पूर्णाहुति: जया का क्या था फैसला

मैं बैठक में चाय ले कर पहुंची तो देखा, जया दीदी रो रही हैं और लता दीदी उन्हें चुप भी नहीं करा रहीं. कुछ क्षणों तक तो चुप्पी ही साधे रही, फिर पूछा, ‘‘जया दीदी को क्या हुआ, लता दीदी? क्या हुआ इन्हें?’’

आंसुओं को रूमाल से पोंछ, जबरदस्ती हंसने का प्रयास करते हुए जया दीदी बोलीं, ‘‘हुआ तो कुछ भी नहीं… लता ने प्यार से मन को छू दिया तो मैं रो दी, माफ करना. तेरे यहां के आत्मीय माहौल में ले चलने के लिए लता से मैं ने ही कहा था, पर कभीकभी ज्यादा प्यार भी रास नहीं आता. जैसे ही लता ने अभय का नाम लिया कि मैं…’’ वे फिर रोने लगी थीं.

‘अभय को क्या हुआ?’ मैं ने अब लता दीदी की तरफ देखते हुए आंखोंआंखों में ही पूछा. इस सब से बेखबर अपने को संयत करने की कोशिश में जया दीदी स्नानघर की तरफ बढ़ गई थीं. मुंहहाथ धो कर उन्होंने कोशिश तो अवश्य की थी कि वे सहज लगने लगें या हो भी जाएं, पर लगता था कि अभी फिर से रो पड़ेंगी.

‘‘मुझे समझ नहीं आता कि कहूं या न कहूं, पर छिपाऊं भी क्या? बात यह है कि अभय अपनी पत्नी सहित मुझ से अलग होना चाह रहा है,’’ भर्राई आवाज में उन्होंने कहा.

‘‘इस में रोने की क्या बात है, जया दीदी, यह तो एक दिन होना ही था,’’ मैं ने कहा.

‘‘यही तो मैं इसे समझा रही थी कि हम दोनों तो इस बात को बहुत दिनों से सूंघ रही थीं,’’ लता दीदी कह रही थीं.

‘‘वह कैसे? तुम लोगों से अचला और अभय बहुत आत्मीयता से मिलते हैं, मेरी सहेलियों में तुम दोनों का घर आना तो उन्हें बहुत अच्छा लगता है,’’ जया दीदी ने कहा.

‘‘हमारा घर आना क्यों बुरा लगेगा उन्हें. समस्या तो आप हैं, हम नहीं. और फिर बाहर वालों के सामने तो अपनी भलमनसाहत का सिक्का जमाना ही होता है. वाहवाही जो मिलती है उन से. कितनी सुंदर, सुघड़, मेहमाननवाज, सलीकेदार है आप की बहू. भई, मुसीबत तो घर के लोग होते हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जया, यह समय सम्मिलित कुटुंब का नहीं रहा है. चाहे परिवार के नाम पर एक मां ही क्यों न हो. और फिर तू घबराती क्यों है? एक प्राध्यापिका की आय कम नहीं होती. 5 साल बाद रिटायर होती भी है तो पैंशन तो मिलेगी ही. एक नौकरानी रख लेना,’’ लता दीदी उन्हें समझा रही थीं.

‘‘जया दीदी, 2-3 साल बाद जो होना है वह अगर अभी हो जाता है तो यह आप के हित में ही है. जब से अभय की शादी हुई है, मैं तो दिनबदिन आप को कमजोर होते ही देख रही हूं. मुझे लगता है, आप भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती हैं. आज की सासें बहुओं को कुछ कह तो सकती नहीं, अपनेआप में ही तनाव झेलती और घुलती रहती हैं. मैं तो सोचती हूं, उन का आप से अलग हो जाना आप के लिए अच्छा ही है,’’ मैं ने कहा.

‘‘फिर जया, अब वह जमाना नहीं है कि तुम बेटे से कहो कि बेटा, मैं ने तुम्हें इसलिए पालापोसा था कि बुढ़ापे में तुम मेरी लाठी बन सको. हम लोगों को बच्चों से किसी भी प्रकार की अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए…’’

‘‘कुछ अपेक्षा नहीं है मेरी,’’ लता की बात को बीच में काटती हुई जया दीदी बोलीं, ‘‘मैं तो केवल यह चाहती हूं कि वे मेरे सामने रहें. साथ रहने के लिए तो मैं ने आगरा विश्वविद्यालय से मिल रही  ‘रीडरशिप’ अस्वीकार कर दी थी.’’

‘‘जो हुआ सो हुआ, अब तुम अपने को उन से अलग हो कर अकेले जिंदगी जीने के लिए तैयार करो. आजकल की मांओं को बेटों के मोह से मुक्त हो कर अलग रहने के लिए तैयार रहना चाहिए. मैं जानती हूं, कहने और करने में बहुत अंतर होता है पर मानसिक तैयारी तो होनी ही चाहिए. अभ्यास से अकेलापन खलता नहीं, विशेषकर हम लोगों को, जिन को पढ़नेलिखने की आदत है. फिर तू तो एक तरह से अकेली ही रही है. अभय के साथ तेरे भीतर का अकेलापन कटा हो, यह तो मैं नहीं मान सकती. हां, दायित्व जरूर था वह तुझ पर.’’

‘‘दायित्व ही सही, व्यस्त तो रखा उस ने मुझे. एक भरीपूरी दिनचर्या तो रही, किसी को मेरी जरूरत है, यह एहसास तो रहा. नहीं लता, यह अकेलापन मुझ से बरदाश्त नहीं होगा.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा, जया. चाय ठंडी न कर. रोने का मन है तो बेशक रो ले.’’ लता दीदी के ऐसा कहते ही जया हंसने लगीं, ‘‘इसीलिए तो यहां आई थी कि तुम लोगों में बैठ कर कुछ सही सोच पाऊंगी, अपने में कुछ विश्वास प्राप्त कर सकूंगी.’’

जया दीदी मन से उखड़ी हुई थीं, इसीलिए लता दीदी और मेरे प्रयासों के बावजूद अन्यमनस्क वे एकाएक खड़ी हो गईं और लता दीदी से कहने लगीं, ‘‘चल, अब और न बैठा जाएगा आज.’’

मुझे भी लगा, उन्हें अपने को समेटने के लिए बिलकुल अकेलेपन की जरूरत है, जिस का सामना करने से वे बच रही हैं. मैं ने कहा, ‘‘जया दीदी, मेरे पति तो आजकल बाहर हैं, इसलिए जब चाहे, आइए मेरे पास. मुझे आप का आना अच्छा ही लगेगा. इच्छा हो तो 2-4 दिन मेरे पास ही रह जाइए. मैं फिर दोहरा रही हूं, अभय और अचला के चले जाने पर आप अपने ढंग से रह सकेंगी. हमें भी आप के घर आने पर ज्यादा अपनापन लगेगा. अभी तो लेदे कर आप का शयनकक्ष ही अपना रह गया है.’’

जया दीदी लता दीदी के साथ चली गई थीं, पर मैं अभी भी उन्हीं में खोई हुई थी. अभय बड़ा हो गया है, यह उसी दिन महसूस हुआ. यों समझदार तो वह मुझे पहले से ही लगता था. उन दिनों हिंदी विषय पढ़ने के लिए वह अकसर मेरे पास आता था.

एक दिन वह बोला, ‘‘मौसी, ऐसा कुछ बताइए कि…’’

‘‘एक रात में ही तू पढ़ कर पास हो जाए…है न?’’ उस की बात पूरी करते हुए मैं ने कहा था, ‘‘पर बेटे, थोड़े दिन अपने पाठ्यक्रम को एक बार पूरी तरह से पढ़ तो ले.’’

उस की अभिव्यक्ति में कहीं कोई कमी नहीं थी. साहित्य पर उस की पूरी पकड़ थी. कठिनाई आती थी भाषा के संदर्भ में.

‘‘मौसी, इस बार पास नहीं हुआ तो, ‘औनर्स’ की डिगरी नहीं मिलेगी.’’

‘‘नहीं, मुझे पूरा भरोसा है कि तुम हिंदी पास ही नहीं करोगे, अच्छे अंक भी पाओगे.’’

‘‘ओह, धन्यवाद मौसी.’’

‘आषाढ़ का एक दिन’ नामक नाटक पढ़ने में उसे कठिनाई हो रही थी. मुझे याद है, इसलिए मैं ने उसे उन्हीं दिनों ‘संभव’ द्वारा हो रहे इसी नाटक को देखने के लिए भेजा था. परिणाम यह हुआ था कि ‘विलोम’ के चरित्र को उस ने परीक्षा में बड़े खूबसूरत ढंग से लिखा था. जीवन की उसे समझ थी.

‘मल्लिका’ की वेदना वह उस उम्र में भी महसूस कर सका था. फिर अपनी मां की वेदना को? क्या हुआ है अभय को? पर एकसाथ तनावग्रस्त रहने से तो अच्छे, मधुर संबंधों के साथ लगाव रखते हुए अलग रहना कहीं ज्यादा बेहतर है.

लंबी चुप्पी तो नहीं रही जया दीदी के साथ, पर मिलना भी नहीं हुआ. एक दिन फोन आया तो पूछ ही बैठी, ‘‘दीदी, अभय और अचला ने यह निर्णय क्यों लिया? कोई तात्कालिक कारण तो रहा ही होगा?’’

‘‘हां,’’ उन्होंने बताया, ‘‘तू जानती ही है कि नवरात्रों के अंतिम 2 दिन मेरा उपवास रहता है. अचला सुबह 9 बजे चली जाती थी. 10.50 पर मेरी भी कक्षा थी. सुबह मैं ने दोनों को चाय दे ही दी थी, अष्टमी की वजह से नाश्ते के लिए अंडा नहीं रखा था. बस, इसी पर चिल्ला पड़ी, ‘मैं सुबहसुबह पूरीहलवा नहीं खा सकती.’

‘‘मैं ने इतना कहा, ‘बेटे, आज अंडा, औमलेट या जो चाहिए, बाहर हीटर पर बना लो.’

‘‘पर वह तो पैर पटकती हुई चली गई. उसी शाम दफ्तर से वह मायके चली गई और अभय ने मुझे सूचित किया कि वह अलग घर का इंतजाम कर रहा है.

‘‘मेरे पूछने पर कि मेरा दोष क्या है? वह बोला, ‘मां, आप पर बहुत ज्यादा बोझ है. यहां रहते अचला कभी अपना दायित्व नहीं समझेगी और नासमझ ही रह जाएगी. व्यर्थ में आप को भी परेशानी होती है.’

‘‘नया मकान लेने के बाद अभय के साथ अचला भी आई थी. बहुत प्यार से मिली, ‘मां, हम क्या करें, हमें यहां अजीब तनाव सा लगता था. कभी देर रात तक अभय और हमारे मित्र आते तो लगता, आप परेशान हो रही हैं. आप कुछ कहती तो नहीं थीं, पर हमें अपराधबोध होता था. कुछ घुटाघुटा सा लगता था. यहां देखने में कुछ भी गलत न होने पर लगता था, जैसे सबकुछ ही गलत है.’

‘‘बस, ऐसे चले गए वे. अभय अभी हर शाम आता है, पर कब तक आएगा?’’ जया दीदी शायद रो रही थीं क्योंकि एकाएक चुप्पी के बाद ‘अच्छा’ कहा और रिसीवर रख दिया.

लगभग 15 वर्ष पहले कालेज में एक मेला लगा था. जया दीदी छुट्टी पर थीं. हम लोगों के जोर देने पर अभय को घुमाने के लिए मेले में ले आई थीं.

मां से पैसे ले कर वह कोई खेल खेलने चला गया. भोजन के बाद जया दीदी ने उसे वापस चलने के लिए कहा तो वह बोला, ‘अभी नहीं, अभी और खेलेंगे.’

खेलने के बाद मां को ढूंढ़ते हुए वह हमारे स्टाल पर आया तो हम चाय पी रहे थे. जया दीदी ने फिर कहा था, ‘अब तो चलो अभय, दूर जाना है, बस भी न जाने कितनी देर में मिले.’

तब वह गरदन ऊंची करते हुए बोला, ‘डरती क्यों हो मां. मैं हूं न साथ.’ लेकिन मेला उठने से पहले ही मां को बिना ठिकाने पर पहुंचाए उस ने अपना अलग ठिकाना कर लिया था.

मैं इसी में खोई हुई थी कि फोन की घंटी से तंद्रा भंग हुई, ‘‘अरे आप, सच, लंबी उम्र है आप की. आप ही को याद कर रही थी. कैसी हैं आप? क्या कहा, अभी आप के पास आना होगा? लता दीदी भी आ रही हैं? जैसा आदेश, आती हूं,’’ कहते हुए मैं ने फोन बंद कर दिया था.

जया दीदी का उल्लासयुक्त स्वर बहुत दिनों बाद सुना था. नया फ्लैट दिखाना चाह रही थीं. हमारे परामर्श के बाद ही लेंगी, ऐसा सोच रही थीं. फ्लैट बहुत अच्छा था. लेने का निर्णय भी उसी समय कर लिया था उन्होंने और ‘बयाना’ भी हमारे सामने ही दे दिया था.

बस, अब तो इंतजार था उन के गृहप्रवेश का. एक दिन शाम को उन का फोन आया कि वे हवन नहीं करवा रहीं. कुछ लोगों को सूचित करने के लिए उन्होंने कहा था. वह सब तो किया, पर लगा कि जया दीदी के पास जाना चाहिए.

लता दीदी को फोन कर के उन के फ्लैट पर पहुंची.

‘‘वाह, यहां तो जो आ जाए उस का जाने का मन ही न हो,’’ इस वाक्य से जया दीदी खुश होने के बदले आहत ही हुईं, ‘‘जाने की क्या बात, यहां तो कोई आना ही नहीं चाहता. अभय, अचला ने हवन पर आने से इनकार कर दिया है. सोचा, वही नहीं आ रहे तो फिर काहे का हवन. अब तो लगने लगा है, पूर्णाहुति की बेला में ही आएगा वह यहां. पर प्रश्न है, क्या उस समय मैं उसे देख पाऊंगी?’’

बैठक के द्वार पर मैं स्तब्ध सी खड़ी रह गई थी. क्या कहती, निराश, निढाल, थकी मां को.

पुनर्मिलन- भाग 4: क्या हो पाई प्रणति और अमजद की शादी

मगर अभी असल परीक्षा बाकी थी. ससुराल में उस का जोरदार स्वागत हुआ. कर्नल सिंह और उन की पत्नी रीमा ने अपने दिल की बगिया में सब से सुंदर गुलाब की भांति रोप लिया था उसे परंतु मेजर मयंक का चुप्पी भरा रवैया उसे परेशान कर रहा था. शादी के बाद के रस्मोरिवाज के बाद जब सुहागरात के दिन मयंक कमरे में आए तो वह माटी की मूरत के समान बुत बनी रही. उस दिन मयंक ने बड़े ही शांत भाव से कमरे में प्रवेश किया तो वह बैड के एक कोने में सहम कर बैठ गई.

मयंक दरवाजा बंद कर के खिड़की के बाहर झंकते हुए बोले, ‘‘प्रणति मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं. बेहतर है कि आप चेंज कर लें. फिर हम बात करेंगे.’’

किसी अनहोनी आशंका से प्रणति का दिल जोरजोर से धड़कने लगा खैर खुद को किसी तरह संभाल कर वह चेंज करने चली गई. जब वह चेंज कर के आई तो मयंक बोले, ‘‘प्रणति, मैं जानता हूं कि मैं आप का गुनहगार हूं पर आज इकलौता बच्चा होना सब से बड़ी सजा है क्योंकि अपने इकलौते बच्चे पर मातापिता अपनी सारी इच्छाओं की गठरी लाद देते हैं और जम कर इमोशनली ब्लैकमेल भी करते हैं. मैं मानता हूं कि जो मैं ने किया और जो कहने जा रहा हूं वह ठीक नहीं है न नैतिकता के पैमाने पर और न ही व्यावहारिकता के पैमाने पर मैं मजबूर था. मातापिता का इकलौता बेटा हूं न इसलिए उन की इच्छाओं का मान रखना और उन्हें जीवित रखना मेरी मजबूरी थी…’’

‘‘जीवित रखना मतलब?’’ प्रणति ने मयंक को बीच में टोकते हुए हैरत से कहा.

