प्रमोशन: भाग 1- क्या बॉस ने सीमा का प्रमोशन किया?

सीमा ने औफिस से ही मोबाइल पर अपनी प्रमोशन की खबर अपने पति राजीव को दे दी. उस ने यह बात जब घर वालों को बताई, तो पूरे घर में खुशी और उत्साह की लहर दौड़ गई.

‘‘कितना फर्कपड़ेगा उस की पगार में?’’ राजीव के पिता रमाकांत की आंखों में लालच भरी चमक पैदा हुई.

‘‘मेरे खयाल से क्व30-40 हजार का फर्क पड़ना चाहिए. भाभी आखिर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करती है,’’ उन के सवाल का जवाब बड़े के बजाय छोटे बेटे संजीव ने उत्साहित अंदाज में दिया.

इस के बाद कुछ देर तक बैठक में खामोशी छाई रही. फिर एकएक कर सब ने अपने मन की इच्छाओं को शब्द देने शुरू किए.

‘‘अब मु?ो कोटा में एडमिशन करा देना, भैया,’’ सविता ने बड़े अपनेपन से राजीव को अपनी इच्छा बताई.

‘‘मेरी मोटरसाइकिल ‘लिस्ट’ में सब से ऊपर रहेगी,’’ संजीव का स्वर ?ागड़ालू सा हो गया, ‘‘मैट्रो में धक्के खातेखाते मैं तंग आ

गया हूं.’’

‘‘ये सब खर्चे बाद में होंगे. पहले छत पर

2 कमरों का सैट बनेगा,’’ रमाकांत की सख्त आवाज ने सविता और संजीव की आंखों में निराशा और नाराजगी के भाव पैदा कर दिए.

‘‘हमें अपनी गांठ में पैसा बचा कर भी रखना चाहिए,’’ राजीव की मां सुचित्रा ने सब को सम?ाया, ‘‘कल को सविता की शादी करनी है हमें. इस के नाम से कुछ पैसा हर महीने बैंक में जरूर जमा होगा.’’

राजीव ने अपने मन की इच्छा मुंह से नहीं निकाली. वह सरकारी स्कूल में रसायनविज्ञान पढ़ाता था कोई छोटीमोटी फैक्टरी लगाने या कोचिंग इंस्टिट्यूट खोलने की चाह मन में वर्षों से मौजूद थी. सीमा की बढ़ी पगार के बल पर अब बैंक से लोन मिल जाएगा. उस पैसे से वह छत पर 2 के बजाय 4 कमरे बनवाना चाहता था. फालतू बने कमरों में पहले कोचिंग सैंटर खोलने की इच्छा मन में पलपल अपनी जड़ें मजबूत करने लगी पर राजीव ने इस की चर्चा सब के समाने नहीं करी.

सिर्फ 4 वर्ष की उम्र वाले सीमा के बेटे रोहित को अपनी मां की बढ़ी पगार में

कोई दिलचस्पी नहीं थी और वह कार्टून चैनल देखने में मस्त रहा.

सीमा शाम को औफिस से घर पहुंची, तो उस का जोरदार स्वागत हुआ. औनलाइन चाइनीज और्डर किया गया. ड्राइंगरूम में घंटेभर तक चली पार्टी के दौरान सभी ने सीमा के सामने अपनेअपने मन की इच्छा व्यक्त कर दी.

घर के सभी सदस्य इतने ज्यादा उत्साहित और प्रसन्न थे कि किसी को भी सीमा की आंखों में तैरते तनाव और चिंता के भाव नजर नहीं आए.

सीमा ने अपने मन की परेशानी कुछ देर बाद अपने शयनकक्ष के एकांत में राजीव को बताई.

‘‘मैं ने प्रमोशन लेना अभी स्वीकार नहीं किया है. परसों सोमवार को मु?ो ‘हां’ या ‘न’ का पक्का जवाब देना है,’’ सीमा थके से अंदाज में पलंग पर बैठ गई.

‘‘आज ही ‘हां’ कहने में तुम्हें क्या परेशानी थी?’’ राजीव ने माथे में बल डाल कर पूछा.

‘‘अगर मैं ‘हां’ कहती हूं, तो मु?ो यह शहर छोड़ कर लखनऊ जाना पड़ेगा. वहां खुल रही नई ब्रांच में भेजा जा रहा है मु?ो.’’

‘‘यह तो गलत बात है,’’ राजीव फौरन गुस्सा हो उठा, ‘‘तुम शादीशुदा और 4 साल के बच्चे की मां हो या इन दोनों तथ्यों की जानकारी नहीं है तुम्हारे आला अफसरों को?’’

‘‘है, पर आजकल ऐसी बातों को महत्त्व नहीं दिया जाता है, राजीव. अगर मु?ो प्रमोशन चाहिए तो लखनऊ जाना पड़ेगा.’’

‘‘अगर तुम अभी प्रमोशन लेने से इनकार कर दो तो क्या कुछ समय बाद तुम्हें यहीं प्रमोशन मिल जाएगी?’’

‘‘मेरे इनकार करने पर प्रमोशन 2 साल को टल जाएगी. उस के बाद भी यही प्रमोशन होगी, इस की कोई गारंटी नहीं है.’’

‘‘यह प्रमोशन तुम्हारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है न?’’ कुछ पलों की खामोशी के बाद राजीव ने उस के चेहरे को ध्यान से देखते हुए पूछा.

‘‘यह भी कोई पूछने की बात है,’’ सीमा उत्तेजना का शिकार हो गई, ‘‘पूरी लगन और मेहनत से काम करने का इनाम है मेरे लिए यह प्रमोशन. सोमवार को ‘न’ कहते हुए मु?ा लगता है कि मैं रो ही पड़ूंगी.’’

‘‘और अगर ‘हां’ कहती हो तो बहुत सी परेशानियां फौरन सामने आ खड़ी होंगी,’’ राजीव गंभीर नजर आने लगा.

‘‘सब से बड़ी दिक्कत तो यह आएगी कि आप सरकारी नौकरी छोड़ नहीं सकते और सब से दूर अकेले रहना मेरे बस का बिलकुल नहीं है. नन्हे रोहित में तो मेरी जान बसती है.’’

‘‘और उस के पिता में?’’ राजीव ने शरारती अंदाज में पूछा.

‘‘तुम तो मेरी जान हो ही,’’ भावुक सीमा उठ कर राजीव के गले से आ लगी.

‘‘जो होना है हो जाएगा. तुम टैंशन मत लो,’’ राजीव ने प्यार से उस का माथा चूमा और शयनकक्ष से बाहर निकल आया.

 

स्वस्ति: स्वाति ने स्वस्ति को कौन सा पाठ पढ़ाया

‘‘स्वाति दीदी और नकुल जीजाजी आ रहे हैं. आप उन्हें जा कर ले आना. मेरे औफिस में एक प्रतिनिधि मंडल आ रहा है. मेरा जाना संभव नहीं हो सकेगा,’’ स्वस्ति अपने पति सुकेतु से बोली.

‘‘मैं नहीं जा सकूंगा. फोन कर दो. टैक्सी कर के आ जाएंगे,’’ सुकेतु ने स्वयं में डूबे हुए उत्तर दिया.

‘‘विवाह के बाद पहली बार हमारे घर आ रहे हैं, बुरा मान जाएंगे. आप की दीदी आई थीं, तो आप सप्ताह भर घर से काम करते रहे थे. अब 1 दिन भी नहीं कर सकते?’’

‘‘दीदी हमारी सुखी गृहस्थी देखने आई थीं. हम कितने सुखी दिखे कह नहीं सकता, पर यह अवश्य कह सकता हूं कि वे काफी निराश लग रही थीं. मैं ने तो तभी सोच लिया था जैसे हम अपना कार्य स्वयं करते हैं, अपना पैसा अलग रखते हैं, मित्र अलग हैं, वैसे ही संबंधी भी

अलग ही रहने चाहिए. है कि नहीं?’’ सुकेतु लापरवाही से बोला तो स्वस्ति खून का घूंट पी कर रह गई.

6 वर्षों तक प्रेम की पींगें बढ़ाने के बाद सुकेतु और स्वस्ति का विवाह हुआ था. दोनों के विवाह को 1 वर्ष भी पूरा नहीं हुआ था पर विवाहपूर्व का प्रगाढ़ प्रेम कब का काफूर हो चुका था. दोनों एकदूसरे को नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे. मधुयामिनी के समय ही दोनों में इतना झगड़ा हुआ था कि पांचसितारा होटल के प्रबंधक ने बड़ी शालीनता से दोनों को होटल छोड़ कर जाने की सलाह दे डाली थी.

‘‘हम ने पूरे सप्ताह के लिए अग्रिम किराया दे रखा है,’’ स्वस्ति क्रोधित स्वर में बोली जबकि सुकेतु चुप खड़ा देखता रहा.

‘‘आप ठीक कह रही हैं महोदया. पर हम अपने दूसरे अतिथियों को नाराज करने का खतरा नहीं उठा सकते. रही आप के अग्रिम किराए की बात, तो आप ने हमारे फर्नीचर और कपप्लेटों पर जो कृपा की है उस का हरजाना तो चुकाना ही पड़ेगा. शेष रकम हम लौटा देंगे,’’ उत्तर मिला.

दोनों चुपचाप अपने कक्ष में चले गए थे और अपने आगे के कार्यक्रम पर विचार करना चाहते थे. पर विचार करते तो कैसे, दोनों के बीच अबोला जो पसर गया था.

सुकेतु सोफे पर ही पसर गया था. पर आंखों से नींद कोसों दूर थी. स्वस्ति नर्मगुदगुदे बिस्तर पर भी करवटें बदलती रही थी. दोनों के बीच एक शब्द का भी आदानप्रदान नहीं हुआ था.

अगले दिन हालचाल जानने के लिए दोनों के मातापिता के फोन आए तो दोनों में स्वत: ही बोलचाल हो गई थी. किसी तरह दोनों ने वह समय गुजारा था, क्योंकि वापसी के टिकट पहले से ही बुक थे. अत: पहले जाना संभव नहीं था.

कुछ औपचारिकताओं के लिए उन्हें सुकेतु के मातापिता के यहां रुकना पड़ा था. दोनों के उतरे चेहरे देख कर सुकेतु की मां का माथा ठनका था.

‘‘क्या हुआ? कोई समस्या है क्या? तुम दोनों ही बड़े तनाव में लग रहे हो?’’ थोड़ा सा एकांत मिलते ही उन्होंने पूछ लिया था.

‘‘मां समझ में नहीं आता, क्या कहूं, क्या नहीं? लगता है मैं अपने जीवन की सब से बड़ी भूल कर बैठा हूं. हम दोनों का साथ रहना संभव नहीं लगता.’’

‘‘क्या कह रहे हो? पिछले 6 वर्षों से तो तुम उस के दीवाने बने घूम रहे थे. याद है मैं ने कितना समझाया था कि पहले अपनी छोटी बहन का विवाह हो जाने दो, फिर तुम्हारा विवाह करेंगे पर तब तुम ने एक नहीं सुनी थी.’’

‘‘ठीक कह रही हो मां. सच पूछो तो स्वस्ति की कलई तो अब खुली है. लगता ही नहीं है कि कभी हम दोनों एकदूसरे के प्यार में पागल थे,’’ सुकेतु बुझे स्वर में बोला था.

‘‘क्या सोचा था क्या हो गया. सोचा था तुम दोनों खुश रहोगे तो हम भी आनंदित रहेंगे पर यहां तो सब कुछ उलटपुलट होता दिख रहा है. किसी ने ठीक ही कहा है, सोना जानिए कसे-मनुष्य जानिए बसे. दुख तो इस बात का है कि तुम

6 वर्षों में भी स्वस्ति को नहीं समझ पाए.’’

‘‘इन छोटी बातों को दिल से नहीं लगाया करते, मां. थोड़े दिन और देखते हैं. ऐसा ही रहा तो अलग हो जाएंगे.’’

‘‘खबरदार, जो कभी फिर ऐसी बात मुंह से निकाली. हमारे खानदान में आज तक किसी ने तलाक की बात जबान से नहीं निकाली. इधर तुम्हारी शादी को 4 दिन हुए हैं और तुम लगे अलग होने की बातें करने,’’ मां बिगड़ गई थीं.

‘‘मैं भी तुरंत अलग नहीं होने जा रहा हूं. हमारा प्रेम 6 वर्ष पुराना है. विवाह कम से कम 6 माह तो चलना ही चाहिए. हर परिवार में कोई न कोई कार्य पहली बार अवश्य होता है. यों भी विवाह का अर्थ आजीवन कारावास तो है नहीं कि हर हाल में साथ निभाना ही पड़ेगा,’’ सुकेतु अनमने स्वर में बोल कर चुप हो गया था पर मां के चेहरे की उदासी उसे देर तक झकझोरती रही थी.

आज स्वस्ति से बहस होने के बाद मां से बात करने की तीव्र इच्छा हुई तो उस ने फोन मिला ही लिया.

‘‘क्या बात है सुकेतु, आज मां की याद कैसे आ गई?’’ मां उस का स्वर सुनते ही पहचान गई थीं.

‘‘क्या कह रही हैं मां. याद तो उस की आती है, जिसे भुला दिया गया हो. आप तो हर समय साए की तरह मेरे साथ रहती हैं.’’

‘‘अच्छा लगा सुन कर और सुनाओ क्या चल रहा है?’’

‘‘कल स्वस्ति की दीदी और जीजाजी पधार रहे हैं. काफी खुश लग रही है. मुझ से कहने लगी कि मैं उन्हें जा कर ले आऊं. उसे औफिस में काम है. मैं ने तो साफ कह दिया तुम्हारी दीदी है तुम जानो. मैं भी बहुत व्यस्त हूं,’’ और सुकेतु हंस दिया.

‘‘क्या हो गया है तुम्हें, सुकेतु? तुम तो पड़ोसियों तक की मदद करने को भी तैयार रहते थे… अतिथि हमारेतुम्हारे नहीं होते. वे तो सब के साझे होते हैं,’’ मां ने समझाना चाहा.

‘‘दीदी भी आई थीं न मां? तब स्वस्ति ने ऐसा व्यवहार किया था जैसे वे कोई अजनबी हों. मैं उस बात को चाह कर भी नहीं भुला पाया.’’

‘‘घरगृहस्थी में ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देते बेटे. तुम दोनों को जीवन साथ बिताना है. थोड़ी समझदारी दिखाओगे तो राह आसान हो जाएगी.’’

‘‘मां, आप को मेरी ही गलती नजर आ रही है. सही जवाब नहीं देने का अर्थ होगा हार स्वीकार कर लेना. आप तो जानती ही हैं कि हार स्वीकार करना मेरे स्वभाव में है ही नहीं.’’

‘‘मैं ने हारजीत की तरह कभी सोचा ही नहीं. जीवन कोई युद्ध तो है नहीं. फिर भी मैं यह तुम्हारे विवेक पर छोड़ती हूं. और सुनाओ कैसा चल रहा है?’’

‘‘सब ठीकठाक है. आप और पापा कुछ दिनों के लिए यहां आ जाओ न. अच्छा लगेगा.’’

‘‘सोचेंगे, तुम्हारी छोटी बहन नंदिनी का विवाह तय हो गया तो शायद तुम लोगों को ही आना पड़े.’’

स्वस्ति समानांतर फोन पर दोनों का वार्त्तालाप सुन रही थी. उस की आंखों में अपनी मौम की छवि तैर गई, जिन्होंने उस के मनमस्तिष्क में यह कूटकूट कर बैठा दिया था कि अपने हितों की रक्षा के लिए उसे शुरू से ही सजग रहना होगा ताकि वर पक्ष सदा डरासहमा सा रहे. अधिक चूंचपड़ करें तो पुलिस की धमकी देने से भी पीछे मत रहना. दुनिया देखी है मैं ने. तुम दोनों को मैं ने कैसी मुसीबतों में पाला है, यह मैं ही जानती हूं. तुम्हारे पापा और उन के परिवार ने तो मेरा जीवन नर्क बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पर बाद में वे भी समझ गए थे कि मैं दूसरी ही मिट्टी की बनी हूं. उन्होंने उसे समझाया था.

स्वस्ति के लिए मां की हर बात अटल सत्य होती थी. सुकेतु से उस का प्रेमप्रसंग भी तभी आगे बढ़ा था जब मौम ने स्वीकृति दी थी.

सुकेतु और उस की मां की बातें सुन कर स्वस्ति कुछ सोचने को विवश अवश्य हुई थी,

पर वह अपनी भूल स्वीकारने को तैयार नहीं थी. अहं जो आड़े आ रहा था. वह केवल मन ही मन सोचती रही कि शायद सुकेतु का हृदय परिवर्तन हो जाए और वह अपनी मां की बात मान ले. पर सुकेतु ने ऐसा कोई मंतव्य प्रकट नहीं किया. हार कर उसे स्वाति को फोन करना ही पड़ा कि दोनों की अतिव्यस्तता के कारण वे उन्हें लेने नहीं आ सकेंगे. अत: वे टैक्सी कर के आ जाएं. उस ने अपनी आया को भी भलीभांति समझा दिया कि मेहमानों का किस प्रकार विशेष ध्यान रखना है. फिर भी दिन भर स्वस्ति चिंता में डूबतीउतराती रही.

पता नहीं स्वाति क्या सोच रही होगी. विवाह के बाद पहली बार आ रही है वह भी नकुल जीजाजी के साथ. वह जब मुंबई में पढ़ रही थी तो हर सप्ताह बड़े अधिकार से स्वाति के यहां पहुंच जाती थी. स्वाति ने भी उस के स्वागतसत्कार में कभी कोई कमी नहीं की. स्वाति को न केवल खाना खिलाने का शौक था, पाक कला में भी उसे दक्षता प्राप्त थी. नित नए पकवान बनाना उसे खूब भाता था. स्वस्ति की विचारधारा अविरल बहती जा रही थी.

उधर स्वस्ति को रसोईघर में घुसने के नाम से ही डर लगता था. फिर भी उस ने फ्रिज को फलों और सब्जियों से भर दिया था. उसे पता था नकुल को बाहर खाने का शौक नहीं है. इसीलिए वह लगभग हर तरह की सामग्री खरीद लाई थी. घर पहुंचते ही समवेत स्वर में खिलखिलाहट के स्वर सुन कर उस के होंठों पर भी मुसकान तैर गई. स्वाति जहां हो वहां मस्ती का साम्राज्य होना स्वाभाविक है.

‘‘क्या बात है? तुम सब इतना खिलखिला कर क्यों हंस रहे हो? मुझे भी तो बताओ. माफ कर दो, दीदीजीजाजी, मैं चाह कर भी छुट्टी नहीं ले सकी. पूरे दिन मन इतना तड़पता रहा कि पूछो मत. मुझे अपने बौस पर बहुत गुस्सा आ रहा था. तुम्हीं बताओ दीदी हम नौकरी क्यों करते हैं? अपना और अपनों का खयाल रखने के लिए ही न?’’

‘‘स्वस्ति इतना दुखी होने की आवश्यकता नहीं है. हम क्या पराए हैं कि तुम्हें क्षमा मांगनी पड़े? वैसे भी सुकेतु ने हमारा इतना स्वागतसत्कार किया कि तुम्हारी याद तक नहीं आई,’’ नकुल ने हंसते हुए कहा.

