नींव: क्या थी रितू की जेठानी की असलियत

विवेकवेक ने लंच ब्रेक के दौरान मोबाइल पर मुझे जो जानकारी दी उस ने मुझे चिंता से भर दिया.

‘‘विनोद भैया ने किराए का मकान ढूंढ़ लिया है. मुझे उन के दोस्त ने बताया है कि

2 हफ्ते बाद वे शिफ्ट कर जाएंगे,’’ विवेक की आवाज में परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे.

‘‘हमें उन्हें जाने से रोकना होगा,’’ मैं एकदम बेचैन हो उठी.

‘‘बिलकुल रोकना होगा, रितु. अब रिश्तेदार और महल्ले वाले हम पर कितना हंसेंगे. तुम आज शाम ही भाभी को समझना. मैं भी बड़े भैया को अभी फोन करता हूं.’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने उन्हें फौरन टोका, ‘‘अभी आप किसी से इस विषय पर कोई बात न करना प्लीज. यह मामला समझनेबुझने से नहीं सुधरेगा.’’

‘‘फिर कैसे बात बनेगी?’’

‘‘पहले शाम को हम आपस में विचारविमर्श करेंगे फिर कोई कदम उठाएंगे.’’

‘‘ओ. के.’’

इधरउधर की कुछ और बातें करने के बाद मैं ने फोन काट दिया. खाना खाने का मन नहीं कर रहा था. मैं ने आंखें मूंद लीं और वर्तमान समस्या के बारे में सोचविचार करने लगी…

संयुक्त परिवार की बहू बन कर सुसराल आए मुझे अभी सालभर भी नहीं हुआ है. अब मेरे जेठजेठानी अलग होने की सोच रहे हैं. इस कारण मैं परेशान तो हूं, पर मेरी परेशानी का कारण जगहंसाई का डर नहीं है.

संयुक्त परिवार से जुड़े रहने के फायदों को, उस की सुरक्षा को मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर जानती हूं.

मेरे पापा का दिल के दौरे से जब अचानक देहांत हुआ, तब मैं बी.कौम. के अंतिम वर्ष में पढ़ रही थी. साथ रह रहे मेरे दोनों चाचाओं का पूरा सहयोग हमारे परिवार को न मिला होता, तो मेरी कालेज की पढ़ाई बड़ी कठिनाई से पूरी होती. फिर बाद में जो मैं ने एमबीए भी किया, उस डिगरी को प्राप्त करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था.

एमबीए करने के बाद मुझे अच्छी नौकरी मिली, तो मैं अपने संयुक्त परिवार का मजबूत स्तंभ बन गई. अपने छोटे भाई को इंजीनियर व बड़े चाचा के बेटे को डाक्टर बनाने में मेरी पगार का पूरा योगदान रहा. अपनी शादी का लगभग पूरा खर्चा मैं ने ही उठाया. मेरे मायके में संयुक्त परिवार की नींव आज भी मजबूत है.

अपनी ससुराल में भी मैं संयुक्त परिवार की जड़ों को उखड़ने नहीं देना चाहती हूं. काफी सोचविचार के बाद मैं अपने बौस अमन साहब से मिलने उठ खड़ी हुई. वे मुझे बहुत मानते हैं और इस समस्या के समाधान के लिए मैं उन की सहायता व सहयोग पाने की इच्छुक थी.

शाम को घर में घुसते समय मेरे पास सब को सुनाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण खबर

थी. उसे मैं शानदार अभिनय करते हुए सुनाना चाहती थी, पर वैसा कुछ हो नहीं सका क्योंकि मेरी सासूमां संध्या भाभी पर बु%B

कभी नहीं: क्या गायत्री को समझ आई मां की अहमियत

‘‘पहली नजर से जीवनभर जुड़ने के नातों पर विश्वास है तुम्हें?’’ सूखे पत्तों को पैरों के नीचे कुचलते हुए रवि ने पूछा.

कड़ककड़क कर पत्तों का टूटना देर तक विचित्र सा लगता रहा गायत्री को. बड़ीबड़ी नीली आंखें उठा कर उस ने भावी पति को देखा, ‘‘क्या तुम्हें विश्वास है?’’

गायत्री ने सोचा, उस के प्रेम में आकंठ डूब चुका युवा प्रेमी कहेगा, ‘है क्यों नहीं, तभी तो संसार की इतनी लंबीचौड़ी भीड़ में बस तुम मिलते ही इतनी अच्छी लगीं कि तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना ही शून्य हो गई.’ चेहरे पर गुलाबी रंगत लिए वह कितना कुछ सोचती रही उत्तर की प्रतीक्षा में, परंतु जवाब न मिला.तनिक चौंकी गायत्री, चुप रवि असामान्य सा लगा उसे. सारी चुहलबाजी कहीं खो सी गई थी जैसे. हमेशा मस्त बना रहने वाला ऐसा चिंतित सा लगने लगा मानो पूरे संसार की पीड़ा उसी के मन में आ समाई हो.

उसे अपलक निहारने लगा. एकबारगी तो गायत्री शरमा गई. मन था, जो बारबार वही शब्द सुनना चाह रहा था. सोचने लगी, ‘इतनी मीठीमीठी बातों के लिए क्या रवि का तनाव उपयुक्त है? कहीं कुछ और बात तो नहीं?’ वह जानती थी रवि अपनी मां से बेहद प्यार करता है. उसी के शब्दों में, ‘उस की मां ही आज तक उस का आदर्श और सब से घनिष्ठ मित्र रही हैं. उस के उजले चरित्र के निर्माण की एकएक सीढ़ी में उस की मां का साथ रहा है.’एकाएक उस का हाथ पकड़ लिया गायत्री ने रोक कर वहीं बैठने का आग्रह किया. फिर बोली, ‘‘क्या मां अभी तक वापस नहीं आईं जो मुझ से ऐसा प्रश्न पूछ रहे हो? क्या बात है?’’

रवि उस का कहना मान वहीं सूखी घास पर बैठ गया. ऐसा लगा मानो अभी रो पड़ेगा. अपनी मां के वियोग में वह अकसर इसी तरह अवश हो जाया करता है, वह इस सत्य से अपरिचित नहीं थी.

‘‘क्या मां वापस नहीं आईं?’’ उस ने फिर पूछा.

रवि चुप रहा.‘‘कब तक मां की गोद से ही चिपके रहोगे? अच्छीखासी नौकरी करने लगे हो. कल को किसी और शहर में स्थानांतरण हो गया तब क्या करोगे? क्या मां को भी साथसाथ घसीटते फिरोगे? तुम्हारे छोटे भाईबहन दोनों की जिम्मेदारी है उन पर. तुम क्या चाहते हो, पूरी की पूरी मां बस तुम्हारी ही हों? तुम्हारे पिता और उन दोनों का भी तो अधिकार है उन पर. रवि, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘ऐसा लगता है, मेरा कुछ खो गया है. जी ही नहीं लगता गायत्री.  पता नहीं, मन में क्याक्या होता रहता है.’’

‘‘तो जा कर मां को ले आओ न. उन्हें भी तो पता है, तुम उन के बिना बीमार हो जाते हो. इतने दिन फिर वे क्यों रुक गईं?’’ अनायास हंस पड़ी गायत्री. धीरे से रवि का हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाने लगी, ‘‘शादी के बाद क्या करोगे? तब मेरे हिस्से का प्यार क्या मुझे मिल पाएगा? अगर मुझे ही तुम्हारी मां से जलन होने लगी तो? हर चीज की एक सीमा होती है. अधिक मीठा भी कड़वा लगने लगता है, पता है तुम्हें?’’

रवि गायत्री की बड़ीबड़ी नीली आंखों को एकटक निहारने लगा.

‘‘मां तो वे तुम्हारी हैं ही, उन से तुम्हारा स्नेह भी स्वाभाविक ही है लेकिन वक्त के साथसाथ उस स्नेह में परिपक्वता आनी चाहिए. बच्चों की तरह मां का आंचल अभी तक पकड़े रहना अच्छा नहीं लगता. अपनेआप को बदलो.’’

‘‘मैं अब चलूं?’’ एकाएक वह उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘कल मिलोगी न?’’

‘‘आज की तरह गरदन लटकाए ही मिलना है तो रहने दो. जब सचमुच मिलना चाहो, तभी मिलना वरना इस तरह मिलने का क्या अर्थ?’’ एकाएक गायत्री खीज उठी. वह कड़वा कुछ भी कहना तो नहीं चाहती थी पर व्याकुल प्रेमी की जगह उसे व्याकुल पुत्र तो नहीं चाहिए था न. हर नाते, हर रिश्ते की अपनीअपनी सीमा, अपनीअपनी मांग होती है.

‘‘नाराज क्यों हो रही हो, गायत्री? मेरी परेशानी तुम क्या समझो, अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’

‘‘क्या समझाना है मुझे, जरा बताओ? मेरी तो समझ से भी बाहर है तुम्हारा यह बचपना. सुनो, अब तभी मिलना जब मां आ जाएं. इस तरह 2 हिस्सों में बंट कर मेरे पास मत आना.’’गायत्री ने विदा ले ली. वह सोचने लगी, ‘रवि कैसा विचित्र सा हो गया है कुछ ही दिनों में. कहां उस से मिलने को हर पल व्याकुल रहता था. उस की आंखों में खो सा जाता था.’   भविष्य के सलोने सपनों में खोए भावी पति की जगह एक नादान बालक को वह कैसे सह सकती थी भला. उस की खीज और आक्रोश स्वाभाविक ही था. 2 दिन वह जानबूझ कर रवि से बचती रही. बारबार उस का फोन आता पर किसी न किसी तरह टालती रही. चाहती थी, इतना व्याकुल हो जाए कि स्वयं उस के घर चल कर आ जाए. तीसरे दिन सुबहसुबह द्वार पर रवि की मां को देख कर गायत्री हैरान रह गई. पूरा परिवार समधिन की आवभगत में जुट गया.

‘‘तुम से अकेले में कुछ बात करनी है,’’ उस के कमरे में आ कर धीरे से मां बोलीं तो कुछ संशय सा हुआ गायत्री को.

‘‘इतने दिन से रवि घर ही नहीं आया बेटी. मैं कल रात लौटी तो पता चला. क्या वह तुम से मिला था?’’ ‘‘जी?’’ वह अवाक् रह गई, ‘‘2 दिन पहले मिले थे. तब उदास थे आप की वजह से.’’

‘‘मेरी वजह से उसे क्या उदासी थी? अगर उसे पता चल गया कि मैं उस की सौतेली मां हूं तो इस में मेरा क्या कुसूर है. लेकिन इस से क्या फर्क पड़ता है?

‘‘वह मेरा बच्चा है. इस में संशय कैसा? मैं ने उसे अपने बच्चों से बढ़ कर समझा है. मैं उस की मां नहीं तो क्या हुआ, पाला तो मां बन कर है न?’’ ऐसा लगा, जैसे बहुत विशाल भवन भरभरा कर गिर गया हो. न जाने मां कितना कुछ कहती रहीं और रोती रहीं, सारी कथा गायत्री ने समझ ली. कांच की तरह सारी कहानी कानों में चुभने लगी. इस का मतलब है कि इसी वजह से परेशान था रवि और वह कुछ और ही समझ कर भाषणबाजी करती रही.

‘‘उसे समझा कर घर ले आ, बेटी. सूना घर उस के बिना काटने को दौड़ता है मुझे. उसे समझाना,’’ मां आंसू पोंछते हुए बोलीं.

‘‘जी,’’ रो पड़ी गायत्री स्वयं भी, सोचने लगी, कहां खोजेगी उसे अब? बेचारा बारबार बुलाता रहा. शायद इस सत्य की पीड़ा को उसे सुना कर कम करना चाहता होगा और वह अपनी ही जिद में उसे अनसुना करती रही.

मां आगे बोलीं, ‘‘मैं ने उसे जन्म नहीं दिया तो क्या मैं उस की मां नहीं हूं? 2 महीने का था तब, रातों को जागजाग कर उसे सुलाती रही हूं. कम मेहनत तो नहीं की. अब क्या वह घर ही छोड़ देगा? मैं इतनी बुरी हो गई?’’

‘‘वे आप से बहुत प्यार करते हैं मांजी. उन्हें यह बताया ही किस ने? क्या जरूरत थी यह सच कहने की?’’

‘‘पुरानी तसवीरें सामने पड़ गईं बेटी. पिता के साथ अपनी मां की तसवीरें दिखीं तो उस ने पिता से पूछ लिया, ‘आप के साथ यह औरत कौन है?’ वे बात संभाल नहीं पाए, झट से बोल पड़े, ‘तुम्हारी मां हैं.’

‘‘बहुत रोया तब. ये बता रहे थे. बारबार यही कहता रहा, ‘आप ने बताया क्यों? यही कह देते कि आप की पहली पत्नी थी. यह क्यों कहा कि मेरी मां भी थी.’

‘‘अब जो हो गया सो हो गया बेटी, इस तरह घर क्यों छोड़ दिया उस ने? जरा सोचो, पूछो उस से?’’

किसी तरह भावी सास को विदा तो कर दिया गायत्री ने परंतु मन में भीतर कहीं दूर तक अपराधबोध सालने लगा, कैसी पागल है वह और स्वार्थी भी, जो अपना प्रेमी तलाशती रही उस इंसान में जो अपना विश्वास टूट जाने पर उस के पास आया था.उसे महसूस हो रहा होगा कि उस की मां कहीं खो गई है. तभी तो पहली नजर से जीवनभर जुड़ने के नातों में विश्वास का विषय शुरू किया होगा. कुछ राहत चाही होगी उस से और उस ने उलटा जलीकटी सुना कर भेज दिया. मातापिता और दोनों छोटे भाई समीप सिमट आए. चंद शब्दों में गायत्री ने उन्हें सारी कहानी सुना दी.

‘‘तो इस में घर छोड़ देने वाली क्या बात है? अभी फोन आएगा तो उसे घर ही बुला लेना. हम सब मिल कर समझाएंगे उसे. यही तो दोष है आज की पीढ़ी में. जोश से काम लेंगे और होश का पता ही नहीं,’’ पिताजी गायत्री को समझाने लगे.

फिर आगे बोले, ‘‘कैसा कठोर है यह लड़का. अरे, जब मां ही बन कर पाला है तो नाराजगी कैसी? उसे भूखाप्यासा नहीं रखा न. उसे पढ़ायालिखाया है, अपने बच्चों जैसा ही प्यार दिया है. और देखो न, कैसे उसे ढूंढ़ती हुई यहां भी चली आईं. अरे भई, अपनी मां क्या करती है, यही सब न. अब और क्या करें वे बेचारी?

‘‘यह तो सरासर नाइंसाफी है रवि की. अरे भई, उस के कार्यालय का फोन नंबर है क्या? उस से बात करनी होगी,’’ पिता दफ्तर जाने तक बड़बड़ाते रहे.

छोटा भाई कालेज जाने से पहले धीरे से पूछने लगा, ‘‘क्या मैं रवि भैया के दफ्तर से होता जाऊं? रास्ते में ही तो पड़ता है. उन को घर आने को कह दूंगा.’’

गायत्री की चुप का भाई ने पता नहीं क्या अर्थ लिया होगा, वह दोपहर तक सोचती रही. क्या कहती वह भाई से? इतना आसान होगा क्या अब रवि को मनाना. कितनी बार तो वह उस से मिलने के लिए फोन करता रहा था और वह फोन पटकती रही थी. शाम को पता चला रवि इतने दिनों से अपने कार्यालय भी नहीं गया.

‘क्या हो गया उसे?’ गायत्री का सर्वांग कांप उठा.

मां और पिताजी भी रवि के घर चले गए पूरा हालचाल जानने. भावी दामाद गायब था, चिंता स्वाभाविक थी. बाद में भाई बोला, ‘‘वे अपने किसी दोस्त के पास रहते हैं आजकल, यहीं पास ही गांधीनगर में. तुम कहो तो पता करूं. मैं ने पहले बताया नहीं. मुझे शक है, तुम उन से नाराज हो. अगर तुम उन्हें पसंद नहीं करतीं तो मैं क्यों ढूंढ़ने जाऊं. मैं ने तुम्हें कई बार फोन पटकते देखा है.’’

‘‘ऐसा नहीं है, अजय,’’ हठात निकल गया होंठों से, ‘‘तुम उन्हें घर ले आओ, जाओ.’’

बहन के शब्दों पर भाई हैरान रह गया. फिर हंस पड़ा, ‘‘3-4 दिन से मैं तुम्हारा फोन पटकना देख रहा हूं. वह सब क्या था? अब उन की इतनी चिंता क्यों होने लगी? पहले समझाओ मुझे. देखो गायत्री, मैं तुम्हें समझौता नहीं करने दूंगा. ऐसा क्या था जिस वजह से तुम दोनों में अबोला हो गया?’’

‘‘नहीं अजय, उन में कोई दोष नहीं है.’’

‘‘तो फिर वह सब?’’

‘‘वह सब मेरी ही भूल थी. मुझे ही ऐसा नहीं करना चाहिए था. तुम पता कर के उन्हें घर ले आओ,’’ रो पड़ी गायत्री भाई के सामने अनुनयविनय करते हुए.

‘‘मगर बात क्या हुई थी, यह तो बताओ?’’

‘‘मैं ने कहा न, कुछ भी बात नहीं थी.’’ अजय भौचक्का रह गया.

‘‘अच्छा, तो मैं पता कर के आता हूं,’’ बहन को उस ने बहला दिया.

मगर लौटा खाली हाथ ही क्योंकि उसे रवि वहां भी नहीं मिला था. बोला, ‘‘पता चला कि सुबह ही वहां से चले गए रवि भैया. उन के पिता उन्हें आ कर साथ ले गए.’’

‘‘अच्छा,’’ गायत्री को तनिक संतोष हो गया.

‘‘उन की मां की तबीयत अच्छी नहीं थी, इसीलिए चले गए. पता चला, वे अस्पताल में हैं.’’चुप रही गायत्री. मां और पिताजी का इंतजार करने लगी. घर में इतनी आजादी और आधुनिकता नहीं थी कि खुल कर भावी पति के विषय में बातें करती रहे. और छोटे भाई से तो कदापि नहीं. जानती थी, भाई उस की परेशानी से अवगत होगा और सचमुच वह बारबार उस से कह भी रहा था, ‘‘उन के घर फोन कर के देखूं? तुम्हारी सास का हालचाल…’’

‘‘रहने दो. अभी मां आएंगी तो पता चल जाएगा.’’

