Serial Story: शायद (भाग-3)

पिछला भाग पढ़ने के लिए- शायद- क्या हो पाई निर्वाण और प्रेरणा की दोस्ती?

प्रेक्षा रोते हुए वहीं जमीन पर बैठ गई. उसे अब सबकुछ लुटपिट जाने का आभास  होने लगा था. वह देर तक जमीन पर बैठी रोती रही.

प्रद्युमन वहां से उठ कर अपने कमरे में चले गए. कुछ देर बाद प्रेक्षा अपने चेहरे पर पानी डाल थोड़ा शांत हुई और फिर प्रद्युमन के पास गई. जाते ही सीधे बोल पड़ी, ‘‘निर्वाण ने कहा था वह मुझ से शादी करेगा. उस ने मुझ से वादा किया और मुझे यह अंगूठी भी दी थी.’’

‘‘यह अंगूठी बनावटी है आर्टिफिशियल… उस के वादे की तरह.’’

‘‘मैं ने अंगूठी नहीं, उस की भावना देखी थी?’’

‘‘यह अंगूठी नहीं लाइसैंस था संबंध बनाने का… सब सौंप दिया या कुछ बचा भी? माफ करना मैं मजबूर हूं ये सब पूछने को… तुम ने मुझे बेइज्जत करने का पूरा इंतजाम कर दिया… तुम्हारी मां को क्या कहूंगा मैं?’’

‘‘नहीं पता यह लाइसैंस था या कुछ और… मैं क्या चाहती थी, खुद ही नहीं समझ पाई.’’

‘‘अब क्या? पापा से कहो जा कर अपने.’’

‘‘घर में कह पाती तो आप के पास कहने क्यों आती? आप निर्वाण से कहो न एक बार.’’

‘‘कैसी लड़की हो तुम? जानती हो उस ने तुम्हें बताया नहीं ताकि तुम से संपर्क न रहे, फिर भी… मैं ने उस के दिए नंबर पर पहले ही फोन कर के देख लिया है… सब खत्म है… सब खत्म है… उस का नंबर भी जीवित नहीं है?’’

‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं उस से नहीं तो किस से कहूं?’’ हताश हो कर चीख पड़ी प्रेक्षा.

‘‘मुझ से कहो… मैं ही ले जाऊंगा तुम्हें डाक्टर के पास और कौन है तुम्हारी इन बचकानी हरकतों से निबटने के लिए?’’ प्रद्युमन ने बड़ी सरलता से कहा.

मगर पहले से छली गई कमजोर प्रेक्षा मन ही मन अमरबेल सी प्रद्युमन से लिपट गई. उस पर निर्भर होने की प्रेरणा पैदा होने लगी उस में. बोली, ‘‘ले चलिए डाक्टर के पास जल्दी?’’

‘‘मां को नहीं बताओगी?’’

‘‘शायद नहीं.’’

शक सही ही था प्रेक्षा का, वह 5 महीने के गर्भ से थी. बात सिर्फ अब भविष्य की ही नहीं, बल्कि वर्तमान की भी थी. प्रद्युमन आश्चर्य में थे… प्रेक्षा बुझ गई थी.

निर्वाण तक पहुंचने के लिए अगर रिश्तेदार का सूत्र पकड़ा जाए तो बात को जंगल की आग बनते देर नहीं लगेगी… प्रद्युमन की भी बदनामी होगी सो अलग… गैरजिम्मेदार ठहराया जाना उन के लिए बेहद दुखदाई होगा.

प्रद्युमन की कोचिंग तो चल रही थी, लेकिन आजकल वे बड़े अनमने से रहते. प्रेक्षा के पिता को अगर भनक लगी तो प्रेक्षा के साथसाथ उस की मां और दूसरी बहनों की जिंदगी भी नर्क बन जाएगी. अब तक तो प्रेक्षा के घर में उस के फेल होने तक की ही खबर थी… दूसरी बड़ी खबर तो भूचाल ही ला देगी.

प्रद्युमन ने प्रेक्षा के लिए मंझधार में खेवैया की भूमिका ली और उसे किनारे पर लाने का जिम्मा उठाया. लेडी डाक्टर ने हाथ खींच लिया था. प्रेक्षा की मैडिकल कंडीशन बच्चे को नष्ट करने की इजाजत नहीं देती थी.

मुसीबत दोगुनी हो चुकी थी. असहाय सी प्रेक्षा प्रद्युमन के कमरे में

बैठी थी. वे नीचे कोचिंग में सभी को जल्दी छुट्टी दे कर ऊपर आ गए. कुरसी पर रोनी सी सूरत बना कर बैठी प्रेक्षा के सिर पर उन्होंने हाथ फिराया और अपने पलंग पर आ कर बैठ गए. फिर उसे अपने पास बुलाया, ‘‘मेरे करीब आ कर बैठो.’’

प्रेक्षा यंत्रचालित सी उन के पास पलंग पर जा कर बैठ गई.

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‘‘बताओ मैं क्या करूं? न अबौर्शन की गुंजाइश है और न बच्चे को बिना पिता के सामने लाने की. अबौर्शन की स्थिति में तुम्हारी जिंदगी पर बन आए यह तो कभी नहीं चाहूंगा मैं… रही बात बच्चे की, तो अकेली तुम इस हालत में नहीं हो कि इस अजन्मे को बचाने के लिए तुम समाज की पाबंदियों से टकरा सको… कैसे सुलझाऊं प्रेक्षा… जब घर में भी मुश्किलें थीं तो बाहर भटकी क्यों?’’

‘‘घर की मुश्किलों की वजह से ही तो बाहर भटक गई… पर आप बहुत कुछ कर सकते हैं. आप… आप मुझे अपना लीजिए.’’

‘‘क्या कह रही हो? कुछ तो सोच कर बोलो?’’

‘‘आप ने अपना लिया तो मैं आप की खूब सेवा करूंगी, फिर आप को कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगी… प्रौमिस.’’

‘‘तुम क्या बोल रही हो प्रेक्षा? मैं 43 साल का हो चुका हूं… तुम अभी 18 साल की हो… उम्र का फर्क नहीं समझती हो? कैरियर भी पड़ा है सामने.’’

‘‘ठीक है, फिर मैं मरने जा रही हूं,’’ प्रेक्षा ने रोते हुए कहा, ‘‘मैं इस घर से बाहर नहीं जाना चाहती, लोग खा जाएंगे मुझे.’’

प्रद्युमन लगातार उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे, ‘‘प्रेक्षा, शरण एक बात है और शादी दूसरी… मैं तुम्हें शरण दे सकता हूं, तुम्हारे लिए हजार बातें सुन सकता हूं, लेकिन शादी के लिए मेरे हिसाब से प्रेम जरूरी है वरना वह समझौता हो जाता है और समझौते की एक न एक दिन मियाद खत्म होती ही है.’’

‘‘तो आप नहीं कर सकेंगे प्रेम मुझ से? न सही, मैं करती हूं आप से… जब मेरा और आप का कोई नाता नहीं तो फिर आप मुझे ले कर इतना परेशान क्यों रहने लगे. अब शायद आप से दूर जा कर मैं नहीं रह पाऊंगी… जी नहीं पाऊंगी आप के बिना… आदत हो गई है आप की मुझे… और क्या पता उम्र के फासले ने मुझ में इतनी हिम्मत नहीं दी थी कि मैं यह बात स्वीकार पाती कि आप… शायद मैं कहीं और बह गई… इन दिनों जब मुझे खुद के अंदर झांकने का मौका मिला तो धीरेधीरे मेरे दिल में आप की तसवीर साफ होने लगी है,’’ कह प्रेक्षा ने प्रद्युमन के कंधे पर अपना सिर रख दिया और चुप हो गई.

प्रद्युमन अपनी तरफ से उसे छुए बिना दीवारों को ताकते शांत बैठे रहे.

इन दोनों की मैरिज की रजिस्ट्री हो चुकी थी. कुछ गिनेचुने रिश्तेदार, प्रेक्षा के मातापिता और बहनें ही थे उन के विवाह के साक्षी. प्रद्युमन ने सब के सामने स्वीकारा कि प्रेक्षा के प्रति मेरे प्रेम के अतिरेक ने प्रेक्षा को इस स्थिति में डाला, प्रेक्षा बेकुसूर है और हम दोनों का प्रेम सच्चा है. उम्र की खाई भले ही गहरी है, लेकिन प्रेक्षा को एक अभिभावक बन कर सहारा दूंगा मैं ताकि उस का कैरियर फिर से रफ्तार पकड़ सके. प्रेक्षा और बच्चे की जिम्मेदारी अब मेरी है. अब किसी को फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं.

प्रेक्षा को बेटा हुआ. प्रद्युमन ने सारी जिम्मेदारी उठा ली और प्रेक्षा जीजान लगा कर इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर इंजीनियरिंग पढ़ने पिलानी चली गई. दिन दूनी पढ़ाई और चौगुनी सफलता उस के कदम चूम रही थी.

तब प्रेक्षा सैकंड ईयर में पहुंची थी. लास्ट बैच के सीनियर

स्टूडैंट पासआउट हो कर कालेज छोड़ रहे थे. स्टूडैंट और फैकल्टी मैंबर्स की एकसाथ तसवीरें ली गईं.

प्रेक्षा ने यह तसवीर भेजी थी प्रद्युमन को. प्रोफैसरों के पीछे की लाइन में एक किनारे जानापहचाना सा एक चेहरा दिखा. यह निर्वाण था. प्रद्युमन अपने बिस्तर पर बेटे को सुलाने के बाद तसवीर को गौर से देखते रहे. मोबाइल में भेजी गई तसवीर के इस खास चेहरे को जूम कर के कई बार देखा, कई बार प्रेक्षा के चेहरे को भी जूम किया उन्होंने जो सैकेंड ईयर की लाइन में खड़ी थी.

