अपना सा कोई: क्या बीमारी थी अंकित को?

Serial Story: अपना सा कोई (भाग-3)

नीचे के फ्लोर पर ही उन्हें कमरा दिलवाया और दरवाजा खोलती हुई बोली,”आ जाओ साहब. आज की रात यही आशियाना है तुम्हारा.”

थैंक्स कह कर अंकित ने दरवाजा बंद करना चाहा तो वह दरवाजे के बीच में आ गई.

“इतनी जल्दी पीछा छुड़ाना चाहते हो हम से मेरी जान?” लड़की की आंखों में कुटिलता और वासना की लपटें जल उठीं.

वह जबरन अंकित से सटती हुई बोली,”दिल चीज क्या है आप हमारी जान लीजिए…. हुजूर जो चाहे ले लो यह कनीज अब तुम्हारी है.”

“यह क्या कह रही हो?” घबड़ाता हुआ अंकित बोला.

मयंक भी अचरज से उस लड़की की तरफ देख रहा था. लड़की अब बेशर्मी पर उतर आई थी.

बिस्तर पर बैठती हुई बोली,” तुम्हारी जिंदगी की यह रात रंगीन कर दूंगी. तुम बस इशारा करो.”

अब तक अंकित और मयंक अच्छी तरह समझ गए थे कि यह किस तरह की लड़की है और वे इस होटल में आ कर बुरी तरह फंस गए हैं. मयंक बाथरूम की तरफ चला गया और इधर लड़की अंकित पर डोरे डालती रही. अंकित घबरा कर पीछे हट रहा था और लड़की उस के करीब आने का प्रयास करती रही.

अंकित तैयार नहीं हुआ तो वह अपनी अदाएं बिखेरती हुई बोली,”किस बात से डर रहे हो हुजूर? इस उम्र में जवां, खूबसूरत शरीर की जरूरत नहीं या जेब ढीली करना नहीं चाहते हो? चलो ज्यादा नहीं केवल ₹1 लाख दे देना. उतनी रकम तो होगी ही न. भारत दर्शन पर निकले हो.”

अंकित ने उसे परे करते हुए कहा,”नहीं बहनजी हमारे पास रुपए नहीं हैं.”

“ओए लड़के, बहन किस को बोला? मैं बहन नहीं तेरी. चल ₹1 लाख नहीं है तो अपनी यह घड़ी, अपनी यह सोने की चेन और अंगूठी दे देना. चल नखरे मत कर. शुरू हो जा. जी ले अपनी जिंदगी मेरे साथ आज की रात.”

अंकित सिकुड़ कर बैठता हुआ बोला,” सुनो, आप गगलतफहमी में हो. मेरा दोस्त बीमार है. इलाज के लिए आया हूं मैं.”

“देख चिकने, बहाने मत बना. तू ऐसे तैयार नहीं होगा तो यह शालू तुझे लूट लेगी,” कहते हुए उस लड़की यानी शालू ने बंदूक निकाल ली.

तभी मयंक सामने आ गया और बोला,”हम तो कब के लुट गए हैं शालू, बस तुम्हारी नजरों में अपना चेहरा ही ढूंढ़ रहे हैं. ”

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मयंक ने शालू के करीब आ कर कहा तो अंकित आंखें फाड़ कर उस की तरफ देखने लगा.

“देख शालू, मेरी जिंदगी के बस आखिरी 2-4 महीने ही बचे हैं. मैं अपनी जिंदगी के बचे हुए इन थोड़े से दिनों में जीवन की सारी खुशियां पा लेना चाहता हूं. मैं 35 साल का हूं पर तू यकीन नहीं करेगी, आज तक मेरी न कोई गर्लफ्रैंड है न बीवी. अतृप्त ही रह जाता अगर तू न मिलती. जल जाना चाहता हूं आज. आ जला दे मुझे…”

शालू शराबी निगाहों से उस की तरफ देखती हुई बोली,”क्या सचमुच तू मुझे अब पाना चाहता है?”

“हां पर एक धंधेवाली की तरह नहीं, एक प्रेमिका की तरह मेरी बांहों में समा जा. मरने से पहले एक बार अपने प्यार से तृप्त कर दे मुझे,” मयंक ने शालू को अपनी तरफ खींचा और आगोश में भर कर बाथरूम की तरफ ले गया.

बाथरूम में शौवर के नीचे खड़ा करता हुए बोला,”आज मैं भीग जाना चाहता हूं तुम्हारे साथ,” कहते हुए उस ने शौवर चला दिया और शालू पूरी तरह भीग गई. मयंक ने अचानक अपने होंठ उस के भीगे होंठों पर रख दिए. शालू की सांसें तेज हो गई थीं. वह पूरी तरह मयंक की गिरफ्त में थी.

मयंक ने उसी के दुपट्टे से उस की आंखें बांधते हुए कहा,” बस अब देखो मत. महसूस करो मुझे. मैं तुम्हारी रूह में उतर जाना चाहता हूं. ”

कहते हुए मयंक ने उस की बांहें थामी और उसे पीछे की तरफ करता हुआ खुद बाथरूम से बाहर आ गया और जल्दी से दरवाजा बंद कर दिया. शालू को बात समझ में आई तो वह दरवाजा पीटने लगी. तब तक मयंक और अंकित तेजी से होटल से बाहर निकल आए. जल्दी से कार स्टार्ट की और रफूचक्कर हो गए. वहां से काफी दूर आने के बाद उन की जान में जान आई.

अंकित हंसता हुआ बोला,”यार तू इतना रोमांटिक है, यह तो मुझे पता ही नहीं था.”

“और तू इतना शरमीला है यह भी कहां पता था मुझे,” मयंक ने कहा तो दोनों दोस्त ठहाके लगा कर हंसने लगे. काफी आगे जा कर उन्हें एक सलीके का होटल मिला तो दोनों वहीं ठहर गए.

आगे भी पूरे सफर में तबीयत खराब होने के बावजूद मयंक अपने मन की करता रहा. वह जिंदगी की हर खुशी अपने दामन में भर लेना चाहता था. कभी पहाड़ों पर चढ़ने की जिद करता तो कभी सागर में गोते लगाना चाहता. कभी हैलीकोप्टर में बैठ कर दुनिया देखने की डिमांड करता तो कभी स्ट्रीट फूड्स खाने को मचल उठता. अंकित उसे ऐसे कामों के लिए मना करता रह जाता और अमन अपने मन की कर गुजरता.

इसी दौरान एक दिन अचानक उस की तबीयत काफी खराब हो गई. उस समय वे शिमला में थे. अंकित जल्दी से उसे पास के एक अस्पताल में ले कर भागा मगर उस अस्पताल में मयंक को दाखिल नहीं किया गया. उन लोगों ने उसे दूसरे अस्पताल रेफर कर दिया. अंकित मयंक को ले कर वहां पहुंचा लेकिन वहां भी मयंक को ट्रीटमैंट की फैसिलिटी नहीं मिल सकी. उस की तबीयत बिगड़ रही थी. अंकित घबराया हुआ था. अंत में थक कर अंकित शिमला के सब से बड़े अस्पताल में पहुंचा. वहां मयंक को ऐडमिट कर लिया गया. 4-5 दिन में उस की स्थिति बेहतर हो गई तो छठे दिन उसे डिस्चार्ज कर दिया गया.

अब अंकित ने उस ट्रिप को थोड़ी जल्दी में पूरा किया और मयंक को ले कर वापस घर आ गया. 2 महीने के इस सफर के बाद मयंक बहुत खुश था. वह अंदर से बेहतर महसूस कर रहा था.

मयंक की बहन प्रज्ञा इस बात से बहुत खुश रहती थी कि अंकित मयंक का इतना खयाल रखता है.

वह जब भी फोन करतीं तो अंकित दोस्त के इलाज और हालत के बारे में विस्तार से बताता. मयंक की गतिविधियों का लेखाजोखा देता. बातचीत करते समय दोनों दोस्तों में मीठी झड़पें होतीं तो प्रज्ञा के बच्चे तालियां बजाबजा कर हंसते. वे अंकित को यंगर अंकल कह कर पुकारते और उस के साथ खूब मस्ती भरी बातें करते.

कई बार मयंक कहता,”मेरा भाई भी होता न तो तुझ सा नहीं हो पाता. तू तो भाई से भी बढ़ कर है.”

एक दिन मयंक की बहन वीडियो काल पर थी. अंकित चाय बनाने गया हुआ था और मयंक बहन से अंकित की तारीफ कर रहा था.

प्रज्ञा ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा,”मयंक मैं एक बात कहूं, तू मानेगा?

“हां दीदी बोलो न.”

“मैं चाहती हूं तू अपना घर अंकित के नाम कर दे. तेरे बाद मैं नहीं बल्कि तेरा भाई अंकित ही इस घर का मालिक होगा.”

