REVIEW: फिल्म Vikrant Rona को दर्शक मिलना मुश्किल

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः शालिनी आर्ट्स और एसकेएफ फिल्मस

लेखक व  निर्देशकः अनूप भंडारी

कलाकारः सुदीप किच्चा,  निरूप भंडारी ,  नीता अशोक ,  जैकलीन फर्नांडीस ,  रविशंकर गौडा ,  मधुसूदन राव ,  वज्रधीर जैन और बेबी संहिता व अन्य

अवधिः दो घंटे 27 मिनट

पिछले कुछ समय से दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी फिल्में ‘पैन इंडिया सिनेमा’ के नाम पर डब होकर हिंदी में न सिर्फ प्रदर्शित हो रही हैं, बल्कि जबरदस्त सफलता भी हासिल कर रही है. कन्नड़ अभिनेता यश की फिल्म ‘‘केजीएफ 2’’ ने भी हिंदी में जबरदस्त सफलता हासिल की थी.  यह देखकर कन्नड़ के सुपर स्टार किच्चा सुदीप भी अपनी थ्री डी फिल्म ‘‘विक्रांत रोणा ’’ को हिंदी में भी प्रदर्शित की है. जिसे उनका सबसे बड़ा गलत निर्णय माना जा रहा है.

कन्नड़ फिल्मों के सुपर स्टार किच्चा सुदीप 1997 से 2008 तक केवल 25 कन्नड़ फिल्मों में अभिनय करते हुए वहां के सुपर स्टार बन गए. ‘किच्चा’ सुदीप के नाम का हिस्सा नही है. लेकिन 2003 में एक कन्नड़ फिल्म ‘किच्चा’’ में सुदीप ने किच्चा का ही किरदार निभाया था. इस फिल्म को इतनी सफलता मिली कि लेाग अब उन्हे ‘किच्चा सुदीप’ ही बुलाते हैं. 2008 में राम गोपाल वर्मा ने उन्हे अपनी हिंदी फिल्म ‘फूंक’ में अभिनय करने का अवसर दिया. लेकिन इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर पानी नही मांगा. उसके बाद किच्चा सुदीप कन्नड़, तेलगू फिल्मों ही रम गए. 2010 में वह एक बार फिर ‘रक्तचरित्र 2’ में नजर आए. पर उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया. 2018 में किच्चा सुदीप ने कन्नड़ फिल्म ‘पहलवान’ की, जिसे हिंदी में भी डब करके रिलीज किया गया. उसके बाद 2019 में वह सलमान खान के साथ फिल्म ‘दबंग 3’ में नजर आए. और अब तीन वर्ष बाद किच्चा सुदीप थ्री डी फिल्म ‘विक्रांत रोना’ के माध्यम से एक बार फिर कन्नड़ के साथ ही हिंदी भाषी दर्शकों के सामने आए हैं. इस बार किच्चा सुदीप न कुछ ज्यादा ही निराश किया है. इस फिल्म में वह पूरी तरह से बौलीवुड अभिनेता सलमान खान की ही नकल करते हुए नजर आते हैं. शायद सलमान खान के साथ ‘दबंग 3’ में अभिनय करने के बाद उनके उपर सलमान खान हावी हो चुके हैं. उसी चक्कर में उन्होेने फिल्म ‘विक्रांत रोणा को डुबा दिया.

फिल्म का आधार जाति संघर्ष है.  सवर्णों और दलितों के बीच के छुआछूत को लेकर उपजे इस संघर्ष के नतीजे में ही फिल्म का असली रहस्य छुपा है. मगर इस जातिगत संघर्ष को भी लेखक व निर्देशक ठीक से उकेर नहीं पाए. ऐसा लगता है कि बहुत डर डर कर पटकथा लिखी गयी है. इसलिए यह फिल्म जातिगत संघर्ष को उंची जाति के लड़के द्वारा मंदिर से चोरी करने पर उसका आराप नीची जाति पर लगाकर उसे सजा देने के अलावा कुछ खास नही कहती.

कहानी

फिल्म ‘विक्रांत रोणा’ उस जमाने की काल्पनिक कहानी है, जब देश में इतनी तरक्की नहीं हुई थी. जब देश में पेट्रोल की कीमत छह रूपए और डीजल की कीमत तीन रूपए प्रति लीटर थी. तथा जंगलों की बस्तियों के आसपास आदिवासियों का डेरा था. मोबाइल और टेलीविजन से दूर बच्चे समूह में बैठकर एक दूसरे को फंतासी कहानियां सुनाते थे और इंद्रजाल कॉमिक्स की ‘फैंटम’ सीरीज की किताबें बच्चे चाव से पढ़ते थे.  फिल्म ‘विक्रांत रोणा’ का नाम भी पहले ‘फैंटम’ ही था. फैंटम के बारे में किवदंती है कि यह किरदार पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है. एक फैंटम मरता है, तो उसका बेटा फैंटम बन जाता है. यही किंवंदंती फिल्म ‘‘विक्रांत रोना’’ की कहानी का मूल आधार है.

फिल्म ‘विक्रांत रोना’’की कहानी पुलिस इंस्पेक्टर विक्रांत रोणा(  किच्चा सुदीप ) की है, जिसे अपनी लापता पत्नी और बेटी की तलाश है. वह उनकी तलाश में घने जंगलों में बसे उसी कुमारमट्टू गांव में आता है, जहां के स्कूल में वह कभी  पढ़ता था और अब जहां लगातार बच्चों का अपहरण और हत्याएं हो रही हैं. कुमारमट्टू एक ऐसा रहस्यमय गांव है, जहां अक्सर बारिश होती रहती है.  गांव में अक्सर छोटे बच्चे गायब हो जाते हैं और उनकी लाश पेड़ पर लटकी मिलती है. इसका इल्जाम गांववाले ब्रह्माराक्षस पर लगाते हैं.  एक दिन गांव के थाने के इंस्पेक्टर की सिरकटी लाश कुएं में लटकी मिलती है,  तो वहां सनसनी फैल जाती है और इसका इल्जाम भी ब्रह्माराक्षस पर लगता है.

जबकि उन्ही दिनों गांव के एक पुराने परिवार के सदस्य विश्वनाथ बल्लाल(रविशंकर गौड़ा )  का परिवार अपनी बेटी पन्ना(नीता अशोक )  की शादी अपने पैतृक गांव में करने आई हुई है. बल्लाल के ही परिवार से जुड़े दूसरे परिवार यानी कि जनार्दन गंभीर (मधुसूदन राव )का बेटा संजू(निरूप भंडारी )  भी अरसे बाद गांव लौटा है.  वह पन्ना से इश्क करने लगता है.  शादी की तैयारियों के बीच बच्चों की हत्या का सिलसिला जारी रहता है. अब संजू व पन्ना के इश्क का क्या अंजाम होगा? क्या विक्रात रोना, बच्चों के अपहरण व हत्या की गुत्थी सुलझा पाएगा?   फंतासी लोक में रची गई इस मर्डर मिस्ट्री की कहानी में कई किरदार हैं और हत्याएं करने का शक एक से दूसरे पर घूमता रहता है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म के लेखक व निर्देशक अनूप भंडारी ने ही सलमान खान की फिल्म ‘दबंग 3’ के कन्नड़ संस्करण के गाने लिखे थे. वैसे ‘विक्रांत रोना’ के गाने उन्होने खुद नही लिखे हैं. लेकिन इस फैंतासी मर्उर मिस्ट्री वाली कहानी की पटकथा लिखने में वह मात खा गए. फिल्म मे मर्डर मिस्ट्री के साथ ही लोकेशन की भौगोलिक स्थिति का फायदा उठाने के लिए हॉरर के तत्व भी ठूंसे गए हैं, जबकि इनकी जरुरत नजर नही आती. इससे दर्शक भी कन्फ्यूज होता है. फिल्म में अविश्वसनीय घटनाक्रमों की भरमार है. फिल्म में संजू और पन्ना के प्यार को भी ठीक से उकेरा नहीं गया.

लेखक के दिमागी दिवालिएपन की हद की मिसाल के तौर पर छोटी बच्ची का सवंाद ही काफी है. यह संवाद, जिसमें वह कहती है कि उसका दोस्त भास्कर उससे कहता है-‘‘ भारत में तब बारिश होती है, जब सभी अमरीकन एक साथ पेशाब करते हैं और अमरीका में उस वक्त बारिश होती है जब यहां भारत में हम सभी एक साथ पेशाब करते हैं. ’’

फिल्म की कहानी 28 वर्ष की यात्रा तय करती है. मगर कहानी कहीं से भी विक्रांत रोना व खलनायक के बदले के रिश्ते को स्थापित नही कर पाती.  विक्रांत रोना की बेटी को लेकर क्लायमेक्स में जो खुलासा होता है, उसे देखकर दर्शक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है. इतना ही नही क्लायमेक्स में जब बच्चों के अपहरणकर्ता व हत्यारों का खुलासा होता है, तो भी आश्चर्य नही होता.

फिल्म के कैमरामैन विलियम डेविड का योगदान सराहनीय है. मगर गीत संगीतव निराश करते हैं.

अभिनयः

विक्रात रोणा के मुख्य किरदार निभाने में किच्चा सुदीप बुरी तरह से मात खा गए हैं. सलमान खान के अभिनय की की नकल करने के साथ ही वह ओवरएक्टिंग भी करते नजर आते हैं.  बुजुर्गों के सामने सिगार पीना,  बदतमीजी से पेश आना और अपने पूरे आभामंडल को एक देसी दारू के ठेके पर नाचने वाली के साथ ठुमके लगाकर तार तार कर देना विक्रांत रोणा के किरदार की कमजोरियां हैं.

मंदिर से देवताओं के गहने चुराकर भागे उंची जाति के संजू के किरदार में निर्देशक अनूप भंडारी के भाई निरूप भंडारी के अभिनय में कोई दम नजर नही आता. उनका चेहरा हर मौके पर एकदम सपाट ही नजर आता है.  पन्ना के किरदार में नीता अशोक सुंदर जरुर दिखायी देती हैं, मगर अभिनय के मामले मेें उन्हे अभी काफी मेहनत करने की जरुरत है. यदि किसी फिल्म के साथ सलमान खान का जुड़ाव हो और उस फिल्म में जैकलीन फर्नाडिश न हों, ऐसा हो ही नहीं सकता. मगर रक्कम्मा के किरदार में जैकलीन फर्नाडिश सबसे बड़ी कमजोर कड़ी है. वह कहानी में कोई योगदान नही करती.  उनके किरदार की वजह से फिल्म की गति बाधित होती है.

क्या ये पब्लिसिटी स्टंट नहीं?

