है.’’

गुडि़या मां का सिर दबाते हुए बोली, ‘‘अभी चाहें तो और आराम कर लीजिए, हम लोग काम चला लेंगे.’’

राकेश ने माधवी का माथा छू कर कहा, ‘‘अब लगता है, बुखार कम है.’’

माधवी आनंद की लहरों में डूबती उतराती उनींदे स्वर में बोली, ‘‘तुम सब जा कर होटल से खाना खा आओ.’’

‘‘और तुम?’’ राकेश के प्रश्न के जवाब में असीम तृप्ति से उस का हाथ अपने माथे पर दबा कर माधवी ने कहा, ‘‘मैं अब सोऊंगी.’’

अनजाने पल: भाग 2- क्यों सावित्री से दूर होना चाहता था आनंद

एक दिन मैं ने छुट्टी ले ली. घर में उस की पसंद की खीर बनाई और आलू की टिकियां. ये दोनों चीजें उसे बहुत अच्छी लगती थीं. वह स्कूल से घर आई. मैं बड़े प्यार से उसे मेज के पास ले गई. उस ने मेज पर रखी चीजें एकएक कर खोलीं, फिर बंद कर दीं. मैं खुशीखुशी उस की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगी. जब वह कुछ न बोली तो मैं ने ही कहा, ‘चल नीलू, आज मैं तुझे स्वयं हाथ से खिलाती हूं.’

‘क्यों? आज मुझ से इतनी हमदर्दी क्यों?’ उस के शब्द शूल की तरह मेरे हृदय को भेद गए?

‘बेटी, कैसी बात करती है. मैं ने तेरी पसंद की चीजें बनाई हैं. देख…खीर, आलू की गरमगरम टिकिया.’

‘मुझे भूख नहीं है.’

‘क्या हुआ, मुझ से नाराज है?’

‘अगर तुम मुझे हर रोज इस प्रकार खाना खिलाओगी तो मैं आज खाने को तैयार हूं.’

मैं चुप हो गई, क्या जवाब देती. आखिर उसी ने चुप्पी तोड़ी, ‘बोलो, जवाब दो. क्या हर रोज घर पर रह सकती हो?’

‘तब तो मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी. और नौकरी छोड़ दूं तो हम तुम्हें वह सुख और आराम नहीं दे पाएंगे, जो तुम्हें आज मिल रहा है. देखो, तुम्हारे पास टीवी है, एसी है, कितने खिलौने हैं, अच्छे स्कूल में पढ़ती हो, क्या ये सब तुम्हें खोना अच्छा लगेगा?’

‘लेकिन पिताजी तो कहते हैं कि तुम्हें नौकरी करने की जरूरत नहीं है.’

‘वे तो यों ही कहते हैं. तुम जब बड़ी हो जाओगी, तभी ये बातें समझ पाओगी.’

‘क्या पता. लेकिन मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता. तुम्हारा हर रोज देर से आना, फिर रात को तुम्हारा और पिताजी का झगड़ा…’ यह कहतेकहते उस की आंखों से आंसू झरने लगे.

मैं ने बच्ची को आलिंगन में भींच लिया. फिर कहा, ‘कहो तो तुम्हें होस्टल भेज दें. वहां तुम्हें खूब सारी सहेलियां मिलेंगी. खूब मजा आएगा.’

उस ने कुछ जवाब नहीं दिया. उस रात मैं ने आनंद से इस बात का जिक्र किया. मुझे तो आश्चर्य होता था कि उस व्यक्ति से मैं ने शादी कैसे की? वह कितना बदल गया गया था. कठोर हृदयहीन और अहंकारी. उस ने गुस्से से लगभग चीखते हुए कहा, ‘कैसी मां हो. बच्ची को अपने से अलग करना चाहती हो?’

मैं बोली, ‘मैं उसे अलग कहां कर रही हूं. आजकल तो सभी बच्चों को होस्टल भेजते हैं. एक साल में मेरा काम हो जाएगा. फिर पिं्रसिपल बन जाने पर कालेज के कैंपस में ही घर मिल जाएगा. नीलू को फिर घर ले आएंगे.’

आनंद ने तपाक से उत्तर दिया, ‘औरों की बात छोड़ो. सोसाइटी में झूठी शान बघारने के लिए लोग बच्चों को होस्टल भेजते हैं. हमें इस की जरूरत नहीं है. और यह खयाल दिल में फिर कभी मत लाना कि मैं कालेज कैंपस में तुम्हारे साथ रहूंगा.’

मैं दंग रह गई. थोड़ी देर बाद पूछा, ‘आप वहां क्यों नहीं रहेंगे? हमारी बच्ची की देखभाल भी वहां ढंग से हो जाएगी. मैं भी उसे ज्यादा समय दे पाऊंगी.’

‘क्या तुम सोचती हो कि मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पलूंगा. मैं मर्द हूं. याद नहीं है, मैं ने तुम्हारे पिताजी से क्या कहा था?’

‘भला उसे मैं भूल सकती हूं. तुम ने पिताजी से कितने आक्रोश में कहा था कि मैं चाहे मिट जाऊं, परंतु दूसरों के टुकड़ों पर नहीं पल सकता. मेरे बाजुओं की ताकत पर भरोसा हो तो अपनी लड़की का हाथ मेरे हाथ में दें. अपनी खुद्दारी पर बहुत गर्व था न तुम्हें?’

‘था नहीं, आज भी है.’

‘लेकिन हम, तुम अलग तो नहीं हैं न.’

‘स्त्रीपुरुष का अस्तित्व अलग है और अलग ही रहेगा.’

‘तो तुम ने मुझे नौकरी करने के लिए मजबूर क्यों किया?’

‘अब भी मैं तुम्हें नौकरी करने से नहीं रोकता. बस, यही कहता हूं कि घर और बच्ची का ध्यान रखो. पीएचडी वगैरह की आवश्यकता नहीं है. तुम्हारी जितनी तनख्वाह है, उतनी ही काफी है. महत्त्वाकांक्षाओं का कभी अंत नहीं होता.’

‘लेकिन मेरे इतने दिनों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा. मुझे नहीं लगता कि बच्ची को होस्टल भेजने और तुम्हारी इस लैक्चरबाजी में कोई संबंध है.’

‘है, तभी तो कह रहा हूं. मेरी बेटी होस्टल नहीं जाएगी. तुम पीएचडी छोड़ कर उस की परवरिश करो, नहीं तो मैं उसे अपनी बहन के पास जयपुर

भेज दूंगा. फिर अपना तबादला भी वहीं करा लूंगा.’

‘नीलिमा केवल तुम्हारी बेटी नहीं है, उस पर मेरा भी उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हारा. उस के संबंध में मुझे भी निर्णय लेने का पूरा अधिकार है.’

‘इस निर्णय की हकदार तुम तभी बन सकती हो, जब उस का भला चाहो. मां हो कर अगर अपनी प्रतिष्ठा, यश और पदवी के लिए तुम उसे होस्टल भेजने पर उतारू हो जाओ तो ऐसे में तुम उस हक से वंचित हो जाती हो.’

मेरे क्रोध का पारावार न रहा. मैं भी बहुतकुछ बोल गई. आनंद ने भी बहुतकुछ कहा. बात बढ़ती ही चली गई. इतने में नीलिमा दौड़ती हुई आई और लगभग चीखती हुई बोली, ‘बंद करो यह झगड़ा. नहीं रहना मुझे अब इस घर में. मैं आंटी के पास जयपुर जाऊंगी.’

मेरा कलेजा मुंह को आ गया. ऐसा लगा, जैसे किसी ने छाती पर गोली दाग दी हो. मैं एकदम से पलट कर अपने कमरे में चली गई. मन में विचार उठा, ‘क्या अपनी पहचान बनाना गुनाह है? क्या मैं ने कोई गलती की है? मुझे पीएचडी नहीं करनी चाहिए क्या?’

मन ने झकझोरा, ‘नहीं, गलती मर्दों की है. पति का अहं मेरी पदोन्नति स्वीकार नहीं कर पाता. वह आखिर शाखा अधिकारी है और अगर मैं पिं्रसिपल बन गई तो उस को समाज में वह इज्जत नहीं मिलेगी, जो मुझे मिलेगी. वह मुझ से जलता है. मैं हार मानने से रही. नीलिमा अभी बच्ची है. एक दिन वह मां का प्यार जरूर महसूस करेगी,’ विचारों के सागर में गोते लगातेलगाते कब आंख लग गई, पता ही न चला.

सुबह उठी तो कुछ अजीब सी मायूसी ने घेर लिया. आनंद को नजदीक न पा कर जल्दी से उठ कर ड्राइंगरूम में पहुंची. घर की निस्तब्धता भयानक लगने लगी.

‘नीलिमा,’ मैं ने आवाज दी. लेकिन मेरी आवाज गूंजती हुई कानों में टकराने लगी. दिल धड़कने लगा. सहसा मेज पर रखी हुई चिट्ठी ने ध्यान आकर्षित किया. धड़कते दिल से उठा कर उसे पढ़ने लगी. उस में लिखा था, ‘मैं नीलिमा को ले कर जयपुर जा रहा हूं, उस की मरजी से ही यह सब हो रहा है. कभी हमारे लिए वक्त निकाल सको तो जयपुर पहुंच जाना. आनंद.’

इस के बाद बहुतकुछ हो गया. नीलिमा ने मुझे समझने या समझाने का मौका ही नहीं दिया. इतने समय बाद उसे देख कर पुराने जख्म हरे हो गए. मैं सोचने लगी, ‘आनंद अस्पताल में क्या कर रहा है? कैसी विचित्र परिस्थिति है, कैसा अजीब संगम. क्या कहूंगी आनंद से, क्या वह मुझे पहचानेगा? क्या मुझे उस से मिलना चाहिए? कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करूं.

मैं जब विकास से मिली तो बड़ी परेशानी में थी. उस ने देखते ही कहा, ‘‘क्या हुआ. एक तो देर से आई हो… फिर इतनी घबराहट. सबकुछ ठीक तो है न. कोई बुरी खबर है क्या?’’

मैं ने मुसकराते हुए अपने विचारों को झटकने का प्रयास किया. हम होटल के अंदर गए. मन में विचारों का बवंडर उठ रहा था, ‘क्या विकास को सबकुछ बता दूं, क्या वह समझ पाएगा? आनंद से मिलने कैसे जाऊं? विकास से क्या कहूं?’ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.

