Serial Story: छांव (भाग-2)

लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

मौसम के न जाने कितने रंग आतेजाते रहे पर मां ने घर में एक ऐसी रेखा खींच दी थी कि पतझड़ जाने का नाम ही नहीं ले रहा था और बसंत को लाने की भरसक कोशिश करती रही इस सच को भूल कर कि इंसान के लाख चाहने पर भी ऋतुएं प्रकृति की इच्छा से ही बदलती हैं. समय सरकता जा रहा था. अब पलक स्कूल जाने लायक हो गई थी.

‘‘विनय, पलक का ऐडमिशन उसी स्कूल में करवाना जहां आरती जाती है, क्या पता दोनों बहनें वहां एकदूसरे के करीब आ जाएं.’’

‘‘तुम्हें लगता है ऐसा होगा, पर मुझे नहीं लगता कि यह संभव है, मां ने आरती को किसी और रिश्ते को पहचानने ही कहां दिया है.’’

विनय की कही गई इस सचाई को मैं झुठला भी नहीं सकती थी. मेरे भीतर एक गहरी टीस थी कि अगर मैं विनय के जीवन में नहीं आती तो आरती अपने पिता से यों दूर न होती. इस ग्लानि से मैं तभी मुक्ति पा सकती थी जब आरती हमें अपने जीवन से जोड़ ले. और पलक ही मुझे वह कड़ी नजर आ रही थी पर यह इच्छा प्रकृति ने ठुकरा दी.

‘‘मम्मा, दीदी लंच टाइम में मुझ से बात नहीं करतीं. वे मुझे देख कर चली जाती हैं. मम्मा, दीदी ऐसा क्यों करती हैं? मेरी फ्रैंड की दीदी तो उस से बहुत प्यार करती हैं, अपना टिफिन भी शेयर करती हैं, दीदी मुझ से गुस्सा क्यों हैं?’’

क्या समझाऊं, कैसे समझाऊं समझ नहीं आ रहा था, ‘‘दीदी आप से नाराज नहीं हैं, बेटा, वे कम बोलती हैं न इसलिए,’’ मेरे इस जवाब को सुन कर पलक कुछ और पूछे बिना किचन में चली गई.

‘‘विनय, कल तुम मेरे साथ बाजार चलना, आरती के लिए कुछ कपड़े लाने हैं.’’

‘‘मां, पिछले महीने ही तो…’’

‘‘तो क्या हुआ, बच्ची को पहननेओढ़ने का शौक है और तू जो कल पलक के कपड़े ले कर आया है?’’

‘‘मां, नर्सरी क्लास में यूनीफार्म नहीं है इसलिए लाना जरूरी था वरना वह

तो आरती के पुराने कपड़े पहनती आ रही है.’’

‘‘तो इस में अनोखी बात कौन सी हो गई? हर छोटा बच्चा बड़े भाईबहन के कपड़े पहनता है. खबरदार जो मेरी बच्ची के साथ भेदभाव करने की कोशिश की, मां तो सौतेली है ही, अब बाप भी…’’ मां यह कहते हुए बरामदे में चली गईं.

विनय बुत बने मां को जाते देखते रहे.

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‘‘विनय, तुम मां की बात को खामोशी से मान लिया करो. देखो, अब तुम्हारा मन भी दुखी हुआ और मां को भी गुस्सा आ गया.’’

‘‘आभा, क्या मां से इस घर की स्थिति छिपी है. तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा तो घर की किस्तों में ही निकल जाता है और यह कैसे संभव है कि रोजरोज…’’ विनय के स्वर की पीड़ा मेरे मन को बींध रही थी पर क्या करूं अपनी बेबसी और लाचारी पर कभीकभी गुस्सा आता, मन करता कि मां से चीखचीख कर कहूं कि वे घर को 2 हिस्सों में न बांटें.

किस अधिकार से उन्हें कुछ कहती, उन्होंने न तो मुझे अपनी बहू माना और न ही आरती की मां. मां आरती के जितने करीब थीं उतनी ही पलक से दूर. दादी और दीदी के द्वारा दी गई अवहेलना पलक के भीतर घाव कर रही थी, यह सच मेरी पीड़ा को गहराए जा रहा था. समय की सुइयां टिकटिक करते आगे बढ़ती गईं, धीरेधीरे न केवल पलक के घाव भर गए बल्कि उसे अपने और आरती के बीच का अंतर भी समझ में आ गया.

‘‘मां, आप ने आरती का रिजल्ट देखा है, थर्ड डिवीजन…’’

‘‘तो क्या हुआ? तुझे नौकरी करवानी है क्या उस से?’’

‘‘मां, आप क्यों नहीं समझतीं कि पढ़नेलिखने का संबंध सिर्फ नौकरी करने से नहीं है. विद्या अच्छी समझ और सोच देती है.’’

‘‘विनय, यह भी खूब रही. तू बता, मैं तो अनपढ़ हूं. तो क्या मुझ में अच्छी सोच और समझ नहीं है?’’

मां की इस बात को सुन कर विनय चुप हो गए पर मैं जानती थी कि उन का मन भीतर ही भीतर चीत्कार कर रहा था. कुछ देर की खामोशी के बाद वे बोल पड़े, ‘‘मां, आज से आरती को आभा पढ़ाएगी.’’

‘‘बहुत हो गया यह पढ़ाईलिखाई का रोना, जितना पढ़ना है, खुद पढ़ लेगी और अगर तुझे ज्यादा चिंता है तो घर पर ही इस का ट्यूशन लगा दे.’’

‘‘ठीक है, ऐसा ही सही,’’ विनय ने समर्पण कर दिया. दूसरे दिन से आरती को पढ़ाने के लिए ट्यूटर आने लगा. सिर्फ 2 दिन बाद ही मां बोलीं, ‘‘विनय, आरती को वह टीचर पसंद नहीं है. बातबात पर डांटता है.’’

‘‘ठीक है, मैं बात करूंगा उस से.’’

‘‘बात करने की कहां जरूरत है, निकाल दे उसे और कोई दूसरा रख ले.’’

‘‘ठीक है,’’ विनय ने बात खत्म करने की मंशा से तुरंत मां की बात पर अपनी सहमति जताई.

‘‘आभा, क्या टीचर…?’’

‘‘नहीं, विनय, यह सच नहीं है. आरती पढ़ाई में कम और इधरउधर ज्यादा ध्यान देती है. टीचर ने 2-3 बार प्यार से समझाया पर जब आरती नहीं मानी तो थोड़ा जोर से…’’ मैं कहतेकहते रुक गई कि कहीं मैं कुछ गलत तो नहीं कर रही.

‘‘मैं समझ रहा हूं पर किया क्या जाए, आरती को मां के लाड़प्यार ने इतना बिगाड़ दिया है कि उसे किसी की ऊंची आवाज सुनना तो दूर, बड़ों की सीख सुनना भी गवारा नहीं. मैं क्या करूं, कैसे समझाऊं मां को कि बच्चे की भलाई के लिए प्यार और दुलार के साथसाथ कठोरता की भी जरूरत होती है. आभा, मैं कैसे भूलूं कि ये वही मां हैं जो बचपन में मेरे पढ़ाई न करने पर पिटाई कर देती थीं और आज…’’

विनय की हताशा से मेरा मन मुरझा गया. मां के जोर देने पर टीचर बदल दिया गया और फिर कुछ दिनों के बाद आरती को वही शिकायत. विनय थकने लगे थे और मेरा अपराधबोध बढ़ता जा रहा था. बहुत ही खींचतान कर के आरती ने 12वीं पास की.

‘‘मां, आरती अगर पढ़ना नहीं चाहती तो कुछ सीख ले, ऐसा काम जिस में

उस की रुचि हो और थोड़ाबहुत घर का काम.’’

‘‘चुप कर आभा, तुझे शर्म नहीं आती जो बच्ची से घर का काम करवाना चाहती है. तेरे सौतेलेपन की डाह आखिर डंक मारने लगी मेरी आरती को. कान खोल कर सुन ले, यह घर मेरा है. अगर दोबारा ऐसी बात की तो तुम सब का बोरियाबिस्तर बांध दूंगी. बेचारी बच्ची पढ़ती कैसे, घर में पढ़नेलिखने का माहौल तो हो?’’

ऐसा लग रहा था कि मेरे गाल पर मां लगातार थप्पड़ मारे जा रही हैं पर यह चोट तो शारीरिक चोट से कहीं अधिक गहरी थी. पलक जो दरवाजे पर खड़ी थी, ये सारी बातें सुन कर सहम गई.

‘‘मम्मा, क्या दादी हमें घर से निकाल देंगी?’’

‘‘नहीं बेटा, वे तो ऐसे ही…’’ मेरे शब्द गले में अटक गए. एकाधिकार, एकाधिपत्य आरती के जीवन का हिस्सा बन चुके थे.

‘पलक मेरे लिए चाय बना दे, पलक पानी लाना, मेरा सूट प्रैस कर दे, पलक,’ आरती के आदेशात्मक स्वर पूरे घर में गूंजते रहते और पलक कभीकभी झुंझला जाती.

‘‘पलक, आरती तुम्हारी बड़ी बहन है और बड़ों का काम हमें खुश हो कर करना चाहिए.’’

‘‘पर मम्मा, दीदी तो बड़ों का काम नहीं करतीं, दादी तक उन का काम करती हैं.’’

‘‘वह दरअसल…’’ पलक मेरे जवाब से संतुष्ट हो सके मैं ऐसे शब्दों को ढूंढ़ ही रही थी कि ‘‘रहने दीजिए, जानती हूं, दादी को आरती दीदी का काम करना पसंद नहीं.’’

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एक दिन…

‘‘विनय, तेरी मौसी का फोन आया था, आरती के लिए रिश्ता बताया है. शाम को जल्दी घर आ जाना, लड़के वालों के घर चल कर रिश्ते की बात चलानी है.’’

आगे पढ़ें- आरती की शादी? कैसे…

बीती ताहि बिसार दे…: कैसे बदल गई देवेश की जिंदगी?

Serial Story: बीती ताहि बिसार दे… (भाग-3)

उस के बाद जब कभी शानिका आई, वह उस से सामना होने को टालता रहा. यह सोच कर कि शानिका से किसी पूर्व सूचना के घर आ गई. रागिनी उस समय घर पर नहीं थी. मां को प्रणाम कर वह किताबें ले कर स्टडीरूम में चली गई. उसे भी पता नहीं था कि देवेश इस समय घर पर होगा. देवेश को देख कर वह चौंक गई. शानिका को अचानक सामने आया देख कर देवेश भी चौंक गया. दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं. आज उसे शानिका बहुत दिनों बाद दिखाई दी. ‘‘अरे आप आज घर पर कैसे?’’

‘‘बस थोड़ा देर से जाऊंगा आज,’’ देवेश मुसकराते हुए बोला, ‘‘रागिनी को पता नहीं था कि आप आने वाली हैं? वह तो अभी घर पर नहीं है. पर जल्दी आ जाएगी.’’ ‘‘कोई बात नहीं मैं इंतजार कर लूंगी. ये लीजिए अपनी किताबें,’’ वह किताबें मेज पर रखती हुई बोली.

‘‘दूसरी किताबें देख लीजिए जो आप को चाहिए,’’ वह मीठे स्वर में बोला. वह शानिका की मौजूदगी को इतने दिनों से टाल रहा था. लेकिन अब सामने आ गई थी तो उस का दिल नहीं कर रहा था कि वह जाए. शानिका शेल्फ में किताबें देखने लगी. देवेश अपने दिल पर अकुंश नहीं रख पा रहा था. सोच रहा था, एक बार तो बात करे शानिका से कि आखिर वह क्या चाहती है. अपने ही ध्यान में जैसे किसी अदृश्य शक्ति से बंधा ऐसा सोचता हुआ वह उस के करीब आ गया.