‘‘तुम भी तो रवि भैया के विषय में पूछ लो न.’’

भाई ने छेड़ा या गंभीरता से कहा, वह समझ नहीं पाई. चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चली गई. काफी रात गए मां और पिताजी घर लौटे. उस समय कुछ बात न हुई. परंतु सुबहसुबह मां ने जगा दिया, ‘‘कल रात ही रवि की माताजी को घर लाए, इसीलिए देर हो गई. उन की तबीयत बहुत खराब हो गई थी. खानापीना सब छोड़ रखा था उन्होंने. रवि मां के सामने आ ही नहीं रहा था. पता नहीं क्या हो गया इस लड़के को. बड़ी मुश्किल से सामने आया.‘‘क्या बताऊं, कैसे बुत बना टुकुरटुकुर देखता रहा. मां को घर तो ले गया है, परंतु कुछ बात नहीं करता. तुम्हें बुलाया है उस की मां ने. आज अजय के साथ चली जाना.’’

‘‘मैं?’’ हैरान रह गई गायत्री.

‘‘कोई बात नहीं. शादी से पहले पति के घर जाने का रिवाज हमारी बिरादरी में नहीं है, पर अब क्या किया जाए. उस घर का सुखदुख अब इस घर का भी तो है न.’’

गायत्री ने गरदन झुका ली. कालेज जाते हुए भाई उसे उस की ससुराल छोड़ता गया. पहली बार ससुराल की चौखट पर पैर रखा. ससुर सामने पड़ गए. बड़े स्नेह से भीतर ले गए. फिर ननद और देवर ने घेर लिया. रवि की मां तो उस के गले से लग जोरजोर से रोने लगीं. ‘‘बेटी, मैं सोचती थी मैं ने अपना परिवार एक गांठ में बांध कर रखा है. रवि को सगी मां से भी ज्यादा प्यार दिया है. मैं कभी सौतेली नहीं बनी. अब वह क्यों सौतेला हो गया? तुम पूछ कर बताओ. क्या पता तुम से बात करे. हम सब के साथ वह बात नहीं करता. मैं ने उस का क्या बिगाड़ दिया जो मेरे पास नहीं आता. उस से पूछ कर बताओ गायत्री.’’ विचित्र सी व्यथा उभरी हुई थी पूरे परिवार के चेहरे पर. जरा सा सच ऐसी पीड़ादायक अवस्था में ले आएगा, किस ने सोचा होगा.

‘‘भैया अपने कमरे में हैं, भाभी. आइए,’’ ननद ने पुकारा. फिर दौड़ कर कुछ फल ले आई, ‘‘ये उन्हें खिला देना, वे भूखे हैं.’’

गायत्री की आंखें भर आईं. जिस परिवार की जिम्मेदारी शादी के बाद संभालनी थी, उस ने समय से पूर्व ही उसे पुकार लिया था. कमरे का द्वार खोला तो हैरान रह गई. अस्तव्यस्त, बढ़ी दाढ़ी में कैसा लग रहा था रवि. आंखें मींचे चुपचाप पड़ा था. ऐसा प्रतीत हुआ मानो महीनों से बीमार हो. क्या कहे वह उस से? कैसे बात शुरू करे? नाराज हो कर उस का भी अपमान कर दिया तो क्या होगा? बड़ी मुश्किल से समीप बैठी और माथे पर हाथ रखा, ‘‘रवि.’’

आंखें सुर्ख हो गई थीं रवि की. गायत्री ने सोचा, क्या रोता रहता है अकेले में? मां ने कहा था वह पत्थर सा हो गया है.

‘‘रवि यह, यह क्या हो गया है तुम्हें?’’ अपनी भूल का आभास था उसे. बलात होंठों से निकल गया, ‘‘मुझे माफ कर दो. मुझे तुम्हारी बात सुननी चाहिए थी. मुझ से ऐसा क्या हो गया, यह नहीं होना चाहिए था,’’ सहसा स्वर घुट गया गायत्री का. वह रवि, जिस ने कभी उस का हाथ भी नहीं पकड़ा था, अचानक उस की गोद में सिर छिपा कर जोरजोर से रोने लगा. उसे दोनों बांहों में कस के बांध लिया. उसे इस व्यवहार की आशा कहां थी. पुरुष भी कभी इस तरह रोते हैं. गायत्री को बलिष्ठ बांहों का अधिकार निष्प्राण करने लगा. यह क्या हो गया रवि को? स्वयं को छुड़ाए भी तो कैसे? बालक के समान रोता ही जा रहा था.

‘‘रवि, रवि, बस…’’ हिम्मत कर के उस का चेहरा सामने किया.

‘‘ऐसा लगता है मैं अनाथ हो गया हूं. मेरी मां मर गई हैं गायत्री, मेरी मां मर गई हैं. उन के बिना कैसे जिंदा रहूं, कहां जाऊं, बताओ?’’

उस के शब्द सुन कर गायत्री भी रो पड़ी. स्वयं को छुड़ा नहीं पाई बल्कि धीरे से अपने हाथों से उस का चेहरा थपथपा दिया.

‘‘ऐसा लगता है, आज तक जितना जिया सब झूठ था. किसी ने मेरी छाती में से दिल ही खींच लिया है.’’

‘‘ऐसा मत सोचो, रवि. तुम्हारी मां जिंदा हैं. वे बीमार हैं. तुम कुछ नहीं खाते तो उन्होंने भी खानापीना छोड़ रखा है. उन के पास क्यों नहीं जाते? उन में तो तुम्हारे प्राण अटके हैं न? फिर क्यों उन्हें इस तरह सता रहे हो?’’

‘‘वे मेरी मां नहीं हैं, पिताजी ने बताया.’’

‘‘बताया, तो क्या जुर्म हो गया? एक सच बता देने से सारा जीवन मिथ्या कैसे हो गया?’’

‘‘क्या?’’ रवि टुकुरटुकुर उस का मुंह देखने लगा. क्षणभर को हाथों का दबाव गायत्री के शरीर पर कम हो गया.

‘‘वे मुझ बिन मां के बच्चे पर दया करती रहीं, अपने बचों के मुंह से छीन मुझे खिलाती रहीं, इतने साल मेरी परछाईं बनी रहीं. क्यों? दयावश ही न. वे मेरी सौतेली मां हैं.’’

‘‘दया इतने वर्षों तक नहीं निभाई जाती रवि, 2-4 दिन उन के साथ रहे हो क्या, जो ऐसा सोच रहे हो? वे बहुत प्यार करती हैं तुम से. अपने बच्चों से बढ़ कर हमेशा तुम्हें प्यार करती रहीं. क्या उस का मोल इस तरह सौतेला शब्द कह कर चुकाओगे? कैसे इंसान हो तुम?’’ एकाएक उसे परे हटा दिया गायत्री ने. बोली, ‘‘उन्हें सौतेला जान जो पीड़ा पहुंची थी, उस का इलाज उन्हीं की गोद में है रवि, जिन्होंने तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया. मेरी गोद में नहीं जिस से तुम्हारी जानपहचान कुछ ही महीनों की है. तुम अपनी मां के नहीं हो पाए तो मेरे क्या होगे, कैसे निभाओगे मेरे साथ?’’

लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया रवि ने, ‘‘मैं अपनी मां का नहीं हूं, तुम ने यह कैसे सोच लिया?’’

‘‘तो उन से बात क्यों नहीं करते? क्यों इतना रुला रहे हो उन्हें?’’

‘‘हिम्मत नहीं होती. उन्हें या भाईबहन को देखते ही कानों में सौतेला शब्द गूंजने लगता है. ऐसा लगता है मैं दया का पात्र हूं.’’

‘‘दया के पात्र तो वे सब बने पड़े हैं तुम्हारी वजह से. मन से यह वहम निकालो और मां के पास चलो. आओ मेरे साथ.’’

‘‘न,’’ रवि ने गरदन हिला दी इनकार में, ‘‘मां के पास नहीं जाऊंगा. मां के पास तो कभी नहीं…’’

‘‘इस की वजह क्या है, मुझे समझाओ? क्यों नहीं जाओगे उन के पास? क्या महसूस होता है उन के पास जाने से?’’ एकाएक स्वयं ही उस की बांह सहला दी गायत्री ने. निरीह, असहाय बालक सा वह अवरुद्ध कंठ और डबडबाए नेत्रों से उसे निहारने लगा.

‘‘तुम्हें 2 महीने का छोड़ा था तुम्हारी मां ने. उस के बाद इन्होंने ही पाला है न. तुम तो इन्हें अपना सर्वस्व मानते रहे हो. तुम ही कहते थे न, तुम्हारी मां जैसी मां किसी की भी नहीं हैं. जब वह सच सामने आ ही गया तो उस से मुंह छिपाने का क्या अर्थ? वर्तमान को भूत में क्यों मिला रहे हो? ‘‘अब तुम्हारा कर्तव्य शुरू होता है रवि, उन्हें अपनी सेवा से अभिभूत करना होगा. कल उन्होंने तुम्हें तनमन से चाहा, आज तुम चाहो. जब तुम निसहाय थे, उन्होंने तुम्हें गोद में ले लिया था. आज तुम यह प्रमाणित करो कि सौतेला शब्द गाली नहीं है. यह सदा गाली जैसा नहीं होता. बीमार मां को अपना सहारा दो रवि. सच को उस के स्वाभाविक रूप में स्वीकार करना सीखो, उस से मुंह मत छिपाओ.’’

‘‘मां मुझे इतना अधिक क्यों चाहती रहीं, गायत्री? मेरे मन में सदा यही भाव जागता रहा कि वे सिर्फ मेरी हैं. छोटे भाईबहन को भी उन के समीप नहीं फटकने दिया. मां ने कभी विरोध नहीं किया, ऐसा क्यों, गायत्री? कभी तो मुझे परे धकेलतीं, कभी तो कहतीं कुछ,’’ रवि फिर भावुक होने लगा.

‘‘हो सकता है वे स्वाभाविक रूप में ही तुम्हें ज्यादा स्नेह देती रही हों. तुम सदा से शांत रहने वाले इंसान रहे हो. उद्दंड होते तो जरूर डांटतीं किंतु बिना वजह तुम्हें परे क्यों धकेल देतीं.’’

‘‘गायत्री, मैं इतना बड़ा सच सह नहीं पा रहा हूं. मैं सोच भी नहीं सकता. ऐ लगता है, पैरों के नीचे से जमीन ही सरक गई हो.’’

‘‘क्या हो गया है तुम्हें, इतने कमजोर क्यों होते जा रहे हो?’’कुछ ऐसी स्थिति चली आई. शायद उस का यही इलाज भी था. स्नेह से गायत्री ने स्वयं ही अपने समीप खींच लिया रवि को. कोमल बाहुपाश में बांध लिया.भर्राए स्वर में गिला भी किया रवि ने, यही सब सुनाने तुम्हारे पास भी तो गया था. सोचा था, तुम से अच्छी कोई और मित्र कहां होगी, तुम ने सुना नहीं. मैं कितने दिन इधरउधर भटकता रहा. मैं कहां जाऊं, कुछ समझ नहीं पाता?’’

‘‘मां के पास चलो, आओ मेरे साथ. मैं जानती हूं, उन्हीं के पास जाने को छटपटा रहे हो. चलो, उठो.’’

रवि चुप रहा. भावी पत्नी की आंखों में कुछ ढूंढ़ने लगा.

गायत्री तनिक गुस्से से बोली, ‘‘जीवन में बहुतकुछ सहना पड़ता है. यह जरा सा सच नहीं सह पा रहे तो बड़ेबड़े सच कैसे सहोगे? आओ, मेरे साथ चलो?’’ रवि खामोशी से उसे घूरता रहा.

‘‘देखो, आज तुम्हारी मां इतनी मजबूर हो गई हैं कि मेरे सामने हाथ जोड़े हैं उन्होंने. तुम्हें समझाने के लिए मुझे बुला भेजा है. तुम तो जानते हो, हम लोगों में शादी से पहले एकदूसरे के घर नहीं जाते. परंतु मुझे बुलाया है उन्होंने, तुम्हें समझाने के लिए. अपनी मां का और मेरा मान रखना होगा तुम्हें. मेरे साथ अपनी मां और भाईबहन से मिलना होगा और बड़ा भाई बन कर उन से बात करनी होगी. उठो रवि, चलो, चलो न.’’ अपने अस्तित्व में समाए बालक समान सुबकते भावी पति को कितनी देर सहलाती रही गायत्री. आंचल से कई बार चेहरा भी पोंछा.

रवि उधेड़बुन में था, बोला, ‘‘मां मेरे पास क्यों नहीं आतीं, क्यों नहीं मुझे बुलातीं?’’

‘‘वे तुम्हारी मां हैं. तुम उन के बेटे हो. वे क्यों आएं तुम्हारे पास. तुम स्वयं ही रूठे हो, स्वयं ही मानना होगा तुम्हें.’’

‘‘पिताजी मां को मेरे कमरे में नहीं आने देना चाहते, मुझे पता है. मैं ने उन्हें मां को रोकते सुना है.’’

‘‘ठीक ही तो कर रहे हैं. उन की भी पत्नी के मानसम्मान का प्रश्न है. तुम उन के बच्चे हो तो बच्चे ही क्यों नहीं बनते. क्या यह जरूरी है कि सदा तुम ही अपना अधिकार प्रमाणित करते रहो? क्या उन्हें हक नहीं है?’’

बड़ी मुश्किल से गायत्री ने उसे अपने शरीर से अलग किया. प्रथम स्पर्श की मधुर अनुभूतियां एक अलग ही वातावरण और उलझे हुए वार्त्तालाप की भेंट चढ़ चुकी थीं. ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार उसे छुआ है. साधिकार उस का मस्तक चूम लिया गायत्री ने. गायत्री पर पूरी तरह आश्रित हो वह धीरे से उठा, ‘‘तुम भी साथ चलोगी न?’’

‘‘हां,’’ वह तनिक मुसकरा दी.

फिर उस का हाथ पकड़ सचमुच वह बीमार मां के समीप चला आया. अस्वस्थ और कमजोर मां को बांहों में बांध जोरजोर से रोने लगा.

‘‘मैं ने तुम से कितनी बार कहा है, तुम मुझे छोड़ कर कहीं मत जाया करो,’’ उसे गोद में ले कर चूमते हुए मां रोने लगीं. छोटी बहन और भाई शायद इस नई कहानी से पूरी तरह टूट से गए थे. परंतु अब फिर जुड़ गए थे. बडे़ भाई ने मां पर सदा से ही ज्यादा अधिकार रखा था, इस की उन्हें आदत थी. अब सभी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे.

‘‘तुम कहीं खो सी गई थीं, मां. कहां चली गई थीं, बोलो?’’

पुत्र के प्रश्न पर मां धीरे से समझाने लगीं, ‘‘देखो रवि, सामने गायत्री खड़ी है, क्या सोचेगी? अब तुम बड़े हो गए हो.’’

‘‘तुम्हारे लिए भी बड़ा हो गया हूं क्या?’’

‘‘नहीं रे,’’ स्नेह से मां उस का माथा चूमने लगीं.

‘‘आजा बेटी, मेरे पास आजा,’’ मां ने गायत्री को पास बुलाया और स्नेह से गले लगा लिया. छोटा बेटा और बेटी भी मां की गोद में सिमट आए. पिताजी चश्मा उतार कर आंखें पोंछने लगे.गायत्री बारीबारी से सब का मुंह देखने लगी. वह सोच रही थी, ‘क्या शादी के बाद वह इस मां के स्नेह के प्रति कभी उदासीन हो पाएगी? क्या पति का स्नेह बंटते देख ईर्ष्या का भाव मन में लाएगी? शायद नहीं, कभी नहीं.’

अपनी ही दुश्मन: कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

कविता भी एकदम गजब लड़की थी. उसे हर बात की जल्दी रहती थी. बचपन में उसे जितनी जल्दी खेल शुरू करने की रहती थी, उतनी ही जल्दी उस खेल को खत्म कर के दूसरा शुरू करने की रहती थी. लड़कों को तो बेवकूफ बना कर वह खूब खुश होती थी. युवा होने पर लड़कों की टोली उस के इर्दगिर्द घूमा करती थी. उस टोली में हर महीने एकदो सदस्य बढ़ जाते थे. कविता उन से खुल कर बातें करती थी. लेकिन उस की यही स्वच्छंदता उस के वैवाहिक जीवन में बाधक बन गई थी.

बचपन गया, किशोरावस्था आई, तब तक तो सब कुछ ठीक था. लेकिन जवानी की ड्यौढ़ी पर कदम रखते ही उसे जीवन के कठोर धरातल पर उतरना पड़ा. उस की शादी सुरेश के साथ कर दी गई. भूल या गलती किस की थी, यह तो नहीं पता, लेकिन एक दिन कविता अपने बेटे मोनू को गोद में थामे, हाथ में ट्रौली बैग खींचती आंगन में आ खड़ी हुई.

आंगन के तीनों ओर कमरे बने थे. आवाज सुनते ही तीनों ओर से दादी, बड़की अम्मा, छोटी अम्मा, भाभी, पापा और चचेरे भाईबहन बाहर निकल कर आंगन में एकत्र हो गए. कविता की शादी को अभी कुल डेढ़ साल ही हुआ था. उसे इस तरह आया देख कर सभी हैरत में थे. खुशी किसी के चेहरे पर नहीं थी. मम्मी पापा ने घबरा कर एक साथ पूछा, ‘‘क्या हुआ बिटिया, तू इस तरह…?’’

‘‘इसे संभालो.’’ कविता मोनू को मां की गोद में थमाते हुए बोली, ‘‘मैं अब सुरेश के साथ वापस नहीं जा सकती.’’ इसी के साथ वह ट्रौली बैग को आंगन में ही छोड़ कर एक कमरे की ओर बढ़ गई.

‘‘अरी चुप कर, जो मुंह में आया बक दिया. शर्म नहीं आती अपने मर्द का नाम लेते.’’ दादी ने नाराजगी दिखाई. लेकिन कविता ने उन की बात पर ध्यान नहीं दिया. भाभी ने मोनू को मां की गोद में से ले कर सीने से लगा लिया.