इस बीच अंकित चाय ले कर कमरे में आ रहा था. उस ने प्रज्ञा की बात सुन ली थी.

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चाय रखते हुए उस ने इनकार में सिर हिलाते हुए कहा,” नहीं दीदी यह सही नहीं. आप ऐसी बातें नहीं कर सकतीं. जो घर मयंक का है वह कल को आप का या बच्चों का होगा मेरा नहीं. मैं किसी चीज की ख्वाहिश में मयंक का साथ नहीं दे रहा बल्कि मयंक के साथ मुझे यों ही दुनिया की खुशियां मिल रही हैं. ”

“देख मेरे भाई, मेरे अंकित, मैं ने मयंक से घर तेरे नाम करने की बात इसलिए नहीं की है ताकि तेरे एहसानों का कर्जा उतारा जा सके बल्कि इसलिए की है ताकि आने वाले समय में कभी मुझे भारत जाने की इच्छा हुई तो मुझे यह सोच कर मन न मसोसना पड़े कि वहां अब मेरा और कोई नहीं. मैं मयंक के बाद भी भारत घूमने आऊं तो पूरे अधिकार के साथ तेरे घर आ कर रुक सकूं. तू मेरी बात समझ रहा है न अंकित ? ”

“हां दीदी समझ गया. जैसी आप की इच्छा,” कहते हुए मयंक की आंखें भर आईं. आज उसे महसूस हो रहा था कि वाकई उस की कोई बड़ी बहन भी है जो उस पर अपना पूरा हक रखना चाहती है. भले ही वह दुनिया में अकेला है मगर अब उस का भी एक परिवार था जो उसे बहुत प्यार करता था.

Serial Story: अपना सा कोई (भाग-1)

आज मयंक बहुत खुश था. उस ने पूरे 2 दिन की छुट्टी ली थी. एक दिन तो हमेशा की तरह आराम और काम में निकल गया. मगर आज की छुट्टी का इस्तेमाल उस ने आसपड़ोस वालों से जानपहचान करने में लगाने की योजना बनाई थी. दरअसल, इस मोहल्ले में आए उसे पूरे डेढ़ महीने हो चुके थे. इस दौरान उस की नाइट शिफ्ट चल रही थी. सुबह 5 बजे निकल कर रात में 11 बजे घर में घुसता था. ऐसे में उसे दूसरों से परिचय करने का वक्त ही नहीं मिलता था.

उस ने 200 गज पर 1980-90 के समय के बने मकान का तीसरा फ्लोर खरीदा था. 3 कमरे, घर के बाहर खूबसूरत सी बालकनी और आसपास हरियाली देख कर उस ने यह घर पसंद किया था.

सुबहसुबह उठ कर वह बालकनी में आया और सामने के ग्राउंड में कुछ फिटनैस फ्रीक लोगों को मौर्निंग वाक और जौगिंग करता देख मुसकरा उठा. उस ने मन ही मन सोचा कि आज पूरे मोहल्ले का 1-2 चक्कर लगाने और ग्राउंड में जा कर ऐक्सरसाइज करने के बाद ही वह घर लौटेगा.

उस ने ट्रैकसूट पहना और नीचे आ गया. वाक और ऐक्सरसाइज के बाद दूध, अखबार और ब्रैड खरीद कर वापस लौटने लगा कि दूसरे फ्लोर की सीढ़ियों पर आ कर ठिठक गया. दरवाजा अंदर से बंद था और बाहर जमीन पर अखबार के साथ 2 पत्रिकाएं भी पड़ी हुई थीं. मयंक को शुरू से किताबें और पत्रिकाएं पढ़ने का बहुत शौक रहा है. उस ने पलट कर देखा तो सरिता और गृहशोभा एकसाथ देख कर उस का मन खुश हो गया. उस ने मन ही मन सोचा कि काश आज फ्री टाइम में मुझे यह पत्रिकाएं पढ़ने को मिल जातीं.

वह अभी पत्रिकाएं पलट ही रहा था कि तभी कमरे के अंदर से मुकेश के गाने ‘मैं पल दो पल का राही हूं…’ की आवाज आने लगी. गाना और मुकेश की आवाज दोनों ही मयंक को पसंद था. अपने इस पड़ोसी से मिलने का उसे मन कर रहा था. तभी दरवाज़ा खुला और अंदर से उसी की उम्र का एक युवक बाहर निकला. सवालिया नजरों से उस ने पहले मयंक को और फिर उस के हाथ में पकड़ी पत्रिकाओं को देखा.

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मयंक मुसकराता हुआ बोला,” हाय, मैं मयंक. आप का पड़ोसी. इधर से गुजर रहा था. पत्रिकाओं पर नजर गई तो देखने लगा. ये पत्रिकाएं शायद आप बराबर लेते हैं…”

“जी हां. मैं इन्हें शुरू से ही पढ़ता आ रहा हूं. आइए अंदर आ जाइए. मेरा नाम अंकित है.”

मयंक अंकित के साथ अंदर आता हुआ बोला,” आप का म्यूजिक टेस्ट भी बिलकुल मेरे जैसा है. मुकेश की आवाज का मैं भी दीवाना हूं.”

“गुड. फिर तो अच्छी जमेगी हमारी.”

इस के बाद 2-4 मिनट की औपचारिक बातचीत के बाद अंकित उठता हुआ बोला,”आई एम सौरी मयंक बट आई एम गेटिंग लेट.”

मयंक भी उठ गया और बोला,”आई कैन अंडरस्टैंड. जौब प्रेशर तो सब को रहता है. आप जाइए मैं चलता हूं.”

पत्रिकाएं अभी भी मयंक के हाथों में थीं. वह उन्हें टेबल पर रखने लगा तो अंकित मुसकराता हुआ बोला,”आप चाहें तो ये पत्रिकाएं ले जा सकते हैं. पढ़ कर लौटा दीजिएगा.”

“थैंक यू सो मच,” मयंक के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई.

यह मयंक और अंकित की पहली मुलाकात थी. इस के बाद भी उन दोनों के बीच हैलोहाय से ज्यादा बात नहीं हो पाई क्योंकि मयंक की शिफ्ट वाली जौब थी तो अंकित का टूरिंग वाला काम. दोनों व्यस्त थे.

उस दिन रविवार था. मयंक दूध और फल लेने के लिए नीचे उतर उतर रहा था कि उस ने बरामदे में अंकित को बेहोश पड़ा देखा. इंसानियत के नाते मयंक उसे तुरंत अस्पताल ले कर गया. वहां उसे ऐडमिट कर लिया गया. उसे माइनर हार्ट अटैक आया था. उस के घर में कोई और सदस्य था नहीं इसलिए पूरे दिन मयंक ही अस्पताल में उस के साथ रहा. अगले दिन भी उसे अस्पताल में ही रुकना पड़ा. तीसरे दिन सुबह अंकित को छुट्टी मिल गई. अब तक अंकित की तबियत संभल चुकी थी. उस ने दिल से मयंक का शुक्रिया अदा किया. दोनों में दोस्ती हो गई. घर आ कर भी मयंक ने अंकित को अकेला नहीं छोड़ा. उसे खाना बना कर खिलाने के बाद ही अपने औफिस गया.

रविवार को सुबहसुबह अंकित मयंक के घर आया. वह मयंक के लिए बिरयानी बना कर लाया था. दोनों ने साथ बैठ कर खाना खाया. बिरयानी बहुत स्वादिष्ठ बनी थी. उंगलियां चाटता हुआ मयंक बोला,”यार तुम खाना तो बहुत टेस्टी बनाता हो. भाभीजी तो खुश हो जाती होंगी. ”

“नहीं यार मेरी शादी कहां हुई है अभी? ”

“क्या बात है, यानी इस मामले में भी हम दोनों एकजैसे हैं. मैं ने भी अब तक शादी नहीं की. वैसे तुम ने शादी क्यों नहीं की?”

“यार मैं एक अनाथालय में पलाबढ़ा हूं. उन्होंने ने ही मुझे पढ़ाया है. बाद में एक सज्जन ने मुझे गोद ले लिया. वे भी दुनिया में अकेले थे. नौकरी मिलने के बाद मैं यहां चला आया. इस बीच उन का देहांत हो गया. अब मेरे जैसे अकेले लड़के को अपनी बेटी कौन देगा? उस पर टूरिंग वाली जौब है. मैं खुद भी अब शादी करने से हिचकने लगा हूं.”

“यार, काफी हद तक मेरी कहानी भी कुछ ऐसी ही है. मेरे पिताजी उसी समय चल बसे थे जब मैं मुश्किल से 8-10 साल का था. मां ने मुझे पढ़ायालिखाया. मुझे नौकरी लग गई उस के कुछ दिनों के बाद ही मां बीमार पड़ गईं. इस बीच मेरी बड़ी बहन की शादी अमेरिका में हो गई इसलिए वह भी दूर चली गई. मैं कई सालों तक मां की देखभाल और सेवा में लगा रहा. उस दौरान शादी का खयाल ही नहीं आया. 2 साल पहले उन का निधन हो गया. अब मैं भी दुनिया में अकेला हूं. शादी करने का सोचता हूं मगर परिवार में कोई न होने की वजह से मेरी शादी में भी दिक्कतें आ रही हैं.”

