Serial Story: पलकों की गलियों में

 

 

 

 

 

Serial Story: पलकों की गलियों में (भाग-3)

एक सिंहक रिश्ते की शिकार औरत का पूरा व्यक्तित्त्व ही बदल जाता है. वह अपने

में सिमट कर रह जाती है. ईमान अब अकसर घबराई रहती, संकोच करती रहती. सचिन पूछा करता, ‘‘तुम्हारे आत्मविश्वास को क्या हो गया है? कैसी दब्बू सी हो गई हो तुम…’’

ऐसी बातों का कोई जवाब न था ईमान के पास पर बारबार ऐसे शब्द उस के आत्मविश्वास को और भी गिरा देते थे. किसी शिक्षित, आज की लड़की के लिए यह बेहद मुश्किल घड़ी थी. वह यह जानती थी कि वह यह एक गलत रिश्ते में है पर फिर भी स्वीकार नहीं पा रही थी कि वह इतनी बेबस हो चुकी है. ये रिश्ता उस के लिए एक कारागार की तरह हो गया था जहां उस की आवाज कैद थी, उस का शरीर बंद था और मन भी. कैसे किसी को कहे कि 21वीं सदी की इतनी पढ़ीलिखी, एक आत्मनिर्भर औरत होते हुए भी उस की आज यह हालत थी. दरअसल, परिवार के विरुद्ध जा कर उस ने जो कदम उठाया था उसी को गलत स्वीकारना बेहद कठिन हो रहा था. अपनी इच्छा से चुने रिश्ते में कमी निकालने की हिम्मत करे तो कैसे? लोग क्या कहेंगे?

‘‘मेरा ममेरा भाई मथुरा में रहता है. वह कुछ दिन हमारे पास रहने आएगा. 10वीं कक्षा में है, उसे कुछ कोचिंग का पता करना है यहां,’’ एक शाम सचिन ने बताया.

‘‘हां, बड़े शहर में अच्छे कोचिंग सैंटर मिल जाते हैं,’’ ईमान ने उस की हां में हां मिलाई. ‘‘बता देना कब आ रहा है और उसे क्या पसंद है खाने में.’’

सचिन के मामा और उन के बेटे इप्सित की ईमान से अच्छी आवभगत की. अगले दिन इप्सित को वहीं छोड़ कर मामा लौट गए. इप्सित नई पीढ़ी का एक होशियार लड़का था. कुछ ही दिनों में वह समझ गया कि ईमान सचिन से डरती है. उस की हर बात को हुकुम की तरह मानती है. हालांकि कमरे के अंदर क्या होता है इस की भनक इप्सित को मिलना मुमकिन नहीं था, किंतु सब के सामने ईमान का सचिन की हर बात मानना, उस के आवाज लगाने पर दौड़ते हुए आना, उस के द्वारा आंखें तरेरने पर घबरा जाना यह काफी था इप्सित को यह समझने के लिए कि उस के भैया शेर हैं और ईमान बकरी.

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एक शाम जब ईमान औफिस से लौट कर खाना पका रही थी तो इप्सित ने दबे पांव पीछे से आ कर अपनी आवाज को सचिन की तरह गंभीर मुद्रा में नियंत्रित कर सख्ती से पुकारा, ईमान. ईमान को लगा उस से फिर कोई गलती हो गई जिस के लिए सचिन उस से नाराज हो उठा है. वह भयभीत हो उठी. उचक कर पलटी तो सामने इप्सित को खड़ा देख भौचक्की रह गई.

उस की विस्फारित आंखों को देख इप्सित तालियां बजाने लगा, ‘‘मैं ने भी आप को डरा दिया. देखा, मैं भी भैया से कम नहीं हूं.’’

इप्सित की इस बात से ईमान विचलित हो उठी. क्या नई पीढ़ी भी घर के अंदर हिंसा देख कर वही सीखेगी? ईमान का सिर घूमने लगा. इप्सित को घर में रहते बामुश्किल 1 महीना गुजरा था और उस ने देहरी के अंदर घटिया मानदंड सीखने शुरू कर दिए थे. इसी सोच में डूबी ईमान ने आज बड़े बेमन से खाना पकाया. सचिन आ चुका था. उस ने सब को डाइनिंगटेबल पर आवाज दी. सचिन और इप्सित बैठ गए और ईमान उन की प्लेटों में खाना परोसने लगी. पहला कौर खाते ही सचिन जोर से चीखा, ‘‘दाल में नमक तेरी मां डालेगी?’’ और उस ने प्लेट उठा कर ईमान की ओर फेंकी. स्टील की प्लेट का पैना किनारा ईमान के माथे पर लगा. दाहिने कोने से खून की धारा फूट पड़ी. उस के कपड़ों पर खाना बिखर चुका था और ऊपर से खून बह रहा था. ईमान घबरा कर बाथरूम की ओर भागी. अंदर जा कर जब उस ने खुद को आईने में देख तो चोट से भी ज्यादा उसे अपनी हालत पर रोना आया. उसे खुद पर तरस आया और ग्लानि भी. यह क्या कर रही है वह अपने साथ? एक छोटी सी बेध्यानी के कारण हुए इस वाकेआ ने ईमान को उस की जड़ों तक हिला दिया. क्यों कर रही है वह अपनी जिंदगी बरबाद? क्या हमेशा ऐसे ही चलेगा? अब तक जो हिंसा घर के अंदर, केवल इन दोनों के बीच हुआ करती थी, आज उस में एक मेहमान की उपस्थिति भी हो चुकी है. तो क्या जो भी इन के घर आएगा, उस के सामने सचिन ऐसे ही बरताव करेगा उस के साथ? क्या ईमान की कोई इज्जत, कोई सम्मान नहीं?

शादी का यह मंजर बहुत खौफजदा हो चला. बेहद घुटनभरा. ऐसा नहीं हो सकता कि

हम सांस भी न लें और जिंदा भी रहें. ईमान प्यार में नहीं, डर में अंधी हो रही थी. प्यार तो न जाने कब का पीछे छूट चुका. अब हैं तो बस जिम्मेदारियां और डर जिस के कारण ईमान सहमी रहती. लेकिन आज उस की सीमा पार हो गई. अब तक वह खुद को गलत और सचिव को परेशान समझ कर माफ करती आई. लेकिन अब बात दोनों के बीच से गुजर कर बाहर चली गई. किसी तीसरे की मौजूदगी में भी अगर सचिन को कोई लिहाज नहीं तो फिर आगे आने वाली जिंदगी तो बद से बदतर होती जाएगी. उस के घर के अंदर का क्या वातावरण होगा, उस के बच्चे क्या सीखेंगे, उस की क्या हैसियत होगी घर और समाज में? इतनी अच्छी शिक्षादीक्षा, इतनी अच्छी नौकरी करने के बाद भी अगर ईमान के आंचल में केवल पिटाई और आंसू हैं तो फिर लानत है. क्या उस के मातापिता ने इसलिए उसे अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया? न जाने कितने ही सवाल ईमान के दिमाग चक्कर काटने लगे. उस ने फौरन पट्टी करवाने के लिए अस्पताल जाने का मन बनाया. उसी हालत में वह बाहर आई तो देखा सचिन खाना खा चुका था. नीचे बिखरा खाना ज्यों का त्यों था.

उस की गंभीर हालत देख सचिन उस की ओर लपका, ‘‘ओह तुम्हें काफी चोट लग गई, ईमान, चलों मैं तुम्हें डाक्टर के पास ले चलूं…’’

मगर ईमान ने हाथ के इशारे से उसे वहीं रोक दिया. वह अकेली ही घर से बाहर निकली, सामने से जाता हुआ औटो रोका और उसे अस्पताल चलने को कहा. अस्पताल पहुंच कर उस ने फौर्म भरा, डाक्टर के पूछने पर कारण बताया घरेलू हिंसा. अब बहुत हो चुका है. बहुत सह चुकी है वह. इस रिश्ते में वह एक उम्मीद के साथ आगे बढ़ी थी ताकि पलकों की गलियों में पल रहे उस के सुनहरे सपने सच हो सकें, न कि आंसुओं के बवंडर से वे सपने धुल जाएं. इस जंजाल से बाहर निकलने का समय आ गया है. अब शायद पुलिस को बुलाया जाएगा. उस की हालत की जानकारी उस के परिवार को मिल जाएगी. हो सकता है वह कहें हम ने तो पहले ही मना किया था, हमारी बात मानी होती तो आज यह दिन न देखना पड़ता, और न जाने क्याक्या हो सकता है. वह विधर्मी विवाह और उस के प्यार पर उंगली उठाएं. लेकिन एक गलत रिश्ते का अर्थ ये कदापि नहीं कि प्यार पर से विश्वास उठ जाना चाहिए. हो सकता है उसे करारी छींटाकशी का शिकार होना पड़े, पर कोई बात नहीं वह झेल लेगी. वह अपने पैरों पर खड़ी है. अब उसे किसी पर न तो बोझ बनने की जरूरत है और न ही अपनी इज्जत को यों तारतार होते देखने की. जरूरत है तो बस इस कदम को उठाने की. आखिर उसे भी हक है खुश रहने का.