अचानक मेरे कंधे पर हाथ रख कर विकास ने ही कहा, ‘सवि, मैं कुछकुछ समझ रहा हूं. समस्या क्या है, साफसाफ कहो?’

मेरी आंखों में आंसू आ गए. मैं ने विकास को सबकुछ बता दिया. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘इतनी सी बात के लिए परेशान हो. गोष्ठी खत्म होने के बाद उस से जा कर मिल लो. मैं भी साथ चलूंगा.’

उस ने इतनी आसानी से कह दिया, पर मैं अपने को संभाल नहीं पा रही थी. भोजन के दौरान स्मृतिपटल पर चलचित्र की तरह बीते दिन फिर से उभर आए.

बहू: दीपक ने शोभा को क्यों त्याग दिया था?

बहू शब्द सुनते ही मन में सब से पहला विचार यही आता है कि बहू तो सदा पराई होती है. लेकिन मेरी शोभा भाभी से मिल कर हर व्यक्ति यही कहने लगता है कि बहू हो तो ऐसी. शोभा भाभी ने न केवल बहू का, बल्कि बेटे का भी फर्ज निभाया. 15 साल पहले जब उन्होंने दीपक भैया के साथ फेरे ले कर यह वादा किया था कि वे उन के परिवार का ध्यान रखेंगी व उन के सुखदुख में उन का साथ देंगी, तब से वह वचन उन्होंने सदैव निभाया.

जब बाबूजी दीपक भैया के लिए शोभा भाभी को पसंद कर के आए थे तब बूआजी ने कहा था, ‘‘बड़े शहर की लड़की है भैयाजी, बातें भी बड़ीबड़ी करेगी. हमारे छोटे शहर में रह नहीं पाएगी.’’

तब बाबूजी ने मुसकरा कर कहा था, ‘‘दीदी, मुझे लड़की की सादगी भा गई. देखना, वह हमारे परिवार में खुशीखुशी अपनी जगह बना लेगी.’’

बाबूजी की यह बात सच साबित हुई और शोभा भाभी कब हमारे परिवार का हिस्सा बन गईं, पता ही नहीं चला. भाभी हमारे परिवार की जान थीं. उन के बिना त्योहार, विवाह आदि फीके लगते थे. भैया सदैव काम में व्यस्त रहते थे, इसलिए घर के काम के साथसाथ घर के बाहर के काम जैसे बिजली का बिल जमा करना, बाबूजी की दवा आदि लाना सब भाभी ही किया करती थीं.

मां के देहांत के बाद उन्होंने मुझे कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी. इसी बीच राहुल के जन्म ने घर में खुशियों का माहौल बना दिया. सारा दिन बाबूजी उसी के साथ खेलते रहते. मेरे दोनों बच्चे अपनी मामी के इस नन्हे तोहफे से बेहद खुश थे. वे स्कूल से आते ही राहुल से मिलने की जिद करते थे. मैं जब

भी अपने पति दिनेश के साथ अपने मायके जाती तो भाभी न दिन देखतीं न रात, बस

सेवा में लग जातीं. इतना लाड़ तो मां भी नहीं करती थीं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया और उन्होंने कहा, ‘‘शालिनी, दिनेश को ले कर फौरन चली आ बेटी, शोभा को तेरी जरूरत है.’’

मैं ने तुरंत दिनेश को दुकान से बुलवाया और हम दोनों घर के लिए निकल पड़े. मैं सारा रास्ता परेशान थी कि आखिर बाबूजी ने इस समय हमें क्यों बुलाया और भाभी को मेरी जरूरत है, ऐसा क्यों कहा? मन में सवाल ले कर जैसे ही घर पहुंची तो देखा कि बाहर टैक्सी खड़ी थी और दरवाजे पर 2 बड़े सूटकेस रखे थे. कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है. अंदर जाते ही देखा कि बाबूजी परेशान बैठे थे और भाभी चुपचाप मूर्ति बन कर खड़ी थीं.

भैया गुस्से में आए और बोले, ‘‘उफ, तो अब अपनी

वकालत करने के लिए शोभा ने आप लोगों को बुला लिया.’’

भैया के ये बोल दिल में तीर की तरह लगे. तभी दिनेश बोले, ‘‘क्या हुआ भैया आप सब इतने परेशान क्यों हैं?’’

इतना सुनते ही भाभी फूटफूट कर रोने लगीं.

भैया ने गुस्से में कहा, ‘‘कुछ नहीं दिनेश, मैं ने अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण फैसला लिया है जिस से बाबूजी सहमत नहीं हैं. मैं विदेश जाना चाहता हूं, वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल रही है, रहने को मकान व गाड़ी भी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है भैया,’’ दिनेश ने कहा.

दिनेश कुछ और कह पाते, तभी भैया बोले, ‘‘मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई दिनेश, मैं अब अपना जीवन अपनी पसंद से जीना चाहता हूं, अपनी पसंद के जीवनसाथी के साथ.’’

यह सुनते ही मैं और दिनेश हैरानी से भैया को देखने लगे. भैया ऐसा सोच भी कैसे सकते थे. भैया अपने दफ्तर में काम करने वाली नीला के साथ घर बसाना चाहते थे.

‘‘शोभा मेरी पसंद कभी थी ही नहीं. बाबूजी के डर के कारण मुझे यह विवाह करना पड़ा. परंतु कब तक मैं इन की खुशी के लिए अपनी इच्छाएं दबाता रहूंगा?’’

मैं बाबूजी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली, ‘‘बाबूजी, आप भैया से कुछ कहते क्यों नहीं? इन से कहिए ऐसा न करें, रोकिए इन्हें बाबूजी, रोक लीजिए.’’

चारों ओर सन्नाटा छा गया, काफी सोच कर बाबूजी ने भैया से कहा, ‘‘दीपक, यह अच्छी बात है कि तुम जीवन में सफलता प्राप्त कर रहे हो पर अपनी सफलता में तुम शोभा को शामिल नहीं कर रहे हो, यह गलत है. मत भूलो कि तुम आज जहां हो वहां पहुंचने में शोभा ने तुम्हारा भरपूर साथ दिया. उस के प्यार और विश्वास का यह इनाम मत दो उसे, वह मर जाएगी,’’ कहते हुए बाबूजी की आंखों में आंसू आ गए.

भैया का जवाब तब भी वही था और वे हम सब को छोड़ कर अपनी अलग

दुनिया बसाने चले गए.

बाबूजी सदा यही कहते थे कि वक्त और दुनिया किसी के लिए नहीं रुकती, इस बात का आभास भैया के जाने के बाद हुआ. सगेसंबंधी कुछ दिन तक घर आते रहे दुख व्यक्त करने, फिर उन्होंने भी आना बंद कर दिया.

जैसेजैसे बात फैलती गई वैसेवैसे लोगों का व्यवहार हमारे प्रति बदलता गया. फिर एक दिन बूआजी आईं और जैसे ही भाभी उन के पांव छूने लगीं वैसे ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, ‘‘हट बेशर्म, अब आशीर्वाद ले कर क्या करेगी? हमारा बेटा तो तेरी वजह से हमें छोड़ कर चला गया. बूढ़े बाप का सहारा छीन कर चैन नहीं मिला तुझे अब क्या जान लेगी हमारी? मैं तो कहती हूं भैया इसे इस के मायके भिजवा दो, दीपक वापस चला आएगा.’’

बाबूजी तुरंत बोले, ‘‘बस दीदी, बहुत हुआ. अब मैं एक भी शब्द नहीं सुनूंगा. शोभा इस घर की बहू नहीं, बेटी है. दीपक हमें इस की वजह से नहीं अपने स्वार्थ के लिए छोड़ कर गया है. मैं इसे कहीं नहीं भेजूंगा, यह मेरी बेटी है और मेरे पास ही रहेगी.’’

बूआजी ने फिर कहा, ‘‘कहना बहुत आसान है भैयाजी, पर जवान बहू और छोटे से पोते को कब तक अपने पास रखोगे? आप तो कुछ कमाते भी नहीं, फिर इन्हें कैसे पालोगे? मेरी सलाह मानो इन दोनों को वापस भिजवा दो. क्या पता शोभा में ऐसा क्या दोष है, जो दीपक इसे अपने साथ रखना ही नहीं चाहता.’’

यह सुनते ही बाबूजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने बूआजी को अपने घर से चले जाने को कहा. बूआजी तो चली गईं पर उन की

कही बात बाबूजी को चैन से बैठने नहीं दे रही थी. उन्होंने भाभी को अपने पास बैठाया और कहा, ‘‘बस शोभा, अब रो कर अपने आने

वाले जीवन को नहीं जी सकतीं. तुझे बहादुर बनना पड़ेगा बेटा. अपने लिए, अपने बच्चे

के लिए तुझे इस समाज से लड़ना पड़ेगा.

तेरी कोई गलती नहीं है. दीपक के हिस्से

तेरी जैसी सुशील लड़की का प्यार नहीं है.

तू चिंता न कर बेटा, मैं हूं न तेरे साथ और हमेशा रहूंगा.’’

वक्त के साथ भाभी ने अपनेआप को संभाल लिया. उन्होंने कालेज में नौकरी कर ली और शाम को घर पर भी बच्चों को पढ़ाने लगीं. समाज की उंगलियां भाभी पर उठती रहीं, पर उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा. राहुल को स्कूल में डालते वक्त थोड़ी परेशानी हुई पर भाभी ने सब कुछ संभालते हुए सारे घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली.

भाभी ने यह साबित कर दिया कि अगर औरत ठान ले तो वह अकेले पूरे समाज से लड़ सकती है. इस बीच भैया की कोई खबर नहीं आई. उन्होंने कभी अपने परिवार की खोजखबर नहीं ली. सालों बीत गए भाभी अकेली परिवार चलाती रहीं, पर भैया की ओर से कोई मदद नहीं आई.

एक दिन भाभी का कालेज से फोन आया, ‘‘दीदी, घर पर ही हो न शाम को?

आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘हांहां भाभी, मैं घर पर ही हूं आप

आ जाओ.’’

शाम 6 बजे भाभी मेरे घर पहुंचीं. थोड़ी परेशान लग रही थीं. चाय पीने के बाद मैं ने उन से पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी कुछ परेशान लग रही हो? घर पर सब ठीक है?’’

थोड़ा हिचकते हुए भाभी बोलीं, ‘‘दीदी, आप के भैया का खत आया है.’’

मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. बोली, ‘‘इतने सालों बाद याद आई उन को अपने परिवार की या फिर नई बीवी ने बाहर निकाल दिया उन को?’’

‘‘ऐसा न कहो दीदी, आखिर वे आप के भाई हैं.’’

भाभी की बात सुन कर एहसास हुआ कि आज भी भाभी के दिल के किसी कोने में भैया हैं. मैं ने आगे बढ़ कर पूछा, ‘‘भाभी, क्या लिखा है भैया ने?’’

भाभी थोड़ा सोच कर बोलीं, ‘‘दीदी, वे चाहते हैं कि बाबूजी मकान बेच कर उन के साथ चल कर विदेश में रहें.’’

‘‘क्या कहा? बाबूजी मकान बेच दें? भाभी, बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करना भी चाहेंगे तो मैं उन्हें कभी ऐसा करने नहीं दूंगी. भाभी, आप जवाब दे दीजिए कि ऐसा कभी नहीं होगा. वह मकान बाबूजी के लिए सब कुछ है, मैं उसे कभी बिकने नहीं दूंगी. वह मकान आप का और राहुल का सहारा है. भैया को एहसास है कि अगर वह मकान नहीं होगा तो आप लोग कहां जाएंगे? आप के बारे में तो नहीं पर राहुल के बारे में तो सोचते. आखिर वह उन का बेटा है.’’

मेरी बातें सुन कर भाभी चुप हो गईं और गंभीरता से कुछ सोचने लगीं. उन्होंने यह बात अभी बाबूजी से छिपा रखी थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें, तभी दिनेश आ गए और हमें परेशान देख कर सारी बात पूछी. बात सुन कर दिनेश ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आप को यह बात बाबूजी को बता देनी चाहिए. दीपक भैया के इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे.’’

यह सुनते ही भाभी डर गईं. फिर हम तीनों तुरंत घर के लिए निकल पड़े. घर जा कर

भाभी ने सारी बात विस्तार से बाबूजी को बता दी. बाबूजी कुछ विचार करने लगे. उन के चेहरे से लग रहा था कि भैया ऐसा करेंगे उन्हें इस बात की उम्मीद थी. उन्होंने दिनेश से पूछा, ‘‘दिनेश, तुम बताओ कि हमें क्या करना चाहिए?’’

दिनेश ने कहा, ‘‘दीपक आप के बेटे हैं तो जाहिर सी बात है कि इस मकान पर उन का अधिकार बनता है. पर यदि आप अपने रहते यह मकान भाभी या राहुल के नाम कर देते हैं तो फिर भैया चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेंगे.’’

दिनेश की यह बात सुन कर बाबूजी ने तुरंत फैसला ले लिया कि वे अपना मकान भाभी के नाम कर देंगे. मैं ने बाबूजी के इस फैसले को मंजूरी दे दी और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे सही कर रहे हैं.

ठीक 10 दिन बाद भैया घर आ पहुंचे और आ कर अपना हक मांगने लगे. भाभी पर इलजाम लगाने लगे कि उन्होंने बाबूजी के बुढ़ापे का फायदा उठाया है और धोखे से मकान अपने नाम करवा लिया है.

भैया की कड़वी बातें सुन कर बाबूजी को गुस्सा आ गया. वे भैया को थप्पड़ मारते हुए बोले, ‘‘नालायक कोई तो अच्छा काम किया होता. शोभा को छोड़ कर तू ने पहली गलती की और अब इतनी घटिया बात कहते हुए तुझे जरा सी भी लज्जा नहीं आई. उस ने मेरा फायदा नहीं उठाया, बल्कि मुझे सहारा दिया. चाहती तो वह भी मुझे छोड़ कर जा सकती

थी, अपनी अलग दुनिया बसा सकती थी पर उस ने वे जिम्मेदारियां निभाईं जो तेरी थीं.

तुझे अपना बेटा कहते हुए मुझे अफसोस

होता है.’’

भाभी तभी बीच में बोलीं, ‘‘दीपक, आप बाबूजी को और दुख मत दीजिए, हम सब की भलाई इसी में है कि आप यहां से चले जाएं.’’

भाभी का आत्मविश्वास देख कर भैया दंग रह गए और चुपचाप लौट गए.

भाभी घर की बहू से अब हमारे घर का बेटा बन गई थीं.

अशुभ घड़ी: सुचि ने कैसे हटाया परिवार के अंधविश्वास से परदा ?

सावित्री देवी के घरआंगन में शहनाई की मधुर ध्वनि गूंज रही थी. सारे घर में उल्लास का वातावरण था. नईनवेली दुलहन शुचि व दूल्हा अभय ऐसे लग रहे थे जैसे वे एकदूसरे के लिए ही बने हों.

अभय का साथ पा कर शुचि प्रसन्न थी. परंतु दिन बीतने के साथ शुचि को यह एहसास होने लगा था कि एक असमानता उस के व अभय के बीच है. शुचि जहां एक प्रगतिशील परिवार की मेधावी लड़की थी, वहीं अभय का परंपरागत रूढिवादी परिवार था. यहां तक कि इंजीनियर होते हुए भी अभय के व्यक्तित्व में परिवार में व्याप्त अंधविश्वास की   झलक शुचि को स्पष्ट दिखाई देने लगी थी.

शुचि को याद है कि शादी के बाद पहली बार जब वह अभय के साथ बाहर घूमने जा रही थी तो बड़ी जेठानी ने उसे टोक दिया था, ‘‘शुचि, नई दुलहन तब तक घर से बाहर नहीं निकलती जब तक पंडितजी शुभ मुहूर्त नहीं बताते. यह इस घर की परंपरा है.’’ और फिर एक सरसरी निगाह शुचि व अभय पर डाल कर वे चली गई थीं.

शुचि तब और दुखी हो गई, जब अभय ने भी उन की बात मान कर घूमने जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया.

हर रोज इसी तरह की कोई न कोई घटना होती. शुचि का मन विद्रोह करने को आतुर हो उठता, परंतु नई बहू की लज्जा उसे रोक देती. हर कार्य के लिए सावित्री देवी को पंडित से सलाह लेना जरूरी था. घर का हर सदस्य पंडित की बताई बातों को ही मानता था. इस के लिए पता

नहीं कितने रुपए पंडितों के घर पहुंच जाते.

दिन बीतने लगे. अभय को शुचि सम  झाती पर बचपन के संस्कार और जो अंधविश्वास उस में भर दिए गए थे उन से वह मुक्त नहीं हो पा रहा था. तभी एक दिन जब घर के सदस्यों को शुचि के पांव भारी होने की खबर मिली  तो सारे घर में खुशी की लहर दौड़ गई. जल्दी से शुचि की सास सावित्री देवी मंदिर में प्रसाद चढ़ा आईं. उधर खबर मिलते ही पंडित रामधन शास्त्री अपने पोथेपत्रियों को ले कर आ धमके.

भरपेट जलपान करने के बाद अपनी भारीभरकम तोंद पर हाथ फेरते हुए पंडित सावित्री देवी से बोले, ‘‘देखो पुत्री, अब तुम्हें बहू का खास ध्यान रखना होगा. पूरे

9 महीने बहू को मुहूर्त देख कर ही घर से बाहर निकलने देना होगा. और हां, कोई ऊंचीनीच न हो, इस के लिए भी उपाय करने होंगे.’’

‘‘क्या उपाय हैं पंडितजी? मैं आने वाले बच्चे की भलाई के लिए सब करूंगी,’’ सावित्री देवी पंडित रामधन शास्त्री के चरणों में   झुक कर बोलीं.

मुसकराते रामधन शात्री मन ही मन प्रसन्न थे कि चलो अब साल भर तक तो मुफ्त का चढ़ावा मिलेगा. फिर बोले, ‘‘देखो पुत्री, अभीअभी बहू के पांव भारी हुए हैं, इसलिए अभी तुम्हें हवन कराना होगा ताकि शुरू का महीना ठीक से बीते.’’

‘‘कितना खर्च आएगा पंडितजी?’’ सावित्री देवी ने पूछा.

‘‘यही कोई 5 हजार रुपए. हवन की सामग्री मंगानी होगी और मेरे साथ हवन संपन्न

कराने 4 ब्राह्मण और आएंगे,’’ पंडित बोले.

सावित्री देवी पैसे ले आईं,

‘‘लीजिए पंडितजी, अब सब जिम्मेदारी आप की है और हां, हवन शीघ्र करवाइए.’’

‘‘चिंता न करो पुत्री सब भला होगा,’’ अपनी पोथी उठा कर शास्त्रीजी उठ खड़े हुए.

शुचि यह सब देख कर

दुखी हो उठी. हिम्मत कर के सावित्री देवी के पास जा कर बोली, ‘‘मांजी, विज्ञान के इस

युग में पंडितों की बात का विश्वास नहीं करना चाहिए.

ये हवनपूजन सब अंधविश्वास

है मांजी.’’

‘‘देखो बहू, माना तुम नए जमाने की हो पर हम ने भी दुनिया देखी है. ये केश धूप में सफेद नहीं हुए हैं हमारे. और हां, आइंदा हमारे काम में दखल नहीं देना,’’ सावित्री देवी बोलीं.

शुचि चुप हो गई. वह सम  झ गई कि मांजी उस की बात नहीं सम  झेंगी. मांजी क्या, इस परिवार का कोई भी सदस्य नहीं सम  झेगा.

कुछ दिन बीतने के बाद पंडित रामधन शास्त्री अपने

साथी पंडितों के साथ हवन

कराने आ पहुंचे. सावित्री देवी ने उन्हें आदरपूर्वक बैठा कर उन के चरण स्पर्श किए. फिर परिवार के सभी सदस्यों ने भी उन के चरण स्पर्श किए.

‘‘पंडितजी, हवन करने से सब बाधाएं दूर हो जाएंगी न?’’ सावित्री देवी बोलीं.

‘‘हां पुत्री, सब कुशल होगा,’’ पंडितजी बोले.

शुचि को भी अभय के साथ हवन में बैठना पड़ा. मन ही मन इन ढोंगी पंडितों को देख कर शुचि दुखी थी पर परिवार के सभी सदस्यों के मन पर छाए अंधविश्वास ने जो चक्रव्यूह शुचि के इर्दगिर्द रचा था, उसे वह तोड़ नहीं पा रही थी.

हवन की समाप्ति के बाद पंडितजी और उन के साथियों ने जलपान किया और दानदक्षिणा ले कर विदा ली.