‘‘रहने दो न. क्यों चिढ़ाते हो बेचारी को. दिन भर खट कर घर लौटी है,’’ स्वाति ने टोका.

‘‘लो भला, मैं क्यों चिढ़ाने लगा तुम्हारी प्यारी बहन को? मैं तो केवल यह कहने का प्रयत्न कर रहा हूं कि हमारे कारण स्वस्ति को किसी अपराधबोध से पीडि़त होने की आवश्यकता नहीं है. हम तो बड़े मजे में हैं.’’

‘‘जानती हूं, मेरी गैरमौजूदगी में सब प्रसन्न ही रहते हैं. शायद मेरा चेहरा ही ऐसा है, जिसे देखते ही सब दुखी हो जाते हैं,’’ स्वस्ति रोंआसे स्वर में बोली.

‘‘इस का उत्तर तो सुकेतु ही दे सकते हैं, क्योंकि हम तो आज ही आए हैं. अत: तुम्हें देखते ही दुखी होने का प्रश्न ही नहीं उठता. वैसे भी हम तुम्हारी गैरमौजूदगी में प्रसन्न क्यों होने लगे भला?’’ नकुल ने ठहाका लगाया.

‘‘मैं ने तो ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने कब से बंद कर दिए हैं. ऐसी बातों को तो मैं एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देता हूं,’’ सुकेतु शांत स्वर में बोला.

‘‘वाह, तुम तो यह कला बड़ी जल्दी सीख गए. हम तो अब तक नहीं सीख पाए,’’ नकुल फिर हंस दिया.

‘‘देख लिया न दीदी. जो मेरी बातों को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देता है उस से कैसा संवाद कायम हो सकता है,’’ स्वस्ति तीखे स्वर में बोली.

‘‘स्वस्ति तुम तो गंभीर हो गईं. ऐसी बातों को सहजता से लेना सीखो. सुकेतु का वह अर्थ नहीं है जो तुम लगा रही हो. वह तो केवल मजाक कर रहा है,’’ स्वाति ने समझाना चाहा.

‘‘मैं ने तो कब का कहनासुनना छोड़ दिया है दीदी. मौम ने मुझे पहले ही सावधान किया था कि हमारे और सुकेतु के परिवारों की संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है पर मैं ने ही ध्यान नहीं दिया था.’’

‘‘समझी, तो आजकल मौम की सलाह पर अमल किया जा रहा है,’’ स्वाति हंसी.

‘‘इस में आश्चर्य की क्या बात है. मां से अधिक मेरा भलाबुरा और कौन सोचेगा? सच पूछो तो वे मेरी मां होने के साथसाथ मेरी मित्र तथा मार्गदर्शक भी हैं.’’

‘‘जान कर प्रसन्नता हुई. हमारा कोई भाई नहीं है न. इसीलिए शायद तुम श्रवण कुमार बनने का प्रयत्न कर रही हो.’’

‘‘मौम के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है, आवश्यकता पड़ने पर मैं उन के लिए कुछ भी कर सकती हूं. पर अभी प्रश्न वह नहीं है. अभी वे मेरी शादी को बचाने में लगी हैं. आप विश्वास नहीं करोगी कि शादी के बाद सुकेतु कितना बदल गया है. हर बात में अपनी ही चलाता है. मैं तो जैसे कुछ हूं ही नहीं. मौम ने समझाया अभी से नकेल कस कर नहीं रखी तो जीवन भर पैर की जूती बना कर रखेगा. अत: अभी से सावधान हो जाओ. सावधानी हटी दुर्घटना घटी.’’

‘‘क्या कह रही है? यह सब तुझ से मौम ने कहा? मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा. पर तुझे मौम से सुकेतु की शिकायत करने की क्या आवश्यकता थी?’’

‘‘मैं ने शिकायत नहीं की थी. मौम ने ही खोदखोद कर पूछा था… एक मां अपनी बेटी की चिंता नहीं करेगी तो कौन करेगा?’’

‘‘मैं मौम की आलोचना नहीं कर रही. उन की हम दोनों के लिए चिंता स्वाभाविक है, पर पतिपत्नी का संबंध बहुत नाजुक होता है. इस में किसी तीसरे का हस्तक्षेप घातक हो सकता है.

तुम अब छोटी बच्ची नहीं हो. अपने निर्णय स्वयं लेने सीखो.’’

‘‘छोड़ो ये सब दीदी. तुम बताओ घर कैसे पहुंची? घर पहुंच कर कोई परेशानी तो नहीं हुई?’’

‘‘लो भला परेशानी क्यों होने लगी? सुकेतु हमें एअरपोर्ट से घर ले आया. हमारी खूब खातिरदारी की. हमारा दिन तो खूब अच्छा गुजरा. तुम्हारी कमी अवश्य खली. तुम भी आ जातीं, तो चार चांद लग जाते.’’

‘‘1 दिन और दीदी उस के बाद तो पूरे 4 दिन की छुट्टी ली है मैं ने. खूब घूमेंगेफिरेंगे. मैं ने कई अच्छे रेस्तरां ढूंढ़ रखे हैं. कल के बाद घर में खाना बंद. ऐसेऐसे व्यंजन खिलाऊंगी तुम्हें कि मन प्रसन्न हो जाएगा.’’

‘‘क्या कह रही है स्वस्ति. नकुल को तो बाहर का खाना पसंद ही नहीं है. मुझे भी नए पकवान बनाने का बड़ा शौक है. इस संबंध में हम दोनों की खूब पटरी बैठती है.’’

‘‘यही तो समस्या है. अधिकतर पुरुष यही चाहते हैं कि पत्नी दिन भर रसोई में घुसी रहे. मुझे तो मौम ने पहले ही सावधान कर दिया था. वे नहीं चाहतीं कि मैं भी तुम्हारी तरह दिन भर खाना पकाती रहूं. हम दोनों तो अपना नाश्ताखाना सब स्वयं बना लेते हैं.’’

‘‘सुकेतु को भी खाना पकाने का शौक है क्या?’’

‘‘बहुत शौक है दीदी. मैं ही प्रोत्साहित नहीं करती. इस के कई नुकसान हैं. एक तो रोज कुछ न कुछ खरीदना पड़ता है. फिर रसोई गंदी हो जाती है. करते रहो सफाई. इसीलिए तो मौम कहती हैं कि पति की आदत खराब मत करो वरना जीवन भर पछताना पड़ेगा. दीदी एक राज की बात बताऊं?

‘‘बताओ, रोका किस ने है?’’

‘‘पिछले 1 वर्ष से हमारी गैस खत्म नहीं हुई है. गैस एजेंसी वालों ने सोचा कि हम यहां रहते ही नहीं हैं. अत: हमारा कनैक्शन ही हटा दिया था,’’ और फिर दोनों बहनें खिलखिला कर हंस दीं.

‘‘मौम ने यह भी सिखाया है क्या?’’

‘‘यही समझ लो. शादी के बाद जीवन कैसे बिताना है, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था. सब कुछ मौम ने ही सिखाया. वे तो यह भी कहती हैं कि पति को चुस्तदुरुस्त रखना है तो किचन से दूर रहना सीखो वरना खूब खाखा कर फूल जाएंगे.’’

‘‘इसीलिए मौम ने पापा को घर और जीवन दोनों से ही निकाल फेंका,’’ स्वाति के स्वर की कड़वाहट से स्वस्ति चौंक गई.

‘‘क्या कह रही हो दीदी? मुझे तो अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा?’’

‘‘नहीं कुछ नहीं, यों ही मेरे मुंह से निकल गया था.’’

‘‘कुछ तो है जिसे तुम मुझ से छिपा रही हो… तुम्हें बताना ही पड़ेगा.’’

‘‘इस में छिपाने जैसा कुछ नहीं है. मौम ने वही किया जो करने की सीख वे तुम्हें दे रही हैं. तुम बहुत छोटी थीं तब. पर मुझे सब अच्छी तरह याद है. पापा अच्छा कमाते थे. कुछ दिनों तक घर में कुक भी था पर मौम न स्वयं कुछ पकाती थीं न उसे पकाने देती थीं. हार कर उसे हटा दिया था पापा ने. मेरा बचपन तो केक, डबलरोटी, पिज्जा तथा बाहर से लाए अन्य खाद्यानों को खाते ही बीता. कभीकभी पापा पकाया करते थे तो मैं भी उन के साथ हो लेती. शायद तभी से मुझे खाना पकाने का शौक लगा.’’

‘‘मुझे तो पापा का चेहरा भी ठीक से याद नहीं है,’’ स्वस्ति सोच में डूब गई.

‘‘तुम्हें कैसे याद होगा, नन्ही बच्ची थीं तुम. मैं भी 10 वर्ष की थी जब मांपापा अलग हो गए थे. मैं कई दिनों तक रोती रही थी. पर किसी को मुझ पर दया नहीं आई थी. मैं तो पापा के साथ रहना चाहती थी पर मां ने अनुमति नहीं दी. कुछ दिनों तक पापा स्कूल में मिलने आते थे, मुझे कुछ पैसे और खिलौने भी दे जाते थे. मां को पता लगा तो स्कूल जा कर उन के मुझे से मिलने पर रोक लगवा दी. उन्हें लगता था कि पापा मुझे उठा कर ले जाएंगे. तब से मन में मां के प्रति ऐसी उदासीनता घर कर गई है कि चाह कर भी मैं उन्हें कभी प्यार नहीं कर सकी. मां भी समझ गई थीं. इसीलिए मुझे होस्टल में डाल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी.’’

‘‘खूब याद है. तुम केवल छुट्टियों में घर आती थीं. तब हम दोनों कितनी मस्ती किया करते थे.’’

‘‘तेरे लिए ही तो आया करती थी मैं. मां के पास तो हमारे लिए समय ही कहां था.’’

‘‘शायद इसीलिए मां ने मुझे भी होस्टल में डाल दिया था. तुम्हारे कालेज जाने से पहले हम दोनों साथ में कितनी मस्ती किया करते थे. पर तुम्हारे जाने के बाद तो न स्कूल में मन लगता था न घर में.’’

‘‘पता है, हम दोनों का बचपन घोर एकाकीपन में बीता. मां को भी क्या मिला. उन के तथाकथित मित्र 1-1 कर के दूर चले गए. अब तो रतन अंकल को छोड़ कर शायद ही कोई उन की खोज खबर लेता हो,’’ स्वाति का स्वर बेहद उदास था.

‘‘नाम मत लो रतन अंकल का. हमारे परिवार की बरबादी में उन का बड़ा हाथ है,’’ स्वस्ति एकाएक क्रोधित हो उठी.

‘‘अपनी समस्याओं के लिए दूसरों को दोषी ठहराना छोड़ दो मेरी प्यारी बहना. अभी तो अपना घर संभालो. तुम्हारा घर टूटा तो मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘तुम्हें क्या लगता है सारा दोष मेरा ही है?’’

‘‘बहन हूं तुम्हारी, झूठ नहीं बोलूंगी. दोष किस का है यह नहीं कहूंगी, पर अपनी गृहस्थी को केवल तुम ही बचा सकती हो. यह मैं अवश्य कहूंगी.’’

‘‘माना दोनों बहनें बहुत दिन बाद मिली हैं, पर क्या आज रतजगा है?’’ तभी हंसते हुए नकुल ने प्रवेश किया.

‘‘मुझे लगा आप दोनों फिल्म देख रहे हैं. हमारी सुध ही कहां थी आप को,’’ स्वाति हंसी.

‘‘फिल्म तो कब की समाप्त हो गई है. अब तो सोने जा रहे हैं हम.’’

‘‘चलो, हम भी सोते हैं स्वस्ति भी थकी हुई है,’’ कह स्वाति उठ खड़ी हुई.

पर स्वस्ति की आंखों से नींद कोसों दूर थी.

स्वाति और नकुल ठंडी हवा के झोंके की तरह आए थे. 1 सप्ताह घूमफिर कर चले गए. उन के जाते ही घर में पुन: सन्नाटा पसर गया.

एक दिन सुकेतु हमेशा की तरह अपने लैपटौप में डूबा था कि तभी स्वस्ति आ

कर उस के गले में बांहें डाल कर झूल गई. सुकेतु हैरान था. ऐसे प्रेमपूर्ण स्पर्श को तो वह लगभग भूल ही चुका था.

‘‘चलो खाना खा लें. ठंडा हो रहा है.’’

सुकेतु मेज पर रखी सामग्री को देख कर हैरान रह गया. फिर पूछा, ‘‘कहां से मंगाया है ये सब?’’

‘‘मंगाया नहीं है मैं ने खुद बनाया है. ऐसा खाना बाजार में कहां मिलता है?’’ कह स्वस्ति मुसकराई, उस ने लाइट बंद कर के सुगंधित मोमबत्ती जला दी थी, जिस की सुगंध पूरे कक्ष में फैल गई थी.

‘‘काश, स्वाति दीदी और पहले आ जातीं,’’ सुकेतु बोला. स्वस्ति बोली कुछ नहीं थी पर चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह भी मन ही मन स्वाति को धन्यवाद दे रही थी.

गुड़िया: सुंबुल ने कौन सा राज छुपा रखा था?

‘‘सरबिरयानी तो बहुत जबरदस्त है. भाभीजी के हाथों में तो जादू है. इतनी लजीज बिरयानी मैं ने आज तक नहीं खाई,’’ बिलाल ने बिरयानी खाते हुए फरहान से कहा.

‘‘यह तो सच है तुम्हारी भाभी के हाथों में जादू है, लेकिन आज यह जादू भाभी का नहीं तुम्हारे भाई के हाथों का है,’’ फरहान ने हंसते हुए कहा.

‘‘मैं कुछ सम?ा नहीं? क्या यह बिरयानी भाभीजी ने नहीं बनाई?’’ बिलाल ने हैरत से पूछा.

‘‘नहीं मैं ने बनाई है. क्या है कि कल तुम्हारी भाभी के औफिस में एक जरूरी मीटिंग थी और वे आतेआते लेट हो गई थीं तो मैं ने सोचा चलो आज मैं भी अपना जादू दिखाऊं,’’ फरहान ने खाना खत्म करते हुए कहा.

‘‘अरे वाह सर आप भी इतना अच्छा खाना बनाते हैं. वैसे भाभी जौब करती हैं तो घर के काम कौन करता है? आप लोगों को तो बड़ी दिक्कत होती होगी? यहां दुबई में कोई मेड मिलना भी तो आसान नहीं है,’’ बिलाल ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘हां मेड मिलना तो बहुत मुश्किल है, लेकिन हम दोनों मिल कर मैनेज कर ही लेते हैं. थोड़ेबहुत काम मैं भी कर लेता हूं,’’ फरहान ने मुसकराते हुए कहा.

‘इतने बड़े मैनेजर हो कर घर के काम खुद करते हैं और बीवी औफिस जाती है,’ बिलाल मन ही मन हंसा, पर कुछ कह नहीं पाया, आखिर फरहान उस का सीनियर जो था.

8 महीने पहले ही बिलाल लखनऊ से दुबई आया था. एक बड़े बैंक में उसे अच्छी जौब मिल गई थी. उस का सीनियर फरहान दिल्ली से था और बहुत ही हंसमुख व मिलनसार. दोनों में खासी दोस्ती हो गई थी. अकसर लंच दोनों साथ करते थे. फरहान के लंच में हमेशा ही लजीज खाने होते थे तो बिलाल ने सोचा शायद उस की बीवी घर पर ही रहती होगी. उसे यह जान कर बड़ी हैरानी हुई कि वे भी कहीं जौब करती हैं. वैसे बिलाल की खुद की बीवी उज्मा भी खाना अच्छा ही बना लेती थी, लेकिन इतना अच्छा नहीं जितना फरहान के घर से आता था.

 

कुछ दिनों बाद बातों ही बातों में फरहान ने बताया कि उस की बीवी सुंबुल कुछ

दिनों के लिए भारत गई हुई हैं. ऐसे में बिलाल ने एक दिन फरहान को अपने घर खाने की दावत दे डाली.  फरहान ने उज्मा के बनाए खाने की बहुत तारीफ की और सुंबुल के वापस आने पर दोनों को अपने घर बुलाने की दावत भी दे डाली.

कुछ दिनों बाद सुंबुल भारत से वापस आ गई तो एक दिन फरहान ने बिलाल को घर पर दावत दे दी. छुट्टी के दिन बिलाल और उज्मा फरहान के घर पहुंच गए.

‘‘आइएआइए भाभीजी,’’ फरहान ने दोनों का स्वागत करते हुए कहा.

‘‘सुनिए मेहमान लोग आ गए हैं,’’ फरहान ने दोनों को ड्राइंगरूम में बैठाया और किचन में काम कर रही अपनी बीवी को आवाज दी.

ड्राइंगरूम काफी करीने से सजा था.  बिलाल और उज्मा दोनों ही प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

जैसे ही सुंबुल किचन से बाहर आई, बिलाल को एक जोर का ?ाटका लगा. उसे यकीन ही नहीं हुआ कि उस के सामने सुंबुल खड़ी है, उस की पुरानी मंगेतर. बिलाल को देख कर सुंबुल भी एक पल के लिए ठिठक गई, लेकिन फिर जल्दी ही सामान्य हो गई.

सुंबुल और उज्मा जल्द ही घुलमिल गईं और उज्मा भी सुंबुल की मदद करने के लिए किचन में चली गई. टीवी पर आईपीएल का मैच चल रहा था और फरहान विराट कोहली की बैटिंग की तारीफ कर रहा था, लेकिन बिलाल का दिमाग तो जैसे एकदम ही शून्य हो गया था. उसे उम्मीद नहीं थी कि एक दिन सुंबुल इस तरह उस के सामने आ जाएगी.

खाने की टेबल पर उज्मा सुंबुल के बनाये खाने की खूब तारीफें कर रही थी.

‘‘अरे बिलाल तुम्हें पता है हमारी ससुराल भी तुम्हारे पड़ोस में ही है. तुम लखनऊ से हो और सुंबुल कानपुर से,’’ बातों ही बातों में लखनऊ का जिक्र आया तो फरहान ने बिलाल से कहा.

‘‘अच्छा. अगली बार कानपुर आएंगे तो लखनऊ भी तशरीफ लाइएगा,’’ बिलाल बस इतना ही कह पाया. सुंबुल के सामने ज्यादा बोलने में वह बहुत ?ि?ाक रहा था.

घर वापस पहुंच कर उज्मा तो जल्दी सो गई, लेकिन बिलाल की आंखों से नींद कोसों दूर थी. गुजरा हुआ कल एक फिल्म की तरह उस के जेहन में चलने लगा…

बिलाल के पिताजी और सुंबुल के पिताजी की आपस में जानपहचान थी. 1-2 बार बिलाल के पिताजी जब कानपुर गए तो उन्होंने वहां सुंबुल को देखा और उस को बिलाल के लिए पसंद कर लिया. लड़का पढ़ालिखा और अच्छा था और फिर घरबार भी देखाभाला हुआ तो सुंबुल के पिताजी को भी इस रिश्ते में कोई हरज नहीं दिखाई दिया. फिर कुछ दिनों बाद दोनों की मंगनी हो गई और शादी लगभग 1 साल बाद होनी तय की गई. फिर अकसर दोनों एकदूसरे से बातें करने लगे.