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Serial Story: पलकों की गलियों में (भाग-2)

कराहती हुई ईमान बिस्तर के एक कोने से चिपक कर धीरे से लेट गई. आंसू अब भी कानों को गीला कर रहे थे. इस हादसे से ईमान बेहद डर गई. उस ने कभी अपने बुरे सपने में भी नहीं सोचा था कि उस का रेप हो सकता है और वह भी अपने ही घर में. हर रात जब ईमान सचिन की बलिष्ठ बांहों में सिमटती थी तो उसे कितना सुरक्षित लगता था पर आज जो हुआ वह किसी भी कोण से प्यार न था, वह थी हिंसा, वह था बदला, उसे उस की औकात दिखाई गई थी. आज ईमान की इतनी हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि वह जोर से सांस ले सके. अपना दम थामे उस ने रात निकाल दी.

इस प्रकरण ने ईमान के भीतर एक कायरता को जन्म दिया. सुबह सचिन के उठने से पहले ही उठ कर उस ने नाश्ता तैयार कर दिया. न जाने कैसे सामना करेगी वह सचिन का. उस के उठने का इंतजार करने से बेहतर है कि वह किचन में काम निबटा ले.

तभी सचिन के उठने की आवाज से ईमान पुन: चौंक गई. हौले से पीछे मुड़ कर देखा तो सचिन चेहरे पर शर्मिंदगी के अनेकानेक भाव समेटे खड़ा था. आंखें जमीन में गढ़ी थीं.

मुख पर मलिन रंग ओढ़ सचिन बुदबुदाया, ‘‘मुझे माफ कर दो ईमान. मैं जानता हूं जो मैं ने किया वह माफी के लायक तो नहीं पर पता नहीं कल रात मुझे क्या हो गया था… तुम मेरे बौस को तो जानती ही हो. कल उस ने सारा दिन मेरा खून पीया, टीम मीटिंग में मुझे बेइज्जत किया… शायद इसी कारण कल रात मेरा दिमाग खराब हो गया था. प्लीज, प्लीज, मुझे माफ कर दो. आइंदा ऐसा कभी नहीं होगा,’’ सचिन तब तक माफी मांगता रहा जब तक ईमान पसीज न गई. सचिन ने क्षमायाचना में कोई कसर नहीं छोड़ी, ‘‘मेरा विश्वास करो, ईमान, आइंदा ऐसा कभी नहीं होगा.’’

सचिन के बारंबार क्षमायाचना करने से ईमान को भी विश्वास हो चला कि ये पहली और आखिरी गलती थी. इस बार उस ने सचिन को माफ कर दिया.

ईमान अब बदल चुका था. उस के इस बदलाव को सब से पहले पारुल ने गौर किया. उस ने भी यही पूछा कि उस के आत्मविश्वास को क्या होता जा रहा है. हर तरफ से उठते एक से प्रश्नों ने फायदा नहीं, अपितु और नुकसान किया.

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उन्हीं दिनों औफिस में एक नए लड़के मेहुल ने जौइन किया. मेहुल एक समझदार, आकर्षक और ठहरा हुए व्यक्तित्व का स्वामी था. पारुल को वह पहली नजर में भा गया.

‘‘कितना हैंडसम है न मेहुल. मेरा जी करता है उसी की टीम में चली जाऊं,’’ पारुल ने हंस कर कहा तो ईमान भी बोल पड़ी, ‘‘हां, स्मार्ट तो है. काश, इस की गर्लफ्रैंड न हो.’’

‘‘और न ही बौयफ्रैंड,’’ कहते हुए दोनों सहेलियां हंस पड़ीं.

शाम को जब ईमान घर लौटी तो दरवाजे पर घंटी बजाने पर सचिन ने दरवाजा नहीं खोला. ईमान ने अपनी चाबी निकाली और दरवाजा खोल कर अंदर चली गई.

अंदर प्रवेश करते ही उसे सचिन सामने सोफे पर बैठा दिखा तो ईमान ने हैरत से सवाल किया, ‘‘तुम घर पर ही हो तो दरवाजा क्यों नहीं खोल रहे थे? मुझे लगा तुम अभी तक औफिस से लौटे नहीं…’’

ईमान आगे कुछ कह पाती उस से पहले सचिन ने उस के बाल पकड़ कर उसे जमीन पर धकेल दिया. ईमान फड़फड़ा उठी. सचिन पर आज फिर भूत सवार था. ईमान की चीखपुकार का उस पर तनिक भी असर नहीं हो रहा था. सचिन ने आव देखा न ताव, ईमान को बांह से घसीटता हुआ कमरे में ले गया और अपनी जींस की बैल्ट खोल कर उस पर तड़ातड़ बरसाने लगा.

ईमान तड़प उठी. कभी खुद को बचाने का विफल प्रयास करती तो कभी बैल्ट को हाथों से रोकने का. करीब 5-6 बार पूरी ताकत से ईमान पर कोड़ों की तरह बेल्ट मारने के बाद सचिन ने उसे बिस्तर पर दे पटका. उस ने बेहद फुरती से ईमान के कपड़े उतारने शुरू कर दिए और अपनी दोनों बांहों से उसे बिस्तर पर जड़ कर दिया. फिर वह उस पर टूट पड़ा. ईमान का रुदन, उस की चीखें, उस की पीड़ा कमरे की बेजान दीवारों से टकरा कर उसी बिस्तर पर ढेर होती रहीं.

अपना जोर आजमा कर सचिन करवट फेर चुका था. सोया वह भी नहीं था. उस की सांस की फुफकार ईमान के कानों में पड़ रही थी. डर के मारे ईमान बुत बनी अपनी सांस रोके पड़ी रही. आज के वाकेआ ने उसे बेइंतहा डरा दिया. अब वह सचिन के सामने मुंह खोलने की हिम्मत भी खो चुकी थी. खुद को कितना बेबस, कितना लाचार और कितना अपमानित महसूस कर रही थी.

जैसेतैसे रात बीती. सुबह ईमान औफिस जाने की हालत में नहीं थी. चेहरे और शरीर पर बैल्ट की चोट के निशान अपनी दस्तक छोड़ चुके थे. उस के शरीर में बेहद दर्द हो रहा था. उस के हाथपांव भी साथ नहीं दे रहे थे.

रोजाना सुबह का अलार्म बजा तो उस से पहले सचिन उठा खड़ा हुआ. रात का दंभ उतर चुका था. वह लपक कर ईमान के पास आया तो वह और भी घबरा गई. उस का चेहरा सफेद पड़ गया और आंखें डबडबा गईं, पर सचिन पर से ताकत का जनून उतर चुका था.

‘‘मुझे माफ कर दो… ईमान मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. मुझे तुम पर हाथ नहीं उठाना चाहिए था…पर मैं करता भी क्या, इस में गलती तुम्हारी ही है. तुम उस कल के आए छोकरे मेहुल को मुझ से ज्यादा महत्त्व दे सकती हो, ऐसा मैं ने कभी सोचा भी न था. मैं तो सोचता था कि तुम मुझ से प्यार करती हो पर तुम तो…’’ वह ईमान पर दोषारोपण करते हुए बोला.

‘‘यह क्या कह रहे हो सचिन… औफकोर्स मैं तुम से प्यार करती हूं,’’ कहते हुए ईमान सिसकने लगी, ‘‘वह तो मैं पारुल के साथ हार्मलैस जोक कर रही थी… मुझे क्या पता था कि तुम मुझे इतना गलत समझोगे,’’ और ईमान की रुलाई फूट गई.

‘‘यह भी कोई जोक होता है भला, मुझे ऐसी बातें बिलकुल पसंद नहीं. मैं कितना दुखी हो गया था तुम दोनों की बातें सुन कर,’’ सचिन भी मुंह लटकाए कहता जा रहा था. उस की आंखों में अब भी रोष भरा हुआ था.

उस की आंखों के भाव पढ़ कर, उस का माफीनामा सुन कर ईमान ने सचिन को

दूसरा मौका देने का निश्चय कर लिया. प्यार में तीसरा, 5वां, 8वां, 10वां मौका देना आसान है, पर रिश्ता तोड़ देना कठिन है. पैतृक समाज में पलीबढ़ी लड़कियों को अकसर पुरुषों की अपेक्षा अपनी ही गलतियां नजर आती हैं. बेचारे पुरुषों को न तो रिश्ते निभाने की समझ होती है और न ही औरतों जितनी संवेदनशीलता, ऊपर से उन का खून गरम होता है और ताकत औरतों से अधिक, करें भी तो क्या करें. इस सोच की मारी औरतें अपने अंदर ही कमी ढूंढ़ लेती हैं. बचपन से घुट्टी पिलाई गई मर्दों को अपने से सर्वोच्च मान कर माफ कर देने की शिक्षा, हमारे अंदर गहरी पैठ किए रहती है जो उच्च शिक्षा और पद से भी नहीं मिटती.