पिछले दिनों अभिनेता रणवीर सिंह ने एक मैगजीन की कवरका शूट किया,जिसमें वह न्यूड होकर स्टाइलिश अंदाज में पोज देते हुए दिखाई दे रहे है, इसकी सोशल मीडिया पर मिक्स प्रतिक्रियां मिल रही है, कुछ उनके जज्बे की तारीफ़, तो कुछ इसे मजाक बना रहे है. रणवीर सिंह के लिए ऐसी शूट करना पब्लिसिटी स्टंट है, क्योंकि उन्होंने कई बार ऐसी अतरंगी पोज दिए है, जिसे मीडिया ने काफी उछाला और रणवीरसिंह का काम बना. असल में कोविड के बाद थिएटर में आने वाले फिल्में लगातार फ्लॉप हो रही है.

ख़बरों के मुताबिक, चेंबूर पुलिस ने अभिनेता रणवीर सिंह के खिलाफ अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर नग्न तस्वीरें पोस्ट करने के लिए मामला दर्ज किया है. रणवीर के खिलाफ धारा 292, 293 और 509 के सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के 67 (ए) सहित मामला दर्ज किया गया है.

हिंदी फिल्म जगत में न्यूड फोटो खिचवाना कोई नई बात नहीं है, इससे पहले भी कई एक्टर्स ने ऐसी फोटो शूट करवाएं है, लेकिन उसका गहन अर्थ समझा दिया गया. रणवीर सिंह की पिक्चर को लेकर हो-हल्ला करना आसान इसलिए है, क्योंकि ये इन्टरनेट की देन है. आइये जनते है किसने कब न्यूड पिक्स खिचवाया.

मिलिंद सुमन

 

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4 नवम्बर साल 2020 अभिनेता मिलिंद सुमन ने 55 साल की अपनी जन्मदिन पर इन्स्ताग्राम में एक मनमोहिनी पिक्चर डाला, जिसमे वह समुद्री किनारे पर न्यूड होकर दौड़ रहे है. इस पिक्चर के वायरल होने पर सोशल मीडिया के द्वारा उन्हें बहुत सारी प्रसंशा मिली. कुछ ने तो इसे बोल्ड मुव्स कहा और कुछ ने तो उनके फिट रहने की अंदाज को सराहा.

पूजा बेदी

 

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अभिनेत्री पूजा बेदी ने 90 के दशक में एक कंडोम की कंपनी के लिए शूट कर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सनसनी फैला दी, रातोरात उन्हें प्रसिद्धी मिली और इस विज्ञापन को सेक्सुअल रिवोल्यूशन कहा गया.

सपना भवानी

पॉपुलर सेलेब्रिटी हेयर स्टाइलिस्ट आर्टिस्ट सपना भवानी ने बोल्ड मुव्स के साथ उस दौर की स्टीरियोटाइप्स इमेज को तोडा. पेटा कैम्पेन के लिए न्यूड शूट करवाने पर उन्हें मीडिया की कठोर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, जिसमे जानवरों की संरक्षण के लिए उन्होंने जानवरों के चमड़े और फर के प्रयोग को ना कहा.

शर्लिन चोपड़ा

हिंदी सिनेमा जगत की एक बोल्ड अभिनेत्री शर्लिन चोपड़ा है, उन्होंने बोल्ड सीन देने में कभी पीछे नहीं हटी. कई फिल्मों में भी उन्होंने ऐसे दृश्य दिए है. इस एक्ट्रेस ने एडल्ट फिल्म कामसूत्र 3 D की सेट से न्यूड फोटो को डाउनलोड कर शेयर कर दिया. इसमें शर्लिन सारे बंधन को छोड़कर कैमरे के आगे आई और कुर्सी पर बैठकर सिगरेट पीने का पोज दिया. कुछ ही समय में सोशल मीडिया पर वह बहुत चर्चित हो गयी, लोगों ने उसके इस शूट को घटिया  और शर्मनाक बताया, लेकिन शर्लिन उस पर ध्यान न देकर फिल्म कामसूत्र 3 D पर फोकस किया.

आमिर खान

pk

हिंदी सिनेमा के परफेक्शनिस्ट अभिनेता आमिरखान ने भी फिल्म PK को ब्लॉकबस्टर बनाने के लिए न्यूड फोटो खिचवाए है और उसे ही उन्होंने फिल्म की ऑफिसियल पोस्ट के लिए चुना. ये पोस्टर दर्शकों को हॉल तक खीच लाने में काफी हद तक सफल रही. इसकी अधिकतर फीडबैक सकारात्मक रही, लेकिन ये तस्वीर आमिरखान और निर्देशक राजकुमार हिरानी के लिए मास्टरस्ट्रोक साबित हुई.

राहुल खन्ना

 

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चार्मिंग अभिनेता राहुल खन्ना ने भी कैमरे के आगे न्यूड पिक्स कुछ साल पहले खिचवायें है, जिसमे उन्होंने सोफे पर बैठकर चमड़े की शूज पहनकर पोज दिए है.इन्टरनेट पर इसकी भी चर्चा खूब फैली, लेकिन सभी ने उनके लुक्स की तारीफ की.

संगीत में मेलोडी का कम होने की वजह क्या बताते है Composer लेस्ली लुईस

परी हूं मैं……, जानम समझा करों…. जैसी एलबम बनाकर चर्चा में आने वाले सिंगर, कंपोजर, प्रोड्यूसर लेस्ली लुईस कहते है कि अबतक मैंने बहुत सारा काम दूसरों के लिए किया है, लेकिन अब मैं अपने लिये कुछ करना चाहता हूं. लेस्ली उस समय के रॉक & पॉप गानों से परिचय करवाने वाले पहले कंपोजर है. उनके पिता पी एल रॉय एक तबला वादक और कोरियोग्राफर थे, इससे उनके घर में संगीतकारों का आना-जाना होता था, जिससे उन्हें संगीत में रूचि बढ़ी और वे इस क्षेत्र में आ गए.

गजल गायक हरिहरन के साथ मिलकर कोलोनियल एलबम बनाने वाले लुईस ने आशा भोसले, केके समेत कई गायकों के साथ उन्होंने काम किया, लेकिन, अब वे खुद के गीतों को अपनी आवाज में संगीतबद्ध करना चाहता है. उन्हें लगता है कि अगर गायक और संगीतकार एक हो, तो वह गीत के संगीत के साथ ज्यादा न्याय कर सकता है, ऐसे में कोशिश है कि फिल्मों के लिए ज्यादा से ज्यादा गाऊं. आज एलबम का दौर खत्म हो रहा है और टेलीविजन गैर फिल्मों गीतों को ज्यादा प्रोत्साहित नहीं करता.

सवाल –क्या नए जेनरेशन की शिष्या काव्या जोन्स के साथ गाना गाने में किसी प्रकार की परेशानी हुई?

जवाब – इसमें लगन और मेहनत करने की एक धुन है. वह सबके पास नहीं है. आज के जेनरेशन फ़ास्ट फ़ूड की तरह सब कुछ फ़ास्ट-फ़ास्ट करना चाहती है, एक जगह टिक कर धैर्य के साथ काम नहीं करती. यहाँ वहां भटकती है और किसी भी संगीत को पूर्ण रूप से सीख नहीं पाती. अगर मैं कभी नए बच्चों से उनके घराना, क्या सीखा, उनकी जड़े कहाँ की है, पूछता हूं, तो उन्हें समझ में नहीं आता, लेकिन काव्या हर दिन, वक्त, मीटिंग, शो में मेरे साथ रहने पर उसे मेरे घराने को समझने में आसानी रही और उसी के अनुसार वह सीख रही है.

सवाल – आज के यूथ रैप अधिक करते है, जिसमे न तो मेलोडी होती है और न ही धुन, इसे कैसे लेते है, जबकि आप भी वेस्टर्न संगीत के ही प्रसंशक है?

जवाब – संगीत की भाषा पूरे विश्व में हर जगह एक ही होती है, सुर सबमेंप्रधान होता है और मेलोडी संगीत में होना जरुरी है, क्योंकि भाषा कोई भी हो, सभी संगीत की शुरुआतओम से होती है, स्वर हमारे हृदय में है. पूरा यूनिवर्स ओम पर चलता है, उसी से ही मेलोडी बनती है, जो सुनने में अच्छा लगता है. इसी मेलोडी में अगर शब्द जोड़ दिए जाय, तो उस गाने को सुनने में और भी सुंदर लगता है. शब्द न समझने पर मेलोडी से उस गाने को सुना जा सकता है. मेरे नये गाने में पॉप के साथ-साथ मेलोडी भी है. रैप में अगर कुछ बोला जा रहा है, तो उसे सुनना पड़ता है, थोड़े दिन अच्छा लगता है, बाद में सुनना कोई पसंद नहीं करता. मेलोडी जीवन पर्यंत रहेगी. 1940, 50 60,70,80,90 की फिल्मों के गाने जिसे लता मंगेशकर,आशा भोसलें, किशोर कुमार आदि ने गाये है, उनके गाने आज भी सुने जाते है. सभी गाने आज रिमिक्स हो रही है, क्योंकि उनके पास मेलोडी है. रैप नहीं चल सकती, क्योंकि ये एटीट्यूड दिखाती हुई संगीत है, जो आगे चलकर नीरस लगती है.

सवाल –भारतीय संस्कृति में रॉक और पॉप को परिचय कराना कितना कठिन था?

जवाब – पॉप मीठा संगीत है, क्योंकि पोपुलर गाने को पॉप कहते है. पॉपुलैरिटी की वजह मेलोडी का होना है, हर व्यक्ति उसे सुनना चाहता है, जिसमें जानम समझा करों….. जैसे गाने है. रॉक में एक एटीट्यूड होती है, जो सुनने में थोड़ा हार्श लगता है. नई जेनरेशन एंटी एस्टाब्लिशमेंट को पसंद करती है. हमारे देश में गाने में मिठास सभी पसंद करते है. रॉक म्युजिक में एंग्री यंग मैन वाली फीलिंग होती है. के के सिंगर के लिए मैंने थोड़ा रॉक अपनाया था, जो सबको बहुत पसंद आया. 90 के दशक में लोग बहुत पसंद नहीं करते थे, लेकिन अब नई जेनरेशन इसे अधिक पसंद करने लगे है. इन्टरनेट होने की वजह से संगीत का विकास अधिक हुआ है.

सवाल –गानों में शब्दों का प्रयोग मनमर्जी तरीके से होता है, जिसका अर्थ नहीं निकलता, बेतुकी लगती है, आप की सोच इस बारें में क्या है?

जवाब – इस जेनरेशन के बच्चे उर्दू नहीं समझते, इसलिए उन्हें केवल तुकबंदी कर ही लिरिक बनाना आता है. मेरी गानों में आम जनता की भाषा को प्राथमिकता दी गयी है. हिंदी फिल्मों के गानों में भी अब वही शुरू हो चुका है, मसलन क्या बोलती तू…..क्या मैं बोलूँ…. ऐसे शब्द आज के यूथ समझते है, लेकिन कुछ अच्छे शब्द के अर्थ उन्हें पता नहीं होता, मैंने कई गानों के साथ ऐसा महसूस किया है.