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“कोई नहीं यार. अब हम दोनों एकदूसरे का साथ देंगे.”

“बिलकुल…” अंकित ने कहा तो दोनों ठठा कर हंस पड़े.

इस के बाद तो अकसर ही दोनों एकसाथ खाना बना कर खाने लगे. कई दफा अंकित मयंक के लिए खाना बना कर रखता. कई बार मयंक बाजार से कुछ खाने की चीजें लाता तो दोनों मिल कर खाते. दोनों ने डुप्लीकेट चाबी भी ऐक्सचैंज कर ली थी ताकि वे एकदूसरे के पीछे में उन के फ्रिज में खाने की चीजें रख सकें या जरूरी होने पर एकदूसरे के काम भी आ सकें. अकसर रविवार को समय निकाल कर दोनों साथ घूमने भी जाने लगे.

आगे पढ़ें- एक दिन अंकित बाजार से घर लौटा कि तभी…

Serial Story: अपना सा कोई (भाग-2)

एक दिन अंकित बाजार से घर लौटा कि तभी उस का मोबाइल बज उठा. एक अनजान नंबर से काल आ रही थी. उस ने फोन उठाया तो सामने से आवाज आई,”जी मैं अनुज प्रसाद बोल रहा हूं. कल रात मयंक भाई औफिस में अचानक बेहोश हो गए. नाईट शिफ्ट की वजह से औफिस में ज्यादा लोग नहीं थे. मैं ने और मेरे एक कुलीग ने मिल कर उन्हें किसी तरह अस्पताल पहुंचा दिया है. उन का कोई रिश्तेदार तो यहां इस शहर में है नहीं. वे अकसर आप के बारे में बताया करते थे. इसीलिए उन के मोबाइल से आप का नंबर ले कर मैं ने काल लगाया है. आप आ जाएं तो बहुत अच्छा होगा.”

“ओके मैं अभी आता हूं. आप अस्पताल का नाम और वार्ड वगैरह मैसेज कर दीजिए. अंकित जल्दीजल्दी तैयार हो कर अस्पताल पहुंचा. मयंक बैड पर था. डाक्टर ने कई सारे टेस्ट करवाए थे.

टेस्ट रिपोर्ट्स ले कर अंकित डाक्टर से मिला.

डाक्टर ने रिपोर्ट देखते हुए परेशान स्वर में कहा,”सौरी मगर मुझे कहना पड़ेगा कि मिस्टर मयंक अब 5-6 महीने से ज्यादा के मेहमान नहीं हैं.”

“मगर उसे हुआ क्या है डाक्टर?” अंकित की आवाज कांप रही थी.

“बेटे उसे पेनक्रिएटिक कैंसर है. इस के बारे में जल्दी पता नहीं चलता क्योंकि शुरुआती फेज में कोई खास लक्षण नहीं होते. बाद में लक्षण पैदा होते हैं मगर फिर भी इन की पहचान मुश्किल होती है. क्योंकि लक्षण बहुत कौमन होते हैं. जैसे भूख कम लगना, वजन घटना आदि. मयंक को अब तक एहसास भी नहीं हुआ होगा कि उसे कोई गंभीर बीमारी है.”

“पर डाक्टर क्या अब कोई उपाय नहीं है? ”

“नहीं बेटा, अब सच में कोई उपाय नहीं. बस उसे खुश रखो. उसे जितना प्यार और खुशियां दे सको उतना दो और क्या कहूं मैं?”

“जी डाक्टर,”वह भीगी पलकों के साथ डाक्टर के केबिन से बाहर निकला. मयंक कहने को तो उस का कुछ नहीं लगता था पर जाने क्यों उसे लग रहा था जैसे मयंक ही तो उस का पूरा परिवार था. उस के साथ सब कुछ खत्म हो जाएगा. वह दोस्ती और प्यार, वह अपनापन, उस का साथ, हंसीमजाक और छोटीछोटी खुशियां. पिछले कुछ समय से उसे लगने लगा था जैसे मयंक ही उस की दुनिया है. पर अब वह भी जाने वाला था. अचानक गैलरी के फर्श पर बैठ कर अंकित फफकफफक कर रो पड़ा.

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अपनी बीमारी की बात जब मयंक को पता चली तो वह खामोश रह गया. पलकों की कोर से आंसू बह निकले.

अंकित ने उसे संभालते हुए पूछा,”तुम्हारी बड़ी बहन है न. उन का नंबर दो. मैं बात करता हूं.”

नंबर ले कर जब अंकित ने फोन लगाया और सारी बात बताई तो वह भी परेशान स्वर में बोलीं,” मेरे इकलौते भाई को यह अचानक क्या हो गया. इतनी दूर से मैं उस के लिए कुछ कर भी नहीं सकती. मेरे पति खुद बहुत बीमार हैं. उन्हें छोड़ कर आ भी नहीं सकती.”

फिर बहन ने भाई से वीडियो काल पर बात की. उसे दिलासा दिया पर साथ नहीं दे पाई.

अब मयंक की देखभाल के लिए अंकित के सिवा और कोई नहीं था. अंकित ने तय किया कि चाहे जो हो जाए वह अपने दोस्त का अंत तक साथ देगा. उस ने एक बड़ा फैसला लिया और अपनी नौकरी छोड़ दी. मयंक पहले ही रिजाइन दे चुका था. अंकित पूरे समय मयंक की देखभाल करने लगा. मयंक कई बार उलटियां कर देता तब अंकित उस की सफाई करता. उस का मुंह धुलवाता. उस के लिए सादा खाना बनाता फिर प्यार से खिलाता. उसे हर तरह का आराम देता. समय पर दवाएं देता. तरहतरह की फलसब्जियां ले कर आता और उसे खिलाता. जितना होता उसे खुश रखने का प्रयास करता.

एक दिन मयंक ने उदास स्वर में कहा,”जानते हो अंकित मेरा एक सपना था जो अब पूरा नहीं हो पाएगा.”

“कैसा सपना? कहीं शादी तो नहीं करना चाहता था तू…” हंसते हुए अंकित ने कहा तो मयंक बोला,”नहीं यार मेरा सपना शादी नहीं बल्कि मैं तो दुनिया घूमना चाहता था. दुनिया नहीं तो कम से कम भारत दर्शन तो करना चाहता ही था. हमेशा सोचता था कि कभी औफिस से 1-2 महीने की छुट्टी ले कर पूरा भारत देखूंगा. पर देख ले अब तो दुनिया से ही छुट्टी मिलने वाली है.”

“यदि ऐसा है तो तेरा यह सपना मैं जरूर पूरा करूंगा.”

“पर कैसे? नहीं यार इस हाल में अब संभव नहीं.”

“ऐसा कुछ नहीं है. डाक्टर ने केवल खानपान में परहेज करने को कहा है मगर घूमने से नहीं रोका है. फिर भी मैं डाक्टर से एक बार बात कर लूंगा. पर तेरा यह सपना जरूर पूरा करूंगा. तेरी खुशी ही तेरी बीमारी का इलाज है और फिर कोई इच्छा अधूरी छोड़नी भी नहीं चाहिए. नईनई जगह घूमने से तेरा मन बहलेगा. आबोहवा बदलेगी तो तुझे अच्छा लगेगा. तेरी तबीयत में भी सुधार आएगा. मैं आज ही प्लान बनाता हूं कि कैसे जाना है और कब जाना है.”

“सच यार तू मेरा यह सपना पूरा करेगा? तू मेरे भाई से भी बढ़ कर है. काश, हम पहले मिले होते. अब तो समय ही बहुत कम है मेरे पास.”

“कम है तो क्या हुआ? जितना समय है हम साथ घूमेंगे. तेरी मुसकान बनी रहेगी…” कहते हुए मयंक ने अंकित को भींच कर सीने से लगा लिया.

जल्द ही अंकित ने पुरानी कार खरीदी और अपने दोस्त को ले कर भारत दर्शन पर निकल पड़ा. उस ने मयंक की दवाएं और खानेपीने की जरूरी चीजें भी रख ली थीं. बीमारी की हालत में भी मयंक ने यह ट्रिप बहुत ऐंजौय किया. अंकित ने हर कदम पर उस का साथ दिया. उस के खानेपीने और दवाओं का ध्यान रखा. कोशिश करता कि मयंक के लिए साफसुथरा और सादा खाना मिल जाए. समय पर दवाएं खिलाता.

सफर के दौरान एक दिन वे मुंबई से पुणे के रास्ते में थे. पुणे के आउटर ऐरिया तक पहुंचतेपहुंचते ही शाम हो गई. दोनों ने तय किया कि रात यहीं बिताई जाए. उन्होंने ऐसी जगह कार रोकी जहां थोड़ी आबादी दिख रही थी.

