प्रतिदान: भाग 3 – कौन बना जगदीश बाबू के बुढ़ापे का सहारा

बुढ़ापे की अपंगता को छोड़ कर बाबू साहब को नहीं लगता कि कभी किसी दुख से उन का आमनासामना हुआ हो. पिता संपन्न किसान थे. साथ ही उस जमाने के पटवारी भी थे. 2 बहनों के बीच अकेले भाई थे. लाड़प्यार से पालन- पोषण हुआ था. किसी चीज का अभाव नहीं था, पर वे बिगड़ैल नहीं निकले क्योंकि मां समझदार थीं. अच्छे संस्कार डाले उन में. बुद्धि के तेज थे. स्कूल में हमेशा अव्वल आते. 5वीं के बाद उन्हें पढ़ने के लिए कसबे के इंटर कालेज में भेज दिया गया. वहां भी प्राध्यापकों के चहेते रहे. इंटर के बाद उच्च शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद गए. वहां होस्टल में रह कर पढ़ाई की. अच्छे अंकों से बी.एससी. उत्तीर्ण की. तभी उन का मन साइंस से उचट गया.

बातोंबातों में एक दिन उन के एक मित्र ने कह दिया, ‘यार जगदीश, तू क्यों साइंस के फार्मूलों में उलझा हुआ है. तेरी तो तर्कवितर्क की शक्ति बड़ी पैनी है. बहस जोरदार कर लेता है. एलएल.बी. कर के वकालत क्यों नहीं करता?’

कहां तो वे आई.ए.एस. बनने का सपना देख रहे थे, कहां उन के मित्र ने उन की दिशा बदल दी. बात उन को जम गई. बी.एससी. कर चुके थे. तुरंत ला कालेज में दाखिला ले लिया. पढ़ने में जहीन थे ही. कोई दिक्कत नहीं हुई. 3 साल में वकालत पास कर ली और इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक बड़े वकील के साथ प्रैक्टिस करने लगे. साथ ही साथ न्यायिक परीक्षा की तैयारी भी. पहली बार बैठे और पास हो गए. न्यायिक मजिस्ट्रेट बन कर पहली बार उन्नाव गए. तब से 35 साल की नौकरी में प्रदेश के कई जिलों में विभिन्न पदों पर तैनात रहे. अंत में बलिया से जिला जज के पद से रिटायर हुए. न्यायिक सेवा में अपनी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी से नाम कमाया तो आलोचनाओं के भी शिकार हुए. पर उन्हें जो सच लगा, उसी का पक्ष लिया. जानबूझ कर अंतर्मन से किसी का पक्षपात नहीं किया.

कहते हैं न कि जीवन अपना हिसाबकिताब बराबर रखता है. ज्यादातर जीवन में अगर उन्हें सुख ही सुख नसीब हुआ था, तो अब अंत समय में दुख की बारी थी. इसे भी उन्हें इसी जीवन में भुगतना था, वरना जीवन का खाता असंतुलित रह जाएगा. आय और व्यय का पूरा विवरण आना ही चाहिए. सुख अगर आय है तो दुख व्यय.

उन का शरीर दिन ब दिन क्षीण होता जा रहा था. मानसिक संताप से वे उबर नहीं पा रहे थे. बेटे बिना नागा फोन पर उन की कुशलता की जानकारी हासिल कर रहे थे. पर क्या जीवन के अंतिम क्षणों में बच्चों की कुशलक्षेम पूछने भर से उन का कष्ट और संताप कम हो सकता था.

फोन पर ही बेटों को उन्होंने बता दिया था कि पुश्तैनी जमीनजायदाद और खुद की कमाई संपत्ति की उन्होंने वसीयत कर दी है. उस को पंजीकृत भी करवा दिया है. वसीयत वकील अमरनाथ वर्मा के पास रखी है. जीतेजी देखने तो क्या आओगे? मेरी मृत्यु पर ही तुम लोग आओगे, पर अंतिम संस्कार करने से पहले वसीयत पढ़ लेना. उस के बाद ही मेरा अंतिम संस्कार करना.

और वह दिन भी आ पहुंचा. हवेली के विशाल आंगन में उन का पार्थिव शरीर रखा था. एक तरफ परिजन बैठे थे, उन के बीच सफेद कुरतेपायजामे में बाबू साहब के दोनों बेटे बैठे थे. महिलाएं अंदर थीं. वकील साहब को खबर कर दी गई थी. बस पहुंचने ही वाले थे.

वकील साहब के पहुंचते ही सब की नजरें उन के चेहरे पर टिक गईं. उन्होंने बारीबारी से सब को देखा. एक कोने में दीनहीन रामचंद्र बैठा था. केवल उस की आंखों में आंसू थे, पर वह रो नहीं सकता था, क्योंकि वहां सभी धीरगंभीर मुद्रा अपनाए थे.

वकील साहब ने अपने ब्रीफकेस से एक फाइल निकाली और उसे खोल कर पहले बाबू साहब के दोनों बेटों की तरफ देखा, फिर रामचंद्र को अपने पास बुला लिया. गंभीर वाणी में बोले, ‘‘मैं वसीयत पढ़ने जा रहा हूं. आप तीनों ध्यान से सुनना क्योंकि यह केवल आप ही 3 लोगों से संबंधित है,’’ फिर उन्होंने वसीयत पढ़नी प्रारंभ की :

‘‘मैं जगदीश नारायण श्रीवास्तव, निवासी ग्राम व पोस्ट हरचंदरपुर, जिला रायबरेली अपने पूरे होशोहवास और संज्ञान में शपथपूर्वक अपनी संपत्ति की निम्नलिखित वसीयत करता हूं :

‘‘भोरवा खेड़ा स्थित 20 बीघा पुश्तैनी जमीन, जो अलगअलग 4 चकों में है, मेरे दोनों पुत्रों के बीच बराबरबराबर बांट दी जाए. इसी तरह बैंक में जमा धनराशि के भी वे बराबर के हिस्सेदार होंगे. सोनेचांदी के जेवरात इन की बहुओं को बराबरबराबर सुनार की मध्यस्थता में उन की कीमत आंक कर बांट दिए जाएं.

‘‘रही 10 बीघा जमीन, जो मैं ने अपनी बचत और मेहनत की कमाई से खरीदी थी, उस का बैनामा मैं पहले ही अपने पुत्रसमान सेवक रामचंद्र के नाम कर चुका हूं. वह मेरा सगा बेटा नहीं है, पर मैं उस को अपने बेटों से भी बढ़ कर मानता हूं. संतान सुख क्या होता है वह मैं ने अपने दोनों पुत्रों के पालनपोषण से प्राप्त कर लिया है, परंतु जीवन के अंतिम समय में संतान एक पिता को क्या सुख देती है, यह मुझे अपने पुत्रों से प्राप्त नहीं हो सका. वह सुख मुझे मिला तो केवल रामचंद्र से, उस की पत्नी और बच्चों से.

‘‘मेरी सेवा करते समय उन के मन में कभी यह लालसा न रही होगी कि मजदूरी के अलावा उन्हें कुछ और प्राप्त हो. बचपन में हम अपने बच्चों का मलमूत्र साफ करते हैं. हमें उस से घृणा नहीं होती क्योंकि बच्चों को हम अपना अंश समझते हैं और यह समझते हैं कि वे हमारे बुढ़ापे की लाठी हैं, परंतु क्या सचमुच…

‘‘रामचंद्र के शरीर में मेरा खून नहीं है. वह मेरे घरपरिवार का भी नहीं है. है तो बस मात्र एक नौकर, परंतु उस की सेवा में नौकरभाव नहीं है. इस से कहीं कुछ ज्यादा है. वह मेरा मलमूत्र ऐसे उठाता है जैसे अपने अबोध बच्चे का उठा रहा हो. कोई घृणा नहीं उपजती है उस के मन में. उसी पितृभाव से मुझे नहलाताधुलाता है. मुझे साफ कपडे़ पहना कर अपने हाथों से खाना खिलाता है. मेरी सेवा करने में उस की पत्नी ने भी कभी कोताही नहीं बरती. कभी थकान या ऊब का भाव नहीं दिखाया. यह सब करते हुए क्या उन के मन में किसी प्रतिदान की आकांक्षा या लालसा रही होगी…कभी नहीं. इन दोनों ने मुझ से पूछे बिना कोई चीज इधर से उधर नहीं रखी.

‘‘ऐसे स्वामीभक्त रामचंद्र को मैं इस से ज्यादा दे भी क्या सकता था कि उस के बच्चों का भविष्य सुनिश्चित कर दूं. 10 बीघे जमीन में मेहनत से खेती करेंगे तो उन्हें कभी रोटी के लिए दूसरे के आगे हाथ नहीं पसारना पड़ेगा. मेरे बेटे सुखी- संपन्न और नौकरीपेशा वाले हैं. आशा है, मेरे इस निर्णय से उन के दिल को चोट नहीं पहुंची होगी.’’

वकील साहब थोड़ी देर के लिए रुके. सब लोग मंत्रमुग्ध थे. वकील साहब ने आगे पढ़ा :

‘‘इस के बाद यह मकान बचता है. इसे भी मैं ने अपने खूनपसीने की कमाई से बनवाया है. मैं जानता हूं, मेरे बेटेपोते मेरी मृत्यु के बाद गांव का रुख नहीं करेंगे. इस मकान को औनेपौने दाम में किसी बनिए को बेच देंगे. अत: यह मकान भी मैं रामचंद्र को दान करता हूं. मेरी मृत्यु के बाद वह सपरिवार इस मकान को अपने रहने के लिए उपयोग करे. दोनों भैंसें भी उसी की होंगी.’’

लाखों की संपत्ति बाबू साहब एक नौकर को दे कर चले गए. क्या उन के बेटे इस वसीयत को मानेंगे और यों ही चुप बैठे रह जाएंगे? सब की नजरें उन के बेटों की तरफ उठीं और एकटक उन्हें ही ताकने लगीं. वे क्या प्रतिक्रिया करेंगे? परिचित तथा परिजनों को विश्वास था कि अंतिम संस्कार से पहले ही कोई न कोई हंगामा खड़ा हो जाएगा.

उधर रामचंद्र जारजार रो रहा था.

दोनों बेटों ने एकदूसरे की तरफ देखा. चंद क्षणों तक एकदूसरे से कानाफूसी की और बड़े बेटे ने खड़े हो कर कहा, ‘‘हमें पिताजी पर गर्व है. उन्होंने जो कुछ किया, बहुत अच्छा किया. हमें उन से कोई शिकायत नहीं है. सच तो यही है कि हम उन के पुत्र होते हुए भी उन की कोई सेवा न कर सके. उन्हें अकेला छोड़ कर हम अपने बीवीबच्चों में मस्त रहे. वृद्धावस्था का अकेलापन और अपनों के पास न होने का बाबूजी का गम हम महसूस न कर सके. उन्हें अकेला मरने के लिए छोड़ दिया. पर हम रामचंद्र को अपना बड़ा भाई मानते हुए अपनेअपने हिस्से की जमीन को भी बोनेजोतने का अधिकार देते हैं और साथ ही यह अधिकार भी देते हैं कि बाबूजी का अंतिम संस्कार भी उसी के हाथों से संपन्न हो. इन्हीं हाथों ने बाबूजी की अंतिम दिनों में सेवा की है. यही उन का असली पुत्र है और उसे यह अधिकार मिलना चाहिए.’’

सब की नजरों में रामचंद्र के लिए अथाह आदर और सम्मान था.