‘‘मैं अपनी ही एक सहकर्मी तान्या से प्यार करता हूं और उस के साथ कई वर्षों से लिवइन रिलेशनशिप में हूं और मैं उसी के साथ अपना जीवन बिताने का फैसला कर चुका हूं. इसलिए मेरी तरफ से आप आजाद हैं आप चाहें तो यहां रहें या फिर अपने मायके, मेरी तरफ से कोई पाबंदी नहीं है. मैं अभी एक माह के अवकाश पर हूं आप चाहें तो तब तक यहां रह सकती हैं एज ए गैस्ट. मैं आप से किसी भी प्रकार का कोई रिलेशन नहीं बनाना चाहता.’’

मयंक की बातें सुन कर प्रणति की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. किसी तरह खुद को संभाला तो मयंक की चुप्पी का राज समझ आया. वह भरभराती आवाज में बोली, ‘‘तो मुझ से शादी क्यों की? मैं तो खुद ही यह विवाह नहीं करना चाहती थी.’’

‘‘केवल मांपापा के लिए क्योंकि तान्या नीची जाति की हैं और ये लोग किसी भी कीमत पर विवाह करने को तैयार नही थे पापा ने अपनेआप को खत्म करने की धमकी दी थी. उन का मानना है कि मेरी शादी कर देंगे तो मैं तान्या को भूल जाऊंगा पर इन्हें कौन समझए कि प्यार तो एक खूबसूरत सा एहसास है जो बस एक बार होता है और जिसे कितना भी भूलना चाहो नहीं भुलाया जा सकता. प्यार कभी जातिधर्म को देख कर नहीं किया जाता वह तो बस एक इंसान से दूसरे इंसान को हो जाता है और न ही उसे किसी भी कीमत पर मिटाया जा सकता है. मेरे पास इस विवाह को करने के अलावा और कोई चारा नहीं था पर हां आप से संबंध न बनाना मेरे हाथ में है, इसीलिए आप को आज पहली रात्रि को ही अपनी सचाई बता दी ताकि आप अपनी लाइफ का डिसीजन ले सको. वैसे आप क्यों नहीं करना चाहती थीं यह विवाह?’’ मयंक ने उस की तरफ मुखातिब हो कर कहा.

‘‘मैं अपने ही सहपाठी अमजद…’’ कहते हुए प्रणति ने पूरी कहानी मयंक को सुना दी.

‘‘ओह तो आप को भी इकलौती बेटी होने का भुगतान करना पड़ा है. मेरी ओर से आप पूरी तरह आजाद हैं. आप अमजद से और मैं तान्या से विवाह कर लेते हैं अब आप जैसा कहें मैं वह सब करने को तैयार हूं. हम पतिपत्नी तो नहीं बन सके पर अच्छे दोस्त तो बन ही सकते हैं. हमारे शिक्षित समाज की सचाई यह है कि शिक्षा प्राप्त कर के नौकरी तो प्राप्त कर लेते हैं लोग पर जाति और धर्म की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठ कर क्यों नहीं सोच पाते यह मुझे कभी समझ नहीं आता… शिक्षा और आधुनिकता का प्रभाव इन के विचारों से अछूता क्यों रह जाता है? इन्हें कौन समझए कि विवाह कोई गुड्डेगुडि़या का खेल नहीं है कि मनचाहे जिस से कर लो… विवाह एक पवित्र बंधन है उसे न केवल करना बल्कि ताउम्र निभाना भी आवश्यक है. इस पवित्र बंधन को कैसे किसी दूसरे के साथ कर लिया जाए जबकि हम प्यार किसी अन्य से करते हैं? खैर, उन का ईगो अब शांत हो गया है… अब वह होगा जो हम चाहेंगे,’’ कह कर मयंक ने उस की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया.

प्रणति के आगे अमजद का चेहरा घूम गया. सच ही तो कह रहा है मयंक, कहने को तो उस ने भी मोबाइल की सिम की भांति अमजद को भी अपनी जिंदगी से निकालने की कोशिश की थी पर क्या वह सच में आज तक उसे अपने दिल से निकाल पाई है. क्यों जाति और धर्म के स्थान पर इंसानियत को तवज्जो नहीं देता हमारा समाज. क्यों विवाह संबंध करते समय जातिधर्म को सर्वोपरि मान लिया जाता है बीमार को रक्त चढ़ाते समय नहीं? क्यों नाजों से पाले बच्चों की भावनाओं का समाज के झठे आडंबर और मानसम्मान के आगे कोई मूल्य नहीं समझ पाते मातापिता? लाख सोचने पर भी वे इन प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज पाई.

‘‘अभी तो मुझे कुछ सूझ नहीं रहा… बाद में सोचेंगे,’’ कह कर किसी तरह

अपने को शांत कर के वह सोने की कोशिश करने लगी पर नींद थी कि आंखों में आने को तैयार ही नहीं थी. क्या होगा मांपापा का जब उन्हें मयंक की सचाई के बारे में पता चलेगा… क्या अमजद को सचाई बता कर उस से विवाह कर ले… बारबार उस के मन में आ रहा था कि वह मयंक और अपने मातापिता को सामने खड़ा कर के पूछे…. अब आप अपने समाज और पंडितजी को बुलाइए हमारे जीवन को चलाने के लिए… जिस समाज के लिए आपने अपने बच्चों की भावनाओं की बलि दे दी वह समाज क्या आज हमारे असामान्य जीवन को सामान्य बना देगा? किसी तरह आंखों ही आंखों में उस ने रात गुजारी. उधर सोफे पर लेटे मयंक भी पूरी रात करवटें ही बदलते रहे. 2 दिन के बाद पगफेरे की रस्म के लिए जब वह मायके जाने की तैयारी में थी तो मयंक अचानक कमरे में आ कर बोला, ‘‘देखिए, आप कोई भी निर्णय लेने को स्वतंत्र हैं… आप जो भी निर्णय लेंगी मुझे मंजूर होगा… यहां की चिंता मत करिएगा मैं सब संभाल लूंगा.’’

‘‘जी,’’ कह कर वह बाहर आ गई. मायके आ कर मांपापा को देखते ही उस की रुलाई छूट गई.

मां बोलीं, ‘‘अरे पागल है क्या… शादी के बाद कोई रोता है… देख तेरा चेहरा कैसा निखर गया है… और सुना ससुराल में सब कैसे हैं… मयंक तो तुझ पर जान दे रहा होगा…’’

‘‘मां अभी मैं बहुत थक गई हूं प्लीज कुछ देर के लिए अपने कमरे में जाऊं,’’ कह कर वह अपने कमरे में आ गई. उस ने पुरानी सिम डाल कर अमजद को फोन लगाने की बहुत कोशिश की परंतु वह पहुंच से बाहर ही जाता रहा. अपने प्यारे टैडी को गोद में रख कर न जाने कितनी देर तक यों ही रोतेरोते कब उस की आंख लग गई पता न चला…

सबक के बाद: क्या पति प्रयाग का व्यवहार बदल पाई उसकी पत्नी

मेज पर फाइलें बिखरी पड़ी थीं और वह सामने लगे शीशे को देख रहे थे. आने वाले समय की तसवीरें एकएक कर उन के आगे साकार होने लगीं. झुकी हुई कमर, कांपते हुए हाथपांव. वह जहां भी जाते हैं, उपेक्षा के ही शिकार होते हैं. हर कोई उन की ओर से मुंह फेर लेता है. ऐसे में उन्हें नानी के कहे शब्द याद आ गए, ‘अरे पगले, यों आकाश में नहीं उड़ा करते. पखेरू भी तो अपना घोंसला धरती पर ही बनाया करते हैं.’

तनाव से उन का माथा फटा जा रहा था. उसी मनोदशा में वह सीट से उठे और सोफे पर जा धंसे. दोनों हाथों से माथा पकड़े हुए वह चिंतन में डूबने लगे. उन के आगे सचाई परत दर परत खुलने लगी. उन्होंने कभी भी तो अपने से बड़ों की बातें नहीं मानी. उन के आगे वह अपनी ही गाते रहे. सिर उठा कर उन्होंने घड़ी की ओर देखा तो 1 बज रहा था. चपरासी ने अंदर आ कर पूछा, ‘‘सर, लंच में आप क्या लेंगे?’’

‘‘आज रहने दो,’’ उन्होंने मना करते हुए कहा, ‘‘बस, एक कौफी ला दो.’’

‘‘जी, सर,’’ चपरासी बाहर चल दिया.

लोगों की झोली खुशियों से कैसे भरती है? वह इसी पर सोचने लगे. परसों ही तो उन के पास छगनलाल एक फाइल ले कर आए थे. उन्होंने पूछा था, ‘‘कहिए छगन बाबू, कैसे हैं?’’

‘‘बस, साहब,’’ छगनलाल हंस दिए थे, ‘‘आप की दुआ से सब ठीकठाक है. मैं तो जीतेजी जीवन का सही आनंद ले रहा हूं. चहकते हुए परिवार में रह रहा हूं. बहूबेटा दोनों ही घरगृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं. वे तो मुझे तिनका तक नहीं तोड़ने देते. अब वही तो मेरे बुढ़ापे की लाठी हैं.’’

‘‘बहुत तकदीर वाले हो भई,’’ यह कहते हुए उन्होंने फाइल पर हस्ताक्षर कर छगनलाल को लौटा दी थी.

चपरासी सेंटर टेबल पर कौफी का मग रख गया. उसे पीते हुए वह उसी प्रकार आत्ममंथन करने लगे.

उन के सिर पर से मांबाप का साया बचपन में ही उठ गया था. वह दोनों एक सड़क दुर्घटना में मारे गए थे. तब नानाजी उन्हें अपने घर ले आए थे. उन का लालनपालन ननिहाल में ही हुआ था. उन की बड़ी बहन का विवाह भी नानाजी ने ही किया था.

नानानानी के प्यार ने उन्हें बचपन से ही उद्दंड बना दिया था. स्कूलकालिज के दिनों से ही उन के पांव खुलने लगे थे. पर उन का एक गुण, तीक्ष्ण बुद्धि का होना उन के अवगुणों पर पानी फेर देता था.

राज्य लोक सेवा आयोग में पहली ही बार में उन का चयन हो गया तो वह सचिवालय में काम करने लगे थे. अब उन के मित्रों का दायरा बढ़ने लगा था. दोस्तों के बीच रह कर भी वह अपने को अकेला ही महसूस किया करते. वह धीरेधीरे अलग ही मनोग्रंथि के शिकार होने लगे. घरबाहर हर कहीं अपनी ही जिद पर अड़े रहते.

उन के भविष्य को ले कर नानाजी चिंतित रहा करते थे. उन के लिए रिश्ते भी आने लगे थे लेकिन वह उन्हें टाल देते. एक दिन अपनी नानी के बहुत समझाने पर ही वह विवाह के लिए राजी हुए थे.

3 साल पहले वे नानानानी के साथ एक संभ्रांत परिवार की लड़की देखने गए थे. उन लोगों ने सभी का हृदय से स्वागत किया था. चायनाश्ते के समय उन्होंने लड़की की झलक देख ली थी. वह लड़की उन्हें पसंद आ गई और बहुत देर तक उन में इधरउधर की बातें होती रही थीं. उन की बड़ी बहन भी साथ थी. उस ने उन के कंधे पर हाथ रख कर पूछा था, ‘क्यों भैया, लड़की पसंद आई?’

इस पर वे मुसकरा दिए थे. वहीं बैठी लड़की की मां ने आंखें नचा कर कहा था, ‘अरे, भई, अभी दोनों का आमना- सामना ही कहां हुआ है. पसंदनापसंद की बात तो दोनों के मिलबैठ कर ही होगी न.’

इस पर वहां हंसी के ठहाके गूंज उठे थे.

ड्राइंगरूम में सभी चहक रहे थे. किचेन में भांतिभांति के व्यंजन बन रहे थे. प्रीति की मां ने वहां आ कर निवेदन किया था, ‘आप सब लोग चलिए, लंच लगा दिया गया है.’

वहां से उठ कर सभी लोग डाइनिंग रूम में चल दिए थे. वहां प्रीति और भी सजसंवर कर आई थी. प्रीति का वह रूप उन के दिल में ही उतरता चला गया था. सभी भोजन करने लगे थे. नानाजी ने उन की ओर घूम कर पूछा था, ‘क्यों रे, लड़की पसंद आई?’

‘जी, नानाजी,’ वह बोले थे, पर…

‘पर क्या?’ प्रीति के पापा चौंके थे.

‘पर लड़की को मेरे निजी जीवन में किसी प्रकार का दखल नहीं देना होगा,’ उन्होंने कहा, ‘मेरी यही एक शर्त है.’

‘प्रयाग’, नानाजी उन की ओर आंखें तरेरने लगे थे, ‘तुम्हारा इतना साहस कि बड़ों के आगे जबान खोलो. क्या हम ने तुम में यही संस्कार भरे हैं?’

नानाजी की उस प्रताड़ना पर उन्होंने गरदन झुका ली थी. प्रीति की मां ने यह कह कर वातावरण को सहज बनाने का प्रयत्न किया था कि अच्छा ही हुआ जो लड़के ने पहले ही अपने मन की बात कह डाली.

‘वैसे प्रयागजी’, प्रीति के पापा सिर खुजलाने लगे थे, ‘मैं आप के निजी जीवन की थ्योरी नहीं समझ पाया.’

‘मैं घर से बाहर क्या करूं, क्या न करूं,’ उन्होंने स्पष्ट किया था, ‘यह इस पर किसी भी प्रकार की टोकाटाकी नहीं करेंगी.’

‘अरे,’ प्रीति के पापा ने जोर का ठहाका लगाया था, ‘लो भई, आप की यह निजता बनी रहेगी.’

रिश्ता पक्का हो चला था. 6 महीने बाद धूमधाम से उन का विवाह हो गया था. विवाह के तुरंत बाद ही वे दोनों नैनीताल हनीमून पर चल दिए थे. सप्ताह भर वे वहां खूब सैरसपाटा करते रहे थे. दोनों ही तो एकदूसरे में डूबते चले गए थे. वहां उन्होंने नैनी झील में जी भर कर बोटिंग की थी.

‘क्योंजी,’ बोटिंग करते हुए प्रीति ने उन से पूछा था, ‘उस दिन मैं आप की फिलौस्फी नहीं समझ पाई थी. जब आप मुझे देखने आए थे तो अपने निजी जीवन की बात कही थी न.’

‘हां,’ उन्होंने कहा था, ‘मैं कहां जाऊंगा, क्या करूंगा, इस पर तुम्हारी ओर से किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होगी. मैं औरतमर्द में अंतर माना करता हूं.’

‘अरे,’ प्रीति भौचक रह गई थी. वह गला साफ  करते हुए बोली, ‘आज के युग में जहां नरनारी की समता की दुहाई दी जाती है, वहां आप के ये दकियानूसी विचार…’

‘मैं ने कहा न,’ उन्होंने पत्नी की बात बीच में काट दी थी, ‘तुम किसी भी रूप में मेरे साथ वैचारिक बलात्कार नहीं करोगी और न ही मैं तुम्हें अपने ऊपर हावी होने दूंगा.’

तभी फोन की घंटी बजी और उन्होंने आ कर रिसीवर उठा लिया, ‘‘यस.’’

‘‘सर, लंच के बाद आप डिक्टेशन देने की बात कह रहे थे,’’ उधर से उन की पी.ए. कनु ने उन्हें याद दिलाया.

‘‘अरे हां,’’ वह घड़ी देखने लगे. 2 बज चुके थे. अगले ही क्षण उन्होंने कहा, ‘‘चली आओ, मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देना है.’’