मगर शादी से कुछ ही दिन पहले एक दिन अचानक बिलाल के पिताजी ने सुंबुल के पिताजी को फोन कर के शादी के लिए मना कर दिया.  वजह पूछने पर उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि उन्हें लगता है कि सुंबुल उन के घर में एडजस्ट नहीं हो पाएगी.

थोड़ी देर बाद ही सुंबुल ने बिलाल से मैसेज कर के इस फैसले की वजह जाननी चाही.

‘‘आई एम सौरी सुंबुल, लेकिन मु?ो और घर वालों को लगता है कि तुम हमारे घर के माहौल में एडजस्ट नहीं हो पाओगी. बाद में मुश्किलें हों इस से अच्छा है कि हम अभी अपने रास्ते अलग कर लें,’’ बिलाल ने जवाब दिया. वैसे दिल ही दिल में उसे भी अच्छा नहीं लग रहा था.  इतने दिनों तक मंगनी होने और सुंबुल से बातें करने के बाद वह भी मन ही मन उसे चाहने लगा था.

‘‘मगर अचानक ऐसा क्या हो गया जिस से आप को लगा मैं वहां एडजस्ट नहीं हो पाऊंगी?’’ सुंबुल ने फिर सवाल किया. उस की सम?ा नहीं आ रहा था कि आखिर उस ने ऐसा क्या कर दिया जिस से बिलाल और उस के घर वाले उस से रिश्ता खत्म करने पर आमादा हो गए. अभी 2 दिन पहले ही तो बिलाल के पिताजी किसी काम से कानपुर आए थे और उन के घर भी आए. उसे याद नहीं आ रहा था कि उस ने ऐसा क्या किया जिस से बात यहां तक पहुंची.

‘‘अभी 2 दिन पहले अब्बू आप के घर गए थे. उन्होंने आ कर बताया कि जब तक वे आप के घर में रहे आप ने किसी काम को हाथ नहीं लगाया. खाना बनाना या घर के बाकी काम सिर्फ आप की अम्मी ही करती रहीं और आप बस अपने लैपटौप पर बैठी रहीं या नेलपौलिश लगाती रहीं. अब्बू का मानना है कि हमें अपने घर के लिए एक सजावटी गुडि़या नहीं चाहिए बल्कि ऐसी लड़की चाहिए जो घर संभाल सके और जो तेरी अम्मी को आराम दे सके,’’ बिलाल ने एक लंबाचौड़ा मैसेज भेजा.

‘‘आप को एक बार मु?ा से बात तो कर लेनी चाहिए थी.  बिना पूरी बात जाने आप लोग इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकते हैं?’’ काफी देर बाद सुंबुल ने जवाब दिया.

‘‘बात करने लायक कुछ है ही नहीं.  वैसे भी अब हमें एहसास हो गया है कि जौब करने वाली लड़की घर नहीं चला सकती. अगर आप नौकरी छोड़ कर घर की सारी जिम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार हैं तो मैं अब्बू से एक बार बात कर सकता हूं.  वैसे जहां तक मु?ो लगता है आप अपनी जौब छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं होंगी, इसलिए बेहतर यही रहेगा कि हम अपनी राहें अलग कर लें,’’ बिलाल ने बात खत्म करने की नीयत से लिखा.

और फिर सुंबुल का कोई जवाब नहीं आया. जल्द ही उस की शादी उज्मा से हो गई.  कुछ दिनों बाद ही उज्मा पर घर की सारी

जिम्मेदारियां आ गईं. शुरूशुरू में तो सब ठीक रहा, लेकिन कुछ दिनों बाद ही घर में कलह होने लगी. बिलाल के 3 और छोटे भाईबहन थे और सब के लिए खाना बनाना और दूसरे काम करना उज्मा को पसंद नहीं था. बिलाल की अम्मी भी बहू के आने के बाद घर के कामों से बिलकुल बेफिक्र हो गई थीं और घर के सारे काम उज्मा को अकेले ही करने पड़ते थे.

फिर तो रोजरोज घर में कलह होने लगी.  बिलाल औफिस से आता तो अम्मी उस के सामने उज्मा की शिकायतें ले कर बैठ जातीं. उज्मा के पास जाता तो वह सब की शिकायतें ले कर बैठ जाती.  तंग आ कर बिलाल ने दुबई के एक बैंक में नौकरी के लिए अर्जी दे दी और दुबई आ गया.  रोजरोज की चिकचिक से तो उस को आजादी मिल गई लेकिन दुबई आ कर भी उज्मा खुश नहीं थी. उसे लगता था कि बिलाल घर के कामों में उस की जरा भी मदद नहीं करता. वहीं बिलाल घर के काम करने को अपनी शान के खिलाफ सम?ाता था. बचपन से ले कर आज तक उस ने घर के किसी काम को हाथ तक नहीं लगाया था. उस का मानना था कि घर के काम सिर्फ औरतों को ही करने चाहिए और मर्दों को सिर्फ कमाने के लिए काम करना चाहिए.

सुंबुल और उज्मा अकसर मिलने लगीं.  दोनों परिवार छुट्टी के दिन एकदूसरे के घर चले जाते या दुबई के खूबसूरत समुद्र तट पर साथसाथ घूमते. हालांकि बिलाल हमेशा सुंबुल के सामने असहज सा रहता था.

उस दिन उज्मा कुछ उदास सी थी तो सुंबुल ने उस से उस की उदासी की वजह पूछी.

‘‘मेरी बहन की मंगनी टूट गई. लड़का किसी और से शादी करना चाहता है, जबकि घर वाले जबरदस्ती उस की शादी मेरी बहन से कर रहे थे.  कल उन दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली,’’ उज्मा ने बड़ी उदासी के साथ कहा.

फरहान और सुंबुल को सुन कर बड़ा दुख हुआ.

‘‘जल्द ही शादी होने वाली थी. अब कितनी दिक्कत आएगी मेरी बहन की शादी में, कितनी बदनामी होगी उस की,’’ उज्मा ने ठंडी सांस लेते हुए कहा.

‘‘इस में उस का क्या कुसूर है, रिश्ता तो लड़के ने खत्म किया है, तो बदनामी आप की बहन की क्यों होगी?’’ फरहान ने उज्मा को दिलासा देते हुए कहा.

‘‘भाई साहब, लड़के का कुसूर कौन मानता है. सभी लड़की पर ही उंगली उठाते हैं,’’ उज्मा की आंखें नम हो उठी थीं.

‘‘जमाना बदल गया है. आप की बहन की कोई गलती नहीं है इसलिए आप फिक्र मत कीजिए. हो सकता है उस के लिए इस से कुछ अच्छा ही लिखा हो,’’ फरहान ने कहा.

‘‘वैसे आप को पता है, सुंबुल की भी मंगनी एक बार टूट चुकी थी. फिर देखिए न कितनी अच्छी लड़की मु?ो मिल गई,’’ कह कुछ देर की खामोशी के बाद फरहान ने प्यार भरी नजरों से सुंबुल को देखा.

‘‘भला इस जैसी इतनी प्यारी लड़की से कौन शादी नहीं करना चाहेगा,’’ उज्मा ने सुंबुल की तरफ देख कर कहा.

सुंबुल थोड़ी असहज हो गई थी खासतौर पर जब तब बिलाल भी वहां मौजूद था. उधर बिलाल भी एकदम चुप बैठा था.

‘‘क्या वह लड़का भी किसी और को चाहता था?’’ उज्मा सुंबुल की कहानी जानने के लिए उतावली हो उठी.

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं थी. असल में उन के घर वालों को लगा कि मैं जौब करती हूं तो घर के काम नहीं करूंगी. उन को अपने घर के लिए कोई सजावटी गुडि़या नहीं चाहिए थी,’’ थोड़ी देर चुप रहने के बाद सुंबुल ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘अरे आप तो जौब के साथसाथ अपने घर का भी कितना खयाल रखती हैं. इतना अच्छा खाना भी बनाती हैं, घर भी इतना अच्छा रखती हैं, क्या उन लोगों ने कभी आप का घर नहीं देखा था?’’ उज्मा को यकीन नहीं हो रहा था कि सुंबुल जैसी खूबसूरत और इतने सलीके वाली लड़की को कोई कैसे छोड़ सकता है.

‘‘असल में एक बार उन के अब्बू हमारे घर आए थे. उस दिन संडे था. आमतौर पर अपने घर पर सारा काम मैं और अम्मी मिल कर ही करते थे. शादी में कुछ ही दिन रह गए थे तो अम्मी ने मु?ो जबरदस्ती घर के काम करने से मना कर रखा था. फिर मैं भी जौब छोड़ने वाली थी तो अपना काम हैंडओवर कर रही थी और इसलिए लैपटौप पर काम कर रही थी. लेकिन उन के अब्बू को लगा कि शायद मैं कभी घर के काम नहीं करती और इसलिए उन लोगों ने यह रिश्ता तोड़ दिया,’’ सुंबुल ने पूरी बात बताई.

‘‘और उस लड़के ने भी कुछ नहीं कहा?’’ उज्मा ने हैरत से पूछा.

‘‘नहीं, उस ने भी बिना मेरी बात सुने अपने घर वालों की बात मान ली. मु?ो अपनी सफाई देने का मौका ही नहीं मिल,’’ सुंबुल ने एक उदास मुसकान के साथ कहा और फिर उस ने एक उचटती हुई नजर बिलाल पर डाली तो वह शर्म से पानीपानी हो गया.

‘‘वैसे देखा जाए तो अच्छा ही हुआ. ये सब नहीं होता तो मु?ो इतने अच्छे पति कहां मिलते,’’ सुंबुल ने मुहब्बत भरी नजरों से फरहान की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘यह तो कुदरत का कमाल है,’’ फरहान ने अदब से सिर ?ाकाते हुए कहा तो सुंबुल और उज्मा दोनों ही हंस पड़ीं.

‘‘वैसे भी अब जमाना बदल गया है. आज लड़कियां जौब के साथसाथ घर भी अच्छी तरह संभाल रही हैं और अगर ऐसे में हम हस्बैंड लोग घर के कामों में थोड़ी मदद कर दें तो इस में बुराई ही क्या है? आखिर घर भी तो दोनों का ही होता है,’’ फरहान ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा.

‘‘भाभी आप बेफिक्र रहें. आप की बहन के लिए अच्छा लड़का हम भी ढूंढे़ंगे,’’ फरहान ने उज्मा को दिलासा दिया.

थोड़ी देर बाद फरहान सब के लिए आइसक्रीम लेने चला गया और उज्मा वाशरूम चली गई.

‘‘आई एम सौरी सुंबुलजी… आज मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं. मैं ने बिना सच जाने आप को इतनी तकलीफ पहुंचाई. मु?ो माफ कर दीजिएगा,’’ सुंबुल को अकेला देख कर बिलाल उस के पास आया सिर ?ाका सुंबुल से माफी मांगने लगा.

‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है. मु?ो आप से कोई शिकायत नहीं है. शायद हमारे हिस्से में यही लिखा था,’’ सुंबुल को उस के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव साफ नजर आ रहे थे. उस के दिल में बिलाल के लिए कोई मलाल नहीं था.

‘‘आप का बहुत बहुत शुक्रिया,’’ बिलाल के मन से बड़ा बो?ा उतर गया था.

शाम को बिलाल और उज्मा जब घर लौटे तो उज्मा के सिर में दर्द हो रहा था. वह आंखें बंद कर थोड़ी देर के लिए लेट गई.

‘‘तुम बहुत थक गई होंगी. तुम आराम करो आज कौफी मैं बनाता हूं,’’ घर पहुंच कर बिलाल ने उज्मा से कहा तो उज्मा की हैरत की इंतहा न रही, ‘‘अरे आज आप को यह क्या हो गया. आप तो घर के काम करने को बिलकुल अच्छा नहीं मानते,’’ उज्मा को बिलाल का यह रूप देख कर हैरानी भी हो रही थी और खुशी भी.

‘‘फरहान भाई सही कहते हैं.  घर तो शौहर और बीवी दोनों का ही होता है तो क्यों न घर के काम भी दोनों मिलजुल कर करें?’’ बिलाल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अरे यह कैसी कौफी बनी है,’’ बिलाल ने कौफी का पहला घूंट लेते ही बुरा सा मुंह बनाया.

‘‘हां चीनी थोड़ी ज्यादा है, दूध थोड़ा कम है और कौफी भी थोड़ी ज्यादा है, लेकिन यह दुनिया की सब से अच्छी कौफी है,’’ उज्मा ने बिलाल की तरफ प्यारभरी नजरों से देखते हुए कहा तो बिलाल को भी चारों तरफ रंगबिरंगे फूल दिखाई देने लगे. दोनों के रिश्ते का एक नया अध्याय शुरू हो चुका था.

सिरफिरी: क्या निहारिका अपने शादीशुदा जीवन को तबाह होने से बचा पाई

निहारिका मानसिक द्वंद्व से जू?ाती हुई अपने कमरे में निश्चेत सी पड़ी थी. अपना मोबाइल भी औफ कर रखा था. वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में डाक्टर विवेक का सामना नहीं करना चाहती थी. हालांकि वह यह भी बहुत अच्छी तरह जानती थी कि एक ही यूनिट में रहते हुए यह मुमकिन नहीं है, मगर वह ऐसी किसी भी स्थिति से बचना चाह रही थी, जिस में डाक्टर विवेक से उस का एकांत में सामना हो, क्योेंकि उस के किसी भी सवाल का जवाब उस के पास नहीं था.

तभी होस्टल के चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया, ‘‘मैडम, डाक्टर विवेक विजिटर रूम में आप का वेट कर रहे हैं.’’

‘‘उन से कहिए कि मैं रूम में नहीं हूं,’’ निहारिका ने आमनासामना होने की सिचुएशन को टालने की कोशिश की.

‘‘जी, मैडम,’’ कह कर चौकीदार चला गया.

निहारिका का मन कर रहा था कि वह जोरजोर से रोए, चीखेचिल्लाए, सब कुछ तोड़ दे… किस चक्रव्यूह में फंस गई वह जिस से निकलते ही नहीं बन रहा. एक वह अभिमन्यु था जो अपनों से घिरा था… वह भी तो घिरी है अपनेआप से… शायद उस की नियति भी अभिमन्यु जैसी ही होने वाली है… निहारिका कटे वृक्ष सी बिस्तर पर गिर गई.

2 साल पहले कितनी सुखी जिंदगी थी उस की. प्यार करने वाला पति देव, लाड़ करने वाली सासूमां और अपनी भोली मुसकान से दिन भर की थकान उतार देने वाली 4 साल की बिटिया पलक…

देव जोधपुर के आईआईटी इंस्टिट्यूट में प्रोफैसर था और वह खुद भी वहीं एक हौस्पिटल में डाक्टर थी. निहारिका अपने पेशे में और अधिक महारथ हासिल करने के लिए ऐनेस्थीसिया में पीजी करना चाहती थी. 2 साल के अथक प्रयासों के बाद आखिर उस का पोस्ट ग्रैजुएशन करने के लिए सलैक्शन हो ही गया. उसे बीकानेर के सरदार पटेल मैडिकल कालेज में सीट आवंटित हुई.

परिवार खासतौर पर पलक से दूर होने की कल्पना रहरह कर निहारिका की पलकों के कोर नम कर रही थी. मगर सासूमां पर उसे पूरा भरोसा था कि वे पलक की देखभाल उस से भी बेहतर करेंगी. फिर देव ने भी उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए उसे आश्वस्त किया था. मगर वही उन के भरोसे पर खरी नहीं उतर पाई… वही न जाने किस फिसलन भरी ढलान पर उतर गई थी. एक बार फिसली तो फिर फिसलती चली गई.

हालांकि मैडिकल की पढ़ाई के दौरान भी वह होस्टल में ही रही थी और उस पीरियड को खूब ऐंजौय भी किया था उस ने, मगर इस बार बात कुछ और थी. अकसर शाम को पलक और देव को याद कर के उदास हो जाती थी.

उसे मैडिकल कालेज से संबद्ध पीबीएम हौस्पिटल में रैजिडैंट डाक्टर की हैसियत से अपनी सेवाएं देनी पड़ती थीं. जब उस की ड्यूटी दिन या फिर शाम की होती थी तब तो इतने मरीज आते कि उसे सिर उठाने की भी फुरसत नहीं मिलती थी. मगर रात की ड्यूटी में जब सारे मरीज और उन के रिश्तेदार गहरी नींद में होते तब उस की आंखों से नींद कोसों दूर होती. वह देर तक देव से बात करती, मगर फिर भी उस का अकेलापन दूर नहीं होता था. उसे यों रात भर जागते देख साथी डाक्टर उसे उल्लू कह कर चिढ़ाया करते थे. वे उसे वार्ड की जिम्मेदारी सौंप रैस्ट भी कर लिया करते थे.

बीचबीच में निहारिका जोधपुर का चक्कर भी लगा लेती थी. 1-2 बार देव भी आया था पलक को ले कर बीकानेर. मगर दूरियां तो आखिर दूरियां ही होती हैं… इन्हें मोबाइल और चैटिंग से नहीं पाटा जा सकता.

इसी तरह देखते ही देखते 1 साल गुजर गया. हौस्पिटल में नए पीजी डाक्टर्स आ गए. उन्हीं में से एक था विवेक, जो उसी की फैकल्टी में पीजी करने एक छोटे कसबे से आया था. दिखने में बहुत ही सीधेसादे और मितभाषी विवेक का व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षक था. चूंकि निहारिका उस की सीनियर थी, इस नाते वह उस की बहुत इज्जत करता था. उस की मासूमियत निहारिका के दिल में उतरने लगी. शुरुआती दिनों में विवेक बहुत शरमीला था. मगर धीरेधीरे निहारिका से खुलने लगा. घरपरिवार और कालेज के पुराने किस्से सुना कर उसे खूब हंसाता, उस का मन बहलाने की कोशिश करता. जब भी दोनों नाइट ड्यूटी में साथ होते, वह उस के लिए कौफी बना कर लाता. विवेक निहारिका से उम्र में छोटा था, मगर उस के साथ होते ही निहारिका खुद एक नटखट बच्ची बन जाती थी.

विवेक की आंखें उस के व्यक्तित्व का सबसे प्रभावशाली हिस्सा थीं. न जाने क्या था उन गहराइयों में कि निहारिका उन में डूबती चली गई. एक चुंबक था जैसे उन के भीतर… निहारिका जितना अवौइड करने की कोशिश करती उतनी ही खिंचती चली जाती उस की तरफ… जैसे धरती चाहे या न चाहे उसे सूर्य की परिक्रमा करनी पड़ती है. कुछ ऐसे ही गुरुत्त्वाकर्षण से बंधती जा रही थी निहारिका भी. विवेक उस के भीतर पसरे खालीपन को भरने लगा था. जब वह उस के साथ होती तो देव को फोन करना भी भूल जाती थी.

एक दिन नाइट ड्यूटी के बाद जब निहारिका होस्टल लौट रही थी, तो विवेक पीछे से अपनी बाइक ले कर आया. निहारिका को लिफ्ट देने की पेशकश की तो वह सम्मोहित सी पीछे बैठ गई. विवेक उसे चाय पिलाने अपने कमरे पर ले गया.

वह रसोई में जाने लगा तो निहारिका ने कहा, ‘‘तुम बैठो, मैं चाय बनाती हूं.’’

विवेक भी उस की मदद करने के लिए पीछेपीछे आ गया. छोटी सी किचन में विवेक का इतना पास होना निहारिका के शरीर में कंपन पैदा कर रहा था.