सबकुछ सामान्य था, लेकिन प्रद्युमन का दिल जोर से धड़कने लगा. वे सोच में पड़ गए कि क्यों डर लग रहा है मुझे जब खुद प्रेक्षा ने ही आगे बढ़ कर मेरे दिल में अपना बसेरा बनाया है? क्या पता वक्त की जरूरत थी.

शायद वह अकेली पड़ गई थी और उसे उसी वक्त एक सशक्त संबल की जरूरत थी. क्यों मैं उस का इतना ध्यान रखने लगा था? क्यों उस की परेशानियां मुझे दिनरात बेचैन किए थीं? क्यों प्रेक्षा की ओर से शादी का प्रस्ताव मुझे हास्यास्पद नहीं लगा जबकि यह इतना बेमेल है? क्या पता प्रेक्षा ने भी मुझ को चाहा हो या फिर मैं ठगा गया? नहीं पता कौन सही है?

क्या पता फिर से वहां निर्वाण का मिलना प्रेक्षा को कमजोर कर दे… आखिर निर्वाण के साथ अनगिनत रोमांस की यादें हैं उस की… वह प्रांजल का पिता भी तो है… तीनों साथ हो जाएं तो मेरी क्या जरूरत रह जाएगी प्रेक्षा के लिए?

मोबाइल रख कर प्रद्युमन बेटे को पीछे छोड़ करवट ले कर सो गए. नींद भला कैसे आती? कभी ऐसा किया था उन्होंने? हमेशा तो नन्ही जान को सहलाते हुए ही सोते रहे हैं.

मन उचाट था कि अगर प्रेक्षा के लिए बोझ सा बनने लगा मैं तो देर किए बिना उस की जिंदगी से निकल जाऊंगा.

सुबहसुबह प्रेक्षा का फोन आ गया था. प्रांजल को खिला कर वे खुद के लिए नाश्ता बना रहे थे.

‘‘बहुत दिन हो गए अब एक बार यहां आ जाओ… प्रांजल को कितने दिनों से नहीं देख मैं ने… उसे गोद में नहीं लिया… एक बार दिखाओगे न?’’

‘‘हां, आ जाऊंगा.’’

‘‘कुछ और नहीं कहोगे?’’

‘‘नाश्ता बना रहा हूं?’’

‘‘अच्छाअच्छा… जल्दी आना…’’

फोन रख देने के बाद काम करते हुए प्रद्युमन कुछ यों सोचते रहे कि निर्वाण का कोर्स खत्म, अब जाने वाला होगा वह… बेटे को बुलवा रही है. शायद अब प्रेक्षा मुझे अंतिम सत्य सुनाने के लिए बुला रही है. सही भी तो है, मेरी उम्र उस के लिए दोगुनी से भी ज्यादा है, जब उसे उस का पहला प्यार मिल ही गया है तो मैं इन के बीच क्या कर रहा हूं? कुछ सोचसमझ कर ही उस ने तसवीर भेजी होगी.

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तय वक्त पर वे प्रांजल को ले कर प्रेक्षा के पास पहुंचे. इस मिलन में प्रद्युमन के दिलोदिमाग पर विरह का गीत छाया रहा. प्रेक्षा को देख वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे. सोचते तिरिया चरित्र बलिहारी. अंत में एक बार फिर से सब खत्म कर देगी.

प्रेक्षा ने कालेज और होस्टल से 3-4 दिन की छुट्टी ले ली थी. वे होटल में ठहरे थे. यह पहला दिन था. वह दोनों के साथ मौजमस्ती में मग्न रही. प्रद्युमन उस की खुशी में साथ था, लेकिन अपने दुख के साथ.

अंतत: रात को जब प्रांजल सो गया और अंधेरे की घनी सांसें दोनों को बाहुपाश में बांधने लगीं तब प्रद्युमन ने प्रेक्षा से धीरे से पूछा, ‘‘निर्वाण से नहीं मिलवाया तुम ने? वह यहीं पढ़ता रहा इतने दिन?’’

क्यों? उस से हमारा क्या काम? वह तो कोर्स खत्म कर के कब का जा चुका… उस की एक नहीं अब 2-2 गर्लफ्रैंड्स हैं और दोनों ही शादी की आस में बारीबारी से घूम रही हैं उस के इर्दगिर्द. कुछ लोग अपनी बुरी आदतों से ताउम्र बाज नहीं आते. मैं ने तो उसे यहां आते ही देख लिया था, लेकिन कभी उस से मुलाकात नहीं की. उस ने भी दूर ही रहना ठीक समझा… वह मेरी भूल थी. क्यों दोहराऊं भूल को बारबार? तब तुम से कहने का मुझ में साहस नहीं था और निर्वाण की ओर मुड़ गई थी… मुझे लगता था कि तुम से वैसा कुछ कहूंगी तो तुम खफा हो कर मुझे पढ़ाना छोड़ दोगे.’’

प्रद्युमन ने उसे अपनी ओर जोर से खींचते हुए पूछा, ‘‘क्या कुछ कहती, अब कह दो.’’

आंखें बंद हो गई थीं प्रेक्षा की. प्रद्युमन के कसे होंठों की गरमी उस की पलकों पर थी. वे आहिस्ताआहिस्ता प्रेम की गहराई को समझते रहे… उस के पार एक सपनों वाली झील में उन के विश्वास की नैया धीरेधीरे बहती रही. यकीनन.

फलक तक: कैसे चुना स्वर्णिमा ने अपने लिए नया आयाम?

Serial Story: फलक तक (भाग-3)

स्वर्णिमा ने नजरें उठा कर राघव के चेहरे  पर टिका दीं. कितना कुछ था उन निगाहों में पढ़ने के लिए, कितने भाव उतर आए थे. पर उन भावों को तब न पढ़ा, अब तो वह पढ़ना भी नहीं चाहती थी.

‘‘आती है राघव, क्यों नहीं आएगी भला, दोस्तों की याद. यादें तो इंसान की सब से बड़ी धरोहर होती हैं,’’ कह कर स्वर्णिमा उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं राघव, समय ने चाहा तो इसी तरह किसी पुस्तक मेले में फिर मुलाकात हो जाएगी.’’

‘‘स्वर्ण,’’ राघव भी उठ खड़ा हुआ, ‘‘कुछ कहना चाहता हूं तुम से,’’ उस के चेहरे पर निगाहें टिकाता हुआ वह बोला, ‘‘दोबारा ऐसी स्वर्ण से नहीं मिलना चाहता हूं मैं. कहां खो गई वह स्वर्णिमा जिस के होंठों से ही नहीं, चेहरे और आंखों के हावभावों से भी कविता बोलती थी. स्वर्ण, अगर पौधा गमले की सीमाएं तोड़ कर जड़ें जमीन की तरफ फैलाने की कोशिश नहीं करेगा, तो माली पौधे की बेचैनी कैसे समझेगा. परिंदा उड़ने के लिए पंख फैलाने की कोशिश नहीं करेगा, पंख नहीं फड़फड़ाएगा तो दूसरे तक उस की फड़फड़ाहट पहुंचेगी कैसे. कोशिश तो खुद ही करनी पड़ती है.

‘‘स्वर्ण, परिस्थितियों से हार मत मानो,’’ वह क्षणभर रुक कर फिर बोला, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि जिंदगी को उलटपलट कर रख दो, अपनी गृहस्थी को आग लगा दो या अपने वैवाहिक जीवन को बरबाद कर दो पर अपने पंखों को विस्तार देने की कोशिश तो करो. कितनी बार रोक सकेगा कोई तुम को. अपनी जड़ों को फैलाने की कोशिश तो करो. बढ़ने दो टहनियों को, कितनी बार काटेगा माली. थक जाएगा वह भी. कोई साथ नहीं देता तो अकेले चलो स्वर्ण. तुम्हें चलते देख, साथ चलने वाला, साथ चलने लगेगा.’’

स्वर्णिमा एकटक राघव का चेहरा देख रही थी.‘‘स्वर्ण, कवि सम्मेलनों में शिरकत करो, बाहर निकलो, अपनी कविताओं का संकलन छपवाने की दिशा में प्रयास करो. कवि सम्मेलनों में दूसरे कविकवयित्रियों से मिलनेजुलने से तुम्हारे लेखन को विस्तार मिलेगा, नया आयाम मिलेगा, तुम्हारा लेखन बढ़ेगा, विचार बढ़ेंगे, प्रेरणा मिलेगी और जानकारियां बढ़ेंगी तुम्हारी.

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‘‘और मुझ से कोई मदद चाहिए तो निसंकोच कह सकती हो. मुझे बहुत खुशी होगी. मेरी किताबों के पीछे मेरा फोन नंबर व पता लिखा है, जब चाहे संपर्क कर सकती हो. मेरी बात याद रखना स्वर्ण, तुम्हारा शौक व जनून तुम्हें खुश व जिंदा रखता है, स्वस्थ रखता है…अभिनय, नृत्य, संगीत, गाना, लेखन ये सब विधाएं कला हैं, हुनर हैं, जो प्रकृतिदत्त हैं. ये हर किसी को नहीं मिलतीं. ये सब कलाएं नियमित अभ्यास से ही फलतीफूलती व निखरती हैं. यह नहीं कि जब कभी पात्र भर जाए, मन आंदोलित हो जाए तो थोड़ा सा छलक जाए. बस, उस के बाद चुप बैठ जाओ. किसी भी कला से लगातार जुड़े रहने से कला को विस्तार मिलता है, लिखते रहने से नए विचार मिलते हैं.