सवाल – आपने कई बड़े सिंगर और फिल्मों के लिए संगीत दिए है, आज के जेनरेशन के साथ कुछ करने की इच्छा रखते है क्या ?

जवाब – मैंने कई बड़े सिंगर्स के साथ काम किया है, लेकिन लेस्ली लुईस के लिए नहीं किया अब उनके लिए करूँगा (हँसते हुए). मैं शोज में गाना गाने पर मेरी आवाज को सुनकर चौक जाते है. मैंने सबके लिए गाने बनाई, पर अपने लिए नहीं बनाया.

सवाल – संगीत में आने की प्रेरणा कैसे मिली?

जवाब – मेरे पिता कोरियोग्राफर के अलावा तबला बजाते थे, उन्हें संगीत का बहुत शौक था. घर पर जाकिर हुसैन, उनके पिता भी मेरे घर आते थे. संगीत का माहौल था. डांस और गायकों का हमेशा आना-जाना रहता था. इसके अलावा शास्त्रीय डांस के लिए शास्त्रीय गायक होना चाहिए, जिससे संगीत का मेल डांस के लिए ठीक हो. संगीत के इस माहौल में रहने पर मुझे धीरे-धीरे संगीत से प्यार होने लगा और इस क्षेत्र में आ गया. अच्छी बात यह रही कि मुझे अच्छे कलकारों का साथ मिला. अभी तकनीक का दौर है, इसमें सभी को वैसे ही जाना है. फिर चाहे, इन्स्टाग्राम हो या यू ट्यूब सभी पर यूथ कुछ न कुछ कर छोड़ते है, जिसे लोग पसंद कर रहे है. संगीत को सिम्पल form में यूथ के पास लेकर आना है.

सवाल – आगे की योजनायें क्या है?

जवाब – अभी मैं स्वतंत्र आर्टिस्ट के रूप में काम कर रह हूं. मेरे गाने को खुद गाता और लिखता हूं.

सवाल – अपने जीवन की यादों को शेयर करें, जिसे अभी भी आप याद करते है?

जवाब – 17 साल की उम्र में मैं गिटार बजाना चाहता था, उन्होंने मुझे राहुल देव बर्मन के पास भेजा, वहां आशा भोसलें और आर डी बर्मन थे. वहां मेरे पिता ने मेरा परिचय बी कॉम फेल कहकर किया, इस पर आशा भोसले ने मुझे बहुत समझाया और अच्छी पढाई करने की सलाह दी, लेकिन अंत में मैंने ही उनकी एलबम ‘राहुल एंड आई” बाद में बनाई, जिसे सभी ने पसंद किया.

सवाल – 75 साल की इंडिपेंडेंट हुए देश के बारें में आपकी राय क्या है?

जवाब – पहले एक ड्रेस सालों तक पहनते थे, अब नहीं. संगीत भी पिछले कुछ वर्षों से घुलमिल गया है, जिसे सही कर मुझे सबके बीच में लेकर आना है. मधुर संगीत का माहौल फिर से आयेगा.

50th जयंती वर्ष में कौन Yashraj Films को डुबाने पर है आमादा?

मशहूर फिल्मकार यश चोपड़ा ने 1970 में अपनी प्रोडक्शन कंपनी ‘‘यशराज फिल्मस’’ की स्थापना की थी, जिसके तहत उन्होने पहली फिल्म ‘‘दागःए पोयम आफ लव’’ का निर्माण व निर्देशन किया था, जो कि 27 अप्रैल 1973 को प्रदर्शित हुई थी. तब से अब तक ‘यशराज फिल्मस’’ के बैनर तले ‘कभी कभी ’, ‘नूरी’, ‘काला पत्थर’,  ‘सिलसिला’,  ‘मशाल’, ‘ चांदनी’, ‘ लम्हे’,  ‘दोस्ती’,  ‘वीरजारा’, ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’,  ‘मोहब्बतें’, ‘रब ने बना दी जोड़ी’, ‘एक था टाइगर’,  ‘मर्दानी’,  ‘सुल्तान’ सहित लगभग अस्सी फिल्मों का निर्माण किया जा चुका है.

‘‘यशराज फिल्मस’’ अपनी स्थापना के समय से ही लगातार उत्कृष्ट फिल्में बनाता आ रहा है. जिसके चलते लगभग सभी फिल्में बाक्स आफिस पर सफलता दर्ज कराती रही हैं. लेकिन अब जबकि ‘‘यशराज फिल्मस’’ अपनी पचासवीं जयंती मना रहा है, तो लगातार इस बैनर की छवि धूमिल होती जा रही है. ‘मर्दानी 2’, ‘बंटी और बबली 2’, ‘जयेशभाई जोरदार’, ‘सम्राट पृथ्वीराज’ और 22 जुलाई को प्रदर्शित फिल्म ‘‘शमशेरा’’ ने बाक्स ऑफिस पर बुरी तरह से दम तोड़ा है. ‘यशराज फिल्मस’’ जैसे बौलीवुड के बड़े बैनर की लगातार छह फिल्मों की बाक्स आफिस पर हुई दुर्गति से ‘यशराज फिल्मस’ के साथ ही बौलीवुड को पांच सौ करोड़़ का नुकसान हो चुका है. हर निर्माता पहली फिल्म की असफलता के बाद ही फिल्म की असफलता का पोस्टमार्तम कर गलतियों को सुधारना शुरू कर देता है. लेकिन यहां ‘यशराज फिल्मस’’ की एक दो नहीं बल्कि लगातार छह फिल्में असफल हो चुकी हैं, मगर कोई हलचल नही है. मजेदार बात यह है कि यह सब तब हो रहा है, जब इसकी बागडोर ‘यशराज फिल्मस’ के संस्थापक स्व.  यश चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा ने संभाल रखी है. आदित्य चोपड़ा कोई नौसीखिए नही हैं. आदित्य चोपड़ा को सिनेमा की बेहतरीन समझ है.  आदित्य चोपड़ा स्वयं अब तक ‘दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे’(1995),  ‘मोहब्बतें’(2000 ),  ‘रब ने बना दी जोड़ी’(2008) जैसी बेहतरीन व सफलतम फिल्मों का लेखन व निर्देशन कर चुके हैं. लेकिन अब एक तरफ ‘यशराज फिल्मस’ की फिल्में असफल होकर ‘यशराज फिल्मस’ को डुबाने में लगी हुई हैं, तो वहीं आदित्य चोपड़ा चुप हैं. उनकी तरफ से कोई हरकत नजर नही आ रही है. बौलीवुड के एक तबके का मानना है कि भारतीय सिनेमा पर से आदित्य चोपड़ा की पकड़ खत्म हो चुकी हैं. कुछ लोगों की राय में आदित्य चोपड़ा का 2012 के बाद दूसरी व्यस्तताओं के चलते आम लोगों से शायद संवाद कम हो गया है, जिसके चलते समाज व दर्शकों  की पसंद व नापसंद को वह ठीक से अहसास नही कर पा रहे हैं. जबकि तब से दर्शकों की रूचि में तेजी से बदलाव आया है. अब दर्शक सिर्फ भारतीय सिनेमा ही नहीं,  बल्कि हौलीवुड के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं में बन रहे सिनेमा को भी देख रहा है. बौलीवुड से ही जुड़े कुछ लोगों की राय में आदित्य चोपड़ा के इर्द गिर्द चंद चमचे इकट्ठे हो गए हैं, जिन्हे ‘यशराज फिल्मस’ के आगे बढ़ने से कोई मतलब नही है, उन्हें महज अपने स्वार्थ की चिंता है. कम से कम ऐसे लोगों से आदित्य चोपड़ा जितनी जल्दी दूरी बनाकर समाज व दर्शकों के साथ संवाद स्थापित करेंगे, उतना ही ‘यशराज फिल्मस’ के लिए बेहतर होगा.

बहरहाल, ‘यशराज फिल्मस’ के पतन की शुरूआत तो 2017 में ही हो गयी थी. इस बैनर तले 2017 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘मेरी प्यारी बिंदू’’ और ‘कैदी बैंड’’ ने भी बाक्स आफिस पर पानी नही मंागा था. पर 22 दिसंबर 2017 को प्रदर्शित फिल्म ‘‘टाइगर जिंदा है’’ने जरुर सफलता दर्ज कराकर ‘यशराज फिल्मस’ की लाज बचा ली थी. उसके बाद 2018 में ‘हिचकी’, ‘सुई धागा’, ‘ठग्स आफ हिंदुस्तान’ ने बाक्स आफिस पर बुरी तरह से मात खा गयी थीं. 2019 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘वार’’ ने थोड़ी सी राहत दी थी. पर उसके बाद प्रदर्शित सभी फिल्में बाक्स आफिस मंुह के बल गिरती चली आ रही हैं.

क्यों डूबी ‘‘शमशेरा’’

बड़े बजट की मेगा पीरियड फिल्म ‘‘शमशेरा’’ को डुबाने में फिल्म के चार लेखक,  निर्देशक करणमल्होत्रा और कलाकारों के साथ ही फिल्म की मार्केटिंग और पीआर टीम ने कोई कसर बाकी नहीं रखी. यह कितनी शर्मनाक बात है कि भव्यस्तर पर बनी फिल्म ‘शमशेरा’ रविवार के दिन महज ग्यारह करोड़(निर्माता के दावे के अनुसार,  अन्यथा सूत्र दावा कर रहे है कि ‘शमशेरा’ ने रवीवार को भी आठ करोड़ से ज्यादा नही कमाए. )़ ही कमा सकी. मजेदार बात यह है कि हिंदी, तमिल, तेलगू व मलयालम भाषा में फिल्म ‘‘शमशेरा’’ को 22 जुलाई के दिन एक साथ भारत के 4300 सिनेमाघरों स्क्रीन्स और विदेशो में 1500 स्क्रीन्स पर रिलीज किया गया था. पर पहले ही दिन कुछ शो कैंसिल हुए. दूसरे दिन भी शो कैंसिल हुए. यानी कि हर दिन स्क्रीन्स की संखा घटती गयी. कई थिएटरों से इस फिल्म को उतार दिया गया. सिर्फ भारत ही नही विदेशों भी इसकी दुर्गति हो गयी. प्राप्त आंकड़ो के अनुसार आस्ट्ेलिया में ‘शमशेरा’ कुल तिहत्तर स्क्रीन में रिलीज हुई थी, जिससे महज 41 हजार डालर ही कमा सकी.  जबकि इस फिल्म में रणबीर कपूर,  संजय दत, रोनित रॉय,  वाणी कपूर,  सौरभ शुक्ला सहित कई दिग्गज कलाकारों ने अभिनय किया है. यह फिल्म रणबीर कपूर की पूरे चार वर्ष बाद अभिनय में वापसी है. मगर वह भी इस फिल्म को डूबने में योगदान देने में पीछे नहीं रहे. यॅूं भी जब फिल्म के कंटेंट मंे ही दम नही है, तो फिर दर्शक फिल्म देखने के लिए अपनी गाढ़ी कमायी क्यांे फुंकने लगा?लेखकों ने तो इतिहास के साथ भी छेड़खानी की. आदिवासियों के शौर्य का अपना इतिहास है, मगर लेखकांे ने तो उसे भी नकार कर सिर्फ गोरी चमड़ी यानी कि ब्रिटिश शासकों की मानवता व उनकी उदारता का गुणगान करते रहे. तो वहीं यह फिल्म धर्म को लेकर भ्रम फैलाने के अलावा कुछ नही करती. बल्ली यानी कि रणबीर कपूर के किरदार को देखकर लेखकों व निर्देशक के दिमागी दिवालिएपन का अहसास किया जा सकता है.

