Serial Story: कूल मौम (भाग-1)

रचना चेहरे से जितनी शांत लग रही थीं, अंदर उतना ही तूफान था. भावनाओं की बड़ीबड़ी सूनामी लहरें बारंबार उन के मन पर आघात किए जा रही थीं. काया स्वस्थ थी, किंतु मन लहूलुहान था. फिर भी अपने अधरों पर मुसकान का आवरण ओढ़े घरगृहस्थी के कार्य निबटाती जा रही थीं. ठीक ही है मुसकराहट एक कमाल की पहेली है- जितना बताती है, उस से कहीं अधिक छिपाती है. शोकाकुल मन इसलिए कि इकलौती संतान लतिका की नईनई शादीशुदा जिंदगी में दहला देने वाला भूचाल आया और मुसकान की दुशाला इसलिए कि कहीं लतिका डगमगा न जाए.

कुछ ही दिन पहले ही रचना ने अखबार में पढ़ा था कि आजकल के नवविवाहित जोड़े हनीमून से लौटते ही तलाक की मांग करने लगे हैं और यह प्रतिशत दिनोंदिन बढ़ रहा है.

दरअसल, हनीमून पर पहली बार संगसाथ रह कर पता चलता है कि दोनों में कितना तालमेल है. धैर्य की कमी लड़कों में हमेशा से रही है और समाज में स्वीकार्य भी रही है, लेकिन बदलते परिवेश में धीरज की वही कमी, उतनी ही मात्रा में लड़कियों में भी पैठ कर गई है. अब जब लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों से बराबरी कर रही हैं, तो उन के व्यवहार में भी वही बराबरी की झलक दिखने लगी है.

अखबार की सुर्खियों में खबर पढ़ कर मन थोड़ाबहुत विचलित हो सकता है, पर उस का प्रतिबिंब अपने ही आंगन में दिखेगा, ऐसा कोई नहीं सोचता. रचना ने भी नहीं सोचा था. धूमधाम से पूरी बिरादरी के समक्ष आनबान शान से रचना और वीर ने अपनी एकमात्र बेटी लतिका का विवाह संपन्न किया था. सारे रीतिरिवाज निभाए गए, सारे संबंधियों व मित्रगणों को न्योता गया. रिश्ता भी अपने जैसे धनाढ्य परिवार में किया था. ऊपर से लतिका और मोहित को कोर्टशिप के लिए पूरे

1 वर्ष की अवधि दी गई थी. उन दोनों की कोई इच्छा अधूरी नहीं छूटी थी. संगीत व मेहंदी समारोह में कलाकारों ने गानों की झड़ी लगा दी थी. विवाह में श्हार के ही नहीं देश भर के नामीगिरामी लोग पधारे थे. लतिका और मोहित भी तो कितने प्रसन्न थे. लेटैस्ट डिजाइन के कपड़े, गहने, शादियों में नवीनतम चलन वाली फोटोग्राफी, देशविदेश के तरहतरह के व्यंजन, कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी गई थी.

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हनीमून का प्रोग्राम पूरे 20 दिनों का था. 21वें दिन लतिकामोहित से मिलने रचना और वीर एअरपोर्ट पहुंच गए थे. अपनी नवविवाहित बिटिया के चेहरे पर प्यार का खुमार और नईनई शादी की लाली देखने की और प्रतीक्षा नहीं हो पा रही थी उन से. हनीमून के शुरुआती दिनों में फेसबुक और व्हाट्सऐप पर उन दोनों की प्यार के नशे में डुबकी लगाती सैल्फी व फोटो देखदेख कर मां पिता हर्षित होते रहे. किंतु एक पक्ष बीतने पर अपने बेटी  दामाद से मिलने की इच्छा तीव्र होती गई. एअरपोर्ट पर दोनों से गले लगते ही लतिका ने ड्राइवर को आदेश दे डाला कि वह उस का बैग उठा कर मांपिता की गाड़ी में रख दे. मोहित चुपचाप दूसरे रास्ते चला गया.

धीरेधीरे बात साफ हुई. तब से रचना घर का माहौल खुशमिजाज रखने के प्रयत्न में अग्रसर रहतीं ताकि लतिका का मन शोकग्रस्त न रहे. अब वह जमाने तो हैं नहीं कि डोली में देहरी लांघी लड़की अर्थी पर ही लौटे. लेकिन परिणयसूत्र कोई कांच का गिलास भी तो नहीं कि जरा सा टकराते ही चटक जाए. रचना का मन द्रवित रहता. लतिका अपने मन की बात ढंग से बताती भी तो नहीं. बस सब से विमुख सी रहती है.

‘‘लतिका, मोहित का फोन है तुम्हारे लिए. तुम्हारा सैलफोन बंद क्यों है, मोहित पूछ रहा है,’’ रचना की पुकार सुन कर भी लतिका के मुखमंडल पर कोई तेज न आया. उलटा संदेह भरा दृष्टिपात करते हुए वह फोन तक गई. दोटूक बात कर फोन वापस अपनी जगह था. आज रचना ने सोचा कि लतिका के मन की थाह ली जाए. यदि वह भी अन्य सभी की भांति इस बात को यहीं छोड़ देगी, आगे नहीं टटोलेगी तो उस की बिटिया के शादीशुदा जीवन की इति दूर नहीं.

‘‘क्या बात है लतिका, क्यों नाराज हो तुम मोहित से? आखिर अपनी गृहस्थी शुरू करने में यह हिचक कैसी? ऐसी क्या बात हो गई कि तुम दोनों हनीमून के बाद घर बसाने के बजाय सारे प्रयत्न छोड़ कर वापस मुड़ चले हो?’’

‘‘मम्मा, मैं और मोहित बिलकुल भी कंपैटिबल नहीं हैं. उसे मेरी भावनाओं की जरा भी कद्र नहीं है. आखिर मैं किसी की बेकद्री क्यों सहूं? मेरे छोटेमोटे मजाक तक नहीं सह सकता वह. यदि मैं अपने दोस्तों के बारे में बात करूं, तो वह भी उसे नापसंद है. शादी से पहले मैं सोचती थी कि वह मुझे ले कर पजैसिव है, इसलिए उसे पसंद नहीं कि मैं अपने दोस्तों के बारे में बातें करती रहूं पर हमेशा तो ऐसा नहीं चल सकता न? उसे तो बस अपने परिवार की पड़ी रहती है. हूंह, हनीमून न हो गया, उस के परिवार में सैटल होने की मेरी ट्रेनिंग हो गई. अभी भी उस ने फोन पर यही कहा कि मुझे बात को समझना होगा और अपने तौरतरीके बदलने होंगे.’’

लतिका की बातों से एक बात साफ थी कि मोहित अब भी इस शादी की सफलता चाह रहा है. रचना को यह जान कर प्रसन्नता हुई. वे हमेशा से लतिका के लिए मां से अधिक एक अच्छी दोस्त रही हैं. तभी तो आज लतिका ने बिना किसी झिझक के उन से अपने मन की बातें साझा की थीं. अब रचना की बारी थी अपनी भूमिका निभाने की. जब उन्होंने अपनी बेटी का विवाह किया तो इसी आशय से कि बेटी का जीवन अपने जीवनसाथी के साथ सुखी रहे, आबाद रहे.

मोहित और लतिका खूब खुश रहे पूरी 1 साल की कोर्टशिप में. इस का तात्पर्य है कि जो कुछ अभी हो रहा है वह बस शुरू की हिचकियां हैं, जो हर रिश्ते के प्रारंभ में आती हैं.

रिश्ते मौके के नहीं, भरोसे के मुहताज होते हैं. भरोसे का पानी पीते ही ये हिचकियां आनी बंद हो जाएंगी. परिपक्वता के कारण रचना को मालूम था कि एक घर, एक बैडरूम में रहते हुए भी 2 लोगों के बीच मीलों की दूरियां आ सकती हैं जो फिर दोनों को मिल कर मिटानी होती हैं. एक के प्रयास से कुछ नहीं होता. जब किसी को दूसरे से इक्कादुक्का शिकायतें हों तो कोई बड़ी बात नहीं है पर जब शिकायतों का अंबार लग जाए, तो यह बड़ी परेशानी की बात बन जाती है. अभी शुरुआत है. यदि अभी इस समस्या का हल निकाल लिया जाए तो बात संभल सकती है.

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रचना ने लतिका को समझाने का प्रयास किया, ‘‘बेटी, शादी कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल नहीं है कि तुम अपनी सहेली के घर अपनी गुडि़या ले गईं, उस के गुड्डे से अपनी गुडि़या की शादी रचाई और पार्टी के बाद अपनी गुडि़या वापस ले अपने घर लौट आईं.

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Serial Story: कूल मौम (भाग-2)

यह असली जिंदगी की शादी है जहां एक लड़की का पूरा जीवन बदल जाता है. तुम्हारे अपने पराए और पराए अपने बन जाते हैं.’’

‘‘प्लीज मौम, आप के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं. आप की सोच इतनी संकुचित कब से हो गई? मैं कोई गुडि़या नहीं हूं, जिस की भावनाएं नहीं, मैं एक जीतीजागती लड़की हूं,’’ लतिका अभी कुछ भी समझने के मूड में नहीं थी, ‘‘मैं आप को हमेशा अपनी मौम से ज्यादा अपनी सहेली मानती आई हूं. मैं आप को ऐसे ही तो नहीं कूल मौम कहती हूं.’’