अंदर जाते ही कविता ने इस तरह जूड़ा खोला मानो चैन की सांस लेना चाहती हो. लंबे घने काले बाल उस की पीठ पर इस तरह पसर गए, जैसे उस के आधे अस्तित्व को ढंक लेना चाहते हों. सब लोग बाहर से अंदर आ गए थे. कविता पर सवालों की बौछार होने लगी. लेकिन कविता ने सब को 2 शब्दों में चुप करा दिया, ‘‘मुझे थकान भी है और भूख भी लगी है. पहले मैं नहाऊंगीखाऊंगी, उस के बाद बात करना.’’

चचेरा भाई कविता का ट्रौली बैग अंदर ले आया था. उस ने उठ कर बैग खोला और अपने कपड़े ले कर इस तरह नहाने के लिए बाथरूम में चली गई, जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो. इस बीच भाभी और बच्चे मोनू को हंसाने और खेलाने में लग गए थे. जबकि कविता के मातापिता दूसरे कमरे में एकदूसरे पर कविता को बिगाड़ने का दोषारोपण कर रहे थे.

तभी उन की बातें सुन कर दादी अंदर आ गई और आते ही बोलीं, ‘‘अरे चुप करो दोनों. तुम दोनों ने ही बिगाड़ा है इसे. मैं तो इस के लच्छन पहले ही जानती थी. सुरेश शादी न हुई होती तो अब तक पता नहीं क्या गुलखिलाती. न सुनने की तो आदत ही नहीं है इसे. हर जगह मनमानी करती है. देखो 20-22 साल की हो गई और ससुराल से बच्चा लटका कर मायके लौट आई.’’

‘‘अरे अम्मा, बेकार परेशान हो रही हो, सुरेश को यहीं बुला कर दोनों का समझौता करा देंगे.’’ मोहन ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘मियांबीबी में छोटेमोटे झगड़े तो चलते ही रहते हैं. कविता को तो जानती ही हो, सुरेश ने कुछ कह दिया होगा और यह तैश में आ कर भाग आई.’’

कविता नहा कर आ गई तो भाभी उस की बांह पकड़ कर छत पर ले गईं. ऊपर जा कर भाभी ने पूछा, ‘‘लाडो, दामादजी से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘अब तुम से क्या छिपाना भाभी, अब सुरेश मुझ से पहले की तरह प्यार नहीं करते.’’ कहते हुए कविता के आंसू छलक आए.

भाभी का मुंह खुला का खुला रह गया. बोली, ‘‘कहीं और चक्कर तो नहीं चल रहा?’’

‘‘वह बौड़म क्या चक्कर चलाएगा भाभी, फैक्ट्री से आते ही बेदम हो कर पड़ जाता है. बिलकुल बेकार नौकरी है उस की.’’ कविता रोष में बोली, ‘‘2 दिन सुबह की शिफ्ट, फिर 2 दिन शाम की और 2 दिन रात की शिफ्ट.’’

‘‘तो तुझे क्या परेशानी है.’’ भाभी ने कविता को समझाया, ‘‘दामादजी की नईनई नौकरी है. मेहनत कर रहे हैं तो आगे जा कर लाभ मिलेगा.’’

‘‘भाभी, तुम नहीं समझोगी. एक तो वैसे ही फैक्ट्री के उलटेसीधे टाइमटेबल हैं, ऊपर से मोनू को संभालने के लिए इतना वक्त देना पड़ता है. इस सब से ऊब गई हूं मैं. बिलकुल नीरस जिंदगी है, किस से कहूं. क्या कहूं?’’

भाभी आश्चर्य से देखती रह गईं. वह समझ कर भी कुछ नहीं समझ पा रही थीं. 5 फुट 5 इंच लंबी, इकहरे बदन और तीखे नैननक्श वाली उस की ननद कविता में कुछ ऐसा आकर्षण था कि उस के मोहपाश में कोई भी बंध सकता था. सुरेश के साथ भी यही हुआ था.

उस ने छत पर कई बार कविता और सुरेश को नैनों के दांवपेंच लड़ाते देखा था. इस के बाद उस ने ही दादी को समझाबुझा कर सुरेश और कविता की शादी करा दी थी. सुरेश था तो उस के पति का सहपाठी, पर कविता के चक्कर में उन्हीं के घर में घुसा रहता था.

काफी भागदौड़ के बाद सुरेश को एक कंपनी में नौकरी मिली थी. कंपनी की तरफ से ही रहने का भी इंतजाम हो गया था. कविता की नाजायज मांगों के लिए वह अपनी नौकरी खतरे में कैसे डाल सकता था. भाभी कविता की मांग सुन कर हैरत में रह गईं. सुरेश भला उस की चांदतारों की मांग के लिए रोजीरोटी की फिक्र कैसे छोड़ सकता था.

‘‘क्या सोच रही हो भाभी, बडे़ भैया तो अभी भी तुम्हारे आगेपीछे घूमते हैं.’’ भाभी को चुप देख कर कविता ने हल्के व्यंग्य में कहा, ‘‘अच्छा हुआ जो तुम ने अभी बच्चे का बवाल नहीं पाला. अभी तो खूब मौजमजे की उम्र है.’’

कविता की बात का कोई जवाब दिए बिना भाभी सोचने लगी, ‘जब तक दादी जिंदा हैं, पूरा परिवार एक डोर में बंधा है, बाद में तो सब को अलगअलग ही हो जाना है. कविता अपना घर छोड़ कर आ गई तो सब के लिए मुसीबत बन जाएगी. अपनी आधी पढ़ाई छोड़ कर शादी के मंडप में बैठ गई थी और अब बच्चे को उठा कर चली आई, वह भी यह सोच कर कि अब वापस नहीं जाएगी. जरूर इस का कुछ न कुछ इलाज करना पड़ेगा.’

‘‘कहां खो गईं भाभी,’’ कविता ने भाभी की आंखों के सामने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘बड़के भैया की रोमांटिक यादों में खो गईं क्या?’’

‘‘नहीं, तुम्हारे बारे में सोच रही थी. तुम मोनू की वजह से परेशान हो न, ऐसा करो उसे यहीं छोड़ जाओ, हम पाल लेंगे. बस आगे से सावधानी रखना कि कहीं मोनू का भैया न आ जाए. रही बात सुरेश की तो उन की ड्यूटी दिन की हो या रात की, बाकी वक्त तुम्हारे साथ ही रहेंगे, तुम्हारे पास. समय बचे तो अपना ग्रैजुएशन पूरा कर लेना. तुम भी व्यस्त हो जाओगी.’’

भाभी की राय कविता को जंच गई. बात चली तो यह सुझाव घर में भी सब को पसंद आया. बहरहाल 2 दिनों बाद कविता मोनू को मायके में छोड़ कर सुरेश के पास चली गई. उस के जाने से सभी ने राहत की सांस ली.

देखतेदेखते 5 साल गुजर गए. इस बीच कविता कानपुर छोड़ कर लखनऊ आ गई. वहां उसे एक सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई थी. मोनू को भी उस ने अपने पास बुला लिया था. सुरेश शनिवार को उस के पास आता और रविवार को उस के साथ रह कर सोमवार सुबह वापस लौट जाता.

बड़े लोगों से संपर्क बने तो वह पार्टियों में भी जाने लगी. मोनू की वजह से उसे नाइट पार्टियों में जाने में परेशानी होती थी, इसलिए उसे संभालने के लिए उस ने एक नौकर रख लिया.

कविता का सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन उस की जिंदगी में खलल तब पड़ा, जब सुरेश एक दिन दोपहर में आ गया. दरअसल उस दिन मंगलवार था और लखनऊ में उसे एक दोस्त की शादी में शामिल होना था. वैसे भी उस दिन कोई छुट्टी नहीं थी. उस ने सोचा था कि अचानक पहुंच कर कविता को सरप्राइज देगा. लेकिन दांव उलटा पड़ गया. ड्राइंगरूम में खुलने वाला दरवाजा खुला हुआ था. ड्राइंगरूम में खिलौने बिखरे पड़े थे. उन्हें देख कर लग रहा था कि मोनू खेल से बोर हो कर कहीं बाहर चला गया है. यह भी संभव हो कि वह मां के पास अंदर हो.

अंदर बैडरूम का दरवाजा वैसे ही भिड़ा हुआ था. अंदर से हंसनेखिलखिलाने की आवाजें आ रही थीं. सुरेश ने दरवाजे को थोड़ा सा खोल कर अंदर झांका. भीतर का दृश्य देख कर वह सन्न रह गया. बेशर्मी, बेहयाई और बेवफाई की मूरत बनी नग्न कविता परपुरुष की बांहों में अमरबेल की तरह लिपटी हुई पड़ी थी. पत्नी को इस हाल में देख कर सुरेश की आंखों में खून उतर आया. उस का मन कर रहा था कि वहीं पड़ा बैट उठा कर दोनों के सिर फोड़ दे.

‘‘पापा, पापा आ गए.’’ बाहर से आती मोनू की आवाज उस के कानों में पड़ी. कुछ नहीं सूझा तो उस ने झट से बैडरूम का दरवाजा बंद कर दिया. उसी वक्त अंदर से कुंडी लगाने की आवाज आई. यह काम शायद कविता ने किया होगा. सुरेश धीरे से बड़बड़ाया, ‘‘कमबख्त को बच्चे का भी लिहाज नहीं.’’

‘‘पापा, खेलने चलें.’’ मोनू ने सुरेश के पैर पकड़ कर इस तरह खींचते हुए कहा, जैसे उसे मम्मी से कोई मतलब ही न हो.

अब सुरेश की समझ में आ रहा था कि कविता उसे बौड़म क्यों कहती थी. सब कुछ उस की नाक के नीचे चलता रहा और वह उस पर विश्वास किए बैठा रहा. सचमुच बौड़म ही था वह. किराए का ही सही, महंगा घर, शानदार परदे, उच्च क्वालिटी की क्रौकरी, ब्रांडेड कपड़े, मोनू का महंगा स्कूल. सब कुछ कैसे मैनेज करती होगी कविता, उस ने कभी सोचा ही नहीं. यहां तक कि अभी अंदर आते वक्त उस ने दीवार के साथ खड़ी लाल रंग की आलीशान कार देखी थी, उस पर भी ध्यान नहीं दिया था उस ने. सुरेश सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया.

‘‘पापा, पापा खेलने चलें.’’ कहते हुए मोनू ने उस की टांगें हिलाईं. लेकिन वह जड़वत बैठा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे. अब तो उस के मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि वह मोनू का पिता है या नहीं?

‘‘तुम खेलने जाओ, मैं अभी आता हूं.’’ दुखी मन से कहते हुए उस ने मोनू को बाहर भेज दिया.

सुरेश ने घड़ी देखी तो शाम के 4 बज रहे थे. सोचविचार कर उस ने कविता को उस के हाल पर छोड़ कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया. उस ने 4 लाइनों का पत्र लिखा, ‘मैं ने तुम्हारा असली चेहरा देख लिया है. तुम्हारे खून से हाथ रंग कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे यह भी नहीं पता कि मोनू मेरा बेटा है या किसी और का? लेकिन तुम्हें अब कोई सफाई देने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से निकाल कर खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं’

सुरेश ने अपना बैग उठाया और वापस लौट गया. कभी वापस न लौटने के लिए. उस दिन से सुरेश कविता की जिंदगी से निकल गया और उस की जगह दरजनों मर्द आ गए. कविता को सुरेश के जाने का कोई गम नहीं हुआ. उस ने चैन की सांस ली. अब वह आजाद पंछी की तरह थी.

आजकल वह जिस आखिलेंद्र से पेंच लड़ा रही थी, वह व्यवसायी था और उस का पूरा परिवार लंदन में रहता था. वहां भी उन का बड़ा बिजनैस था. परिवार के कुछ लोग जरूर लखनऊ में पुश्तैनी घर में रहते थे. अखिलेंद्र उन से चोरीछिपे कविता के पास जाता था. उस के रहते उसे सुरेश की कोई चिंता नहीं थी.

धीरेधीरे कविता ने गोमतीनगर जैसे महंगे इलाके में घर ले लिया और कार भी. उस ने ड्राइविंग भी सीख ली. अखिलेंद्र चूंकि कभीकभी ही आता था और उस का लंदन आनाजाना भी लगा रहता था, इसलिए कविता ने कुछ और चाहने वाले ढूंढ लिए थे. स्कूल में वह प्रधानाध्यापक नवलकिशोर के सामने अपने सिंगल पैरेंट्स होने का रोना रोती रहती थी. कितनी ही बार वह आधे दिन की छुट्टी ले कर स्कूल से निकल जाती थी. तब तक मोनू 10 साल का हो गया था.

उस दिन कविता ने बेटे की बीमारी का रोना रो कर नवलकिशोर को 2 दिनों की आकस्मिक छुट्टी की अरजी दी थी. लेकिन अचानक ही उन्होंने उस के बेटे को देखने की इच्छा जाहिर करते हुए उस के घर चलने की इच्छा जाहिर कर दी. कविता किस मुंह से मना करती. उस ने हां कर दी. नवलकिशोर की नजर काफी दिनों से कविता पर जमी थी. वह उन्मुक्त पक्षी जैसी लगती थी, इसीलिए वह उस की हकीकत जानने को उत्सुक थे.

नवलकिशोर कविता के घर पहुंचे तो मोनू स्कूल से आ कर जूते बस्ता और बोतल इधरउधर फेंक कर टीवी पर कार्टून नेटवर्क देख रहा था. मां के साथ एक अजनबी को आया देख कर वह चौंका. कविता ने जल्दबाजी में सामान समेटा और उसे खिलापिला कर खेलने के लिए बाहर भेज दिया. अब कमरे में कविता और नवलकिशोर ही रह गए थे.

कविता उठ कर गई और फ्रिज से कोल्डड्रिंक की बोतलें और स्नैक्स ले आई. नवलकिशोर यह सब देख कर हैरान रह गए. बहरहाल दोनों साथसाथ खानेपीने लगे. जल्दी ही यह स्थिति आ गई कि दोनों ने ड्राइंगरूम की पूरी दूरी नाप ली. एक बार शुरुआत हुई तो सिलसिला चल निकला. स्कूल में भी कविता की पदवी बढ़ गई.

यह सब करीब एक साल तक चला. किसी तरह इस बात की भनक नवलकिशोर की पत्नी सुनीता को लग गई. वह तेज औरत थी. शोरशराबा मचाने के बजाए उस ने चोरीछिपे पति पर नजर रखनी शुरू कर दी. नतीजा यह निकला कि एक दिन वह सीधे कविता के घर जा पहुंची और दोनों को रंगेहाथों पकड़ लिया.

उस दिन जो कहासुनी हुई, उस में कविता की पड़ोसन ने कविता का साथ दिया. उस का कहना था कि कविता शरीफ औरत है. नवलकिशोर उस के अकेलेपन का फायदा उठाने के लिए वहां आता था.

इस का नतीजा यह निकला कि उस दिन के बाद नवलकिशोर का कविता के घर आनाजाना बंद हो गया. कविता और उस की पड़ोसन एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. जल्द ही दोनों ने मिल कर नया अड्डा ढूंढ लिया. सीतापुर रोड पर एक फार्महाउस था. दोनों अपने खास लोगों के साथ बारीबारी से वहां जाने लगीं. एक जाती तो दूसरी दोनों के बच्चों को संभालती.

कालोनी में कोई भी दोनों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था. समय गुजरता गया. गुजरते समय के साथ मोनू यानी मुकुल 20 साल का हो गया. कविता भी अब 40 पार कर चुकी थी. मुकुल का मन पढ़ाई में कम और कालेज की नेतागिरी में ज्यादा लगता था. धीरेधीरे उस का उठनाबैठना बड़े नेताओं के चमचों के साथ होने लगा. उन लोगों ने उसे उकसाया, ‘‘तुम कालेज का चुनाव जीत कर दिखा दो, हम तुम्हें पार्टी में कोई न कोई जिम्मेदारी दिला देंगे. फिर बैठेबैठे चांदी काटना.’’

अब उस के पुराने आशिकों ने आना कम कर दिया था. एक अखिलेंद्र ही ऐसा था, जो अभी तक उस की जरूरतों को पूरा कर रहा था. लेकिन वह भी अब कम ही आता था. फोन पर जरूर बराबर बातें करता रहता था. अलबत्ता इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वह कब तक साथ निभाएगा.

इस बीच कविता की सहेली सुनीता अपनी दोनों बेटियों को ले कर मुंबई शिफ्ट हो गई थी. वह अपनी बेटियों को मौडलिंग के क्षेत्र में उतारना चाहती थी. उस ने अपना मकान 75 लाख में बेच दिया था.

जो परिवार कविता का पड़ौसी बन कर सुनीता के मकान में आया, उस में मुकुल का ही हमउम्र लड़का सौम्य और उस से एक साल छोटी बेटी सांभवी थी. परिवार के मुखिया सूरज बेहद व्यवहारकुशल थे. उन की पत्नी सरला भी बहुत सौम्य स्वभाव की थीं. पतिपत्नी में तालमेल भी खूब बैठता था. सूरज सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर तैनात थे.

पतिपत्नी ने अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी थी. उन के घर रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों का आनाजाना लगा रहता था. सरला सब की आवभगत करती थी. अब उस घर में खूब रौनक रहने लगी थी. घर में खूब ठहाके गूंजते थे.

कविता कभीकभी मन ही मन अपनी तुलना सरला से करती तो उसे अपने हाथ खाली और जिंदगी सुनसान नजर आती. उसे लगता कि वह जिंदगी भर अंधी दौड़ में दौड़ती रही, लेकिन मिला क्या? सुरेश के साथ रहती तो बेटे को भी पिता का साया मिल जाता और उस की जिंदगी भी आराम से कट जाती.

वह सोचती कितना अभागा है मुकुल, जो पिता के संसार में होते हुए भी उस से दूर है. यह तक नहीं जानता कि उस के पिता कौन हैं और कहां हैं? वह तो सब से यही कहती आई थी कि मुकुल के पिता हमें छोड़ कर विदेश चले गऐ हैं और वहीं बस गए हैं. वह अखिलेंद्र को ही मुकुल का पिता साबित करने की कोशिश करती, क्योंकि वह ज्यादातर विदेश में ही रहता था और साल में एकदो बार आया करता था.