 

तेरे जाने के बाद- भाग 4 क्या माया की आंखों से उठा प्यार का पर्दा

‘भुगत तो मैं भी रहा हूं. जुदाई का गम. कम से कम तुम्हारे पास तुम्हारा परिवार, हमारा बेटा तो है. मेरे पास कौन है?’ ‘हमारा बेटा. शायद तुम भूल रहे हो कि हमारा नहीं, सिर्फ और सिर्फ मेरा बेटा था. मेरे और कमल का बेटा.’ ‘मैं जानता हूं. लेकिन शायद तुम भूल रही हो कि दुनिया की नजर में आज भी प्रेम हमारा ही बेटा है. कमल का नहीं. भले उस के शरीर में मेरे खून का कतरा नहीं है लेकिन मेरे प्यार के रंग को कोई कैसे उतार सकता है. नंदजी कान्हा के पिता भले नहीं थे किंतु वासुदेव से पहले नंद का नाम ही लिया जाता है. यह उन का पुत्रप्रेम व समर्पण था. जिसे दुनिया सदैव से ही नमन करती आई है और करती रहेगी.’

‘तुम नंद नहीं हो, पर मुझे देवकी जरूर बना दिया. क्यों?’ ‘देवकी, मैं ने कैसे बनाया?’ ‘तुम्हारे घर वाले मेरे बच्चे को मुझ से छीन कर ले जा चुके हैं. मैं नहीं जानती किस अधिकार से ले गए.’ ‘मेरे घर वाले…मैं आश्चर्यचकित हूं. जिन्हें तुम से कभी विशेष मतलब न रहा, वो तुम्हारे बच्चे को क्यों ले कर जाएंगे.’ ‘यही बात तो मुझे समझ नहीं आई आज तक. लेकिन मैं तुम्हारे घर वालों के जुल्म के आगे झुक गई थी या शायद यहां भी मेरी ही गलती थी. मैं अपनी फिगर खोना नहीं चाहती थी. मैं ब्रैस्ट फीडिंग करवा कर अपने वक्ष को खराब नहीं करना चाहती थी. जो समय मुझे उस अबोध बालक को देना चाहिए था वह समय मैं कमल को दे दिया करती थी. जिस का लाभ तुम्हें मिलता रहा. मैं अपने ही बच्चे से दूर होती रही और तुम करीब आते चले गए. तुम्हारे करीब, तुम्हारे रिश्तेदारों के करीब, और एक दिन वही बच्चा मुझे छोड़ उन के साथ चला गया. यहां मैं मां भी नहीं बन सकी.’

मैं विचारों की उधेड़बुन में उलझी रही. वैमनस्य मन में विवाह की तैयारी करती रही. मैं तुम्हें बारबार भुलाने की कोशिश में लगी रही और तुम बारबार मेरे जेहन में आते रहे. मैं खुद को कामों में उलझाने की कोशिश में लगी रहती हूं ताकि तुम्हारी यादों से नजात पा सकूं पर फिर भी तुम याद आते रहते हो. मैं टैंट वाला, हलवाई के हिसाबकिताब करती रही और तुम अपनी कमी महसूस करवाते रहे. तुम होते तो ऐसा होता, तुम होते तो वैसा होता. तुम्हें इस तरह के कामों में आनंद जो मिलता था. शादीविवाह हो या कोई सामाजिक काम, तुम सब में बढ़चढ़ कर भाग लेते थे. वह तुम्हारी कोमल हृदय की भावनाएं होती जिसे मैं कभी नहीं समझ पाई थी. एक बात जानते हो, मैं ने मी टू कैंपेन जौइन कर ली है.

मैं अब कमल के मामले को पूरी दुनिया को दिखाऊंगी. उस की करतूतों का परदाफाश कर के रहूंगी ताकि कोई और मेरी जैसी औरत उस के चुंगल में न फंसे. बहुत सताया है मुझे और जाने ही कितनों को. पर अब और नहीं. शादी की तैयारी करने में वक्त गुजरते देर न लगी और वह समय भी आ गया जब अभिलाषा को विदा कर के लेने दूलहेमियां असीम बरात ले कर आ गये और अब वह हमेशा के लिए अभिलाषा को मुझ से दूर ले कर चला जाएगा. मेरे अंदर भी बेचैनी होने लगी. क्या मैं अब अकेली रह जाऊंगी? क्या इस दुनिया में मेरे पास रहने वाला अपना कोई नहीं होगा? पर यह तो मेरे कर्मों का ही नतीजा है, फिर क्यों मुझे घबराहट हो रही है?

हां, मुझे पश्चात्ताप हो रहा है. शायद हां, मुझे पश्चात्ताप ही हो रहा है. मैं पश्चात्ताप की ही अग्नि में जल रही हूं. मेरा अहंकार जल रहा है. मेरा अस्तित्व जल रहा है. मैं एक कुंठित व महत्त्वाकांक्षी औरत हूं जिस के लिए शायद अब तक सजा मुकर्रर नहीं हुई है. पर यह तय है कि इस की सजा मुझे मिलेगी जरूर. तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला. मैं विस्मित देखती रह गई. मेरे सामने मोहित खड़ा था. मुझे खुद की ही आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मुझे लगता, शायद मैं इतनों दिनों से मोहित के खयालों में डूबी हूं, उसी का असर है.

मोहित जब बोला, ‘‘क्या अंदर आने को नहीं कहोगी?’’ मेरी तंद्रा टूटी. वास्तव में मोहित ही है मेरा खयाल नहीं. मैं हड़बड़ाने लगी हूं, मेरी आंखों के कोर में न जाने कहां से आंसू के बादल छाने लगे. मैं रोकना चाहती थी उन आंसुओं की बूंदों को ढुलकने से, पर रोक नहीं पाई. वे लुढ़क कर मेरी नाक तक आ गए है. भर्राए हुए गले से मैं सिर्फ प्रेम बोल पाई हूं. मोहित ने कुछ जवाब नहीं दिया. वे मेरे संगसंग अंदर आ गए. मुझ से नजर मिलाए बिना ही मोहित बैठ गए. मैं पानी लेने चली गई. मैं अपने हाथों में पानी का गिलास लिए खड़ी थी. मोहित ने पानी का गिलास लेते हुए पूछा, ‘‘प्रेम कहां है माया?’’

मैं अपनी रुंधे हुई भर्राए गले से अटकअटक गई, ‘‘वो…वो प्रेम को तो…प्रेम को तो आप की मांबहन ले गईं थी.’’ मैं पहली बार मोहित को आप कह संबोधित कर रही थी. मुझे नहीं मालूम ऐसा क्यों? ‘‘मां ले गईं प्रेम को, पर क्यों?’’ ‘‘क्योंकि मेरी ममता मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई थी, मैं वासना के रसातल में विक्षिप्त प्राणी की तरह विलीन हो गई थी. सिर्फ और सिर्फ मेरा तन जाग्रत था, हृदय तो कब का मृत हो चुका था,’’ मैं फफकफफक कर रोते हुए बोली. ‘‘क्या इस का तुम्हें एहसास है?’’

‘‘एहसास, शायद छोटा सा अल्फाज है मुझ जैसी कलुषित औरत के लिए. मुझ जैसी औरतों को तो जितनी सजा दी जाए वह कम ही होगी.’’ ‘‘तुम्हें पश्चात्ताप हुआ, यह बहुत बड़ी बात है. लेकिन तुम फिर से यह कौन सी गलती दोहराने जा रही हो?’’ ‘‘गलती, क्या मतलब?’’ ‘‘तुम इतनी भोली भी नहीं हो कि मतलब बताना पड़े. फिर भी बता देता हूं… यह तुम्हारा मी टू कैंपेन क्या है? क्यों तुम किसी की बसीबसाई गृहस्थी में आग लगाने पर तुली हो?’’ ‘‘पर उस ने जो किया, क्या वह सही था?’’ ‘‘उस ने जो किया वह गलत जरूर था. लेकिन वह अकेला गलत तो नहीं था, तुम भी तो बराबर की भागीदार रही. तुम्हारी भी उतनी ही हिस्सेदारी रही जितना कमल की. फिर अकेले कमल पर दोषारोपण क्यों?’’

‘‘तो क्या तुम्हारी नजर में कमल सही है और मैं ही पूरी जिम्मेदार थी?’’ ‘‘हां, कहीं न कहीं तुम ज्यादा जिम्मेदार थी. यदि तुम खुद को संयमित रखती तो दुनिया के किसी भी पुरुष के बाजू में इतनी ताकत नहीं कि तुम्हारे सतीत्व को छीन ले. तुम्हारा पति तो तुम्हारे संग ही था, फिर तुम कैसे मर्यादा भूल गईं. तुम्हें मेरी परवा भले न हो, अपनी परवा कभी तुम ने की नहीं, कम से कम प्रेम के बारे में तो एक बार सोच लेतीं. बड़ा होगा तो वैसे ही तुम्हारी करतूतों का पता चल जाएगा. लेकिन बारबार एक ही गलती दोहरा कर क्यों उसे जलालतभरी जिंदगी में झोंकने की तैयारी कर रही हो?

‘‘माना भारतीय कानून ने पराए मर्दों के संग सोने वाले रिश्तों में पति का दखल बंद करा दिया है लेकिन सभ्यता व संस्कार अभी भी इस प्रकार के औरत या मर्द को चरित्रहीन की ही श्रेणी में रखती हैं, और फिर प्रेम तो तुम्हारा ही बेटा है न, बड़े दंभ से कहती थीं, फिर क्यों उस के भविष्य को खराब करना चाहती हो? भूल जाओ माया पुरानी बातों को. जिंदगी को नए सिरे से शुरू करो. किसी के बसेबसाए घर को उजाड़ना भी ठीक नहीं है माया. बाकी तुम्हारी मरजी. तुम अधिक समझदार हो मुझ से.’’

मैं कुछ भी सोचनेसमझने की अवस्था में नहीं रह गईर् थी, मोहित के तर्क के सामने. उन की बातें भी तो सही थीं. मुझे प्रेम के बारे में तो सोचना चाहिए था. पर प्रेम के बारे में मैं क्यों नहीं सोच पाई? प्रेम कैसा होगा? मेरा बच्चा कहां होगा? और फिर मोहित को कैसे पता मेरे बारे में. शायद सोशल मीडिया से पता चला होगा. मैं कुछ बोलना चाहती थी पर बोल नहीं पाई. बस, प्रेमप्रेमप्रेम करती रह गई. ‘‘प्रेम मेरे पास है.’’ ‘‘आप के पास?’’ ‘‘तो लेते क्यों नहीं आए? एक बार नजर भर देख लेती,’’ बाकी शब्द मुंह में ही अटक गए. पहली बार महसूस हुआ कि मेरी ममता जागृत हो रही है.

‘‘मां’’, पैर छूते हुए एक 10 वर्षीय बच्चा मुझ से लिपट कर फिर बोला, ‘‘पापा, मौसी की शादी के बाद हम मां को अपने साथ ले जाएंगे.’’ प्रेम अपनी दादीदादा के साथ अभिलाषा के लिए गहनेकपड़े खरीदने बाजार चला गया था. सब लोग साथ ही आए थे. लेकिन मोहित मेरे पास पहले आ गए, बाकी लोग बाजार चले गए थे. मोहित की मां के जब मैं पैर छूने लगी तो वे उठ कर बोलीं, ‘‘बेटा, एक पत्नी गलत हो सकती है, हार भी सकती है दुनिया से, लेकिन एक मां न तो कभी हारती है और न ही गलत होती है.

प्रेम तुम्हारा बेटा था, है और रहेगा. बस, उस में अच्छे संस्कार के खादपानी की जरूरत है. अब हम भी बूढ़े हो गए हैं. तुम अभिलाषा की विदाई के साथ ही हमारे साथ आ कर अपना संसार संभालो, तेरे जाने के बाद तेरा घर बिखर गया है, आ कर समेट ले बेटा.’’ मैं कुछ बोल नहीं पाई, बस सहमति में सिर हिलाती रह गई.

 

परिंदा: अजनबी से एक मुलाकात ने कैसे बदली इशिता की जिंदगी

परिंदे को उड़ जाने दो : भाग-4

अक्षत ने शीना का हाथ पकड़ा और उसे किस करने के लिए आगे बढ़ा. शीना ने उसे मना नहीं किया और पहली बार किसी लड़के के स्पर्श को महसूस कर खुशी से भर गई.