‘‘शानिका,’’ वह भावुक स्वर में बोला. ‘‘जी,’’ एकाएक उसे इतने करीब देख कर शानिका उस की तरफ पलट गई.

‘‘मुझ से शादी करोगी?’’ उस की निगाहें उस के चेहरे पर टिकी थीं. उसे स्वयं पता नहीं था कि वह क्या बोल रहा है. ‘‘जी,’’ शानिका हकला सी गई, ‘‘मैं ने

ऐसा कुछ सोचा नहीं अभी,’’ वह उलझी, परेशान सी बोली. ‘‘तो कब सोचोगी?’’ देवेश का स्वर हलका सा कठोर हो गया.

शानिका गरदन झुकाए नीचे देखने लगी. ‘‘बोलो शानिका कब सोचोगी?’’

‘‘पता नहीं मेरे घर वाले मानेंगे या नहीं…’’ ‘‘अगर तुम्हारे घर वाले नहीं मानेंगे तो क्यों आई हो मेरी जिंदगी में तूफान ले कर,’’ वह उसे झंझोड़ता हुआ बोला, ‘‘क्यों मेरी भावनाओं को उकसाया तुम ने? मैं जैसा भी था अपने हाल से समझौता कर लिया था मैं ने. तुम ने क्यों हलचल मचा दी मेरे दिलदिमाग में. बताओ शानिका बताओ,’’ वह उसे बुरी तरह झंझोड रहा था. उस की आंखों में आंसू थे और चेहरे पर कठोरता के भाव.

शानिका देवेश को ऐसे रूप में देख कर हड़बड़ा सी गई. वह खुद को छुड़ाने का यत्न करने लगी. बोली, ‘‘छोड़ दीजिए मुझे. मैं आप की बात का जवाब बाद में दूंगी. आप अभी होश में नहीं हैं.’’ ‘‘मैं होश में नही हूं और होश में न ही आऊं तो ठीक है… जाओ चली जाओ मेरे सामने से. फिर कभी मत आना मेरे सामने,’’ कह कर उस ने शानिका को हलका सा धक्का दे कर छोड़ दिया.

शानिका रोती हुई बाहर निकल गई. तभी अंदर आती रागिनी ने उसे पकड़ लिया. पूछा, ‘‘क्या हुआ शानिका? ऐसी बदहावास सी क्यों हो रही है और रो क्यों रही है? भैया ने कुछ कहा क्या?’’ ‘‘नहीं…मैं घर जा रही हूं.’’

‘‘चली जाना…पहले मेरे साथ आ,’’ वह उसे खींचती हुई अपने बैडरूम में ले गई. उसे सहलाया, पानी पिलाया. जब वह संयत हो गई तो फिर बोली, ‘‘शानिका मैं नहीं जानता, तेरे और भैया के बीच ऐसी क्या बात हुई पर मैं बात का अंदाजा लगा सकती हूं. मैं जानती हूं भैया तुझ से बहुत प्यार करते हैं. तुझ से शादी करना चाहते हैं…मैं जानती हूं यह नामुमकिन है, फिर भी पूछना चाहती हूं कि तेरा दिल क्या कहता है? तेरे दिल में भैया के लिए वैसी कोमल भावनाएं हैं क्या? तू भी उन्हें पसंद करती है?’’ शानिका कुछ नहीं बोली. टपटप आंसू

गिरने लगे. ‘‘बोल न शानिका,’’ रागिनी उसे प्यार से सहलाते हुए बोली.

‘‘मेरे चाहने से क्या होता…मम्मीपापा को कौन मनाएगा? मैं तो बोल भी नहीं सकती उन से.’’ ‘‘मतलब कि तू भी भैया से प्यार करती है?’’

शानिका ने कोई जवाब नहीं दिया. चुपचाप नीचे देखती रही. थोड़ी देर दोनों चुप रहीं, फिर रागिनी बोली, ‘‘पापा की जिद्द ने भैया के जीवन में इतना बड़ा व्यवधान पैदा कर दिया. छोटी सी उम्र में उन्हें शादी के बंधन में बांध दिया और वह शादी उन के लिए नासूर बन गई. वरना तू भी जानती है कि मेरे भैया जैसा लड़का चिराग ले कर ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा, उन जैसा साथी पाने का तो कोई भी लड़की ख्वाब देख सकती है.’’ शानिका ने कोई जवाब नहीं दिया तो रागिनी फिर बोली, ‘‘अगर प्यार भैया से करती है, तो किसी दूसरे के साथ कैसे खुश रह पाएगी तू और जब तक अपनी बात नहीं बोलेगी तब तक कोई तेरी बात कैसे मानेगा…अपने दिल की बात अपने मातापिता से कहना कोई गुनाह तो नहीं. अगर प्यार करती है तो बोलने की भी हिम्मत कर. चुप मत रह. चुप रहना किसी समस्या का हल नहीं है. तेरी चुप्पी, भैया और तेरी दोनों की जिंदगी बरबाद कर देगी,’’ रागिनी ने उसे समझाबुझा कर घर भेज दिया.

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शानिका कुछ दिनों तक सोचती रही कि सही कहती है रागिनी. उस ने स्वयं को टटोला. उस के अंदरबाहर देवेश कब बस गया उसे पता ही नहीं चला. कब शनी से इतना प्यार हो गया वह समझ नहीं पाई. किसी दूसरे के साथ वह खुश नहीं रह पाएगी. अपने दिल की बात अपने मातापिता के आगे रखना कोई गुनाह तो नहीं है. उसे रागिनी की बात याद आई.

एक दिन हिम्मत कर के उस ने सधे शब्दों में मम्मी से अपने दिल की बात कर दी. मम्मी समझदार थीं. सहजता से, गंभीरता से, धैर्य से उस की बात सुनी फिर बोली, ‘‘यह क्या कह रही है बेटी… देवेश हर तरह से अच्छा लड़का सही. पर एक बच्चे का पिता है वह. पहले विवाह की बात हम भुला भी दें पर बच्चा आंखों देखी मक्खी तो नहीं निगली जा सकती न?’’

‘‘उस नन्हे से सब को इतनी नफरत क्यों है मम्मी?’’ वह रोआंसी सी हो गई, ‘‘जो सिर्फ प्यार की भाषा जानता है. उस का पिता तक उस से नफरत करता है. वह नन्हा बच्चा, जिसे कुछ भी पता नहीं सिर्फ सब से प्यार करना चाहता है और सब से प्यार पाना चाहता है, मुझे जिस बात पर ऐतराज नहीं, तो आप क्यों परेशान हो रही हैं? मैं सब संभाल लूंगी.’’ जब पिता व भाइयों तक बात पहुंची तो वे भी आपे से बाहर हो गए. उन्हें यहां तक लगा कि उन की भोलीभाली बेटी को उन लोगों ने बरगला दिया है. लेकिन शानिका भी कटिबद्ध थी सब को अपनी बात समझाने के लिए. उस ने अपने तर्कों से सब को परास्त कर दिया.

‘‘एक बात सोचिए पापा. देवेश व निमी के पिता ने अपनी जिद्द के कारण देवेश व निमी का जीवन बरबाद कर दिया…शनी से उस का बचपन छीन लिया…मातापिता का प्यार छीन लिया. क्या आप भी मेरे साथ ऐसी ही कोई गलती करना चाहते हैं?’’ सुन कर सब चुप हो गए. पता नहीं उस के कहने में कोई बात थी या बात में ही कोई दम था. तर्क अकाट्य था. निशाना अचूक और अपनी पूरी सत्यता के साथ उन के सामने था.

‘‘ठीक है, तेरी जिस में खुशी है उसी में हम सब की खुशी है,’’ कह कर पापा ने हथियार डाल दिए. शानिका की तो खुशी का ठिकाना नहीं था. अक्तूबर का महीना था. दीवाली का पर्व यानी रोशनी का त्योहार, देवेश के लिए तो सभी त्योहार जैसे बेमानी हो गए थे. वह कोई भी त्योहार नहीं मानता था. वह चुपचाप अपने स्टडीरूम में अंधेरे में बैठा था. खिड़की से बाहर दीयों व बिजली के लट्टुओं को जगमगाता देख रहा था. पटाखों की आवाज सुन रहा था और सोच रहा था कि उस की जिंदगी के गलियारों का अंधेरा तो इतना घना हो गया है, जिसे कोई भी चिराग रोशन नहीं कर सकता.

रागिनी दरवाजे पर रंगोली बना रही थी. तभी गेट खुला, उस ने किसी को अंदर आते देखा. आकृति के करीब आने पर वह चौंक गई, बोली, ‘‘शानिका तू? इस वक्त?’’ वह आश्चर्य से सुंदर सी साड़ी में सजी शानिका को देखती रह गई. ‘‘हां, आज तुम लोगों के साथ दीवाली मनाने आई हूं.’’

‘‘दीवाली मनाने…इतनी रात किस के साथ आई है…तेरे पापा ने कैसे आने दिया…’’ ‘‘पापा की आज्ञा ले कर आई हूं और भैया छोड़ कर गए हैं मुझे यहां,’’ शानिका मुसकरा रही थी. ‘‘अब हमेशा जिंदगी भर इसी घर में दीवाली मनाऊंगी.’’

‘‘क्या?’’ रागिनी आश्चर्यमिश्रित खुशी से बोली, ‘‘तू सच कह रही है शानिका?’’ ‘‘हां, मैं सच कह रही हूं…पापा मान गए.’’

‘‘तो अंदर चल न जल्दी,’’ खुशी के आवेग से उस की आवाज कांप रही थी. ‘‘भैया अंदर स्टडीरूम में बैठे हैं. जा जा कर उन्हें बुला ला.’’

शानिका स्टडीरूम में गई तो देवेश अपने खयालों में डूबा आंखें बंद कर चुपचाप बैठा था. वह धीरे से उस के पास जा कर खड़ी हो गई और उंगलियों से उस के बालों को सहलाती हुई बोली, ‘‘दीवाली जैसे रोशनी के पर्व में भी यों अंधेरे में बैठे हैं आप.’’ शानिकाका स्पर्श पा कर देवेश एकदम चौंक गया. बोला, ‘‘तुम यहां इस वक्त?’’

‘‘हां,’’ शानिका ने बिजली का स्विच औन कर दिया, ‘‘आप के साथ दीवाली मनाने आई हूं… पापा की आज्ञा ले कर… भैया छोड़ कर गए हैं मुझे. अब हमेशा आप के साथ दीवाली मनाऊंगी जिंदगी भर,’’ वह संजीदगी से बोली, ‘‘मैं ने भैया से कहा है कि घर वापस आप मुझे छोड़ देंगे. वे मुझे लेने न आएं. छोड़ देंगे न आप मुझे?’’ ‘‘शानिका…’’ देवेश अपनी जगह खड़ा हो गया, ‘‘क्या तुम सच कह रही हो? मजाक तो नहीं कर रही हो न? ऐसा मजाक मैं सहन नहीं कर पाऊंगा.’’

‘‘मैं सच कह रही हूं… पापा मान गए. मैं ने मना लिया मम्मीपापा को. वे बहुत समझदार हैं… मुझ से बहुत प्यार करते हैं. मेरी पसंद उन की पसंद,’’ वह शरमाते हुए बोली. ‘‘ओह शानिका,’’ कह खुशी के आवेग में देवेश ने शानिका को बांहों में भर कर सीने से लगा लिया.

फिर बोला, ‘‘चलो शानिका मां के पास चलते हैं, उन्हें भी बता दें.’’ ‘‘एक शर्त पर चलूंगी.’’

