फैसला: क्या रवि और सविता का कामयाब हुआ प्यार

मैं अपने सहयोगियों के साथ औफिस की कैंटीन में बैठा था कि अचानक सविता दरवाजे पर नजर आई. खूबसूरती के साथसाथ उस में गजब की सैक्स अपील भी है. जिस की भी नजर उस पर पड़ी, उस की जबान को झटके से ताला लग गया.

‘‘रवि, लंच के बाद मुझ से मिल लेना,’’ यह मुझ से दूर से ही कह कर वह अपने रूम की तरफ चली गई.

मेरे सहयोगियों को मुझे छेड़ने का मसाला मिल गया. ‘तेरी तो लौटरी निकल आई है, रवि… भाभी तो मायके में हैं. उन्हें क्या पता कि पतिदेव किस खूबसूरत बला के चक्कर में फंसने जा रहे हैं… ऐश कर ले सविता के साथ. हम अंजू भाभी को कुछ नहीं बताएंगे…’ उन सब के ऐसे हंसीमजाक का निशाना मैं देर तक बना रहा.हमारे औफिस में तलाकशुदा सविता की रैपुटेशन बड़ी अजीब सी है. कुछ लोग उसे जबरदस्त फ्लर्ट स्त्री मानते हैं और उन की इस बात में मैं ने उस का नाम 5-6 ऐसे पुरुषों से जुड़ते देखा है, जिन्हें सीमित समय के लिए ही उस के प्रेमियों की श्रेणी में रखा  जा सकता है. उन में से 2 उस के आज भी अच्छे दोस्त हैं. बाकियों से अब उस की साधारण दुआसलाम ही है.

सविता के करीब आने की इच्छा रखने वालों की सूची तो बहुत लंबी होगी, पर वह इन दिलफेंक आशिकों को बिलकुल घास नहीं डालती. उस ने सदा अपने प्रेमियों को खुद चुना है और वे हमेशा विवाहित ही रहे हैं. मैं तो पिछले 2 महीनों से अपनी विवाहित जिंदगी में आई टैंशन व परेशानियों का शिकार बना हुआ था. अंजू 2 महीने से नाराज हो कर मायके में जमी हुई थी. अपने गुस्से के चलते मैं ने न उसे आने को कहा और न ही लेने गया. समस्या ऐसी उलझी थी कि उसे सुलझाने का कोई सिरा नजर नहीं आ रहा था. मेरा अंदाजा था कि सविता ने मुझे पिछले दिनों जरूरत से ज्यादा छुट्टियां लेने की सफाई देने को बुलाया है. तनाव के कारण ज्यादा शराब पी लेने से सुबह टाइम से औफिस आने की स्थिति में मैं कई बार नहीं रहा था. लंच के बाद मैं ने सविता के कक्ष में कदम रखा, तो उस ने बड़ी प्यारी, दिलकश मुसकान होंठों पर ला कर मेरा स्वागत किया.

‘‘हैलो, रवि, कैसे हो?’’ कुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए उस ने दोस्ताना लहजे में वार्त्तालाप आरंभ किया.

‘‘अच्छा हूं, तुम सुनाओ,’’ आगे झूठ बोलने के लिए खुद को तैयार करने के चक्कर में मैं कुछ बेचैन हो गया था.

‘‘तुम से एक सहायता चाहिए.’’

अपनी हैरानी को काबू में रखते हुए मैं ने पूछा, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं तुम्हारे लिए?’’

‘‘कुछ दिन पहले एक पार्टी में मैं तुम्हारे एक अच्छे दोस्त अरुण से मिली थी. वह तुम्हारे साथ कालेज में पढ़ता था.’’

‘‘वह जो बैंक में सर्विस करता है?’’

‘‘हां, वही. उस ने बताया कि तुम बहुत अच्छा गिटार बजाते हो.’’

‘‘अब उतना अच्छा अभ्यास नहीं रहा है,’’ अपने इकलौते शौक की चर्चा छिड़ जाने पर मैं मुसकरा पड़ा.

‘‘मेरे दिल में भी गिटार सीखने की तीव्र इच्छा पैदा हुई है, रवि. प्लीज कल शनिवार को मुझे एक अच्छा सा गिटार खरीदवा दो.’’

बड़े अपनेपन से किए गए सविता के आग्रह को टालने का सवाल ही नहीं उठता था. मैं ने उस के साथ बाजार जाना स्वीकार किया, तो वह किसी बच्चे की तरह खुश हो गई.

‘‘अंजू मायके गई हुई है न?’’

‘‘हां,’’ अपनी पत्नी के बारे में सवाल पूछे जाने पर मेरे होंठों से मुसकराहट गायब हो गई.

‘‘तब तो तुम कल सुबह नाश्ता भी मेरे साथ करोगे. मैं तुम्हें गोभी के परांठे खिलाऊंगी.’’

‘‘अरे, वाह. तुम्हें कैसे मालूम कि मैं उन का बड़ा शौकीन हूं?’’

‘‘तुम्हारे दोस्त अरुण ने बताया था.’’

‘‘मैं कल सुबह 9 बजे तक पहुंचूं?’’

‘‘हां, चलेगा.’’

सविता ने दोस्ताना अंदाज में मुसकराते हुए मुझे विदा किया. मेरे आए दिन छुट्टी लेने के विषय पर चर्चा ही नहीं छिड़ी थी, लेकिन अपने सहयोगियों को मैं सच्ची बात बता देता, तो वे मेरा जीना मुश्किल कर देते. इसलिए उन से बोला, ‘‘ज्यादा छुट्टियां न लेने के लिए लैक्चर सुन कर आ रहा हूं.’’ यह झूठ बोल कर मैं अपने काम में व्यस्त हो गया. पिछले 2 महीनों में वह पहली शुक्रवार की रात थी जब मैं शराब पी कर नहीं सोया. कारण यही था कि मैं सोते रह जाने का खतरा नहीं उठाना चाहता था. सविता के साथ पूरा दिन गुजारने का कार्यक्रम मुझे एकाएक जोश और उत्साह से भर गया था. पिछले 2 महीनों से दिलोदिमाग पर छाए तनाव और गुस्से के बादल फट गए थे. कालेज के दिनों में जब मैं अपनी गर्लफ्रैंड से मिलने जाता था, तब बड़े सलीके से तैयार होता था. अगले दिन सुबह भी मैं ढंग से तैयार हुआ. ऐसा उत्साह और खुशी दिलोदिमाग पर छाई थी, मानो पहली डेट पर जा रहा हूं. सविता पर पहली नजर पड़ी तो उस के रंगरूप ने मेरी आंखें ही चौंधिया दीं. नीली जींस और काले टौप में वह बहुत आकर्षक लग रही थी. उस पल से ही उस जादूगरनी का जादू मेरे सिर चढ़ कर बोलने लगा. दिल की धड़कनें बेकाबू हो चलीं. मैं उस के इशारे पर नाचने को एकदम तैयार था. फिर हंसीखुशी के साथ बीतते समय को जैसे पंख लग गए. कब सुबह से रात हुई, पता ही नहीं चला.

सविता जैसी फैशनेबल, आधुनिक स्त्री से खाना बनाने की कला में पारंगत होने की उम्मीद कम होती है, लेकिन उस सुबह उस के बनाए गोभी के परांठे खा कर मन पूरी तरह तृप्त हो गया. प्यारी और मीठीमीठी बातें करना उसे खूब आता था. कई बार तो मैं उस का चेहरा मंत्रमुग्ध सा देखता रह जाता और उस की बात बिलकुल भी समझ में नहीं आती.

‘‘कहां हो, रवि? मेरी बात सुन नहीं रहे हो न?’’ वह नकली नाराजगी दर्शाते हुए शिकायत करती और मैं बुरी तरह झेंप उठता.

मैं ने उसे स्वादिष्ठ परांठे खिलाने के लिए धन्यवाद दिया तो उस ने सहजता से मुसकराते हुए कहा, ‘‘किसी अच्छे दोस्त के लिए कुकिंग करना मुझे पसंद है. मुझे भी बड़ा मजा आया है.’’

‘‘मुझे तुम अपना अच्छा दोस्त मानती हो?’’

‘‘बिलकुल,’’ उस ने तुरंत जवाब दिया.

‘‘कब से?’’

‘‘इस सवाल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण एक दूसरा सवाल है, रवि.’’

‘‘कौन सा?’’

‘‘क्या तुम आगे भी मेरे अच्छे दोस्त बने रहना चाहोगे?’’ उस ने मेरी आंखों में गहराई से झांका.

‘‘बिलकुल बना रहना चाहूंगा, पर क्या मुझे कुछ खास करना पड़ेगा तुम्हारी दोस्ती पाने के लिए?’’

‘‘शायद… लेकिन इस विषय पर हम बाद में बातें करेंगे. अब गिटार खरीदने चलें?’’ सवाल का जवाब देना टाल कर सविता ने मेरी उत्सुकता को बढ़ावा ही दिया.

हमारे बीच बातचीत बड़ी सहजता से हो रही थी. हमें एकदूसरे का साथ इतना भा रहा था कि कहीं भी असहज खामोशी का सामना नहीं करना पड़ा. हमारे बीच औफिस से जुड़ी बातें बिलकुल नहीं हुईं. टीवी सीरियल, फिल्म, खेल, राजनीति, फैशन, खानपान जैसे विषयों पर हमारे बीच दिलचस्प चर्चा खूब चली. उस ने अंजू से जुड़ा कोई सवाल मुझ से पूछ कर बड़ी कृपा की. हां, उस ने अपने भूतपूर्व पति संजीव से अपने संबंधों के बारे में, मेरे बिना पूछे ही जानकारी दे दी.

‘‘संजीव से मेरा तलाक उस की जिंदगी में आई एक दूसरी औरतके कारण हुआ था, रवि. वह औरत मेरी भी अच्छी सहेली थी,’’ अपने बारे में बताते हुए सविता दुखी या परेशान बिलकुल नजर नहीं आ रही थी.

‘‘तो पति ने तुम्हारी सहेली के साथ मिल कर तुम्हें धोखा दिया था?’’ मैं ने सहानुभूतिपूर्ण लहजे में टिप्पणी की.

‘‘हां, पर एक कमाल की बात बताऊं?’’

‘‘हांहां.’’

‘‘मुझे पति से खूब नाराजगी व शिकायत रही. पर वंदना नाम की उस दूसरी औरत के प्रति मेरे दिल में कभी वैरभाव नहीं रहा.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘वंदना का दिल सोने का था, रवि. उस के साथ मैं ने बहुत सारा समय हंसतेमुसकराते गुजारा था. यदि उस ने वह गलत कदम न उठाया होता तो वह मेरी सब से अच्छी दोस्त होती.’’

‘‘लगता है तुम्हें पति से ज्यादा अपनी जिंदगी में वंदना की कमी खलती है?’’

‘‘अच्छे दोस्त बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, रवि. शादी कर के एक पति या पत्नी तो हर कोई पा लेता है.’’

‘‘यह तो बड़े पते की बात कही है तुम ने.’’

‘‘कोई बात पते की तभी होती है जब उस का सही महत्त्व भी इंसान समझ ले. बोलबोल कर मेरा गला सूख गया है. अब कुछ पिलवा तो दो, जनाब,’’ बड़ी कुशलता से उस ने बातचीत का विषय बदला और मेरी बांह पकड़ कर एक रेस्तरां की दिशा में बढ़ चली.

उस के स्पर्श का एहसास देर तक मेरी नसों में सनसनाहट पैदा करता रहा. सविता की फरमाइश पर हम ने एक फिल्म भी देख डाली. हौल में उस ने मेरा हाथ भी पकड़े रखा. मैं ने एक बार हिम्मत कर उस के बदन के साथ शरारत करनी चाही, तो उस ने मुझे प्यार से घूर कर रोक दिया. ‘‘शांति से बैठो और मूवी का मजा लो रवि,’’ उस की फुसफुसाहट में कुछ ऐसी अदा थी कि मेरा मन जरा भी मायूसी और चिढ़ का शिकार नहीं बना.

लंच हम ने एक बढि़या होटल में किया. फिर अच्छी देखपरख के बाद गिटार खरीदने में मैं ने उस की मदद की. उस के दिल में अपनी छवि बेहतर बनाने के लिए वह गिटार मैं उसे अपनी तरफ से उपहार में देना चाहता था, पर वह राजी नहीं हुई.

‘‘तुम चाहो तो मुझे गिटार सिखाने की जिम्मेदारी ले सकते हो,’’ वह बोली तो उस के इस प्रस्ताव को सुन कर मैं फिर से खुश हो गया.

जब हम सविता के घर वापस लौटे, तो रात के 8 बजने वाले थे. उस ने कौफी पिलाने की बात कह कर मेरी और ज्यादा समय उस के साथ गुजारने की इच्छा पूरी कर दी. वह कौफी बनाने किचन में गई तो मैं भी उस के पीछेपीछे किचन में पहुंच गया. उस के नजदीक खड़ा हो कर मैं ऊपर से हलकीफुलकी बातें करने लगा, पर मेरे मन में अजीब सी उत्तेजना लगातार बढ़ती जा रही थी. अंजू के प्यार से लंबे समय तक वंचित रहा मेरा मन सविता के सामीप्य की गरमाहट को महसूस करते हुए दोस्ती की सीमा को तोड़ने के लिए लगभग तैयार हो चुका था. तभी सविता ने मेरी तरफ घूम कर मुझे देखा. उस ने जरूर मेरी प्यासी नजरों को पढ़ लिया होगा, क्योंकि अचानक मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे ड्राइंगरूम की तरफ ले चली.