हौस्पिटल में तो कितने ही ऐसे मौके आते हैं जब हम बहुत पास होते हैं. यहां तक कि एकदूसरे को छू भी जाते हैं, मगर तब ऐसी फीलिंग क्यों नहीं आती, निहारिका सोच रही थी.

चाय के लिए कप लेने को मुड़ी निहारिका विवेक से टकरा गई. विवेक ने बांहों में थाम लिया तो निहारिका से कुछ भी कहते नहीं बना. बस सौरी कह कर रह गई.

अब अकसर ही जब दोनों नाइट ड्यूटी कर के जाते तो विवेक उसे कमरे पर ले जाता. दुनियाजहान से बेखबर दोनों देर तक साथ रहते, खूब मस्ती करते. निहारिका उस की बचकानी हरकतों पर पेट पकड़पकड़ कर हंसती. उस की मासूम अदाओं पर रीझ कर निहारिका ने उसे नाम दिया सिरफिरा. अब वह उसे इसी नाम से बुलाती थी. उस का दिल कहता था जैसे उसे बरसों से ऐसे ही साथी की तलाश थी. हालांकि देव भी उसे कम प्यार नहीं करता था. मगर न जाने क्यों विवेक को जी भर कर

प्यार करने की ललक उस के भीतर सिर उठाने लगी थी.

2 दिन बाद विवेक का जन्मदिन आने वाला था. निहारिका ने मन ही मन प्लान तैयार कर लिया. संयोग से विवेक के जन्मदिन वाले दिन दोनों ड्यूटी के बाद विवेक के कमरे पर चले गए. निहारिका ने अपना स्टेथ टेबल पर रखा और ऐप्रन कुरसी के पीछे टांग कर आराम से बैठ गई. विवेक किचन में चाय बनाने चला गया.

विवेक ने चाय के कप टेबल पर रख दिए.

निहारिका बोली, ‘‘आज तुम्हारा जन्मदिन है न?’’

‘‘हां. तो?’’

‘‘तो क्या गिफ्ट नहीं मांगोगे?’’

‘‘जब बिना मांगे ही इतना कुछ मिल गया है, तो और क्या मांगूं?’’

‘‘मगर हम तो फिर भी देंगे,’’ निहारिका ने इतराते हुए कहा.

‘‘तो लाइए.’’

‘‘ऐसे नहीं… आंखें बंद करो.’’

विवेक ने अपनी आंखें बंद कर लीं. निहारिका धीरे से उस के पास आई और उस के होंठों पर अपने होंठ रख कर एक गहरा चुंबन जड़ दिया.

विवेक ने तो इस सरप्राइज की कल्पना भी नहीं की थी. यंत्रचालित सी उस की बांहों ने निहारिका को घेर लिया. वह भी सब कुछ भूल कर उस में खोती चली गई. जब होश आया तो चाय ठंडी हो चुकी थी.

निहारिका ने अपने कपड़े ठीक करते हुए कहा, ‘‘तुम बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

मगर विवेक नहीं माना और किचन में चला गया.

निहारिका ने मजाक में कहा, ‘‘तुम चाय बहुत अच्छी बनाते हो… एक काम करो डाक्टरी छोड़ कर चाय की दुकान खोल लो. मैं तो तुम्हारी परमानैंट ग्राहक बन जाऊंगी.’’

‘‘मंजूर है, मगर वादा करो कि तुम रोज चाय पीने आओगी.’’

‘‘वादा,’’ निहारिका ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘जोधपुर तो नहीं चली जाओगी?’’ विवेक ने उस की आंखों में ?ांकते हुए पूछा.

निहारिका सकपका गई. कुछ जवाब देते नहीं बना तो चुपचाप चाय का कप ले कर कुरसी पर बैठ गई.

निहारिका तो शादीशुदा थी. उस के लिए अंतरंग संबंध नई बात नहीं थी. मगर अविवाहित विवेक ने जब से यह वर्जित फल चखा था, उस की हालत दीवानों सी हो गई. वह हर वक्त निहारिका के आगेपीछे घूमने लगा. क्लास हो, वार्ड हो या फिर औपरेशन थिएटर, हर जगह वह उसे छूने के अवसर तलाशता रहता. कभी ऐनेस्थीसिया देते वक्त हाथ पकड़ लेता तो कभी मरीज देखते समय टेबल के नीचे पांव पर पांव रख कर सहलाने लगता. रोज अकेले में मिलने की जिद करता. उस का दीवानापन निहारिका के लिए परेशानी का कारण बनने लगा.

कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते… होस्टल, मैडिकल कालेज,

हौस्पिटल हर जगह दोनों के अफेयर की चर्चा होने लगी. लोग दबी जबान निहारिका को ही दोषी ठहराते. पिछली बार जब देव आया था तो विवेक को उस का आना फूटी आंख नहीं सुहाया था. उस के जाने के बाद भी निहारिका से 2 दिन रूठारूठा रहा था.

‘‘देव मेरी सचाई है विवेक इस बात को तुम जितनी जल्दी सम?ा लो उतना ही हम दोनों के लिए बेहतर है,’’ निहारिका ने उसे सम?ाते हुए कहा.

‘‘मैं तुम्हारे साथ किसी और की कल्पना भी नहीं कर सकता अब… वे 2 रातें जो तुम ने उस के साथ बिताई हैं, मु?ा पर कैसी गुजरी हैं तुम क्या जानो,’’ विवेक ने जैसे न सम?ाने का प्रण कर रखा था.

‘‘तुम देव से तलाक ले लो,’’ विवेक ने निहारिका को कस कर बांहों में जकड़ते हुए कहा.

‘‘यह संभव नहीं है.’’

‘‘मेरे साथ इस रास्ते पर चलने से पहले क्यों नहीं सोचा कि इस की मंजिल क्या होगी?’’ विवेक आज आर या पार की बहस के मूड में था.

‘‘मु?ा से गलती हो गई. शायद देव से दूरियों ने मेरे मन को डिगा दिया… मु?ो माफ कर दो… मैं तुम्हारी गुनहगार हूं, तुम जो चाहे सजा दो. अब इस नाजायज रिश्ते की आंच मेरे घर को जलाने लगी है… मैं इस रास्ते पर आगे नहीं जा सकती,’’ कह निहारिका ने अपनी बात खत्म कर दी. मगर वह जानती थी कि दिलों के संबंध इतनी आसानी से नहीं टूटते.

निहारिका ने अपने एचओडी से रिक्वैस्ट कर के अपनी यूनिट चेंज करवा ली. अब उस की ड्यूटी विवेक के साथ नहीं लगेगी. विवेक ने शायद वह ड्यूटी चार्ट देख लिया है. इसीलिए वह उस से मिलने की जिद कर रहा है.

ड्यूटी पर तो जाना ही पड़ेगा, सोचते हुए निहारिका ने उठ कर मुंह धोया. अपनेआप को संयत करते हुए होस्टल से बाहर निकली. सामने पेड़ के नीचे खड़ा विवेक उसी की राह देख रहा था. निहारिका को उस पर दया उमड़ आई. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों उस ने

विवेक की शांत जिंदगी में प्यार फेंक कर हलचल मचा दी. वह अनजान बनने का नाटक करती हुई आगे बढ़ी तो विवेक ने सामने आ कर रास्ता रोक लिया.

‘‘?ाठ क्यों कहा कि तुम रूम में नहीं हो?’’ विवेक ने पूछा.

‘‘मैं ने किस से कहा?’’ निहारिका ने भी प्रतिप्रश्न किया.

‘‘वाचमैन ने तो कुछ देर पहले यही कहा था.’’

‘‘शायद मैं उस वक्त बाथरूम में थी,’’ निहारिका ने टालने की गरज से कहा.

‘‘क्या मु?ा से इतनी नफरत हो गई कि मेरे साथ ड्यूटी भी नहीं कर सकतीं?’’ विवेक ने शिकायत की.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. यह तो मैनेजमैंट का डिसीजन है.’’

‘‘मैं इतना नादान भी नहीं हूं, सब सम?ाता हूं.’’

‘‘तुम सम?ा ही तो नहीं रहे हो विवेक… यह हम दोनों के लिए बहुत जरूरी है. हमें इस मोड़ से लौटना ही होगा.’’

‘‘तुम बेशक लौट जाओ, मगर मैं यहीं इसी मोड़ पर खड़ा तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ विवेक ने आंखें नम करते हुए कहा.

विवेक के लिए तो वह पहला प्यार ही थी और पहले प्यार को खोना सब कुछ लुट जाने जैसा ही होता है.

मगर निहारिका ने अपने मन को कड़ा किया और विवेक से दूरियां बना लीं. वह उन सभी हालात से बचने की कोशिश करती जहां विवेक से सामना होने का अंदेशा होता.

निहारिका के कोर्स का अंतिम वर्ष था. वह सब कुछ भूल कर अपनी परीक्षा की तैयारी में जुट गई. उस ने अपनी स्टडी टेबल पर अपनी फैमिली की तसवीर रख ली ताकि अगर उस का मन बगावत पर उतर आए तो वह कंट्रोल कर सके. रोज रात को पलक के सोने से पहले उस से 10-15 मिनट बात जरूर करती और अपने परिवार के लगाव को भीतर तक महसूस करती. देव से भी पहले की तरह ही नियमित बात करती. कुछ दिन तो उसे ये सब करना अपनेआप को छलने जैसा ही लगा, मगर धीरेधीरे लगने लगा कि स्नेह की जो डोर कमजोर पड़ रही थी वह फिर से मजबूत हो रही है. उसे अब पहले की तरह ही घर की याद सताने लगी थी.

आज आखिरी परीक्षा थी. उसे रात की ट्रेन से जोधपुर जाना था. उस ने अपना जरूरी सामान पैक किया और विवेक के कमरे की तरफ चल दी.

निहारिका को यों अचानक आया देख विवेक आश्चर्य से भर गया.

निहारिका ने कहा, ‘‘मैं वापस जा रही हूं… मैं ने जो कुछ भी किया वह माफी के लायक तो नहीं है, मगर फिर भी मेरे लिए अपने मन में मैल मत रखना. प्यार सच्चा या ?ाठा नहीं होता, वह बस प्यार होता है. तुम्हारा प्यार भी मेरे दिल के एक कोने में सदा सुरक्षित रहेगा.’’

‘‘तुम ने मु?ो प्यार के एहसास से परिचित करवाया, उस के लिए शुक्रिया. अच्छे दोस्तों की तरह संपर्क बनाए रखना,’’ विवेक अब तक काफी सामान्य हो चुका था.

निहारिका ने जाने से पहले विवेक को प्यार से गले लगाया और फिर उस रास्ते की तरफ बढ़ गई जहां उस का परिवार उस के इंतजार में आंखें बिछाए खड़ा था.

सोलमेट: भाग 2- शादी के बाद निकिता का प्रेमी ने उसके साथ क्या किया?

मेरी सोचनेसम झने की शक्ति खत्म हो चुकी थी. बस एक डर लगा हुआ था कि कहीं प्रणय को मेरे अतीत के बारे में सब पता न चल जाए. ‘‘क्या हुआ, तुम ठीक तो हो?’’ मु झे सुस्त देख बाथरूम से निकलते हुए प्रणय ने पूछा, ‘‘देख रहा हूं कुछ सुस्त नजर आ रही हो. खाना भी ठीक से नहीं खाया तुम ने,’’ प्रणय को लगा कि घूमने जाने की बात को ले कर शायद मैं नाराज हो गई. ‘‘अरे, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. वह मेरे पीरियड की डेट नजदीक आ रही है न तो मूड स्विंग हो रहा है. पेट व कमर में दर्द हो रहा है तो लेट गई जरा,’’ मैं ने प्रणय की शंका निवारण हेतु कहा लेकिन बात तो कुछ और ही थी. जब से ऋतिक ने फोन कर मु झे धमकाया था कि अगर मैं ने उस की बात नहीं मानी तो वह प्रणय को हमारे बारे में सबकुछ बता देगा, तब से मेरे दिल में धुकधुकी लगी थी. ‘‘अच्छा, ठीक है आराम करो तुम,’’ बोल कर प्रणय मोबाइल देखने लगे और मैं ऊपर छत निहारने लगी. मोबाइल देखतेदेखते प्रणय तो सो गए लेकिन मेरी आंखों में नींद की जगह डर समाया हुआ था. बारबार वही बातें मेरे दिल को दहला रही थीं कि अगर प्रणय को मेरे अतीत के बारे में सब पता चल गया तो क्या होगा.

आज मन खींच कर मु झे 4 साल पीछे ले गया. उन दिनों की 1-1 बात चलचित्र की तरह मेरी आंखों के आगे तैरने लगी… मैं लखनऊ में अपने मांपापा और छोटी बहन नव्या के साथ रह रही थी. मेरे पापा कालेज में प्रोफैसर हैं और मां स्कूल टीचर हैं. घर में ज्यादातर पढ़ने का ही माहौल होता था. 12वीं कक्षा से ही मेरा सपना डिफैंस में जाने का था मगर मेरे मांपापा चाहते थे कि मैं बैंक सैक्टर में जाऊं. उन का सोचना था कि बैंक सैक्टर लड़कियों के लिए सेफ है और सब से बड़ी बात कि वहां मेल और फीमेल वर्कर में भेदभाव नहीं होता. एक अच्छी बेटी की तरह मैं ने भी अपने मांपापा का कहना माना और ग्रैजुएशन करने के बाद पहली बार में ही बैंक पीओ ऐग्जाम क्रैक कर लिया. हैदराबाद में 15 दिनों की ट्रेनिंग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग गुजरात के अहमदाबाद की एक ब्रांच में मिली तो मेरे मांपापा के खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन एक फिक्र भी होने लगी कि मैं वहां इतने बड़े और अनजान शहर में अकेली कैसे रहूंगी.

मगर जौइन तो करना ही था सो मेरी मां कुछ समय यहां मेरे साथ रहीं पर उन का भी अपनी टीचिंग की जौब थी, ज्यादा छुट्टी ले कर मेरे साथ नहीं रह सकती थीं और सब से बड़ी बात कि वहां नव्या भी तो अकेली थी इसलिए वे लखनऊ लौट गईं लेकिन दिन में कई बार फोन कर मेरा हालचाल लेना नहीं भूलती थीं. पता नहीं मातापिता अपनी बेटियों को ले कर इतने फिक्रमंद क्यों रहते हैं? क्या उन्हें अपनी बेटी पर भरोसा नहीं है कि वह भी बाहर अकेले अच्छे से रह सकती है. लेकिन मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं ठीक हूं और आप लोग मेरी चिंता न करें. इस तरह बैंक में मेरा प्रोबेशन पीरियड भी खत्म हो गया और अब मैं बैंक में परमानैंट इंप्लोई हो गई थी. मांपापा ने बहुत चाहा कि मैं अपना तबादला अपने होम टाउन लखनऊ में करवा लूं ताकि वे लोग चैन की सांस ले सकें पर यह मुमकिन न था.

उन्हें हमेशा यही डर लगा रहता था कि मैं यहां ठीक तो हूं न? इसलिए फोन कर मु झे हिदायत देते रहते थे कि मैं देर रात तक घर से बाहर न रहूं. औफिस से जल्दी घर आ जाया करूं वगैरहवगैरह. लेकिन अब उन की बातों से मु झे चिढ़ होने लगी थी कि मैं कोई छोटी बच्ची थोड़े ही हूं कि जब देखो मु झे सम झाते रहते हैं कि यहां मत जाओ, वहां मत जाओ और यह यूपीबिहार नहीं हैं, गुजरात है, यहां लड़कियां सेफ हैं. मगर उन्हें कहां मेरी बात सम झ आने लगी. सो उन्होंने अब दूसरा राग अलापना शुरु कर दिया कि मैं शादी कर लूं ताकि वे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकें. मातापिता अपनी बेटियों को उड़ने के लिए पंख तो देते हैं पर उन के लिए एक दायरा भी तय कर देते हैं कि उन्हें उड़ना कहां तक है और कितनी देर. वैसे गलती उन की भी नहीं है क्योंकि सरकार बेशक मिशन शक्ति अभियान चला कर संपूर्ण महिला सुरक्षा की बात करती हो, लेकिन हकीकत तो यह है कि आज भी लड़कियों के साथ छेड़खानी और रेप जैसी वारदातें हो रही हैं. बैड कमैंट और मिस बिहेव का खतरा लड़कियों के साथसाथ उन के पेरैंट्स को भी सताता रहता है.

इसलिए वे बेटियों को खुद की नजरों से दूर नहीं भेजना चाहते हैं और मेरे मांपापा भी कुछ हद तक अपनी जगह सही थे. लेकिन इस डर से मैं शादी कर लूं, यह सही नहीं था. वैसे भी अभी 2-3 साल मैं शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती थी इसलिए मैं भी जिद पर अड़ गई कि आप लोग कुछ भी कर लो मैं अभी शादी नहीं करूंगी. लेकिन मांपापा मेरी बात सुनने को तैयार ही नहीं थे. बस शादी कर लो, शादी कर लो की रट लगाए हुए थे. ‘‘अभी तो मैं 25 की भी नहीं हुई फिर क्यों आप लोग मेरी शादी करवाने के पीछे पड़े हो?’’ मैं ने कहा. मां ने मु झे घूर कर देखा. बोली, ‘‘25 की नहीं हुई से क्या मतलब है? अरे, इस उम्र में तुम मेरी गोद में खेल रही थी और नव्या मेरे पेट में थी,’’ मां ने सफाई दी. ‘‘आप का जमाना अलग था मां. अब ऐसा नहीं है,’’ मैं ने सम झाना चाहा, ‘‘मु झे अभी और आगे जाना है इसलिए आप लोग शादी के लिए मजबूर न करें.

क्या इतनी बड़ी बो झ हो गई हूं आप लोगों पर कि जल्द से जल्द आप दोनों मु झे अपनी जिंदगी से निकाल देना चाहते हैं?’’ बोलतेबोलते मेरी आवाज भर्रा गई, तो पापा ने मु झे अपने सीने से लगा लिया और कहा कि अब वे तब ही मेरी शादी की बात करेंगे जब मैं चाहूंगी. ‘‘थैंक यू पापा. मां मैं वादा करती हूं आप से मैं कभी भी आप दोनों का सिर लोगों के सामने नीचा नहीं होने दूंगी,’’ मैं ने कहा. मां कहने लगीं, ‘‘मुझे अपनी बेटी पर खुद से भी ज्यादा भरोसा है पर दुनिया पर नहीं. न जाने कैसेकैसे लोग हैं दुनिया में. डर लगता है. ‘‘मत डरो मां,’’ मां के गले लगते हुए मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं अपना ध्यान रख सकती हूं, तो मां रो पड़ी थीं. यहां अहमदाबाद में आने के बाद मैं कुछ महीने बैंक के गैस्टहाउस में ही रही. फिर अपने लिए 2 कमरे का घर ले लिया और उसी में रहने लगी.