कालोनी में किसी को भी कविता का सच मालूम नहीं था. कोई जानना भी नहीं चाहता था. देखतेदेखते 2 साल और बीत गए. पड़ोसन की बिटिया की शादी थी. तमाम मेहमान आए हुए थे. सरला विशेष आग्रह कर के कविता को सभी रस्मों में शामिल होने का निमंत्रण दे गई. कविता इस बात को ले कर बेचैन थी. वह खुद को सब के बीच जाने लायक नहीं समझ रही थी. इसलिए चुपचाप लेटी रही.

अखिलेंद्र विदेश से आ रहा था. एयरपोर्ट से उसे सीधे उसी के घर आना था. मुकुल उसे लेने एयरपोर्ट गया हुआ था.

पड़ोस में मंगल गीत गाए जा रहे थे, बड़े ही हृदयस्पर्शी. सुन कर कविता की आंखें भर आईं. उस की शादी भी भला कोई शादी थी. सच तो यह था कि शादी के नाम पर उसे उस की गलतियों की सजा सुनाई गई थी. जिस सुरेश को कभी वह मोतीचूर का लड्डू समझ रही थी, उस के हिसाब से वह गुड़ की ढेली भर नहीं निकला था.

‘‘मां कहां हो तुम, देखो हम आ गए.’’ मुकुल की आवाज सुन कर वह चौंकी. मुकुल अखिलेंद्र को एयरपोर्ट से ले आया था. कैसा अभागा लड़का था यह, लोगों के सामने अखिलेंद्र को न पापा कह सकता था, न अंकल. हां, उस के समझाने पर घर में वह जरूर उन्हें पापा कह कर पुकार लेता था.

कविता अनायास आंखों में उतर आए आंसू पोंछ कर अखिलेंद्र के सामने आ बैठी. ऐसा पहली बार हुआ था, जब वह अखिलेंद्र को देख कर खुश नहीं हुई थी. अखिलेंद्र और कविता की उम्र में काफी बड़ा अंतर था. फिर भी सालों से साथ निभता रहा था.

‘‘क्या बात है, बीमार हो क्या कविता?’’ अखिलेंद्र ने पूछा तो कविता धीरे से बोली, ‘‘नहीं, बीमार तो नहीं हूं, टूट जरूर गई हूं भीतर से. ये झूठी दोहरी जिंदगी अब जी नहीं पा रही हूं. सोचती हूं, हम दोनों के संबंध भी कब तक चल पाएंगे.’’

‘‘हूं, तो ये बात है.’’ अखिलेंद्र ने गहरी सांस ली.

कविता अपनी धुन में कहे जा रही थी, ‘‘मैं भी औरतों के बीच बैठ कर मंगल गीत गाना चाहती हूं. अपने पति के बारे में दूसरी औरतों को बताना चाहती हूं. चाहती हूं कि कोई मेरे बेटे का मार्गदर्शन करे, उसे सही राह दिखाए. पर हम दोनों की किस्मत ही खोटी है.’’

‘‘और…?’’

‘‘एक दिन उस का भी घर बनेगा. कोई तो आएगी उस की जिंदगी में. फिर मैं रह जाऊंगी अकेली. क्या किस्मत है मेरी, लेकिन इस सब में दोष तो मेरा ही है.’’

तब तक मुकुल चाय बना लाया था. ट्रे से चाय के कप रख कर वह जाने लगा तो अखिलेंद्र ने उसे टोका, ‘‘यहीं बैठो बेटा, तुम्हारी मां और तुम से कुछ बातें करनी हैं. पहले मेरी बात सुनो, फिर जवाब देना.’’

कविता और मुकुल चाय पीते हुए अखिलेंद्र के चेहरे को गौर से देखने लगे. अखिलेंद्र ने कहना शुरू किया, ‘‘मेरी पत्नी पिछले 15 सालों से कैंसर से जूझ रही थी. मैं उसे भी संभालता था, बिजनैस को भी और दोनों बच्चों को भी. भागमभाग की इस नीरस जिंदगी में कविता का साथ मिला. सुकून की तलाश में मैं यहां आने लगा. मेरी वजह से मुकुल के सिर से पिता का साया छिन गया और कविता का पति. मैं जब भी आता, मुझे तुम दोनों की आंखों में दरजनों सवाल तैरते नजर आते, जो लंदन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते. इसीलिए मैं बीचबीच में फोन कर के तुम लोगों के हालचाल लेता रहता था.’’

अखिलेंद्र चाय खत्म कर के प्याला एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘6 महीने पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया. उस के बाद मैं ने धीरेधीरे सारा बिजनैस दोनों बेटों को सौंप दिया. दोनों की शादियां पहले ही हो गई थीं और दोनों अलगअलग रहते थे. धीरेधीरे उन का मेरे घर आनाजाना भी बंद हो गया. फिर एक दिन मैं ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया, जिसे उन्होंने खुशीखुशी मान भी लिया.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ कविता और मुकुल ने एक साथ पूछा.

‘‘यही कि मैं तुम से शादी कर के अब यहीं रहूंगा.’’ अखिलेंद्र ने कविता की ओर देख कर एक झटके में कह दिया.

मुकुल का मुंह खुला का खुला रह गया. उसे लगा कि मां के दोस्त के रूप में जो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी, अब वह सिर पर आ बैठेगी. पक्की बात है कि अगर अखिलेंद्र घर में रहेगा तो मां को और मर्दों से नहीं मिलने देगा और उन लोगों से जो पैसा मिलता था, वह भी मिलना बंद हो जाएगा.

मुकुल को नेतागिरी में आड़ेटेढे़ हाथ आजमाने आ गए थे. वह रसोई से लंबे फल का चाकू उठा लाया और पीछे से अखिलेंद्र की गरदन पर जोरों से वार कर दिया. जरा सी देर में खून का फव्वारा फूट निकला और वह वहीं ढेर हो गया. कविता आंखें फाड़े देखती रह गई. जब उसे होश आया तो देखा, मुकुल लाश को उठा कर बाहर ले जा रहा था.

मुकुल ने पता नहीं ऐसा क्या किया कि वह तो बच गया, लेकिन कविता फंस गई. पुलिस ने मुकुल से पूछताछ की और घर की तलाशी भी ली, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. मुकुल के प्रयासों से 4-5 महीने बाद कविता को जमानत मिल गई. कविता और मुकुल फिर से एक छत के नीचे रहने लगे, लेकिन दोनों ही एकदूसरे को दोषी मानते रहे?

तुम्हारी मरजी : जब बीवी की मरजी का न खाना खाए पति

रविवार की दोपहर का वक्त है, एक औसत मध्यवर्गीय परिवार का घर.

सुष्मिता: भई, कितनी बार कह चुका हूं कि आज रविवार दोपहर में खाने में क्या और्डर करना है., कम से कम यह तो बता दो.

‘‘अच्छा तुम कहो तो सांभरबड़ा और मसाला डोसा मंगा लेती हूं.’’

‘‘हां, यही और्डर कर दो,’’ भुनेंद्र ने कहा.

फिर सुष्मिता ने सांभरबड़ा और मसाला डोसा और्डर कर दिया.

शाम का समय

‘‘सुष्मिता, अब शाम का तो बता दो कि खाना क्या बनाऊं? सुबह तो तुम्हारी पसंद का सांभरबड़ा और मसाला डोसा खाया था. भई, सम?ा में नहीं आता कि कैसी होममेकर हो तुम. यह सब तुम्हारा काम है… मुझे इतनी सारी फाइलें देखनी हैं. तुम्हारी जौब में होमवर्क नहीं है, मेरी जौब में तो है. इन्हें आज ही निबटाना है मु?ो.’’

‘‘इन्हें तो जैसे घर से कोईर् मतलब ही नहीं है. जब देखो दफ्तर का काम,’’ सुष्मिता बड़बड़ाई.

मंगलवार की प्रात:

‘‘क्या औफिस के लिए खाने में कुछ तैयार है? मु?ो आज दफ्तर जरा जल्दी जाना है.’’

‘‘अभी कहां, मैं तो बस तुम से पूछने ही

आ रही थी कि  औफिस लंच के लिए कल के पिज्जा स्लाइस रखूं या फिर आलू के परांठे बनाऊं?

‘‘उफ, फिर वही ?ागड़ा. कुछ अपने दिमाग का भी इस्तेमाल किया करो. मु?ो तो तुम अगर तैयार हो तो वही दे दो नहीं तो मैं चला. आज कैंटीन में ही खा लूंगा.’’

‘‘ठीक है फिर कैंटनी में खा लेना…. तुम्हारी मरजी ही चलेगी.’’

शाम

‘‘आज तो घर आने में बड़ी देर कर दी, कहां भटक गए थे? 4 घंटे से अकेले घर में

पड़ी हूं.’’

‘‘दफ्तर में काम ज्यादा था. अच्छा, लाओ खाना, बड़े जोरो की भूख लगी है.’’

‘‘बस, अभी 5 मिनट में बना देती हूं. तुम्हारी पसंद की ही सब्जी बनाने के लिए रुकी हुई थी.’’

‘‘अच्छा तो कोफ्ते बना लो.’’

‘‘कोफ्तों में तो बहुत टाइम लगता है. बहुत भूख है तो शाही पनीर का रैडीमेड पैकेट रखा है. तुम्हारी मरजी हो तो खोल दूं?’’

बुधवार की सुबह

‘‘बताओ, आलूपालक की सब्जी बनाऊं या कद्दू की? तुम्हें ही बताना पड़ेगा… तुम्हारी मरजी से ही चलेगा न.’’

‘‘तो फिर आलू, शिमलामिर्च, पालक ही बना लो.’’

‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी तो यही बना

देती हूं.’’

‘‘पर पालकआलू, शिमलामिर्च साफ करतेकरते तो बड़ी देर हो जाएगी. आप की बस न निकल जाए कहीं. ऐसा करती हूं ?ाटपट कद्दू काट कर छौंक देती हूं.’’

‘‘अच्छी बात है, फिर कद्दू ही बना लो.’’

‘‘ठीक तुम्हारी मरजी तो कद्दू ही बना

देती हूं.’’

शाम

‘‘क्या बात है आज तुम ने पूछा नहीं कि कौन सी सब्जी बनानी है? आज मेरी चटपटा खाना खाने की बड़ी इच्छा हो रही है. मसालेदार छोले बनाओ तो मजा आ जाए.’’

‘‘आज रमा के साथ चायपकौड़े खा कर आ रही हूं. थक गईर् हूं. सिर भी थोड़ा दुख रहा है. आज तुम ही अपने और मेरे लिए थोड़ी सी रैडीमेड नूडल्स बना लो.’’

‘‘अच्छा तो मैं टोस्ट से पैटी बना लेता हूं.’’

‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी.’’

गुरुवार की प्रात:

‘‘आज क्या बनाऊं?’’

‘‘मेरे खयाल में कद्दू कैसा रहेगा? आता है न? वैसा बनाना जैसा मेरी मां बनाती है.’’

‘‘कद्दू, कल ही तो खाया था कद्दू. मु?ा से नहीं खाया जाता रोजरोज यह कद्दू. मैं तो आलूपरवल बनाने जा रही हूं.’’

‘‘ठीक है आलूपरवल बना लो.’’

‘‘तुम्हारी मरजी है न तो ?ाटपट बना लेती दूं वरना दोनों को देर हो जाएगी.’’

शाम

‘‘सुबह आलूपरवल में थोड़ा नमक क्या

तेज हो गया सारी सब्जी ही वापस ले आए.

इस महंगाई के जमाने में यह बरबादी ठीक है क्या? मैं ने उसी बची हुई सब्जी में टमाटर डाल कर मिक्सी में चला कर सूप बना दिया है.’’

‘‘तुम जानती हो, मु?ो परवल वैसे ही पसंद नहीं हैं. फिर भी सुबहशाम वही खिलाती हो.’’

‘‘लो तुम्हारी मरजी थी तो ही तो आलूपरवल बनाए थे.’’

शुक्रवार की प्रात:

‘‘जल्दी से बताओ, क्या सब्जी बनाऊं नहीं तो थोड़ी देर में ही हायतोबा मचाना शुरू कर दोगे?’’

‘‘भई, मेरी मरजी तो आज गोभीमटर की सब्जी खाने की है.’’

‘‘बड़ी शान से बोल दिया, गोभीमटर की सब्जी बनाओ. जानते हो इन दोनों का मौसम

नहीं है?’’ फिर बेमौसम सब्जी का भाव भी मालूम है?’’

‘‘तो फिर बैगन ही बना लो.’’

‘‘तुम तो सम?ाते ही नहीं, आजकल बैगन कड़वे आ रहे हैं. तुम्हारी मरजी हो तो मैं लौकी बना लेती हूं.’’

‘‘अच्छा, वही सही तुम ने मु?ा से पूछा

तो मैं ने बता दिया. लौकी भरवां बना सकती हो?’’

‘‘भरवां लौकी 2 जनों के लिए सिर्फ? न बाबा. मैं तो तुम्हारी मरजी की रसे की लौकी बना देती हूं.’’

शाम

‘‘कुछ बताओ तो सब्जी क्या बनेगी या कुछ बाहर से मंगाओगे?’’

‘‘ठीक सम?ो तो भरवां आलू बना लो.’’

‘‘तुम्हें तो हमेशा ?ां?ाट की चीजें ही

सू?ाती हैं. अब कौन बैठ कर मसाला पीसेगा?

मैं आलू यों ही काट कर भून लेती हूं या

तुम्हारी मरजी हो तो चनादाल मंगवा लूं?

वही और्डर कर देती हूं तुम्हारी मरजी की

ब्लैक दाल.’’

शनिवार की प्रात:

‘‘हरी सब्जी घर पर नहीं है.’’

‘‘आलू तो होंगे वही बना लो.’’

‘‘आलू हैं तो मगर खाली आलू की सब्जी खाने में बिलकुल मजा नहीं आता. मैं बेसन की पकौडि़यों की सब्जी बना लूं? तुम्हारी मां ने सिखाई थी.’’

‘‘ठीक है, वह भी चलेगा.’’

‘‘अच्छा तो तुम्हारी मरजी है तो पकौड़ी की सब्जी बना लेती हूं.’’

शाम

‘‘अब क्या बना रही हो?’’

‘‘हफ्ते में एक शाम तो मु?ो भी छुट्टी मिलनी चाहिए. आज कहीं बाहर चलें क्या?’’

‘‘हांहां… क्यों नहीं. एक नया जौयंट खुला है डिफैंस ऐनक्लेव में.’’

‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी तो वहीं चलते हैं.’’

‘‘आज ब्रेकफार्स्ट क्या बनाऊं?’’

रविवार की प्रात:

‘‘आज छुट्टी के दिन तो चैन से सोने दो. सबेरे से ही खाने का राग अलापने लगती हो… जो चाहो बना लो.’’

शाम

‘‘आज मैं ने नमक, कालीमिर्च भर कर

शुद्ध घी में परवल बनाए हैं, देखो तो कैसे बने हैं?’’

?ां?ाला कर, ‘‘तुम्हें मालूम है कि मु?ो परवल पसंद नहीं हैं. फिर भी जानबू?ा कर बारबार परवल क्यों बनाती हो? आगे से घर में परवल नहीं बनने चाहिए.’’

‘‘रोज सुबहशाम तुम्हारी मरजी का खाना मिलता है. आज एक बार अपनी मरजी से परवल क्या बना लिए लगे चिल्लाने- इस घर में तो मेरी कुछ पूछ ही नहीं. अपनी पसंद की सब्जी तक नहीं बना सकती,’’  सुष्मिता की आंखों से टपाटप आंसू गिरने लगते हैं. भुनेंद्र हत्प्रभ उसे देखता रह जाता है.

काश : अभिनय और उसकी पत्नी के बीच क्यों बढ़ रही थी दूरियां

Writer- भावना ठाकर ‘भावु’

आज हलकीहलकी बारिश और खुशनुमा मौसम ने अभिनय के मिजाज को रोमांटिक बना दिया. अभिनय ने अपनी पत्नी संगीता की कमर में हाथ डालते हुए ‘टिपटिप बरसा पानी, पानी ने आग लगाई…’ गाना गुनगुनाते थोड़ा रोमांस करना चाहा.

मगर ‘‘हटिए भी… जब देखो आप को बस रोमांस ही सू?ाता है,’’ कह कर नीरस और ठंडे मिजाज वाली संगीता ने अभिनय का हाथ ?ाटक कर उसे खुद से अलग कर दिया. अभिनय आहत होते चुपचाप बैडरूम में चला गया और म्यूजिक सिस्टम पर गुलाम अली खान साहब की गजलें सुनते व्हिस्की का पैग बनाने लगा. एक पैग पीने के पश्चात अभिनय ने आंखें बंद कर लीं और गजल सुनने लगा…

‘‘चुपकेचुपके रातदिन आंसू बहाना याद है, हम को अब तक आशिकी का वो जमाना याद है…’’

गुलाम अली साहब की गहरी आवाज में गजल चल रही हो तो कोई नीरस इंसान ही होगा जिसे जवानी के मस्ती भरे दिन और इश्क का रंगीन जमाना याद न आए. अभिनय को भी वह जमाना याद आ गया जब शीतल के साथ पहली बार लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगा था. भरपूर जवानी थी, जोश था और पहलेपहले इश्क का सुरूर था ऊपर से बैंगलुरु की हवाओं में गजब का खुमार था.

अभिनय का मन अतीत की गलियों में आवाजाही करने लगा कि शीतल के साथ बिताया हुआ हर लमहा मु?ो रोमांटिक बना देता था. कहां संगीता ठंडे चूल्हे सी जब प्यार करने जाता हूं तब हटिए कह कर पूरे मूड का सत्यानाश कर देती है. कहां अपने नाम से विपरित मिजाज रखने वाली लबालब उड़ते शोले जैसी शीतल, जो अभिनय के हलके स्पर्श पर धुआंधार बरस पड़ती थी. जब दोनों एकदूसरे में खो जाते थे तो शीतल के अंगअंग में इतना नशा होता था कि उस नशे में मैं पूरी तरह डूब जाता था. शीतल बालों में उंगलियां घुमाती थी और मैं नींद की आगोश में सो जाता था. उस के साथ समय बिताने में हर पल मु?ो एक नया अनुभव होता था और हर बार नया आकर्षण.