रात में शुचि ने अभय को सम  झाने की कोशिश की, ‘‘अभय, देखो यह अंधविश्वास है. हवनपूजन में इतना समय और पैसा खर्च करना गलत है. आजकल डाक्टर ही यह बता सकते हैं कि बच्चा स्वस्थ होगा या नहीं. पंडित तो सिर्फ ग्रहों के   झूठे हेरफेर में फंसा कर अपनी रोजीरोटी चलाते हैं.’’

‘‘देखो शुचि, मां और परिवार के बाकी सदस्य तुम्हारे भले के लिए ही सोच रहे हैं. हमारे घर में हमेशा ही पंडितों

से पूछ कर सारे शुभ कार्य होते हैं, इसलिए तुम चुप रहो यही अच्छा होगा,’’ अभय गुस्से से बोला.

दिन बीतने लगे. शुचि स्वयं को

असहाय महसूस करने लगी. पर वह डा. सीमा के पास जब भी चैकअप के लिए जाती उसे यह सुन कर तसल्ली मिलती कि सब

ठीक है.

2 महीने बाद एक दिन दोपहर को दरवाजे की घंटी

बजने पर सावित्री देवी ने दरवाजा खोला तो सामने एक पंडितजी खड़े थे. रामनामी धोती, माथे

पर बड़ा सा टीका लगाए जनेऊ पहने पंडितजी के हाथों में पोथीपत्रियां थीं. अंदर आने

को आतुर पंडितीजी से

सावित्री देवी बोलीं, ‘‘मैं ने आप को पहचाना नहीं पंडितजी?’’

पंडितजी इधरउधर नजरें घुमाते हुए बोले, ‘‘घोर संकट. पुत्री, घोर संकट. मैं इस घर के सामने से गुजर रहा था तभी मु  झे महसूस हुआ कि इस घर में एक नया मेहमान आने वाला है और उस पर ग्रहों का भारी संकट है. उन का उपाय जरूरी है पुत्री.’’

‘‘पर पंडितजी…’’ सावित्री देवी की बात बीच में ही काट कर पंडितजी बोल पड़े, ‘‘कुछ न कहो पुत्री, तुम ने पंडित दीनानाथ शर्मा का नाम नहीं सुना? मैं वही हूं. मेरी बात कभी न टालना वरना अनर्थ हो जाएगा.’’

घबरा कर सावित्री देवी बोलीं, ‘‘जैसा आप कहेंगे वैसा ही होगा पंडितजी.’’

यह सब देख कर शुचि तिलमिला उठी. अब फिर वही सब होगा. राह चलता कोई भी घर आ कर पूजापाठ के बहाने पैसे ऐंठ ले, यह कैसी विडंबना है. वह कुछ कहने ही वाली थी कि तुरंत सावित्री देवी ने उसे घूर कर देखा, ‘‘शुचि, जाओ स्वामीजी के लिए जलपान ले कर आओ.’’

शुचि मन ही मन दुखी थी. चुपचाप वह अंदर चली गई. उसे सम  झ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

उधर पंडितजी पंचांग निकाल कर ग्रहों की गणना कर रहे थे.

‘‘तुम्हारी बहू का चौथा महीना चल रहा है न पुत्री? क्या राशि है बहू की?’’ उन्होंने पूछा,

‘‘जी तुला राशि है बहू की,’’ सावित्री देवी ने कहा.

‘‘बहुत भारी ग्रह है पुत्री. बच्चे

व मां की रक्षा के लिए उपाय आवश्यक है.’’

‘‘कुछ दानदक्षिणा दो, उपाय हम स्वयं कर देंगे,’’ मन ही मन मुसकराते हुए पंडितजी सावित्री देवी से बोले. जलपान कर के पूरे 1,100 रुपए दक्षिणा ले कर पंडितजी विदा हुए.

तभी अभय भी घर आ गया. पूरी बात जानने के बाद वह बहुत प्रसन्न हुआ, ‘‘चलो मां, राह चलते ही सही, उन्होंने इस घर का भला तो सोचा.’’

शुचि जानती थी कि इन को सम  झाना बेकार है.

इसी तरह दिन बीतते जा रहे थे. किसी

को भी यह पता नहीं था कि वह राह चलता पंडित, जो उन का भला करने की कह गया था पंडित रामधन शास्त्री का ही भेजा गया था. उसे पहले से शुचि और सावित्री देवी परिवार के बारे में जानकारी थी. सब खुश थे कि अब उन का कुछ नहीं बिगड़ सकता.

एक दिन शुचि रसोई में थी. तभी पंडित रामधन शास्त्री की आवाज सुनी तो सम  झ गई कि एक बार फिर वही सब दोहराया जाएगा.

शुचि का 9वां महीना चल रहा था. उस की सास ने ही पंडितजी को बुलवाया था. अपनी सास व पंडितजी की बात सुन कर शुचि सन्न रह गई. इतना अधिक अंधविश्वास इतनी रूढिवादिता. शुचि की सास उस की जन्मपत्री पंडितजी को दिखा कर यह पूछ रही थीं कि वह कौन सा शुभ मुहूर्त है, जिस में बच्चे का जन्म होने पर वह तेजस्वी, प्रतिभावान व

दीर्घायु होगा?

पंडितजी पत्री देख कर गणना कर रहे थे. उधर शुचि सकते में थी. वह सोच रही थी कि यह कैसा अंधविश्वास है, यह कैसा इंसाफ है कि प्रकृति के बनाए नियमों में भी इंसान ने अपना दखल देना शुरू कर दिया है?

एक बच्चे का जन्म, जो पूर्णतया प्रकृति के हाथ में है उस पर भी ग्रहनक्षत्रों का तानाबाना बुन दिया गया है और पढ़ेलिखे व्यक्ति दिग्भ्रमित होने लगे हैं.

परंतु यह सब सुन कर उस ने निश्चय कर लिया था कि उसे ही इस अंधविश्वास का अंत करना है. इस सोच के साथ ही शुचि अपनी योजना को मूर्तरूप देने के लिए तत्पर हो उठी. वह इस योजना में डा. सीमा को भी शामिल करना चाहती थी, क्योंकि उन के सहयोग के बिना यह असंभव था.

2 दिन बाद ही शुचि को डा. सीमा के यहां चैकअप के लिए जाना पड़ा. चैकअप के बाद उस ने डा. सीमा को शुभ मुहूर्त में बच्चे के जन्म करवाने की अपनी सास की इच्छा के विषय में बताया और साथ ही यह भी कहा कि वह ऐसा नहीं चाहती है, इसलिए उन्हें उस की योजना में उस का साथ देना होगा.

डा. सीमा शुचि की बात सुन कर बोलीं, ‘‘शुचि, आजकल समाज के हर वर्ग में शुभ मुहूर्त देख कर औपरेशन द्वारा बच्चे का जन्म करवाना प्रचलन में है. यह काम जो पूर्णतया प्रकृति के वश में था, उस पर भी  अब पंडितों ने ग्रहनक्षत्रों का लेबल लगा दिया है.’’

कुछ विशेष परिस्थितियों में तो औपरेशन कर के बच्चे का जन्म कराया जाता है, परंतु अब पंडितों के साथसाथ कुछ नर्सिंगहोम्स में भी डाक्टर पैसों के लिए लोगों द्वारा बताए गए समय पर ही बच्चों का जन्म कराने लगे हैं. पर तुम चिंता न करो, क्योंकि किसी न किसी को तो पहल करनी ही होगी. मैं तुम्हारे साथ हूं.

डा. सीमा के कैबिन से बाहर निकल कर शुचि ने महसूस किया कि अब वह निश्चिंत

थी कि उस का बच्चा अंधविश्वास की बलि

नहीं चढ़ेगा.

बड़ी जेठानी नेहा पूछती रहीं कि शुचि तुम्हें अंदर बहुत देर लग गई, परंतु शुचि ने उन की बात टाल दी.

उधर 9वां महीना पूरा होने के पश्चात शुचि

की सास पंडितजी द्वारा बताए मुहूर्त पर शुचि को ले कर नर्सिंगहोम पहुंचीं. डा. सीमा ने उन्हें शुचि का चैकअप कर के बताया, ‘‘इसे ऐडमिट करना होगा, क्योंकि रक्तचाप बहुत बढ़ा हुआ है.’’

‘‘पर डा. साहब, कल ही तो वह शुभ मुहूर्त है, जिस में बच्चे का जन्म होना चाहिए. मैं आप को मुंहमांगी कीमत देने को तैयार हूं ताकि शुभ मुहूर्त पर ही बच्चे का जन्म हो,’’ सावित्री देवी बोलीं.

‘‘हद करती हैं आप मांजी. बढ़े हुए रक्तचाप में मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकती. पहले शुचि की शारीरिक स्थिति ठीक होने दीजिए. और हां, यह कीमत अपने पास ही रखिए, क्योंकि मु  झे शुचि व उस के बच्चे की जान ज्यादा प्यारी है,’’ डा. सीमा क्रोध से बोलीं.

सावित्री देवी गुमसुम सी एक तरफ बैठ गईं. परिवार के सभी सदस्य एकएक कर के नर्सिंगहोम पहुंच चुके थे. शायद सभी शुभ मुहूर्त पर होने वाले बच्चे को देखना चाहते थे पर शुचि की हालत की बात जान कर सभी चुप हो गए.

उधर शुचि मन ही मन प्रसन्न थी, क्योंकि वह डा. सीमा के साथ अपने मकसद में कामयाब हो रही थी.

उधर सावित्री देवी फिर से पंडित रामधन शास्त्री के पास पहुंचीं और उन्हें बहू की हालत बताई. पंडितजी तो लालची थे ही. अत: उन्होंने तुरंत उन्हें 1 हफ्ते बाद का मुहूर्त बता दिया और आसानी से 501 रुपए दक्षिणा में प्राप्त कर लिए. अब सावित्री देवी खुश थीं. वे 1 हफ्ते के लिए चिंतामुक्त जो हो गई थीं.

उधर 2 दिन बाद शुचि ने एक स्वस्थ व सुंदर बालक को जन्म दिया. जहां अपने पोते को देख सावित्री देवी व परिवार के सभी सदस्य प्रसन्न थे, वहीं उस के शुभ मुहूर्त में न होने को ले कर उस के भविष्य को ले कर शंकित भी थे. तभी डा. सीमा ने वहां प्रवेश किया.