अभी वे होटल, ढाबा जैसी कोई चीज ढूंढ़ ही रहे थे कि एक लड़की उन के करीब आई और बोली,”ठिकाना ढूंढ़ रहे हो क्या मुसाफिर?”

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“हां जी. हमें ठहरने के लिए जगह चाहिए.”

“नो प्रौब्लम. पास में ही मेरे चाचू का होटल है. चलो आप को वहां ले चलती हूं,” कह कर लड़की उन्हें एक छोटे से होटल में ले आई.

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छांव: जीवन का सच क्या जान पाई आशा?

Serial Story: छांव (भाग-1)

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे और मैं भी इन्हें कहां थामना चाह रही थी. एक ऐसा सैलाब जो मुझे पूर्वाग्रहों की चुभन से बहुत दूर ले जाए, पर यह चाह कब किसी की पूरी हुई है जो मेरी होती. प्रश्नों के घेरे में बंध कर पांव उलझ गए और थम गई मैं, पर प्रश्नों का उत्तर इतना पीड़ादायक होगा, यह अकल्पनीय था.

‘आभाजी, यह निर्णय आसान नहीं है. किसी और की बच्ची को स्वीकारना सहज नहीं है. ऐसा न हो कि मां का साया देने की चाह में पिता की उंगली भी छूट जाए? मैं बहुत डरता हूं आप फिर सोच लीजिए.’ पर मैं कहीं भी सशंकित नहीं थी. मेरी ममता तो तभी हिलोरे मारने लगी थी जब आरती को पहली बार देखा था. दादी की गोद में सिमटी वह दुधमुंही बच्ची स्वयं को सुरक्षा के कवच में घेरे हुए थी. वह कवच जो मेरे विनय से सात फेरे लेने के बाद और आरती की मां बनने के बाद भी न टूटा.

‘‘मां, आप आरती को मुझे दे दीजिए, मैं इसे सुला दूंगी. आप आराम से मौसीजी से बातचीत कीजिए.’’

‘‘नहीं आभा, तुम आरती की चिंता मत करो, जाओ देखो, विनय को किसी चीज की जरूरत तो नहीं.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ इस से अधिक कुछ नहीं कह पाई. कमरे से बाहर निकली तो मौसीजी की आवाज सुन कर पांव वहीं थम गए :

‘‘यह क्या विमला, तू ने आरती को आभा को दिया क्यों नहीं? जब से

आई हूं, देख रही हूं तू एक पल के लिए भी आरती को खुद से दूर नहीं करती. इस तरह तो आरती कभी आभा से जुड़ नहीं पाएगी. आखिर वह मां है इस की.’’

‘‘मां नहीं, सौतेली मां, कैसे सौंप दूं अपने कलेजे के टुकड़े को पराए हाथों में, मैं ने वृंदा को वचन दिया था कि मैं उस की बच्ची का खयाल रखूंगी.’’

‘‘तो तू ने विनय की दोबारा शादी की क्यों?’’

‘‘दीदी, अभी विनय की उम्र ही क्या है, सारा जीवन पड़ा है उस के सामने, तनमन की जरूरत तो पत्नी ही पूरी कर सकती है. अब दोनों मिल कर अपनी गृहस्थी संभालें.’’

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‘‘और आरती?’’

‘‘न दीदी, आरती उन की जिम्मेदारी नहीं है. उस की दादी भी मैं और मां भी मैं. अपनी बच्ची को सौतेलेपन की हर छाया से दूर रखूंगी.’’

‘‘विमला, तू यह ठीक नहीं कर रही.’’

‘‘दीदी, ठीक और गलत का हिसाब आप रखो. आज तक कौन सी सौतेली मां सगी हुई है, जो आभा होगी.’’

‘‘ठीक है, विमला, तुझे जो उचित लगे वह कर पर देखना तेरी यह सोच एक दिन आरती को ही सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाएगी,’’ मौसीजी कमरे से बाहर आ गईं.

‘‘तू यहीं खड़ी थी, आभा,’’ मुझे देख कर मौसीजी एक पल को सकपका गईं फिर संभलते हुए बोलीं, ‘‘तू परेशान मत हो, समय सब ठीक कर देगा.’’

उस समय के इंतजार में एकएक दिन बीतने लगा पर जैसे बंद मुट्ठी से रेत सरक कर बिखर जाती है, मां के दिल के बंद दरवाजों से मेरी ममता टकरा कर लौट आती.

‘‘मैं तुम्हारे दर्द को समझता हूं, आभा पर क्या करूं. मां का व्यवहार मेरी समझ से परे है. उन्होंने तो मुझे भी आरती से दूर कर दिया है. जब भी मैं आरती को गोदी में लेता हूं, वे किसी न किसी बहाने से उसे मुझ से वापस ले लेती हैं. क्या मेरा मन इस से आहत नहीं होता पर क्या करूं?’’

‘‘विनय, मुझे इस घर में आए 6 महीने हो गए हैं और मुझे वह पल याद नहीं जब आरती को मैं ने अपनी गोद में लिया हो. मां क्यों नहीं समझतीं कि रिश्ते बांधने से बंधते हैं. क्या यशोदा मां…’’

‘‘तुम खुद को समझा रही हो या मुझे? तुम भी जानती हो कि तुम्हारी ये उपमाएं निरर्थक हैं.’’

विनय की बात सुन कर मैं ने चुप्पी ओढ़ ली. धीरेधीरे समय सरक रहा था और मैं मां की कड़ी पहरेदारी में अपनी ममता को अपने ही आंचल में दम तोड़ते हुए देख रही थी. मेरी बेबसी पर शायद प्रकृति को तरस आ गया.

‘‘मां, बधाई हो, आप दादी बनने वाली हैं,’’ उत्साह भरे लहजे में विनय ने कहा.

‘‘मैं तो पहले ही दादी बन चुकी हूं, तू तो आभा को बधाई दे. चल अच्छा हुआ, अब कम से कम मेरी आरती से झूठी ममता का नाटक तो बंद करेगी,’’ मां के स्वर की कटुता दीवारों को भेदती हुई मुझ तक पहुंची और एक पल में ही खुशी के रंग स्याह हो गए. पलक अपने जन्म के साथ मेरे लिए ढेर सारी आशाएं भी लाई.

‘‘विनय, अब देखना मां कितना भी चाहें पर आरती अपनी बहन से दूर नहीं रह पाएगी.’’

‘‘काश, ऐसा हो,’’ विनय ने ठंडे स्वर में कहा.

जानती थी मैं कि विनय का विश्वास डगमगा चुका है. पिछले 3 सालों में उन्होंने अपनी बेटी के पास होते हुए भी दूर होने की पीड़ा को झेला है. खुद को समझातेसमझाते विनय थक चुके हैं. विनय की पीड़ा को जब मैं समझ पा रही हूं तो मां क्यों नहीं? 9 महीने अपने खून से सींचा है उन्होंने विनय को, फिर क्यों अपने बेटे को जानेअनजाने दुख पहुंचा रही हैं?

‘‘क्या सोच रही हो, आभा, पलक कब से रोए जा रही है?’’

‘‘आई एम सौरी,’’ मैं ने पलक को विनय की गोद से ले कर सीने से लगा लिया. पलक का स्पर्श मेरे तन और मन को तृप्त कर गया पर मन का एक कोना अब भी आशा और निराशा के बीच हिचकोले खा रहा था.

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‘‘आरती बेटा, इधर आओ, देखो तुम्हारी छोटी बहन,’’ आरती पलक को दूर से ही टुकुरटुकुर देख रही थी पर मेरी आवाज में इतनी ताकत कहां थी कि वह आरती को अपने पास बुला सके. आरती बिना कुछ बोले मुड़ गई और मैं अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरो ही नहीं पाई. ?

मां के जीवन का एकमात्र ध्येय था आरती को असीम स्नेह देना, क्या कभी ममता भी नुकसानदायक हुई है? यह एक ऐसा सवाल है जिस का जवाब हां या न में देना कठिन है पर एक बात निश्चित है कि अगर ममता अपनी आंखों पर पट्टी बांध ले तो वह बच्चे के लिए घातक बन जाती है. आरती की हर चाह उस के बोलने से पहले पूरी कर देना मां की पहली प्राथमिकता थी.

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Serial Story: छांव (भाग-3)

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

आरती की शादी? कैसे निभाएगी आरती शादी के उत्तरदायित्वों को. समझौता, त्याग, समर्पण ये शब्द तो आरती के शब्दकोष में हैं ही नहीं. और इन के बगैर परिवार के दायित्वों का वहन नहीं किया जा सकता. कहीं आरती जिम्मेदारियों से…नहींनहीं, मैं यह क्या सोचने लगी. मैं ने स्वयं को धिक्कारा. मां और विनय को घर और वर दोनों पसंद आ गए.