मैं ने रास्ते में उसे बांहों में भरने की कोशिश की, तो उस ने बिना घबराए मुझ से कहा, ‘‘रवि, मैं तुम से कुछ खास बातें करना चाहती हूं. उन बातों को किए बिना तुम को मैं दोस्त से प्रेमी नहीं बना सकती हूं.’’ उसे नाराज कर के कुछ करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था. मैं अपनी भावनाओं को नियंत्रण में कर के ड्राइंगरूम में आ बैठा और सविता बेहिचक मेरी बगल में बैठ गई.

मेरा हाथ पकड़ कर उस ने हलकेफुलके अंदाज में पूछा, ‘‘मेरे साथ आज का दिन कैसा गुजरा है, रवि?’’

‘‘मेरी जिंदगी के सब से खूबसूरत दिनों में से एक होगा आज का दिन,’’ मैं ने सचाई बता दी.

‘‘तुम आगे भी मुझ से जुड़े रहना चाहोगे?’’

‘‘हां… और तुम?’’ मैं ने उस की आंखों में गहराई तक झांका.

‘‘मैं भी,’’ उस ने नजरें हटाए बिना जवाब दिया, ‘‘लेकिन अंजू के विषय में सोचे बिना हम अपने संबंधों को मजबूत आधार नहीं दे सकते.’’

‘‘अंजू को बीच में लाना जरूरी है क्या?’’ मेरा स्वर बेचैनी से भर उठा.

‘‘तुम उसे दूर रखना चाहोगे?’’

‘‘हां.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वह तुम्हें मेरी प्रेमिका के रूप में स्वीकार नहीं करेगी.’’

‘‘और तुम मुझे अपनी प्रेमिका बनाना चाहते हो?’’

‘‘क्या तुम ऐसा नहीं चाहती हो?’’ मेरी चिढ़ बढ़ रही थी.

कुछ देर खामोश रहने के बाद उस ने गंभीर लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘रवि, लोग मुझे फ्लर्ट मानते हैं और तुम्हें भी जरूर लगा होगा कि मैं तुम्हें अपने नजदीक आने का खुला निमंत्रण दे रही हूं. इस बात में सचाई है क्योंकि मैं चाहती थी कि तुम मेरा आकर्षण गहराई से महसूस करो. ऐसा करने के पीछे मेरी क्या मंशा है, मैं तुम्हें बताऊंगी. पर पहले तुम मेरे एक सवाल का जवाब दो, प्लीज.’’

‘‘पूछो,’’ उस को भावुक होता देख मैं भी संजीदा हो उठा.

‘‘क्या तुम अंजू को तलाक देने का फैसला कर चुके हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ मैं ने चौंकते हुए जवाब दिया.

‘‘मुझे तुम्हारे दोस्त अरुण से मालूम पड़ा कि अंजू तुम से नाराज हो कर पिछले 2 महीने से मायके में रह रही है. तुम उसे वापस क्यों नहीं ला रहे हो?’’

‘‘हमारे बीच गंभीर मनमुटाव चल रहा है. उस को अपनी जबान…’’

‘‘मुझे पूरा ब्योरा बाद में बताना रवि, पर क्या तुम्हें उस की याद नहीं आती है?’’ सविता ने मुझे कोमल लहजे में टोक कर सवाल पूछा.

‘‘आती है… जरूर आती है, पर ताली एक हाथ से तो नहीं बज सकती है, सविता.’’

‘‘तुम्हारी बात ठीक है, पर मिल कर साथ रहने का आनंद तो तुम दोनों ही खो रहे हो न?’’

‘‘हां, पर…’’

‘‘देखो, कुसूरवार तो तुम दोनों ही होंगे… कम या ज्यादा की बात महत्त्वपूर्ण नहीं है, रवि. इस मनमुटाव के चलते जिंदगी के कीमती पल तो तुम दोनों ही बेकार गवां रहे हो या नहीं?’’

‘‘तुम मुझे क्या समझाना चाह रही हो?’’ मेरा मूड खराब होता जा रहा था.

‘‘रवि, मेरी बात ध्यान से सुनो,’’ सविता का स्वर अपनेपन से भर उठा, ‘‘आज तुम्हारे साथ सारा दिन मौजमस्ती के साथ गुजार कर मैं ने तुम्हें अंजू की याद दिलाने की कोशिश की है. उस से दूर रह कर तुम उन सब सुखसुविधाओं से खुद को वंचित रख रहे हो जिन्हें एक अपना समझने वाली स्त्री ही तुम्हें दे सकती है.

‘‘मेरा आए दिन ऐसे पुरुषों से सामना होता है, जो अपनी अच्छीखासी पत्नी से नहीं, बल्कि मुझ से संबंध बनाने को उतावले नजर आते हैं

‘‘मेरे साथ उन का जैसा रोमांटिक और हंसीखुशी भरा व्यवहार होता है, अगर वैसा ही अच्छा व्यवहार वे अपनी पत्नियों के साथ करें, तो वे भी उन्हें किसी प्रेमिका सी प्रिय और आकर्षक लगने लगेंगी.

‘‘तुम मुझे बहुत पसंद हो, पर मैं तुम्हें और अंजू दोनों को ही अपना अच्छा दोस्त बनाना चाहूंगी. हमारे बीच इसी तरह का संबंध हम तीनों के लिए हितकारी होगा.

‘‘तुम चाहो तो मेरे प्रेमी बन कर सिर्फ आज रात मेरे साथ सो सकते हो. लेकिन तुम ने ऐसा किया, तो वह मेरी हार होगी. कल से हम सिर्फ सहयोगी रह जाएंगे.

‘‘तुम ने दोस्त बनने का निर्णय लिया, तो मेरी जीत होगी. यह दोस्ती का रिश्ता हम तीनों के बीच आजीवन चलेगा, मुझे इस का पक्का विश्वास है.’’

‘‘बोलो, क्या फैसला करते हो, रवि? अंजू और अपने लिए मेरी आजीवन दोस्ती चाहोगे या सिर्फ 1 रात के लिए मेरी देह का सुख?’’

मुझे फैसला करने में जरा भी वक्त नहीं लगा. सविता के समझाने ने मेरी आंखें खोल दी थीं. मुझे अंजू एकदम से बहुत याद आई और मन उस से मिलने को तड़प उठा.

‘‘मैं अभी अंजू से मिलने और उसे वापस लाने को जा रहा हूं, मेरी अच्छी दोस्त.’’ मेरा फैसला सुन कर सविता का चेहरा फूल सा खिल उठा और मैं मुसकराता हुआ विदा लेने को उठ खड़ा हुआ

बोया पेड़ बबूल का: क्या संगीता को हुआ गलती का एहसास

family story in hindi

पुनर्मिलन- भाग 1: क्या हो पाई प्रणति और अमजद की शादी

ृ‘‘बंदापरवर थाम लो जिगर बन के प्यार फिर आया हूं. खिदमत में आप की हुजूर फिर वही दिल लाया हूं.’’

रेडियो पर आ रहे कर्णप्रिय गाने के बोलों को सुन कर प्रणति को लग रहा था कि मानो गाने  बोल उस के लिए ही लिखे गए हैं. एक संगीत ही तो है जिस के बोलों को गुनगुनाते हुए वह अपनी सारी थकान भूल जाती है. इसीलिए रात को सोने से पहले वह साइड स्टूल पर रखा अपना रेडियो औन करती है, फिर दूसरे काम. यों तो रोज ही पुराने गाने आते हैं पर आज के इस गाने ने तो उस का दिल ही मोह लिया था. अमजद से अचानक हुई मुलाकात ने मानो उस की वीरान सी जिंदगी में उथलपुथल मचा दी थी. गाना गुनगुनाते हुए उस ने हलदी वाला दूध गिलास में डाला और बैड पर बैठ कर मोबाइल देखने लगी.

मोबाइल स्क्रीन को स्क्रोल करतेकरते उसे याद आने लगा लाइब्रेरी में अमजद का अपनी ओर अपलक ताकना, कालेज के पार्क में तोतामैना की तरह एकदूसरे की आंखों में आंखें डाल कर बैठे रहना, सहपाठियों के द्वारा उन्हें लैलामजनू कह कर मजे लेना, अपनी क्लास समाप्त होने के बाद भी उस की क्लास खत्म होने के इंतजार में अमजद का उस की क्लास के बाहर टकटकी लगाए रहना, कालेज समाप्त होने के बाद भी मिलने के बहाने खोजना, सैटल होने पर भविष्य के सुनहरे सपने बुनना, उस दिन अपने प्यार को इजहार करने और अमजद के प्रपोज करने के अद्भुत तरीके के बारे में सोच कर उस के गुलाबी होंठों पर मुसकराहट आ गई… पर उस के बाद… यह सोचते ही मानो उस के मन में ही नहीं मस्तिष्क में भी छन्न से कुछ टूट गया… वह नहीं सोचना चाहती अभी कुछ और… अपने मन में यह वाक्य दोहराते हुए उस ने खुद को यादों के साए से बाहर निकाला और बस अपनी अमजद से अगली मुलाकात के बारे में सोचने लगी. अमजद के विचारों में खोएखोए उसे कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया पता ही नहीं चला.

पंचायत विभाग की डिप्टी डाइरैक्टर

40 वर्षीय औफिसर प्रणति को जब भी अपना अतीत याद आता उस का मन कटुता से भर उठता अतीत को भूलने के लिए ही उस ने इस समाज से स्वयं को अलग कर के काम में मशीन की भांति खुद को इस कदर डुबो दिया था कि हंसना, मुसकराना, खिलखिलाना और खुश होने जैसी भावनाओं ने तो मानो उस के जीवन से मुंह ही फेर लिया था.

गोरा रंग, 5 फुट 6 इंच लंबी, 40 की उम्र में भी कमनीय काया, कमर तक लंबे घने बाल, सुंदर कजरारे नैननक्श तथा सदैव सौम्य और शालीन पहनावे को धारण करने वाली आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी प्रणति किसी सुंदरी से कम नहीं लगती थी, परंतु अपने शांत स्वभाव और एकाकी जीवन के कारण वह सदैव औफिस कर्मियों के बीच चर्चा का विषय बनीं रहतीं क्योंकि आज तक किसी ने उसे मुसकराते या हंसते नहीं देखा था और न हीं किसी को उस के घर आतेजाते.

ऐसा लगता था मानो उस ने समाज से एक निश्चित दूरी बना रखी है. सुबह घर से आ कर शाम 6 बजे तक फाइलों और काम में ही डूबी रहती थी. इसी व्यस्ततम दिनचर्या के मध्य एक दिन औफिस में जब अपनी फाइलों के ढेर में वह आकंठ डूबी हुई थी कि अचानक उस का मोबाइल बज उठा. जैसे ही उठाया तो उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो एम आई स्पीकिंग टू प्रणति?’’

‘‘यस आई एम. स्पीकिंग, कहिए क्या बात है? कौन बोल रहा है?’’ उस ने कुछ कड़क स्वर में कहा.

‘‘ओहो तो मैडम हमें भूल ही गईं. यह तो अच्छी बात नहीं है,’’ उधर से

उभरा स्वर उसे कुछ जानापहचाना सा लगा तो अपनी याददाश्त पर जोर डालते हुए बोली, ‘‘आप की आवाज कुछ सुनीसुनी सी तो लग रही है पर… पर नाम… नाम. याद नहीं आ रहा.’’

‘‘पहचानिए… पहचानिए मैं तो आप को अपना नाम बताने से रहा… आप ऐसे किसी अपने को कैसे भूल सकती हैं,’’ सामने वाले ने जैसे ही प्यार से शरारत की तो वह खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘ओहो… अमजद… अमजद खान… रियली इतने सालों बाद भी तुम बिलकुल नहीं बदले. आज भी वैसे ही हो मजाकिया.’’

‘‘सालों से क्या फर्क पड़ता है मैडम, इंसान तो वही रहता है न, अब मिलनाविलना है कि बस फोन पर ही बात करोगी. बताओ कब मिल रही हो?’’ उधर से अमजद ने उत्साह से भर कर कहा.

प्रणति चौंकती हुई सी बोली, ‘‘अरे… मिलना मतलब… तो तुम क्या यहां इंदौर में

ही हो?’’

‘‘हां भई आप के शहर इंदौर में ही हूं बड़ी मुश्किल से तो तुम्हारा नंबर ढूंढ़ पाया हूं. कल शाम 7 बजे होटल साया में मिलें?’’

‘‘हां… हां… क्यों नहीं… बिलकुल मंजूर हैं.’’

‘‘ठीक है तो कल ठीक 7 बजे होटल साया. बाकी बातें मिलने पर,’’ कह कर अमजद ने फोन रख दिया.