आज पिटाई और रेप के बाद ईमान ने सचिन की आंखों में जो पछतावा देखा, आंसू देखे, उन्होंने उस की अपनी पीड़ा भुला दी. औरतें तो रो ही लिया करती हैं पर मर्द रोते हुए कब अच्छे लगते हैं भला. उस ने फौरन उसे माफ कर दिया. गलती उसी की थी जो उस ने एक रिश्ते में बंधे होते हुए भी परपुरुष के लिए ऐसा मजाक किया.

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मगर उस दिन ईमान औफिस न जा सकी. हालत ठीक नहीं थी. एक दिन आराम किया, दवा खाई और अगली सुबह मेकअप से अपने चोटिल शरीर को छिपा कर ईमान औफिस पहुंची. ऊपर से वह नौर्मल थी. मन की तहों में उस ने अपनी गलती स्वीकार कर सचिन को माफ कर दिया था. फिर भी उस के मन में अब सचिन के प्रति एक डर बैठ गया. वह उस की किसी भी बात का विरोध नहीं करती और न ही कोई बहस करती. उस की हां में हां मिलाते हुए आराम से अगले कुछ दिन ऐसे ही बीते. किंतु सचिन का हाथ खुल चुका था. यदि कुछ उस की पसंद का न होता, समय पर न मिलता तो वह ईमान पर हाथ उठा देता, कभी चीखता तो कभी लात मारता. कभीकभी बेस्वाद खाने की थाली फेंकता तो कभी ‘क्यों मुझे गुस्सा दिलाती हो,’ कह अपना आपा खो बैठता.

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Serial Story: पलकों की गलियों में (भाग-1)

‘‘यहहुई न बात… क्या खबर सुनाई है… मेरी जान, सुन कर मजा आ गया,’’ पारुल ने चहकते हुए कहा.

‘‘धीरे बोल, दीवारों के भी कान होते हैं. कहीं यह खबर औफिस में न फैल जाए,’’ ईमान ने पारुल का हाथ दबाते हुए कहा.

‘‘कितना हैंडसम है सचिन, उस की जिम में तराशी हुई बौडी, पर ये सब हुआ कब?’’ पारुल को और भी उत्सुकता थी. आखिर खबर ही ऐसी थी और वह भी औफिस में उस की एकलौती सहेली के बारे में.

जब ईमान ने पहली बार सचिन को कंपनी की टीम मीटिंग में देखा था तभी उस की नजर अटक गई थी. लंबी कदकाठी, तीखी जौ लाइन, शर्ट की बाजुओं में से झांकता सुडौल शरीर बता रहा था कि यह गठीला बदन जिम ट्रेनिंग का नतीजा है, उस पर आजकल की लेटैस्ट फैशन वाली ट्रिम की हुई दाढ़ी. ईमान को फैशनेबल लोग बेहद पसंद आते थे. वह स्वयं भी समय की चाल से कदम मिला कर चलने वाली लड़की थी.

सचिन की निगाहें भी उस पर जड़ गई थीं. ईमान का छरहरा बदन, आकर्षक रंगरूप, मोतियों की लड़ी जैसे दांत, आत्मविश्वास से लबरेज मनमोहक मुसकराहट और नितंबचुंबी बाल सबकुछ सामने वाले के होश उड़ाने के लिए पर्याप्त थे. उस की बड़ीबड़ी कजरारी आंखों पर सज रहा सुनहरे फ्रेम का चश्मा उन्हें और भी पैना बना रहा था.

सचिन और ईमान को साथ काम करते करीब 6 माह बीत चुके थे. जितना औफिस में हो सकता था उतना रोमांस दोनों के बीच पनप चुका था. शुरुआत आंखों के इशारों से हुई थी और फिर दोनों ने एकसाथ लंच करना आरंभ कर दिया. कभीकभार दिल्ली की भीड़भरी शामों में घूमने निकल जाते. फिर ईवनिंग डेट पर कभी मूवी तो कभी डिनर, क्योंकि औफिस में ऐंटीरिलेशनशिप क्लौज था. इसलिए दोनों बाहर ही मिला करते. लेकिन ऐसा बहुत कम हो पाता. ईमान व सचिन के घर वाले धर्मभीरु सोच के शिकार थे. हमारे समाज में 21वीं सदी में भी धर्म का शिकंजा काफी कसा हुआ है. अपने बच्चों को उचित शिक्षा प्रदान करने, आत्मनिर्भर बना देने के बावजूद लोग उन्हें अपने जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार नहीं देते हैं. हिंदूमुसलमान होने के कारण इस रिश्ते को घर वालों की अनुमति मिलने की आशा बहुत कम थी. दोनों के बीच जो धर्म की पुख्ता दीवार खड़ी थी, उसे लांघना काफी कठिन लगता.

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रोमांस की राह में थोड़ा आगे बढ़ने के बाद दोनों ने अपने रिश्ते को अगले पड़ाव पर ले जाने का निश्चय किया. किंतु शादी की बात घर में कौन चलाए, यह सोच दोनों अकसर उलझन में रहने लगे. जैसे ईमान के घर वालों का इस रिश्ते के लिए तैयार होना लगभग नामुमकिन था, वैसे ही सचिन के परिवार वाले भी इस शादी के लिए कभी तैयार नहीं होंगे. इस स्थिति से मुक्ति पाने का एक ही तरीका दोनों को सूझा रजिस्टर्ड मैरिज का. दोनों ने कोर्ट में अर्जी दे दी और 1 महीने पश्चात चुपचाप कोर्ट में शादी कर ली. अब परिवार वाले केवल कोस सकते थे, उन का कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे.

वही हुआ जिस का अनुमान था. दोनों परिवारों को जब इस विवाह के बारे में ज्ञात हुआ तो दोनों ही ओर से नवदंपती की झोली में केवल बद्दुआएं, मांओं के अश्रु और नाउम्मीदी हाथ लगी. पर वह प्यार ही क्या जो पथरीली राह से डर जाए. सचिन और ईमान अपने प्यार के साथ आगे बढ़ चले. इसी शहर में दोनों ने 1 वनरूम सैट ले लिया. दोनों के लिए पर्याप्त था. महानगरों में रहने का एक लाभ यह भी है कि इतने बड़े शहर, इतने लोगों की भीड़ में आप आसानी से खो सकते हैं.

एक ही शहर में रहते हुए भी दोनों अपनेअपने परिवार से दूर थे. ईमान और सचिन अपना थोड़ाबहुत सामान ले कर शिफ्ट हो गए. पूरा वीकैंड दोनों ने अपना नया आशियाना सैट करने में लगाया. सैकंड हैंड सोफा सैट के साथ लकड़ी की गोल मेज पर रखे गुलदान में ईमान ने ड्राई फ्लौवर अरेंजमैंट सजाया. रात तक घर सजाते हुए दोनों थक कर चूर हो चुके थे.

‘‘खाना कौन बनाएगा?’’ पूछते हुए ईमान हंसी.

‘‘आज बाहर से मंगवा लेते हैं. रूटीन सैट होने पर दोनों जिम्मेदारियां लेंगे,’’ सचिन का उत्तर ईमान का दिल जीत गया. वह सचिन से अपने परिवार के विरुद्ध जा कर शादी करने के अपने निर्णय से संतुष्ट भी हुई और हुलसित भी.

आज दोनों की सुहागरात थी, किंतु कोई फूलों की सेज नहीं, न ही मखमली बिस्तर और सुगंधित कक्ष, मगर प्रेमसिक्त खुमारी उन्हें मदहोश किए थी. जब प्यार के सुवास ने रिश्ते को स्पर्श कर दिया तो फिर बाहरी खुशबू का क्या काम. एकदूसरे की बांहों में झूलते, खिलखिलाते हुए मधुसिक्त एहसास से परिपूर्ण वे विवाहित जीवन में कदम रख चुके थे.

सोमवार से दोनों साथ में औफिस जानेआने लगे. धीरेधीरे घर के कामकाज भी शुरू हो गए. सचिन बिल इत्यादि भरने का काम और बाहर से सामान लाने का काम संभाल चुका था और ईमान खाना पकाने और घर की देखभाल की जिम्मेदारी उठा रही थी. पर हां तड़का लगाने का काम सचिन का ही था. उस की स्मोकी दाल की क्या बात थी. सहर्षता से दोनों अपने रिश्ते में आगे बढ़ चुके थे. अब उन के बीच कोई दीवार न थी. हनीमून पीरियड चल रहा था. दोनों औफिस से घर लौटते, तत्पश्चात ईमान खाना पकाती, सचिन कपड़ों का रखरखाव करता, फिर डिनर कर दोनों एकदूसरे की बांहों में समा कर सो जाते. ईमान हर समय खिलीखिली रहती.