ट्रिप के अगले 2 दिन शीना के लिए किसी सपने से कम नहीं थे. वह अक्षत को कभी बेबी कह कर बुलाती, कभी उसे गले लगाती, कभी बिना बात उस के साथ कपल डांस करने लगती. अक्षत के साथ उस के लिए यह ट्रिप कई कारणों से यादगार हो चुकी थी. लेकिन, शीना की मम्मी दिन में 5 बार उसे फोन करतीं थीं जिस से वह खीझ उठती थी. फोन उठाती तो मम्मी उसे कोई न कोई हिदायत देती रहती थीं.

शीना वापस घर आई तो मम्मी ने उस के सामने पहले से तैयार बातों की लिस्ट रख थी, “तुम ने इतना समय बर्बाद किया है कि दो प्रौडक्ट के शूट हाथ से निकल गए, यह क्या बिना मेकअप लगाए घूम रही हो, कोई देखेगा तो क्या कहेगा, इसीलिए बस इसीलिए मैं नहीं चाहती थी कि ट्रिप पर जाओ, 5 दिनों में जैसे सब कुछ ही भूल गई.”

“मम्मी सांस तो लेने दो, अभी ठीक से बैठी भी नहीं हूं मैं कि आप शुरू हो गई हो,” कह कर शीना अपने कमरे की तरफ चली गई.

“मुझ से जबान लड़ाने की कोशिश मत करो और ट्रैक पर वापस आ जाओ. एक बाप है जिसे घर की सुध नहीं है और एक बेटी है जिसे अपना कैरियर बर्बाद करने की पड़ी है,” शोभा बड़बड़ाने लगी.

अगले दिन से शीना के लिए कालेज पहले जैसा नहीं रहा था, अब अक्षत उस का बौयफ्रेंड था और वह उस की गर्लफ्रेंड. जिंदगी में रोमांस की कमी थी और वह आखिर मिल ही गया था. शीना को अब न मेकअप करने का शौक रहा था न उस का डांस क्लास या शूट्स पर जाने का मन होता था. वह कालेज पर और अक्षत पर फोकस करना चाहती थी. अक्षत के कहने पर उस ने अब नोवल्स पढ़ना भी शुरू कर दिया था. लिखने का भी शौक होने लगा था अब उसे. सब उस के आर्टिकल्स पढ़ कर तारीफ किया करते थे. उसे लगा जैसे सुकून तो अब मिला है उसे इतने सालों में.

शाम को क्लास जाने की बजाए शीना अक्षत के साथ लाइब्रेरी चली गई, अगले दिन भी उस ने डांस क्लास न जा कर कैंटीन में बैठे रहना ज्यादा सही समझा. शूट्स के लिए मम्मी कहतीं तो वह टेस्ट का बहाना बना कर टाल देती.

शोभा को डांस टीचर का कौल आया तो पता चला कि पिछले एक महीने में शीना सिर्फ 4 दिन ही क्लास गई है.

शाम को शीना घर लौटी तो सोफे पर बैठी शोभा ने उसे अपने पास बुलाया.

“क्या चल रहा है यह सब?” शोभा ने पूछा.

“क्या चल रहा है मतलब?”

“क्लास नहीं जा रही तो कहीं तो गुलछर्रे उड़ा ही रही हो,” शोभा ने आग बबूला होते हुए कहा.

“वो… मैं….पढ़ रही थी,” शीना इस तरह पकड़ी जाएगी उस ने सोचा नहीं था.

“अगले महीने मिस इंडिया के ट्रायल्स शुरू हो रहे हैं और अब तुम्हें उसी पर फोकस करना है, कल से कालेज जाने की जरूरत नहीं है रोज.”

“पर मेरे एग्जाम हैं मम्मी.”

“तो?”

“मुझे नहीं बनना मिस इंडिया, मैं कालेज ही जाउंगी,” शीना ने अपना फैसला सुनाया.

“तुम्हें किस ने कहा कि तुम्हारी मरजी चलेगी यहां? मुझे पता ही था कि यही होगा, मुझे पता ही था. क्या रखा है कालेज में? जरूर किसी लड़के का चक्कर है,” लगभग चीखते हुए शोभा ने कहा.

“लड़का हो या न हो, पर मैं वही करूंगी जो मेरे लिए सही है. वैसे भी आप को मेरी खुशी या सही गलत से क्या लेना देना है,” शीना की आंखों में आंसू थे.

“मुझे क्या लेना देना है? मां हूं मैं तेरी, तेरे कैरियर के लिए ही कर रही हूं यह सब.”

“पैसो के लिए कर रही हो आप यह सब, मां बनी ही कब हो आप मेरी. मुझे खोखला बनने के अलावा क्या सिखाया है आप ने. बचपन से मेरे दोस्तों को भगाती आई हो, कैमरे के आगे मुस्कराने और स्टेज पर जजेस को खुश करना सिखाया है लेकिन खुश रहना नहीं सिखाया,” रोते हुए शीना अपने रूम में चली गई.

“कल से तू कालेज नहीं जाएगी बस, देखती हूं कैसे नहीं मानती मेरी बात,” शोभा ने चिल्लाते हुए कहा और सोफे पर धम से बैठ गई.

शीना ने रोते हुए अक्षत को फोन किया.

“मुझे नहीं रहना है इस घर में,” शीना ने कहा.

“क्या हुआ है, रो क्यों रही हो?” अक्षत का स्वर गंभीर था.

“मैं पैसा कमाने की मशीन नहीं हूं किसी की, न कठपुतली हूं किसी की जो जैसे चाहा नचा दिया.”

“हां, वो मैं जानता हूं पर हुआ क्या है,” अक्षत ने पूछा तो शीना ने उसे पूरा हाल कह सुनाया.

“तुम अपने पापा से क्यों नहीं कहती, वो समझाएंगे आंटी को.”

“पापा दिल्ली से बाहर गए हैं और मैं उन्हें अभी परेशान नहीं करना चाहती, लेकिन मैं यहां मम्मी के साथ भी नहीं रहना चाहती. मां हैं तो क्या, इतना मतलबी कौन होता है जो बेटी की खुशी न दिखाई दे.”

“मेरे पीजी में लड़कियां अलाउड नहीं हैं यार वरना यहां ही बुला लेता.”

“तुम्हारे सामने वाला पीजी गर्ल्स पीजी है न? वहां कोई रूम खाली है क्या?”

“पूछ कर बताता हूं,” अक्षत ने कहा और दोबारा फोन करने के लिए कह कर दोस्तों से पीजी के बारे में पूछने लगा.

कुछ देर बाद अक्षत का फोन आया और उस ने बताया कि उस के सामने वाला पीजी खाली है, पैसे भी कम हैं और पानी बिजली की सुविधाएं हैं.

शीना ने अपने कपड़े और जरूरी सामान एक बड़े ट्रौली बैग और हैंडबैग में डाल लिया. मम्मी ने उसे देखा तो गुस्से से लालपीली हो पूछने लगीं कि यह सब क्या है. शीना ने बताया कि वह अब पीजी में ही रहेगी और पढ़ेगी. उस का मन पैजेंट्स में जाने या ब्यूटी इंडस्ट्री में नहीं है बल्कि लिटेरेचर पढ़ने में है तो वह वही करेगी.

“किस ने भरी हैं ये उलूलजुलूल बातें तेरे दिमाग में?” शोभा चिल्लाते हुए कहने लगी.

“मम्मी मैं 19 साल की हूं और अपने फैसले ले सकती हूं. मुझे पढ़ना है तो इस में बुराई क्या है? एक साधारण लड़की की जिंदगी नहीं जी सकती क्या मैं? मैं जा रही हूं पीजी में रहने पापा को चाहे तो बता देना या मैं खुद ही बता दूंगी, वो खुश ही होंगे जान कर कि आप के चंगुल से बच गई मैं.”

“कैसी बातें कर रही है तू, मैं तेरी टांगे तोड़ दूंगी अगर घर से बाहर कदम रखा तो.”

“कैसी बातें करने लगी हो आप, हो क्या गया है आप को? पढ़ने जा रही हूं मैं घर से भाग नहीं रही जो टांगे तोड़ोगी. नहीं रहना मुझे आप के आसपास, पीजी में रह कर पढुंगी और मन हुआ तो आ जाउंगी, इस से ज्यादा उम्मीद मत रखो मुझ से. आप के पति का बहुत पैसा है उस से कर लो ऐश मैं ये शोज कर के या शूट कर के नहीं रह सकती खुश. जाने दो मुझे.”

“तू अपनी मां को छोड़ कर जा रही है? ऐसे कैसे जा रही है तू?” शोभा की आंखों में आंसू आने लगे थे.

“मम्मी जाने दो मुझे, मैं इस घर में रही तो घुटघुट कर मर जाऊंगी,” कह कर शीना घर से निकल गई. अक्षत उसे लेने के लिए आया हुआ था. वह अक्षत के साथ मेट्रो से नौर्थ कैंपस गई. पीजी दो कमरों का था जहां शीना की एक रूममेट भी थी. शीना को एडजस्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगा. मम्मी की कौल तो उस ने उठाना बंद कर ही दी थी लेकिन पापा से बात कर लिया करती. पापा ने उसे पढ़ने पर ध्यान देने के लिए कहा.

शीना के लिए सबकुछ बहुत अलग और अकल्पनीय सा था. उसे लग रहा था जैसे वह आजाद परिंदा हो गई है. अक्षत के साथ वह खुश भी रहती थी और पढ़ती भी थी जिस का नतीजा यह हुआ कि थर्ड ईयर के बाद उस का मेरिट बेसिस पर ही पोस्ट ग्रेजुशन के लिए सेलेक्शन हो गया. इन दो सालों में उस की घर और फैशन इंडस्ट्री से दूरी शीना के लिए सुकूनभारी साबित  हुई थी. शोभा ने बहुत कोशिश की कि शीना वापस आ जाए पर फिर उसे भी समझ आ गया कि बेटी को उंगलियों पर नचाने की जद्दोजेहद में वह अपनी बेटी की खुशियों को देखना भूल गई जिस का परिणाम अब उसे भुगतना पड़ रहा है.

शीना और अक्षत की पढ़ाई पूरी होने के बाद वे लिवइन में आ गए थे. अपनीअपनी नौकरियों में दोनों ही बेहद खुश हैं और संतुष्ट भी हैं. शीना मेकअप लगाए बिना यों ही औफिस जाती तो अक्षत कहता, “पहले दिन ऐसे आई होती न कालेज, तो पहले ही दिन प्यार हो जाता तुम से.”

अक्षत की बात सुन शीना जोर से हंस देती.

अब आओ न मीता- भाग 4: क्या सागर का प्यार अपना पाई मीता

फैक्टरी की गोल्डन जुबली थी उस दिन. सुबह से ही कड़ाके की सर्दी थी. 6 बजने को थे. मीता जल्दीजल्दी तैयार हो कर फैक्टरी की ओर चल दी. घर से निकलते ही थोड़ी दूर पर सागर उसी ओर आता दिखाई दिया.

‘अरे आप तो तैयार भी हो गईं…मैं आप ही को देखने आ रहा था. ‘तुम तैयार नहीं हुए?’ ‘धोबी को प्रेस के लिए कपड़े दिए हैं. बस, ला कर तैयार होना बाकी है. चलिए, आप को स्पेशल कौफी पिलाता हूं, फिर हम चलते हैं.’

दोनों सागर के घर आ गए. मीता ने कहा, ‘मैं जब तक कौफी बनाती हूं, तुम कपड़े ले आओ.’’ बसंती रंग की साड़ी में मीता की सादगी भरी सुंदरता को एकटक देखता रह गया सागर. ‘एक बात कहूं आप से?’मीता ने हामी भरते हुए गरदन हिलाई… ‘बड़ा बदकिस्मत रहा आप का पति जो आप के साथ न रह पाया. पर बड़ा खुशनसीब भी रहा जिस ने आप का प्यार भी पाया और फिर आप को भी.’

