आजादी के 76 साल औरतें आज भी बदहाल

मणिपुर में कुकी समुदाय की 2 महिलाओं को निर्वस्त्र कर के घुमाने और उन के साथ यौन हिंसा ने पूरे देश का सिर शर्म से झुका दिया. जिस तालिबानी संस्कृति की हम आलोचना करते हैं यह उस से भी बड़ी घटना है. मणिपुर हिंसा के 83वें दिन 2 महिलाओं के साथ जो हुआ उस के वीडियो बनाए गए और फिर उन्हें सोशल मीडिया पर प्रसारित किया गया जिस से समाज की मानसिकता का ही पता चलता है. यह किसी आदिम युग की घटना लगती है. इस घटना ने साबित कर दिया कि आजादी के 76 सालों के बाद भी महिलाओं को ले कर हमारी सोच नहीं बदली है. देश में 760 साल पहले महिलाओं की जो हालत थी वही आज भी कायम है.

इन महिलाओं को नग्न कर के सड़क पर घुमाते हुए दिखाया जा रहा है. उन के यौन अंगों से छेड़छाड़ की जा रही है. यह वीडियो पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गया. पूरी दुनिया ने देख लिया कि भारत में महिलाओं की क्या हालत है. 83 दिनों से सो रही डबल इंजन सरकार को सोता देख कर सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने केंद्र और राज्य सरकार को सख्त काररवाई करने का निर्देश दिया. चीफ जस्टिस को यहां तक कहना पड़ा कि या तो सरकार काररवाई करे वरना हम खुद इस मामले में हस्तक्षेप करेंगे.

मानवजीवन का उल्लंघन

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि हमारा विचार है कि अदालत को सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से अवगत कराया जाना चाहिए ताकि अपराधियों पर हिंसा के लिए मामला दर्ज किया जा सके. मीडिया में जो दिखाया गया है और जो दृश्य सामने आए हैं, वे घोर संवैधानिक उल्लंघन को दर्शाते हैं और महिलाओं को हिंसा के साधन के रूप में इस्तेमाल कर के मानवजीवन का उल्लंघन करना संवैधानिक लोकतंत्र के खिलाफ है.

यह वीडियो 4 मई का बताया जा रहा है जब हिंसा शुरुआती चरण में थी. महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाने का आरोप मैतई समुदाय के लोगों पर लगा. इस मामले में पुलिस ने अज्ञात हथियारबंद बदमाशों के खिलाफ थौबल जिले के नोंगपोक सेकमाई पुलिस स्टेशन में अपहरण, सामूहिक दुष्कर्म और हत्या का मामला दर्ज किया. हर घटना की ही तरह इस घटना में भी लीपापोती शुरू हो गई.

यह कोई नई घटना नहीं है. मणिपुर में दंगों की ही तरह गुजरात के दंगे भी लंबे समय तक चले थे. इन में भी महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार किया गया. इस में सब से प्रमुख नाम बिलकिस बानो का आता है. 21 साल के बाद भी बिलकिस बानो को न्याय नहीं मिल सका. उस के दोषियों को ही रिहा कर दिया गया. 2002 में हुए गोधरा कांड के दौरान बिलकिस बानो से रेप किया गया था और उस के परिवार के लोगों की हत्या कर दी गई थी.

प्रधानमंत्री से सवाल

15 अगस्त, 2022 को गुजरात हाई कोर्ट ने दोषियों को समय से पहले ही रिहा कर दिया था, जिस के बाद बानो ने 30 नवंबर, 2022 को इस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते हुए याचिका दायर की.

2002 में गुजरात में हुए गोधरा कांड के बाद प्रदेश में दंगे भड़क गए थे. दंगाई बिलकिस बानो के घर में घुस गए थे, जिन से बचने के लिए बानो अपने परिवार के साथ एक खेत में छिप कर बैठ गई थी. इस दौरान दंगाइयों ने 21 साल की बिलकिस जो 5 महीने की गर्भवती थी, उस के साथ गैंगरेप किया. उन दंगाइयों ने उस की मां समेत 3 और महिलाओं के साथ भी दुष्कर्म किया और परिवार के 7 लोगों की हत्या कर दी.

इस दौरान बानो के परिवार के 6 सदस्य भी गायब हो गए जिन का कभी पता नहीं चल सका. इस के बाद गैंगरेप के आरोपियों को 2004 में गिरफ्तार किया गया. वहीं 2008 में स्पैशल कोर्ट ने 11 दोषियों को उम्रकैद की सजा दी थी. लेकिन गुजरात हाई कोर्ट ने उन्हें समय से पहले ही 15 अगस्त को रिहा कर दिया. बिलकिस बानो को आज भी न्याय की तलाश है. गुजरात दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे. मणिपुर दंगों के दौरान वे देश के प्रधानमंत्री हैं. 83वें दिन बीत जाने पर भी हिंसा जारी है. देश के लोग प्रधानमंत्री से सवाल कर रहे हैं और वे चुप हैं.

जाति और धर्म की राजनीति

760 साल यानी मध्यकालीन युग में भारत में महिलाओं की जो हालत थी उस में 76 सालों में कोई बदलाव नहीं हुआ है. जाति और धर्म को ले कर रूढि़वादी विचारधारा आज भी कायम है. मणिपुर में 2 महिलाओं के साथ जो हुआ उस का भी जातिगत आधार है. मैतई समाज के लोगों ने कुकी समाज से बदला लेने के लिए उन के समाज की महिलाओं का अपमान करने के लिए यौन हिंसा की. इस के पहले उत्तर प्रदेश में हाथरस कांड हुआ जहां दलित लड़की की लाश को पुलिस ने बिना घर वालों की मरजी के जलवा दिया.

इस से पता चलता है कि 76 साल बाद देश में महिलाओं के वही हालत है जो 760 साल पहले थी. महिलाओं को बराबरी का हक नहीं था. पढ़ाई नहीं कर सकती थीं. उन के पहनावे पर भी रोक थी. आज भी लड़कियों और महिलाओं के पहनावे को ले कर टिप्पणियां की जाती हैं. अगर कम कपड़े पहने लड़की के साथ छेड़छाड़ हो जाती है तो दोष लड़के का नहीं लड़की के कपड़ों का दिया जाता है. मौडर्न कपडे़ पहनने वाली लड़कियों को अच्छा नहीं माना जाता. असल में यह पुरानी पुरुषवादी मानसिकता की निशानी है.

नहीं था स्तन ढकने का अधिकार

केरल में महिलाओं को स्तन ढक कर रखने का अधिकार नहीं था. इस के लिए उन को टैक्स चुकाना पड़ता था. एड़वा जाति की महिला नंगेली ने टैक्स दिए बगैर अपने स्तन ढकने का फैसला कर लिया. कर मांगने आए अधिकारी ने जब नंगेली की बात को नहीं माना तो नंगेली ने अपने स्तन खुद काट कर उस के सामने रख दिए. इस साहस के बाद खून ज्यादा बहने से नंगेली की मौत हो गई.

150 से 200 साल पहले की ही बात है. केरल के बड़े हिस्से पर त्रावणकोर के राजा का शासन था. जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी थीं और निचली जातियों की महिलाओं को उन के स्तन न ढकने का आदेश था. इस को न मानने वालों को ‘ब्रैस्ट टैक्स’ यानी ‘स्तन कर’ देना पड़ता था. असल में उस दौर में पहनावे से ही व्यक्ति की जाति की पहचान की जाती थी.

‘ब्रैस्ट टैक्स’ का मकसद जातिवाद के ढांचे को बनाए रखना था. गरीब समुदायों के लिए टैक्स देना मुमकिन नहीं था. लिहाजा, वे स्तन नहीं ढकती थीं. केरल के हिंदुओं में नायर जाति को शूद्र माना जाता था. इन से निचले स्तर पर एड़वा और फिर दलित समुदायों को रखा जाता था. स्तन कर का नाम मलयालम में ‘मुलक्करम’ था.

राजा की ओर से नियुक्त टैक्स कलैक्टर

बाकायदा दलितों के घर आ कर इस कर की वसूली करता था. उस समय केरल में महिला हो या पुरुष, उच्च वर्ण हो या निम्न, सभी मुंडू (धोती) पहनते थे. इस वस्त्र से कमर से नीचे का हिस्सा ढका जाता था, जबकि महिला हो या पुरुष कमर से ऊपर बिना कपड़े के रहते थे.

क्या कहते हैं आंकड़े

महिलाओं की हालत बयां करती बहुत सारी कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. इसी युग में गरीब और कमजोर वर्ग की महिलाओं को दासी बनाने की प्रथा भी थी जो बड़े घरों की लड़कियों के साथ ससुराल तक जाती थीं. राजा की हैसियत इस बात से आंकी जाती थी कि उस ने अपनी बेटी की सेवा के लिए कितनी दासियां भेजी हैं. आजादी के बाद भले ही दासी बनाने की प्रथा बंद हुई हो पर बाकी महिलाओं की हालत में सुधार नहीं हुआ है. आज भी कमजोर वर्ग की महिलाएं पैसे के लिए घर की गंदगी साफ करने से ले कर दूसरे काम तक करती हैं. गंदगी साफ करने का काम जाति विशेष की महिलाएं ही करती हैं.

इस के बाद भी गरीब और कमजोर वर्ग की महिलाओं के साथ अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं. भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के अनुसार 2020 की तुलना में 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध की घटनाओं में 15.3 फीसदी की वृद्धि हुई है. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के अनुसार 2011 में 2,28,650 से अधिक घटनाएं दर्ज की गईं, जबकि 2021 में 4,28,278 घटनाएं दर्ज की गईं. भारत में 10 वर्ष से कम उम्र की लगभग 7.84 मिलियन बच्चियों की शादी हो जाती है.

जीवनसाथी के चुनाव का अधिकार

उत्तराखंड में पौड़ी गढ़वाल के नगर पालिका अध्यक्ष और भाजपा नेता यशपाल बेनाम की लड़की मोनिका ने उत्तर प्रदेश के मुसलमान परिवार के लड़के मोनिस से शादी का निमंत्रण कार्ड ही छपवाया था. कार्ड सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. इस के बाद उन दोनों के परिवार पर इतना दबाव पड़ा कि उन को शादी कैंसिल करनी पड़ी. इस तरह की घटनाएं तमाम हैं. ये बताती हैं कि लड़कियों के लिए अपने जीवनसाथी का चुनाव करना मुमकिन नहीं है.