शादी को लगभग 3 माह बीत चुके थे. जिम्मेदारियों को निभाते हुए अब तक दोनों एक तय दिनचर्या का हिस्सा बन चुके थे.

‘‘आओ न ईमान, कितनी देर लगा रही हो…’’ रात को सचिन ने बिस्तर से आवाज लगाई.

ईमान किचन में बरतन साफ करते हुए कुछ अनमनी सी बोली, ‘‘आज बहुत थकान हो रही है, शायद पीरियड्स आने वाले हैं, इसलिए शरीर गिरागिरा सा हो रहा है.’’

‘‘यार यह हर महीने की मुसीबत है,’’ सचिन का यह कहना ईमान को रास न आया, ‘‘तुम से क्या मांगती हूं? काम तो फिर भी कर ही रही हूं न?’’ उस ने भी प्रतिउत्तर में सड़ा सा जवाब दे डाला. दफ्तरी परिश्रम उसे भी उतना ही चूर करता था जितना सचिन को.

‘‘यह धौंस किसी और को दिखाना समझी?’’ सचिन उस के यों जवाब देने से चिढ़ कर बोला.

‘‘ऐसे कैसे बात कर रहे हो, सचिन? अपनी हद में रहो, मैं तुम्हारी बीवी हूं,’’ ईमान को भी गुस्सा आ गया. मगर सचिन आज दूसरे ही मूड में था. वह झटके से बिस्तर से उठा और फिर ईमान को उस की जींस की बैल्ट से पकड़ कर खींचते हुए बिस्तर पर ला पटका.

जब ईमान चिल्लाई कि ये क्या कर रहे हो तो सचिन ने एक थप्पड़ रसीद कर दिया.

आज सचिन ने उस की एक न सुनी और ईमान की इच्छा के विरुद्ध उस की अस्मत को छलनी कर डाला. इस पूरे समय सचिन लगातार आक्रोशपूर्ण अपशब्द उगलता रहा, ‘‘जब खुद का मूड होता है तब सब ठीक लगता है और जब मेरा मूड होता है तब? तेरे होते हुए किसी दूसरी को पकड़ कर लाऊं क्या?’’

न जाने क्याक्या सुना था ईमान ने उस रात. पिघला सीसा कानों से उतर कर दिल और दिमाग को सुन्न कर गया था. अपनी भूख शांत कर सचिन मुंह फेर कर सो गया.

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कुछ देर यों ही पड़े रहने के बाद ईमान ने अपने छटपटाते शरीर को संभाला और बाथरूम में चली गई. शावर के नीचे वह टूट कर गिर पड़ी. न जाने कितनी देर तक वहां पड़ी रोती रही, तड़पती रही. सचिन की जिस जिमटोन बौडी की वह कभी फैन थी, आज उसी शरीर ने उसे रौंद डाला था.

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Serial Story: सुबह दोपहर और शाम

Serial Story: सुबह दोपहर और शाम (भाग-3)

आजकल विभू कुछ ज्यादा ही चिड़चिड़ा हो गया है. सारा दिन रिरियाता रहता है. अकेला छोड़ो तो कुछ भी उठा कर मुंह में डाल लेता है. 2 दिन से तो लूज मोशन इतने ज्यादा हो गए कि ड्रिप चढ़वाने तक की नौबत आ गई. घबराई सी काव्या उसे पास के डाक्टर को दिखाने ले गई.

‘‘बच्चे के दांत निकल रहे हैं. ऐसे में मसूढ़ों में खुजली होने के कारण बच्चों की हर समय कुछ न कुछ चबाने की इच्छा होती है, इसलिए वे कुछ भी मुंह में डालते रहते हैं. इसी से पेट में इन्फैक्शन हो गया है. आप बच्चे को खिलौनों में उलझाए रखें. कोशिश करें कि बच्चा अकेला न रहे,’’ डाक्टर ने उसे कारण बता कर समझाया.

‘‘हर बार बस मैं ही बुरी कहलाती हूं. अब साथी कहां से लाऊं, बच्चे को अकेले रखने का फैसला भी तो मेरा अपना ही सोच था. काव्या रोआंसी ओ आई. आज उसे सास की बहुत याद आ रही थी. लेकिन मनमरजी से जीने की ऐंठ अभी भी कम नहीं हुई थी.

8 महीने का विभू अब घुटनों के बल चलने लगा था. सो कर उठने के बाद चलना शुरू होता तो फिर चीटी की तरह रुकने का नाम ही नहीं लेता था. घर का वह हर सामान जो उस की पहुंच में आ जाता, बस उठाया और धम्म से नीचे… कभी ड्रैसिंगटेबल उस की जद में होती तो कभी रसोई के बरतन… कभीकभी अभय के जरूरी कागजात भी उस के हाथों जन्नत पा जाते. काव्या उस के पीछेपीछे भागती थक जाती, लेकिन विभू सामान गिराता नहीं थकता, क्या करे काव्या… किसी से शिकायत करने की स्थिति में भी नहीं थी.

फिर एक दिन काव्या दोपहर में विभू के साथ लेटी थी. गृहस्थी के बोझ से उकताई हुई काव्या जल्द ही खर्राटे भरने लगी. विभू की नींद कब खुली उसे पता ही नहीं चला. पलंग से नीचे उतरने की कवायद में विभू औंधे मुंह गिर पड़ा. गिरने के साथ ही पलंग का कोना उस के माथे में लगा और खून निकलने लगा. बच्चे की चीख के साथ काव्या की नींद खुली. बच्चे को खून से लथपथ देख कर काव्या के हाथपांव फूल गए. तुरंत अभय को फोन लगाया और खुद विभू को ले कर डाक्टर के पास भागी.

‘‘सिर में गहरी चोट आई है… 4 टांके लगे हैं… मैं ने आप से पहले भी कहा था कि इस उम्र में बच्चे अधिक चंचल होते हैं, उन्हें हर समय निगरानी में रखना चाहिए… जरा सी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है,’’ डाक्टर के कहने के साथ ही काव्या की आंखों से आंसू बहने लगे.

‘‘तुम से नहीं पलेगा बच्चा… मां को फोन लगाओ,’’ अभय उस पर लगभग चिल्ला ही उठता पर हौस्पिटल के शिष्टाचार के नाते उसे अपनी जबान पर साइलैंसर लगाना पड़ा. बच्चे की इस हालत के लिए वह काव्या को ही कुसूरवार मान रहा था. काव्या ने मोबाइल निकाला और सास का नंबर डायल किया.

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‘‘यहां नैटवर्क नहीं आ रहा है, मैं बाहर जा कर ट्राई करती हूं,’’ काव्या को उस के ईगो ने बहाने बनाने खूब सिखा दिए थे.

‘‘सुन रिया… यार बहुत बड़ी प्रौब्लम हो गई… लगता है अब अभय अपने मांपापा को बुलाए बिना नहीं मानेगा… बता न क्या करूं? कैसे उन्हें आने से रोकूं?’’ काव्या ने रिया को फोन लगाया और आज के घटनाक्रम का ब्यौरा देने लगी.

‘‘अरे यार, मैं अपनी ससुराल आई हुई हूं… अभी बात नहीं कर सकते… तू नव्या से बात कर न…’’ रिया ने उसे बात पूरी करने से पहले ही टोक दिया.

‘‘तुम और ससुराल? तुम्हें तो सासससुर के साथ रहना कभी नहीं सुहाया… फिर अचानक तुम्हारा यह फैसला… तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न…’’  अब चौंकने की बारी काव्या की थी.

‘‘हां यार, अब मैं भी तुम्हारी ही श्रेणी में आने वाली हूं न… तुम्हारी हालत देखदेख कर मुझे समझ में आ गया कि कुछ दिन का हनीमून पीरियड तो ठीक है, लेकिन हमेशा के लिए परिवार से दूर रहने में कोई समझदारी नहीं है, खासकर तब जब निकट भविष्य में उन की जरूरत पड़ने वाली हो कहने के अंदाज से ही रिया का स्वार्थ टपक रहा था.

काव्या को लगा मानो जिस डाली का वह सहारा लिए बैठी थी उस पर किसी ने कुल्हाड़ी चला दी.

अब तक अभय अपने मांपापा को फोन कर चुका था. शाम होतेहोते दादादादी अपने पोते के पास थे. विभू को अभी तक सिर्फ अपने मांपापा के पास रहने का ही अभ्यास था. इसीलिए अजनबी चेहरों को देखते ही वह काव्या की गोद में दुबक गया. लेकिन खून आखिर अपनी तरफ खींचता ही है… थोड़ी ही देर में विभू दादादादी से घुलमिल गया. रात को भी उन्हीं के साथ सोया.