‘और तुम, सागर?’ ‘मुझ से तो आप को मिलना ही था.’ एक ठंडी सांस ली मीता ने. उस दिन सागर के घर पर ही इतनी देर हो गई कि उन्हें फैक्टरी के फंक्शन में जाने का प्रोग्राम टालना पड़ा था. उफ, यह मुलाकात कितने सारे सवाल छोड़ गई थी.

दूसरे दिन सागर जब मीता से मिला तो एक नई मीता उस के सामने थी…सागर को देखते ही अपने बदन के हर कोने पर सागर का स्पर्श महसूस होने लगा उसे. भीतर ही भीतर सिहर उठी वह. आंखें खोलने का मन नहीं हो रहा था उस का, क्योंकि बीती रात का अध्याय जो समाया था उस में. इतने करीब आ कर, इतने करीब से छू कर जो शांति और सुकून सागर से मिला था वह शब्दों से परे था…ज्ंिदगी ने सूद सहित जो कुछ लौटाया वह अनमोल था मीता के लिए. सागर ने बांहें फैलाईं और मीता उन में जा समाई… दोनों ही मौन थे…लेकिन उन के भीतर कुछ भी मौन न था…जैसे रात की खामोशी में झील का सफर…कश्ती अपनी धीमीधीमी रफ्तार में है और चांदनी रात का नशा खुमारी में बदलता जाता है.

शाम का अंधेरा घिरने लगा था. जंगल, गांव, पेड़ और सड़क सब पीछे छूटते जा रहे थे. टे्रन अपनी गति में थी. अधिकांश यात्री बर्थ खोल कर सोने की तैयारी में थे. मीता ने भी बैग से कंबल निकाल कर उस की तहें खोलीं. एअर पिलो निकाल कर हवा भरी और आराम से लेट गई. अभी तो सारी रात का सफर है. सुबह 10 बजे के आसपास घर पहुंचेगी.

कंबल को कस कर लपेटे वह फिर पिछली बातों में खोई हुई थी. मन की अंधेरी सुरंग पर तो बरसों से ताला पड़ा था. पहले वह मानती थी कि यह जंग लगा ताला न कभी खुलेगा, न उसे कभी चाबी की जरूरत पड़ेगी. लेकिन ऐसा हुआ कि न सिर्फ ताला टूटा बल्कि बरसों बाद मन की अंधेरी सुरंग में ठंडी हवा का झोंका बन कर कोई आया और सबकुछ बदल गया.

सफर में एकएक पल मीता की आंखों से गुजर रहा था.

जिंदगी के पाताल में कहां क्या दबा है, क्या छुपा है, कब कौन उभर कर ऊपर आ जाएगा, कौन नीचे तल में जा कर खो जाएगा, पता नहीं. विश्वास नहीं होता इस अनहोनी पर, जो सपनों में भी हजारों किलोमीटर दूर था वह कभी इतना पास भी हो सकता है कि हम उसे छू सकें…और यदि न छू पाएं तो बेचैन हो जाएं. जिंदगी की अपनी गति है गाड़ी की तरह. कहीं रोशनी, कहीं अंधेरा, कहीं जंगल, कहीं खालीपन.

यहां आशा दी के पास आना था. होली भी आने वाली है. बच्चों के एग्जाम भी थे और इस बीच किराए का मकान भी शिफ्ट किया था. उसे सेट करना था. सागर 3-4 दिन से अस्पताल में दाखिल था.

पीलिया का अंदेशा था. वह सागर को भी संभाले हुए थी. एक ट्रिप सामान मेटाडोर में भेज कर दूसरी ट्रिप की तैयारी कर सामान पैक कर के रख दिया. सोचा, सामान लोड करवा कर अस्पताल जाएगी, सागर को देख कर खाना पहुंचा देगी फिर लौट कर सामान सेट होता रहेगा. लेकिन तभी सागर खुद वहां आ पहुंचा.

‘अरे, तुम यहां. मैं तो यहां से फ्री हो कर तुम्हारे ही पास आ रही थी. लेकिन तुम आए कैसे? क्या डिस्चार्ज हो गए?’ ‘डिस्चार्ज नहीं हुआ पर जबरदस्ती आ गया हूं डिस्चार्ज हो कर.’ ‘क्यों, जबरदस्ती क्यों?’ ‘आप अकेली जो थीं. इतना सारा काम था और आप के साथ तो कोई नहीं है मदद के लिए…’ ‘खानाबदोश ज्ंिदगी ने आदी बना दिया है, सागर. ये काम तो ज्ंिदगी भर के हैं, क्योंकि कोई भी मकान मालिक एक या डेढ़ साल से ज्यादा रहने ही नहीं देता है.’

‘नहीं, ज्ंिदगी भर नहीं. अब आप को एक ही मकान में रहना होगा. बहुत हो गया यह बंजारा जीवन.’ ‘हां, सोच तो रही हूं… फ्लैट बुक कर लूंगी, साल के भीतर कहीं न कहीं.’ सागर खाली मकान में चुपचाप दीवार से टिका हुआ था. मीता को उस ने अपने पास बुलाया. मीता उस के करीब जा खड़ी हुई.

सागर पर एक अजीब सा जुनून सवार था. उस ने कहा, ‘मैं चाहता हूं कि इस घर से आप यों न जाएं, क्योंकि इस से हमारी बहुत सी यादें जुड़ी हैं.’ ‘तो कैसे जाऊं, तुम्हीं बता दो.’ ‘ऐेसे,’ सागर ने अपना पीछे वाला हाथ आगे किया और हाथ में रखे स्ंिदूर से मीता की मांग भर दी.

अचानक इस स्थिति के लिए तैयार न थी मीता. सागर की भावनाएं वह जानती थी…स्ंिदूर की लालिमा उस के लिए कालिख साबित हुई थी और अब सागर…उफ. निढाल हो गई वह. सागर ने संभाल लिया उसे. मीता की थरथराती और भरी आंखें छलकना चाह रही थीं.

ट्रेन की रफ्तार कम होने लगी थी. अतीत और भविष्य का अनोखा संगम है यह सफर. सागर और राजन. एक भविष्य एक अतीत. कल सागर से मिलूंगी तो पूछूंगी, क्यों न मिल गए थे 14 साल पहले. मिल जाते तो 14 सालों का बनवास तो न मिलता. ज्ंिदगी की बदरंग दीवारें अनारकली की तरह तो न चिनतीं मुझे.

मुसकरा उठी मीता. सागर से माफी मांग लूंगी दिल तोड़ कर जो आई थी उस का. सागर की याद आई तो उस की बोलती सी गहरी आंखें सामने आ गईं. 5 दिनों में 5 युगों का दर्द बसा होगा उन आंखों में.

टे्रन रुकी तो चायकौफी वालों की रेलपेल शुरू हो गई. मीता ने चाय पी और फिर कंबल ओढ़ कर लेट गई इस सपने के साथ कि सुबह 10 बजे जब टे्रन प्लेटफार्म पर रुकेगी…तो सागर उस के सामने होगा. नीलेश और यश उसे सरप्राइज देने आसपास कहीं छिपे होंगे.

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. सुबह भी हुई, मीता की आंखें भी खुलीं, उस ने प्लेटफार्म पर कदम भी रखा, पर वहां न सागर, न नीलेश और न यश. थोड़ी देर उस ने इंतजार भी किया, लेकिन दूरदूर तक किसी का कोई पता न था. रोंआसी और निराश मीता ने अपना सामान उठाया और बाहर निकल कर आटो पकड़ा. क्या ज्ंिदगी ने फिर मजाक के लिए चुन लिया है उसे?

पूरे शहर में होली का हुड़दंग था. इन रंगों का वह क्या करे जब इंद्रधनुष के सारे रंग न जाने कहां गुम हो गए थे.

बहुत भीड़ थी रास्ते में. घर के सामने आटो रुका तो घर पर ताला लगा था. वह परेशान हो गई. अचानक घर के ऊपर नजर गई तो वहां ‘टुलेट’ का बोर्ड लगा था. उसी आटो वाले को सागर के घर का पता बता कर वापस बैठी मीता. अनेक आशंकाओं से घिरा मन रोनेरोने को हो गया.

सागर के घर के आगे बड़ी चहलपहल थी. टैंट लगा था. सजावट, वह भी फूलों की झालर और लाइटिंग से…गार्डन के सारे पेड़ों पर बल्बों की झालरें लगी थीं… खाने और मिठाइयों की सुगंध चारों ओर बिखरी थी. आटो के रुकते ही लगभग दौड़ती बदहवास मीता भीतर की ओर दौड़ी. भीतर पहुंचने से पहले ही जड़ हो कर वह जहां थी वहीं खड़ी रह गई.

दरवाजे पर आरती का थाल लिए सागर की मां और सुहाग जोड़ा, मंगलसूत्र और लाल चूडि़यों से भरा थाल पकड़े सागर की छोटी बहन खड़ी थी. नीचे की सीढ़ी पर हाथ जोड़ कर स्वागत करता सागर का छोटा भाई मुसकरा रहा था. मीता ने देखा झकाझक सफेद कुरतापाजामा पहने, लाल टीका लगाए सागर उसी सोफे पर बैठा यश को तैयार कर रहा था जहां उस शाम दोनों की जिंदगी ने रुख बदला था.

रोहित मस्ती में झूमता मीता की ओर आने लगा… सागर ने मीता को देखते ही आवाज लगाई, ‘‘नीलेश बेटे.’’ ‘‘जी, पापा.’’ ‘‘जाओ, आटो से मम्मी का सामान उतारो और आटो वाले को पैसे भी दे दो.’’

‘जी, पापा.’’ नीलेश बाहर आने लगा तो सागर ने फिर आवाज दी, ‘‘और सुनो, आटो वाले को मिठाई जरूर देना…’’ ‘‘जी, पापा.’’

मीता बुत बनी सागर को एकटक देख रही थी. सागर की गहरी आंखें कह रही थीं…इंजीनियर जरूर आधा हूं लेकिन घर पूरा बनाना जानता हूं. है न? अब आओ न मीता…

चिराग कहां रोशनी कहां : भाग 3

सुधा को धरम की यह दलील अच्छी नहीं लगी थी, फिर भी वह चुप रह गई. सुधा के टैस्ट्स की रिपोर्ट आ गई थी. डाक्टर ने बताया कि सुधा के गर्भाशय में कुछ ऐसी बीमारी थी कि वह मां बनने में अक्षम है.’’

सुधा के चेहरे पर घोर निराशा छा गई. डाक्टर ने कहा, ‘‘आप को इतना निराश होने की जरूरत नहीं है. आप दोनों संतान के लिए आधुनिक तरीके अपना सकते हैं.’’

‘‘कौन सा तरीका डाक्टर?’’ सुधा ने जिज्ञासा जाहिर करते हुए कहा.

‘‘अगर आप के पति चाहें तो सैरोगेट मदर की मदद से आप बच्चा पा सकती हैं. आप के पति ने उस समय अपना टैस्ट नहीं कराया था. बस, आप के पति का एक टैस्ट करना होगा. उम्मीद है, नतीजा ठीक ही होगा. तब बच्चा किसी सैरोगेट मदर के गर्भ में पलेगा.’’

‘‘नहीं, मु झे यह तरीका ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘क्यों?’’ डाक्टर ने पूछा.

‘‘डाक्टर, अभी हम चलते हैं. बाद में ठीक से सोच कर फैसला लेंगे,’’ धरम ने कहा और दोनों डाक्टर के क्लिनिक से निकल पड़े.

रास्ते में धरम ने सुधा से पूछा, ‘‘आखिर सैरोगेट मदर से तुम्हें क्या परेशानी है?’’

‘‘आप का अंश किसी गैर औरत की कोख में पले, मु झ से बरदाश्त नहीं होगा?’’

‘‘यह क्या दकियानूसी की बात हुई. वह औरत हमारी मदद करेगी, हमें तो उस का कृतज्ञ होना चाहिए.’’

‘‘जो भी हो, मु झे तो वह सौतन लगेगी.’’

‘‘क्या पागलपन की बात कर रही हो? मेरा उस से कोई शारीरिक संबंध नहीं होगा.’’

‘‘फिर भी, मु झे मंजूर नहीं है.’’