शादी में दहेज का दानव आज भी कायम है. 76 सालों में इस में सुधार नहीं आया. साल दर साल इस तरह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. 2016 से 2021 के बीच 6 साल की अवधि में देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के करीब 22.8 लाख मामले दर्ज हुए. इन में से लगभग 7 लाख यानी करीब 30त्न आईपीसी की धारा 498ए के तहत दर्ज किए गए थे. धारा 498ए किसी महिला के खिलाफ पति या उस के रिश्तेदारों की कू्ररता से संबंधित है.

आंकडे़ बताते हैं कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों में भी कहीं ज्यादा दहेज उत्पीड़न के मामले हैं. एक अध्ययन में पाया गया कि 8,000 गर्भपातों में से 7,997 कन्या भू्रण के थे. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2014 से 2018 के बीच 5 वर्षों की अवधि में देश में एसिड हमलों के 1,483 मामले दर्ज किए गए.

जायदाद में नहीं है अधिकार

मध्यकाल में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब थी. उन को पत्नी और बहन के रूप में सम्मान दिया जाता था. महिलाओं को मानसिक रूप से हीन सम?ा जाता था. उन का काम आंख मूंद कर अपने पतियों की आज्ञा का पालन करना था. उन्हें वेदों की पहुंच से वंचित रखा गया था. इस के अलावा लड़कियों की विवाह योग्य आयु कम थी ताकि उन के लिए शिक्षा के अवसर खत्म हो जाएं. लड़की की शादी के बाद जब वह ससुराल जाती थी तो उस के साथ दासियां भी जाती थीं जो वहां उस की सेवा करती थीं.

जाति और महिलाओं की सामाजिक स्थिति का अटूट संबंध है. जाति को पुन: उत्पन्न करने के लिए सजातीय विवाह और अन्य सामाजिक तकनीकों का उपयोग महिलाओं के शरीर को यौन रूप से वश में करने के लिए किया जाता था. इस वजह से मध्ययुगीन काल से जाति व्यवस्था की  कठोरता देखने को मिलती है. यह अभी भी किसी न किसी रूप में कायम है. 11वीं शताब्दी तक विधवाओं को जलाना, सती प्रथा, पूरे भारत में आम थी आज भले ही सती प्रथा खत्म हो गई हो पर समाज में विधवाओं को अधिकार नहीं हैं. उन का एक तरह से सामाजिक बहिष्कार ही होता है.

पुनर्विवाह और समाज

लड़कियों को भले ही संविधान ने उन के पिता की जायदाद में हिस्सा दे दिया हो पर अभी भी समाज इस को अच्छा नहीं मानता है. भाई के रहते पिता की जायदाद में बेटी हिस्सा न ले इस का सामाजिक दबाव रहता है. पितृसत्ता उसी तरह से समाज में कायम है जैसे 760 साल पहले कायम थी. 800-1200 के दौरान महिलाओं की स्थिति खतरनाक थी. लड़कियों की शादी 6 से 8 साल की उम्र के बीच कर दी जाती थी. आज भी 18 साल होतेहोते अधिक संख्या में शादियां हो जाती हैं.

पुनर्विवाह को अच्छा नहीं माना जाता है. यदि मजबूरी में पुनर्विवाह करना भी पडे़ तो उस में पहले विवाह जैसा उत्साह नहीं रहता. वह केवल खानापूर्ति भर रहता है. महिलाओं पर आमतौर पर अविश्वास किया जाता है. उन का जीवन पिता, भाई, पति या पुत्र जैसे पुरुषों द्वारा नियंत्रित किया जाता है. पत्नी का नाम पति के नाम के साथ खेती की पैत्रक जमीन में एकसाथ नहीं आता. पत्नी के नाम खेती की जमीन तभी आएगी जब उस का पति जिंदा नहीं रहता है. भूमि संपत्ति अधिकारों के विस्तार के साथसाथ महिलाओं के संपत्ति अधिकार भले ही कागज पर बड़े हों पर सामाजिक रूप से इस को स्वीकार नहीं किया गया है.

धर्म नहीं चाहता औरतों की आजादी

केरल के सबरीमला मंदिर, महाराष्ट्र के शनि शिगणापुर मंदिर और मुंबई के हाजी अली में भी महिलाओं के प्रवेश को ले कर विवाद रहा है. सबरीमला में 10 से 50 साल तक की उम्र की महिलाओं के प्रवेश की मनाही है. इस की वजह यह है कि इस उम्र की महिलाएं माहवारी वाली होती हैं. मंदिरों में इस अवस्था में महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है. इस को महिलाओं के मन में इस तरह से भर दिया गया है कि घरों में भी वे इस अवस्था में पूजा नहीं करतीं. माहवारी के दिनों में महिलाओं को अछूत माना जाता है. आज भी वे इस अवस्था में खाना नहीं बनातीं. अचार नहीं छूतीं.

सबरीमला में यह परंपरा 500 साल पुरानी, शनि शिगणापुर मंदिर में इसे 400 साल पुरानी और हाजी अली के बारे में भी ऐसे ही कुछ दावे हैं यानी 76 साल आजाद रहने के बाद भी हालात नहीं बदले हैं. आदमियों ने परंपरा का नाम ले कर महिलाओं के साथ भेदभाव जारी रखा है. इस दौर में वे खुद बदल गए हैं यानी आदमियों के लिए परंपरा नहीं है. आदमियों के लिए समुद्र पार न करने की परंपरा थी, मगर आज वे विदेश जाते हैं. परंपरा तो मंदिरोंमसजिदों में लाउडस्पीकर लगाने की भी नहीं थी यह भी होता है. पैसा ले कर कथा सुनाने की परंपरा नहीं थी. इस के बाद भी यह होता है.

यह कैसी सोच

कई लोग यह तर्क देते हैं कि आजादी के बाद यानी 76 सालों में महिलाओं की हालत में बहुत बदलाव हुए हैं. महिलाएं नौकरी करने, सिनेमा देखने, वायुसेना में भरती होने, संसद और विधानसभाओं में जा रही हैं. देखने वाली बात यह है कि कितनी महिलाएं यहां जा पा रही हैं. पुरुषों से तुलना करें तो यह संख्या बेहद कम है. महिला की पवित्रता का पैमाना महिला नहीं पुरुष तय करते हैं. जो मासिकधर्म महिलाओं की प्रजनन क्षमता का सूचक है, जिस के कारण पुरुष भी इस धरती पर पैदा होते हैं धर्म के कारण उसी को अपवित्र माना जाता है. गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर की देवी की तब पूजा करना पुरुषों के लिए सब से पवित्र है, जब औरतें रजोधर्म से मानी जाती हैं.

स्वास्थ्य के हिसाब से महिलाओं की हालत सब से खराब है. भारत का मातृ मृत्यु अनुपात 2014-16 में 130 प्रति 1,00,000 जीवित से गिर कर 2017-19 में 103 हो गया है. भारत में 57त्न महिलाएं ऐनीमिया की शिकार हैं. 2019 और 2021 के बीच किए गए ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ में कहा गया है कि भारत में 23.3त्न महिलाओं की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो गई थी.

आज भारत में महिलाएं अपने मासिकधर्म के दौरान सुरक्षा के स्वच्छ तरीकों का कम उपयोग करती हैं. नैपकिन, सैनिटरी नैपकिन, टैंपोन का प्रयोग मासिकधर्म के दौरान प्रयोग 70 फीसदी महिलाएं नहीं करती हैं.

धर्म की ऐसी पाबंदियां सामंती परंपराओं के अवशेष, उन के अपने मूल्य हैं जो धर्म का मुखौटा ओढ़ कर समाज को अपने वश में किए हुए हैं. धर्म का किसी तर्क, किसी वैज्ञानिक सोच से कोई लेनादेना नहीं होता है. वह पूरी तरह से आस्था पर टिका रहता है. सामंतवाद महिला के हर तरह के इस्तेमाल में विश्वास रखता है. सामंतवाद राजनीति को भी अनुकूल लगता है. इसलिए राजनीति भी धर्म के बारे में पंडेपुजारियों की तरह ही सोचती है. इसी कारण देश के आजाद होने के बाद भी सामंतवाद किसी न किसी रूप में कायम है. वह महिलाओं को किसी भी तरह से आजादी नहीं देना चाहता है.

यह बात और है कि कुछ महिलाओं ने अपनी ताकत से अपने हक लेने का काम किया है, जिस के उदाहरण महिलाओं की तरक्की की मिसाल के रूप में दिए जाते हैं. जिन महिलाओं ने पितृसत्ता से अधिकार छीन कर लेने हैं उन को शिक्षित और जागरूक होना पड़ेगा. धर्म की जंजीरों को तोड़ कर सोचना पड़ेगा. जब तक वे धर्म और रूढि़वादिता की शिकार रहेंगी उन की तरक्की नहीं होगी.

सैक्स के लिए महिलाओं का प्रयोग

पुरुषों के द्वारा महिलाओं का प्रयोग सैक्स के लिए हमेशा से होता आ रहा है. मध्ययुग में दसियों और रखैलों के साथ ऐसा होता था. जो लोग दासी और रखैल नहीं रख सकते थे वे बाजार जाते थे और वहां औरतों का प्रयोग सैक्स के लिए करते थे. यहां भी एक भेदभाव था. आदमी के लिए बाजार और दासियां रखैल थीं लेकिन महिलाओ को ऐसा करने की आजादी नहीं थी.

महिलाओं को दास के रूप में खरीदा और बेचा जा सकता था और उन्हें सब से गंदे काम करने के लिए मजबूर किया जाता था. उन के साथ शारीरिक और यौन शोषण भी किया जाता था. शाही दरबारों में पेशेवर नर्तकियों के साथसाथ देवदासियां या मंदिरों की वेश्याओं के रूप में कार्यरत महिलाओं का एक बड़ा वर्ग था. सैक्स के लिए नीची जाति की महिलाओं से भले ही परहेज नहीं था पर समाज के सामने उन को बराबरी का हक देने के लिए कोई तैयार नहीं था.