प्रणति के कानों में निरंतर अमजद की आवाज गूंज रही थी… 5 मिनट बाद उसे होश आया कि फोन कट चुका है. कोरोना के कारण मिलनेजुलने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाए रखने वाली प्रणति उस एक फोन से इतनी अधिक रोमांचित हो उठी कि कोरोना तो उस के दिमाग

में ही नहीं आया. जब होश आया तब तक तो वह प्रौमिस कर ही चुकी थी पर कहते हैं न 2 प्रेमियों के बीच में तीसरे की आवश्यकता नहीं होती सो इस तीसरे कोरोना को भी एक झटके से उस ने

परे कर दिया और आने वाले कल के बारे में सोचने लगी.

औफिस से घर आते समय भी उसकी नजरों के सामने केवल अमजद की छवि और कानों में उस की हंसी की खिलखिलाहट ही गूंजती रही. पूरी रात यह सोचतेसोचते ही निकल गई कि कल क्या पहनूंगी, कैसे मिलूंगी उस से, कितना बदल गया होगा… अब उस से मिलने से भी क्या… मतलब… इतने सालों बाद क्याक्या बात करूंगी. वह रात उसे अन्य रातों की अपेक्षा बहुत लंबी लगी.

अगले दिन सुबह गुलाबी रंग का अनारकली सूट, उस से मैच करते बूंदे और शैंपू किए बालों को खोल कर जब वह औफिस पहुंची तो अपनी बौस को पहली बार इस नए रूप में देख कर सहकर्मियों की नजरें मानो आपस में ही खुसरपुसर करने लगीं. वह तो अच्छा था उस की पक्की सहेली रंजीता 2 दिनों के अवकाश पर थी वरना तो वह छेड़छेड़ कर उस की मुसीबत कर देती…

आज तक सादे कपड़ों में बिना मेकअप के और चेहरे पर सदा उदासी ओढ़े रहने वाली प्रणति को यों सजेधजे खुशमिजाज देख कर सब को अचरज होना ही था.

विनोद बाबू ने तो व्यंग्य कर ही दिया, ‘‘क्या बात है आज तो मैडम बड़ी खिलीखिली नजर आ रही हैं.’’

मैं उन की बातों को अनसुना करती वह अपने कैबिन में चली गई. टेबल पर पड़ी अनेक फाइलें उस के दर्शनार्थ पड़ी थीं पर आज उस का काम में मन ही नहीं लग पा रहा था वह तो बस किसी तरह शाम होने का इंतजार कर रही थी. जैसे ही घड़ी में 5 बजे वह फटाफट अपनी कार ले कर साया रवाना हो गईं क्योंकि औफिस टाइम में सड़कों पर बहुत रश हो जाता है, जिस से 1 घंटे की दूरी तय करने में 2 घंटे लगना सामान्य सी बात है. अमजद गेट के बाहर ही उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अरे अमजद तुम तो इन सालों में जरा भी नहीं बदले… वही हैल्थ और वही बोलने की अदा… वही मुसकराता चेहरा जिस पर मैं हमेशा…’’ कहतेकहते न जाने वह क्यों रुक गई.

‘‘बदली तो तुम भी नहीं हो वही नकचढ़ी और तुनकमिजाजी बरकरार है मैडम की, पर हां कुछ दुबली अवश्य हो गई हो. क्या हुआ कोई परेशानी है?’’ अमजद ने प्रणति की ओर प्रश्नवाचक नजरों से देखते हुए कहा.

‘‘मैं यहां तुम से मिलने आई हूं, अपनी परेशानियों का रोना रोने नहीं, चलो अंदर भी ले चलोगे या यहीं से वापस कर देने का इरादा है,’’ प्रणति कुछ उलाहना देती हुई बोली.

‘‘चलो अंदर चलकर ही बातें करते हैं,’’ और फिर अंदर जा कर एक टेबल पर दोनों आमनेसामने बैठ गए. 2 हौट काफी का और्डर दे कर अमजद उस की ओर ऊपर से नीचे की ओर देखते हुए बोला, ‘‘और घर में सब कैसे हैं?’’

‘‘सब अच्छे हैं. तुम सुनाओ क्या हाल हैं… कितने बच्चे है. पत्नी कैसी है और कहां की है?’’ प्रणति ने कुछ व्यंग्यात्मक स्वर में कहा.

अपराधबोध: क्या हुआ था अंजु के साथ

अपने मकान के दूसरे हिस्से में भारी हलचल देख कर अंजु हैरानी में पड़ गई थी कि इतने लोगों का आनाजाना क्यों हो रहा है. जेठजी कहीं बीमार तो नहीं पड़ गए या फिर जेठानी गुसलखाने में फिसल कर गिर तो नहीं गईं.

जेठानी की नौकरानी जैसे ही दरवाजे से बाहर निकली, अंजु ने इशारे से उसे अपनी तरफ बुला लिया.

चूंकि देवरानी और जेठानी में मनमुटाव चल रहा था इसलिए जेठानी के नौकर इस ओर आते हुए डरते थे.

अंजु ने चाय का गिलास नौकरानी को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘थोड़ी देर बैठ कर कमर सीधी कर ले.’’

चाय से भरा गिलास देख कर नौकरानी खुश हो उठी, फिर उस ने अंजु को बहुत कुछ जानकारी दे दी और यह कह कर उठ गई कि मिठाई लाने में देरी हुई तो घर में डांट पड़ जाएगी.

यह जान कर अंजु के दिल पर सांप लोटने लगा कि जेठानी की बेटी निन्नी का रिश्ता अमेरिका प्रवासी इंजीनियर लड़के से पक्का होने जा रहा है.

जेठानी का बेटा डाक्टर बन गया. डाक्टर बहू घर में आ गई.

अब तो निन्नी को भी अमेरिका में नौकरी करने वाला इंजीनियर पति मिलगया.

ईर्ष्या से जलीभुनी अंजु पति और पुत्र दोनों को भड़काने लगी, ‘‘जेठजेठानी तो शुरू से ही हमारे दुश्मन रहे हैं. इन लोगों ने हमें दिया ही क्या है. ससुरजी की छोड़ी हुई 600 गज की कोठी में से यह 100 गज में बना टूटाफूटा नौकर के रहने लायक मकान हमें दे दिया.’’

हरीश भी भाई से चिढ़ा हुआ था. वह भी मन की भड़ास निकालने लगा, ‘‘भाभी यह भी तो ताने देती कहती हैं कि भैया ने अपनी कमाई से हमें दुकान खुलवाई, मेरी बीमारी पर भी खर्चा किया.’’

‘‘दुकान में कुछ माल होता तब तो दुकान चलती, खाली बैठे मक्खी तो नहीं मारते,’’ बेटे ने भी आक्रोश उगला.

अंजु के दिल में यह बात नश्तर बन कर चुभती रहती कि रहन- सहन के मामले में हम लोग तो जेठानी के नौकरों के बराबर भी नहीं हैं.

जेठजेठानी से जलन की भावना रखने वाली अंजु कभी यह नहीं सोचती थी कि उस का पति व्यापार करने के तौरतरीके नहीं जानता. मामूली बीमारी में भी दुकान छोड़ कर घर में पड़ा रहता है.

ये भी पढ़ें- मधु बना विष

बच्चे इंटर से आगे नहीं बढ़ पाए. दोनों बेटियों का रंग काला और शक्लसूरत भी साधारण थी. न शक्ल न अक्ल और न दहेज की चाशनी में पगी सुघड़ता, संपन्नता तो अच्छे रिश्ते कहां से मिलें.

अंजु को सारा दोष जेठजेठानी का ही नजर आता, अपना नहीं.

थोड़ी देर में जेठानी की नौकरानी बुलाने आ गई. अंजु को बुरा लगा कि जेठानी खुद क्यों नहीं आईं. नौकरानी को भेज कर बुलाने की बला टाल दी. इसीलिए दोटूक शब्दों में कह दिया कि यहां से कोई नहीं जाएगा.

कुछ देर बाद जेठ ने खुद उन के घर आ कर आने का निमंत्रण दिया तो अंजु को मन मार कर हां कहनी पड़ी.

जेठानी के शानदार ड्राइंगरूम में मखमली सोफों पर बैठे लड़के वालों को देख कर अंजु के दिल पर फिर से सांप लोट गया.

लड़का तो पूरा अंगरेज लग रहा है, विदेशी खानपान और रहनसहन अपना-कर खुद भी विदेशी जैसा बन गया है.

लड़के के पिता की उंगलियों में चमकती हीरे की अंगूठियां व मां के गले में पड़ी मोटी सोने की जंजीर अंजु के दिल पर छुरियां चलाए जा रही थी.

एकाएक जेठानी के स्वर ने अंजु को यथार्थ में ला पटका. वह लड़के वालों से उन लोगों का परिचय करा रहे थे.

लड़के वालों ने उन की तरफ हाथ जोड़ दिए तो अंजु के परिवार को भी उन का अभिवादन करना पड़ा.

जेठजी कितने चतुर हैं. लड़के वालों से अपनी असलियत छिपा ली, यह जाहिर नहीं होने दिया कि दोनों परिवारों के बीच में बोलचाल भी बंद है. माना कि जेठजी के मन में अब भी अपने छोटे भाई के प्रति स्नेह का भाव छिपा हुआ है पर उन की पत्नी, बेटा और बेटी तो दुश्मनी निभाते हैं.

भोजन के बाद लड़के वालों ने निन्नी की गोद भराई कर के विवाह की पहली रस्म संपन्न कर दी.

लड़के की मां ने कहा कि मेरा बेटा विशुद्ध भारतीय है. वर्षों विदेश में रह कर भी इस के विचार नहीं बदले. यह पूरी तरह भारतीय पत्नी चाहता था. इसे लंबी चोटी वाली व सीधे पल्लू वाली निन्नी बहुत पसंद आई है और अब हम लोग शीघ्र शादी करना चाहते हैं.

अंजु को अपने घर लौट कर भी शांति नहीं मिली.

निन्नी ने छलकपट कर के इतना अच्छा लड़का साधारण विवाह के रूप में हथिया लिया. इस चालबाजी में जेठानी की भूमिका भी रही होगी. उसी ने निन्नी को सिखापढ़ा कर लंबी चोटी व सीधा पल्लू कराया होगा.

अंजु के घर में कई दिन तक यही चर्चा चलती रही कि जीन्सशर्ट पहन कर कंधों तक कटे बालों को झुलाती हुई डिस्को में कमर मटकाती निन्नी विशुद्ध भारतीय कहां से बन गई.

एक शाम अंजु अपनी बेटी के साथ बाजार में खरीदारी कर रही थी तभी किसी ने उस के बराबर से पुकारा, ‘‘आप निन्नी की चाची हैं न.’’

अंजु ने निन्नी की होने वाली सास को पहचान लिया और नमस्कार किया. लड़का भी साथ था. वह साडि़यों केडब्बों को कार की डिग्गी में रखवा रहा था.

‘‘आप हमारे घर चलिए न, पास मेंहै.’’

अंजु उन लोगों का आग्रह ठुकरा नहीं पाई. थोड़ी नानुकुर के बाद वह और उस की बेटी दोनों कार में बैठ गईं.

लड़के की मां बहुत खुश थी. उत्साह भरे स्वर में रास्ते भर अंजु को वह बतातीरहीं कि उन्होंने निन्नी के लिए किस प्रकारके आभूषण व साडि़यों की खरीदारी की है.

लड़के वालों की भव्य कोठी व कई नौकरों को देख अंजु फिर ईर्ष्या से जलने लगी. उस की बेटी के नसीब में तो कोई सर्वेंट क्वार्टर वाला लड़का ही लिखा होगा.

अंजु अपने मन के भाव को छिपा नहीं पाई. लड़के की मां से अपनापन दिखाती हुई बोली, ‘‘बहनजी, कभीकभी आंखों देखी बात भी झूठी पड़ जाती है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

अंजु ने जो जहर उगलना शुरू किया तो उगलती ही चली गई. कहतेकहते थक जाती तो उस की बेटी कहना शुरू कर देती.

लड़के की मां सन्न बैठी थी, ‘‘क्या कह रही हो बहन, निन्नी के कई लड़कों से चक्कर चल रहे हैं. वह लड़कों के साथ होटलों में जाती है, शराब पीती है, रात भर घर से बाहर रहती है.’’

‘‘अब क्या बताऊं बहनजी, आप ठहरीं सीधीसच्ची. आप से झूठ क्या बोलना. निन्नी के दुर्गुणों के कारण पहले भी उस का एक जगह से रिश्ता टूट चुका है.’’

अंजु की बातों को सुन कर लड़के की मां भड़क उठी, ‘‘ऐसी बिगड़ी हुई लड़की से हम अपने बेटे का विवाह नहीं करेंगे. हमारे लिए लड़कियों की कमी नहीं है. सैकड़ों रिश्ते तैयार रखे हैं.’’

अंजु का मन प्रसन्न हो उठा. वह यही तो चाहती थी कि निन्नी का रिश्ता टूट जाए.