लतिका की बातें सुन रचना चुप हो गईं. कूल मौम के टैग तक ठीक था, किंतु इस स्थिति का हल तो खोजना ही होगा. रचना ने पहले मोहित से मिलना तय किया. उन के बुलाने पर बिना किसी नखरे के मोहित एक रेस्तरां में मिलने आ गया. कुछ तकल्लुफ के बाद रचना ने बात शुरू की. पहले उन्होंने लतिका की बात मोहित के समक्ष रखी, ‘‘क्योंकि मैं ने अभी तक सिर्फ लतिका की बात ही सुनी है. अब मैं तुम्हारा पक्ष सुनना चाहती हूं.’’

‘‘मम्मा, आप ही बताओ, जो बातें मैं ने पहले ही साफ कर दी थीं, उन्हें दोहराना क्या उचित है? लतिका को पहले से पता है कि मेरे परिवार में बहुत अधिक पार्टी कल्चर नहीं है. अभी हमारी शादी को दिन ही कितने हुए हैं. मुश्किल से 1 हफ्ता रही है वह हमारे घर हनीमून जाने से पहले. उस पर भी वह हर समय यही पूछती रही कि क्या इस पार्टी में भी नहीं जाएंगे हम, क्या उस पार्टी में भी नहीं जाएंगे हम? मैं ने पहले ही उस से कह दिया था कि शादी के

बाद उसे हमारे घर के रीतिरिवाज के अनुसार दादी और मम्मी की रजामंदी से चलना होगा… वैसे वे लोग कुछ अधिक चाहते भी नहीं हैं.

बस सुबह उठ कर उन्हें प्रणाम कर ले, खाने में क्या बनाना है, यह उन से पूछ ले. घर से बाहर जाए तो उन्हें बता कर जाए. ये तो साधारण से संस्कार हैं, जिन का हर परिवार अपनी बहू से अपेक्षा रखता है. फिर हमारे घर में 2 भाभियां हैं, जो यह सब करती हैं. इस के अलावा कोई रोकटोक नहीं, कोई परदा नहीं. पर वह है कि इस बात की जिद ले कर बैठ गई है कि वह अपनी मरजी से जीती आई है और अपनी इच्छानुसार ही चलेगी. मुझे तो लगने लगा है कि हम दोनों कंपैटिबल नहीं हैं.’’

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लतिका और मोहित, दोनों के मुंह से कंपैटिबल न होने की शिकायत रचना को सोच में डाल गई. आखिर यह कंपैटिबिलिटी क्या है? हर शादी समझौते मांगती है, कुछ बलिदान चाहती है. एक ही घर में पैदा होने वाले एक ही मांबाप के 4 बच्चे भी आपस में कंपैटिबल नहीं होते हैं, उन में भी विचारभेद होते हैं, झगड़े होते हैं. पर भाईबहनों का तलाक नहीं हो सकता और पतिपत्नी फटाफट इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि हम कंपैटिबल नहीं हैं तो खत्म करो यह रिश्ता. हो सकता है कि मन की परतों में मोहित, लतिका को खोना नहीं चाहता हो पर अहं का क्या करे?

घर लौटने पर रचना ने पाया कि लतिका सोफे पर पसरी चिप्स के पैकेट पर पैकेट चट कर रही थी. वह जब कभी परेशान होती तो उस का तनाव खानेचबाने से ही हल होता. तनावग्रस्त दोनों ही थे- मोहित और लतिका. पर अहम की बेवजह खड़ी दीवार में रंध्र करने की जिम्मेदारी रचना ने खामोशी से संभाल ली थी. जरूरी नहीं कि हर लड़ाई जीती जाए. जरूरी यह है कि हर हार से सीख ली जाए. रिश्तों की टूटन से उपजा तिमिर केवल घरपरिवार को ही नहीं, अपितु पूर्ण जीवन को अंधकारमय कर देता है. अपनी बेटी के जीवन में निराशा द्वारा रचा तम वे कभी नहीं बसने देंगी.

‘‘हाय भावना, क्या हाल हैं?’’ लतिका अपनी सहेली से फोन पर बातें कर रही थी,

‘‘हां यार, मेरी मोहित से बात हुई है फोन पर लेकिन वह अपने घर की सभ्यता को ले कर

कुछ ज्यादा ही सीरियस है. ऐसे में मैं कितने दिन निभा पाऊंगी भला? सच कहूं तो मुझे लगता है मैं ने गलती कर दी यह शादी कर के. पता है, हनीमून पर एक रात हम दोनों में झगड़ा हुआ और गुस्से में मैं बिस्तर पर न सो कर सारी रात कुरसी पर बैठी रही. लेकिन मोहित आराम से बिस्तर पर सो गया. इस का यही निष्कर्ष निकला न कि उसे मेरी भावनाओं से कोई सरोकार नहीं है…’’

शादी की शुरुआत में लड़कियां बहुत अधिक संवेदनशील हो जाती हैं. जन्म से जिस माहौल में लड़कियां आंखें खोलती हैं, उस माहौल को, अपने मांबाप, अपने घरआंगन को त्याग कर पराए संसार को उस की नई मान्यताओं, उस के तौरतरीकों सहित अपनाने की उलझन वही समझ सकता है, जो उस कठिन राह पर चलता है. लड़कों के लिए यह समझना मुश्किल है. वे बस इतना कर सकते हैं कि शुरूशुरू में अपनी पत्नी को जितना हो सके उतना कंफर्टेबल करें ताकि वह अपने नए वातावरण में जल्द से जल्द सैटल हो पाए. बस इसी प्रयास में पतिपत्नी का रिश्ता सुदृढ़ होता जाएगा, उन में अटूट बंधन कसता जाएगा. पति के प्रयत्न को पत्नी सदैव याद रखेगी, उस के प्रति नतमस्तक रहेगी. ये शुरू की संवेदनशीलताएं ही रिश्ते को बनाने या बिगाड़ने की अहम भूमिका निभाने में सक्षम हैं.

‘‘नहीं यार, मेरी मौम बहूत कूल हैं.’’

लतिका का अपनी सहेली से चल रहे वार्त्तालाप से रचना की विचारशृंखला भंग हो गई.

‘‘आई एम श्योर वे मेरे इस निर्णय में मेरा साथ देंगी,’’ लतिका को अपनी मां पर पूर्ण विश्वास था.

रचना दोनों पक्षों की बात सुन चुकी थी. सुन कर उन्हें और भी विश्वास हो गया था कि दोनों का रिश्ता सुदृढ़ बनाना उतना कठिन भी नहीं. बस कोई युक्ति लगानी होगी. युक्ति भी ऐसी कि न तो रचना का ‘कूल मौम’ का टैग बिगड़े और न ही लतिकामोहित का रिश्ता. फिर क्या खूब कहा गया है कि रिश्ते मोतियों की तरह होते हैं, कोई गिर जाए तो झुक कर उठा लेना चाहिए.

‘‘मेरे बच्चे, जो भी तुम्हारा निर्णय होगा, मैं तुम्हारे साथ हूं. आज तक हम ने वही किया, वैसे ही किया, जैसे तुम ने चाहा. आगे भी वही होगा जो तुम खुशी से चाहोगी. हम ने तुम्हारी शादी आज के आधुनिक तौरतरीकों से की, वैसे ही आगे की कार्यवाही भी हम आज के युग के हिसाब से ही करेंगे. तुम मोहित से शादी कर के पछता रही हो न? ठीक है, छोड़ दो मोहित को,’’ रचना की इस बात का असर ठीक वैसा ही हुआ जैसी रचना ने अपेक्षा की थी.

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लतिका की आंखों के साथसाथ उस का

मुंह भी खुला का खुला रह गया, ‘‘छोड़ दूं मोहित को?’’

‘‘हां बेबी, ठीक सुना तुम ने. छोड़ दो मोहित को. मेरी नजर में एक और लड़का है फैशनेबल, अमीर खानदान, हर रोज पार्टियों में आनाजाना. जैसा तुम्हें चाहिए, वैसा ही. आए दिन तुम्हें तोहफे देगा.’’

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Serial Story: कूल मौम (भाग-3)

रचना की बातें सुन लतिका के मुख पर संदेह की कालिमा छाने लगी. आहत, विस्मित दृष्टि से उस ने अपनी मां को देखा तो रचना की हिम्मत और बढ़ गई. बोलीं, ‘‘म्यूचुअल डिवोर्स में अधिक समय बरबाद नहीं होता है. जितने दिन तुम्हारी शादी नहीं चली, उस से जल्दी तुम्हारा तलाक हो जाएगा. सोचती हूं कैसे तुम ने मोहित को इतनी लंबे कोर्टशिप में बरदाश्त किया. चलो, तुम ने अपनी लाइफ का निर्णय ले लिया. अब मुझे भी एक पार्टी में जाना है. सी यू लेटर,’’ कह रचना अपना बैग उठा घर से बाहर निकल गईं.

मां का इस स्थिति में यों छोड़ कर पार्टी में चले जाना रचना को बहुत खला. क्या उस की मां उस की मानसिक स्थिति नहीं समझ सकतीं या उन के लिए अपनी बेटी से ज्यादा जरूरी उन की पार्टियां हैं? अचानक उसे वह दिन याद हो आया जब विवाह की रस्में निभाने के कारण थकीमांदी लतिका के सिर में शादी के दूसरे ही दिन दर्द उठा था और उस की सास ने मुंहदिखाई की रस्म अगले दिन के लिए टाल दी थी, जबकि कई औरतें घर में आ भी चुकी थीं.

‘‘हमारी लतिका के सिर में दर्द है. आज प्लीज माफी चाहते हैं. चायनाश्ता लीजिए पर लतिका से मुलाकात कल ही हो पाएगी,’’ लतिका की सास ने कहा था और फिर लतिका का पूरा ध्यान रखा था. पर उस की अपनी मां ने आज उसे हृदयपीड़ा के इस समय अकेला छोड़ पार्टी में जाना उचित समझा?

