चुनौती: शर्वरी मौसी ने कौनसी तरकीब निकाली

family story in hindi

दोहराव: क्या हुआ था नेहा और कुसुम के साथ

शाम का धुंधलका सूर्य की कम होती लालिमा को अपने अंक में समेटने का प्रयास कर रहा था. घाट की सीढि़यों पर कुछ देर बैठ अस्त हो रहे सूर्य के सौंदर्य को निहार कर कुसुम खड़ी हुईं और अपने घर की ओर चलने लगीं. आज उन के कदम स्वयं गति पकड़ रहे थे…जब फूलती सांसें साथ देने से इनकार करतीं तो वह कुछ पल को संभलतीं मगर व्याकुल मन कदमों में फिर गति भर देता. बात ही कुछ ऐसी थी. कल सुबह की टे्रन से वह अपनी इकलौती बेटी नेहा के घर जा रही थीं. वह भी पूरे 2 साल बाद.

यद्यपि नेहा के विवाह को 2 साल से ऊपर हो चले थे मगर कुसुम को लगता था जैसे कल की बात हो. कुसुम के पति नेहा के जन्म के कुछ सालों के बाद ही चल बसे थे. उन के निधन के बाद कुसुम नन्ही नेहा को गोद में ले कर प्राकृतिक छटा से भरपूर उत्तराखंड के एक छोटे से कसबे में आ गईं. इस जगह ने कुसुम को वह सबकुछ दिया जो वह खो चुकी थीं. मानप्रतिष्ठा, नौकरी, घर और नेहा की परवरिश में हरसंभव सहायता.

कुसुम ने भी इन एहसानों को उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने छोटा सा स्कूल खोला, जो धीरेधीरे कालिज के स्तर तक पहुंच गया. उन्हीं की वजह से कसबे में सर्वशिक्षा अभियान को सफलता मिली.

कुसुम के पड़ोसी घनश्यामजी जब भी नेहा को देखते कुसुम से यही कहते, ‘बहनजी, इस प्यारी सी बच्ची को तो मैं अपने परिवार में ही लाऊंगा,’ और समय आने पर उन्होंने अपनी बात रखते हुए अपने भतीजे अनुज के लिए नेहा का हाथ मांग लिया.

अनुज एक संस्कारी और होनहार लड़का था. वह उत्तर प्रदेश सरकार के बिजली विभाग में इंजीनियर था. कुसुम ने नेहा को विवाह में देने के लिए कुछ रुपए जोड़ कर रखे थे, मगर अनुज ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि मुझे आप के आशीर्वाद के सिवा और कुछ नहीं चाहिए. मेरी पत्नी को मेरी कमाई से ही गृहस्थी चलानी होगी, अपने मायके से लाई हुई चीजों से नहीं. और उस की इस बात को सुन कर पल भर के लिए कुसुम अतीत में खो गई थीं.

उन के अपने विवाह के समय उन के पति ने भी ऐसा ही कुछ कह कर दहेज लेने से साफ मना कर दिया था. अपने दामाद में अपने दिवंगत पति के आदर्श देख कर कुसुम अभिभूत हो उठी थीं.

नेहा के विवाह के 2 महीने बाद कुसुम को कालिज के किसी काम से दिल्ली जाना था. लौटते हुए वह कुछ समय के लिए मेरठ में बेटीदामाद के घर रुकी थीं. बड़ा आत्मिक सुख मिला था कुसुम को नेहा का सुखी घरसंसार देख कर. हालांकि देखने में उन का घर किसी भी दृष्टि से सरकारी इंजीनियर का घर नहीं लग रहा था, फर्नीचर के नाम पर कुल 4 बेंत की कुरसियां थीं, 1 मेज और पुराना दीवान था. सामने स्टूल पर रखा छोटा ब्लैक एंड वाइट टीवी रखा था जो शायद अनुज के होस्टल के दिनों का साथी था. उन का घर महंगे इलेक्ट्रोनिक उपकरणों और फर्नीचर  से सजाधजा नहीं था मगर उन के प्रेम की जिस भीनीभीनी सुगंध ने उन के घर को महका रखा था उसे कुसुम ने भी महसूस किया था और वह बेटी की तरफ से पूरी तरह संतुष्ट हो खुशीखुशी अपने घर लौट आई थीं. आज वह एक बार फिर अपनी बेटी के घर की उसी सुगंध को महसूस करने जा रही थीं.

स्टेशन पर उतरने के बाद कुसुम की बेचैन आंखें बेटीदामाद को खोज रही थीं कि तभी पीछे से नेहा ने उन की आंखों पर हाथ रखरख कर उन्हें चौंका दिया. अनुज तो नहीं आ पाया था मगर नेहा अपनी मां को लेने ठीक समय पर पहुंच गई थी.

कुसुम ने बेटी को देखा तो वह कुछ बदलीबदली सी नजर आई थी, गाढ़े मेकअप की परत चढ़ा चेहरा, कीमती परिधान, हाथों और गले में रत्नजडि़त आभूषण. इन 2 सालों में तो जैसे उस का पूरा व्यक्तित्व ही बदल गया था. कुसुम सामान उठाने लगीं तो नेहा ने यह कहते रोक दिया,  ‘‘रहने दो, मम्मी, ड्राइवर उठा लेगा.’’

नेहा, मां को लेने सरकारी जीप में आई थी. जीप में बैठ नेहा मां को बताने लगी, ‘‘मम्मी, अनुज आजकल बड़े व्यस्त रहते हैं इसलिए मेरे साथ नहीं आ सके. हां, आप को लेने के लिए इन्होंने सरकारी जीप भेज दी है…हाल ही में इन का प्रमोशन हुआ है, बड़ी अच्छी जगह पोस्टिंग हुई है…उस जगह पर पोस्टिंग पाने के लिए इंजीनियर तरसते रहते हैं मगर इन को मिली…खूब कमाई वाला एरिया है…’’ इस के आगे के शब्द कुसुम नहीं सुन सकीं. नेहा के बदले व्यक्तित्व से वह पहले ही विचलित थीं. उन के मुंह से निकला, ‘कमाई वाला एरिया.’

नेहा की हर एक हरकत…हर एक बात उस की सोच में आए बदलाव का संकेत दे रही थी. उस की आंखों में बसी सादगी और संतुष्टि की जगह कुसुम को पैसे की चमक और अपने स्टेटस का प्रदर्शन करने की चाह नजर आ रही थी.

घर पहुंच कर कुसुम ने पाया कि घर भी नेहा की तरह उन के बढ़े हुए स्टेटस का खुल कर प्रदर्शन कर रहा है. आधुनिक साजसज्जा से युक्त घर में ऐशोआराम की हर एक चीज मौजूद थी.

‘‘लगता है, अनुज ने इन 2 सालों में काफी तरक्की कर ली है,’’ कुसुम ने चारों ओर दृष्टि घुमाते हुए पूछा.

‘‘अनुज ने कहां की है मम्मी, मैं ने जबरन इन के पीछे पड़ कर करवाई है… जब मैं ने देखा कि कभी इन के नीचे काम करने वाले कहां के कहां पहुंच गए और यह वहीं अटके पड़े हैं तो मुझ से रहा न गया…वैसे इन का बस चलता तो अभी तक हम उसी कबूतरखाने में पड़े रहते…’’

कुसुमजी समझ गईं कि उन की बेटी, शहर आ कर काफी सयानी हो गई है और पैसे बनाने की अंधी दौड़ में शामिल हो चुकी है. इस बात को ले कर वह गहन चिंता में डूब गईं.

‘‘अरे, मम्मी, आप अभी तक यों ही बैठी हैं, जल्दी से हाथमुंह धो कर फे्रश हो जाइए…खाना तैयार है…आप थकी होंगी, सो जल्दी खा कर सो जाइए…कल आराम से बातें करेंगे.’’

‘‘अनुज को आने दे…साथ ही डिनर करेंगे…वैसे बहुत देर हो गई है, कब तक आता है?’’

‘‘उन का तो कुछ भरोसा नहीं है, मम्मी, जब से प्रमोशन हुआ है अकसर देर से ही आते हैं…मैं तो समय पर खाना खा कर सो जाती हूं, क्योंकि ज्यादा देर से सोने से मेरी नींद उचट जाती है. वह जब आते हैं तो उन्हें नौकर खिला देता है.’’

‘‘मैं अनुज के साथ ही खाऊंगी, वैसे भी मुझे अभी भूख नहीं है, तुम चाहो तो खा कर सो जाओ…’’ कुसुम ने जवाब दिया.

थोड़ी ही देर में अनुज घर आया और आते ही कुसुम के चरण स्पर्श कर अभिवादन करते हुए बोला, ‘‘क्षमा करें, मम्मीजी, कुछ जरूरी काम आ गया था सो आप को लेने स्टेशन नहीं पहुंच सका.’’

‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ कुसुमजी बोलीं, ‘‘मगर यह तुम्हें क्या हो गया है… तुम्हारी तो सूरत ही बदल गई है…माना काम जरूरी है पर अपना ध्यान भी तो रखना चाहिए…’’

सचमुच इस अनुज की सूरत 2 साल पहले वाले अनुज से बिलकुल मेल नहीं खाती थी…निस्तेज आंखें, बुझा चेहरा, झुके कंधे, निष्प्राण सा शरीर…उस का पूरा व्यक्तित्व ही बदल गया था.

‘‘बस, मम्मीजी, क्या कहूं…काम कुछ ज्यादा ही रहता है,’’ इतना कह कर वह नजरें झुकाए अपने कमरे में चला गया और वहां जा कर नेहा को आवाज लगाई, ‘‘नेहा, ये 20 हजार रुपए अलमारी में रख दो, ये घर पर ही रहेेंगे…बैंक में जमा मत कराना.’’

अनुज के कमरे से आ रही पतिपत्नी की धीमी आवाज ने कुसुम पर वज्रपात कर दिया. 20 हजार रुपए, वह भी महीने के आखिर में…कहीं ये रिश्वत की कमाई तो नहीं…नेहा कह भी रही थी कि खूब कमाई वाले एरिया में पोस्टिंग हुई है…तो इस का अर्थ है कि इन दोनों को पैसे की भूख ने इतना अंधा बना दिया है कि इन्होंने अपने संस्कार, नैतिकता और ईमानदारी को ताक पर रख दिया. नहीं…मैं ऐसा हरगिज नहीं होने दूंगी…कुछ भी हो इन्हें सही राह पर लाना ही होगा. मन में यह दृढ़ निश्चय कर वह सोने चली गईं.

आज रविवार था. अनुज घर पर ही था. उस के व्यवहार से कुसुमजी को लग रहा था जैसे वह घरपरिवार की तरफ से उदासीन हो कर अपने में ही खोया…गुमसुम सा…भीतर ही भीतर घुट रहा है…घर की हवा बता रही थी कि उन दोनों का प्यार मात्र औपचारिकताओं पर आ कर सिमट गया है, मगर नेहा इस माहौल में भी बेहद सुखी और संतुष्ट नजर आ रही थी और यही बात कुसुम को बुरी तरह कचोट रही थी.

‘‘मम्मी, आज इन की छुट्टी है. चलो, कहीं बाहर घूम कर आते हैं और आज लंच भी फाइव स्टार होटल में करेंगे,’’ नेहा ने चहकते हुए प्रस्ताव रखा.

‘‘नहीं…आज हम तीनों कहीं नहीं जाएंगे बल्कि घर पर ही रह कर ढेर सारी बात करेंगे…और हां, आज खाना मैं बनाऊंगी,’’ कुसुमजी ने नेहा के प्रस्ताव को नामंजूर करते हुए कहा.

‘‘वाह, मम्मीजी, मजा आ जाएगा, नौकरों के हाथ का खाना खाखा कर तो मेरी भूख ही मर गई,’’ अनुज ने नेहा पर कटाक्ष किया.

‘‘हां…हां, जब घर में नौकरचाकर हैं तो मैं क्यों रसोई का धुआं खाऊं,’’ नेहा ने प्रतिवाद किया.

‘‘तुम्हें मसालेदार छोले और भरवां भिंडी बहुत पसंद हैं न…वही बनाऊंगी,’’ कुसुमजी ने बात संभाली.

‘‘अरे, मम्मीजी, आप को मेरी पसंद अभी तक याद है…नेहा तो शायद भूल ही गई,’’ अनुज के एक और कटाक्ष से नेहा मुंह बनाते हुए वहां से उठ कर चली गई.

‘‘चलो, बाहर लौन में बैठ कर कुछ देर धूप सेंकी जाए. मुझे तुम दोनों से कुछ जरूरी बातें भी करनी हैं,’’ लंच से निबट कर कुसुम ने सुझाव रखा.