‘‘विनय, राज करेगी हमारी बेटी वहां, पैसों की तो कोई कमी ही नहीं है. तभी तो समधनजी ने दहेज के लिए साफ मना कर दिया,’’ मां खुशी से फूली नहीं समा रही थीं.

‘‘पर मां, उन्होंने यह भी तो कहा था कि आरती घर की बड़ी बहू बन कर सारे घर को संभाल ले. क्या आरती संभाल पाएगी?’’

‘‘मैं ने पहली बार ऐसा बाप देखा है जो अपनी बेटी के अवगुण ढूंढ़ रहा है. मांबाप तो वे होते हैं जो बच्चों के अवगुण होने पर भी उसे ढक दें पर तू क्यों ऐसा करेगा, आखिर आभा की छाया का असर तो आएगा ही,’’ मां के इस तीखे प्रहार से विनय सुन्न हो गए और मैं हमेशा की तरह आंसुओं के सैलाब में बह कर इन प्रहारों से दूर बहने की नाकाम कोशिश करने लगी.

वह घड़ी भी आ गई जब आरती घर से विदा हो गई. ऐसा लगा मां ने पहली बार खुली हवा में सांस ली हो, जैसे कह रही हों कि देख वृंदा, मैं ने तेरी बच्ची को सौतेली मां की छाया से कितना दूर रखा है. मेरी बेचैनी आरती के जाने के बाद बढ़ गई थी. हर समय मन शंकाओं से घिरा रहता था.

आखिर वही हुआ जिस का डर था, अभी आरती की शादी को 2 महीने भी नहीं बीते थे कि एक दिन सुबहसुबह आरती घर आ गई.

‘‘दादी, दादी,’’ वह दौड़ती हुई मां के कमरे में पहुंची. विनय और मैं भी उस के पीछेपीछे भागे.

‘‘दादी, मुझे उस घर में नहीं रहना. शेखर की मम्मी बातबात पर चिल्लाती हैं और मेरी ननद और देवर दिनभर मेरे कान खाए रहते हैं. कभी चाय बनाओ तो कभी घर की सफाई करो. क्या मैं नौकरानी हूं?’’

‘‘तू चिंता मत कर लाडो, मैं बात करूंगी उन लोगों से, तू जा नहाधो कर आराम कर ले.’’

आरती के कमरे में जाते ही मां बोलीं, ‘‘मैं जानती थी यह सब होगा. दहेज इसीलिए नहीं लिया कि घर के लिए नौकरानी चाहिए. विनय, चल उस शेखर को फोन मिला, खबर लेती हूं उस की.’’

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विनय कुछ कहते कि दरवाजे पर घंटी बजी. देखा, सामने शेखर था, ‘‘मम्मी, आरती आई है क्या?’’

‘‘हां बेटा, क्या तुम्हें बिना बताए?’’

‘‘जी मम्मी,’’ विनय और मां भी कमरे में आ गए.

‘‘बेटा, तुम्हारे और आरती के बीच कुछ…’’ विनय के सवाल पर शेखर का चेहरा उतर गया.

‘‘मम्मीपापा, आरती की नासमझी ने घर के लोगों को बहुत ठेस पहुंचाई है. इस के तानाशाही व्यवहार से मेरी मम्मी बहुत दुखी हैं. क्या आप यकीन करेंगे कि यह पानी का गिलास भी अपने हाथ से नहीं लेना चाहती. सुबह यह आंखें तभी खोलती है जब मम्मी या मेरी बहन शशि इस के सामने चाय ले कर पहुंचें. पूरेपूरे दिन कमरे में अकेले बैठ कर टीवी देखना, घर के किसी काम में हैल्प करना तो बहुत दूर की बात, अपना काम तक खुद न करना, इस की आदत में शुमार है.

‘‘हम सब को लगता था कि समय के साथ यह अपनी जिम्मेदारी समझने लगेगी पर आरती का यह व्यवहार अब हम सब की परेशानी का सबब बन गया है. दुख तो मुझे इस बात का है कि पिछले 3-4 दिन से मेरी मम्मी की तबीयत बहुत खराब है. उन का खयाल तो रखना दूर की बात उन के कमरे में जा कर हालचाल तक पूछना आरती ने उचित नहीं समझा. मैं ने जब इस बात के लिए डांटा तो यह चीखचीख कर रोने लगी. अब आप ही बताइए, क्या मैं ने गलत किया?’’

‘‘तुम बिलकुल परेशान मत हो, शेखर. मैं तुम से आरती के व्यवहार के लिए माफी मांगती हूं, जल्द ही सब ठीक हो जाएगा. एकदो दिन वह यहां रह ले फिर हम खुद ही उसे ले कर तुम्हारे घर आएंगे,’’ मेरे इस आश्वासन के बाद शेखर चला गया पर मां के लिए यह सब असहनीय था.

‘‘तू कौन होती है आरती को समझाने वाली, नहीं जाएगी आरती उस घर में. यहीं रहेगी इस घर में, मेरी बच्ची मुझ पर बोझ नहीं है.’’

‘‘नहीं मां, आरती यहां नहीं रहेगी. उसे अपने घर जाना होगा.’’

‘‘आभा, तेरी हिम्मत जो तू मेरे सामने…आखिर सौतेली मां जो ठहरी,’’ गुस्से में मां दांत किटकिटाने लगीं.

‘‘मां, क्या आप जानती हैं कि सौतेला किसे कहते हैं? दुख तो इस बात का है कि कुछ लोगों ने मिल कर मां जैसे पवित्र रिश्ते को सौतेलेपन का तमगा पहना दिया है पर कोई रिश्ता कभी सौतेला नहीं होता, सौतेला होता है हमारा व्यवहार जो कभी भी किसी भी रिश्ते में निभाया जा सकता है.

‘‘यह कैसी परिपाटी है, अगर मां जन्म देने वाली न हो तो उसे अविश्वास की दृष्टि से देखा जाए. एक जानवर के साथ जब हम कुछ सालों तक रह लेते हैं तो उस से भी घुलमिल जाते हैं तो फिर आरती तो एक जीतीजागती इंसान है. आज जो आरती की स्थिति है उस का कारण आप का अति स्नेह है. आप ने उसे इतनी गहरी छांव में रखा कि वह जान ही नहीं पाई कि जीवन का सच क्या है.

‘‘मां, क्या आप ने बरगद के पेड़ के नीचे किसी पौधे को पनपते हुए देखा है? नहीं न, आप वही बरगद की छांव हैं. प्यार और दुलार का मतलब यह बिलकुल नहीं कि बच्चों को उन की गलतियों पर डांटा न जाए. आंखें खोल कर देखिए और सोचिए, क्या आरती को बचपन से ही कभी उसे उस की जिम्मेदारियों को सिखाने की कोशिश की गई तो फिर एकाएक वह कैसे जिम्मेदार बन सकती है? अब क्या आप ट्यूटर की तरह शेखर को भी बदल देंगी?’’

‘‘यह क्या बकवास कर रही है, आभा? तू अपनी मर्यादा में रह.’’

‘‘मां, मर्यादा मैं नहीं आप तोड़ रही हैं, रिश्तों की हर मर्यादा आप ने आरती के मोह में तज दी. आज आप शेखर के परिवार को खरीखोटी सुनाने के लिए तैयार हैं. क्या आप ने आरती को बड़ों का सम्मान करना, छोटों से प्यार करना सिखाया? जबजब विनय या मैं ने कोशिश की तो आप ने हमें सौतेला कह कर दूर फेंक दिया. आरती ने सिर्फ शासन करना सीखा पर उस में उस की गलती नहीं है क्योंकि बच्चा हमेशा अपने बड़ों के व्यवहार को अपने जीवन में अंगीकार करता है. मां, शेखर या उस का परिवार क्यों आरती की हुकूमत बरदाश्त करेगा?

‘‘रिश्तों को जोड़ने के लिए प्यार और समर्पण देना होता है. हमारा जीवन हमारी ही प्रतिध्वनि है. हम जो देते हैं वही हम तक लौट कर आता है. आप ही बताइए, क्या शादी गुड्डेगुडि़यों का खेल है कि आज पसंद नहीं तो दूसरा ले आओ. मां, हमारी बच्ची हम पर बोझ नहीं है पर अपने अंतर्मन से पूछिए क्या वाकई गलती आरती की नहीं है? बच्चों की गलतियों को सुधारना और सही राह दिखाना ही तो मातापिता का दायित्व होता है. एक पल को मान लीजिए कि आरती सबकुछ छोड़ कर यहीं हमारे पास रह जाती है तो वह करेगी क्या? जब हम इस दुनिया में नहीं रहेंगे तो वह कैसे अपना जीवन बिताएगी? मां, आप ने तो उसे आत्मनिर्भर भी बनने नहीं दिया.