अगले दिन रचना को फिर घर में न पा कर लतिका ने उन्हें फोन किया. रचना ने फोन का कोई उत्तर नहीं दिया. कुछ देर बाद उन का मैसेज आया कि इस हफ्ते तुम्हारे पापा काम के सिलसिले में दुबई गए हैं. अत: मैं आज तुम्हारे मामा के घर आई हुई हूं. 2-4 दिनों में लौट आऊंगी.’ पढ़ कर लतिका अवाक रह गई. उस की मां उसे घर में अकेला छोड़ मामा के घर चली गईं और वह भी अकारण. उस ने भी प्रतिउत्तर में मैसेज भेजा.

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इस पर रचना का फिर जवाबी मैसेज आया कि सब को अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का हक है, बेबी. मैं तुम्हारी शादी तोड़ने के फैसले में तुम्हारे साथ हूं. क्या तुम्हें मेरे अपने मायके कुछ दिन बिताने पर भी ऐतराज है? दैट्स नौट फेयर.

4 दिन कुंठा में बीते. लेकिन बात 4 दिन की नहीं थी. यदि लतिका अपने दोस्तों से मिलती, किसी पार्टी में जाती तो सब तरफ एक ही चर्चा रहती कि इतनी जल्दी तलाक का कारण क्या है. जब लतिका और मोहित की कोर्टशिप साल भर चल सकती है तो हनीमून पर ऐसा क्या हो गया? इस के उत्तर में कोई ठोस वजह का न होना लतिका को और भी अवहेलित कर देता.

लतिका को आभास होता जा रहा था कि शादी के बाद वाकई एक लड़की की जिंदगी बदल जाती है, परिस्थितियां बदल जाती हैं. सभी रिश्तों के चाहे वे घर की चारदीवारी में अभिभावकों का हो या घर के बाहर मित्रों का- उन के रिएक्शन बदल जाते हैं. अपनी उन्हीं सहेलियों जिन के साथ कभी वह सारासारा दिन व्यतीत कर दिया करती थी, आज उन्हीं सहेलियों के पास उस के लिए समय की कमी थी. कभी किसी को अपने बौयफ्रैंड के साथ मूवी जाना होता तो कभी किसी को अपने मंगेतर के साथ समय बिताने की चाह रहती. शादी सचमुच गुड्डेगुडि़यों का खेल नहीं है. सोचसमझ कर जीवन में आगे बढ़ने का फैसला है.

‘‘हैलो,’’ मोहित के नंबर से फोन उठाते हुए लतिका ने धीरे से बुदबुदाया.

‘‘कैसी हो?’’ मोहित के स्वर भी कुछ ठंडे, सुस्त और उदास थे.

‘‘तुम कैसे हो?’’ लतिका अपने मन की खिन्नता मोहित से छिपाना चाहती थी. लेकिन इतना समय साथ बिताने के बाद अपने मन की परतों को एकदूसरे के समक्ष खोलने के बाद मोहित व लतिका दोनों ही एकदूसरे के शोकातुर सुर पहचानने में सक्षम थे.

‘‘बहुत दिन हो गए… तुम्हारी याद आ रही है. क्या हम कुछ समय के लिए मिल सकते हैं?’’ मोहित ने खुल कर अपने दिल की बात लतिका के सामने रख दी.

‘‘मैं आज शाम 5 बजे तुम से वहीं मिलूंगी…’’

लतिका के इतना कहते ही मोहित बीच में ही हंसते हुए बोला, ‘‘वहीं जहां हमेशा मिलते हैं रैड रोज कैफे.’’

मोहित के शुरुआत करने से लतिका के जीवन में एक बार फिर उल्लास की लहरें उठने लगीं और उस का मन उन में गोते लगाने लगा. शाम को निर्धारित समय पर कैफे पहुंचने हेतु वह तैयार होने लगी. तभी रचना वहां आईं. बोलीं, ‘‘लतिका, मैं ने जिस लड़के का तुम से जिक्र किया था, वह आज रात खाने पर घर आ रहा है. तुम तैयार रहना. उस से मिल कर तुम्हें अवश्य अच्छा लगेगा. एक बार तुम दोनों की मुलाकात हो जाए, फिर मोहित से तुम्हारा तलाक करवा कर तुम्हारी दूसरी शादी की तैयारी करेंगे. इस बार और भी धूमधाम से शादी करेंगे, ओके बेबी?’’

रचना की बातें सुन लतिका का मन कांपने लगा. मोहित से मनमुटाव का अंत तलाक में होगा, हो सकता है कि ऐसा उस के मुंह से गुस्से में कभी निकल गया हो, किंतु उस के मन ने इस बात को कभी स्वीकारा नहीं था. उस के मन की तरंगें जो एक बार फिर मोहित से जुड़ने लगी थीं, उन्हें उस की अपनी मां ही तोड़ने लगी थी. मां का कर्तव्य होता है बच्चों की गृहस्थी को जोड़े रखना, न कि आगे बढ़चढ़ कर उसे तोड़ने का प्रयास करना.

‘‘इतनी जल्दी क्या है, मौम? जब तलाक लेना होगा, मैं बता दूंगी आप को और वैसे भी आज शाम मैं बिजी हूं,’’ लतिका ने बात टालनी चाही.

‘‘देखो लतिका, हर समय तुम्हारी मरजी चले, सभी तुम्हारी मरजी से जिंदगी जीएं, ऐसा नहीं हो सकता है,’’ रचना अचानक सख्त लहजे में बात करने लगीं, ‘‘तुम ने मोहित से शादी करनी चाही, हम ने करवा दी. जैसी शादी चाही, वैसी करवा दी. अब तुम हनीमून के तुरंत बाद घर लौट आई हो, हम ने वह भी स्वीकार लिया. इस का अगला कदम तलाक ही है. तलाक लो, दूसरी शादी करो और जाओ अपने घर. हमें भी समाज में रहना है, लोगों की बातों का सामना करना है,’’ लतिका को लगभग डांटते हुए रचना कहे जा रही थीं. अपनी बेटी को उदास करना उन्हें जरा भी नहीं भा रहा था, किंतु लतिका के भले के लिए, अपना जी कड़ा कर वे सब बोलती जा रही थीं. उन्हें अपने पिता की बात याद आ रही थी कि जली तो जली, पर सिंकी खूब. चाहे लतिका उन की बात का बुरा मान ले, किंतु इन्हीं बातों से वह अपना जीवन व्यर्थ न कर के सही राह चुन पाएगी.

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लतिका की भी समझ में आ रहा था कि उसे जो भी निर्णय लेना है, वह आज ही लेना होगा. शाम को उसे मोहित से मिलना है और आज रात को वह दूसरा लड़का खाने पर घर आ रहा है. अवश्य ही मां उस के सामने शादी की बात छेड़ेंगी. उस से पहले लतिका को अपना फैसला अपनी मां को बताना होगा.

नियत समय पर लतिका कैफे पहुंच गई. मोहित पहले से ही वहां प्रतीक्षारत था. मोहित ने दोनों की पसंदीदा चीजें और्डर कीं. दोनों कुछ असहज थे.

मोहित पहले बोला, ‘‘लतिका, प्लीज घर चलो. सब घर वाले तुम्हें कितना मिस कर रहे हैं. मां तो रोज तुम्हारे बारे में पूछती हैं. वह तो मैं ने ही उन्हें रोक रखा है कि तुम्हें कुछ समय और चाहिए वरना वे कब की तुम्हारे घर आ कर तुम्हें ले जाने की बात कर चुकी होतीं…’’

मोहित और कुछ कहता उस से पहले ही लतिका बोल उठी, ‘‘कब लेने आओगे मुझे?’’

एक हलकी सी मुसकान दोनों के अधरों पर खेल रही थी, नजरें भी मुसकराने लगी थीं. देखते ही देखते लतिका और मोहित अपने 1 वर्ष पुराने प्यार और उस में बिताए अनगिनत क्षण याद कर भावुक हो गए. उन्हें विश्वास होने लगा कि वे एकदूसरे के लिए बने हैं. आवश्यकता है तो बस इस प्यार को पनपने देने की.

शादी कभी एकतरफा रिश्ता नहीं होती. दोनों पक्ष इसे बराबर निभाते हैं. तभी गृहस्थी की गाड़ी आगे बढ़ पाती है. देर शाम मायके से ससुराल के लिए विदा होने में लतिका व मोहित के साथ रचना की मुसकराहट भी नहीं थम रही थी.

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Serial Story: पलकों की गलियों में

 

 

 

 

 

Serial Story: पलकों की गलियों में (भाग-3)

एक सिंहक रिश्ते की शिकार औरत का पूरा व्यक्तित्त्व ही बदल जाता है. वह अपने

में सिमट कर रह जाती है. ईमान अब अकसर घबराई रहती, संकोच करती रहती. सचिन पूछा करता, ‘‘तुम्हारे आत्मविश्वास को क्या हो गया है? कैसी दब्बू सी हो गई हो तुम…’’

ऐसी बातों का कोई जवाब न था ईमान के पास पर बारबार ऐसे शब्द उस के आत्मविश्वास को और भी गिरा देते थे. किसी शिक्षित, आज की लड़की के लिए यह बेहद मुश्किल घड़ी थी. वह यह जानती थी कि वह यह एक गलत रिश्ते में है पर फिर भी स्वीकार नहीं पा रही थी कि वह इतनी बेबस हो चुकी है. ये रिश्ता उस के लिए एक कारागार की तरह हो गया था जहां उस की आवाज कैद थी, उस का शरीर बंद था और मन भी. कैसे किसी को कहे कि 21वीं सदी की इतनी पढ़ीलिखी, एक आत्मनिर्भर औरत होते हुए भी उस की आज यह हालत थी. दरअसल, परिवार के विरुद्ध जा कर उस ने जो कदम उठाया था उसी को गलत स्वीकारना बेहद कठिन हो रहा था. अपनी इच्छा से चुने रिश्ते में कमी निकालने की हिम्मत करे तो कैसे? लोग क्या कहेंगे?