बाहर आ कर बैठते ही कुसुम की भावमुद्रा बेहद गंभीर हो गई. उन की नजरें शून्य में ऐसे ठहर गईं जैसे अतीत के कुछ खोए हुए लमहे तलाश कर रही हों. कुछ देर खुद को संयत कर उन्होंने बोलना शुरू किया, ‘‘आज मैं तुम दोनों के साथ अपनी कुछ ऐसी बातें शेयर करना चाहती हूं जिन का जानना तुम्हारे लिए बेहद जरूरी है. बात उन दिनों की है जब मैं नेहा के पापा से पहली बार मिली थी. वह भी अनुज की तरह ही सरकारी विभाग में इंजीनियर थे. बेहद ईमानदार और उसूलों के पक्के. वह ऐसे महकमे में थे जहां रिश्वत का लेनदेन एक आम बात थी मगर वह उस कीचड़ में भी कमल की तरह निर्मल थे. हम ने एकदूसरे को पसंद किया और शादी कर ली. उन की जिद के चलते हमारी शादी भी बड़ी सादगी से और बिना किसी दानदहेज के हुई थी. पहले उन की पोस्टिंग उत्तरकाशी में थी.

‘‘साल भर बाद उन का तबादला गाजियाबाद हो गया. वह एक औद्योगिक शहर है, जो ऊपरी कमाई की दृष्टि से बहुत अच्छा था. वहां हमें विभाग की सरकारी कालोनी में घर मिल गया. उन्होंने मुझे शुरू  से ही हिदायत दी थी कि मैं वहां सरकारी कालोनी में रह रहे बाकी इंजीनियरों की बीवियों और उन के रहनसहन की खुद से तुलना न करूं क्योंकि उन का उच्च स्तरीय जीवन उन के काले धन के कारण है, जो हमारे पास कभी नहीं होगा.

‘‘धीरेधीरे मेरा पासपड़ोस में मेलजोल बढ़ने लगा और न चाहते हुए भी मैं उन के ठाटबाट से प्रभावित होने लगी. मेरे मन में भी उन सब की देखादेखी ऐशोआराम से रहने की इच्छा जागने लगी. मुझे लगने लगा कि यह लेनदेन तो जगत व्यवहार का हिस्सा है, जब इस दुनिया में हर कोई पैसे बटोर कर अपना और अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित कर रहा है तो हम ही क्यों पीछे रहें…

‘‘बस, मैं ने अपनी सहेलियों के बहकावे में आ कर उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया मगर उन्होंने अपने आदर्शों के साथ समझौता करना नहीं स्वीकारा. मैं उन्हें ताने देती, उन के सहकर्मियों की तरक्की का हवाला देती, यहां तक कि मैं ने उन्हें एक असफल पति भी करार दिया, मगर वह नहीं झुके.

‘‘इन्हीं उलझनों के बीच मैं गर्भवती हुई तो वह तमाम मतभेदों को भूल कर बेहद खुश थे. मैं ने उन से स्पष्ट कह दिया कि मैं इस हीनता भरे दमघोंटू माहौल में किसी बच्चे को जन्म नहीं दूंगी. हमारे घर संतान तभी होगी जब तुम अपने खोखले आदर्शों का चोगा उतार कर बाकी लोगों की तरह ही घर में हमारे और बच्चे के लिए तमाम सुखसुविधाओं को जुटाने का वचन दोगे. मुझे गर्भपात कराने पर उतारू देख तुम्हारे पिता टूट गए और धीरेधीरे धन पानी की तरह बरसने लगा…घर सुखसुविधाओं की चीजों से भरता चला गया.

‘‘मैं ने जो चाहा सो पा लिया, मगर तुम्हारे पिता का प्यार खो दिया. उस समय मेरी आंखों पर माया का ऐसा परदा पड़ा था कि मुझे इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ा कि वह किसी मशीन की भांति काम करते जा रहे थे और मैं अपने ऊंचे स्टेटस के मद में पागल थी.

‘‘फिर तुम्हारा जन्म हुआ, तुम्हारे आने के बाद तुम्हारे भविष्य के लिए धन जमा करने की तृष्णा भी बढ़ गई. सबकुछ मेरी इच्छानुसार ही चल रहा था कि एक दिन अचानक…’’

कुसुमजी की वाणी कुछ पल के लिए थम गई और उन की आंखें नम हो गईं….

‘‘एक दिन क्या हुआ, मम्मी?’’ नेहा ने विस्मित स्वर से पूछा.

‘‘…आफिस से खबर आई कि तुम्हारे पिता को भ्रष्टाचार विरोधी दस्ते ने धर दबोचा. अखबार में नाम आया…खूब फजीहत हुई और फिर मुकदमे के बाद उन्हें जेल भेज दिया गया…जेल जाते हुए उन्होंने मुझ को जिस हिकारत की नजर से देखा था वह मैं कभी भूल नहीं सकती…वह चुप थे, मगर उन की चमकती संतुष्ट नजरें जैसे कह रही थीं कि वह मुझे यों असहाय, भयभीत और अपमानित देख कर बेहद खुश थे.

‘‘बाद में पता चला कि उन्होंने अपनी इच्छा से ही खुद को गिरफ्तार करवाया था और अपना सब कच्चा चिट्ठा अदालत में खोल कर रख दिया था…मुझे दंडित करने का यही तरीका चुना था उन्होंने…जेल में वह कभी मुझ से नहीं मिले और एक दिन पता चला कि वहां उन का देहांत हो गया है…’’

इतना बता कर कुसुमजी फूटफूट कर रो पड़ीं…बरसों से बह रहे पश्चाताप के आंसू अभी भी सूखे नहीं थे…

‘‘मम्मी, इतनी तीक्ष्ण पीड़ा आप ने इतने साल कैसे छिपा कर रखी…मुझे तो कभी आभास भी नहीं होने दिया.’’

‘‘मन में अपार ग्लानि थी. बस, यही साध थी मन में कि बाकी जीवन उन के आदर्शों पर चल कर ही बिताऊं और तुम्हें भी तुम्हारे पिता के संस्कार दूं. मैं अब बूढ़ी हो चली हूं, पता नहीं कितने दिनों की मेहमान हूं…और कुछ तो नहीं है मेरे पास, बस यह आपबीती तुम दोनों को धरोहर के रूप में दे रही हूं…

‘‘वैसे, मैं ने देखा है कि  जो रिश्वत लेते हैं वे शराबीकबाबी हो जाते हैं और रातरात भर गायब रहते हैं. उन पर काम का भरोसा नहीं किया जा सकता है. और उन्हें छोटेमोटे प्रमोशन ही मिल पाते हैं. बेटी, इंजीनियरिंग ऐसा काम नहीं कि दोचार घंटे गए और हो गया. घंटों किताबों में मगजमारी करनी होती है और जिस को रिश्वत मिलती है, वह किताबों में नहीं पार्टियों में समय बिताता है, हो सकता है तुम्हें ये बातें बुरी लग जाएं पर मेरा अनुभव है. तुम्हारे पिता के जाने के बाद मैं यही तो देखती रही कि मैं गलत थी या तुम्हारे पिता,’’ कुसुम ने बात खत्म करते हुए कहा.

‘‘जरूर काम आएंगी मम्मी,… तुम्हारी यह धरोहर अब कभी मेरे कदम लड़खड़ाने नहीं देगी,’’ नेहा अपनी मां से लिपट गई. उस की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे जिन के साथ उस के भीतर छिपी न जाने कितनी तृष्णाएं भी बही जा रही थीं.

छितराया प्रतिबिंब- भाग 2: क्या हुआ था मलय के साथ

रात के 11 बज रहे होते, मैं मां की इन गपोरी सहेलियों के बीच कहीं अकेला पड़ा मां के इंतजार में थका सा, ऊबा सा सो गया होता. तब अचानक किसी के झ्ंिझोड़ने से मेरी नींद खुलती तो उन्हीं में से किसी एक सहेली को कहते सुनता, ‘जाओजाओ, मां दरवाजे पर है.’ मैं गिरतापड़ता मां का आंचल पकड़ता. साथ चल देता, नींद से बोझिल आंखों को मसलते. घर पहुंच कर मेरे न खाने और उन की खिलाने की जिद के बीच कब मैं नींद की गुमनामी में ढुलक जाता, मुझे पता न चलता. नींद अचानक खुलती कुछ शोरशराबे से.

भोर के 3 बज रहे होते, मेरी मां पिताजी पर चीखतीं, अपना सिर पीटतीं और पिताजी चुपचाप अपना बिस्तर ले कर बाहर वाले कमरे में चले जाते. मां बड़बड़ाती, रोती मेरे पास सोई मेरी नींद के उचट जाने की फिक्र किए बिना अपनी नींद खराब करती रहतीं.

मैं जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, दोस्तों की एक अलग दुनिया गढ़ रहा था. विद्रोह का बीज मन के कोने में पेड़ बन रहा था. हर छोटीबड़ी बातों के बीच अहं का टकराव उन के हर पल झगड़े का मुख्य कारण था. धीरेधीरे सारी बूआओं की शादी के बाद मेरी दादी भी अपने दूसरे बेटे के पास रहने चली गईं. मां का अकेलापन हाहाकार बन कर प्रतिपल अहंतुष्टि का रूप लेता गया. पिताजी भी पुरुष अहं को इतना पस्त होते देख गुस्सैल और जिद्दी होते गए. तीनों भाइयों की दुनिया में उन का घर यथावत था, लेकिन मुझे हर पल अपना घर ग्लेशियर सा पिघलता नजर आता था.

मैं एक ऐसा प्यारभरा कोना चाहता था जहां मैं निश्ंिचत हो कर सुख की नींद ले सकूं, अपनी बातें अपनों के साथ साझा करने का समय पा सकूं. मैं खो रहा था विद्रोह के बीहड़ में.
मैं इस वक्त 10वीं की परीक्षा देने वाला था और अब जल्दी ही इस माहौल से मुक्त होना चाहता था. सभी बड़े भाई अपनीअपनी पढ़ाई के साथ दूसरे शहरों में चले गए थे. मैं ने भी होस्टल में रहने की ठानी. उन दोनों की जिद भले ही पत्थर की लकीर थी लेकिन मेरी जिद के आगे बेबस हो ही गए वे. मेरे मन की करने की यह पहली शुरुआत थी जिस ने अचानक मेरे विद्रोही मन को काफी सुकून दिया. मुझे यह एहसास हुआ कि मैं इसी तरह अपने को खुश करने की कोशिश कर सकता हूं.

बस, जिस मां को मैं इतना चाहता था, जिसे अपनी पलकों में बिठाए रखना चाहता था, जिस की गोद में हर पल दुबक कर उन की लटों से खेलना चाहता था, उन की नासमझी की वजह से दिल पर पत्थर रख कर मारे गुस्से और नफरत के मैं उन से दूर भाग आया.

मेरी जिंदगी में अकेलेपन का सफर काफी लंबा हो गया था. होस्टल की पढ़ाई के बीच दोस्तों के साथ मनमानी मौज अकेलेपन को भुलाने की या उस दर्द को फटेचिथड़ों में लपेट कर दबा देने की नाकाम कोशिश भले ही रही लेकिन मेरा नया मैं, हर वक्त मेरे पुरातन मैं से नजरें चुराए ही रहना पसंद करता था.

जीवनयुद्ध में अब कामयाब होने की बारी थी क्योंकि मैं अकेले जीतेजीते इतना परिपक्व हो गया था कि समझ सकता था कि इस के बिना मैं डूब जाऊंगा. मैं अपनेआप को खुश रखने वाली स्थायी चीजों की तलाश में था. मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की और पिताजी की कृपा से मुक्त होने को एक अदद नौकरी की तलाश में प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगा. ऐसा नहीं था कि इस उम्र में लड़कियों ने मेरी जिंदगी में आने की कोशिश न की हो. मैं रूप की दृष्टि से अपनी मां पर गया था, इसलिए भी दूसरों की नजरों में जल्दी पड़ जाना या विपरीत सैक्स का मेरे प्रति सहज मोह स्वाभाविक ही था. और इस मामले में मुझ में गजब का आत्मविश्वास था जिस के चलते मैं स्वयं कभी सम्मोहित नहीं होता था. इन सब के बावजूद शादी को ले कर जो धारणाएं मेरे दिल में थीं उस लिहाज से वे मात्र शरीर सुख के अलावा कुछ नहीं थीं. मगर क्या कहूं इन अच्छे घरों की मासूम लड़कियों को. आएदिन लड़के दिखे नहीं कि थाल में दिल सजा कर आ गईं समर्पण करने.