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‘‘जीवन, पाने से अधिक, देने का नाम है. मैं हमेशा खामोश रही पर अगर आज भी मैं चुप रहती तो मैं स्वयं की नजरों में गिर जाती. सिर्फ इस डर से कि आप मुझे सौतेली मां कहेंगी. मैं आरती का जीवन बिखरने नहीं दूंगी. मां, सिर्फ जन्म देने वाली ही मां हो, ऐसा नहीं है. मां वह भी होती है जो बच्चे का हाथ थाम उसे जीवनपथ पर चलना सिखाए. उसे अच्छेबुरे का ज्ञान कराए और इन सब से बढ़ कर जिम्मेदार और अच्छा इंसान बनाए. मां, आरती को अपनी छांव से मुक्त कर दीजिए वरना मां, मेरी बच्ची का जीवन यों…’’ मैं बिलखबिलख कर रोने लगी.

मां खामोश थीं. उन की चुप्पी शायद आरती की गहरी छांव से मुक्ति और उस के जीवन की शुरुआत का संदेश थी.

Serial Story: छांव (भाग-2)

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

मौसम के न जाने कितने रंग आतेजाते रहे पर मां ने घर में एक ऐसी रेखा खींच दी थी कि पतझड़ जाने का नाम ही नहीं ले रहा था और बसंत को लाने की भरसक कोशिश करती रही इस सच को भूल कर कि इंसान के लाख चाहने पर भी ऋतुएं प्रकृति की इच्छा से ही बदलती हैं. समय सरकता जा रहा था. अब पलक स्कूल जाने लायक हो गई थी.

‘‘विनय, पलक का ऐडमिशन उसी स्कूल में करवाना जहां आरती जाती है, क्या पता दोनों बहनें वहां एकदूसरे के करीब आ जाएं.’’

‘‘तुम्हें लगता है ऐसा होगा, पर मुझे नहीं लगता कि यह संभव है, मां ने आरती को किसी और रिश्ते को पहचानने ही कहां दिया है.’’

विनय की कही गई इस सचाई को मैं झुठला भी नहीं सकती थी. मेरे भीतर एक गहरी टीस थी कि अगर मैं विनय के जीवन में नहीं आती तो आरती अपने पिता से यों दूर न होती. इस ग्लानि से मैं तभी मुक्ति पा सकती थी जब आरती हमें अपने जीवन से जोड़ ले. और पलक ही मुझे वह कड़ी नजर आ रही थी पर यह इच्छा प्रकृति ने ठुकरा दी.

‘‘मम्मा, दीदी लंच टाइम में मुझ से बात नहीं करतीं. वे मुझे देख कर चली जाती हैं. मम्मा, दीदी ऐसा क्यों करती हैं? मेरी फ्रैंड की दीदी तो उस से बहुत प्यार करती हैं, अपना टिफिन भी शेयर करती हैं, दीदी मुझ से गुस्सा क्यों हैं?’’

क्या समझाऊं, कैसे समझाऊं समझ नहीं आ रहा था, ‘‘दीदी आप से नाराज नहीं हैं, बेटा, वे कम बोलती हैं न इसलिए,’’ मेरे इस जवाब को सुन कर पलक कुछ और पूछे बिना किचन में चली गई.

‘‘विनय, कल तुम मेरे साथ बाजार चलना, आरती के लिए कुछ कपड़े लाने हैं.’’

‘‘मां, पिछले महीने ही तो…’’

‘‘तो क्या हुआ, बच्ची को पहननेओढ़ने का शौक है और तू जो कल पलक के कपड़े ले कर आया है?’’

‘‘मां, नर्सरी क्लास में यूनीफार्म नहीं है इसलिए लाना जरूरी था वरना वह

तो आरती के पुराने कपड़े पहनती आ रही है.’’

‘‘तो इस में अनोखी बात कौन सी हो गई? हर छोटा बच्चा बड़े भाईबहन के कपड़े पहनता है. खबरदार जो मेरी बच्ची के साथ भेदभाव करने की कोशिश की, मां तो सौतेली है ही, अब बाप भी…’’ मां यह कहते हुए बरामदे में चली गईं.

विनय बुत बने मां को जाते देखते रहे.

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‘‘विनय, तुम मां की बात को खामोशी से मान लिया करो. देखो, अब तुम्हारा मन भी दुखी हुआ और मां को भी गुस्सा आ गया.’’

‘‘आभा, क्या मां से इस घर की स्थिति छिपी है. तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा तो घर की किस्तों में ही निकल जाता है और यह कैसे संभव है कि रोजरोज…’’ विनय के स्वर की पीड़ा मेरे मन को बींध रही थी पर क्या करूं अपनी बेबसी और लाचारी पर कभीकभी गुस्सा आता, मन करता कि मां से चीखचीख कर कहूं कि वे घर को 2 हिस्सों में न बांटें.

किस अधिकार से उन्हें कुछ कहती, उन्होंने न तो मुझे अपनी बहू माना और न ही आरती की मां. मां आरती के जितने करीब थीं उतनी ही पलक से दूर. दादी और दीदी के द्वारा दी गई अवहेलना पलक के भीतर घाव कर रही थी, यह सच मेरी पीड़ा को गहराए जा रहा था. समय की सुइयां टिकटिक करते आगे बढ़ती गईं, धीरेधीरे न केवल पलक के घाव भर गए बल्कि उसे अपने और आरती के बीच का अंतर भी समझ में आ गया.

‘‘मां, आप ने आरती का रिजल्ट देखा है, थर्ड डिवीजन…’’

‘‘तो क्या हुआ? तुझे नौकरी करवानी है क्या उस से?’’

‘‘मां, आप क्यों नहीं समझतीं कि पढ़नेलिखने का संबंध सिर्फ नौकरी करने से नहीं है. विद्या अच्छी समझ और सोच देती है.’’

‘‘विनय, यह भी खूब रही. तू बता, मैं तो अनपढ़ हूं. तो क्या मुझ में अच्छी सोच और समझ नहीं है?’’

मां की इस बात को सुन कर विनय चुप हो गए पर मैं जानती थी कि उन का मन भीतर ही भीतर चीत्कार कर रहा था. कुछ देर की खामोशी के बाद वे बोल पड़े, ‘‘मां, आज से आरती को आभा पढ़ाएगी.’’

‘‘बहुत हो गया यह पढ़ाईलिखाई का रोना, जितना पढ़ना है, खुद पढ़ लेगी और अगर तुझे ज्यादा चिंता है तो घर पर ही इस का ट्यूशन लगा दे.’’

‘‘ठीक है, ऐसा ही सही,’’ विनय ने समर्पण कर दिया. दूसरे दिन से आरती को पढ़ाने के लिए ट्यूटर आने लगा. सिर्फ 2 दिन बाद ही मां बोलीं, ‘‘विनय, आरती को वह टीचर पसंद नहीं है. बातबात पर डांटता है.’’

‘‘ठीक है, मैं बात करूंगा उस से.’’

‘‘बात करने की कहां जरूरत है, निकाल दे उसे और कोई दूसरा रख ले.’’

‘‘ठीक है,’’ विनय ने बात खत्म करने की मंशा से तुरंत मां की बात पर अपनी सहमति जताई.

‘‘आभा, क्या टीचर…?’’

‘‘नहीं, विनय, यह सच नहीं है. आरती पढ़ाई में कम और इधरउधर ज्यादा ध्यान देती है. टीचर ने 2-3 बार प्यार से समझाया पर जब आरती नहीं मानी तो थोड़ा जोर से…’’ मैं कहतेकहते रुक गई कि कहीं मैं कुछ गलत तो नहीं कर रही.

‘‘मैं समझ रहा हूं पर किया क्या जाए, आरती को मां के लाड़प्यार ने इतना बिगाड़ दिया है कि उसे किसी की ऊंची आवाज सुनना तो दूर, बड़ों की सीख सुनना भी गवारा नहीं. मैं क्या करूं, कैसे समझाऊं मां को कि बच्चे की भलाई के लिए प्यार और दुलार के साथसाथ कठोरता की भी जरूरत होती है. आभा, मैं कैसे भूलूं कि ये वही मां हैं जो बचपन में मेरे पढ़ाई न करने पर पिटाई कर देती थीं और आज…’’

विनय की हताशा से मेरा मन मुरझा गया. मां के जोर देने पर टीचर बदल दिया गया और फिर कुछ दिनों के बाद आरती को वही शिकायत. विनय थकने लगे थे और मेरा अपराधबोध बढ़ता जा रहा था. बहुत ही खींचतान कर के आरती ने 12वीं पास की.

‘‘मां, आरती अगर पढ़ना नहीं चाहती तो कुछ सीख ले, ऐसा काम जिस में

उस की रुचि हो और थोड़ाबहुत घर का काम.’’