‘‘मेरा ममेरा भाई मथुरा में रहता है. वह कुछ दिन हमारे पास रहने आएगा. 10वीं कक्षा में है, उसे कुछ कोचिंग का पता करना है यहां,’’ एक शाम सचिन ने बताया.

‘‘हां, बड़े शहर में अच्छे कोचिंग सैंटर मिल जाते हैं,’’ ईमान ने उस की हां में हां मिलाई. ‘‘बता देना कब आ रहा है और उसे क्या पसंद है खाने में.’’

सचिन के मामा और उन के बेटे इप्सित की ईमान से अच्छी आवभगत की. अगले दिन इप्सित को वहीं छोड़ कर मामा लौट गए. इप्सित नई पीढ़ी का एक होशियार लड़का था. कुछ ही दिनों में वह समझ गया कि ईमान सचिन से डरती है. उस की हर बात को हुकुम की तरह मानती है. हालांकि कमरे के अंदर क्या होता है इस की भनक इप्सित को मिलना मुमकिन नहीं था, किंतु सब के सामने ईमान का सचिन की हर बात मानना, उस के आवाज लगाने पर दौड़ते हुए आना, उस के द्वारा आंखें तरेरने पर घबरा जाना यह काफी था इप्सित को यह समझने के लिए कि उस के भैया शेर हैं और ईमान बकरी.

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एक शाम जब ईमान औफिस से लौट कर खाना पका रही थी तो इप्सित ने दबे पांव पीछे से आ कर अपनी आवाज को सचिन की तरह गंभीर मुद्रा में नियंत्रित कर सख्ती से पुकारा, ईमान. ईमान को लगा उस से फिर कोई गलती हो गई जिस के लिए सचिन उस से नाराज हो उठा है. वह भयभीत हो उठी. उचक कर पलटी तो सामने इप्सित को खड़ा देख भौचक्की रह गई.

उस की विस्फारित आंखों को देख इप्सित तालियां बजाने लगा, ‘‘मैं ने भी आप को डरा दिया. देखा, मैं भी भैया से कम नहीं हूं.’’

इप्सित की इस बात से ईमान विचलित हो उठी. क्या नई पीढ़ी भी घर के अंदर हिंसा देख कर वही सीखेगी? ईमान का सिर घूमने लगा. इप्सित को घर में रहते बामुश्किल 1 महीना गुजरा था और उस ने देहरी के अंदर घटिया मानदंड सीखने शुरू कर दिए थे. इसी सोच में डूबी ईमान ने आज बड़े बेमन से खाना पकाया. सचिन आ चुका था. उस ने सब को डाइनिंगटेबल पर आवाज दी. सचिन और इप्सित बैठ गए और ईमान उन की प्लेटों में खाना परोसने लगी. पहला कौर खाते ही सचिन जोर से चीखा, ‘‘दाल में नमक तेरी मां डालेगी?’’ और उस ने प्लेट उठा कर ईमान की ओर फेंकी. स्टील की प्लेट का पैना किनारा ईमान के माथे पर लगा. दाहिने कोने से खून की धारा फूट पड़ी. उस के कपड़ों पर खाना बिखर चुका था और ऊपर से खून बह रहा था. ईमान घबरा कर बाथरूम की ओर भागी. अंदर जा कर जब उस ने खुद को आईने में देख तो चोट से भी ज्यादा उसे अपनी हालत पर रोना आया. उसे खुद पर तरस आया और ग्लानि भी. यह क्या कर रही है वह अपने साथ? एक छोटी सी बेध्यानी के कारण हुए इस वाकेआ ने ईमान को उस की जड़ों तक हिला दिया. क्यों कर रही है वह अपनी जिंदगी बरबाद? क्या हमेशा ऐसे ही चलेगा? अब तक जो हिंसा घर के अंदर, केवल इन दोनों के बीच हुआ करती थी, आज उस में एक मेहमान की उपस्थिति भी हो चुकी है. तो क्या जो भी इन के घर आएगा, उस के सामने सचिन ऐसे ही बरताव करेगा उस के साथ? क्या ईमान की कोई इज्जत, कोई सम्मान नहीं?

शादी का यह मंजर बहुत खौफजदा हो चला. बेहद घुटनभरा. ऐसा नहीं हो सकता कि

हम सांस भी न लें और जिंदा भी रहें. ईमान प्यार में नहीं, डर में अंधी हो रही थी. प्यार तो न जाने कब का पीछे छूट चुका. अब हैं तो बस जिम्मेदारियां और डर जिस के कारण ईमान सहमी रहती. लेकिन आज उस की सीमा पार हो गई. अब तक वह खुद को गलत और सचिव को परेशान समझ कर माफ करती आई. लेकिन अब बात दोनों के बीच से गुजर कर बाहर चली गई. किसी तीसरे की मौजूदगी में भी अगर सचिन को कोई लिहाज नहीं तो फिर आगे आने वाली जिंदगी तो बद से बदतर होती जाएगी. उस के घर के अंदर का क्या वातावरण होगा, उस के बच्चे क्या सीखेंगे, उस की क्या हैसियत होगी घर और समाज में? इतनी अच्छी शिक्षादीक्षा, इतनी अच्छी नौकरी करने के बाद भी अगर ईमान के आंचल में केवल पिटाई और आंसू हैं तो फिर लानत है. क्या उस के मातापिता ने इसलिए उसे अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया? न जाने कितने ही सवाल ईमान के दिमाग चक्कर काटने लगे. उस ने फौरन पट्टी करवाने के लिए अस्पताल जाने का मन बनाया. उसी हालत में वह बाहर आई तो देखा सचिन खाना खा चुका था. नीचे बिखरा खाना ज्यों का त्यों था.

उस की गंभीर हालत देख सचिन उस की ओर लपका, ‘‘ओह तुम्हें काफी चोट लग गई, ईमान, चलों मैं तुम्हें डाक्टर के पास ले चलूं…’’

मगर ईमान ने हाथ के इशारे से उसे वहीं रोक दिया. वह अकेली ही घर से बाहर निकली, सामने से जाता हुआ औटो रोका और उसे अस्पताल चलने को कहा. अस्पताल पहुंच कर उस ने फौर्म भरा, डाक्टर के पूछने पर कारण बताया घरेलू हिंसा. अब बहुत हो चुका है. बहुत सह चुकी है वह. इस रिश्ते में वह एक उम्मीद के साथ आगे बढ़ी थी ताकि पलकों की गलियों में पल रहे उस के सुनहरे सपने सच हो सकें, न कि आंसुओं के बवंडर से वे सपने धुल जाएं. इस जंजाल से बाहर निकलने का समय आ गया है. अब शायद पुलिस को बुलाया जाएगा. उस की हालत की जानकारी उस के परिवार को मिल जाएगी. हो सकता है वह कहें हम ने तो पहले ही मना किया था, हमारी बात मानी होती तो आज यह दिन न देखना पड़ता, और न जाने क्याक्या हो सकता है. वह विधर्मी विवाह और उस के प्यार पर उंगली उठाएं. लेकिन एक गलत रिश्ते का अर्थ ये कदापि नहीं कि प्यार पर से विश्वास उठ जाना चाहिए. हो सकता है उसे करारी छींटाकशी का शिकार होना पड़े, पर कोई बात नहीं वह झेल लेगी. वह अपने पैरों पर खड़ी है. अब उसे किसी पर न तो बोझ बनने की जरूरत है और न ही अपनी इज्जत को यों तारतार होते देखने की. जरूरत है तो बस इस कदम को उठाने की. आखिर उसे भी हक है खुश रहने का.

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Serial Story: पलकों की गलियों में (भाग-2)

कराहती हुई ईमान बिस्तर के एक कोने से चिपक कर धीरे से लेट गई. आंसू अब भी कानों को गीला कर रहे थे. इस हादसे से ईमान बेहद डर गई. उस ने कभी अपने बुरे सपने में भी नहीं सोचा था कि उस का रेप हो सकता है और वह भी अपने ही घर में. हर रात जब ईमान सचिन की बलिष्ठ बांहों में सिमटती थी तो उसे कितना सुरक्षित लगता था पर आज जो हुआ वह किसी भी कोण से प्यार न था, वह थी हिंसा, वह था बदला, उसे उस की औकात दिखाई गई थी. आज ईमान की इतनी हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि वह जोर से सांस ले सके. अपना दम थामे उस ने रात निकाल दी.

इस प्रकरण ने ईमान के भीतर एक कायरता को जन्म दिया. सुबह सचिन के उठने से पहले ही उठ कर उस ने नाश्ता तैयार कर दिया. न जाने कैसे सामना करेगी वह सचिन का. उस के उठने का इंतजार करने से बेहतर है कि वह किचन में काम निबटा ले.

तभी सचिन के उठने की आवाज से ईमान पुन: चौंक गई. हौले से पीछे मुड़ कर देखा तो सचिन चेहरे पर शर्मिंदगी के अनेकानेक भाव समेटे खड़ा था. आंखें जमीन में गढ़ी थीं.