इस मामले में लड़के भी कम दिलदार नहीं थे. लेकिन मैं इस मामले में पक्का था. जवानी की दहलीज पर दहकती कामनाओं को दिल में पल रहे रोष और विद्रोह का रूप दे कर बस तत्पर था स्थायी सुख की तलाश में.

समय की धार में बह कर एक दिन मैं सरकारी नौकरी के ऊंचे ओहदे की बदौलत क्वार्टर, औफिस सबकुछ पा गया. एक खोखली सी, जैसा कि मेरा पुरातन मैं सोचता, जिंदगी बाहरी दुनिया के लिए बहारों सी खिल गई थी.
कुछ साल और गुजरे. मांपिताजी कभीकभी मेरे बंगले में आ कर रहते. लेकिन बदलते हुए भी बदलना जैसे मुझे आता ही नहीं था.

अब भी मां हर वक्त पिताजी को लगातार कुछ न कुछ सुनाती रहती थीं. शायद अब यह फोबिया की शक्ल ले चुका था. पिताजी ने सोचसमझ कर अपने होंठ सिल रखे थे. ‘हर बात अनसुनी कर दो ताकि सामने वाले को यह एहसास हो कि वह दीवारों से बातें कर रहा है’ की मानसिकता के बूते पर रिश्ते घिसट रहे थे. इन सब के बीच मैं दिनोंदिन ऊबा सा, चिढ़ा सा महसूस करता था, जिस से अब भी उन दोनों को कोई लेनादेना नहीं था.

आखिर मैं ने इस अकेलेपन से उबरने का और थोड़ा मनोरंजन का तरीका ढूंढ़ निकाला, जैसे कि यह कोई जड़ीबूटी या जादू हो. मैं ने दूर प्रदेश की एक रूमानी सूरत वाली गेहुंए रंग की धीर, स्थिर, उच्च शिक्षिता से विवाह कर लिया. तरहतरह की कलाओं में पारंगत, सुंदर, रूमानी और विदुषी बिलकुल मेरी मां की तरह.

नौकरी के शुरुआती साल थे. सुंदर और समझदार पत्नी पा कर मैं घर की ओर से बेफिक्र हो गया था. मैं उसे चाहता था और मेरे चाहने भर से ही वह मुझ पर बिछबिछ जाती थी और यह एहसास जब मेरे लिए काफी था तो उसे पाने की जद्दोजहद कहीं बाकी ही नहीं रही.

इधर, नौकरी में मैं ऊंचे ओहदे पर था. अधीनस्थ मानते थे, सलाह लेते थे, मैं अपने अधिकार का भरपूर प्रयोग कर रहा था. अब तक का जीवन जो अकेलेपन की मायूसी में डूबा था, मेरे काम और तकनीकी बुद्धि की प्रखरता से प्रतिष्ठा की रोशनी से भर गया था. मेरा शारीरिक आकर्षण 30 की उम्र में उफान पर था, आत्मविश्वास चरम पर था, इसलिए मेरा सारा ध्यान बाहरी दुनिया पर केंद्रित था.

मैं एक रौबभरी दमदार जिंदगी का मालिक था, जिस में धीरेधीरे अतीत की हताशाओं पर जीत हासिल करने का दंभ भर रहा था. अतीत का एकांत मेरे पुरातन ‘मैं’ के साथ चमकदमक वाली दुनिया के किसी एक अंधेरे कोने में दुबक कर शिद्दत के साथ मेरा इंतजार कर रहा होता, लेकिन मैं उसे अनदेखा कर के अपनी दुनिया में व्यस्त होता जा रहा था. इसी बीच हमारी जिंदगी में बेटी कुक्कू आ गई. उस के आने के बाद मेरे अंतस्थल में ऐसी और कई परतें उभरीं जिन्हें अब तक मैं नहीं जानता था.

मेरे पिता ने हम बच्चों से दूरी बना कर हमारी नजरों में अपनेआप को जितना बुरा बनाया था और मेरी मां के पिताजी पर चीखनेचिल्लाने से उन की जो छवि हमारी नजरों में बनी थी, मैं अपनी कुक्कू के लिए कतई वह नहीं बनना चाहता था. मैं कुक्कू को पूरी तरह हासिल करने और उस की मां की तरफ झुकाव को बरदाश्त न कर पाने की ज्वाला से कब भरता जा रहा था, न तो मुझे ही पता चला और न ही कुक्कू को.

जब भी मुझे फुरसत मिलती, हम आपस में खेलते, बातें करते, लेकिन प्रतीति हमारे बीच आ जाती तो मैं मायूस हो जाता, कहीं कुक्कू का झुकाव उस की मां की तरफ हो जाए तो मैं अकेला रह जाऊंगा, मैं अपने पिता की तरह परिवार से दूर हो जाऊंगा. यह मेरे परिवार की बेटी है, मेरी बेटी है, मेरी अमानत. आखिर कुछ तो हो जो पूरी तरह से मेरा हो.

मैं अपनी मां को चाह कर भी हरदम अपने करीब न पा सका, जब देखो तब वे बस पिताजी को ले कर व्यस्त रहतीं. नहीं, मुझे सख्ती से प्रतीति को कुक्कू से दूर रखना होगा, उस का हर वक्त मेरे बच्चे को सहीगलत बताना, निर्देश देना मैं बरदाश्त नहीं कर पा रहा था.

पहचान: क्या रूपाली को पसंद आया भाभी का उपहार

बड़ी जेठानी ने माथे का पसीना पोंछा और धम्म से आंगन में बिछी दरी पर बैठ गईं. तभी 2 नौकरों ने फोम के 2 गद्दे ला कर तख्त पर एक के ऊपर एक कर के रख दिए. दालान में चावल पछोरती ननद काम छोड़ कर गद्दों को देखने लगी. छोटी चाची और अम्माजी भी आंगन की तरफ लपकीं. बड़ी जेठानी ने गर्वीले स्वर में बताया, ‘‘पूरे ढाई हजार रुपए के गद्दे हैं. चादर और तकिए मिला कर पूरे 3 हजार रुपए खर्च किए हैं.’’

आसपास जुटी महिलाओं ने सहमति में सिर हिलाया. गद्दे वास्तव में सुंदर थे. बड़ी बूआ ने ताल मिलाया, ‘‘अब ननद की शादी में भाभियां नहीं करेंगी तो कौन करेगा?’’ ऐसे सुअवसर को खोने की मूर्खता भला मझली जेठानी कैसे करती. उस ने तड़ से कहा, ‘‘मैं तो पहले ही डाइनिंग टेबल का और्डर दे चुकी हूं. आजकल में बन कर आती ही होगी. पूरे 4 हजार रुपए की है.’’

घर में सब से छोटी बेटी का ब्याह था. दूरपास के सभी रिश्तेदार सप्ताहभर पहले ही आ गए थे. आजकल शादीब्याह में ही सब एकदूसरे से मिल पाते हैं. सभी रिश्तेदारों ने पहले ही अपनेअपने उपहारों की सूची बता दी थी, ताकि दोहरे सामान खरीदने से बचा जा सके शादी के घर में.

अकसर रोज ही उपहारों की किस्म और उन के मूल्य पर चर्चा होती. ऐसे में वसुंधरा का मुख उतर जाता और वह मन ही मन व्यथित होती.

वसुंधरा के तीनों जेठों का व्यापार था. उन की बरेली शहर में साडि़यों की प्रतिष्ठित दुकानें थीं. सभी अच्छा खाकमा रहे थे. उस घर में, बस, सुकांत ही नौकरी में था. वसुंधरा के मायके में भी सब नौकरी वाले थे, इसीलिए उसे सीमित वेतन में रहने का तरीका पता था. सो, जब वह पति के साथ इलाहाबाद रहने गई तो उसे कोई कष्ट न हुआ.

छोटी ननद रूपाली का विवाह तय हुआ तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि रूपाली की ससुराल उसी शहर में थी जहां उस के बड़े भाई नियुक्त थे. वसुंधरा पुलकित थी कि भाई के घर जाने पर वह ननद से भी मिल लिया करेगी. वैसे भी रूपाली से उसे बड़ा स्नेह था. जब वह ब्याह कर आई थी तो रूपाली ने उसे सगी बहन सा अपनत्व दिया था. परिवार के तौरतरीकों से परिचित कराया और कदमकदम पर साथ दिया.

शादी तय होने की खबर पाते ही वह हर महीने 5 सौ रुपए घरखर्च से अलग निकाल कर रखने लगी. छोटी ननद के विवाह में कम से कम 5 हजार रुपए तो देने ही चाहिए और अधिक हो सका तो वह भी करेगी. वेतनभोगी परिवार किसी एक माह में ही 5 हजार रुपए अलग से व्यय कर नहीं सकता. सो, बड़ी सूझबूझ के साथ वसुंधरा हर महीने 5 सौ रुपए एक डब्बे में निकाल कर रखने लगी.

1-2 महीने तो सुकांत को कुछ पता न चला. फिर जानने पर उस ने लापरवाही से कहा, ‘‘वसुंधरा,  तुम व्यर्थ ही परेशान हो रही हो. मेरे सभी भाई जानते हैं कि मेरा सीमित वेतन है. अम्मा और बाबूजी के पास भी काफी पैसा है. विवाह अच्छी तरह निबट जाएगा.’’

वसुंधरा ने तुनक कर कहा, ‘‘मैं कब कह रही हूं कि हमारे 5-10 हजार रुपए देने से ही रूपाली की डोली उठेगी. परंतु मैं उस की भाभी हूं. मुझे भी तो कुछ न कुछ उपहार देना चाहिए.’’

‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कह कर सुकांत तटस्थ हो गए.

वसुंधरा को पति पर क्रोध भी आया कि कैसे लापरवाह हैं. बहन की शादी है और इन्हें कोई फिक्र ही नहीं. इन का क्या? देखना तो सबकुछ मुझे ही है. ये जो उपहार देंगे उस से मेरा भी तो मान बढ़ेगा और अगर उपहार नहीं दिया तो मैं भी अपमानित होऊंगी, वसुंधरा ने मन ही मन विचार किया और अपनी जमापूंजी को गिनगिन कर खुश रहने लगी.

जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ. रूपाली के विवाह के एक माह पहले ही उस के पास 5 हजार रुपए जमा हो गए. उस का मन संतोष से भर उठा. उस ने सहर्ष सुकांत को अपनी बचत राशि दिखाई. दोनों बड़ी देर तक विवाह की योजना की कल्पना में खोए रहे.

विवाह में जाने से पहले बच्चे के कपड़ों का भी प्रबंध करना था. वसुंधरा पति के औफिस जाते ही नन्हे मुकुल के झालरदार झबले सिलने बैठ जाती. इधर कई दिनों से मुकुल दूध पीते ही उलटी कर देता. पहले तो वसुंधरा ने सोचा कि मौसम बदलने से बच्चा परेशान है. परंतु जब 3-4 दिन तक बुखार नहीं उतरा तो वह घबरा कर बच्चे को डाक्टर के पास ले गई. 2 दिन दवा देने पर भी जब बुखार नहीं उतरा तो डाक्टर ने खूनपेशाब की जांच कराने को कहा. जांच की रिपोर्ट आते ही सब के होश उड़ गए. बच्चा पीलिया से बुरी तरह पीडि़त था. बच्चे को तुरंत नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा.

15 दिन में बच्चा तो ठीक हो कर घर आ गया परंतु तब तक सालभर में यत्न से बचाए गए 5 हजार रुपए खत्म हो चुके थे. बच्चे के ठीक होने का संतोष एक तरफ था तो दूसरी ओर अगले महीने छोटी ननद के विवाह का आयोजन सामने खड़ा था. वसुंधरा चिंता से पीली पड़ गई. एक दिन तो वह सुकांत के सामने फूटफूट कर रोने लगी. सुकांत ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘अपने परिवार को मैं जानता हूं. अब बच्चा बीमार हो गया तो उस का इलाज तो करवाना ही था. पैसे इलाज में खर्च हो गए तो क्या हुआ? आज हमारे पास पैसा नहीं है तो शादी में नहीं देंगे. कल पैसा आने पर दे देंगे.’’

वसुंधरा ने माथा ठोक लिया, ‘‘लेकिन शादी तो फिर नहीं होगी. शादी में तो एक बार ही देना है. किसकिस को बताओगे कि तुम्हारे पास पैसा नहीं है. 10 साल से शहर में नौकरी कर रहे हो. बहन की शादी के समय पर हाथ झाड़ लोगे तो लोग क्या कहेंगे?’’