आज भी महिलाओं को अपमानित करने के लिए उन के साथ यौन हिंसा होती है. कई बार महिलाओं को सजा देने के लिए उन के कपड़े उतार कर टहलाया जाता है. मणिपुर की घटना अकेली घटना नहीं है. बिहार, उत्तर प्रदेश में इस तरह के कई उदाहरण हैं जहां महिलाओं के बाल काट कर उन को नंगा कर के अपमानित किया गया. कई इस तरह की घटनाएं भी देखने को मिलती हैं जिन में लड़की अगर इनकार कर दे तो उस के साथ बलात्कार किया जाता है. कई बार उन के चेहरों पर तेजाब फेंक कर बदला लिया जाता है. सैक्स के लिए आज भी महिलाओं का प्रयोग होता है. सैक्स की जरूरतों को पूरा करने के लिए महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध बढ़ रहे हैं.

इन में ‘महिलाओं के शील भंग’ यानी आईपीसी की धारा 354 के तहत 2016 से 2021 के बीच 5.2 लाख मामले दर्ज किए गए. ये महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े कुल मामलों के 23 फीसदी हैं. अपराध, अपहरण और बंधक बनाने की करीब 4.14 लाख घटनाओं के साथ औसतन 18 फीसदी मामले दर्ज किए गए. इन 6 सालों में भारत में बलात्कार के लगभग 1.96 लाख मामले दर्ज किए गए, जो 2016-2021 में महिलाओं के खिलाफ कुल अपराधों में लगभग 8.6त्न थे.

आफत हैं लड़ाकू औरतें

लड़ाकू औरतें कैसी होती हैं? ‘क्या ये बाकी महिलाओं से अलग होती हैं? क्या इन्हें लड़ाई झगड़ा करने में मजा आता है? क्या ये अपने घर में भी ऐसे ही लड़ती झगड़ती रहती हैं? इन के घर में सुखशांति का वास होता है या नहीं? लड़ाकू औरतें स्वभाव से कैसी होती हैं? ये सब समझने के लिए सोशल मीडिया पर अपलोड किए वीडियोज पर नजर डालते हैं.

मार्च, 2023 में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था. यह वीडियो दिल्ली मैट्रो के लेडीज कोच का है. वीडियो में सभी लेडीज अपनीअपनी सीट पर बैठी हुई थीं. तभी ब्लैक जींस और रैड टौप पहनी औरत अपनी सीट से उठती है और सामने में दूसरी सीट पर बैठी औरत पर बुरी तरह चिल्लाने लगती है. उधर दूसरी औरत भी उस पर भड़क जाती है. इस के बाद रैड टौप पहनी औरत ने अपनी चप्पल उतारी और दूसरी औरत को चुनौती दी. वहीं दूसरी औरत ने भी अपनी पानी की बोतल उठा ली.

इस के बाद दोनों के बीच बातों की तकरार हुई. एक ने कहा कि वह पहले हाथ लगा कर दिखाए तो पता चल जाएगा. वहीं दूसरी औरत ने उसे चुनौती दी कि वह फिर बच नहीं पाएगी. हालांकि इस बीच आसपास मौजूद औरतों ने उन्हें चुप रहने और लड़ाई न करने की हिदायत दी.

इस के बाद क्या हुआ यह किसी को नहीं पता क्योंकि वीडियो अपलोड करने वाले ने इतना ही वीडियो बनाया था. उस ने यह औडियंस पर सोचने के लिए छोड़ दिया था कि आगे क्या हुआ होगा.

कहासुनी का वीडियो वायरल

ऐसा ही एक वीडियो मुंबई की जान कहीं जाने वाली लोकल ट्रेन से आया. कुछ समय पहले मुंबई की लोकल ट्रेन के लेडीज कोच की 3 औरतों के बीच कहासुनी का वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुआ था. वायरल वीडियो में पैसेंजर से भरे एक डब्बे में 3 औरतें आपस में लड़ती नजर आ रही थीं. वीडियो में वे एकदूसरे के बाल खींच रही थीं.

एक लड़की गुस्से में अधेड़ उम्र की औरत के साथ बदतमीजी कर रही थी. वह उसे घसीट कर मार रही थी. इसी बीच एक तीसरी औरत भी इस लड़ाई में शामिल हो गई और वह लड़की को पीटने लगी.

आए दिन सोशल मीडिया पर ऐसे बहुत से वीडियोज वायरल होते रहते हैं, जिन में औरतें लड़ झगड़ रही होती हैं. सोशल मीडिया पर अपलोड किए गए ऐसे तमाम वीडियोज में सिर्फ लड़ाई झगड़े को दिखाया जाता है. इन में लड़ाई के बाद क्या हुआ यह नहीं दिखाया जाता है. इस से इन वीडियोज को देखने वाले लोगों को यह जानकारी नहीं मिल पाती कि वीडियोज के अंत में क्या हुआ होगा.

वे इस उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि इस लड़ाई झगड़े का अंत क्या हुआ होगा? क्या पुलिस उन्हें पकड़ कर ले गई होगी? क्या किसी ने इस झगड़े में सलाहकार की भूमिका निभाई होगी? ऐसे कितने ही सवाल उन के मन में होंगे.

लड़ाकू औरतें हर युग में होती हैं. अगर इसे ऐतिहासिक संदर्भ में देखें तो कैकई, द्रौपदी और हिडिंबा का नाम सामने आता है. ये वे औरतें थीं जिन्होंने अपने लड़ाकू स्वभाव के कारण न सिर्फ हत्या करवाई बल्कि युद्ध भी करवा दिया. लड़ाकू औरत का एक उदाहरण रामायण में भी देखने को मिलता है. श्रीराम की सौतेली मां कैकई की बात करें तो उन की दोनों शर्तें, भरत को राजा बनाना और राम को 14 साल का वनवास काटना एक धूर्त चाल थी.

उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि वे अपने पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बना सकें और अपने सौतेले पुत्र राम को अयोध्या से दूर रख सकें. इस के बाद राम ने कैकई की शर्तों को मानते हुए वनवास स्वीकारा.

महाभारत का उदाहरण

यह घटना त्रेतायुग की है. उस समय कैकई ने अपनी जिद और लड़ाकू स्वभाव के कारण महाराज दशरथ से अपनी शर्त मनवा ली. इस घटना से यह साबित होता है कि लड़ाकू औरतें हर युग में रही हैं. सतयुग में भी ये औरतें अपना हित साधने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं. ऐसी औरतों ने हमेशा परिवार को तहसनहस किया.

लड़ाकू औरत का एक दूसरा उदाहरण महाभारत में देखने को मिलता है. पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने कई बार ऐसे कटु वचन कहे जो महाभारत के युद्ध का कारण बनें जैसे द्रौपदी ने इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के समय दुर्योधन को ‘अंधे का पुत्र भी अंधा’ कहा था. यह बात दुर्योधन के दिल में तीर की तरह धंस गई थी. इसी वजह से द्य्यूतकीड़ा में उस ने शकुनी के साथ मिल कर युधिष्ठर को द्रौपदी को दांव पर लगाने के लिए राजी कर लिया था. द्य्यूतकीड़ा में द्रौपदी को हारने के बाद भरी सभा में उस का चीरहरण हुआ.

अपने चीरहरण के बाद द्रौपदी ने पांडवों से कहा कि अगर तुम ने दुर्योधन और उस के भाइयों से मेरे अपमान का बदला नहीं लिया तो तुम पर धिक्कार है. द्रौपदी ने खुद भी यह प्रण लिया कि वह अपने बाल तब तक खुला रखेगी जब तक कि वह इन्हें दुर्योधन के खून से धो नहीं लेती.

द्रौपदी की इस बात को सुन कर भीम ने प्रण किया कि मैं दुर्योधन की जांघ को गदा से तोड़ दूंगा और दुशासन की छाती को चीर कर उस का रक्तपान करूंगा. चीरहरण के दौरान जब कर्ण ने द्रौपदी को बचाने की जगह कहा कि जो स्त्री 5 पतियों के साथ रह सकती है, उस का क्या सम्मान. यह बात सुन कर द्रौपदी को बहुत ठेस पहुंची. इस का बदला लेने के लिए द्रौपदी हर समय अर्जुन को कर्ण से युद्ध करने के लिए उकसाती रही.

झगड़ालू औरत कुछ भी करा सकती है

महाभारत के युद्ध में सभी कौरवों और कर्ण की मृत्यु के बाद ही द्रौपदी को चैन मिला. इन सभी बातों को जानने के बाद कहा जा सकता है कि लड़ाकू और ?ागड़ालू औरत कुछ भी करा सकती. फिर चाहे वह युद्ध ही क्यों न हो.

वहीं अगर भीम की राक्षसी पत्नी हिडिंबा की बात करें तो वह भीम से विवाह करना चाहती थी. लेकिन उस का राक्षस भाई हिडंब पांडवों को अपना भोजन बनाना चाहता था. कौरवों की जान बचाने और भीम से विवाह करने के लिए हिडिंबा ने भीम को अपने भाई की हत्या करने के लिए उकसाया, जिस के परिणामस्वरूप भीम ने हिडंबा को मौत के घाट उतार दिया.

हिडिंबा द्वारा अपने फायदे के लिए अपने भाई की हत्या करवाना यह साबित करता है कि एक स्त्री कुछ भी करा सकती. फिर चाहे वह राक्षस हो या एक सामान्य स्त्री.

महाभारत ने हिडिंबा को खलनायिका के रूप में प्रस्तुत नहीं किया क्योंकि उस का पुत्र घटोत्कच पांडवों के काम आया था. लड़ाकू औरतें जगह या समय नहीं देखतीं. वे देखती हैं  झगड़े का विषय. उन के लिए क्या सुबह क्या शाम, क्या दिन, क्या रात.

कार पार्किंग को ले कर लड़ाई

दिन और रात से परे झगड़े का एक ऐसा ही वाकेआ दिल्ली के ममता अपार्टमैंट में देखने को मिला. सुबहसुबह का समय था. बाहर से बहुत शोर आ रहा था. सोसाइटी में जा कर देखा तो जाग्रति राय और साक्षी सिंह लड़ रही थीं. पूछने पर पता चला कि दोनों कार पार्किंग की जगह को ले कर लड़ रही हैं.