मुख पर मलिन रंग ओढ़ सचिन बुदबुदाया, ‘‘मुझे माफ कर दो ईमान. मैं जानता हूं जो मैं ने किया वह माफी के लायक तो नहीं पर पता नहीं कल रात मुझे क्या हो गया था… तुम मेरे बौस को तो जानती ही हो. कल उस ने सारा दिन मेरा खून पीया, टीम मीटिंग में मुझे बेइज्जत किया… शायद इसी कारण कल रात मेरा दिमाग खराब हो गया था. प्लीज, प्लीज, मुझे माफ कर दो. आइंदा ऐसा कभी नहीं होगा,’’ सचिन तब तक माफी मांगता रहा जब तक ईमान पसीज न गई. सचिन ने क्षमायाचना में कोई कसर नहीं छोड़ी, ‘‘मेरा विश्वास करो, ईमान, आइंदा ऐसा कभी नहीं होगा.’’

सचिन के बारंबार क्षमायाचना करने से ईमान को भी विश्वास हो चला कि ये पहली और आखिरी गलती थी. इस बार उस ने सचिन को माफ कर दिया.

ईमान अब बदल चुका था. उस के इस बदलाव को सब से पहले पारुल ने गौर किया. उस ने भी यही पूछा कि उस के आत्मविश्वास को क्या होता जा रहा है. हर तरफ से उठते एक से प्रश्नों ने फायदा नहीं, अपितु और नुकसान किया.

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उन्हीं दिनों औफिस में एक नए लड़के मेहुल ने जौइन किया. मेहुल एक समझदार, आकर्षक और ठहरा हुए व्यक्तित्व का स्वामी था. पारुल को वह पहली नजर में भा गया.

‘‘कितना हैंडसम है न मेहुल. मेरा जी करता है उसी की टीम में चली जाऊं,’’ पारुल ने हंस कर कहा तो ईमान भी बोल पड़ी, ‘‘हां, स्मार्ट तो है. काश, इस की गर्लफ्रैंड न हो.’’

‘‘और न ही बौयफ्रैंड,’’ कहते हुए दोनों सहेलियां हंस पड़ीं.

शाम को जब ईमान घर लौटी तो दरवाजे पर घंटी बजाने पर सचिन ने दरवाजा नहीं खोला. ईमान ने अपनी चाबी निकाली और दरवाजा खोल कर अंदर चली गई.

अंदर प्रवेश करते ही उसे सचिन सामने सोफे पर बैठा दिखा तो ईमान ने हैरत से सवाल किया, ‘‘तुम घर पर ही हो तो दरवाजा क्यों नहीं खोल रहे थे? मुझे लगा तुम अभी तक औफिस से लौटे नहीं…’’

ईमान आगे कुछ कह पाती उस से पहले सचिन ने उस के बाल पकड़ कर उसे जमीन पर धकेल दिया. ईमान फड़फड़ा उठी. सचिन पर आज फिर भूत सवार था. ईमान की चीखपुकार का उस पर तनिक भी असर नहीं हो रहा था. सचिन ने आव देखा न ताव, ईमान को बांह से घसीटता हुआ कमरे में ले गया और अपनी जींस की बैल्ट खोल कर उस पर तड़ातड़ बरसाने लगा.

ईमान तड़प उठी. कभी खुद को बचाने का विफल प्रयास करती तो कभी बैल्ट को हाथों से रोकने का. करीब 5-6 बार पूरी ताकत से ईमान पर कोड़ों की तरह बेल्ट मारने के बाद सचिन ने उसे बिस्तर पर दे पटका. उस ने बेहद फुरती से ईमान के कपड़े उतारने शुरू कर दिए और अपनी दोनों बांहों से उसे बिस्तर पर जड़ कर दिया. फिर वह उस पर टूट पड़ा. ईमान का रुदन, उस की चीखें, उस की पीड़ा कमरे की बेजान दीवारों से टकरा कर उसी बिस्तर पर ढेर होती रहीं.

अपना जोर आजमा कर सचिन करवट फेर चुका था. सोया वह भी नहीं था. उस की सांस की फुफकार ईमान के कानों में पड़ रही थी. डर के मारे ईमान बुत बनी अपनी सांस रोके पड़ी रही. आज के वाकेआ ने उसे बेइंतहा डरा दिया. अब वह सचिन के सामने मुंह खोलने की हिम्मत भी खो चुकी थी. खुद को कितना बेबस, कितना लाचार और कितना अपमानित महसूस कर रही थी.

जैसेतैसे रात बीती. सुबह ईमान औफिस जाने की हालत में नहीं थी. चेहरे और शरीर पर बैल्ट की चोट के निशान अपनी दस्तक छोड़ चुके थे. उस के शरीर में बेहद दर्द हो रहा था. उस के हाथपांव भी साथ नहीं दे रहे थे.

रोजाना सुबह का अलार्म बजा तो उस से पहले सचिन उठा खड़ा हुआ. रात का दंभ उतर चुका था. वह लपक कर ईमान के पास आया तो वह और भी घबरा गई. उस का चेहरा सफेद पड़ गया और आंखें डबडबा गईं, पर सचिन पर से ताकत का जनून उतर चुका था.

‘‘मुझे माफ कर दो… ईमान मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. मुझे तुम पर हाथ नहीं उठाना चाहिए था…पर मैं करता भी क्या, इस में गलती तुम्हारी ही है. तुम उस कल के आए छोकरे मेहुल को मुझ से ज्यादा महत्त्व दे सकती हो, ऐसा मैं ने कभी सोचा भी न था. मैं तो सोचता था कि तुम मुझ से प्यार करती हो पर तुम तो…’’ वह ईमान पर दोषारोपण करते हुए बोला.

‘‘यह क्या कह रहे हो सचिन… औफकोर्स मैं तुम से प्यार करती हूं,’’ कहते हुए ईमान सिसकने लगी, ‘‘वह तो मैं पारुल के साथ हार्मलैस जोक कर रही थी… मुझे क्या पता था कि तुम मुझे इतना गलत समझोगे,’’ और ईमान की रुलाई फूट गई.

‘‘यह भी कोई जोक होता है भला, मुझे ऐसी बातें बिलकुल पसंद नहीं. मैं कितना दुखी हो गया था तुम दोनों की बातें सुन कर,’’ सचिन भी मुंह लटकाए कहता जा रहा था. उस की आंखों में अब भी रोष भरा हुआ था.

उस की आंखों के भाव पढ़ कर, उस का माफीनामा सुन कर ईमान ने सचिन को

दूसरा मौका देने का निश्चय कर लिया. प्यार में तीसरा, 5वां, 8वां, 10वां मौका देना आसान है, पर रिश्ता तोड़ देना कठिन है. पैतृक समाज में पलीबढ़ी लड़कियों को अकसर पुरुषों की अपेक्षा अपनी ही गलतियां नजर आती हैं. बेचारे पुरुषों को न तो रिश्ते निभाने की समझ होती है और न ही औरतों जितनी संवेदनशीलता, ऊपर से उन का खून गरम होता है और ताकत औरतों से अधिक, करें भी तो क्या करें. इस सोच की मारी औरतें अपने अंदर ही कमी ढूंढ़ लेती हैं. बचपन से घुट्टी पिलाई गई मर्दों को अपने से सर्वोच्च मान कर माफ कर देने की शिक्षा, हमारे अंदर गहरी पैठ किए रहती है जो उच्च शिक्षा और पद से भी नहीं मिटती.

आज पिटाई और रेप के बाद ईमान ने सचिन की आंखों में जो पछतावा देखा, आंसू देखे, उन्होंने उस की अपनी पीड़ा भुला दी. औरतें तो रो ही लिया करती हैं पर मर्द रोते हुए कब अच्छे लगते हैं भला. उस ने फौरन उसे माफ कर दिया. गलती उसी की थी जो उस ने एक रिश्ते में बंधे होते हुए भी परपुरुष के लिए ऐसा मजाक किया.

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मगर उस दिन ईमान औफिस न जा सकी. हालत ठीक नहीं थी. एक दिन आराम किया, दवा खाई और अगली सुबह मेकअप से अपने चोटिल शरीर को छिपा कर ईमान औफिस पहुंची. ऊपर से वह नौर्मल थी. मन की तहों में उस ने अपनी गलती स्वीकार कर सचिन को माफ कर दिया था. फिर भी उस के मन में अब सचिन के प्रति एक डर बैठ गया. वह उस की किसी भी बात का विरोध नहीं करती और न ही कोई बहस करती. उस की हां में हां मिलाते हुए आराम से अगले कुछ दिन ऐसे ही बीते. किंतु सचिन का हाथ खुल चुका था. यदि कुछ उस की पसंद का न होता, समय पर न मिलता तो वह ईमान पर हाथ उठा देता, कभी चीखता तो कभी लात मारता. कभीकभी बेस्वाद खाने की थाली फेंकता तो कभी ‘क्यों मुझे गुस्सा दिलाती हो,’ कह अपना आपा खो बैठता.

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Serial Story: पलकों की गलियों में (भाग-1)

‘‘यहहुई न बात… क्या खबर सुनाई है… मेरी जान, सुन कर मजा आ गया,’’ पारुल ने चहकते हुए कहा.

‘‘धीरे बोल, दीवारों के भी कान होते हैं. कहीं यह खबर औफिस में न फैल जाए,’’ ईमान ने पारुल का हाथ दबाते हुए कहा.

‘‘कितना हैंडसम है सचिन, उस की जिम में तराशी हुई बौडी, पर ये सब हुआ कब?’’ पारुल को और भी उत्सुकता थी. आखिर खबर ही ऐसी थी और वह भी औफिस में उस की एकलौती सहेली के बारे में.

जब ईमान ने पहली बार सचिन को कंपनी की टीम मीटिंग में देखा था तभी उस की नजर अटक गई थी. लंबी कदकाठी, तीखी जौ लाइन, शर्ट की बाजुओं में से झांकता सुडौल शरीर बता रहा था कि यह गठीला बदन जिम ट्रेनिंग का नतीजा है, उस पर आजकल की लेटैस्ट फैशन वाली ट्रिम की हुई दाढ़ी. ईमान को फैशनेबल लोग बेहद पसंद आते थे. वह स्वयं भी समय की चाल से कदम मिला कर चलने वाली लड़की थी.