शीतल अभिनय का प्यार पा कर कहती, ‘‘अभि, तुम से मु?ो बहुत संतुष्टि मिलती है. ऐसा लगता है जैसे मैं ने स्वर्ग का सुख पा लिया हो. कभी मेरा साथ मत छोड़ना. तुम्हारे बिना मैं जी नहीं पाऊंगी.’’

अभिनय की आंखें भर आईं. सोचने लगा कि शीतल से अलग हो कर अकेला रह कर मैं ने 1-1 पल उसे ही याद कर कर के जीया है. क्या शीतल भी मु?ो याद करती होगी?

अभिनय के खयालों की जंजीरों को तोड़ते पीछे से संगीता ने अनमने लहजे में पूछा, ‘‘खाना लगा दूं या बाद में खाएंगे? मु?ो नींद आ रही है. बाद में खाना है तो खुद परोस लेना,’’ और अभिनय का जवाब सुने बिना ही संगीता सोने के लिए चली गई.

इसी बात से जुड़ा कोई वाकेआ अभिनय को याद आ गया. ‘मु?ो भूल नहीं जाना’ कहने पर शीतल का अपनी कसम दे कर अपने हाथों से खाना खिलाना याद आते ही अभिनय अतीत की गलियों में पहुंच गया…

आईटी इंजीनियरिंग पास करते ही अभिनय को बैंगलुरु में एक अमेरिकन कंपनी में अच्छी जौब मिल गई. एक साल अच्छे से बीत गया. घर से मांपापा बारबार फोन पर जोर डाल कर कहते कि अभि अब तो तू सैटल हो गया है शादी के लिए हां कर दे तो लड़कियां देखना शुरू करें लेकिन अभिनय को फिलहाल बैचलर लाइफ ऐंजौय करनी थी तो हर बार बहाना बना कर टाल देता.

एक दिन कंपनी में शीतल नाम की नई लड़की ने जौइन किया. देखने में हीरोइन की टक्कर की. गोरा रंग, छरहरा बदन, कर्ली हेयर, बादामी आंखें किसी भी लड़के को घायल करने वाले सारी भावभंगिमाओं की मालकिन शीतल

को पाने के सपने औफिस के सारे लड़के देखने लगे. शीतल की नजर में आने के लिए हरकोई पापड़ बेलने लगा. मगर शीतल किसी को भाव नहीं देती. एक अभिनय ऐसा था जो अपने काम से मतलब रखता. उस की शीतल को पाने में

कोई दिलचस्पी नहीं थी. अभिनय शीतल को रिझाने के लिए न कोई हथकंडा अपनाता न बगैर काम के बात करता और अभिनय का यही ऐटिट्यूड शीतल को घायल कर गया.

देखने में अभिनय भी बांका जवान था. 6 फुट लंबा, हलका

डार्क रंग, घुंघराले बाल और फ्रैंच कट दाढ़ी में कहर ढाता कामदेव का रूप

लगता था. शीतल जैसी तेजतर्रार लड़की के

जेहन में बस गया. हर छोटीबड़ी बात के लिए अभिनय की सलाह लेने शीतल जानबू?ा कर

पहुंच जाती.

आहिस्ताआहिस्ता 2 जवां दिल एकदूसरे से आकर्षित होते करीब आने लगे. अब तो औफिस के बाद अभिनय और शीतल कभी मूवी देखने, कभी पिकनिक, कभी शौपिंग तो कभी डिनर के लिए निकल जाते. बैंगलुरु की हर फेमश जगह दोनों प्रेमियों के मिलन की गवाह बन गई.

एक दिन शीतल ने कहा, ‘‘अभि, मु?ो

2 दिन में पीजी छोड़ना होगा क्योंकि जहां में

रहती हूं वह बिल्डिंग रिडैवलपमैंट में जा रही है इसलिए रूम खाली करवा रहे हैं. अब इतने शौर्ट टाइम में कैसे मैनेज होगा. क्या तुम कुछ कर सकते हो?’’

अभिनय ने कहा, ‘‘बुरा न मानो तो एक

बात कहूं?’’

शीतल ने कहा, ‘‘यार… येह औपचरिकता मत करो सीधा बोल दो इतना हक तो मैं तुम्हें दे चुकी हूं.’’

अभिनय ने शीतल का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘जब दोनों एक ही मंजिल के मुसाफिर हैं तो क्यों न एक छत के नीचे रैन बसेरा करें. मैं जिस फ्लैट में रहता हूं वह काफी बड़ा है. आ जाओ अपना सारा सामान ले कर मेरे घर में. आजकल हरकोई लिव इन रिलेशनशिप में रहता है. इस से एक बात और भी होगी कि हम दोनों को एकदूसरे को अच्छे से जानने का मौका भी मिल जाएगा और कंपनी भी बनी रहेगी. पर अगर तुम चाहो तो.’’

शीतल खुशी से उछलते हुए बोली, ‘‘अरे नेकी और पूछपूछ, मैं कल ही बोरियाबिस्तर उठा कर आ रही हूं तुम्हारी सियासत पर कब्जा करने.’’

दूसरे दिन संडे था तो दोनों ने मिलकर

सारा सामान सेट कर लिया. दोनों खुश थे. शुरुआत में साथसाथ रहते हुए दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. अभिनय शीतल की हर जरूरत पर जान छिड़कता था. अब तो औफिस भी साथसाथ आनाजाना होता. दोनों एकदूसरे का साथ पा कर बेहद खुश थे. दोनों ने अपने आने वाले भविष्य तक की प्लानिंग बना ली. कितना समय लिव इन में रहेंगे, कब शादी करेंगे और कब फैमिली प्लानिंग होगी सब फिक्स हो गया. दोनों को लगने लगा कि अपनीअपनी तलाश पूरी हो गई. जीवनसाथी के रूप में जैसी कल्पना की थी वैसा ही पार्टनर मिल गया. मानसिक तौर पर दोनों ने एकदूसरे को भावी पतिपत्नी के रूप में भी स्वीकार कर लिया. अब दोनों बिंदास एकदूसरे पर हक जताते प्यार करने लगे.

रोज औफिस से आने के बाद शीतल

कौफी बनाती और दोनों बालकनी में बैठ कर आराम से लुत्फ उठाते. आहिस्ताआहिस्ता

2 बिस्तर सिंगल में तबदील हो गए. शीतल की मुसकान पर फिदा होते अभिनय शीतल को कमर से पकड़ कर अपनी ओर खींचता और अपने अंगारे जैसे लब शीतल के लबों पर रख देता. उस स्पर्श की कशिश से उन्मादित हो शीतल जंगली बिल्ली की तरह अभिनय पर प्रेमिल हमला करते लिपट जाती और फिर दोनों एकदूसरे पर मेघ जैसे बरस जाते.

शीतल अभिनय के घुंघराले बालों में उंगलियों को घुमाते अभिनय का चेहरा चूम

लेती उस पर अभिनय शीतल को बांसुरी सा उठा कर तन से लगा लेता. यों दोनों ने प्रिकौशंस के साथ कई बार शारीरिक संबंध की सारी हदें पार कर लीं.

मगर कहते हैं न कि ‘दूर से पर्वत सुहाने’  कभीकभार मिलना हमेशा लुभाता है लेकिन साथ रह कर जब एकदूसरे की कमियां और खूबियां पता चलती है तब असल में प्रेम की सही परख होती है. किसी भी चीज में तुष्टिगुण का नियम लागू होता ही है. इंसान को जो आनंद खाने का पहला निवाला देता है वह तीसरा, चौथा या

10वां नहीं देता. शुरुआत में अभिनय और

शीतल को लगता था कि कुदरत ने दोनों को एकदूसरे के लिए ही बनाया है लेकिन जब जिम्मेदारियां बांटने और घर चलाने की बात

आती है वहां प्यार का वाष्पीकरण हो जाता है. अभिनय और शीतल के रिश्ते में जीवन की जरूरी चीजों पर पैसे खर्च करने से ले कर घर को साफसुथरा रखने जैसी हर छोटीबड़ी बात पर तूतू, मैंमैं होने लगी. कल तक दोनों को अकेले अपनी मनमरजी से जीने की आदत थी और आज एकदूसरे की पसंदनापसंद और तौरतरीकों से सम?ाता करने की नौबत आ गई.

अभिनय टिपीकल बैचलर लाइफ जीने का आदी था इसलिए अपनी चीजें जैसे कपड़े, जूते, टौवेल, लैपटौप लगभग सारी चीजें इधरउधर

फैला कर कहीं भी रख देता. पहलेपहल तो

शीतल खुद प्यार से सब बरदाश्त करते सहज लेती और अभिनय को सुधारने की कोशिश करती. लेकिन जब ये सब रोज का हो गया तो चिड़ने लगी और बहस करतेकरते दोनों के बीच छोटेमोटे ?ागड़े भी होने लगे. उस से विपरीत शीतल को अपनी सारी चीजें सुव्यवस्थित और सहेज कर रखने की आदत थी. उसे हर काम में परफैक्शन चाहिए होता जिस की वजह से दोनों में कभीकभी तनाव पैदा हो जाता.

जैसेतैसे दोनों एकदूसरे के साथ एडजस्ट करते जीने की कोशिश कर रहे थे. ऐसे में चुनाव नजदीक आ रहे थे तो एक दिन कौनसी पार्टी देश के लिए सही है और कौन देश के लिए हानिकर उस पर चर्चा करते दोनों के बीच जंग छिड़ गई. दोनों ही पढ़ेलिखे अपने विचार का समर्थन करते अपनी दलीलों पर डटे रहे. नतीजन वैचारिक असमानता का सब से मजबूत पहलू दोनों के सामने आ गया. दोनों में से कोई भी समाधान के मूड में नहीं था. शीतल का कहना था कि कांग्रेस पार्टी में छोटी उम्र के पढ़ेलिखे नेता आजकल की टैक्नोलौजी को सम?ाते देश को नई दिशा देने में सक्षम हैं. वहां अभिनय का कहना था भाजपा पार्टी के उम्रदराज, शक्तिशाली और अनुभवी नेता ही देश की बागडोर संभालने में काबिल हैं. दोनों एकदूसरे पर अपनी चुनी सरकार को वोट देने के लिए दबाव तक डालने लगे.

तभी इस वाकयुद्ध को अलग ही मोड़ देते हुए शीतल ने कहा, ‘‘देखो अभिनय मैं कोई 18वीं सदी की लड़की नहीं जो मर्द की बातों को पत्थर की लकीर सम?ा कर सिरआंखों पर चढ़ाती रहूंगी और न हर सहीगलत बात में तुम्हारी हां में हां मिलाती रहूंगी. मैं 21वीं सदी की लड़की हूं मेरे अपने स्वतंत्र विचार हैं, अपना अस्तित्व है, अपनी मरजी है. मु?ो दबाने की कोशिश हरगिज मत करना… तुम अपनी सोच अपने पास रखो. मैं

24 साल की बालिग लड़की हूं. संविधान ने मु?ो सरकार चुनने का अधिकार दिया है, तो जाहिर सी बात है मैं अपनी मरजी से देशहित में फैसला ले कर ही अपने नेता को वोट दूंगी. और सुनो, मैं किस की प्रेमिका या बीवी बन सकती हूं गुलाम कतई नहीं. अभी भी सोच लो. मैं अपने रहनसहन में कोई बदलाव नहीं करूंगी, इन्फैक्ट तुम्हें कुछेक मामलों में सुधरना होगा तभी हम भविष्य में साथ रह पाएंगे.’’

शीतल की बातों से अभिनय भड़क गया और ताव में आ कर उस ने भी

बोल दिया, ‘‘सुधरना होगा? मैं किसी के भी लिए अपनेआप को नहीं बदलूंगा ओके और तुम भी सुन लो, मैं भी तुम्हारे जैसी अकड़ू लड़की के साथ जिंदगी नहीं बिता सकता. दुनिया में लड़कियों की कमी नहीं. मु?ो सम?ाने वाली

और मेरे विचारों के साथ तालमेल बैठाने वाली मु?ो भी मिल जाएगी. हर बात पर टोकाटोकी

और बहस करने वाली लड़की के साथ मैं पूरी जिंदगी नहीं बीता सकता. तुम चाहो तो इस रिलेशनशिप से आजाद हो सकती हो. 1 हफ्ते

का समय देता हूं अपना इंतजाम कहीं और

कर लेना.’’

अभिनय का फैसला सुन कर शीतल के दिमाग का पारा चढ़ गया. अभिनय का कौलर पकड़ते शीतल दहाड़ उठी क्या मतलब है तुम्हारा? अभिनय तुम रिश्ते को गुड्डेगुड्डियों

का रोल सम?ाते हो क्या? सुनो अभिनय मैं ने

मन के साथ अपना तन भी तुम्हें सौंपा है और

वह भी एक भरोसे के साथ, तुम तो रिश्ता

तोड़ने पर उतर आए. मेरे तन के साथ खेलते हुए तो मैं परी लगती हूं. आज इतनी सी बात पर छोड़ने पर उतारू हो गए? तुम किसी लड़की के भरोसे के लायक ही नहीं. मानसिक तौर पर नपुंसक हो नपुंसक.’’

नपुंसक शब्द सुनते ही अभिनय को अपने वजूद पर किसी ने तेज धार वाली शमशीर से प्रहार किया हो ऐसा महसूस हुआ. अत: उस ने अपनाआपा खोते हुए शीतल के गाल पर जोर से थप्पड़ जड़ दिया, ‘‘बदतमीज लड़की मैं तुम्हारे तन से खेला हूं तो सैटिस्फाइड तुम भी हुई हो सम?ा और जो होता था हम दोनों की मरजी से होता था, कोई बलात्कार नहीं किया मैं ने.’’

अभिनय ने जो तमाचा मारा वह शीतल के मन पर लगा था. अत: वह यह घरेलू हिंसा कैसे सह लेती. पास ही टेबल पर पड़ा फ्लौवर वाज उठा कर अभिनय के सिर पर दे मारा और यू बिच मु?ा पर हाथ उठाने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई कहते शीतल ने एक पल भी अभिनय के साथ रहना मुनासिब नहीं सम?ा. उसी पल अपना सामान ले कर अपनी फ्रैंड रूही के घर चली गई.

यों एकदूसरे को बेइंतहा प्यार करने वाले 2 प्रेमियों का प्यारा सा रिश्ता तूतू, मैंमैं से आगे बढ़ते हुए असमान विचारधारा की बलि चढ़ गया.

अभिनय को अपनी गलती का एहसास और पश्चात्ताप होने लगा.

आज संगीता के रूखे व्यवहार को कड़वे घूंट की तरह पी जाने वाला अभिनय शीतल के सख्त व्यवहार पर बिफर पड़ता था क्योंकि शीतल पत्नी नहीं प्रेमिका थी जिस का अभिनय पर कोई कानूनी हक तो था नहीं. आज अभिनय सोच रहा है जब संगीता ऐसा व्यवहार करती है तो मन मार कर सह लेता हूं क्योंकि वह बीवी है, न उगल सकता हूं. न निगल सकता हूं इसलिए एक अनमना रिश्ता भी ढो रहा हूं. अगर शीतल की बातों को सम?ा कर, उस के विचारों का सम्मान करते हुए रिश्ते को एक मौका दिया होता तो शायद जिंदगी कुछ और होती. प्यार तो दोनों के बीच बेशुमार था, बस अपनेअपने अहं और स्वतंत्र विचारधारा का सामने वाले की विचारधारा के साथ तालमेल नहीं बैठा पाने की वजह से दोनों ने रिश्ते का गला घोट दिया.

हर रिश्ता स्वतंत्रता चाहता है. सब की अपनी सोच और जिंदगी जीने का तरीका होता है.

क्यों मैं ने शीतल को सम?ा नहीं और शीतल ने क्यों मु?ो अपने सांचे में ढालने की कोशिश की? अगर शीतल अपनी जिंदगी अपने तौरतरीके से जीना चाहती थी तो क्या गलत था और मैं भी अपनी कुछ आदतें बदल लेता तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता? क्या एकदूसरे को स्पेस दे कर अपनेअपने स्वतंत्र विचारों का पालन करते

जिंदगी नहीं काट सकते थे? सैकड़ों कपल्स असमान विचारधारा के बावजूद एकदूसरे को आजादी देते हुए जिंदगी आसानी से काट लेते हैं. यहां तक कि आपस में बगैर प्रेम के कई जोड़े मांबाप भी बन जाते हैं. फिर मैं और शीतल छोटेछोटे मुद्दों को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते क्यों अलग हो गए?

इंसान का स्वभाव ही इंसान का दुश्मन

होता है या शायद वह उम्र ही ऐसी होती है जो ऐसी बातों को सम?ाने के लिए छोटी पड़ती है. आज जब सारी बातें, सारी गलती सम?ा में आ रही है तब चिडि़या चुग गई खेल वाली गत है. काश, मैं ने और शीतल ने उस वक्त सम?ादारी दिखाई होती तो आज यों पश्चात्ताप की आग में जलना नहीं पड़ता.

‘‘वक्त करता जो वफा आप हमारे होते,’’ गुनगुनाते हुए अभिनय नम आंखों से खिड़की

के पास जा कर दूर आकाश में ताकने लगा

जैसे सैकड़ों सितारों के बीच किसी अपने को ढूंढ़ रहा हो.

मशीन : खुद को क्यों नौकरानी समझती थी निशा

Writer- कुलदीप कौर बांगा ‘गोगी’

ट्रिन… ट्रिन… अलार्म की आवाज के साथ ही निशा की आंख खुल गई. यह कोई आज की बात नहीं, रोज ही तो उसे इस आवाज के साथ उठना पड़ता है. फिर यह तो उठने के लिए बहाना मात्र है. रातभर में न जाने कितनी बार वह बत्ती जला कर समय देखती है.

रात्रि की सुखद नीरवता एवं शांति को भंग करते प्रात:कालीन वेला में इस का बजना आज उसे कुछ ज्यादा ही अखर गया. उस ने अलार्म का बटन दबा कर उसे शांत कर दिया.