लोहा गरम देख कर अंजु ने फिर से चोट की, ‘‘बहनजी, आप मेरी मानें तो मैं आप को एक अच्छे संस्कार वाली लड़की दिखाती हूं, लड़की इतनी सीधी कि बिलकुल गाय जैसी, जिधर कहोगे उधर चलेगी.’’

‘‘हमें तो बहन सिर्फ अच्छी लड़की चाहिए, पैसे की हमारे पास कमी नहीं है.’’

लड़के की मां अगले दिन लड़की देखने के लिए तैयार हो गईं.

एक तीर से दो निशाने लग रहे थे. निन्नी का रिश्ता भी टूट गया और अपनी गरीब बहन की बेटी के लिए अच्छा घरपरिवार भी मिल गया.

अंजु ने उसी समय अपनी बहन को फोन कर के उन लोगों को बेटी सहित अपने घर में बुला लिया.

फिर बहन की बेटी को ब्यूटीपार्लर में सजाधजा कर उस ने खुद लड़के वालों के घर ले जा कर उसे दिखाया पर लड़के को लड़की पसंद नहीं आई.

अंजु अपना सा मुंह ले कर वापस लौट आई.

फिर भी अंजु का मन संतुष्ट था कि उस के घर शहनाई न बजी तो जेठानी के घर ही कौन सी बज गई.

निन्नी का रिश्ता टूटने की खुशी भी तो कम नहीं थी.

एक दिन निन्नी रोती हुई उस के घर आई, ‘‘चाची, तुम ने उन लोगों से ऐसा क्या कह दिया कि उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया.’’

अंजु पहले तो सुन्न जैसी खड़ी रही, फिर आंखें तरेर कर निन्नी की बात को नकारती हुई बोली, ‘‘तुम्हारा रिश्ता टूट गया, इस का आरोप तुम मेरे ऊपर क्यों लगा रही हो. तुम्हारे पास क्या सुबूत है कि मैं ने उन लोगों से तुम्हारी बातें लगाई हैं.’’

‘‘लेकिन वे लोग तो तुम्हारा ही नाम ले रहे हैं.’’

ये भी पढ़ें- उम्मीदें: भाग-2

‘‘मैं भला उन लोगों को क्या जानूं,’’ अंजु निन्नी को लताड़ती हुई बोली, ‘‘तुम दोनों मांबेटी हमेशा मेरे पीछे पड़ी रहती हो, रिश्ता टूटने का आरोप मेरे सिर पर मढ़ कर मुझे बदनाम कर रही हो. यह भी तो हो सकता है कि तुम्हारी किसी गलती के कारण ही रिश्ता टूटा हो.’’

‘‘गलती… कैसी गलती? मेरी बेटी ने आज तक निगाहें उठा कर किसी की तरफ नहीं देखा तो कोई हरकत या गलती भला क्यों करेगी?’’ दीवार की आड़ में खड़ी जेठानी भी बाहर निकल आई थीं.

जेठानी की खूंखार नजरों से घबरा कर अंजु ने अपना दरवाजा बंद कर लिया.

इस घटना को ले कर दोनों घरों में तनाव की अधिकता बढ़ गई थी. फिर जेठजी ने अपनी पत्नी को समझा कर मामला रफादफा कराया.

पिछला भाग पढ़ने के लिए- अपराधबोध भाग-1

एक रात अंजु का बेटा दफ्तर से घर लौटा तो उस के पास 500 और 1 हजार रुपए के नएनए नोट देख कर पूरा परिवार हैरान रह गया.

अंजु ने जल्दी से घर का दरवाजा बंद कर लिया और धीमी आवाज में रुपयों के बारे में पूछने लगी.

बेटे ने भी धीमी आवाज में बताया कि आज सेठजी अपना पर्स दुकान में ही भूल गए थे.

हरीश को बेटे की करतूत नागवार लगी, ‘‘तू ने सेठजी का पर्स घर में ला कर अच्छा नहीं किया. उन्हें याद आएगा तो वे तेरे ही ऊपर शक करेंगे. तू इन रुपयों को अभी उन्हें वापस कर आ.’’

आंखें तरेर कर अंजु ने पति से कहा, ‘‘तुम सचमुच के राजा हरिश्चंद्र हो तो बने रहो. हमें सीख देने की जरूरत नहीं है.’’

मांबेटा दोनों देर रात तक रुपयों को देखदेख कर खुश होते रहे और रंगीन टेलीविजन खरीदने के मनसूबे बनाते रहे.

सुबह किसी ने घर का दरवाजा जोरों से खटखटाया.

अंजु ने दरवाजा खोलने से पहले खिड़की से बाहर देखा तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. बेटे की दुकान का मालिक कई लोगों के साथ खड़ा था.

अंजु घबरा कर पति को जगाने लगी, ‘‘देखो तो, यह कौन लोग हैं?’’

बाहर खड़े लोग देरी होते देख कर चिल्लाने लगे थे, ‘‘दरवाजा खोलते क्यों नहीं? मुंह छिपा कर इस तरह कब तक बैठे रहोगे. हम दरवाजा तोड़ डालेंगे.’’

शोर सुन कर जेठजेठानी का पूरा परिवार बाहर निकल आया. उन को बाहर खड़ा देख कर अंजु का भी परिवार बाहर निकल आया.

‘‘आप लोग इस प्रकार से हंगामा क्यों मचा रहे हैं?’’ हरीश ने साहस कर के प्रश्न किया.

‘‘तुम्हारा लड़का दुकान से रुपए चुरा कर ले आया है,’’ मालिक क्रोध से आगबबूला हो कर बोला.

‘‘सेठजी, आप को कोई गलत- फहमी हुई है. मेरा बेटा ऐसा नहीं है. इस ने कोई रुपए नहीं चुराए हैं,’’ अंजु घबराहट से कांप रही थी.

‘‘हम तुम्हारे घर की तलाशी लेंगे अभी दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा,’’ सारे लोग जबरदस्ती घर में घुसने लगे.

तभी जेठजी अंजु के घर के दरवाजे में अड़ कर खड़े हो गए, ‘‘तुम लोग अंदर नहीं जा सकते, हमारी इज्जत का सवालहै.’’

‘‘हमारे रुपए…’’

‘‘हम लोग चोर नहीं हैं, हमारे खानदान में किसी ने चोरी नहीं की.’’

ये भी पढ़ें- मधु बना विष

‘‘यह लड़का चोर है.’’

‘‘आप लोगों के पास क्या सुबूत है कि इस ने चोरी की?’’ जेठजी की कड़क आवाज के सामने सभी निरुत्तर रह गए थे.

तभी जेठजी का डाक्टर बेटा सामने आ गया, उस के हाथों में नोटों की गड्डियां थीं. आक्रोश से बोला, ‘‘बोलो, कितने रुपए थे आप के. जितने थे इस में से ले जाओ.’’

वे लोग चुपचाप वापस लौट गए.

जेठजी व उन के बेटे के प्रति अंजु कृतज्ञता के भार से दब गई थी. अगर जेठजी साहस नहीं दिखाते तो आज उन सब की इज्जत सरे बाजार नीलाम हो जाती.

अंजु रोने लगी. लालच में अंधी हो कर वह कितनी बड़ी गलती कर बैठी थी. उस ने वे सारे रुपए निकाल कर बेटे के मुंह पर दे मारे, ‘‘ले, दफा हो यहां से, चोरी करेगा तो इस घर में नहीं रह पाएगा. मालिक को रुपए लौटा कर माफी मांग कर आ नहीं तो मैं तुझे घर में नहीं घुसने दूंगी,’’ फिर वह जेठजेठानी के पैरों पर गिर कर बोली, ‘‘आप लोगों ने आज हमारी इज्जत बचा ली.’’

‘‘तुम लोगों की इज्जत हमारी इज्जत है. खून तो एक ही है, आपस में मनमुटाव होना अलग बात है पर बाहर वाले आ कर तुम्हें नीचा दिखाएं तो हम कैसे देख सकते हैं,’’ जेठजी ने कहा.

अंजु शरम से पानीपानी हो रही थी. जेठजी के मन में अब भी उन लोगों के प्रति अपनापन है और एक वह है कि…उस ने जेठजी के प्रति कितना बड़ा अपराध कर डाला. उफ, क्या वह अपनेआप को कभी माफ कर सकेगी.

अंजु मन ही मन घुलती रहती. निन्नी का कुम्हलाया हुआ चेहरा उसे अंदर तक कचोटता रहता.

निन्नी छोटी थी तो उस का आंचल थामे पूरे घर में घूमती फिरती. मां से अधिक वह चाची से हिलीमिली रहती.

अपने बच्चे हो गए तब भी अंजु निन्नी को अपनी गोद में बैठा कर खिलातीपिलाती रहती. और अब ईर्ष्या की आग में जल कर उस ने अपनी उसी प्यारी सी निन्नी की भावनाओं का गला घोंट दिया था.

एक दिन अंजु के मन में छिपा अपराधबोध, सहनशक्ति से बाहर हो गया तो वह निन्नी को पकड़ कर अपने घर में ले आई, उस पर अपनापन जताती हुई बोली, ‘‘खानापीना क्यों बंद कर दिया पगली, क्या हालत बना डाली अपनी. लड़कों की कमी है क्या…’’

निन्नी उस की गोद में गिर कर बच्चों की भांति फूटफूट कर रो पड़ी, ‘‘चाची, मुझे माफ कर दो, मैं उस दिन आप से बहुत कुछ गलत बोल गई थी, उन लोगों की बातों पर विश्वास कर के मैं ने आप को गलत समझ लिया, मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत प्यार करती हैं.’’

‘‘हां, बेटी मैं तुझे बहुत प्यार करती हूं, पर मुझ से भी गलती हो सकती है. इनसान हूं न, फरिश्ता थोड़े ही हूं,’’ अंजु की आंखों से आंसू बहने लगे थे, ‘‘पता नहीं इनसानों को क्या हो जाता है जो कभी अपने होते हैं वे पराए लगने लगते हैं पर तू चिंता मत कर, मैं तेरे लिए उस विदेशी इंजीनियर से भी अच्छा लड़का ढूंढ़ निकालूंगी. बस, तू खुश रहा कर, वैसे ही जैसे बचपन में रहती थी. मैं तुझे अपने हाथों से दुलहन बना कर तैयार करूंगी, ससुराल भेजूंगी, मेरी अच्छी निन्नी, तू अब भी वही बचपन वाली गुडि़या लगती है.’’

जेठानी छत पर खड़ी हो कर देवरानी की बातें सुन रही थी.

अंजु के शब्दों ने उस के अंदर जादू जैसा काम किया. नीचे उतर कर पति से बोली, ‘‘झगड़ा तो हम बड़ों के बीच चल रहा है, बच्चे क्यों पिसें. तुम अंजु के बेटे की कहीं अच्छी सी नौकरी लगवा दो न.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो.’’

‘‘अंजु की लड़कियां पूरे दिन घर में खाली बैठी रहती हैं. एक बिजली से चलने वाली सिलाई मशीन ला कर उन्हें दे दो. मांबेटियां सिलाई कर के कुछ आर्थिक लाभ उठा लेंगी.’’

ये भी पढ़ें- उम्मीदें: भाग-2

‘‘ठीक है, जैसा तुम कहती हो वैसा ही करेंगे. इन लोगों का और है ही कौन.’’

अंजु ने निन्नी पर प्यार जताया तो जेठानी के मन में भी उस के बच्चों के प्रति ममता का दरिया उमड़ पड़ा था.

दुख में अटकना नहीं: नंदिता के घर लौटने के बाद क्या हुआ

नंदिता ने जल्दी से घर का ताला खोला. 6 बज रहे थे. उन का पोता यश स्कूल से आने ही वाला था. उन्होंने फौरन हाथमुंह धो कर यश के लिए नाश्ता तैयार किया, साथसाथ डिनर की भी तैयारी शुरू कर दी. उन के हाथ खूब फुरती से चल रहे थे, मन में भी ताजगी सी थी. वे अभीअभी किटी पार्टी से लौटी थीं. सोसायटी की 15 महिलाओं का यह ग्रुप सब को बहुत अपना सा लगता था. सब महिलाओं को महीने के इस दिन का इंतजार रहता था. ये सब महिलाएं उम्र में 30 से 40 के करीब थीं. नंदिता उम्र में सब से बड़ी थीं लेकिन उन की चुस्तीफुरती देखते ही बनती थी. अपने शालीन और मिलनसार स्वभाव के चलते वे काफी लोकप्रिय थीं.नंदिता टीचर रही थीं और अभीअभी रिटायर हुई थीं. योग और सुबहशाम की सैर ने उन्हें चुस्तदुरुस्त रखा हुआ था. उन के इंजीनियर पति का कुछ साल पहले देहावसान हुआ था. वे अपने इकलौते बेटे मयंक और बहू किरण के साथ रहती थीं.

किटी पार्टी से जब वे घर आती थीं, उन का मूड बहुत तरोताजा रहता था. सब से मिलना जो हो जाता था. किरण भी औफिस जाती थी. घर की अधिकतर जिम्मेदारियां नंदिता ने अपने ऊपर खुशीखुशी ली हुई थीं. मयंक और किरण शाम को आते तो वे रात का खाना तैयार कर चुकी होती थीं. किरण घर में घुसते ही चहकती, ‘‘मां, बहुत अच्छी खुशबू आ रही है, आप ने तो सब काम कर लिया, कुछ मेरे लिए भी छोड़ देतीं.’’