‘‘अपने शौक को मारना, मरने जैसा है. खुद को मत मारो स्वर्ण.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात का ध्यान रखूंगी राघव,’’ स्वर्णिमा किसी तरह बोली. उस का कंठ अवरुद्ध हो गया था. उस ने किताबों का बैग उठाया और जाने के लिए पलट गई. थोड़ी दूर गई. राघव उसे जाते हुए देख रहा था. एकाएक कुछ सोच कर स्वर्णिमा पलट कर वापस राघव के पास आ गई.

‘‘मुझे माफ कर देना राघव. दरअसल, उम्र का वह वक्त ही ऐसा होता है जब हम अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं होते.’’

आंसू छलक आए राघव की आंखों में. स्वर्णिमा की हथेली अपने हाथों में ले कर थपक दी उस ने. ‘‘नहीं स्वर्ण, तुम माफी क्यों मांग रही हो. मैं भी तो कुछ नहीं बोल पाया था तब. बहुतों के साथ ऐसा हो जाता होगा जिन के दिल का एक कोना अनकहा, अव्यक्त और कुंआरा ही रह जाता है, सबकुछ बेमेल और गड्डमड्ड सा हो जाता है जीवन में.’’

दोनों ने एकदूसरे को एक बार भरीआंखों से निहारा. स्वर्णिमा पलटी और चली गई. राघव सजल, धुंधलाती निगाहों से उसे जाते देखता रहा. पता नहीं कहां किस मोड़ पर जिंदगी अनचाहा मोड़ ले लेती है. इंसान समझ नहीं पाता और पूरी जिंदगी उसी मोड़ पर चलते रहना पड़ता है. समान रुचि वाले 2 इंसान हमसफर क्यों नहीं बन पाते. उस ने लंबी सांस खींच कर अपनी उंगलियों से अपनी आंखों को जोर से दबा कर आंसू पोंछ डाले.

स्वर्णिमा घर पहुंची तो वीरेन औफिस से आ चुका था, ‘‘बहुत देर कर दी तुम ने, मैं ने फोन भी मिलाया था. पर तुम मोबाइल घर पर ही छोड़ गई थीं.’’

‘‘हां, भूल गई थी,’’ स्वर्णिमा व्यस्तभाव से बोली.

‘‘यह क्या उठा लाई हो?’’ उस के हाथों में बैग देख कर वीरेन बोले.

‘‘किताबें हैं, पुस्तक मेले से खरीदी हैं,’’ वह किताबें बाहर निकाल कर मेज पर रखती हुई बोली.

वीरेन ने एक उड़ती हुई नजर किताबों पर डाली. स्वर्णिमा जानती थी कि वीरेन की किताबों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसलिए उस की बेरुखी पर उसे कोई ताज्जुब नहीं हुआ. वह किचन में गई, 2 कप चाय बना कर ले आई और वीरेन के सामने बैठ गई.

‘‘वीरेन, मैं कल देहरादून जा रही हूं 2 दिनों के लिए.’’

‘‘देहरादून? क्या, क्यों, किसलिए, क्या मतलब, किस के साथ,’’ वीरेन उसे घूरने लगा.

‘‘इतने सारे क्या, क्यों किसलिए वीरेन,’’ वह मुसकराई, ठंडे स्वर में बोली, ‘‘वहां एक कवि सम्मेलन है, मुझे भी निमंत्रण आया है,’’ वह निमंत्रणपत्र उस के हाथ में पकड़ाते हुए बोली.

‘‘क्या जरूरत है वहां जाने की. कवि सम्मेलनों में ऐसा क्या हो जाता है?’’ वह तल्ख स्वर में बोला, ‘‘यहां भी कवि सम्मेलन होते रहते हैं, तब तो तुम नहीं गईं.’’

‘‘वही गलती हो गई वीरेन. पर कल मैं जा रही हूं. जहां तक साथ की जरूरत है, तो हमारी कुंआरी खूबसूरत जवान बेटी कानपुर से चंड़ीगढ़ अकेली आतीजाती है, तब तुम नहीं डरते. मेरे लिए इतना डरने की क्या जरूरत है. किसी एक दिन तो कोई काम पहली बार होता ही है, फिर आदत पड़ जाती है.’’

यह कह कर स्वर्णिमा उठ खड़ी हुई और कमरे में जा कर अपना बैग तैयार करने लगी. वीरेन चुप खड़ा स्वर्णिमा की कही बात को सोचता रह गया. इतनी मजबूती से स्वर्णिमा ने अपनी बात पहले कभी नहीं कही थी.

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर वीरेन के लिए सभी तैयारियां कर खुद भी तैयार हुई. अपना बैग ले कर बाहर आई तो लौबी में वीरेन खड़ा था.

‘‘तुम कहां जा रहे हो?’’ वह आश्चर्य से बोली.

‘‘तुम्हें बसस्टौप तक छोड़ देता हूं. कैसे जाओगी, पहले बताती तो मैं भी देहरादून चलता तुम्हारे साथ’’ वीरेने की आवाज धीमी व पछतावे से भीगी हुई थी.

वीरेन की भीगी आवाज से उस का दिल भर आया. उस का हाथ सहलाते हुए बोली, ‘‘नहीं वीरेन, इस बार तो मैं अकेले ही जाऊंगी. अब तो इधरउधर आतीजाती रहूंगी. कितनी बार जाओगे तुम मेरे साथ. मैं ने आटो वाले को फोन कर दिया था, वह बाहर आ गया होगा गेट पर. मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी. मोबाइल पर बात करते रहेंगे.’’

और स्वर्णिमा निकल गई. बाहर लौन में देखा तो माली काम कर रहा था, ‘‘आज बहुत जल्दी आ गए माली, क्या कर रहे हो?’’

‘‘कुछ नहीं मेमसाहब, इस पौधे की जड़ों ने गमला तोड़ दिया है नीचे से. और जड़ें बाहर फैलने लगी हैं. अभी तक यह पौधा 4 गमले तोड़ चुका है, इसलिए मैं ने थकहार कर इसे जमीन पर लगा दिया है. लगता है, अब यह गमले में नहीं रुकेगा.’’

माली बड़बड़ा रहा था और वह खुशी से उस पौधे को देख रही थी जो जमीन पर लग कर लहरा व इठला रहा था. वह भी अपने अंदर एक नई स्वर्णिमा को जन्म लेते महसूस कर रही थी, जो अपनी जड़ों को मजबूती देगी और टहनियों को विस्तार देगी. यह सोच कर उस ने गेट खोला और एक नई उमंग व स्फूर्ति के साथ बाहर निकल गई.

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Serial Story: फलक तक (भाग-2)

स्वर्णिमा ने राघव की बात को लगभग अनसुना सा कर दिया. ‘‘बहुत दिनों बाद मिले हैं. चलो, चल कर थोड़ी देर कहीं बैठते हैं,’’ स्वर्णिमा चलतेचलते बोली, ‘‘और किसकिस के संपर्क में हो कालेज के समय के दोस्तों में से?’’

‘‘बस, शुरू में तो संपर्क था कुछ दोस्तों से, समय के साथ सब खत्म हो गया.’’

‘‘और अपनी सुनाओ स्वर्णिमा. तुम तो कितनी अच्छी कविताएं लिखती थीं. कहां तक पहुंचा तुम्हारा लेखन, कितने संकलन छप चुके हैं?’’

‘‘एक भी नहीं, गृहस्थी के साथ यह सब कहां हो पाता है. बस, छिटपुट कविताएं यहांवहां पत्रिकाओं में छपती रहती हैं. कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में भी छपी हैं,’’ वह राघव से नजरें चुराती हुई  बोली.

‘‘जब मैं नौकरी के दौरान लिख सकता हूं तो तुम गृहस्थी के साथ क्यों नहीं?’’

‘‘बस, शायद यही फर्क है स्त्रीपुरुष का. स्त्री घर के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर देती है, जबकि पुरुष का समर्पण आंशिक रूप से ही रहता है.’’

‘‘यह तो तुम सरासर इलजाम लगा रही हो मुझ पर,’’ राघव हंसता हुआ बोला, ‘‘मैं भी गृहस्थी के प्रति अपनी सभी जिम्मेदारियां पूरी करता हूं…’’

‘‘पर फिर भी पत्नी के लिए पति एक सीमारेखा तो खींच ही देता है. उस का शौक पति के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होता. पौधे को अगर जड़ें फैलाने को ही न मिलें तो मजबूती कहां से आएगी राघव? पौधे को अगर गमले की सीमाओं में पनपने के लिए ही बाध्य किया जाए तो वह अपनी पूर्णता कैसे प्राप्त करेगा? परिंदे अगर पिंजरे के बाहर पंख न फैला पाएं तो फिर…’’

स्वर्णिमा ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी. राघव ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘अच्छा छोड़ो इन बातों को, अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ…’’ स्वर्णिमा बात टालने की गरज से बोली.

‘‘बैंक में जौब करता हूं. 2 छोटे बच्चे हैं, पत्नी है. और तुम्हारे बच्चे? ’’

‘‘मेरी बेटी ने इसी साल कानपुर मैडिकल कालेज में दाखिला लिया है.’’

‘‘इतनी बड़ी बेटी कब हो गई तुम्हारी?’’

‘‘तुम भूल रहे हो राघव कि मेरा विवाह, बीकौम फाइनल ईयर में ही हो गया था.’’

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‘‘कैसे भूल सकता हूं वह सब,’’ राघव एक लंबी सांस खींच कर बोला, ‘‘अचानक गायब हो गई थी गु्रप से,’’ राघव का स्वर संजीदा हो गया, ‘‘पीछे मुड़ कर भी न देखा.’’

‘‘शादी के बाद ऐसा ही होता है, नई जिम्मेदारियां आ जाती हैं…’’

‘‘और नए अपने भी बन जाते हैं,’’ राघव लगभग व्यंग्य करता हुआ बोला.

‘‘बहुत बोलना सीख गए हो राघव…’’

‘‘हां, तब के कालेज में बीकौम कर रहे राघव और अब के राघव में बहुत फर्क भी तो है उम्र का.’’