बहस का कोई अंत न था. वसुंधरा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह खाली हाथ ननद के विवाह में कैसे शामिल हो. सुकांत अपनी बात पर अड़ा था. आखिर विवाह के 10 दिन पहले सुकांत छुट्टी ले कर परिवार सहित अपने घर आ पहुंचा. पूरे घर में चहलपहल थी. सब ने वसुंधरा का स्वागत किया. 2 दिन बीतते ही जेठानियों ने टटोलना शुरू किया, ‘‘वसुंधरा, तुम रूपाली को क्या दे रही हो?’’

वसुंधरा सहम गई मानो कोई जघन्य अपराध किया हो. बड़ी देर तक कोई बात नहीं सूझी, फिर धीरे से बोली, ‘‘अभी कुछ तय नहीं किया है.’’

‘पता नहीं सुकांत ने अपने भाइयों को क्या बताया और अम्माजी से क्या कहा,’ वसुंधरा मन ही मन इसी उलझन में फंसी रही. वह दिनभर रसोई में घुसी रहती. सब को दिनभर चायनाश्ता कराते, भोजन परोसते उसे पलभर का भी कोई अवकाश न था. परंतु अधिक व्यस्त रहने पर भी उसे कोई न कोई सुना जाता कि वह कितने रुपए का कौन सा उपहार दे रही है. वसुंधरा लज्जा से गड़ जाती. काश, उस के पास भी पैसे होते तो वह भी सब को अभिमानपूर्वक बताती कि वह क्या उपहार दे रही है.

वसुंधरा को सब से अधिक गुस्सा सुकांत पर आता जो इस घर में कदम रखते ही मानो पराया हो गया. पिछले एक सप्ताह से उस ने वसुंधरा से कोई बात नहीं की थी. वसुंधरा ने बारबार कोशिश भी की कि पति से कुछ समय के लिए एकांत में मिले तो उन्हें फिर समझाए कि कहीं से कुछ रुपए उधार ले कर ही कम से कम एक उपहार तो अवश्य ही दे दें. विवाह में आए 40-50 रिश्तेदारों के भरेपूरे परिवार में वसुंधरा खुद को अत्यंत अकेली और असहाय महसूस करती. क्या सभी रिश्ते पैसों के तराजू पर ही तोले जाते हैं. भाईभाभी का स्नेह, सौहार्द का कोई मूल्य नहीं. जब से वसुंधरा ने इस घर में कदम रखा है, कामकाज में कोल्हू के बैल की तरह जुटी रहती है. बीमारी से उठे बच्चे पर भी ध्यान नहीं देती. बच्चे को गोद में बैठा कर दुलारनेखिलाने पर भी उसे अपराधबोध होता. वह अपनी सेवा में पैसों की भरपाई कर लेना चाहती थी.

वसुंधरा मन ही मन सोचती, ‘अम्माजी मेरा पक्ष लेंगी. जेठानियों के रोबदाब के समक्ष मेरी ढाल बन जाएंगी. रिश्तेदारों का क्या है. विवाह में आए हैं, विदा होते ही चले जाएंगे. उन की बात का क्या बुरा मानना. शादीविवाह में हंसीमजाक, एकदूसरे की खिंचाई तो होती ही है. घरवालों के बीच अच्छी अंडरस्टैंडिंग रहे, यही जरूरी है.’

परंतु अम्माजी के हावभाव से किसी पक्षधरता का आभास न होता. एक नितांत तटस्थ भाव सभी के चेहरे पर दिखाई देता. इतना ही नहीं, किसी ने व्यग्र हो कर बच्चे की बीमारी के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. वसुंधरा ने ही 1-2 बार बताने का प्रयास किया कि किस प्रकार बच्चे को अस्पताल में भरती कराया, कितना व्यय हुआ? पर हर बार उस की बात बीच में ही कट गई और साड़ी, फौल, ब्लाउज की डिजाइन में सब उलझ गए. वसुंधरा क्षुब्ध हो गई. उसे लगने लगा जैसे वह किसी और के घर विवाह में आई है, जहां किसी को उस के निजी सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं है. उस की विवशता से किसी को सरोकार नहीं है.

वसुंधरा को कुछ न दे पाने का मलाल दिनरात खाए जाता. जेठानियों के लाए उपहार और उन की कीमतों का वर्णन हृदय में फांस की तरह चुभता, पर वह किस से कहती अपने मन की व्यथा. दिनरात काम में जुटी रहने पर भी खुशी का एक भी बोल नहीं सुनाई पड़ता जो उस के घायल मन पर मरहम लगा पाता.

शारीरिक श्रम, भावनात्मक सौहार्द दोनों मिल कर भी धन की कमी की भरपाई में सहायक न हुए. भावशून्य सी वह काम में लगी रहती, पर दिल वेदना से तारतार होता रहता. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ.

सभी ने बढ़चढ़ कर इस अंतिम आयोजन में हिस्सा लिया. विदा के समय वसुंधरा ने सब की नजर बचा कर गले में पड़ा हार उतारा और गले लिपट कर बिलखबिलख कर रोती रूपाली के गले में पहना दिया.

रूपाली ससुराल में जा कर सब को बताएगी कि छोटी भाभी ने यह हार दिया है, हार 10 हजार रुपए से भला क्या कम होगा. पिताजी ने वसुंधरा की पसंद से ही यह हार खरीदा था. हार जाने से वसुंधरा को दुख तो अवश्य हुआ, पर अब उस के मन में अपराधबोध नहीं था. यद्यपि हार देने का बखान उस ने सास या जेठानी से नहीं किया, पर अब उस के मन पर कोई बोझ नहीं था. रूपाली मायके आने पर सब को स्वयं ही बताएगी. तब सभी उस का गुणगान करेंगे. वसुंधरा के मुख पर छाए चिंता के बादल छंट गए और संतोष का उजाला दमकने लगा.

रूपाली की विदाई के बाद से ही सब रिश्तेदार अपनेअपने घर लौटने लगे थे. 2 दिन रुक कर सुकांत भी वसुंधरा को ले कर इलाहाबाद लौट आए. कई बार वसुंधरा ने सुकांत को हार देने की बात बतानी चाही, पर हर बार वह यह सोच कर खामोश हो जाती कि उपहार दे कर ढिंढोरा पीटने से क्या लाभ? जब अपनी मरजी से दिया है, अपनी चीज दी है तो उस का बखान कर के पति को क्यों लज्जित करना. परंतु स्त्रीसुलभ स्वभाव के अनुसार वसुंधरा चाहती थी कि कम से कम पति तो उस की उदारता जाने. एक त्योहार पर वसुंधरा ने गहने पहने, पर उस का गला सूना रहा. सुकांत ने उस की सजधज की प्रशंसा तो की, पर सूने गले की ओर उस की नजर न गई.

वसुंधरा मन ही मन छटपटाती. एक बार भी पति पूछे कि हार क्यों नहीं पहना तो वह झट बता दे कि उस ने पति का मान किस प्रकार रखा. लेकिन सुकांत ने कभी हार का जिक्र नहीं छेड़ा.

एक शाम सुकांत अपने मित्र  विनोद के साथ बैठे चाय पी रहे  थे. विनोद उन के औफिस में ही लेखा विभाग में थे. विनोद ने कहा, ‘‘अगले महीने तुम्हारे जीपीएफ के लोन की अंतिम किस्त कट जाएगी.’’

सुकांत ने लंबी सांस ली, ‘‘हां, भाई, 5 साल हो गए. पूरे 15 हजार रुपए लिए थे.’’ संयोग से बगल के कमरे में सफाई करती वसुंधरा ने पूरी बात सुन ली. वह असमंजस में थी. सोचा कि सुकांत ने जीपीएफ से तो कभी लोन नहीं लिया. लोन लिया होता तो मुझ को अवश्य पता होता. फिर 15 हजार रुपए कम नहीं होते. सुकांत में तो कोई गलत आदतें भी नहीं हैं, न वह जुआ खेलता है न शराब पीता है. फिर 15 हजार रुपए का क्या किया. अचानक वसुंधरा को याद आया कि 5 साल पहले ही तो रूपाली की शादी हुई थी.

वसुंधरा अपनी विवशता पर फूटफूट कर रोने लगी. काश, सुकांत ने उसे बताया होता. उस पर थोड़ा विश्वास किया होता. तब वह ननद की शादी में चोरों की तरह मुंह छिपाए न फिरती. हार जाने का गम उसे नहीं था. हार का क्या है, अपने लौकर में पड़ा रहे या ननद के पास, आखिर उस से रहा नहीं गया. उस ने सुकांत से पूछा तो उस ने बड़े निरीह स्वर में कहा, ‘‘मैं ने सोचा, मैं बताऊंगा तो तुम झगड़ा करोगी,’’ फिर जब वसुंधरा ने हार देने की बात बताई तो सुकांत सकते में आ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मुझे क्या पता था तुम अपना भी गहना दे डालोगी. मैं तो समझता था तुम बहन के विवाह में 15 हजार रुपए देने पर नाराज हो जाओगी,’’ वसुंधरा के मौन पर लज्जित सुकांत ने फिर कहा, ‘‘वसुंधरा, मैं तुम्हें जानता तो वर्षों से हूं किंतु पहचान आज सका हूं.’’

वसुंधरा को अपने ऊपर फक्र हो रहा था, पति की नजरों में वह ऊपर जो उठ गई थी.

प्रायश्चित्त- भाग 2: क्या प्रकाश को हुआ गलती का एहसास

‘एक परिवार टूटता है तो कितने सपने टूटते हैं, कितने अरमान बिखरते हैं, पता है तुझे? प्रेम, जिस प्रेम की तू दुहाई दे रही है वह प्रेम नहीं, भ्रम है तेरा. कोरी वासना है. ऐसे पुरुष कायर होते हैं, न वे पत्नी के होते हैं न प्रेमिका के. प्रेम में कोई इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है? किसी के अरमानों की लाश पर अपने प्रेम का महल खड़ा करेगी तू. अपना किया किसी न किसी रूप में एक दिन अपने ही सामने आता है, पछताएगी तू,’ मां एक लंबी सांस ले कर फिर बोलीं, ‘कोई भी निर्णय लेने से पहले सोच ले, कहीं ऐसा न हो कि अपमान और तिरस्कार के दर्द को धोने के लिए तेरे पास प्रायश्चित्त के आंसू भी कम पड़ जाएं, पर मैं जानती हूं कि इसे तू समझ नहीं सकेगी. तू समझना ही नहीं चाहती. मेरी बात मान ले और एक बार प्रकाश की पत्नी से मिल कर आ.’

निशा तो नहीं गई, पर एक दिन निशा की मां माया प्रकाश की पत्नी रजनी से मिलने पहुंच गईं. रजनी को देख कर माया पलकें झपकाना भी भूल गईं. उन का मुंह खुला का खुला रह गया. रजनी कितनी सुंदर थी. निशा और रजनी की क्या तुलना, क्या यही देख कर प्रकाश निशा की ओर आकृष्ट हुआ.

‘बेटा, मैं निशा की मां हूं. पता है तुझे निशा और प्रकाश…’ वे आगे कुछ कह न सकीं. ‘पता है,’ सारी पीड़ा को मन के कुएं में डाल कर रजनी ने मानो मुसकराहट के आवरण से चेहरा ढक दिया हो. ‘और तू चुप है?’

‘और क्या करूं, मां?’ उस के  मुख से ‘मां’ का संबोधन सुन माया चकित थीं. रजनी बोलती रही, ‘प्यार कोई किला तो नहीं है न जिस के चारों ओर पहरा लगाया जाए या उसे जीतने के लिए जान की बाजी लगा दी जाए, आखिर कुछ तो होगा ही निशा में जो मेरा प्रकाश मुझ से छीन ले गई.’

‘बेटा, तुम ने प्रकाश से बात की?’ ‘मुझे उन से कोई बात नहीं करनी, वे कोई भी निर्णय लेने के लिए आजाद हैं. मां, वह प्यार क्या जिसे झली फैला कर भीख की तरह मांगा जाए. अधिकार तो दिया जाता है, जो छीना जाए उस अधिकार में प्यार कहां? आप चिंतित न हों.’

‘कैसे चिंतित न होऊं, एक मां हूं मैं, किसी की दुनिया उजाड़ कर बेटी की मांग सजाऊं? सारा दोष निशा का है.’ ‘निशा को क्यों दोष दे रही हैं आप, वह तो न मुझ से मिली है न मुझे जानती है, वह मेरी दुश्मन कैसे हो सकती है. दोष है तो मेरे समय का.’