इतना कह कर वह कल्पना के संसार में विचरने लगे कि उन की पी.ए. कनुप्रिया कमरे में आएगी. उस के शरीर की गंध से कमरा महक उठेगा. ऐसे में वह सुलगने लगेंगे…तभी चौखट पर कनु आ खड़ी हुई. वह मुसकरा दिए, ‘‘आओ, चली आओ.’’

कनु सामने की कुरसी पर बैठ गई. वह उस के आगे चारा डालने लगे, ‘‘कनु, आज तुम सच में एक संपूर्ण नारी लग रही हो.’’

कनु हतप्रभ रह गई. बौस के मुंह से वह अपनी तारीफ सुन कर अंदर ही अंदर घबरा उठी. उस ने नोट बुक खोल ली और नोटबुक पर नजर गड़ाए हुए बोली, ‘‘मैं समझी नहीं, सर.’’

‘‘अरे भई, कालिज के दिनों में मैं ने काव्यशास्त्र के पीरियड में नायिका भेद के लक्षण पढे़ थे. तुम्हें देख कर वे सारे लक्षण आज मुझे याद आ रहे हैं. तुम पद्मिनी हो…तुम्हारे आने से मेरा यह कमरा ही नहीं, दिल भी महकने लगा है.’’

‘‘काम की बात कीजिए न सर,’’ कनु गंभीर हो आई. उस ने कहा, ‘‘आप मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देने जा रहे थे.’’

‘‘सौरी कनु, मुझे पता न था कि तुम… मैं तो सचाई उगल रहा था.’’

‘‘आप को सब पता है, सर,’’ कनु कहती ही गई, ‘‘आप अपनी आदत से बाज आ जाइए. प्रीति मैडम में ऐसी क्या कमी थी, जो आप ने उन्हें निर्वासित जीवन जीने के लिए विवश किया?’’

अपनी स्टेनो के मुंह से पत्नी का नाम सुन कर प्रयाग को जबरदस्त मानसिक झटका लगा. कनु तो उन्हें नंगा ही कर डालेगी. उन की सारी प्राइवेसी न जाने कब से दफ्तर में लीक होती आ रही है…यानी सभी जानते हैं कि उन के अत्याचारों से तंग आ कर ही उन की पत्नी मायके में बैठी हुई है. कनु के प्रश्न से निरुत्तर हो वह अपने गरीबान में झांकने लगे, तो अतीत फिर उन के सामने साकार होने लगा.

नैनीताल से आ कर वह नानाजी से अलग एक किराए का फ्लैट ले कर रहने लगे थे. नानाजी ने उन्हें बहुत समझाया था लेकिन उन्होंने उन की एक भी नहीं सुनी थी. फ्लैट में आ कर वह अपने आदेशनिर्देशों से प्रीति का जीना ही हराम करने लगे थे.

‘रात की रोटियां क्यों बच गईं?’

‘तुम तार पर कपडे़ डालती हुई इधरउधर क्यों झांकती हो?’

‘तुम्हें लोग क्यों देखते हैं?’

आएदिन वह पत्नी पर इस तरह के प्रश्नों की झड़ी सी लगा दिया करते थे.

उस फ्लैट में प्रीति उन के साथ भीगी बिल्ली बन कर रहने लगी थी. जबतब उसे उन की शर्त याद आ जाया करती. पति के उन अत्याचारों से आहत हो वह आत्मघाती प्रवृत्ति की ओर बढ़ने लगी थी. एक बार तो वह मरतीमरती ही बची थी.

उन की आवारगी अब और भी जलवे दिखलाने लगी थी. एक दिन वह किसी युवती को फ्लैट में ले आए थे. प्रीति कसमसा कर ही रह गई थी. उन्होंने उस युवती का परिचय दिया था, ‘यह सुनंदा है. हम लोग कभी एक साथ ही पढ़ा करते थे.’

विवाह के दूसरे साल उन के यहां एक बच्चा आ गया था लेकिन वे वैसे ही रूखे बने रहे. बच्चे के आगमन पर उन्हें कोई भी खुशी नहीं हुई थी. प्रीति उन के अत्याचारों के नीचे दबती ही गई.

‘देखिएजी,’ एक दिन प्रीति ने अपना मुंह खोल ही दिया, ‘मुझे आप प्रतिबंधों के शिंकजे से मुक्त कीजिए… नहीं तो…’

‘नहीं तो तुम मेरा क्या कर लोगी?’ उन्होंने तमक कर पूछा था.

‘अब हमारे बीच नन्हा भी आ गया है. प्रीति उन्हें समझाने लगी थी, ‘हम 2 से 3 हो आए हैं. मुझे इस गुलामी की जंजीर से मुक्त कर दें.’

‘नहीं,’ वे गुर्राए, ‘मैं अपने निश्चय से टस से मस नहीं हो सकता. मैं हमेशा अपने ही मन की करता रहूंगा.’

‘ठीक है,’ प्रीति का भी स्वाभिमान जाग गया था. उस ने कहा, ‘फिर मैं भी अपनी मनमरजी पर उतरने लगूंगी.’ प्रीति के अनुनयविनय का प्रयाग पर कुछ भी असर नहीं पड़ा तो एक दिन नन्हे को ले कर मायके चली गई. रोरो कर उस ने मां को सारी बातें बतला दीं. मां उस का सिर सहलाने लगीं, ‘धीरज रख, सब ठीक हो जाएगा बेटी.’

तब से प्रीति मायके में ही रह कर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने लगी थी. उन्होंने कभी भी उस की खोजखबर नहीं ली. उन का बेटा नन्हा भी उन्हें नहीं पिघला पाया था. उन के दोस्तों में इजाफा होता गया. बदनाम गलियों में भी वह मुंह मारने लगे थे.

एक दिन बूढ़ी हो आई नानी उन के यहां चली आई थीं. ‘क्यों रे, तेरा यह मनमौजीपन कब छूटेगा?’

‘छोड़ो भी नानी मां,’ उन्होंने बात टाल दी थी, ‘मेरे संस्कार ही ऐसे हैं. जो होगा उसे मैं झेल लूंगा.’

‘संस्कार बदले भी तो जा सकते हैं न,’ नानी का हाथ उन के कंधे पर आ गया था, ‘तू अब भी मान जा. जा कर बहू को लिवा ला. इसी में तेरा भला है.’

वह नहीं समझ पाते कि उन के साथ ऐसा क्यों हो रहा है. आज उन की पी.ए. कनु तक ने उन्हें नंगा कर देना चाहा था. ठुड्डी पर हाथ रखे हुए वह प्रीति के बारे में सोचने लगे कि उस में कोई कमी नहीं है. उन्हीं के अत्याचारों से उस बेचारी को आज निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है.

दफ्तर से प्रयाग सीधे ही घर चले आए. उन के पीछेपीछे दोचार उन के मित्र भी चले आए. कुछ देर तक खानेपीने का दौर चला फिर मित्र चले गए तो वह फिर से तन्हा हो गए. उस से नजात पाने के लिए उन्होंने 2-3 बडे़बडे़ पैग लिए और बिस्तर पर जा धंसे.

सुबह हुई, देर से सो कर उठे तो नहा धो कर सीधे आफिस चल दिए. दरवाजे पर खडे़ चपरासी ने निवेदन किया, ‘‘साहब, आप को मैडम याद कर रही हैं.’’

‘‘मुझे?’’ वह चौंके.

‘‘जी,’’ चपरासी बोला, ‘‘मैडम बोली थीं कि आते ही उन्हें मेरे पास भेज दे.’’

वह आशंकित होने लगे. महा- निदेशक ने उन्हें न जाने क्यों बुलवाया है? किसी प्रकार शंकित मन से वह मिसेज रूंगटा के चैंबर में चल दिए. मैडम ने तो उन्हें देखते ही उन की ओर जैसे तोप दाग दी, ‘‘क्यों, मिस्टर, आप को अपने कैरियर का खयाल नहीं है क्या?’’

‘‘ऐसी क्या बात हो आई, मैडम?’’ उन्होंने कुछ सहम कर पूछा.

‘‘यह क्या है, देखिए,’’ मिसेज रूंगटा ने उन्हें कनुप्रिया की शिकायत थमा दी, ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या? आप तो छिपेरुस्तम निकले.’’

शिकायत देख कर उन को सारा कमरा घूमता हुआ सा लगा. वह होंठों पर जीभ फिरा कर बोले, ‘‘माफ करना मैडम, यह लड़की दुश्चरित्र है.’’

‘‘दुश्चरित्र आप हैं,’’ मिसेज रूंगटा ने आंखें तरेर कर कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आ पा रहा है कि आप जैसे लंपट व्यक्ति इस पद पर कैसे बने हुए हैं? सुना है, आप का अपनी पत्नी के साथ भी…’’

उन की तो बोलती ही बंद हो आई. उन्होंने अपराधभाव से गरदन झुका ली. मिसेज रूंगटा ने उन्हें चेतावनी दे डाली, ‘‘आइंदा ध्यान रखें. अब आप जा सकते हैं.’’

वह उठे और चुपचाप महानिदेशक के चैंबर से निकल कर अपनी सीट पर आ कर बैठ गए. तभी उन के कमरे में कनुप्रिया चली आई और बोली,  ‘‘सर, मेरी यहां से बदली हो गई है.’’

वह कुछ बोले नहीं बल्कि चुपचाप फाइलें देखते रहे. आज वह अपने को हारे हुए जुआरी सा महसूस कर रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. तभी उन के पास बाबू छगनलाल चले आए. उन्होंने कहा, ‘‘माफ करना साहब, आज आप कुछ उदास से हैं.’’

‘‘बैठिए छगन बाबू,’’ वह सामान्य हो गए.

छगनलाल कुरसी पर बैठ कर बोले,  ‘‘वैसे हम लोग आफतें खुद ही मोल लिया करते हैं. लगता है कि आप भी किसी आफत में फंसे हैं?’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ वह बोले, ‘‘मेरी पी.ए. कनु ने महानिदेशक से मेरी बदसलूकी की शिकायत की है.’’

‘‘वही तो,’’ छगनलाल ने कहा, ‘‘सारे निदेशालय में यही सुगबुगाहट चल रही है.’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा, छगन बाबू,’’ वह बोले, ‘‘अब मैं सावधानी से रहा करूंगा.’’

‘‘रहना भी चाहिए, साहब,’’ छगनलाल बोले, ‘‘आदमी को हमेशा ही सतर्क रहना चाहिए.’’

उन्हें जीवन में पहली बार सबक मिला था. अब वह ध्यानपूर्वक अपना काम करने लगे. वह नानाजी को फोन मिलाने लगे. मिलने पर वे बोले, ‘‘नानाजी, मैं प्रयाग बोल रहा हूं.’’

‘‘बोलो बेटे,’’ उधर से कहा गया.

‘‘मैं आप के पास ही रहना चाहता हूं,’’ उन्होंने अपनी दिली इच्छा प्रकट की.

‘‘स्वागत है,’’ नानाजी ने पूछा, ‘‘कब आ रहे हो?’’

‘‘एकदो दिन में प्रीति को भी साथ ले कर आ रहा हूं.’’

‘‘फिर तो यह सोने पर सुहागा वाली बात होगी,’’ नानाजी ने चहक कर कहा, ‘‘यह तो तुम्हें बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था.’’

‘‘सौरी नानाजी,’’ प्रयाग क्षमा मांगने लगे, ‘‘अब तक मैं भटकने की राह पर था.’’

शाम को वह दफ्तर से सीधे ही ससुराल चले गए. आंगन में नन्हा खेल रहा था, उसे उन्होंने गोद में उठाया और प्यार करने लगे. कोने में खड़ी प्रीति उन्हें देखती ही रह गई. वह मुसकरा दिए, ‘‘प्रीति, आज मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’

‘‘वह तो आप को आना ही था,’’ प्रीति हंस दी.

वह सासससुर के आगे अपने किए पर प्रायश्चित्त करने लगे. ससुर ने उन का कंधा थपथपा दिया, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, आदमी ठोकर खा कर ही तो संभलता है.’’

सुबह उन की नींद खुली तो उन्होंने अपने को तनावमुक्त पाया. प्रीति भी खुश नजर आ रही थी. चायनाश्ते के बाद उन्होंने एक टैक्सी बुला ली. प्रीति और नन्हे को बिठा कर खुद भी उन की बगल में बैठ गए. टैक्सी नानाजी के घर की ओर सड़क पर दौड़ने लगी.

आत्ममंथन: क्या हुआ शांता को गलती का एहसास

रचित के विवाह को पूरे 2 साल हो  गए पर शांता हैदराबाद नहीं जा सकी. रचित उस का इकलौता बेटा है. उस की पत्नी स्नेहा कितनी ही बार निमंत्रण दे चुकी है पर कहां जा पाई है वह? कभी घर की व्यस्तता तो कभी राहुल की प्राइवेट कंपनी का टूर. एक बार प्रोग्राम बनाया भी तो उन दोनों के विदेश ट्रिप के कारण रद्द करना पड़ा, टिकट भी कैंसिल करना पड़ा. दोनों ही विदेशी कंपनी में साथ काम करते हैं, अकसर बाहर जाते ही रहते हैं.

शादी के बाद हनीमून मनाने में 1 महीना निकल गया. कहां ये दोनों बहू के पास रह पाए? सच में शांता को अपनी बहू से ठीक से परिचय भी नहीं हो पाया है. सिर्फ एकदो दिन ही साथ बिताए हैं. फोन पर बात कर लेना ही भला कोई परिचय हुआ. कुछ दिन उस के साथ रहें, तब कुछ बात बने. कुछ उस की सुनें और कुछ अपनी कहें.

खैर, चलो 2 साल बाद ही सही, अब तो राहुल ने पटना से हैदराबाद का रिजर्वेशन भी करा लिया है. रचित के विवाह की वर्षगांठ जो है. शांता शौपिंग में व्यस्त है. लड्डूमठरी और गुझिया बनाने में लगी है. ये सब रचित को बहुत पसंद हैं. अब स्नेहा को क्या पसंद है, यह रचित से पूछ कर बना लेगी. वह भी खुश हो जाएगी.

सभी सामान पैक हो गए हैं. थोड़ी देर में चलना है. मन खुशियों से भरा है. राहुल आएंगे तो आते ही जल्दी मचा देंगे. इसलिए सामान को बाहर निकालना शांता ने शुरू कर दिया.

स्टेशन आने पर पता चला कि गाड़ी समय पर पहुंच रही है, जान कर राहत मिली. टे्रन आने पर कुली ने सारा सामान सैट कर दिया. अटैंडैंट कंबल, चादर, तकिया आदि दे गया. शांता को अब थकावट महसूस हो रही थी. लेकिन रात के करीब 12 बजे तक लोगों का उतरनाचढ़ना लगा रहा. टीटीई भी टिकट चैक कर के चला गया. राहुल को तो लेटते ही नींद आ गई. शांता सोने की कोशिश करने लगी. गाड़ी तेज रफ्तार से चलने लगी थी. सभी यात्री सो चुके थे. ट्रेन में खामोशी छाई थी.

शांता की आंखें नींद से बोझिल हो रही थीं पर मन में अतीत चलचित्र की भांति घूमने लगा.

जब उस की नईनई शादी हुई थी तब राहुल का छोटा सा परिवार था. राहुल के मातापिता और एक छोटी बहन. राहुल को मां और बहन से काफी लगाव था. सुहागरात को ही शांता को राहुल ने यह बता दिया था, ‘शांता, मां मेरी आदर्श हैं, मां के कारण ही हम इस मुकाम पर पहुंचे. बहन मुझे जान से प्यारी है. इस बात का विशेष खयाल रखना कि हम लोगों के किसी व्यवहार के कारण से मां के दिल को चोट न पहुंचे.’

‘आप चिंता न करें, मैं इस बात का हमेशा खयाल रखूंगी. आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’ वह कह तो रही थी पर अंदर से जलभुन रही थी. जो आदमी अपनी मांबहन का इतना खयाल रख रहा है वह एक पति भी बन पाएगा. उसे इस बात की चिंता हो गई और वह तनावग्रस्त रहने लगी.