साक्षी का कहना था कि इस जगह पर वह रोज अपनी कार पार्क करती है यह जानते हुए भी जाग्रति ने अपनी कार वहां पार्क कर दी,’’ जाग्रति अपनी बात रखते हुए कहती है कि रात को जब मैं अपनी कार पार्क करने आई तो यहां जगह खाली थी. इस के अलावा पूरी पार्किंग में कहीं जगह नहीं थी इसलिए मैं ने यहां कार पार्क कर दी.

सोसाइटी के प्रैसिडैंट ने समझबुझ कर दोनों को शांत कराया और उन्हें अपनीअपनी जगह पर ही कार पार्क करने की इंस्ट्रक्शन दी.

औरतों की इस तरह की हरकत उन के झगड़ालू नेचर को डिफाइन करने के लिए काफी है. लेकिन सोचने वाली बात यह है कि पढ़ीलिखी औरतें भी ऐसी हरकतें कर रही हैं. क्या वे अपने घर और वर्क प्लेस में भी ऐसा ही करती होंगी? यह भी सच है कि इस तरह की औरतों से लोग दूर ही रहना पसंद करते हैं क्योंकि सब को मैंटल पीस चाहिए.

चर्चा का विषय

लड़ाई झगड़े की कई घटनाएं स्कूलकालेजों में भी देखने को मिलती हैं. दिल्ली के संत नगर इलाके के एक स्कूल के बाहर 2 छात्राओं के बीच लड़ाई झगड़े का वीडियो कई दिनों तक सोशल साइट्स पर चर्चा का विषय बना रहा.

ऐसा ही एक वीडियो मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में स्थित गवर्नमैंट स्कूल से आया. इस वीडियो में स्कूल ग्राउंड में छात्राएं एकदूसरे को लातघूंसे मार रही थीं. लड़ाई इतनी ज्यादा बढ़ गई कि उन में से एक छात्रा को हौस्पिटल में एडमिट कराना पड़ा. इस के बाद भी दूसरी छात्रा को चैन नहीं मिला. वह अपने साथियों को ले कर हौस्पिटल पहुंच गई जहां लोगों ने समझ बुझ कर उसे घर भेज दिया.

स्कूल में पढ़ने वाली छात्राओं की ऐसी हरकतें चिंता का विषय हैं. ऐसे में पेरैंट्स को बच्चों के विहेवियर पर ध्यान देने की जरूरत है.

हालांकि लड़ना झगड़ना सही नहीं है, लेकिन क्या कभी किसी ने यह जानने की कोशिश की है कि आखिर ये लड़कियां या औरतें लड़ती क्यों हैं? हो सकता है कि ऐसी लड़कियों या औरतों के साथ पहले ऐसी कोई घटना घटी हो जो उन के नेचर को ऐसा बना देती हो.

पास्ट ऐक्सपीरियंस को झगड़ालू नेचर का कारण बताते हुए प्रीति यादव बताती है, ‘‘मैं जब 6 साल की थी तब से मैं अपने मम्मीपापा को झगड़ते हुए देखती आई हूं. मेरे पेरैंट्स के लड़ाईझगड़े से मुझ में भी ये गुण आ गए. अब मैं छोटीछोटी बात पर गुस्सा हो कर सब से लड़ने झगड़ने लगती. मेरे इसी नेचर की वजह से सब धीरेधीरे मुझ से दूर हो गए हैं.’’

ऐसा ही एक किस्सा कानपुर की रहने वाली 19 वर्षीय श्वेता यादव बताती है कि जब वह 4 साल की थी तब से ही उस ने अपनी मां को पापा से पिटते देखा है. मां को इस तरह पिटते देख कर वह सहम जाती थी. लेकिन जब एक दिन मां ने अपने ऊपर हो रही हिंसा के खिलाफ आवाज उठाई तो उन में भी बोलने की हिम्मत आ गई. आज वह भी कोई गलत बात नहीं सुन सकती.

अगर कोई उस से तेज आवाज में भी बात करता है तो वह उस से बहस करने लगती है. वह कहती है कि हर लड़की के गुस्से और उस के झगड़ालू स्वभाव के पीछे कोई न कोई वजह जरूर होती है. अगर उस वजह को दूर कर दिया जाए तो वह लड़की या औरत अपने नेचर को बदलने का भरसक प्रयास करती है.

आखिर वजह क्या है

औरतों के झगड़ालू स्वभाव के पीछे आखिर वजह क्या है? यह जानने के लिए उन के नेचर को समझना होगा. इसी संदर्भ में कई सर्वे किए गए है:

‘गैलप’ नाम की संस्था हर साल दुनियाभर में एक सर्वे करती है. 2012 से 2021 के बीच एक सर्वे किया गया. इस सर्वे में 150 देशों के 12 लाख लोगों को शामिल किया गया. सर्वे में यह सामने आया कि पिछले 10 सालों में औरतों में गुस्सा ज्यादा बढ़ा है. भारत और पाकिस्तान की औरतों में यह 12% यानी दोगुने स्तर पर पहुंच चुका है. हमारे देश में पुरुषों में गुस्सा जहां 27.8% है वहीं औरतों में यह 40% तक पहुंच चुका है.

झगड़ालू नेचर की सब से बड़ी वजह गुस्सा है. इस सर्वे में यह पता चला कि गुस्सा, उदासी, अवसाद और घबराहट जैसी नैगेटिव फीलिंग्स पुरुषों से ज्यादा औरतों में होती है. इस की वजह से औरतों में फ्रस्ट्रेशन, हाइपरटैंशन और गुस्से की समस्या तेजी से बढ़ी है.

अब दुनिया की ज्यादातर महिलाएं पहले के मुकाबले ज्यादा एजुकेटेड और सैल्फ डिपैंडैंट हुई हैं. महिलाओं में जौब कल्चर बढ़ने से उन में कौंन्फिडैंस पैदा हुआ. अब औरतें गलत चीजों के खिलाफ आवाज उठाने लगी हैं. असल में लड़ाई करने वाली औरतों को पहले बोलने की इजाजत नहीं थी. अब जब वे बोलने लगी हैं तो उन के अंदर भरा गुस्सा उन के ?ागड़े के रूप में बाहर निकल रहा है.

गुस्सा एक फीलिंग है

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के रहने वाले भानु यादव कहते हैं, ‘‘गुस्सा एक फीलिंग है. यह फीलिंग आदमीऔरत दोनों में ही होती है. हां, यह जरूर है कि अब औरतें भी अपनी फीलिंग्स ऐक्सप्रैस करने लगी हैं. इसलिए अब झगड़ालू औरतों की संख्या बढ़ रही है.

यह भी सही है कि लड़ाई झगड़ा अपने मन के भावों को ऐक्सप्रैस देने का एक जरीया है, लेकिन क्या लड़ाकू औरतों से रिश्ता निभाना आसान है? इस का उत्तर है नहीं क्योंकि ऐसी औरतें सिर्फ अपनी सुनती हैं. वे सामने वाले को रत्तीभर भी भाव नहीं देती हैं. ऐसी औरतें लड़ाई?ागड़े के लिए हर वक्त उतावली रहती हैं और दूसरों की शांति भंग करती हैं.

यह भी एक कड़वा सच है कि लड़ाकू लड़कियों का घर जल्दी नहीं बसता है और अगर बस भी जाता है तो यह ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाता क्योंकि अपने बिहेवियर के कारण ये वहां भी लड़ाई?ागड़ा चालू कर देंगी.

प्रभावित होती शादीशुदा जिंदगी

शादीशुदा लड़ाकू औरतें अपने नेचर के कारण छोटीछोटी बातों पर भी लड़ने झगड़ने लगती हैं, जिस से उन के हसबैंड उन से इरिटेट होने लगते हैं और फिर वह उन से दूर रहने लगते हैं.

जयपुर की रहने वाली 24 वर्षीय मुक्ता सिंह और 27 वर्षीय जतिन साहू डेढ़ साल से लिव इन रिलेशनशिप में हैं. मुक्ता लड़ाकू स्वभाव की लड़की है. जबकि जतिन इस के उलट शांत स्वभाव का लड़का है. मुक्ता के लड़ाकू नेचर की वजह से उन के बीच आए दिन लड़ाई झगड़ा होता रहता है. मुक्ता को कई बार समझने के बाद भी वह अपनी आदत नहीं बदल रही है. जतिन कहता है कि इस रिलेशनशिप ने उसे मैंटल स्ट्रैस दे दिया है. अगर मुक्ता ने अपने इस नेचर को नहीं बदला तो वह इस रिलेशनशिप को जल्द ही खत्म कर देगा.

अंजलि छाबड़ा दिल्ली के रोहिणी वैस्ट इलाके में रहती है. वह बताती है कि उस का फ्रैंड राहुल मौर्य बचपन से ही लड़ाकू स्वभाव का है. बचपन में भी उस के इक्कादुक्का दोस्त ही थे. आज भी उस के 1-2 दोस्त ही हैं. उन के लड़ाकू स्वभाव के कारण ही उस की वाइफ संजना मौर्य उसे छोड़ कर चली गई.

दूरी बना कर चलें

लड़ाकू नेचर के लड़के या लड़की से शादी नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसे लोग आप का मैंटल पीस खत्म कर देंगे. अगर आप ने ऐसे लोगों से शादी कर भी ली तो आएदिन होने वाले लड़ाई झगड़ों से आप की शादी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाएगी. इस से बेहतर है कि आप लड़ाकू लड़केलड़कियों से दूरी बना लें.

झगड़ालू प्रकृति की औरतें किसी के साथ मिल कर नहीं रह सकतीं. ऐसी औरतें हर तरफ से उपेक्षा पाती हैं. उन की इस उपेक्षा का कारण उन का लड़ाकू नेचर है. ऐसी औरतें हमेशा रिश्तेदारों और पड़ोसियों से लड़ती?ागड़ती रहती हैं. ऐसी औरतों के साथ रहने से रिश्तेदारों और पड़ोसियों से रिलेशन खराब हो जाते हैं. इतना ही नहीं लड़ाकू औरतें गुस्सैल नेचर की भी होती हैं.

चूंकि लड़ाकू लड़कियों और औरतों के साथ कोई रहना पसंद नहीं करता है इसलिए उन्हें यह सम?ाना चाहिए कि लड़ाई करना कब उन की आदत बन जाएगी, उन्हें पता भी नहीं चलेगा. अपने इस लड़ाकू स्वभाव की वजह से वे धीरेधीरे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को खो देंगी. उन्हें यह समझना चाहिए कि लड़ाई झगड़े में कुछ नहीं रखा है. इस से सिर्फ उन का समय और ऐनर्जी वेस्ट होगी. इसलिए ऐसे नेचर को बदलना ही सही होगा.