फिल्म का गलत प्रचार भी ले ‘‘शमशेरा’’ को ले डूबाः

फिल्म की मार्केटिंग और पीआर टीम ने फिल्म ‘‘शमशेरा’’ को आजादी मिलने से पहले अंग्रेजों से देश की आजादी के संघर्ष की कहानी के रूप में प्रचार किया था. जबकि यह फिल्म देश की आजादी नही बल्कि एक कबीले या यॅंू कहें कि एक आदिवासी जाति की आजादी की कहानी मात्र है. जी हॉ!यह देश की स्वतंत्रता की लड़ाई नही है. कहानी पूरी तरह से देसी जातिगत संघर्ष पर टिकी है, जिसका विलेन एक भारतीय शुद्ध सिंह ही है.

‘यशराज फिल्मसः कौन डुबाने पर उतारू

सबसे अहम सवाल यह है कि ‘‘यशराज फिल्मस’’ को कौन डुबाने पर उतारू है? ‘‘यशराज फिल्मस’’ की 2017 से ही लगातार बुरी तरह से डूबते जाने की एक नहीं कई वजहें हैं. यदि गंभीरता से विश्लेषण किया जाए, तो ‘यशराज फिल्मस’ को डुबाने में आदित्य राय के इर्दगिर्द जमा हो चुके कुछ चमचे, मार्केटिंग टीम, पीआर टीम,  रचनात्मक टीम, टैलेंट मनेजमेंट’के साथ ही आदित्य चोपड़ा का समाज व दर्शकों से पूरी तरह कट जाना ही जिम्मेदार है. बौलीवुड का एक तबका मानता है कि अब वक्त आ गया है, जब आदित्य चोपड़ा को अपने प्रोडक्शन हाउस की रचनात्मक टीम के साथ ही मार्केटिंग व पीआर टीम में अमूलचूल बदलाव कर सिनेमा को किसी अजेंडे की बजाय दर्शकों की रूचि के अनुसार सिनेमा बनाएं.

टैलेंट मनेजमेंटः

2012 में ‘‘यशराज फिल्मस’’  का चेअरमैन का पद संभालने के साथ ही आदित्य चोपड़ा ने नए कलाकारों को आगे बढ़ाने के नेक इरादे से ‘टैलेंट मनेजमेंट’ की शुरूआत की थी.  और 2013 के बाद ‘यशराज फिल्मस’ ने स्थापित व नए कलाकारों को मिलाकर फिल्में बनानी शुरू की. बौलीवुड से जुड़े अधिसंख्य सूत्र मानते हैं कि 2012 के बाद ‘यशराज फिल्मस ’ का रचनात्मकता से मोहभ्ंाग होने लगा था. सब कुछ एक फैक्टरी की तरह होेने लगा था. ‘टैलेंट मैनेजमेंट’ के तहत वाणी कपूर, परिणीत चोपड़ा सहित ऐसे कलाकारांे को जोड़ा गया जिनमें संुदरता के अलावा कोई गुण नही है. इन कलाकारों का अभिनय से कोई नाता ही नही है. बाक्स आफिस पर बुरी तरह से धराशाही हो चुकी फिल्म ‘शमशेरा’ के दो मुख्य कलाकार रणबीर कपूर व वाणी कपूर यशराज के ही टैलेट मैनेजमेंट का हिस्सा हैं. असफलतम फिल्म ‘‘बंटी और बबली’’ की अभिनेत्री शारवरी वाघ, ‘जयेशभाई जोरदार ’ की शालिनी पांडे व रणवीर सिंह और ‘सम्राट पृथ्वीराज’ की मानुषी छिल्लर भी टैलेंट मैनेजमंेट का हिस्सा हैं. तो क्या यह माना जाए कि टैलेंट मैनेजमेंट की जिम्मेदारी संभाल रहे लोग अपने काम को सही ढंग से अंजाम देने में असमर्थ रहे हैं?इस पर आदित्य चोपड़ा को  गंभीरता से सोचना व विश्लेषण करना चाहिए.

मार्केटिंग टीमः

‘यशराज फिल्मस’ की मार्केटिंग टीम जिस तरह से कामकर रही है, उस पर वर्तमान हालात को देखते हुए विचार व विश्लेषण करना जरुरी है. वर्तमान समय में मार्केटिंग टीम फिल्म के लिए दर्शक बटोरने के लिए जिस तरह से सिटी टूर करती है और सोशल मीडिया पर पैसे खर्च करती है, वह वास्तव में ‘क्रिमिनल वेस्टेज आफ मनी’ के अलावा कुछ नही है. सिटी टूर के लिए कलाकार व उनकी टीम के अलावा कई लोग हवाई जहाज से यात्रा करते हैं, फाइव स्टार होटलो मंे ठहरते हैं और किसी माल या सिनेमाघर में हजारों लोगांे की भीड़ के बीच उटपटंाग हरकते करके वापस आ जाते हैं. इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि किसी भी सिटी मंे फिल्म के कलाकारों को देखने या सुनने आने वाले लोगों में से दस प्रतिशत लोग भी फिल्म देखने क्यों नहीं आते? आॅन ग्राउंड इवेंट में दस बीस हजार लोग जुड़ते हैं, जिसके वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल किए जाते हैं. इसके बावजूद इनमें से हजार लोग भी फिल्म देखने थिएटर के अंदर नहीं आते? जबकि मार्केटिंग टीम के अनुसार इस तरह उस शहर के सभी लोग फिल्म देखने आएंगे. इसी तरह यह बात साबित हो चुकी है कि कलाकार के सोशल मीडिया के फालोवअर्स की संख्या बल पर फिल्म की सफलता का दावा नही किया जा सकता. महानायक अमिताभ बच्चन के सोशल मीडिया पर करोड़ों फालोवअर्स हैं, पर उनकी फिल्म को उनमें से कुछ लाख भी टिकट लेकर फिल्म देखने सिनेमाघर के अंदर नही जाते. तो मार्केटिंग टीम सोशल मीडिया पर फिल्म के टीजर, ट्ेलर व गानों को मिल रहे व्यूज के आधार पर फिल्म की सफलता को लेकर गलत आकलन पेश करती है. इससे फिल्म को सिर्फ नुकसान ही होता है.

पी आर टीम का  अधकचरा ज्ञान व कार्यशैलीः

कुछ दिन पहले हमने एक बड़े बैनर की फिल्म के पीआरओ को ‘‘गृहशोभा’’ और ‘‘सरिता’’ में छपे इंटरव्यू की फोटोकापी भेजी, तुरंत उसका फोन आया कि यह मैगजीन है या वेब साइट है और कब से निकलना शुरू हुई है. यह मैगजीन कहंा बिकती है? इससे हमारे दिमाग में सवाल उठा कि इस इंसान को फिल्म का प्रचारक कैसे नियुक्त कर दिया गया? फिल्म के प्रचारक का काम होता है कि वह फिल्म का प्रचार कर उसे एक ‘ब्रांड’ के रूप में स्थापित कर दे. मगर इस कसौटी पर सभी फिल्म प्रचारक बहुत पीछे हैं. इन प्रचारको @पीआरओ को खुद नहीं पता होता कि उनकी फिल्म का विषय क्या है? वह तो गलत ढंग से फिल्म का प्रचार कर फिल्म का बंटाधार करने में अहम भूमिका निभाते हैं. पीआरओ को इस बात की समझ होनी चाहिए कि वह कब किस पत्रकार को कलाकार या निर्देशक से इंटरव्यू करवाए? पर यहां तो फिल्म के प्रदर्र्शन से एक सप्ताह पहले सभी फिल्म पत्रकारों को बुलाकर एक साथ बैठा दिया जाता है. इस ग्रुप इंटरव्यू में 20 से 57 पत्रकार भी होते देखे हैं. इतना ही नहीं इसमें मैगजीन, दैनिक अखबार, वेब सहित सभी पत्रकार होते हैं. पीआरओ हमेशा एक ही रोना रोता रहता है कि क्या करंे कलाकार के पास समय नही है.  अथवा क्या करें हमें मार्केटिंग टीम की तरफ से कलाकार का सिर्फ एक दिन या दो घंटे का ही वक्त मिला है. सच तो प्रोडक्शन हाउस व कलाकार को ही पता होता है. यदि कलाकार सिटी टूर करने में वक्त बर्बाद करने की बजाय पत्रकारों के साथ अपनी फिल्म पर चर्चा करना शुरू करें, तो शायद फिल्म को लेकर सही बता दर्शक तक पहुॅचेगी,  जिससे स्थिति बदल सकती है.

वास्तव में जरुरत है कि बौलीवुड का हर फिल्म निर्माता दस बारह वर्ष पहले की तरह अपनी मार्केटिंग टीम व पीआर टीम की जवाब देही तय करे.  आज समय की सबसे बड़ी मांग यही है कि हर इंसान की जवाबदेही तय हो. कम से कम इस दिशा में ‘‘यशराज फिल्मस’’ के आदित्य चोपड़ा को गंभीरता से पहल करते हुए अपनी पूरी क्रिएटिब टीम, मार्केटिंग टीम व पीआर टीम की जांच परख कर आवश्यक कदम उठाने चाहिए, तभी वह ‘‘यशराज फिल्मस’’ की डूबती प्रतिष्ठा को वापस ला सकते हैं. अब वक्त आ गया है जब आदित्य चोपड़ा को स्वयं मंथन करने के बाद खुलकर सामने आना होगा. मंथन कर,  दूसरों पर यकीन करने की बजाय अपने अंदर नई उर्जा को जगाकर आदित्य चोपड़ा को स्वयं ऐसी फिल्म निर्देशित करनी चाहिए, जिसे दर्शक स्वीकार करें.