‘‘डाक्टर साहिबा, पंडितजी ने तो 1 हफ्ते बाद का मुहूर्त निकाला था पर बच्चे का जन्म तो आज ही हो गया. आप देख लीजिए यह स्वस्थ तो है या नहीं? मैं अभी पंडितजी को बुलवाती हूं,’’ घबराए स्वर में सावित्री देवी बोलीं.

‘‘मांजी, कैसी बात कर रही हैं आप. इस का जन्म तो प्रकृति के विधान के अनुसार ही हुआ है. इसीलिए तो यह पूर्णतया स्वस्थ है. और हां, आज मैं आप को एक राज की बात बताना चाहती हूं. वास्तव में यह मेरी और शुचि की योजना थी. शुचि बिलकुल स्वस्थ थी, पर हम आप के पंडित द्वारा बताए मुहूर्त पर इसलिए बच्चे का जन्म नहीं कराना चाहते थे, क्योंकि हम आप के दिल व दिमाग पर छाए अंधविश्वास को हटाना चाहते थे.

‘‘आज शुचि ने एक स्वस्थ एवं सुंदर  बालक को प्रकृति द्वारा निश्चित समय पर जन्म दिया है और इस से यह बात साबित हो गई है कि शुभअशुभ कुछ नहीं होता. ये सब अंधविश्वास हैं, जो पंडितों  द्वारा फैलाए गए हैं. शुचि ने ही इस अंधविश्वास को दूर करने की पहल की है, इसलिए यह बधाई की पात्र है.’’

डा. सीमा की बात सुन कर सभी सन्न

थे मानो उन्होंने सब की आंखों से परदा हटा दिया हो.

सभी आने वाले कल की कल्पना कर के मुसकरा उठे.

सर्टिफिकेट: रत्ना को सालों बाद अपनी गलती का एहसास कैसे हुआ?

‘‘इतना लापरवाह कोई कैसे हो सकता है? मैं बता रहा हूं, यह ऐसे ही गैरजिम्मेदार रहा न तो फिर जीवन के हर मोड़ पर हमेशा गिरता रहेगा और संभालने के लिए हम वहां नहीं होंगे,’’ आशीष अपने 15 साल के बेटे वैभव पर चिल्ला रहा था.

2 दिन बाद वैभव की 10वीं कक्षा की परीक्षा शुरू होने वाली थी और उस ने प्रवेशपत्र खो दिया था. वैभव रोआंसा सा चुपचाप खड़ा था. वह बारबार याद कर रहा था कि उस ने तो प्रवेशपत्र लैमिनेट करवाया था फिर रमन और आकाश के साथ औटो में बैठ कर सीधे घर आ गया था. अनजाने में ही सही, गलती तो हुई थी. पूरा दिन अपनी फाइल ढूंढ़ता रहा, लेकिन कहीं पता न चला.

तभी उसे याद आया कि उस के हाथ में बैग और फाइल थी, जिस कारण गलती से फाइल शायद औटो में ही छूट गई होगी. काश, उस ने फाइल अपने बैग में रखी होती तो पापा से इतनी जलीकटी नहीं सुननी पड़ती. उस ने डर के मारे यह बात पापा को नहीं बताई.

आशीष ने फैसला किया कि वह वैभव के स्कूल जा कर इस बारे में प्रिंसिपल से बात करेगा. शायद कोई समाधान निकल आए और वैभव को परीक्षा में बैठने की अनुमति मिल जाए. लता ने भी सहमति जताई. दोनों स्कूल जाने के लिए तैयार होने लगे तभी दरवाजे की घंटी बजी. लता ने दरवाजा खोला तो सामने बहुत ही अजनबी महिला खड़ी थी.

‘‘जी… कहिए?’’ लता ने पूछा.

‘‘क्या यह आशीषजी का घर है?’’ महिला ने पूछा.

‘‘जी… हां,’’ लता ने उत्तर दिया.

‘‘आप… मैं ने पहचाना नहीं,’’ लता ने सकपकाते हुए कहा.

‘‘जी मेरा नाम रत्ना है और मैं…’’

तभी आशीष हड़बड़ी में वैभव के साथ बाहर जाने के लिए निकलने लगा. उस की नजर रत्ना पर पड़ी और जातेजाते अचानक रुक गया और वापस रत्ना के पास आ कर बोला, ‘‘अरे, रत्न तुम? यहां? कितने सालों बाद तुम्हें…’’ आशीष कहतेकहते रुक गया.

‘‘शुक्र है, तुम ने मुझे पहचान लिया. मुझे तो लगा कि तुम मुझे भूल ही गए होंगे.’’

रत्ना आशीष को कुछ देर देखते रह गई. बीता हुआ कल आंखों के सामने जैसे फिल्म की तरह ताजा हो आया…

‘‘इन से मिलो, ये लता हैं मेरी पत्नी और लता ये रत्ना हैं. मैं ने तुम्हें बताया था न, ये

हमारी पड़ोसी हुआ करती थीं. ये वही हैं,’’ आशीष, रत्ना का ध्यान स्वयं से हटाने के

लिए लता और रत्ना का एकदूसरे से परिचय करवाने लगा.

‘‘अच्छा… तो यही रत्नाजी हैं. आप सच में बहुत खूबसूरत हैं,’’ लता ने कहा.

‘‘धन्यवाद, आप भी तो खूबसूरत हैं,’’ रत्ना ने कहा.

लता मुसकरा भर दी.

‘‘बैठिए न,’’ लता ने कहा.

आशीष की नजर घड़ी पर पड़ी, ‘‘अरे

10 बज गए,’’ वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ.

‘‘अच्छा रत्ना, तुम लता के साथ गपशप करो. मैं, वैभव के स्कूल से 1 घंटे में आता हूं,’’ कह कर आशीष और वैभव जाने लगे.

‘‘तुम्हें स्कूल जाने की जरूरत नहीं, जो

चीज तुम ढूंढ़ रहे हो, वह मेरे पास है,’’ रत्ना

ने कहा.

सब एकटक रत्ना को देखने लगे. तभी रत्ना ने अपने हैंडबैग से फाइल निकाल कर आशीष के हाथ में रख दी.

‘‘अरे इस फाइल को ही हम ढूंढ़ रहे थे पर यह, तुम्हारे पास कैसे आई?’’ आशीष ने सवाल किया.

वैभव ने झट से पापा के हाथों से फाइल ले ली और फाइल खोल कर अपने सर्टिफिकेट देखने लगा. प्रवेशपत्र देखते ही वह सुकून और आत्मविश्वास से भर गया.

‘‘दरअसल, मैं परसों हौस्पिटल जा रही

थी जैसे ही औटो में बैठी मु?ो यह फाइल दिखी. मैं ने औटो वाले से इस फाइल के बारे में पूछा तो उसने कहा कि ये फाइल उस की नहीं है. उस ने कहा कि अभी कुछ बच्चे पिछले सिगनल पर छोड़ गए हैं शायद उन में से किसी की होगी. मैं ने उस से कहा भी कि चलो जा कर देखते हैं. इस पर औटो वाले ने कहा कि अब तक तो बच्चे

चले गए होंगे. कहां ढूंढ़ेंगे उन्हें? फिर मैं ने यह फाइल रख ली ताकि मैं उस बच्चे को यह फाइल लौटा सकूं.

लेकिन उस समय मैं बहुत जल्दी में थी इसलिए लौटा नहीं पाई. आज मेरी नजर इस फाइल पर पड़ी- खोल कर देखा तो परीक्षा का प्रवेशपत्र और पहचानपत्र था. मैं समझ गई कि ये बच्चे के लिए कितने जरूरी हैं और कल मेरी वापसी की फ्लाइट है तो सोचा, आज ही फाइल लौटा दू,’’ रत्ना ने कहा.

‘‘आप ने मेरे बेटे का यह साल खराब

होने से बचा लिया. आप का जितना भी शुक्रिया करूं, कम होगा,’’ आभार व्यक्त करते हुए लता

ने कहा.

‘‘लता सही कह रही है. तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद,’’ आशीष ने कहा.

‘‘तुम तो मुझे जितना धन्यवाद दो उतना कम है. मैं ने तुम्हारे कपड़े, नोटबुक और जाने क्याक्या…’’ कहतेकहते रत्ना रुक गई.

आशीष झेंप गया और माहौल को सामान्य करते हुए उस ने कहा, ‘‘अरे तुम ने यह तो बताया ही नहीं कि तुम दिल्ली में कैसे?’’

‘‘बड़े पापा के लड़के… वसंत भइया 3 साल से दिल्ली में ही पोस्टेड हैं. यही रोहिणी में रहते हैं,’’ रत्ना ने कहा.

‘‘अच्छा तो तुम उन से मिलने आई थी,’’ आशीष ने कहा.

‘‘नहीं दरअसल पिताजी बीमार थे और उन का यहां इलाज चल रहा था. मैं उन से मिलने

आई थी.’’

‘‘अच्छा… अब उन की तबीयत कैसी है?’’

‘‘अब वे नहीं रहे,’’ रत्ना ने कहा.

‘‘ओह, बहुत अफसोस हुआ जानकर,’’ आशीष ने अफसोस जताते हुए कहा.

तभी लता चायनाश्ता ले आई.

‘‘आप कहां रहती हैं? पति क्या करते हैं? आप के कितने बच्चे हैं?’’ लता ने सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘मैं ने शादी नहीं की,’’ रत्ना ने आशीष की तरफ देखते हुए कहा.

आशीष, उस की बात सुन कर स्तब्ध रह गया.

‘‘ परीक्षा के लिए ‘औल द बैस्ट,’ बेटा. चलो, मैं अब निकलती हूं. मु?ो पैकिंग भी करनी है. आप सब से मिल कर बहुत अच्छा लगा,’’ कह कर रत्ना ने विदा ली.

‘‘आशीष आत्मग्लानि से भर गया और लता को एक कप चाय बनाने को कह कर वहीं सोफे पर बैठ पुरानी यादों में खो गया…

रत्ना और आशीष एक ही कालेज में पढ़ते थे. रत्ना के पिता विश्वनाथजी सिविल इंजीनियर थे. दूसरे शहर से तबादला होने के बाद कानपुर आए और अशीष के पड़ोसी बन गए. आशीष के पिता महेंद्रजी बिजली विभाग में कार्यरत थे. शहर में नए होने के कारण आशीष के परिवार ने विश्वनाथजी को यहां बसने में बहुत मदद की. कुछ ही दिनों में दोनों परिवार एकदूसरे से घुलमिल गए.