‘‘तब दूसरा एकमात्र रास्ता है कि हम किसी बच्चे को गोद ले लें,’’ धरम ने थोड़ा नाराज होते हुए कहा.

‘‘हां, इस पर मैं सोच कर बता दूंगी.’’

इधर, जेम्स और इहा दोनों ने मिल कर चेन्नई में अपना एक लैब खोला था. यह लैब शहर में मशहूर हो गया था. कुछ महीने बाद सुधा और धरम दोनों ने एक बच्चा गोद लेने का फैसला लिया. धरम तो मन ही मन खुश था कि अब उसे अपने टैस्ट कराने की जरूरत नहीं रही. वे अनाथालय गए. धरम ने एक बच्चे को देखा और सुधा से पूछा, ‘‘यह ठीक रहेगा न?’’

‘‘मैं तो एक लड़की चाह रही थी.’’

‘‘ठीक है, तुम जैसा कहो वही होगा.’’

अंत में अनाथालय से एक बच्ची को अडौप्ट करने पर दोनों तैयार हुए. उस के लिए उन्होंने कानूनी प्रक्रिया शुरू कर अनुमति ले ली. उस बच्ची को घर लाने से पहले धरम ने उस का पूरा ब्लड टैस्ट कराने की इच्छा व्यक्त की तो सुधा ने पूछा, ‘‘इस बच्ची का इतने सारे टैस्ट क्यों कराना चाहते हो?’’

‘‘अकसर अनाथालय में लावारिस या नाजायज बच्चे आते हैं, किसी वेश्या का बच्चा भी हो सकता है जिस में बुरे रोग की आशंका होती है.’’

बच्ची का सैंपल जिस लैब में भेजा गया वह इहा की लैब थी. सुधा और धरम दोनों बच्ची की रिपोर्ट लेने लैब गए थे. उन्होंने रिसैप्शन पर बैठी महिला से कहा, ‘‘मु झे अपनी बच्ची के ब्लड टैस्ट की रिपोर्ट चाहिए.’’

‘‘प्लीज, बच्चे का नाम बताएं,’’ रिसैप्शनिस्ट ने पूछा.

‘‘आशा पाठक,’’ सुधा बोली.

‘‘मैम, आप को तो 2 बजे के बाद बुलाया गया था, अभी तो 12 बजे हैं. टैस्ट्स हो चुके हैं. रिपोर्ट भी तैयार है. इंचार्ज के पास सिग्नेचर के लिए भेजा हुआ है. कुछ समय लगेगा आने में. अभी वे अपने बेटे के साथ व्यस्त हैं.’’

‘‘क्या उन का बेटा भी यहीं काम करता है?’’

‘‘नो, वह तो 15-16 साल का होगा. उस ने स्कूल बोर्ड की परीक्षा में पूरे स्टेट में टौप किया है. उन का चैंबर सैकंड फ्लोर पर है.’’

‘‘आप इंचार्ज से मेरी बात कराएं. मैं उन्हें बधाई भी दे दूंगा और शायद वे साइन कर चुकी होंगी या जल्दी साइन कर दें. हम लोग काफी दूर से आए हैं.’’

रिसैप्शनिस्ट ने लैब इंचार्ज से फोन पर पूछा, ‘‘मैम, आशा पाठक की रिपोर्ट के लिए उस के पेरैंट्स आए हैं. अगर साइन हो गए हों, तो मैं आ कर ले लेती हूं?’’

‘‘नहीं, तुम्हें आने की जरूरत नहीं है. मैं ने अभीअभी साइन कर दिया है. खुद ले कर आती हूं. डैनी को घर भी ड्रौप कर दूंगी.’’

कुछ मिनटों बाद सीढि़यों से उतरती हुई इहा रिसैप्शन के पास आई. उस का बेटा डैनी भी साथ में था. उन्हें आते देख कर रिसैप्शनिस्ट बोली, ‘‘लीजिए, आप की रिपोर्ट ले कर खुद मैम आ गईं.’’

धरम ने इहा की ओर देखा तो वह आश्चर्य से देखता रहा. उस के पीछे उस का बेटा डैनी था, उसे देख कर सुधा को काफी ताज्जुब हुआ. डैनी की शक्ल धरम से मिलती थी. इहा को देख कर धरम बोला, ‘‘व्हाट ए सरप्राइज, तुम यहां?’’

‘‘हां, मेरा ही लैब है तो मैं यहां रहूंगी ही. इस में सरप्राइज की क्या बात है़’’

‘‘आप इन्हें जानते हैं?’’ सुधा ने धरम से पूछा.

‘‘हां, कभी हम साथ पढ़ते थे और अच्छे दोस्त भी थे.’’

डैनी का चेहरा अलबम में धरम की बचपन की तसवीर से हूबहू मिलता था, जिसे सुधा बारबार देख चुकी थी. उसे देख कर सुधा बोली, ‘‘इन के बच्चे का चेहरा तुम से काफी मिलता है.’’

‘‘यह मात्र संयोग है. कहा जाता है कि एक चेहरे जैसे दुनिया में कम से कम 2 इंसान होते हैं,’’ इहा ने कहा.

रिपोर्ट दे कर इहा ने बेटे से कहा, ‘‘चल, तेरे पापा इंतजार कर रहे होंगे.’’ और वह अपने बेटे के साथ चली गई.

उस के जाने के बाद सुधा ने रिसैप्शनिस्ट से पूछा, ‘‘क्या डैनी आप की मैम का सगा बेटा है?’’

‘‘हां, उन का अपना बेटा है. मेरी मां और इन की मौसी एक ही हौस्पिटल में नर्स थीं और अच्छी सहेली भी. डैनी बाबा की डिलीवरी मेरी मां ने ही कराई थी और यह भी कहा था कि इन के बौयफ्रैंड ने धोखा दिया था.’’

‘‘चलो, हमें अब देर हो रही है,’’ धरम ने कहा.

धरम और सुधा दोनों कार से जा रहे थे. सुधा के मन में रहरह कर रिसैप्शनिस्ट की बात याद आ रही थी, किसी ने इहा को चीट किया है, डैनी का चेहरा धरम से मिलना और धरम का अपने टैस्ट से इनकार करना. क्या सभी महज इत्तफाक ही है. उधर धरम भी मन में सोच रहा था, ‘डैनी मेरा बेटा होते हुए भी जेम्स का बेटा कहलाता है और उस का नाम रौशन कर रहा है. काश, मैं ने उसे अपनाया होता तो मु झे किसी अन्य बच्चे को गोद लेने की नौबत नहीं आती और डैनी आज मेरा नाम रौशन कर रहा होता.’

नो एंट्री- भाग 1 : ईशा क्यों पति से दूर होकर निशांत की तरफ आकर्षित हो रही थी

‘तुम्हीं मेरे हल पल में, तुम आज में तुम कल में …’

“हे शोना, हे शोना”, एफएम पर चल रहे गाने के साथ गुनगुनाती ईशा अपने विवाहित जीवन में काफी प्रसन्न थी. कॉलेज पूरा होते होते उसकी शादी हो गई. जैसे जीवनसाथी की उसने कल्पना की, मयूर ठीक वैसा ही निकला. देखने में आकर्षक कहना ठीक होगा. वैसे ईशा के मुकाबले मयूर उन्नीस ही था किंतु वह जानती थी कि लड़कों की सूरत से ज्यादा सीरत पररखना आवश्यक होता है. आखिर ताउम्र का साथ है. ईशा ने अपनी पूरी होशियारी दर्शाते हुए मयूर का चयन किया. ईशा जैसी खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तो की कमी न थी. कई परिवार के जरिए आए तो कई मजनू जिंदगी में वैसे भी टकराए. किंतु वह अपना जीवनसाथी उसी को चुनेगी जो उसके मापदंडों पर खरा उतरेगा. मयूर अपनी शराफत, प्यार करने की काबिलियत, और सच्चाई के कारण अव्वल आया. दो वर्ष पूर्व जब मयूर एक कजिन की शादी में उस से टकराया तब उसे पहली नजर में वह एक शांत, सुशील और विनम्र लड़का लगा. फोन नंबर एक्सचेंज होते ही कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेज कर मयूर ने ईशा का मन पिघला दिया. और उसने इस रिश्ते के लिए जल्दी ही हामी भर दी. चट मंगनी पट ब्याह कर ईशा, मयूर के घर आ गई.

तब से लेकर आज तक दोनों एक दूसरे के प्यार में डुबकियां लगाते आए हैं. प्रेम का सागर होता ही इतना मीठा है कि चाहे जितनी बार गोते लगा लो यह प्यास नहीं बुझती. शादी के पश्चात कई महीनों तक दोनों इसी प्यार की लहरों में डूबा उभरा करते, एक दूसरे की आगोश में खोए जिंदगी के हसीन पलों का आनंद लेते. एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाते हुए दोनों ने धीरे-धीरे अपनी ज़िंदगी को रोज़मर्रा की पटरी पर दौड़ने के लायक बना लिया. मयूर, एक प्राइवेट कंपनी में उच्च पदासीन, ईशा की हर चाह को जुबान पर आने से पहले ही पूरा कर दिया करता. ईशा पूरे आनंद के साथ घर संभालने लगी. विवाहित जीवन सुखमय था. इससे ज्यादा की कामना भी नहीं थी ईशा को.

 

“इस शनिवार को हमारी कंपनी ने फैमिली डे का आयोजन रखा है. मेरी कंपनी हर साल यह आयोजन करती है जिसमें सभी अपने परिवारों के साथ आते हैं. खूब धूम मचती है – तरह तरह के खेल खिलाए जाते हैं, खाना-पीना, नाचना-गाना. सब एक दूसरे के परिवार के सदस्यों से भी मिल लेते हैं. पिछली बार तुम अपने मायके गयी हुई थीं इसलिए अबकी बार तुम पहले-पहल सबसे मिलोगी.”

“अच्छा, फिर तो बहुत मजा आएगा. इसी बहाने मैं तुम्हारी कंपनी के सहकर्मियों व उनके परिवारों से मिलूंगी”, मयूर की बात सुन ईशा भी खुश हो गई.

शनिवार को मयूर की मनपसंद मोरिया नीले रंग की पटोला साड़ी में ईशा का गोरा रंग और भी निखर आया. उस पर सोने का हल्का सेट पहनने से मानो उसकी खूबसूरती में चार चांद लग गए. सलीके से किया हुआ  मेकअप और स्ट्रेटन किए हुए कमर तक लहराते केश. ईशा को लेकर जैसे ही मयूर पार्टी में दाखिल हुआ सब निगाहें उसकी ओर उठ गईं. जोड़ी वाकई काबिले तारीफ लग रही थी.

फैमिली डे पर कहीं कोई भेदभाव नहीं था. जैसे कंपनी के मैनेजमेंट वैसे ही कंपनी के कर्मचारी और उसी तरह कंपनी के वर्कर्स के साथ भी बर्ताव किया जा रहा था. सभी अपने-अपने परिवारों के साथ घुल मिल रहे थे. कुछ ही देर में नाच गाना शुरू हुआ. कंपनी में काम करने वाले कुछ वर्कर्स आए और मयूर को कंधों पर उठाकर डांस फ्लोर की ओर ले गए. यह दृश्य देखकर ईशा का मन बाग-बाग हो गया. अपने पति के प्रति उसके मातहतों का इतना प्यार देख कर उसे आज मयूर पर नाज हो उठा. आज फैमिली डे में आकर ईशा को ज्ञात हुआ कि मयूर अपने परिश्रमी स्वभाव के कारण अपनी कंपनी में कितना चहेता है.

तभी एक हैंडसम नवयुवक ईशा के पास की कुर्सी खींच कर बैठते हुए बोला, “हाय, मेरा नाम निशांत है. मैं मयूर का दोस्त हूं. आपकी शादी में भी आया था पर इतने लोगों के बीच शायद मुलाकात याद ना रही हो.”