Alia Bhatt के चेहरे पर दिखा प्रेगनेंसी ग्लो, फैंस कर रहे तारीफ

 बौलीवुड एक्ट्रेस आलिया भट्ट ( Alia Bhatt) इन दिनों अपनी प्रैग्नेंसी के चलते फैंस के बीच छाई हुई हैं. वहीं पति रणबीर कपूर के साथ उनकी पहली प्रैग्नेंसी के चलते वह मीडिया की सुर्खियों में हैं. इसी बीच एक्ट्रेस आलिया भट्ट ने प्रैग्नेंसी अनाउंसमेंट के बाद पहली बार मीडिया के सामने पहुंची हैं, जिसे देखकर फैंस उनके लुक की तारीफ कर रहे हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

ट्रेलर लॉच पर पहुंची आलिया

 

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हाल ही में अपनी पहली प्रोडक्शन ‘डार्लिंग्स’ (Darlings) के ट्रेलर लौंच पर एक्ट्रेस आलिया भट्ट का लुक सुर्खियों में आ गया है. दरअसल, अपकमिंग फिल्म ‘डार्लिंग्स’ के ट्रेलर लौंच पर पहुंची आलिया भट्ट ने पीले रंग की ड्रेस पहनी थीं, जिसमें उनका बेबी बंप तो नहीं नजर आ रहा था. लेकिन प्रैग्नेंसी के कारण चेहरे का ग्लो देख फैंस उनकी तारीफें करते दिख रहे थे.

 

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रणवीर सिंह के सवाल पर कही ये बात

 

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फिल्म के ट्रेलर लौंच पर जहां अपनी ग्लोइंग स्किन के चलते एक्ट्रेस आलिया भट्ट सुर्खियों में हैं तो वहीं रणवीर सिंह के हाल ही में वायरल हुए बोल्ड फोटोशूट पर क्यूट रिएक्शन के चलते मीडिया में छाई हुई हैं. दरअसल, एक्ट्रेस ने एक्टर के सवाल पर क्यूट अंदाज में कहा कि वह रणवीर सिंह के फोटोशूट पर कुछ नहीं कहना चाहती हैं.

फोटोज क्लिक करवाती दिखीं आलिया

 

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पीले कलर की ड्रैस के अलावा एक्ट्रेस आलिया भट्ट शरारा पहने मीडिया के सामने पोज देती हुई भी नजर आईं. काले कलर के शरारा में जहां एक्ट्रेस चुन्नी से अपना बेबी बंप छिपाती दिखीं तो वहीं फोटोज क्लिक करवाने के लिए कभी गार्डन तो कभी बिल्डिंग के सामने पोज देती नजर आईं. आलिया भट्ट का ये क्यूट अंदाज फैंस को काफी पसंद आ रहा है.

बता दें डार्लिंग्स आलिया भट्ट के प्रौडक्शन में बनीं पहली फिल्म है, जो 5 अगस्त 2022 को नेटफ्लिक्स पर रिलीज होने वाली है, जिसके चलते वह सुर्खियों में हैं.

Photo And Video Credit- Viral Bhayani

REVIEW: जानें कैसी है Ranbir Kapoor की फिल्म Shamshera

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः आदित्य चोपड़ा

निर्देशकः करण मल्होत्रा

लेखकः एकता पाठक मलहोत्रा,नीलेश मिश्रा,खिला बिस्ट,पियूष मिश्रा

कलाकारः रणबीर कपूर,संजय दत्त, वाणी कपूर, रोनित रौय,सौरभ शुक्ला,क्रेग मेक्गिनले व अन्य

 अवधिः दो घंटे 40 मिनट

सिनेमा एक कला का फार्म है. सिनेमा समाज का प्रतिबिंब होता है. सिनेमा आम दर्शक के लिए  मनोरंजन का साधन है. मगर इन सारी बातों को वर्तमान समय का फिल्म सर्जक भूल चुका है. वर्तमान समय का फिल्मकार तो महज किसी न किसी अजेंडे के तहत ही फिल्म बना रहा है. कुछ फिल्मकार तो वर्तमान सरकार को ख्ुाश करने या सरकार की ‘गुड बुक’ में खुद को लाने के ेलिए अजेंडे के ही चलते फिल्म बनाते हुए पूरी फिल्म का कबाड़ा करने के साथ ही दर्शकों को भी संदेश दे रहे हंै कि दर्शक उनकी फिल्म से दूरी बनाकर रहे. कुछ समय पहले फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज ’’ में इतिहास का बंटाधार करने के बाद अब फिल्म निर्माता आदित्य चोपड़ा ने जाति गत व धर्म के अजेंडे के तहत पीरियड फिल्म ‘‘शमशेरा’’ लेकर आए हैं,जिसमें न कहानी है, न अच्छा निर्देशन न कला है. जी हॉ! फिल्म ‘शमशेरा’ 1871 से 1896 तक नीची जाति व उंची जाति के संघर्ष की अजीबोगरीब कहानी है,जो पूरी तरह से बिखरी और भटकी हुई हैं. इतना ही नही फिल्म ‘शमशेरा’’ में नीची जाति यानीकि खमेरन जाति के लोगों को नेस्तानाबूद करने का बीड़ा उठाने वाल खलनायक का नाम है-शुद्धि सिंह. इससे भी फिल्मकार की मंशा का अंदाजा लगाया जा सकता है. अब यह बात पूरी तरह से साफ हो गयी है कि इस तरह अजेंडे के ेतहत फिल्म बनाने वाले कभी भी बेहतरीन कहानी युक्त मनोरंजक फिल्म नही बना सकते. वैसे इसी तरह आजादी से पहले चोर कही जाने वाली अति पिछड़ी जनजाति ‘क्षारा’  गुजरात के कुछ हिस्से मंे पायी जाती थी. इस जनजाति के लोगो ने अपने मान सम्मान के लिए काफी लड़ाई लड़ी. इनका संघर्ष आज भी जारी है.

आदित्य चोपड़ा की पिछले कुछ वर्षों से लगातार फिल्में बाक्स आफिस पर डब रही हैं. सिर्फ तीन माह के अंदर ही ‘जयेशभाई भाई जोरदार’ व ‘सम्राट पृथ्वीराज’ के बाद बाक्स आफिस पर दम तोड़ने वाली ‘शमशेरा’ तीसरी फिल्म साबित हो रही है. मजेदार बात यह है कि आदित्य चोपड़ा निर्मित यह तीनों फिल्में धर्म का भ्रम फैलाने के अलावा कुछ नही करती. इसकी मूल वजह यह भी समझ में आ रही है कि अब फिल्म निर्माण नहीं बल्कि फैक्टरी का काम हो रहा है. मुझे उस वक्त बड़ा आश्चर्य हुआ जब एक बड़ी फिल्म प्रचारक ने कहा-‘‘अब क्वालिटी नही क्वांटीटी का काम हो रहा है,जिसकी सराहना की जानी चाहिए. ’ ’ वैसे फिल्म प्रचारक ने एकदम सच ही कहा. पर क्वांटीटी के नाम पर उलजलूल फिल्मों का सराहना तो नही की जा सकती. ऐसी पीआर टीम किसी फिल्म या निर्माता निर्देशक या कलाकारों को किस मुकाम पर ले जाएगी, इसका अहसास हर किसी को कर लेना चाहिए.

कहानी:

कहानी 1871 में शुरू होती है. उत्तर भारत के किसी कोने में एक खमेरन नामक बंजारी कौम थी,जिसने मुगलों के खिलाफ राजपूतों का साथ दिया.  लेकिन मुगल जीत गए और राजपूतों ने खमेरनों को नीची जाति बता कर हाशिये पर डाल दिया. इससे शमशेरा(रणबीर कपूर) के नेतृत्व में खमेरन बागी हो गए और वह हथियार उठाकर डाकू बन गए.  शमशेरा और उसके साथियों ने अमीरों की नाक में दम कर दिया. तब अमीरों ने अंग्रेज अफसरों से मदद की गुहार लगायी.  अंग्रेज पुलिस बल में नौकरी कर रहा दरोगा शुद्ध सिंह (संजय दत्त) अपने हुक्मनारों से कहता है कि वह शमशेरा को ठीक कर देगा. शुद्ध सिंह,शमशेरा को समझाता है कि सभी खमेरन के साथ वह सरकार के सामने आत्म समर्पण कर दें,जिसके बदले में अंग्रेज उन्हे अमीरो से दूर एक नए इलाके में बसाएंगे.  पैसा भी देंगे.  इससे वह और उसकी पूरी कौम सम्मान और इज्जत का जीवन फिर शुरू कर सकते हैं. शमशेरा समझौते को मंजूर कर लेता है. लेकिन आत्मसमर्पण करते ही शमशेरा को अहसास होता है कि उसके और खमेरन कौम को धोखा मिला है.  शुद्ध सिंह ने इन सभी को काजा नाम की जगह पर बनी विशाल किलेनुमा जेल में कैद कर देता है और फिर इनके साथ गुलामों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है. इस किले के तीन तरफ से अति गहरी आजाद नदी बहती है. शमशेरा को शुद्ध सिंह समझाता है कि अंग्रेज लालची हैं. अमीरों ने पांच हजार करोड़ सोने के सिक्के दिए हैं,वह दस हजार करोड़ सोने के सिक्के दे,तो उसे व उसकी पूरी खमेरन कौम को आजादी मिल जाएगी. स्टैंप पेपर पर लिखा पढ़ी हो जाती है. सोना जमा करने के लिए किले से बाहर निकलना जरुरी है. इसी चक्कर में शुद्ध सिंह की चाल में फंसकर शमशेरा न सिर्फ मारा जाता है,बल्कि खमेरन कौम उसे भगोड़ा भी कहती है.

शमशेरा की मौत के वक्त उसकी पत्नी गर्भवती होती है,जो कि बेटे बल्ली (रणबीर कपूर) को जन्म देती है. बल्ली 25 वर्ष का हो गया है. मस्ती करना और जेल के अंदर डांस करने आने वाली सोना(वाणी कपूर ) के प्यार में पागल है. अब तक उसे किसी ने नहीं बताया कि उसे भगोड़े का बेटा क्यों कहा जाता है. बल्ली भी अंग्रेजों की पुलिस में अफसर बनना चाहता है. शुद्धसिंह उसे अफसर बनाने के लिए परीक्षा लेने के नाम पर बल्ली की जमकर पिटायी कर देता है. तब उसकी मां उसे सारा सच बाती है कि उसका पिता भगोड़ा नही था,बल्कि सभी खमेरन को आजाद करने की कोशिश में उन्हे मौत मिली थी. तब बल्ली भी अपने पिता की ही राह पकड़कर उस जेल से भागने का प्रयास करता है,जिसमें उसे कामयाबी मिलती है. वह काजा से निकलकर नगीना नामक जगह पहुॅचता है,जहां उसके पिता के खमेरन जाति के कई साथी रूप बदलकर शमशेरा के आने का इंतजार कर रहे हैं. उसके बाद बल्ली उन सभी के साथ मिलकर सभी खमेरन को आजाद कराने के लिए संघर्ष शुरू करता है. सोना भी उसके साथ है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः शुद्धसिंह मारा जाता है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी इसके चार लेखक व निर्देशक करण मल्होत्रा खुद हैं. फिल्म में एक नहीं चार लेखक है और चारों ने मिलकर फिल्म का सत्यानाश करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. इनचारों ने 2013 की असफल हौलीवुड फिल्म ‘‘द लोन रेंजर’’ की नकल करने के साथ ही डाकू सुल्ताना,फिल्म ‘नगीना’ व असफल फिल्म ‘ठग्स आफ हिंदुस्तान’ का कचूमर बनाकर ‘शमशेरा’ पेश कर दिया. लेखकों व निर्देशक के दिमागी दिवालियापन की हद यह है कि इस जेल के अंदर सभी खमेरन मोटी मोटी लोहे की चैन से बंधे हुए हैं. इन्हे नहाने के लिए पानी नहीं मिलता. दरोगा शुद्ध सिंह इनसे क्या काम करवाता है,यह भी पता नही. सभी के पास ठीक से पहनने के लिए कपड़े नही है. इन सब के बावजूद बल्ली अच्छे कपड़े पहनता है. बल्ली ने अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई कहां व कैसे की. वह अंग्रेजों और शमशेरा के बीच हुआ अंग्रेजी में लिखा समझौता पढ़-समझ लेता है. वह नक्शा पढ़ लेता है. आसमान में देखकर दिशा समझ जाता है. सोना जैसी डंासर से इश्क भी कर लेता है.