निशा रोज ही उठ कर मशीन की तरह घर के कामों में लग जाती है, पर न जाने क्यों आज उस  का मन कर रहा है कि वह पड़ी रहे. ‘ओह, सिर कितना भारी हो रहा है,’ सोचते हुए उस ने रजाई को कस कर और अपने इर्दगिर्द लपेट लिया. ‘आज शायद ठंड कुछ ज्यादा ही है,’ उस ने सोचा.

‘आखिर यों कब तक चलेगा,’ वह सोचने लगी. अब और खींच पाना उस के बस का नहीं है पर क्या वह नौकरी छोड़ दे? तब घर की गाड़ी कैसे चलेगी?

कैसी विडंबना है. जिस नौकरी को पाने के लिए वह रोरो कर सिर फोड़ लेती थी, जिसे पाने के लिए उस ने जमीनआसमान एक कर दिया था आज वही नौकरी कर पाना उस के बस का नहीं रहा है.

निशा ने एक ठंडी आह भरी और न चाहते हुए भी वह उठी और स्नानघर में घुस गई. आज उस का मन बरबस ही बचपन की दहलीज पर जा पहुंचा. मां उसे जगाजगा कर थक जाती थी, तब कहीं बड़ी मुश्किल से वह उठती थी. तैयार होती नाश्ता करती और स्कूल चली जाती. घर वापस आने पर किसी न किसी सहेली के यहां का कार्यक्रम बन जाता था.

सर्दियों की दोपहरी में टांगें फैला कर 5-6 सखियां घंटों बैठी रहतीं. रेवड़ी, मूंगफली से भरी ट्रे कब खत्म हो जाती और चाय के कितने प्याले पीए जाते हंसीठिठोली के बीच पता ही न चलता. फिर कालेज में आने पर मुकेश की गजलें, गीत सुन कर मन जाने कहां भटक जाता और हाथ की सलाइयां रुक जातीं.

‘‘कहां खो गई निशा?’’ किरण चुटकी लेती और इस के साथ सब सखियों का सम्मिलित ठहाका गूंज उठता. पढ़ाई के बाद उस ने नौकरी शुरू कर ली थी और उसी की वजह से अमित से मिलना हुआ, प्रेम हुआ, फिर विवाह हो गया. अब 2 गुना काम करना पड़ रहा था.

कितना मन करता है उन आलमभरी दोपहरियों की तरह पड़े रहने का. धूप सेंके तो मानो बरसों हो गए हैं. अमित कम से कम रविवार को तो धूप सेंक लेते हैं, उसे तो उस दिन भी यह नसीब नहीं.

‘अरे, अमित को तो अभी तक जगाया ही नहीं, पारुल और स्मिता को भी स्कूल के लिए देर हो जाएगी,’ निशा ने सोचा और फिर तेजी से आंच पर कुकर चढ़ा कर अमित को जगाने चली गई.

अमित को जगा कर जैसे ही निशा पारुल को जगाने लगी वह

चौंक पड़ी, ‘‘अरे, इसे तो बुखार लग

रहा है.’’

‘‘क्या?’’ अमित भी घबरा सा गया. उस ने पारुल को छूआ और आहिस्ता से बोला, ‘‘आज तो तुम छुट्टी कर लो निशु.’’

‘‘छुट्टी कैसे करूं रोजरोज? अभी उस दिन जब छूट्टी ली थी तो पता है बौस ने क्या कहा था?’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि महिलाओं को शादी और बच्चों के बाद नौकरी देने का मतलब है रोज की सिरदर्दी. आज यह काम तो कल वह काम. रहता हैं तो नौकरी करती ही क्यों हो.’’

उसे अचानक याद आए वे दिन जब उस की नौकरी लगी ही थी. तब तो वह छुट्टी ही नहीं लेती थी. उसे जरूरत ही नहीं पड़ती थी इस की. आराम से तैयार होना. रोज एक से एक बढि़या सूट या साड़ी पहनना और 4 इंच की हील वाले सैंडल पहन कर खटखट करते हुए निकल जाना. अब तो शादी और बच्चों के बाद किसी तरह उलटीसीधी साड़ी लपेटी और कभीकभी तो बस निकल जाने के डर से चप्पल बदलने का भी ध्यान नहीं रहता.

‘‘चलो, आज मैं छुट्टी ले लेता हूं. पारू

को डाक्टर के पास तो ले जाना ही पड़ेगा?’’ अमित ने कहा तो निशा थोड़ी सहज हो कर रसोई में चली गई. चाय के लिए पानी चढ़ाने लगी तो देखा गैस खत्म हो चुकी थी. वह रोंआसी सी हो गई. एक तो महरी सप्ताहभर के लिए बाहर गई हुई है, ऊपर से गैस खत्म- अगर उसे दफ्तर न जाना होता तो वह इत्मीनान से सारा काम कर लेती, पर अब?

8 बज चुके हैं और उसे सवा 9 बजे वाली बस पकड़नी है. क्यों ?ां?ाट मोल लिया, उस ने

नौकरी के बाद शादी करने का? कालेज के दिनों में कितनी छुट्टियां होती थीं. परीक्षाएं खत्म होने पर तो बस मजा ही आ जाता था. पढ़ाई की चिंता भी खत्म. गरमी की लंबी दोपहरियों में अपने कमरे के सारे परदे गिरा कर ठाट से ट्रांजिस्टर सुनती थी. एसी की ठंडी हवा कभी कोई पेंटिंग बनाती तो कभी खर्राटे लेते हुए शाम तक पड़ी रहती. शाम होते ही किरण, मधु, शशि सब पहुंच जाती थीं. फिर उन की सरपट भागती स्कूटियां होतीं और वे कभी फिल्म तो कभी किसी मौल में फूड कोर्ट में लंच.

‘‘निशा, तु?ो बांधने का

कोई खूंटा ढूंढ़ना ही पड़ेगा, यह नौकरी पूरा खूंटा नहीं है,’’ पड़ोस वाली रीता भाभी अकसर उसे

छेड़ा करतीं.

‘‘देखो भाभी, मैं तुम्हारी तरह खूंटे से यों ही बंधने की नहीं, नौकरी के साथ शादी करूंगी तो भी वह खूंटा नहीं देगी. आजादी कायम रहे. जो घरेलू ?ां?ाट मिलबांट कर पूरे हो जाएंगे अपने बस के नहीं,’’ और किसी नन्हे बच्चे की तरह भाभी को चिढ़ा कर भाग जाती थी वह.

‘‘क्या बात है निशा, चाय नहीं बनी अभी? भई, स्मित को स्कूल छोड़ने भी जाना है, उसे भी दूध दे दो,’’ कहतेकहते अमित रसोई में आ गए. इलैक्ट्रिक चूल्हे पर खाना धीमे पकता था. निशा के आंसू टपटप गिर रहे थे.

‘‘अरे, क्या गैस खत्म हो गई? तुम तो रो रही हो? निशा, तुम्हीं तो कहा करती हो, जहां संघर्ष खत्म हो जाता है वहां जिंदगी ठहर जाती है. पगली चलो उठो, मैं बरतन कर देता हूं,’’ अमित मुसकराते हुए बोले, पर उन की आवाज में खीज निशा से छिपी न रह सकी.

बच्चों की बीमारी, मेड की छुट्टियां, कभी अपनी तबीयत खराब तो कभी मेहमानों का आना यह  तो गृहस्थी में हमेशा ही चलता रहता है पर जाने क्यों कई दिनों से निशा बड़ी अनमनी सी हो गई है. शायद रोज ही इस भागदौड़ से वह अब थक सी गई है. रोज 5 बजे उठना, घर भर की सफाई करना, बच्चों को दूध, नाश्ता करा कर और लंच दे कर स्कूल भेजना. फिर अपना तथा अमित का नाश्ता व साथ ले जाने के लिए दोपहर का खाना तैयार करना, 9 बजने का पता ही नहीं चलता था और जब कभी महरी न आए तो बरतनों का ढेर भी उस के जिम्मे था. वह अकसर भाग कर ही बस पकड़ पाती थी. देर होने पर बौस की खा जाने वाली निगाहें, फाइलों का ढेर और दोपहरी में सुबह का बना ठंडा खाना. घर लौटतेलौटते 6 बज जाते. थकान से टूटता बदन और घिसटते कदम. दिनभर अकेले रहे बच्चों पर उसे डेर सा प्यार उमड़ आता और वह उन्हें प्यार करतेकरते खुद रो पड़ती.

एक रविवार आता तो अनेक ?ां?ाट रहते. पड़ोस में किसी के बच्चा हुआ है, बधाई देने जाना है. कोई रिश्तेदार अस्पताल में दाखिल है, उसे देखने जाना है. कहीं से शादी का कार्ड आया है, जाना तो पड़ेगा ही. किसकिस को अपनी परेशानी सुनाई जाए और फिर कपड़ों का ढेर तो रविवार के लिए निश्चित है ही. किसी का बटन टूटा है, तो किसी कमीज की सिलाई उधड़ी है. कभी दालों को धूप दिखानी है तो कभी अचार खराब होने के आसार नजर आ रहे हैं.

‘‘आप जाइए, दफ्तर,’’ निशा ने नाश्ते की प्लेट अमित को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘मैं ही ले लूंगी छुट्टी, आज. मेरा सिर भी आज भारीभारी सा हो रहा है. और हां, आज खाना भी कैंटीन में ही खा लेना,’’ कहतेकहते वह कमरे में जा कर पलंग पर पड़ गई.

मन कर रहा था कि  2 घंटे चुपचाप पड़ी रहे तथा कुछ न सोचे पर आज वह स्वयं को बड़ा अशांत अनुभव कर रही थी. उसे शादी से पहले डायरी में लिखे वे शब्द याद आ रहे थे, हम

कोई भी कार्य उत्साह से शुरू करते हैं पर अंत भी उसी उत्साह से होगा या नहीं, कोई नहीं जानता. उस के अनुभव ने उसे आज सही साबित किया है. हो सकता है, आने वाला कल उसे गलत साबित कर दे पर आज यह एकदम सही है. अब डायरियां भी कहां रह गईं. मोबाइलों पर घिसेपिटे मैसेज आते. इस देवता को पूज लो उस देवी की मन्नत मान लो.

यही तो हुआ है उस के साथ. जब वह एमए कर चुकी थी तो नौकरी के लिए उत्सुक थी. चाहती थी एक क्षण भी न लगे और उसे नौकरी मिल जाए पर 2-3 साक्षात्कार दे कर ही वह नौकरी पा गई.

शादी के बाद वह सोचती थी कि 2 वेतनों से उस के दुखों का अंत हो जाएगा पर अब अकसर निशा सोचती, वह उस के दुखों का अंत नहीं बल्कि शुरुआत थी. कितना घृणित होता है पुरुषों का साथ?

अनिल को ही देखो. जब भी कोई फाइल लेने आएगा तो सिगरेट का धुआं जानबू?ा कर मुंह पर ही छोड़ेगा और रमेश तो जानबू?ा कर किसी मोबाइल के मैसेज के शीर्षक को भी इतनी जोर से पढ़ेगा कि वह सुन ले. अभी कल भी तो कुछ पढ़ रहा था. हां, याद आया, ‘‘युवतियों से छेड़छाड़ के लिए युवतियां दोषी हैं?’’

‘‘अरे वाह, क्या सही बात लिखी है लेखक ने,’’ कहते हुए कितनी भद्दी हंसी हंसा था वह.

उस के बदन पर निगाहें टिका कर सुरेश कितनी ही बार दिनेश से कह चुका है,

‘‘यार, कुछ औरतें तो 2 बच्चों की मां हो कर भी लड़की सी लगती हैं. पता नहीं क्या खाती हैं.’’

हुंह क्या खाक कंधा मिलाएं इन पुरुषों से. बड़ी इच्छा होती है अब तो कोई कह दे, निशू, नौकरी छोड़ दो. पर जब सब मना करते थे तो वह रोती थी, अब वह नहीं चाहती तो कोई मना नहीं करता. काश, अमित एक बार आग्रह कर दे कि निशू नौकरी छोड़ दो, अब तुम्हारी हालत मु?ा से देखी नहीं जाती.

हुंह, उसे अपने घर की हालत का पता नहीं. अमित के 25 हजार रुपए से क्या होता है. इन दोनों के 45 हजार रुपए से तो मुश्किल से गुजारा होता है. मकान का किराया, दूध का बिल, फल, सब्जी, कपड़े, मेहमान, बच्चों की प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई, बीमारी आखिर किसकिस में कमी करेगी वह. देखा जाए तो कितना अच्छा लगता है यह सब, कितना सुकून मिलता है जब वह संघर्ष से अर्जित आय से घर चलाती है.

हर महीने कुछ न कुछ बचा कर जब वह कोई वस्तु खरीदती है तो इतनी खुशी मिलती है मानो सबकुछ मिल गया हो. ‘अगले महीने यह खरीदूंगी,’ की कल्पना ही कितनी सुखद होती है. बचत कर के कुछ न कुछ खरीदने का मजा भी कुछ और ही है. उसे अपने घर की हर वस्तु से संतोष की ?ालक और मेहनत की खुशबू आती है और फिर घर तो चलाना ही है. क्यों न खुशीखुशी से यह सब किया जाए.

हां, घर तो चलाना ही है. सहसा उसे याद आ जाता है कि आज मेड नहीं आएगी और

रसोई में रात के जूठे बरतनों का ढेर लगा है जबकि आधे तो अमित धो गया था. वह तेजी से उठ जाती है और मशीन की तरह घूमने लगती है. वह सोचती है कि मशीन बन जाना ही उस की नियति है.

नानू का बेटा: क्यों नानू को गोद लेने के लिए भीड़ लग गई

सुधा की बिटिया ने बेटे को जन्म दिया तो मानुषी भी बहुत खुश थी क्यों न हो तीनों बहनों के बच्चों परिवार में तीसरी पीढ़ी का अगुआ जो था और फिर सुधा और मानुषी के बीच प्रेम और स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ था जो शादी के बाद भी बना हुआ था .दोनों अपनी अपनी दुनिया में खुश थी लेकिन जीवन के सुख दुःख एक दूसरे से साझा कर लेती थीं. मानुषी सुधा से दो साल बड़ी थी ,पिता के शांत हो जाने के बाद वह अब सचमुच बड़ी बहिन की तरह सुधा का ख्याल रखती थी. कोरोना जब सामाजिक ताने बाने को तार- तार कर रहा था तब दोनों बहनें अपने अपने शहर के हालत के बारे में बात करती बल्कि देश दुनिया की चिंता भी उनकी बातों में उभर आती .दोनों कोरोना से बचने के उपाय एक दूसरे से साझा करती. मानुषी का पति वरिष्ठ नागरिक की देहरी छू चूका था और दिल का मरीज होने के नाते उसे उनकी ज्यादा फिक्र रहती थी और फिर खुद भी डायबिटिक थी अतः बहुत सावधानी बरत रही थी.

सुधा तो अब अपने नवासे गोलू की तीमारदारी में लगी रहती. नवजात शिशु  और जच्चा के अपने बहुत काम होते हैं लेकिन वह ख़ुशी की उस नाव पर सवार थी जिसके आगे किसी लहर से परेशानी नहीं अनुभव हो रही थी .उस नन्हे मेहमान ने घर में नई ऊर्जा का संचार कर दिया था परंतु यह डर मन में बना रहता था कि बच्चा और उसकी बिटिया रक्षिता दोनों कोरोना से ग्रसित न हो जाएँ.

बच्चे की अठखेलियों के वीडियो दोनों बहनों के घरों में देखे जाने लगे. अब सामान्य कॉलकी जगह वीडियोकॉल ने ले ली थी क्योंकि बच्चे की हरकतें देखना सब को भा रहा था .बच्चे ने तो अभी बोलना शुरू भी नहीं किया था लेकिन सारा घर तुतलाने लगा था.

अचानक एक दिन सुबह छः बजे मानुषी के फोन की घंटी बजी तो मानुषी परेशान हो उठी ,उठ कर देखा तो सुधा का फोन था. वह भीतर से किसी अनहोनी से बहुत डर गई . इतनी सुबह तो सुधा कभी फोन नहीं करती,कहीं बच्चा बीमार तो नहीं हो गया जिसे सब अब प्यार से नानू का बेटा कहने लगे थे.खैर उसने फोन उठा कर बात की तो सुधा भी घबराई हुई थी और उसने छूटते ही कहा कि–“ मैं रक्षिता को टैक्सी से तेरे पास भेज रही हूँ. परसों सब का कोरोनाटेस्टकराया था तो मुकुल(सुधा का पति) और मैं दोनों पॉजिटिव आये हैं. मुकुल तो अस्पताल में भरती है ,मेरे पास भी एस.डी.एम् ऑफिस से फोन आ चुका है, सुबह एम्बुलेंस लेने आएगी ,रक्षिता के टेस्ट का रिजल्ट अभी नहीं आया है ,मेरे जाने के बाद उसकी देख भाल कौन करेगा इसलिए उसे तेरे पास भेज रही हूँ ,वो शाम तक तेरे पास पहुँच जाएगी”

मानुषी के मुंह से सिर्फ ठीक है भेज दे निकला, और फोन कट गया. इस अप्रत्याशित स्थिति की उसने कल्पना भी नहीं की थी. उसे समझ नहीं आ रहा था एक और बहन और बहनोई की चिंता ऊपर से रक्षिता अपने के साथ उसके पास आ रही थी. ऐसा कैसे हो सकता है कि जब सब बच्चे को खिला रहे हों और साथ रहे हों ,तब रक्षिता संक्रमित होने से कैसे बच  सकती है ? एक ओर  उसके मन में जच्चा (रक्षिता) और उसके के बच्चे की देख भाल का द्वन्द चल रहा था तो दूसरी और अपने पति अनिल के संक्रमित होने के खतरे की चिंता थी. लेकिन सुधा ने तो उसे कुछ भी कहने का मौका ही कहाँ दिया था.

शाम को टैक्सी से रक्षिता अपने बीस दिन के प्यारे से बेटे को लेकर मानुषी के पास पहुँच गई. मानुषी ने उसे गेस्ट रूम में ठहरा कर अगले चौदह दिन के आइसोलेशन की हिदायत यह समझाते हुए दे दी कि अभी टेस्ट रिपोर्ट नहीं आई है अतः दूसरे बच्चे की सेहत के लिए अलग रहना जरूरी है. रक्षिता ने सब ध्यान से सुना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी,यधपि उसे मौसी का व्यवहार बड़ा अटपटा सा लग रहा था. यहाँ तक कि उसकी कजिन नम्रता भी दूरी बनाये हुए थी.