शादी के बाद छुट्टी समाप्त होने पर वे गया से पटना आ गए. यहीं राहुल नौकरी करते थे. बड़े अरमान से उस ने अपनी छोटी सी गृहस्थी सजाई.

‘देखो, मां को यह सामान यहां रखा हुआ पसंद नहीं आएगा. इस को उस जगह पर रखो, मां को जिस कलर की साड़ी पसंद है वही पहनना. सामान सजाने की कला मां से सीख लेना. हां, सलाद भी सजाना मां से सीख लेना.’ ये सब सुन कर शांता खीझ उठती. और जानबूझ कर वही करती जो राहुल मना करते.

पापा के देहांत के बाद मां अकसर इन लोगों के साथ ही पटना में रहने लगी. ये लोग भी घर कम ही जा पाते थे.

राहुल की टीकाटिप्पणी से शांता को सास का आना बोझ लगने लगा. उन का आना शांता को कभी अच्छा नहीं लगा और उन से चिढ़ सी होने लगी. मन में सोचती, ‘ये बारबार क्यों चली आती हैं? घर पर भी तो रह सकती हैं.’ शांता को उन की उपस्थिति बरदाश्त नहीं होती जबकि मां के आने से राहुल के उत्साह का अंत नहीं रहता. आने के हफ्तों पहले से तैयारी होती और रसोईघर मां की पसंद की चीजों से भर जाता.

शांता सोचती, उस का भी क्या दोष था. मां के जैसा खाना बनाना, उन के जैसा तरीका सीखना ये बातें सुनसुन कर वह कुढ़ जाती. उसे लगता जैसे वह कोई गंवार है. जैसे उस का कोई अस्तित्व ही नहीं है. मां के प्रति उस ने विद्रोह पाल लिया.

इस के विपरीत मां जब आतीं तो अपने साथ इन लोगों के लिए ढेरों खानेपीने का सामान बना कर लातीं, अभी भी आती हैं तो ले कर आती हैं पर शांता को उन चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं रहती. उस का तो यही प्रयास रहता है कि मां जल्दी से जल्दी उस के घर से चली जाएं. शांता राहुल को बहाना बना कर घर से बाहर ले जाती और बाहर ही खाना खा कर देर रात को लौटती. मां इंतजार ही करती रह जातीं. शांता को मां को प्रतीक्षा करते देख कर खुशी होती. फिर भी मां न कोई शिकायत करतीं और न उलाहना देतीं. न जाने कितनी सहनशील हैं.

उलटा वे एक दिन राहुल से कहने लगीं, ‘राहुल, बहू को कभी फिल्म दिखाने भी ले जाया कर. यही तो इस के घूमनेफिरने के दिन हैं.’ अभी भी वे उन्हें घूमने भेज देतीं और पीछे से घर के सारे काम कर लेतीं. एक भी काम शांता के लिए नहीं छोड़तीं. फिर भी उसे खुशी नहीं होती. शांता को ये सब नाटक लगता. वे जल्दी ही चली भी जातीं. जब तक भी रहतीं, शांत ही रहतीं.

समय बीतता गया. शादी के तीसरे साल रचित का जन्म हुआ. घर में उल्लास छाया हुआ था. खासकर मां की खुशी का तो ठिकाना नहीं था. फोन से अनेक प्रकार की हिदायतें दे रही थीं, ‘शांता, अपना ध्यान रखना. चैकअप कराती रहना. डाक्टर जैसा कहे उसी तरह रहना.’ राहुल को भी हिदायत देतीं, ‘बहू का खयाल रखना.’

उस के बाद तो रचित को देखने और खिलाने के लिए बारबार आने लगीं. अब शांता को शक होने लगा कि मां पति तो छीन ही चुकी हैं अब बेटे को भी अपने वश में करना चाहती हैं. शांता बहाने बना कर रचित को मां से दूर रखना चाहती थी, पर जिद कर के वह उन्हीं के पास चला जाता. दादी से पोते को अलग करना शांता को मुश्किल हो जाता. राहुल को इस सब का पता नहीं रहता क्योंकि मां शांता की शिकायत नहीं करतीं.

अब शांता ने मांबेटे के रिश्ते को भी खराब करना चाहा. राहुल पूछते ‘शांता, बाथरूम क्यों गंदा है?’ धीरे से बोल देती, ‘मां ने बाहर से आ कर पैर धोए हैं,’ ‘शांता, बिजली का बिल इतना ज्यादा क्यों आया?’ शांता सब मां के मत्थे मढ़ देती.

एक दिन राहुल गुस्सा हो कर बोले, ‘न जाने मां को क्या हो गया है, इतनी कठोर सास बन गई हैं?’ फिर शांता ही राहुल को शांत किया करती.

छोटी ननद शिखा शादी के बाद पहली बार अपने भतीजे को देखने और मां से मिलने उस के घर आई. वह शांता का मां के साथ बरताव देख कर मां को समझा रही थी, ‘भाभी का इतना खराब व्यवहार क्यों सह रही हो? विरोध में कुछ बोलती क्यों नहीं हो? भैया को बताती क्यों नहीं हो? तभी तो वे जानेंगे. वे तो तुम्हीं को दोषी मानते हैं.’

‘बेटी, राहुल से क्या कहूं? शांता घर की बहू है. मेरे कारण दोनों में कटुता आए, यह मैं नहीं चाहती. दोनों को साथ जीवन बिताना है. हां, राहुल के व्यवहार से क्षोभ होता है कि मेरा बेटा मुझे दोषी मानता है. मुझे सफाई देने का मौका भी तो दे कि ऐसे ही कठघरे में खड़ा कर देगा?’

उन की बातें सुन कर शांता की अंतरआत्मा धिक्कारने लगी. वह आत्ममंथन करने लगी और अपने को एक संस्कारहीन समझ कर उसे शिखा से आंख मिलाने में भी ग्लानि होने लगी. उस के बाद से मां पटना नहीं आईं.

ट्रेन अब हैदराबाद पंहुचने वाली थी कि शांता वर्तमान में लौट आई.

शांता को अब डर समा गया कि अगर स्नेहा भी ऐसा व्यवहार करेगी तो…अपनी मां जितना धैर्य क्या उस में है? यदि रचित ने भी स्नेहा को बताया होगा कि वह मां को बहुत चाहता है तो क्या स्नेहा भी शांता के साथ वैसा ही व्यवहार करेगी जैसा वह करती थी? ऐसे अनेक प्रश्न उस के मन में उठ रहे थे. पुरानी बातें सोचसोच कर घबरा रही थी. हैदराबाद स्टेशन पर शांता ने देखा स्नेहा और रचित लेने आए हुए थे. स्नेहा शांता का ही दिया हुआ सूट पहन कर आई थी. शांता को अपनी सासू मां की याद आ गई. उन्होंने एक साड़ी अपनी पसंद की ला कर दी थी जो शांता बहाने बना कर नहीं पहनती थी.

स्नेहा और रचित दोनों हफ्तेभर की छुट्टी ले चुके थे, ‘‘मुझे पूरा समय आप के साथ बिताना है,’’ कह कर स्नेहा शांता के गले से लिपट गई, ‘‘आप से बहुत कुछ सीखना है. रचित के पसंद का खाना बनाना और घर सजाना भी सीखना है. रचित आप की बहुत प्रशंसा करते हैं.’’

रचित अपने मातापिता को ले कर अपने घर की ओर चल दिए.

राहुल और रचित दोनों मुसकरा रहे थे, ‘‘पापा, चलिए अब आप लोग फ्रैश हो जाइए. स्नेहा ने आप लोगों की पसंद का नाश्ता सुबह जल्दी ही बना कर रख लिया था.’’

मेज विभिन्न प्रकार के नाश्ते से सजी हुई थी. सभी चीजें शांता और राहुल की पसंद की थीं. बहू का प्यार देख कर दोनों का मन गद्गद हो गया. शांता को मां के साथ किए दुर्व्यवहार पर अपने ऊपर घृणा हो रही थी, ‘कैसे ओछे और गिरे हुए संस्कार की है जो स्नेहमयी जैसी सास को इतना सताया.’ जा कर पहले उन से क्षमा मांगेगी तभी उसे शांति मिलेगी.

खैर, एक हफ्ता घूमनेफिरने ही में गुजर गया. शांता के मन का भय समाप्त हो गया. स्नेह अपने मातापिता से अच्छे संस्कार ले कर आई है. उस का अपना व्यक्तित्व है, खुले विचारों की आधुनिक लड़की है. सास को दोस्त के नजरिए से देखती है. प्रतिद्वंद्वी नहीं समझती है. काश, शांता भी ऐसी सोच की होती तो मांबेटे के संबंध में खटास तो पैदा न होती.

अपने प्रति स्नेहा की श्रद्धा और उस का विश्वास देख कर शांता की आंखें भर आईं. उस का सिर शर्म से झुक गया.

मेरा दुश्मन

शादी के 5 साल बाद नन्हा पैदा हुआ तो मुझे लगा कि प्रकृति का इस से बड़ा उपहार और क्या हो सकता है. मैं उस का चेहरा एकटक निहारती पर दिल तक उस की सूरत उतरती ही नहीं थी. उस का चेहरा बस आंखों में ही बस जाता था. मेरे पति मदन हंसते, ‘‘आभा, तुम इस के चेहरे को किताब की तरह एकटक क्यों देखती हो? कलंदरा सा है, न शक्ल न रंग. बस, बेटा पा कर धन्य हुई जा रही हो. जैसे आज तक हमारे यहां बच्चे पैदा ही नहीं हुए हों. बस, गोद ही लिए जाते रहे हों.’’

मदन की बात से मेरे सर्वांग में चिनगारियां उड़ने लगतीं, ‘‘ओहो, तुम तो बड़े गोरे हो जैसे. बेटा तुम्हारे पर गया है. तुम जलते हो. अभी तक घर के एकमात्र पुरुष होने का गौरव था, सो ओछेपन पर उतर आए.’’

‘‘पर मां कहती हैं कि मैं बचपन में बहुत गोरा था. इस की तरह नहीं था.’’

‘‘रहने दो,’’ मैं ने बात काटी, ‘‘यह बड़ा होगा, शेव वगैरह करेगा तो अपनेआप ही इस का रूप निखर आएगा.’’

मदन को भले ही दलील दी पर नन्हे को हलदी, बेसन के उबटन से नहलाती थी, ‘हाय, मेरा बेटा सांवला क्यों हो?’

नन्हा बैठने लगा तो मैं बलिहारी हो गई. नन्हे ने खड़े हो कर एक कदम उठाया तो मैं खुशी से नाच उठी. नन्हे ने अभी तुतला कर बोलना शुरू ही नहीं किया था पर उस से बोलने के लिए मैं ने तुतलाना शुरू कर दिया.

मदन के लिए नन्हा आम बच्चों सा बच्चा था. शायद मां के तन से नहीं मन से भी शिशु का सृजन होता होगा तभी तो मेरे दिलोदिमाग में हर पल बस नन्हा ही समाया रहता.

नन्हा बोलने लगा. शिशु कक्षा में जाने लगा. उस के लिए एक नई दुनिया के दरवाजे खुल गए. अब वह बदल रहा था स्वतंत्र रूप से. मुझ से दूर हो रहा था. उस की आंखों में इतने चेहरे समा रहे थे आएदिन कि मेरा चेहरा अब धूमिल पड़ने लगा था.

मैं पति से कहती, ‘‘देखो, यह नन्हा कितना बदल रहा है…’’

मदन बीच में ही बात काट कर कहते, ‘‘तुम क्या चाहती हो, वह हमेशा तुम्हारे आंचल में मुंह छिपाए लुकाछिपी ही खेलता रहे? अब वह शिशु नहीं रहा, बड़ा हो गया है. कल को किशोर होगा. और भी बहुत तरह के बदलाव आएंगे. तुम भी हद करती हो, आभा.’’

नन्हे को मुझे किसी भी बात के लिए टोकनारोकना नहीं पड़ा. स्कूल से आ कर कपड़े बदल कर खाना खाता और अपनेआप ही गृहकार्य करने बैठ जाता था. मेरी मदद की जरूरत उसे किसी चीज में नहीं थी. स्कूल के साथियों की बातें वह मुझ से नहीं, मदन से करता था. दूसरे बच्चों को नखरे, फरमाइशें करते देखती तो मुझे नन्हे का बरताव और भी खल जाता.

मैं मदन से कहती, ‘‘नन्हा और बच्चों की तरह क्यों नहीं है?’’

लापरवाही के अंदाज में वे कहते, ‘‘शुक्र करो कि वैसा नहीं है. मुझ से तो शैतान बच्चे बिलकुल सहन नहीं होते, बच्चों के लिए बाहर के बजाय अपने भीतर के अनुशासन में रहना ज्यादा अच्छा है. फिर तुम खुद ही उस के लिए पहले से ही सबकुछ तैयार कर के रखती हो तो वह मांगे क्या? तुम अपनी तरफ से मस्त हो जाओ, नन्हा बिलकुल ठीक है.’’

एक बार मुझे बहुत तेज बुखार हो गया. मदन ने छुट्टी ले ली. नन्हे को स्कूल भेजा. फिर डाक्टर को बुला कर मुझे दिखाया. दवा, फल आदि लाए फिर उन्होंने खिचड़ी बनाई. मुझे यों मदन का काम करना अच्छा नहीं लग रहा था. घर की नौकरानी भी छुट्टी पर चली गई. मैं दुखी हो कर बोली, ‘‘अब बरतन भी धोने होंगे.’’

मदन मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘बरतन भी साफ कर लेंगे. तुम निश्ंिचत हो कर आराम करो. फिर नन्हा भी तो अब मदद कर देता है.’’

छुट्टी का दिन था. कमजोरी की वजह से आंखें बंद कर के मैं निढाल सी पड़ी थी. पास ही नन्हा और मदन कालीन पर बैठे थे. अचानक नन्हा बोला, ‘‘पिताजी, घर में मां की क्या जरूरत है?’’

‘‘क्यों, तुम्हारी मां पूरा घर संभालती हैं, तुम्हें कितना प्यार करती हैं, खाना बनाती हैं. अब देखो, हम दोनों से ही घर नहीं संभल रहा.’’

‘‘क्यों, आप खाना बना सकते हैं. मैं सफाई कर सकता हूं, बरतन भी धो सकता हूं. वह काम वाली बाई आ जाएगी तो फिर हमें ज्यादा काम नहीं करना पड़ेगा. हमें मां की क्या जरूरत है फिर?’’

एक पल को मदन चुप रहे. मेरे भीतर हाहाकार सा मच रहा था. मदन ने पूछा, ‘‘नन्हे, तुम मां को प्यार नहीं करते?’’

‘‘मैं आप को ज्यादा प्यार करता हूं.’’

‘‘मां बीमार हैं, तुम्हें बुरा नहीं लगता? मां तुम्हारा कितना खयाल रखती हैं, तुम्हें कितना प्यार करती हैं.’’

‘‘मां मुझे छोटा बच्चा समझती हैं, लेकिन मैं छोटा नहीं हूं. अब मैं बड़ा हो गया हूं,’’ नन्हा लापरवाही से बोला.

मेरी बंद आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे. अंदर ही अंदर कुछ पिघल रहा था.

‘‘तो तुम बड़े हो गए हो, देवाशीष. ये पैसे लो और नुक्कड़ वाली दुकान से डबलरोटी और मक्खन ले कर आओ. हिसाब कागज पर लिखवा कर लाना. बचे पैसे संभाल कर जेब में रखना,’’ मदन ने नन्हे को भेज कर मेरे सिराहने बैठ धीरे से पुकारा, ‘‘आभा, आभा.’’

पर मैं चुप पड़ी रही. मदन ने मेरे चेहरे पर हाथ फेरा, ‘‘अरे, तुम रो रही हो? क्या हुआ?’’

बस, उन के इतना पूछते ही मेरा आंसुओं का दबा सैलाब पूरी तरह बह निकला.

‘‘पगली हो, यों भी कोई रोता है,’’ मदन ने भावुक होते हुए कहा, ‘‘लो, ग्लूकोज का गिलास, एक सांस में खाली कर दो.’’