हौलीवुड फिल्म ‘‘ द लोन रेंजर’’ में ट्ेन,सफेद घोड़ा व लाखों कौए,बाज पक्षी के साथ ही पिता की मृत्यू के बदले की कहानी भी है. यह सब आपको फिल्म ‘‘शमशेरा’’ में नजर आ जाएगा.  शमशेरा और बल्ली पर जब भी मुसीबत आती है,उनकी मदद करने लाखों कौवे अचानक पहुॅच जाते हैं,ऐसा क्यांे होता है,इस पर फिल्म कुछ नही कहती. लेकिन जब बल्ली किले से भाग कर एक नदी किनारे बेहोश पड़ा होता है, तो उसे होश में लाने के लिए कौवे की जगह अचानक एक बाज कैसे आ जाता है? मतलब पूरी फिल्म बेसिर पैर के घटनाक्रमों का जखीरा है. एक भी दृश्य ऐसा नही है जिससे दर्शकों का मनोरंजन हो. इंटरवल से पहले तो फिल्म कुछ ठीक चलती है,मगर इंटरवल के बाद केवल दृश्यों का दोहराव व पूरी फिल्म का विखराव ही है.

2012 में फिल्म ‘अग्निपथ’ का निर्देशन कर करण मल्होत्रा ने उम्मीद जतायी थी कि वह एक बेहतरीन निर्देशक बन सकते हैं. मगर 2015 में फिल्म ‘‘ब्रदर्स’’ का निर्देशन कर करण मल्होत्रा ने जता दिया था कि उन्हे निर्देशन करना नही आता. अब पूरे सात वर्ष बाद ‘शमशेरा’ से जता दिया कि वह पिछले सात वर्ष निर्देशन की बारीकियां सीखने की बजाय निर्देशन के बारे में उन्हे जो कुछ आता था ,उसे भी भूलने का ही प्रयास करते रहे. तभी तो बतौर निर्देशक ‘शमशेरा’ में वह बुरी तरह से असफल रहे हैं. फिल्म के कई दृश्य अति बचकाने हैं. निर्देशक को यह भी नही पता कि 25 वर्ष में हर इंसान की उम्र बढ़ती है,उसकी शारीरिक बनावट पर असर होता है. मगर यहां शुद्ध सिंह तो ‘शमशेरा’ और ‘बल्ली’ दोनो के वक्त एक जैसा ही नजर आता है.

फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी पीयूष मिश्रा लिखित संवाद हैं. कहानी 1871 से 1896 के बीच की है. उस वक्त तक देश में खड़ी बोली का प्रचार प्रसार होना शुरू ही हुआ था.  अवधी और ब्रज बोलने वाला फिल्म में एक भी किरदार नहीं है जो उत्तर भारत की उन दिनों की अहम बोलियां थी.

फिल्म की मार्केटिंग और पीआर टीम ने इस फिल्म को आजादी मिलने से पहले अंग्रेजों से देश की आजादी की कहानी के रूप में प्रचार किया. जबकि यह पूरी फिल्म देश की आजादी नही बल्कि एक कबीले या यॅंू कहें कि एक आदिवासी जाति की आजादी की कहानी मात्र है.  जी हॉ!यह स्वतंत्रता की लड़ाई नही है. इस फिल्म में अंग्रेज शासक विलेन नही है. फिल्म में अंग्रेजांे यानी श्वेत व्यक्ति की बुराई नही दिखायी गयी है. बल्कि कहानी पूरी तरह से देसी जातिगत संघर्ष पर टिकी है,जिसका विलेन भारतीय शुद्ध सिंह ही है.

फिल्म का वीएफएक्स भी काफी घटिया है. फिल्म का गीत व संगीत भी असरदार नही है. फिल्म के संगीतकार मिथुन ने पूरी तरह से निराश किया है. फिल्म का बैकग्राउंड संगीत कान के पर्दे फोड़ने पर आमादा है. यह संगीतकार की सबसे बड़ी असफलता ही है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो यह फिल्म और यह किरदार उनके लिए नही था. उन्हें फिलहाल रोमांस और डांस ही करना चाहिए. जितना काम यहां उन्होंने किया, उतना कोई भी कर सकता था. वैसे भी यह रणबीर कपूर वही है जो आज भी अपने कैरियर की पहली फिल्म का नाम नही बताते. उनकी इच्छा के अनुसार सभी को पता है कि रणबीर कपूर की पहली फिल्म ‘‘सांवरिया’’ थी,जिसके लिए उन्होने अपनी पहली फिल्म को कभी प्रदर्शित नही होने दिया. पर ‘सांवरिया’ असफल रही थी. वैसे रणबीर कपूर ने अपनी 2018 में प्रदर्शित अपनी पिछली फिल्म ‘‘संजू’’ में बेहतरीन अभिनय किया था. मगर चार वर्ष बाद ‘शमशेरा’ से अभिनय में वापसी करते हुए वह निराश करते हैं.

वाणी कपूर ने 2013 में प्रदर्शित अपनी पहली ही फिल्म ‘‘शुद्ध देसी रोमांस’’ से जता दिया था कि उन्हे अभिनय नही आता. उनके पास दिखाने के लिए सिर्फ खूबसूरत जिस्म है. उसके बाद ‘बेफिक्रे’,‘वार’,‘बेलबॉटम’ और ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ में भी उनका अभिनय घटिया रहा. फिल्म ‘शमशेरा’ में भी वही हाल है.  उनके कपड़े डिजाइन और मेक-अप करने वाले भूल गए कि कहानी साल 1900 से भी पुरानी है. इस फिल्म में भी कई जगह उन्होने बेवजह अपने जिस्म की नुमाइश की है. देखना है इस तरह वह कब तक फिल्म इंडस्ट्ी मंे टिकी रहती हैं. इरावती हर्षे का अभिनय ठीक ठाक है.

कुछ मेकअप की कमियों को नजरंदाज कर दें तो संजय दत्त ने कमाल का अभिनय किया है. वैसे उनका किरदार काफी लाउड है.  संजय दत्त का किरदार फिल्म का खलनायक है,पर वह क्रूर कम और कॉमिक ज्यादा नजर आते हैं.  फिर भी उनका अभिनय शानदार है. पूरी फिल्म में सिर्फ संजय दत्त ही अपनी छाप छोड़ जाते हैं. सौरभ शुक्ला जैसे शिक्षित कलाकार ने यह फिल्म क्यों की,यह बात समझ से परे है. शायद रोनित राय ने भी महज पेसे के लिए फिल्म की है.

क्या होना चाहिएः

यश राज चोपड़ा की कंपनी ‘यशराज फिल्मस’’ की अपनी एक गरिमा रही है. यह प्रोडक्शन हाउस उत्कृष्ट सिनेमा की पहचान रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ‘यशराज फिल्मस’ की छवि काफी धूमिल हुई है. इस छवि को पुनः चमकाने और  अपने पिता यशराज चोपड़ा के यश को बरकरा रखने के लिए आवश्यक हो गया है कि अब आदित्य चोपड़ा गंभीरता से विचार करें. बौलीवुड का एक तबका मानता है कि अब वक्त आ गया है,जब आदित्य चोपड़ा को अपने प्रोडक्शन हाउस की रचनात्मक टीम के साथ ही मार्केटिंग व पीआर टीम में अमूलचूल बदलाव कर सिनेमा को किसी अजेंडे की बजाय सिनेमा की तरह बनाएं.  माना कि ‘यशराज फिल्मस’ के पास बहुत बड़ा सेटअप है. पर आदित्य चोपड़ा को चाहिए कि वह अपनी वर्तमान टीम में से कईयों को बाहर का रास्ता दिखाकर सिनेमा की समझ रखने वाले नए लोगों को जगह दे, वह भी ऐसे नए लोग, जो उनके स्टूडियो में कार से स्ट्रगल करने न आएं.  जिनका दिमाग विदेशी सिनेमा के बोझ तले न दबा हो.  कम से कम इतनी असफल फिल्मों के बाद आदित्य को समझ लेना चाहिए कि एक अच्छी फिल्म सिर्फ पैसे से नहीं बनती.

चार लड़कियों की अनूठी रोड ट्रिप फिल्म ‘‘मियामी से न्यूयॉर्क’’ मे नए रिश्तों का जाल

जब भी ‘रोड ट्पि’ फिल्मों की बात होती है,तो लोगांे के जेहन में ‘‘हाईवे’’ ,‘‘दिल चाहता है’’ और ‘‘जिंदगी मिलेगी ना दोबारा’’ जैसी खूबसूरत व सफल फिल्मों का ख्याल सहज ही आ जाता है. अब इसी कड़ी में पांच अगस्त को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘‘मियामी से न्यूयॉर्क’’ का नाम भी जुड़ने जा रहा है,जिसका निर्माण राकेश यू साकट ने किया है.

अनूठे किस्म की  रोड ट्पि वाली फिल्म ‘‘मियामी से न्यूयॉर्क’’ मेंें चार सहेलियों की कहानी है,जो एक दिन सड़क के रास्ते एक शहर (मियामी) से दूसरे शहर (न्यूयॉर्क) जाने का फैसला करती हैं. इसके लिए वह एक हैंडसम लड़के की मदद लेती हैं. इस रोड ट्पि फिल्म की खासियत यह है कि  इसमें एक खूबसूरत प्रेम कहानी को भी अनोखे अंदाज पिरोया गया है.

कॉमेडी व एडवेंचरस फिल्म में निहाना मिनाज (आंशु), निखर कृष्णानी (शायना), जैनेल लैक्ले (मिलि) और रोहिनी चंद्रा (आशा) यह चार सहेलियां जब एक दिन रोड ट्रिप पर निकलने के बारे में सोचती हैं तो वह सभी अपनी इस यात्रा के लिए अर्जुन आनंद (रवि) की मदद लेने का फैसला करती हैं. फिल्म की कहानी इन्हीं पांच मजेदार किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है. जैसे जैसे इनकी यात्रा सड़क के रास्ते तेजरफ्तार अंदाज में आगे बढ़ती है, फिल्म के सभी किरदारों के आपसी रिश्तों के विभिन्न पहलू सामने आने लगते हैं, जो इस फिल्म को एक अलग और रोमांचक मोड़ पर ले जाते हैं.