‘‘कौन सी?’’ ‘‘पहले शनी को ले कर आइए. मां सब से प्यारी चीज होती है बच्चे के जीवन में और एक मां के कारण ही शनी से उस का बचपन व पिता का प्यार छिन गया. अब मैं नहीं चाहती कि दूसरी मां की वजह से उस के शेष जीवन की खुशियां छिन जाएं. मैं उस की मां बन कर उस के पिता का प्यार उसे लौटाना चाहती हूं. आप के जीवन

में जो कुछ भी घटा उस में उस मासूम का कोई दोष नहीं.’’ ‘‘अब ले कर आता हूं,’’ देवेश हंस कर बाहर चला गया और फिर तुरंत शनी को ले आया.

दोनों ने शनी के हाथ पकड़े और मां के पास चले गए. शानिका को देख कर मां चौंक गईं. बोलीं, ‘‘शानिका तुम यहां इस वक्त?’’

शानिका प्रणाम करने के लिए मां के पैरों में झुक गई. ‘‘होने वाली बहू को गले लगाओ मां…इस दीवाली साक्षात लक्ष्मी आप के घर आ गई है,’’ रागिनी सजल नेत्रों से हंसते हुए बोली.

‘‘क्या सच…’’ मां ने बात की सचाई के लिए देवेश की तरफ देखा तो खुशी से दमकता देवेश का चेहरा देख अब कुछ भी देखनासमझना बाकी नहीं रह गया था. उन्होंने पैर छूती शानिका को उठा कर अपने गले से लगा लिया.

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खुशी के अतिरेक में देवेश ने शनी को गोद में उठा कर अपनी बांहों में भींच लिया. कभी न दुलारने वाले पापा को शनी हैरानी से देखने लगा. वहां वात्सल्य का सागर लहरा रहा था. बच्चा प्यार की भाषा बहुत जल्दी समझ जाता है. उस ने अपनी दोनों नन्हीनन्ही बांहें देवेश के गले में डाल दीं.

रागिनी पीछे खड़ी अपने बहते आंसुओं को लगातार पोंछ रही थी और मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि यह दीवाली उन के घर को ताउम्र रोशन रखे.

Serial Story: बीती ताहि बिसार दे… (भाग-2)

निमी के पापा भी अपनी गलतियों व अपनी जिद्द के आगे थक गए थे. उन की बातों से पश्चात्ताप साफ झलकता था. उस का दिल किया कि वह दोनों दोस्तों का गुस्सा निमी के पापा पर उतार दे. अपने बच्चों की जिंदगी बरबाद कर के आखिर क्या मिला उन्हें? वह चिल्लाचिल्ला कर पूछना चाहता था, उन मातापिता से कि क्यों बांध देते हो अपने बच्चों को जबरदस्ती के रिश्तों में… हर निर्णय लेने की छूट देते हो उन को, छोटी से छोटी बात में उन की पसंद पूछते हो और जब जिंदगी भर का निर्णय लेने का समय आता है तो अपनी जिद्द से उन की जिंदगी को कभी न भरने वाला नासूर बना देते हो. उस का मन अपने दिवंगत पिता को कभी इस बात के लिए क्षमा नहीं कर पाया. नन्हा शनी उन के घर आ गया. दादी और बूआ की देखरेख में वह बड़ा होने लगा. पर शनी को मां के साथसाथ पिता का भी प्यार नहीं मिला. देवेश का चेहरा उसे देखते ही गुस्से में तन जाता. लाख समझाता खुद को कि जो कुछ हुआ उस में इस नन्हे का क्या दोष. लेकिन चाह कर भी उस के साथ सहज नहीं हो पाता. नन्हा प्यार और नफरत बहुत जल्दी समझ जाता है. वह भी देवेश से दूरी ही बना कर रखता. दादी व बूआ से ही चिपका रहता.

जो घर देवेश के हंसीठहाकों से गूंजता रहता था, उसी घर में 4 जनों के होते हुए भी मुर्दनी छाई रहती. उन की बेनूर जिंदगी में अगर थोड़ीबहुत तरंग उठती भी तो रागिनी की वजह से. देवेश ने खुद को काम में डुबो दिया. पढ़नेलिखने के शौकीन देवेश की लाइब्रेरी कई महान लेखकों की दुर्लभ कृतियों से अटी पड़ी थी. वह जहां भी जाता किताबें खरीद लाता था. औफिस से आ कर वह अपनी लाइब्रेरी में बैठ जाता और देर रात तक अंगरेजी पढ़ता रहता. रागिनी अंगरेजी से एमए कर रही थी. उसी साल शानिका ने उस की कक्षा में प्रवेश लिया था. रागिनी और शानिका की दोस्ती जल्दी ही गहरी हो गई. सीधीसाधी, भोलीभाली शानिका रागिनी को बहुत अच्छी लगती थी.

एक दिन उस ने अपनी कुछ सहेलियों को घर लंच पर बुलाया था. काफी समय बाद लड़कियों की चुहलबाजी से सूना घर गुलजार हो गया था. व्यवसाई परिवार होने के कारण उन का घर बड़ा, खूबसूरत व हर तरह से सुविधासंपन्न था. उस की सहेलियां उस का घर देख कर खुश हो रही थीं. रागिनी भी खुश हो कर उन्हें

1-1 कमरा दिखा रही थी. सब देखतेदेखते वे देवेश की लाइब्रेरी में पहुंच गईं. पढ़ने की शौकीन शानिका इतने सारे महान लेखकों की किताबें देख कर बावरी सी हो गई. ‘‘यह लाइब्रेरी किस की है रागिनी? तुम्हारे घर कौन है पढ़ने का शौकीन?’’ वह शेल्फ पर रखी किताबों पर नजर दौड़ाती हुई बोली.

‘‘मेरे भैया. जहां भी जाते हैं बस किबातें खरीद लाते हैं.’’ ‘‘अच्छा, तेरे भैया के पास तो बहुत अच्छीअच्छी किताबें हैं. इन में से कुछ किताबें ऐसे हैं जिन्हें मैं पढ़ना चाहती हूं, पर मिल नहीं रही थीं. मैं ले लूं? पढ़ कर वापस कर दूंगी.’’

‘‘अरे नहींनहीं,’’ रागिनी बोली, ‘‘बाप रे, भैया की किताबों को छुओ भी तो उन्हें पता चल जाता है. उन से पूछे बिना उन की किताबें नहीं ले सकते. भैया लंच पर आने वाले हैं. उन से पूछ कर ले लेना.’’ ‘‘ठीक है,’’ शानिका खुश हो कर बोली.

लंच टाइम में देवेश घर आ कर सीधे अपने कमरे में चला गया. मां ने लंच लगा दिया. रागिनी की सभी सहेलियां डाइनिंग टेबल पर आ गईं. ‘‘रागिनी जा देवेश को भी बुला ला खाने के लिए,’’ मां बोलीं.

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रागिनी देवेश को बुलाने कमरे में चली गई, ‘‘भैया खाना खा लो चल कर.’’ ‘‘तुम लोग खाओ… मुझे यहीं दे दो,’’

देवेश बोला. ‘‘क्या भैया आप भी…क्या सोचेंगी मेरी सहेलियां…आप कोई छोटे बच्चे हो, जो शरमा कर अंदर छिप रहे हो,’’ कह रागिनी उसे हाथ से खींच कर बाहर ले आई. वह अनिच्छा से आ कर डाइनिंग टेबल पर आ कर बैठ गया. रागिनी ने सब से उस का परिचय कराया.

जब शानिका से परिचय कराया तो सब पर सरसरी नजर व औपचारिक परिचय करती देवेश की निगाहें अनायास ही शानिका पर अटक गईं. लंबी, छरहरी, गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, कंधों पर लहराते मुलायम घने बाल सब उस के कमनीय चेहरे को और भी कमनीय बना रहे थे. उस के अनुपम सौंदर्य के साथसाथ उस के चेहरे की सादगी ने भी देवेश को एक बार दोबारा उस के चेहरे पर भरपूर नजर डालने के लिए मजबूर कर दिया. उस की निगाहों की कशिश रागिनी से छिपी न रह सकी.

सभी खाना खाने लगे. सभी लड़कियां आपस में चुहलबाजी कर रही थीं. कुछ छिटपुट बातें देवेश से भी कर रहीं थीं. पर शानिका बिना कुछ अधिक बोले सब की बातों पर मुसकरा रही थी. देवेश के कान और निगाहें अनायास ही उस की उपस्थिति को तोल रही थीं. अभी सब ने खाना खत्म ही किया था कि सोया हुआ शनी उठ कर कमरे से बाहर आ गया. इतने सारे लोगों को देख वह सहम कर दादी की गोद में दुबक गया. उस प्यारे से बच्चे को देख कर सभी लड़कियां उस की तरफ आकर्षित हो गईं. उसे अपने पास बुलाने के लिए तरहतरह के प्रलोभन देने लगीं. लेकिन शनी किसी के पास जाने के लिए तैयार नहीं हुआ. बस टुकुरटुकुर सब को देखता रहा.

‘‘मेरे पास आओ,’’ शानिका प्यार से उसे छूते हुए बोली, ‘‘तुम्हें अच्छी कहानी सुनाऊंगी.’’ ‘‘कौन सी वाली,’’ किसी की बात का जवाब न देने वाला शनी एकाएक शानिका से पूछ बैठा तो सब चौंक कर हंसने लगे.

‘‘जो वाली तुम कहोगे…पहले मेरे पास आओ,’’ वह उस का हाथ धीरे से अपनी तरफ खींचती हुई बोली तो शनी दादी की गोद से उतर कर उस की गोदी में बैठ गया. ‘‘अच्छा, पहले अपना नाम बताओ,’’ कह शानिका उस के घुंघराले बालों पर उंगलियां फेरते हुए बोली.

‘‘शनी,’’ और वह धीरेधीरे शानिका से बातें करने लगा. शानिका उस से थोड़ी देर बातें करती रही. उसे पता नहीं था कि देवेश की मुग्ध निगाहें उस के चेहरे को सहला रही हैं. एकाएक शानिका ने नजरें उठाईं तो निगाहें देवेश की निगाहों से जा टकराईं. देवेश अचकचा कर निगाहें फेर उठ खड़ा हुआ और अपने स्टडीरूम में चला गया.

रागिनी ने सब कुछ ताड़ लिया. समझ गई, भोलीभाली शानिका पितापुत्र दोनों के मन में बिंध गई.

सभी लड़कियां उठ कर ड्राइंगरूम में बैठ कर गपशप करने लगीं. तभी रागिनी शानिका से बोली, ‘‘तुझे किताबें चाहिए, तो भैया से ले ले. फिर वे औफिस के लिए निकल जाएंगे.’’ ‘‘तू ले आ न,’’ शानिका उस से अनुनय करती हुई बोली.

‘‘अरे मुझे क्या पता तुझे कौनकौन सी किताब चाहिए. फिर मुझे तो मना भी कर सकते पर तुझे औपचारिकतावश नहीं कर पाएंगे.’’ शानिका दुविधा में खड़ी रही. ‘‘जा न. भैया इस समय स्टडीरूम में ही हैं. 10-15 मिनट में चले जाएंगे…’’

रागिनी के जोर देने पर शानिका स्टडीरूम में चली गई. देवेश आरामकुरसी पर अधलेटा सा आंखें मूंदे बैठा था. उसे ऐसे देख कर शानिका वापस मुड़ गई. तभी आहट सुन कर देवेश ने आंखें खोल दीं. बोला, ‘‘अरे आप, कुछ काम था मुझ से,’’ वह बोला.