‘‘और रुतबे का भी,’’ स्वर्णिमा बात पूरी करती हुई बोली, ‘‘अब तो साहित्यकार भी हो, सफल इंसान भी हो जिंदगी में हर तरह से.’’

‘‘क्यों, ईर्ष्या हो रही है क्या?’’

‘‘हां, हो तो रही है थोड़ीथोड़ी,’’ दोनों हंस पड़े.

‘‘नहीं स्वर्ण, सौरी स्वर्णिमा, मैं तो वैसा ही हूं अभी भी.’’

‘‘स्वर्ण ही बोलो न राघव. कालेज में तो मुझे सभी इसी नाम से बुलाते थे. ऐसा लगता है, वापस कालेज के प्रांगण में पहुंच गई हूं मैं. थोड़े समय तुम्हारे साथ उन बीती यादों को जी लूं. जब दिल में सिर्फ भविष्य की मनभावन कल्पनाएं थीं, न कि अतीत की अच्छीबुरी यादों की सलीब.’’

‘‘कवयित्री हो, उसी भाषा में अपनी बात कहना जानती हो. मैं कहता था न तुम्हें हमेशा कि कविता में दिल की भावनाओं को जाहिर करना ज्यादा आसान होता है, बजाय कहानी के.’’

‘‘लेकिन मुझे तो हमेशा लगता है कि गद्य, पद्य से अधिक सरल होता है और पढ़ने वाले को कहने वाले की बात सीधे समझ में आ जाती है,’’ स्वर्णिमा अपनी बात पर जोर डाल कर बोली.

‘‘नहीं स्वर्ण, कविता पढ़ने वाला जब कविता पढ़ता है, तो बोली हुई बात उसे सीधे खुद के लिए बोली जैसी लगती है. और कविता का भाव सीधे उस के दिल में उतर जाता है. फिर कविता में तुम कम शब्दों में बिना किसी लागलपेट के अपनी बात जाहिर कर सकती हो, लेकिन कहानी के पात्र जो कुछ बोलते हैं, एकदूसरे के लिए बोलते हैं और बात पात्रों में उलझ कर रह जाती है. कभीकभी तो पूरी कहानी लिख कर लगता है कि जो कहना चाहते थे, ठीक से कह ही नहीं पाए.’’

‘‘चलो, यही सही. बहुत समय बाद कोई मिला राघव, जिस से इस विषय पर ऐसी बात कर पा रही हूं,’’ स्वर्णिमा मुसकराती हुई बोली, ‘‘ऐसा लगता था जैसे मैं अपनी तर्कशक्ति ही खो चुकी हूं, हर बात मान लेने की आदत सी पड़ गई है.’’

‘‘तर्कशक्ति तो तुम सचमुच खो चुकी हो स्वर्ण,’’ राघव हंसता हुआ बोला, ‘‘कालेज के जमाने में तो तर्क में तुम से जीतना मुश्किल होता था और आज तुम ने सरलता से हार मान ली.’’

‘‘अब हार मानना सीख गई हूं. तुम ने जो जीतना शुरू कर दिया है,’’ स्वर्णिमा हंस कर बात को हवा में उड़ाते हुए बोली.

‘‘जब से जिंदगी में बड़ी हार से सामना हुआ, तब से जीतने की आदत डाल ली.’’

स्वर्णिमा को लगा, बहुत बड़ा मतलब है राघव के इस वाक्य का. बात को अनसुनी सी करती हुई बोली, ‘‘कब तक हो चंडीगढ़ में, वापसी कब की है?’’

‘‘बस, कल जा रहा हूं,’’ वह उठता हुआ बोला, ‘‘तुम 5 मिनट बैठो, मैं अभी आया,’’  कह कर राघव चला गया.

स्वर्णिमा उसे जाते हुए देखती रही. सचमुच कालेज के जमाने के राघव और आज के राघव में जमीनआसमान का फर्क था. उस का निखरा व्यक्तित्व उस की सफलता की कहानी बिना कहे ही बयान कर रहा था. उस का हृदय कसक सा गया.

6 लड़केलड़कियों का गु्रप था उन का. कालेज में खूब मस्ती भी करते थे और खूब पढ़ते भी थे. राघव और वह दोनों ही पढ़नेलिखने के शौकीन थे. वह कविताएं लिखती थी और राघव कहानियां व लेख वगैरह लिखा करता था. राघव ने ही उसे उकसाया कि वह अपनी कविताएं पत्रिकाओं में भेजे और उसी की कोशिश से ही उस की कविताएं पत्रिकाओं में छपने लगी थीं. पढ़ने के लिए भी वे एकदूसरे को किताबें दिया करते थे. एकदूसरे को किताबें लेतेदेते, अपना लिखा पढ़तेपढ़ाते कब वे एकदूसरे करीब आ गए, उन्हें पता ही नहीं चला.

समान रुचियां उन्हें एकदूसरे के करीब तो ले आईं पर दोनों के दिलों में फूटी प्यार की कोंपलें अविकसित ही रह गईं. सबकुछ अव्यक्त ही रह गया. उन्हें मौका ही नहीं मिल पाया एकदूसरे की भावनाओं को ठीक से समझने का. वह राघव की आंखों में अपने लिए बहुतकुछ महसूस करती, पर कभी राघव ने कुछ कहा नहीं. वह भी जानती थी कि राघव अभी बीकौम ही कर रहा है, वह भी इतनी दूर तक उस का साथ नहीं दे पाएगी. उस के पिता उस के विवाह की पेशकश करने लगे थे. इसलिए उस ने भी उस की आंखों की भाषा पढ़ने की कोशिश नहीं की.

और फाइनल ईयर के इम्तिहान से पहले ही उस का विवाह तय हो गया. उस ने जब अपने विवाह का कार्ड अपने गु्रप को भेजा, तो सभी चहकने लगे, उसे छेड़ने लगे. लेकिन राघव हताश, खोयाखोया सा उसे देख रहा था जैसे उस के सामने उस का सारा संसार लुट गया हो और वह कुछ नहीं कर पा रहा था.

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इम्तिहान के बाद उस का विवाह हो गया और उन दोनों के दिलों में सबकुछ अव्यक्त, अनकहा ही रह गया. वीरेन से विवाह हुआ तो वीरेन एक अच्छे पिता थे, अच्छे पति थे, पर ठीक उस माली की तरह. वे उसे प्यार से सहेजते, देखभाल करते पर सीमाओं में बांधे रखते. पति से अलग जाने की, अलग सोचने की उस की क्षमता धीरेधीरे खत्म हो गई. उस का लेखन बस, थोड़ाबहुत इधरउधर पत्रिकाओं तक ही सीमित रह गया.

तभी किताबें हाथ में उठाए राघव सामने से आता दिखाई दिया.

‘‘ये सब क्या?’’

‘‘मेरी किताबें हैं और कुछ तुम्हारी पसंद के प्रसिद्ध कवि व कवयित्रियों के संकलन हैं. तुम्हारे लिए पैक करवा लाया हूं,’’ वह बैग उस की तरफ बढ़ाता हुआ बोला.

‘‘ओह, थैंक्स राघव,’’ वह राघव को देख रही थी. सोचने लगी, भूख क्या सिर्फ शरीर या पेट की होती है. मानसिक और दिमागी भूख भी तो एक भूख है, जिसे हर कोई शांत नहीं कर सकता. क्यों इतने बेमेल जोड़े बन जाते हैं. राघव और उस के बीच एक मजबूत दिमागी रिश्ता है, जो किताबों से होता हुआ एकदूसरे तक पहुंचता है.

‘‘क्या सोच रही हो,’’ राघव उस की आंखों के  आगे हथेली लहराता हुआ बोला.

‘‘कुछ नहीं,’’ वह संभल कर बैठती हुई बोली, ‘‘तुम्हारी पत्नी को तो बहुत गर्व होता होगा तुम पर. उसे भी पढ़नेलिखने का शौक है क्या?’’

‘‘उसे स्वेटर बुनने का बहुत शौक है,’’ राघव ठहाका मार कर हंसता हुआ बोला, ‘‘हम तीनों को उसी के बुने हुए स्वेटर पहनने पड़ते हैं.’’ यह सुन कर वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘स्वर्ण, कभी कालेज का समय याद नहीं करतीं तुम, कभी दोस्तों की याद नहीं आती?’’ राघव की आवाज एकाएक गंभीर हो गई थी.

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Serial Story: फलक तक (भाग-1)

स्वर्णिमा खिड़की के पास खड़ी हो बाहर लौन में काम करते माली को देखने लगी. उस का छोटा सा खूबसूरत लौन माली की बेइंतहा मेहनत, देखभाल व ईमानदारी की कहानी कह रहा था. वह कहीं भी अपने काम में कोताही नहीं बरतता है…बड़े प्यार, बड़ी कोशिश, कड़ी मेहनत से एकएक पौधे को सहेजता है, खादपानी डालता है, देखभाल करता है.

गमलों में उगे पौधे जब बड़े हो कर अपनी सीमाओं से बाहर जाने के लिए अपनी टहनियां फैलाने लगते हैं, तो उन की काटछांट कर उन्हें फिर गमले की सीमाओं में रहने के लिए मजबूर कर देता है. उस ने ध्यान से उस पौधे को देखा जो आकारप्रकार का बड़ा होने के बावजूद छोटे गमले में लगा था. छोटे गमले में पूरी देखभाल व साजसंभाल के बाद भी कभीकभी वह मुरझाने लग जाता था.