‘‘चुप कर आभा, तुझे शर्म नहीं आती जो बच्ची से घर का काम करवाना चाहती है. तेरे सौतेलेपन की डाह आखिर डंक मारने लगी मेरी आरती को. कान खोल कर सुन ले, यह घर मेरा है. अगर दोबारा ऐसी बात की तो तुम सब का बोरियाबिस्तर बांध दूंगी. बेचारी बच्ची पढ़ती कैसे, घर में पढ़नेलिखने का माहौल तो हो?’’

ऐसा लग रहा था कि मेरे गाल पर मां लगातार थप्पड़ मारे जा रही हैं पर यह चोट तो शारीरिक चोट से कहीं अधिक गहरी थी. पलक जो दरवाजे पर खड़ी थी, ये सारी बातें सुन कर सहम गई.

‘‘मम्मा, क्या दादी हमें घर से निकाल देंगी?’’

‘‘नहीं बेटा, वे तो ऐसे ही…’’ मेरे शब्द गले में अटक गए. एकाधिकार, एकाधिपत्य आरती के जीवन का हिस्सा बन चुके थे.

‘पलक मेरे लिए चाय बना दे, पलक पानी लाना, मेरा सूट प्रैस कर दे, पलक,’ आरती के आदेशात्मक स्वर पूरे घर में गूंजते रहते और पलक कभीकभी झुंझला जाती.

‘‘पलक, आरती तुम्हारी बड़ी बहन है और बड़ों का काम हमें खुश हो कर करना चाहिए.’’

‘‘पर मम्मा, दीदी तो बड़ों का काम नहीं करतीं, दादी तक उन का काम करती हैं.’’

‘‘वह दरअसल…’’ पलक मेरे जवाब से संतुष्ट हो सके मैं ऐसे शब्दों को ढूंढ़ ही रही थी कि ‘‘रहने दीजिए, जानती हूं, दादी को आरती दीदी का काम करना पसंद नहीं.’’

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एक दिन…

‘‘विनय, तेरी मौसी का फोन आया था, आरती के लिए रिश्ता बताया है. शाम को जल्दी घर आ जाना, लड़के वालों के घर चल कर रिश्ते की बात चलानी है.’’

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बीती ताहि बिसार दे…: कैसे बदल गई देवेश की जिंदगी?

Serial Story: बीती ताहि बिसार दे… (भाग-3)

उस के बाद जब कभी शानिका आई, वह उस से सामना होने को टालता रहा. यह सोच कर कि शानिका से किसी पूर्व सूचना के घर आ गई. रागिनी उस समय घर पर नहीं थी. मां को प्रणाम कर वह किताबें ले कर स्टडीरूम में चली गई. उसे भी पता नहीं था कि देवेश इस समय घर पर होगा. देवेश को देख कर वह चौंक गई. शानिका को अचानक सामने आया देख कर देवेश भी चौंक गया. दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं. आज उसे शानिका बहुत दिनों बाद दिखाई दी. ‘‘अरे आप आज घर पर कैसे?’’

‘‘बस थोड़ा देर से जाऊंगा आज,’’ देवेश मुसकराते हुए बोला, ‘‘रागिनी को पता नहीं था कि आप आने वाली हैं? वह तो अभी घर पर नहीं है. पर जल्दी आ जाएगी.’’ ‘‘कोई बात नहीं मैं इंतजार कर लूंगी. ये लीजिए अपनी किताबें,’’ वह किताबें मेज पर रखती हुई बोली.

‘‘दूसरी किताबें देख लीजिए जो आप को चाहिए,’’ वह मीठे स्वर में बोला. वह शानिका की मौजूदगी को इतने दिनों से टाल रहा था. लेकिन अब सामने आ गई थी तो उस का दिल नहीं कर रहा था कि वह जाए. शानिका शेल्फ में किताबें देखने लगी. देवेश अपने दिल पर अकुंश नहीं रख पा रहा था. सोच रहा था, एक बार तो बात करे शानिका से कि आखिर वह क्या चाहती है. अपने ही ध्यान में जैसे किसी अदृश्य शक्ति से बंधा ऐसा सोचता हुआ वह उस के करीब आ गया.

‘‘शानिका,’’ वह भावुक स्वर में बोला. ‘‘जी,’’ एकाएक उसे इतने करीब देख कर शानिका उस की तरफ पलट गई.

‘‘मुझ से शादी करोगी?’’ उस की निगाहें उस के चेहरे पर टिकी थीं. उसे स्वयं पता नहीं था कि वह क्या बोल रहा है. ‘‘जी,’’ शानिका हकला सी गई, ‘‘मैं ने

ऐसा कुछ सोचा नहीं अभी,’’ वह उलझी, परेशान सी बोली. ‘‘तो कब सोचोगी?’’ देवेश का स्वर हलका सा कठोर हो गया.

शानिका गरदन झुकाए नीचे देखने लगी. ‘‘बोलो शानिका कब सोचोगी?’’

‘‘पता नहीं मेरे घर वाले मानेंगे या नहीं…’’ ‘‘अगर तुम्हारे घर वाले नहीं मानेंगे तो क्यों आई हो मेरी जिंदगी में तूफान ले कर,’’ वह उसे झंझोड़ता हुआ बोला, ‘‘क्यों मेरी भावनाओं को उकसाया तुम ने? मैं जैसा भी था अपने हाल से समझौता कर लिया था मैं ने. तुम ने क्यों हलचल मचा दी मेरे दिलदिमाग में. बताओ शानिका बताओ,’’ वह उसे बुरी तरह झंझोड रहा था. उस की आंखों में आंसू थे और चेहरे पर कठोरता के भाव.

शानिका देवेश को ऐसे रूप में देख कर हड़बड़ा सी गई. वह खुद को छुड़ाने का यत्न करने लगी. बोली, ‘‘छोड़ दीजिए मुझे. मैं आप की बात का जवाब बाद में दूंगी. आप अभी होश में नहीं हैं.’’ ‘‘मैं होश में नही हूं और होश में न ही आऊं तो ठीक है… जाओ चली जाओ मेरे सामने से. फिर कभी मत आना मेरे सामने,’’ कह कर उस ने शानिका को हलका सा धक्का दे कर छोड़ दिया.

शानिका रोती हुई बाहर निकल गई. तभी अंदर आती रागिनी ने उसे पकड़ लिया. पूछा, ‘‘क्या हुआ शानिका? ऐसी बदहावास सी क्यों हो रही है और रो क्यों रही है? भैया ने कुछ कहा क्या?’’ ‘‘नहीं…मैं घर जा रही हूं.’’

‘‘चली जाना…पहले मेरे साथ आ,’’ वह उसे खींचती हुई अपने बैडरूम में ले गई. उसे सहलाया, पानी पिलाया. जब वह संयत हो गई तो फिर बोली, ‘‘शानिका मैं नहीं जानता, तेरे और भैया के बीच ऐसी क्या बात हुई पर मैं बात का अंदाजा लगा सकती हूं. मैं जानती हूं भैया तुझ से बहुत प्यार करते हैं. तुझ से शादी करना चाहते हैं…मैं जानती हूं यह नामुमकिन है, फिर भी पूछना चाहती हूं कि तेरा दिल क्या कहता है? तेरे दिल में भैया के लिए वैसी कोमल भावनाएं हैं क्या? तू भी उन्हें पसंद करती है?’’ शानिका कुछ नहीं बोली. टपटप आंसू

गिरने लगे. ‘‘बोल न शानिका,’’ रागिनी उसे प्यार से सहलाते हुए बोली.

‘‘मेरे चाहने से क्या होता…मम्मीपापा को कौन मनाएगा? मैं तो बोल भी नहीं सकती उन से.’’ ‘‘मतलब कि तू भी भैया से प्यार करती है?’’

शानिका ने कोई जवाब नहीं दिया. चुपचाप नीचे देखती रही. थोड़ी देर दोनों चुप रहीं, फिर रागिनी बोली, ‘‘पापा की जिद्द ने भैया के जीवन में इतना बड़ा व्यवधान पैदा कर दिया. छोटी सी उम्र में उन्हें शादी के बंधन में बांध दिया और वह शादी उन के लिए नासूर बन गई. वरना तू भी जानती है कि मेरे भैया जैसा लड़का चिराग ले कर ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा, उन जैसा साथी पाने का तो कोई भी लड़की ख्वाब देख सकती है.’’ शानिका ने कोई जवाब नहीं दिया तो रागिनी फिर बोली, ‘‘अगर प्यार भैया से करती है, तो किसी दूसरे के साथ कैसे खुश रह पाएगी तू और जब तक अपनी बात नहीं बोलेगी तब तक कोई तेरी बात कैसे मानेगा…अपने दिल की बात अपने मातापिता से कहना कोई गुनाह तो नहीं. अगर प्यार करती है तो बोलने की भी हिम्मत कर. चुप मत रह. चुप रहना किसी समस्या का हल नहीं है. तेरी चुप्पी, भैया और तेरी दोनों की जिंदगी बरबाद कर देगी,’’ रागिनी ने उसे समझाबुझा कर घर भेज दिया.