आप के पास बहुत अच्छी किताबें हैं…मुझे कुछ किताबें चाहिए थीं, पढ़ने के लिए. पढ़ कर लौटा दूंगी.’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. जोजो चाहिए ले लीजिए,’’ देवेश बोला.

शानिका शेल्फ खोल कर अपनी पसंद की किताबें निकालने लगी.

‘‘बहुत शौक है आप को पढ़ने का?’’ देवेश ने पूछा. ‘‘जी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा शौक है, पर कालेज की पढ़ाई के साथ कैसे कर लेती हैं ये सब?’’ ‘‘बस शौक होता है तो हो जाता है. ये किताबें ले जा रही हूं. जल्दी पढ़ कर लौटा दूंगी.’’

‘‘हांहां, जब पढ़ लें तब दे दीजिएगा… जो भी किताब पढ़ना चाहें बेझिझक ले जाया करें,’’ वह प्यार भरी नजर उस पर डालते हुए बोला. ‘‘जी, थैंकयू,’’ कह कर शानिका स्टडीरूम से बाहर निकल गई. बाहर आ कर रागिनी से बोली, ‘‘तेरे भैया तो बहुत ही अच्छे हैं बात करने में. तू तो बेकार डरती है उन से. उन्होंने कहा है कि मैं जब भी किताब ले जाना चाहूं, ले जा सकती हूं.’’

रागिनी जानती थी कि इस बात से बिलकुल अनभिज्ञ है कि वह उस के भैया के दिल में कहां तक उतर गई है.

अब शानिका अकसर आती. कभी देवेश की मौजूदगी में तो कभी गैरमौजूदगी में. कभी किताबें रख जाती कभी ले जाती. उसे पढ़ते देख देवेश भी नित नएनए लेखकों की किताबें लाता रहता. शानिका जब भी उस की मौजूदगी में आती, देवेश की मुग्ध निगाहों का घेरा उसे अपने आगोश में ले लेता. शनी तो उस से इतना घुलमिल गया था कि उसे 1 मिनट भी नहीं छोड़ता था. जब वह जाने लगती तो रोरो कर आसमान सिर पर उठा लेता. उस के साथ जाने की जिद्द करने लगता.

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रागिनी सब कुछ समझ रही थी. शानिका की मौजूदगी ने देवेश को मुसकराना सिखा दिया था. उस की खोईखोई निगाहों में उसे शानिका की तसवीर दिखती. उसे लगता कि शानिका भी देवेश को पसंद करती है, पर कितना पसंद करती है, यह वह समझ नहीं पाती. मां के पास उस के लिए कई रिश्ते आए थे, जिन में से कई रिश्ते कुआरी लड़कियों के भी थे. पर वे रिश्ते ऐसे ही थे जैसे एक विवाहित व 1 बच्चे के पिता के लिए आ सकते थे. देवेश उन रिश्तों के बारे में सुनता भी नहीं था. देवेश की कुंआरी भावनाएं जो अभी जस की तस थीं. वह सोच भी नहीं पाता था कि उस का विवाह एक बार हो चुका है और वह एक बच्चे का पिता है. उस के जीवन की उलझनों का शिकार अकसर शनी हो जाता था. वह न कभी शनी को गोद में उठाता न कभी दुलारता. एक अनजानी सी नफरत घर कर गई थी उस मासूम बच्चे के लिए उस के दिल में. वह उसे अपनी जिंदगी की सब से बड़ी बाधा समझता था. एकाएक कहीं दूर से घंटा बजने की आवाज सुनाई दी. स्मृतियों में खोया देवेश जैसे अपनेआप में लौट आया. घड़ी पर नजर डाली. रात के 2 बज रहे थे. उस ने एक लंबी सांस ली. उस की आंखें अभी भी गीली थीं. उस ने दोनों हथेलियों से अपनी आंखें पोंछीं और फिर बैडरूम में चला गया.

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Serial Story: बीती ताहि बिसार दे… (भाग-1)

‘‘भैया ये आप की किताबें… शानिका ने दी हैं,’’ रागिनी किताबें मेज पर रखती हुई बोली. अपने स्टडीरूम में बुकशेल्फ पर किताबों को ठीक करते हुए देवेश ने पलट कर एक नजर मेज पर रखी गई किताबों पर डाली. फिर पूछा, ‘‘क्या शानिका आई थी आज यहां?’’

देवेश की आंखों की चमक रागिनी की नजरों से छिपी न रह सकी. बोली, ‘‘भैया, कालेज में दी थीं.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर देवेश फिर किताबों में उलझ गया. रागिनी पल भर खड़ी रह पलट कर जाने लगी तो एकाएक देवेश बोल पड़ा, ‘‘आजकल तेरी सहेलियां घर नहीं आती हैं… तू बुलाती नहीं है क्या अपनी सहेलियों को?’’

रागिनी पल भर के लिए देवेश का चेहरा पढ़ती रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘सहेलियां या फिर सिर्फ शानिका?’’ ‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा…’’

‘‘कुछ भी न कहा हो भैया पर क्या मैं समझती नहीं कि शानिका का नाम ही आप की आंखों को चमक से भर देता है… चेहरे पर इंद्रधनुषी नूर बिखर जाता है.’’ देवेश ने कोई जवाब नहीं दिया. किताबों को ठीक करने में लगा रहा.

‘‘भैया,’’ कह रागिनी देवेश के पास जा कर खड़ी हो गई, ‘‘बहुत पसंद करते हो न शानिका को?’’ ‘‘नहीं तो… मैं ने ऐसा कब कहा,’’ देवेश हकलाती सी आवाज में बोला.

‘‘भैया खुद को संभाल लो ताकि बाद में धक्का न लगे… उस राह पर कदम न बढ़ाओ. आप तो जानते हो शानिका मेरी क्लास में पढ़ती है. अभी सिर्फ 19 साल की है. 3 भाइयों की छोटी बहन है… उस की शादी की तो अभी दूरदूर तक कोई बात नहीं है और आप… शानिका को मैं जानती हूं. वह आप को पसंद भी करे, तब भी वह इतनी सीधी लड़की है कि अपने पिता व भाइयों के खिलाफ कभी नहीं जाएगी. ऐसा उस का स्वभाव ही नहीं… उस के पिता एक विवाहित और 4 साल के बच्चे के पिता के हाथ में अपनी बेटी का हाथ कभी नहीं देंगे.’’ ‘‘रागिनी,’’ देवेश लगभग चीख पड़ा. वह हताश सा कुरसी पर बैठ गया. बोला, ‘‘क्यों याद दिलाती हो तू और मां मुझे वे सब कुछ… मेरा विवाह नहीं, बल्कि मेरे जीवन का एक भयानक हादसा था वह… शनी मेरा बेटा नहीं, एक बहुत बड़ी दुर्घटना है मेरे जीवन की जो पिताजी की जिद्द और मेरी मजबूरियों की वजह से मेरे जीवन में घटित हो गई. मैं तो बस इतना जानता हूं कि मेरी उम्र अभी 28 साल है और मेरे अधिकतर दोस्तों की अभी शादियां तक नहीं हुई हैं.’’ ‘‘मैं सब कुछ जानती हूं भैया और आप के दिल को भी समझती हूं. काश, आप को खुशी देना मेरे हाथ में होता तो खींच लाती शानिका को अपने भैया की जिंदगी में या फिर वे सब आप के जीवन में न घटा होता तो मेरे इस खूबसूरत और योग्य भाई की बात गर्व से करती शानिका से… कोई भी लड़की खुद पर इतराती आप को जीवनसाथी के रूप में पा कर.’’

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थोड़ी देर चुप रहने के बाद रागिनी देवेश के बालों में स्नेह से हाथ फेरते हुए फिर बोली, ‘‘पर मैं नहीं चाहती कि दोबारा कोई धक्का लगे आप को… जो आप चाहते हैं वह नामुमकिन है. आप खुद ही सोचिए भैया, क्या आप मेरी शादी कर दोगे किसी ऐसे लड़के से? मां के पास कई रिश्ते आए हैं. उन में से कोई लड़की पसंद कर गृहस्थी बसा लो अपनी. तब शानिका की तरफ से भी धीरेधीरे दिलदिमाग हट जाएगा.’’ मुझे नहीं करनी है शादीवादी, ‘‘देवेश थके स्वर में बोला,’’ जा तू सो जा… जाते समय दरवाजा बंद कर देना… मैं कुछ देर पढ़ना चाहता हूं.’’

रागिनी थोड़ी देर खड़ी रही, फिर दरवाजा बंद कर बाहर निकल गई. देवेश मेज पर सिर रख कर फूटफूट कर रो पड़ा. जो बातें, जो विचार उस के दिमाग में आ कर उथलपुथल मचाने लगते थे पर दिल था कि उन से अनजान ही रहना चाहता था. उन्हीं बातों को, उन्हीं विचारों को रागिनी के शब्दों ने जैसे आकार दे दिया था और वे उस के दिमाग में आ कर हथौड़ा मारने लगे थे.

रात का नीरव अंधकार था. कोई संगी नहीं, कोई साथी नहीं, जो उस की भावनाओं को समझ सके. रागिनी छोटी बहन थी, एक हद तक उसे समझती थी. पर कुछ करने में असमर्थ थी. लगभग हर वक्त दुखी रहने वाली मां से वह अपना दुखदर्द बांट नहीं सकता था. बीती बातों को भूलना चाहता था पर शनी के रूप में उस का विगत अतीत बारबार उस के सामने आ कर खड़ा हो जाता. वह चाहते हुए भी भूल नहीं पाता. शनी जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, उस का अतीत भी जैसे आकार में बड़ा हो कर उसे अपने होने का एहसास दिला रहा था. अभी भी नहीं भूलता देवेश उस दिन को जब उसे उस के पिता के कैंसर होने का पता चला था. कैंसर आखिरी स्टेज पर था. तब देवेश ने अपना एमबीए खत्म कर पिता के व्यवसाय में रुचि लेनी शुरू ही की थी कि पिता की बीमारी ने व्यवसाय का सारा भार उस के नाजुक कंधों पर डाल दिया. तब वह सिर्फ 23 साल का था. पिता की बीमारी ने सब को सकते में डाल दिया. किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था.

देवेश ने पिता के इलाज में दिनरात एक कर दिया पर मौत की तरफ बढ़ते पिता के कदमों को वह नहीं लौटा पाया. एक दिन पिता ने उस से आखिरी इच्छा व्यक्त की कि यदि वह चाहता है कि वे सुखसंतोष से इस दुनिया से जाए तो वह शादी कर ले. वे उस की शादी देखना चाहते हैं. देवेश परेशान सा हो गया. बोला, ‘‘इतनी जल्दी अभी तो मुझे बहुत कुछ करना है. ये भी कोई उम्र है शादी की? मेरे साथ के लड़के तो अभी पढ़ ही रहे हैं.’’

‘‘तू शादी कर लेगा बेटा, तो मैं चैन से मर सकूंगा. व्यवसाई परिवारों में तो शादियां जल्दी हो ही जाती हैं. तुझे जो करना है उस के बाद करते रहना. मेरी यह इच्छा पूरी कर दे देवेश… तेरी मां के लिए सहारा हो जाएगा और मैं भी एक जिम्मेदारी पूरी कर के चैन से दुनिया से जा पाऊंगा.’’ ‘‘लेकिन पापा इतनी जल्दी लड़की कहां मिलेगी… कौन ढूंढ़ेगा?’’ वह मजबूर सा हो

कर बोला. ‘‘लड़की है मेरी नजर में… मेरे दोस्त समीर की बेटी. एमबीए है. सुंदर है… समीर भी तैयार है इस रिश्ते के लिए.’’