माली उस की विशेष देखभाल करता है. थोड़ा और ज्यादा काटछांट करता है, अधिक खादपानी डालता है और वह फिर हराभरा हो जाता है. कुछ समय बाद वह फिर मुरझाने लगता. माली फिर उस की विशेष देखभाल करने में जुट जाता. पर उस को पूरा विकसित कर देने के बारे में माली नहीं सोचता. नहीं सोच पाता वह यह कि यदि उसे उस पौधे को गमले की सीमाओं में बांध कर ही रखना है तो बड़े गमले में लगा दे या फिर जमीन पर लगा कर पूरा पेड़ बनने का मौका दे. यदि उस पौधे को उस की विस्तृत सीमाएं मिल जाएं तो वह अपनी टहनियां चारों तरफ फैला कर हराभरा व पुष्पपल्लवित हो जाएगा.

लेकिन शायद माली नहीं चाहता कि उस का लगाया पौधा आकारप्रकार में इतना बड़ा हो जाए कि उस पर सब की नजर पडे़ और उसे उस की छाया में बैठना पड़े. एक लंबी सांस खींच कर स्वर्णिमा खिड़की से हट कर वापस अपनी जगह पर बैठ गई और उस लिफाफे को देखने लगी जो कुछ दिनों पहले डाक से आया था.

वह कविता लिखती थी स्कूलकालेज के जमाने से, अपने मनोभावों को जाहिर करने का यह माध्यम था उस के पास, अपनी कविताओं के शब्दों में खोती तो उसे किसी बात का ध्यान न रहता. उस की कविताएं राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छपती थीं और कुछ कविताएं उस की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में भी छप चुकी थीं. साहित्यिक पत्रिकाओं में छपी उस की कविताएं साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा पा चुके लोगों की नजरों में भी आ जाती थीं.

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उस का कवि हृदय, कोमल भावनाएं और हर बात का मासूम पक्ष देखने की कला अकसर उस के पति वीरेन के विपरीत स्वभाव से टकरा कर चूरचूर हो जाते. वीरेन को कविता लिखना खाली दिमाग की उपज लगती. किताबों का संगसाथ उसे नहीं सुहाता था. शहर में हो रहे कवि सम्मेलनों में वह जाना चाहती तो वीरेन यह कह कर ना कर देता, ‘क्या करोगी वहां जा कर, बहुत देर हो जाती है ऐसे आयोजनों में…ये फालतू लोगों के काम हैं…तुम्हें कविता लिखने का इतना ही शौक है तो घर में बैठ कर लिखो.’

उस के लिए ये सब खाली दिमाग व फालतू लोगों की बातें थीं. जब कभी बाहर के लोग स्वर्णिमा की तारीफ करते तो वीरेन को कोई फर्क नहीं पड़ता. उस के लिए तो घर की मुरगी दाल बराबर थी. कहने को सबकुछ था उस के पास. बेटी इसी साल मैडिकल के इम्तिहान में पास हो कर कानपुर मैडिकल कालेज में पढ़ाई करने चली गई थी. वीरेन की अच्छी नौकरी थी. एक पति के रूप में उस ने कभी उस के लिए कोई कमी नहीं की. पर पता नहीं उस के हृदय की छटपटाहट खत्म क्यों नहीं होती थी, क्या कुछ था जिसे पाना अभी बाकी था. कौन सा फलक था जहां उसे पहुंचना था.

उसे हमेशा लगता कि वीरेन ने भी एक कुशल माली की तरह उसे अपनी बनाई सीमाओं में कैद किया हुआ है. उस से आगे उस के लिए कोई दुनिया नहीं है. उस से आगे वह अपनी सोच का दायरा नहीं बढ़ा सकती. जबजब वह अपनी टहनियों को फैलाने की कोशिश करती, वीरेन एक कुशल माली की तरह काटछांट कर उसे उस की सीमा में रहने के लिए बाध्य कर देता.

उसे ताज्जुब होता कि बेटी की तरक्की व शिक्षा के लिए इतना खुला दिमाग रखने वाला वीरेन, पत्नी को ले कर एक रूढि़वादी पुरुष क्यों बन जाता है. वह लिफाफा खोल कर पढ़ने लगी. देहरादून में एक कवि सम्मेलन का आयोजन होने जा रहा था, जिस में कई जानेमाने कविकवयित्रियां शिरकत कर रहे थे और उसे भी उस आयोजन में शिरकत करने का मौका मिला था.

पर उसे मालूम था कि जो वीरेन उसे शहर में होने वाले आयोजनों में नहीं जाने देता, क्या वह उसे देहरादून जाने देगा. जबकि देहरादून चंडीगढ़ से कुछ ज्यादा दूर नहीं था. पर वह अकेली कभी गई ही नहीं, वीरेन ने कभी जाने ही नहीं दिया. वीरेन न आसानी से खुद कहीं जाता था न उसे जाने देता था.

वीरेन की तरफ से हमेशा न सुनने की आदी हो गई थी वह, इसलिए खुद ही सोच कर सबकुछ दरकिनार कर देती. वीरेन से ऐसी बात करने की कोशिश भी न करती. पर पता नहीं आज उस का मन इतना आंदोलित क्यों हो रहा था, क्यों हृदय तट?बंध तोड़ने को बेचैन सा हो रहा था.

हमेशा ही तो वीरेन की मानी है उस ने, हर कर्तव्य पूरे किए. कहीं पर भी कभी कमी नहीं आने दी. अपना शौक भी बचे हुए समय में पूरा किया. क्या ऐसा ही निकल जाएगा सारा जीवन. कभी अपने मन का नहीं कर पाएगी. और फिर ऐसा भी क्या कर लेगी, क्या कुछ गलत कर लेगी. इसी उधेड़बुन में वह बहुत देर तक बैठी रही.

कुछ दिनों से शहर में पुस्तक मेला लगा हुआ था. वह भी जाने की सोच रही थी. उस दिन वीरेन के औफिस जाने के बाद वह तैयार हो कर पुस्तक मेले में चली गई. किताबें देखना, किताबों से घिरे रहना उसे हमेशा सुकून देता था.

मेले में वह एक स्टौल से दूसरे स्टौल पर अपनी पसंद की कुछ किताबें ढूंढ़ रही थी. एक स्टौल पर प्रसिद्ध कवि व कवयित्रियों के कविता संकलन देख कर वह ठिठक कर किताबें पलटने लगी.

‘‘स्वर्णिमा,’’ एकाएक अपना नाम सुन कर उस ने सामने देखा तो कुछ खुशी, कुछ ताज्जुब से सामने खड़े राघव को देख कर चौंक गई.

‘‘राघव, तुम यहां? हां, लेकिन तुम यहां नहीं होंगे तो कौन होगा,’’ स्वर्णिमा हंस कर बोली, ‘‘अभी भी कागजकलमदवात का साथ नहीं छूटा, रोटीकपड़ामकान के चक्कर में…’’

‘‘क्यों, तुम्हारा छूट गया क्या,’’ राघव भी हंस पड़ा, ‘‘लगता तो नहीं वरना पुस्तक मेले में कविता संकलन के पृष्ठ पलटते न दिखती.’’

‘‘मैं तो चंडीगढ़ में ही रहती हूं, पर तुम दिल्ली से चंडीगढ़ में कैसे?’’

‘‘हां, बस औफिस के काम से आया था एक दिन के लिए. मेरी भी किताबें लगी हैं ‘किशोर पब्लिकेशन हाउस’ के स्टौल पर. फोन पर बताया था उन्होंने, इसलिए समय निकाल कर यहां आ गया.’’

‘‘किताबें?’’ स्वर्णिमा खुशी से बोली, ‘‘मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम्हारे उपन्यास भी छप चुके हैं और वह भी इतने बडे़ पब्लिकेशन हाउस से. पर किस नाम से लिख रहे हो?’’

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‘‘किस नाम से, क्या मतलब… विवेक दत्त के नाम से ही लिख रहा हूं.’’

‘‘ओह, मैं ने कभी ध्यान क्यों नहीं दिया. पता होता तो किताबें पढ़ती तुम्हारी.’’

‘‘तुम ने ध्यान ही कब दिया,’’ अपनी ही बोली गई बात को अपनी हंसी में छिपाता हुआ राघव बोला.

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यह कैसी विडंबना: शर्माजी और श्रीमती शर्मा का क्या था राज?

Serial Story: यह कैसी विडंबना (भाग-2)

पूर्व कथा

15 साल बाद परिवार समेत ममता एक बार फिर दिल्ली में बसीं. वे उसी महल्ले व उसी घर में रहने लगीं जहां पहले रह कर गई थीं. घर के सामने अभी भी शर्मा दंपती रहते हैं. दादीनानी बनने के बाद भी श्रीमती शर्मा का साजशृंगार उन की तीनों बहुओं से बढ़ कर होता है. पुरानी पड़ोसिन सरला ने ममता को बताया कि श्रीमती शर्मा के नाजनखरे तो आज भी वही हैं मगर पतिपत्नी के रोजरोज के झगड़े बहुत बुरे हैं, दिनरात कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते हैं. तुम्हें भी इन के झगड़ने की आवाजें विचलित करेंगी. 75 वर्षीय श्रीमती शर्मा कहती हैं कि उन के 80 वर्षीय पति शर्माजी का एक औरत से चक्कर है. एक लड़की भी है उस से…ममता यह सुन कर अवाक् रह जाती है. हालांकि उसे यहां दोबारा आए 2 दिन ही हुए और वह शर्मा आंटी से बहुत प्रभावित हुई थी, उन की साफसफाई, उन के जीने के तरीके से. 5-6 दिन बीतने के बाद भी किसी तरह के लड़नेझगड़ने की आवाज नहीं आई तो ममता सोचती है कि उसे जो बताया गया है, वह गलत होगा. इस बीच, शर्मा दंपती ममता के घर पधारे. दोनों ने हंसीखुशी ममता के साथ खूब गपशप की, दोपहर को वहीं खाना खाया. शाम को पति आए तो ममता उन के साथ शर्मा दंपती से मिलने उन के घर गई. इस तरह वे अच्छे पड़ोसी बन गए. सरला यह जान कर हैरान हो जाती है. वह ममता को समझाने लगती है कि अपना ध्यान रखना, शर्मा आंटी कहानियां गढ़ लेती हैं. इन्होंने अपनी तो उतार रखी है. कहीं ऐसा न हो, तुम्हारी भी उतार कर रख दें. इधर, दीवाली आने को होती है और ममता घर का बल्ब जला कर परिवार समेत जम्मू चली जाती है.