ओवर एंबीशियस होना गलत है क्या?

फिल्मों में भव्य सैटों के पीछे बड़ी मेहनत होती है और हर फिल्म में आर्ट डायरेक्टर का बड़ा काम होता है. नीतिन देसाई ने  ‘1942 ए लव स्टोरी’, ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘लगान’, ‘देवदास’, ‘जोधा अकबर’ जैसी फिल्मों के सैट बना कर और फिल्म इंडस्ट्री में उस का बड़ा नाम था. पर सफलता जब सिर पर चढऩे लगती है तो अक्सर अच्छे भले नाक से आगे देखना बंद कर देते है.

नीतिन देसाई ने 2005 में क्र्जन में मुंबई के पास 52 एकड़ जगह में एक भव्य स्टूडियों बनाया और सोचा कि वह जल्दी ही मालामाल हो जाएगा. बहुत सी फिल्मों और टीवी धारावाहियों की शूङ्क्षटग वहां हुई थी पर हर सफलता के लिए एक व्यावहारिक व व्यावसायिक बुद्धि चाहिए होती है. जिन के सपने ऊंचे होते हैं और कुछ सफलताओं के सॢटफिकेट हाथ में होते हैं वे अक्सर अपनी सीमाएं भूल जाते हैं. नीतिन देसाई भी उन्हीं में से एक था.

58 साल के नीतिन देसाई पर 252 करोड़ का कर्ज चढ़ गया और उसे यह साफ हो गया कि सब कुछ बेचने के बाद भी यह कर्ज चुकाया नहीं जा सकता. इसलिए इस मेधावी, इन्लेवेटिव आर्ट डायरेक्टर ने तकाजदारों की जिद के कारण अपने को फांसी लगा कर जीवन लीला समाप्त कर दी.

सफलता पर गर्व करना जरूरी है पर उस में अंधा हो जाना भी गलत है. नीतिन देसाई जैसे लोग कागजों पर वैसे ही सपनों के पहल बना लेते है जैसे वे कच्ची लकड़ी, प्लाई बोर्ड और प्लास्टर और पेरिस के महल बनाते हैं. कर्ज लेते समय उन्हें सफलता का पूरा अंदाजा होता है. व्यावहारिक बुद्धि काल्पनिक सैंटों में खो जाती है.

यह हर देश प्रदेश में होता है. सैंकडों लोग केवल ओवर एंबीशियस में फिसल जाते हैं. देश के औद्योगिक क्षेत्र आज मरघटों की तरह लगते हैं तो इसलिए कि नीतिन देसाई जैसों की कमी नहीं हैं. बैंक कर्जा दे तो देते हैं पर तब तक बसूली के पीछे पड़े रहते है. जब तक कर्ज लेेने वाला कंगाल और कंकाल न बन जाए.

घरेलू काम करने वालों पर हिंसा क्यों?

दिल्ली के पास नोएडा में एक 10 साल की घरेलू काम करने वाली लडक़ी के साथ मारपीट करने के बाद न सिर्फ उस की एयर लाइन पायलट मालकिन को कुछ रात जेल में बितानी पड़ीं. दिल्ली में डोमेस्टिक हैंल्पस को रखाने वाली कंपनियों का रजिस्ट्रेशन और पुलिस वैरीफिकेशन भी कंप्लसरी कर दिया गया है. दिल्ली प्राइवेट प्लेसमैंट एजेंसी (एग्ले) आर्डर 2014 को अब सख्ती से लागू किया जाएगा और उस के बिना नौकरियां दिलवाने वाली एजेंसियों के मालिकों के 50000 रुपए तक का जुर्माना भरना होगा.

दिल्ली जैसे बड़े शहरों में डोमेस्टिक सर्वेंट अब शहरी जीवन को चलाने के लिए एक एसोंशियल सेवा हो गई है और इन की लगातार सप्लाई बहुत जरूरी है. देश के गरीब इलाकों से लडक़ोंलड़कियों को निरंतर कभी लालच देकर, कभी झांसा देकर तो कभी किडनैप कर के लाया जाता है और फिर उन्हें घरों में लगाया जाता है. ये एजेंसी मालिक मोटी कमीशन पाते हैं और नई टैक्नोलौजी ने उन के काम को आसान कर दिया है. ये लोग अब अपने खास सेवकों को पूरी तरह मोबाइल से कंट्रोल भी कर सकते हैं.

सब से बड़ी बात पुलिस वैरीफिकेशन की है. पुलिस वैरीफिकेशन सारे देश के लिए एक आतंक बनती जा रही है. कहने को तो यह नागरिकों की सुरक्षा के लिए होती है पर यह पक्का है कि इस से केवल शरीफ लोगों का रिकार्ड तैयार किया जा सकता है. जो शातिर और अपराधी हैं उन के पास हर तरह के नकली डौक्यूमैंट होंगे और पुलिस लाख चाहे, उन्हें वैरीफाई नहीं कर सकती. दिल्ली, मुंबई या बंगलौर के पुलिस वाले सर्वेंट के दिए गए पते पर सूचना ही भेज सकती है कि यह व्यक्ति वहां का है या नहीं, वह अपराधी किस्म का है या नहीं पता लगा सकती.

जो अपराधी पक्का होगा वह ऐसा काम ही नहीं करेगा जिस में वैरीफिकेशन की जरूरत हो. हजारों ऐसी नौकरियां है जिन में पुलिस वैरीफिकेशन कराने की जरूरत नहीं है जिन में जेबकतरी और प्रौस्टीट्यूशन से ले कर छोटे ढाबों या कारखानें में काम करना शामिल है.

पुलिस वैरीफिकेशन सर्वोंट्स के लिए भी आफत होती है और उन को रखने वाले मालिक के लिए भी. पुलिस वाला अपनी वर्दी में जब चाहे धमक सकता है और भारत में दरवाजे पर पुलिस वाला एक खतरा होता है, सुरक्षा का अहसास नहीं दिलाता. पुलिस का वैरीफिकेशन के नाम पर कुछ पाने के हजार तरीके मिल जाते है. दिल्ली के घरेलू कामगार पंचायत संगर्म के अधिककारी का मानना है कि यह वैरीफिकेशन चाहे अच्छी हो, उस में करप्शन के चांसेस भी बहुत है.

सारे मामले में बड़ी बात यह है कि उस बेचारी घरवाली के प्रति किसी की हमदर्दी नहीं होती जो जैसेतैसे घरेलू सर्वेंट की सहायता या तो दोहरा काम कर पाती है या बड़ा घर संभाल पाती है. घर बैठे बहुत सी सुविधाओं के बावजूद देश की आॢथक स्थिति ऐसी नहीं कि मालकिनें मोटे वेतनों व सुविधाओं के साथ डोमेस्टिक सर्वेंट रख सकें. वे केवल लिङ्क्षवग वेेज, घर का कोई कोना रात बीताने के लिए और घर का खाना दे सकती हैं, वैरीफिकेशन इन की सप्लाई कम कर देती है और नतीजा होता है कि इन के दाम बड़ जाते हैं जो आम मालकिन के बस के नहीं रहते और पति, सासससुर व बच्चों से ज्यादा तनाव इन की मनमानी का होने लगता है.

व्यर्थ डोमेस्टिक सर्वेंट एम्पलायस फेडरेशन जैसी कोई जगह होती जहां मालकिनें अपना रोना रोयातीं.

विरासत कानून के अजीब प्रावधान

हिंदू विरासत कानून है एक अजीब प्रावधान है. 1956 में बने विरासत कानून में यह भी डाला गया है कि किसी व्यक्ति के मरने के बाद संपत्ति पत्नी और बच्चों में बराबर बंटने के साथ बराबर का हिस्सा मां को भी मिलेगा. यह एकदम अव्याहारिक व अनैतिक कानूनी प्रावधान है जिस का कोई सिरपैर नहीं है.

जब कानून बना था तो कहा गया था कि यह मां की सुरक्षा के लिए था पर यह तो कई बेटेबेटियों और पति के जिंदा रहने वाली मां को मिलने वाला हक है. बेटे के मरने के बाद अक्सर मांबाप विधवा और उस के बच्चों को पूरा हिस्सा न मिले इसलिए उस हक का उपयोग करते हैं.

स्वयं इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए इस कानून का उपयोग किया था और मेनका, व वरुण को संजय गांधी की मृत्यु के बाद बराबर का हिस्सा इंदिरा गांधी, प्रधानमंत्री को देना पड़ा था. मेनका गांधी अपने हिस्से में बंटबारा न हो इस के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गई थी पर इंदिरा गांधी नहीं मानी थी जबकि उस समय वह प्रधानमंत्री की और उस के साथ राजीव गांधी, सोनिया, प्रियंका और राहुल थे. मेनका और वरुण का एक हिस्सा कम किया था.

हां, यह जरूर सुनने में आया कि संजय गांधी की संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा जो इंदिरा को मिला था इंदिरा गांधी ने वरुण गांधी को गिफ्ट कर दिया था और इस तरह छोटा सा वरुण संजय गांधी की संपत्ति का 2 तिहाई मालिक हो गया था और मेनका एक तिहाई की मालिक रह गई थी.

यह कानून जवान बेटों की मृत्यु पर जम कर इस्तेमाल किया जाता है. वृद्ध पिता मरते हैं तो उस समय उस की मां जिंदा नहीं होती इसलिए वो बड़ा नहीं बनता या जब विधवा हाथपैर मार कर जिंदा रहने का प्रयास कर रही हो तब प्रोटिडेंट फंड, फिक्सडिपोजिट, जौयंट प्रौपर्टी में मृत पति को मिला हिस्सा, मकान आदि पर सास अपने पति के पिता और भाईबहन के कहने पर हक जमाने लगे, यह बहुत गलत है.

जो लोग कहते हैं कि हिंदू कानून गंगा जल सा साफ और गौमूत्र सा पवित्र है, उन्हें ख्याल रखना चाहिए कि हिंदू संपत्ति, विवाद, गोद, विरासत कानून अनैतिकता से भरे हैं. 1956 व 2005 में कुछ सुधार हुए हैं पर समाज आज भी युवा औरतों के प्रति ही नहीं बूढ़ी औरतों के प्रति भी आज भी पौराणिकवाद में जी रहा है जब औरत होने का मतलब आहितर्य, सीता या द्रौपदी होना ही था.