पिता की हालत देख कर भावुक हो देवेश कुछ नहीं बोल पाया. आननफानन में एक सादे से समारोह में उस की शादी हो गई. उस की नवविवाहिता पत्नी 2 दिन उस के साथ रही. उन 2 दिनों में भी निमी के चेहरे व स्वभाव में उस ने एक अजीब तरह का तनाव महसूस किया. फिर उस ने सोचा कि वह भी शायद उस की तरह जल्दबाजी में हुई इस शादी के कारण उलझन में होगी. तीसरे दिन वह उसे 2-4 दिनों के लिए उस के मायके छोड़ आया. लेकिन वह जब उसे लेने गया तो उस ने आने से इनकार कर दिया. उस के ससुर ने कहा कि थोड़े दिनों वे स्वयं ही निमी को ससुराल छोड़ने आ जाएंगे. लेकिन निमी को न आना था न आई. पिता थोड़े दिनों बाद सब को अलविदा कह गए. कुछ दिन तो पिता के जाने के दुख से उबरने में लग गए उसे. फिर मां ने उसे बहू को लिवा लाने भेज दिया. लेकिन निमी फिर भी आने को तैयार नहीं हुई. उसे कुछ समझ नहीं आया. निमी का व उस का संपर्क मात्र 2 दिन का था. इसलिए वह उसे बहुत जोरजबरदस्ती भी नहीं कर पा रहा था. नईनई ससुराल में भी कुछ बोल नहीं पा रहा था. छोटी सी उम्र में तमाम जिम्मेदारियों ने उसे अजीब सी उलझन में डाल दिया था.

धीरेधीरे दबीढकी बातें सामने आने लगीं. निमी किसी दूसरे लड़के से विवाह करना चाहती थी. पर उस के पिता को वह लड़का और रिश्ता पसंद नहीं था. अपने पिता की जिद्द की वजह से वह उस के साथ शादी के लिए तैयार हो गई. निभाना चाहा पर रह नहीं पाई और अब वह किसी भी सूरत में आने के लिए तैयार नहीं थी. वह हतप्रभ रह गया. उस की जिंदगी ने यह कैसा मोड़ ले लिया और यह मोड़ इतने पर भी खत्म नहीं हुआ. इस के बाद वह गहरी खाई में गिर पड़ा, जब कुछ महीनों बाद पता चला कि निमी मां बनने वाली है. जब मां ने ये सब सुना तो उसे समझाबुझा कर दोबारा निमी को लिवा लाने भेजा. किसी तरह बेमन से वह निमी को लेने ससुराल चला गया. उस ने बहुत समझाया कि बीती बातों को भुला दे और उस के साथ नई जिंदगी शुरू करे.

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निमी के मातापिता ने भी बहुत समझाया, पर निमी तो जैसे पगली सी हो गई थी. न वह आने को तैयार हुई और न ही वह ऐसी हालत में अपना खयाल रखती थी. उसे उस पर दया भी आई. वह भी उस की तरह अपने पिता की जिद्द की शिकार हो गई. थकहार कर वह वापस आ गया. कुछ महीने बाद उसे पुत्र जन्म का व निमी की मृत्यु का समाचार एकसाथ मिला. उस की समझ में नहीं आया कि वह रोए या हंसे. 2 दिन की खता ने जिंदगी भर की सजा दे डाली थी उसे. उसे लगा उस की जिंदगी में कभी न छंटने वाला अंधेरा छा गया. क्या करे और क्या नहीं. लगभग डेढ़दो महीने तक उस ने अपनी ससुराल से कोई संपर्क नहीं साधा. फिर एक दिन उस के ससुर का फोन उस की मां के लिए आया कि वे आ कर अपनी अमानत को ले जाएं. नन्हे से बच्चे को वहां संभालने वाला कोई नहीं है. बेटी की मौत के गम में निमी की मां तो बिस्तर से भी नहीं उठ पा रही हैं.
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पैकेट बना पहेली: मृदंगम की क्यों चौंक गई?

 

 

 

 

 

Serial Story: पैकेट बना पहेली (भाग-3)

दोपहर को लंच कर मृदंगम ने पैठणी साड़ी निकाली और खुश हो कामेश को बताने लगी, ‘‘पता है आप को महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पैठण नगर है न, वहीं हथकरघे पर बुनाई शुरू हुई थी पैठणी साडि़यों की. प्योर सिल्क और सोनेचांदी के धागों से बुनते हुए इस के पल्लू और बौर्डर पर लताएं, कपास की कलियां, नारियल व तोते आदि का चित्रांकन किया जाता है.’’

तब तक इशू अपने कमरे से निकल कर आ गया, ‘‘जल्दी करो न मम्मा, बातें बाद में कर लेना. शाम होने लगेगी तो फोटो अच्छे नहीं आएंगे और आप दोनों मेरी गलती निकालने लगेंगे,’’  वह नाराज होने का अभिनय करता हुआ बोला.

मृदंगम तैयार होने चल दी. कामेश भी बार्डरोब से रौसिल्क का कुरता निकाल प्रैस करने लगा. कपड़े बदल कर वह इशू के साथ बालकनी में खड़ा हो मृदंगम की प्रतीक्षा करने लगा.

मृदंगम कमरे से निकली तो कामेश अपलक निहारता ही रह गया. उस की काया से लिपटी साड़ी यों दमक रही थी जैसे सूर्य की किरणों ने अपनी सारी चमक उसे ही दे दी हो. पहनने के बाद साड़ी पर उभरे गोल्डन पीकौक  बेहद मनमोहक लग रहे थे. गुलाबी बौर्डर पर रंगबिरंगी बेलबूटियां देख कर लग रहा था जैसे खूबसूरत पत्तियों और फूलों की पंखुडि़यों को बगीचे से तोड़ कर चिपका दिया है. बैगनी, सुनहरे तथा गुलाबी रंगों से बुने आंचल पर मोर का नीला व तोते का हरा रंग मिल जाने से इंद्रधनुष सी छटा बिखर रही थी. मृदंगम का सौंदर्य उस साड़ी में और भी निखर गया था. दपदप करते मुख पर लिपस्टिक में रंगे भीगे कोमल होंठ, खुशी और ब्लशर की मिलीजुली आभा लिए उजले गुलाबी गाल और काजल से सजी मुसकराती आंखें, माथे पर लगी गहरी बिंदी में वह किसी मूरत सी दिख रही थी.

इशू कैमरा ले कर तैयार खड़ा था. कामेश ने मृदंगम का हाथ पकड़ा तो लाख की बैगनी और गुलाबी चूडि़यों से सजी दूध सी कलाइयों को छोड़ने का मन ही नहीं हुआ.

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कामेश आश्चर्यचकित था कि मृदंगम सहसा सौंदर्य की प्रतिमूर्ति कैसे बन गई. वह सुंदर थी, इस में लेशमात्र भी संदेह नहीं, किंतु इन 2 साडि़यों में उसे देख कर तो ऐसा लगता था जैसे कोई अप्सरा धरती पर उतर आई हो. बहुत सोचविचार कर के उस ने सारा श्रेय पैकेट में आई उन 2 साडि़यों को देते हुए उस पैकेट को वापस न करने का मन बना लिया. यह बात जब मृदंगम को पता लगी तो उस की प्रसन्नता की सीमा न रही.

उस दिन के बाद मृदंगम पैकेट को ले कर कामेश की ओर से तो निश्चिंत हो गई, किंतु उस का अंतर्मन बारबार उस से कई सवाल कर रहा था. दिल और दिमाग के बीच प्राय: द्वंद्व चलता रहता था. अपने कई प्रश्नों के उत्तर वह स्वयं को भी नहीं दे पा रही थी.

एक दिन जब वह डिजाइनर साड़ी लपेटे हुए दर्पण के सामने खड़ी हो अपने ज्चैलरी

बौक्स से निकाल तरहतरह के सैट पहन कर देख रही थी, तब उस के प्रतिबिंब ने जैसे उस से ही प्रश्न कर दिया,

‘‘क्या तुम निर्भय हो कर साधिकार इन साडि़यों को किसी भी समारोह में पहन सकोगी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. आखिर पैकेट मेरे नाम से आया था,’’ उस ने अपने प्रतिबिंब को उत्तर दे दिया.

प्रतिबिंब पुन: बोल उठा, ‘‘लेकिन भेजा किस ने? अब तक नहीं सोच सकी?’’

वह मौन थी.

‘‘तो क्या वापस नहीं कर देना चाहिए इसे?’’

‘‘लेकिन कूरियर औफिस के स्टाफ ने रख लिया और सही व्यक्ति तक न पहुंचा तो?’’

‘‘तुम भी तो वही कर रही हो.’’

‘‘चलो ठीक है मैं वापस कर भी दूं और वह सही व्यक्ति यानी किसी अन्य मृदंगम के न मिलने पर भेजने वाले तक पहुंच भी जाए, लेकिन भेजने वाला कह दे कि इस में 2 नहीं बल्कि 4 साडि़यां थीं तब क्या करूंगी मैं?’’

‘‘कह देना कि रखनी ही होतीं तो इन्हें भी रख लेती. जरा सोचो कभी इस पैकेट का राज खुल गया और सब को पता लग गया कि तुम ने केवल अपना नाम होना ही काफी समझा था और रख लिया था पैकेट, तो कितनी बदनामी होगी. वैसे भी तुम्हें किसी का हक मारना अच्छा भी तो नहीं लगता.’’

मृदंगम खामोश थी, कई प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए थे. सत्य स्वीकार करना ही पड़ा उसे. अपने तर्कों को बुझे मन से स्वीकार करते हुए उस ने साडि़यों को वापस देने का निर्णय कर लिया. वह साडि़यां सही व्यक्ति तक पहुंचाना चाहती थी, लेकिन इस के लिए उसे करना क्या चाहिए यह नहीं समझ पा रही थी.

उस दिन सोसायटी के महिला व्हाट्सऐप ग्रुप पर चैटिंग के दौरान सभी कोरोनाकाल में किट्टी न कर पाने का अफसोस जता रहे थे. गु्रप की एक सदस्या ने सुझाव दिया कि जिस प्रकार जूम ऐप पर कार्यालयों की मीटिंग्स, औनलाइन क्लासेज व कवि सम्मेलन आदि हो रहे हैं, उसी प्रकार क्यों न वे भी किट्टी का आयोजन करें.

सभी ने एकमत हो इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया. खानापीना तो साथसाथ हो नहीं सकता था, इसलिए पहली किट्टी का विषय रखा गया कि एक व्यंजन बना कर तैयार रखना है और उसे कैमरे पर ही सखियों को दिखाते हुए उस के विषय में थोड़ीबहुत जानकारी देनी होगी.

निश्चित दिन सभी ने घर बैठे हुए समय पर किट्टी जौइन कर ली.

अपनी कुक की हुई डिश के विषय में बताने को सभी उत्सुक थे. मृदंगम के पड़ोस में रहने वाली पारुल ने फलों और सब्जियों से सलाद बना कर करीने से सजाया था. कैमरे पर सब को दिखाते हुए उस ने बताया कि इन दिनों यह कैसे इम्यूनिटी बढ़ाने में सहायक होगा. कुछ अन्य महिलाओं ने भी अपना बनाया विशेष व्यंजन दर्शाते हुए उस की विशेषता या उस से जुड़ा अनुभव साझा किया.