घर बैंक के पास ही था तो मु झे कोई तकलीफ नहीं होती थी आनेजाने में. लेकिन फिर मेरा तबादला किसी दूसरी ब्रांच में कर दिया गया जहां बैंक मेरे घर से करीब 2 घंटे की दूरी पर पड़ता था. मुझे बैंक जाने के लिए अपने घर से दोढाई घंटे पहले निकलना पड़ता है क्योंकि यहां अहमदाबाद में ट्रैफिक ज्यादा होता है और थोड़ा लेट पहुंचने पर बैंक मैनेजर गुस्सा हो जाते थे इसलिए मैं सुबह 8 बजे ही घर से निकल जाती थी बैंक जाने के लिए. घर पहुंचतेपहुंचते मु झे शाम के 7 कभीकभी तो 8 भी बज जाते थे. मैं इतनी ज्यादा थक चुकी होती थी कि उठ कर एक गिलास पानी पीने का भी मन नहीं होता था मेरा. उस समय मु झे मां की बहुत याद आती थी. रोज बाहर से कितना खाना मंगवाती. इसलिए कैसेकैसे कर कुछ भी खा कर मेरा गुजारा हो रहा था. पैसे तो थे मेरे पास पर समय नहीं था कि अपने बारे में कुछ सोचूं, करूं.

मां को कुछ कहती, तो बस यही कहती कि शादी कर लूं सब ठीक हो जाएगा. बताओ, अब शादी से सब का भला होता तो देश में इतने तलाक ही क्यों होते? बीवी कमाऊ हो या गृहिणी, पति तो यही चाहता कि वही उस के लिए खाना पकाए, कपड़े धोए, चायपानी ले कर खड़ी रहे. माई फुट. मैं तो किसी के लिए भी इतना सबकुछ नहीं करने वाली. मैं अपने मन में सोचती कि शादी तो बराबरी का रिश्ता होता है तो फिर एक ही क्यों दूसरे के लिए करता रहे? मु झे तो लगता है आज देश में तलाक के मामले इसलिए ही बढ़ रहे हैं क्योंकि लोगों को अपने पार्टनर से ऐक्सपैक्टेशन बहुत है. इसलिए ही तो मैं शादी से भागती हूं. पर मां सम झती ही नहीं हैं. कुछ बोलो, तो शादी पर आ जाती हैं. इसलिए उन से बोलना ही छोड़ दिया. पापा से इसलिए कुछ नहीं कहती कि वे बेकार में चिंतित हो जाते हैं. मैं यहीं बैंक के आसपास ही कोई एक कमरे का घर ढूंढ़ रही थी, लेकिन मिल नहीं रहा था.

वैसे भी बैचलर को जल्दी कोई किराए पर घर नहीं देना चाहता है पता नहीं क्यों? ऋतिक भी इसी बैंक में मेरे साथ ही काम करता था. वह यूपी का ही रहने वाला था पर उस का घर बिजनौर में था. साथ काम करते हुए जल्द ही हमारी दोस्ती हो गई थी. ऋतिक, इस ब्रांच में दो सालों से काम कर रहा था इसलिए उसे यहां का सारा कुछ पता था. वह अकसर मेरे काम में मेरी हैल्प कर दिया करता था. यहां तक कि कभी घर जाने में देर हो जाती, तो वह अपनी बाइक से मु झे मेरे घर तक छोड़ भी देता था. इस अनजान शहर में जब कोई आप का इतना केयर करे तो मन अपनेआप उस के प्रति शुक्रगुजार हो उठता है. ऋतिक के अच्छे व्यवहार के कारण मैं उस के करीब होने लगी थी. हम दोनों औफिस के बाद या छुट्टियों में अकसर कौफी पीने या कहीं घूमने निकल जाते थे. एक दिन जब मैं ने अपनी परेशानी ऋतिक को बताई तो बोला कि वह जल्द ही कुछ करता है. ऋतिक की कोशिश से जल्द ही मु झे बैंक के नजदीक ही रहने के लिए एक बढि़या घर मिल गया. अब मु झे कोई परेशानी नहीं थी. जिंदगी में आराम हो गया था.

अब बैंक से आने के बाद हमें इतना समय मिल जाता था कि हम दोनों कुछ देर साथ कहीं घूमने निकल सकते थे. धीरेधीरे हमारे बीच की दूरियां कम होती जा रही थीं. अब हम दोनों अपनी पर्सनल बातें भी एकदूसरे से बे िझ झक शेयर करने लगे थे. बातोंबातों में ही हम दोनों ने एक दिन एकदूसरे को अपनेअपने बारे में सबकुछ बता दिया कि हमारे घर में कौनकौन हैं और क्या करते हैं. मेरे परिवार के बारे में जानने के बाद ऋतिक अपने बारे में बताने लगा कि उस के घर में उस के सिवा सिर्फ उस की मां ही हैं. एक बड़ी बहन है जिस की शादी हो चुकी है. उस के पापा तो हैं, पर वे इन के साथ नहीं रहते हैं. ‘‘पर क्यों?’’ ‘‘क्योंकि मेरी मां उन की दूसरी पत्नी हैं,’’ ऋतिक बताने लगा कि उस के पापा, उस के नाना के घर में किराए पर रहते थे तभी उस की मां से उन्हें प्यार हो गया और दोनों ने शादी कर ली.

3 साल साथ रहने के बाद उन्हें 2 बच्चे हुए. लेकिन उस के पापा पहले से शादीशुदा हैं यह बात उन्होंने उस की मां से छिपा कर रखी थी. एक दिन अचानक उस के पापा उन्हें छोड़ कर अपनी पहली पत्नी और बच्चे के पास राजस्थान रहने चले गए.’’ मेरे पूछने पर कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? वह कहने लगा कि उस के पिताजी ने उन्हें अपनी संपत्ति से बेदखल करने की बात करी और उन की पहली पत्नी ने उन्हें जेल भेजने की धमकी दी तो वे उन्हें छोड़ कर पहली पत्नी के पास रहने चले गए. ऋतिक फिर बताने लगा कि सदमे में उस के नानाजी भी गुजर गए तो उस की मां ने बड़े कष्ट से उसे और उस की बहन को बड़ा किया और पढ़ायालिखाया. लेकिन अब वे डिप्रैशन में रहने लगी हैं. ‘‘ओह,’’ उस की दुख भरी कहानी सुन कर मु झे बड़ा अफसोस हुआ कि बेचारे ने पिता के होते हुए बिना पिता का जीवन जीया.

अब ऋतिक को ले कर मेरे दिल में और इज्जत बढ़ गई थी. ऋतिक का मेरा इतना ध्यान रखना इस अजनबी शहर में मु झे एक संबल देता था. ऋतिक का पुष्ट हाथ जब मेरे हाथ में होता, तो मु झे लगता मैं बहुत सुरक्षित हाथों में हूं. अब ऋतिक के बिना मेरा एक पल भी मन नहीं लगता था. ऋतिक का भी यही हाल था. सच बात तो यह थी कि हम दोनों इस रिश्त में काफी दूर निकल चुके थे. इसलिए हम ने यह फैसला किया कि हम एक साथ एक ही घर में रहेंगे यानी लिव इन में. सब कोई रहता है, कोई नई बात नहीं है इस में और मांपापा को इस बारे में कुछ बताने की जरूरत ही क्या है. जल्द ही 2 कमरे का घर ले कर हम दोनों उस में शिफ्ट हो गए. इस फ्लैट में जरूरत का सारा सामान मौजूद था. हम सिर्फ अपने कपड़े और जरूरी सामान ही ले कर यहां रहने आए थे. जल्द ही एक मेड भी मिल गई हमें तो हमारा काम और भी आसान हो गया. मेड रोज सुबह झाड़ूपोंछा, कपड़े और खाना बना कर चली जाती थी. साथ रहते हुए हम दोनों के बीच की सारी मर्यादाएं खत्म हो चुकी थीं. एक दिन भी ऋतिक बैड पर मेरे साथ नहीं होता तो मु झे ठीक से नींद नहीं आती.

तुम्हारी सास: भाग 3- क्या वह अपने बच्चे की परवरिश अकेले कर पाई?

यह सुन मांजी को भी हंसी आ गई और कहा, ‘‘अरे बेटा हर मां अपने बच्चों के अच्छे के लिए सीख देती है. लाओ ब्लाउज मु?ो दे दो, हुक मैं लगा देती हूं. तुम्हें देर हो रही है… बबलू की बस निकल गई तो फिर तुम्हें ही स्कूल तक छोड़ना पड़ेगा.’’ इसी बीच बबलू स्कूल के लिए तैयार हो गया था. मांजी ने उसे नाश्ता दे दिया और पूछा, ‘‘बेटा, आज किस सब्जैक्ट का टैस्ट है?

‘‘अंगरेजी का दादी.’’

रेखा ने तैयार हो कर बबलू को आवाज लगाई, ‘‘चलो बेटा. मांजी आप नाश्ता कर लेना, मैं निकलती हूं.’’

‘‘बहू, तुम ने अपना लंच नहीं लिया?’’

‘‘नहीं मांजी आज बहुत देर हो गई… औफिस में ले कर कुछ खा लूंगी. बस तो निकल गई होगी मम्मी. घड़ी देखो, अब आप को ही छोड़ना पड़ेगा,’’ बबलू बोला.

‘‘उफ,’’ रेखा के मुंह से निकला.

मांजी बोली, ‘‘कल से मु?ो ही ध्यान करना पड़ेगा, लंच मैं पैक कर दिया करूंगी.’’

‘‘नहीं मांजी, ऐसा मत करना, मैं खुद ही पैक कर लिया करूंगी, आज थोड़ी देर हो गई, कल से सबकुछ समय से मैनेज कर लूंगी.’’

‘‘बेटा, मैं भी तो तुम्हारी मां जैसी हूं, अगर वे अपनी बेटी को इधरउधर दौड़तेभागते देखतीं तो वे भी ऐसे ही करती… सुबह के समय 50 काम होते हैं.’’

‘‘मांजी आप तो मेरी मां से भी बढ़ कर हैं. मेरी मां तो मु?ो 4 बातें सुना देतीं, कहतीं यहां तो बनाबनाया मिल रहा है बेटी. ससुराल में खुद ही बनाना होगा और खुद ही पैक करना होगा, अभी से आदत सुधार लो वरना ससुराल में कौन करेगा, तुम्हारी सास?’’ यह कह रेखा के चेहरे पर फिर मुसकान तैर गई और फिर आगे बोली, ‘‘हर काम में मेरी मां मु?ो सास का पहाड़ा याद करवा देती थीं.’’

‘‘अरे बेटा, पुरानी कहावत है कि सास तो मिट्टी की भी बुरी.’’

‘‘मांजी, इस रिलेशन में तो मैं बहुत खुश हूं.’’

‘‘बेटी, तुम दोनों ही मेरी दुनिया हो. मेरा बेटा, बहू  और बेटी तुम हो.’’

तभी बबलू ने दादी को चूमा, ‘‘ठीक है दादी, हम आ कर मिलते हैं.’’ दोपहर बाद बबलू स्कूल से आ गया. बहुत खुश था. दादी ने कहा, ‘‘बेटा बहुत खुश हो क्या बात है?’’

‘‘अरे, दादी भूल गईं, आज मम्मी का जन्मदिन है… उन्हें सरप्राइज देना है.’’ बबलू ने खाना खा लिया था. हाथ धो कर दादीपोते में मीटिंग हुई. बबलू ने कहा, ‘‘दादी, मम्मी सोच रही होंगी कि किसी को मेरा जन्मदिन याद नहीं रहा… हम उन्हें सरप्राइज देंगे.’’ ‘‘हां बेटा, डिनर बाहर करेंगे, तुम्हें भी अच्छा लगेगा. अब तुम घर डैकोरेट करो, मु?ा से चढ़ाउतरा नहीं जाएगा, यह काम आप का.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘मम्मी को पिंक रंग बहुत पसंद है. मैं

पिंक रंग की साड़ी पैक कर देती हूं… मम्मी को अच्छा लगेगा और उस के लिए सूजी का शीरा बना देती हूं.’’

‘‘ठीक है दादी, मैं मम्मी के लिए ग्रिटिंग लिखता हूं, दादी क्या लिखूं ग्रिटिंग में?’’ लिखो बेटा…

‘‘फूल में जिस तरह खुशबू अच्छी लगती है,

मु?ो उसी तरह अपनी मां अच्छी लगती है,

जन्मदिन मुबारक हो मेरी प्यारी मां…’’

‘‘अरे, वाह दादी यू आर ग्रेट. अब मजा आएगा… याहू.’’ बर्थडे म्यूजिक भी लगा दो बेटा, मम्मी आज जल्दी औफिस से आ जाएंगी. गेट खुलते ही म्यूजिक चला देना.

‘‘उधर रेखा औफिस से जल्दी उठ गई. सोचने लगी आज के दिन क्या ले कर जाया जाए, फिर सोचा चलो घर से और्डर कर मंगा लेंगे, यही सोचतेसोचते घर पहुंच गई. जैसे ही घंटी बजी, गेट खुला, रेखा की आंखें फटी और मुंह खुला का खुला रह गया कि तो यह बात थी, मैं तो सारा दिन सोचती रही कि किसी ने मु?ो विश नहीं किया तो यह सब प्रीप्लान था.’’

‘‘इसी को कहते हैं सरप्राइज मम्मी,’’ मांजी और बबलू ने विश किया. पिंक रंग की साड़ी पा कर रेखा खुश हो गई. दुख था कि विपुल साथ में नहीं थे.

बहू को उदास होते देख मांजी ने कहा, ‘‘बेटा, घाव जितना कुरेदोगी उतना और उभर कर आएगा, हर अगला दिन नई उम्मीद ले कर आता है बेटी. मन का क्या है वह तो खाली डब्बा है, जैसा हम बनाएंगे वैसा ही बन जाएगा. चलो, बी हैप्पी… आज डिनर बाहर करेंगे, हम सब का मन बहल जाएगा, बबलू भी खुश हो जाएगा.’’ फिर वे डिनर के लिए एक अच्छे रैस्टोरैंट में गए, बबलू बहुत खुश था. रेखा खाने का और्डर कर रही थी तो पीछे से आवाज आई, ‘‘हाय रेखा.’’ रेखा ने घूम कर देखा, उस का कालेज का फ्रैंड सुमित था.

सुमित को देख रेखा के चेहरे पर एक चमक सी आ गई. सुमित रेखा का अच्छा दोस्त हुआ करता था. वह अपने मन की हर बात उस से शेयर कर लिया करती थी. विपुल के गुजर जाने के बाद ऐसा कोई नजर नहीं आया जिस के आगे अपने आंसू बहाए. मांजी देखने लगीं कि कौन हो सकता है?

‘‘मांजी, यह मेरा कालेज का फ्रैंड सुमित.’’

फिर उन्हें रेखा ने खड़े हो कर पूछा, ‘‘सुमित, तुम यहां कैसे? व्हाट ए सरप्राइज?’’

‘‘वह मैं डिनर पर आया हूं.’’

‘‘कितने सालों बाद हम आज मिल रहे हैं. अचानक कहां गायब हो गए थे सुमित? न कोई फोन… न मिलना.’’

‘‘वह एक ट्रैजेडी हो गई मेरे साथ.’’

‘‘ट्रैजडी? क्या हुआ?

‘बताऊंगा, तुम ऐंजौय करो और तुम यहां कैसे रेखा?

‘‘हम डिनर पर आए हैं.’’

तभी बबलू बोल पड़ा, ‘‘आज मेरी प्यारी मम्मी का जन्मदिन है.’’

‘‘अच्छा जी, ‘हैप्पीबर्थ डे’ रेखा.’’

‘‘थैंक्स, आओ बैठो सुमित.’’

‘‘नहीं, फिर कभी.’’

‘‘बेटा कभीकभी मिलने घर आ जाया करो, अच्छा लगेगा. सुमित को मांजी जानती नहीं थीं, लेकिन फिर भी मांजी बोल पड़ीं. मांजी के दिमाग में बस एक ही बात रहती कोई अच्छा मैच मिल जाए तो रेखा का हाथ उस के हाथ में सौंप दूं.

सुमित ने कहा, ‘‘जी मांजी जरूर… मैं सम?ा सकता हूं… बस मैं भी परेशान था, इस बीच मिलना नहीं हो पाया,’’ इतना कह सुमित चला गया इसी बीच और्डर आ चुका था. रेखा प्लेट में सब्जी डाल ही रही थी कि मांजी बोल पड़ीं, ‘‘बहू, सुमित की शादी हो गई?’’ रेखा चौंकते हुए बोली, ‘‘यह कैसा सवाल है मांजी? क्या सोचने लगीं आप?  आप के दिमाग में क्या चल रहा है ? मैं जानना चाहती हूं.’’

‘‘कुछ नहीं बेटा, क्या करूं, इस बूढ़ी को बस तेरा खयाल रहता है.’’

‘‘इतना भी खयाल ठीक नहीं मांजी, पता नहीं क्याक्या सोचने लगती हैं आप? इन सब खयालों में कहीं ऐसा न हो एक नई चोट उभर आए.’’

‘‘घने अंधेरे के बाद ही सूरज की किरण आती है बेटा. समय की मांग यही है, समय सदा एक सा नहीं रहता. जब जीवन में किसी कारण से संतुष्टि मिलती है तो अंदर के घाव भरने लगते हैं… समय के साथसाथ बदलाव लाना जरूरी है. सही वक्त पर लिया फैसला सही होता है.’’

मांजी का हाथ अपने हाथ में थामते हुए रेखा बोली, ‘‘मांजी मैं ठीक हूं.’’

‘‘बेटी, मेरी जिंदगी का भी क्या भरोसा, मैं तुम्हें सुखी देखना चाहती हूं.’’

‘‘मांजी अगर मेरे हिस्से में सुख लिखा होता तो इस समय विपुल मेरे साथ होते.’’

‘‘बेटा कुदरत कभी किसी को कष्ट दे कर कमजोर नहीं करती बल्कि मजबूत करती है. सम?ा मेरी बात, अकेली औरत को यह समाज चैन से जीने नहीं देता.’’

‘‘मम्मी, आइस्क्रीम खानी है,’’ तभी बबलू बोला तो बात अधूरी रह गई.

‘‘मांजी आप आइस्क्रीम का कौन सा

फ्लेवर लेंगी?’’

‘‘नहीं बेटा, मेरे लिए नहीं.’’

रेखा बबलू को आइस्क्रीम वाले के पास ले गई. वहीं सुमित भी एक बच्चे के साथ खड़ा था. बातोंबातों में पता चला वह सुमित का बेटा है. सुमित ने बताया कि एक ऐक्सीडैंट में उस की पत्नी और मातापिता का देहांत हो गया. वह और बेटा बच गए. इसी वजह से वह हमारे दुख में शामिल नहीं हो पाया.

‘‘कैसे मैनेज किया होगा तुम ने सुमित? बहुत बुरा हुआ तुम्हारे साथ… मैं तो पति के बिना जीवन गुजार ही रही थी लेकिन तुम्हारे साथ इतना सबकुछ… मु?ो लगा कि मेरा दुख सब से बड़ा है, किंतु ऐसा नहीं, अगर हम दुनिया पर नजर डालेंगे तो देखेंगे दुनिया में कितने गम हैं.’’

मन का बोझ: भाग 2

आशुतोष दुनियादारी का आदमी था. कुछ दिनों तक उस ने अभिषेक को कोलकाता में रोक कर रखा और उसे खर्चे के पैसे भेजता रहा. जैसे ही शीतल मायके में अपनी कोचिंग क्लासेज पूरी कर के ससुराल में आई तो वह जल्दी ही अभिषेक के पास कोलकाता जाने का सपना देखने लगी.