उधर सुधा ने फोन करके बता दिया कि उसे भी अस्पताल में आइसोलेशन में रख कर इलाज़ शुरू कर दिया है. उसने मानुषी से रक्षिता के बारे में पूछा तो उसने कह दिया –“ तू उसकी चिंतामत कर अपना ख्याल रख “ तीन प्राणी और तीन जगह ,न कोई एक दूसरे से मिल सकता था ,न कहीं आ जा सकता था. कोरोना ने मानवीय रिश्तों के बीच संक्रमण के भय से जो सामाजिक दूरी बना थी ऐसी जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी.

रक्षिता को दो दिन में हीगेस्ट रूम जेल लगाने लगा था. न तो वह बाहर आ सकती थी न ही कोई उसके कमरे में आता था. यहाँ तक कि खाने पीने का सामान या अन्य किसी चीज की जरूरत होती तो मानुषी कमरे के बाहर रख कर फोन कर देती और रक्षिता उसे कलेक्ट कर लेती. अभी उसकी डिलीवरी को बाईस दिन ही तो हुए थे. बच्चे की देख भाल ,उसके शू- शूपोट्टी के कपडे धोना ,उसकी मालिश करना ,दवाई देना ,सब जंजाल लग रहा था.  रात भर बच्चा सोने नहीं देता था अतः वह जल्दी दुखी हो गई. आगरा में तो मम्मी यानि सुधा कर रही थी. वह मन ही मन माँ के मौसी घर भेजने के निर्णय को गलत मान रही थी. सुधा भी मानुषी के व्यवहार से ज्यादा खुश नहीं थी ,उसे लगता था कि वैसे तो वीडियोकॉल पर दूर से सब बच्चे से लाड लड़ा रहे थे लेकिन जब बच्चा पास आ गया तो उसे अछूत करार दे रखा है और वह भी उसकी सगी बहन ने उधर अनिल भी मानुषी के प्रोटोकॉल से बहनों के रिश्ते में खटास आने के डर से रहा था. वह जब भी छोटे बच्चे की रोने की आवाज़ सुनता गेस्ट रूम की सीडियां चढ़ने को होता लेकिन मानुषी के डर से मन मसोस कर रह जाता. नम्रता तो मानुषी से निगाह बचा कर नानू के बेटे को देख आती.

तीसरे दिन आखिर सुधा ने मानुषी से कह दिया कि रक्षिता का जयपुर में मन नहीं लग रहा. मानुषी ने साफ़ कह दिया –“ बच्चे और अनिल की सेहत को देखते हुए यह सब एक हफ्ते तक चलेगा ,तू और मुकुल कब अस्पताल से डिस्चार्ग होंगे ?” सुधा की बात को नज़रअंदाज़ करते हुएमानुषी ने सवाल दागा  सुधा ने बताया की अभी चार दिन तो कम से कम अस्पताल में रहना होगा. बच्चे की आवाज़ का जादू धीरे धीरे घर में फैलने लगा था. मानुषी ने चौथे दिन से बच्चे की बाहर धूप में लिटा कर मालिश करने के लिए कह दिया. खुद मानुषी बच्चे और रक्षिता के खान- पान और दवाइयों आदि की व्यवस्था में मशगूल रहती . रिश्तों में दरार से ज्यादा वह अपनी जिम्मेदारियों के निर्वाह पर ध्यान दे रही थी | उसे मालूम था कि प्रसव के बाद माँ और बच्चे की देख भाल कैसे की जाती है ,आखिर उसने भी तो दो बच्चे पाल पोस कर बड़े किये थे.

अब अनिल सीढ़ियां चढ़ कर दूर से बच्चे को निहारने लगा था. नानू का बेटा नाम उसी ने तो दिया था. पूरे घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार नानू के बेटे ने कर दिया था. अब नम्रता भी बच्चे को खिलाने लगी थी. नानू के बेटे की अठखेलियों से रिश्तों की कड़वाहट फीकी पड़ने लगी थी.

दस दिन के बाद सुधा और मुकुल को अस्पताल से छुट्टी मिली ,अब वह घर आ गई थी लेकिन इन दस दिनों में जो देख भाल उसकी बेटी रक्षिता और उसके बच्चे की मानुषी ने की थी उसने शुरुआत की कडवाहट को दूर कर दिया था. उसे समझ आ गया था कि भावुकता में वह मानुषी को कोस रही थी जबकि मानुषी ने वह सब बच्चे की सेहत के लिया किया था.

वह दिन भी आ गया जब मानुषी के घर में नानू के बेटे को गोद में लेने की होड़ होने लगी.  पंद्रह दिन बाद जब रक्षिता वापस आगरा लौट रही थी तो मौसी से जेठ भर कर मिली. नानू का बेटा मौसी की गोद में खुश था. गाड़ी में बिठाते हुए मानुषी ने इतना ही कहा –“ ठीक से जाना , पहुँच कर फोन जरूर करना, बेटियां घर की रौनक भी होती हैं और जिम्मेवारी भी ” रक्षिता के मुंह से सिर्फ इतना ही निकला -मौसी …. और दो आंसू उसके गाल पर ढुलक आये |मानुषी ने महसूस किया कि उसका कंधा रक्षिता के आंसुओं से नम हो रहा था. अनिल यह सोच कर खुश था कि आखिर नानू के बेटे और मानुषी ने रिश्तों की डोर में गाँठ पड़ने से बचा ली .

राज: कैसे समधन की मददगार बनीं नेहा की सास

हम तीनों बहनों की शादियां हो चुकी हैं. कोई बेटा न होने के कारण मां अकेली रहती हैं. इसलिए 4 दिन बाद होने वाले मोतियाबिंद के आपरेशन के पश्चात मां की देखभाल करने की समस्या का हल ढूंढ़ना जरूरी था. इस विषय पर मैं ने अपनी मझली बहन नीरजा से फोन पर बात की.

‘‘डाक्टर गुप्ता ने मां की आंख का आपरेशन करने के लिए 4 दिन बाद की डेट दे दी है. मेरे लिए तो 1 दिन से ज्यादा छुट्टी लेना असंभव है, क्योंकि आफिस में सालाना क्लोजिंग का काम चल रहा है,’’ वार्त्तालाप के आरंभ में ही मैं ने यह बात साफ कर दी कि मैं मां की देखभाल के लिए उन के साथ नहीं रह पाऊंगी.

‘‘फिर मां की देखभाल कैसे होगी? तुम्हें तो पता है कि मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है,’’ नीरजा की आवाज में फौरन चिढ़ व गुस्से के भाव उभरे.

‘‘मां की देखभाल के नाम पर तुझे एकदम से अपनी बीमारी याद आ गई. और सब जगह घूमनेफिरने में तेरी बीमारी रुकावट क्यों नहीं डालती?’’

‘‘मजबूरी में तो तुम भी छुट्टी ले ही सकती हो. पिछले साल

इन्हीं क्लोजिंग के दिनों में तुम जीजाजी के साथ मलयेशिया घूम कर

आईं न.’’

‘‘मलयेशिया घूमने का मौका तो इन के आफिस वालों की तरफ से मुफ्त में मिला था. उसे छोड़ देना तो नासमझी होती बहना.’’

‘‘मैं तुम से झगड़ी तो मेरे सिर का दर्द जानलेवा हो जाएगा. क्या तुम्हारी इस बारे में नेहा से बात हुई है?’’ नीरजा ने वार्त्तालाप को हमारी छोटी बहन की तरफ मोड़ दिया.

‘‘मैं उसे अभी फोन करूंगी, पर क्या फायदा होगा उस से इस बारे में कोई बात करने का? तुझे लगता है कि उस की सास उसे मां की देखभाल के लिए मायके आने की इजाजत देंगी?’’

‘‘बिलकुल नहीं देंगी. नेहा को भेजने की बात वही उन से कहे जिसे अपनी बेइज्जती कराने का शौक हो. वे तो बहुत मुंहफट औरत हैं.’’

नेहा की सास के साथ करीब 3 महीने पहले हमारा एक अनुभव बहुत खराब रहा था. तब नेहा और कपिल की शादी हुए 1 महीना ही बीता था.

नीरजा और मैं उस शाम पहली दफा नेहा की ससुराल में मिठाई और फल ले कर पहुंचे.

‘मौसीजी, कुछ देर के लिए हम नेहा को अपने साथ बाजार घुमाने ले

जाएं?’ कुछ देर बैठने के बाद मैं ने अपनी आवाज में भरपूर मिठास भर कर नेहा की सास से उसे साथ ले जाने की इजाजत मांगी थी.

‘नेहा तो घूमने नहीं जा सकेगी. बड़ी बहू के दोनों बच्चों की परीक्षाएं 2 दिन बाद शुरू हो रही हैं और उन की तैयारी कराने की सारी जिम्मेदारी नेहा के सिर पर है. ऐसे में 1 दिन भी जाया करना उन का रिजल्ट बिगाड़ देगा,’ बड़े रूखे से अंदाज में मौसीजी ने नेहा को साथ भेजने से इनकार कर दिया था.

‘प्जीज, थोड़ी देर के लिए भेज दीजिए न, मौसीजी,’ नीरजा ने तो उन की खुशामद करने को हाथ भी जोड़ दिए थे.

‘अपनी जिम्मेदारी को नजरअंदाज कर के वह नहीं जा सकेगी,’ वे नाराज नजर आतीं हमारे पास से उठीं और घर के भीतरी भाग में चली गईं.

हम दोनों बहनों की एक तरह से उन के हाथों बहुत बेइज्जती हुई थी. हम ने जब उन के खराब व्यवहार की शिकायत नेहा से की तो वह उलटा हमें ही समझाने लगी थी.

‘मम्मीजी की बातों का आप दोनों बुरा न मानो, क्योंकि वे दिल

की बहुत अच्छी हैं. आप के लिए गरमगरम समोसे और जलेबियां उन्होंने ही मंगाई हैं.’

नेहा का उन की तरफदारी करना हमारा गुस्सा और ज्यादा बढ़ा गया था, ‘मां ने जल्दबाजी दिखाते हुए बहुत गलत घर में तेरी शादी कर दी है. ऐसे दमघोंटू वातावरण में तू जी कैसे रही है?’ नीरजा ने सहानुभूति प्रकट की थी.

‘मैं तो यहां बहुत खुश हूं. मेरी ससुराल के सब लोग जबानके कड़वे पर दिल के अच्छे हैं,’’ नेहा का यह जवाब सुन कर हम दोनों बहनें उस का मुंह हैरानी से ताकने लगी थीं.

उस की जिंदगी में खुशी देने वाली कोई बात हमें तो नजर नहीं आई थी. घर में सास का हिटलरी हुक्म पूरी तरह से चलता था. जब वे गुस्से में होतीं तो नेहा के ससुरजी या दोनों बेटों की भी उन के सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी.

मौसीजी ने घर के सारे काम दोनों बहुओं के बीच बांटे हुए थे.

नेहा पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थी पर इस कारण उसे अपने हिस्से के काम करने में कोई छूट नहीं मिली थी. मौसीजी का अपना मन होता तो घर के कामों में हाथ बंटातीं, नहीं तो जबान हिला कर बस, हुक्म सुनाती रहती थीं.

नेहा को सुबह 6 बजे उठ कर रोज सुबह का नाश्ता तैयार करना होता था. रात को चपातियां वही सेंकती. आज के समय में भी जब मौसीजी का मन करता तो वे दोनों बहुओं से पैर दबवा लेती थीं.

नेहा के जेवर भी उस की सास ने अपने पास

दबा कर रख लिए थे. बाहर वालों के सामने उसे सिर पर पल्ला रखना पड़ता था. इतनी तेज सास के साथ रहते हुए भी नेहा खुश है, यह बात हम दोनों बड़ी बहनों की समझ में बिलकुल नहीं आती थी. हमारी नजरों में तो वे बददिमाग और बेहद घमंडी स्त्री थीं.

नीरजा से बातें करने के बाद मैं ने कपिल को फोन कर मां के आपरेशन के बारे में जानकारी दे दी. फिर मां से कहा, ‘‘मां, तुम्हारे आपरेशन के लिए मैं अकेली 25 हजार रुपए खर्च कर रही हूं. नीरजा तो फ्लैट की किस्त का बहाना बना कर 1 धेला देने को तैयार नहीं है और नेहा से रुपए मांगना अच्छा नहीं लगेगा. जब सारा खर्च मैं ही कर रही हूं तो तुम्हारी देखभाल की पूरी जिम्मेदारी नीरजा की रहेगी,’’ मेरी तीखी बात सुन कर मां ने नाराजगी भरे अंदाज में आंखें मूंद लीं.

करीब घंटे भर के बाद कपिल नेहा के साथ वहां आ गया.

‘‘कहां आपरेशन हो रहा है इन का?’’

कपिल ने मां के आपरेशन के बारे में बातें

करनी शुरू कीं.

‘‘यहां पास में डाक्टर गुप्ता के आंखों के अस्पताल में 4 दिन बाद आपरेशन होगा,’’ बड़ी मुश्किल से ही मैं अपनी आवाज को सहज रख पा रही थी.

‘‘शहर के सब से नामी और काबिल

आई सर्जन डाक्टर कैलाश से आपरेशन क्यों नहीं करातीं?’’

‘‘क्योंकि वह मरीजों को लूटता है, कपिल,’’ मैं ने चिढ़ कर जवाब दिया.

‘‘वह कैसे?’’ कपिल हैरान नजर आने लगा.

‘‘करीब डेढ़ गुना ज्यादा खर्च आएगा डाक्टर कैलाश के यहां आपरेशन कराने का. यहां 25 हजार में काम हो जाएगा और वहां

35 हजार लगेंगे.’’

‘‘मैं समझता हूं कि आंख के मामले में हमें सब से अच्छी जगह ही जाना चाहिए.’’

‘‘25 हजार से ज्यादा खर्च करना मेरे बजट से बाहर होगा. कपिल, तुम तो मुझे यह बताओ कि क्या कुछ दिन के लिए नेहा मां की देखभाल के लिए यहां आ सकती है?’’ मैं ने वार्त्तालाप की दिशा बदल दी.

‘‘मैं इस बारे में मम्मी से बात करता हूं,’’ सीधा जवाब देना टाल कर उस ने फिर चुप्पी साध ली.

कुछ देर बाद अकेले में नेहा ने मुझे अपनी मजबूरी बता दी, ‘‘मैं मां की देखभाल के लिए नहीं आ सकती हूं, निशा दीदी. सासूमां आने की इजाजत नहीं देंगी, क्योंकि जेठानी के दोनों बच्चों की आजकल वार्षिक परीक्षाएं चल रही हैं.’’

‘‘तू तो उस घर के रंग में पूरी तरह रंग कर निर्मोही हो गई है,’’ नेहा से यह चुभती बात कह कर मैं अपने घर आने को निकल पड़ी.

अगले दिन 11 बजे के करीब मैं मां से मिलने पहुंची तो वे घर में नहीं थीं. पड़ोस वाली कमला आंटी से पता लगा कि कपिल डाक्टर कैलाश के यहां उन की आंख का चैकअप कराने के लिए उन्हें साथ ले गया है.

शाम को मां ने मुझे बताया कि अब उन की

आंख का आपरेशन डाक्टर कैलाश ही करेंगे. मैं ने फौरन फोन कर नेहा से कह दिया कि 25 हजार से ज्यादा होने वाला खर्च कपिल को ही वहन करना पड़ेगा.

फिर 4 दिन के बाद सारा घटनाक्रम बड़ी तेजी से घूमा.

‘‘हम नेहा को तो आप की देखभाल करने के लिए नहीं भेज पा रहे हैं, पर आप को तो अपने यहां बुला सकते हैं न? आप अपनी बेटी की ससुराल में नहीं बल्कि अपनी बहन के घर रहने जा रही हैं,’’ ऐसी दलील दे कर नेहा की सास मेरी मां को आपरेशन होने के 1 दिन पहले अपने घर ले गई थीं.

इस कारण नीरजा ने तो बड़ी राहत की सांस ली पर मुझे यों महसूस हुआ जैसे मैं ठगी गई हूं. अब नीरजा को न आपरेशन के लिए कुछ खर्च देना था और न ही मां की देखभाल करने की जहमत उठानी थी.

‘‘आप इनसान नहीं, देवी हो,’’ आपरेशन थिएटर में जाने से पहले मां के मुंह से नेहा की सास की प्रशंसा में यह वाक्य कई बार निकला.

‘‘आपरेशन पूरी तरह से सफल रहा है,’’

डाक्टर कैलाश के मुंह से यह खबर सुन कर हम सब बहुत खुश हो गए.

‘‘निशा , हम सारा हिसाब बाद में कर लेंगे,’’ ऐसा कह कर मौसीजी ने आपरेशन का पूरा बिल भी खुद ही चुका दिया. आपरेशन होने के बाद मां पूरे 10 दिन नेहा की ससुराल में ही रहीं. मौसीजी ने उन को अपने कमरे में रखा. नेहा के ससुरजी ड्राइंगरूम में सोने लगे थे. मां की पूरी देखभाल मौसीजी कर रही थीं. उन्हें डाक्टर को दिखा लाने की जिम्मेदारी कपिल या उस के बड़े भाई ने निभाई.

मां को उन के यहां से विदा करा लाने

के लिए मैं अपनी कार से अकेली उन के घर पहुंची. नीरजा कमर दर्द का बहाना बना कर

मेरे साथ नहीं आई पर मुझे लगा कि वह आपरेशन में हुए खर्चे का अपना हिस्सा

सब के सामने न दे पाने की शर्मिंदगी से बचना चाहती थी.

‘‘निशा, आपरेशन पर कुल 30 हजार का खर्च आया है, जोकि तुम तीनों बहनों को

आपस में बांटना होगा. ऐसे मामलों में हिसाब से चलना ठीक रहता है,’’ मौसीजी ने मुझे अपने पास बिठा कर अस्पताल का बिल मेरे हाथ में पकड़ा दिया.