अब आगे…

सरला ने जम्मू से चावल मंगवाए थे. वापस आने पर सामान आदि खोला. सोचा, सरला को फोन करती हूं, आ कर अपना सामान ले जाए. तभी 2 लोगों की चीखपुकार शुरू हो गई. गंदीगंदी गालियां और जोरजोर से रोना- पीटना.

मैं घबरा कर बाहर आई. शर्मा आंटी रोतीपीटती मेरे गेट के पास खड़ी थीं. लपक कर बाहर चली आई मैं.

‘‘क्या हो गया आंटी, आप ठीक तो हैं न?’’

‘‘अभीअभी यह आदमी 205 नंबर से हो कर आया है. अरे, अपनी उम्र का तो खयाल करता.’’

अंकल चुपचाप अपने दरवाजे पर खड़े थे. क्याक्या शब्द आंटी कह गईं, मैं यहां लिख नहीं सकती. अपने पति को तो वे नंगा कर रही थीं और नजरें मेरी झुकी जा रही थीं. पता नहीं कहां से इतनी हिम्मत चली आई मुझ में जो दोनों को उन के घर के अंदर धकेल कर मैं ने उन का गेट बंद कर दिया. मन इतना भारी हो गया कि रोना आ गया. क्या कर रहे हैं ये दोनों. शरम भी नहीं आती इन्हें. जब जवानी में पति को मर्यादा का पाठ नहीं पढ़ा पाईं तो इस उम्र में उसी शौक पर चीखपुकार क्यों?

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सच तो यही है कि अनैतिकता सदा ही अनैतिक है. मर्यादा भंग होने को कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी के रिश्ते में पवित्रता, शालीनता और ईमानदारी का होना अति आवश्यक है. शर्मा आंटी की खूबसूरती यदि जवानी में सब को लुभाती थी तब क्या शर्मा अंकल को अच्छा लगता होगा. हो सकता है पत्नी को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल भी किया हो.

जवानी में जोजो रंग पतिपत्नी घोलते रहे उन की चर्चा तो आंटी मुझ से कर ही चुकी थीं और बुढ़ापे में उसी टूटी पवित्रता की किरचें पलपल मनप्राण लहूलुहान न करती रहें ऐसा तो मुमकिन है ही नहीं. अनैतिकता का बीज जब बोया जाता तब कोई नहीं देखता, लेकिन जब उस का फल खाना पड़ता है तब बेहद पीड़ा होती है, क्योंकि बुढ़ापे में शरीर इतना बलवान नहीं होता जो पूरा का पूरा फल एकसाथ डकार सके.

सरला से बात हुई तो वह बोली, ‘‘मैं ने कहा था न कि इन से दूर रह. अब अपना मन भी दुखी कर लिया न.’’

उस घटना के बाद हफ्ता बीत गया. सुबह 5 बजे ही दोनों शुरू हो जाते. शालीनता और तमीज ताक पर रख कर हर रोज एक ही जहर उगलते. परेशान हो जाती मैं. आखिर कब यह घड़ा खाली होगा.

संयोग से वहीं पास ही में हमें एक अच्छा घर मिल गया. चूंकि पति का रिटायरमैंट पास था, इसलिए उसे खरीद लिया हम ने और उसी को सजानेसंवारने में व्यस्त हो गए. नया साल शुरू होने वाला था. मन में तीव्र इच्छा थी कि नए साल की पहली सुबह हम अपने ही घर में हों. महीना भर था हमारे पास, थोड़ीबहुत मरम्मत, रंगाईपुताई, कुछ लकड़ी का काम बस, इसी में व्यस्त हो गए हम दोनों. कुछ दिन को बच्चे भी आ कर मदद कर गए.

एक शाम जरा सी थकावट थी इसलिए मैं जा नहीं पाई थी. घर पर ही थी. सरला चली आई थी मेरा हालचाल पूछने. हम दोनों चाय पी रही थीं तभी द्वार पर दस्तक हुई. शर्मा अंकल थे सामने. कमीज की एक बांह लटकी हुई थी. चेहरे पर जगहजगह सूजन थी.

‘‘यह क्या हुआ आप को, अंकल?’’

‘‘एक्सीडेंट हो गया था बेटा.’’

‘‘कब और कैसे हो गया?’’

पता चला 2 दिन पहले स्कूटर बस से टकरा गया था. हर पल का क्लेश कुछ तो करता है न. तरस आ गया था हमें.

‘‘बाजू टूट गई है क्या?’’

‘‘टूटी नहीं है…कंधा उतर गया है. 3 हफ्ते तक छाती से बांध कर रखना पड़ेगा. बेटा, मुझे तुम से कुछ काम है. जरा मदद करोगी?’’

‘‘हांहां, अंकल, बताइए न.’’

‘‘बेटा, मैं बड़ा परेशान हूं. तनिक अपनी आंटी को समझाओ न. मैं कहां जाऊं…मेरा तो जीना हराम कर रखा है इस ने. तुम जरा मेरी उम्र देखो और इस का शक देखो. तुम दोनों मेरी बेटी जैसी हो. जरा सोचो, जो सब यह कहती है क्या मैं कर सकता हूं. कहती है मैं मकान नंबर 205 में जाता हूं. जरा इसे साथ ले जाओ और ढूंढ़ो वह घर जहां मैं जाता हूं.’’

80 साल के शर्मा अंकल रोने लगे थे.

‘‘वहम की बीमारी है इसे. किसी से भी बात करूं मैं तो मेरा नाम उसी के साथ जोड़ देती है. हर रिश्ता ताक पर रख छोड़ा है इस ने.’’

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‘‘आप ने आंटी का इलाज नहीं कराया?’’

‘‘अरे, हजार बार कराया. डाक्टर को ही पागल बता कर भेज दिया इस ने. मेरी जान भी इतनी सख्त है कि निकलती ही नहीं. एक्सीडैंट में मेरे स्कूटर के परखच्चे उड़ गए और मुझे देखो, मैं बच गया…मैं मरता भी तो नहीं. हर सुबह उठ कर मौत की दुआएं मांगता हूं…कब वह दिन आएगा जब मैं मरूंगा.’’

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Serial Story: यह कैसी विडंबना (भाग-3)

सरला और मैं चुपचाप उन्हें रोते देखती रहीं. सच क्या होगा या क्या हो सकता है हम कैसे अंदाजा लगातीं. जीवन का कटु सत्य हमारे सामने था. अगर शर्माजी जवानी में चरित्रहीन थे तो उस का प्रतिकार क्या इस तरह नहीं होना चाहिए? और सब से बड़ी बात हम भी कौन हैं निर्णय लेने वाले. हजार कमी हैं हमारे अंदर. हम तो केवल मानव बन कर ही किसी दूसरे मानव की पीड़ा सुन सकती थीं. अपनी लगाई आग में सिर्फ खुदी को जलना पड़ता है, यही एक शाश्वत सचाई है.

रोधो कर चले गए अंकल. यह सच है, दुखी इनसान सदा दुख ही फैलाता है. शर्माजी की तकलीफ हमारी तकलीफ नहीं थी फिर भी हम तकलीफ में आ गई थीं. मूड खराब हो गया था सरला का.

‘‘इसीलिए मैं चाहती हूं इन दोनों से दूर रहूं,’’ सरला बोली, ‘‘अपनी मनहूसियत ये आसपास हर जगह फैलाते हैं. बच्चे हैं क्या ये दोनों? इन के बच्चे भी इसीलिए दूर रहते हैं. पिछले साल अंकल अमेरिका गए थे तो आंटी कहती थीं कि 205 नंबर वाली भी साथ चली गई है. ये खुद जैसे दूध की धुली हैं न. इन की तकलीफ भी यही है अब.

‘‘खो गई जवानी और फीकी पड़ गई खूबसूरती का दर्द इन से अब सहा नहीं जा रहा, जवानी की खूबसूरती ही इन्हें जीने नहीं देती. वह नशा आज भी आंटी को तड़पाता रहता है. बूढ़ी हो गई हैं पर अभी भी ये दिनरात अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना चाहती हैं. अंकल वह सब नहीं करते इसलिए नाराज हो उन की बदनामी करती हैं.

‘‘यह भी तो एक बीमारी है न कि कोई औरत दिनरात अपने ही गुणों का बखान सुनना चाहे और गुण भी वह जिस में अपना कोई भी योगदान न हो. रूप क्या खुद पैदा किया जा सकता है…जिस गुण को घटानेबढ़ाने में अपनी कोई जोर- जबरदस्ती ही न चलती हो उस पर कैसा अभिमान और कैसी अकड़…’’

बड़बड़ाती रही सरला देर तक. 2 दिन ही बीते होंगे कि सुबहसुबह आंटी चली आईं. शिष्टाचार कैसे भूल जाती मैं. सम्मान सहित बैठाया. पति आफिस जा चुके थे. उस दिन मजदूर भी छुट्टी पर थे.

‘‘कहो, कैसी हो. घर का कितना काम शेष रह गया है?’’

‘‘आंटी, बस थोड़ा ही बचा है.’’