ईशा उस मुलाक़ात को कैसे भूल सकती थी भला! उसे अपनी शादी का वो मंज़र याद हो आया जब मयूर के सभी दोस्त स्टेज पर आकर फोटो खिंचवा रहे थे. तब सभी मित्र दुल्हा-दुल्हन बने मयूर और ईशा को घेरकर आगे-पीछे खड़े होने लगे. इतने में निशांत हँसकर ईशा के पास आ गया, “हम तो अपनी दुल्हनिया के पास बैठेंगे”, और उसी के सोफ़े पर उससे चिपक कर बैठ गया. अपनी बाँह ईशा के गले में डालते हुए उसने फोटोग्राफर से कहा था, “अब खींच ले, भाई, हमारी फोटो.”

ईशा को निशांत का नाम तब ज्ञात नहीं था किन्तु उसे उसकी दिलेरी बहुत भा गई. वो स्वयं भी एक बिंदास लड़की होने के कारण निशांत द्वारा भरी सभा में खुलेआम की गई ये हरकत उसे आकर्षित कर गई. मयूर बेहद नियमानुसार चलने वाला लड़का था. हर बात घरवालों के कहे अनुसार करना, हर निर्णय लेने से पहले बड़ों से पूछना, छोटे से छोटे कानून का पालन करना. उसके साथ रहने पर ईशा भी एक सीधी-सादी लड़की की भाँति रहने लगी क्योंकि आखिर ये एक अरेंज मैरिज थी, और वो चाहती थी कि मयूर आरंभ से उससे प्रभावित हो जाए.

आज ईशा ने निशांत को यहाँ देखने की उम्मीद नहीं की थी किन्तु जब वो सामने आया तो वह अंजान बनी रही, “ठीक कह रहे हैं आप. शादी के समय जितने लोगों से मिलना जुलना होता है वह कहां याद रह पाता है.

“जी नहीं, मैं तो ऑपरेशंस में हूं. देखा आपने, मयूर को वर्कर्स कितना पसंद करते हैं. बहुत सीधा है. सब में घुल मिल जाता है.”

“जी”, ईशा के चेहरे की मुस्कुराहट थमने का नाम नहीं ले रही थी.

“डांस करना पसंद करेंगी?”, कहते हुए निशांत ने अपना सीधा हाथ आगे बढ़ाया. ईशा आगे कुछ सोच पाती उससे पहले निशांत बोला, “मयूर बुरा नहीं मानेगा, उसे वर्कर्स के साथ डांस करने में ज्यादा मजा आ रहा है.”

आज निशांत ने पुनः ईशा के समक्ष अपनी अपरंपरागत सोच दर्शाई. कुछ ना कहते हुए ईशा, निशांत के साथ डांस फ्लोर पर उतर गई. नाचते-नाचते निशांत कहने लगा, “कहां आप – इतनी स्मार्ट और आकर्षक, और कहां मयूर! मेरा मतलब है आपकी स्मार्टनेस के आगे मयूर थोड़ा भोंदू ही लगता है.”

ईशा के अचकचा कर देखने पर निशांत ने आगे कहा, “बुरा मत मानिएगा, मेरा दोस्त है इसलिए कह सकता हूं.”
मयूर के आने पर निशांत बोला, “हूर के साथ लंगूर कैसे?!”

पर उत्तर में मयूर केवल हँसता रहा. फिर सारी पार्टी में निशांत, ईशा के आसपास ही घूमता रहा, कभी उसके लिए रसमलाई लाता तो कभी कोक का गिलास. उसकी उपस्थिति में निशांत, मयूर की हँसी भी उड़ाता रहा, और मयूर सब कुछ सुनकर हँसता रहा.

“यह निशांत कैसा लड़का है?”

“बहुत अच्छा लड़का है. मेरा बहुत अच्छा दोस्त है. बहुत इंटेलिजेंट है. अपने डिपार्टमेंट का हीरा है.”

मयूर ने निशांत की प्रशंसा के पुल बांध दिए. “ठीक ही कह रहा था वह – मयूर वाकई भोंदू है जो यह नहीं समझता कि कौन उसका सच्चा दोस्त है और कौन नहीं”, ईशा सोच में पड़ गई. ईशा, निशांत की उससे फ़्लर्ट करने की कोशिश भली प्रकार समझ रही थी. निशांत की ये हरकतें ईशा को बुरी नहीं लगीं अपितु मन के किसी कोने में पुलकित कर गईं.

उसी हफ्ते एक दुपहरी ईशा को एक फोन आया. “सरप्राइस कर दिया न तुम्हें? देखा, कितना स्मार्ट हूं मैं, तुम्हारा नंबर निकाल लिया,” दूसरी ओर से निशांत की विजय से ओतप्रोत हँसी की आवाज़ आई.

परंतु ईशा इतनी जल्दी प्रभावित होने वाली कहाँ थी. अपने पीछे मजनुओं की पंक्तियों की उसे आदत थी. “कभी-कभी ज़्यादा स्मार्टनेस भारी पड़ जाती है. जनाब, अपना नाम तो बताइये”, ईशा ने पलटवार किया.

“सेव कर लो ये नंबर”, निशांत बोला, “निशांत बोल रहा हूँ, मैडम. मैंने तुम दोनों को अपने घर लंच पर बुलाने के लिए फोन किया है. मयूर को मैं ऑफिस में ही न्योता दे चुका हूं पर तुम्हें भी निजी तौर पर आमंत्रित करना चाहता था इसलिए फोन किया”, उसने अपनी बात पूरी की.

शाम को जब मयूर घर लौटा तो ईशा ने निशांत के फोन की बात बताई.

“हां, पता है. मुझसे ही तुम्हारा नंबर लिया था उसने”, मयूर ने लापरवाही से कहा.

“मेरा नंबर देने की क्या जरूरत थी? तुम्हें बुलाया, मुझे बुलाया, एक ही बात है”, ईशा इस सिलसिले में मयूर की  मानसिकता टटोलना चाहती थी.

“क्या फर्क पड़ता है… उसका मन था तुमसे बात करने का”, मयूर सरलता से कह गया. “इस रविवार दोपहर का लंच हम निशांत के साथ करेंगे. बहुत दूर नहीं है उसका घर.”

 

फ्लौपी: आखिर वह क्यों मां के लिए था आफत

प्रतिशोध: क्या नफरत भूलकर डा. मीता ने किया राणा का इलाज

आपरेशन थियेटर से निकल कर डा. मीता अपने केबिन में आईं. एप्रिन उतारने के बाद उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए पूछा, ‘‘रीना, क्या डा. दीपक का कोई फोन आया था?’’

‘‘जी, मैम, वह 2 बजे तक कानपुर से लौट आएंगे और लंच घर पर ही करेंगे,’’ इंटरकाम पर रिसेप्शनिस्ट रीना की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘ठीक है,’’ कह कर डा. मीता ने फोन रख दिया और घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 12 बजे थे. वह सोचने लगीं कि डा. दीपक के लौटने में अभी डेढ़ घंटे का समय है और इतनी देर में अस्पताल का एक राउंड लिया जा सकता है.

डा. मीता ने आज अकेले ही 3 आपरेशन किए थे, इसलिए कुछ थकावट महसूस कर रही थीं. तभी अटेंडेंट कौफी दे गया. वह कुरसी की पुश्त से टेक लगा कर कौफी की चुस्कियां लेने लगीं.

मीता और दीपक लखनऊ मेडिकल कालिज में सहपाठी थे. एम.एस. करने के बाद दोनों ने शादी कर ली थी. पहले उन्होंने अपना नर्सिंग होम लखनऊ में खोला था किंतु अचानक घटी एक दुर्घटना के कारण उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ गया था.

उस के बाद वे इलाहाबाद चले आए. उन की दिनरात की मेहनत के कारण 3 वर्षों में ही उन के नए नर्सिंग होम की शोहरत काफी बढ़ गई थी. डा. दीपक आज सुबह किसी जरूरी काम से कानपुर गए थे. आज के आपरेशन पूरा करने के बाद डा. मीता उन की प्रतीक्षा कर रही थीं.

अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा. उन्होंने अटेंडेंट को बुला कर पूछा, ‘‘यह शोर कैसा है?’’

‘‘जी…एक्सीडेंट का एक केस आया है और स्टाफ उन्हें भगा रहा है लेकिन वे लोग भाग नहीं रहे हैं,’’ अटेंडेंट ने हिचकते हुए बताया.

‘‘क्यों भगा रहे हैं? क्या तुम लोगों को पता नहीं कि हमारे नर्सिंग होम में छोटेबड़े सभी का इलाज बिना किसी भेदभाव के किया जाता है,’’ मीता का चेहरा तमतमा उठा. वह जानती थीं कि शहर के कई नर्सिंग होम तो ऐसे हैं जिन में गरीबों को घुसने भी नहीं दिया जाता है.

‘‘जी…वो…’’ अटेंडेंट हकला कर रह गया. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कहना चाह रहा है किंतु साहस नहीं जुटा पा रहा है.

‘‘यह क्या वो…वो…लगा रखी है,’’ डा. मीता ने अटेंडेंट को डांटा फिर पूछा, ‘‘घायल की हालत कैसी है?’’

‘‘खून काफी बह गया है और वह बेहोश है.’’

‘‘तो फौरन उसे आपरेशन थियेटर में ले चलो. मैं भी पहुंच रही हूं,’’

डा. मीता ने खड़े होते हुए आदेश दिया.

अटेंडेंट हक्काबक्का सा चंद पलों तक उन के चेहरे को देखता रहा फिर आंखें झुकाते हुए बोला, ‘‘जी, मैडम, वह विधायक उपदेश सिंह राणा हैं. नर्सिंग होम के पास ही उन की गाड़ी को एक ट्रक ने टक्कर मार दी है.’’

इतना सुनने के बाद डा. मीता को लगा जैसे कोई ज्वालामुखी फट पड़ा हो और पूरी सृष्टि हिल गई हो. वह धम्म से कुरसी पर गिर पड़ीं. अगर उन्होंने कुरसी के दोनों हत्थों को मजबूती से थाम न लिया होता तो शायद चकरा कर नीचे गिर पड़ती होतीं. उन के दिमाग पर हथौड़े बरसने लगे और सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी. अटेंडेंट उन की मनोदशा को समझ गया था अत: चुपचाप वहां से खिसक गया.

लगभग साढ़े 3 वर्ष पहले की बात है. उस दिन भी डा. मीता अपने पुराने नर्सिंग होम में अकेली थीं. तभी कुछ लोग गोली से बुरी तरह घायल एक व्यक्ति को ले कर आए. उस की गोली निकालने के लिए वह आपरेशन थियेटर में अभी जा ही रही थीं कि फोन की घंटी बज उठी :

‘डा. साहिबा, मैं उपदेश सिंह राणा बोल रहा हूं,’ फोन पर आवाज आई.

‘जी, कहिए,’ डा. मीता अचकचा उठीं.

उपदेश सिंह राणा शहर का आतंक था. छोटेबड़े सभी उस के नाम से थर्राते थे. उस का भला उन से क्या काम?

‘डा. साहिबा, वह मेरी गोली से तो बच गया है लेकिन आप के आपरेशन थियेटर से जिंदा वापस नहीं आना चाहिए,’ उपदेश सिंह राणा ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘मैं एक डाक्टर हूं और डाक्टर के हाथ लोगों की जान बचाने के लिए उठते हैं, लेने के लिए नहीं,’ डा. मीता ने स्पष्ट इनकार कर दिया.

‘मैं आप के हाथों को बहकने की कीमत देने के लिए तैयार हूं. आप मुंह खोलिए,’ राणा ने हलका सा कहकहा लगाया.

‘आप अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हैं,’ राणा का प्रस्ताव सुन डा. मीता का मन कसैला हो उठा.

‘डा. साहिबा, कुछ करने से पहले सोच लीजिएगा कि मैं महिलाओं को सिर्फ उपदेश ही नहीं देता बल्कि…’ इतना कहतेकहते राणा क्षण भर के लिए रुका फिर खतरनाक अंदाज में बोला, ‘अगर आप ने मेरे शिकार को बचाने की कोशिश की तो फिर आप का कुछ भी नहीं बच पाएगा.’