मृदंगम के फ्लैट से कुछ दूर रहने वाली मधुर यादव ने जब बताया कि उस की आज की डिश ‘बेसन की कढ़ी’ है तो सभी को थोड़ा विचित्र सा लगा. जब उस ने इस से संबंधित अनुभव शेयर करना चाहा तो सुनने को सभी आतुर हो उठे. मधुर ने बताया कि लगभग 20 वर्ष पहले उस का सुरेश से प्रेमविवाह हुआ था. ससुराल उत्तर प्रदेश के उन्नाव के एक छोटे से गांव में थी. एक बार उस के सासससुर को कहीं जाना पड़ गया. पति सुरेश को कढ़ी बहुत पसंद थी. मधुर ने सुरेश के लिए उस दिन कढ़ी बनाने का फैसला कर लिया. सुरेश के यह कहने पर कि घर में दही तो है नहीं, कढ़ी कैसे बनेगी? मधुर सुरेश की खिल्ली उड़ाते हुए बोली थी कि कढ़ी तो बेसन से बनती है, दही का उस में क्या काम? पानी में जब बेसन घोल कर उस ने कढ़ी बनाई तो कढ़ी के स्थान पर जो बना, उसे याद कर सुरेश और वह अब भी हंस देते हैं.

मधुर का अनुभव सुन किट्टी में हंसी की लहर दौड़ गई. हंसी थमी तो उन में से एक महिला बोली, ‘‘आप को सुनते हुए लग रहा था जैसे आप हिंदी स्पीकिंग रीजन को बिलौंग नहीं करतीं, शायद कढ़ी के बारे में इसलिए ही न जानती हो. आप के नाम और सरनेम से मैं तो आप को हिंदीभाषी समझ रही थी.’’

मधुर ने हंसते हुए बताया कि वह तमिलनाडु की रहने वाली है, वास्तविक नाम ‘मृदंगम पार्थसारथी’ है. ‘मधुर’ नाम ससुराल वालों का दिया हुआ है, क्योंकि गांव में कोई भी ‘मृदंगम’ बोल नहीं पाता था.

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मधुर का असली नाम सुन कर मृदंगम के कान खड़े हो गए. वह समझ गई कि पैकेट मधुर का ही है. लेकिन स्वयं को वह विश्वस्त कर लेना चाहती थी. बात शुरू करते हुए बोली, ‘‘क्या आप को अभी भी मृदंगम नाम से बुलाया जाता है?’’

‘‘हां, मदर की साइड पर. अम्मां तो वहां से सांबर मसाला, रसम पाउडर और बनाना चिप्स वगैरह भेजती हैं तो बस मृदंगम लिख देती हैं. कहती हैं और कौन होगा इस नाम का तुम्हारी सोसायटी में?’’ मधुर मुसकराते हुए बोली.

‘‘आप तक पहुंच जाता है सबकुछ?’’ मृदंगम थोड़ा आगे बढ़ी.

‘‘हां, अभी तक तो पहुंच ही रहा था, लेकिन अम्मांअप्पा ने इस बार महाराष्ट्र से साडि़यां ला कर भेजी थीं, वे नहीं मिलीं,’’ मधुर ने निराश हो कर बताया.

‘‘क्या डिजाइनर साड़ी भी थी साथ में?’’

मधुर का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया, ‘‘आप कैसे जानती हैं?’’

मृदंगम ने इशू को आवाज दे अलमारी से दोनों साडि़यां लाने को कहा.

कैमरे पर उन्हें देख मधुर बोली, ‘‘अरे, ये ही हैं. अम्मां ने व्हाट्सऐप पर फोटो भेजे थे.’’

मृदंगम ने पैकेट वाली बात बता दी. कुछ देर बार किट्टी की समाप्ति मधुर को बधाइयां देते और मृदंगम की प्रशंसा करते हुए हो गई.

यद्यपि साडि़यां लौटाने का फैसला मृदंगम का ही था, किंतु उन्हें लौटा कर उस का मन विरक्त सा हो गया था. अकेले में कभीकभी आंखों के कोर भी भीग जाते थे.

इस घटना के कुछ दिनों बाद अचानक एक दिन किसी अनजान नंबर से फोन आया. मृदंगम ने हैलो कहा तो पुरुष की आवाज सुनाई दी, ‘‘मैडम, मैं एक टीवी चैनल के लिए काम करता हूं. मेरी सिस्टर आप की सोसायटी में रहती हैं, उन्होंने आप का एक साड़ी लौटाने वाला किस्सा मुझे सुनाया था. आप को ऐतराज न हो तो किसी दिन आप का औनलाइन इंटरव्यू लेना चाहूंगा.’’

‘‘मैं ने क्या इतना महान काम किया है?’’ विस्मित हो मृदंगम ने पूछा.

‘‘मैडम कुछ चैनल्स जहां राशिफल, भविष्यवाणियां, ढोंगी बाबाओं के प्रवचन व इसी प्रकार के अंधविश्वास फैलाने वाले और कार्यक्रम प्रसारित करते हैं, वहीं हम लोगों तक प्रेरणादायी घटनाएं पहुंचाना चाहते हैं. आज जब चारों ओर धोखा, अराजकता और अविश्वास का बोलबाला है, वहां आप जैसे ईमानदार भी हैं, यही दर्शाना है हमें.’’

मृदंगम ने अभिभूत हो इस साक्षात्कार के लिए हामी भर दी. उन से जुड़ने का लिंक उस के मोबाइल पर भेज दिया गया.

पैकेट न तो अब एक पहेली था और न ही बिछड़ा हुआ पीड़ादायक पार्सल. वह तो एक ऐसा सुखद एहसास था जिस ने मृदंगम को सभी की नजरों में विशेष बना दिया था.

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Serial Story: पैकेट बना पहेली (भाग-2)

दवाएं टेबल पर रखते हुए मृदंगम ने कूरियर वाला पैकेट उठा कर अलमारी में रख दिया. ‘अच्छा ही हुआ, इस समय वैसे भी बाहर से आया सामान कुछ समय बाद ही खोलना चाहिए. कोरोना वायरस साथ आ गया होगा तो कुछ दिनों बाद खत्म हो जाएगा,’ अपने मन को समझाती हुई मृदंगम किचन में चली गई.

2 दिन तक कामेश की स्थिति यथावत बनी रही. तीसरे दिन खांसी में आराम हुआ और सिरदर्द भी कम हो गया. मृदंगम ये दिन विचित्र सी ऊहापोह में बिता रही थी. कामेश के स्वास्थ्य की चिंता के साथ ही पैकेट न खोल पाने का खेद भी उसे साल रहा था. जब भी मैसेज के नोटिफिकेशन का स्वर कानों में पड़ता, उसे लगता कि मीनाक्षी का मैसेज होगा. वह जानना चाह रही होगी कि मैं गाउन में फोटो खींच कर कब पोस्ट करूंगी फेसबुक पर.

कामेश के स्वस्थ होते ही एक शाम मृदंगम ने पैकेट निकाल कर सामने रख दिया.

‘‘क्या है यह?’’ एक प्रश्नवाचक दृष्टि मृदंगम पर डालते हुए कामेश ने पूछा.

‘‘खोलो तो,’’ मृदंगम मुसकरा रही थी.

उत्सुक दृष्टि लिए कामेश ने कैंची से पैकेट के बाहरी आवरण को काट

दिया. मृदंगम दिल थामे गाउन हाथ में आने की प्रतीक्षा कर रही थी. कामेश ने गिफ्ट से टेप हटा कर जैसे ही कागज अलग किया मृदंगम की आंखें चौंधियां गईं. 2 बेहद सुंदर साडि़यां प्लास्टिक की पारदर्शक थैली से झांक रही थीं.

‘‘हाय, ये तो सोडि़यां हैं,’’ मृदंगम स्तब्ध ह गई.

‘‘हम्म… महंगी लग रही हैं. कब मंगवाई तुम ने? पेमैंट कैसे की?’’ कामेश ने एकसाथ कई सवाल दाग दिए.

मृदंगम ने पूरा किस्सा बयां कर दिया.

‘‘तुम पहले बता देतीं तो पैकेट लौटा देते. अब बात करता हूं किसी से,’’ मोबाइल हाथ में लेते हुए कामेश बोला.

‘‘रुको अभी… जब खोल ही लिया तो अच्छी तरह देखने दो न,’’ मृदंगम हड़बड़ी में साडि़यों के प्लास्टिक फाड़ते हुए बोली.

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बैड पर फटे प्लास्टिक को बिछा कर मृदंगम ने साडि़यां रख दीं. एकदूसरे से विपरीत रंगत लिए दोनों साडि़यां बेहद आकर्षक थीं. उन में से एक बैगनी रंग के गुलाबी बौर्डर वाली पैठणी साड़ी थी, जिस पर छोटेछोटे सुनहरे मोर के मोटिफ्स अंकित थे. आंचल हरे रंग के तोते और एक नाचते हुए मोर से सुसज्जित था. दूसरी लाइट पीच कलर लिए प्योर जौर्जेट की डिजाइनर साड़ी थी, जिस पर आलीशान कटदाना काम किया हुआ था. साड़ी पर लगी जरकन की चकाचौंध देख मृदंगम पलकें झपकना ही भूल गई. साडि़यां जैसे अपना दाम स्वयं ही बता रही थीं. प्राइज टैग देखा तो मृदंगम का अनुमान सही था. पैठणी साड़ी 62 हजार की तो डिजाइनर की कीमत 58 हजार थी.

‘‘देख लीं? कूरियर औफिस का नंबर पता कर फोन कर दूं?’’ कामेश व्याकुल दिख रहा था.

‘‘जल्दबाजी मत करो, आराम से सोच लेंगे. कहीं ऐसा न हो कि किसी ने मुझे ही भेजी हों और आप वापस दे दो. कूरियर वाले तो कहीं

बेच कर पैसा बांट लेंगे आपस में…और वे लोग अगर वापस करना भी चाहें तो करेंगे किस को? भेजने वाले का नामपता तो नदारद है,’’ अपने

तर्क से कामेश को चुप करा मृदंगम चेहरे पर विजयी मुसकान लिए साडि़यों को बड़े प्रेम से निहार रही थी.

‘‘काश, मैं साड़ी होता तो तुम मुझे इतने ही प्यार से देखतीं और खुश हो कर लपेट लेतीं मुझे अपने तन पर,’’ एक ठंडी आह भर कामेश

मृदंगम का ध्यान साडि़यों से हटाने का प्रयास कर रहा था.

मृदंगम तो साडि़यों के मोह में जकड़ी हुई थी. कामेश की बात सुनते ही बोली, ‘‘अरे हां, एक बार लपेट कर देखना चाहिए इन साडि़यों को, मैं ने तो 15 हजार से महंगी साड़ी कभी पहनी ही नहीं.’’

बैड से डिजाइनर साड़ी उठा ड्रैसिंगटेबल के सामने खड़े हो कर मृदंगम ने उसे लपेट

लिया. दर्पण देखा तो अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि दिख रहा प्रतिबिंब उस का ही है. साड़ी पर कढ़ाई का काम बहुत यत्न और कलात्मक तरीके से किया गया था. साड़ी का पीच कलर गाजर और नारंगी रंगों के मेल से बना था. उसी रंग के जरकन से पूरी साड़ी पर फूलों की बेल का जाल बना था. बौर्डर पर कटदाना काम से औरेंज व कौपर कलर के स्टोंस की तितलियां बनाई गई थीं.