‘‘आज भी कोई पार्टी दे रहे हो क्या? दीवाली की रात तो तुम्हारे घर पूरी रात ताशबाजी चलती रही थी. अच्छी मौजमस्ती कर लेते हो तुम लोग भी. मैं ने पूछा तो तुम ने कह दिया था, तुम्हें तो ताश ही खेलना नहीं आता जबकि पूरी रात गाडि़यां खड़ी रही थीं. सुनो, कल तुम्हारे घर 2 आदमी कौन आए थे?’’

‘‘कल, कल तो पूरा दिन मैं नए घर में व्यस्त थी.’’

‘‘नहींनहीं, मैं ने खुद तुम्हें उन से बातें करते देखा था.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हैं आप, मिसेज शर्मा?…और दीवाली पर भी हम यहां नहीं थे.’’

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‘‘तुम्हारे घर में रोशनी तो थी.’’

‘‘हम घर में जीरो वाट का बल्ब जला कर गए थे कि त्योहार पर घर में अंधेरा न हो और ऐसा भी लगे कि घर पर कोई है.’’

‘‘नहीं, झूठ क्यों बोल रही हो?’’

‘‘मैं झूठ बोल रही हूं. क्यों बोल रही हूं मैं झूठ? मुझे क्या जरूरत है जो मैं झूठ बोल रही हूं,’’ स्तब्ध रह गई मैं.

‘‘तुम्हारे घर के मजे हैं. एक गेट मेरे घर के सामने दूसरा पिछवाड़े. इधर ताला लगा कर सब से कहो कि हम घर पर नहीं थे. उधर पिछले गेट से चाहे जिसे अंदर बुला लो. क्या पता चलता है किसी को.’’

हैरान रह गई मैं. सच में आंटी पागल हैं क्या? समझ में आ गया मुझे और पागल से मैं क्या सर फोड़ती. शर्माजी कुछ नहीं कर पाए तो मैं क्या कर लेती, सच कहा था सरला ने, कहानियां बना लेती हैं आंटी और कहानियां भी वे जिन में उन की अपनी नीयत झलकती है, अपना सारा शक झलकता है. अपना ही अवचेतन मन और अपने ही चरित्र की छाया उन्हें सभी में नजर आती है, शायद वे स्वयं ही चरित्रहीन होंगी जिस की झलक अपने पति में भी देखती होंगी. कौन जाने सच क्या है.

उसी पल निर्णय ले लिया मैं ने कि अब इन से कोई शिष्टाचार नहीं निभाऊंगी. अत: बोली, ‘‘मिसेज शर्मा, आज मुझे घर के लिए कुछ सामान लेने बाजार जाना है. किसी और दिन साथसाथ बैठेंगे हम?’’

मेरा टालना शायद वे समझ गईं इसलिए हंसने लगीं, ‘‘आजकल शर्माजी से दोस्ती कर ली है न तुम ने और सरला ने. बता रहे थे मुझे…कह रहे थे, तुम दोनों भी मुझे ही पागल कहती हो. बुलाऊं उन्हें अंदर ही बैठे हैं. आमनासामना करा दूं.’’

कहीं यह पागल औरत अब हम दोनों का नाम ही अंकल के साथ न जोड़ दे. यह सोच कर चुप रही मैं और फिर हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. अच्छा नहीं लगा था मुझे अपना यह व्यवहार पर मैं क्या करती. मुझे भी तो सांस लेनी थी. एक पागल का मान मैं कब तक करती.

वह दिन और आज का दिन, जब तक हम उस घर में रहे और उस के बाद जब अपने घर में चले आए, हम ने उस परिवार से नाता ही तोड़ दिया. अकसर आंटी गेट खटखटाती रही थीं जब तक हम उन के पड़ोस में रहे.

आज पता चला कि अंकल चल बसे. पता नहीं क्यों बड़ी खुशी हुई मुझे. गलत कौन था कौन सही उस का मैं क्या कहूं. एक वयोवृद्ध दंपती अपनी जवानी में क्याक्या गुल खिलाता रहा उस की चिंता भी मैं क्यों करूं. बस, शर्मा अंकल इस कष्ट भरे जीवन से छुटकारा पा गए यही आज का सब से बड़ा सच है. आंखें भर आई हैं मेरी. मौत जीवन की सब से बड़ी और कड़वी सचाई है. समझ नहीं पा रही हूं कि शर्मा अंकल की मौत पर अफसोस मनाऊं या चैन की सांस लूं.

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Serial Story: यह कैसी विडंबना (भाग-1)

आज सुबहसुबह पता चला कि पड़ोस के शर्माजी चल बसे. रात अच्छेभले सोए थे, सुबह उठे ही नहीं. सुन कर अफसोस हुआ मुझे. अच्छे इनसान थे शर्माजी. उन की जीवन यात्रा समाप्त हो गई उस पर सहज उदासी सी लगी मुझे क्योंकि मौत का सुन कर अकसर खुशी नहीं होती. यह अलग बात है कि मौत मरने वाले के लिए वास्तव में मौत ही थी या वरदान. कोई मरमर कर भी जीता है और निरंतर मौत का इंतजार करता है. भला उस इनसान के लिए कैसा महसूस किया जाना चाहिए जिस के लिए जीना ही सब से बड़ी सजा हो.

6 महीने पहले ही तबादला हो कर हम यहां दिल्ली आए. यही महल्ला हमें पसंद आया क्योंकि 15 साल पहले भी हम इसी महल्ले में रह कर गए थे. पुरानी जानपहचान को 15 साल बाद फिर से जीवित करना ज्यादा आसान लगा हमें बजाय इस के कि हम किसी नई जगह में घर ढूंढ़ते.

इतने सालों में बहुत कुछ बदल जाता है. यहां भी बहुत कुछ बदल गया था, जानपहचान में जो बच्चे थे वे जवान हो चुके हैं और जो जवान थे अब अजीब सी थकावट ओढ़े नजर आने लगे और जो तब बूढ़े थे वे अब या तो बहुत कमजोर हो चुके हैं, लाचार हैं, बीमार हैं या हैं ही नहीं. शर्माजी भी उन्हीं बूढ़ों में थे जिन्हें मैं ने 15 साल पहले भी देखा था और अब भी देखा.

हमारे घर के ठीक सामने था तब शर्माजी का घर. तब वे बड़े सुंदर और स्मार्ट थे. शर्माजी तो जैसे भी थे सो थे पर उन की श्रीमती बेहद चुस्त थीं. दादीनानी तो वे कब की बन चुकी थीं फिर भी उन का साजशृंगार उन की तीनों बहुओं से बढ़ कर होता था. सुंदर दिखना अच्छी बात है फिर भी अकसर हम इस सत्य से आंखें चुरा लिया करते थे कि श्रीमती शर्मा ने घर और अपने को कैसे सजा रखा है, तो जाहिर है वे मेहनती ही होंगी.

मुझे याद है तब उन की छत पर मरम्मत का काम चल रहा था. ईंट, पत्थर, सीमेंट, रेत में भी उन की गुलाबी साड़ी की झलक मैं इतने साल के बाद भी नहीं भूली. बिना बांह के गुलाबी ब्लाउज में उन का सुंदर रूप मुझे सदा याद रहा. आमतौर पर हम ईंटसीमेंट के काम में अपने पुराने कपड़ों का इस्तेमाल करते हैं जिस पर मैं तब भी हैरान हुई थी और 15 साल बाद जब उन्हें देखा तब भी हैरान रह गई.

15 साल बाद भी, जब उन की उम्र 75 साल के आसपास थी, उन का बनावशृंगार वैसा ही था. फर्क इतना सा था कि चेहरे का मांस लटक चुका था. खुली बांहों की नाइटी में उन की लटकी बांहें थुलथुल करती आंखों को चुभ रही थीं, बूढ़े होंठों पर लाल लिपस्टिक भी अच्छी नहीं लगी थी और बौयकट बाल भी उम्र के साथ सज नहीं रहे थे.

‘‘शर्मा आंटी आज भी वैसी की वैसी हैं. उम्र हो गई है लेकिन बनावशृंगार आज भी वैसा ही है.’’

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संयोग से 15 साल पुरानी मेरी पड़ोसिन अब फिर से मेरी पड़ोसिन थीं. वही घर हमें फिर से मिल गया था जिस में हम पहले रहते थे.

‘‘नाजनखरे तो आज भी वही हैं मगर दोनों का झगड़ा बहुत बुरा है. दिनरात कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते हैं दोनों. आ जाएंगी आवाजें तुम्हें भी. अड़ोसपड़ोस सब परेशान हैं.’’

हैरान रह गई थी मैं सरला की बात सुन कर.

‘‘क्या बात कर रही हैं…इतनी पढ़ीलिखी जोड़ी और गालीगलौज.’’

‘‘आंटी कहती हैं अंकल का किसी औरत से चक्कर है…एक लड़की भी है उस से,’’ सरला बोलीं, ‘‘पुराना चक्कर हो तो हम भी समझ लें कि जवानी का कोई शौक होगा. अब तुम्हीं सोचो, एक 80 साल के बूढ़े का किसी जवान औरत के साथ कुछ…चलो, माना रुपएपैसे के लिए किसी औरत ने फंसा भी लिया…पर क्या बच्चा भी हो सकता है, वह भी अभीअभी पैदा हुई है लड़की. जरा सोचो, शर्मा अंकल इस उम्र में बच्चा पैदा कर सकते हैं.’’

अवाक् थी मैं. इतनी सुंदर जोड़ी का अंत ऐसा.

‘‘बहुत दुख होता है हमें कि तीनों लड़के भी बाहर हैं, कोई अमेरिका, कोई जयपुर और कोई कोलकाता. समझ में नहीं आता क्या वजह है. कभी इन के घर के अंदर जा कर देखो…ऐसा लगता है जैसे किसी पांचसितारा होटल में आ गए हों… इतनी सुंदरसुंदर चीजें हैं घर में. बेटे क्याक्या नहीं भेजते. कोई कमी नहीं. बस, एक ही कमी है इस घर में कि शांति नहीं है.’’