सचिन की निगाहें भी उस पर जड़ गई थीं. ईमान का छरहरा बदन, आकर्षक रंगरूप, मोतियों की लड़ी जैसे दांत, आत्मविश्वास से लबरेज मनमोहक मुसकराहट और नितंबचुंबी बाल सबकुछ सामने वाले के होश उड़ाने के लिए पर्याप्त थे. उस की बड़ीबड़ी कजरारी आंखों पर सज रहा सुनहरे फ्रेम का चश्मा उन्हें और भी पैना बना रहा था.

सचिन और ईमान को साथ काम करते करीब 6 माह बीत चुके थे. जितना औफिस में हो सकता था उतना रोमांस दोनों के बीच पनप चुका था. शुरुआत आंखों के इशारों से हुई थी और फिर दोनों ने एकसाथ लंच करना आरंभ कर दिया. कभीकभार दिल्ली की भीड़भरी शामों में घूमने निकल जाते. फिर ईवनिंग डेट पर कभी मूवी तो कभी डिनर, क्योंकि औफिस में ऐंटीरिलेशनशिप क्लौज था. इसलिए दोनों बाहर ही मिला करते. लेकिन ऐसा बहुत कम हो पाता. ईमान व सचिन के घर वाले धर्मभीरु सोच के शिकार थे. हमारे समाज में 21वीं सदी में भी धर्म का शिकंजा काफी कसा हुआ है. अपने बच्चों को उचित शिक्षा प्रदान करने, आत्मनिर्भर बना देने के बावजूद लोग उन्हें अपने जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार नहीं देते हैं. हिंदूमुसलमान होने के कारण इस रिश्ते को घर वालों की अनुमति मिलने की आशा बहुत कम थी. दोनों के बीच जो धर्म की पुख्ता दीवार खड़ी थी, उसे लांघना काफी कठिन लगता.

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रोमांस की राह में थोड़ा आगे बढ़ने के बाद दोनों ने अपने रिश्ते को अगले पड़ाव पर ले जाने का निश्चय किया. किंतु शादी की बात घर में कौन चलाए, यह सोच दोनों अकसर उलझन में रहने लगे. जैसे ईमान के घर वालों का इस रिश्ते के लिए तैयार होना लगभग नामुमकिन था, वैसे ही सचिन के परिवार वाले भी इस शादी के लिए कभी तैयार नहीं होंगे. इस स्थिति से मुक्ति पाने का एक ही तरीका दोनों को सूझा रजिस्टर्ड मैरिज का. दोनों ने कोर्ट में अर्जी दे दी और 1 महीने पश्चात चुपचाप कोर्ट में शादी कर ली. अब परिवार वाले केवल कोस सकते थे, उन का कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे.

वही हुआ जिस का अनुमान था. दोनों परिवारों को जब इस विवाह के बारे में ज्ञात हुआ तो दोनों ही ओर से नवदंपती की झोली में केवल बद्दुआएं, मांओं के अश्रु और नाउम्मीदी हाथ लगी. पर वह प्यार ही क्या जो पथरीली राह से डर जाए. सचिन और ईमान अपने प्यार के साथ आगे बढ़ चले. इसी शहर में दोनों ने 1 वनरूम सैट ले लिया. दोनों के लिए पर्याप्त था. महानगरों में रहने का एक लाभ यह भी है कि इतने बड़े शहर, इतने लोगों की भीड़ में आप आसानी से खो सकते हैं.

एक ही शहर में रहते हुए भी दोनों अपनेअपने परिवार से दूर थे. ईमान और सचिन अपना थोड़ाबहुत सामान ले कर शिफ्ट हो गए. पूरा वीकैंड दोनों ने अपना नया आशियाना सैट करने में लगाया. सैकंड हैंड सोफा सैट के साथ लकड़ी की गोल मेज पर रखे गुलदान में ईमान ने ड्राई फ्लौवर अरेंजमैंट सजाया. रात तक घर सजाते हुए दोनों थक कर चूर हो चुके थे.

‘‘खाना कौन बनाएगा?’’ पूछते हुए ईमान हंसी.

‘‘आज बाहर से मंगवा लेते हैं. रूटीन सैट होने पर दोनों जिम्मेदारियां लेंगे,’’ सचिन का उत्तर ईमान का दिल जीत गया. वह सचिन से अपने परिवार के विरुद्ध जा कर शादी करने के अपने निर्णय से संतुष्ट भी हुई और हुलसित भी.

आज दोनों की सुहागरात थी, किंतु कोई फूलों की सेज नहीं, न ही मखमली बिस्तर और सुगंधित कक्ष, मगर प्रेमसिक्त खुमारी उन्हें मदहोश किए थी. जब प्यार के सुवास ने रिश्ते को स्पर्श कर दिया तो फिर बाहरी खुशबू का क्या काम. एकदूसरे की बांहों में झूलते, खिलखिलाते हुए मधुसिक्त एहसास से परिपूर्ण वे विवाहित जीवन में कदम रख चुके थे.

सोमवार से दोनों साथ में औफिस जानेआने लगे. धीरेधीरे घर के कामकाज भी शुरू हो गए. सचिन बिल इत्यादि भरने का काम और बाहर से सामान लाने का काम संभाल चुका था और ईमान खाना पकाने और घर की देखभाल की जिम्मेदारी उठा रही थी. पर हां तड़का लगाने का काम सचिन का ही था. उस की स्मोकी दाल की क्या बात थी. सहर्षता से दोनों अपने रिश्ते में आगे बढ़ चुके थे. अब उन के बीच कोई दीवार न थी. हनीमून पीरियड चल रहा था. दोनों औफिस से घर लौटते, तत्पश्चात ईमान खाना पकाती, सचिन कपड़ों का रखरखाव करता, फिर डिनर कर दोनों एकदूसरे की बांहों में समा कर सो जाते. ईमान हर समय खिलीखिली रहती.

शादी को लगभग 3 माह बीत चुके थे. जिम्मेदारियों को निभाते हुए अब तक दोनों एक तय दिनचर्या का हिस्सा बन चुके थे.

‘‘आओ न ईमान, कितनी देर लगा रही हो…’’ रात को सचिन ने बिस्तर से आवाज लगाई.

ईमान किचन में बरतन साफ करते हुए कुछ अनमनी सी बोली, ‘‘आज बहुत थकान हो रही है, शायद पीरियड्स आने वाले हैं, इसलिए शरीर गिरागिरा सा हो रहा है.’’

‘‘यार यह हर महीने की मुसीबत है,’’ सचिन का यह कहना ईमान को रास न आया, ‘‘तुम से क्या मांगती हूं? काम तो फिर भी कर ही रही हूं न?’’ उस ने भी प्रतिउत्तर में सड़ा सा जवाब दे डाला. दफ्तरी परिश्रम उसे भी उतना ही चूर करता था जितना सचिन को.

‘‘यह धौंस किसी और को दिखाना समझी?’’ सचिन उस के यों जवाब देने से चिढ़ कर बोला.

‘‘ऐसे कैसे बात कर रहे हो, सचिन? अपनी हद में रहो, मैं तुम्हारी बीवी हूं,’’ ईमान को भी गुस्सा आ गया. मगर सचिन आज दूसरे ही मूड में था. वह झटके से बिस्तर से उठा और फिर ईमान को उस की जींस की बैल्ट से पकड़ कर खींचते हुए बिस्तर पर ला पटका.

जब ईमान चिल्लाई कि ये क्या कर रहे हो तो सचिन ने एक थप्पड़ रसीद कर दिया.

आज सचिन ने उस की एक न सुनी और ईमान की इच्छा के विरुद्ध उस की अस्मत को छलनी कर डाला. इस पूरे समय सचिन लगातार आक्रोशपूर्ण अपशब्द उगलता रहा, ‘‘जब खुद का मूड होता है तब सब ठीक लगता है और जब मेरा मूड होता है तब? तेरे होते हुए किसी दूसरी को पकड़ कर लाऊं क्या?’’

न जाने क्याक्या सुना था ईमान ने उस रात. पिघला सीसा कानों से उतर कर दिल और दिमाग को सुन्न कर गया था. अपनी भूख शांत कर सचिन मुंह फेर कर सो गया.

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कुछ देर यों ही पड़े रहने के बाद ईमान ने अपने छटपटाते शरीर को संभाला और बाथरूम में चली गई. शावर के नीचे वह टूट कर गिर पड़ी. न जाने कितनी देर तक वहां पड़ी रोती रही, तड़पती रही. सचिन की जिस जिमटोन बौडी की वह कभी फैन थी, आज उसी शरीर ने उसे रौंद डाला था.

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Serial Story: सुबह दोपहर और शाम

Serial Story: सुबह दोपहर और शाम (भाग-3)

आजकल विभू कुछ ज्यादा ही चिड़चिड़ा हो गया है. सारा दिन रिरियाता रहता है. अकेला छोड़ो तो कुछ भी उठा कर मुंह में डाल लेता है. 2 दिन से तो लूज मोशन इतने ज्यादा हो गए कि ड्रिप चढ़वाने तक की नौबत आ गई. घबराई सी काव्या उसे पास के डाक्टर को दिखाने ले गई.

‘‘बच्चे के दांत निकल रहे हैं. ऐसे में मसूढ़ों में खुजली होने के कारण बच्चों की हर समय कुछ न कुछ चबाने की इच्छा होती है, इसलिए वे कुछ भी मुंह में डालते रहते हैं. इसी से पेट में इन्फैक्शन हो गया है. आप बच्चे को खिलौनों में उलझाए रखें. कोशिश करें कि बच्चा अकेला न रहे,’’ डाक्टर ने उसे कारण बता कर समझाया.