‘और प्रकाश? प्रकाश का कोई कुसूर नहीं?’ ‘है मां, लेकिन, उसे सजा देने वाली मैं कौन होती हूं. अब तो उन्होंने मुझ से माफी मांगने का अपना अधिकार भी खो दिया है. कहीं पानी का बहाव पत्थर डालने से रुका है, वह तो उसी वेग से उछल कर बहने के लिए दिशा तलाश लेता है.’

रजनी के कहे शब्दों को माया समझ न सकीं. उन्हें लगा कि पति के विद्रोह ने इसे विक्षिप्त कर दिया है. उन्होंने मन ही मन फैसला किया कि उसे एक बार प्रकाश से मिलना होगा, जहां निशा न हो.

एक दिन निशा की अनुपस्थिति में प्रकाश आया. खुद पर नियंत्रण न रख सकीं और बोलीं, ‘बेटा, मैं एक मां हूं. तुम्हारा, निशा का, रजनी का, किसी का बुरा कैसे सोच सकती हूं, पर न्यायअन्याय के बारे में तो सोचना पड़ेगा न. माना कि निशा नादान है, प्यार ने उसे अंधा बना दिया है, उस ने आज तक जिस चीज पर उंगली रखी वह उसे मिली है. खोना क्या होता है, इस का उसे एहसास नहीं है. पर तुम तो समझदार हो, अपने अच्छेबुरे की अक्ल है तुम में. अपनी जिम्मेदारी समझ. तुम अकेली रजनी और 2 छोटेछोटे बच्चे किस के भरोसे छोड़ आए हो. क्या प्यार की खाई में इतने नीचे जा गिरे हो कि आसमान भी धुंधला दिखाई पड़ रहा है.’

प्रकाश की आंखें भर आईं. वे बोले, ‘मां, मैं सब समझता हूं. मैं मानता हूं कि मुझ से भूल हो गई. मैं ने रजनी की कीमत पर निशा की कामना नहीं की थी. मैं तो निशा और रजनी दोनों से माफी मांगने को तैयार हूं. निशा तो शायद माफ भी कर दे, पर रजनी, वह तो इस विषय में क्या, किसी भी विषय में मुझ से बात करने को तैयार नहीं. पत्थर बन गई है वह. मेरी क्षमायाचना का उस पर कोई असर नहीं होता. अगर मैं उस के कदमों पर गिर भी पड़ूं तो भी वह मुझे माफ नहीं करेगी, बेहद स्वाभिमानी औरत है वह,’ लाचारी प्रकाश के शब्दों में समाती गई. वे फिर बोले, ‘वक्त ने आज मुझे जिंदगी के उस चौराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है, जहां की हर डगर निशा तक जाती है, सिर्फ निशा तक. अब तो न मुझे रजनी से बिछुड़ने का गम है न निशा से मिलने की खुशी.’

वक्त गुजरता गया. रजनी से तलाक मिल गया और प्रकाश का ब्याह निशा से हो गया. उस के बाद रजनी बच्चों को ले कर पता नहीं कहां चली गई. किसी को कुछ पता नहीं. न वह अपने मायके गई न ससुराल. उस के बगैर जीना इतना मुश्किल होगा, प्रकाश ने सोचा न था. प्रकाश चाह कर भी पूरी तरह खुद को रजनी से जुदा न कर सके. कई बार निशा झंझला कर कहती, ‘अगर उस रिश्ते का मातम मनाना था तो मुझ से ब्याह करने की क्या आवश्यकता थी. कोशिश तो करो, समय के साथ सबकुछ भुला सकोगे.’

‘क्या भुला सकूंगा, निशा मैं, यह कि 8 साल पहले अपना सबकुछ छोड़ कर एक भोलीभाली लड़की मेरे कदमों के पीछेपीछे चली आई थी, यह कि मैं ने अग्नि के सामने जीवनभर साथ निभाने की कसमें खाई थीं. कैसे भूल जाऊं उस की सिंदूर से भरी मांग, कैसे भूल जाऊं उस के हाथों की लाल चूडि़यां. किसी का सुखचैन लूट कर किसी की खुशियों पर डाका डाल कर तुम्हारा दामन खुशियों से भरा है मैं ने. मैं इतना निर्मोही कैसे हो गया? कैसे भूल जाऊं कि जो घरौंदा मैं ने और रजनी ने मिल कर बनाया था उसे मैं ने अपने ही हाथों नोच कर फेंक दिया और क्या कुसूर था उन 2 मासूम बच्चों का? क्या अधिकार था मुझे उन से खुशियां छीनने का? क्या कभी मैं इन तमाम बातों से अपने को मुक्त कर पाऊंगा?’

प्रायश्चित्त- भाग 1: क्या प्रकाश को हुआ गलती का एहसास

निशा के दिल और दिमाग में शून्यता गहराती जा रही थी. रोतेरोते रमिता का चेहरा लाल पड़ गया था, आंखों की पलकें सूज आई थीं. अपनी औलाद की आंखों में इतने सारे दुख की परछाइयां देख कर कौन मां विचलित नहीं हो जाएगी. इसलिए निशा का तड़प उठना भी स्वाभाविक ही था. वह एक बार रमिता को देखती, तो एक बार उस की गोद में पड़ी उस मासूम बच्ची अंकिता को जो दुनियादारी से बेखबर थी.

2 वर्षों पहले ही कितनी धूमधाम से निशा ने रमिता और तुषार का ब्याह किया था. दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे. एकदूसरे से प्रेम करते थे, फिर.अचानक निशा की नजर दरवाजे पर खड़ी शांताबाई पर पड़ी.

‘‘क्या है, तू यहां खड़ीखड़ी क्या कर रही है?’’ घूरते हुए निशा ने शांताबाई से कहा, ‘‘तुझ से दूध मांगा था न मैं ने बच्ची के लिए. और, मेरे नहाने के लिए पानी गरम कर दिया तू ने?’’

‘‘दूध ही तो लाई हूं, बहूजी, और पानी भी गरम कर दिया है.’’ ‘‘ठीक है, अब जा यहां से,’’ शांताबाई से दूध की बोतल छीन कर निशा बोली, ‘‘अब खड़ेखड़े मुंह क्या देख रही है. जा, जा कर अपना काम कर,’’ निशा अकारण ही झंझला पड़ी उस पर.

‘‘बहूजी, फूल तोड़ दूं?’’ ‘‘और क्या, रोज नहीं तोड़ती क्या?’’ निशा अच्छी तरह जानती थी कि शांता क्यों किसी न किसी बहाने यहीं चक्कर काटते रहना चाहती है.

सुबह जब रमिता आई तो प्रकाश वहीं बाहर बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे. कोई नई बात नहीं थी, वैसे भी रमिता हर  3-4 दिन में मां की अदालत में तुषार के खिलाफ कोई न कोई मुकदमा ले कर हाजिर रहती और फैसला भी उसी के पक्ष में होता. कभी यह कि, तुषार आजकल लगातार औफिस से घर देर से आता है, तो कभी यह कि तुषार फिल्म दिखाने का वादा कर के समय पर नहीं आया, तो कभी यह कि तुषार मेरा जन्मदिन भूल गया.

इन बातों को उस की मां निशा ने भले ही महत्त्व दिया हो, पर पिता प्रकाश हर बात हंसी में उड़ा देते. अकसर यही होता कि शाम को तुषार आता, सारे गिलेशिकवे छूमंतर और दोनों हंसतेमुसकराते वापस अपने घर चले जाते. पर आज बात कुछ और ही थी. प्रकाश की आंखें अखबार पर मंडरा रही थीं, पर कान कमरे में चल रहे मांबेटी के संवाद पर ही लगे रहे.

‘‘बस, मां, अब और नहीं. अब यह न कहना कि झगड़ा तुम ने ही शुरू किया होगा या तुम्हें तो समझता करना ही नहीं आता. मैं अब उस घर में कभी कदम नहीं रखूंगी. मैं तो कभी सोच भी नहीं सकती कि तुषार के दिल में मेरे सिवा किसी और का भी खयाल रहता है. बताओ मां, मेरे प्यार में ऐसी कौन सी कमी थी जो तुषार… मैं ने अपनी आंखों से उस लड़की की बांहों में बांहें डाले तुषार को बाजार में घूमते और फिर सिनेमाघर में जाते देखा है,’’ सिसकती हुई रमिता बोली, ‘‘मां, मैं तुषार से बहुत प्यार करती हूं, मैं उस के बिना जी नहीं सकती.’’

बेटी की बातें सुन कर निशा खामोश रह गई. प्रकाश बेचैनी से उस के उत्तर का इंतजार कर रहे थे. क्या निशा के पास रमिता के प्रश्न का कोई जवाब है? ‘‘कैसे बाप हो तुम? बेटी रोरो कर बेहाल हुई जा रही है और तुम्हारे पास उस के लिए सहानुभूति के बोल भी नहीं हैं.’’

प्रकाश ने देखा निशा की भी आंखें नम थीं और गला भरा हुआ था. ‘‘बैठो,’’ प्रकाश ने उस का हाथ पकड़ कर अपने करीब बैठा लिया और बोले, ‘‘कुछ देर के लिए उसे अकेला छोड़ दो. अभी वह बहुत परेशान है. वक्त हर समस्या का समाधान ढूंढ़ लेता है,’’ इतना कह कर प्रकाश की नजरें फिर अखबार के शब्दजाल में खो गईं.

प्रकाश की इन्हीं दार्शनिक बातों से निशा विचलित हो उठती है. निशा ने प्रकाश की चश्मा चढ़ी गंभीर आंखों को घूरा और मन ही मन सोचने लगी कि कहां से लाते हैं ये इतना धैर्य. ‘‘ऐसे क्या देख रही हो?’’ बिना देखे ही न जाने कैसे आभास हो गया उन्हें निशा के घूरने का.

‘‘कुछ नहीं,’’ ठहर कर बोली वह, ‘‘जो दर्द मुझे इस कदर तड़पा रहा है उस से आप इतने अनजान कैसे हो? सबकुछ परिस्थितियों के हवाले कर के इतना निश्ंिचत कैसे रहा जा सकता है?’’

‘‘निशा, कभीकभी जीवन में कुछ ऐसा घटता है जिस पर इंसान का वश नहीं रहता, कुछ नहीं कर सकता वह,’’ प्रकाश निशा के मन का तनाव कम करना चाहते थे.

‘‘तो आप का मतलब यह है कि हम यों ही हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें,’’ निशा बड़बड़ाती हुई कमरे की ओर बढ़ चली, ‘‘तुम पुरुष भी कैसे होते हो, गंभीर से गंभीर समस्या से भी मुंह मोड़ कर बैठ जाते हो.’’

उस कमरे में पहुंचते ही निशा के मन ने मन से ही प्रश्न किया, ‘तुम्हें सुनाई देती है किसी के सपने टूटने की आवाज? क्या होता है अरमानों का बिखरना, कैसे लुटती है किसी की दुनिया, क्या तुम जानती हो या नहीं जानती?’

निशा अपने भीतर की आवाज सुन कर सोचने लगी कि आज क्या होता जा रहा है उसे? 24 साल पहले की गई भूल का एहसास उसे आज क्यों हो उठा? तो क्या उस के किए की सजा उस की बच्ची को मिलेगी. अपनी गलतियों को याद कर उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. मन को नियंत्रित करने के सारे प्रयास विफल सिद्ध हुए. वक्त ने उसे अतीत के दलदल में धकेल दिया और वह उस में हर पल धंसती चली गई थी.

याद आ रहा था उसे मां का तमतमाया हुआ चेहरा. उस दिन उस ने मां को अपने और प्रकाश के विषय में सबकुछ बताया था. मां के शब्द उस के कानों में ऐसे गूंज रहे थे मानो कल की बात हो. ‘निशा, तू जानती है न बेटा, कि प्रकाश शादीशुदा है.’

‘हां मां,’  बात काटते हुए निशा बोली, ‘पर यह कहां का इंसाफ है कि एक इंसान जिस रिश्ते को स्वीकार ही नहीं करता, उस का बोझ ढोता रहे और फिर उस की पत्नी रजनी, वह खुद नहीं रहना चाहती प्रकाश के साथ.’

‘बेटा, रिश्ते कोई पतंग की डोर तो नहीं कि एक हाथ से छूटी और दूसरे ने लूट ली. और वह क्यों ऐसा चाहेगी, कभी सोचा है तू ने? एक पत्नी अपने पति के साथ कब रहना नहीं चाहती, जानना चाहती है तू, इसलिए नहीं कि वह उस से ज्यादा किसी और को चाहता है, बल्कि इसलिए कि उस ने उस के विश्वास को तोड़ा है. एक मर्यादा का उल्लंघन किया है,’ थोड़ा ठहर कर वे बोलीं.