मैं प्रतिरोध करती रही पर मदन ने गिलास खाली होने पर ही मेरे मुंह से हटाया.

‘‘तुम ने सुना, वह क्या कह रहा था कि मेरी कोई जरूरत नहीं है इस घर में,’’ कहते हुए मेरी आंखें फिर छलकने लगीं.

‘‘तुम भी क्या उस की बात पकड़ कर बैठ गईं. ये उम्र के बदलाव होते हैं,’’ मदन ने सेब काट कर आगे बढ़ाया, ‘‘लो, खाओ और जल्दी से अच्छी हो कर हमें अच्छा सा खाना खिलाओ. यार, मैं तो खिचड़ी, दलिया और नहीं खा सकता, बीमार हो जाऊंगा, तुम खा नहीं रही हो, चाटमसाला छिड़क दूं, स्वाद बदल जाएगा.’’

मदन उठ कर चाटमसाला रसोई से लाए. तभी नन्हा भी अंदर आया. बिलकुल मदन के अंदाज में उस ने सामान मेज पर रखा और जेब से पैसे निकाल कर बिल के साथ मदन को दिए.

मदन ने बिल और पैसे मुझे दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया है. बाजार से अकेले सामान ले कर आया है.’’

‘‘अरे वाह,’’ मेरा मन अंदर से उमड़ रहा था. मैं उस का सिर सहला कर ढेर सा प्यार करना चाहती थी पर मैं ने अपने को रोक लिया. बोली, ‘‘अब तो अच्छा हो गया, जब तुम घर पर नहीं रहोगे, नन्हा मेरा बाजार का काम कर देगा.’’

एक गर्वीली सी मुसकान नन्हे के चेहरे पर खिल उठी.

मदन ट्रे में दूध के 3 गिलास ले कर आए और बोले, ‘‘चलो नन्हे, जल्दी से अपना दूध खत्म करो. फिर हम दोनों मिल कर खाना बनाएंगे.’’नन्हे ने आज्ञाकारी बेटे की तरह गटागट दूध खत्म किया और फिर पिता के संग रसोई में चला गया. उसे जाते देख कर मैं सोच रही थी, ‘अभी पूरे 4 साल का भी नहीं हुआ है पर कितना जिम्मेदार है. आम बच्चों जैसा नहीं है तभी तो इतना अलग है.’

मैं स्वस्थ होते ही घर के कामकाज में पहले की तरह लग गई. इसी बीच नन्हे को फ्लू हो गया. 3-4 दिन में बुखार उतरा. हम दोनों आंगन में धूप सेंक रहे थे. पड़ोस की ज्योति और रमा बुनाई का डिजाइन सीखने आ गईं.

ज्योति अपने घर से बगीचे की मूलियां लेती आई थी. उस ने उन्हें छीला और टुकड़े कर के प्लेट में नमकमिर्च छिड़क कर ले आई. हम तीनों बहुत स्वाद से खा रही थीं. नन्हे का दिल भी खाने के लिए मचल गया. वह बोला, ‘‘मां, मिर्च हटा कर हमें भी दो.’’

मैं बोली, ‘‘नहीं, मुन्ना, अभी तो तुम्हारा बुखार ही उतरा है. कितनी खांसी है, अभी तुम्हें मूली नहीं खानी.’’

नन्हा ललचाया सा देखता रहा. फिर बोला, ‘‘मां, एक टुकड़ा दे दो.’’

‘‘नन्हीं, बेटा, खांसी और बढ़ जाएगी.’’

‘‘नहीं, मां, जरा सा, बस छोटा सा टुकड़ा दे दो,’’ नन्हा मिन्नतें करने पर उतर आया.

मुझे तरस आया. मैं ने पास रखी पानी की बोतल से मूली धो कर उसे दे दी. पर जैसा स्वाद उसे हमें मूली खाते देख कर महसूस हो रहा था शायद वैसा स्वाद उसे नहीं आया.

फिर भी मूली का टुकड़ा खत्म कर के अनमना सा खड़ा रहा, ‘‘आप ने हमें मूली खाने को क्यों दी?’’

ज्योति उस की नकल करती बोली, ‘‘हमें मूली खाने को क्यों दी? अभी गिड़गिड़ा कर मंगते से मांग रहे थे इसीलिए दी.’’

नन्हा नाराजगी से मुझे देखता हुआ बोला, ‘‘हम तो छोटे बच्चे हैं, आप तो बड़ी हैं. आप को पता है न, बच्चों की बात नहीं मानते. मैं पिताजी को बताऊंगा कि मुझे खांसी है फिर भी आप ने मुझे मूली खाने को दी.’’

‘‘क्या मैं ने अपनी मरजी से दी थी?’’ मैं हैरान सी नन्हे को देख रही थी, ‘‘तू किस तरह गिड़गिड़ा कर मांग रहा था.’’

‘‘मांगने से क्या होता है… आप देती नहीं तो मैं खाता कैसे? अब खांसी होगी तो मैं पिताजी को बता दूंगा, आप ने मुझे मूली दी थी इसी से खांसी बढ़ी,’’ वह अडि़यल घोड़े सा अड़ा था.

रमा ने उस का कान धीमे से पकड़ा, ‘‘तुम्हारे जैसे बच्चे की तो पिटाई होनी चाहिए, समझे? आने दो भैया को, मैं उन्हें बताऊंगी कि तुम भाभी को कितना तंग करते हो.’’

नन्हे ने अपना कान छुड़ाया और आंगन में उड़ आई तितली के पीछे भाग गया.

रमा मुझ से बोली, ‘‘सच भाभी, मैं ने ऐसा दूसरा बच्चा कहीं नहीं देखा. तुम्हें तो यह किसी गिनती में नहीं गिनता.’’

मैं मन ही मन सोच रही थी कि बेटा है तो क्या हुआ, है तो मेरा दुश्मन. नन्हा सा, प्यारा दुश्मन.

पुनर्मिलन- भाग 3: क्या हो पाई प्रणति और अमजद की शादी

कुछ देर पहले तक वह मातापिता की लाडली बेटी थी, जिस ने उन के हर सपने को पूरा कर के समाज में मान प्राप्त करने का अधिकारी बनाया था पर अब वह लाडली एक अनाथ सी बच्ची थी जिस की भावनाओं को समझने वाला, उस की आंखों से बहती अविरल अंश्रुधारा को पोंछने वाला कोई नहीं था. महज इसलिए कि वह एक विधर्मी से प्यार करने की गलती कर बैठी.

यह क्या वह तो आज तक अपने मातापिता को बड़ा ही आधुनिक और उदारवादी समझती थी जो अपनी बेटी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे पर आज तो उस के सामने अपने मातापिता का बेहद दकियानूसी और तानाशाही रूप सामने आया था जिन के लिए बेटी और उस की भावनाओं के स्थान पर केवल समाज और झठे दिखावे की चिंता थी. रोतेरोते उसे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला.

कर्नल सिंह और उन की पत्नी रीमा को प्रणति बहुत पसंद आई, परंतु बात जन्मकुंडली पर आ कर अटक गई. कर्नल और प्रणति के पापा दोनों ही घोर अंधविश्वासी थे और उन के खानदानी पंडित के अनुसार कुंडली में मंगल दोष

होने से दोनों का विवाह होना

संभव नहीं था सो बात बनतेबनते रह गई. प्रणति की खुशी का ठिकाना न रहा परंतु अमजद से उस के प्यार के खुलासे के बाद अब घर में उस की स्थिति अपराधी जैसी हो गई थी. उस पर अनेक पहरे बैठा दिए गए थे.

एक सप्ताह बाद डाइनिंगटेबल पर खाना खाते समय पापा उस से बोले, ‘‘सौरी बेटा मैं मानता हूं उस दिन मुझे क्रोध आ गया था पर तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने तुम्हें बड़े नाजों और लाड से पाला है, सदैव तुम्हारी हर इच्छा का मान रखा है. एक बार को तुम्हारी पसंद का कोई हिंदू होता तो फिर भी मैं सोचता पर यह मुसलमान… नहीं बेटा बस अमजद से विवाह की जिद छोड़ दो. यह करना हमारे वश में ही नहीं है. आखिर हम समाज के इज्जतदार प्राणी हैं.’’

‘‘पर पापा वह कुंडली में दोष है न,’’ प्रणति ने बात को टालने की गरज से कहा.

उसी के निवारण के लिए कल हम लोग उज्जैन जा रहे हैं. कर्नल सिंह का फोन आया था कि वहां पर एक बहुत पहुंचे हुए पंडित हैं वे कुंडलीदोष को पूरी तरह से निष्प्रभावी कर देते हैं वे लोग भी वहां पहुचेंगे, इसलिए तुम कल की तैयारी कर लो,’’ पापा ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘‘पापा, मम्मा प्लीज मेरी भावनाओं को सम?िए मैं अमजद से प्यार करती हूं, अपने घर में आप लोग हर मामले में इतने उदारवादी थे कि अमजद से मिलते समय मुझे कभी नहीं लगा कि मुझे उस से विवाह में कभी कोई समस्या आएगी पर आप लोंगों को अपनी बेटी से ज्यादा इस समाज में अपने सम्मान से प्यार है. मैं नहीं करना चाहती यह विवाह पापा प्लीज ऐसा मत करिए. मुझे जबरदस्ती इस बंधन में मत बांधिए.’’

‘‘तुम्हें मैं ने अच्छी तरह से समझ दिया कि यह हमारे वश में नहीं है, इसलिए बंद करो यह रोनाधोना, कल की तैयारी करो, आजकल के बच्चों की यही तो समस्या है कि जरा सी छूट दो तो आसमान में उड़ना शुरू कर देते हैं. मैं पूछता हूं तुम कालेज पढ़ाई करने जाती थीं कि नैनमटक्का करने. इतने सालों में कमाई इज्जत को यों मिट्टी में मिला दूं बस इसलिए कि मेरी इकलौती बेटी एक मुसलमान को चाहती है,’’ पापा गुस्से में पैर पटकते हुए अंदर चले गए.

मां ने आ कर उसे चुप कराया और बोलीं, ‘‘बेटा, हमारा समाज बहुत कट्टर है. यहां तो

दूसरी जाति के विवाह पर ही उंगली उठाई जाती है तू तो दूसरे धर्म की बात कर रही है. हम क्षत्रियों में आज भी पुराने समय के अनुसार बाकायदा गुणदोष देख कर ही शादियां की जातीं हैं बेहतर यही है कि तू अपने प्यार को भूल जा और अपने पापा की बात मान कर विवाह कर ले. मयंक बहुत अच्छा जानापहचाना लड़का है… नई शुरुआत होगी तो पुरानी बातें अपनेआप धूमिल हो जाएंगी.’’

‘‘मां आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि आप लोगों ने मेरे मन की न सुनी हो. हां हर जगह सहीगलत का फर्क अवश्य समझया पर कभी ऐसी तानाशाही नहीं दिखाई पर क्या अब आप के लिए अपनी बेटी के जीवन और उस की भावनाओं का कोई मूल्य नहीं मां… क्यों,’’ प्रणति फूटफूट कर रोते हुए बोली.

‘‘बेटा, मैं मानती हूं आज जमाना बहुत आगे बढ़ गया है. अंतर्जातीय विवाह के लिए तो फिर भी हम खुद को तैयार कर लेते परंतु यह मुसलमान से शादी को तो मन नहीं मानता. सैलिब्रिटीज की बात छोड़ दे हम साधारण लोगों में तो यह मान्य नहीं हो सकता. तुझे शायद पता नहीं इस विवाह के होने से हमारी आज तक की बनीबनाई साख मिट्टी में मिल जाएगी. अपने ही समाज में निकलने लायक नहीं रह जाएंगे हम. बेटा हम सब की खातिर अपने पापा के लिए एक बुरा सपना समझ कर भूल जा अपने प्यार को और आगे बढ़.’’

‘मां ठीक है इतना सब होने के बाद मुझे यह तो समझ आ गया है कि आप का यह समाज आप के लिए अपनी बेटी की भावनाओं से अधिक महत्त्व रखता है पर आज मैं आप से पूछना चाहती हूं कि जब आप के विवाह के 7 साल बाद तक कोई संतान नहीं हुई थी तब इसी समाज ने आप को बांझ के आरोपों से क्यों नवाजा था? जब दादी के निधन पर हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी क्योंकि पापा ने उन के इलाज में अपना सारा पैसा लगा दिया था तब यह समाज हमारी आर्थिक सहायता करने क्यों नहीं आया? जबजब हम भूखे होते हैं तब आप का यह तथाकथित समाज हमें रोटी देने क्यों नहीं आता मां?

मां अमजद के अलावा किसी और से विवाह नहीं कर सकती… मैं जानबूझ कर किसी की जिंदगी बरबाद नहीं करना चाहती,’ सोचतेसोचते न जाने कब उस की आंखों से आंसू बह निकले. विचारों का प्रवाह ऐसा बह निकला था कि उसे पता ही नहीं चला कि कब 11 बज गए. कौलबैल की आवाज सुन कर वह दरवाजे की ओर दौड़ी तो सामने कांताबाई खड़ी थी उसे देखते ही बोली, ‘‘क्या हुआ दीदी आंखों में आंसू क्यों हैं और मैं इतनी देर से दरवाजा खटखटा रही हूं खोली नहीं… तो मैं एकदम से घबरा गई रे बाबा.’’

कांताबाई के बोलने के तरीके ने प्रणति के चेहरे पर हंसी ला दी और वह खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘अरे कुछ नहीं बस कुछ पुरानी बातें याद आ गई थीं. चल अब तू फटाफट काम निबटा तब तक मैं नहा कर आती हूं फिर दोनों मिल कर चाय पीएंगे,’’ कह कर प्रणति बाथरूम में घुस गई.

नहाते समय भी मन की गति फिर उन्हीं दिनों के गलियारे में जा पहुंची…

अमजद के अलावा किसी और से विवाह न करने की बात को मां ने शायद उतनी तवज्जो नहीं दी थी और अगले दिन पूरे लावलश्कर के साथ प्रणति के पापा भोपाल से और कर्नल सिंह अपने परिवार सहित इंदौर से उज्जैन पहंचे. पूरे दिन चले उबाउ कार्यक्रम के बाद पंडितजी ने मोटी धनराशि दक्षिणा में वसूली और फिर बोले, ‘‘महापूजा और ब्रह्मण भोज के बाद आप की समस्या पूरी तरह समाप्त हो गई है. अब आप इन का विवाह कभी भी संपन्न करा सकते हैं.’’

उन के इतना कहते ही कर्नल और पापा दोनों गले मिल कर एकदूसरे को बधाइयां देने लगे. पापा की खुशी का ठिकाना न था. आखिर उन की बेटी ने पिता की भावनाओं की कद्र कर के अपनी भावनाओं की तिलांजलि जो दे दी थी. आश्चर्य इस बात का था कि मेजर मयंक सिंह इस पूरे समय एकदम शांत थे मानो उन्हें इस सब से कोई मतलब ही न हो. प्रणति ने कई बार मयंक से बात करने की भी कोशिश की पर असफलता ही हाथ लगी. इस दौरान अमजद से बात करने की भी कोशिश की परंतु उस का फोन स्विच्ड औफ ही जाता रहा.

10 दिन बाद का ही विवाह का मुहूर्त था सो ज्यादा कुछ कर ही नहीं पाई वह. शुभ मुहूर्त में बड़ी धूमधाम के साथ मेजर मयंक और प्रणति का विवाह संपन्न हो गया पापा ने अपनी सारी जमापूंजी इकलौती बेटी के विवाह में लगा कर समाज में अपनी धाक जमा ली. पूरे समाज में उन की वाहवाही हुई जिसे सुन कर पापा की गर्व से छाती चौड़ी हो गई पर उस के मन में इस विवाह के लिए न कोई उमंग थी और न ही कोई तरंग. वह मंडप में थी तो केवल अपने मातापिता के लिए. अपने फोन की सिम बदल कर उस ने सिम की ही भांति अपने दिल से अहमद को भी निकाल फेंकने की बहुत असफल कोशिश की पर सिम एक बेजान वस्तु है जीतेजागते इंसान को यों भुला पाना आसान नहीं होता पर अब अपने जज्बातों पर काबू कर के संयम रखना अब उस की मजबूरी थी.