आशीष के कहने पर ही रत्ना का एडमिशन उसी के कालेज में करवा दिया गया. धीरेधीरे दोनों परिवारों में गहरी दोस्ती हो गई. दोनों परिवार दुखसुख में एकदूसरे का साथ देने लगे. रत्ना और आशीष के लिए दोनों घर अपने ही थे. धीरेधीरे आशीष और रत्ना के बीच प्यार का अंकुर फूटने लगा और फिर प्यार परवान चढ़ने लगा. समय बीतने लगा आशीष इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने दूसरे शहर चला गया. रत्ना इंटरमीडिएट पास करने के बाद बी. कौम. की पढ़ाई करने लगी. रत्ना आशीष के मातापिता का खूब खयाल रखती थी. आशीष की मां तो रत्ना को मन ही मन अपनी बहू मान चुकी थी. बस रत्ना के मातापिता की रजामंदी बाकी थी.

दशहरे की छुट्टियों में आशीष घर आया था. शांतिजी चाहती थीं इस बार शादी

की बात पक्की कर लें. बातों ही बातों में एक दिन आशीष की मां शांति ने माया से कह दिया, ‘‘माया, अगर तुम्हारी जानकारी में कोई अच्छी लड़की हो तो मेरे आशीष के लिए बताना.

1-2 सालों में मैं अपने घर बहू लाना चाहती हूं.’’

‘‘दीदी मेरी नज़र में एक लड़की तो है अगर आप चाहें तो,’’ कहतेकहते माया ने कमरे में पढ़ रही रत्ना को ला कर शांति के सामने खड़ा कर दिया. शांति खुशी से फूली न समाई और रत्ना को गले से लगा लिया. दोनों की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले.

‘‘दीदी, मैं आप के मन की बात जानती थी क्योंकि मैं भी यही चाहती थी पर आप से बात करने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी. रत्ना अगर आप की बहू बन जाए तो मुझ से अधिक खुश कौन होगा.’’

दोनों की बातें सुन कर रत्ना खुशी से फूले नहीं समा रही थी.

अब वह आशीष का इंतजार करने लगी कि कब वह बाजार से घर वापस आए और वह उसे यह खुशखबरी दे.

इसी खुशी में माया ने रात के खाने पर आशीष के परिवार को बुला लिया. अभी आशीष के पिता और रत्ना के पिता को इस बात की जानकारी न थी तो माया ने सोचा इसी बहाने

दोनों परिवार मिलबैठ कर इस विषय पर बात

कर लेंगे.

आशीष के पिता जब औफिस से आए तो शांति ने अपने मन की बात कही जिसे सुन कर महेंद्रजी भी खुश हो गए, ‘‘शांति, मुझे रत्ना बेटी पहले से ही पसंद थी लेकिन… खैर, चलो विश्वनाथ के घर चलते हैं.’’

समय पर आशीष का परिवार रत्ना के घर पहुंच गया और फिर महेंद्र ने बात छेड़ी जिसे सुन कर विश्वनाथ के चेहरे का रंग फीका पड़ गया. उन्होंने इस रिश्ते से साफ इनकार कर दिया. हांलाकि महेंद्र ने विश्वनाथजी को बहुत सम?ाया लेकिन उन का साफ कहना था कि वह लड़की अपनी ही बिरादरी में देंगे. दोनों परिवारों की

खुशी एक पल में खत्म हो गई. सब ने विश्वनाथजी को सम?ाने की बहुत कोशिश

की, लेकिन वह न माने और धीरेधीरे दोनों परिवारों में ईर्ष्या, गलतफहमियां और दूरियां बढ़ती चली गईं.

रत्ना परिवार के खिलाफ जा कर शादी करने को तैयार थी, लेकिन आशीष रत्ना के पिता का भरोसा नहीं तोड़ना चाहता था. इस कारण रत्ना उस से नाराज हो गई.

रत्ना ने आशीष से बात करना, मिलनाजुलना तक छोड़ दिया. ऐसे ही दिन बीतते गए. कुछ दिनों बाद आशीष वापस चला गया. एक दिन अचानक रत्ना के घर का सामान पैक होने लगा. शांति ने माया से पूछा तो उन्होंने बताया कि विश्वनाथ ने दूसरी जगह ट्रांसफर करवा लिया है, कल ही वे लोग चले जाएंगे, कह कर माया शांति के गले लग कर फूटफूट कर रोने लगी. अगले दिन वे लोग चले गए. वक्त के साथ आशीष के घाव पर मरहम लग गया. पढ़ाई पूरी करने के बाद उसे नौकरी मिल गई और मातापिता के कहने पर उस ने अपना घर बसा लिया. लेकिन आज जीवन के इस मोड़ पर वह रत्ना से ऐसे मिलेगा, आशीष ने सोचा भी न था.

मैं अपनी जिंदगी में आगे निकल गया और रत्ना… वो आज भी मु?ा से प्यार करती है और मैं… मैं ने उसे बीच म?ाधार में छोड़ दिया. मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा. आशीष अपनेआप से जद्दोजहद कर रहा था.

तभी लता की आवाज उस के कानों से टकराई, ‘‘यह लो तुम्हारी चाय.’’

इतना सुनते ही आशीष की तंद्रा भंग हुई.

आशीष ने अपनेआप को संभाला. अब

उस के पास पछतावे के सिवा कुछ नहीं रह गया था. वह एक बार रत्ना से मिल कर अपनी गलतियों की मांफी मांगना चाहता था. लेकिन रत्ना तो जा चुकी थी. तभी उसे वसंत भइया का पता याद आया जोकि बातों ही बातों में रत्ना ने बताया था.

‘‘क्या बात है तुम बहुत दुखी लग रहे हो? रत्ना के बारे में सोच कर न? मु?ो भी बुरा लगा. वह तुम से सच्चा प्यार करती थी. तभी तो उस ने अपना घर नहीं बसाया. शायद आज तक तुम्हारा इंतजार कर रही थी,’’ लता ने कहा.

‘‘हां लता… मेरे प्यार में ही खोट था. समाज के कायदेकानून से परे जाने की हिम्मत न थी मु?ा में और रत्ना लड़की हो कर भी बहुत हिम्मती थी. लेकिन मैं उस से एक बार मिल कर अपनी गलतियों की माफी मांगना चाहता हूं. तुम मेरा साथ दोगी?’’ आशीष ने लता से नजरें चुराते

हुए कहा.

‘‘मेरी तरफ से कोई बंदिश नहीं आशीष… मु?ो तुम पर अपने से ज्यादा भरोसा है. मैं खुद भी चाहती हूं जो भी गलतफहमियां तुम दोनों के बीच है वो मिट जाए और तुम दोनों बिना किसी बो?ा के अपनीअपनी जिंदगी में आगे बढ़ो,’’ लता ने आशीष का हाथ अपने हाथ में ले कर विश्वास दिलाते हुए कहा.

‘‘लता, मैं अपने आप को बहुत खुश मानता हूं कि मु?ो तुम जैसी जीवनसंगिनी मिली जो मु?ा पर आंख मूंद कर के भरोसा करती है. परिस्थिति चाहे जैसी भी हो, तुम ने हमेशा मेरा साथ दिया है. तुम्हारा जितना शुक्रिया कहूं कम होगा,’’ आशीष भावविभोर हो उठा.

‘‘अरे रत्ना की फ्लाइट है कल की तो तुम्हें आज ही मिलना होगा उस से. तुम अभी चले जाओ,’’ लता ने कहा.

‘‘हां… तुम ठीक कहती हो.’’

आशीष वसंत भैया के घर पहुंच गया. रत्ना ने दरवाजा खोला, ‘‘अरे

आशीष तुम यहां? कोई बात थी क्या?’’ रत्ना ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘माफ करना रत्ना, मैं तुम्हें तकलीफ देने चला आया. मेरे दिल में बहुत बड़ा बो?ा है मैं तुम से माफी मांग कर उसे हलका करना चाहता हूं. क्या हम बाहर जा कर बात कर सकते हैं?’’

‘‘हां… यहां पास ही एक पार्क है वहां चल सकते हैं,’’ कुछ देर सोचते हुए रत्ना ने कहा.

दोनों पार्क में पहुंचे और आशीष रत्ना से अपनी बुजदिली के लिए माफी मांगने लगा.

‘‘आशीष इस की जरूरत नहीं है. अब इस बात को 20 साल गुजर गए. अब तो गिलेशिकवों के लिए कोई जगह नहीं रही. हम दोनों अपनीअपनी जिंदगी में आगे बढ़ गए हैं.’’

‘‘मैं तो आगे बढ़ गया लेकिन तुम आगे

नहीं बढ़ पाई. अगर तुम आगे बढ़ती तो आज तुम्हारा एक भरापूरा परिवार होता. तुम ने शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘आशीष, लड़की किसी को अपने मनमंदिर में एक बार ही बसाती है फिर वह किसी और की तरफ देखती नहीं है. मेरे मन में तो तुम थे फिर मैं किसी और की पूजा कैसे कर सकती थी? तुम से और तुम्हारे परिवार से दूर रखने के लिए पापा ने अपना तबादला इंदौर करा लिया जहां बड़े पापा का परिवार रहता था. मैं ने कानपुर छोड़ने से पहले बहुत कोशिश की आंटी से मिलने की, तुम्हारा पता पूछने की लेकिन मैं नाकाम रही. तुम्हारे भागकर शादी न करने पर मैं ने गुस्से में तुम से बातचीत करना छोड़ दिया था पर प्यार करना नहीं छोड़ा था.

‘‘पापा हम दोनों को एकदूसरे से दूर करने के लिए ऐसा कदम उठाएंगे इस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. वहां जाते ही मेरे लिए लड़का देखने लगे लेकिन मैं ने साफ इनकार कर दिया और मैं ने ठान लिया कि मैं अपनेआप को आत्मनिर्भर बनाऊंगी ताकि किसी पर आश्रित न रहूं. मैं ने सबकुछ भुला कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाया और प्रोफैसर बन गई. ऐसा एक पल भी नहीं गुजरा जब मैं ने तुम्हें याद नहीं किया हो. दुख बस इस बात का है कि मां मेरे और पापा के बीच पिस गईं. वे मेरा घर बसते हुए देखना चाहती थीं लेकिन इसी सपने को दिल में दबाए दुनिया से चली गईं. मुझे इस बात की कोई शिकायत नहीं की तुम ने अपना घर बसा लिया क्योंकि मुझे पता है कृष्ण सिर्फ रुक्मिणी के हो सकते हैं राधा के नहीं.