बच्चे अब टैस्टट्यूब से होगे

1978 से पहले जितने बच्चे पैदा होते थे वे अपनी मां की कोख में ही स्पर्म और एग के मिलन से होते थे. आज हर मिनट में कम से कम एक बच्चे का पहला जन्म टैस्टट्यूब में होता है जब पुरुष का स्पर्म और औरत का एग फर्टीलाइज किया जाता है, दुनिया की आजादी में सवा करोड़ लोगों ने मां के पेट में पहला जन्म नहीं लिया था. उन्हें मां के गर्भ में प्रत्यारोपित किया गया था.

जैसेजैसे लड़कियां काम पर जाने लगी हैं, बच्चे पैदा करना और उन्हें पालना एक आफत लगने लगी है और वे इसे 40-42 तक टालती हैं. इस समय यदि स्पर्म काउंट या एग प्रोडेक्शन कम हो जाए या यूट्स और फैलोपीयन ट्यूबें जबाव देने लगे तो वे आईवीएफ सेंटरों में चक्कर लगाना शुरू करती हैं.

अपने कैरियर की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद उन्हें एहसास होता है कि उन से ज्यादा तेज, ज्यादा टैकसैवी कंपीटीटर वर्षा फोर्स में आने लगी है और उन्हें काम के बजाए शारीरिक सुख को प्रायरोसी देनी चाहिए. बच्चे, अपने बच्चे, इस सुख का हिस्सा है.

इन विद्रो फॢटलाइजेशन ड्रग्स और तकनीक की बड़ी मांग होने लगी है और अब बच्चे पंडों, पादरियों की मेहरबानी से नहीं डाक्टरों और टैक्रीशियनों की मेहरबानी से हो रही है. आज 125 पैदा हुए बच्चों में से एक आईटीएफ से हो रहा है, कल ज्यादा होंगे यह पक्का है.

अभी आईवीएफ तकनीक मानसिक व शारीरिक तौर पर पेनफुल है और मंहगी भी है पर जैसेजैसे मांग बढ़ेगी, यह सस्ती होगी और हर 5 में से एक अगर आईवीएफ से होने लगे तो बड़ी बात नहीं.

जैसे आज जिंदगी शुरू से प्लान की जाती है. स्कूल जाने से लेकर इंजीनियर, डाक्टर बनना सब पलांड है, नेचुरल नहीं, वैसे ही बच्चे भी प्लान किए जाएं अपनी सुविधा के हिसाब से तो कोई हर्ज नहीं. गनीमत यह है कि चर्च, मसजिद या मंदिर ने इस का जम कर विरोध नहीं किया है. शायद इसलिए उन्हें तो हर नए बच्चे एक नया दान करने वाला भक्त दिखता है. बच्चा टैस्टट्यूब में हुआ हो या औरत के शरीर में बच्चे को होने के बाद कोई धर्म उसे छोड़ता नहीं है जबकि यह उन के ईश्वरीय ग्रंथों के नितांत खिलाफ है, मर्द, बात पैसे की है, नहीं.

लड़की है कठपुतली नहीं

क्रौप टौप काफी ट्रेंड में है. यह पहनने पर कूल फीलिंग देते हैं. इतना ही नहीं ये सैक्सी भी लगते हैं. लेकिन कई घरों में लड़कियों के क्रौप टौप पहनने पर पाबंदी होती है. जो लोग क्रौप टौप पहनने के विरोध में हैं, उन का कहना है क्रौप टौप अश्लीलता को बढ़ावा देता है. इस में कमर दिखती है. क्रौप टौप बनाने वाली कंपनियां अपनी बिक्री के लिए लड़कियों को बिगाड़ रही हैं.

क्रौप टौप अश्लीलता को बढ़ावा नहीं देते. इस विषय पर जाग्रति राय अपना एक ऐक्सपीरियंस शेयर करते हुए कहती हैं, ‘‘मैं 20 साल की हूं. एक दिन मैं क्रौप टौप और जींस पहन सोफे पर बैठ कर टीवी देख रही थी. तभी मेरे पापा आए और गुस्से में मुझ से बोले कि जाग्रति यह तुम ने किस तरह के कपड़े पहने हुए हैं? जाओ जा कर कपड़े बदलो. क्या तुम्हें कपड़े पहनने की जरा भी अकल नहीं है? अब तुम बड़ी हो गई हो. लगता है बाहर जा कर तुम ज्यादा ही बिगड़ गई हो. मुझे तुम्हारा बाहर जाना बंद करना पड़ेगा. तभी तुम्हें अकल आएगी. पापा को इतने गुस्से में देख कर मैं डर गई. मैं ने कपड़े तो बदल लिए लेकिन मैं अपने कमरे से बाहर नहीं आई.’’

जाग्रति के पापा सुरेंद्र राय का उस पर गुस्सा करने का कारण था जाग्रति का क्रौप टौप पहनना. वे लड़कियों के छोटे कपड़े पहनने के सख्त खिलाफ हैं.

कपड़े पहने पर बेशर्मी क्यों

क्या मौडर्न कपड़े पहनना बेशर्मी की निशानी है? इस पर जाग्रति कहती हैं, ‘‘क्रौप टौप पहनना बेशर्मी नहीं है. यह बिलकुल ब्लाउज की तरह होता है. बस फर्क यह है कि ब्लाउज साड़ी के साथ पहना जाता है और क्रौप टौप जींस, स्कर्ट, शौर्ट्स, प्लाजो के साथ पहना जाता है.’’

लड़कियों की घरों में बेइज्जती किस तरह से होती है, इस का एक उदाहरण दीपिका रावत देती हैं. गाजियाबाद की रहने वाली दीपिका बताती हैं, ‘‘जब भी वह कभी सुबह लेट सो कर उठती थी तो मम्मी कहती थीं कि ससुराल में भी ऐसे ही देर से उठोगी तो 2 दिन में सास मायके छोड़ जाएगी. मैं अकेली ऐसी लड़की नहीं हूं जिस ने यह सब सुना है. हमारे देश की लगभग हर लड़की ने अपने घर में यह सब कभी न कभी सुना ही होगा. देर से उठने का नियम क्या सिर्फ लड़कियों पर लागू होता है? लड़कों को इस से बाहर क्यों रखा गया है? क्या उन का देर से उठना इस सोसाइटी को मंजूर है? इस तरह के दकियानूसी चोंचले सिर्फ लड़कियों के लिए बनाए गए हैं क्योंकि वे कभी नहीं चाहते कि लड़कियां उन के हाथों से फिसलें. वे लड़कियों को अपनी मुट्ठी में कैद रखना चाहते हैं.’’

वैसे तो इस सोसाइटी ने लड़कियों के लिए न जाने कितने नियम बनाए हुए हैं. इन्हीं में से एक नियम है लड़कियों का पैर फैला कर बैठना. यह सोसाइटी लड़कियों के पैर फैला कर बैठने की आदत को गलत नजर से देखती है. अगर कोई लड़की पैर फैला कर बैठती है तो इसे सैक्स सिंबल भी समझ लिया जाता है. जो लोग लड़कियों के पैर फैला कर बैठने को गलत कहते हैं उन का मानना है कि ऐेसी लड़कियां अच्छे घर की नहीं होतीं. इन में संस्कारों की कमी होती है. लड़कियां ऐसी हरकत कर के लड़कों को अट्रैक्ट करना चाहती हैं.

संस्कार या बंदिशें

लड़कियों के पैर फैला कर बैठने के तरीके को ले कर 25 साल की सुरभि यादव अपने बचपन का एक ऐक्सपीरियंस बताते हुए कहती हैं, ‘‘मैं जब 16 साल की थी तब अपने मम्मीपापा के साथ एक पार्टी में गई थी. वहां मैं कंफर्टेबली पैर फैला कर अपने दोस्तों के साथ खाना ऐंजौय कर रही थी. तभी पापा ने मुझे आंखें दिखाते हुए अपने पास आने का इशारा किया.

‘‘जब मैं उन के पास गई तो वे मेरा हाथ पकड़ कर साइड में ले गए. उन्होंने गुस्से भरी नजरों से मुझे देखा और कहा कि तुम्हें ढंग से बैठना नहीं आता क्या जो पैर फैला कर बेशर्मों की तरह बैठी हो? देख नहीं रही हो कि लोग तुम्हें किस तरह से घूर रहे हैं? जाओ जा कर ठीक से बैठो. पापा की इन बातों को सुन कर मैं हैरान हो गई. लेकिन मेरे पास कोई जवाब नहीं था इसलिए मैं चुपचाप जा कर पैरों को क्रौस कर के बैठ गई.

‘‘इस सोसाइटी ने लड़कियों के शोषण के लिए तरहतरह के नियम बनाए हुए हैं. यह सोसाइटी बस उन्हें किसी भी तरह कंट्रोल करना चाहती है. इस के लिए वह समयसमय पर उन्हें टोकती है, रोकती है और न जाने किसकिस तरह की पाबंदियां उन पर लगाई जाती हैं. फैमिली द्वारा बारबार उन्हें नीचा दिखाना? उन्हें गलत समझना, उन की बेइज्जती करना लड़कियों के मन में परिवार वालों के लिए गुस्सा और नफरत पैदा कर देता है. ऐसी लड़कियां चिड़चिड़ी हो जाती हैं. उन्हें बातबात पर गुस्सा आने लगता है. ऐसी लड़कियां अपने मम्मीपापा के बूढ़े होने पर उन से दूरी बना लेती हैं. वे उन से मिलती भी नहीं हैं क्योंकि उन के अंदर बेइज्जती की कड़वी यादें बसी होती हैं. मैं समझती हूं कि अगर आप को इज्जत चाहिए तो आप को इज्जत देनी भी पड़ेगी.’’

इशारों की गुलाम नहीं

लड़कियों की बेइज्जती में सोसाइटी का बहुत बड़ी भूमिका है. इस सोसाइटी ने लड़कियों को कठपुतली समझ रखा है, जिस की बागडोर उन्होंने पुरुषों के हाथों में दी हुई है. वे जैसे मरजी चाहें वैसे इसे घुमा सकते हैं. तभी तो उन के हंसने को ले कर भी उन्हें कड़े नियमकायदे बताए गए हैं. ज्यादा जोर से नहीं हंसना, ज्यादा खिलखिला कर नहीं हंसना, इस तरह से हंसना है, इस तरह से नहीं वगैरहवगैरह.