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शानिका कुछ दिनों तक सोचती रही कि सही कहती है रागिनी. उस ने स्वयं को टटोला. उस के अंदरबाहर देवेश कब बस गया उसे पता ही नहीं चला. कब शनी से इतना प्यार हो गया वह समझ नहीं पाई. किसी दूसरे के साथ वह खुश नहीं रह पाएगी. अपने दिल की बात अपने मातापिता के आगे रखना कोई गुनाह तो नहीं है. उसे रागिनी की बात याद आई.

एक दिन हिम्मत कर के उस ने सधे शब्दों में मम्मी से अपने दिल की बात कर दी. मम्मी समझदार थीं. सहजता से, गंभीरता से, धैर्य से उस की बात सुनी फिर बोली, ‘‘यह क्या कह रही है बेटी… देवेश हर तरह से अच्छा लड़का सही. पर एक बच्चे का पिता है वह. पहले विवाह की बात हम भुला भी दें पर बच्चा आंखों देखी मक्खी तो नहीं निगली जा सकती न?’’

‘‘उस नन्हे से सब को इतनी नफरत क्यों है मम्मी?’’ वह रोआंसी सी हो गई, ‘‘जो सिर्फ प्यार की भाषा जानता है. उस का पिता तक उस से नफरत करता है. वह नन्हा बच्चा, जिसे कुछ भी पता नहीं सिर्फ सब से प्यार करना चाहता है और सब से प्यार पाना चाहता है, मुझे जिस बात पर ऐतराज नहीं, तो आप क्यों परेशान हो रही हैं? मैं सब संभाल लूंगी.’’ जब पिता व भाइयों तक बात पहुंची तो वे भी आपे से बाहर हो गए. उन्हें यहां तक लगा कि उन की भोलीभाली बेटी को उन लोगों ने बरगला दिया है. लेकिन शानिका भी कटिबद्ध थी सब को अपनी बात समझाने के लिए. उस ने अपने तर्कों से सब को परास्त कर दिया.

‘‘एक बात सोचिए पापा. देवेश व निमी के पिता ने अपनी जिद्द के कारण देवेश व निमी का जीवन बरबाद कर दिया…शनी से उस का बचपन छीन लिया…मातापिता का प्यार छीन लिया. क्या आप भी मेरे साथ ऐसी ही कोई गलती करना चाहते हैं?’’ सुन कर सब चुप हो गए. पता नहीं उस के कहने में कोई बात थी या बात में ही कोई दम था. तर्क अकाट्य था. निशाना अचूक और अपनी पूरी सत्यता के साथ उन के सामने था.

‘‘ठीक है, तेरी जिस में खुशी है उसी में हम सब की खुशी है,’’ कह कर पापा ने हथियार डाल दिए. शानिका की तो खुशी का ठिकाना नहीं था. अक्तूबर का महीना था. दीवाली का पर्व यानी रोशनी का त्योहार, देवेश के लिए तो सभी त्योहार जैसे बेमानी हो गए थे. वह कोई भी त्योहार नहीं मानता था. वह चुपचाप अपने स्टडीरूम में अंधेरे में बैठा था. खिड़की से बाहर दीयों व बिजली के लट्टुओं को जगमगाता देख रहा था. पटाखों की आवाज सुन रहा था और सोच रहा था कि उस की जिंदगी के गलियारों का अंधेरा तो इतना घना हो गया है, जिसे कोई भी चिराग रोशन नहीं कर सकता.

रागिनी दरवाजे पर रंगोली बना रही थी. तभी गेट खुला, उस ने किसी को अंदर आते देखा. आकृति के करीब आने पर वह चौंक गई, बोली, ‘‘शानिका तू? इस वक्त?’’ वह आश्चर्य से सुंदर सी साड़ी में सजी शानिका को देखती रह गई. ‘‘हां, आज तुम लोगों के साथ दीवाली मनाने आई हूं.’’

‘‘दीवाली मनाने…इतनी रात किस के साथ आई है…तेरे पापा ने कैसे आने दिया…’’ ‘‘पापा की आज्ञा ले कर आई हूं और भैया छोड़ कर गए हैं मुझे यहां,’’ शानिका मुसकरा रही थी. ‘‘अब हमेशा जिंदगी भर इसी घर में दीवाली मनाऊंगी.’’

‘‘क्या?’’ रागिनी आश्चर्यमिश्रित खुशी से बोली, ‘‘तू सच कह रही है शानिका?’’ ‘‘हां, मैं सच कह रही हूं…पापा मान गए.’’

‘‘तो अंदर चल न जल्दी,’’ खुशी के आवेग से उस की आवाज कांप रही थी. ‘‘भैया अंदर स्टडीरूम में बैठे हैं. जा जा कर उन्हें बुला ला.’’

शानिका स्टडीरूम में गई तो देवेश अपने खयालों में डूबा आंखें बंद कर चुपचाप बैठा था. वह धीरे से उस के पास जा कर खड़ी हो गई और उंगलियों से उस के बालों को सहलाती हुई बोली, ‘‘दीवाली जैसे रोशनी के पर्व में भी यों अंधेरे में बैठे हैं आप.’’ शानिकाका स्पर्श पा कर देवेश एकदम चौंक गया. बोला, ‘‘तुम यहां इस वक्त?’’

‘‘हां,’’ शानिका ने बिजली का स्विच औन कर दिया, ‘‘आप के साथ दीवाली मनाने आई हूं… पापा की आज्ञा ले कर… भैया छोड़ कर गए हैं मुझे. अब हमेशा आप के साथ दीवाली मनाऊंगी जिंदगी भर,’’ वह संजीदगी से बोली, ‘‘मैं ने भैया से कहा है कि घर वापस आप मुझे छोड़ देंगे. वे मुझे लेने न आएं. छोड़ देंगे न आप मुझे?’’ ‘‘शानिका…’’ देवेश अपनी जगह खड़ा हो गया, ‘‘क्या तुम सच कह रही हो? मजाक तो नहीं कर रही हो न? ऐसा मजाक मैं सहन नहीं कर पाऊंगा.’’

‘‘मैं सच कह रही हूं… पापा मान गए. मैं ने मना लिया मम्मीपापा को. वे बहुत समझदार हैं… मुझ से बहुत प्यार करते हैं. मेरी पसंद उन की पसंद,’’ वह शरमाते हुए बोली. ‘‘ओह शानिका,’’ कह खुशी के आवेग में देवेश ने शानिका को बांहों में भर कर सीने से लगा लिया.

फिर बोला, ‘‘चलो शानिका मां के पास चलते हैं, उन्हें भी बता दें.’’ ‘‘एक शर्त पर चलूंगी.’’

‘‘कौन सी?’’ ‘‘पहले शनी को ले कर आइए. मां सब से प्यारी चीज होती है बच्चे के जीवन में और एक मां के कारण ही शनी से उस का बचपन व पिता का प्यार छिन गया. अब मैं नहीं चाहती कि दूसरी मां की वजह से उस के शेष जीवन की खुशियां छिन जाएं. मैं उस की मां बन कर उस के पिता का प्यार उसे लौटाना चाहती हूं. आप के जीवन

में जो कुछ भी घटा उस में उस मासूम का कोई दोष नहीं.’’ ‘‘अब ले कर आता हूं,’’ देवेश हंस कर बाहर चला गया और फिर तुरंत शनी को ले आया.

दोनों ने शनी के हाथ पकड़े और मां के पास चले गए. शानिका को देख कर मां चौंक गईं. बोलीं, ‘‘शानिका तुम यहां इस वक्त?’’

शानिका प्रणाम करने के लिए मां के पैरों में झुक गई. ‘‘होने वाली बहू को गले लगाओ मां…इस दीवाली साक्षात लक्ष्मी आप के घर आ गई है,’’ रागिनी सजल नेत्रों से हंसते हुए बोली.

‘‘क्या सच…’’ मां ने बात की सचाई के लिए देवेश की तरफ देखा तो खुशी से दमकता देवेश का चेहरा देख अब कुछ भी देखनासमझना बाकी नहीं रह गया था. उन्होंने पैर छूती शानिका को उठा कर अपने गले से लगा लिया.

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खुशी के अतिरेक में देवेश ने शनी को गोद में उठा कर अपनी बांहों में भींच लिया. कभी न दुलारने वाले पापा को शनी हैरानी से देखने लगा. वहां वात्सल्य का सागर लहरा रहा था. बच्चा प्यार की भाषा बहुत जल्दी समझ जाता है. उस ने अपनी दोनों नन्हीनन्ही बांहें देवेश के गले में डाल दीं.

रागिनी पीछे खड़ी अपने बहते आंसुओं को लगातार पोंछ रही थी और मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि यह दीवाली उन के घर को ताउम्र रोशन रखे.

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