मैं तो कुल मिला कर फायदे में ही रही. 25 हजार की जगह अब मुझे नीरजा व अपने हिस्से के 20 हजार रुपए ही देने पड़े. बाद में मां की देखभाल के लिए मुझे जो आया की पगार देनी पड़ती, मेरा वह खर्चा भी बच गया.

विदा के समय मां ने भावुक हो कर मौसीजी से कहा, ‘‘बहनजी, आप ने मेरी इतनी अच्छी तरह देखभाल कर के जो एहसान मेरे सिर पर चढ़ा दिया है, वह मैं इस जिंदगी में नहीं उतार पाऊंगी.’’

‘‘एहसान शब्द को मुंह से निकाल कर आप हमें शर्मिंदा न करें, बहनजी. आप की देखभाल में अगर कुछ कमी रह गई हो तो अपनी इस बहन को माफ कर देना,’’ मौसीजी ने अपना बड़प्पन दिखाते हुए मां से उम्र में बड़ी होने के बावजूद उन के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘आखिरी सांस तक मैं यह प्रार्थना जरूर

करूंगी कि आप के संयुक्त परिवार में सब की अच्छी सेहत, मन की हंसीखुशी और सुखशांति बनी रहे,’’ यह आशीर्वाद दे कर मां आंखों में आंसू लिए कार में बैठ गईं.

मुझे मौसीजी को नजदीक से देखनेसमझने का मौका मिला तो उन के बारे में मेरी राय पूरी तरह बदल गई थी. मौसीजी की जबान कड़वी व तीखी होने के बावजूद घर का हर सदस्य उन का पूरा मानसम्मान क्यों करता है, इस का राज भी मेरी समझ में आ गया था.

उन के पास सोने का दिल था. वे स्वभाव की तेज जरूरी थीं, पर उन की बातें किसी को अपमानित नहीं करती थीं. अपने परिवार की खुशहाली के लिए पूरी तरह से समर्पित ये बुजुर्ग महिला बड़ी कुशलता से घर चलाते हुए परिवार के हर सदस्य के सुखदुख का पूरा ध्यान रख रही थीं. अपने दिल में उन के प्रति श्रद्धा व सम्मान के भाव रख कर मैं ने विदा के समय उन के पैर छुए तो उन्होंने मुझे छाती से लगा कर ढेर सारे आशीष दे डाले.

एक बिंदास लड़की : शादी के बाद क्यों बदलती है लड़की की ज़िन्दगी

बुजुर्गों की तरफ से तो रिश्ता तय हो चुका था. कुंडली मिलान, लेनदेन सब कुछ. बस, अब सब लड़कालड़की की आपसी बातचीत पर निर्भर था. बुजुर्गों ने तय किया कि लड़कालड़की आपस में बात कर एकदूसरे को समझ लें. कुछ पूछना हो तो आपस में पूछ लें. उन्हें एकांत दिया गया.

लड़के को शांत देख लड़की ने कहा, ‘‘आप कुछ पूछना चाहते हैं?’’ लड़का शरमीला था. मध्यमवर्गीय परिवार से था. उस ने कहा, ‘‘नहीं, बुजुर्गों ने तो सब

देखपरख लिया है. उन्होंने तय किया है तो सब ठीक ही होगा. आप दिखने में अच्छी हैं. मुझे पसंद हैं, बस इतना पूछना था कि…’’ लड़का पूछने में लड़खड़ाने लगा तो उस पढ़ीलिखी सभ्य लड़की ने कहा, ‘‘पूछिए, निस्संकोच पूछिए, आखिर हमारीआप की जिंदगी का सवाल है.’’

लड़के ने पूछा, ‘‘यह शादी आप की मरजी से… मेरे कहने का अर्थ यह है कि आप राजी हैं, आप खुश हैं न.’’

‘‘हां, लड़की ने बड़ी सरलता और सहजता से कहा. नहीं होती तो पहले ही मना कर देती.’’ लड़का चुप रहा. अब लड़की ने कहा, ‘‘मैं भी कुछ पूछना चाहती हूं आखिर मेरी भी जिंदगी का सवाल है. उम्मीद है कि आप बुरा नहीं मानेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, निस्संकोच पूछिए,’’ लड़के ने कहा. वह मन ही मन सोचने लगा, ‘लड़की पढ़ीलिखी है तो तेज तो होगी ही लेकिन इतनी बिंदास और बेबाक.’

‘‘आप का शादी के पहले कोई चक्कर, मेरा मतलब कोई अफेयर था क्या?’’

‘‘क्या,’’ लड़के ने लड़की की तरफ देखा.

‘‘अरे, आप घबरा क्यों गए? कालेज में पढ़े हो. इश्क वगैरा हो जाता है. इस में आश्चर्य की क्या बात है? सच बताना. एकदूसरे से क्या छिपाना?’’

‘‘जी, वह एक लड़की से. बस, यों ही कुछ दिन तक. अब सब खत्म है,’’ लड़के ने झेंपते हुए कहा.

‘‘मेरा भी था,’’ लड़की ने बेझिझक कहा.

‘‘अब नहीं है.’’

लड़का लड़की का मुंह ताकने लगा.

‘‘क्यों, क्या हुआ? जब आप ने कहा तब मैं ने तो ऐसा रिएक्ट नहीं किया जैसा आप कर रहे हैं. आप ने तो पूछने पर बताया, मैं ने तो ईमानदारी से बिना पूछे ही बता दिया.’’

‘‘अच्छा, यह बताओ कि महीने में कितना कमा लेते हो?’’ लड़की ने आगे पूछा.

‘‘जी, 10 हजार रुपए.’’

‘‘मैं ने वेतन नहीं पूछा, टोटल कमाई पूछी है.’’

‘‘जी, मैं घूस नहीं लेता,’’ लड़के ने ताव से कहा.

‘‘अच्छा, पैदाइशी हरिश्चंद्र हो या अन्ना आंदोलन का असर है या फिर, डरते हो’’ लड़की हंस कर बोली.

‘‘यह क्या कह रही हैं आप?’’

‘‘तो आप ईमानदार हैं.’’

‘‘जी, बिलकुल.’’

‘‘फिर घर कैसे चलाएंगे 10 हजार रुपए में, खासकर शादी के बाद. कम से कम 5 हजार रुपए तो मेरे ऊपर ही खर्च होंगे. क्या शादी के बाद अपनी पत्नी को घुमाने नहीं ले जाएंगे. बाजार, सिनेमा, कपड़े, जेवर वगैरावगैरा.’’

लड़के बेचारे के तो होश गुम थे. अच्छाखासा इंटरव्यू हो रहा था उस का. अब उसे लड़की बड़ी बेशर्म और उजड्ड मालूम हुई.

लड़की ने कहा, ‘‘देखो, शादी के बाद मुझे कोई झंझट नहीं चाहिए. अपनी मांबहन को पहले ही समझा कर रखना. मुझे सुबह आराम से उठने की आदत है और हां, शादी के बाद अकसर लड़झगड़ कर लड़के अलग हो जाते हैं. और सारी गलती बहुओं की गिना दी जाती है. सो अच्छा है कि हम पहले ही तय कर लें कि किसी भी बहाने से बिना लड़ाईझगड़े के अलग हो जाएं. तुम्हारा तो सरकारी जौब है, ट्रांसफर करा लेना. दूसरी बात रही पहनावे की तो मुझे साड़ी पहनने की आदत नहीं है. कभी शौक से, कभी मजबूरी में पहन ली तो और बात है. मैं सलवारसूट, जींस पहनती हूं और घर में बरमूड़ा, रात में नाइटी. बाद की टैंशन नहीं चाहिए, यह मत पहनो, वह मत करो, पहले ही बता देती हूं कि पूजापाठ मैं करती नहीं.’’

लड़की कहे जा रही थी और लड़का सुने जा रहा था. लड़के को लगा कि वह भी क्या समय था कि जब लड़की लजाते, शरमाते उत्तर देती थी, हां या न में. लड़का पूछता था, खाना बनाना आता है, गाना गाना जानती हो, कोई वाद्ययंत्र गिटार, सितार वगैरा बजा लेती हो, सिलाईबुनाई आती है, मेरे मातापिता का ध्यान रखना होगा और लड़की जीजी, हांहां करती रहती थी और अब जमाना इतना बदल गया.

उसे तो यह लगा मानो वह साक्षात्कार दे रहा हो. यह भी सही है कि अधिकतर जोड़े शादी के बाद अलग हो जाते हैं. दुल्हनें अपनी मांगों पर अड़ कर परिवार के 2 टुकड़े कर देती हैं. फिर अपनी मनमरजी का ओढ़नेपहनने से ले कर खाने में नमक, मिर्च कम ज्यादा होने पर सासबहू की खिचखिच शुरू हो जाती है. यह कह तो ठीक ही रही है, लेकिन शादी से पहले ही इतनी बेखौफ और निडर हो कर बात कर रही है तो बाद में न जाने क्या करेगी? यह तो नीति और मर्यादा के विरुद्ध हो गया. अभी पत्नी बनी नहीं और पहले से ही ये रंगढंग. लड़का तो फिर लड़का था. उस ने भी कहा, ‘‘शादी से पहले का भी बता दिया और शादी के बाद का भी. तुम से शादी करने का मतलब मांबाप, भाईबहन सब छोड़ दूं, तुम्हारे शौक पूरे करता रहूं. कर्तव्य एक भी नहीं और अधिकार गिना दिए. यह क्या बात हुई?’’

लड़की ने कहा, ‘‘जो होता ही है वह बता दिया तो क्या गुनाह किया. सच ही तो कहा है, इस में क्या जुर्म हो गया.’’

‘‘यह कोई तरीका है कहने का. यह कहती कि तुम्हारा घर संभालूंगी, बड़ेबूढ़ों का आदर करूंगी, सब का ध्यान रखूंगी तो अच्छा लगता.’’

‘‘ये सब तो आया के काम हैं. बाई है घर पर काम वाली या हमेशा मुझ से ही सब करवाने के चक्कर में हो. धोबिन भी मैं, बरतन, झाड़ूपोंछा वाली भी मैं. पत्नी चाहिए या नौकरानी,’’ लड़का भी उत्तर देने लगा, ‘‘क्या जो पत्नियां अपने घर का काम करती हैं वे नौकरानी होती हैं?’’

‘‘अरे, आप तो नाराज हो गए,’’ लड़की ने अपनी हंसी दबाते हुए कहा. सरकारी नौकरी में हो, ऊपरी कमाई तो होगी ही. फिर मेरे पिता दहेज में वाशिंग मशीन तो देंगे ही, कपड़े धुलाई का काम आसान हो जाएगा. मैं तो कुछ बातें पहले से ही स्पष्ट कर रही हूं जैसे मुझे 3-4 सीरियल देखने का शौक है और उन्हें मैं कभी मिस नहीं करती. अब ऐसे में कोई काम बताए तो मैं तो टस से मस नहीं होने वाली, अपने दहेज के टीवी पर देखूंगी. चिंता मत करना. किसी और के मनपसंद सीरियल के बीच में नहीं घुसूंगी.

लड़के के चेहरे के बदलते रंग को देख कर लड़की ने कहा, ‘‘आप को बुरा तो लग रहा होगा, लेकिन ये सब नौर्मल बातें हैं जो हर घर में होती हैं. मेरी ईमानदारी और साफगोई पर आप को खुश होना चाहिए और आप हैं कि नाराज दिख रहे हैं.’’

‘‘नहीं, मैं नाराज नहीं हूं मुझे कुछ कहना है,’’ लड़के ने कहा.

‘‘हां, मुझे गोलगप्पे, चाट, पकोड़ी खाने का बड़ा शौक है, कम से कम हफ्ते में एक बार तो ले ही जाना होगा.’’

लड़की बोले जा रही थी, बोले जा रही थी. बेवकूफ थी, कमअक्ल थी. समझ नहीं आ रहा था लड़के को.

लड़की ने फिर पूछा, ‘‘सुनो, तुम शराब, सिगरेट तो नहीं पीते. तंबाकू तो नहीं खाते.’’

‘‘जी…जी…’’ लड़के की जबान फिर लड़खड़ाई.

‘‘जी…जी, क्या हां या नहीं,’’ लड़की ने थोड़े तेज स्वर में पूछा.

अब आप ने इतना सच बोला है तो मैं भी क्यों झूठ बोलूं. कभीकभी दोस्तों के साथ पार्टी वगैरा में.

‘‘देखो, मुझे शराब और सिगरेट से सख्त नफरत है. इस की बदबू से जी मिचलाने लगता है. तंबाकू खा कर बारबार थूकने वालों से तो मुझे घिन आती है. सब छोड़ना होगा. पहले सोच लो. तुम्हारे मातापिता को ये सब पहले बताना चाहिए था, वे तो कह रहे थे कि लड़का बड़ा शरीफ और सज्जन है. झूठ बोलने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘आप मेरे मातापिता को अभी से झूठा कह रही हैं,’’ लड़के ने गुस्से में कहा. आप में शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं है. लड़की भी गुस्से में बोली, ‘‘शराबीकबाबी, तुम झूठे और तुम्हारे मांबाप भी. शर्म तुम्हें आनी चाहिए कि मुझे. तगड़ा दहेज भी चाहिए. लड़की भी ऐसी चाहिए कि तुम कुछ भी करो. लड़की मुंह बंद कर के रहे. कल शराब पी कर हाथ भी उठाओगे. फिर सुबह माफी मांगोगे कि नशे में हो गया. ये सब मैं सहने वाली नहीं. सीधा रिपोर्ट करूंगी. सब के सब अंदर हो जाओगे. नए जमाने की पढ़ीलिखी लड़की हूं. अपने राइट्स जानती हूं.’’

इस से ज्यादा सुनना लड़के के बस में नहीं था. वह गुस्से से बाहर निकल आया. मांबाप कुछ समझतेपूछते कि उस ने कहा, ‘‘यह शादी नहीं हो सकती. फौरन वापस चलिए,’’ लड़का गाड़ी में बैठ गया.

‘‘क्या हुआ? क्या हुआ?’’ कहते हुए लड़की के परिवार वाले दौड़े.

लड़के ने कहा, ‘‘अपनी लड़की से पूछ लेना.’’

लड़का अपने परिवार के साथ गाड़ी में बैठ कर उड़नछू हो गया.

‘‘अरे, अभागिन, क्या कह दिया तूने,’’ लड़की की मां ने गुस्से से लड़की से कहा. इतना अच्छा रिश्ता हाथ से निकल गया. जन्मपत्री भी मिल रही थी. सरकारी नौकरी वाला लड़का मिलता कहां है आजकल.

लड़की ने अपने बचाव में कह दिया लागलपेट कर, ‘‘अरे मां, अच्छा हुआ, बात करवा दी आप ने. लड़का एक नंबर का शराबीकबाबी है. किसी लड़की से अफेयर की बात भी कह रहा था और भी न जाने क्याक्या बताया मां उस ने.’’

लड़की के मांबाप ने मान भी लिया. जब अपनी ही लड़की बताए तो मांबाप विश्वास क्यों नहीं करेंगे. फिर कौन सी लड़की होगी जो अपनी शादी अपने हाथ से तोड़ कर अपना भविष्य बरबाद करेगी.

रात को लड़की ने अपने कमरे में जा कर मोबाइल लगाया.

‘‘हाय, जानेमन कैसे हो?’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘होना क्या था. उलटे पांव भगा दिया साले को.’’

‘‘वैरी गुड डार्लिंग, लेकिन अब आगे?’’

‘‘आगे क्या? प्यार करते हो तो आ कर बात करो मेरे मांबाप से.’’

‘‘नहीं माने तो.’’

‘‘नहीं माने तो हमें कौन सा लैलामजनूं बन कर भटकना है. कोर्ट मैरिज कर लेंगे.’’

‘‘लेकिन उस में 1 महीना लगता है. उस के पहले कोई और आ गया तो.’’

‘‘तो ठीक है यार, मंदिर में कर लेंगे.’’

‘‘लेकिन यह बताओ, आखिर तुम ने कहा क्या उस लड़के से जो वह भाग गया.’’

‘‘सच कहा, केवल सच.’’

‘‘सच सुन कर भाग गया.’’

‘‘अरे, आजकल सच बरदाश्त कौन करता है.’’

‘‘और तुम्हारा सच बरदाश्त कर लेता तो.’’

‘‘तो कर लेती.’’

‘‘क्या…क्या…कहा?’’

‘‘हां, कर लेती यार, आजकल सच्चा आदमी मिलता कहां है?’’

‘‘और मेरा क्या होता?’’

‘‘तुम कौन से देवदास बने घूमते. ढूंढ़ लेते कोई और.’’

‘‘बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करतेकरते हम सचमुच कितने प्रैक्टिकल हो गए हैं. दिल तो जैसे है ही नहीं. न आत्मा, न मन, न जमीन, बस मुनाफा मोटी तनख्वाह, कितनी बेशर्म और बेहया हो गई है हमारी सोच. बिलकुल मशीन हो गए हैं हम लोग,’’ उधर से पे्रमी का दार्शनिक स्वर सुनाई दिया.

लड़की ने कहा, ‘‘ओए, ज्यादा जज्बातजमीर की बातें मत कर. जल्दी से कंपनी का टारगेट पूरा कर. 4 भोलेभाले, भविष्य की चिंता करने वालों को सपने दिखा, कमा, लूट और अपनी जगह पक्की कर.’’

‘‘मान लो, मैं किसी वजह से तुम से शादी न कर सकूं, मना कर दूं किसी मजबूरी के कारण या कोई और पसंद आ जाए, तब क्या होगा तुम्हारा,’’ पे्रमी का स्वर गंभीर था.

‘‘तो क्या होगा कुछ नहीं, मुझे पुरानी फिल्मों की मीनाकुमारी समझ रखा है क्या? तुम नहीं तो और सही, नहीं तो…’’

‘‘अच्छा, ठीक है. अब यह बकवास बंद कर. रात बहुत हो गई है. आई लव यू बोल और फोन रख,’’ लड़का हंसते हुए बोला.

‘‘ओ के कल मिलते हैं.’’

‘‘ओ के, बाय गुडनाइट.’’

‘‘बाय, स्वीट ड्रीम्स’’

‘‘और दोनों तरफ से मोबाइल बंद हो गया.’’

एक रात की उजास : क्या उस रात बदल गई उन की जिंदगी

शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

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