बहुत अचंभा हुआ था मुझे जब सरला ने बताया था. तब हमेें इस घर में आए अभी 2 ही दिन हुए थे. मैं तो बड़ी प्रभावित थी शर्मा आंटी से, उन की साफसफाई से, उन के जीने के तरीके से.

‘‘कोई भी बाई इन के घर में काम नहीं करती. आंटी उसी पर शक करने लगती हैं. कुछ तो हद होनी चाहिए. शर्मा अंकल बेचारे भरी दोपहरी में बाहर पार्क में बैठे रहते हैं. घर में 4-4 ए.सी. लगे हैं मगर ठंडी हवा का सुख उन्हें घर के बाहर ही मिलता है. महल्ले में कोई भी इन से बात नहीं करता. क्या पता किस का नाम कब किस के साथ जोड़ दें.’’

‘‘आंटी पागल हो गई हैं क्या? हर शौक की एक उम्र होती है. इस उम्र में पति पर शक करना यह तो बहुत खराब बात है न.’’

‘‘इसीलिए तो हर सुनने वाला पहले सुनता है फिर दुखी होता है क्योंकि इतनी समृद्ध जोड़ी की जीवनयात्रा का अंतिम पड़ाव इतना दुखदाई नहीं होना चाहिए था.’’

5-6 दिन बीत गए. सामने वाले घर से कोई आवाज नहीं आई तो मुझे लगा शायद मैं ने जो सुना वह गलत होगा. बहुत नखरा होता था शर्मा आंटी का, आम इनसान से तो वे बात भी करना पसंद नहीं करती थीं. जो इनसान आम जीवन न जीता हो उसी का स्तर जब आम से नीचे उतर जाए तो सहज ही विश्वास नहीं न होता.

एक सुबह दरवाजे की घंटी बजी तो सामने शर्मा आंटी को खड़े पाया. सफेद सूट में बड़ी गरिमामयी लग रही थीं. शरीर पर ढेर सारे सफेद मोती और कानों में दमकते हीरे. उंगलियां महंगी अंगूठियों से सजी थीं.

‘‘अरे, आंटी आप, आइएआइए.’’

‘‘मुझे पता चला कि तुम वापस आ गई हो इस घर में. सोचा, मिल आऊं.’’

मेरी मां की उम्र की हैं आंटी. उन्हें आंटी न कहती तो क्या कहती.

‘‘अरे, मिसेज शर्मा कहो. आंटी क्यों कह रही हो. हमउम्र ही तो हैं हम.’’

पहला धक्का लगा था मुझे. जवाब कुछ होता तो देती न.

‘‘हां हां, क्यों नहीं…आइए, भीतर आइए.’’

‘‘नहीं ममता, मैं यह पूछने आई थी कि तुम्हारी बाई आएगी तो पूछना मेरे घर में काम करेगी?’’

‘‘अरे, आइए भी न. थोड़ी देर तो बैठिए. बहुत सुंदर लग रही हैं आप. आज भी वैसी ही हैं जैसी 15 साल पहले थीं.’’

‘‘अच्छा, क्या तुम्हें आज भी वैसी ही लग रही हूं. शर्माजी तो मुझ से बात ही नहीं करते. तुम्हें पता है इन्होंने एक लड़की रखी हुई है. अभी कुछ महीने पहले ही लड़की पैदा की है इन्होंने. कहते हैं आदमी हूं नामर्द थोड़े हूं. 4 बहनें रहती हैं पीछे कालोनी में, वहीं जाते हैं. चारों के साथ इन का चक्कर है. इस उम्र में मेरी मिट्टी खराब कर दी इस आदमी ने. महल्ले में कोई मुझ से बात नहीं करता.’’

रोने लगीं शर्मा आंटी. तब तरस आने लगा मुझे. सच क्या है या क्या हो सकता है, जरा सा कुरेदूं तो सही. हाथ पकड़ कर बिठा लिया मैं ने. पानी पिलाया, चाय के लिए पूछा तो वे आंखें पोंछने लगीं.

‘‘छोडि़ए शर्माजी की बातें. आप अपने बच्चों का बताइए. अब तो पोतेपोतियां भी जवान हो गए होंगे न. क्या करते हैं?’’

‘‘पोती की शादी मैं ने अभी 2 महीने पहले ही की है. पूरे 5 लाख का हीरे का सेट दिया है विदाई में. मुझे तो सोसाइटी मेें इज्जत रखनी है न. इन्हें तो पता नहीं क्या हो गया है. जवानी में रंगीले थे तब की बात और थी. मैं अपनी सहेलियों के साथ मसूरी निकल जाया करती थी और ये अपने दोस्तों के साथ नेपाल या श्रीनगर. वहां की लड़कियां बहुत सुंदर होती हैं. 15-20 दिन खूब मौज कर के लौटते थे. चलो, हो गया स्वाद, चस्का पूरा. तब जवानी थी, पैसा भी था और शौक भी था. मैं मना नहीं करती थी. मुझे ताश का शौक था, अच्छाखासा कमा लेती थी मैं भी. एकदूसरे का शौक कभी नहीं काटा हम ने.’’

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मैं तो आसमान से नीचे गिरने लगी आंटी की बातें सुन कर. मेरी मां की उम्र की औरत अपनी जवानी के कच्चे चिट्ठे आम बातें समझ कर मेरे सामने खोल रही थी. सरला ने भी बताया था कि शहर के अमीर लोगों के साथ ही हमेशा इन का उठनाबैठना रहा है.

‘‘पक्की जुआरिन थीं शर्मा आंटी. आज भी ताश की बाजी लगवा लो. बड़ेबड़ों के कान कतरती हैं. पैसा दांतों से पकड़ती हैं…बातें लाखों की करेंगी और काम वाली बाई और माली से पैसेपैसे का हिसाब करेंगी.’’

सरला की बातें याद आने लगीं तो आंटी की बातों से मुझे घिन आने लगी. कितनी सहजता से अपने पति की जवानी की करतूतों का बखान कर रही हैं. पति हर साल नईनई लड़कियों का स्वाद चखने चला जाता था और मैं मसूरी निकल जाती थी.

‘‘बच्चे कहां रहते थे?’’ मैं ने धीरे से पूछा था.

‘‘मेरी बड़ी बहनें मेरे तीनों लड़कों को रख लेती थीं. आज भी सब मेरी खूबसूरती के चर्चे करते हैं. मैं इतनी सुंदर थी फिर भी इस आदमी ने मेरी जरा भी कद्र नहीं की. मैं क्या से क्या हो गई हूं. देखो, मेरे हाथपैर…इस आदमी के ताने सुनसुन कर मेरा जीना हराम हो गया है.’’

‘‘आप अपनी पुरानी मित्रमंडली में अपना दिल क्यों नहीं लगातीं? आखिर आप की दोस्ती, रिश्तेदारी इसी शहर में ही तो है. कहीं न कहीं चली जाया करें. आप के भाईबहन, आप की भाभी और भतीजीभतीजे…’’

‘‘शर्म आती है मुझे उन के घर जाने पर क्योंकि इन की वजह से मैं हर जगह बदनाम होती रहती हूं.’’

मैं सोचने लगी, बदनाम तो आंटी खुद कर रही हैं अपने पति को. पहली ही मुलाकात में उन्हें नंगा करने का क्या एक भी पल हाथ से जाने दिया है इन्होंने. मुझे भला आंटी कितना जानती हैं, जो लगी हैं रोना रोने.’’

उस दिन के बाद शर्मा आंटी अकसर आने लगीं. उन की छत पर ही धूप आती थी पर उन से चढ़ा नहीं जाता था. इसलिए वे मेरे आंगन में धूप सेंकने आ जाती थीं. अपनी जवानी के हजार किस्से सुनातीं. कभी शर्मा अंकल भी आ जाते तो नमस्ते, रामराम हो जाती. एक दिन दोनों बनठन कर कहीं गए. साथसाथ थे, खुश थे. मुझे अच्छा लगा.

दूसरे दिन दोनों साथसाथ ही धूप सेंकने आ गए. मैं ने चायपानी के लिए पूछा. वृद्ध हैं दोनों. मैं जवान न सही फिर भी उन से 25-30 साल पीछे तो चल ही रही हूं. उस दिन मक्की की रोटी और सरसों का साग बनाया था. सोचा पूछ लूं.

‘‘सच्ची में, मुझे तो सदियां हो गईं खाए.’’

‘‘आप खाएंगी तो ले आऊं?’’

‘‘हां, हां,’’ खुशी से भर उठीं आंटी.

दोनों ने उस दिन मेरे साथ ही दोपहर का खाना खाया. काफी देर गपशप भी करते रहे. शाम को मेरे पति आए तो हम दोनों उन के घर उन से मिलने भी चले गए. अच्छे पड़ोसी बन गए वे हमारे.

सरला हैरान थी.

‘‘बड़ी शांति है, जब से तुम आई हो वरना अब तक दस बार तमाशा हो चुका होता.’’

‘‘मेरी तो शर्मा आंटी से अच्छी दोस्ती हो गई है. अकसर कोई तीसरा आ जाए बीच में तो लड़ाई खत्म भी हो जाती है.’’

‘‘और कई बार तीसरा बुरी तरह पिस भी जाता है. अपना ध्यान रखना. इन्होंने तो अपनी उतार ही रखी है. कहीं ऐसा न हो, तुम्हारी भी उतार कर रख दें,’’ सरला ने समझाया था मुझे, ‘‘बड़ी लेखिका बनी फिरती हो न. शर्मा आंटी जो कहानियां गढ़ लेती हैं उस से अच्छी तो तुम भी नहीं लिख सकतीं.’’

दीवाली के आसपास 3-4 दिन के लिए हम अपनी बेटी के पास जम्मू चले गए.

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