फिल्म ‘‘मियामी से न्यूयॉर्क’’ के निर्माता राकेश यू साकट ने कहा, ‘‘हालांकि इससे पहले भी रोड ट्रिप पर आधारित कुछ चुनिंदा फिल्में बन चुकी हैं, मगर हमारी फिल्म ‘मियामी से न्यूयॉर्क’ में रिश्तांे के ताने-बाने को एक अलग अंदाज में पेश करने की कोशिश की गयी है. हमें पूरी उम्मीद है कि नयी प्रतिभाओं के साथ बनाई गयी हमारी फिल्म की कहानी का नयापन और अंदाज-ए-बयां दोनों ही दर्शकों का खासा पसंद आएगा. ’’

‘‘प्रीशा फिल्म्स’’ के बैनर तले बनी फिल्म ‘‘मियामी से न्यूयॉर्क’’ का निर्देशन जाने-माने निर्देशन ‘‘तेरे मेरे सपने’ व ‘पागलपन’जैसी फिल्मों के निर्देशक जॉय अॉगस्टीन ने किया है. जबकि इसके कैमरामैन परीक्षित वॉरियर हैं.

30 साल से भी लम्बे समय से इंडस्ट्री से जुड़े रहे प्रतिष्ठित निर्देशक जॉय अॉगस्टीन की पहचान महज एक फिल्ममेकर के तौर पर नहीं होती, बल्कि उनकी पहचान एक निर्माता और एक अच्छे लेखक के तौर पर भी होती है. जॉय को बेहतरीन किस्म के विज्ञापन फिल्में बनाने के लिए भी जाना जाता है.

अब लंदन में संभावनाएं तलाश रहे हैं अक्षय कुमार?

अक्षय कुमार अभिनीत ‘लक्ष्मी’, ‘बच्चन पांडे’ और ‘सम्राट पृथ्वीराज ’ सहित लगभग छह फिल्मों के बाक्स आफिस पर बुरी तरह से असफल हो जाने के बाद उनके कैरियर पर कई सवालिया निशान खड़े हो गए हैं. सूत्रांे पर यकीन किया जाए तो अक्षय कुमार की ‘गोरखा’ सहित पांच फिल्में बंद कर दी गयी हैं. इसलिए अब अक्षय कुमार की सारी उम्मीदंे 11 अगस्त को प्रदर्शित होने वाली आनंद एल राय निर्देशित फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ पर टिकी हुई हैं. अक्षय कुमार इस फिल्म के लिए विश्व स्तर पर संभावनाएं तलाश रहे हैं.

अक्षय कुमार इन दिनों लंदन में हैं,जहां वह वासु भगनानी की नई फिल्म की शूटिंग कर रहे हैं. तो अक्षय कुमार ने फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ का भी प्रमोशनल इवेंट करने का विचार कर योजना बना डाली. और अब 18 जुलाई को  लंदन के ‘सिनेवल्र्ड फेलथम’ में  शाम छह बजे फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ का एक खास गाना रिलीज किया जाएगा. इसके पोस्टर लंदन में लग गए हैं. इस अवसर पर अक्षय कुमार,फिल्म की नायिका भूमि पेडणेकर और निर्देशक आनंद एल राय भी मौजूद रहेंगंें.

इस तरह लंदन में फिल्म ‘रक्षाबंधन’ का गाना रिलीज कर लंदन में रह रहे अप्रवासी भारतीयांंें को आकर्षित करना ही माना जा रहा है. वैसे भी लंदन के इस ‘सिनेवल्र्ड’ सिनेमाघर में ज्यादातर भारतीय फिल्में प्रदर्शित होती हैं. सूत्रों का दावा है कि अक्षय कुमार और आनंद एल राय अपनी फिल्म ‘रक्षाबंधन’’ को लंदन सहित विश्व के कई शहरांे में प्रदर्शित करने की योजना पर काम कर रहे हैं. वैसे भी फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ की सफलता या असफलता का सबसे बड़ा असर अक्षय कुमार पर ही पड़ने वाला है. पहली बात तो इस वक्त उनका कैरियर खतरे में पड़ा हुआ है. पिछले कुछ समय में उनकी कई फिल्में असफल हुई हैं.  और उनके हाथ से कई फिल्में चली गयी हैं. दूसरी बात इस फिल्म के निर्माण से भी अक्षय कुामर जुड़े हुए हैं.

अक्षय कुमार और आनंद एल राय अब तक भारत में फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ के दो प्रमोशनल इवेंट कर चुके हैं. फिल्म का ट्ेलर दिल्ली में लांच किया गया था. जबकि फिल्म का एक गाना ‘‘तेरे साथ हॅूं मैं’’ मंुबई में लांच किया गया था. मगर अभी तक इस फिल्म को लेकर चर्चाओं का दौर उतना गर्म नही हो पाया है,जितना कि होना चाहिए. शायद लंदन में गाने के लांच इवेंट से फिल्म को कुछ फायदा मिल जाए.

REVIEW: जानें कैसी है फिल्म ‘जुदा होके भी’

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः के सेरा सेरा, विक्रम भ्ज्ञट्ट प्रोडक्शन

लेखकः महेश भट्ट

निर्देशकः विक्रम भट्ट

कलाकारः अक्षय ओबेराय, एंद्रिता रे, मेहेरझान मझदा, जिया मुस्तफा,  रूशद राणा‘

अवधिः दो घंटे दो मिनट

गुलाम , राज सहित कई सफलतम फिल्मों के निर्देशक विक्रम भट्ट को सिनेमा जगत में नित नए सफल प्रयोग करने के लिए जाना जाता है. रामसे बंधुओं के बाद हॉरर फिल्मों को एक नई पहचान देने में विक्रम भट्ट का बढ़ा योगदान है. अब विक्रम भट्ट फिल्मों की शूटिंग की एक नई तकनीक ‘‘वच्र्युअल फार्मेट’’ लेकर आए हैं. इसी तकनीक वह पहली हॉरर के साथ प्रेम कहानी युक्त फिल्म ‘‘जुदा होके भी’’ लेकर आए हैं, जिसमें उन्होने वशीकरण का तड़का भी डाला है. वशीकरण एक ऐसी तांत्रिक क्रिया है, जिससे किसी भी इंसान व उसकी सोच को अपने वश में किया जा सकता है. मगर यह फिल्म कहीं से भी डराती नही है. विक्रम भट्ट का दावा है कि ‘वच्र्युअल तकनीक ही सिनेमा का भविष्य है. मगर फिल्म ‘जुदा हो के भी ’’ देखकर ऐसा नही लगता. विक्रम भट्ट के निर्देशन में बनी यह सबसे कमजोर फिल्म कही जाएगी.

कहानीः

कम उम्र में अपने बेटे राहुल की मृत्यु के बाद सफल गायक व संगीतकार अमन खन्ना (अक्षय ओबेरॉय) इस कदर टूट जाते हैं,  कि वह खुद को दिन रात शराब के नशे में डुबा कर अपना जीवन व कैरियर तहस नहस कर देते हैं. इस त्रासदी के परिणामस्वरूप मीरा (ऐंद्रिता रे) से उसकी शादी को भी नुकसान हुआ है. पिछले चार वर्षों से मीरा ही किताबें लिखकर या दूसरों की लिखी किताबांे का संपादन कर घर का खर्च चला रही है. पति अमन से मीरा की आए दिन तूतू में मैं होती रहती है. इसी बीच उत्तराखंड में बिनसार से सिद्धार्थ जयवर्धन (मेहरजान मज्दा) अपनी जीवनी लिखने के लिए मीरा को उत्तराखंड आने का निमंत्रण देते हैं. इसके एवज में वह मीरा को बीस लाख रूपए देने की बात कहते हैं. अमन नही चाहता कि मीरा उससे दूर जाए. मगर घर के आर्थिक हालात व पति के काम करने की बजाय दिन रात शराब मंे डूबे रहने के चलते मीरा कठोर मन से उत्तराखंड चली जाती है. उत्तराखंड के अति सुनसान इलाके बिनसार में पहुॅचने के बाद मीरा अपने आपको सिद्धार्थ जयवर्धन के मकड़जाल मे फंसी हुई पाती है. उधर उत्तराखंड में टैक्सी चलाने वाली रूही के अंधे पिता(रुशाद राणा),  अमन को सचेत करते है कि वह मीरा को बचा ले. अमन उत्तराखंड पहुॅचकर मीरा को अपने साथ ले जाना चाहता है. पर क्या होता है, इसके लिए फिल्म देखनी पड़ेगी.

लेखन व निर्देशनः

पिछले कुछ वर्षों से विक्रम भट्ट हॉरर फिल्में बनाते रहे हैं, जिनमें हॉरर में प्रेम कहानी हुआ करती थी. मगर इस बार उन्होने प्रेम कहानी में हॉरर को पिरोया है. इस फिल्म का निर्माण व निर्देशन विक्रम भट्ट ने महेश भट्ट के कहने पर किया है. ज्ञातब्य है कि बीस वर्ष पहले विक्रम भट्ट निर्देशित सफलतम सुपर नेच्युरल हॉरर फिल्म ‘‘राज’’ का लेखन महेश भट्ट ने किया था और अब ‘‘जुदा होके भी ’’ का लेखन महेश भट्ट ने किया है. मगर अफसोस  ‘जुदा होके भी ’’की कहानी व पटकथा काफी कमजोर ही नही बल्कि त्रुतिपूर्ण नजर आती है. फिल्म में टैक्सी चलाने वाली रूही व उसके अंधे पिता के किरदार ठीक से चित्रित ही नही किए गए. रूही के पिता अंधे होने के ेबावजूद सब कुछ कैसे देखे लेते हैं. उनके पास कौन सी शक्तियां हंै कि वह मंुबई में अमन के घर ही नहीं ट्ेन में भी अमन के पास पहुॅच जाते हैं? सब कुछ अस्पष्ट और अजीबो गरीब नजर आता है.  यह लेखक की कमजोर कड़ी है.

इस बार महेश भट्ट अपने लेखन से  प्रेम को वासना से अलग नही दिखा पाए. इसके अलावा फिल्म में जिन अलौकिक गतिविधियांे की बात की गयी है,  वह रोमांचक और डरावनी भी नहीं हैं. अजीबोगरीब फुसफुसाहट हर जगह गूंजती रहती है. मीरा कुछ भयानक चीजें जरुर देखती है,  लेकिन इससे दर्शक पर कोई असर नही पड़ता. कहानी में कोई ट्विस्ट भी नही है. कहानी एकदम सपाट धीरे धीरे चलती रहती है. यहां तक कि क्लायमेक्स में एक भयानक प्राणी के संग नायक अमन की लड़ाई भी प्रभाव पैदा करने मे विफल रहती है. दर्शक इस तरह के भयंकर प्राणी को इससे पहले विक्रम भट्ट की ही थ्री डी फिल्म ‘क्रिएचर’ मंे देख चुके हैं.