कटदाना वर्क में नगों को एक विशेष आकार दे कर काटा जाता है ताकि हलकी सी रोशनी पड़ने पर ही वे हीरों जैसे चमक उठें. ऐसा हो भी रहा था. मृदंगम का चेहरा स्टोंस की दमक से लहक उठा था. उस पर कमल के फूल से खिले होंठ और हिरणी जैसी बड़ीबड़ी मासूम आंखें. मृदंगम ने बालों में लगा रफ्फल हटा कर सिर तेजी से झटका तो माथे से हो कर रेशमी लटें चेहरे पर आ गिरीं. कुछ दिन पहले ही रंग लगवाने के कारण पलकें तांबई दिख रही थीं. घर पर मृदंगम पतले स्टै्रप की कुरती पहने थी. साड़ी का पल्लू कंधे पर लिया तो अपनी चिकनी, गोरीगोरी बांहों पर साड़ी की नारंगी छाया पड़ती देख स्वयं पर ही मुग्ध हो गई. मृदंगम को लग रहा था जैसे आईने में उस का अक्स नहीं है, कोई सिनेतारिका है, जो अवार्ड लेने मंच पर आई है. साड़ी पर जड़े हुए बेशकीमती जरकन ऐसे झिलमिला रहे थे जैसे असंख्य तारे आकाश से उतर आए हों. कामेश पीछे खड़ा उसे टकटकी लगाए देख रहा था.

‘‘कैसी लग रही हूं?’’ मृदंगम ने पीछे मुड़ कर तिरछी मुसकान चेहरे पर बिखराते हुए कामेश से पूछा.

जवाब में कामेश ने शरारत से ‘बदन पे सितारे लपेटे हुए, ओ जान ए तमन्ना किधर जा रही हो…’ गीत गुनगुनाते हुए मृदंगम को आलिंगनबद्ध कर लिया.

कुछ दिनों तक पैकेट को ले कर दोनों के बीच कोई चर्चा नहीं हुई, लेकिन मृदंगम के नैनों में दिनरात साडि़यां ही छाई रहती थीं. कामेश के औफिस चले जाने के बाद कुछ देर तक साडि़यों को निहारना उस की दिनचर्या में सम्मिलित हो गया था.

उस दिन रविवार था. कामेश ने सुबह की चाय पीते हुए फिर से बात छेड़ दी, ‘‘क्या सोचा फिर मृदु? कैसे पीछा छूटेगा उस गुमनाम पैकेट से?’’

‘‘गुमनाम कैसे हुआ? मेरा नाम लिखा है न उस पर,’’ तुनकते हुए मृदंगम ने उत्तर दिया.

‘‘अरे भई जब ऐड्रैस नहीं, भेजने वाले का अतापता नहीं तो गुमनाम कहना ही पड़ेगा न उसे.’’

‘‘मैं सोच कर बता दूंगी कि किस ने भेजा होगा. इस महीने मेरा बर्थडे है और अगले महीने हमारी मैरिज ऐनिवर्सरी, तो भेज दी होगी किसी ने हर मौके के लिए 1-1 साड़ी,’’ मृदंगम आंखें नचाते हुए बोली.

‘‘इतनी महंगी साडि़यां देने वाला कौन आशिक है तुम्हारा? एक दिन तुम्हें ही न ले जाए चुरा कर. नाम तक नहीं पता होगा मुझे तो उस बंदे का,’’ कामेश शरारती अंदाज में बोला.

‘‘किसी ने भी भेजा हो पैकेट, रख लेती हूं न थोड़े दिन और. फोटो तो खिंचवा लूं कम से कम किसी एक साड़ी में,’’ ठुनकते हुए मृदंगम कह उठी.

‘‘अच्छा बाबा मान लिया. तो आज हो जाए फोटोसैशन,’’ कामेश हाथ जोड़ कर खड़ा था.

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‘‘डिजाइनर साड़ी तो मैं ने लपेट कर देख ली थी, आज पैठणी साड़ी पहन लेती हूं अपने गोल्डन ब्लाउज के साथ. फोटो भी शायद बौर्डर वाली साड़ी में ही ज्यादा सुंदर आएगा. थोड़ा मेकअपशेकअप भी कर लूंगी,’’ मृदंगम अपनी जीत पर प्रसन्न थी.

‘‘चलेगा… मैं भी ड्रैसअप हो जाऊंगा. इशू एक पेयर फोटो खींच देगा तो अगले महीने मैं उसे व्हाट्सऐप की डीपी बना लूंगा. शादी की सालगिरह पर कोरोना टाइम में बाहर जाना तो ठीक नहीं होगा, लेकिन सुंदर पत्नी का इतना फायदा तो होना ही चाहिए.’’

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Serial Story: पैकेट बना पहेली (भाग-1)

‘‘मैडम, मैं सुनील… आप का एक पैकेट आया है कूरियर से,’’ सिक्युरिटी गार्ड ने इंटरकौम पर बताया.

मृदंगम ने मोबाइल उठा पति कामेश को फोन कर दिया, जो कुछ देर पहले ही औफिस जाने के लिए घर से निकला था, ‘‘आप

आसपास ही हों तो मेरा एक पैकेट गेट से ले कर घर दे जाओ, अभीअभी डिलिवरीमैन वहां दे कर गया है.’’

‘‘मैं तो काफी आगे निकल चुका…. आजकल ट्रैफिक कम होने से जाम नहीं मिला कहीं भी,’’ कामेश बोला.

मृदंगम ने बेटे इशू के कमरे का दरवाजा धीरे से खोल कर अंदर झांका. औनलाइन क्लास चल रही थी.

‘मैं ही चली जाती हूं पैकेट लेने, वेट ज्यादा हुआ तो घर तक लाने में किसी गार्ड की मदद ले लूंगी,’ सोचते हुए मृदंगम ने मास्क लगाया और तेजी से लिफ्ट से नीचे आ गई.

दिल्ली में वैशाली सोसायटी के एक फ्लैट में रहने वाली मृदंगम छोटे कद की आकर्षक महिला थी. देखने में जितनी प्यारी थी, बोली भी उतनी ही मधुर थी उस की. पति कामेश, 14 वर्षीय बेटा इशू और वह, 3 प्राणी थे परिवार में. पहले अनलौक के बाद कामेश औफिस जाने लगा था, लेकिन बेटे के स्कूल नहीं खुले थे. कोरोनाकाल के कारण घर पर लगभग सारा सामान औनलाइन मंगवाया जा रहा था. सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बाहरी व्यक्तियों को सोसायटी के भीतर आने की परमिशन नहीं थी. गेट पर ही

सामान दे जाते और बाद में सिक्युरिटी गार्ड्स पता देख इंटरकौम कर देते थे.

मृदंगम गार्डरूम के पास पहुंची तो 4-5 लोग लाइन बना कर खड़े थे. सभी अपनाअपना फ्लैट नंबर बताते और गार्ड उन का पैकेट छांट कर निकाल देता. मृदंगम की बारी आई तो उस के फ्लैट नंबर बताने से पहले ही गार्ड ने अलग रखा हुआ एक पैकेट थमा दिया.

‘‘यह क्या? मैं ने तो नंबर भी नहीं बताया अभी? मेरा पैकेट एक साइड में क्यों रखा है?’’ मृदंगम ने आश्चर्यचकित हो पूछ लिया.

गार्ड मुसकराते हुए बोला, ‘‘मैडम देखिए तो अपना पैकेट. आप का और सोसायटी का नाम ही लिखा है इस पर, फ्लैट का नंबर नहीं लिखा. कूरियर वाला सोसायटी का नाम देख कर यहां आया था, मुझे आप का नाम याद था तो मैं ने उस से ले कर रख लिया था.’’

मृदंगम ने देखा तो सचमुच ‘मृदंगम, वैशाली अपार्टमैंट्स नई दिल्ली-62’ के अतिरिक्त कुछ नहीं लिखा था.

‘‘क्या यह मेरा ही पैकेट है? मृदंगम नाम किसी और का भी तो हो सकता है?’’ आशंकित हो मृदंगम गार्ड से बोली.

‘‘आप का ही है पैकेट, मैडम. सोसायटी में यह नाम किसी और का नहीं है, हमें पता है.’’

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मृदंगम पैकेट ले कर घर आ गई. सैनिटाइजर से पैकेट को साफ कर अपने कमरे में टेबल पर रखने के बाद हाथ धोते हुए सोच में डूबी थी कि 2 दिन पहले उस ने शैंपू, दालें, कुछ मसाले और सौस आदि का और्डर दिया था, लेकिन यह पैकेट तो उन वस्तुओं का लग ही नहीं रहा. पैकेट हलका था और देख कर लग रहा था जैसे अंदर कोई कपड़ा है. कुछ देर बाद मेड आ गई. मृदंगम भी काम में व्यस्त हो गई, लेकिन मन उस पैकेट के आसपास मंडरा रहा था.

मेड के जाते ही असमंजस में पड़ी मृदंगम पैकेट हाथ में ले सोच रही थी कि उसे खोले या नहीं. एक ओर इस प्रकार का कोई औनलाइन और्डर नहीं किए जाने से खोलने में संकोच हो रहा था तो दूसरी ओर अपना नाम लिखा होने से लग रहा था कि पूरा अधिकार है उसे पैकेट खोलने का.

कुछ देर की उधेड़बुन के बाद उस ने सोचा कि इस विषय में कामेश से पूछ लेती हूं, लेकिन तुरंत मन में दूसरा विचार आ गया कि यदि कामेश ने इसे कूरियर कंपनी को वापस करने को कह दिया तो? लौटाने का तो अब सवाल ही नहीं उठता. हो सकता है उस की किसी मित्र या रिश्तेदार ने इसे भेजा हो और फ्लैट नंबर लिखना भूल गए हों. हां, ऐसा ही कुछ हुआ है.

अचानक याद आया कि कुछ दिनों पहले

कामेश ने भागलपुर में रहने वाले अपने बड़े भैया से फोन पर कहा था कि जो सिल्क की चादरें वह पिछली बार वहां से खरीद कर लाया था, अब घिस चुकी हैं. इस बार भागलपुर आना होगा तो चादरें जरूर खरीद लेंगे.

मृदंगम ने अनुमान लगाया कि जेठजी ने सोचा होगा कोरोनाकाल में आनाजाना नहीं हो सकेगा, इसलिए भेज दी होंगी चादरें. ‘एक फोन थैंक्स का कर दूं. तब मैं आश्वस्त हो जाऊंगी कि पैकेट उन के द्वारा ही भेजा गया है. उस के बाद बेहिचक खोल लूंगी,’ सोचते हुए मृदंगम ने जेठानी को फोन कर लिया और ‘हैलो’ सुनते ही बोल पड़ी, ‘‘हाय भाभी, वे सिल्क की चादरें…’’

जेठानी बात काटते हुए बोली, ‘‘हां मृदु, मजबूरी है. तुम लोग अभी घिसीपिटी चादरों से ही काम चलाओ. देखो कब रुकता है कोरोना का कहर. अनलौक हो गया, फिर भी केस तो लगातार बढ़ रहे हैं. सब ठीक हो जाए, तब तुम लोग आना भागलपुर. मिलना भी हो जाएगा और तुम्हारी चादरों की शौपिंग भी.’’

‘यानी इन्होंने नहीं भेजा वह पैकेट,’ सोचते हुए मृदंगम ने 2-4 बातें कर फोन काट दिया.

फिर से वह अपना दिमाग दौड़ाने लगी, ‘अरे, मैं भी कैसी पागल हूं. भूल ही गई कि इस मंथ मेरा जन्मदिन है. हो न हो दीदी ने जम्मू से कश्मीरी कढ़ाई वाली शौल भेजी है. वाऊ दीदी, लव यू…’ मृदंगम आंखें मूंद होठों को सिकोड़ कर खयालों में अपनी बहन को चूमने लगी.

‘‘क्या हुआ मम्मा? चुम्मी किसे कर रही हो?’’ इशू की आवाज सुन उस ने आंखें खोलीं तो लजा गई.

‘‘मैं समझ गया, टिया को न? मौसी ने आप को भी टिया का फोटो भेजा है व्हाट्सऐप पर? कितनी प्यारी है मेघा दीदी की बेटी. मुझे भी सैंड की हैं उस की पिक्स मौसी ने. आप की तरह मेरा भी मन कर रहा था छुटकी को प्यार करने का.’’