मयंक हंसता, ‘‘किरण, क्या सास मिली है तुम्हें, भई वाह.’’

किरण नंदिता के गले में बांहें डाल देती, ‘‘सास नहीं, मां हैं मेरी.’’

बहूबेटे के इस प्यार पर नंदिता का मन खुश हो जाता, कहतीं, ‘‘सारा दिन तो अकेली रहती हूं, काम करते रहने से समय का पता नहीं चलता.’’

नंदिता का हौसला सब ने उन के पति की मृत्यु पर देख लिया था, उन के बेटेबहू का लियादिया स्वभाव किसी को पसंद नहीं आया था.

अपने पति की मृत्यु के बाद जब अगले महीने की किटी पार्टी में नंदिता आईं तो सब महिलाएं उन के दुख से दुखी व गंभीर थीं लेकिन उन्होंने अपनेआप को बहुत ही सामान्य रखा. सब महिलाओं के दिल में उन के लिए इज्जत और बढ़ गई. उन्होंने सब के चेहरे पर छाई गंभीरता को दूर करते हुए कहा, ‘‘तुम लोग याद रखना, सुख में भटकना नहीं और दुख में अटकना नहीं, जब सुख मिले उसे जी लो, दुख मिले उसे भी उतनी ही खूबी से जिओ, बिना किसी शिकायत के. उस का अंश, उस की खरोंचें मन पर न रहने दो. उस के परिणाम भी बड़ी हिम्मत से स्वीकार लो और सहज ही पार हो जाओ. जीवन का यही तो मर्म है जो मैं समझ चुकी हूं.’’

सब महिलाएं नम आंखों से उन्हें सुनती रहीं. स्वभाव से अत्यंत नम्र, सहनशील, शांत, स्वाभिमानी, अपनी अपेक्षा दूसरों के सुखों और भावनाओं का ध्यान रखने वाली, जितनी तारीफ करें उतनी कम. इतने सारे गुण इस एक में कैसे आ गए, यह सोच कई बार महिलाएं हैरान रह जातीं.

फिर उन में आए कुछ परिवर्तन सभी ने महसूस किए. वे अचानक सुस्त और बीमार रहने लगीं और जब वे किटी में भी नहीं आईं तो सब हैरान हुईं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, उन्हीं की बिल्ंिडग में रहने वाली रेनू और अर्चना उन्हें देखने गईं तो वे बहुत खुश हुईं, ‘‘अरे, आओ, आज कैसी रही पार्टी, लेटेलेटे तुम्हीं लोगों में मन लगा रहा आज तो मेरा.’’

उन्हें कई दिनों से बुखार था, उन के कई टैस्ट हुए थे, रिपोर्ट आनी बाकी थी. उन की तबीयत ज्यादा खराब हुई तो उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा. सब उन्हें देखने अस्पताल जाते रहे. वे सब को देख कर खुश हो जातीं.

उन की रिपोर्ट्स आ गईं. मयंक को बुला कर डा. गौतम ने कहा, ‘‘मि. मयंक, आप की मदर का एचआईवी टैस्ट पौजिटिव आया है, इंफैक्शन अब स्टेज-3 एड्स में बदल गया है जिस की वजह से उन के शरीर के कई अंग जैसे किडनी, बे्रन आदि प्रभावित हुए हैं.’’

मयंक अवाक् बैठा रहा, थोड़ी देर बाद अपने को संयत कर बोला, ‘‘मम्मी तो अपने स्वास्थ्य का इतना ध्यान रखती हैं, धार्मिक हैं,’’ फिर थोड़ा सकुचाते हुए बोला, ‘‘पापा भी कुछ साल पहले नहीं रहे, उन्हें यह बीमारी कहां से हो गई?’’

डा. गौतम गंभीरतापूर्वक बोले, ‘‘आप तो पढ़ेलिखे हैं, धर्म और एड्स का क्या लेनादेना? क्या शारीरिक संबंध ही एक जरिया है एचआईवी फैलने का और अब कब, क्यों, कैसे से ज्यादा जरूरी है कि उन की जान कैसे बचाई जाए? आज कई तरह के इलाज हैं जिन से इस बीमारी को रोका जा सकता है पर सब से जरूरी है उन्हें इस बारे में बताना जिस से वे खुद भी सारी सावधानियां बरतें और इलाज में हमारा साथ दें क्योंकि अब हमें उन्हें एड्स सैल में शिफ्ट करना पड़ेगा.’’

मयंक ने डा. गौतम को ही उन्हें बताने के लिए कहा. पता चलने पर नंदिता सन्न रह गईं. कुछ देर बाद मयंक आया तो मां से नजरें मिलाए बिना सिर नीचा किए बैठा रहा. नंदिता गौर से उस का चेहरा देखती रहीं, फिर अपने को संभालती हुई हिम्मत कर के बोलीं, ‘‘इतने चुप क्यों हो, मयंक?’’

‘‘मां, आप को यह बीमारी कैसे…’’

बेटे को सारी स्थिति समझाने के लिए स्वयं को तैयार करते हुए उन्होंने बताना शुरू किया, ‘‘तुम्हें याद होगा, तुम्हारे पापा का जब वह भयंकर ऐक्सिडैंट हुआ था तो उन्हें खून चढ़ाना पड़ा था. उस समय किसी को होश नहीं था और जिन लोगों ने ब्लड डोनेट किया था उन में से शायद किसी को यह बीमारी थी, ऐसा डाक्टरों ने बाद में अंदाजा लगाया था. तुम्हारे पापा उस दुर्घटना में उस समय तो बच गए लेकिन इस बीमारी ने उन के शरीर में तेजी से फैल कर उन की जान ले ली थी. मैं ने सब को यही बताया था कि उन का हार्टफेल हुआ है. मैं उन की मृत्यु को कलंकित नहीं होने देना चाहती थी.

‘‘तुम्हें याद होगा तुम भी उस समय होस्टल में थे और उन की मृत्यु के बाद ही घर पहुंचे थे. हमारा समाज ऊपर से परिपक्व दिखता है पर अंदर से है नहीं. एड्स को ले कर हमारा समाज आज भी कई तरह के पूर्वाग्रहों से पीडि़त है.’’

मयंक की आंखें मां का चेहरा देखतेदेखते भर आईं. वह उठा और चुपचाप घर लौट गया.

नंदिता को एड्स सैल में शिफ्ट कर दिया गया. वे सोचतीं यह बीमारी इतनी भयानक नहीं है जितना कि इस से बनने वाला माहौल. सब अपनेअपने दर्द से दुखी थे. उस वार्ड में 60 साल के बूढ़े भी थे और 18 साल के युवा भी. उस माहौल का असर था या बीमारी का, उन की हालत बद से बदतर होती जा रही थी. रोज किसी न किसी टैस्ट के लिए उन का खून निकाला जाता जिस में उन्हें बहुत कष्ट होता, कितनी दवाएं दी जातीं, कितने इंजैक्शन लगते, वे दिनभर अपने बैड पर पड़ी रहतीं. अब उन के साथ बस उन का अकेलापन था. वे रातदिन मयंक, किरण और यश से बात करने के लिए तड़पती रहतीं लेकिन बीमारी का पता चलने के बाद से किरण ने तो अस्पताल में पैर ही नहीं रखा था और अब मयंक कईकई दिन बाद आता भी तो खड़ेखड़े औपचारिकता सी निभा कर चला जाता.

नंदिता का कलेजा कट कर रह जाता, यह क्या हो गया था. उन्हें देखने सोसायटी से उन के ग्रुप की कोई महिला आती तो जैसे वे जी उठतीं. कुछ महिलाएं समय का अभाव बता कर कन्नी काट जातीं लेकिन कई महिलाएं उन से मिलने आती रहतीं. वे सब के हालचाल पूछतीं. किसी का मन होता जा कर मयंक और किरण से उन के हालचाल पूछें लेकिन दोनों का स्वभाव देख कर कोई न जाता. वैसे भी महानगर के लोगों को न तो ज्यादा मतलब होता है और न ही कोई आजकल अपने जीवन में किसी तरह का हस्तक्षेप स्वीकार करता है, खासकर मयंक और किरण जैसे लोग.

कोई जब भी नंदिता को देखने जाता तो लगता उन्हें कहीं न कहीं जीने की इच्छा थी, इसी इच्छाशक्ति के जोर पर वे बहुत तेजी से ठीक होने लगीं और 5 महीने बाद वे पूरी तरह से स्वस्थ और सामान्य हो गईं. वे बहुत खुश थीं. एक बड़ा युद्ध जीत कर मृत्यु को हरा कर वे घर लौट रही थीं पर वे यह नहीं जानती थीं कि इन 5 महीनों में सबकुछ बदल चुका था.

उन्हें घर लाते समय मयंक बहुत गंभीर था. नंदिता ने सोचा इतने दिनों से सब को असुविधा हो रही है, थोड़े दिनों में सब पहले की तरह ठीक हो जाएगा. वे जल्दी से जल्दी यश को देखना चाहती थीं और यश की वजह से किरण भी उन से नहीं मिलने आ पाई. उसे कितना दुख होता होगा. यही सब सोचतेसोचते घर आ गया. मयंक पूरे रास्ते चुप रहा था. बस, हांहूं करता रहा था.

मयंक ने ही ताला खोला तो वे चौंकी, ‘‘किरण नहीं है घर पर?’’

मयंक चुप रहा. उन का बैग अंदर रखा. नंदिता ने फिर पूछा, ‘‘किरण और यश कहां हैं?’’

‘‘मां, आप की बीमारी पता चलने के बाद किरण यश के साथ यहां नहीं रहना चाहती थी. हम लोगों ने किराए पर फ्लैट ले लिया है.’’

नंदिता को लगा, सारी मोहमाया, प्यार और विश्वास के बंधन एक झटके में टूट गए हैं, उन की सारी संवेदनाएं ही शून्य हो गईं. उदास, शुष्क, खालीखाली, विरक्त आंखों से मयंक को देखती रहीं, फिर चुपचाप हतप्रभ सी वेदना के महासागर में डूब कर बैठ गईं. वे एकाकी, मौन, स्तब्ध बैठी रहीं तो मयंक ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘मां, एक फुलटाइम मेड का प्रबंध कर दिया है, वह आने वाली होगी. आप को कोई परेशानी नहीं होगी और फोन तो है ही.’’

नंदिता चुप रहीं और मयंक चला गया.

लताबाई ने आ कर सब काम संभाल लिया. नंदिता के अस्पताल से घर आने का पता चलते ही उन की सहेलियां उन से मिलने पहुंच गईं. उन के घर का सन्नाटा महसूस कर के उन की आंखों की उदासी देख कर उन की सहेलियां जिन भावनाओं में डूबी थीं, उन्हें व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे उन के पास और जहां शब्द हार मानते हैं वहां मौन बोलता है.

नंदिता सब के हालचाल पूछती रहीं और स्वयं को सहज रखने का प्रयत्न करते हुए मुसकराने लगीं, बोलीं, ‘‘तुम लोग मेरे अकेले रहने के बारे में मत सोचो, इस की भी आदत पड़ जाएगी, सब ठीक है और तुम लोग तो हो ही, मैं अकेली कहां हूं.’’

सब उन की जिंदादिली पर हैरान हुए फिर अपनीअपनी गृहस्थी में सब व्यस्त हो गए. उन का अपना नियम शुरू हो गया. सुबहशाम सैर करतीं, अपनी हमउम्र महिलाओं के साथ गार्डन में थोड़ा समय बिता कर अपने घर लौट जातीं. सब ने गौर किया था वे अब कभी भी अपने बेटेबहू, पोते का नाम नहीं लेती थीं.

कुछ समय और बीता. आर्थिक मंदी की चपेट में किरण की नौकरी भी आ गई और मयंक को औफिस की टैंशन के कारण उच्च रक्तचाप रहने लगा. उस की तबीयत खराब रहने लगी. छुट्टी वह ले नहीं सकता था. दवा की एक प्राइवेट कंपनी में सेल्स मैनेजर था, काम का प्रैशर था ही. दोनों के शाही खर्चे थे, कोई खास बचत थी नहीं. अभी तक नंदिता के साथ रहता आया था. नंदिता के पास अपनी जमापूंजी भी थी, पति द्वारा सुरक्षित भविष्य के लिए संजोया धन था जिस से वे आज भी आर्थिक रूप से सक्षम थीं. अब लताबाई फुलटाइम मेड की तरह नहीं, बस सुबहशाम आ कर काम कर देती थी. नंदिता ने अकेले रहने की आदत डाल ली थी.

किरण के मातापिता अपने बेटे के साथ अमेरिका में रहते थे. किरण अपने जौब के लिए भागदौड़ कर रही थी. यश की देखभाल उचित तरीके से नहीं हो पा रही थी. मयंक और किरण को नंदिता की याद आने लगी. अब उन्हें नंदिता की जरूरत महसूस हुई. वैसे भी नंदिता अब स्वस्थ हो चली थीं.