संवाद जरुर काफी भरी भरकम हैं. फिल्म वर्तमान में जीने की बात कहते हुए कहती है-‘‘जिंदगी बहुत सुंदर है, क्योंकि वह खत्म होती है. और हमें उन लोगों को छोड़ देना चाहिए, जो गुजर चुके हैं और वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. ’’

जहां तक निर्देशन का सवाल है तो जब पटकथा कमजोर हो , कुछ किरदार अस्पष्ट हों, तो निर्देशन कमजोर हो ही जाता है. इसके अलावा इस बार विक्रम भट्ट ने अपनी इस फिल्म को नई वच्र्युअल तकनीक पर फिल्माया है, जो कि जमी नही. इस तकनीक से फिल्म का बजट भी नही उभरता और बहुत कुछ बनावटी लगता है. इस हिसाब से ‘वच्र्युअल फार्मेट’ की तकनीक के भविष्य पर सवाल उठते हैं?उत्तराखंड की कड़ाके की ठंड में मीरा हमेशा शिफॉन  या नेट की ही साड़ी में नजर आती है, यह भी बड़ा अजीब सा लगता है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो अमन के किरदार में अक्षय ओबेराय ने बेहतरीन परफार्मेंस दी है. वह एक गम में डूबे इंसान की ज्वलंत भावनाओं और बेबसी को भी बहुत बेहतरीन तरीके से परदे पर उकेरा है. मीरा के किरदार में एंद्रिता रे काफी हद तक फिल्म को आगे ले जाती हैं. उनका अभिनय कई दृश्यों में काफी शानदार बन पड़ा है. सिद्धार्थ जयवर्धन के किरदार मेे महेरझान मझदा ने मेहनत काफी की है, मगर इस चरित्र को ठीक से लिखा नही गया. परिणामतः एक खूबसूरत चेहरे वाला विलेन उभरकर नही आ पाता. अंधे व्यक्ति के किरदार में रूशद राधा ने ठीक ठाक काम किया है, जबकि इस चरित्र को भी लेखक ठीक से उभार नही पाए. रूही के किरदार में जिया मुस्तफा के हिस्से करने को कुछ खास रहा ही नही.

विवादों के बारे में क्या कहते है Ram Gopal Varma, पढ़ें इंटरव्यू

निर्देशक राम गोपाल वर्मा हमेशा लीक से हटकर फिल्में बनाते है, उनकी फिल्मों में वायलेंस, रोमांस,एक्शन का भरपूर समावेश होता है. वे इसे आसपास की घटनाओं से प्रेरित फिल्में बनाते है. फिल्मों के निर्देशन के अलावा राम गोपाल स्क्रीन राइटर और प्रोड्यूसर भी है.हिंदी फिल्म शिवा, सत्या, रंगीला,भूत आदि उनकी चर्चित फिल्में है. हिंदी फिल्मों के अलावा उन्होंने तेलगू सिनेमा और टीवी में भी नाम कमाया है. सिविल इंजिनीयरिंग की पढ़ाई कर चुके राम गोपाल वर्मा को कभी लगा नहीं था कि वे एक दिन इतने बड़े निर्देशक बन जायेंगे. अच्छी फिल्में बनाने की वजह से उन्हें कई फिल्मों में पुरस्कार भी मिला है.

घबराते नहीं

राम गोपाल वर्मा हमेशा विवादों में रहते है, पर ऐसे कंट्रोवर्सी से वे घबराते नहीं और जो भी बात उन्हें सही नहीं लगती, वे तुरंत कह देते है. उन्हें कई बारट्वीट की वजह से लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा, लेकिन वे पीछे नहीं हटे. वे कानून को सर्वोपरि मानते है, डेमोक्रेसी में कानून जिस चीज को करने की इजाजत देती है, उसे करना पसंद करते है, बाकी को वे पर्सनल सोच बताते है. किसी प्रकार की फाइट भी कानून के साथ करे, आपस में नहीं, क्योंकि इससे आपसी मतभेद बढती है.

राम गोपाल ने अपना करियर वीडियो लाइब्रेरी से शुरू किया है, क्योंकि ये उनका सपना था और इसे उन्होंने हैदराबाद में खोला था. बाद में उन्होंने वीडियो कैफे भी खोला और वही से उन्हें दक्षिण की फिल्मों में काम करने का अवसर मिला. धीरे-धीरे वे प्रसिद्ध होते गए. अभी वे नामचीन निर्देशकों की श्रेणी में माने जाते है. फिल्म ‘सत्या’उनके जीवन की टर्निंग पॉइंट थी. राम गोपाल वर्मा का रिश्ता पहले उर्मिला मातोंडकर, अंतरा माली, निशा कोठारी, जिया खान आदि के साथ जुड़ने की वजह से भी वे सुर्खियों में रहते है.अभी उनकी फिल्म ‘लड़की- enter the girl dragon’ रिलीज हो चुकी है, अब उन्हें दर्शकों की प्रतिक्रिया देखने की बारी है.

हुए प्रसिद्ध

प्रसिद्ध निर्देशक की कल्पना उन्होंने की थी या नहीं पूछे जाने पर वे कहते है कि हमेशा से मुझे एक फिल्म बनाने की बहुत इच्छा थी,जिसे मैं देखना चाहता हूँ, उससे अधिक मैंने कुछ भी नहीं सोचा था. आज की फिल्मों में माड़-धाड़, गली गलौज बहुत अधिक होती है, इस बारें में राम गोपाल वर्मा कहते है किफिल्म इंडस्ट्री एक बुक शॉप की तरह है, जहाँ कोई फॅमिली ड्रामा, कोई एक्शन तो कोई रोमांस की किताबें ले जाना पसंद करते है, इसलिए जिसे जो पसंद हो वे उसे देख सकते है. फिल्में जल्दी बनने की वजह तकनीक का अधिकतम विकास होना है. आज फिल्मों में VFX भी बहुत होता है. तकनीक की वजह से फिल्में भी जल्दी बनती  है.

मार्शल आर्ट सीखना है जरुरी

राम गोपाल कहते है कि मैंने WWCकार्यक्रम में महिलाओं की एक शो को देखा था, जिसमे लड़कियों की body को मसल्स के साथ स्ट्रोंग भी दिखाया जाता है, मुझेबहुत अच्छा लगा था.इस शो से प्रेरित होकर कई लड़कियों ने मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग लेने मार्शल आर्ट स्कूल में जाने लगी थी. ब्रूस ली की भी हाइट बहुत कम है, लेकिन उसकी मार्शल आर्ट इतनी अच्छी है कि बड़े-बड़े लोग भी उससे डर जाते है. इसके अलावा हर लड़की के बारें में हमारे समाज और परिवार में ये अवधारणा है कि वह कमजोर है, इसलिए लड़के उनके साथ छेड-छाड़, रेप, गन्दी आचरण आदि कुछ भी करने या कहने से डरते नहीं और बेचारी लड़की चुप रहती है. उसे कहीं जाने या अपने मन की पोशाक पहनने की आज़ादी नहीं होती,सभी उनपर आरोप लगाते रहते है, लेकिन परिवार और समाज उनके लिए कुछ नहीं करती, उन्हें सेल्फ प्रोटेक्शन की ट्रेनिंग नहीं दी जाती, लड़की है कहकर उसके लिए पाबंदियां लगा देते है,उसकी रहन-सहन, पोशाक आदि पर भी आरोप लगते है. इसलिए मैंने सोचा अगर किसी लड़की में साहस और मार्शल आर्ट को मिलाकर डाल दिया जाता है तो वास्तव में वह लड़की स्ट्रोंग होगी. मेरी फिल्म की चरित्र पूजा भालेकर भी ऐसी ही लेडी है, जिसका कोई कुछ बिगड़ नहीं सकता. आज हर लड़की को फिट रहने के साथ-साथ मार्शल आर्ट भी सिखने की जरुरत है.

मनोरंजन है जरुरी

राम गोपाल कहते है कि ऐसी फिल्मों को मनोरंजन के साथ बनाना मुश्किल होता है. फिल्म चाहे थिएटर हो या ओटीटी बजट मुख्य होता है. उसके अनुसार ही मैंने फिल्मे बनाई है, कई बड़े-बड़े प्रोडक्शन हाउसेस बड़ी बजट की फिल्में बनाते है और ओटीटी पर ही रिलीज करते है और उनकी मार्केटिंग भी महँगी होती है, ऐसे में आपने कितनी बजट की फिल्म बनाई और फिल्म ने कितनी कमाई की, इसे देखने की जरुरत है. मैं बहुत साल से इस कांसेप्ट पर काम कर रहा हूँ.

नेचुरल एक्टिंग है मुश्किल

मार्शल आर्ट की रियल एक्सपर्ट पूजा भालेकर को राम गोपाल ने इस फिल्म में लिया और उनकी ये डेब्यू फिल्म है, कितना मुश्किल था उनके साथ काम करना पूछने पर उनका कहना है कि एक्टिंग दो तरह के होते है, एक वे जो एन एस डी से ट्रेनिंग लेकर आते है और एक वे जो नेचुरल एक्टिंग करते है. हर व्यक्ति के पास मिनिमम एक्टिंग का टैलेंट होता है, क्योंकि किसी भी परिस्थिति में हम जब किसी से बात करते है, तो एक्टिंग ही बाहर आती है. कैमरे के सामने आने पर कलाकार सचेत हो जाते है. मैं कैसी दिख रही हूँ, संवाद कैसे बोल रही हूँ आदि को लेकर मन में द्वन्द चलता रहता है.मन के भाव कोचेहरे पर दिखाना भी एक कला है. पूजा ने वर्कशॉप में ही सिद्ध कर दिया था कि वह एक अच्छी एक्ट्रेस है. आँखों में मार्शल आर्ट के साथ संवाद को सही तरह से बोलने की कोशिश की है, मैंने उन्हें समझाया है कि इमोशन को एक्शन के साथ चेहरे पर लाना है, जिसे उन्होंने बहुत अच्छी तरह से किया. मुझे अधिक ट्रेनिंग नहीं देनी पड़ी.

राम गोपाल वर्मा आगे कहते है कि महिला सशक्तिकरण के ऊपर हमेशा फिल्में बनती है और इसमें एक लड़की पुरुष की तरह काम की है. हमारे देश में लड़कियों को समान अधिकार है, लेकिन लड़की को दबा कर रखने के लिए हमेशा पुरुष उसे कुछ करने से मना किया जाता है. जबकि लड़की भी अपने शरीर के हिसाब से सब कुछ कर सकती है. इसमें पहले मैं परिवार की जिम्मेदारी समझता हूँ.

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