‘‘हर बार बस मैं ही बुरी कहलाती हूं. अब साथी कहां से लाऊं, बच्चे को अकेले रखने का फैसला भी तो मेरा अपना ही सोच था. काव्या रोआंसी ओ आई. आज उसे सास की बहुत याद आ रही थी. लेकिन मनमरजी से जीने की ऐंठ अभी भी कम नहीं हुई थी.

8 महीने का विभू अब घुटनों के बल चलने लगा था. सो कर उठने के बाद चलना शुरू होता तो फिर चीटी की तरह रुकने का नाम ही नहीं लेता था. घर का वह हर सामान जो उस की पहुंच में आ जाता, बस उठाया और धम्म से नीचे… कभी ड्रैसिंगटेबल उस की जद में होती तो कभी रसोई के बरतन… कभीकभी अभय के जरूरी कागजात भी उस के हाथों जन्नत पा जाते. काव्या उस के पीछेपीछे भागती थक जाती, लेकिन विभू सामान गिराता नहीं थकता, क्या करे काव्या… किसी से शिकायत करने की स्थिति में भी नहीं थी.

फिर एक दिन काव्या दोपहर में विभू के साथ लेटी थी. गृहस्थी के बोझ से उकताई हुई काव्या जल्द ही खर्राटे भरने लगी. विभू की नींद कब खुली उसे पता ही नहीं चला. पलंग से नीचे उतरने की कवायद में विभू औंधे मुंह गिर पड़ा. गिरने के साथ ही पलंग का कोना उस के माथे में लगा और खून निकलने लगा. बच्चे की चीख के साथ काव्या की नींद खुली. बच्चे को खून से लथपथ देख कर काव्या के हाथपांव फूल गए. तुरंत अभय को फोन लगाया और खुद विभू को ले कर डाक्टर के पास भागी.

‘‘सिर में गहरी चोट आई है… 4 टांके लगे हैं… मैं ने आप से पहले भी कहा था कि इस उम्र में बच्चे अधिक चंचल होते हैं, उन्हें हर समय निगरानी में रखना चाहिए… जरा सी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है,’’ डाक्टर के कहने के साथ ही काव्या की आंखों से आंसू बहने लगे.

‘‘तुम से नहीं पलेगा बच्चा… मां को फोन लगाओ,’’ अभय उस पर लगभग चिल्ला ही उठता पर हौस्पिटल के शिष्टाचार के नाते उसे अपनी जबान पर साइलैंसर लगाना पड़ा. बच्चे की इस हालत के लिए वह काव्या को ही कुसूरवार मान रहा था. काव्या ने मोबाइल निकाला और सास का नंबर डायल किया.

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‘‘यहां नैटवर्क नहीं आ रहा है, मैं बाहर जा कर ट्राई करती हूं,’’ काव्या को उस के ईगो ने बहाने बनाने खूब सिखा दिए थे.

‘‘सुन रिया… यार बहुत बड़ी प्रौब्लम हो गई… लगता है अब अभय अपने मांपापा को बुलाए बिना नहीं मानेगा… बता न क्या करूं? कैसे उन्हें आने से रोकूं?’’ काव्या ने रिया को फोन लगाया और आज के घटनाक्रम का ब्यौरा देने लगी.

‘‘अरे यार, मैं अपनी ससुराल आई हुई हूं… अभी बात नहीं कर सकते… तू नव्या से बात कर न…’’ रिया ने उसे बात पूरी करने से पहले ही टोक दिया.

‘‘तुम और ससुराल? तुम्हें तो सासससुर के साथ रहना कभी नहीं सुहाया… फिर अचानक तुम्हारा यह फैसला… तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न…’’  अब चौंकने की बारी काव्या की थी.

‘‘हां यार, अब मैं भी तुम्हारी ही श्रेणी में आने वाली हूं न… तुम्हारी हालत देखदेख कर मुझे समझ में आ गया कि कुछ दिन का हनीमून पीरियड तो ठीक है, लेकिन हमेशा के लिए परिवार से दूर रहने में कोई समझदारी नहीं है, खासकर तब जब निकट भविष्य में उन की जरूरत पड़ने वाली हो कहने के अंदाज से ही रिया का स्वार्थ टपक रहा था.

काव्या को लगा मानो जिस डाली का वह सहारा लिए बैठी थी उस पर किसी ने कुल्हाड़ी चला दी.

अब तक अभय अपने मांपापा को फोन कर चुका था. शाम होतेहोते दादादादी अपने पोते के पास थे. विभू को अभी तक सिर्फ अपने मांपापा के पास रहने का ही अभ्यास था. इसीलिए अजनबी चेहरों को देखते ही वह काव्या की गोद में दुबक गया. लेकिन खून आखिर अपनी तरफ खींचता ही है… थोड़ी ही देर में विभू दादादादी से घुलमिल गया. रात को भी उन्हीं के साथ सोया.

अगली सुबह काव्या के चेहरे की रौनक और अभय के चेहरे की संतुष्टि

बता रही थी कि महीनों बाद दोनों ने इतनी निश्चिंतता से नजदीकियां भोगी हैं.

पोते के आगेपीछे भागतेभागते दादादादी के घुटनों का दर्द न जाने कहां गायब हो गया. दूधब्रैड के सहारे दिन निकालने वाले घर की रसोई दोनों समय पकवानों की खुशबू से महकने लगी. दादी की कोशिशों से विभू ने फीडिंग बोतल छोड़ कर गिलास से दूध पीना सीख लिया. दादा की उंगली थाम कर डगमगडगमग पग भी भरने लगा था.

‘‘काव्या, इस तरह तो तुम हम सब को खिलाखिला कर तोंदू बना दोगी,’’ एक शाम अभय ने रीझ कर कहा तो काव्या निहाल हो गई.

‘तसवीर के इस दूसरे रुख से मैं अब तक अनजान ही रही… उफ, कितनी बड़ी नासमझ थी,’ सोच काव्या आत्मग्लानि से भर जाती.

‘‘बच्चों के साथ 10 दिन कैसे बीत गए पता पता ही नहीं चला. अब हमें लौटना चाहिए,’’ एक दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर ससुरजी ने कहा तो काव्या हैरत से अपनी सास की तरफ देखने लगी.

‘‘हां, विभू के साथ मेरा तो जैसे बचपन ही लौट आया था, लेकिन फिर भी… बच्चों को उन की जिंदगी उन के तरीके से जीने देनी चाहिए. ये उन के खेलनेखाने के दिन हैं. उम्र का यह दौर लौट कर थोड़े आता है…’’ सास ने चाय पी कर कप नीचे रखते हुए पति की हां में हां मिलाई.

‘‘लौटना तो है ही… लेकिन आप अकेले नहीं जाएंगे, हम सब साथ चलेंगे… मैं ने अपना ट्रांसफर फिर अपने होम टाउन करवाने के लिए ऐप्लिकेशन दे दी है. तब तक आप लोग यहीं रहेंगे… अपने परिवार के साथ…’’ अभय ने एक रहस्यमयी मुसकान उछाली तो काव्या ने भी उस का साथ दिया.

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‘‘बड़े, सयाने सही कहते हैं कि बिस्तर चाहे कितना भी आरामदायक क्यों न हो, पूरी रात एक करवट नहीं सोया जा सकता,’’ दादी पहले अपने मूल और फिर सूद की तरफ देख कर मुसकराईं.

‘‘हां, सुबह के उड़े हुए पंछी शाम को घर लौटते ही हैं… यह अलग बात है कि कभीकभी रात भी हो जाती है, लेकिन लौटते तो अंतत: घोंसले में ही है न.’’  दादा भी मुसकरा दिए.

विभू अपने पापा की उंगली थामे दादा की बगल में खड़ा था. सुबह, दोपहर और शाम तीनों मुसकरा रहे थे.

Serial Story: सुबह दोपहर और शाम (भाग-2)

लुटे मुसाफिर की तरह तीनों गए. बच्चे के जन्म की खुशी फीकी पड़ गई. महीनाभर होने को आया. पतिपत्नी की बातचीत में ठंडापन आ गया. न चुहल… न मानमनौअल..न रूठनामनाना… न शिकवाशिकायत… सबकुछ मशीनी… मां अलग परेशान… अभय अलग परेशान… कहीं किसी मध्यमार्ग की गुंजाइश ही नजर नहीं आ रही थी.

अभय की ससुराल से बच्चे के नामकरण का न्योता आया… सब गए भी… लेकिन बुझेबुझे से… नाम रखा गया ‘विभू.’

‘‘बहू, अभय ने ट्रांसफर ले लिया है… बच्चे को ले कर अब तुम्हें वहीं उस के साथ जाना है…’’ रवानगी से पहले सास के मुंह से झरते अमृत वचनों पर सहसा काव्या विश्वास नहीं कर पाई. उस ने पति की तरफ देखा जो मुंह लटकाए खड़ा था.

अभी तो उदास हो रहे हो सैयांजी… जब खुली हवा में पंख पसारोगे तब पता चलेगा कि आसमान कितना विशाल है…’’ काव्या ने पति की तरफ भरोसा दिलाने की गरज से देखा.

3 महीने के विभू को ले कर काव्या ने अपने सपनों की दुनिया में पहला पांव रखा. नहींनहीं यह जमीन नहीं थी यह तो आसमान था… काव्या की ख्वाहिशों को पंख उग आए थे. ‘हम दो हमारा एक’ कल्पना करती काव्या खुशी से दोहरी हुई जा रही थी. उस ने पर्स एक तरफ पटका… विभू को पालने में लिटाया और पूरे घर में घूमघूम कर ‘स्वीट होम’ वाली फीलिंग लेने लगी.

‘‘एक तरह से देखा जाए तो यह मेरा गृहप्रवेश ही है… क्यों न आज कुछ खास बनाया जाए…’’ अपनी जीत की खुशी मनाते हुए काव्या ने रसोई का रुख किया. सामान खंगाला तो कुछ विशेष हाथ नहीं लगा.

‘‘छड़ों की रसोई ऐसी ही होती है,’’ काव्या मुसकरा दी. सूजी का हलवा बनाने के लिए कड़ाही चढ़ाई ही थी कि विभू रोने लगा. अभय बाथरूम में था. काव्या बच्चे को देखने की जल्दी में रसोई से बाहर लपकी तो गैस बंद करना भूल गई और जब वापस आई तो रसोई की हालत देख कर सिर पीट लिया. कड़ाही के घी ने आग पकड़ ली थी. वह तो अभय ने तुरंत सिलैंडर बंद कर के कड़ाही परे फेंक दी वरना कुछ भी अनर्थ हो सकता था. खैर, किसी तरह कच्चापक्का पका कर अभय को औफिस रवाना किया.

दोपहर के 2 बजने को आए, लेकिन अभी तक काव्या को नहाने तक का समय नहीं मिला. जैसे ही विभू की आंख लगती और काव्या बाथरूम की तरफ जाने को होती, पता नहीं कैसे शैतान को पता चल जाता और वह फिर कुनमुनाने लगता.

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‘‘वहां तो कोई न कोई होता इसे देखने के लिए…’’ काव्या के जेहन में सारा की छवि घूम गई.

‘गुलाब चाहिए तो कांटे भी स्वीकार करने होंगे काव्या रानी,’ काव्या ने अपने निर्णय को जस्टीफाई किया. इतनी जल्दी वह पराजय स्वीकार कैसे कर लेती. फिर उस ने एक जुगाड़ लगाया, विभू का पालना बाथरूम के दरवाजे से सटा कर रख दिया और आननफानन 2 कप शरीर पर डाल कर नहाने की औपचारिकता पूरी की. फटाफट गाउन पहना और 2-4 कौर निगले… तब तक विभू महाराज फिर से कुलबुलाने लगे… काव्या उसे ले कर बिस्तर पर लेट गई. दिन की पहली सीढ़ी ही पार हुई है… पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त…

शाम को अभय लौटा तो काव्या तुड़ेमुड़े गाउन में अलसाई सी बैठी थी. विभू अभी भी उस की गोद में था. बच्चे को अभय के हाथों में थमा कर चाय बना लाई और पीतेपीते दिनभर का दुखड़ा रो दिया. अभय ने उस में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई.

‘‘मम्मी का चमचा,’’ काव्या ने मुंह सिकोड़ा.

‘‘सुनो, आज खाना बनाने की हिम्मत नहीं है. चलो न कहीं बाहर चलते हैं… वैसे भी पिज्जा खाए बहुत दिन हो गए.’’ काव्या ने चिरोरी की तो अभय चलने के लिए तैयार हो गया.

‘हवा के साथसाथ… घटा के संगसंग… ओ साथी चल… तू मुझे ले कर साथ चल तू… यूं ही दिनरात चल तू…’ काव्या एक हाथ से अभय की कमर पकड़े और दूसरे हाथ से विभू को संभाले बाइक पर उड़ी जा रही थी… अभय के शरीर से उठती परफ्यूम और पसीने की मिलीजुली गंध ने उसे दीवाना बना दिया था. हालांकि अभय अभी भी चुप सा ही था. काव्या चाहती थी कि कुछ देर यों ही हवा से अठखेलियां होती रहें. लेकिन तभी अभय ने पीज्जाहट के सामने ले जा कर बाइक रोक दी.

महीनों बाद दिलबर के साथ आउटिंग थी… काव्या ने जीभर ‘ओनियन,

कैप्सिकम, टोमैटो पिज्जा विद डबल चीज’ खाए, साथ में फ्रैंचफ्राइज और गर्लिक ब्रैड भी… विभू थोड़ी देर तो खुश रहा, फिर परेशान करने लगा तो काव्या ने फीड करवा दिया. मां की छाती से लगते ही बच्चा सो गया. घर पहुंचते ही काव्या ने खुद को बिस्तर के हवाले कर दिया. दिनभर की थकीहारी तुरंत ही नींद के आगोश में चली गई. अभय इंतजार करता रह गया. अभी नींद आंखों में पूरी तरह से घुली भी नहीं थी कि विभू बाबू ने रंग बदलने शुरू कर दिए. आधेआधे घंटे के अंतराल पर 4 बार कपड़े गंदे कर दिए. पोतड़े बदलतेबदलते काव्या का रोना छूट गया. अभय ने उसे दवा दे दी, लेकिन दवा भी तो असर करतेकरते ही करती है. खैर, किसी तरह रात बीती तो विभू की आंख लगी. काव्या ने भी पलकें झपक लीं. आंख खुली तो सुबह के 8 बज रहे थे. अभय औफिस जाने के लिए लगभग तैयार था.

‘‘सुनो, तुम आज खाना बाहर से ही मंगवा लेना,’’ काव्या अपराधबोध से घिर गई.

‘‘आगेआगे देखिए होता है क्या,’’ रात की घटना से बौखलाया अभय बुदबुदाया.

पति के औफिस जाते ही काव्या ने नव्या को फोन लगाया और रात का किस्सा कह सुनाया.

‘‘यह तो मजे की सजा है रानीजी… कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है…’’ बहन ने उसे छेड़ा तो काव्या कुढ़ कर रह गई.

‘‘हो सकता है कि कल तुम ने जो पिज्जा खाया वह बच्चे को हजम नहीं हुआ और वह रातभर परेशान रहा…’’  अब तक रिया भी कौन्फ्रैंसिंग के जरीए उन के साथ बातचीत में शामिल हो चुकी थी.

‘‘यह एक और नई मुसीबत कि मन का खाओ भी नहीं…’’ काव्या ने विभू की तरफ देखा.

‘‘तू एक काम कर न विभू को बोतल से दूध पिलाना शुरू कर दे,’’ नव्या ने फिर सलाह दे डाली.

‘‘लेकिन डाक्टर तो कहते हैं कि कम से कम 6 महीने तक बच्चे को स्तनपान करवाना चाहिए,’’ काव्या ने शंका जाहिर की.

‘‘अरे ओ ज्ञानी की औलाद, जिन बच्चों की मां उन के पैदा होते ही चल बसती हैं, वे भी तो किसी तरह से पलते होंगे न,’’

रिया का यह भद्दा मजाक काव्या को जरा भी रास नहीं आया लेकिन विभू को ऊपर का दूध पिलाने वाली बात जरूर उस के दिमाग में फिट बैठ गई. दूसरे दिन अभय के औफिस जाते ही काव्या फीडिंग बोतल खरीद लाई और ‘मिशन दूध पिलाओ’ में जुट गई.

काव्या ने जैसेतैसे कर के 2 घूंट बच्चे के गले में उड़ेले और सफलता पर अपनी पीठ थपथपाने लगी, लेकिन यह क्या थोड़ी ही देर में विभू ने उलटी कर दी. वह खुद तो उलटी में लिपटा ही, तकिया सहित बैड की चदर भी खराब कर दी. रोने लगा वह अलग मुसीबत.

‘फिर भूख लग आई लगता है,’ सोच कर काव्या ने फिर से बोतल उस के मुंह से लगा दी. बच्चे को दूध हजम नहीं हुआ और 2-3 घंटे बाद ही उस ने दस्त करने शुरू कर दिए.

‘‘लगता है मुसीबतों ने मेरे ही घर का रास्ता देख लिया है,’’ परेशान सी काव्या भुनभुना रही थी. लेकिन शाम होतेहोते फिर से सजधज कर अपनी आजादी का जश्न मनाने के लिए तैयार हो गई. विभू को भी हगीज पहना दिया.  अभय के औफिस से आते ही तीनों फिर चल पड़े हवाखोरी करने.

विभू को बोतल का दूध अब भी कम ही हजम होता था, लेकिन काव्या ने हार

नहीं मानी… हिचकोले खाती गाड़ी चल रही थी…   एक तरफ आजादी की खुली हवा थी तो दूसरी तरफ जिम्मेदारी की बेडि़यां भी थीं… कभी काव्या पंख पसार कर खुश होती तो अगले ही पल पंख सिकुड़ भी जाते. इसी तरह धूपछांव से दिन निकल रहे थे, लेकिन चैन के दिनों से कहीं लंबी बेचैनियों की रातें होने लगी थीं.

2 महीने हो गए सास ने एक बार भी आ कर पोते को नहीं संभाला. बस फोन पर ही हालचाल पूछ लेती थीं. जैसेजैसे विभू बडा हो रहा था, काव्या के लिए अकेले बच्चे को संभालना दूभर होने लगा. कभी वह रातभर रोता…कभी दूध नहीं पीता… कभी घड़ीघड़ी डाइपर खराब करता, तो कभी कुछ और परेशानी खड़ी कर देता.

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इन दिनों तो न कहीं आना न जाना… न रिया से फोन न नव्या से चैटिंग… न कोई सोशल मीडिया पर सक्रियता… ब्यूटीपार्लर की सीट पर बैठे महीनों हो गए… दिनभर विभू और उस के पोतड़े… उनींदी सी काव्या हर समय नींद के अवसर तलाशने लगी थी… अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी न होने से अभय भी उस से उखड़ाउखड़ा रहने लगा. खुले आसमान में उड़ने के सपने देखने वाली काव्या अपनी ही इच्छाओं के घेरे में कैद सी हो कर रह गई.

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