मगर ससुराल वालों ने तरकीब से उसे मना कर उस का बायोडाटा महिला महाविद्यालय में लगवा दिया. वहां फिजिक्स लैक्चरर की पोस्ट खाली थी. शीतल की योग्यता और अनुभव के आधार पर उस का चयन भी हो गया. अब तो शीतल को नौकरी की बेड़ी पड़ गई. कोचिंग क्लासेज के लिए आशुतोष ने नए मकान का ऊपर का कमरा खाली कर दिया. शीतल की कोचिंग क्लासेज रुड़की की तरह यहां भी बढि़या चल निकलीं. यह उस के पैरों में डाली गई दूसरी बेड़ी थी.

तब एक दिन शीतल की सासूमां ने बड़ी चालाकी से उस से कहा, ‘‘शीतल बिटिया, अब तो तेरा काम बढि़या चल निकला है. अब तो तु?ो कहीं और जाने की भी नहीं सोचनी चाहिए. मैं तो कहती हूं अभिषेक को भी यहीं बुला ले. तू यहां वह वहां. अकेलापन तो तु?ो काटता ही होगा.’’ सासूमां की बात ने शीतल के मन पर गहरा असर छोड़ा. वह भी सोचने लगी पता नहीं कोलकाता में ऐसी जौब मिले या नहीं. अभिषेक वहां की जौब छोड़ने को तैयार हो या नहीं.

शीतल ने जब इस संबंध में अभिषेक से बात की तो वह तुरंत घर वापस आने के लिए तैयार हो गया. इस तरह शीतल के ससुराल वालों की युक्ति काम कर गई. अभिषेक की घर वापसी हो गई. यहां ऐसी कोई बड़ी कंपनी या फर्म नहीं थी जो अभिषेक को इंजीनियरिंग का काम दे सकती. शीतल भी अब अभिषेक को अपने से दूर नहीं भेजना चाहती थी और सच बात तो यह थी अभिषेक खुद बाहर नहीं जाना चाहता था. वह जानता था जिस इंजीनियरिंग की डिगरी का ठुनठुना वह लिए बैठा है, वह रद्दी के टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं.

अपने शहर में अपनी पत्नी से छोटी नौकरी करना वह अपनी तौहीन सम?ाता था. आखिरकार वह आशुतोष के काम में ही हाथ बंटाने लगा. लेकिन महीने 2 महीने गुजरने पर भी आशुतोष ने उस की हथेली पर एक धेला तक नहीं रखा. ऐसा कब तक चलता.

एक दिन जब अभिषेक ने इस बारे में अपने पापा से कहा, ‘‘पापा मैं कब तक आप की दुकान पर नौकरों की तरह काम करता रहूंगा? आखिर उस दुकान पर मेरा भी तो कोई हक बनता है.’’ पापा ने अपना पल्ला ?ाड़ते हुए मजबूरी जता दी, ‘‘बेटा, तू तो जनता ही है कि मैं आशुतोष के सामने अपना मुंह नहीं खोलता. दुकान का

कोई हिसाबकिताब भी मेरे पास नहीं, सब आशुतोष ही देखता है. मैं तो पहले भी चूडि़यां पहनाने का काम करता था और आज भी. आशुतोष कब मालिक बन बैठा, मु?ो पता ही नहीं चला. बस इस के बदले आशुतोष मेरी और तेरी मां की 2 रोटी में कोई कमी नहीं रखता. बुढ़ापे में उस के सामने मुंह खोलूं तो शायद चैन से मिलने वाली रोटी भी छिन जाए.’’

‘‘तो पापा मैं क्या करूं? कानूनी लड़ाई लड़ूं?’’

‘‘बेटा, तू पढ़ालिखा है, अपने भाई से बैठ कर बात कर. सलाह देता हूं कानूनी लड़ाई के पचड़े में मत पड़ना. जिंदगीभर तारीख पर तारीख ही लगती रहेगी. छोटे शहर के वकील आपस में मिले होते हैं, फैसला होने नहीं देंगे और हर तारीख पर फीस वसूलेंगे. भाई से संबंध खराब होंगे वे अलग.’’ पापा की बात मान कर अभिषेक ने आशुतोष से बात की, ‘‘भैया, मैं दुकान पर आप का हाथ बंटाता हूं.’’

‘‘तो क्या हुआ? साफसाफ बोल.’’

‘‘तो भैया मु?ो भी कुछ…’’

‘‘देख अभिषेक, हम ने तेरी शादी का पूरा खर्च उठाया.’’

‘‘हां.’’

‘‘तेरी घर वाली की नौकरी लगवाई.’’

‘‘हां.’’

‘‘शीतल की कोचिंग क्लासेज के लिए ऊपर का बड़ा कमरा खाली कर दिया और तुम्हें रहने के लिए 2 कमरे भी दिए.’’

‘‘हां.’’

‘‘ये नए मकान के सब कमरे किस ने बनवाए?’’

‘‘आप ने भैया.’’

‘‘कोलकाता में तेरी नौकरी छूटने की बात छिपा कर रखी और तेरा खर्चा उठाता रहा, यह सब किस ने किया?’’

‘‘आप ने.’’

‘‘अभिषेक तु?ो शर्म आनी चाहिए. मैं ने तेरे लिए इतना कुछ किया, अब दुकान पर जरा सा सहयोग क्या करने लगा, अपना हिस्सा मांगने पर उतर आया.’’

‘‘लेकिन भैया खर्चा तो मेरा भी है.’’

‘‘अरे शीतल की आमदनी देख कितनी

है? नौकरी भी करती है और कितनी ट्यूशन पढ़ाती है.’’

‘‘लेकिन भैया वह तो उस की आमदनी है. आप क्या चाहते हो, मैं अपनी औरत के सामने हाथ फैलाऊं?’’ तब आशुतोष ने बात खत्म करते हुए कहा, ‘‘तो अभिषेक एक काम कर. दुकान तो देख मेरी है. नया मकान भी मेरा है. तू कोई और कामधंधा ढूंढ़ ले और ठिकाना भी. पुराना मकान जो खंडहर हो चुका है उस में तेरा हिस्सा है, उस में जा कर रह ले. मेरा पीछा छोड़.’’

 

 प्रमोशन: भाग 2- क्या बॉस ने सीमा का प्रमोशन किया?

प्रमोशन होने के कारण सीमा को लखनऊ जाना पड़ेगा, यह बात चंद मिनटों में ही घर के हर सदस्य को राजीव से मालूम पड़ गई. सब की आंखों में उत्साह व खुशी की चमक के बजाय तनाव और परेशानी के भाव नजर आने लगे.

रात का खाना सभी ने बु?ोबु?ो से अंदाज में खाया. उस के बाद सभी ड्राइंगरूम में आ कर बैठ गए. प्रमोशन को ले कर आपस में चर्चा का आरंभ रमाकांत ने किया.

‘‘शांति से सोचविचार करो, तो हर समस्या का हल मिल जाता है,’’ उन्होंने गंभीर लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘प्रमोशन का 2 साल को टलना सीमा के कैरियर के हित में नहीं होगा. दूसरी तरफ उस के लखनऊ जाने से कई समस्याएं पैदा होंगी. अब सवाल यह उठता है कि क्या हम उन समस्याओं का उचित समाधान ढूंढ सकते हैं या नहीं?’’

‘‘मेरे लिए अकेले लखनऊ जा कर रहना बिलकुल संभव नहीं है,’’ सीमा की आवाज में गहरी उदासी व निराशा के भाव साफ ?ालके.

‘‘भाभी, आप को यों हिम्मत नहीं हारनी चाहिए. शादी से पहले आप ने होस्टल में अकेले रह कर एमबीए भी तो किया था. लखनऊ में अकेले रहना कठिन तो होगा, पर इस काम को आप असंभव न सम?ों,’’ संजीव ने जोशीले अंदाज में सीमा का हौसला बढ़ाया.

‘‘सब से दूर रहने की बात सोचते ही मेरा मन कांपने लगता है. यहां सब का कितना सहारा है मु?ो. दफ्तर से लौटती हूं, तो खाना तैयार मिलता है. बीमार पड़ने पर देखभाल करने वालों की कमी नहीं है यहां. न कपड़े धोने की फिक्र है, न उन्हें प्रैस कराने की. औफिस में 10-12 घंटे काम करने के बाद वहां इन सभी कामों को करने की हिम्मत व ताकत मु?ा में कहां से आएगी?’’ सीमा की आंखों में आंसू ?िलमिला उठे.

‘‘जरूरत पड़ने पर हिम्मत और ताकत कुदरत देती है,’’ सुचित्रा ने प्यार भरे लहजे में अपनी बहू को सम?ाया, ‘‘बहू तुम सुबह का नाश्ता व दोपहर का खाना सुबह बना लेना और रात को टिफिन मंगवा लिया करना. शनिवारइतवार की छुट्टी में सप्ताहभर के कपड़े तैयार कर सकती हो. औफिस में तुम्हारे साथ काम करने वाले लोग किसी तरह की बीमारी में क्या तुम्हारा साथ नहीं निभाएंगे?’’

‘‘और रही बात अकेले रहने कि तो सप्ताह की 2 छुट्टियों में कभी तुम मिलने आ जाना, कभी मैं और रोहित लखनऊ आ जाया करेंगे. ऐसा करने से तुम्हें अकेलापन कभी ज्यादा महसूस नहीं देगा,’’ राजीव ने एक और समस्या का समाधान सु?ाया.

राजीव उस की तरफ से नहीं बोल रहा है, यह देख कर सीमा पहले हैरान हुई और फिर नाराज नजर आने लगी. उस की नाराजगी बाकी लोगों से छिपी नहीं रही.

‘‘भाभी, जिंदगी में तरक्की करने के लिए इंसान को तकलीफें उठानी ही पड़ती है,’’ सविता अचानक चिड़े से अंदाज में बओली, ‘‘प्रमोशन का मतलब है ज्यादा बड़ी पगार जब पास हो

तभी इंसान अपने सपने पूरे कर सकता है. आप क्या रोहित को अच्छे बोर्डिंग स्कूल में भेजने

की इच्छुक नहीं हैं. कल को आप अपना घर, कार, जेबर, कपड़े क्या अपने पास देखना नहीं चाहेंगी? अगर छोटीबड़ी तकलीफों के डर से आप यह प्रमोशन नहीं लेंगी तो कैसे पूरे होंगे आप के सपने?’’

‘‘रोहित की पढ़ाई को छोड़ कर बाकी सब चीजों के बिना मैं आसानी से रह सकती हूं,’’ सीमा ने धीमी आवाज में सफाई दी.

‘‘इंसान को ज्यादा स्वार्थी नहीं होना चाहिए. आज आप के द्वारा हमारी जरूरतें व शौक पूरे होंगे, तो कल हम भी आप के साथ हर जरूरत के समय अवश्य खड़े होंगे. इस वक्त घर में ज्यादा पैसा आने की जरूरत है. अपनी सब तकलीफों को नजरअंदाज कर आप को सिर्फ इसी वजह से लखनऊ जाना स्वीकार कर लेना चाहिए,’’ काफी उत्तेजित हो जाने के कारण संजीव का चेहरा लाल हो गया.

‘‘संजीव बिलकुल ठीक कह रहा है बहू पूरे परिवार के हित को ध्यान में रखोगी तो लखनऊ जाने का फैसला करना तुम्हारे लिए एकदम आसान होगा,’’ रमाकांत की इस बात से घर का हर सदस्य सहमत नजर आया.

‘‘प्रमोशन के इस मौके को हाथ से निकल जाने देना नादानी होगी,’’ राजीव अपनी पत्नी की तरफ देख कर मुसकराया, ‘‘अपने कैरियर के प्रति तुम पूरी तरह से समर्पित हो. छोटीमोटी परेशानियों के कारण आगे खूब तरक्की करने की राह में रुकावटें खड़ी मत करो, सीमा.’’

सीमा को अपने पति सहित सभी लोग स्वार्थी नजर आए. उस ने क्रोधित लहजे में सब को सुना कर कहा, ‘‘जिन परेशानियों का जिक्र मैं कर रही हूं. उन की फिक्र किसी को भी नहीं है. अपने पति और बेटे से दूर मैं क्यों रहूं? क्या मेरे मन की सुखशांति और खुशियों की कीमत और महत्त्व 40-50 हजार रुपयों से कम है? क्यों

मु?ो परदेश में अकेला भेजने को उतारू हैं आप सब के सब?’’

‘‘आप तो बेकार में इतनी ज्यादा भावुक और परेशान हो रही हो, भाभी. आजकल सिफारिश और पैसे से सबकुछ हो जाता है. आप भी जल्दी से जल्दी वापस यहीं तबादला करवाने की कोशिश करती रहना,’’ संजीव का स्वर रूखा व चिड़चिड़ा हो गया.

‘‘तुम ऐसा इसलिए कह रहे हो क्योंकि तुम्हें मेरी नहीं बल्कि अपनी मोटरसाइकिल पाने की चिंता ज्यादा है,’’ सीमा ने चुभते स्वर में जवाब दिया.

यहां से सारा माहौल बिगड़ गया. संजीव नाराजगी दर्शाता उसी पल वहां से उठ

कर अपने कमरे में चला गया. सुचित्रा रसोई में जा घुसी और रमाकांत व सविता सीमा की उपेक्षा करते हुए टीवी देखने लगे.

आंसू बहाने को तैयार सीमा उठ कर अपने शयनकक्ष में आ गई. उसे उम्मीद थी कि राजीव उस के पीछेपीछे आएगा, पर ऐसा नहीं हुआ.

पति भी उस का साथ नहीं दे रहा है, इस बात

की पीड़ा महसूस करती सीमा अकेले में आंसू बहाने लगी.

करीब घंटेभर बाद राजीव शयनकक्ष में आया. तब तक रोहित सो चुका था. सीमा ने लखनऊ जाने से जुड़ी अपनी परेशानियों को शांत लहजे में उसे फिर से एक बार सम?ाने का प्रयास आरंभ किया.

कुछ मिनटों के बाद ही राजीव ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘तुम ने प्रमोशन न लेने का एकतरफा फैसला कर ही लिया है तो अब इस विषय पर कुछ भी कहनेसुनने की क्या जरूरत है. खुद भी सो जाओ और मु?ो भी सोने दो.’’

‘‘तुम यों नाराज नजर आओगे तो मु?ो

कैसे नींद आएगी?’’ सीमा रोंआसी हो उठी.

‘‘तुम मेरी या किसी और की फिक्र मत करो.’’

‘‘मु?ा पर लखनऊ जाने का यों दबाव बनाना ठीक नहीं है.’’

‘‘सम?ादारी की बातें तुम्हें दबाव बनाना लग रही हैं तो कोई क्या कर सकता है?’’

‘‘मेरे दिल का हाल तुम भी नहीं सम?ोगे, मु?ो ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ सीमा का स्वर शिकायती हो गया.

‘‘अब बेकार में मेरा सिर मत खाओ,’’ राजीव ने अचानक उसे ?िड़का और फिर आंखें मूंद कर खामोश हो गया.

सीमा भी राजीव और उस के घर वालों के स्वार्थी व्यवहार को देख कर मन ही मन नाराज हो उठी. नींद आने से पहले वह सोमवार का प्रमोशन अस्वीकार करने का मन में पक्का फैसला कर चुकी थी.

छुट्टी वाले दिन बैड टी पीने के बाद सीमा कुछ देर और नींद की ?ापकी ले लेती थी. अगले दिन शनिवार को उसे बैड टी देने न सविता आई और न ही उस की सास.

सीमा कुछ देर बाद खुद ही चाय बना कर राजीव व अपने लिए ले आई. कालेज जाने की तैयारी कर रही सविता उसे देख कर न मुसकराई और न ही कुछ बोली. पैर छूने पर सुचित्रा ने उसे बु?ो से अंदाज में आशीर्वाद दिया.

उन दोनों के बदले व्यवहार की चर्चा सीमा राजीव से करना चाहती थी लेकिन उस के बारबार उठाने पर भी वह नहीं उठा. कुछ देर बाद गिलास की चाय भी डंडी हो गई.

‘‘क्यों तंग कर रही हो बारबार उठने को कह कर? मु?ो चैन से सोने दो, प्लीज,’’ राजीव ने गुस्से से उस का हाथ ?ाटका, तो सीमा सम?ा गई कि वह अभी भी उस से खफा है.

कपड़े धोने की मशीन लगाने में उस दिन उस की सास ने सीमा का जरा भी हाथ नहीं बंटाया. अपने व रमाकांत के लिए ब्रैडमक्खन का नाश्ता तैयार कर सुचित्रा वापस अपने शयनकक्ष में जा घुसी. जब रोहित अपने दादादादी के कमरे में घुसा तो उसे सुचित्रा ने ?िड़क कर भगा दिया.

सीमा को अपने पति व बेटे के लिए खुद नाश्ता तैयार करना पड़ा. जब वह नाश्ता तैयार कर रही थी तभी संजीव नौकरी पर जाने के लिए अपने कमरे से बाहर आया. सीमा उसे अवाज देती रह गई, पर वह नाश्ता करने के लिए नहीं रुका. उस के हावभाव साफ दर्शा रहे थे कि उस का मूड पूरी तरह से उखड़ा हुआ है.

राजीव ने भी बड़े अनमने भाव से नाश्ता किया. सीमा ने काफी कोशिश करी, पर वह अपने पति के साथ कैसा भी वार्त्तालाप आरंभ करने में असफल रही.

रमाकांत भी घर में मुंह फुला कर घूमे. फिर 11 बजे के आसपास बैंक में कुछ काम कराने चले गए. राजीव 12 बजे के करीब स्कूल में पढ़ाने चला गया.

सीमा ने उस के जाने के बाद उस का लंच बौक्स डाइनिंग टेबल पर ही रखा देखा. राजीव जानबू?ा कर लंच बौक्स नहीं ले गया है, यह देख कर सीमा का मन बहुत दुखा.

सुचित्रा ने ना सीमा से बात करी न रोहित से. उन का पोता जब भी उन के कमरे में घुसता वह उसे फौरन बाहर निकाल देती.

‘‘दादी मु?ो आज इतना क्यों ज्यादा डांट रही है?’’ अपने बेटे के इस सवाल के जवाब में सीमा ने रोहित को अपनी छाती से जोर से लगा लिया और आंसू न बहाने का प्रयास करने लगी.

दोपहर का खाना सास और बहू ने हमेशा की तरह साथसाथ न खा कर अपनेअपने कमरे में खाया. सीमा का कई बार मन हुआ कि सास के पास जा कर अपने मनोभावों को व्यक्त कर दे, पर उस के कदम सुचित्रा के कमरे तक नहीं बढ़े.

‘ये सब मेरे दुखदर्द व परेशानियों को सम?ा सकते होते, तो सम?ा ही लेते… मैं फैसला कर चुकी हूं और अब किसी को सम?ाने या मनाने की कोशिश कतई नहीं करूंगी,’ मन ही मन ऐसा निश्चिय कर परेशान सीमा अपने पलंग पर पूरी दोपहर करवटें बदलती रही.

Valentine’s Day 2024: कायर- क्यों श्रेया ने श्रवण को छोड़ राजीव से विवाह कर लिया?

श्रेया के आगे खड़ी महिला जैसे ही अपना बोर्डिंग पास ले कर मुड़ी श्रेया चौंक पड़ी. बोली, ‘‘अरे तन्वी तू…तो तू भी दिल्ली जा रही है… मैं अभी बोर्डिंग पास ले कर आती हूं.’’