हर लड़की को उस की लाइफ में उस के परिवार वालों ने कभी न कभी जरूर टोका होगा. कभी तो उसे धीरे हंसने के लिए कहा ही होगा. उन्हें ऐसा करने के लिए इस सोसाइटी ने पढ़ायालिखाया है ताकि उन्हें अपने काबू में रख सकें.

35 साल की रिचा कुमारी एक मैरिड वूमन हैं. वे पेशे से ग्राफिक डिजाइनर हैं. वे बताती हैं कि कुछ महीने पहले उन के फ्रैंड्स गैटटूगैदर करने उन के ससुराल में आए थे. जब उन की फ्रैंड यामिनी ने जोक सुनाया तो वे जोरजोर से हंसने लगीं. उन के हंसने की आवाज हौल में बैठे उन के सासससुर तक भी गई. जब दूसरी बार ऐसा फिर से हुआ तो उन की सास ने उसे सब के सामने टोकते हुए कहा कि तुम्हें इस तरह से नहीं हंसना चाहिए. महिलाओं का इस तरह से हंसना सभ्य नहीं माना जाता है. तुम थोड़ा आराम से हंसो. 5 साल बाद भी वे यह वाकेआ नहीं भूली हैं.

यह कैसी सोच

लड़कियों की बेइज्जती न सिर्फ घर में होती है बल्कि यह बीच सड़क पर भी होती है. उन की यह बेइज्जती कोई बाहर वाला नहीं करता वरन अपनी फैमिली के मैंबर द्वारा की जाती है. रिचा कहती है कि लड़कियां अगर अपने लिए स्टैंड लें तो किसी की मजाल नहीं कि वह उन के बारे में कुछ उलटा बोल सके.’’

प्रीति वर्मा 18 साल की है. वह अपने मम्मीपापा की इकलौती संतान है. एक दिन जब प्रीति अपने फ्रैंड निखिल अरोड़ा के साथ हाथ पकड़ कर रोड पार कर रही थी तभी रोड की दूसरी साइड कार से आते उस के पापा सचिन वर्मा ने उन्हें देख लिया. उन्होंने कार को साइड में लगा कर रोड क्रौस किया और प्रीति के पास आ कर उस का हाथ ?ाटकते हुए उसे निखिल से दूर किया. इस के बाद उन्होंने प्रीति को सचिन के सामने ही थप्पड़ मार दिया. फिर उन्होंने प्रीति को कार में बैठाया और सीधे घर ले कर आ गए.

सचिन ने घर आते ही प्रीति को सुनाते हुए कहा, ‘‘हमारे भरोसे का तुम यह सिला दे रही हो? बाहर जाते ही तुम अपने संस्कार भूल गई. इस तरह सड़क पर लड़के के हाथों में हाथ डाल कर चलना हमारे संस्कार में नहीं है. इस तरह से तुम हमारी नाक कटा रही हो. अगर दोबारा मैं ने इस तरह का कुछ भी सुना तो तुम्हारा बाहर जाना बंद हो जाएगा.’’

रिश्तों में दरार डालती हैं गलतफहमियां कई बार गलतफहमी रिश्तों में दरार लाने का कारण बन जाती है. ऐसा ही सचिन वर्मा और प्रीति के साथ भी हुआ. लेकिन प्रीति अपने दोस्त के सामने अपनी बेइज्जती को नहीं भूली. इसलिए अब वह एक शहर में होते हुए भी जल्दी अपने घर नहीं जाती है.

ऐसा ही एक वाकेआ अदा शर्मा के साथ भी हुआ था. 30 साल के महेंद्र शर्मा ने जब अपनी 23 साल की बहन अदा शर्मा को एक कैफे में लड़के के साथ कौफी पीते देखा तो वह उस पर भड़क गया. उस ने न आव देखा न ताव सीधा अदा को और उस के फ्रैंड को थप्पड़ मार दिए. महेंद्र शर्मा का ऐसा करना उस की रूढि़वादी सोच को दिखाता है. उस ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि वह लड़का कौन है. वह अदा का बौयफ्रैंड है या बस फ्रैंड. बिना सच जाने, बिना सोचेसमझे उस का ऐसा करना अदा के लिए शर्मींदगी का कारण बन गया.

इस घटना के बाद अदा के जितने भी मेल फ्रैंड थे सब ने उस से दूरी बना ली. वे उस के साथ चलने से डरने लगे. उन्हें डर लगने लगा कि न जाने कब उस का भाई या पापा आ जाए और उन्हें बिना किसी बात के मारने लगे.

अदा कहती है, ‘‘मेरे भाई की इस हरकत ने मेरे दोस्तों को मु?ा से दूर कर दिया. हमारी सोसाइटी में लड़कियों को ऐसी सिचुएशन से कई बार गुजरना पड़ता है, जबकि इस में उन की कोई गलती भी नहीं होती सिवा उन के लड़की होने की.’’

कई बार लड़कियों की बेइज्जती अपने ही घर में इतनी बढ़ जाती है कि उस की अपनी फैमिली उस के कैरेक्टर पर सवाल उठाने लग जाती है. ऐसा अकसर कम पढ़ेलिखे और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के घर में होता है. ऐसा ही एक घर मोली गौड़ा का है.

मौली गौड़ा 24 साल की है. वह मुंबई की घनी आबादी वाली एक चाल में रहती है. आएदिन उस के घर उस के छोटे भाई जयंत गौड़ा की फीमेल फ्रैंड आती रहती थी. लेकिन जब मोली का दोस्त पंकज कंपा घर आया तो उस के पापा मुकेश मौली पर बरस पड़े. वे चिल्लाते हुए बोले, ‘‘यह मेरा घर है या कोई कोठा जो मुंह उठा कर कोई भी आ जाता है? तुम ने मेरे घर को क्या कोठा सम?ा लिया है जो जब चाहा किसी को भी ले आती हो? कभी कोई दोस्त. तुम्हारा कोई कैरेक्टर है या नहीं या तुम्हारा एक लड़के से मन नहीं भरता. जो आए दिन कोई न कोई यहां आता ही रहता है?’’

इतना सुनते ही मौली रोते हुए कमरे में चली गई. यह सब सुन कर उस का दोस्त भी वहां से चला गया. इस घटना के बाद वह फिर कभी मौली के घर नहीं आया.

पहले घर में इज्जत जरूरी इस तरह की बातें गरीब तबके के लोगों के लिए आम हो गई हैं. ज्यादा पढ़ेलिखे न होने के कारण वे इस तरह के शब्दों का यूज करते हैं. लेकिन इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि आखिर वह किसी लड़की या महिला के लिए  ऐसा कैसे कह सकते हैं जो महिलाओं के चरित्र का हनन करती है. लेकिन फिर भी धड़ल्ले से महिलाओं के लिए अपशब्दों का यूज किया जाता है.

जो लोग अपने घर में लड़कियों और महिलाओं की बेइज्जती करते हैं वे यह नहीं समझ पाते कि ऐसा कर के वे अपने लिए ही गड्ढा खोद रहे हैं क्योंकि बेइज्जती या अपमान सहने वाली लड़कियां दोबारा उस घर में पैर नहीं रखना चाहती हैं. फिर चाहे उन के घर वाले उन्हें लाख बुलाएं.

ऐसे में जिस कपल ने अपनी इकलौती बेटी की बेइज्जती की होती वे अपनी बेटी को देखने के लिए तरस जाते हैं क्योंकि वह उन्हें देखना तक नहीं चाहती. बेइज्जती सहने वाली कुछ लड़कियां अगर अपने घर जाती भी हैं तो सीधे मुंह किसी से बात नहीं करती हैं. अगर उन के इस व्यवहार को खत्म करना है तो उन्हें अपने घर की लड़कियों और औरतों का मानसम्मान करना होगा, उन से इज्जत से बात करनी होगी.

लव जिहाद षडयंत्र सिद्धांत

लव जिहाद पर काफी कट्टरवादियों का खून खौलने लगता है चाहे लव जिहाद की घटना उन के घर से 200 किलोमीटर दूर क्यों न हुई हो भगवाई पब्लिसिटी गैंग ने इस कदर माहौल को बिगाड़ दिया है कि आजकल प्रेम करने से पहले धर्म और जाति पूछनी होती है और लडक़ा अगर मुसलिम हो तो आसमान टूट पड़ता है.

यह बीमारी अब मुसलमानों में भी शुरू हो गई है, दिल्ली में 10 जुलाई को 20 साल के ङ्क्षहदू लडक़े की हत्या कर दी गई क्योंकि उस ने एक मुसलिम लडक़ी से पे्रम करने की हिम्मत दिखा दी थी. अररिया, बिहार, का राजकुमार का एक मुसलिम लडक़ी से प्रेम हो गया तो लडक़ी के रिश्तेदारों ने उस की हत्या लवजिहाद के तरीके से कर डाली.

धर्म के नाम पर प्रेम को अब इस तरह गंदला कर डाला गया है कि युवा दिनों के डर लगने लगा है कि उन्होंने यदि कदम कहीं आगे बढ़ा लिए तो मौत का ही सामना न करना पड़े.

भारतीय जनता पार्टी इस तरह की हत्याओं को खूब समर्थन देती है जबकि उन के चुराए हुए आदर्श नेता सुभाष चंद्र बोस ने खुए एक जापानी लडक़ी से शादी कर ली थी जब वे द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में जापान में थे. अगर लव जिहाज बुरा है, अगर अपने धर्म से दूसरे से प्रेम करना हिंदू संस्कारों के खिलाफ है, अगर जाति तोड़ कर विवाह करना गलत है तो न केवल कई भारतीय जनता पार्टी के नेता, कितने ही भाजपा के भगवा लपेट में आ जाएंगे. पुराण उन मामलों से भरे पड़े हैं जिन में एक जाति के महापुरुषों ने दूसरी में शादी की थी और बच्चे भी पैदा किए थे. धर्म ने इस तरह अंधा बना रखा है कि बिना जांचे परखे आज के महंत, गुरू, पादरी, मुल्ला जो कहें वही पत्थर की लकीर हो जाता है और कुछ लोग इस लकीर को घर करने वालों को दंड देने पर उतारू हो जाते हैं.