इशू की बात सुन मृदंगम को याद आया कि दीदी तो इन दिनों

फ्रांस में हैं. पिछले महीने ही उन की बेटी मेघा ने प्यारी टिया को जन्म दिया था. इसी काम के लिए वे मार्च से ही उस के पास रह रही हैं.

तो किस ने भेजा है यह पैकेट? मृदंगम का दिल बैठा जा रहा था. किसी भी स्थिति में वह कूरियर वापस नहीं करना चाहती थी. मन बहलाने के लिए फेसबुक खोल कर बैठी तो अपनी सखी मीनाक्षी की प्रोफाइल पिक देख आंखें चमक उठीं. याद आया कि गत सप्ताह ही मीनाक्षी ने अपनी यह तसवीर पोस्ट की थी और मृदंगम ने उस के वनपीस पर प्रशंसाभरा कमैंट किया था.

रिप्लाई में मीनाक्षी ने एक शौपिंग साइट का नाम बताते हुए लिखा था, ‘‘औनलाइन मंगवाया था. तुम भी ऐसा ही गाउन खरीद लो, उसे पहन कर सैल्फी लेना और उसे अपनी प्रोफाइल पिक बना देना. मजा आ जाएगा दोनों सहेलियां एक रंग में रंगी हुई दिखाई देंगी.’’

‘अरे वाह, मीनाक्षी ने सेम गाउन खरीद कर भेज दिया. अभी पैकेट खोल कर पहन लेती हूं. इशू से लगे हाथ फोटो भी खिंचवा लूंगी,’ सोच मृदंगम उत्साहित हो पैकेट की ओर बढ़ गई.

‘नहीं, अभी नहीं. इन दिनों पार्लर जाना नहीं हुआ. चेहरा मुरझाया सा है, फोटो में जान नहीं आएगी. आज ही फोन कर ब्यूटीशियन को बुला लेती हूं. फिर शाम को कामेश के सामने खोलूंगी पैकेट. कामेश जब देखेंगे कि सहेली ने बिना कहे ही फरमाइश पूरी कर दी तो कितने शर्मिंदा होंगे. आगे से मुझे उन के सामने बारबार अपनी मांगें दोहरानी नहीं पड़ेंगी, दौड़ कर पूरी करेंगे हर इच्छा मेरी या हो सकता है स्वयं ही पूछना शुरू कर दें कि मुझे किस वस्तु की आवश्यकता है?’ मृदंगम कल्पना कर दी.

कुछ देर बाद ब्यूटीशियन आ गई. मृदंगम ने फेशियल, वैक्ंिसग, थ्रैडिंग करा कर बालों में अपना पसंदीदा बरगंडी रंग लगवा लिया और अपने को फोटोसैशन के लिए तैयार कर लिया. शाम अब होने की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रही थी.

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उस दिन कामेश औफिस से जल्दी लौट आया, क्योंकि सिर में तेज दर्द था. खांसी के साथ बारबार छींकें भी आ रही थीं.

‘‘मम्मा, कोरोना के सिमटम्स,’’ इशू ने आंखें फाड़ते हुए कहा तो मृदंगम का कलेजा मुंह को आ गया. सोसायटी में रहने वाले डाक्टर को फोन लगाया. डाक्टर ने मशवरा दिया कि 2-3 दिन तक कामेश को अलग कमरे में रखा जाए. उस के बाद यदि हालत न सुधरी या फीवर आने लगा तब देखेंगे क्या करना है. कुछ दवाइयां उस ने अपने सरवैंट के हाथ भिजवा दीं.

आगे पढ़ें- दवाएं टेबल पर रखते हुए मृदंगम ने….

Serial Story: एक ही भूल (भाग-2)

यह सुनते ही विनय का चेहरा सफेद पड़ गया. बोला, ‘‘यह नहीं हो सकता डाक्टर… इतने छोटे बच्चे को कैंसर कैसे… यह नहीं…’’ शब्द उस के हलक में अटकने लगे. मन ही मन सोचने लगा कि काश, यह खबर  झूठ निकले… काश टैस्ट रिपोर्ट गलत हो, क्योंकि उस का मन यह मानने को कतई तैयार नहीं हो रहा था.

‘‘विनय बीमारी उम्र नहीं देखती. आप हिम्मत रखिए… यह रोग गंभीर तो है, मगर लाइलाज नहीं है… हमारे अस्पताल में हर आधुनिक सुविधा उपलब्ध है. हम आज से ही कबीर का इलाज शुरू कर देते हैं… बस आप कुछ औपचारिकताएं पूरी कर दीजिए.’’

लड़खड़ाते कदमों के साथ विनय सारिका के पास पहुंचा. कबीर आंखें मूंदे सारिका से एक कहानी सुन रहा था. उस के भोले चेहरे पर शांति थी. विनय की आहट सुन कर उस ने धीरे से आंखें खोली. बोलीं, ‘‘पापा, मु झे यहां नहीं रहना, घर जाना है,’’ और उस ने विनय का बाजू पकड़ लिया.

‘‘हां बेटे हम बहुत जल्दी घर जाएंगे,’’ विनय ने भर्राए गले से कहा और फिर कबीर को छाती से लगा लिया.

कबीर ने फिर आंखें मूंद लीं. कुछ ही पलों में वह नींद के आगोश में चला गया. बीमारी से हुई कमजोरी अब उस के चेहरे पर साफ दिखने लगी थी.

खुद पर काबू करते हुए विनय ने सारिका को धीरेधीरे सब बताया. जो वज्रपात विनय पर हुआ था वही सारिका पर भी हुआ. उस ने कातर नजरों से सोए बेटे की ओर देखा.

यह कैसा मजाक किया कुदरत ने? उन्हें दुनिया में जो चीज सब से प्यारी है उसे ही छीनने की साजिश रच दी.

कुछ समय बाद कबीर को गोद में लिटाए दोनों घर आ गए. इलाज में लाखों रुपए खर्च होने थे, जिस के लिए सारिका ने अपने सारे गहने विनय के सामने ला कर रख दिए. बोली, ‘‘कुछ भी करो, मेरे बच्चे को बचा लो प्लीज विनय… मैं इस के बिना नहीं रह सकती,’’ और फिर माथा पकड़ वहीं जमीन पर बैठ जोरजोर से रोने लगी.

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‘‘मैं कुछ नहीं होने दूंगा अपने बच्चे को सारिका… इस के इलाज में भले ही सबकुछ बिक जाए, मगर इसे कुछ नहीं होने दूंगा,’’ कह विनय ने सारिका को बांहों में थाम लिया.

विनय के कंधे पर सिर रख सारिका सारी रात आंसू बहाती रही. रो तो विनय भी रहा था, मगर दिल ही दिल. उस के कंधों पर एक बाप और पति होने की जिम्मेदारी जो थी. इस मुश्किल घड़ी में वह खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहता था.

कबीर रहरह कर नींद से जाग उठता था. वह उन दोनों को देखता तो दोनों  झट से अपने आंसू पोंछ कर मुसकरा कर उस से बातें करने लगते.

विनय और सारिका ने अपने मन को तैयार कर लिया था. जिंदगी और मौत की इस लड़ाई को लड़ने के लिए दोनों ने हर हाल में अपने जिगर के टुकड़े को बचाने के लिए कमर कस ली थी. आएदिन दोनों कबीर को ले कर अस्पताल के चक्कर काटते. एक के बाद एक टैस्ट करवाने के लिए भागदौड़ करते.

बीमारी अपनी शुरुआत में थी. मगर इस छोटी उम्र में कोई भी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती थी. शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता घटने की वजह से उसे संक्रमण बहुत जल्दी हो जाए, आएदिन तेज बुखार चढ़ जाता.

विनय ने सारी जमापूंजी उस के इलाज में लगा दी. दोस्तों और रिश्तेदारों से भी उधार लिया. पैसा पानी की तरह बह रहा था, मगर कबीर की हालत में मामूली सुधार था.

अस्पताल में दाखिल कबीर का कमजोर शरीर बीमारी से दिनोंदिन कुम्हलाने लगा. अब तक उस की तबीयत खास थेरैपी और दवा से स्थिर थी, मगर यह स्थायी इलाज नहीं था.

कुछ दिन बाद डाक्टर ने विनय और सारिका को बोन मैरो सर्जरी के बारे में बताया. कबीर को अपने मातापिता में से किसी एक का बोन मैरो ट्रांसप्लांट हो सकता था, जो उस जानलेवा बीमारी का एकमात्र स्थायी उपचार था.

सारिका और विनय इस के लिए तैयार थे पर दोनों के ही बोन मैरो नहीं मिल पाए. यह बेहद निराशाजनक बात थी, क्योंकि सर्जरी के लिए बोन मैरो डोनर मिलना बेहद जरूरी था.

‘‘मगर डाक्टर यह कैसे हो सकता है…हम इस के मांबाप हैं?’’ विनय ने पूछा.

‘‘जरूरी नहीं है विनय… कभीकभी मांबाप में से कोई भी डोनर नहीं बन पाता… हालांकि यह बहुत कम होता है. आमतौर पर पिता या मां का या फिर सगे भाईबहन का बोन मैरो मैच हो जाता है. खैर, हम हार नहीं मान सकते. हमें कबीर के लिए जल्द से जल्द एक डोनर ढूंढ़ना ही पड़ेगा, क्योंकि हमारे पास वक्त बहुत कम है.’’

‘एक आखिरी उम्मीद भी टूट गई थी. इतनी जल्दी कहां मिलेगा डोनर जो कबीर को नई जिंदगी दे सके,’ सोच में डूबा विनय कमरे के चक्कर लगा रहा था.

सारिका उसे चुपचाप देखती रही. उस के मन की उथलपुथल उस वक्त कोई नहीं सम झ सकता था.

रातभर रहरह उसे कुछ कचोटता रहा. ग्लानि, पछतावा, अपराधबोध या

फिर कुदरत का खेल… सारिता सम झ ही नहीं पा रही थी कि अचानक उन की हंसतीखेलती जिंदगी में यह कैसा जलजला आ गया. क्यों आज वह इस दोराहे पर खुद को खड़ा पा रही जहां एक ओर कबीर की जिंदगी का सवाल है तो दूसरी ओर वह राज जो उस के सीने में आज तक दफन है. क्या करे वह क्या न करे? अजीब कशमकश थी मन में… अब कोई चारा भी तो नहीं रहा था… अब चाहे जो भी सजा मिले, अपनी औलाद की जिंदगी से बढ़ कर कुछ नहीं है उस के लिए.

सारिका रातभर सोचती रही. क्या कहेगी विनय से, किस तरह कहेगी, शब्दों को तोलती रही. कहना तो पड़ेगा ही वरना अनर्थ हो जाएगा. अब वक्त आ गया था कि वह इस राज से परदा उठा दे.

किसी फिल्म की रील की तरह सारी बातें उस के जेहन में घूमने लगीं. वह कितना खुशगवार दिन था जब वह विनय की दुलहन बन कर उस के घर आई थी. विनय जैसा प्यार करने वाला पति पा कर सारिका को मानो दुनियाभर की खुशियां मिल गई थीं. एक नए शहर में अपनी नई गृहस्थी की शुरुआत के वे खूबसूरत दिन सारिका को आज भी याद थे…

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‘‘सुनो, मेरा चयन हो गया है… अगले सोमवार से मैं काम पर जाना शुरू

कर दूंगी… सुबह का नाश्ता बना जाया करूंगी,’’ सारिका को नई नौकरी मिलने की जितनी खुशी हो रही थी उस से ज्यादा चिंता विनय के खानेपीने को ले कर थी.

आगे पढ़ें- विनय ने प्यार से उस का गाल चूम लिया..

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