एक दिन दोनों यश को ले कर नंदिता के पास पहुंच गए. नंदिता के पास उन की कुछ सहेलियां बैठी हुई थीं. मयंक पहले चुपचाप बैठा रहा, फिर उन से धीरे से बोला, ‘‘मां, आप से कुछ अकेले में बात करनी है.’’

उन की सहेलियों ने उठने का उपक्रम किया तो नंदिता ने टोका, ‘‘ये सब मेरी अपनी हैं, मेरे दुखसुख की साथी हैं, जो कहना हो, कह सकते हो.’’

मयंक को संकोच हुआ, किरण सिर झुकाए बैठी थी, यश नंदिता की गोद में बैठ चुका था.

मयंक ने कहा, ‘‘मां, हम यहां आप के पास आ कर रहना चाहते हैं. हम से गलती हुई है, हमें माफ कर दो.’’

नंदिता ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘नहीं, अब तुम लोग यहां नहीं रहोगे.’’

मयंक सिर झुकाए अपनी परेशानियां बताता रहा, अपनी आर्थिक और शारीरिक समस्याओं को बताते हुए वह माफी मांगता रहा. सुषमा और अर्चना ने नंदिता के कंधे पर हाथ रख कर बात खत्म करने का इशारा किया तो नंदिता ने कहा, ‘‘नहीं सुषमा, इन्हें भी एहसास होना चाहिए कि परेशानी के समय जब अपने हाथ खींचते हैं तो जीवन कितना बेगाना लगता है, विश्वास नाम की चीज कैसे चूरचूर हो जाती है. मैं समझ चुकी हूं और सब से कहती हूं अपने बच्चों को पालते हुए अपने बुढ़ापे को नहीं भूलना चाहिए, वह तो सभी पर आएगा.

‘‘संतान बुढ़ापे में तुम्हारा साथ दे न दे पर तुम्हारा बचाया पैसा ही तुम्हारे काम आएगा. संतान जब दगा दे जाती है तब इंसान कैसे लड़ता है बुढ़ापे के अकेलेपन से, बीमारियों से, कदम दर कदम पास आती मौत की आहट से, कैसे? यह मैं ही जानती हूं कि पिछला समय मुझे क्या सिखा कर बीता है. मां बदला नहीं चाहती लेकिन हर मातापिता अपनी संतान से कहना चाहते हैं कि जो हमारा आज है वही उन का कल है लेकिन आज को देख कर कोई कल के बारे में कहां सोचता है बल्कि कल के आने पर आज को याद करता है,’’ बोलतेबोलते उन का कंठ भर आया.

कुछ पल मौन छाया रहा. मयंक और किरण ने हाथ जोड़ लिए, ‘‘हमें माफ कर दो, मां. हम से गलती हो गई.’’

यश ने चुपचाप सब को देखा फिर नंदिता से पूछा, ‘‘दादी, मम्मीपापा सौरी बोल रहे हैं? अब भी आप गुस्सा हैं?’’

नंदिता यश का भोला चेहरा देख कर मुसकरा दीं तो सब के चेहरों पर मुसकान फैल गई. सुषमा और अर्चना खड़ी हो गईं, मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘हम चलते हैं.’’

नंदिता को लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक, कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है.

नया सवेरा: बड़े भैया के लिए पिताजी का क्या था फैसला

family story in hindi

सैलिब्रेशन- भाग 4: क्या सही था रसिका का प्यार

मान्या वंश के घर भी जाती रहती थी. उस की मां और पापा से मिल चुकी थी.

मां सोना और सत्येंद्र को मान्या पसंद थी, इसलिए उस के हौसले और भी बढ़ गए थे.

एक दिन मान्या वंश को ले कर घर आई और

रसिका से मिलवाया.

रसिका भी वंश के आकर्षक व्यक्तित्व और नामीगिरामी परिवार का चिराग है, जान कर खुशी से फूल कर कुप्पा हो गई. उस ने बेटी को शादी के लिए वंश पर जोर डालने की सलाह दी.

वंश उसे अपना भावी दामाद लगने लगा था, इसलिए मान्या को उस के संग घूमनेफिरने की पूरी आजादी थी. दोनों अंतरंग रिश्ते की डोर से बंध गए थे.

रसिका ने एक दिन वंश और उस के परिवार को अपने घर पर लंच के लिए बुलाया ताकि वे लोग उन के बारे में अच्छी तरह से जानकारी ले लें और उन का घर और रहनसहन भी देख लें. वैभव उस दिन गांव गया था.

वंश के पिता ने उसी समय उन दोनों के रिश्ते पर अपनी मुहर लगा दी. उन्हें मान्या पसंद थी.

एक बार में ही सबकुछ इतनी जल्दी तय हो जाएगा, रसिका ने सपने में भी नहीं सोचा था.

रसिका खुशी से गद्गद हो कर गुरू के चरणों में गिर गई, ‘‘आप की महिमा अपरंपार है. आप की वजह से ही इतने बड़े परिवार में मेरी बेटी का रिश्ता तय होने जा रहा है.’’

सगाई समारोह पांचसितारा होटल में संपन्न हुआ. मान्या के परिवार से तो कोई था नहीं, केवल औफिस की मित्रमंडली थी.

वंश के नातेरिश्तेदारों का पूरा हुजूम था. उसी दिन शादी की तारीख भी तय कर दी गई.

यद्यपि वंश की मां ने आ कर मान्या के दादीनानी वगैरह के बारे में पूछताछ की थी, लेकिन रसिका ने गोलमोल जवाब दे कर बात संभालने का प्रयास किया था.

वंश की कोठी देख वह बेटी की खुशी के लिए पैसा पानी की तरह बहा रही थी. वह अपने फंड से पैसे निकाल कर दिनरात शौपिंग और बुकिंग में जुटी थी.

वैभव कुछ उखड़ाउखड़ा सा रहता. शादी की तैयारी में कोई रुचि नहीं ले रहा था.

मेहंदी और संगीत का फंक्शन था. कल शादी थी. रसिका लोगों की आवभगत में लगी थी. सभी लोग उसे बधाई दे रहे थे. उस की निगाहें वैभव को चारों ओर ढूंढ़ रही थी. लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. उस का फोन भी बंद था. वैभव को तो उस ने शादी के कई कामों की जिम्मेदारी सौंप रखी थी. वह इतना गैरजिम्मेदार तो कभी नहीं था.

इतना बड़ा फंक्शन. लोगों की भीड़भाड़ थी. वंश के परिवार वालों के आने का समय हो चुका था. वैभव का फोन बंद आ रहा था.

किसी अनिष्ट की आशंका से रसिका का तनमन सिहर उठा. उस का चेहरा विवर्ण हो उठा. तभी उस का मोबाइल बज उठा. वंश की मां सोना का फोन था.

उन्होंने उखड़े अंदाज में उन्हें अपने घर बुलाया था.

मां के चेहरे को देखते ही मान्या समझ गई कि कुछ अघटित घट चुका है. उस ने वंश को फोन लगाया तो उस का फोन बंद आया.

सब तरफ मौन पसर गया. अकेली रसिका अपनेआप को संभाल नहीं पाई. उस का चेहरा आंसुओं से भीग गया. क्षणभर में सब को सांप सूंघ गया. जितने लोग उतनी बातें. माहौल में मौन के साथसाथ फुसफुसाहट भी हो रही थी. सब अपनेअपने अनुसार कयास लगा रहे थे.

मानसिक व्यथा के उन कठिन क्षणों में अनेक झंझावातों को झेलते हुए अनेकानेक हां और नहीं के विचारमंथन के बाद रसिका ने साहस जुटा कर सब के चेहरों के प्रश्नचिह्न के समाधान के लिए वंश के मातापिता के साथ उन की गलतफहमी को दूर करने की बात कही.

सब के चेहरे उम्मीद की किरण की रोशनी से नहा उठे.

‘‘मम्मी, आप को उन के सामने रोनेगिड़गिड़ाने की कोई जरूरत नहीं है,’’ मान्या ने कहा.

रसिका बेटी को डांट कर चुप रहने को कह कर अकेली गाड़ी में बैठ कर वंश के घर की ओर चल दी.

कुछ पलों के लिए रसिका के यहां सन्नाटा पसर गया था. कुछ लोगों के चेहरों पर

आशा की किरण जगमगा रही थी कि रसिका अपनी वाक्पटुता से सारी गलतफहमी को दूर कर देगी. तो कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन के चेहरों पर कुटिल मुसकान दिखाई दे रही थी कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे? जैसा करा है वैसा भरो. किसी का घर तोड़ा है तो उस का फल तो यहीं मिलना है. अब बेटी की शादी टूटेगी तो पता लगेगा कि किसी के घर में आग लगाने का नतीजा क्या होता है.

रसिका वंश की कोठी में पहुंची तो वहां पर वैभव और उस की पत्नी राधिका को देखते ही सबकुछ शीशे की तरह साफ हो चुका था.

वह उन लोगों के सामने रोई, गिड़गिड़ाई, राधिका के सामने हाथ जोड़े, माफी मांगी. वैभव मूक बैठा रहा.

वंश की मां के सामने अपनी बेटी की खुशियों की भीख झोली फैला कर मांगती रही. लेकिन वह टस से मस न हुई. बोली, ‘‘मैं ऐसी मां की बेटी से अपने बेटे की शादी नहीं कर सकती, जिस ने अपने जीवन में रिश्ते निभाना नहीं सीखा.’’

वह रोतीबिलखती रही. काफी देर इंतजार करने के बाद दोनों बेटियां भी वहां पहुंच गईं, ‘‘उठो मां, वंश जैसे कायर लड़के के साथ मैं खुद शादी नहीं करूंगी.’’

काव्या बोली, ‘‘दीदी, तू तो बच गई ऐसे कायर, कमजोर जीवनसाथी से.’’

‘‘मां, आप समझो बच गईं, क्योंकि इन फरेबियों का असली चेहरा शादी से पहले ही सामने आ गया.’’

‘‘मां, एक बार जोर से मुसकराओ…हम सब इन धोखेबाजों के चंगुल से बच गए.यह सैलिब्रेशन का समय है. आंसू बहाने का नहीं.’’

रसिका अपनी बेटियों के चेहरे देखती रह गई. उस का तन और मन दोनों जैसे शून्य और शक्तिहीन हो चुके थे. उस के लिए यह आघात सहना कठिन हो रहा था.

रसिका की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी. वह मन ही मन घुट रही थी कि इतनी बड़ी दुनिया में उस का अपना कोई नहीं है. उस ने रिश्ता भी जोड़ा तो स्वार्थी वैभव से, जिस ने बीच मंझधार में छोड़ दिया.

रसिका ने अपनी बेटियों को गहरी नजर से देखा और फिर बोली, ‘‘मेरी प्यारी बेटियो सच में यह समय तो सैलिब्रेशन का ही है.’’

रसिका का चेहरा उस के साहस की रोशनी से जगमगा उठा था.

‘‘मान्या आंखों में आंसू भर कर अपने दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ी. घर पहुंच कर वह सूने घर में फूटफूट कर रोती रही…’’

‘‘सब तरफ मौन पसर गया. अकेली रसिका अपनेआप को संभाल नहीं पाई. उस का चेहरा आंसुओं से भीग गया. क्षणभर में सब को सांप सूंघ गया…’’

मृगतृष्णा- भाग 1: मंजरी ने क्या किया जीजाजी की सच्चाई जानकर

आज वैसे भी मेरा मिजाज जरा उखड़ाउखड़ा था और जब मृदुला ने फोन पर बताया कि इस बार वह अपनी शादी की सालगिरह गोवा में सैलिब्रेट करेगी, तब तो मेरा मन और छोटा हो गया. लगा एक मैं हूं… बस इतना ही तो कहा था किशोर से कि ‘केसरी’ फिल्म देखने चलते हैं, क्योंकि मुझे अक्षय कुमार की फिल्में बहुत पसंद आती हैं. तब कहने लगे कि फालतू काम के लिए मेरे पास समय नहीं है. औफिस जाना पड़ेगा, क्लोजिंग चल रही है. और इधर देखो, छुट्टी ले कर राजन अपनी पत्नी को गोवा घुमाने ले जा रहे हैं. ईर्ष्या नहीं हो रही है.

बहन है वह मेरी, तो ईर्ष्या क्यों होगी? मगर मेरे हिस्से में यह सुख क्यों नहीं है? यह सोच कर मैं उदास हो गई, क्योंकि मैं भी तो उसी कोख से पैदा हुई थी, जिस से मृदुला. बस 1 मिनट की ही तो बड़ीछोटी हैं हम दोनों, फिर सुख में इतना अंतर क्यों?

‘‘क्या हुआ, कहां खो गई मंजरी?’’ जब मृदुला ने पूछा, तो मुझे ध्यान आया कि वह फोन पर ही है, ‘‘गोवा से क्या लाऊं तुम्हारे लिए बता? हां, वहां काजू बहुत अच्छे मिलते हैं. वही ले आऊंगी.’’