‘‘मैं बस एक बार तुम से मिलना चाहती थी, तुम्हें देखना चाहती थी जोकि कुदरत ने मुझे तुमसे मिला दिया. अब और मुझे कुछ नहीं चाहिए. तुम कभी अपने दिल में मेरे लिए कोई बोझ मत रखना,’’ रत्ना ने अपनी बात खत्म की.

आशीष रत्ना की बात सुन कर नि:शब्द हो चुका था. जिस बोझ को वह वर्षों से दिल पर लिए फिर रहा था वह एक पल में हलका हो गया. आशीष ने रत्ना से विदा ली. रत्ना वहीं खड़ी आशीष को दूर तक जाते हुए देखती रही.

नया पड़ाव: भाग 4- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

राकेश की निष्ठुरता पर भी खूब क्रोध आता. उन के शाम को जल्दी आ जाने पर भी खीजी हुई मैं रसोई से ही चाय बना कर पिंकी के हाथ भिजवा देती और स्वयं काम में उलझ रहती. थोड़ी देर पिंकी के साथ गुप्पें लड़ा कर राकेश फिर बाहर चले जाते.

मुझे महसूस होता मेरे अंदर एक बांध है जो किसी दिन टूट जाएगा तो सबकुछ उस में बह जाएगा. पर यह बांध कभी टूट नहीं पाया. ठंडी रिक्तता हम दोनों के बीच बनी रही.

रंजू ने इस बीच बीटैक कर ली थी. देहरादून के रिसर्च इंस्टिट्यूट में जब उस की नौकरी लग गई तो मैं और पिंकी काफी अकेले पड़ गए. अकसर रंजू से मोबाइल पर बात होती रहती थी. उसे मेरी बहुत याद आती थी.

फिर एक दिन रंजू का मैसेज आया, ‘‘मैं ने अपनी पसंद की एक ईसाई लड़की से कचहरी में शादी करर ली है. ऐसा इसलिए किया क्योंकि शायद पता चलने पर आप और पिताजी इस के लिए कभी राजी न होते. कुछ दिन बाद छुट्टियां मिलने पर आप का आशीर्वाद लेने आऊंगा.’’

मैसेज पढ़ कर मैं तो एकदम से टूट ही गई. कैसे पलपल घुटघुट कर सारी इच्छाएं और उमंगें मैं ने रंजू पर कुरबान कर दी थीं और उस ने मुझे शादी कर के कैसे सूचना भेजी है. अपनी इस जीवनसंध्या में जब मैं पिंकी के ससुराल जाने के बाद रंजू की बहू से ही दिल बहलाने के ढेरों ख्वाब संजो रही थी, वे सारे उस के पत्र ने बिखेर कर रख दिए. उस की उम्र ही अभी क्या थी जो शादी कर ली. शहरों में तो लड़के 30-32 में शादी करते हैं.

राकेश तो मैसेज पढ़ कर खूब हंसे.

बोले, ‘‘देख लिया बच्चों पर बेहद कुरबान होने का नतीजा. न तुम इधर की रहीं, न उधर की. और भुगतोे.’’

राकेश तो कह कर रोज की तरह लापरवाही से बाहर चले गए, पर मैं बहुत रोई थी. काफी दिन उदास रही. मन ही मन रोती रही. गुस्से के मारे रंजू को बधाई भी नहीं दी. पिंकी उन दिनों मैडिकल की पढ़ाई कर रही थी. अब जिंदगी के इस पड़ाव पर आ कर मैं अकेली रह गई थी तो इस के लिए किस को दोष देती. शायद इस में राकेश का कम और मेरा ज्यादा दोष था या सिर्फ मेरा ही था.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. मैं अपने में लौट आई. राकेश घूम कर लौट आए थे. मुझे उदास देख कर लापरवाही से बोले, ‘‘क्यों भई, यह उदासी कैसी है? अरे हां, मैं तो तुम्हें शाम को बताना ही भूल गया. मैं तो खाना खा कर आया हूं, तुम खा लो. फिर जरा मेरी तैयारी करनी है. 3-4 दिन के लिए दफ्तर की तरफ से मुझे कल लखनऊ जाना है,’’ कह कर वे स्वयं भी अपना सामान अटैची में रखने लगे.

मैं असमंजस में पड़ कर सामान रखवाने लगी कि पीछे से अकेली कैसे रहूंगी. खैर, मैं ने

खाना यों ही समेट कर रख दिया. भूख न जाने कहां उड़ गई थी. पूरी रात न जाने कैसेकैसे संकल्प करती रही.

सुबह मैं ने उन्हें विदा किया. पर अब मैं उदास नहीं थी. सोचा, जैसे भी हो जो गुजर गया है उस लौटाना होगा मुझे. आगत के सामने नए सिरे से खड़े हो सकने की सामर्थ्य तो पैदा करनी ही होगी अपने अंदर. राकेश के साथ हर पल गुजारने के लिए उन के मनमुताबिक बनना ही होगा मुझे.

दोपहर को बाजार जा कर अच्छी सी

दुकान से पैर और हाथ साफ करने का सारा सामान, कोल्ड क्रीम, हैंड लोशन, ग्लिसरीन, गुलाबजल, नेलपौलिश, इत्र यहां तक कि बाल काले करने का तेल भी खरीद लाई. एक पास के ब्यूटी सैलून में गई और बालों से ले कर पैरों तक को ट्रीट कराया. 3-4 घंटे लगे और कुछ हजार का बिल भी आया पर मुझे संतोष था कि मैं सही कर रही हूं.

फिर पता ही नहीं चला कि 4 दिन कैसे गुजर गए. मैं शीशे के आगे स्वयं जाजा कर कायाकल्प पर हैरान होती रहती. आखिर राकेश दौरे से लौटे. दरवाजा खुलते ही मुझे देख कर हैरान हो गए.

मैं उन से लिपट कर बोली, ‘‘भूल गई थी मैं कि जीवनसाथी जीवनसाथी ही होता है. हम दोनों की ही जीवनसंध्या अब करीब है. जिंदगी के इस पड़ाव पर हमें एकदूसरे की सख्त जरूरत है. अब से हर पल मैं तुम्हारी हूं.’’

सुन कर और हाथ की अटैची नीचे रख कर राकेश ने मुझे गरमजोशी से गले लगा लिया.

अनजाने पल: भाग 1- क्यों सावित्री से दूर होना चाहता था आनंद

औटो चेन्नई के अडयार स्थित पुष्पा शौपिंग कौंप्लैक्स से गुजर रहा था कि तभी नीलिमा पर नजर पड़ी. 3-4 बरस के एक लड़के का हाथ थामे वह दुकान से निकल रही थी. मैं अपनी उत्सुकता रोक न पाई. मातृत्व मानो बांध तोड़ कर छलछलाने को बेताब हो गया था.

मैं ने औटो रुकवाया और उसे पैसे दे कर उतर गई. धीरेधीरे उस के पास पहुंची और आवाज दी, ‘‘नीलिमा.’’

वह एकाएक चौंक कर मुड़ी, फिर तेजी से मुझ से लिपट गई और फूटफूट कर रोने लगी. भय से सिमट कर वह लड़का भी रोने लगा. मेरे शरीर के निस्तब्ध तार नीलिमा के स्पर्श से झनझना उठे. रोमरोम में एक अजीब सा आनंद समाने लगा. इतने बरसों बाद जिसे पाया था, उसे अपने से अलग करने का मन ही नहीं हो रहा था.

काफी देर रोने के बाद जब उस ने आवाज सुनी, ‘दीदी, मुझे डर लग रहा है, पिताजी के पास चलो.’ तभी वह संभली. आंसू पोंछ कर मेरी ओर देखा और मुसकराई. फिर बोली, ‘‘मां, हम यहां मलर अस्पताल में हैं. पिताजी 5वीं मंजिल पर कमरा नंबर 18 में हैं. देर हो रही है, मैं जाती हूं. हो सके तो शाम को आ जाइएगा. यह मेरा भाई अभय है,’’ फिर अपने भैया के कंधे पर हाथ रख वह मेरी नजरों से ओझल हो गई.

नीलिमा का आकर्षण इतना था कि मैं यह भूल ही गई कि मुझे विकास से सवेरा होटल में मिलना है. मैं सोचने लगी कि कहां मुझ से नफरत करने वाली उस दिन की गोरीचिट्टी खूबसूरत नीलू और कहां आज की दुख और वेदना का बोझ ढोए बचपन में ही प्रौढ़ता लिए यह नीलिमा. मैं ने शौपिंग कौंप्लैक्स से विकास को सूचना भिजवाई कि 15 मिनट में मैं आ रही हूं और जल्दी से औटो ले कर चल पड़ी.

अनायास मेरी आंखों में आनंद का चेहरा घूम गया. मेरे मांबाप ने उस का लंबा कद, गोरा रंग, मस्तीभरी जवानी और आकर्षक व्यक्तित्व देख कर मेरा विवाह उस से तय किया था. मैं ने हिंदी साहित्य में एमफिल किया था और एक कालेज में पढ़ाती थी. आनंद बैंक में अफसर था. हम दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर के शादी की थी. शादी के तुरंत बाद उस का तबादला दिल्ली हो गया, इसलिए हम लोग वहां चले गए. शादी होते ही मैं ने नौकरी छोड़ दी थी, हालांकि आनंद को यह अच्छा नहीं लगा था. परंतु मैं तबादले के झमेलों में पड़ना नहीं चाहती थी.

दिल्ली जैसे महानगर में खर्चे तो बढ़ते ही जाते हैं, एक दिन आनंद ने ही बात छेड़ी, ‘सावित्री, सारा दिन घर में बैठे तुम्हें घुटन महसूस नहीं होती? मेरा दोस्त कह रहा था कि कालेज में हिंदी प्राध्यापक की जगह खाली है. कहो तो बात चलाऊं?’

मैं ने कहा, ‘वैसे मेरी नौकरी करने की अभी इच्छा नहीं है. घर पर भी तो बहुत सारे काम होते हैं. बुनाई, कढ़ाई आदि सीख रही हूं. ढंग से खाना बनाना भी तो अभी ही सीख रही हूं.’