उन की बातें सुन कर काउंटर पर खड़ी लड़की मुसकराई, ‘‘आप दोनों को साथ की सीटें दे दी हैं. हैव ए नाइस टाइम.’’ धन्यवाद कह श्रेया इंतजार करती तन्वी के पास आई.

‘‘चल आराम से बैठ कर बातें करते हैं,’’ तन्वी ने कहा. हौल में बहुत भीड़ थी. कहींकहीं एक कुरसी खाली थी. उन दोनों को असहाय से एकसाथ 2 खाली कुरसियां ढूंढ़ते देख कर खाली कुरसी के बराबर बैठा एक भद्र पुरुष उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘बैठिए.’’

‘‘हाऊ शिवैलरस,’’ तन्वी बैठते हुए बोली, ‘‘लगता है शिवैलरी अभी लुप्त नहीं हुई है.’’

‘‘यह तो तुझे ही मालूम होगा श्रेया…तू ही हमेशा शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी,’’ तन्वी हंसी, ‘‘खैर, छोड़ ये सब, यह बता तू यहां कैसे?’’

‘‘क्योंकि मेरा घर यानी आशियाना यहीं है, दिल्ली तो एक शादी में जा रही हूं.’’

‘‘अजब इत्तफाक है. मैं एक शादी में यहां आई थी और अब अपने आशियाने में वापस दिल्ली जा रही हूं.’’

‘‘मगर जीजू तो सिंगापुर में सैटल्ड थे?’’

‘‘हां, सर्विस कौंट्रैक्ट खत्म होने पर वापस दिल्ली आ गए. नौकरी के लिए भले ही कहीं भी चले जाएं, दिल्ली वाले सैटल कहीं और नहीं हो सकते.’’

‘‘वैसे हूं तो मैं भी दिल्ली की, मगर अब भोपाल छेड़ कर कहीं और नहीं रह सकती.’’

‘‘लेकिन मेरी शादी के समय तो तेरा भी दिल्ली में सैटल होना पक्का ही था,’’ श्रेया ने उसांस भरी.

‘‘हां, था तो पक्का ही, मगर मैं ने ही पूरा नहीं होने दिया और उस का मुझे कोई अफसोस भी नहीं है. अफसोस है तो बस इतना कि मैं ने दिल्ली में सैटल होने का मूर्खतापूर्ण फैसला कैसे कर लिया था.’’

‘‘माना कि कई खामियां हैं दिल्ली में, लेकिन भई इतनी बुरी भी नहीं है हमारी दिल्ली कि वहां रहने की सोचने तक को बेवकूफी माना जाए,’’ तन्वी आहत स्वर में बोली.

‘‘मुझे दिल्ली से कोई शिकायत नहीं है तन्वी,’’ श्रेया खिसिया कर बोली, ‘‘दिल्ली तो मेरी भी उतनी ही है जितनी तेरी. मेरा मायका है. अत: अकसर जाती रहती हूं वहां. अफसोस है तो अपनी उस पसंद पर जिस के साथ दिल्ली में बसने जा रही थी.’’

तन्वी ने चौंक कर उस की ओर देखा. फिर कुछ हिचकते हुए बोली, ‘‘तू कहीं श्रवण की बात तो नहीं कर रही?’’

श्रेया ने उस की ओर उदास नजरों से देखा. फिर पूछा, ‘‘तुझे याद है उस का नाम?’’

‘‘नाम ही नहीं उस से जुड़े सब अफसाने भी जो तू सुनाया करती थी. उन से तो यह पक्का था कि श्रवण वाज ए जैंटलमैन, ए थौरो जैंटलमैन टु बी ऐग्जैक्ट. फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया कि तुझे उस से प्यार करने का अफसोस हो रहा है? वैसे जितना मैं श्रवण को जानती हूं उस से मुझे यकीन है कि श्रवण ने कोई गलत काम नहीं किया होगा जैसे किसी और से प्यार या तेरे से जोरजबरदस्ती?’’

श्रेया ने मुंह बिचकाया, ‘‘अरे नहीं, ऐसा सोचने की तो उस में हिम्मत ही नहीं थी.’’

‘‘तो फिर क्या दहेज की मांग करी थी उस ने?’’

‘‘वहां तक तो बात ही नहीं पहुंची. उस से पहले ही उस का असली चेहरा दिख गया और मैं ने उस से किनारा कर लिया,’’ श्रेया ने फिर गहरी सांस खींची, ‘‘कुछ और उलटीसीधी अटकल लगाने से पहले पूरी बात सुनना चाहेगी?’’

‘‘जरूर, बशर्ते कोई ऐसी व्यक्तिगत बात न हो जिसे बताने में तुझे कोई संकोच हो.’’

‘‘संकोच वाली तो खैर कोई बात ही नहीं है, समझने की बात है जो तू ही समझ सकती है, क्योंकि तूने अभीअभी कहा कि मैं शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी…’’

इसी बीच फ्लाइट के आधा घंटा लेट होने की घोषणा हुई.

‘‘अब टुकड़ों में बात करने के बजाय श्रेया पूरी कहानी ही सुना दे.’’

‘‘मेरा श्रवण की तरफ झुकाव उस के शालीन व्यवहार से प्रभावित हो कर हुआ था. अकसर लाइबेरी में वह ऊंची शैल्फ से मेरी किताबें निकालने और रखने में बगैर कहे मदद करता था. प्यार कब और कैसे हो गया पता ही नहीं चला. चूंकि हम एक ही बिरादरी और स्तर के थे, इसलिए श्रवण का कहना था कि सही समय पर सही तरीके से घर वालों को बताएंगे तो शादी में कोई रुकावट नहीं आएगी. मगर किसी और ने चुगली कर दी तो मुश्किल होगी. हम संभल कर रहेंगे.

प्यार के जज्बे को दिल में समेटे रखना तो आसान नहीं होता. अत: मैं तुझे सब बताया करती थी. फाइनल परीक्षा के बाद श्रवण के कहने पर मैं ने उस के साथ फर्नीचर डिजाइनिंग का कोर्स जौइन किया था. साउथ इंस्टिट्यूट मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था.

श्रवण पहले मुझे पैदल मेरे घर छोड़ने आता था. फिर वापस जा कर अपनी बाइक ले कर अपने घर जाता था. मुझे छोड़ने घर से गाड़ी आती थी. लेने भी आ सकती थी लेकिन वन वे की वजह से उसे लंबा चक्कर लगाना पड़ता. अत: मैं ने कह दिया  था कि नजदीक रहने वाले सहपाठी के साथ पैदल आ जाती हूं. यह तो बस मुझे ही पता था कि बेचारा सहपाठी मेरी वजह से डबल पैदल चलता था. मगर बाइक पर वह मुझे मेरी बदनामी के डर से नहीं बैठाता था. मैं उस की इन्हीं बातों पर मुग्ध थी.

वैसे और सब भी अनुकूल ही था. हम दोनों ने ही इंटीरियर डैकोरेशन का कोर्स किया. श्रवण के पिता फरनिशिंग का बड़ा शोरूम खोलने वाले थे, जिसे हम दोनों को संभालना था. श्रवण का कहना था कि रिजल्ट निकलने के तुरंत बाद वह अपनी भाभी से मुझे मिलवाएगा और फिर भाभी मेरे घर वालों से मिल कर कैसे क्या करना है तय कर लेंगी.

लेकिन उस से पहले ही मेरी मामी मेरे लिए अपने भानजे राजीव का रिश्ता ले कर आ गईं. राजीव आर्किटैक्ट था और ऐसी लड़की चाहता था, जो उस के व्यवसाय में हाथ बंटा सके. मामी द्वारा दिया गया मेरा विवरण राजीव को बहुत पसंद आया और उस ने मामी से तुरंत रिश्ता करवाने को कहा.

‘‘मामी का कहना था कि नवाबों के शहर भोपाल में श्रेया को अपनी कला के पारखी मिलेंगे और वह खूब तरक्की करेगी. मामी के जाने के बाद मैं ने मां से कहा कि दिल्ली जितने कलापारखी और दिलवाले कहीं और नहीं मिलेंगे. अत: मेरे लिए तो दिल्ली में रहना ही ठीक होगा. मां बोलीं कि वह स्वयं भी मुझे दिल्ली में ही ब्याहना चाहेंगी, लेकिन दिल्ली में राजीव जैसा उपयुक्त वर भी तो मिलना चाहिए. तब मैं ने उन्हें श्रवण के बारे में सब बताया. मां ने कहा कि मैं श्रवण को उन से मिलवा दूं. अगर उन्हें लड़का जंचा तो वे पापा से बात करेंगी.

‘‘दोपहर में पड़ोस में एक फंक्शन था. वहां जाने से पहले मां ने मेरे गले में सोने की चेन पहना दी थी. मुझे भी पहननी अच्छी लगी और इंस्टिट्यूट जाते हुए मैं ने चेन उतारी नहीं. शाम को जब श्रवण रोज की तरह मुझे छोड़ने आ रहा था तो मैं ने उसे सारी बात बताई और अगले दिन अपने घर आने को कहा.

‘‘कल क्यों, अभी क्यों नहीं? अगर तुम्हारी मम्मी कहेंगी तो तुम्हारे पापा से मिलने के लिए भी रुक जाऊंगा,’’ श्रवण ने उतावली से कहा.

‘‘तुम्हारी बाइक तो डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट में खड़ी है.’’

‘‘खड़ी रहने दो, तुम्हारे घर वालों से मिलने के बाद जा कर उठा लूंगा.’’

‘‘तब तक अगर कोई और ले गया तो? अभी जा कर ले आओ न.’’

‘‘ले जाने दो, अभी तो मेरे लिए तुम्हारे मम्मीपापा से मिलना ज्यादा जरूरी है.’’

सुन कर मैं भावविभोर हो गई और मैं ने देखा नहीं कि बिलकुल करीब 2 गुंडे चल रहे थे, जिन्होंने मौका लगते ही मेरे गले से चेन खींच ली. इस छीनाझपटी में मैं चिल्लाई और नीचे गिर गई. लेकिन मेरे साथ चलते श्रवण ने मुझे बचाने की कोई कोशिश नहीं करी. मेरा चिल्लाना सुन कर जब लोग इकट्ठे हुए और किसी ने मुझे सहारा दे कर उठाया तब भी वह मूकदर्शक बना देखता रहा और जब लोगों ने पूछा कि क्या मैं अकेली हूं तो मैं ने बड़ी आस से श्रवण की ओर देखा, लेकिन उस के चेहरे पर पहचान का कोई भाव नहीं था.

एक प्रौढ दंपती के कहने पर कि चलो हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा दें, श्रवण तुरंत वहां से चलता बना. अब तू ही बता, एक कायर को शिवैलरस हीरो समझ कर उस की शिवैलरी के कसीदे पढ़ने के लिए मैं भला खुद को कैसे माफ कर सकती हूं? राजीव के साथ मैं बहुत खुश हूं. पूर्णतया संतुष्ट पर जबतब खासकर जब राजीव मेरी दूरदर्शिता और बुद्धिमता की तारीफ करते हैं, तो मुझे बहुत ग्लानि होती है और यह मूर्खता मुझे बुरी तरह कचोटती है.’’

‘‘इस हादसे के बाद श्रवण ने तुझ से संपर्क नहीं किया?’’

‘‘कैसे करता क्योंकि अगले दिन से मैं ने डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट जाना ही छोड़ दिया. उस जमाने में मोबाइल तो थे नहीं और घर का नंबर उस ने कभी लिया ही नहीं था. मां के पूछने पर कि मैं अपनी पसंद के लड़के से उन्हें कब मिलवाऊंगी, मैं ने कहा कि मैं तो मजाक कर रही थी. मां ने आश्वस्त हो कर पापा को राजीव से रिश्ता पक्का करने को कह दिया. राजीव के घर वालों को शादी की बहुत जल्दी थी. अत: रिजल्ट आने से पहले ही हमारी शादी भी हो गई. आज तुझ से बात कर के दिल से एक बोझ सा हट गया तन्वी. लगता है अब आगे की जिंदगी इतमीनान से जी सकूंगी वरना सब कुछ होते हुए भी, अपनी मूर्खता की फांस हमेशा कचोटती रहती थी.’’

तभी यात्रियों को सुरक्षा जांच के लिए बुला लिया गया. प्लेन में बैठ कर श्रेया ने कहा, ‘‘मेरा तो पूरा कच्चा चिट्ठा सुन लिया पर अपने बारे में तो तूने कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘दिल्ली से एक अखबार निकलता है दैनिक सुप्रभात…’’

‘‘दैनिक सुप्रभात तो दशकों से हमारे घर में आता है,’’ श्रेया बीच में ही बोली, ‘‘अभी भी दिल्ली जाने पर बड़े शौक से पढ़ती हूं खासकर ‘हस्तियां’ वाला पन्ना.’’

‘‘अच्छा. सुप्रभात मेरे दादा ससुर ने आरंभ किया था. अब मैं अपने पति के साथ उसे चलाती हूं. ‘हस्तियां’ स्तंभ मेरा ही विभाग है.’’

‘‘हस्तियों की तसवीर क्यों नहीं छापते आप लोग?’’

‘‘यह तो पापा को ही मालूम होगा जिन्होंने यह स्तंभ शुरू किया था. यह बता मेरे घर कब आएगी, तुझे हस्तियों के पुराने संकलन भी दे दूंगी.’’

‘‘शादी के बाद अगर फुरसत मिली तो जरूर आऊंगी वरना अगली बार तो पक्का… मेरा भोपाल का पता ले ले. संकलन वहां भेज देना.’’

‘‘मुझे तेरा यहां का घर मालूम है, तेरे जाने से पहले वहीं भिजवा दूंगी.’’

दिल्ली आ कर श्रेया बड़ी बहन के बेटे की शादी में व्यस्त हो गई. जिस शाम को उसे वापस जाना था, उस रोज सुबह उसे तन्वी का भेजा पैकेट मिला. तभी उस का छोटा भाई भी आ गया और बोला, ‘‘हम सभी दिल्ली में हैं, आप ही भोपाल जा बसी हैं. कितना अच्छा होता दीदी अगर पापा आप के लिए भी कोई दिल्ली वाला लड़का ही देखते या आप ने ही कोई पसंद कर लिया होता. आप तो सहशिक्षा में पढ़ी थीं.’’

सुनते ही श्रेया का मुंह कसैला सा हो गया. तन्वी से बात करने के बाद दूर हुआ अवसाद जैसे फिर लौट आया. उस ने ध्यान बंटाने के लिए तन्वी का भेजा लिफाफा खोला ‘हस्तियां’ वाले पहले पृष्ठ पर ही उस की नजर अटक गई, ‘श्रवण कुमार अपने शहर के जानेमाने सफल व्यवसायी और समाजसेवी हैं. जरूरतमंदों की सहायता करना इन का कर्तव्य है. अपनी आयु और जान की परवाह किए बगैर इन्होंने जवान मनचलों से एक युवती की रक्षा की जिस में गंभीर रूप से घायल होने पर अस्पताल में भी रहना पड़ा. लेकिन अहं और अभिमान से यह सर्वथा अछूते हैं.’

हमारे प्रतिनिधि के पूछने पर कि उन्होंने अपनी जान जोखिम में क्यों डाली, उन की एक आवाज पर मंदिर के पुजारी व अन्य लोग लड़नेमरने को तैयार हो जाते तो उन्होंने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘इतना सोचने का समय ही कहां था और सच बताऊं तो यह करने के बाद मुझे बहुत शांति मिली है. कई दशक पहले एक ऐसा हादसा मेरी मित्र और सहपाठिन के साथ हुआ था. चाहते हुए भी मैं उस की मदद नहीं कर सका था. एक अनजान मूकदर्शक की तरह सब देखता रहा था. मैं नहीं चाहता था कि किसी को पता चले कि वह मेरे साथ थी और उस का नाम मेरे से जुडे़ और बेकार में उस की बदनामी हो.

‘‘मुझे चुपचाप वहां से खिसकते देख कर उस ने जिस तरह से होंठ सिकोड़े थे मैं समझ गया था कि वह कह रही थी कायर. तब मैं खुद की नजरों में ही गिर गया और सोचने लगा कि क्या मैं उसे बदनामी से बचाने के लिए चुप रहा या सच में ही मैं कायर हूं? जाहिर है उस के बाद उस ने मुझ से कभी संपर्क नहीं किया. मैं यह जानता हूं कि वह जीवन में बहुत सुखी और सफल है. सफल और संपन्न तो मैं भी हूं बस अपनी कायरता के बारे में सोच कर ही दुखी रहता था पर आज इस अनजान युवती को बचाने के बाद लग रहा है कि मैं कायर नहीं हूं…’’

श्रेया और नहीं पढ़ सकी. एक अजीब सी संतुष्टि की अनुभूति में वह यह भी भूल गई कि उसे सुकून देने को ही तन्वी ने ‘हस्तियां’ कालम के संकलन भेजे थे और एक मनगढ़ंत कहानी छापना तन्वी के लिए मुश्किल नहीं था.

स्वीट सिक्सटीन: क्या कविता अच्छी मां बन पायी?

‘‘डाक्टरसाहब…’’ पीछे से किसी ने आवाज दी. मुड़ कर देखा तो 22-23 वर्ष की एक युवती हाथ के संकेत से किसी को बुला रही थी. भीड़ भरा रास्ता था. मैं यह जानने के लिए इधरउधर देखने लगा कि वह किसे बुला रही है.

‘‘अरे साहब, मैं आप को ही बुला रही हूं,’’ वह जरा तेज आवाज में बोली.

अगलबगल के लोग कभी उसे और कभी मु  झे घूरने लगे. उस के कटे बाल, बिना बांहे का ब्लाउज, शिफौन की साड़ी और दमकता हुआ इकहरा बदन किसी को भी आकर्षित करने के लिए काफी था. मेरे कदम उस की ओर बढ़ गए. करीब जा कर देखा तो पहचान गया. खुशी से बोला, ‘‘तो आप हैं?’’

‘‘तो आप क्या सम  झे थे?’’ वह हंस पड़ी. फिर बोली, ‘‘इतने दिनों बाद मिले हैं, छोड़ूंगी नहीं. चलिए, घर चल कर बातें करेंगे.’’

मैं खुद भी उस से बातें करने को उत्सुक था. कई बातें थीं जो उसे देखते ही मन में घुमड़ने लगी थीं.

‘‘बैठिए,’’ कार का दरवाजा खोल कर उस ने पहले मु  झे बैठाया, फिर खुद चालक की सीट पर बैठ कर बोली, ‘‘रास्ते में बातें न करना क्योंकि मैं ने हाल ही में कार चलानी सीखी है. कहीं ध्यान बंट गया तो दुर्घटना हो जाएगी.’’शद्मरू

उस से मेरी पहली मुलाकात पटना मैडिकल कालेज के अस्पताल में हुई थी. यह 16 साल पहले की बात है. मैं प्लास्टिक सर्जरी विभाग में हाउस सर्जन था. एक दिन वार्ड मेें प्रवेश करते ही मेरी निगाह पलंग नंबर 2 पर बैठी एक नई मरीज पर ठहर गई. वह कोई 12-13 साल की किशोरी थी. मैं सीधा उसी के पास पहुंचा.