‘‘अरे, कुछ नहीं, बस तू घूम के आ अच्छी तरह… काजू तो यहां भी मिल जाते हैं. वहां से ढो कर क्यों लाएगी?’’ मैं ने कहा, पर वह जिद पर अड़ गई कि नहीं, मैं बताऊं कि मुझे क्या चाहिए.

‘‘अच्छा ठीक है, जो तुझे अच्छा लगे लेती आना,’’ कह कर मैं ने काम का बहाना बना कर फोन रख दिया, नहीं तो वह और न जाने क्याक्या बोल कर मेरा दिमाग खराब करती.

वह आएदिन मुझे फोन कर के कुछ न कुछ बताती रहती है. जैसेकि आज राजन उसे मौल में शौपिंग करवाने ले गया, आज अपने पति के साथ वह फिल्म देखने गई. मना करती रही, फिर भी राजन उसे होटल में खिलाने ले गया, आज राजन उस के लिए साड़ी ले कर आया, आज राजन उस के लिए झुमके ले कर आया. उफ, मेरे तो कान दुखने लगते हैं उस की बातें सुन कर. कभीकभी तो लगता है वह मुझे जलाने के लिए ऐसा करती है.

वैसे अपनी शादी की हर सालगिरह मृदुला ऐसे ही किसी अच्छी जगह सैलिब्रेट करती है. कभी शिमला, कभी दार्जिलिंग, कभी सिंगापुर और इस बार गोवा. पर किशोर को एक बार भी नहीं लगता है कि हमें भी कभी किसी अच्छी जगह अपनी सालगिरह सैलिब्रेट करनी चाहिए, बल्कि वे तो इन सब बातों को फुजूलखर्ची मानते हैं. कहते हैं कि ये सब ढकोसलेबाजी है. एकदम पुराने खयालात के इंसान हैं किशोर और वहीं मृदुला के पति राजन उतने ही नए और रोमांटिक विचारों वाले इंसान हैं एकदम मेरी तरह.

मैं भी तो जिंदगी जीने में विश्वास रखती हूं न कि झेलने में. अच्छेअच्छे कपड़े पहनना, होटलों में खाना, पार्टी करना, ढेर सारी शौपिंग करना मुझे कितना अच्छा लगता है. मगर मेरे कंजूस पति ये सब मुझे करने दें तब न. कभीकभी तो लगता है वही औरत सुखी है, जो कमाती है. अपने पर खुल कर खर्च तो कर सकती है. लेकिन मृदुला कौन सा कमाती है… फिर भी जिंदगी का पूरापूरा लुत्फ उठा रही है न. अब उस का पति ही इतना दिलदार…

मेरे पति तो बस साधा जीवन उच्च विचार वाले इंसान हैं. एकदम बोरिंग. सोचा नहीं था

कभी मेरा ऐसे इंसान से पाला पड़ेगा, जो एकदम नीरस होगा. बातबात पर पैसापैसा करते रहते हैं. अरे, पैसा ही सबकुछ है क्या? जीवन की खुशियां कुछ नहीं? लोग कमाते किसलिए हैं? खर्च करने के लिए ही न? मगर किशोर जैसे इंसान पैसे को अलमारी में सहेज कर उसे धूपदीप दिखाने में विश्वास रखते हैं ताकि वह और फूलताफलता रहे. मगर उन्हें नहीं पता कि रखेरखे पैसे में भी दीमक लग जाती है. इंसान को एक दिन मरना ही है, तो क्यों न सुखमौज कर के मरे? मगर यह बात उस मंदबुद्धि इंसान को कौन समझाए. अरे, सीखे कोई राजन जीजाजी से… कैसे वे खुद भी शान से जीते हैं और बीवीबच्चों को भी उसी प्रकार जिलाते हैं. कोई बात मृदुला के मुंह से निकली नहीं कि वह चीज ला कर रख देते हैं. यह बात मुझे मृदुला ने बताई थी कि जबतब राजन उस के लिए महंगीमहंगी साडि़यां, जेवर खरीद लाते हैं वह मना करती रह जाती है और एक मैं छोटीछोटी चीजों के लिए भी तरसती रहती हूं.

कितनी शान से कहती है मृदुला कि उस के पति का सारा वेतन उस के ही हाथों में आता है… और एक किशोर हैं गिनगिन कर मुझे घर चलाने के लिए पैसे देते हैं जैसे मैं उन के पैसे ले कर भाग जाऊंगी. आश्चर्य होता है… तड़कभड़क से दूर रहने वाली मृदुला की जिंदगी इतनी रंगीन बन गई और मुझे जो तड़कभड़क वाली जिंदगी अच्छी लगती थी, तो मेरा एक ऐसे इंसान से पाला पड़ा, जिसे ये सब ढकोसला लगता है. लगता है जोडि़यां ही गलत बन गईं हमारी.

आखिर क्यों, क्यों जो चीज जिसे मिलनी चाहिए उसे नहीं मिलती? इस

का उलटा ही होता है… हमें एक चीज दे दी जाती है और कहा जाता है इस के साथ तुम्हें जिंदगीभर निबाह करना होगा. चाहे हमें उस चीज से नफरत ही क्यों न हो. हां, कभीकभी मुझे किशोर के आचरण से नफरत होने लगती है. लगता है किस गंवार के पल्ले बांध दी गई मैं और वहां मृदुला रानी सा जीवन जी रही है.

सच, कभीकभी तो लगता है सबकुछ छोड़छाड़ कहीं भाग जाऊं, क्योंकि इस इंसान से निभाना मुश्किल लगने लगा है. लेकिन हम ऐसी जंजीरों में जकड़े हुए हैं कि उन से मरते दम तक आजाद नहीं हो सकते.

‘‘आज क्या बन रहा है खाने में? खुशबू तो बड़ी अच्छी आ रही है,’’ किचन में प्रवेश करते हुए किशोर ने पूछा.

मैं दूसरी तरफ ही मुंह किए बोली, ‘‘कुछ खास नहीं, रोटी व दाल,’’ मन हुआ किशोर को बताए कि देखो, कैसे राजन जीजाजी अपनी पत्नी को दुनिया की सैर करवा रहे हैं और एक तुम… बस चूल्हे में ही झोंकते रहो मुझे. पर क्या फायदा. मगर मुझ से रहा नहीं गया. बोल ही दिया.

किशोर कहने लगे, ‘‘तो तुम क्यों उदास हो रही हो? उन की जिंदगी है जैसे चाहें जीएं.’’

मुझे उन की बात पर बड़ा गुस्सा आया. बोली, ‘‘तो क्या हम उन की तरह नहीं जी सकते? क्या हम बूढे़ हो गए हैं? क्या कभी तुम्हारा मन नहीं करता कि हम भी ऐसे कहीं बाहर घूमने जाएं? अब कहोगे पैसे कहां हैं इतने, तो क्या मृदुला के पति से कम सैलरी मिलती है तुम्हें? कहो न कि मन ही नहीं करता तुम्हारा इन सब चीजों का. बोरिंग इंसान हो तुम बोरिंग.’’

गुस्से में आज मैं ने जम कर सब्जी में नमक डाल दिया. क्या करती? मेरी आदत है, जब तक मेरा गुस्सा नहीं उतरता, सिर भारीभारी सा लगता है. लेकिन सब्जी बिगाड़ देने के बाद भी मेरा पारा गरम ही था.

मगर स्वभाव से शांत किशोर कहने लगे, ‘‘बोरिंग इंसान नहीं हूं मैं मंजरी और न ही कंजूस. समझो तुम… बच्चे बड़े हो रहे हैं. उन की पढ़ाईलिखाई, शादीब्याह के बारे में भी तो सोचना होगा न अब हमें? दिनप्रतिदिन बच्चों की महंगी होती पढ़ाई ऊपर से घर, गाड़ी का लोन. ये सब मेरी कमाई से ही हो पा रहा है न? और तो कोई ऊपरी आमदनी है नहीं. समझो, अगर मैं आर्थिक रूप से कमजोर हो जाऊंगा, तो तुम भी हो जाओगी और मैं ऐसा नहीं चाहता. बताओ न, कौन है चार पैसे से हमारी मदद करने वाला? कहने को बड़ा परिवार है हमारा. मगर सब की अपनी डफली, अपना राग है. डेढ़दो लाख अगर घूमने में ही लगा देंगे, तो सारा बजट बिगड़ जाएगा. दूसरों को देख कर मत जीयो मंजरी, दुख ही होगा. हम जैसे हैं ठीक हैं. बस यह सोचो. खुश रहोगी,’’ किशोर ने अपनी तरफ से मुझे खूब समझाया.

नाराजगी- भाग 3: बहू को स्वीकार क्यों नहीं करना चाहती थी आशा

शाम को संध्या अपने हाथों से खाना बनाती. बाकी सारी व्यवस्था आशा ही देखतीं.आशा महसूस कर रही थीं कि संध्या का व्यवहार वाकई बहुत अच्छा है. भले ही वह सुमित से उम्र में बड़ी थी लेकिन हर जगह पर पति का पूरा मान और खयाल रखती थी. वह कभी उस से बेवजह उल झती न थी. कुछ ही दिनों में आशा के मन में उस के प्रति कड़वाहट कम होने लगी थी. वे सोचने लगीं दुनिया वालों का क्या है? कुछ दिन बोलेंगे, फिर चुप हो जाएंगे. आखिर जिंदगी तो उन दोनों को एकसाथ बितानी है. उन का आपस में सामंजस्य ठीक रहेगा, तो परिवार की खुशियां अपनेआप बनी रहेंगी.शाम के समय अकसर संध्या खिड़की से खड़े हो कर नीचे ग्राउंड में बच्चों को खेलते हुए देखती रहती.

एक मां होने के कारण आशा उस की भावनाओं से अनभिज्ञ न थी. उसे अपना बेटा अर्श बहुत याद आता था लेकिन उस ने कभी भी अपने मुंह से उसे साथ रखने के लिए नहीं कहा था. एक दिन आशा ने ही पूछ लिया.‘‘तुम्हारा बेटा कैसा है?’’‘‘मम्मीजी, आप का पोता ठीक है.’’‘‘तुम्हें उस की याद आती होगी?’’ आशा ने पूछा तो संध्या ने मुंह से कुछ नहीं बोला लेकिन उस की आंखें सजल हो गई थीं. आशा सम झ गईं कि वह कुछ बोल कर उन का दिल नहीं दुखाना चाहती, इसीलिए कोई उत्तर नहीं दे रही.‘‘तुम उसे यहीं ले आओ. इस से तुम्हारा मन उस के लिए परेशान नहीं होगा,’’ आशा ने यह कहा तो संध्या को अपने कानों पर विश्वास न हुआ. उस ने चौंक कर आशा को देखा.‘‘मैं ठीक कह रही हूं. मैं भी एक मां हूं और सोच सकती हूं तुम्हारे दिल पर क्या बीतती होगी?’’

संध्या ने आगे बढ़ कर उन के पैर छूने चाहे तो आशा ने उसे गले लगा लिया, ‘‘बीती बातें भूल जाओ और नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करो.’’सुमित ने सुना तो उसे भी बहुत अच्छा लगा. वह तो पहले भी उसे अपने साथ लाना चाहता था लेकिन संध्या ने उसे रोक लिया था.दूसरे दिन वे अर्श को साथ ले कर आ गए. अर्श ने अजनबी नजरों से आशा को देखा तो संध्या बोली, ‘‘बेटे, ये तुम्हारी दादी हैं, इन के पैर छुओ.’’ अर्श ने आगे बढ़ कर उन के पैर छुए. आशा ने पूछा, ‘‘कैसे हो अर्श?’’‘‘मैं अच्छा हूं, दादी.’’  उस के मुंह से दादी शब्द सुन कर आशा को बहुत अच्छा लगा. सीमा भी खुश थीं कि अर्श को अपनी मम्मी मिल गई थी. सुमित और आशा के बड़प्पन के आगे संध्या के मायके वाले सभी नतमस्तक थे. उन्होंने कभी सोचा भी न था कि एक बार संध्या की जिंदगी में इतना बड़ा हादसा हो जाने के बाद उस के जीवन में इस तरह से फिर से खुशियों की बहार आ सकती है.

आशा ने परिस्थितियों से सम झौता कर के सबकुछ स्वीकार कर लिया था. अपने दिल से उन्होंने संध्या के प्रति सारी शिकायतें दूर कर दी थीं. सुमित खुश था कि उस ने अपनी मम्मी की ममता के साथ अपने प्यार को भी पा लिया था.आशा अर्श का भी बहुत अच्छे से खयाल रखती थीं. वह भी उन के साथ घुलमिल गया था. उस के दिन में स्कूल से आने पर वे उसे प्यार से खाना खिलातीं और होमवर्क करा देतीं. शाम को वह बच्चों के साथ खेलने चला जाता. आशा पार्क में बैठ कर बच्चों को खेलते देखती रहती. सबकुछ सामान्य हो गया था. तभी एक दिन अचानक आशा के पेट में बहुत दर्द हुआ और उस के बाद उन्हें ब्लीडिंग होने लगी. यह देख कर संध्या और सुमित घबरा गए.