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पहली पांत: क्यों हो रही थी तनुज की दूसरी शादी

खुशियों से भरे दिन थे वे. उत्साह से भरे दिन. सजसंवर कर  रहने के दिन. प्रियजनों से मिलनेमिलाने के दिन. मुझ से 4 बरस छोटे मेरे भाई तनुज का विवाह था उस सप्ताह.

यों तो यह उस का दूसरा विवाह था पर उस के पहले विवाह को याद ही कौन कर रहा था. कुछ वर्ष पूर्व जब तनुज एक कोर्स करने के लिए इंगलैंड गया तो वहीं अपनी एक सहपाठिन से विवाह भी कर लिया. मम्मीपापा को यह विवाह मन मार कर स्वीकार करना पड़ा क्योंकि और कोई विकल्प ही नहीं था परंतु अपने एकमात्र बेटे का धूमधाम से विवाह करने की उन की तमन्ना अधूरी रह गई.

मात्र 1 वर्ष ही चला वह विवाह. कोर्स पूरा कर लौटते समय उस युवती ने भारत आ कर बसने के लिए एकदम इनकार कर दिया जबकि तनुज के अनुसार, उस ने विवाह से पूर्व ही स्पष्ट कर दिया था कि उसे भारत लौटना है. शायद उस लड़की को यह विश्वास था कि वह किसी तरह तनुज को वहीं बस जाने के लिए मना लेगी. तनुज को वहीं पर नौकरी मिल रही थी और फिर अनेक भारतीयों को उस ने ऐसा करते देखा भी था. या फिर कौन जाने तनुज ने यह बात पहले स्पष्ट की भी थी या नहीं.

बहरहाल, विवाह और तलाक की बात बता देने के बावजूद उस के लिए वधू ढूंढ़ने में जरा भी दिक्कत नहीं आई. मां ने इस बार अपने सब अरमान पूरे कर डाले. सगाई, मेहंदी, विवाह, रिसैप्शन सबकुछ. सप्ताहभर चलते रहे कार्यक्रम. मैं भी अपने अति व्यस्त जीवन से 10 दिन की छुट्टी ले कर आ गई थी. पति अनमोल को 4 दिन की छुट्टी मिल पाई तो हम उसी में खुश थे. बच्चों की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. मौजमस्ती के अलावा उन्हें दिनभर के लिए मम्मीपापा का साथ भी मिल रहा था.

इंदौर में बीते खुशहाल बचपन की ढेर सारी यादें मेरे साथ जुड़ी हैं. बहुत धनवैभव न होने पर भी हमारा घर सब सुविधाओं से परिपूर्ण था. आज के मानदंड के अनुसार, चाहे मां बहुत पढ़ीलिखी नहीं थीं परंतु अत्यंत जागरूक और समय के अनुसार चलने वालों में से थीं. उन की इच्छा थी कि हम दोनों बहनभाई खूब पढ़लिख जाएं और इस के लिए वे हमें खूब प्रेरित करतीं.

स्नेह और पैसे की कमी नहीं रही हमें. शिक्षा, संस्कार सबकुछ पाया. घर का अधिकांश कार्यभार सरस्वती अम्मा संभालती थीं. पीछे से वे अच्छे घर की थीं. विपदा आन पड़ने पर काम करने को मजबूर हो गई थीं. अपाहिज हो गया पति कमा कर तो क्या लाता, पत्नी पर ही बोझ बन गया था.

सरस्वती अम्मा घरों में खाना बनाने का काम करने लगीं. हमारा गैराज खाली पड़ा था. मां के कहने पर उसी में सरस्वती अम्मा ने अपनी गृहस्थी बसा ली. एक किनारे पति चारपाई पर पड़ा रहता. अम्मा बीचबीच में जा कर उस की देखरेख कर आतीं. शेष समय हमारे घर का कामकाज देखतीं. अच्छे परिवार से थीं, साफसुथरी और समझदार. खाना मन लगा कर बनातीं. प्यार से बनाए भोजन का स्वाद ही अलग होता है. मां ने उन के दोनों बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी ले ली थी. स्कूल से लौटने पर वे उन्हें पास बिठा होमवर्क भी करा देतीं. बेटा 12वीं पास कर डाकिया बन गया. बिटिया राधा का 15 वर्ष की आयु में ही विवाह कर दिया. मां ने नाबालिग लड़की का विवाह करने से बहुत रोका किंतु परंपराओं में जकड़ी सरस्वती अम्मा के लिए ऐसा करना संभव नहीं था. उन के अनुसार अभी राधा का विवाह न करने पर वह जीवनभर कुंआरी रह जाएगी. लेकिन 1 वर्ष बाद ही कारखाने में हुई एक दुर्घटना में राधा के पति की मृत्यु हो गई. उसे मुआवजा तो मिला पर सब से बड़ी पूंजी खो दी उस ने. मां ने उस के पुनर्विवाह के लिए कहा. परंतु सरस्वती अम्मा के हिसाब से उन की बिरादरी में यह कतई संभव नहीं था.

इसी बीच मेरा भी विवाह हो गया. मैं ने कौर्पोरेट ला की पढ़ाई की थी और अपना कैरियर बनाना मेरे जीवन का सपना था. विदेशी कंपनी में एक अच्छी नौकरी मिली हुई थी मुझे. विवाह के बाद 2 वर्ष तक तो सब ठीक चलता रहा पर जब मां बनने की संभावना नजर आई तो चिंता होने लगी. कैरियर बनाने के चक्कर में पहले ही उम्र बढ़ चुकी थी एवं मातृत्व को और टाला नहीं जा सकता था.

शिशु जन्म के समय मां के पास इंदौर गई थी. अस्पताल से जब मैं नन्हे शिव को ले कर घर आई तो सरस्वती अम्मा ने एक सुझाव रखा, ‘क्यों न मैं राधा को अपने साथ ले जाऊं.’ उसे एक विश्वसनीय घर में रख कर वे निश्ंिचत हो जाएंगी. मेरी तो एक बड़ी समस्या हल हो गई, मन की मुराद पूरी हो गई. राधा को मैं बचपन से ही जानती आई थी. छोटी लड़कियों के अनेक खेल हम ने मिल कर खेले थे. वह मुझे बड़ी बहन का सा ही सम्मान देती थी. उस ने पहले शिव और 2 ही वर्ष बाद आई रिया की बहुत अच्छी तरह से देखभाल की और बच्चे भी उसे प्यार से मौसी कह कर बुलाते थे.

अनमोल जब घर पर होते तो यथासंभव हर काम में सहायता करते किंतु वे घर पर रहते ही बहुत कम थे. उन्हें दफ्तर के काम से अकसर इधरउधर जाना पड़ता और जब विदेश जाते तो महीनों बाद ही लौटते. यों अपने कैरियर के साथसाथ बच्चों को पालने और घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर ही थी. राधा की सहायता के बिना मेरा एक दिन भी नहीं चल सकता था. बच्चों के बड़े हो जाने के बाद भी मुझे उस की जरूरत रहने वाली थी.

मैं उस की सुविधा का पूरा खयाल रखती थी. घर के एक सदस्य की तरह ही थी वह. यों वह रात को बच्चों के कमरे में ही सोती किंतु घर के पिछवाड़े उस का अपना एक अलग कमरा भी था.

तनुज के ब्याह के लिए मैं ने अपने परिवार वालों के साथसाथ राधा के लिए भी नए कपड़े बनवाए थे. पर ऐन वक्त उस ने इंदौर जाने से इनकार कर दिया जोकि मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. अभी कुछ दिन पहले तक तो वह विवाह में गाए जाने वाले गीतों का जोरशोर से अभ्यास कर रही थी. वह जिंदादिल और मौजमस्ती पसंद लड़की थी. किसी भी तीजत्योहार पर उस का जोश देखते ही बनता था. अपने मातापिता से मिलने के लिए वह अकसर अवसर का इंतजार किया करती थी. पर इस बार न तो मांबाप से मिलने का मोह और न ही ब्याह की मौजमस्ती ही उसे लुभा पाई.

तनुज का विवाह बहुत धूमधाम से हो गया. हम ने भी 10 दिन खूब मस्ती की. लौट कर भी कुछ दिन उसी माहौल में खोए रहे, वहीं की बातें दोहराते रहे. राधा ने ही घर संभाले रखा. 2-3 दिन बाद जब मेरी थकान कुछ उतरी और राधा की ओर ध्यान गया तो मुझे लगा कि वह आजकल बहुत उदास रहती है. काम तो पूरे निबटा रही है किंतु उस का ध्यान कहीं और होता है. बात सुन कर भी नहीं सुनती. मांबाप की खोजखबर लेने को उत्सुक नहीं. विवाह की बातें सुनने को उत्साहित नहीं. पर बहुत पूछने पर भी उस ने कोई कारण नहीं बताया.

मैं ने काम पर जाना शुरू कर दिया था. यह चिंता नहीं थी कि मेरी अनुपस्थिति में बच्चों की देखभाल ठीक से नहीं होगी पर उस के मन में कुछ उदासी जरूर थी जो मैं महसूस कर सकती थी परंतु हल कैसे खोजती जब मैं कारण ही नहीं जानती थी.

इतवार के दिन मेरी पड़ोसिन ने मुझे अपने घर पर बुला कर बताया कि हमारी अनुपस्थिति में एक युवक दिनरात राधा के संग उस की कोठरी में रहा था.

मैं ने मां को फोन कर के पूरी बात बताई.

मां ने शांतिपूर्वक पूरी बात सुनी और फिर उतनी ही शांति से पूछा, ‘‘पर तुम उस पर इतनी क्रोधित क्यों हो रही हो? ऐसा कौन सा कुसूर कर दिया है उस ने?’’

‘‘एक परपुरुष से संबंध बनाना अनैतिक नहीं है क्या? हमें तो आप कड़े अनुशासन में रखती थीं?’’

‘‘तो इस में दोष किस का है? राधा के पति की असमय मृत्यु हो गई, यह उस का दोष तो नहीं? फिर इस बात की सजा इस लड़की को क्यों दी जा रही है? 16 वर्ष की आयु में उसे मन मार कर जीवन जीने को बाध्य कर दिया. उस के जीवन के सब रंग छीन लिए…’’

‘‘पर मां, वह विधवा हो गई, इस में हम क्या कर सकते हैं?’’

‘‘क्यों? उसे जीने का हक नहीं दिला सकते क्या? तनुज का दोबारा विवाह हुआ है न? तुम्हारे भाई के तलाक में कुछ गलती तो उस की भी रही ही होगी पर राधा के विधवा होने के लिए उसे क्यों दंडित किया जा रहा है? उस ने तो नहीं मारा न अपने पति को? यह तय कर दिया गया कि वह दूसरा विवाह नहीं करेगी. उस की जिंदगी का इतना अहम फैसला लेने से पहले क्या किसी ने उस से एक बार भी पूछा कि वह क्या चाहती है? हो सकता है उस में ताउम्र अकेली रहने की हिम्मत न हो और वह फिर से विवाह करने की इच्छुक हो. जिस पुरुष के साथ वह 1 वर्ष ही रह पाई वह भी तमाम बंदिशों के बीच, उस के साथ उस का लगाव कितना हो पाया होगा? और अब तो उस की मृत्यु को भी इतने वर्ष बीत चुके हैं.’’

‘‘मां, मुझे उस पर दया आती है पर उन लोगों के जो नियम हैं, हम उन्हें तो नहीं बदल सकते न.’’

‘‘पर ये कानून बनाए किस ने हैं? समाज द्वारा स्थापित नियमकायदे समाज नहीं बदलेगा तो कौन बदलेगा? और हम भी इसी का ही हिस्सा हैं.

‘‘तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारी सुखी गृहस्थी देख कर उस की कभी इच्छा नहीं होती होगी कि उस का भी कोई साथी हो, जिस से वह मन की बात कह सके, अपने दुखसुख बांट सके. अपने बच्चे हों. यदि वह तुम्हारे बच्चे से इतना स्नेह करती है तो उसे अपने बच्चों की कितनी साध होगी, कभी सोचा तुम ने?

‘‘अपने भविष्य पर निगाह डालने पर क्या देखती होगी वह? एक अनंत रेगिस्तान. बिना एक भी वृक्ष की छाया के. मांबाप आज हैं, कल नहीं रहेंगे. भाई अपनी गृहस्थी में रमा है. सरस्वती की बिरादरी वाले जो राधा के पुनर्विवाह के विरुद्ध हैं, एक पुरुष के विधुर होने पर चट से उस का दूसरा विवाह कर देते हैं. तब वे कहते हैं कि बेचारे के बच्चे कौन पालेगा? स्त्री के विधवा होने पर उन की यह दयामाया कहां चली जाती है? यों हम कहते हैं कि स्त्री अबला है. सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक रूप से उसे पुरुष पर आश्रित बना कर रखते हैं किंतु विधवा होते ही उस से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अकेली ही इस जहान से लड़े. एक ऐसे समाज में जिस के हर वर्ग में भेडि़ए उसे नोच डालने को खुलेआम घूम रहे हैं.’’

दिनभर तो काम में व्यस्त रही पर दफ्तर जाते और लौटते हुए मां की बातें मस्तिष्क में घूमती रहीं. मैं ने सिर्फ किताबी ज्ञान ही अर्जित किया था. मां ने खुली आंखों से दुनिया को जिया था, देखा और समझा था. मैं अपने ही घर में रहती राधा का दर्द नहीं समझ पाई. कहने को मैं उसे घर का सदस्य समान ही समझती थी. उस से भरपूर प्यार करती थी. मैं ने उस पर थोपे निर्णय को सिर झुका कर स्वीकार कर लिया था. जबकि मां उस के प्रति हुए अन्याय के प्रति पूर्ण जागरूक थीं.

मुझे मां की बातों में सचाई नजर आने लगी. सांझ ढलने तक मैं ने मन ही मन निर्णय ले लिया था और यही बताने के लिए दिनभर का काम समेट रात को मैं ने मां को फोन किया.

‘‘तुम उस लड़के से बात करो. उस की नौकरी, चरित्र इत्यादि के बारे में पूरी पड़ताल करो और यदि तुम्हें लगे कि लड़का सिर्फ मौजमस्ती के लिए राधा का इस्तेमाल नहीं कर रहा और इस रिश्ते को ले कर गंभीर है तो सरस्वती को मनवाने का जिम्मा मेरा,’’ मां के स्वर में आत्मविश्वास की झलक स्पष्ट थी.

मैं ने जब राधा के सामने बात छेड़ी तो उस ने रोना शुरू कर दिया. बहुत देर के बाद उस ने मन की बात मुझ से कही.

रौशन हमारे घर से थोड़ी दूर किसी का ड्राइवर था. उसे राधा के विधवा होने के बारे में मालूम था फिर भी वह उस से विवाह करने को तैयार था. पर राधा को डर था कि उस की मां इस विवाह के लिए कभी राजी नहीं होंगी. एक तो वे अपनी बिरादरी से बहुत डरती थीं, दूसरे, रौशन उन से भिन्न जाति का था. राधा की परेशानी यह थी कि यदि उस ने मांबाप की इच्छा के विरुद्ध शादी कर ली तो वह सदैव के लिए उन से कट जाएगी. एक तरफ उस की तमाम जीवन की खुशियां थीं तो दूसरी तरफ मांबाप का प्यार. इसी बात को ले कर वह उदास थी. उस ने अब तक अपने मन की बात मुझ से कहने की हिम्मत नहीं की थी तो इस में मेरा ही कुछ दोष रहा होगा.

मैं ने रौशन के पिता को बात करने के लिए बुलाया. रौशन ने पहले से ही उन्हें राजी कर रखा था. सारी पड़ताल करने के बाद मैं ने मां के आगे एक सुझाव रखा, ‘‘सरस्वती अम्मा यदि विवाह के लिए राजी हो जाती हैं तो आप उन्हें ले कर यहां आ जाइए और राधा का विवाह चुपचाप यहीं करवा देते हैं. उस की बिरादरी वालों को पता ही नहीं चलेगा.’’