अगली सुबह काव्या के चेहरे की रौनक और अभय के चेहरे की संतुष्टि

बता रही थी कि महीनों बाद दोनों ने इतनी निश्चिंतता से नजदीकियां भोगी हैं.

पोते के आगेपीछे भागतेभागते दादादादी के घुटनों का दर्द न जाने कहां गायब हो गया. दूधब्रैड के सहारे दिन निकालने वाले घर की रसोई दोनों समय पकवानों की खुशबू से महकने लगी. दादी की कोशिशों से विभू ने फीडिंग बोतल छोड़ कर गिलास से दूध पीना सीख लिया. दादा की उंगली थाम कर डगमगडगमग पग भी भरने लगा था.

‘‘काव्या, इस तरह तो तुम हम सब को खिलाखिला कर तोंदू बना दोगी,’’ एक शाम अभय ने रीझ कर कहा तो काव्या निहाल हो गई.

‘तसवीर के इस दूसरे रुख से मैं अब तक अनजान ही रही… उफ, कितनी बड़ी नासमझ थी,’ सोच काव्या आत्मग्लानि से भर जाती.

‘‘बच्चों के साथ 10 दिन कैसे बीत गए पता पता ही नहीं चला. अब हमें लौटना चाहिए,’’ एक दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर ससुरजी ने कहा तो काव्या हैरत से अपनी सास की तरफ देखने लगी.

‘‘हां, विभू के साथ मेरा तो जैसे बचपन ही लौट आया था, लेकिन फिर भी… बच्चों को उन की जिंदगी उन के तरीके से जीने देनी चाहिए. ये उन के खेलनेखाने के दिन हैं. उम्र का यह दौर लौट कर थोड़े आता है…’’ सास ने चाय पी कर कप नीचे रखते हुए पति की हां में हां मिलाई.

‘‘लौटना तो है ही… लेकिन आप अकेले नहीं जाएंगे, हम सब साथ चलेंगे… मैं ने अपना ट्रांसफर फिर अपने होम टाउन करवाने के लिए ऐप्लिकेशन दे दी है. तब तक आप लोग यहीं रहेंगे… अपने परिवार के साथ…’’ अभय ने एक रहस्यमयी मुसकान उछाली तो काव्या ने भी उस का साथ दिया.

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‘‘बड़े, सयाने सही कहते हैं कि बिस्तर चाहे कितना भी आरामदायक क्यों न हो, पूरी रात एक करवट नहीं सोया जा सकता,’’ दादी पहले अपने मूल और फिर सूद की तरफ देख कर मुसकराईं.

‘‘हां, सुबह के उड़े हुए पंछी शाम को घर लौटते ही हैं… यह अलग बात है कि कभीकभी रात भी हो जाती है, लेकिन लौटते तो अंतत: घोंसले में ही है न.’’  दादा भी मुसकरा दिए.

विभू अपने पापा की उंगली थामे दादा की बगल में खड़ा था. सुबह, दोपहर और शाम तीनों मुसकरा रहे थे.

Serial Story: सुबह दोपहर और शाम (भाग-2)

लुटे मुसाफिर की तरह तीनों गए. बच्चे के जन्म की खुशी फीकी पड़ गई. महीनाभर होने को आया. पतिपत्नी की बातचीत में ठंडापन आ गया. न चुहल… न मानमनौअल..न रूठनामनाना… न शिकवाशिकायत… सबकुछ मशीनी… मां अलग परेशान… अभय अलग परेशान… कहीं किसी मध्यमार्ग की गुंजाइश ही नजर नहीं आ रही थी.

अभय की ससुराल से बच्चे के नामकरण का न्योता आया… सब गए भी… लेकिन बुझेबुझे से… नाम रखा गया ‘विभू.’

‘‘बहू, अभय ने ट्रांसफर ले लिया है… बच्चे को ले कर अब तुम्हें वहीं उस के साथ जाना है…’’ रवानगी से पहले सास के मुंह से झरते अमृत वचनों पर सहसा काव्या विश्वास नहीं कर पाई. उस ने पति की तरफ देखा जो मुंह लटकाए खड़ा था.

अभी तो उदास हो रहे हो सैयांजी… जब खुली हवा में पंख पसारोगे तब पता चलेगा कि आसमान कितना विशाल है…’’ काव्या ने पति की तरफ भरोसा दिलाने की गरज से देखा.

3 महीने के विभू को ले कर काव्या ने अपने सपनों की दुनिया में पहला पांव रखा. नहींनहीं यह जमीन नहीं थी यह तो आसमान था… काव्या की ख्वाहिशों को पंख उग आए थे. ‘हम दो हमारा एक’ कल्पना करती काव्या खुशी से दोहरी हुई जा रही थी. उस ने पर्स एक तरफ पटका… विभू को पालने में लिटाया और पूरे घर में घूमघूम कर ‘स्वीट होम’ वाली फीलिंग लेने लगी.

‘‘एक तरह से देखा जाए तो यह मेरा गृहप्रवेश ही है… क्यों न आज कुछ खास बनाया जाए…’’ अपनी जीत की खुशी मनाते हुए काव्या ने रसोई का रुख किया. सामान खंगाला तो कुछ विशेष हाथ नहीं लगा.

‘‘छड़ों की रसोई ऐसी ही होती है,’’ काव्या मुसकरा दी. सूजी का हलवा बनाने के लिए कड़ाही चढ़ाई ही थी कि विभू रोने लगा. अभय बाथरूम में था. काव्या बच्चे को देखने की जल्दी में रसोई से बाहर लपकी तो गैस बंद करना भूल गई और जब वापस आई तो रसोई की हालत देख कर सिर पीट लिया. कड़ाही के घी ने आग पकड़ ली थी. वह तो अभय ने तुरंत सिलैंडर बंद कर के कड़ाही परे फेंक दी वरना कुछ भी अनर्थ हो सकता था. खैर, किसी तरह कच्चापक्का पका कर अभय को औफिस रवाना किया.

दोपहर के 2 बजने को आए, लेकिन अभी तक काव्या को नहाने तक का समय नहीं मिला. जैसे ही विभू की आंख लगती और काव्या बाथरूम की तरफ जाने को होती, पता नहीं कैसे शैतान को पता चल जाता और वह फिर कुनमुनाने लगता.

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‘‘वहां तो कोई न कोई होता इसे देखने के लिए…’’ काव्या के जेहन में सारा की छवि घूम गई.

‘गुलाब चाहिए तो कांटे भी स्वीकार करने होंगे काव्या रानी,’ काव्या ने अपने निर्णय को जस्टीफाई किया. इतनी जल्दी वह पराजय स्वीकार कैसे कर लेती. फिर उस ने एक जुगाड़ लगाया, विभू का पालना बाथरूम के दरवाजे से सटा कर रख दिया और आननफानन 2 कप शरीर पर डाल कर नहाने की औपचारिकता पूरी की. फटाफट गाउन पहना और 2-4 कौर निगले… तब तक विभू महाराज फिर से कुलबुलाने लगे… काव्या उसे ले कर बिस्तर पर लेट गई. दिन की पहली सीढ़ी ही पार हुई है… पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त…

शाम को अभय लौटा तो काव्या तुड़ेमुड़े गाउन में अलसाई सी बैठी थी. विभू अभी भी उस की गोद में था. बच्चे को अभय के हाथों में थमा कर चाय बना लाई और पीतेपीते दिनभर का दुखड़ा रो दिया. अभय ने उस में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई.

‘‘मम्मी का चमचा,’’ काव्या ने मुंह सिकोड़ा.

‘‘सुनो, आज खाना बनाने की हिम्मत नहीं है. चलो न कहीं बाहर चलते हैं… वैसे भी पिज्जा खाए बहुत दिन हो गए.’’ काव्या ने चिरोरी की तो अभय चलने के लिए तैयार हो गया.

‘हवा के साथसाथ… घटा के संगसंग… ओ साथी चल… तू मुझे ले कर साथ चल तू… यूं ही दिनरात चल तू…’ काव्या एक हाथ से अभय की कमर पकड़े और दूसरे हाथ से विभू को संभाले बाइक पर उड़ी जा रही थी… अभय के शरीर से उठती परफ्यूम और पसीने की मिलीजुली गंध ने उसे दीवाना बना दिया था. हालांकि अभय अभी भी चुप सा ही था. काव्या चाहती थी कि कुछ देर यों ही हवा से अठखेलियां होती रहें. लेकिन तभी अभय ने पीज्जाहट के सामने ले जा कर बाइक रोक दी.

महीनों बाद दिलबर के साथ आउटिंग थी… काव्या ने जीभर ‘ओनियन,

कैप्सिकम, टोमैटो पिज्जा विद डबल चीज’ खाए, साथ में फ्रैंचफ्राइज और गर्लिक ब्रैड भी… विभू थोड़ी देर तो खुश रहा, फिर परेशान करने लगा तो काव्या ने फीड करवा दिया. मां की छाती से लगते ही बच्चा सो गया. घर पहुंचते ही काव्या ने खुद को बिस्तर के हवाले कर दिया. दिनभर की थकीहारी तुरंत ही नींद के आगोश में चली गई. अभय इंतजार करता रह गया. अभी नींद आंखों में पूरी तरह से घुली भी नहीं थी कि विभू बाबू ने रंग बदलने शुरू कर दिए. आधेआधे घंटे के अंतराल पर 4 बार कपड़े गंदे कर दिए. पोतड़े बदलतेबदलते काव्या का रोना छूट गया. अभय ने उसे दवा दे दी, लेकिन दवा भी तो असर करतेकरते ही करती है. खैर, किसी तरह रात बीती तो विभू की आंख लगी. काव्या ने भी पलकें झपक लीं. आंख खुली तो सुबह के 8 बज रहे थे. अभय औफिस जाने के लिए लगभग तैयार था.

‘‘सुनो, तुम आज खाना बाहर से ही मंगवा लेना,’’ काव्या अपराधबोध से घिर गई.

‘‘आगेआगे देखिए होता है क्या,’’ रात की घटना से बौखलाया अभय बुदबुदाया.

पति के औफिस जाते ही काव्या ने नव्या को फोन लगाया और रात का किस्सा कह सुनाया.

‘‘यह तो मजे की सजा है रानीजी… कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है…’’ बहन ने उसे छेड़ा तो काव्या कुढ़ कर रह गई.

‘‘हो सकता है कि कल तुम ने जो पिज्जा खाया वह बच्चे को हजम नहीं हुआ और वह रातभर परेशान रहा…’’  अब तक रिया भी कौन्फ्रैंसिंग के जरीए उन के साथ बातचीत में शामिल हो चुकी थी.

‘‘यह एक और नई मुसीबत कि मन का खाओ भी नहीं…’’ काव्या ने विभू की तरफ देखा.

‘‘तू एक काम कर न विभू को बोतल से दूध पिलाना शुरू कर दे,’’ नव्या ने फिर सलाह दे डाली.

‘‘लेकिन डाक्टर तो कहते हैं कि कम से कम 6 महीने तक बच्चे को स्तनपान करवाना चाहिए,’’ काव्या ने शंका जाहिर की.

‘‘अरे ओ ज्ञानी की औलाद, जिन बच्चों की मां उन के पैदा होते ही चल बसती हैं, वे भी तो किसी तरह से पलते होंगे न,’’

रिया का यह भद्दा मजाक काव्या को जरा भी रास नहीं आया लेकिन विभू को ऊपर का दूध पिलाने वाली बात जरूर उस के दिमाग में फिट बैठ गई. दूसरे दिन अभय के औफिस जाते ही काव्या फीडिंग बोतल खरीद लाई और ‘मिशन दूध पिलाओ’ में जुट गई.

काव्या ने जैसेतैसे कर के 2 घूंट बच्चे के गले में उड़ेले और सफलता पर अपनी पीठ थपथपाने लगी, लेकिन यह क्या थोड़ी ही देर में विभू ने उलटी कर दी. वह खुद तो उलटी में लिपटा ही, तकिया सहित बैड की चदर भी खराब कर दी. रोने लगा वह अलग मुसीबत.

‘फिर भूख लग आई लगता है,’ सोच कर काव्या ने फिर से बोतल उस के मुंह से लगा दी. बच्चे को दूध हजम नहीं हुआ और 2-3 घंटे बाद ही उस ने दस्त करने शुरू कर दिए.

‘‘लगता है मुसीबतों ने मेरे ही घर का रास्ता देख लिया है,’’ परेशान सी काव्या भुनभुना रही थी. लेकिन शाम होतेहोते फिर से सजधज कर अपनी आजादी का जश्न मनाने के लिए तैयार हो गई. विभू को भी हगीज पहना दिया.  अभय के औफिस से आते ही तीनों फिर चल पड़े हवाखोरी करने.

विभू को बोतल का दूध अब भी कम ही हजम होता था, लेकिन काव्या ने हार

नहीं मानी… हिचकोले खाती गाड़ी चल रही थी…   एक तरफ आजादी की खुली हवा थी तो दूसरी तरफ जिम्मेदारी की बेडि़यां भी थीं… कभी काव्या पंख पसार कर खुश होती तो अगले ही पल पंख सिकुड़ भी जाते. इसी तरह धूपछांव से दिन निकल रहे थे, लेकिन चैन के दिनों से कहीं लंबी बेचैनियों की रातें होने लगी थीं.

2 महीने हो गए सास ने एक बार भी आ कर पोते को नहीं संभाला. बस फोन पर ही हालचाल पूछ लेती थीं. जैसेजैसे विभू बडा हो रहा था, काव्या के लिए अकेले बच्चे को संभालना दूभर होने लगा. कभी वह रातभर रोता…कभी दूध नहीं पीता… कभी घड़ीघड़ी डाइपर खराब करता, तो कभी कुछ और परेशानी खड़ी कर देता.

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इन दिनों तो न कहीं आना न जाना… न रिया से फोन न नव्या से चैटिंग… न कोई सोशल मीडिया पर सक्रियता… ब्यूटीपार्लर की सीट पर बैठे महीनों हो गए… दिनभर विभू और उस के पोतड़े… उनींदी सी काव्या हर समय नींद के अवसर तलाशने लगी थी… अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी न होने से अभय भी उस से उखड़ाउखड़ा रहने लगा. खुले आसमान में उड़ने के सपने देखने वाली काव्या अपनी ही इच्छाओं के घेरे में कैद सी हो कर रह गई.

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Serial Story: सुबह दोपहर और शाम (भाग-1)

‘‘मैं परेशान हो गई हूं इस रोजरोज की चिकचिक से… न मन का खा सकते और न ही पहन सकते… हर समय रोकटोक… आखिर कोई सहन करे भी तो कितना…’’ दोपहर के 2 बज रहे थे और आदत के अनुसार लंच कर के काव्या पलंग पर पसर गई. कमर सीधी करतेकरते ही बड़ी बहन नव्या को फोन लगाया और फिर दोनों बहनें शुरू हो गईं अपनाअपना ससुरालपुराण पढ़ने.

‘‘अरे, क्यों सहन करती है तू सास की ज्यादती? अभय से क्यों नहीं कहती? मैं तो तेरे जीजू से कोई बात नहीं छिपाती… हर रात सोने से पहले उन की मां का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देती हूं… जब तक वे मेरी हां में हां नहीं मिलाते, हाथ भी नहीं लगाने देती…’’  नव्या ने अपने अनुभव के सिक्के बांटे.

‘‘दीदी, अभय तो बिलकुल ममाज बौय हैं… अपनी मां के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनते. उलटे मुझे ही एडजस्ट करने की नसीहत देने लगते हैं… सच दीदी, ससुराल के मामले में तुत बहुत खुशहाल निकलीं… जीजाजी तुम्हारी उंगलियों पर नाचते हैं… पता नहीं मेरे अच्छे दिन कब आएंगे…’’ काव्या ने एक गहरी सांस भरी.

‘‘वह तो है… अच्छा चल रखती हूं… तेरे जीजू का 2 बार फोन आ चुका है… मेरे बिना चैन नहीं उन्हें भी,’’ नव्या इतराई.

‘‘चल ठीक है… थोड़ी देर में सास महारानीजी की चाय का समय हो जाएगा… मुझे तो दो घड़ी चैन की नींद भी नहीं मिलती…’’ अपने को कोसते हुए काव्या ने फोन काट दिया और फिर एसी की कूलिंग थोड़ी और बढ़ा कर चादर  ओढ़ कर सो गई.

काव्या की अभय से शादी को मात्र 3 वर्ष हुए हैं. अभय एक प्राइवेट फर्म में मैनेजर है. सैलरी ठीकठाक है. मांपापा के साथ रहने से मकान का किराया, पानीबिजली, राशन आदि का कोई खर्चा उसे जेब से नहीं देना पड़ता… जो भी पैसा खर्च होता है वह स्वयं और काव्या के निजी शौकों और जरूरतों पर ही होता है. शादी से पहले काव्या ने सपनों सी जिंदगी का कल्पना की थी, जिस में सिर्फ पति के साथ मौजमस्ती ही थी. उस के सपनों की दुनिया में सासससुर नामक खलनायक नहीं थे…

‘एक बंगला बने न्यारा…’ वाले अरमानों के साथ काव्या ने ससुराल की देहरी लांघी थी, लेकिन जब पता चला कि जनाब अभय को अकेले रह कर शादीशुदा जिंदगी के मजे लेने का कोई शौक नहीं है तो वह बुझ सी गई. जबतब अपनी मां के सामने अपना दुखड़ा रो कर मन हलका करने की कोशिश करती, लेकिन मां ने कभी उस की बातों को सीरियसली नहीं लिया और न ही कभी अलग गृहस्थी बसाने के उस के सपने को पोषित किया.

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‘‘ससुराल गैंदे के फूल सा होता है… कोई पंखुड़ी छोटी तो कोई बड़ी… लेकिन जब सब मिल कर आपस में गुंध जाती हैं तो फूल की छवि देखने लायक होती है,’’ मां हमेशा उसे समझाती थीं. लेकिन काव्या के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती थी. इसीलिए वह आजकल मां से बस नपीतुली बात ही करती है. हां, लेकिन बड़ी बहन से बिना नागा बात करती है और उस से ससुराल से अलग घर ले कर रहने से संबंधित सलाह भी मांगती रहती है.

यहां तक तो फिर भी सब ठीक था, लेकिन आग में घी डालने का काम किया सामने वाले घर में किराए पर रहने आए दंपती ने. ये नवल और रिया थे. नवल भी अभय की तरह एक प्राइवेट फर्म में जौब करता है, लेकिन रिया का ठसका तो देखो. कभी जींस.. कभी कैपरी… कभी शौर्ट्स तो कभी कोई और दिल जलाने वाली वैस्टर्न पोशाक… काव्या देखती तो कलेजे पर सांप लोट जाता… ऊपर से स्टाइलिश हैयर कट और मेकअप से पुता चेहरा. काव्या के दिलोदिमाग में हलचल मचाए रहता.

‘क्या जिंदगी है… इसे कहते हैं जिंदगी के असली मजे लूटना… मैं ने पता नहीं कौन सो बुरे कर्म किए थे… तभी तो ये बेडि़यां मेरे पांवों में डल गईं…’ काव्या सोचसोच कर दुबली होने लगी. पेट में पचने वाली तो बात थी ही नहीं… बहन को नमकमिर्च लगा कर बताया.

‘‘अरे तो बावल कुआं तेरे पास है और तू है कि प्यासी घूम रही है… रिया से दोस्ती गांठ और ले ले शाही जिंदगी जीने के…’’ नव्या ने हाथोंहाथ सलाह दे डाली.

बस फिर क्या था. काव्या रिया से नजदीकियां बढ़ाने लगी. रिया तो खुद जैसे उसी की पहल का इंतजार कर रही थी. हायहैलो से शुरू हुई बातचीत धीरेधीरे अंतरंग होने लगी और जल्द ही दोनों घीखिचड़ी सी घुलमिल गईं. कभी रिया काव्या के पास तो कभी काव्या रिया के साथ…

‘‘देखो काव्या, पति नामक जीव को अपने इशारों पर नचाना हो तो लटकेझटके दिखाने ही होंगे… तुम सारा दिन सूटसाड़ी में लिपटी रहती हो… बेचारे अभय का भी मन करता होगा न तुम्हें मौडल सी सजीधजी देखने का… कभी कुछ बोल्ड पहनो… नया ट्राई करो… फिर देखो कैसे अभय तुम पर लट्टू हुआ जाता है…’’ रिया ने भी वही सलाह दे डाली जो नव्या दिया करती है.

‘‘क्या खाक बोल्ड पहनूं… अभय से पहले तो उस के मांपापा देखेंगे… फिर जो कुहराम मचेगा उस का पूरा महल्ला फ्री में मजा लेगा…’’ काव्या ने मुंह बनाया.

‘‘फिर तो बन्नो एक ही उपाय है… कोपभवन… जैसे कैकेयी ने दशरथ से अपनी शर्तें मनवाई थीं वैसे ही तुम भी कोई नाजुक सा मौका तलाश करो… पहले ढील दो और फिर खींच लो डोरी… पतंग न कटे तो मेरा नाम बदल देना…’’  रिया ने मंथरा की भूमिका निभाई.

काव्या मौका तलाशने लगी. समय शायद इस बार काव्या के पक्ष में ही चल

रहा था. अगले ही महीने काव्या ने खुशखबरी दी कि घर में तीसरी पीढ़ी का आगमन होने वाला है. सास ने बलाएं लीं… भारी काम करने से मना किया… ससुर हर समय चहकने लगे… और अभय के तो मिजाज ही निराले लग रहे थे… पत्नी पर बादलों सा उमड़घुमड़ कर प्यार आने लगा… दोस्तों में उठनाबैठना कम हो गया… खिलौने से कमरे में जगह कम पड़ने लगी. मनुहार करकर के खिलानेपिलाने लगा… काव्या के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे… इस हंसीखुशी के बीच कहीं न कहीं साजिशों के बीज भी अंकुरण की जगह तलाश रहे थे.

8 महीने पूरे हुए. काव्या की गोद भराई की रस्म के बाद अब कल उसे अपने मायके जाना है. पूरी रात अभय की हिदायतों का लैक्चर जारी था- यह करना, यह मत करना… ऐसे बैठना… ऐसे सोना… अभय बोले जा रहा था. काव्या सुनने का दिखावा करती लेटी थी. दिमाग में तो अलग ही खिचड़ी पक रही थी.

गर्भ का समय पूरा हुआ और काव्या ने एक नन्हे फरिश्ते को जन्म दिया. दोनों परिवारों में खुशी की लहर दौड़ गई. टोकरे भरभर कर मिठाई और बधाइयों का आदानप्रदान हो रहा था. पोते को देखने के लिए दादादादी सिर के बल चले आए. अभय के पांव भी कहां रुकने वाले थे. बिना किसी की परवाह किए सीधे काव्या के पास पहुंचा.

‘‘बेसब्रा कहीं का,’’ कह कर मां मुसकराईं, लेकिन देखा जाए तो खुद उन्हें भी कहां सब्र था. खैर, अभय ने जैसे ही अपने अंश को अंक में भरने की चेष्टा की, काव्या ने उसे अपने कलेजे से लगा लिया. अभय ने अपनी प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर गड़ा दी.

‘‘इतनी आसानी से नहीं सैयांजी… पहले एक वादा करना होगा…’’  काव्या इठलाई.

‘‘इस अनमोल रत्न के बदले जो चाहे मांग ले रानी…’’ अभय भी नौटंकी करने में कहां कम था.

‘‘झूठ बोले कौआ काटे… देखो, सच्चे मर्द हो तो झूठे वादे मत करना…’’ काव्या ने उस के पौरुष को ललकारा.

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‘‘प्राण जाए पर वचन न जाए…’’ अभय ने भी चुनौती स्वीकार कर ली और इस के साथ ही काव्या ने अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराते हुए नन्हा फरिश्ता पिता की गोद में डाल दिया.

अभय तो उसे छूते ही निहाल हो गया. कभी उस का गाल अपने गाल से सटाता… कभी उस की नन्हीनन्ही उंगलियों में अपनी उंगलियां फंसाता…

‘‘मोगंबो खुश हुआ… कहो क्या मांगती हो?’’ अभय ने बच्चे के चेहरे को निहारते हुए पूछा.

‘‘एक अलग दुनिया… जिस में सिर्फ हम 3 ही हों…’’ काव्या ने सपाट स्वर में कहा.

अभय के हाथपांव कांप गए. क्षणभर में

ही दशरथ और पुत्र बनवास का सा एहसास हो गया. बच्चे पर पकड़ ढीली पड़ने ही वाली थी कि मां ने आ कर संभाल लिया. शायद उन्होंने काव्या की बात सुन भी ली थी. अभय आंखें चुराता हुआ बाहर निकल गया.

आगे पढ़ें- बच्चे के जन्म की खुशी फीकी पड़ गई….

शादी ही भली: लिव इन रिलेशनशिप के चक्कर में पड़ कर मान्या का क्या हुआ?

Serial Story: शादी ही भली (भाग-3)

अपनी सब से गहरी सहेलियों कीर्ति और अंशु की बातें सुन कर मान्या सन्न रह गई. उसी दिन से उस ने उन दोनों से अपनी दोस्ती खत्म कर ली. अपने मोबाइल से उन दोनों के नंबर भी हटा दिए. उस के बाद उन दोनों ने भी कभी मान्या से संपर्क नहीं किया.

अपने और परम के रिश्ते की वजह से इन दोनों की दोस्ती को खो देना मान्या के लिए एक बड़ा आघात था. तभी से मान्या अकेलेपन की धूप में तपती आ रही थी. ऐसे में सविताजी और रितु के प्यार और अपनेपन ने शीतल छाया का काम किया. उन के साथ बरसों बाद उसे पारिवारिक और सौहार्दपूर्ण वातावरण मिला था.

देरसवेर औफिस में भी अब बात फैलने लगी थी कि मान्या बिना शादी के परम के साथ रह रही है. लड़कियां उस से और खिंचीखिंची सी रहने लगीं. उसे अजीब नजरों से देखतीं. पुरुष सहकर्मी भी उसे लोलुप निगाहों से देखते.

फाइलें देतेलेते समय जानबूझ कर मान्या की उंगलियों को पकड़ लेते या हाथ फेर देते. उन के होंठों पर कुटिल मुसकराहट होती. उन के गंदे विचारों को समझ कर मान्या के तनबदन में आग लग जाती.

अकसर पुरुषकर्मी बेवजह बातें करने या काम के बहाने मान्या की टेबल पर आ कर बैठे रहते. मान्या औफिस के माहौल में अब घुटन सी महसूस करने लगी थी.

इधर कई दिनों से परम का भी व्यवहार बदलने लगा था. पहले वह और परम घर पर सारा काम मिल कर करते थे. लेकिन पिछले कुछ दिनों से परम हर काम के लिए मान्या से ही उम्मीद रख रहा था. छुट्टी के दिन वह चाहता कि मान्या उस का लंच पैक कर के दे. यहां तक कि महीने भर से उस के कपड़े भी मान्या ही धो रही थी. पहले परम लाड़ से रिक्वैस्ट करता था कि प्लीज मान्या मेरी शर्ट धो देना या कल मेरा लंच बना देना और अब तो परम मान्या से ये सारे काम करवाना अपना अधिकार समझने लगा था. उस के व्यवहार में हर समय पति के तौर पर हुकुम चलाने वाले भाव रहते. समर्पण की भावना की जगह उम्मीदें बढ़ने लगी थीं.

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अभी तो मान्या के लिए दूसरा धक्का इंतजार कर रहा था. कई दिनों से वह देख रही थी कि सविता आंटी और रितु उस से कटीकटी सी रहने लगी हैं. मिलने पर बात तो हंसमुसकरा कर ही करतीं, लेकिन व्यवहार में अब वह अपनापन नहीं रह गया था. घर पर आनाजाना भी कम हो गया. रितु भी अब दूरदूर रहने लगी थी. पहले की तरह सविता आंटी अब छुट्टी वाले दिन खाने पर नहीं बुलाती थीं.

एक बार फिर मान्या अकेली हो गई थी. एक छुट्टी वाले दिन परम बाहर गया था तो मान्या ने मौका अच्छा जान कर सोचा कि सविता आंटी से बात की जाए. अत: वह सविताजी के यहां चली गई.

‘‘क्या बात है आंटी आजकल रितु बाहर नहीं निकलती? उस से तो मुलाकात ही नहीं हो पाती,’’ मान्या ने कुछ देर की औपचारिक बातचीत के बाद पूछा.

‘‘रितु की परीक्षा पास आ रही है इसलिए बाहर कम ही निकलती है,’’ सविता ने जवाब दिया.

‘‘बहुत दिनों से महसूस कर रही हूं आंटी कि आप मुझ से कटीकटी सी रहने लगी हैं. क्या बात है?’’ मान्या ने फालतू समय बरबाद न कर के मन की बात पूछ ली.

‘‘देखो मान्या वैसे तो यह तुम्हारा निजी मामला है कि तुम अपनी जिंदगी कैसे जीती हो, लेकिन माफ करना एक पहचान वाले से हमें पता चला है कि तुम और परम शादीशुदा नहीं हो, बल्कि लिव इन रिलेशन में रह रहे हो. रितु कच्ची उम्र की है, मैं नहीं चाहती कि उस के मन पर इन बातों का बुरा असर पड़े,’’ सविताजी ने सामान्य स्वर में जवाब दिया.

लेकिन मान्या सन्न रह गई कि तो अब यहां भी यह सचाई पता चल चुकी है और अगर सविताजी को पता चली है तो निश्चितरूप से पूरी कालोनी भर को खबर हो जाएगी.

‘‘देखो मान्या, मैं किसी को भी बुराभला नहीं कहती. मुझे नहीं मालूम कि रितु भी बड़ी होने पर क्या करेगी. लेकिन मां होने के नाते मेरा फर्ज बनता है कि मैं जहां तक हो सके उसे ऐसे किसी हालात में पड़ने से बचाऊं. अभी तक तो उसे या किसी को भी मैं ने सच बात नहीं बताई है, लेकिन जैसे आज मुझे पता चला है वैसे ही कभी न कभी तो कालोनी के दूसरे लोगों को भी पता चल ही जाएगा,’’ सविताजी के स्वर में अब भी हलका सा अपनापन था.

मान्या चुपचाप सिर झुका कर सुनती रही

‘‘अब मुझे पता चला कि क्यों कभी तुम्हारे मायके या ससुराल से कोई तुम्हारे घर क्यों नहीं आता. लेकिन कब तक घरपरिवार मातापिता से कट कर रहोगी. अगर बीच रास्ते में ही परम तुम से अलग हो कर किसी और के साथ रहने लगा तो? पति तलाक दे या छोड़ दे तो पत्नी के पास फिर भी घर, समाज की सहानुभूति होती है, लेकिन तुम्हारे साथ तो कोई भी नहीं होगा. तुम बिलकुल अकेली रह जाओगी,’’ सविताजी ने समझाया.

‘‘हम आधुनिकता की चकाचौंध में अंधे हो कर समाज से टकराने की हिम्मत तो कर लेते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि पलट कर चोट हमें ही लगती है, समाज का कुछ नहीं बिगड़ता,’’ सविताजी ने प्यार और अपनेपन से मान्या का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘एक स्त्री होने के नाते मैं जानती हूं कि आज नहीं तो कल तुम मां बनना जरूर चाहोगी… और फिर सोचो कि ऐसी हालत में अपने बच्चे को जन्म दे कर तुम उसे क्या दे पाओगी? तुम उसे न पिता का नाम दे पाओगी और न घरपरिवार. तुम स्वयं भी आधीअधूरी रह जाओगी और अपने बच्चे का व्यक्तित्व भी उस की पहचान भी अधूरी कर दोगी.’’

सविताजी के पास से लौट कर मान्या धड़ाम से सोफे पर पसर गई. उस का सिर घूम रहा था. उसे कोफ्त हो रही थी कि पता नहीं किस मनहूस घड़ी में उस ने बिना शादी किए परम के साथ रहने का फैसला किया. वह अपने लिए एक कप कौफी बना लाई. कौफी पी कर दिमाग शांत हुआ तो वह बेहतर ढंग से अपनी स्थिति के बारे में सोच पाई.

आज सविताजी को पता चला है कल को कालोनी के दूसरे लोगों को भी पता चल जाएगा. फिर यह कालोनी भी छोड़ कर दूसरी कालोनी में फ्लैट तलाश करो. क्या वह सारी उम्र एक से दूसरी जगह भटकती रहेगी. कभी स्थिर नहीं हो पाएगी? यह तो किराए का घर है, इसलिए बदल भी सकते हैं, लेकिन अपना घर हो तो?

इस तरह तो वह कभी अपना घर बना ही नहीं पाएगी. जिंदगी भर भटकती रहेगी.

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आज वह समाज से कट गई है. कल को घर पर पता लगने पर परिवार से भी कट जाएगी. आज जो थोड़ाबहुत अपनापन बचा है, जीवन में कल को वह भी खो जाएगा.

और परम? क्या परम जीवन भर उस का साथ निभा पाएगा? पिछले कुछ दिनों से तो उस का व्यवहार देख कर ऐसा नहीं लग रहा. परम उसे पत्नी के अधिकार तो कभी देगा नहीं हां एक पति की तरह बन कर मान्या से सेवा और घर के सारे काम की उम्मीद अवश्य करेगा.

जब शादी न कर के पत्नी के पूरे कर्तव्य निभाने पड़ेंगे, कभी सिर दबा दो, कभी पैर दबा दो और अपनी आजादी खोनी ही पड़ेगी तो फिर शादी करने में क्या खराबी है? कम से कम वहां इज्जत तो रहेगी. घरपरिवार का साथ तो रहेगा. जिंदगी में स्थिरता तो रहेगी.

यहां तो न सिर पर छत है न पैरों के नीचे जमीन है. मैं ने खुद को अधर में लटका लिया है और अकेलेपन का दर्द अपने गले बांध लिया है. परम के साथ मेरा बस शरीर का है, यह आकर्षण खत्म हो गया तब?

मान्या कांप उठी कि नहींनहीं भाड़ में जाए यह आधुनिकता का चक्कर. उस के सिर से पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण का भूत उतर चुका था. सोचा मां का बताया हुआ दीदी की ससुराल का रिश्ता अभी भी है. लड़के वालों को वह बहुत पसंद है और वे अभी भी रुके हुए हैं.

मान्या की आंखें खुल चुकी थीं कि अधर में टंगे रिश्ते के बजाय शादी ही भली है. फिर क्या था मान्या ने तुरंत मां को फोन लगाया, ‘‘मां, मैं जल्दी घर आ रही हूं… आप उस लड़के को हां कह दीजिए.’’

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