डा. मीता ने बिना कुछ कहे फोन रख दिया और आपरेशन थियेटर में घुस गईं. उस व्यक्ति की हालत बहुत खराब थी. 3 गोलियां उस की पसलियों में घुस गई थीं. 2 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह गोलियां निकाल पाई थीं. अब उस की जान को कोई खतरा नहीं था.

किंतु राणा ने अपनी धमकी को सच कर दिखाया. 2 दिन बाद ही उस ने डा. मीता का अपहरण कर उन की इज्जत लूट ली. दीपक ने बहुत भागदौड़ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. राणा गिरफ्तार हुआ किंतु 3 दिन बाद ही जमानत पर छूट गया. उस के आतंक के कारण कोई भी उस के खिलाफ गवाही देने के लिए तैयार नहीं हुआ था.

इस घटना ने डा. मीता को तोड़ कर रख दिया था. वह एक जिंदा लाश बन कर रह गई थीं. हमेशा बुत सी खामोश रहतीं. जागतीं तो भयानक साए उन्हें अपने आसपास मंडराते नजर आते. सोतीं तो स्वप्न में हजारों गिद्ध उन के शरीर को नोंचने लगते. उन की मानसिक हालत बिगड़ती जा रही थी.

मनोचिकित्सकों की सलाह पर दीपक ने वह शहर छोड़ दिया था. नए शहर के नए माहौल ने मरहम का काम किया. अतीत की यादों को करीब आने का मौका न मिल सके, इसलिए डा. दीपक अपने साथ

डा. मीता को भी मरीजों की सेवा में व्यस्त रखते. धीरेधीरे जीवन की गाड़ी एक बार फिर पटरी पर दौड़ने लगी थी. दोनों की मेहनत और लगन से इन चंद वर्षों में ही उन के नर्सिंग होम का काफी नाम हो गया था.

इन चंद वर्षों में और भी बहुत कुछ बदल चुका था. अपने आतंक और बूथ कैप्चरिंग के दम पर शहर का दुर्दांत गुंडा उपदेश सिंह राणा दबंग विधायक बन चुका था. अब इसे समय का क्रूर मजाक ही कहा जाए कि डा. मीता की जिंदगी बरबाद करने वाले दरिंदे उपदेश सिंह राणा की जिंदगी बचाने के लिए लोग आज उसे उन की ही शरण में ले आए थे.

डा. मीता की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंध गए जब वह गिड़गिड़ाते हुए उस शैतान से दया की भीख मांग रही थी और वह हैवानियत का नंगा नाच नाच रहा था. वह अपने डाक्टरी पेशे की मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा की दुहाई दे रही थीं और वह उन की इज्जत की चादर को तारतार किए दे रहा था. वह रोती रहीं, बिलखती रहीं, तड़पती रहीं पर उस नरपिशाच ने उन की अंतर आत्मा तक को अंगारों से दाग दिया था.

सोचतेसोचते डा. मीता के जबड़े भिंच गए और आंखों से चिंगारियां फूटने लगीं. बाहर बढ़ रहे शोर के कारण उन की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी. क्रोध की अधिकता के चलते वह हांफने सी लगीं. व्याकुलता जब बरदाश्त से बाहर हो गई तो उन्होंने सामने रखा पेपरवेट उठा कर दीवार पर दे मारा. पर न तो पेपरवेट टूटा और न ही दीवार टस से मस हुई.

पेपरवेट फर्श पर गिर कर गोलगोल घूमने लगा. डा. मीता की दृष्टि उस पर ठहर सी गई. पेपरवेट के स्थिर होने पर उन्होंने अपनी दृष्टि ऊपर उठाई. उन में दृढ़ता के चिह्न छाए हुए थे. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कर गुजरने का फैसला कर चुकी हैं.

इंटरकाम का बटन दबाते हुए डा. मीता ने पूछा, ‘‘रीना, घायल को आपरेशन थियेटर में पहुंचा दिया गया है या नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘जी…वो…दरअसल…स्टाफ कह… रहा है…कि…’’ रिसेप्शनिस्ट झिझक के कारण अपनी बात कह नहीं पा रही थी.

‘‘तुम लोग सिर्फ वह करो जो कहा जा रहा है. बाकी क्या करना है, मैं जानती हूं,’’ डा. मीता ने सर्द स्वर में आदेश दिया और आपरेशन थियेटर की ओर चल दीं.

अचानक उन्हें कुछ याद आया. वापस लौट कर उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए कहा, ‘‘रीना, मैं उस आदमी का चेहरा नहीं देख सकती. नर्स से कहो कि आपरेशन टेबल पर पहुंचाने से पहले उस का मुंह किसी कपड़े से बांध दे या ठीक से ढंक दे.’’

इतना कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए डा. मीता तेजी से आपरेशन थियेटर की ओर चली गईं. घायल के भीतर जाते ही आपरेशन थियेटर का दरवाजा बंद हो गया और उस पर लगा लाल बल्ब जल उठा.

टिक…टिक…टिक…की ध्वनि के साथ घड़ी की सूइयां आगे बढ़ती जा रही थीं. इसी के साथ आपरेशन कक्ष के बाहर खड़े स्टाफ के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. आपरेशन कक्ष के दरवाजे को बंद हुए 2 घंटे से अधिक समय बीत चुका था. भीतर डा. मीता क्या कर रही होंगी इस का अंदाजा होते हुए भी कोई सचाई को अपने होंठों तक नहीं लाना चाहता था.

डा. दीपक 3 बजे लौट आए. भीतर घुसते ही उन्होंने एक वार्ड बौय से पूछा, ‘‘डा. मीता कहां हैं?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उन्होंने एक घायल का आपरेशन किया था. उस के बाद…’’ वार्ड बौय कुछ कहतेकहते रुक गया.

‘‘उस के बाद क्या?’’

‘‘उस के बाद वह उसे अपना खून दे रही हैं, क्योंकि उस का ब्लड गु्रप ‘ओ निगेटिव’ है और वह कहीं मिल नहीं सका,’’ वार्ड बौय ने हिचकिचाते हुए बताया.

‘‘ऐसा कौन सा खास मरीज आ गया है जिसे डा. मीता को खुद अपना खून देने की जरूरत आ पड़ी?’’

डा. दीपक ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी…विधायक उपदेश सिंह राणा हैं.’’

‘‘तुझे होश भी है कि तू क्या कह रहा है?’’ वार्ड बौय का गिरेबान पकड़ डा. दीपक चीख पड़े.

‘‘सर, हम लोग उसे नर्सिंग होम से भगा रहे थे लेकिन मैडम ने जबरन बुला कर उस का आपरेशन किया और अब उसे अपना खून भी दे रही हैं,’’ तब तक  वहां जमा हो चुके कर्मचारियों में से एक ने हिम्मत कर के बताया.

डा. दीपक ने उसे घूर कर देखा फिर बिना कुछ कहे अपने केबिन की ओर चले गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मीता ने ऐसा क्यों किया. क्या किसी ने मीता को इस के लिए मजबूर किया था या कोई और कारण था? सोचतेसोचते डा. दीपक के दिमाग की नसें फटने लगीं लेकिन वह अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज सके.

थोड़ी देर बाद डा. मीता ने वहां प्रवेश किया. उन का चेहरा पत्थर की भांति भावनाशून्य था. डा. दीपक ने आगे बढ़ उन की बांह थाम कांपते स्वर में पूछा, ‘‘मीता…तुम ने… उस की जान क्यों बचाई?’’

‘‘हम लोग डाक्टर हैं. हमारा काम ही लोगों की जान बचाना है,’’ डा. मीता के होंठों ने स्पंदन किया.

डा. दीपक ने पत्नी की बांहों को छोड़ चंद पलों तक उस के चेहरे की ओर देखा फिर मुट्ठियां भींचते हुए बोले, ‘‘लेकिन क्या उस का आपरेशन करते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे थे?’’

‘‘अगर हाथ कांप जाते तो हम में और सामान्य लोगों में क्या फर्क रह जाता,’’ डा. मीता ने धीमे स्वर में कहा. उन का चेहरा पूर्ववत भावनाशून्य था.

‘‘हम इनसान हैं मीता, इनसान,’’ डा. दीपक तड़प उठे.

‘‘मैं ने इनसानियत का ही फर्ज निभाया है,’’ डा. मीता के होंठ यंत्रवत हिले.

‘‘फर्ज निभाने का शौक था तो निभा लेतीं, महानता की चादर ओढ़ने का शौक था तो ओढ़ लेतीं, लेकिन अपना खून चूसने वाले को अपना खून तो न देतीं,’’

डा. दीपक मेज पर घूंसा मारते हुए चीख पड़े.

डा. मीता ने कोई उत्तर नहीं दिया.

दीपक ने आगे बढ़ कर उन के चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया और उन की आंखों में झांकते हुए बोले, ‘‘मीता, प्लीज, मुझे बताओ ऐसी क्या मजबूरी थी जो तुम ने उस दरिंदे की जान बचाई? क्या किसी ने तुम्हें फिर धमकी दी थी?’’

डा. मीता ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था  मानो वह सप्रयास अपने को कुछ कहने से रोक रही हैं.

‘‘मैडम, उस मरीज को होश आ गया,’’ तभी एक नर्स ने वहां आ कर बताया.

डा. मीता के भीतर जैसे कोई शक्ति समा गई हो. दीपक को परे धकेल वह आंधीतूफान की तरह भागते हुए वार्ड की ओर दौड़ पड़ीं. भौचक्के से डा. दीपक अपने को संभालते हुए पीछेपीछे दौड़े.

उपदेश सिंह राणा को अब तक उन के पास खड़े पुलिस वालों ने बता दिया था कि जिस लेडी डाक्टर ने उन का आपरेशन किया था उसी ने उन्हें अपना खून भी दिया है क्योंकि उन के गु्रप का खून किसी ब्लड बैंक में उपलब्ध न था.

‘‘वह महान डाक्टर कौन हैं. मैं उन के दर्शन करना चाहता हूं,’’ राणा ने कराहते हुए कहा.

‘‘लो, वह आ गईं,’’ एक पुलिस वाले ने वार्ड के भीतर आ रही डा. मीता की ओर इशारा किया.

उन पर दृष्टि पड़ते ही राणा को ऐसा झटका लगा जैसे किसी को करंट लग गया हो. घबरा कर उस ने उठना चाहा लेकिन कमजोरी के कारण हिल भी न सका.

‘‘इन्होंने ही आप की जान बचाई है. जीवन भर इन के चरण धो कर पीजिएगा तब भी आप इस ऋण से उऋण नहीं हो सकेंगे,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बताया.

पल भर के लिए राणा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ किंतु सत्य अपने पूरे वजूद के साथ सामने उपस्थित था. राणा की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंधने लगे जब रोती हुई

डा. मीता हाथ जोड़जोड़ कर विनती कर रही थीं कि उन्होंने सिर्फ एक डाक्टर के फर्ज का पालन किया है किंतु वह उन की एक नहीं सुन रहा था.

आज एक बार फिर उन्होंने सबकुछ भुला कर एक डाक्टर के फर्ज को पूरा किया है. तभी उस की सासें शेष बच पाई हैं.  राणा के भीतर उन से आंख मिलाने का साहस नहीं बचा था. उन के विराट व्यक्तित्व के आगे वह अपने को बहुत छोटा महसूस कर रहा था.

बहुत मुश्किल से अपनी पूरी शक्ति को बटोर कर राणा, ने अपने हाथों को जोड़ा और कांपते स्वर में बोला, ‘‘डाक्टर साहिबा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘माफ और तुम्हें,’’ डा. मीता दांत भींचते हुए चीख पड़ीं, ‘‘राणा, तुम ने मेरे साथ जो किया था उस के बाद मैं तो क्या दुनिया की कोई भी औरत मरते दम तक तुम्हें माफ नहीं कर सकती.’’