ग्रहण- भाग 2: मां के एक फैसले का क्या था अंजाम

लेकिन प्रमोद को तो जैसे इस सब से कोई मतलब ही नहीं था. वह शादी से 1 दिन पहले घर आया. सुबह बरात जानी थी और रात को उस ने मुझ से कहा, ‘मां, तुम्हारी जिद और झूठे अहं की वजह से मेरी जिंदगी बरबाद होने वाली है. तुम चाहो तो अब भी सबकुछ ठीक हो सकता है. तुम सिर्फ एक बार, सिर्फ एक बार प्रभा से मिल लो. अगर मैं ने उस से शादी न की तो न मैं खुश रहूंगा, न कविता और न प्रभा. मुझ से अपनी ममता का बदला इस तरह चुकाने को न कहो, मां.’

मैं गुस्से से फुफकार उठी, ‘अगर तुझे अपनी मरजी से जीना है तो जहां चाहे शादी कर ले. पर याद रख, जिस क्षण तू उस कलमुंही के साथ फेरे ले रहा होगा, तब से मैं तेरे लिए मर चुकी होऊंगी.’

फिर मैं हलवाई के पास से मिट्टी के तेल का कनस्तर उठा लाई और प्रलाप करते हुए कहा, ‘ले प्रमोद, मैं खुद ही तेरे रास्ते से हट जाती हूं.’

प्रमोद ने मुझे रोका. वह रो रहा था. मैं उस के आंसुओं को देख कर पिघली नहीं, बल्कि विजयी ढंग से मुसकराई.

अगले दिन बरात में दूल्हा के अलावा बाकी सब मस्ती में झूम रहे थे, गा रहे थे, नाच रहे थे.

उन की शादी के बाद मैं चाहती थी कि वे दोनों कहीं घूमने जाएं. पर प्रमोद ने मना कर दिया. 2 दिनों बाद वह वापस मुंबई चला गया. मैं भी कविता के साथ उस की नई गृहस्थी बसाने गई. हम दोनों ने बड़े चाव से पूरे घर को सजाया.

सप्ताहभर बाद जब मैं पूना लौटी तो मन बड़ा भराभरा सा था, लग रहा था जैसे बरसों से देखा एक सपना पूरा हो गया. मेरे गुड्डेगुड्डी का घर बस गया.

उस वक्त मैं ने यह सोचा ही नहीं कि जीतेजागते इंसान गुड्डेगुडि़या जैसे नहीं होते. अगर सोचा होता तो कविता आधी रात को अकेली आ कर मुझ से यह सवाल न पूछती…

अचानक मेरी तंद्रा भंग हुई तो कहा, ‘‘कविता, तुम कल दिल्ली नहीं जाओगी. हम दोनों भोपाल जाएंगी,’’ मैं ने निर्णायक स्वर में कहा.

‘‘इस से क्या होगा, अम्मा?’’

‘‘देख कविता, प्रमोद तेरा पति है. उसे अब वही करना होगा जो तू चाहती है. शादी से पहले वह क्या करता था, मुझे इस से मतलब नहीं. पर अब…’’

‘‘अम्मा, आप ने उन दोनों की शादी क्यों नहीं की? न मुझे बीच में लातीं, न…’’ उस ने प्रतिवाद किया.

‘‘वह लड़की प्रमोद के लायक नहीं है,’’ मैं ने शुष्क स्वर में कहा.

‘‘क्यों नहीं है, अम्मा? वह भी पढ़ीलिखी है, सुशील है. सिर्फ इसलिए आप ने उसे नहीं स्वीकारा कि वह पैसे वाले घर की नहीं है, या…?’’ उस ने मेरे मर्म पर चोट की.

‘‘कविता, तुम्हें पता नहीं है, तुम क्या कह रही हो, मैं और कुंती बहुत पहले तुम दोनों की शादी तय कर चुकी थीं. शादीब्याह में खानदान का भी महत्त्व होता है, बेटी.’’

‘‘अम्मा, अगर मुझे पता होता कि आप ने इस शादी के लिए प्रमोद से जबरदस्ती की थी तो मैं कभी तैयार न होती. आप को भी तो पता था कि मैं फैशन डिजाइनिंग सीखने विदेश जाना चाहती थी. आप दोनों सहेलियों की वजह से प्रमोद भी दुखी हुए और मैं भी. आप ने ऐसा क्यों किया?’’ कविता फूटफूट कर रोने लगी.

मेरा दिल दहल उठा. मैं ने बड़े प्यार से उस का सिर सहलाते हुए कहा, ‘‘न रो बेटी, मैं वादा करती हूं कि तुझे तेरा पति वापस ला दूंगी.’’

पर उस की हिचकियां कम न हुईं. शायद उसे अब मुझ पर विश्वास नहीं रहा था.

पूना से मुंबई और फिर वहां से भोपाल…हम दोनों ही थक कर चूर हो चुकी थीं. मुझे पता था कि प्रभा ‘भारत कैमिकल्स’ में काम करती है. एक बार प्रमोद ने ही बताया था. वे दोनों भोपाल के इंजीनियरिंग कालेज में साथसाथ पढ़ते थे.

प्रमोद छुट्टियों में जब भी घर आता, प्रभा का जिक्र जरूर करता. पर मेरा उस से मिलने का कभी मन न हुआ. हमेशा यही लगता कि वह मेरे प्रमोद को मुझ से दूर ले जाएगी.

स्टेशन के ही विश्रामगृह में नहाधो कर हम एक रिकशा में बैठ कर ‘भारत कैमिकल्स’ के दफ्तर में पहुंचीं. वहां जा कर पता चला कि पिछले कुछ दिनों से प्रभा दफ्तर ही नहीं आ रही.

आखिरकार दफ्तर के एक चपरासी से प्रभा के घर का पता ले कर हम वहां चल पड़ीं. कविता पूरे रास्ते शांत थी. लग रहा था, जैसे वह इस नाटक की पात्र नहीं, बल्कि दर्शक है. प्रभा के घर के सामने रिकशे से उतरने के बाद कविता ने कहा, ‘‘अम्मा, आप अंदर जाइए. मैं यहीं बरामदे में बैठती हूं.’’

मैं ने घर की घंटी बजाई. 15-16 साल की एक लड़की ने दरवाजा खोला. मैं ने सीधे सवाल किया, ‘‘प्रमोद है?’’

वह चौंक गई. फिर संभल कर बोली, ‘‘वे तो दीदी के साथ अस्पताल गए हैं, आप अंदर आइए न.’’

उस की आवाज इतनी विनम्र थी कि मैं अंदर जा कर बैठ गई. घर सादा सा था, पर साफसुथरा था. वह मेरे लिए पानी ले कर आई और बोली, ‘‘मैं प्रभा दीदी की बहन हूं, विभा.’’

मैं ने अपना परिचय देने के बजाय फिर से सवाल पूछा, ‘‘प्रमोद यहां कब से है?’’

‘‘वे 2 दिनों पहले आए थे. मां जब से अस्पताल में भरती हुईं, तब से…’’ उस की आवाज भारी हो गई. फिर संयत स्वर में उस ने पूछा, ‘‘आप प्रमोदजी की मां हैं न? उन्होंने आप की तसवीर दिखाई थी.’’

‘‘घर में और कौनकौन हैं?’’

‘‘दीदी, मैं, छोटा भाई और मां.’’

विभा से छोटा भाई, यानी अभी स्कूल में ही होगा. मैं उठने ही लगी थी कि विभा बोल पड़ी, ‘‘आप बैठिए. मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं, फिर प्रमोदजी को यहां बुला लाऊंगी. अस्पताल यहां से ज्यादा दूर नहीं है.’’

‘‘बाहर मेरी बहू बैठी है, उसे भी अंदर बुला लाओ,’’ मुझे इतनी देर में पहली बार कविता का ध्यान आया.

‘‘जी, अच्छा,’’ कहती हुई विभा बाहर चली गई.

‘‘कविता के चेहरे से लग रहा था कि वह बहुत असहज महसूस कर रही है. विभा हम दोनों के लिए चाय और नाश्ता ले आई. उस के अंदर जाते ही कविता शुरू हो गई, ‘‘अम्मा, हम वापस चलते हैं. प्रमोद को बुरा लगेगा.’’

‘‘क्या बुरा लगेगा? मैं उस की मां हूं, तुम उस की पत्नी हो, बुरा तो हमें लगना चाहिए,’’ मैं ने गुस्से में कहा.

विभा तैयार हो कर आ गई, ‘‘आप लोग यहां बैठिए. मैं अभी उन्हें बुला कर लाती हूं.’’

‘‘नहीं, हम भी चलेंगे,’’ मैं उठ खड़ी हुई.

वह अचकचा गई, ‘‘आप क्यों…’’

‘‘चलो कविता,’’ मैं ने उसे भी उठने का इशारा किया. एक बार मैं जो तय कर लेती थी, कर के ही रहती थी. प्रमोद तो जानता ही था कि मैं कितनी जिद्दी हूं.

विभा अस्पताल पहुंच कर कुछ तेज कदमों से चलने लगी. वार्ड के बाहर तख्ती लगी थी, ‘कैंसर के मरीजों के लिए’. वह निसंकोच अंदर चली गई. कुछ मिनटों बाद प्रमोद लगभग दौड़ता हुआ बाहर आया, ‘‘मां, आप यहां?’’

ग्रहण- भाग 1: मां के एक फैसले का क्या था अंजाम

शाम से ही तेज हवा चल रही थी, घंटेभर बाद मूसलाधार बारिश होने लगी और बिजली चली गई. मेरे पति गठिया की वजह से ज्यादा चलफिर नहीं पाते थे. दफ्तर से आतेजाते बुरी तरह थक जाते थे. मैं ने घर की सारी खिड़कियां बंद कीं और रसोई में जा कर खिचड़ी बनाने लगी. अंधेरे में और कुछ बनाने की हिम्मत ही नहीं थी.

साढ़े 8 बजे ही हम दोनों खापी कर सोने चले गए. पंखा न चलने की वजह से नींद तो नहीं आ रही थी, लेकिन उठने का मन भी नहीं कर रहा था. मेरी आंख अभी लगी ही थी कि किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज से उठ बैठी. टौर्च जला कर देखा, साढ़े 9 बजे थे. सोचा कि इस वक्त कौन होगा? आजकल तो मिलने वाले, परिचित भी कभीकभार ही आते हैं और वह भी छुट्टी के दिन.

मैं धीरे से उठी. टौर्च की रोशनी के सहारे टटोलतेटटोलते दरवाजे तक पहुंची.

मेरे पति पीछे से आवाज लगा रहे थे, ‘‘शांता, जरा देख कर खोलना, पहले कड़ी लगा कर देख लेना, इस इलाके में आजकल चोरियां होने लगी हैं.’’

मैं ने दरवाजे के पास पहुंच कर चिल्ला कर पूछा, ‘‘कौन है?’’

2 क्षण बाद धीरे से आवाज आई, ‘‘अम्मा, मैं हूं, कविता.’’

कविता, मेरी बहू. मेरे इकलौते लाड़ले बेटे प्रमोद की पत्नी. मेरी घनिष्ठ सहेली कुंती की बेटी. 10 महीने पहले ही तो मैं ने बड़े चाव से उन की शादी रचाई थी. मैं ने हड़बड़ा कर दरवाजा खोल दिया.

बरसात में भीगीभागी कविता एक हाथ में सूटकेस और कंधे पर बैग लिए खड़ी थी.

‘‘कविता, इतनी रात गए? प्रमोद भी आया है क्या?’’

उस ने ‘नहीं’ में सिर हिलाया और अंदर आ गई. मेरा दिल धड़क उठा, ‘‘वह ठीक तो है न?’’

‘‘हां,’’ उस ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

‘‘वह कहां…मेरा मतलब है, प्रमोद क्यों नहीं आया?’’

‘‘वे भोपाल गए हैं?’’ वह शांत स्वर में बोली.

‘‘भोपाल?’’ मैं चौंक गई, ‘‘किसी से मिलने या दफ्तर के काम से?’’

‘प्रभा से मिलने गए हैं,’’ उस का स्वर इतना ठंडा था कि लगा, मेरे सीने पर बर्फ की छुरी चल गई हो.

‘‘प्रभा,’’ मैं कुछ जोर से बोली. उसी समय बिजली आ गई. कविता ने बात बदलते हुए कहा, ‘‘अम्मा, मैं भीग गई हूं, कपड़े बदल कर आती हूं.’’

वह सूटकेस खोल कर कपड़े निकालने लगी और फिर नहाने चली गई. मैं वहीं बैठ गई. अंदर से पति लगातार पूछ रहे थे, ‘‘शांता, कौन आया है?’’