मेरी कम पढ़ीलिखी मां की सोच बहुत आगे तक की थी. उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘नहीं, शादी यहीं से होगी और खुलेआम होगी ताकि उस जैसी अन्य राधाओं के आगे एक उदाहरण रखा जा सके. हम कुछ गलत नहीं कर रहे कि छिपा कर करें. मुझे इस युवक से मिल कर खुशी होगी जो यह जानते हुए भी कि राधा विधवा है, उस से विवाह करने को कटिबद्ध है. रौशन के जो भी परिजन विवाह में शामिल होना चाहें, उन का स्वागत है.’’

‘‘सरस्वती अम्मा को तो तुम मना लोगी मां, पर यदि उस की जातिबिरादरी वालों ने कोई बखेड़ा खड़ा कर दिया तो?’’ मैं अब भी हिम्मत नहीं कर पा रही थी शायद.

‘‘सेना जब युद्ध के मैदान में आगे बढ़ती है तो उस की पहली पांत को ही सर्वाधिक गोलियों का सामना करना पड़ता है. पर इस का अर्थ यह तो नहीं कि कोई आगे बढ़ने से इनकार कर देता हो. इसी तरह स्थापित किंतु अन्यायपूर्ण परंपराओं के विरुद्ध जो सब से पहले आवाज उठाता है उसे ही कड़े विरोध का सामना करना पड़ता है. फिर धीरेधीरे वही रीति स्वीकार्य हो जाती है. पर किसी को तो शुरुआत करनी ही पड़ेगी न.

‘‘पहली पांत ही यदि साहस नहीं करेगी तो समाज आगे बढ़ेगा कैसे? हमारे समय में पढ़ेलिखे घरों में भी विधवा विवाह नहीं होता था. बहुत सरल, चाहे अब भी न हो किंतु वर्जित भी नहीं रहा. विडंबना यह है कि अभी भी हमारे समाज के कई वर्ग ऐसे हैं जहां विधवा की दोबारा शादी नहीं हो पाती. शायद अकेली सरस्वती यह कदम उठाने की हिम्मत न जुटा पाए परंतु यदि हम उस का साथ देते हैं तो उस की शक्ति दोगुनी हो जाएगी.’’

मैं इंदौर जा रही हूं. इस बार राधा को संग ले कर. जा कर इस के विवाह की तैयारी भी करनी है. आज से ठीक 5वें दिन रौशन आएगा इसे ब्याहने, पूरे विधिविधान के साथ.

पुनर्मिलन- भाग 2: क्या हो पाई प्रणति और अमजद की शादी

‘‘10 साल पहले जो यूएस एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में गया तो अब वापस आया हूं. घर में पहले भी मेरा ही राज रहता था और अभी भी मेरा ही है. फिलहाल 4 साल के लंबे प्रोजैक्ट पर इंडिया में ही हूं. 4 साल बाद देखा जाएगा कहां क्या करना है,’’ उत्तर देते हुए अमजद ने बड़ी सफाई से अपने परिवार के सदस्यों की बात को गोल कर दिया.

तभी बैरा आ कर कौफी रख गया. कौफी पीतेपीते दोनों कालेज के दिनों की मीठी

यादों में मानो खो से गए. उस समय की बातों

को याद कर के कितनी ही देर तक दोनों हंसते रहे. बातें करतेकरते कब 11 बज गए पता ही

नहीं चला.

जैसे ही प्रणति ने घड़ी देखी तो चौंक गई, ‘‘ओह इतना टाइम हो गया. अब मैं चलती हूं.’’

‘‘अभी भी तुम समय देख कर घबरा जाती हो. क्या आज भी पहले की तरह तुम्हें अधिक समय हो जाने पर घर में डांट पड़ती है?’’

‘‘अरे पगले घर में बैठा कौन है जो मुझे डांटेगा,’’ प्रणति हंसते हुए बोली.

‘‘यदि तुम चाहो तो हम आगे भी मिल सकते हैं,’’ अमजद ने कुछ हिचकते हुए कहा.

‘‘कल संडे है तो थोड़ा बिजी रहूंगी घर के कामों में, परसों मिलते हैं.’’

‘‘ठीक है मंडे इसी समय इसी जगह,’’ कह कर वह कार स्टार्ट कर के घर आ गई. घर आ कर भी उस के कानों में अमजद की बातें ही गूंजती रहीं. पहली बार उसे इतनी गहरी नींद आई कि रात की सोई आंख दूध वाले के द्वारा बजाई घंटी से सुबह 8 बजे ही खुली. दूध फ्रिज में रख कर वह खिड़की के परदे हटा हाथ में चाय का कप ले कर खिड़की से सटे सोफे पर आ बैठी. परदे से छन कर आ रही धूप ने चाय का मजा दोगुना कर दिया था. चाय पीतेपीते उसे अमजद से अपनी पहली मुलाकात याद आ गई…

उस दिन उस के कालेज का पहला दिन था. खाली पीरियड होने के कारण वह लाइब्रेरी में जा बैठी थी. वह एक अंगरेजी नौवेल में डूबी थी कि तभी उस के कानों में कोई पुरुष स्वर पड़ा, ‘‘मेम इफ यू हैव एन ऐक्स्ट्रा पैन दे न प्लीज गिव मी.’’

‘‘यस प्लीज,’’ कह कर उस ने एक पैन उस की ओर बढ़ा दिया. उस के बाद तो कालेज में मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता ही गया. अमजद उस की ही विधा का 1 साल सीनियर छात्र था और नोट्स के आदानप्रदान से प्रारंभ हुआ यह सिलसिला कब प्यार में बदल गया. दोनों को ही पता नहीं चला. स्नातकोत्तर करने के बाद इंदौर में ही रह कर अमजद ने बैंकिंग की तैयारी की और प्रथम प्रयास में ही बैंक की परीक्षा पास कर के अधिकारी बन गया. वहीं प्रणति के मातापिता का सपना उसे एक पीसीएस अधिकारी बनाने का था सो अपने मातापिता का सपना पूरा करने के लिए वह पीसीएस की तैयारी में जुट गई.

आश्चर्यजनक रूप से उसे भी प्रथम प्रयास में ही वह म.प्र. लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर के पंचायत विभाग में डिप्टी डाइरैक्टर बन गई. मातापिता के साथसाथ उस की खुशी का भी कोई ठिकाना नहीं था. रिजल्ट आने के बाद अपनी सफलता की सूचना सर्वप्रथम उस ने अमजद को कालेज के पास ही एक पार्क में मिल कर दी थी.

उस की सफलता पर खुश होते हुए अमजद बोला था, ‘‘कौंग्रेट्स माई लव, यदि आप की इजाजत हो तो यह बंदा कुछ अर्ज करना चाहता है.’’

‘‘इजाजत है, इजाजत है.’’

‘‘अब जबकि हम दोनों ही सैटल हो गए हैं तो क्या आप हमारी शरीके हयात बनना पसंद करेंगी?’’ अमजद ने पास ही लगे एक सुर्ख गुलाब को तोड़ कर उस की ओर बढाते हुए कहा.

अमजद के इस नायाब और खूबसूरत प्रपोज करने के तरीके से वह शरमा गई और फिर खुश होते हुए बोली, ‘‘हां हमें मंजूर है.’’

फिर अमजद ने कुछ गंभीर स्वर में कहा, ‘‘तुम्हें क्या लगता है तुम्हारे मातापिता इस विवाह के लिए तैयार होंगें क्योंकि आज भारतीय समाज ने काफी लंबे समय के बाद विवशतावश अंतर्जातीय विवाह को तो स्वीकार कर लिया है परंतु हमारा विवाह अंतर्धमीय है जिसे आज राजनीति में लव जिहाद की संज्ञा दी जाती है और जिस के लिए हमारी सरकारों ने कानून बना रखे हैं. दरअसल, जब बात हिंदूमुसलमान की आती है तो लोंगों को प्रेम जैसी पवित्र भावना में भी धर्म की बू आने लगती है, जबकि दुनिया के प्रत्येक धर्म में प्यार को एक पवित्र भावना ही माना गया है और प्यार कभी जातिधर्म को देख कर नहीं किया जाता बल्कि स्वत: हो जाता है और 2 प्रेमियों की इस पवित्र भावना के बीच सरकार और कानून का क्या काम? तुम्हारे मातापिता इस बारे में क्या सोचते हैं यह तो मुझे नहीं पता पर वे हमें सहज रूप से स्वीकार करेंगें इस में संदेह अवश्य है.’’

‘‘अरे नहीं अमजद मेरे मातापिता काफी उदार विचारों वाले हैं. उन्होनें आज तक मेरी किसी बात को टाला नहीं हैं. मुझे नौकरी करने और अपने तरीके से जीने की पूरी आजादी दी है. मेरे पिताजी एक सरकारी अधिकारी के पद से रिटायर हैं और नौकरी के दौरान कई जगहों पर आनेजाने से वे काफी खुले विचारों वाले हैं. मां भी कालेज में प्रोफैसर और बहुत आधुनिक खयाल वाली हैं. अपनी इकलौती बेटी की भावनाओं की उन्होंने हमेशा कद्र की है, इसलिए मुझे उन की सोच पर पूरा विश्वास है,’’ प्रणति ने अपने मातापिता की ओर से आश्वस्त होते हुए कहा.

‘‘मेरे परिवार में हम 2 भाईबहन ही हैं. दीदी ने भी अपनी पसंद से ही विवाह किया है तो शायद मुझे कोई परेशानी नहीं होगी फिर मेरे मातापिता बहुत अधिक सीधेसादे और उदार हैं. वे मेरे मातापिता कम दोस्त अधिक हैं… उन्हें मैं पहले भी कई बार तुम्हारे बारे में बता चुका हूं,’’ अमजद ने खुश होते हुए कहा.

उस दिन दोनों पार्क की बैंच पर एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले घंटों भविष्य के सुनहरे सपने बुनते रहे. उस की सफलता की खुशी में पापा ने अपने करीबी दोस्तों और रिश्तेदारों की एक पार्टी रखी थी. जब पार्टी के सभी लोग चले गए तो मम्मीपापा खुश होते हुए उस के पास आए और पापा उस के सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘‘बेटा हमें तुम पर बहुत गर्व है… तुम ने हमें समाज में वह मान दिलाया जो आजकल के लड़के भी नहीं दिला पाते. बस अब तुम्हारे हाथ पीले करने की ही बारी है.’’

‘‘पापा वह मैं…’’ कह कर उस ने भी अमजद के बारे में मम्मीपापा को बताना चाहा पर तभी पापा बोले, ‘‘अरे, हां कल मेरे कलीग कर्नल सिंह अपने परिवार के साथ तुम से मिलने आ रहे हैं… उन का बेटा सेना में मेजर है. अगर बात बन जाए तो इस जिम्मेदारी से भी मैं मुक्त होना चाहूंगा.’’

कर्नल सिंह और मेजर जैसे शब्दों ने उस के कानों

में घमासान मचा दिया उसे लगा यदि अभी अमजद के बारे में मम्मीपापा को नहीं बताया तो बहुत देर हो जाएगी. सो उस ने हिम्मत कर के बैडरूम से बाहर जाते मम्मीपापा को आवाज लगाई, ‘‘मांपापा मेरी बात सुनिए. मैं अमजद नाम के एक लड़के से प्यार करती हूं और उसी से शादी करूंगी,’’ एक सांस में अपनी बात कह कर वह उन की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगी.

प्रणति की बात सुनते ही पापा के कदम रुक गए उन की आंखों में क्रोध की ज्वाला दहकने लगी, वे मुड़ कर बोले, ‘‘क्या कहा बेटा एक बार फिर से कह मैं ठीक से सुन नहीं पाया.’’

‘‘प्रणति ने साहस कर के वही बात दोहरा दी. जब तक वह कुछ और सोचसमझ पाती उस के गाल पर एक तमाचा और उस के कानों में पापा का स्वर पड़ा, ‘‘क्षत्रिय समाज के अध्यक्ष रिटायर्ड एसडीएम रूपसिंह की बेटी एक मुसलमान से प्यार कर के उसे दिल बैठी है और हम से उम्मीद करती है कि हम उस की शादी कर दें. तो कान खोल कर सुन ले बेटी. यह सही है कि हम ने तुझे पूरी छूट दी है पर इस का मतलब यह बिलकुल नहीं कि शादी करने की आजादी भी तुम्हें मिल गई. मेरी बेटी का विवाह मेरी मरजी से मेरे चुने लड़के से अच्छे कुल और खानदान में होगा. कल चुपचाप तैयार हो जाना सुबह 11 बजे कर्नल अपनी पत्नी और बेटे के साथ आ जाएंगे,’’ अपना तुगलकी फरमान सुना कर मांपापा उसे वहीं रोता छोड़ सोने चले गए.

एक सफल लक्ष्य: जब मां के जाने पर टूट गया बेटा

सुबह सुबह फोन की घंटी बजी.  अनिष्ट की आशंका से मन धड़क गया. मीना की सास बहुत बीमार थीं. रात देर वे सब भी वहीं तो थे. वैंटिलेटर पर थीं वे…पता नहीं कहां सांस अटकी थी. विजय मां को ऐसी हालत में देख कर दुखी थे. डाक्टर तो पहले ही कह चुके थे कि अब कोई उम्मीद नहीं, बस विजय लंदन में बसे अपने बड़े भाई के बिना कोई निर्णय नहीं लेना चाहते थे. मां तो दोनों भाइयों की हैं न, वे अकेले कैसे निर्णय ले सकते हैं कि वैंटिलेटर हटा दिया जाए या नहीं.

निशा ने फोन उठाया. पता चला, रात 12 बजे भाईसाहब पहुंचे थे. सुबह ही सब समाप्त हो गया. 12 बजे के करीब अंतिम संस्कार का समय तय हुआ था.

‘‘सोम, उठिए. विजय भाईसाहब की मां चली ?गईं,’’ निशा ने पति को जगाया. पतिपत्नी जल्दी से घर के काम निबटाने लगे. कालेज से छुट्टी ले ली दोनों ने. बच्चों को समझा दिया कि चाबी कहां रखी होगी.

दोनों के पहुंचने तक सब रिश्तेदार आ चुके थे. मां का शव उन के कमरे में जमीन पर पड़ा था. लंदन वाले भाईसाहब सोफे पर एक तरफ बैठे थे. सोम को देखा तो क्षणभर को आंखें भर आईं. पुरानी दोस्ती है दोनों में. गले लग कर रो पड़े. निशा मीना के पास भीतर चली आई जहां मृत देह पड़ी थी. दोनों बड़ी बहनें भी एक तरफ बैठी सब को बता रही थीं कि अंतिम समय पर कैसे प्राण छूटे. मां की खुली आंखें और खुला मुंह वैसा ही था जैसा अस्पताल में था. अकड़ा शरीर आंखें और मुंह बंद नहीं होने दे रहा था. वैंटिलेटर की वजह से मुंह खुला ही रह गया था.

मां की सुंदर सूरत कितनी दयनीय लग रही थी. सुंदर सूरत, जिस पर सदा मां को भी गर्व रहा, अब इतनी बेबस लग रही थी कि…

विजय भीतर आए और मां का चेहरा ढकते हुए रोने लगे. अभी 4 महीने पहले की ही बात है. कितना झगड़ा हो गया था मांबेटे में. सदा सब भाईबहनों की सेवा करने वाले विजय एक कोने में यों खड़े थे मानो संसार के सब से बड़े बेईमान वही हों. मां को लगता था कि उन का बड़ा बेटा, जो लंदन में रहता है, कहीं खाली हाथ ही न रह जाए और विजय पुश्तैनी घर का मालिक बन जाए. पुश्तैनी घर भी वह जिसे विजय ने कर्ज ले कर फिर से खड़ा किया था.