दिल्ली के शहजाद बाग जैसी घटनाएं अब सारे देश में होने लगी हैं और प्रेम को बदनाम करने वाले ने इतना डर फैला दिया है कि जब हत्या हो रही होती है तो आसपास के लोग चुपचाप खड़े हो कर देखते हैं, कोई बीच में नहीं पड़ता. सभी को डर होता है कि मारने वाले अगर लोग पार्टी से जुड़े होंगे तो वे तो बच जाएंगे और बीच बचाव या बचाने वाले थानों, अदालतों के चक्कर में फंस जाएंगे.

आज का समाज यह बोडकास्ट कर रहा है कि प्रेम करना है तो पहले पंड़ों, मौलवियों, पादरियों, ग्रंथियों से पूछो, उन्हें चढ़ावा चड़ाओ और फिर ‘आईलवयू’, ‘आई लव यू टू बोलो.’

आम जनता के लिए नहीं हवाई यात्रा

इंडिगो और एअर इंडिया के 500-500 एअरक्राफ्ट खरीदने  के समाचार को देशभर में ढोल पीटपीट कर बताया जा रहा है मानों यह अचीवमैंट सरकार की हो. अगर देश में एअर टै्रफिक बढ़ रहा है तो यह साबित करता है कि ट्रेनें और रोड जर्नी अभी भी महंगी या टाइम लेने वाली है और जिस के पास पैसा है वह जैसेतैसे बाई एअर ही जाना चाहता है.

एअरपोर्ट और एअर जर्नी अब कोई लग्जरी नहीं रह गए हैं. ये इतने बड़े देश में जरूरी हो गए हैं.

अगर दिनों का सफर घंटों में पूरा हो जाए तो जो ऐक्स्ट्रा पैसा देना पड़ता है वह ज्यादा नहीं लगता. बड़े देश में लोग इधर से उधर तो जाएंगे ही और जैसेजैसे नौकरियों और व्यापार के नए अवसर अपने घर से दूर मिलेंगे लोग एअर सर्विस के कारण ज्यादा मोबाइल होंगे ही.

अब एअरलाइंस पूरी तरह निजी हाथों में हैं, सारे एअरक्राफ्ट निजी कंपनियों के पास हैं और एअरपोर्ट भी अब निजी ठेकेदारों के हाथों में हैं. पर निजी हाथों में जाने का मतलब यह नहीं है कि पैसेंजरों को कंपीटिशन का फायदा हो रहा है. हर एअरलाइंस जानती है कि अब कस्टमर उस के पास खुदबखुद आ रहा है और अब निजी एअरलाइंस की सेवाएं सरकारी एअरलाइंस की सेवाओं से ज्यादा घटिया होने लगी हैं.

सरकार ने कानून बना कर हर प्रोडक्ट की एक एमआरपी तय कर रखी है पर एअरलाइंस के टिकटों की कोई एमआरपी नहीं है. ये कंपनियां तांगे वालों से भी ज्यादा मोलभाव करती हैं पर यह भेदभाव एकतरफा होता है. कार्टेल बना कर यानी 4-5 एअरलाइंस मिल कर किसी भी सैक्टर को महंगा कर सकती हैं और दाम 20% से 100% तक बढ़ा लेती हैं. कम चलने वाले सैक्टरों को कैंसिल करना भी आम है.

अब एअरलाइंस का कोई फिक्स्ड टाइमटेबल भी नहीं है. एक एअरलाइंस एक सैक्टर पर 1 दिन में 5 उड़ानें भर सकती है तो दूसरे दिन 2 ही. चूंकि बुकिंग अब वैबसाइट पर होती है, आप को पता नहीं चलेगा कि कौन सी फ्लाइट कैंसिल की गई है.

500-500 एअरक्राफ्टों को खरीदनेका मतलब यह तो है कि ज्यादा लोग सफर बाई एअर करेंगे पर यह भी है कि उन्हें खाना भी महंगा खरीदना पड़ेगा और पीने का पानी भी. सिक्युरिटी के नाम पर पानी की बोतल न ले जाने देने का नियम होने पर पानी का व्यापार करने वाले चांदी काट रहे हैं. इसी तरह एअरपोर्टों पर या एअरक्राफ्टों में खाना बेहद महंगा है. ज्यादातर एअरक्राफ्ट इस असुविधा को कम नहीं करेंगे क्योंकि इस पर ग्राहकों का कोई दबाव है ही नहीं.

एअरपोर्ट बनाना और एअरलाइंस खड़ी करना तथा उस के लिए अनुमतियां लेना एक बड़ा मुश्किल काम है. सरकार की मिलीभगत है कि यह मुश्किल ही रहे ताकि केवल खास लोग ही सफर कर पाएं. ये खास लोग आमतौर पर शिकायत भी नहीं करते क्योंकि इन के पास समय नहीं होता और बरबाद करने के लिए पैसा होता है. जहां आम जनता और ज्यादा गरीब होती जा रही है, वहीं यह भारीभरकम अरबों डौलरों की डील की जाती है.

देश में अमीरगरीब का फासला जिस तेजी से बढ़ रहा है, वह एक नई वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था को जन्म दे रहा है. अब ऊंची कास्टों में एक बहुत अमीर और जरा से अमीरों की नई सबकास्ट पैदा होे गई है. वर्ण व्यवस्था के हिमायती जब इस 500-500 हवाईजहाजों की डील पर खुशी मना रहे हैं तो असल में इस की खुशी मना रहे हैं कि पौराणिक व्यवस्था मजबूत हो गई है.

कैसे रुकेगा कामकाजी महिलाओं का शोषण

यौन उत्पीड़न को एक अवांछित व्यवहार के रूप में परिभाषित किया गया है. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न दुनिया में एक व्यापक समस्या है. फिर चाहे वह विकसित राष्ट्र हो या विकासशील या फिर अविकसित, महिलाओं के खिलाफ अत्याचार हर जगह आम है. यह पुरुषों और महिलाओं दोनों पर नकारात्मक प्रभाव देने वाली एक सार्वभौमिक समस्या है.

यह महिलाओं के खिलाफ अपराध है, जिन्हें समाज का सब से कमजोर तबका माना जाता है. इसलिए उन्हें कन्या भू्रण हत्या, मानव तस्करी, पीछा करना, यौन शोषण, यौन उत्पीड़न से ले कर सब से जघन्य अपराध बलात्कार तक सहना पड़ता है. किसी व्यक्ति को उस के लिंग के कारण परेशान करना गैरकानूनी है.

यौन उत्पीड़न अवांछित यौन व्यवहार है, जिस से किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने की उम्मीद की जा सकती है जो आहत, अपमानित या डरा हुआ महसूस करता है. यह शारीरिक, मौखिक और लिखित भी हो सकता है.

कार्यस्थल छोड़ने का मुख्य कारण

सितंबर, 2022 में जारी यूएनडीपी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत में काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 2021 में लगभग 36त्न से घट कर 2022 में 33त्न हो गया. कई प्रकाशनों ने कई मूल कारणों की पहचान की, जिन में महामारी, घरेलू दायित्वों में वृद्धि और शादी एक बाधा के रूप में शामिल है. लेकिन क्या यही कारण हैं? नहीं, जिन अंतर्निहित कारणों पर हम अकसर विचार करने में विफल रहे हैं उन में से एक कार्यस्थल में उत्पीड़न है, जिस के कारण महिलाएं कार्य छोड़ देती हैं.

महिलाओं ने वित्तीय रूप से स्वतंत्र बन कर, सरकारी, निजी और गैरलाभकारी क्षेत्रों में काम कर के समाज के मानकों को तोड़ने की कोशिश की है, जो उन्हें मालिकों, सहकर्मियों और तीसरे पक्ष से उत्पीड़न के लिए उजागर करता है.

क्या कहते हैं आंकड़े?

राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, कार्यस्थल या कार्यालय में यौन उत्पीड़न के 418 मामले दर्ज किए गए. लेकिन यह संख्या केवल एक उत्पीड़न को इंगित करती है. अधिकांश लोगों का मानना है कि कार्यस्थल उत्पीड़न केवल यौन प्रकृति का हो सकता है, लेकिन वास्तव में विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न से संबंधित विभिन्न श्रेणियां हैं, जो सभी कर्मचारियों को मानसिक रूप से प्रभावित करती हैं, जिस से अपमान और मानसिक यातना होती है. इस के परिणामस्वरूप उन की कार्यक्षमता में कमी आती है और काम छूट जाता है.

कुछ महिलाएं अभी भी कार्यस्थल में उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने से डरती हैं. यौन उत्पीड़न की निम्न उल्लेखनीय शिकायतें जो राष्ट्रीय सुर्खियों में आईं:

  •  रूपन देव बजाज, (आईएएस अधिकारी), चंडीगढ़ ने ‘सुपर कौप’ केपीएस गिल के खिलाफ शिकायत की.
  •  देहरादून में पर्यावरण मंत्री के खिलाफ अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ की एक कार्यकर्ता ने शिकायत दर्ज की.
  •  मुंबई में अपने सहयोगी महेश कुमार लाला के खिलाफ एक एयरहोस्टेस ने कंप्लेन की.

शिकायत कैसे दर्ज कर सकते हैं?

  •  शिकायत घटना के 3 महीने के भीतर लिखित रूप में की जानी चाहिए. घटनाओं की शृंखला के मामले में पिछली घटना के 3 महीने के भीतर रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए. वैध परिस्थितियों पर समयसीमा को और 3 महीने तक बढ़ाया जा सकता है.
  •  शिकायतकर्ताओं के अनुरोध पर जांच शुरू करने से पहले समिति सुलह में मध्यस्थता करने के लिए कदम उठा सकती है. शारीरिक/मानसिक अक्षमता, मृत्यु या अन्य किसी स्थिति में कानूनी उत्तराधिकारी महिला की ओर से शिकायत कर सकता है.
  •  शिकायतकर्ता जांच अवधि के दौरान स्थानांतरण (स्वयं या प्रतिवादी के लिए) 3 महीने की छुट्टी या अन्य राहत के लिए कह सकता है.
  •  जांच शिकायत के दिन से 90 दिनों की अवधि के भीतर पूरी की जानी चाहिए. गैरअनुपालन दंडनीय है.
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