आनंद को मेरी बात अच्छी नहीं लगी. उस ने कहा, ‘अभी तो हमारे बच्चे भी नहीं हैं. इतनी शिक्षा हासिल करने के बाद तुम्हारा इस तरह घर में बैठे रहना मुझे अच्छा नहीं लगता. फिर महंगाई भी कितनी है…तुम हाथ बंटाओगी तो हम घर के लिए कुछ चीजें खरीद सकेंगे.’ आनंद की बात उस समय मुझे भी अच्छी लगी. उसी ने दौड़धूप कर मुझे श्रीराम कालेज में नौकरी दिलाई.

दिन गुजरते गए. 8-9 वर्षों बाद ही नीलिमा का जन्म हुआ था. उस के जन्म के बाद से सबकुछ बदल गया. आनंद को बेटी से बहुत अधिक लगाव था. जब तक वह 5 साल की हुई, तब तक मेरी सास हमारे साथ रहीं. अकेली विधवा सास का हमें बहुत अधिक सहारा था. मेरी और पति की तनख्वाह से गृहस्थी की गाड़ी मौज से चल रही थी.

मैं ने पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करवा लिया था. कालेज में प्रिंसिपल की जगह खाली होने वाली थी. मेरी पीएचडी के खत्म होने में 6 महीने बाकी थे, इसलिए पूर्व प्रिंसिपल ने मेरी सिफारिश की थी. मैं जीजान से पीएचडी की समाप्ति में लगी थी. अचानक मेरी सास गुजर गईं.

आनंद को मां की मृत्यु से ज्यादा बेटी का अकेलापन खटकने लगा. उस ने मां की तेरहवीं होते ही कहा, ‘मैं चाहता हूं कि तुम नौकरी छोड़ दो. जब नीलू बड़ी हो जाए तो फिर नौकरी कर लेना.’

मैं चौंकी. फिर स्थिति को संभालते हुए कहा, ‘ऐसा कैसे हो सकता है, हम ऐशोआराम की जिंदगी के आदी हो चुके हैं. मेरी तनख्वाह नहीं होगी तो दिल्ली जैसे शहर में तुम्हारे अकेले की तनख्वाह से गुजरबसर कैसे होगी?’

‘कम से कम पीएचडी छोड़ दो. देर से घर आओगी तो नीलिमा बहुत दुखी हो जाएगी. वह दिनभर अकेली कैसे रह पाएगी.’

‘उसे तुम क्यों नहीं संभाल लेते. 4 महीने में मेरी थीसिस पूरी हो जाएगी. फिर जल्दी ही मैं प्रिंसिपल का पद संभाल लूंगी. कालेज की तरफ से वहीं घर भी मिल जाएगा. फिर नीलू की परवरिश में कोई बाधा नहीं आएगी.’

आनंद उस समय खामोश रह गया. परंतु उस के मन में ज्वालामुखी ने धधकना आरंभ कर दिया. मैं ने नीलू को कालेज के पास शिशु सदन में छोड़ना शुरू कर दिया. मैं रोज सवेरे उसे छोड़ आती और शाम को आनंद उसे ले आता.

मुझे थीसिस का काम खत्म कर लौटने में रात को देर हो जाती. नीलिमा उदास रहने लगी थी. उस की खामोशी मुझे कभीकभी बहुत अखरती, परंतु मैं अपनी थीसिस अधूरी नहीं छोड़ सकती थी.

हम दोनों के बीच अकसर मनमुटाव होता. वह अकसर कहता, ‘मांबाप के रहते दिनभर बच्ची इस प्रकार अनाथों की तरह रहे, मुझे अच्छा नहीं लगता.’

मैं तपाक से उत्तर देती, ‘तो मैं क्या करूं? यह तो होता नहीं कि कोई उचित सुझाव दो, बस सदा कोसते ही रहते हो.’

बात जब बहुत बढ़ जाती तो वह कहता, ‘तुम अपनी थीसिस को अपनी बेटी की परवरिश से ज्यादा जरूरी समझती हो? कैसी मां हो?’

मैं कहती, ‘तुम मुझ से जलते हो. तुम्हारा अहं इस बात की इजाजत नहीं देता कि मैं तुम से ऊंचे पद पर पहुंचूं. तभी तुम मुझे ताने देते रहते हो. यह मत भूलो कि मुझे नौकरी पर जाने को मजबूर तुम ने ही किया था.’

नीलिमा ही सदा हम दोनों के आपसी झगड़ों में बीचबचाव करती. वह सदा एक ही बात कहती, ‘मैं ने तो कभी कोई शिकायत नहीं की. मुझे ले कर आप लोग क्यों लड़ते रहते हैं.’

वैसे नीलिमा चिड़चिड़ी सी रहती, बातबात पर जिद करती. ऊपर से आनंद उसे मेरे विरुद्ध हमेशा कुछ न कुछ कह कर भड़काता रहता. मुझे घर के माहौल में घुटन सी होने लगती. परंतु थीसिस अधूरी छोड़ने के लिए मैं कतई तैयार न थी. मेरी बच्ची मेरे जिगर का टुकड़ा थी, उस के रोने की आवाज मुझे परेशान कर देती.

नया पड़ाव: भाग 3- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

कभीकभी मैं रोज के क्रम से ऊब कर कुछ मनोरंजन चाहती, छुट्टी वाले रोज राकेश को बच्चों के साथ कहीं पिकनिक पर चलने को कहती तो वे बगैर कुछ बोले विद्रूपता से हंस कर अकेले ही बाहर चले जाते. मैं उदासी से ऊब कर बच्चों से ही दिल बहला लेती.

इसी तरह दिन बीतते गए. पिंकी जब 3 साल की हो गई तो मैं ने उसे भी स्कूल में

डाल दिया. अब दोपहर का थोड़ा सा वक्त मुझे खाली मिल जाता था, पर मैं तब अपने पर ध्यान न दे कर बच्चों के कपड़े सीती, स्वैटर बुनती या फिर सो जाती.

शाम को बच्चे आते तो मैं फिर उन में रम जाती. गरम खाना बना कर देती. घर में मक्खन से घी बना कर पौष्टिक खाने का इंतजाम करती. उन्हें पढ़ाती और उस से वक्त बचता तो फटेउधड़े कपड़े ठीक करती.

अब तक मोबाइल भी चलाना सीख लिया था. मोबाइल पर बहनों, चचेरी बहनों, बूआ से खूब बातें करती क्योंकि वे सब या तो बच्चों की बातें करतीं या तीजत्योहार और पंडितों की. मुझे जैसी कसबाई लड़की को यही अच्छा लगता. पड़ोस में कोई भी खास संबंध नहीं बना क्योंकि हम लोग पिछड़ी जाति के माने जाते थे और पासपड़ोस के लोग ऊंची जातियों के थे जो घास नहीं डालते थे हमें.

राकेश रात को लौटते, थकेथके से, चुपचुप से. मैं समझती, काम की अधिकता इनसान को चुप रहना सिखा देती है. झटपट उन्हें गरम खाना परोस कर देती और एकाध बात का हांहूं में जवाब दे कर बिस्तर में घुस जाते. मैं जब तक सब कुछ समेट कर कमरे में आती, तब तक राकेश सो जाते.

बच्चे अपने पिता के आने पर सहम कर चुप हो जाते थे क्योंकि राकेश ने कभी उन्हें प्यार से पुचकार कर गोद में नहीं उठाया और न कोई लाड़प्यार किया. बच्चों को प्यार की कोई कमी महसूस न हो, इसलिए मैं उन्हें और भी ज्यादा प्यार करती, उन्हीं में रमी रहती.

राकेश के पिता भी ऐसे ही थे. हां राकेश ने शादी के शुरू के महीनों में बताया था कि शहर आने पर उसे पता चला कि मांबाप किस तरह बच्चों के दोस्त बन जाते हैं पर हमारे परिवारों में यह संभव नहीं था.

बच्चे धीरेधीरे बड़े होने लगे थे. मुझे एक दिन उड़तीउड़ती खबर मिली कि राकेश अपने दफ्तर की स्टैनोग्राफर के साथ शाम गुजारते हैं. सुन कर बहुत अटपटा सा लगा.

गृहस्थी चलाने में क्या सजसंवर कर औरत

प्रेमप्यार का नाटक कर सकती है भला? मुझे लगा, मर्द की इस विविधता की चाह तो मिटा पाना असंभव है. पत्नी आखिर पत्नी है और प्रेमिका प्रेमिका ही यही सोच कर मैं चुप्पी साध गई कि बात खुल जाने पर बच्चों पर हमारी बहस का बुरा प्रभाव पड़ेगा.

राकेश अकसर दफ्तर की तरफ से 3-4 दिनों के लिए टूर पर जाया करते थे. पर इस बात के पता चलने पर उन के दौरे पर जाने के बाद मन कहीं टिकता ही न था. क्या पता इस वक्त राकेश क्या कर रहे हों. यही सोचसोच कर मैं रातरातभर जागती रहती. 2-4 बार फोन आने पर वे हांहूं कर के बाद बंद कर देते. उन के  लौटने पर ही मन कुछ संयत होता.

दिन गुजरते रहे और मैं राकेश से दूर होती चली गई. रंजू और पिंकी दोनों अब जवान हो

गए थे. रंजू तो पिता से ज्यादा बात ही नहीं करता था. उन के आने पर चुपचाप अपने कमरे में खिसक जाता.

मगर एक दिन पिंकी ने पिता से पूछ ही लिया, ‘‘पिताजी, आप रात को इतनी देर से घर क्यों आते हैं? आखिर हमें भी तो आप थोड़ा वक्त दिया कीजिए. मेरी सब सहेलियों के पिता तो उन के साथ कैरम, बैडमिंटन बगैरा खेलते हैं.’’

तब राकेश झेंपते हुए बोले थे, ‘‘हां भई, अब तुम कहती हो तो जल्दी आ जाया करेंगे, अभी तक तुम्हारी मां ने तो हम से कभी कहा ही नहीं कि जल्दी आया करो. न तुम्हारी मां के पिता ने उन से कभी बात की होगी न मेरे पिता ने. अब जमाना बदल रहा है पर हम वहीं रह गए.’’

मैं तब कट कर रह गई. मगर उस दिन से राकेश शाम को जल्दी आने लगे थे. फिर भी बच्चों के सामने राकेश के सम्मुख मैं कम ही पड़ती थी. न जाने क्यों हीनता की भावना घर

कर गई थी मुझ में. राकेश की इधरउधर की ताक?ांक से भी मन कुछ चिढ़ सा गया था.

मौन गुस्सा दिखा कर राकेश को उन के व्यवहार की गलती बतातीबताती मैं उन से छिटकती

चली गई.

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