चीख सुन कर पूरे वार्ड में सन्नाटा छा गया. किसी में भी उसे भंग करने का साहस न था. अपनी ओर डा. मीता को आता देख कर राणा ने एक बार फिर अपनी बिखरती हुई सांसों को बटोरा और लड़खड़ाते स्वर में बोला, ‘‘आप ने जो एहसान किया है मैं उसे कभी…’’

‘‘मैं ने कोई एहसान नहीं किया है तुम पर,’’ डा. मीता राणा की बात को बीच में काट कर फिर चीख पड़ीं, ‘‘तुम क्या समझते हो अपनेआप को? सर्वशक्तिमान? जो जिस की जिंदगी से जब चाहे खेल लेगा? तुम ने मेरी जिंदगी से खेला था, आज मैं ने तुम्हारी जिंदगी से खेला है. मेरे जिस खून को तुम ने अपवित्र किया था आज वही खून तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है. तुम चाह कर भी उसे अपने शरीर से अलग नहीं कर सकते. जब तक जीवित रहोगे यह एहसास तुम्हें कचोटता रहेगा कि तुम्हारी जिंदगी मेरी दी हुई भीख है.

‘‘कमजोर समझ कर जिस नारी के चंद पलों को तुम ने रौंदा था उस के रक्त के चंद कतरे अब हर पल तुम्हारे स्वाभिमान को रौंदते रहेंगे. तुम्हारा रोमरोम तुम्हारे गुनाहों के लिए तुम्हें धिक्कारेगा लेकिन तुम्हें दया की भीख नहीं मिलेगी. जब तक जीवित रहोगे, राणा, तुम प्रायश्चित की आग में जलते रहोगे लेकिन तुम्हें शांति नहीं मिलेगी. यही मेरा प्रतिशोध है.’’

डा. मीता के मुंह से निकला एकएक शब्द गोली की तरह राणा के दिल और दिमाग को छेदे जा रहा था. गुनाहों के बोझ तले दबी उस की अंतर आत्मा में कुछ कहने की शक्ति नहीं बची थी. उस की कायरता बेबसी बन उस की आंखों से छलक पड़ी.

राणा के आंसुओं ने अग्निकुंड में घी का काम किया. डा. मीता गरजते हुए बोलीं, ‘‘इस से पहले कि मेरे अंदर की नारी, डाक्टर को पीछे ढकेल कर सामने आ जाए और मैं तुम्हारा खून कर दूं, दूर हो जाओ मेरी नजरों से. चले जाओ यहां से.’’

हतप्रभ डा. दीपक अब तक चुपचाप खड़े थे. उन्होंने पुलिस वालों को इशारा किया तो वे राणा के बेड को धकेलते हुए बाहर ले जाने लगे.

डा. मीता हिचकियां भरती हुई पूरी शक्ति से डा. दीपक के चौड़े सीने से लिपट गईं. उन्होंने उन्हें अपनी बांहों में यों संभाल लिया जैसे किसी वृक्ष की शाखाएं नन्हे घोंसले को संभाल लेती हैं.

अब आओ न मीता- भाग 3: क्या सागर का प्यार अपना पाई मीता

दिनोंदिन घर का सूनापन भरने लगा था. मीता ने इस बदलाव पर आशा दी को पत्र लिखा. तुरंत उन का जवाब आया, ‘शायद कुदरत अपनी गलती पर पछता रही हो…मीता, जो होगा, अच्छा होगा.’

सागर के रूप में उसे अपना एक हमदर्द मिला तो जीवन जीना सहज होने लगा, फिर भी हर वक्त एक आशंका और डर छाया रहता…सब कुछ वक्त के हवाले कर के आंखें मूंद ली थीं मीता ने.

‘‘आंटी, आप का पर्स नीचे गिरा है बहुत देर से,’’ आवाज से स्मृतियों की यात्रा में पड़ाव आ गया. सामने की सीट पर बैठी एक युवती मीता को जगा रही थी. उसे लगा मीता सो रही है. मीता ने पर्स उठाया और उसे थैंक्यू बोला.

कितनी अजीब होती हैं सफर की स्थितियां. या तो हम अतीत में होते हैं या भविष्य में. गाड़ी के  पहिए आगे बढ़ते और यादें पीछे लौटती हैं. पीछे छूटे लोगों की गंध और चेहरे साथ चलते महसूस होते हैं.

चलते वक्त आशा दी की आंखें रोरो कर लाल हो गई थीं. फिर किसी तरह स्वयं को संयत कर बोली थीं, ‘आज पहली बार लग रहा है मीता कि मैं अपनी बहन नहीं, बेटी को बिदा कर रही हूं. अब जब आएगी तो अपने परिवार के संग आएगी…तेरा सुख देखने को आंखें तरस गईं, मीता. सागर तो फरिश्ता बन कर आया है मेरे लिए वरना राजन ने तो…’

‘छोड़ो न आशा दी… मत याद करो वह सब. मत दिल दुखाओ.’ मीता रो उठी. दोनों बहनें एकदूसरे के गले लग कर बहुत देर तक रोती रहीं.

‘आशा दी, आप एक बार आ कर सागर से मिलो तो. अब कुछ पा कर भी खो देने का डर बारबार मन में समा जाता है. अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं रहा अब.’

‘पगली, ज्ंिदगी में सच्ची चाहत सब को नसीब नहीं होती. चाहत की, चाहने वाले की कद्र करनी चाहिए. उम्र के फासले को भूल जा, क्योंकि  प्यार उम्र को नहीं दिल को जानता है…सच के सामने सिर झुका दे मेरी बहन…नीलेश और यश के लिए भी सागर से बेहतर और कोई नहीं हो सकता.’

सागर को डाक्टर के पास चेकअप के लिए ले जाना था. मीता फैक्टरी से सीधी सागर के घर चली आई. आज फिर घर में अंधेरा था…भीतर वाले कमरे में सागर सोफे पर लेटे थे. टेप रिकार्डर आन था :

‘तुझ बिन जोगन मेरी रातें, तुझ बिन मेरे दिन बंजारे…’ अंधेरे में गूंजता अकेलापन मीता की बरदाश्त से बाहर था. लाइट आन की तो सागर की पलकों की कोरें गीली थीं. मीता को देखा तो उठ कर बैठ गए.

‘यह गाना क्यों सुन रहे हो?’ ‘हमेशा यही तो सुनता रहा हूं.’ ‘जो चीज रुलाए उसे दूर कर देना चाहिए कि उसे और गले लगा कर रोना चाहिए?’ ‘लेकिन जो चीज आंसू के साथ शांति भी दे उस के लिए क्या करे कोई?’

‘क्या मतलब?’ ‘अच्छा छोडि़ए, डाक्टर के यहां चलना है न? मैं तैयार होता हूं…’ ‘नहीं, पहले बात पूरी कीजिए.’ ‘पिछले 3 सालों से…’ सागर की गहरी आंखें मीता पर टिकी थीं.

‘आगे बोलिए.’ ‘मुझे आप के आकर्षण ने बांध रखा है… मैं ने पागलों की तरह आप के बारे में सोचा है. आप के अतीत को जान कर, आप के संघर्ष, आप के ज्ंिदगी जीने के अंदाज को मन ही मन सराहा है. पिछले 3 सालों का हर पल आप के पास आने की ख्वाहिश में बीता है…ये गीत मेरे दर्द का हिस्सा हैं…’

‘यह जानते हुए भी कि मैं उम्र में आप से बड़ी, 2 बच्चों की मां और एक शादीशुदा औरत हूं. मेरी शादी सफल नहीं हो पाई. मैं ने अकेले ही अपने बच्चों के भविष्य को संभाला है और किसी सहारे की दूरदूर तक गुंजाइश नहीं मेरे जीवन में. अपने बच्चों की नजरों में मैं अपना सम्मान नहीं खोना चाहती. हमारे बीच जो कुछ भी है, वह जो कुछ भी हो पर प्यार नहीं हो सकता.’

‘मैं ने कब कहा कि आप की चाहत चाहिए मुझे…प्यार का बदला प्यार ही हो यह जरूरी नहीं…यश, नीलेश और आप का साथ जो मुझे अपनी बीमारी के दौरान मिला, उस ने मेरा जीवन बदल दिया है. आप मेरे करीब, मेरे सामने हों. मैं जी लूंगा इसी सहारे से.’

‘मेरे साथ आप का कोई भविष्य नहीं. आप की ज्ंिदगी में अच्छी से अच्छी लड़कियां आ सकती हैं. अपना घर बसाइए…मेरी ज्ंिदगी जैसे चल रही है चलने दीजिए, सागर. ओह, सौरी.’

‘नहीं, सौरी नहीं. आप ने मेरा नाम लिया. इस के लिए शुक्रिया.’

फिर सागर तैयार होने भीतर चला गया और मीता वहीं सोफे पर बैठी कुछ सोचती रही.

सागर को सिविल इंजीनियर बनाना चाहते थे उस के डाक्टर पापा. असमय ही सिर से पिता का साया क्या उठा सागर रातोंरात बड़प्पन की चादर ओढ़ घर का बड़ा और जिम्मेदार सदस्य हो गया. 2-3 साल तक इंजीनियरिंग की डिगरी का इंतजार, फिर नौकरी की तलाश करना उस के लिए नामुमकिन था, इसलिए अपनी मंजिल को गुमनामी में धकेल कर सब से पहले फाइनल में पढ़ रही छोटी बहन सोनल के हाथ पीले किए उस ने…पापा के अधूरे कामों को पूरा करने का बीड़ा उठाया था सागर ने. सारी जमीनजायदाद का हिसाब कर के सारा पैसा बैंक में जमा कर रोहित का मेडिकल में एडमीशन करा कर वह यहां आ गया. मां को सारा उत्तरदायित्व सौंप कर वह निश्ंिचत था. अपने लिए कुछ सोचना उस की फितरत में न था. बहन अपने घर में खुश थी राहुल का कैरियर बनना निश्चित था. मां को आर्थिक सुरक्षा दे वह अकेला हो कर ज्ंिदगी जीने लगा.

बिल्ंिडग, पुल और सड़क बनाने वाली आंखें यहां शर्ट बनते देखने लगी थीं. मशीनों के शोर में वह सबकुछ भूल जाना चाहता था. कपड़ों की कतरनों में उसे अपने ध्वस्त सपनों के अक्स नजर आते. किनारे पर आ कर जहाज डूबा था उस का… बड़ा जानलेवा दर्द होता है किनारे पर डूबने का…

फिर यहां मीता को देखा. उस की समझौते भरी ज्ंिदगी का हश्र देखा तो ठगा सा रह गया वह. एक अकेली औरत का साहस देख कर कायल हो गया उस का मन. उस की प्रतिभा, शिक्षा और संस्कार का एहसास हर मिलने वाले को पहली नजर में ही हो जाता. दूसरों के मन को समझने वाली पारखी नजर मीता की विशेषता थी, न होती तो सागर के भीतर बसा खालीपन वह कैसे महसूस कर पाती भला?

मीता अपनी सीमा जानती थी. उस ने सबकुछ वक्त और हालात पर छोड़ दिया था. लेकिन मीता जानने लगी थी, सागर वह नहीं है जो नजर आता है, कई बार उस की गहरी आंखें कुछ सोचने पर विवश कर देतीं मीता को. मीता झटक देती जल्दी से अपना सिर…नहीं, उसे यह सब सोचने का हक नहीं. पर सिर झटकने से क्या सबकुछ छिटक जाता है. इनसान अकेलापन तो बरदाश्त कर लेता है लेकिन भीड़ के बीच अकेलापन बहुत भारी होता है.

पहले कम से कम उस का जीवन एक ढर्रे पर तो था. अपने बारे में उस ने सोचना ही बंद कर दिया था. लेकिन सागर का साथ पा कर कमजोर होने लगी थी वह. दूसरी ओर एक जिम्मेदार मां है वह…यह भी नहीं भूलती थी. अनिश्चय के झूले में झूल रही थी मीता. भावनाओं का चक्रवात उसे निगलने को आतुर था.

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