वे तुरंत उन्हें ले कर नर्सिंगहोम पहुंचे. आशा की हालत बिगड़ती जा रही थी, यह देख संध्या बहुत परेशान थी. उस ने तुरंत अपनी मम्मी को फोन मिलाया.कुछ ही देर में सीमा अपने बेटे अशोक के साथ वहां पहुंच गईं. संध्या की घबराहट देख कर उस की मम्मी सीमा बोलीं, ‘‘संध्या, धीरज रखो. सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’ ‘‘पता नहीं मम्मीजी को अचानक क्या हो गया? मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’ ‘‘हिम्मत से काम लो, डाक्टर उन की जांच कर रहे हैं. अभी कुछ देर में रिपोर्ट आ जाएगी. तब पता चल जाएगा कि उन्हें क्या हुआ है?’’ अशोक बोले.डाक्टर ने उन्हें भरती कर के तुरंत जांच की और बताया, ‘‘इन के गर्भाशय में रसौली है. उस का औपरेशन करना जरूरी है, वरना मरीज को खतरा हो सकता है.’’ ‘‘देर मत कीजिए डाक्टर साहब. मम्मी को कुछ नहीं होना चाहिए,’’ संध्या बोली. पूरा दिन इसी भागदौड़  में बीत गया था. संध्या ने अर्श को मम्मी के साथ घर भेज दिया था और वह खुद उन्हीं की देखरेख में लगी  हुई थी. शाम तक औपरेशन हो गया.

औपरेशन के बाद आशा को कमरे में शिफ्ट कर दिया गया था. अभी उन्हें ठीक से होश नहीं आया था. सुमित बोला, ‘‘संध्या, तुम घर जाओ. मैं मम्मी की देखभाल कर लूंगा.’’ ‘‘नहीं, तुम घर जाओ. उन की देखभाल के लिए किसी औरत का होना जरूरी है. मैं यहां रुकूंगी.’’ संध्या के आगे सुमित की एक न चली और वह वहीं रुक गई. एक हफ्ते तक संध्या ने आशा की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह दोपहर में थोड़ी देर के लिए कालेज जाती. उस के बाद घर आ कर अपने हाथों से आशा के लिए खाना तैयार करती और फिर नर्सिंगहोम पहुंच जाती. शाम को सुमित मम्मी के साथ रहता. इतनी देर में संध्या घर आ कर खाना तैयार करती और उसे ले कर नर्सिंगहोम आ जाती. फिर दूसरे दिन सुबह घर लौटती.संध्या ने सास की सेवा में रातदिन एक कर दिया था. इस मुश्किल घड़ी में भी वह घर, औफिस और आशा का पूरा खयाल रख रही थी. सुमित यह सब देख कर हैरान था. आशा को अपने से ज्यादा संध्या की चिंता होने लगी थी. संध्या की मम्मी, भाई, भाभी और करीबी रिश्तेदार उन को देखने रोज नर्सिंगहोम पहुंच रहे थे.संध्या की देखभाल से हफ्तेभर में आशा की सेहत में सुधार हो गया था.

वे 8 दिनों बाद घर आ गईं. संध्या की सेवा से आशा बहुत खुश थीं. घर आते ही उन्होंने इधरउधर नजर दौड़ाई और पूछा, ‘‘अर्श कहां है?’’ ‘‘वह नानी के पास है.’’‘‘उसे यहां ले आती.’’‘‘अभी आप को आराम की जरूरत है. वह कुछ दिनों बाद यहां आ जाएगा,’’ संध्या बोली.संध्या के भैया, भाभी और मम्मी सभी ने अपनी ओर से उन की  सेवा और देखरेख में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.संकट की यह घड़ी भी बीत गई थी, लेकिन अपने पीछे कई सुखद अनुभव छोड़ गई थी. आशा की बीमारी के कारण दोनों परिवार बहुत नजदीक आ गए थे. सीमा अशोक और उस की पत्नी रिया के साथ आशा को देखने उन के घर पहुंचे. वे अपने साथ ढेर सारे फल ले कर आए थे.‘‘इन सब की क्या जरूरत थी? आप अपने साथ हमारे लिए सब से कीमती दहेज तो लाए ही नहीं हैं,’’ आशा बोली तो वे सब चौंक गए.सीमा ने डरते हुए पूछा, ‘‘आप किस दहेज की बात कर रही हैं?’’‘‘हमारे लिए तो सब से कीमती दहेज हमारा पोता अर्श है. मैं उस की बात कर रही हूं,’’ आशा बीमारी की हालत में भी हंस कर बोलीं तो माहौल हलकाफुलका हो गया. आशा की सारी नाराजगी दूर हो गई थी.

मृगतृष्णा- भाग 2: मंजरी ने क्या किया जीजाजी की सच्चाई जानकर

मगर मेरे दिमाग में किशोर की कही एक भी बात नहीं घुस रही थी. मैं तो बस इतना जान रही थी कि किशोर राजन की तरह नहीं हैं. इसलिए उन की हर छोटी बात पर भी मैं झल्ला उठती या उलाहने देने लगती और वे बेचारे चुपचाप मेरी झिड़की सुन लेते, क्योंकि वे जानते थे कि मैं लड़ाई के रास्ते ढूंढ़ रही हूं और वे घर में कलह नहीं चाहते थे. शाम को भी जब वे थकेहारे औफिस से घर आते, तो चुप ही रहते. जानबूझ कर खुद को किसी न किसी काम में उलझाए रखते ताकि किसी बात पर मुझ से बहस न हो जाए.

आज फिर मृदुला ने मुझे यह कह कर शौक दे दिया कि शादी की सालगिरह पर राजन ने उसे हीरे जड़ी अंगूठी दी. फिर बताने लगी कि वे कहांकहां घूमने गए, क्याक्या खरीदा, वगैरहवगैरह, जिसे सुनसुन कर किशोर के प्रति मेरा गुस्सा और बढ़ने लगा.

‘‘मैं तो मना कर रही थी पर ये हैं कि शौपिंग पर शौपिंग करवाए जा रहे हैं और जानती है मंजरी, राजन तो कह रहे थे कि अगर तुम और जीजाजी भी हमारे साथ गोवा आते तो और मजा आता. सच में, गोवा बहुत ही सुंदर जगह है. राजन ने तो मुझे जबरन छोटेछोटे कपड़े कैपरी, जींस, टीशर्ट आदि भी खरीदवा दिए और कहा कि यही पहनूं. जब तक गोवा में रहे पहनने पड़े. क्या करती.’’

मृदुला कहे जा रही थी और मेरे सीने में धुकधुक कर आग जल रही थी.

‘‘अच्छा ठीक है मृदुला अब मैं फोन रखती हूं. खाना बनाना है न. किशोर औफिस से आते ही होंगे,’’ और बात न करने के खयाल से मैं बोली, तो वह फिर कहने लगी, ‘‘अरे, सुन न मंजरी, मैं तो बताना ही भूल गई. वे तुम्हारे जीजाजी अपनी पसंद से तुम्हारे लिए साड़ी खरीद लाए हैं. कह रहे थे नीला रंग, गोरी मंजरी पर खूब फबेगा. सही कह रहे थे. वैसे उन्होंने मेरे लिए भी उसी रंग की साड़ी खरीदी. कहने लगे कि भले तुम सांवली हो, पर मेरे लिए दुनिया की सब से खूबसूरत औरत हो. अच्छा, चल मैं किसी रोज आती हूं तुम्हारा उपहार ले कर.’’

समझ में नहीं आया कि मंजरी क्या बके जा रही है. लगा, बोलना कुछ और चाह रही थी, बोल कुछ और रही है.

‘‘ठीक है मृदुला,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया और बेमन से खाना बनाने लगी. न तो आज मेरा खाना बनाने का मन था और न ही कोई और काम करने का. मूड एकदम औफ हो गया था.

तभी किशोर का फोन आया. कहने लगे कि आज उन का औफिस में ही खाना है, तो मैं खा लूं उन की राह न देखूं. अच्छा है, वैसे भी मेरा खाना बनाने का मन नहीं था. अत: बच्चों को मैगी बना कर खिला दी और खुद टीवी खोल कर बैठ गई. लेकिन आज मुझे वह भी अच्छा नहीं लग रहा था. लगा, आज मृदुला की जगह मैं हो सकती थी. मगर मां ने ऐसा नहीं होने दिया.

याद है जब लड़के वाले मृदुला को देखने आने वाले थे तब मां ने मुझे पड़ोसी के घर भेज दिया ताकि पिछली बार की तरह इस बार भी लड़के वाले मुझे ही न पसंद कर लें. चूंकि मृदुला मुझ से 1 मिनट बड़ी है, इसलिए ब्याह भी पहले उस का ही हुआ था. मगर एक साधारण नैननक्श और सांवली लड़की को इतना अच्छा पति मिल सकता है, यह किसी ने नहीं सोचा था.

मुझे लगा था, जब मृदुला को इतना सुंदर राजकुमार जैसा पति मिल सकता है, तो

फिर मुझे क्यों नहीं, क्योंकि मैं तो उस से लाख गुना सुंदर हूं. लेकिन मेरा सपना तब ताश के पत्ते की तरह भरभरा कर बिखर गया, जब पहली बार मैं ने किशोर को देखा. जैसा नाम वैसा रूप. एकदम कालाकलूटा. लेकिन अब तो शादी हो चुकी थी.

याद है मुझे, मृदुला को देख कर महल्ले की औरतें कहती थीं कि मंजरी के ब्याह में तो कोई दिक्कत नहीं होगी, पर इस कलूटी को कौन पसंद करेगा? खान से निकले, हीरे और कोयले से लोग हमारी तुलना करते थे, जाहिर था मैं हीरा थी और वह कोयला.

जैसेजैसे हम बड़ी होती गईं, यह भावना भी मेरे अंदर पनपती गई कि मैं मृदुला से सुंदर हूं. मेरी बातों से वह आहत भी हो जाती कभीकभी, पर फिर सबकुछ भुला कर एक बड़ी बहन की तरह मुझे प्यार करने लगती.

एक बात थी, छलप्रपंच और ईर्ष्या नाम की चीज नहीं थी उस में. एकदम दिल की साफ थी वह. जहां मैं छोटीछोटी बातों का बतंगड़ बना कर मां को सुनाती, वहीं वह बड़ी बात भी मां से छिपा जाती ताकि उन्हें दुख न हो. शायद इसीलिए उसे इतना कुछ मिला जीवन में. शादी के बाद जहां वह जीवन के सब रस चख रही थी, वहीं मैं हर चीज के लिए तरस रही थी.

शुरूशुरू में तो किशोर का व्यवहार मुझे समझ नहीं आता, लेकिन धीरेधीरे समझ में आने लगा कि सिर्फ रूपरंग से ही नहीं, बल्कि चालव्यवहार से भी उदासीन इंसान हैं ये.

क्या यही मेरे हिस्से में लिखा था? कभी तो मन होता, मां से खूब लड़ूं. पूछूं कि क्यों, क्यों उन्होंने मेरे साथ ऐसा किया? क्या जांचपरख कर शादी नहीं कर सकते थे मेरी? जो मिला पकड़ा दिया? मांबाप हैं या दुश्मन? एक बार लड़ भी ली थी, उस बात पर. लेकिन मुझे समझाते हुए मां कहने लगीं कि लड़के का रूप नहीं गुण देखा जाता है मंजरी. जाने कौन सा बढि़या गुण दिख गया उन्हें किशोर में, जो मेरा हाथ पकड़ा दिया. यही सब बातें कहकह कर, सोचसोच कर कब तक और कितना कुढ़तीमरती मैं. सो उसी को अपना हिस्सा मान कर संतोष कर लिया.

हम मध्यवर्गीय समाज में एक बार जिस का हाथ पकड़ लिया, मरते दम तक निभाना पड़ता है, सो कोई चारा नहीं था, इसलिए मैं ने अपने ढीले मन को खूब कस कर बांध लिया

और बंद कर लिया उस संकीर्ण चारदीवारी में खुद को, क्योंकि अब बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था. लेकिन बारबार मृदुला का सुखी वैवाहिक जीवन देख कर कुढ़न तो होती ही थी न. न चाहते हुए भी फिर वही सब बातें दिमाग में शोर मचाने लगतीं कि वह मुझ से ज्यादा सुखी क्यों है?

उस रोज सुबहसुबह ही मां का फोन आया. घबराते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हारी मृदुला से कोई बात हुई है? फोन आया था उस का क्या?’’

‘‘नहीं तो मां, पर क्या हुआ, सब ठीक तो है?’’ मैं ने पूछा तो मां भर्राए कंठ से कहने लगीं, ‘‘कल से मैं मृदुला को फोन लगा रहीं, पर बंद ही आ रहा है.’’

‘‘अरे, तो जीजाजी को लगा लो.’’

‘‘वे भी फोन नहीं उठा रहे हैं.’’

‘‘हो सकता है फिर दोनों कहीं घूमने निकल गए होंगे. जाते तो रहते हैं हमेशा,’’ यह बात मैं ने ईर्ष्या से भर कर कही, ‘‘अच्छा आप चिंता मत करो, मैं देखती हूं फोन लगा कर.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें