हस्तरेखा: शिखा ने कैसे निकाला रोहिणी की प्रौब्लम का रास्ता

अचानक ही मैं बहुत विचलित हो गई. मन इतना उद्वेलित था कि कोई भी काम नहीं कर पा रही थी. बिलकुल सांपछछूंदर जैसी स्थिति हो गई. न उगलते बनता न निगलते. मेरा अतीत यहां भी मेरे सामने आ खड़ा हुआ था.

देखा जाए तो बात बहुत छोटी सी थी. शिखा, मेरी 16 वर्षीय बेटी, शाम को जब स्कूल से लौटी तो आते ही उस ने कहा, ‘‘मां, वह शर्मीला है न.’’

मेरी आंखों में प्रश्नचिह्न देख कर उस ने आगे कहा, ‘‘अरे वही, जो उस दिन मेरे जन्मदिन पर साड़ी पहन कर आई थी.’’

हाथ की पत्रिका रख कर रसोई की तरफ जाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘हां, तो क्या हुआ उसे?’’

‘‘उसे कुछ नहीं हुआ. उस की चचेरी दीदी आई हुई हैं, मुरादाबाद से. पता है, वे हस्तरेखाएं पढ़ना जानती हैं,’’ स्कूल बैग को वहीं बैठक में रख कर जूते खोलती हुई शिखा ने कहा.

मैं चौकन्नी हो उठी. रसोई की ओर जाते मेरे कदम वापस बैठक की तरफ लौट पड़े. शिखा इस सब से अनजान अब तक जूते और मोजे उतार चुकी थी. गले में बंधी टाई खोलते हुए वह बोली, ‘‘कल रविवार है, इसलिए हम सभी सहेलियां शर्मीला के यहां जाएंगी और अपनेअपने हाथ दिखा कर उन से अपना भविष्य पूछेंगी.’’

मैं सोच में डूब गई कि आज यह अचानक क्या हो गया? मेरे भीतर एक ठंडा शिलाखंड सा आ गिरा? क्या इतिहास फिर अपनेआप को दोहराने आ पहुंचा है? क्या यह प्रकृति का विधान है या फिर मेरी अपनी लापरवाही? क्या नाम दूं इसे? क्या समझूं और क्या समझाऊं इस शिखा को? क्या यह एक साधारण सी घटना ही है, रोजमर्रा की दूसरी कई बातों की तरह? लेकिन नहीं, मैं इसे इतने हलके रूप में नहीं ले सकती.

शाम को खाना बनाते समय भी मन इसी ऊहापोह में डूबा रहा. सब्जी में मसाला डालना भूल गई और दाल में नमक. खाने की मेज पर भी सिर्फ हम दोनों ही थीं. उस की लगातार चलती बातों का जवाब मैं ‘हूंहां’ से हमेशा की ही तरह देती रही. लेकिन दिमाग पूरे समय कहीं और ही उलझा रहा. क्या इसे सीधे ही वहां जाने से मना कर दूं? लेकिन फिर खयाल आया कि उम्र के इस नाजुक दौर पर यों अपने आदेश को थोपना सही होगा?

आज तक कितना सोचसमझ कर, एकएक पग पर इस के व्यक्तित्व को निखारने का हर संभव प्रयास करती रही हूं. तब ऐसी स्थिति में यों एकदम से उस के खुले व्यवहार पर अपने आदेश का द्वार कठोरता से बंद कर पाऊंगी मैं?

नहीं, मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती. तो क्या सबकुछ विस्तार से बता कर समझाना होगा उसे? अपना ही अतीत खोल कर रख देना पडे़गा इस तरह तो. अगर मैं ऐसा कर दूं तो शिखा की नजरों में मेरा तो अस्तित्व ही बिखर जाएगा. एक खंडित प्रतिमा बन कर क्या मैं उसे वह सहारा दे सकूंगी, जो उस के लिए हवा और पानी जैसा ही आवश्यक है?

मैं आगे सोचने लगी, ‘परंतु कुछ भी हो, यों ही मैं इसे किसी भी अनजान धारा में बहते हुए चुप रह कर नहीं देख सकती. शिखा के जन्म से ले कर आज तक मनचाहा वातावरण दे कर मैं इसे वैसा ही बना पाई हूं, जैसा चाहती थी सभ्य, सुशील, संवेदनशील और आत्मविश्वास से भरपूर. अपने जीवन की इस साधना को खंडित होने से बचाना है मुझे. ‘यही सब सोचतेविचारते मैं ने रात का काम निबटाया. अखिल दफ्तर के काम से बाहर गए हुए थे. अगर वे यहां होते तो मैं इतनी उद्विग्न न होती.

अखिल मेरे मन की व्यथा जानते हैं. मेरी भावनाओं की कद्र है उन के मन में. यही सोचते हुए मैं ने बची दाल, सब्जी फ्रिज में रखी, दूध को संभाला, रसोई का दरवाजा बंद किया और आ कर अपने बिस्तर पर लेट गई. शिखा मेरे हावभाव से कुछ हैरान तो थी, एकाध बार पूछा भी उस ने पर मैं ही मुसकरा कर टाल गई. उस से बात करने से पहले मैं अपनेआप को मथ लेना चाहती थी.

अंधेरे में भी आशा की एक किरण अचानक कौंधी. मैं सोचने लगी, ‘आवश्यक तो नहीं कि शिखा के हाथ की रेखाएं उस के विश्वासों और आकांक्षाओं के प्रतिकूल ही हों पर यह भी तो हो सकता है कि ऐसा न हो. तब क्या होगा? क्या वह भी मेरी तरह…?’ यह सोच कर ही मैं सिहर उठी, जैसे ठंडे पानी का घड़ा किसी ने मेरे बिस्तर पर उड़ेल दिया हो.

मेरा अतीत चलचित्र की तरह मेरी ही आंखों के सामने घूम गया…

मैं डाक्टर बनना चाहती थी. इसलिए प्री मैडिकल टैस्ट यानी  ‘पीएमटी’ की तैयारी में जीजान से जुटी थी. 11वीं तक हमेशा प्रथम आती रही. 80 प्रतिशत से कम अंक तो कभी आए ही नहीं. आत्मविश्वास मुझ में कूटकूट कर भरा था. बड़ी ही संतुलित जिंदगी थी. मातापिता का प्यार, विश्वास, भाइयों का स्नेह, उच्चमध्यवर्ग का आरामदेह जीवन और उज्ज्वल भविष्य.

प्रथम वर्ष का परीक्षाफल आने ही वाला था. इस के 1 दिन पहले की बात है. मैं सुबह 4 बजे से उठ कर अपनी पढ़ाई में जुटी थी. 10 बजतेबजते ऊब उठी. मां पंडितजी के पास किसी काम के लिए जा रही थीं. मैं भी यों ही उन के साथ हो ली, एकाध घंटा तफरीह मारने के अंदाज में.

पंडितजी ने मां के प्रणाम का उत्तर देते ही मुझे देख कर कहा, ‘अरे, यह तो रोहिणी बिटिया है. देखो तो, कितनी जल्दी बड़ी हो गई है. कौन सी कक्षा में आ गई इस वर्ष?’

मैं ने उन्हें बताया तो सुन कर बड़े प्रसन्न हुए और बोले, ‘अच्छाअच्छा, तो पीएमटी की तैयारी चल रही है. प्रथम वर्ष का परिणाम तो नहीं आया न अभी. वह क्या है, अपना सुरेश, मेरा नाती, उस ने भी प्रथम वर्ष की ही परीक्षा दी है.’

‘पंडितजी, आजकल में परिणाम आने ही वाला है,’ मां ने ही जवाब दिया था.

मैं तो अपनी आदत के अनुरूप उन के आसपास रखी पुस्तकों में उलझ गई थी.

मेरी ओर देख कर पंडितजी मुसकराए, ‘भई, यह तो हर वर्ष पूरे जिले में अपने विद्यालय का नाम रोशन करती है. आप तो मिठाई तैयार रखिए, इस बार भी अव्वल ही आएगी.’

मां भी इस प्रशंसा से खुश थीं. वे हंस कर बोलीं, ‘मुंह मीठा तो अवश्य ही होगा आप का. आज यह साथ आ ही गई है तो हाथ बांचिए न इस का.’

मां इन सब बातों में बहुत विश्वास रखती हैं, यह मुझे मालूम था. मुझे स्वयं भी जिज्ञासा हो आई. भविष्य में झांकने की आदिम लालसा मेरे भीतर एकाएक जाग उठी. मैं ने अपना हाथ पंडितजी की ओर फैला दिया.

उन्होंने भी सहज ही मेरा हाथ पकड़ा और लकीरों की उधेड़बुन में खो गए. लेकिन जैसेजैसे समय बीतता गया, उन के माथे की लकीरें गहरी होती गईं. फिर कुछ झिझकते हुए से बोले, ‘बेटी, अपने व्यवसाय को ले कर अधिक ऊंचे सपने न देखो. बहुत अच्छा भविष्य है तुम्हारा. बहुत अच्छा घरवर…’

मैं आश्चर्यचकित उन की ओर देख रही थी और मां परेशान हो चली थीं. शायद सोच रही थीं कि नाहक इस लड़की को साथ लाई, घर पर ही रहती तो अच्छा था.

आखिर मां बोल उठीं,  ‘पंडितजी, छोडि़ए, मैं तो आप के पास किसी और काम से आई थी.’’

लेकिन अचानक मां की दृष्टि मेरे बदरंग होते चेहरे पर पड़ी और वे चुप हो गईं.

कुछ पलों की उस खामोशी में मेरे भीतर क्याक्या नहीं हुआ. पहले तो अपमान की ज्वाला से जैसे मेरे सर्वांग जल उठा. मुझे लगा, मेरे चेहरे से भाप निकल कर आसपास का सबकुछ जला डालेगी. अपने भीतर की इस आग से मैं स्वयं भयभीत थी कि अगले ही पल मेरा शरीर हिमशिला सा ठंडा हो गया. मैं पसीने से भीग गई.

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं कहां हूं और मेरे चारों ओर क्या हो रहा है. सन्नाटे के बीच मां की आवाज बहुत दूर से आती प्रतीत हुई, ‘चल, रोहिणी, तेरी तबीयत ठीक नहीं लगती. घर चलें.’

इस के बाद पंडितजी से उन्होंने क्या बोला, कब मैं खाना खा कर सो गई, मुझे कुछ याद नहीं. सब यंत्रचालित सा  होता रहा.

अगली सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं उस आरंभिक सदमे से बाहर आ चुकी थी. दिमाग की शून्यता फिर विचारों से धीरेधीरे भरने लगी थी. एकएक कर पिछले दिन का वृत्तांत मेरे सामने क्रम से आने लगा और विचार व्यवस्थित होने लगे.

मैं सोचने लगी कि यह मेरी कैसी पराजय है और क्यों? मैं तो पूरी मेहनत कर रही हूं. सामने ही तो सुखद परिणाम भी दिख रहे हैं, फिर यह सबकुछ मरीचिका कैसे बन सकता है? मैं अपने मन को दृढ़ करने के प्रयत्न में लगी थी. दरअसल, मां ने मुझे अकेला छोड़ दिया था.

पर यह सब तो मेरी जीवनसाधना पर कुठाराघात था. अब तक तो यही जाना था कि जीतोड़ कर की गई मेहनत कभी असफल नहीं होती. पर अब इस संदेह के बीज का क्या करूं? दादाजी भी तो कहते हैं कि हस्तरेखाओं में कुछ न कुछ तो लिखा ही रहता है. पर पढ़ना तो कोई विरला ही जानता है. मन को दिलासा दिया कि ंशायद पंडितजी पढ़ना जानते ही नहीं.

पर शक तो अपना फन फैलाए खड़ा था. असहाय हो कर मैं एकाएक रो पड़ी थी. पर फिर अपनेआप को संभाला, उठी और इस शक के फन को कुचलने की तैयारी में जुट गई. खूब मेहनत की मैं ने. मातापिता भी आश्वस्त थे मेरी पढ़ाई और आत्मविश्वास से. पर शक मेरे भीतर ही भीतर कुलबुला रहा था और शायद यही कुलबुलाहट उस दुर्घटना का कारण बनी.

मैं पहला पेपर देने जा रही थी. भाई मुझे परीक्षा भवन के बाहर तक छोड़ कर चला गया. अंदर जाने के लिए सड़क पार करने लगी कि जाने कहां से मेरा भविष्य निर्देशक बन एक ट्रक आया और मुझे एक जबरदस्त टक्कर लगा कर चलता बना. कुछ ही पलों में सब हो गया. समझ तब आया जब मैं हाथ में आई बाजी हार चुकी थी. अस्पताल में मेरी आंखें खुलीं. मेरे हाथों और सिर पर पट्टियां बंधी थीं. शरीर दर्द से अकड़ रहा था और मातापिता व भाई रोंआसे चेहरे लिए पास खड़े थे.

यहीं मुझ से दूसरी गलती हुई. मैं ने हार मान ली. मैं फिर उठ खड़ी होती, अगली बार परीक्षा देती तो मेरे सपने पूरे हो सकते थे. लेकिन मेरे साथसाथ घर में सभी मुझे छू कर लौटी मौत से आतंकित थे. सो, मेरे तथाकथित ‘भाग्य’ से सभी ने समझौता कर लिया. किसी ने मुझे इस दिशा में प्रोत्साहित नहीं किया. मेरा तो मन ही मर चुका था.

बीएससी 2 साल में पूरी की ही थी कि अखिल के घर से मेरे लिए रिश्ता आ गया.

अखिल को मैं बचपन से जानती थी. मैं ने ‘हां’ कर दी. उम्मीद थी, इन के साथ सुखी रहूंगी और सुखी भी रही. 18 साल हो गए विवाह को, कभी हमारे बीच कोई गंभीर मनमुटाव नहीं हुआ. घर में सभी सदस्य एकदूसरे को इज्जत व प्यार देते हैं.

मेरे मन में अपनी असफलता की फांस आरंभ में तो बहुत गहरी धंसी थी. लेकिन अखिल के प्यार ने इसे हलका कर दिया था. अनुकूल वातावरण में हृदय के घाव भर ही जाते हैं. लेकिन अनजाने में मेरी अपनी बेटी ने ही इस घाव को कुरेद कर हरा कर दिया था. मेरे सपनों, मेरी आकांक्षाओं और असफलताओं के बारे में कुछ भी तो नहीं जानती, शिखा.

मैं फिर सोच में डूब गई कि उसे किस तरह से समझाऊं. खुद की की गई गलतियां मैं उसे दोहराते हुए नहीं देख सकती थी. ऐसा नहीं कि मैं अपनी आकांक्षाएं उस के द्वारा पूरी कर लेना चाहती थी, लेकिन उस के अपने सपने मैं किसी भी सूरत में पूरे होते देखना चाहती थी. इस के लिए मुझे दुविधा के इस घेरे से बाहर निकलना ही था.

मैं बिस्तर से उठ खड़ी हुई. सोचा कि अभी देखूं शिखा क्या कर रही है? उस के कमरे का दरवाजा खुला था, बत्ती जल रही थी. मेज पर झुकी हुई शायद वह गणित के सूत्रों में उलझी हुई थी.

नंगे पैर जाने के कारण मेरे कदमों की आहट वह नहीं सुन सकी थी.

‘‘शिखा, सोई नहीं अभी तक?’’ मैं ने पूछा तो वह चौंक उठी.

‘‘ओह मां, आप भी, कैसे चुपके से आईं. डरा ही दिया मुझे. अभी तो सवा 11 ही हुए हैं. आप क्यों नहीं सोईं’’, झुंझलाते हुए वह मुझ से ही प्रश्न कर बैठी.

मैं धीरे से बोली, ‘‘बेटी, कल तुम शर्मीला के घर जाना चाहती हो न? उस की बहन, जो ज्योतिष…’’

‘‘अरे हां, लेकिन इस वक्त, यह कोई बात है करने की. यह तो फालतू की बात है. मैं तो विश्वास भी नहीं करती. बस, ऐसे ही थोड़ा सा परेशान करेंगे दीदी को,’’ शैतानी से हंसते हुए वह बोली.

मेरे चेहरे की तनी हुई रेखाओं को शायद ढीला पड़ते उस ने देख लिया था. तभी एकाएक गंभीर हो उठी और बोली, ‘‘मां, मालूम है, पिताजी क्या कहते हैं?’’

‘‘क्या?’’ मैं समझ नहीं पा रही थी किस संदर्भ में बात करना चाहती है मेरी शिखा.

‘‘पिताजी कहते हैं कि इंसान, उस की इच्छाशक्ति और उस की मेहनत, ये सब हर चीज से ऊपर होते हैं.’’

अपनी मासूम बिटिया के मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर मैं रुई के फाहे सी हलकी हो गई.

अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेटते हुए मैं ने अनुभव किया कि शिखा मुझ पर नहीं गई, यह तो लाजवाब है. लेकिन नहीं, यह लड़की लाजवाब नहीं, यह तो मेरा जवाब है. फिर मुसकराते हुए मैं नींद के आगोश में समा गई.

बेटा: क्या वक्त रहते समझ पाया सोम

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सिसकती दीवारें: क्यों अकेला पड़ गया वह

सामने वाले घर में खूब चहलपहल है. आलोकजी के पोते राघव का पहला बर्थडे है. पूरा परिवार तैयार हो कर इधर से उधर घूम रहा है. घर के बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है. आलोकजी ने घर को ऐसे सजाया है जैसे किसी का विवाह हो. वैसे तो उन के घर में हमेशा ही रौनक रहती है. भरेपूरे घर में आलोकजी, उन की पत्नी, 2 बेटे और 1 बेटी, सब साथ रहते हैं. कितना अच्छा है सामने वाला घर, कितना बसा हुआ, जीवन से भरपूर. और एक मैं, लखनऊ के गोमतीनगर के सब से चहलपहल वाले इलाके में कोने में अकेला, वीरान, उजड़ा हुआ खड़ा हूं. मेरे कोनेकोने में सन्नाटा छाया है. सन्नाटा भी ऐसा कि सालों से खत्म होने का नाम नहीं ले रहा.

अब ऐसे अकेले जीना शायद मेरी नियति है. बस, हर तरफ धूलमिट्टी, जर्जर होती दीवारें, दीवारों से लटकते लंबे जाले, गेट पर लगा ताला जैसे कह रहा हो, खुशी के सब दरवाजे बंद हो चुके हैं. हर आहट पर किसी के आने का इंतजार रहता है मुझे. तरस गया हूं अपनों के चेहरे देखने के लिए, पर यादें हैं कि पीछा ही नहीं छोड़तीं.

मैं हमेशा से ऐसा नहीं था. मैं भी जीवन से भरपूर था. मेरा भी कोनाकोना चमकता था. मेरी सुंदरता भी देखते ही बनती थी. मालिक के कहकहों के साथ मेरी दीवारें भी मुसकराती थीं. सजीसंवरी मालकिन इधर से उधर पायल की आवाज करती घूमती थीं. मालिक के बेटे बसंत और शिषिर इसी आंगन में तो पलेबढ़े हैं. उन से छोटी कूहू और पीहू ने इसी आंगन में तो गुड्डेगुडि़या के खेल रचाए हैं. यह अमरूद का पेड़ मालिक ने ही तो लगाया था. इसी के नीचे तो चारों बच्चों ने अपना बचपन बिताया है.

हाय, एकएक घटना ऐसे याद आती है जैसे कल ही की बात हो. मालिक अंगरेजी के अध्यापक थे. बहुत ज्ञानी, धैर्यवान और बहुत ही हंसमुख. मालिक को पढ़नेलिखने का बहुत शौक था. कालेज से आते, खाना खा कर थोड़ा आराम करते, फिर अपने स्टडीरूम में कालेज के गरीब बच्चों को मुफ्त ट्यूशन पढ़ाते थे. कभीकभी तो उन्हें खाना भी खिला दिया करते थे. आज भी याद है मुझे उन बच्चों की आंखों में मालिक के प्रति सम्मान के भाव. जब भी मालिक को फुरसत होती, साफसफाई में लग जाते. किसी और पर हुक्म चलाते मैं ने कभी नहीं देखा उन्हें.

मालिक 50 के ही तो हुए थे तब, जब ऐसा सोए कि उठे ही नहीं. मेरा तो कोनाकोना उन की असामयिक मृत्यु पर दहाड़ें मारमार कर रोया. मालकिन के आंसू देखे नहीं जा रहे थे. शिषिर ही तो अपने पैरों पर खड़ा हो पाया था, बस. वह तो मालकिन ने हिम्मत की और बच्चों को चुप करवातेकरवाते खुद को भी संभाल लिया. याद है मुझे, मालिक के जो रिश्तेदार शोक प्रकट करने आए थे, सब धीरेधीरे यह कह कर चले गए थे कि कोई जरूरत हो तो बताना. उस के बाद तो सालों मैं ने किसी की शक्ल नहीं देखी. मालकिन भी इतिहास की टीचर थीं. मालिक के सहयोग से ही वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकी थीं. मालिक हमेशा यही तो कहते थे कि हर औरत को पढ़नालिखना चाहिए, तभी तो मालकिन मालिक के जाने के बाद सब संभाल सकीं.

चारों बच्चों के विवाह की जिम्मेदारी मालकिन ने मालिक को याद करते हुए बड़ी कुशलता से निभाई. सब अपनेअपने जीवन में व्यस्त होते जा रहे थे. बस, मैं मूकदर्शक, घर की बदलती हवा में सांस ले रहा था. घर में बदलाव की जो हवा चली थी उस में मुझे अपने भविष्य के प्रति कुछ चिंता सी होने लगी थी.

शिषिर की पोस्ंिटग दिल्ली हो गई. वह अपनी पत्नी रेखा और बेटे विपुल के साथ वहां चला गया. बसंत की पत्नी रेनू और उस की 2 बेटियों, तन्वी और शुभी से घर में बहुत रौनक रहती. कूहू और पीहू की शादी भी बहुत अच्छे घरों में हो गई. सब बच्चों की शादियों में, फिर उन के बच्चों के जन्म के समय मैं कई दिन तक रोशनी से जगमगाता रहा.

लेकिन फिर अचानक पता नहीं क्यों रेनू मालकिन से दुर्व्यवहार करने लगी. एक दिन मालकिन स्कूल से आईं तो रेनू ने उन के आराम के समय जोरजोर से टीवी चला दिया. मालकिन ने धीरे करने के लिए कहा तो रेनू ने कटु स्वर में कहा, ‘मां, आप तो बाहर से आई हैं, मैं घर के कामों से अब फ्री हुई हूं, क्या मैं थोड़ा टाइमपास नहीं कर सकती?’

मालकिन को गुस्सा आया पर वे बोलीं कुछ नहीं. फिर रोज छोटी बहू कोई न कोई बात छेड़ कर हंगामा करने लगी. मालकिन को भी गुस्सा आने लगा, बसंत से दबे शब्दों में कहा तो उस ने तो हद ही कर दी. उन्हें ही कहने लगा, ‘मां, आप को समझना चाहिए, रेनू भी क्या करे, घर के सारे काम, आप का खानापीना, कपड़े सब वह ही तो करती है.’

मालकिन की आंखों की नमी मुझे आज भी याद है, उन्होंने इतना ही कहा था, ‘उस से कह दे, कल से मेरा खाना न बनाए, मैं बना लूंगी.’ आज सोचता हूं तो लगता है मालिक शायद बहुत दूरदर्शी थे, क्या उन्हें अंदाजा था कभी यह दिन आएगा, मुझे उन्होंने इस तरह से ही बनाया था कि मेरे 2-2 कमरों के साथ 1-1 किचन था.

बसंत और रेनू शायद यही चाहते थे. 2 दिन के अंदर रेनू ने अपना किचन अलग कर लिया. मैं रो पड़ा, लेकिन मेरे आंसू तो कोई देख नहीं सकता था. बस, ऐसा लगा मालिक ने मेरी दीवारों को अपने हाथ से सहलाया हो.

हद तो तब हो गई जब बसंत ने शराब पीनी शुरू कर दी. अब वह रोज पी कर मालकिन से झगड़ा करने लगा. मालकिन का गुस्सा भी दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था. उन्हें लगता वे जब आत्मनिर्भर हैं तो क्यों किसी की बात सुनें. उन का स्वभाव भी दिन पर दिन उग्र होता जा रहा था. कूहूपीहू आतीं तो घर के बदले रंगढंग देख कर दुखी होतीं.

मालकिन ने एक दिन शिषिर को बुला कर सब बताया. उस ने बसंत को समझाया तो बसंत ने कहा, ‘मां की इतनी ही फिक्र है तो ले जाओ अपने साथ इन्हें.’

मालकिन फटी आंखों से बेटे के शब्दों के प्रहार झेलती रहीं.

बसंत गुर्राया, ‘इन्हें कहो, अपनी तनख्वाह हमें दे दिया करें, हम फिर रखेंगे इन का ध्यान.’

शिषिर चिल्लाया, ‘इतनी हिम्मत, दिमाग खराब हो गया तुम्हारा?’

दोनों में जम कर बहस हुई, नतीजा कुछ नहीं निकला. शिषिर के जाने के बाद बसंत और उपद्रव करने लगा.

मालकिन को कुछ समझ नहीं आया तो उन्होंने एक राजमिस्त्री को बुलवा कर मेरे बीचोंबीच दीवार खड़ी करवा दी, बसंत ने कहा, ‘हां, यह ठीक है, आप उधर चैन से रहो, हम इधर चैन से रहेंगे.’

और देखते ही देखते 2 दिन में मेरे 2 टुकड़े हो गए. मेरी आंखों से अश्रुधारा बह चली, मालिक को याद कर मैं फूटफूट कर रोया. ऐसा लगा मालिक बीच की दीवार को देख उदास खडे़ हैं. लगा कि काश, मालकिन और बसंत ने थोड़ा शांति से काम लिया होता तो मेरे यों 2 टुकड़े न होते.

बात यहीं थोड़े ही खत्म हुई. कुछ दिन बाद शिषिर, कूहू और पीहू आईं, मालकिन सब को देख कर खुश हुईं, शिषिर ने मालकिन, बसंत, कूहू, पीहू को एकसाथ बिठा कर कहा, ‘यह तो कोई बात नहीं हुई, इस मकान के 2 हिस्से आप लोगों ने अपने मन से कर लिए, मेरा हिस्सा कौन सा है?’

मालकिन चौंकी थीं, ‘क्या मतलब?’

‘मतलब यही, आधा आप ने ले लिया, आधा इस ने, मेरा हिस्सा कौन सा है?’

‘हिस्से थोड़े ही हुए हैं बेटा, मैं ने तो रोजरोज की किचकिच से तंग आ कर दीवार खड़ी करवा दी, मैं अपना कमातीखाती हूं, नहीं जरूरत है मुझे किसी की.’

बसंत गुर्राया, ‘बस, अब वही मेरा हिस्सा है, मेरा घर वहीं सैट हो गया.’

शिषिर ने कहा, ‘नहीं, यह नहीं हो सकता.’

कूहू बोली, ‘मां, हमें भैया ने इसलिए यहां आने के लिए कहा था. साफसाफ बात हो जाए, आजकल लड़कियों का भी हिस्सा है संपत्ति में, बसंत भैया, आधा नहीं मिल सकता आप को, घर में हमारा भी हिस्सा है.’

मालकिन सब के मुंह देख रही थीं. बसंत ने कहा, ‘दिखा दिया सब ने लालच. आ गए न सब अपनी औकात पर.’

खूब बहस हुई, मालकिन ने कहा, ‘ये झगड़े बंद करो, आराम से भी बात हो सकती है.’

बसंत पैर पटकते हुए अपने हिस्से वाली जगह में चला गया, शिषिर बाहर निकल गया, कूहूपीहू ने मां के गले में बांहें डाल दीं. बेटियों का स्नेह पा कर मालकिन की आंखें भर आई थीं. पीहू ने कहा, ‘मां, हमें गलत मत समझना, हम अपने लालची भाइयों को अच्छी तरह समझ गई हैं. हमें कुछ हिस्सा नहीं चाहिए, शिषिर भैया ने कहा था, मकान बेच देते हैं. मां किसी के साथ रहना चाहेंगी तो रह लेंगी या किराए पर रह लेंगी.’

कूहू ने कहा, ‘मां, यह घर हमें बहुत प्यारा है, हम इसे नहीं बेचने देंगी.’

मैं तो हमेशा की तरह चुपचाप सुन रहा था, घर की बेटियों पर बहुत प्यार आया मुझे.

कूहू और पीहू अगले दिन चली गई थीं. उन के जाने के बाद शिषिर इस बात पर अड़ गया कि उसे बताया जाए कि उस का हिस्सा कौन सा है, वह अपने हिस्से को बेच कर दिल्ली में ही मकान खरीदना चाहता था. झगड़ा बढ़ता ही जा रहा था. हाथापाई की नौबत आ गई थी.

अंतत: फैसला यह हुआ कि मुझे बेच कर 3 हिस्से कर दिए जाएंगे, आगे क्या करना है, इस विषय पर बहस कर शिषिर भी चला गया लेकिन फिर भी बसंत ने मालकिन को चैन से नहीं रहने दिया. थक कर मालकिन ने भी एक फैसला ले लिया, अपने हिस्से में ताला लगा कर अपना जरूरी सामान ले कर वे किराए के मकान में रहने चली गईं. मैं उन्हें आवाज देता रह गया. मेरी आहों ने किसी के दिल को नहीं छुआ. वे हवा में ही बिखर कर रह गईं.

तभी से मेरे दुर्दिन शुरू हो गए. जिस आंगन में मालिक अपनी मनमोहक आवाज में कबीर के दोहे गुनगुनाया करते थे वहां अब शराब और ताश की महफिलें जमतीं. छोटी बहू मना करती तो बसंत उस पर हाथ उठा देता. 2 भाइयों को मां के किराए पर रहने का अफसोस नहीं हुआ.

कूहू और पीहू अपने ससुराल से ही कोशिश कर रही थीं कि सब ठीक हो जाए, फिर दोनों भाइयों ने मिल कर यह फैसला किया कि बसंत भी कहीं किराए पर रहेगा जिस से थोड़ी तोड़फोड़ के बाद मेरे 3 हिस्से करने में उसे कोई परेशानी न हो. उन्होंने एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं सिर्फ ईंटपत्थर का एक मकान ही नहीं हूं, मैं वह घर हूं जिसे बनाने में मालिक ने, उन के पिता ने, एक ईमानदार सहृदय अध्यापक ने अपनी सारी मेहनत से एकएक पाई जोड़ कर मजदूरों के साथ खुद भी रातदिन लग कर कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं की थी.

हर बार मालकिन जब भी किसी काम से यहां आईं, मेरे मन का कोनाकोना खिल गया. लेकिन उन के जाते ही मैं ऐसे रोया जैसे मां अपने बच्चे को छोड़ कर चली गई हो. बसंत ने अभी जाने की जल्दी नहीं दिखाई तो शिषिर ने गुस्से में एक नोटिस भेज दिया. बात कानून तक पहुंचते ही बढ़ गई. मैं ने सुना, एक दिन शिषिर आया, कह रहा था, ‘कूहू और पीहू का क्या मतलब है मकान से. उन्हें एक घुड़की दूंगा, चुप हो जाएंगी. बस, अब तुम जल्दी जाओ यहां से. मुझे अपना हिस्सा बेच कर दिल्ली में मकान खरीदना है.’

बसंत की बातों से अंदाजा हुआ कि मालकिन भी अब यहां नहीं आना चाहतीं. मैं बुरी तरह आहत हुआ. बसंत भी चला गया. मैं खालीपन से भर गया. अब मेरे आकार, बनावट की नापतोल होने लगी. कोनाकोना नापा जाता, लोग आते मेरी बनावट, मेरे रूपरंग पर मोहित होते. एक दिन कोई कह रहा था, ‘इस घर की लड़कियां कोर्ट चली गई हैं, वे पेपर्स पर साइन नहीं कर रही हैं. सब बच्चों के साइन किए बिना मकान बिक भी तो नहीं सकता आजकल, उन्होंने केस कर दिया है.’

मैं उन की बात सुन कर हैरान रह गया, फिर एक दिन कुछ लोग आए, गेट पर एक बड़ा ताला लगा कर नोटिस चिपका कर चले गए, मेरा केस अब कानून के हाथ में चला गया है, नहीं जानता हूं कि मेरा क्या होगा.

काश, मालकिन कहीं न जातीं, बसंत भी यहीं रहता फिर मुझे वह सब देखने को नहीं मिलता जिसे देख कर मैं जोरजोर से रो रहा हूं. पिछले हफ्ते ही मेरे पीछे वाली दीवार कूद कर रात को 2 बजे 3 लड़के एक लड़की को जबरदस्ती पकड़ कर ले आए. उन्होंने लड़की के मुंह पर कपड़ा बांध दिया था. पहले लड़कों ने खूब शराब पी, फिर उस लड़की की इज्जत लूट ली. लड़की चीखने की कोशिश ही करती रह गई, दुष्ट लड़कों ने उस के हाथ भी बांध दिए थे. मैं रोकता रह गया लेकिन मेरी सुनता कौन है. मेरे अपनों ने मेरी नहीं सुनी, वे दुष्ट लड़के तो पराए थे. क्या करता. इस अनहोनी को होते देख, बस, आंसू ही बहाता रहा.

डर गया हूं मैं. क्या यह सब फिर तो नहीं देखना पडे़गा. मेरा भविष्य क्या है, मुझे नहीं पता. काश, मैं यों न उजड़ा होता. एक घरआंगन में कोमल भावनाओं, स्मृतियों व अपनत्व की अनुभूति के सिवा होता ही क्या है? मेरी आंखें झरझर बहती रहती हैं.

अरे, हैप्पी बर्थडे की आवाजें आ रही हैं. सामने राघव ने शायद केक काटा है. आह, कितनी रौनक है सामने, और यहां? नहींनहीं, मैं सामने वाले घर से ईर्ष्या नहीं कर रहा हूं, मैं तो अपने समय पर, अपने अकेलेपन पर रो रहा हूं और अपनों से पुनर्मिलन की प्रतीक्षा कर रहा हूं. सिसकती दीवारें कभी मालिक को याद करती हैं, कभी मालकिन को, कभी बच्चों को. पता नहीं कब तक यों रहना होगा, अकेले, उदास, वीरान.

रैड लाइट- भाग 1: क्या बिगड़े बेटे को सुधार पाई मां

शाम की क्लासेज और शाम भी जाड़े की. बर्फ नहीं पड़ रही थी वरना और मुसीबत होती. अमेरिका के विस्कौन्सिन एवेन्यू और ट्वैंटी फोर्थ स्ट्रीट का चौराहा पार करते ही दिल में धुकधुकी इतनी तेज हो जाती है कि ड्राइविंग पर ध्यान बनाए रखना दूभर हो जाता है. ट्वैंटी फोर्थ स्ट्रीट का इलाका रैड लाइट एरिया कहलाया जाने लगा है. रैड लाइट एरिया का खौफ सुमि के मन में बालपन से ही बैठा हुआ है. सुमि के पापा के दूर के कुछ रिश्तेदार पुरानी दिल्ली में दशकों पुराने जमेजमाए कारोबार के चलते वहीं हवेलियों में रहते रहे हैं. मां बताती थीं कि वहां के बड़े चावड़ी बाजार के पास एक इलाका वेश्याओं और गुंडों की वजह से बदनाम ‘रैड लाइट’ एरिया हुआ करता था जिस के आसपास महल्लों में पलक झपकते लड़कियां गायब किए जाने की वारदातें सुनने में आया करती थीं. इस कारण वहां रहने वाले परिवारों की औरतें अपने घरों से बहुत कम निकलती थीं. मजबूरी में जब भी उन्हें बड़े चावड़ी बाजार के पास से गुजरना पड़ता तो उस ओर देखे बिना झट कन्नी काट कर बच्चों, विशेषकर बच्चियों को अपनी लंबी चादर के भीतर दबोचे ऐसे लंबे डग भरतीं मानो कोई चोरउचक्का पीछे पड़ा हो.

अमेरिका के शहर मिडवैस्टर के बीचोंबीच डाउनटाउन इलाके में देश की प्रख्यात और महंगी यूनिवर्सिटी में जर्नलिज्म के तेज रफ्तार रिफ्रैशर इवनिंग कोर्स के लिए फुल स्कौलरशिप का मौका विरलों को मिलता है. सुमि इसे हर हाल में पूरा करने को कटिबद्ध है. रैग्युलर कोर्स की गुंजाइश  नहीं, दिन की नौकरी छोड़े तो गुजारा कैसे हो?

जितनी प्रख्यात यूनिवर्सिटी है डाउनटाउन का यह इलाका उतना ही बदनाम होता जा रहा है. वहां की समृद्ध फार्मर्स (किसान) पीढ़ी वृद्ध हो चुकी है और उन की संतानों को सीधा उत्तराधिकार प्राप्त नहीं. प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण उन के वृहद् फार्म्स खरीद कर डैवलपर्स वहां आलीशान घर, मौल और आधुनिक सुविधाओं से लैस उपनगर बनाते जा रहे हैं. नतीजतन, शहरी आबादी वहीं उमड़ी जा रही है. बीच शहर में बंद दुकानें, खाली घर ड्रग डीलर्स और बदनाम पेशों के अड्डे हो गए हैं जिस के चलते महंगी यूनिवर्सिटी में प्रवेशातुर रईस परिवारों की संतानों की सुरक्षा बड़ी चुनौती बन गई है. 5 मील के घेरे के भीतर रहने वाले सभी छात्रों के लिए सुबह 7 बजे से रात के 12 बजे तक निशुल्क वैन सर्विस है. इस के अलावा, यूनिवर्सिटी ने पूरे इलाके के पुनरुद्धार का बीड़ा उठाया है और इस के पुनर्वास के लिए नियत फैडरल सरकार भी भरपूर सहयोग कर रही है. जरूरतमंदों के लिए उदार छात्रवृत्तियां, डैंटिस्ट्री और नर्सिंग डिपार्टमैंट्स की ओर से फ्री क्लीनिक्स, लौ डिमार्टमैंट की ओर से मुफ्त कानूनी सलाह के सैशंस की सुविधाएं उपलब्ध हैं.

कोर्स के एक असाइनमैंट के लिए अन्य सहपाठियों ने सामयिक घटनाओं को चुना जिन के लिए तथ्य रेडियो, टीवी और पत्रपत्रिकाओं से जुटाना सहज होता है. भारत की प्रमुख पत्रिकाओं, पत्रों में प्रकाशित सुमि का शौकिया लेखन मुख्यतया मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण भोगा हुआ यथार्थ ही रहा था. ऐसी 2 प्रविष्टियों और प्रमाणित पूर्व प्रकाशनों के बल पर ही इस तेज रफ्तार कोर्स में उसे प्रवेश मिला जिस के पूर्ण होने पर स्थानीय अखबार के फीचर सैक्शन में उस की सह संपादक की नियुक्ति की संभावना बन सकती थी.

ट्वैंटी फोर्थ स्ट्रीट के खस्ताहाल इलाके पर सुमि के ह्यूमन इंटै्रस्ट स्टोरी के चयन पर प्रोफैसर को आश्चर्य था पर मौन अनुमोदन दे दिया शायद इसलिए कि यह यूनिवर्सिटी की वर्तमान नीति के अनुरूप हो. बहरहाल, इलाके के गली, महल्ले छानने और इंटरव्यूज कर के तथ्य बटोरने के लिए वहां वीकेंड पर दिन का समय ही सुरक्षित होगा. यह उन्होंने पहले ही बता दिया. सिटी गजट अखबार की पुरानी प्रतियों में डाउनटाउन के इतिहास में ऐतिहासिक घरों, इमारतों का प्रचुर विवरण है. हैरत की बात यह कि ऐसे कुछ घर ठीक ट्वैंटी फोर्थ स्ट्रीट पर हैं. हिस्टौरिकल सोसाइटी से संपर्क कर के सुमि ने गृहस्वामियों के नामपते लिए और फोन कर के इंटरव्यू का समय तय किया. नियत समयानुसार मिस्टर गौर्डन रैल्फ के पते पर ठिठक कर अपनी लिस्ट फिर पढ़नी पढ़ती है. गलीचे से लौन के आगे संतरी सरीखे खड़े ऊंचे दरख्तों और तराशी हुई झाडि़यों से घिरे छोटे मगर शानदार मैन्शन का इस इलाके में क्या काम? ईंटपत्थर के मकान पुराने स्थापत्य शिल्प के नामलेवा भर रह गए हैं. रैल्फ मैन्शन का एकएक पत्थर जैसे समय के बहाव को रोके अविचल खड़ा. सामने की दीवार पर खूबसूरत स्टैंड ग्लास की बड़ी गोल खिड़की जैसे उन्नत भाल पर टीका हो. हस्तनिर्मित ऐसी नायाब कृतियां तो यूरोप के पुरातन गिरजाघरों में ही मिलें.

पूर्वनियत इंटरव्यू की औपचारिकता परे रख गृहस्वामी गौर्डन चाव से सुमि को घर दिखाते हैं, अपने बारे में बताते हैं. पत्नी का देहांत हो चुका है, बेटेबेटियां सुदूर प्रांतों और देशों में हैं. दशकों पूर्व जरमनी से अमेरिका आए उद्यमियों को लेक मिशिगन के तट पर बसा शहर बियर उद्योग की स्थापना के लिए सर्वथा उपयुक्त लगा था. बे्रवरीज लगाई गईं, रिहाइश के लिए घर बनाए गए. शहरी इलाकों में भी तब सड़कें कच्ची हुआ करती थीं जिन पर घोड़े और बग्घियां चलती थीं. गैराज के बजाय घरों के आगे घोड़े या छोटीबड़ी बग्घी के लिए शेड होते थे.

जरमन बियर और इंजीनियरिंग का दुनिया में आज भी मुकाबला नहीं. उन  के घरों की पुख्ता नींवें बहुत गहरी हैं और सारी प्लंबिंग तांबे की. समयोपरांत ब्रेवरीज के रईस मालिक लेकड्राइव का रुख करते गए और बीच शहर में उन के घर ब्रेवरीज के इंजीनियर और ब्रियूमास्टर्ज खरीदते गए. मिशिगन लेक को छूती एकड़ों जमीन पर आज भी खड़े कुछ आलीशान मैन्शंज और उन के अपने गैस्टहाउस, केयरटेकर्ज कौटेजेज, ग्रीनहाउस, अस्तबल, बग्घीखाने उस युग के प्रतीक हैं. आज के युग में ऐसी इमारतों का रखरखाव लगभग असंभव है. जिन मैन्शंज के मालिक या वारिस नहीं रहे और जो नींवों में लेक का पानी रिसने से खंडहर हो चले, उन्हें डैवलपर्ज ने ढहा कर आधुनिक बंगले, बहुमंजिले मकान जिन्हें यहां कौन्डोज कहा जाता, बना डाले. गौर्डन के परनाना ब्रियूमास्टर थे और शहर के भीतर पुराने घर का विस्तार कर के उसे छोटे मैन्शन का रूप दिया था. उन्नत भाल पर टीके सी खूबसूरत खिड़की का अलग ही एक किस्सा सुनाते हैं.

गौर्डन के नाना इकलौती संतान थे और मैन्शन के उत्तराधिकारी. मैन्शन का विस्तार किया लेकिन उन के पुत्र यानी गौर्डन के मामा ने पादरी बनने का निर्णय ले लिया. मैन्शन पुत्री को मिला और उन के बाद नाती गौर्डन को. ईंटपत्थर की दोहरी दीवारों के बीच एअर स्पेस, लकड़ी के फर्श, मजबूत लकड़ी के डबल फ्रेम वाली खिड़कियां, दरवाजे और हर कमरे में फायर प्लेस व रेडिएटर हीटर्ज भीषण जाड़े में भी घर को आरामदेह रखते हैं. खुले, हवादार घर में एअरकंडीशनिंग की जरूरत भी नहीं पड़ती लेकिन बैठक की एक दीवार गरमी में बेहद गरम हो जाती थी. अधिक आराम के लिए गौर्डन ने एअरकंडीशनर भी लगाए. दीवार फिर भी गरम रहती. एअरकंडीशनर को कई बार जांचने पर भी कारण समझ नहीं आया तो प्लास्टर तोड़ा गया. नीचे दीवार में जड़ी मिली स्टैंडग्लास ही हस्तनिर्मित नायाब गोल खिड़की जिस से तेज धूप अंदर आती रही थी इसीलिए वहां पर प्लास्टर मढ़ दिया गया होगा. गौर्डन ने शीशे की वह खूबसूरत खिड़की निकाल कर घर में ऊपर के बैडरूम को जाती सीढि़यों में लैंडिंग की उस दीवार में फिर जड़वा दी जिस तरफ धूप का रुख नहीं रहता.

वही खिड़की खूबसूरती और ऐंटीक वैल्यू की वजह से उन के घर की पहचान बन गई. रैल्फ मैन्शन यदि लेक के निकट और इलाके में होता तो हैरिटेज होम्ज में शुमार किया जाता जिन की सालाना नुमाइश यानी परैड औफ होम्ज की महंगी टिकटें समाज कल्याण के कई कार्यों के लिए हजारों डौलर जुटाती हैं. अपनी स्टोरी में लगाने के लिए सुमि रैल्फ मैन्शन और खिड़की की फोटो लेती है. खूबसूरती से तराशी झाडि़यों से घिरे लौन में टहलते हुए गौर्डन अगलबगल के  घरों की खस्ता हालत के बारे में पूछने पर बताते हैं कि उन के वृद्ध मालिक या तो नर्सिंग होम में हैं या कब्रगाह में. जो वारिस नौकरियों के सिलसिले में अन्य शहरों में हैं वे घरों को किराए पर चढ़ा गए. मैन्यूफैक्चरिंग का सारा काम चीन क्या गया कि डाउनटाउन का खुशहाल इलाका अब खस्ताहाल है. बढ़ती गुंडागर्दी के कारण किराएदार घर छोड़ कर जाने लगे हैं. खाली घर खुराफात के अड्डे बन रहे हैं. कितने घर तो सरकार ने तालाबंद करवा दिए हैं. नोट्स लेने के साथसाथ सुमि उन की भी फोटोज लेती चलती है.

पुनर्मिलन- भाग 6: क्या हो पाई प्रणति और अमजद की शादी

रात को अमजद और प्रणति पुन: होटल में थे. कौफी पीतेपीते अमजद गंभीर और सीधे सपाट स्वर में बोला, ‘‘प्रणति मैं आज भी तुम्हारा वही अमजद हूं 10 साल पहले वाला… पर क्या तुम भी… आज वही महसूस करती हो जो मैं करता हूं… मैं आज भी तुम्हारे साथ ही जिंदगी बिताना चाहता हूं.’’

‘‘तो क्या तुम ने अभी तक शादी नहीं की और मेरे बारे में तुम्हें क्या पता है? उस समय मैं ने तुम्हें कितने फोन लगाए पर सदैव स्विच्ड औफ ही आता रहा. ऐसा क्यों किया तुम ने अमजद. मुझे समझ नहीं आया… और आज फिर इस तरह का प्रस्ताव मेरी समझ से बाहर है,’’ प्रणति ने कुछ क्रोध और अचरज से अमजद की ओर देखते हुए कहा.

‘‘तो क्या तुम अभी तक समझती हो कि मैं तुम्हें अकेला छोड़ कर चला गया था?’’

‘‘तो और क्या समझ जा सकता है,’’ प्रणति ने आवेश से कहा.

‘‘देखो प्रणति तुम्हारे पापा उच्च अभिजात्यवर्गीय भावना से ओतप्रोत हैं और मेरा परिवार निम्न मध्यवर्गीय है सो दोनों के अंतर को तुम बहुत अच्छी तरह समझ सकती हो. 10 साल पहले तुम्हारी मयंक से शादी की बात अंकल ने स्वयं मुझ से मिल कर बताई थी और अपनी क्षत्रियता को जताते हुए तुम्हारे पास फटकने पर मुझे जान से मारने और मेरे परिवार को बरबाद करने तक की ताकीद की थी तो मेरे पास चुप रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था पर तुम मेरा प्यार थी. तुम्हें याद होगा हम आखिरी बार उसी दिन मिले थे जब मैं ने तुम्हें प्रपोज किया था. उस के बाद हमारी जितनी बातें हुईं फोन पर ही. बाद के दिनों में जब तुम ने मेरा फोन उठाना बंद कर दिया था तो मैं समझ गया था कि अपने पापा के आगे तुम मजबूर हो और मैं ने उसी समय यूएस का प्रोजैक्ट ले लिया था.

तुम्हारे अलावा जिंदगी के हमसफर के रूप में मैं ने कभी किसी और की कल्पना ही नहीं की तो किसी और से विवाह करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. यूएस से कई बार तुम्हें फोन कर के बात करने की इच्छा हुई परंतु तुम्हारी विवाहित जिंदगी में कोई समस्या न उठ खड़ी हो इसलिए साहस नहीं कर पाया. यहां आ कर कालेज के कुछ दोस्तों से तुम्हारे बारे में पता चला तो मिलना सुनिश्चित किया.

‘‘क्या. पापा ने ऐसा किया था तुम्हारे साथ… और क्या सच में तुम ने अब तक शादी नहीं की? पापा इस समय मेरे पास ही आए हैं. मैं आज ही जा कर उन से ऐसा करने का कारण पूछूंगी,’’ प्रणति हैरत से बोली.

‘‘जब प्यार तुम से किया था तो शादी किसी और से कैसे करता. मैं जब तक कुछ सोच पाता तब तक तुम किसी और की हो गई थी तो फिर मैंने आजीवन विवाह न करने का फैसला ले लिया था पर अब तुम मिल गयी हो तो फिर से सोचा जा सकता है,’’ कह कर मुसकराते हुए अमजद ने उस के हाथ पर हाथ रख दिया.

प्रणति कुछ कह पाती उस से पूर्व उस के पर्स में रखा मोबाइल बज उठा. जैसे ही उस ने फोन उठाया तो घबराए स्वर में पापा बोले, ‘‘बेटा जल्दी घर आ जाओ मां बाथरूम में गिर गई है.’’

आननफानन में वे दोनों ऐंबुलैंस ले कर घर पहुंचे. देखा तो मां बेहोश पड़ी थीं. सिर में से काफी खून निकल रहा था. प्राथमिक चिकित्सा के बाद डाक्टर ने कुछ आवश्यक टैस्ट कराने के लिए कहा. पूरा समय अमजद प्रणति के साथ ही रहा. अगले दिन रिपोर्ट देखने के बाद डाक्टर बोले, ‘‘इन के सिर में काफी गहरी चोट है

और हमें तुरंत औपरेशन करना होगा. और हां

इन का खून काफी बह गया है तो हमें कम से

कम 2 यूनिट ए पौजिटिव खून की आवश्यकता भी होगी.’’

‘‘अब इस कोरोना टाइम में कौन अपना खून देने अस्पताल में आएगा… अब क्या होगा,’’ कहते हुए प्रणति के पापा रोने लगे.

‘‘अंकल आप चिंता मत कीजिए, यदि आप कहें तो मैं अपना खून देने को तैयार हूं मेरा ब्लड ग्रुप भी ए पौजिटिव है,’’ अमजद ने प्रणति के पापा को आश्वस्त करते हुए कहा.

अमजद की बात सुन कर वे बोले, ‘‘बेटा मैं तुम्हें पहचान नहीं पा रहा हूं… चेहरा तो देखा हुआ ही लग रहा है पर कुछ याद नहीं आ रहा.’’

‘‘पापा यह अमजद है मेरा दोस्त जिसे आप ने धमकी दे कर यूएस जाने पर मजबूर कर दिया था,’’ प्रणति ने गुस्से से कहा मानो इतने समय से दबी भड़ास अपनाआपा खो बैठी हो.

‘‘पापा मैं ने अपने कई ग्रुप्स में ब्लड डोनेट के लिए मैसेज फौरवर्ड किया था पर कोरोना के कारण कोई भी यहां अस्पताल में आने को तैयार नहीं है और अमजद तो मुसलिम है तो उस का खून आप मम्मी को चढ़ाने नहीं देंगे. बताइए अब क्या करें?’’ प्रणति ने चिंतित स्वर में कहा.

प्रणति की बात का मानो उन पर कोई असर ही नहीं हुआ वे बस अपनी

नजरें नीची किए बैठे रहे. उन के उत्तर का इंतजार किए बिना प्रणति अमजद को ले कर डाक्टर के पास चली गई. 2 यूनिट खून ने मानो मम्मी को नया जीवन दे दिया था. औपरेशन भी सफल रहा था. जब तक मम्मी हौस्पिटल में रहीं अमजद प्रणति के साथ कंधे से कंधा मिलाए खड़ा रहा.

1 सप्ताह बाद मां को घर भी वही अपनी गाड़ी में लाया. मम्मी को घर छोड़ कर जब वह जाने लगा तो पापा का कांपता स्वर उस के कानों में गूंजा, ‘‘हो सके तो मुझे माफ कर देना बेटा. मैं यह

भूल गया था कि धर्म और जाति का ढिंढोरा हम कितना भी पीटते रहें पर इंसान की रगों में बहने वाला खून केवल इंसानियत का ही तकाजा रखता है.’’

15 दिनों के बाद मम्मी ठीक हो गईं. फिर एक दिन शाम की चाय पर प्रणति से बोली, ‘‘बेटा क्या तू हमें बरसों पहले जिद में की गई गलती को सुधारने का एक मौका दे कर अमजद को हमारा दामाद बना सकती है? काश, हम पहले समझ गए होते कि खून और प्यार का कोई धर्म नहीं होता.’’

प्रणति ने जब अपने पापा की ओर देखा तो वे बोले, ‘‘तेरी मां बिलकुल सही कह रही है… बस एक मौका…’’

प्रणति खुश होते हुए मांपापा के गले लग गई. 1 सप्ताह बाद दोनों परिवारों के बड़ों की उपस्थिति में बरसों पूर्व जुदा हुए 2 प्रेमी कोर्ट में एकदूसरे को माला पहना कर एक हो रहे थे.

रैड लाइट- भाग 2: क्या बिगड़े बेटे को सुधार पाई मां

तालाबंद घरों को फिर आबाद करने की एक स्कीम के तहत मेहनतकश लोग केवल एक डौलर में ऐसे घर खरीद सकते हैं, बशर्ते कि वे उन की मरम्मत कर के कम से कम 5 वर्ष तक अमनचैनपूर्वक उन में खुद रहने और नियम से प्रौपर्टी टैक्स भरने का कौंट्रैक्ट साइन करें. उद्यमी और साहसी नए प्रवासियों के लिए सुनहरा अवसर. ऐसे आबाद घरों से कानून और व्यवस्था में बेहतरी की भी उम्मीद है. संभ्रांत इलाकों में तो घरों को झाडि़यों वगैरा से घेरना लगभग अशिष्टता समझा जाता है लेकिन गौर्डन मजबूर हैं. नशाखोरों की टोलियां ऊंची आवाज में शोरशराबे के साथ किसी के भी घर के आगे हुल्लड़ मचाती मंडराती हैं. पुलिस बुलाओ, उन्हें भगाओ लेकिन अगली रात फिर वही तमाशा. झाडि़यों की सीमा खुराफातियों को कुछ हद तक थोड़ी दूर रखती है. गौर्डन अपने मैन्शन के आगे झाडि़यों की कतार का रोज सुबहसवेरे मुआयना करते हैं. चरसियों, नशाखोरों की रातभर की कारस्तानियों की निशानियां सिरिंजेज, सुइयां, कंडोम बीनते हैं वरना पड़ोस के छोटे बच्चे उन से डाक्टरडाक्टर खेलते हैं. कंडोम को नन्हे गुब्बारे समझ कर फुलाते हैं, उन में पानी भरभर कर एकदूसरे पर फेंकते हैं.

जर्जर हालत में कुछ घरों में सिंगल मदर्स अलगअलग बौयफ्रैंड्स से अपने बच्चों के साथ रह रही हैं. यह वह तबका है जो सरकार को दुधारी गाय मान कर उसे दुहे जाता है. ब्याह, शादी कर के तो आम गृहस्थी की तरह मेहनतमशक्कत से रोटी कमानी पड़ेगी. कोई बौयफ्रैंड अपनी संतान की परवरिश के लिए नियमित राशि दे तो भला, वरना अविवाहित मातापिता संतान को सरकार से मिलने वाले फूड स्टैंप्स और अन्य सहायता के सहारे पालते हैं. ऐसी मानसिकता वालों के कारण इलाके की छवि धूमिल होती है. गौर्डन अपनी दृष्टि घुमा कर सड़कपार कुछ दूरी पर उन घरों की ओर इशारा करते हैं जिन का हाल ही में पुनरुद्धार हुआ लगता है. एक घर के दोमंजिले पोर्च में स्विंगसोफे  या आरामकुरसी पर बैठी कुछ युवतियां मैगजीन पढ़ने या बातचीत करने में तल्लीन दिखती हैं. घर के मालिक अधेड़ आयु के निसंतान दंपती हैं, टायरोल और ऐग्नेस कार्सन. सोशल डैवलपमैंट कमीशन उन के घर की ऊपर मंजिल को किराए पर ले कर जरूरतमंदों के अस्थायी आवास के रूप में इस्तेमाल करता है. फिलहाल वहां रह रही युवतियां यूनिवर्सिटी के सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्कौलरशिप स्टूडैंट्स हैं जो पार्टटाइम काम भी करती हैं, जिस की वजह से उन्हें वक्तबेवक्त जानाआना पड़ता है. यूनिवर्सिटी जानेआने के लिए वैन सर्विस है और काम के लिए वे बस से जातीआती हैं.

सुमि कुछ कहती नहीं, लेकिन उस ने अलग से यह भी सुना है कि उस इलाके में गाडि़यां दिन में कई चक्कर मारती हैं. उन में ‘जौन्ज’ यानी ग्राहक होते होंगे. इसी कारण इस इलाके के रैड लाइट एरिया होने की अफवाह धुएं से चिंगारी बनने लगी है. गौर्डन सुमि को महल्ले के दौरे पर ले चलते हैं. 100 गज ही आते हैं कि बस से उतर कर एक अधेड़ महिला थैलों से लदीफंदी सामने से आती दिखती है. गौर्डन आगे बढ़ कर कुछ थैले पकड़ लेते हैं और उन्हें उन के दरवाजे तक छोड़ आते हैं. बारबार थैंक्स कहतीकहती जब वे अंदर चली जाती हैं तब नीची आवाज में सुमि को उन के बारे में गौर्डन बताते हैं कि हो न हो, खून बेच कर आई हैं तभी खरीदारी के थैले अकेले पकड़े थीं. सरकारी फूड स्टैंप्स से ग्रोसरी खरीदने या फूड बैंक से मुफ्त सामान लाने के लिए वे बच्चों को साथ ले जाती हैं. ड्रग ऐडिक्ट बेटी डीटौक्स सैंटर में है. बेटी का बौयफ्रैंड फरार है. उस से और पिछले एकदो बौयफ्रैंड्स से बेटी के 5 बच्चे हैं जिन्हें ये पाल रही हैं. सब को नियम से स्कूल की बस पर चढ़ा कर आती हैं, तीसरे पहर बस स्टौप से लिवा कर लाती हैं और घर में अनुशासित रखती हैं ताकि अच्छी अभिभावक होने का सुबूत दे सकें और बच्चों को अलगअलग फौस्टर होम्ज में न भेजा जाए. इन का पति नशेबाज था, सो उस से तलाक लिया और घरों, दफ्तरों की सफाई के सहारे गुजारा किया. टूटीफूटी हालत में छोटा घर एक डौलर में मिल गया जिसे हैबिटैट वालों ने रहने लायक बना दिया.

बेटी इकलौती संतान है और उसी के बच्चों की वजह से इन्हें कई जगह काम छोड़ना पड़ा. सब से बड़ी नातिन 12 साल की हो जाए तब उस की निगरानी में उस के भाईबहन को कुछ समय के लिए छोड़ कर सफाई वगैरह का ज्यादा काम पकड़ लेंगी. फिलहाल तो स्टेट इमदाद पर गुजारा कर रही हैं लेकिन मजबूरीवश. वे जानती हैं कि इस तरह से पलने वाले बच्चे जीवनभर हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं. जैसे और जितना बन पड़े बिन ब्याही मां के नाजायज बच्चों का भविष्य गर्त में जाने से बचाए रखना चाहती हैं गौर्डन और सुमि टहलतेटहलते आगे निकल आते हैं, तो एक पुराना दोमंजिला मकान दिखता है जिस का हाल ही में पुनरुद्धार हुआ लगता है. पोर्च में खड़ी एक अफ्रीकन अमेरिकी वृद्धा मुसकरा कर हाथ हिलाती हैं.

‘‘हाय,’’ गौर्डन गर्मजोशी से अभिवादन का उत्तर देतेदेते उन की तरफ बढ़ते हैं, ‘‘मीट माय न्यू फैं्रड,’’ कहते हुए सुमि का परिचय मिल्ड्रेड से करवाते हैं, ‘‘शी इज डूइंग अ स्टोरी औन अवर नेबरहुड.’’

मिल्ड्रेड की निगाहें अनायास उन घरों की तरफ जाती हैं जिन के कारण महल्ले की छवि धूमिल है, ‘ओहओह’ कहते ही तुरंत संभल जाती हैं.

‘‘कम इन, कम इन,’’ कहते हुए मिल्ड्रेड गौर्डन और सुमि के स्वागत में अपने पोर्च से नीचे उतर आती हैं. उन के साथ भीतर जाते हुए सुमि देखती है कि पोर्च में एक बैंच पर सामान से भरे कागज के खाकी थैले सजे हैं और उन के आगे गत्ते के टुकड़े पर लिखा है, ‘‘हैल्प योरसैल्फ ऐंड ऐंजौय.’’

‘‘आह, सो यू फाउंड गुड डील्ज ऐट द फार्मर्स मार्केट.’’

सुमि की ओर मुड़ कर गौर्डन समझाते हैं कि घर के पीछे अपने छोटे से किचन गार्डन में सागसब्जी उगाना और फार्मर्स मार्केट जा कर खेत से आई ताजी सागसब्जी, फल खरीदना मिल्ड्रेड की हौबी है. खुद तो पकातीखाती हैं ही, बुजुर्ग पड़ोसियों को भी भिजवाने के अलावा कागज के खाकी थैलों में डाल कर पोर्च में रख देती हैं ताकि कोई भी जरूरतमंद ले जाए.मिल्ड्रेड हारपोल रिटायर्ड नर्स हैं. इराक के साथ औपरेशन डेजर्ट स्टौर्म में पति की शहादत के बाद 7 बेटों और 2 बेटियों के पालनपोषण की

जिम्मेदारी अकेले नर्सिंग के सहारे संभालना कठिन था. पति की मृत्यु के बाद मिली राशि और मामूली पैंशन में  भी गुजारा न होता, सो सिलाई, बुनाई, कपड़ों पर इस्तरी और छोटीमोटी कैंटरिंग का काम भी ढूंढ़ा. ड्राईक्लीनिंग की दुकान खोली.

राशनपानी, सागसब्जी की भरसक उम्दा खरीदारी के हुनर के साथ मिल्डे्रड ने गृहस्थी सुचारु रूप से चलाई. बड़ बच्चों ने पढ़ाई के साथसाथ बिजनैस संभालने में हाथ बंटाना सिखाया. 50 साल से महल्ले के बच्चों की क्रौसिंग गार्ड हैं. सुबहशाम स्कूल बसस्टौप तक जिन बच्चों को सावधानी से सड़क पार करवा पहुंचाने/लाने जाती हैं उन में से एक भी कम होता है तो उस की कुशलक्षेम पूछने उस के घर पहुंच जाती हैं. यदि बच्चे की गैरहाजिरी का कारण अभिभावक का देर रात तक नशे में धुत रहने के बाद सुबह समय से न उठ पाना या ऐसी ही कोई गफलत होती है तो अभिभावक की भी अच्छी खबर लेती हैं. आज 7 बेटों में से एक आर्मी के ट्रांसपोर्ट डिवीजन का हैड इंजीनियर है, एक फिजिकल मैडिसन का डाक्टर. शेष 5 में कोई डैंटिस्ट है, कोई कंप्यूटर स्पैशलिस्ट, कोई म्यूजिक सिम्फनी का डायरैक्टर और कोई फुटबौल टीम का हैड कोच. सब से छोटे अविवाहित बेटे ने इंजीनियरिंग में मास्टर्स करने के बाद किसी नामी मैन्युफैक्चरिंग कंपनी में नौकरी के बजाय हाईस्कूल में फिजिक्स और मैथ्स पढ़ाना और स्पोर्ट्स कोचिंग करना पसंद किया है. मिल्ड्रेड की बहुएं भी प्रोफैशनल्स हैं. 2 सीनियर नर्सेज हैं, एक पब्लिक स्कूल सिस्टम में सीनियर पिं्रसिपल, एक म्यूजियम में सीनियर क्यूरेटर, एक स्पोर्ट्स मैडिसिन में थैरेपिस्ट व पति के साथ हैल्थ फिटनैस क्लीनिक की मालिक है और एक पुलिस औफिसर है.

बड़े ताऊजी: सत्ता की भूख में जब टूटा परिवार

रिटायरमैंट के बाद अपने ही जन्मस्थान में जा कर बसने का मेरा अनमोल सपना था. जहां पैदा हुआ, जहां गलियों में खेला व बड़ा हुआ, वह जगह कितनी ही यादों को जिंदा रखे है. कक्षा 12 तक पढ़ने के बाद जो अपना शहर छोड़ा तो बस मुड़ कर देख ही नहीं पाया. नौकरी सारा भारत घुमाती रही और मैं घूमता रहा. जितनी दूर मैं अपने शहर से होता गया उतना ही वह मेरे मन के भीतर कहीं समाता गया. छुट्टियों में जब घर आते तब सब से मिलने जाते रहे. सभी आवभगत करते रहे, प्यार और अपनत्व से मिलते रहे. कितना प्यार है न मेरे शहर में. सब कितने प्यार से मिलते हैं, सुखदुख पूछते हैं. ‘कैसे हो?’ सब के होंठों पर यही प्रश्न होता है.

रिटायरमैंट में सालभर रह गया. बच्चों का ब्याह कर, उन के अपनेअपने स्थानों पर उन्हें भेज कर मैं ने गंभीरता से इस विषय पर विचार किया. लंबी छुट्टी ले कर अपने शहर, अपने रिश्तेदारों के साथ थोड़ाथोड़ा समय बिता कर यह सर्वेक्षण करना चाहा कि रहने के लिए कौन सी जगह उपयुक्त रहेगी, घर बनवाना पड़ेगा या बनाबनाया ही कहीं खरीद लेंगे.

मुझे याद है, पिछली बार जब मैं आया था तब विजय चाचा के साथ छोटे भाई की अनबन चल रही थी. मैं ने सुलह करवा कर अपना कर्तव्य निभा लिया था. छोटी बूआ और बड़ी बूआ भी ठंडा सा व्यवहार कर रही थीं. मगर मेरे साथ सब ने प्यार भरा व्यवहार ही किया था. अच्छा नहीं लगा था तब मुझे चाचाभतीजे का मनमुटाव.

इस बार भी कुछ ऐसा ही लगा तो पत्नी ने समझाया, ‘‘जहां चार बरतन होते हैं तो वे खड़कते ही हैं. मैं तो हर बार देखती हूं. जब भी घर आओ किसी न किसी से किसी न किसी का तनाव चल रहा होता है. 4 साल पहले भी विजय चाचा के परिवार से अबोला चल रहा था.’’
‘‘लेकिन हम तो उन से मिलने गए न. तुम चाची के लिए साड़ी लाई थीं.’’

‘‘तब छोटी का मुंह सूज गया था. मैं ने बताया तो था आप को. साफसाफ तो नहीं मगर इतना इशारा आप के भाई ने भी किया था कि जो उस का रिश्तेदार है वह चाचा से नहीं मिल सकता.’’
‘‘अच्छा? मतलब मेरा अपना व्यवहार, मेरी अपनी बुद्धि गई भाड़ में. जिसे छोटा पसंद नहीं करेगा उसे मुझे भी छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘और इस बार छोटे का परिवार विजय चाचा के साथ तो घीशक्कर जैसा है. लेकिन बड़ी बूआ के साथ नाराज चल रहा है.’’
‘‘वह क्यों?’’

‘‘आप खुद ही देखसुन लीजिए न. मैं अपने मुंह से कुछ कहना नहीं चाहती. कुछ कहा तो आप कहेंगे कि नमकमिर्च लगा कर सुना रही हूं.’’

पत्नी का तुनकना भी सही था. वास्तव में आंखें बंद कर के मैं किसी भी औरत की बात पर विश्वास नहीं करता, वह चाहे मेरी मां ही क्यों न हो. अकसर औरतें ही हर फसाद और कलहक्लेश का बीज रोपती हैं. 10 भाई सालों तक साथसाथ रहते हैं लेकिन 2 औरतें आई नहीं कि सब तितरबितर. मायके में बहनों का आपस में झगड़ा हो जाएगा तो जल्दी ही भूल कर माफ भी कर देंगी और समय पड़ने पर संगसंग हो लेंगी लेकिन ससुराल में भाइयों में अनबन हो जाए तो उस आग में सारी उम्र घी डालने का काम करेंगी. अपनी मां को भी मैं ने अकसर बात घुमाफिरा कर करते देखा है.

नौकरी के सिलसिले में लगभग 100-200 परिवारों की कहानी तो बड़ी नजदीक से देखीसुनी ही है मैं ने. हर घर में वही सब. वही अधिकार का रोना, वही औरत का अपने परिवार को ले कर सदा असुरक्षित रहना. ज्यादा झगड़ा सदा औरतें ही करती हैं.

मेरी पत्नी शुभा यह सब जानती है इसीलिए कभी कोई राय नहीं देती. मेरे यहां घर बना कर सदा के लिए रहने के लिए भी वह तैयार नहीं है. इसीलिए चाहती है लंबा समय यहां टिक कर जरा सी जांचपड़ताल तो करूं कि दूर के ढोल ही सुहावने हैं या वास्तव में यहां पे्रम की पवित्र नदी, जलधारा बहती है. कभीकभी कोई आया और उस से आप ने लाड़प्यार कर लिया, उस का मतलब यह तो नहीं कि लाड़प्यार करना ही उन का चरित्र है. 10-15 मिनट में किसी का मन भला कैसे टटोला जा सकता है. हमारे खानदान के एक ताऊजी हैं जिन से हमारा सामना सदा इस तरह होता रहा है मानो सिर पर उन की छत न होती तो हम अनाथ  ही होते. सारे काम छोड़छाड़ कर हम उन के चरणस्पर्श करने दौड़ते हैं. सब से बड़े हैं, इसलिए छोटीमोटी सलाह भी उन से की जाती है. उम्रदराज हैं इसलिए उन की जानपहचान का लाभ भी अकसर हमें मिलता है. राजनीति में भी उन का खासा दखल है जिस वजह से अकसर परिवार का कोई काम रुक जाता है तो भागेभागे उन्हीं के पास जाते हैं हम, ‘ताऊजी यह, ताऊजी वह.’

हमें अच्छाखासा सहारा लगता है उन का. बड़ेबुजुर्ग बैठे हों तो सिर पर एक आसमान जैसी अनुभूति होती है और वही आसमान हैं वे ताऊजी. हमारे खानदान में वही अब बड़े हैं. उन का नाम हम बड़ी इज्जत, बड़े सम्मान से लेते हैं. छोटा भाई इस बार कुछ ज्यादा ही परेशान लगा. मैं ताऊजी के लिए शाल लाया था उपहार में. शुभा से कहा कि वह शाम को तैयार रहे, उन के घर जाना है. छोटा भाई मुझे यों देखने लगा, मानो उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया हो किसी ने. शायद इस बार उन से भी अनबन हो गई हो, क्योंकि हर बार किसी न किसी से उस का झगड़ा होता ही है.

‘‘आप का दिमाग तो ठीक है न भाई साहब. आप ताऊ के घर शाल ले कर जाएंगे? बेहतर है मुझे गोली मार कर मुझ पर इस का कफन डाल दीजिए.’’
स्तब्ध तो रहना ही था मुझे. यह क्या कह रहा है, छोटा. इस तरह क्यों?
‘‘बाहर रहते हैं न आप, आप नहीं जानते यहां घर पर क्याक्या होता है. मैं पागल नहीं हूं जो सब से लड़ता रहता हूं. मुकदमा चल रहा है विजय चाचा का और मेरा ताऊ के साथ. और दोनों बूआ उन का साथ दे रही हैं. सबकुछ है ताऊ के पास. 10 दुकानें हैं, बाजार में 4 कोठियां हैं, ट्रांसपोर्ट कंपनी है, शोरूम हैं. औलाद एक ही है. और कितना चाहिए इंसान को जीने के लिए?’’

‘‘तो? सच है लेकिन उन के पास जो है वह उन का अपना है. इस में हमें कोई जलन नहीं होनी चाहिए.’’
‘‘हमारा जो है उसे तो हमारे पास रहने दें. कोई सरकारी कागज है ताऊ के पास. उसी के बल पर उन्होंने हम पर और विजय चाचा पर मुकदमा ठोंक रखा है कि हम दोनों का घर हमारा नहीं है, उन का है. नीचे से ले कर ऊपर तक हर जगह तो ताऊ का ही दरबार है. हर वकील उन का दोस्त है और हर जज, हर कलैक्टर उन का यार. मैं कहां जाऊं रोने? बच्चा रोता हुआ बाप के पास आता है. मेरा तो गला मेरा बाप ही काट रहा है. ताऊ की भूख इतनी बढ़ चुकी है कि …’’

आसमान से नीचे गिरा मैं. मानो समूल अस्तित्व ही पारापारा हो कर छोटेछोटे दानों में इधरउधर बिखर गया. शाल हाथ से छूट गया. समय लग गया मुझे अपने कानों पर विश्वास करने में. क्या कभी मैं ऐसा कर पाऊंगा छोटे के बच्चों के साथ? करोड़ों का मानसम्मान अगर मुझे मेरे बच्चे दे रहे होंगे तो क्या मैं लाखों के लिए अपने ही बच्चों के मुंह का निवाला छीन पाऊंगा कभी? कितना चाहिए किसी को जीने के लिए, मैं तो आज तक यही समझ नहीं पाया. रोटी की भूख और 6 फुट जगह सोने को और मरणोपरांत खाक हो जाने के बाद तो वह भी नहीं. क्यों इतना संजोता है इंसान जबकि कल का पता ही नहीं. अपने छोटे भाई का दर्द मैं ही समझ नहीं पाया. मैं भी तो कम दोषी नहीं हूं न. मुझे उस की परेशानी जाननी तो चाहिए थी.
मन में एक छोटी सी उम्मीद जागी. शाल ले कर मैं और शुभा शाम ताऊजी के घर चले ही गए, जैसे सदा जाते थे इज्जत और मानसम्मान के साथ. स्तब्ध था मैं उन का व्यवहार देख कर.
‘‘भाई की वकालत करने आए हो तो मत करना. वह घर और विजय का घर मेरे पिता ने मेरे लिए खरीदा था.’’
‘‘आप के पिता ने आप के लिए क्या खरीदा था, क्या नहीं, उस का पता हम कैसे लगाएं. आप के पिता हमारे पिता के भी तो पिता ही थे न. किसी पिता ने अपनी किस औलाद को कुछ भी नहीं दिया और किस को इतना सब दे दिया, उस का पता कैसे चले?’’
‘‘तो जाओ, पता करो न. तहसील में जाओ… कागज निकलवाओ.’’
‘‘तहसीलदार से हम क्या पता करें, ताऊजी. वहां तो चपरासी से ले कर ऊपर तक हर इंसान आप का खरीदा हुआ है. आज तक तो हम हर समस्या में आप के पास आते रहे. अब जब आप ही समस्या बन गए तो कहां जाएंगे? आप बड़े हैं. मेरी भी उम्र  60 साल की होने को आई. इतने सालों से तो वह घर हमारा ही है, आज एकाएक वह आप का कैसे हो गया? और माफ कीजिएगा, ताऊजी, मैं आप के सामने जबान खोल रहा हूं. क्या हमारे पिताजी इतने नालायक थे जो दादाजी ने उन्हें कुछ न दे कर सब आप को ही दे दिया और विजय चाचा को भी कुछ नहीं दिया?’’
‘‘मेरे सामने जबान खोलना तुम्हें भी आ गया, अपने भाई की तरह.’’
‘‘मैं गूंगा हूं, यह आप से किस ने कह दिया, ताऊजी? इज्जत और सम्मान करना जानता हूं तो क्या बात करना नहीं आता होगा मुझे. ताऊजी, आप का एक ही बच्चा है और आप भी कोई अमृत का घूंट पी कर नहीं आए. यहां की अदालतों में आप की चलती है, मैं जानता हूं मगर प्रकृति की अपनी एक अदालत है, जहां हमारे साथ अन्याय नहीं होगा, इतना विश्वास है मुझे. आप क्यों अपने बच्चों के लिए बद्दुआओं की लंबीचौड़ी फेहरिस्त तैयार कर रहे हैं? हमारे सिर से यदि आप छत छीन लेंगे तो क्या हमारा मन आप का भला चाहेगा?’’
‘‘दिमाग मत चाटो मेरा. जाओ, तुम से जो बन पाए, कर लो.’’
‘‘हम कुछ नहीं कर सकते, आप जानते हैं, तभी तो मैं समझाने आया हूं, ताऊजी.’’
ताऊजी ने मेरा लाया शाल उठा कर दहलीज के पार फेंक दिया और उठ कर अंदर चले गए, मानो मेरी बात भी सुनना अब उन्हें पसंद नहीं. हम अवाक् खड़े रहे. पत्नी शुभा कभी मुझे देखती और कभी जाते हुए ताऊजी की पीठ को. अपमान का घूंट पी कर रह गए हम दोनों.
85 साल के वृद्ध की आंखों में पैसे और सत्ता के लिए इतनी भूख. फिल्मों में तो देखी थी, अपने ही घर में स्वार्थ का नंगा नाच मैं पहली बार देख रहा था. सोचने लगा, मुझे वापस घर आना ही नहीं चाहिए था. सावन के अंधे की तरह यह खुशफहमी तो रहती कि मेरे शहर में मेरे अपनों का आपस में बड़ा प्यार है.
उस रात बहुत रोया मैं. छोटे भाई और विजय चाचा की लड़ाई में मैं भावनात्मक रूप से तो उन के साथ हूं मगर उन की मदद नहीं कर सकता क्योंकि मैं अपने भारत देश का एक आम नागरिक हूं जिसे दो वक्त की रोटी कमाना ही आसान नहीं, वह गुंडागर्दी और बदमाशी से सामना कैसे करे. बस, इतना ही कह सकता हूं कि ताऊ जैसे इंसान को सद्बुद्धि प्राप्त हो और हम जैसों को सहने की ताकत, क्योंकि एक आम आदमी सहने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता.

पुनर्मिलन- भाग 5: क्या हो पाई प्रणति और अमजद की शादी

सुबह परदों से छन कर आती सूर्य की किरणों के मद्धिम प्रकाश ने उसे सुबह होने का एहसास कराया कि तभी दरवाजे पर हुई आहट से वह अपने बैड पर उठ कर बैठ गई, देखा तो सामने उस की प्यारी सहेली सुनयना खड़ी थी. उन दोनों की मुलाकात ट्रेनिंग के दौरान भोपाल की प्रशासनिक अकादमी में हुई थी. वह म.प्र. पुलिस में एक अधिकारी थी और इंदौर में ही पोस्टेड थी. अमजद और प्रणति के बारे में उसे कुछ ज्यादा पता नहीं था.

वह आते ही प्रणति के गले लग गई. बोली, ‘‘और बता कैसा रहा जीजू से मिलन का अनुभव? क्या उपहार दिया उन्होंने? ससुराल में सब का व्यवहार कैसा है… अरे, मैं लगातार बोलती जा रही हूं तू भी तो कुछ बोल,’’ कह कर जब उस ने प्रणति की आंखों में झंका तो उस की आंखों में आंसू देख कर चौंक गई और घबरा कर बोली, ‘‘क्या हुआ प्रणू तू रो क्यों रही है… कुछ गड़बड़ हुआ है क्या… क्या जीजू… ने कुछ…’’

‘‘क्या बताऊं और क्या छिपाऊं मैं सोना,’’ कहते हुए अब तक की सारी दास्तां उस ने सुनयना के आगे बयां कर दी.

‘‘उफ, यह क्या हो गया…’’ सुनयना हैरत

से बोली.

‘‘मैं किसी भी कीमत पर विवाह को तैयार नहीं थी पर मातापिता की भावनाओं के आगे हम बेटियां हमेशा से मजबूर होती रही है. मुझे अपने लिए तनिक भी दुख नहीं है पर मांपापा को इस कटु सचाई से कैसे रूबरू कराऊं कुछ समझ ही नहीं आ रहा. क्या बीतेगी उन पर यह सब सुन कर… केवल समाज के झठे भय और जिद से इतनी जिंदगियां एकसाथ खत्म हो गईं… विवाह.’’

कुंडली मिलाने से नहीं सोना बल्कि आपसी समझदारी से सफल होते हैं…

और समझदारी

आपसी प्यार से जन्म लेती है,’’ कहतेकहते प्रणति सुनयना के

गले लग फूटफूट कर रो पड़ी.

कुछ देर सोचने के बाद सुनयना बोली, ‘‘मयंक ने तुझे हाथ तक नहीं लगाया इस का सीधा सा तात्पर्य है कि उस ने सिर्फ अपने मातापिता के अहं की शांति के लिए विवाह किया. जब मयंक ने इतनी ईमानदारी से अपने बारे में बता दिया है तो इस झठे रिश्ते को महज दिखावे के लिए ढोने से कोई मतलब नहीं… तुम दोनों आपसी सहमति से तलाक ले कर अपनीअपनी जिंदगी में आगे बढ़ जाओ… मांपापा को इस स्थिति से अवगत कराना बहुत जरूरी है ताकि वे तुम पर वहां जाने के लिए दबाव न बनाएं. कभीकभी हमारे मातापिता अपनी जिद और अहंकार को ही सर्वोपरि मान लेते हैं. उन्हें लगता है वे जो कर रहे हैं बस वही सही है.’’

‘‘कौन से दबाव और अहंकार की बात कर रही हो बेटा… और क्या हमें बताना चाह रही हो…’’ दरवाजे पर प्रणति के पापा न जाने कब से खड़े थे सो उन की ओर देखते हुए बोले.

‘‘नहीं पापा कुछ नहीं, आइए बैठिए… कहां चले गए थे? आप मैं जब आई थी तो आप थे

ही नहीं,’’ कह कर वह पापा के गले लग फिर से रो पड़ी.

‘‘कुछ काम था… जैसे ही पूरा हुआ अपनी लाडली से मिलने चला आया,’’ कह कर पापा ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘चलो तुम लोग बात करो मैं चलता हूं,’’ कह कर पापा नीचे आ गए.

‘‘कुछ समय के बाद मौका देख कर सब बता देना और मयंक से बात कर के आपसी सहमति से तलाक की अर्जी दे दो… अबजब सब बिगड़ गया है तब इन को समझ आ जाएगा,’’ अच्छा अब मैं चलती हूं कह कर सुनयना ने उस से विदा ली.

कुछ दिनों के बाद जब ससुराल से सास का बुलावा आया तो प्रणति अपनी मम्मी से बोली, ‘‘मां, अभी 2-4 दिन और रुक कर जाऊंगी.. मैं ने मयंक से बात कर ली है वे आ जाएंगें मुझे लेने.’’

‘‘ठीक है जैसी तेरी मरजी,’’ कह कर मां अपने काम में लग गईं.

जब 1 माह तक भी न मयंक उसे लेने आया और न ही प्रणति ने जाने के बारे में कुछ कहा तो मां की अनुभवी नजरों में मानो कुछ खटकने सा लगा था. एक दिन उचित अवसर देख कर मां बड़े ही प्यार से बोली थीं, ‘‘बेटा सब ठीक तो है न? कब जाने का विचार है? कब आ रहे हैं दामादजी तुझे लेने.’’

‘‘मां कुछ भी ठीक नहीं हैं, मेरे और उन के बीच ऐसा कुछ भी नहीं हैं कि वे मुझे लेने आएं और मैं वहां जाऊं,’’ कह कर रोते हुए प्रणति ने सारी दास्तां मां को कह सुनाई.

इसी बीच न जाने कब पिताजी दरवाजे पर आ गए और उन्होंने भी सब सुन लिया.

प्रणति के चुप होते ही वे दहाड़े, ‘‘इस कर्नल के बच्चे को मैं देख लूंगा… मेरी बेटी की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश की इस ने… मेरे साथ धोखा किया,’’ कह कर पिताजी अलमारी में से अपना रिवौल्वर ले आए. प्रणति और उस की मम्मी ने बड़ी मुश्किल से उन्हें संभाला. यद्यपि वह अपने पापा से कहना चाहती थी कि आप ने भी तो अपने दोस्त के साथ धोखा किया है, पर संस्कारों की बेडि़यों ने उस के मुंह पर मानो ताला लगा दिया.

इस के बाद मयंक और प्रणति ने आपसी सहमति से तलाक ले लिया. इस बीच प्रणति की ट्रेनिंग के बाद इंदौर में पोस्टिंग हो गई. इस घटना के बाद से पापामम्मी दोनों बीमार रहने लगे रहते तो वे भोपाल में ही थे पर अकसर प्रणति के पास आतेजाते रहते. अब वे मन ही मन प्रणति की बिखरी जिंदगी के लिए खुद को जिम्मेदार मान रहे थे, जो काफी हद तक सही भी था.

‘‘दीदी कितनी देर तक नहाती हो आप… बाहर आओ मेरा काम खत्म हो गया मैं जा रही हूं… खाना टेबल पर लगा दिया है,’’ कांता बाई की आवाज से उस की तंद्रा भंग हुई तो फटाफट वह बाहर निकली. सोमवार को औफिस पहुंच कर अभी उस ने अपना लैपटौप खोला ही था कि अमजद का फोन आ गया. उस ने प्रणति से आज मिलने का कंफर्मेशन लिया. अमजद के बारे में सोच कर वह मन ही मन मुसकरा उठी. तभी सहकर्मी रंजना ने उस के कैबिन में आ कर उसे चौंका दिया, ‘‘क्या बात है आज मैडम बड़ी खुश नजर आ रही हैं.’’

‘‘आ बैठ न मुझे तुझे एक बात बतानी है,’’ कह कर उस ने अमजद के बारे में रंजना को सब बता दिया.’’

रंजना चूंकि प्रणति के अतीत के बारे में सब जानती थी सो जोश में भर कर

बोली, ‘‘देख इसे तू कुदरत का दिया हुआ एक और मौका मान. अब मम्मीपापा को केवल सूचना दे कि तू अमजद से विवाह कर रही है. उन की परमीशन लेने की भी कोई जरूरत नहीं है क्योंकि जरूरी नहीं कि हमारे बड़े हर बार सही निर्णय ही लें. ऐसे में हमें स्वयं निर्णय लेने का साहस करना चाहिए. बस अब तो तू जल्दी से अपनी गृहस्थी बसा,’’ रंजना खुशी के आवेश में कुछ और बोलती उस से पहले ही प्रणति बोली, ‘‘ओ मैडम इतने खयालीपुलाव मत पका अभी तक अमजद के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं है.’’

‘‘तो आज पता कर लेना,’’ कह कर रंजना चली गई.

रैड लाइट- भाग 3: क्या बिगड़े बेटे को सुधार पाई मां

मिल्ड्रेड की आयु के 75 वर्ष पूरे होने पर उन की प्लैटिनम ऐनिवर्सरी के सम्मानस्वरूप सब बेटों ने मिल कर उन के पुराने जर्जर घर का पुनरुद्धार किया. बड़ी बेटी वीरता पदक प्राप्त आर्मी मेजर की विधवा है और आर्मी हौस्पिटल में औपरेशन रूम नर्स. उसे इंटीरियर डैकोरेशन का शौक है और उस ने घरों की रंगाईपुताई का प्रोफैशनल कोर्स भी कर रखा है. अपने युवा बेटेबेटी सहित वह मां के घर की ऊपरी मंजिल में बाकायदा किराया दे कर रहती है. कौन्सर्ट पियानिस्ट सब से छोटी, अविवाहित बेटी और सब से छोटा बेटा भी मां के साथ रहते हैं. बड़ी और छोटी, दोनों बेटियों, छोटे बेटे और नातीनातिन ने दोमंजिले पूरे घर के रखरखाव की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है. बड़ी बेटी ने बहुत शौक से घर के अंदरबाहर की पूरी पेंटिंग खुद की. छोटे बेटे और नाती ने छत की खपरैलें बदलीं. गरमी में घर के आगेपीछे लौन की घास काटना, पतझड़ में आसपास से उड़ कर जमा पत्तों के ढेर उठाना और जाड़ों में बर्फ साफ करना, ये सब वे लोग ही करते हैं. बेटियों, बहुओं की लाख कोशिशों के बावजूद घर की रोजमर्रा सफाई और थोड़ीबहुत बागबानी मिल्डे्रड स्वयं करती हैं.

जो बेटे अपनेअपने बीवीबच्चों सहित अलग रहते हैं वे भी रविवार को मिल्डे्रड के घर पर इकट्ठे हो कर एकसाथ घूमने जाते हैं जिस के बाद पूरा परिवार साथ बैठ कर लंच करता है. सारी खरीदफ रोख्त खुद ही कर के पूरा खाना मिल्ड्रेड अकेले बनाती हैं और खाने की मेज भी बिलकुल फौर्मल तरीके से सुबहसुबह सजा कर तैयार करती हैं. सालों के अपने नियम में सिर्फ इतनी ढील देने लगी हैं कि बेटियां, बहुएं खाने के बाद मेज और खाना समेटें और कौफी सर्व करें.फार्मर्स मार्केट से ताजे फल, सब्जी खरीदते समय मिल्ड्रेड बखूबी याद रखती हैं कि परिवार में किस को क्या पसंद है. कभी कच्ची, कभी पका कर पहुंचा भी आती हैं. उन की पैनी निगाहें भांप लेती हैं कि अत्यधिक व्यस्तता के  कारण किस के यहां धुला ई के कपड़ों का ढेर हो गया है, किस का फ्रिज साफ कर के चीजें ला कर स्टौक करना है. लाख मना करने पर भी नखशिख से सब दुरुस्त कर के ही लौटती हैं.

‘‘हैल्प योरसैल्फ ऐंड ऐंजौय’’ लिखे गत्ते के टुकड़े के पीछे खड़ी मिल्ड्रेड पर कैमरा क्लिक कर के सुमि उन से विदा लेती है.

लगभग 2 सप्ताह बाद मुलाकात में गौर्डन सुमि को अपने महल्ले में उसी उत्साह से फिर घुमाते हैं जितने चाव से पहली भेंट में अपना रैल्फ मैन्शन दिखाया था. अपनी रनिंग कमैंट्री के साथ टहलते हुए वे इस बार उसे इलाके के उस हिस्से में ले जाते हैं जहां अधिकांश घर तालाबंद हैं और एकाध में मरम्मत चल रही है. मिल्ड्रेड के घर जैसे तो नहीं लेकिन रहने काबिल बनाए गए एकमंजिले घर के दरवाजे पर गौर्डन दस्तक देते हैं. गौरवर्ण एक वृद्धा द्वार खोलती हैं और गौर्डन को देख कर खिल उठती हैं.

‘‘मीट कौंस्टेंस स्टेहमायेर,’’ गौर्डन सुमि से कहते हैं और गृहस्वामिनी से मिलवाते हैं. वृद्धा बड़े प्रेम से स्वागत करती हैं.

कौंस्टेंस को सुमि के प्रोजैक्ट के बारे में समझा कर गौर्डन पूछते हैं, ‘‘हाउ इज माय पिं्रसैस?’’ वृद्धा घर के पीछे लौन में पेड़ पर बंधे हैमौक की तरफ इशारा करती हैं, ‘‘लौस्ट इन हर म्यूजिक, ऐज औलवेज बट शी विल बी डिलाइटेड टू सी यू, औल्सो ऐज औल्वेज.’’ हैमौक के निकट खड़ी उसे हलकेहलके झोटे देती एक युवती का चेहरा सुमि को जानापहचाना सा लगता है.

‘‘आय विल लीव यू लेडीज टु टौक व्हाइल आई जौइन माय यंग फ्रैंड,’’ कहते हुए गौर्डन पीछे की तरफ बढ़ जाते हैं. कौंस्टेंस तलाकशुदा हैं, वयस्क पुत्रों और पुत्री की मां. ‘पिं्रसैस’ कौंस्टेंस की 25 वर्षीया बेटी है, गे्रटा, जो मानसिक तौर पर बाधित है. पति रिचर्ड स्टेहमायेर एक औल अमेरिकन ट्रक कंपनी के सीनियर ड्राइवर हैं जिस कारण उन्हें दूरदराज शहरोें तक जाना पड़ता था. कौंस्टेंस एक छोटे बिजनैस के लिए अकाउंटिंग करती थीं. हर महीने 2-2, 3-3 हफ्तों की पति की लंबी गैरहाजिरियों की वजह से घर का सारा दायित्व भी उन्हें अकेले ही संभालना पड़ता था. पिता का अंकुश न होने के कारण बेटे उद्दंड हो गए थे.

दोनों के जन्म के वर्षों बाद शरीर से स्वस्थ और बेहद खूबसूरत बेटी के आगमन की खुशी पर तुषारापात हुआ जब डाक्टरों ने बताया कि वह आजन्म मंदबुद्धि ही रहेगी. सब से बड़ा सदमा तो तब लगा जब रिचर्ड ने साफ इल्जाम लगाया कि मंदबुद्धि बच्ची उन की संतान हो ही नहीं सकती बल्कि उन की लंबी गैरहाजिरी में किसी के साथ कौंस्टेंस के अफेयर का नतीजा है. उन्हें तलाक चाहिए. उस समय डीएनए जैसे प्रमाण की जानकारी नहीं थी. बेटों को सदमे से बचाने के लिए कौंस्टेंस ने तलाक की कार्यवाही को लंबा नहीं खींचा. मामूली से सैटलमैंट में उन्हें घर तो मिला लेकिन बाधित बच्ची की चौबीसों घंटे देखभाल के लिए कौंस्टेंस को नौकरी छोड़नी पड़ी. खर्चे की किल्लत की वजह से आखिरकार घर भी बेचना पड़ा और फूड स्टैंप्स पर गुजर की नौबत आ गई. वैलफेयर हाउसिंग कौंप्लैक्स के तंग अपार्टमैंट में शरण लेनी पड़ी. वैलफेयर हाउसिंग यानी सबस्टैंडर्ड लिविंग कंडीशंस. दीवारों से पपड़ी बन उतरता पेंट, नलों से लीक होता पानी, आए दिन चोक होती नालियां. बदबूदार गलियारों में चूहे, काक्रोच, गालीगलौज वाला पड़ोस. गंदी गुडि़या सी ग्रेटा बावली घूमती, दीवारों से उतरती पपडि़यां चाटती और जहांतहां गंदगी करती. दलदल में फंसी कौंस्टेंस डिप्रैशन में डूबती गई थीं और खैरात पर पलने वालों की मानसिकता उन पर हावी होती गई. बिना मेहनत सरकार से जो भी खींच सको, भला. डिप्रैशन के लिए गोलियां लेतेलेते नौबत नशे तक आ गई थी.

हाउसिंग कौंप्लैक्स में मुद्दा उठा कि मकानमालिक सरकार से बस पैसे ऐंठते हैं और अपार्टमैंट्स के रखरखाव पर धेला नहीं खर्च करते. एक शातिर वकील ने मुद्दे को तूल दिया कि अपार्टमैंट्स की दीवारों पर मकानमालिक सस्ता पेंट करवाता है जिस में सीसा मिला होता है. घटिया पेंट बहुत जल्दी पपडि़यां बन कर उतरता है जिसे गे्रटा जैसे छोटे बच्चे अकसर मुंह में रख लेते हैं और बहुतों को मिरगी के दौरे पड़ने लगे हैं. ऐसे दौरे गे्रटा को भी पड़ने लगे तो कौंस्टेंस के दिमाग में खयाल कौंधा. वे शिकायती दल की प्रतिनिधि बन गईं और वकील की मदद से मकानमालिक व पेंट कंपनी, दोनों पर सामूहिक मुकदमा ठोंक दिया. अखबारों ने मामले को खूब उछाला. नतीजतन दावेदारों को भारी मुआवजा मिला जिस का लगभग आधा भाग वकील की जेब में गया. इलाके में सक्रिय राजनीतिक दल और सोशल डैवलपमैंट कमीशन ने हस्तक्षेप कर के सब दावेदारों को मकानमालिक के बेहतर हाउसिंग कौंप्लैक्स में अपार्टमैंट्स दिलवाए. पेंट कंपनी से भी भारी हर्जाना वसूल कर गे्रटा जैसे बाधित बच्चों के ताउम्र इलाज के लिए एक ट्रस्ट बनाया गया.

मां की अत्यधिक व्यस्तता और तंगदस्ती की वजह से बेटे बिलकुल बेकाबू हो गए. वयस्क होते ही बड़ा बेटा अलग रहने लगा. कद्दावर शरीर के बल पर उसे एक नाइट क्लब में बाउंसर यानी दंगाफसाद करने वालों से निबटने की नौकरी मिल गई. कुछ समय बाद वह कैलिफोर्निया चला गया जहां वह फिल्मों में स्टंटमैन है. अपनी डांसर बीवी के साथ एक  छोटीमोटी टेलैंट एजेंसी चला रहा है जो फिल्म और टीवी की दुनिया में मौका पाने को आतुर भीड़ के लिए छोटेमोटे रोल जुटाती है. छोटे बेटे ने जैसेतैसे हाईस्कूल पास किया और कम्युनिटी कालेज से अकाउंटिंग और कंप्यूटर कोर्सेज पूरे कर के एक कार डीलर के यहां अकाउंटैंट बन गया. काम में होशियार था. अच्छा वेतन और बोनस कमाने लगा तो मां और बहन को छोड़ कर वह भी अलग हो लिया. जो भी कमाता वह गर्लफ्रैंड्स, कैसीनो और पब में उड़ा देता. खर्चीली आदतें बढ़ती गईं तो कर्ज लेने लगा और आखिरकार गबन करते पकड़ा गया.

कौंस्टेंस को जबरदस्त झटका लगा. रिचर्ड को खबर की. वे मिलने तो आए लेकिन जमानत से हाथ खींच लिया. बड़े बेटे से मदद मांगी तो उस ने मां को खरीखरी सुनाईं कि यदि खैरात के बजाय ईमानदारी व इज्जत से बेटे पाले होते तो ऐसी नौबत ही क्यों आती? सजायाफ्ता बेटे से मिलने जेल गई तो उस ने मुंह फेर लिया और कड़वे शब्दों में आइंदा मिलने आने के लिए मना कर दिया. मां ने बेटे से मिलने जाना नहीं छोड़ा. भले ही वह बात न करता था लेकिन दूर बैठ उसे जीभर देख कर वे लौट आती थीं.अपने ही खून से ऐसे घोर अपमान से कौंस्टेंस हिल गईं. उन्होंने अपनी शेष जिंदगी का रुख मोड़ने का निश्चय किया और विपन्न स्थिति में अपने जैसे हताश लोगों की मानसिकता बदलने के इरादे से सोशल डैवलपमैंट कमीशन के प्रयासों से जुड़ने की ठान  ली. आर्थिक सहायता के दावेदारों को सही और वाजिब अर्जियां दाखिल करने में मदद करने लगीं. अब अपने हाउसिंग कौंप्लैक्स की मुखिया हैं और इलाके में सक्रिय राजनीतिक दल की कार्यकर्त्ता.

रैड लाइट- भाग 4: क्या बिगड़े बेटे को सुधार पाई मां

बेटों के दिए सदमे से उबरने का अप्रत्याशित अवसर भी प्रकृति ने दिया. बड़े बेटेबहू के यहां लंबे इंतजार के बाद संतान हुई जिस के बारे में उन्हें बहुत समय बाद पता लगा. वह भी तब जब बरसों बाद रिचर्ड को अचानक अपने सामने पाया. उन से जाना के दोनों का पहला पौत्र मंदबुद्धि जन्मा है. कौंस्टेंस पर लगाए लांछन के लिए शर्मिंदा रिचर्ड स्वयं को क्षमा नहीं कर पा रहे थे. बडे़ बेटे ने भी कहलवाया कि मां को घोर विपत्ति से अकेले जूझने को छोड़ देने के लिए वह उन्हें अपना मुंह दिखाने के काबिल नहीं है. बापबेटे ने मिल कर प्रायश्चित करने की याचना की और गौर्डन के महल्ले में एक तालाबंद घर कौंस्टेंस को खरीदवा कर उस का पुनरुद्धार कर डाला जिस में वे रहती हैं. संबंधों के बीच बरसों पुरानी गहरी दरार पटनी मुश्किल है लेकिन रिचर्ड अब लगभग हर महीने मिलने आते हैं. बड़े बेटे ने भी पत्नी और बच्चे के साथ आने की इच्छा प्रकट की है. पिता और दोनों भाई ग्रेटा के हितचिंतक बने रहें, कौंस्टेंस इस से ज्यादा कुछ नहीं चाहतीं. गुजारे लायक कमा लेती हैं. बढ़ती आयु के कारण गे्रटा की पूरी देखभाल अकेले करने में कठिनाई होने लगी तो उसे स्पैशल नीड्ज वालों के होम में डाल दिया जिस का खर्च ट्रस्ट उठाता है. बेटी की मैडिकल और रिक्रिएशनल जरूरतों के प्रति अब बेफिक्री है लेकिन वीकेंड पर उसे घर ले आती हैं और पड़ोस में रहने वाली सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्टूडैंट्स में से किसी न किसी को मदद के लिए बुला लेती हैं. सुमि सोचती है कि तभी गे्रटा को झोटे देती युवती का चेहरा जानापहचाना लगा.

छोटे बेटे ने भी जिंदगी से सबक सीखा. जेलयाफ्ताओं को मिलने वाली शैक्षणिक सुविधा का लाभ उठा कर उस ने कंप्यूटर सौफ्टवेयर डैवलपमैंट में मास्टर्स कर लिया. अच्छे आचरण के लिएउस की सजा की मियाद घटा दी गई है और जल्दी ही रिहाई के बाद उसे वहीं जेल में एजुकेटर की नौकरी भी मिल जाएगी. भाई और पिता की तरह वह भी अपने व्यवहार के लिए शर्मिंदा है. पिछली विजिट में वे उसे अपने साथ आ कर रहने के लिए लगभग राजी कर आई हैं. सुमि सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्टूडैंट्स से भेंट करने के बारे में गौर्डन से मशविरा करती है तो वे उसे कौंस्टेंस की मदद लेने की सलाह देते हैं. एक फोटो लेने और इंटरव्यू के लिए सुमि कौंस्टेंस से पूछती है तो वे चौंक कर पीछे लौन पर नजर डालती हैं, ‘‘अनेदर टाइम,’’ कह कर टाल देती हैं. असमंजस से भरी सुमि उन से विदा ले कर गौर्डन के साथ बाहर आ जाती है.

असाइनमैंट सबमिट करने की डैडलाइन से पहले सुमि गौर्डन को फोन करती है कि स्टोरी लगभग पूरी है, सिर्फ सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्टूडैंट्स से इंटरव्यू और एकाध फोटो लेना बाकी है. वे कौंस्टेंस से मशविरा कर के वापस फोन करने का आश्वासन देते हैं. 2 दिन बाद वे सुमि को रैल्फ मैन्शन बुलाते हैं.वहां पहुंचने पर कौंस्टेंस भी मिलती हैं. गंभीर मुद्रा में वे सुमि से वचन लेती हैं कि जो कुछ भी उसे बताया जाएगा उसे वह अपने तक सीमित रखेगी, असाइनमैंट सबमिट करने से पहले उन्हें दिखाएगी और ऐसा भी हो सकता है कि वे स्टोरी के किसी अंश को सैंसर करना चाहें.

कौंस्टेंस बहुत मुलायम स्वर में कहना शुरू करती हैं कि मामला एक पुराने संभ्रांत महल्ले का है जो समय की मार से बुरी तरह घायल हुआ. उस के अच्छे समय की स्मृतियां संजोए गौर्डन, टायरोल और ऐग्नेस, मिल्ड्रेड और कौंस्टेंस जैसे कुछ लोग इलाके को रैड लाइट एरिया के नाम से बदनाम किए जाने से तिलमिलाए हुए हैं. इसीलिए समाज उद्धार पर कटिबद्ध सोशल डैवलपमैंट कमीशन से जुड़े हैं. सुमि की स्टोरी उन के प्रयास को बल देगी, इस आस्थावश सब ने उसे पूर्ण सहयोग दिया. अपने जीवन के अंतरंग पक्ष उस के साथ साझा किए. टायरोल और ऐग्नेस सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्टूडैंट्स के महज मकानमालिक ही नहीं, सोशल डैवलपमैंट कमीशन द्वारा नियुक्त उन के अभिभावक भी हैं. वे युवतियां वयस्क हैं लेकिन उन के अतीत को एक रहस्य ही रहना होगा. वे बस बहुत कच्ची आयु से ही घोर प्रताड़ना और त्रासदी के भंवर में घिर कर आत्महत्या के कगार तक पहुंच गई थीं.

अवैध तरीकों से देश में लाई गई उन जैसी लड़कियां वेश्यावृत्ति करवाने वाले गिरोहों के चंगुल में फंसी गर्त में गिरती जाती हैं. कई मार दी जाती हैं या नशाखोरी अथवा एड्स की शिकार हो कर दर्दनाक मौत का शिकार बनती हैं. अलगअलग शहरों में पुलिस के छापों में पकड़ी गई ऐसी युवतियों को इमिग्रेशन वालों की सहायता से तत्काल नया रूपरंग, नई पहचान दे कर दूर भेज दिया जाता है और समाजसेवी संस्थाएं उन का पुनर्वास करती हैं.कौंस्टेंस के यहां पीछे बगीचे में गे्रटा को झूला झुलाती जो युवती सुमि को पहचानी सी लगी, वह प्योनी है. गौर्डन के साथ महल्ले में घूमते हुए सुमि ने दोमंजिले पोर्च में बैठी, बतियाती युवतियों के बीच उसे देखा होगा.

सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स पूरा होते ही इन युवतियों को फिर रीलोकेट कर दिया जाएगा ताकि उन के पिछले पदचिह्न मिटते रहें जब तक पिछला कोई भी सुराग बाकी न बचे. कार्सन दंपती का घर उन का स्थायी पुनर्वास नहीं, बल्कि एक कड़ी मात्र है. कुछ अन्यत्र कहीं नर्सिंग कालेज में डिगरी कोर्स पूरा करेंगी और आर्मी में जाएंगी. कुछ की अलगअलग शहरों में वृद्धों के नर्सिंग होम्स में नौकरी लगभग पक्की है. अन्य को शहरशहर घूमतेघूमते कोई ठिकाना मिल ही जाएगा जिस में वे बेखौफ रह सकेंगी. जिस घर में 10 युवतियां रहती हों उस का असामाजिक तत्त्वों की नजरों से बचना मुश्किल होता है. टायरोल और ऐग्नेस के घर के चक्कर लगाने वाली बिना पहचान की गाडि़यां पुलिस के विशेष सुरक्षा दस्ते की हैं. सुमि की स्टोरी को डिस्ंिटक्शन ग्रेड मिलता है. स्टोरी में सुमि ने यूनिवर्सिटी और सोशल डैवलपमैंट कमीशन के साझे इनीशिएटिव का संक्षिप्त वर्णन ही दिया जिस के तहत जरूरतमंद वर्ग छात्रवृत्तियों और रिहाइश जैसी अन्य सुविधाओं का लाभ उठा कर अपना भविष्य संवार रहा है. निष्ठावान निवासियों द्वारा इलाके की धूमिल छवि को सुधारने के लिए किए गए अथक प्रयासों के सजीव चित्रण के लिए जर्नलिज्म डिपार्टमैंट का अखबार उसे मुख्य फीचर बनाता है. शहर के प्रमुख दैनिक में उस का प्रचुर विवरण छपता है.

सुमि अखबार की कई प्रतियां गौर्डन, कौंस्टेंस, मिल्डे्रड और टायरोल के यहां पोस्ट कर देती है. यूनिवर्सिटी और सोशल डैवलपमैंट कमीशन की ओर से जर्नलिज्म डिपार्टमैंट का अखबार शहर के मुख्य दैनिक के साथ मुफ्त वितरित किया जाता है. ग्रैजुएशन डे पर सुमि को बधाई देने वालों में गौर्डन, कौंस्टेंस, मिल्ड्रेड, टायरोल और ऐग्नेस के साथ प्योनी और उस की साथिनें भी आती हैं. सब के साथ फोटो सुमि को बैस्ट अवार्ड लगता है. स्थानीय अखबार में सह संपादक सुमि अब डाउनटाउन के चप्पेचप्पे से वाकिफ हो चुकी है. विस्कौन्सिन एवेन्यू और ट्वैंटी फ ोर्थ स्ट्रीट का चौराहा पार करते हुए सुमि पुराने भय को याद कर के हंसे बिना नहीं रह पाती. उस इलाके में प्रौपर्टी डैवलपमैंट जोर पकड़ने लगा है और जमीन के भाव बढ़ रहे हैं

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