फिर वे खुद ही उठ कर बाहर चले आए, ‘‘क्या बहू आई है? कुछ झगड़ा हुआ क्या प्रमोद के साथ?’’

‘‘पता नहीं, कह रही थी कि प्रमोद भोपाल गया है प्रभा से मिलने,’’ मैं धीरे से बोली.

‘‘मुझे पता था, एक दिन यही होगा. किस ने तुम से कहा था प्रमोद के साथ जबरदस्ती करने को? तुम्हारी जिद और झूठे अहं ने एक नहीं, 3-3 लोगों की जिंदगी खराब कर दी. लो, अब भुगतो,’’ वे बड़बड़ाते हुए वापस चले गए.

कविता कपड़े बदल कर आई. अचानक मुझे खयाल आया कि वह भूखी होगी. वह सुबह की गाड़ी से चली होगी. पता नहीं रास्ते में कुछ खाया भी होगा या नहीं. वह जिस हालत में थी, लग तो नहीं रहा था कि कुछ खाया होगा.

मैं ने फ्रिज से उबले आलू निकाल कर फटाफट तल दिए और मसाले में छौंक दिए. फिर डबलरोटी को सेंक कर उस के सामने रख दिए. वह चुपचाप खाने लगी. मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे वह अपने सीने में एक तूफान छिपाए बैठी हो.

मैं ने उस का बिस्तर सामने वाले कमरे में लगा दिया. वह हाथ धो कर आई तो मैं ने मुलायम स्वर में कहा, ‘‘कविता, तुम थक गई होगी, सो जाओ. कल सवेरे बात करेंगे.’’

‘‘कल सवेरे मैं, मां के पास दिल्ली चली जाऊंगी.’’

‘‘इतनी जल्दी?’’ मैं अचकचा गई.

‘‘मैं तो यहां आप से सिर्फ यह पूछने आई हूं कि आप ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?’’ उस की सवालिया निगाहें मुझ पर तन गईं.

‘‘बेटी, मैं ने सोचा था…’’

‘‘आप ने सोचा कि मुझ से शादी करने के बाद प्रमोद प्रभा को भूल जाएंगे, पर सच तो यह है कि वे एक क्षण भी उस को भुला नहीं पाए.’’

‘‘क्या तुम्हें प्रभा के बारे में सब पता है?’’ मैं ने डरतेडरते पूछा.

‘‘हां, प्रमोद ने शादी के पहले ही मुझे सबकुछ बता दिया था. इधर आप की जिद थी, उधर मेरी मां की. उस वक्त तो मैं ने भी यही सोचा था कि शादी के बाद वे सब भूलने लगेंगे. पर…’’

‘‘क्या प्रमोद ने तेरे साथ कुछ…’’

‘‘नहीं अम्मा, वैसे तो वे बहुत अच्छे हैं. पर प्रभा उन पर कुछ इस तरह हावी है कि वे मेरे साथ कभी सामान्य नहीं रहते.’’

मुझे प्रमोद पर गुस्सा आने लगा. इस तरह कविता को अकेले छोड़ कर भोपाल जाने का क्या मतलब?

मुझे सालभर पहले प्रमोद का कहा याद आया, ‘अम्मा, कविता को दूसरे अच्छे घर के लड़के मिल जाएंगे. पर प्रभा का मेरे अलावा और कोई नहीं है. उस के पिता नहीं हैं, मां बीमार रहती हैं. छोटे भाईबहन…’

‘तो क्या प्रभा से तुम इसलिए शादी करना चाहते हो कि उस का कोई नहीं? मैं तो उसे बहू के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती.’

‘मां,’ प्रमोद ने दयनीय स्वर में प्रतिवाद किया था.

‘देख प्रमोद, तेरी शादी कविता से ही होगी. मैं अपनी बचपन की सहेली कुंती को वचन दे चुकी हूं. फिर शादीब्याह में खानदान भी तो देखना पड़ता है. कविता के पिता की 2 फैक्टरियां हैं, एक होटल है. तेरा कितना अरसे से फैक्टरी लगाने का मन है. शादी के बाद चुटकियों में तेरा काम हो जाएगा.’

‘मां, मैं किसी और के पैसे से नहीं, अपने पैसों से फैक्टरी लगाऊंगा. फिर इतनी जल्दी क्या है? अभी 3 साल ही तो हुए हैं मुझे इंजीनियर बने हुए.’

‘मैं कुछ नहीं जानती. अगर तू ने ज्यादा जिद की तो मैं आत्महत्या कर लूंगी. वैसी भी सहेली के सामने जलील होने से तो अच्छा है मर जाऊं.’

फिर मैं ने सचमुच भूख हड़ताल शुरू कर दी थी, तब मजबूरी में प्रमोद को मेरी बात माननी पड़ी.

प्रमोद के ‘हां’ कहने भर से मैं खुश हो कर शादी की तैयारी में जुट गई. कविता के लिए साडि़यां मैं ने अपनी पसंद से लीं. नई डिजाइन के गहने बनवाए. मेरे सारे दूरदराज के रिश्तेदार सप्ताहभर पहले आ गए.

ग्रहण- भाग 3: मां के एक फैसले का क्या था अंजाम

मेरे पीछे खड़ी कविता शायद उसे दिखी नहीं. पर मुझे प्रमोद के पीछे आती एक दुबलीपतली, कंधे तक कटे बालों वाली सांवली, लेकिन अच्छे नैननक्श वाली लड़की दिख ही गई. मैं समझ गई कि यही प्रभा है.

प्रमोद के कुछ कहने से पहले मैं फट पड़ी, ‘‘तुम्हें कुछ खयाल भी है कि तुम्हारा घरबार है, पत्नी है, मां है, और…’’

‘‘मुझे सब पता है, मां. मैं भूलना चाहता हूं तो भी आप भूलने कहां देती हैं? आप जरा धीरे बोलिए, यह अस्पताल है,’’ उस के स्वर में कड़वाहट थी. वह पहली बार मुझ से इस ढंग से बोल रहा था.

अचानक विभा बाहर दौड़ती हुई आई. ‘‘दीदी, जल्दी अंदर चलो. मां को होश आ गया है.’’

प्रभा और प्रमोद तेजी से अंदर भागे. मेरे कदम भी उसी दिशा में बढ़ गए. कविता भी मेरे पीछे चली आई.

कमरे में एक कृशकाय महिला बड़े प्यार से प्रमोद का हाथ थामे बैठी थी. मुझे देख कर प्रमोद ने कुछ हड़बड़ाते हुए कहा, ‘‘आप इतने दिनों से मेरी मां से मिलने को कह रही थीं. देखिए, वे आप से मिलने आई हैं.’’

मुझे देख कर उस महिला की आंखों में आंसू उभर आए. वह हौले से बोली, ‘‘बहनजी, मैं मरने से पहले आप से एक बार मिलना चाहती थी. आप का बेटा प्रमोद मेरे लिए देवदूत जैसा है. पता नहीं, प्रभा ने ऐसा क्या कर्म किए हैं, जो उसे प्रमोद जैसा…’’ उन की आवाज आंसुओं में धुल गई.

मैं हतप्रभ सी खड़ी रही. अचानक प्रभा की मां का ध्यान कविता की ओर गया, ‘‘यह कौन है, बेटा?’’

प्रमोद ने तुरंत धीरे से कह डाला, ‘‘मेरी मौसेरी बहन है, मां के साथ आई है.’’

कविता के चेहरे का रंग लाल हो उठा. वह एक झटके में कमरे से बाहर निकल गई. उस के पीछेपीछे मैं भी बाहर जा पहुंची. वार्ड के बाहर एक कुरसी पर बैठ कर वह सिसकियां भरने लगी.

मेरी लाड़ली बहू रो रही थी और मेरा गुस्सा लगातार बढ़ रहा था. दो कौड़ी की महिला के सामने प्रमोद ने कविता को जलील किया, उस की यह हिम्मत?

प्रमोद वार्ड से बाहर आया और मेरे पास न आ कर सीधे कविता के पास पहुंचा और रूंधे स्वर से बोला, ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हें जलील करने के इरादे से ऐसा नहीं कहा था. उस वक्त मुझे कुछ और नहीं सूझा. दरअसल, प्रभा की मां मेरी शादी के बारे में नहीं जानती. उस की जिंदगी में एकमात्र आशा की किरण प्रभा से मेरी शादी है. इस वक्त जब वह कैंसर के अंतिम चरण से गुजर रही है, मैं अपनी शादी की बात बता कर समय से पहले उसे मारना नहीं चाहता. तुम समझ रही हो न?’’

कविता की सिसकियां धीरेधीरे रुकने लगीं. प्रमोद उसे बता रहा था, ‘‘मुझे प्रभा की मां से बहुत प्यार मिला है. मैं घर से दूर था. मुझे कभी उन्होंने घर की कमी न खटकने दी. मैं बीमार पड़ता तो पूरा परिवार दिनरात मेरी सेवा करता. प्रभा से मैं ने खुद विवाह का प्रस्ताव रखा था. इस पर भी मेरी शादी के बाद उस ने मुझे एक बार भी गलत नहीं कहा.

‘‘क्या इस परिवार के प्रति मेरा कोई कर्तव्य नहीं है? मुझ से ये लोग किसी चीज की आशा नहीं रखते. पर अगर मैं इस वक्त इन का साथ नहीं दूंगा तो खुद की नजरों में गिर जाऊंगा. कविता, मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. मैं ने तो तुम से कहा था कि मैं 3-4 दिनों बाद वापस आऊंगा. फिर भी तुम्हें सब्र क्यों न हुआ?’’

कविता का रोना रुक चुका था. वह गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो, प्रमोद, मैं ने तुम्हें गलत समझा. दरअसल, शादी से पहले जब तुम मुझ से मिले थे और प्रभा के बारे में बताया था, तभी मुझे समझ जाना चाहिए था. मैं तो बेकार में ही तुम दोनों के बीच आ गई.

‘‘तुम्हारी जरूरत मुझ से ज्यादा प्रभा और उस के परिवार को है. तुम चाहो तो अब भी अपनी गलती सुधार सकते हो. मैं तुम्हें आजाद करती हूं, प्रमोद. मैं दिल्ली लौट जाऊंगी और फैशन डिजाइनर बनने का सपना साकार करूंगी.’’

मैं हक्कीबक्की खड़ी रह गई. मुझे लग रहा था, मेरा अस्तित्व है ही नहीं, मेरे बनाए गुड्डेगुड्डी अब इंसानों की भाषा में बोलने लगे थे.

‘‘कविता, इतनी जल्दी कोई निर्णय मत लो. शादी कोई खेल नहीं है,’’ प्रमोद कठोर स्वर में बोला.

‘‘हां, वाकई खेल नहीं है. पर मैं अब और कठपुतली नहीं बन सकती,’’ कविता दृढ़ स्वर में बोली.

प्रभा और विभा हमारे पास आ गईं. प्रभा शांत स्वर में बोली, ‘‘आप लोग घर चलिए. खाना खा कर जाइएगा.’’

घर आ कर प्रभा और विभा ने फटाफट खाना तैयार किया. बिना एक भी शब्द कहे हम सब ने खाना खाया.

रात घिर आई थी. प्रभा ने बाहर वाले कमरे में हम सब के सोने का इंतजाम किया. प्रभा का व्यवहार देख कर मैं चकित रह गई. शांत, सुशील, कहीं से ऐसा नहीं लगा कि वह मुझ से नाराज है. उसे तो निश्चित ही पता होगा कि प्रमोद ने उस से शादी क्यों नहीं की? रात को मैं प्रमोद से कुछ न कह पाई, क्योंकि प्रभा का भाई अरुण हमारे कमरे में सोने चला आया और कविता प्रभा के साथ अंदर वाले कमरे में.

मुझे सारी रात नींद न आई. मैं जिंदगी में पहली बार अपने को पराजित महसूस कर रही थी, पर फिर भी हार मानने को तैयार न थी.

सवेरे उठते ही कविता ने घोषणा कर दी, ‘‘मैं आज ही दिल्ली चली जाऊंगी.’’

मैं ने प्रमोद से कहा, ‘‘देख बेटा, कविता को रोक ले. तू उसे अपने साथ मुंबई ले जा.’’

‘‘अम्मा, उसे कुछ दिनों के लिए दिल्ली हो आने दो. अब तुम हमारी जिंदगी में दखल न ही दो तो अच्छा है. हमारी जिंदगी है, हम रोते या हंसते हुए इसे काट लेंगे. आप जो करना चाहती थीं, वह तो हो ही गया. मैं जब जानबुझ कर गड्ढे में गिरा हूं तो शिकायत क्यों करूं?’’