वह घर जो बहनों का मायका है और भाईसाहब का भी एक तरह का मायका ही है. लंदन तो ससुराल है जहां वे सदा के लिए बस चुके हैं और जीवन भर उन्हें वहीं रहना भी है.

‘तुम्हें क्या लगता है, तुम पतिपत्नी सब अकेले ही खा जाओगे, भाई को कुछ नहीं दोेगे?’ दोनों बहनों और मां ने प्रश्न किया था.

‘खा जाएंगे, क्या मतलब? मैं ने क्या खा लिया? कर्ज ले कर खंडहर मकान खड़ा किया है. पुश्तैनी जमीन को संवारा है, जहां तुम सब आआ कर रहते हो. तनख्वाह का मोटा हिस्सा लोन चुकाने में चला जाता है. हम दोनों पतिपत्नी हाड़तोड़ मेहनत करते हैं तब कहीं जा कर घर चलता है. इस में मैं ने क्या खा लिया किसी का?’

‘जमीन की कीमत का पता किया है हम ने. 60 लाख रुपए कीमत है जमीन की. 30 लाख रुपए तो उस का बनता है न. आगरा में फ्लैट ले कर दे रहे हैं हम बड़े को. तुम 30 लाख रुपए दो.’

‘मैं 30 लाख कहां से दूं. अपने ही घर में रहतेरहते मैं बाहर वाला कैसे हो गया कि आप ने झट से मेरे घर की कीमत भी तय कर दी.’

‘तुझे क्या लगता है, चार दिन भाईबहनों को रोटी के टुकड़े खिला देगा और लाखों की जमीन खा जाएगा.’

मां के शब्दबाण विजय का कलेजा छलनी कर गए थे और यही दोनों बहनें भाईसाहब के साथ खड़ी उन से जवाब तलब कर रही थीं.

भाईसाहब, जिन्हें वे सदा पिता की जगह देखते रहे थे, से इतनी सी आस तो थी उन्हें कि वे ही मां को समझाएं. क्या मात्र रोटी के टुकड़े डाले हैं उन्होंने सब के सामने? पिता की तरह बहनों का स्वागत किया है. प्यार दिया है, दुलार दिया है मीना और विजय ने सब को. गरमी की छुट्टियों में स्वयं कभी कहीं घूमनेफिरने नहीं गए. सदा भाईबहनों को खिलायापिलाया, घुमाया है. बड़े भाईसाहब ने तो कभी मांबाप को नहीं देखा क्योंकि वे तो सदा बाहर ही रहे. पिताजी अस्पताल में बीमार थे तब उन के मरने पर ही 2 लाख रुपए लग गए थे. पिछले साल मां अस्पताल में थीं, 3 लाख रुपए लग गए थे, हर साल उन पर 1 लाख रुपए का बोझ अतिरिक्त पड़ जाता है जो कभी उन का अपना पारिवारिक खर्च नहीं होता. इन तीनों भाईबहनों ने कभी कोई योगदान नहीं किया. कैसे होता है, किसी ने नहीं पूछा कभी, 30 लाख रुपए हिस्सा बनता है सब से आगे हो कर मां ने कह दिया था. तो क्या वह घर का नौकर था जो सदा परिवार सहित सब की ताबेदारी ही करता रहा? बेशर्मी की सभी हदें पार कर ली थीं दोनों बहनों व भाईसाहब ने और मां का हाथ उन तीनों के ऊपर था.

उसी रात पसीने से तरबतर विजय को अस्पताल ले जाना पड़ा था. सोम और निशा ही आए थे मदद को. तनाव अति तक जा पहुंचा था, जिस वजह से हलका सा दिल का दौरा पड़ा था. क्या कुसूर था विजय का? क्यों छोटे भाई को ऐसी यातना दे रहे हैं परिवार के लोग?

भाईसाहब की लंदन जाने की तारीख पास आ रही थी और आगरा में दोनों बहनों ने भाई के लिए जो फ्लैट खरीदने का सोच रखा था वह हाथ से निकला जा रहा था. विजय बीमार हो गए थे. अब पैसों की बात किस तरह शुरू की जाए.

मां ने ही मीना से पूछा था.

‘क्या सोच रहे हो तुम दोनों? पैसे देने की नीयत है कि नहीं?’

‘होश की बात कीजिए, मांजी. जो आदमी दिल का मरीज बन कर अस्पताल में पड़ा है उस से आप ऐसी बातें कर रही हैं.’

‘बहुत देखे हैं मैं ने इस जैसे दिल के मरीज.’

अवाक् रह गई थी मीना. जिस बेटे के सिर पर बैठ कर पूरा परिवार नाच रहा था उसी के जीनेमरने से किसी का कोई लेनादेना नहीं. किस जन्म की दुश्मनी निभा रहे हैं भाईसाहब. हिंदुस्तान में फ्लैट लेना ही चाहते थे तो विजय से बात करते. दोनों भाई कोई रास्ता निकालते, बैठ कर हिसाबकिताब करते. यह क्या तरीका है कि हथेली पर सरसों जमा दी. सोचने और कुछ करने का समय ही नहीं दिया. क्या 3 दिन में सब हो जाएगा?

मीना बड़ी ननदों के सामने कभी बोली नहीं थी. उस के सिर पर एक तरह से 3-3 सासें थीं और बड़े जेठ ससुर समान. जब अपने ही पति के सर पर काल मंडराने लगा तब जबान खुल गई थी मीना की.

‘मां, अगर हिसाब ही करना है तो हर चीज का हिसाब कीजिए न. प्यार और ममता का भी हिसाब कीजिए. जोजो हम आप लोगों पर खर्च करते हैं उस का भी हिसाब कीजिए. हर साल आप की इच्छा पूरी करने के लिए पूरा परिवार इकट्ठा होता है, उस पर हमारा कितना खर्च हो जाता है उस का हिसाब कीजिए. पिताजी और आप की बीमारी पर ही लाखों लगते रहे हैं, उस का भी हिसाब कीजिए. जमीन की कीमत तो आप ने आज 30 लाख रुपए आंकी है, विजय जो वर्षों से खर्च कर रहे हैं उस का क्या हिसाबकिताब?

‘दोनों बहनें बड़े भाई को अपने शहर में फ्लैट ले कर दे रही हैं. इस भाई को काट कर फेंक रही हैं. क्या भाईसाहब लंदन से आ कर बहनों की आवभगत किया करेंगे? और मां, आप अब क्या लंदन में जा कर रहेंगी भाईसाहब की मेम पत्नी के साथ, जिस ने कभी आ कर आप की सूरत तक नहीं देखी कि उस की भी कोई सासू मां हैं, ननदें हैं, कोई ससुराल है जहां उस की भी जिम्मेदारियां हैं.’

‘कितनी जबान चल रही है तेरी, बहू.’

‘जबान तो सब के पास होती है, मां. गूंगा तो कोई नहीं होता. इंसान चुप रहता है तो इसलिए कि उसे अपनी और सामने वाले की गरिमा का खयाल है. अगर आप मेरा घर ही उजाड़ने पर आ गईं तो कैसी शर्म और कैसा जबान को रोकना. विजय को दिल का दौरा पड़ा है, आप उन्हें परेशान मत कीजिए. अब जब हिसाब ही करना है तो हमें भी हिसाब करने का समय दीजिए.’

मीना ने दोटूक बात समाप्त कर दी थी. गुस्से में मां और भाईसाहब दोनों बहनों के पास आगरा चले गए थे. लेकिन पराया घर कब तक मां को संभालता. भाईसाहब वहीं से वापस लंदन चले गए थे और बीमार मां को बहनें 4-5 दिन में ही वापस छोड़ गई थीं.

4 महीने बीत गए उस प्रकरण को. वह दिन और आज का दिन. मीना और विजय मां से लगभग कट ही गए. अच्छाभला हंसताखेलता उन का घर ममत्व से शून्य हो गया था. बच्चे भी दादी से कटने लगे थे. समय पर रोटी, दवा और कपड़े देने के अलावा अब उन से कोई बात ही नहीं होती थी उन की. बुढ़ापा खराब हो गया था मां का. कोई उन से बात ही नहीं करना चाहता था.

क्या जरूरत थी मां को बेटियों की बातों में आने की. अब क्या बुढ़ापा लंदन में जा कर काटेंगी या आगरा जाएंगी?

समय बीता और 5 दिन पहले ही फिर से मां को अस्पताल ले जाना पड़ा. हालत ज्यादा बिगड़ गई जिस का परिणाम उन की मृत्यु के रूप में हुआ.

विजय मां की मौत से ज्यादा इस सत्य से पीडि़त थे कि उन के भाईबहनों ने मिल कर उन की मां का बुढ़ापा बरबाद कर दिया. उन के  जीवन के अंतिम 4-5 महीने नितांत अकेले गुजरे. आज मृत देह के पास बैठ कर आत्मग्लानि का अति कठोर एहसास हो रहा है उन्हें. क्यों मीना ने मां से सवालजवाब किए थे? क्यों वह चुप नहीं रही थी? फिर सोचते हैं मीना भी क्या करती, पति की सुरक्षा में वह भी न बोलती तो और कौन बोलता. उस पल की जरूरत वही थी जो उस ने किया था. कहां से लाते वे 30 लाख रुपए. कहीं डाका मारने जाते या चोरी करते. रुपए क्या पेड़ पर उगते हैं जो वे तोड़ लाते.

अच्छाभला, खुशीखुशी उन का घर चल रहा था जिस में विजय मानसिक शांति के साथ जीते थे. हर साल कंधों पर अतिरिक्त बोझ पड़ जाता था जिसे वे इस एहसास के साथ सह जाते थे कि यह घर उन की बहनों का मायका है जहां आ कर वे कुछ दिन चैन से बिता जाती हैं.

बुजुर्गों की दुआएं और पिताजी के पैरों की आहट महसूस होती थी उन्हें. उन्होंने कभी भाईसाहब से यह हिसाब नहीं किया था कि वे भी कुछ खर्च करें, वे भी तो घर के बेटे ही हैं न. अधिकार और जिम्मेदारी तो सदा साथसाथ ही चलनी चाहिए न. कभी जिम्मेदारी नहीं उठाई तो अधिकार की मांग भी क्यों?

कभी विजय सोचते कि क्यों मां दोनों बेटियों की बातों में आ कर उन के प्रति ऐसा कहती रहीं कि वे दिल के मरीज बन कर अस्पताल पहुंच गए. मां की देह पर दोनों भाई गले लग कर रो ही नहीं पाए क्योंकि कानों में तो वही शब्द गूंज रहे हैं :

‘क्या तुम दोनों पतिपत्नी अकेले ही सब खा जाओगे?’

बेटाबहू बन कर सब की सेवा, आवभगत करने वाले क्षणभर में मात्र पतिपत्नी बन कर रह गए थे. एकदूसरे से पीड़ा सांझी न करतेकरते ही मां का दाहसंस्कार हो गया. 13 दिन पूरे हुए और नातेरिश्तेदारों के लिए प्रीतिभोज हुआ.

सब विदा हो गए. रह गए सिर्फ भाईसाहब और दोनों बहनें.

‘‘आइए भाईसाहब, हिसाब करें,’’ विजय ने मेज पर कागज बिछा कर उन्हें आवाज दी. बहनें और भाईसाहब अपनाअपना सामान पैक कर रहे थे.

‘‘कैसा हिसाब?’’ भाईसाहब के हाथ रुक गए थे. वे बाहर चले आए. विजय के स्वर में अपनत्व की जगह कड़वाहट थी जिसे उन्होंने पूरी उम्र कभी महसूस नहीं किया था. बचपन से ले कर आज तक विजय ने सदा बच्चों की तरह रोरो कर ही भाई को विदा किया था. सब हंसते थे विजय की ममता पर जो भाई को पराए देश विदा नहीं करना चाहता था. मां की देह पर दोनों मिल कर रो नहीं पाए, क्या इस से बड़ा भी कोई हिसाब होता जो वे कर पाते?

‘‘30 लाख रुपए का हिसाब. पिछली बार मैं हिसाब नहीं दे पाया था न, अब पता नहीं आप से कब मिलना हो.’’

मीना भी पास चली आई थी यह सोच कर कि शायद पति फिर कोई मुसीबत का सामना करने वाले हैं. बच्चों को उन के कमरे में भेज दिया था ताकि बड़ों की बहस पर उन्हें यह शिक्षा न मिले कि बड़े हो कर उन्हें भी ऐसा ही करना है.

पास चले आए भाईसाहब. भीगी थीं उन की आंखें. चेहरा पीड़ा और ममत्व सबकुछ लिए था.

‘‘हां, हिसाब तो करना ही है मुझे. मैं बड़ा हूं न. मैं ही हिसाब नहीं करूंगा तो कौन करेगा?’’

जेब से एक लिफाफा निकाला भाईसाहब ने. मीना के हाथ पर रखा. असमंजस में थे दोनों.

‘‘इस में 50 लाख रुपए का चैक है. तुम्हारी अंगरेज जेठानी ने भेजा है. उसी ने मुझे मेरी गलती का एहसास कराया है. यह हमारा घर हम दोनों की हिस्सेदारी है तो जिम्मेदारी भी तो आधीआधी बनती है न. तुम अकेले तो नहीं हो न जो घर की दहलीज संवारने के लिए जिम्मेदार हो. हमारा घर संवारने में मेरा भी योगदान होना चाहिए.’’

अवाक् रह गए विजय. मीना भी स्तब्ध.

‘‘13 दिन पहले जब एअरपोर्ट पर पैर रखा था तब एक प्रश्न था मन में. एक घर है यहां जो सदा बांहें पसार कर मेरा स्वागत करता है. ऐसा घर जो मेरे बुजुर्गों का घर है, मेरे भाई का घर है. ऐसा घर जहां मुझे वह सब मिलता है जिसे मैं करोड़ों खर्च कर के भी संसार के किसी कोने में नहीं पा सकता. यहां वह है जो अमूल्य है और जिसे मैं ने सदा अपना अधिकार समझ कर पाया भी है. मुझे माफ कर दो तुम दोनों. मुझे अपने दिमाग से काम लेना चाहिए था. अगर आगरा में घर लेना ही होगा तो किसी और समय ले लूंगा मगर इस घर और इस रिश्ते को गंवा कर नहीं ले सकता. तुम दोनों मेरे बच्चों जैसे हो. तुम्हारे साथ न्याय नहीं किया मैं ने,’’ मानो जमी हुई काई किसी ने एक ही झटके से पोंछ दी. स्नेह और रिश्ते का शीशा, जिस पर धूल जम गई थी, साफ कर दिया किसी ने.

‘‘मां को भी माफ कर देना. उन्हें भी एहसास हो गया था अपनी गलती का. वे अपनी भूल मानती थीं मगर कभी कह नहीं पाईं तुम से. हम सब तुम से माफी मांगते हैं. मीना, तुम छोटी हो मगर अब मां की जगह तुम्हीं हो,’’ बांहें फैला कर पुकारा भाईसाहब ने, ‘‘हमें माफ कर दो, बेटा.’’

पलभर में सारा आक्रोश कहीं बह गया. विजय समझ ही नहीं पाए कि यह क्या हो गया. वह गुस्सा, वह नाराजगी, वह मां को खो देने की पीड़ा. मां के खोने का दुख भाई की छाती से लग कर मनाते तो कितना सुख मिलता.

बहरहाल, जो चीत्कार एक मां की आखिरी सांस पर होनी चाहिए थी वह 13 दिन बाद हुई जब चारों भाईबहन एकदूसरे से लिपट कर रोए. उन्होंने क्या खो दिया तब पता चला जब एक का रोना दूसरे के कंधे पर हुआ. अब पता चला क्या चला गया और क्या पा लिया. जो खो गया उस का जाने का समय था और जो बचा लिया उसे बचा लेने में ही समझदारी थी.

शाश्वत सत्य है मौत, जिसे रोक पाना उन के बस में नहीं था और जो बस में है उसे बचा लेना ही लक्ष्य होना चाहिए था. एक हंसताखेलता घर बचा कर, उस में रिश्तों की ऊष्मा को समा लेने का सफल लक्ष्य.

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