‘‘क्या तकलीफ है तुम्हें,’’ मैं ने प्यार से पूछा.

‘‘कुछ भी नहीं,’’ वह मुसकराई.

मु  झे लगा शायद अभी उस के दूध के दांत भी नहीं टूटे हैं.

‘‘तो फिर यहां अस्पताल में क्यों आई हो?’’ मैं भी मुसकरा दिया.

‘‘यह देखने के लिए कि अस्पताल में कैसा लगता है,’’ उस ने तुरंत उत्तर दिया.

मैं पलंग के साथ लगा चार्ट देखने लगा. उस में मरीज की उम्र 16 वर्ष लिखी थी. मैं ने सोचा कि  शायद वह मरीज की छोटी बहन है. काफी दिनों से वार्ड में कोई अच्छी सूरत से अंदाज लगा कर इस की बड़ी बहन को देखने को उत्सुक हो उठा.

‘‘तुम्हारी बहन कहां है,’’ मैं ने व्यग्र हो कर पूछा.

‘‘कौन बहन?’’

‘‘जो यहां भरती है.’’

‘‘अच्छा वह… आप से मतलब…’’ वह शैतानी से बंद होंठों में मुसकराई.

‘‘मैं डाक्टर हूं, मरीजों का हाल देखने के वक्त मरीज को बिस्तर पर होना ही चाहिए,’’ मैं ने उस पर रोब   झाड़ते हुए कहा. मैं उस की बहन को जल्द से जल्द देखने को उत्सुक था.

‘‘आप डाक्टर हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं ही मरीज हूं,’’ वह रहस्यमय ढंग से हंसी.

अब मु  झे खीज होने लगी, ‘‘तुम मरीज को बुलाती क्यों नहीं.’’

‘‘तुम डाक्टर को बुलाओ, मैं मरीज को बुला दूंगी.’’ वह नाक सिकोड़ कर मुसकराई.

वार्ड के अन्य मरीज बड़ी दिलचस्पी से हमारी बातें सुन रहे थे. पलंग नंबर एक के मरीज ने कुछ बोलना चाहा, पर इस लड़की ने उसे डांट दिया, ‘‘तुम चुप रहो.’’

मैं खिसियाया सा डाक्टर कक्ष में आ गया. राजम्मा मु  झे देख कर प्यार से मुसकराई, लेकिन  उस समय मु  झे उस की मुसकान भी अच्छी न लगी.

‘‘नर्स, पलंग नंबर 2 की मरीज कहां है. उसे बोलो कि पलंग पर रहे,’’ यह कहता हुआ मैं दूसरे कक्ष में चला गया.

थोड़ी देर बाद मरीजों की मरहमपट्टी के लिए वार्ड में गया. तब भी वही लड़की बिस्तर पर बैठी हुई थी. मु  झे देख कर उस ने नाक सिकोड़ी तो मैं और चिढ़ गया.

‘‘पलंग नंबर 2 की मरीज कहां है?’’ मैं ने राजम्मा से पूछा.

‘‘वहां बैठी तो है.’’ राजम्मा ने आश्चर्य से मु  झे देखा.

मैं ने फिर ध्यान से उस लड़की को देखा. छोटा सा गोल चेहरा. 2 बड़ीबड़ी शरारती आंखें, छोटी सी नाक और 2 लंबी चोटियां. बिना बांहों के फ्रौक में वह छोटी सी बच्ची लग रही थी.

मु  झे ध्यान से अपनी ओर देखते हुए पा कर उस ने होंठों को गोल कर धीरे से सीटी बजा दी. मु  झे उस की हर हरकत बचकानी लग रही थी. किसी भी तरह यकीन नहीं हो रहा था कि वह 16 वर्ष (चार्ट में लिखी उम्र) की होगी.

डैसिंग करने के बाद मैं फिर उस के पास गया. पूछा, ‘‘तुम 16 साल की हो?’’ मैं अपने आश्चर्य को दबा नहीं पा रहा था.

उस ने पलकें   झपका कर स्वीकृति दी.

‘‘क्या तकलीफ है?’’

‘‘यह तो देख लिया कि मैं 16 साल की हूं. यह नहीं देखा कि मु  झे क्या तकलीफ है,’’ जवाब देने में उस ने एक पल भी नहीं लगाया.

उस की बातों से   झुं  झला कर मैं ने पुन: चार्ट देखा. चार्ट के अनुसार उस का 1 पांव

जल गया था. उस के अंदर पस पड़ गई थी, जिस से उसे चलने में तकलीफ होती थी. मैं ने पांव दिखाने को कहा तो उस ने दिखा दिया. उंगलियों के बीच 1-2 छेद भी हो गए थे. दबाने पर उस में से मवाद निकल पड़ता था. मैं ने उस पर पट्टी बांध दी. उस की हाजिरजवाबी के कारण कुछ और पूछने की हिम्मत नहीं हुई.

पट्टी बांध कर लौटा तो फिर ध्यान बराबर उसी लड़की पर जा रहा था. खयालों में खो कर मैं कई बार अपनेआप मुसकरा उठा. बराबर एक ही वाक्य होंठों पर आता यह तो बिलकुल बच्ची है.

दूसरे दिन वह अस्पताल के बरामदे में ही दिख गई. उस ने स्कर्टब्लाउज पहन रखा था तथा वही 2 चोटियां कर रखी थीं. वह मेरी ओर ही देख रही थी.

‘‘कहो, कैसी हो?’’ मैं ने करीब जा

कर कहा.

‘‘ठीक हूं, डाक्टर.’’

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘पलंग नंबर 2, जैसे जेल में कैदी नंबर फलांफलां होता है वैसे ही अस्पताल में मेरा नाम पलंग नंबर 2 है.’’

‘‘अस्पताल के बाहर का नाम क्या है?’’

‘‘बाहर की बात बाहर ही छोड़ आई हूं.’’

मु  झे गुस्सा आ गया. सोचा कि अजीब लड़की है, कोई बात सीधे ढंग से करती ही नहीं.

‘‘अच्छा, अपने पलंग पर चलो. डाक्टर के आने का समय हो गया है.’’

वह एक पैर से कूदती हुई नजरों से ओ  झल हो गई. मु  झे लगा जैसे कोई छोटी सी चिडि़या फुदकती हुई गुजर गई है.

‘‘तुम एक पैर से कूद कर क्यों चलती हो?’’ बाद में उस के पांव पर पट्टी बांधते हुए मैं ने पूछा.

‘‘दोनों पैंरो से चलने में दर्द जो होता है.’’

‘‘तुम दोनों पैरों से धीरेधीरे चला करो, ज्यादा दर्द नहीं होगा.’’

‘‘न बाबा, मु झे बहुत दर्द होता है.’’

मेरे सम  झाने पर भी वह एक पैर से ही चलती रही. कुल मिला कर वह मु  झे अच्छी लगती थी. धीरेधीरे हम दोनों में लगाव बढ़ता गया. कभीकभी वह मेरे कंधे पर हाथ रख कर एक पांव से कूदती हुई सारे वार्ड का चक्कर भी लगा लेती. वह बड़े डाक्टर की खास मरीज थी. अब मेरी भी दोस्त बन जाने के कारण सभी उस का खूब ध्यान रखते थे. स्वभाव से अच्छी होने के कारण उस ने छोटेबड़े सभी का दिल जीत रखा था. उस से नाराज थी तो केवल राजम्मा, जो सोचती थी कि उस के आने से मैं उस का न रहा, हालांकि मैं पहले भी राजम्मा का न था.

एक दिन वह मु  झे कहीं न दिखी. पूरे वार्ड का चक्कर लगाने के बाद मैं बरामदे में गया तो देखा वह बैठी रो रही है.

‘‘अरे, क्या हुआ?’’ मैं ने उस के निकट आ कर पूछा.

‘‘देखते नहीं कि कितना खून निकल

रहा है.’’

उस के पैर में शायद चोट लग गई थी, घाव से खून निकल रहा था.

‘‘चोट कैसे लगी?’’

‘‘फिसल गई,’’ वह फिर सुबक पड़ी.

‘‘बहुत दर्द हो रहा है?’’ मैं ने हमदर्दी

से पूछा.

‘‘दर्द तो अधिक नहीं हो रहा है, पर खून बहुत निकल रहा है,’’ और वह और जोर से रोने लगी.

‘‘अच्छा उठो, मेरा सहारा ले कर चलो, पट्टी बांध देता हूं. ठीक हो जाएगा.’’

‘‘कैसे चलूं. दर्द होगा.’’

‘‘दूसरा पैर ठीक है न, उस से चलो.’’

‘‘नहीं, दर्द होगा.’’

‘‘अच्छा रुको, मैं पहिए वाली कुरसी मंगवाता हूं.’’

‘‘नहीं, आप मत जाओ,’’ उस ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. रोरो कर उस की आंखें लाल हो रही थीं. न जाने कब से रो रही थी और कोई रास्ता न देख कर मैं ने उसे अपनी बांहों में उठा लिया और मरहमपट्टी करने वाले कमरे में ले जा कर बैंच पर बैठा दिया. बैठाते वक्त उस के गालों पर पहली बार मैं ने शर्म की लाली देखी. उस की आंखें   झुकी हुई थीं.

लड़कियों के 16वें साल के विषय में सुना तो बहुत कुछ था, पर भावनात्मक स्तर पर पहली बार कुछ महसूस कर रहा था. वह बहुत सुंदर लग रही थी. मैं खड़ा मुग्धभाव  से उसे देखता रहा और वह लजाती रही.

तभी राजम्मा आ गई. उस का चेहरा क्रोध से लाल हो रहा था. पट्टी बांधने में उस ने मदद की, पर पूरा समय वह नाराज दिखती रही. राजम्मा के गुस्से से कविता थोड़ा सहम गई. डाक्टर के डर से राजम्मा कविता को कुछ कहती न थी, पर उस का व्यवहार उस के प्रति रूखा ही रहा.

उस दिन के बाद कविता मु  झे देखते ही   झेंप जाती. उसे बांहों में उठाने की बात बड़े डाक्टर को भी पता चल गई थी. एक दिन उन्होंने पूछा भी, ‘‘क्यों डाक्टर सतीश, यह कविता वाली क्या बात है?’’

‘‘सर, कुछ परिस्थिति ही ऐसी बन गई थी,’’ शर्म से मेरा चेहरा लाल हो गया.

‘‘भई, तुम्हारे दिल में कोई बात हो तो कहो, मैं उस के पिताजी से बात करूंगा.’’

‘‘नहीं, वह तो बिलकुल बच्ची है, मैं ऐसी बात सोच भी नहीं सकता,’’ मैं हकलाया.

‘‘वह बच्ची है, पर तुम तो नहीं. यहां उस की जिम्मेदारी मु  झ पर है,’’ उन्होंने कुछ गंभीरता से कहा.

इस घटना के बाद से मैं कविता के करीब बहुत कम जाता. इस बीच मैं ने एक बात और महसूस की और वह यह कि उस से मिलने उस के मातापिता नहीं आते थे. एक दिन उस से पूछा भी था, पर वह चुप रही.

कुछ दिनों के बाद बड़े डाक्टर ने बताया कि उस की मां नहीं है और पिता अपने व्यापार में इतने व्यस्त रहते हैं कि बेटी के लिए समय ही नहीं निकाल पाते.

एक दिन अचानक ही उस के पिता आए और उसे ले गए. उस दिन मैं छुट्टी पर था. जाते समय उस से मेरे खयालों की तंद्रा टूटी. कार एक खूबसूरत बंगले के बाहर खड़ी थी.

बंगले के अंदर प्रवेश करते ही लगभग 14-15 वर्ष के एक लड़के और 11-12 वर्ष की एक लड़की पर दृष्टि पड़ी. दोनों दौड़ कर कविता से लिपट गए.

‘‘मां, मेरा सामान लाई हो,’’ दोनों ने लगभग एकसाथ पूछा.

‘‘हांहां, सब लाई हूं. पहले इन से मिलो, ये डाक्टर सतीश हैं. तुम्हारे नए चाचा,’’ फिर मु  झ से बोली, ‘‘ये मेरा बेटा मन और मेरी बेटी मीत हैं.’’

मैं चौंक पड़ा. वह अपने बेटे से कुछ ही वर्ष बड़ी लग रही थी. मन में सोचा शायद ये इस के सौतेले बच्चे हों.

दोनों बच्चे मु  झे नमस्ते कह कर वार्ड से चले गए.

‘‘ये दोनों बच्चे तुम्हारे पति की पहली पत्नी से हैं?’’

‘‘ओह नहीं… पहले मु  झे 16 साल की नहीं मानते थे और आज मेरे बच्चों को ही दूसरों का बता रहे हो श्रीमानजी… ये मेरे अपने बच्चे हैं.’’

मु  झे लगा वह फिर मु  झ से कोई शरारत कर रही है.

‘‘अच्छा बताओ तुम मेरी उम्र कितनी सम  झते हो?’’ मेरी निगाहों में भरे संदेह को पढ़ कर वह बोली.

‘‘अधिक से अधिक 22 वर्ष,’’ मैं ने अपना अनुमान बताया.

‘‘धत, मैं इन बातों से खुश नहीं होती. जनाब, मेरी उम्र 32 वर्ष है.’’

मैं ने ध्यान से हिसाब लगाया तो वह सचमुच 32 साल की थी. लेकिन लगता था जैसे वक्त ने उस के मासूम चेहरे पर कोई छाप ही न छोड़ी हो.

अचानक मु  झे अपनी मोटी पत्नी का ध्यान हो आया. वह अभी 28 वर्ष की ही है, लेकिन लोग उसे मेरी भाभी सम  झते हैं.

‘‘पटना से यहां आते ही पिताजी ने मेरी शादी कर दी. आज के युग में भी तमाम बालविवाह होते हैं. 18 वर्ष की उम्र में मैं मां बन गई. आज मेर बेटा 14 वर्ष का और बेटी 12 वर्ष की है,’’ कविता ने बताया.

‘‘तुम्हारे पति कहां हैं?’’

‘‘वे हमें छोड़ हैं,’’ उस के चेहरे पर उदासी तैर आई.

मैं ने कुछ और पूछ कर उस का दिल दुखाना उचित न सम  झा.

नौकर नाश्ता लगा गया. नाश्ते के बाद मैं लौटने लगा तो उस ने कहा कि मैं अपनी पत्नी के साथ उस के घर आता रहूं.

रात में घर वापस आने में थोड़ी देर हो गई, पत्नी के खर्राटों की आवाज बैठक तक आ रही थी. मन उस के प्रति क्रोध और उपेक्षा से भर गया. कपड़े बदल कर बिस्तर पर लेटा तो पुन: कविता के खयाल ने आ घेरा. सोचने लगा, ‘आज अचानक इतने दिनों बाद मिले भी तो किस रूप में. बेचारी को वैधव्य का जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है. 2 बच्चे हैं, उन्हीं के सहारे जीवन काट रही है. काश, मैं ने उस के साथ विवाह की बात से इनकार न किया होता तो आज वह भी सुखी होती और मैं भी. आज वह पति खो चुकी है और मु  झे पसंद की पत्नी नहीं मिली. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं अपनी पत्नी से तलाक ले लूं और कविता के दुखों को समेट लूं? उस का और मेरा दोनों का जीवन सुखमय हो जाएगा. काश, ऐसा हो सकता. यदि कविता तैयार हो तो मैं उसे अवश्य अपना लूंगा.’

रात इन्हीं विचारों में गुजर गई. सुबह नहाधो कर सीधा कविता के बंगले पर पहुंचा. रास्ताभर सोचता रहा कि किस प्रकार बात आरंभ करूंगा.

बैठक से कैरम खेलने की आवाज आ रही थी, मु  झे देखते ही मन और मीत ने नमस्ते की.

‘‘चाचाजी, आज आप हमारे साथ खेल कर मां को मात दिला दें.’’

‘‘मैं हमेशा इन से जीतती हूं, ये दोनों शैतान मु  झ से जीतने के लिए खूब बेईमानी भी करते हैं,’’ कविता ने कहा.

बिना बांहों की गुलाबी मैक्सी में वह बहुत ही सुंदर लग रही थी. यह सम  झना मुश्किल था कि तीनों में   झूठ कौन बोल रहा है.

‘‘हाय,’’ अचानक कविता उठी और दरवाजे की ओर दौड़ी. वह दरवाजे पर खड़े एक खूबसूरत नौजवान से लिपट कर रोने लगी. वह नौजवान उस की पीठ थपथपा रहा था. दोनों बच्चे होंठों ही होंठों में मुसकरा रहे थे. चंद लमहों के बाद वह संभली.

‘‘पिताजी, यात्रा कैसी रही?’’ मन ने पूछा.

पिताजी यानी यह कविता का पति है. मैं आश्चर्य से उसे देख रहा था.

‘‘राकेश, ये डाक्टर सतीश हैं और सतीश ये मेरे पति राकेश हैं,’’ कविता ने हमारा परिचय कराया.

दोनों बच्चे और कविता सामान ले कर अंदर जा चुके थे. ‘‘आप कविता के पति हैं, लेकिन कविता तो कह रही थी…’’

‘‘कि मैं उसे छोड़ कर चला गया हूं,’’ राकेश ने ठहाका लगाया, ‘‘जब भी मैं बाहर जाता हूं वह हर किसी से यही कहती है. इस में उस का दोष नहीं है, वह मु  झ से एक पल भी अलग नहीं रह सकती. जब मैं बाहर जाता हूं तो वह यह महसूस करती है कि मैं हमेशा के लिए उसे छोड़ गया हूं.’’

मेरा खूबसूरत स्वप्न बीच में ही टूट गया था. लेकिन यह सोच कर मु  झे संतोष हो रहा था कि कविता के सम्मुख अपना प्रणय प्रस्ताव रखने से मैं बालबाल बच गया.

‘‘चलो, नहा लो. मु  झे मालूम था कि आज तुम आओगे. मैं ने तुम्हारी पसंद का खाना भी बनाया है,’’ कविता ने कहा. पति से मिलने के बाद वह और भी सुंदर लग रही थी.

‘‘क्षमा कीजिए.’’ कह कर राकेश अंदर

चले गए.

कविता बैठी मु  झ से बातें करती रही. कुछ देर बाद बोली, ‘‘खाना खा कर ही जाना. मैं तुम्हें आज ऐसे नहीं जाने दूंगी.’’

शायद जिंदगी में पहली बार मु  झे घर के से माहौल में स्वादिष्ठ भोजन मिला.

‘‘तुम्हारे खानसामा तो कमाल का खाना बनाया है,’’ मैं ने कहा.

‘‘खाना मैं ने बनाया है, जनाब, पति और बच्चों की हर सेवा मैं स्वयं कररती हूं,’’ कविता के होंठों पर प्यारभरी मुसकान थी.

घर लौटते समय मैं सोच रहा था कि कविता एक वफादार पत्नी और मां है. फिर भी कितना बचपना है उस में शतरंज के खेल में वह बच्चों से भी  झगड़ रही थी. शायद 16वां साल उस में स्थाई रूप से बस गया है. काश, हम सब भी अपनी किशोरावस्था को अपने साथ जीवनभर ले कर चलते. जीवन कितना खुशगवार होता न. 65 साल का मैं जब 12 साल की पोती के साथ शतरंज पर लड़ता, मुझे लगा कितना अच्छा रहता.

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