प्रमोद भी उसी शाम की गाड़ी से मुंबई लौटना चाहता था. उस ने मुझे भी पूना तक का टिकट ला दिया. मेरे चलते समय प्रभा सामने आई ही नहीं. पता नहीं क्यों, मेरा दिल उस सहनशील लड़की के लिए कसक उठा. विभा और अरुण हमें स्टेशन तक छोड़ने आए.

कविता की गाड़ी पहले छूटनी थी. वह विभा से भावुक स्वर में बोली, ‘‘अपनी दीदी से कहना, मैं उस के बीच की दीवार नहीं हूं. जिंदगी में रोशनी के हकदार हम सभी हैं,’’ फिर प्रमोद से कहा, ‘‘इस बार तुम निर्णय स्वयं लेना.’’

प्रमोद ने संयत हो कर कहा, ‘‘इस समय तुम भावना में बह रही हो. कोई भी रिश्ता इतनी आसानी से काट कर फेंका नहीं जा सकता. तुम सोच कर जवाब देना, मैं इंतजार करूंगा.’’

फिर कविता ने मेरी तरफ देख कर हाथ जोड़ दिए. प्रमोद ने मुझे महिला डब्बे में बैठा दिया और खुद मुंबई जाने के लिए बसस्टैंड की तरफ बढ़ गया.

ज्यों ही गाड़ी चली, मुझे चक्कर सा आने लगा कि यह मैं ने क्या कर दिया? अपने स्वार्थ के लिए 3 युवाओं को दुखी कर दिया. ये तीनों अब कभी खुश नहीं हो पाएंगे, इन के सपनों के एक हिस्से में ग्रहण लग गया…और वह ग्रहण मैं हूं. मैं फूटफूट कर रोने लगी. आखिरकार मैं हार गई, मैं हार गई.

 

छितराया प्रतिबिंब- भाग 1: क्या हुआ था मलय के साथ

मेघों की अब मुझ से दोस्ती हो चली थी, शायद इस वजह से अब आसमान को ढक लेने की उन की जिद भी कुछ कम हो चली थी. खुलाखुला आसमान, जो कभी मेरी हसरतों की पहली चाहत थी, मेरे सामने पसरा पड़ा था. मगर क्या यह आसमान सच में मेरा था? मैं निहार रहा था गौर से उसे. सितारों की झिलमिलाहट कैसी सरल और निष्पाप थी. एक आह सी निकल आई जो मेरे दिल की खाली जगह में धुएं सी भर गई.

गंगटोक के होटल के जिस कमरे में मैं ठहरा था वहां से हरीभरी वादियों के बीच घरों की जुगनू सी चमकती रोशनियां और रात के बादलों में छिपा आसमान मेरे जीवन सा ही रहस्यमय था. शायद वह रहस्य का घेरा मैं ने ही अपने चारों ओर बनाया हुआ था या वह रहस्य मेरे जन्म के पहले से ही मेरे चारों तरफ था. जो भी हो, जन्म के बाद से ही मैं इस रहस्यचक्र के चारों ओर चक्कर काट रहा हूं.

मोबाइल बज उठा था, शरारती मेघों की अठखेलियां छोड़ मैं बालकनी से अपने कमरे में आया. बिस्तर पर पड़ा मोबाइल अब भी वाइब्रेशन के साथ बज रहा था. मुझे उसे उठाने की जल्दी नहीं थी, मैं बस नंबर देखना चाह रहा था. मेरी 10 साल की बेटी कुक्कू का फोन था. दिल चाहा उठा ही लूं फोन, सीने से चिपका कर उस के माथे पर एक चुंबन जड़ दूं, या उसे गोद में ही उठा लूं. उस के सामने घुटने मोड़ कर बैठ जाऊं और कह दूं कि माफ कर दे अपने पापा को, पर चाह कर भी मैं कुछ नहीं कर पाया.

फोन की तरफ खड़ाखड़ा देखता रहा मैं, फोन कट गया. मैं मुड़ने को हुआ कि फोन पुन: बजने लगा. मैं उसे उठा पाता कि वह फिर से कट गया. शायद प्रतीति होगी जिस ने मेरे फोन न उठाने पर कुक्कू को डांट कर फोन बंद करा दिया होगा.

गंगटोक में घूमने नहीं छिपने आया हूं. हां, छिपने. वह भी खुद से. जहां मैं ‘मैं’ को न पहचानूं और खुद से दूर जा सकूं. अपने पुरातन से छिप सकूं, अपने पहचाने हुए मैं से अपने ‘अनचीन्हे’ मैं को दूर रख सकूं. अनजाने लोगों की भीड़ में खुद से भाग कर खुद को छिपाने आया हूं.

यहां मुझे आए 9 दिन हो गए और अब तो प्रतीति का फोन आना भी बंद हो गया है. हां, मैं उस का फोन उठाऊं या नहीं, फोन की उम्मीद जरूर करता था और न आने पर जिंदगी के प्रति एक शिकायत और जोड़ लेता था. कुक्कू फिर भी शाम के वक्त एक फोन जरूर करती थी, वह भी ड्राइंग क्लास से. लाड़ में मैं ने ही मोबाइल खरीद दिया था उसे. बाहर अकेले जाने की स्थिति में वह मोबाइल साथ रखती थी. मैं बिना फोन उठाए फोन की ओर देख कर उस से बारबार माफी मांगता हूं, वह भी तब जब पूरी तरह आश्वस्त हो जाता हूं कि यह माफी मेरे पुरातन मैं के कानों तक नहीं पहुंच रही. बड़ा अहंकार है उसे अपने हर निर्णय के सही होने का.

आज रात नींद से मैं चिहुंक कर उठ बैठा. वह मेरा बचपन था, मुझे फिर नोचने आया था, मैं डर कर चीख कर भागता जा रहा था, सुनसान वादियों में कहीं खो चला था कि अचानक कहीं से एक डंडा जोर से हवा में लहराता हुआ आया और मेरे सिर से टकरा गया. मैं ने कराह कर देखा तो सामने पिताजी खड़े थे. मुझे ऐसा एहसास हुआ कि डंडा उन्होंने ही मुझ पर चलाया था, मेरी मां हंसतीगाती अपनी सहेलियों के संग दूर, और दूर चली जा रही थीं. मैं…मैं कितना अकेला हो गया था. आह, क्या भयावह सपना था. मैं ने उठ कर टेबल पर रखा पानी पिया. आज रात और नींद नहीं आएगी, वह हकीकत जो बरसों पहले मेरे दिमाग के पोरपोर में दफन थी, लगभग हर रात मुझे खरोंच कर बिलखता, सिसकता छोड़ कर भाग जाती है और मैं हर रात उन यादों के हरे घाव में आंसू का मरहम लगाता हुआ बिताता हूं.

पिताजी फैक्टरी में बड़े पद पर थे, सो जिम्मेदारी भी बड़ी थी. स्वयं के लिए स्वच्छंद जीवन के प्रार्थी मेरे पिताजी खेल और शिकार में भी प्रथम थे. दोस्तों और कारिंदों से घिरे वे अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहते थे. सख्त और जिम्मेदारीपूर्ण नौकरी के 12-12 घंटों से वे जब भी छूटते, शिकार या खेल, चाहे वह टेनिस का खेल हो या क्रिकेट या क्लब के ताश या चेस का, में व्यस्त हो जाते. मेरी मां अपने जमाने की मशहूर हीरोइन सुचित्रा सेन सी दिखती थीं.

बेहद नाजुक, बेहद रूमानी. उन की जिंदगी के फलसफे में नजाकत, नरमी, मुहब्बत और सतरंगी खयालों का बहुत जोर था. लेकिन ब्याह के बाद 5 अविवाहित ननदों की सब से बड़ी भाभी की हैसियत से उन्हें बेहद वजनी संसार को कंधों पर उठाना पड़ा, जहां प्यार, रूमानियत, नजाकत और उन की नृत्य अभिनय शैली, साजसज्जा के प्रति रुझान का कोई मोल नहीं था. सारा दिन शरीर थकाने वाले काम, ननदों की खिंचाई करने वाली भाषा, सासससुर की साम्राज्यवादी मानसिकता और पति का स्वयं को ले कर ज्यादा व्यस्त रहना. मेरी मां ने धीरेधीरे जीने की कला विकसित कर ली. जीजान से दूसरों के बारे में सोचने वाली मेरी मां में अब काफी कुछ बदल गया था, फिर साक्षी बना मैं. तीनों बेटों को अकेले पालतेपालते कब मैं उन की झोली में आ गिरा पता ही नहीं चला.

रात 3 बजे या कभी 2 बजे तक पिताजी क्लब में चेस या रात्रिकालीन खेल आयोजनों में व्यस्त रहते. इधर मेरी मां मारे गुस्से से मन ही मन कुढ़तीबिफरती रहतीं. सब लोगों को खाना खिला कर खुद बिना खाएपिए सिलाई ले कर बैठ जातीं. और तब तक बैठी रहतीं जब तक पिताजी न वापस आ जाते. सारा दिन और आधी रात बाहर रहने के बाद शायद मां का मोल पिताजी के लिए ज्यादा ही हो जाता, वे मां का सान्निध्य चाहते. लेकिन दिनभर की थकीहारी, प्रेम की भूखी, छोटेछोटे बच्चों को पालने में किसी सहारे की भूखी, ननदों की चिलम जलाने वाली बातों से जलीभुनी, सहानुभूति की भूखी मेरी मां दूसरे की भूख क्या शांत करतीं?

फिर रात हो उठती भयावह. रोनाधोना, चीखनाचिल्लाना, सिर पटकना-बदस्तूर जारी रहता. तीनों भैया मुझ से बड़े थे. उन के कमरे अलग थे जहां वे तीनों साथ सोते. मैं सब से छोटा होने के कारण अब भी मां के आंचल में था. कुछ हद तक मां मुझे दुलार कर या मेरे साथ अपनी बातें बता कर अकेलापन दूर करतीं. बंद पलकों में मेरी जगी हुई रातें सुबह मेरी सारी ऊर्जा समाप्त कर देतीं.

स्कूल जा कर अलसाया सा रहता. स्कूल के टीचर पिताजी से मेरी शिकायत करते. मैं क्याकुछ सोचता और सोता रहता, स्कूल भेजे जाने का कोई फायदा नहीं, मुझ से पढ़ाई नहीं होगी आदि. मेरी 8 वर्ष की उम्र और पिताजी की बेरहम मार, मां दौड़ कर बचाने आतीं, धक्के खातीं, फिर जाने मां को कितना गुस्सा आता. विद्रोहिणी सीधे पिताजी को धक्के देने की कोशिश करतीं. उलट ऐसा करारा हाथ उन के गालों पर पड़ जाता कि उन का गाल ही सूज जाता. फिर अड़ोसपड़ोस में कानाफूसी, रिश्तों को निभाने का आडंबर सब के सामने अजीब सी नाटकीयता और अकेले में फूला हुआ सा मुंह. सबकुछ मेरे लिए कितना असहनीय था.

क्यों नहीं मेरे पिताजी थोड़ा सा समय मेरी मां के लिए निकालते? क्यों नहीं उन की छोटीबड़ी इच्छाओं का खयाल रखते? क्यों मेरी मां इन ज्यादतियों के बावजूद चुप रहतीं? अकसर ही मैं सोचता.
धीरेधीरे फैक्टरी में काम करने वाले बाबुओं की बीवियां मेरी मां की पक्की सहेलियां बनती गईं. उन के साथ बाहर या पार्टियों में वक्त गुजारना मां का प्रिय शगल बन गया.

मेरे भाइयों की अपने दोस्तों के साथ एक अलग दुनिया बन गई थी, जहां वे खुश थे. शाम को जब वे खेल कर घर वापस आते तो अपनी पढ़ाई वे खुद कर लेते, खापी कर वे सब अपने कमरे में निश्ंिचत सोने चले जाते. मगर मैं मां के सब से करीब था, जरूरत की वजह से भी और अपनी तनहाई की वजह से भी. मेरे जन्म से पहले मेरी मां कैसी थीं, इस से मुझे अब कोई सरोकार न था लेकिन मेरे जन्म के कुछ सालों बाद परिस्थितिवश मेरी मां घरपरिवार की चखल्लस जल्दी से जल्दी निबटा कर शाम होते ही सहेलियों में यों खो जातीं कि मैं तनहा इन बेअदब अट्टहासों की भीड़ में तनहाई की दीवार से सिर पटकता कहीं खामोश सा टूट रहा होता.

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