किराएदार: भाग 3- कंजूस व्यवहार के शिवनाथजी का कैसे बदला नजरिया?

ऊपरनीचे दोनों की गृहस्थी अपने ढर्रे पर आगे बढ़ रही थी. उस दिन खापी कर वे सोए थे. अचानक शिवनाथजी के सीने में तेज दर्द उठा. वे जोरजोर से चीखे और मदन को आवाज दे कर बेहोश हो गए. मालिक की चीख सुन कर मदन दौड़ कर आया. रात के डेढ़ बजे थे. चारों ओर जाड़े की रात का सन्नाटा. अंदर की सीढि़यों का दरवाजा खोल कर मदन ने छत पर जा कर अमितआरती को जगाया. वे दोनों नीचे दौड़े आए. अमित घबरा गया.  ‘‘दादाजी, जल्दी जा कर डाक्टर को बुला लाओ. इन्हें दिल का दौरा पड़ा लगता है. हम इन के पास हैं.’’

मदन डाक्टर के पास गया. आधे घंटे में रोता हुआ लौटा, कोई नहीं आया.

‘‘इन को फौरन उपचार की जरूरत है,’’ आरती बोली, ‘‘दद्दू, पास में कौन सा अस्पताल है?’’

‘‘भारत अस्पताल. वह भी यहां से एक मील दूर होगा.’’

‘‘मैं जाता हूं और ऐंबुलैंस ले कर आऊंगा, तब तक तुम दोनों इन का ध्यान रखना,’’ अमित बोला.

‘‘पर बेटा, इतना कोहरा और ठंड है.’’

‘‘कोई बात नहीं दद्दू,’’ अमित बोला. और 20 मिनट में ही ऐंबुलैंस ले कर लौट आया.

‘‘आरती, ऊपर ताला लगा आओ. मुझे आज ही वेतन मिला है वह पैकेट और घर में जो पैसे रखे हैं सब ले आओ. बाबूजी को अभी ले जाना है.’’

आई.सी.यू. के बाहर अमित और आरती चुपचाप बैठे थे. 11 बजे मदन आया और पूछा, ‘‘मालिक कैसे हैं?’’

‘‘अभी होश नहीं आया है.’’

‘‘मैं ने उन के भतीजों को फोन किया था पर उन के पास समय नहीं है. समय मिला तो देखने आएंगे. बहूरानी, यह लो 2 हजार रुपए रखो. कब क्या जरूरत पड़ जाए. मैं जा कर घर देख कर आता हूं.’’  मौत और जीवन के खेल में शिवनाथजी के जीवन ने मौत को हरा दिया. इस के बाद भी डाक्टरों ने उन्हें 3 दिन तक और रोक कर रखा. वे घर आए तो 15 दिन तक आरती और अमित ने दौड़धूप, सेवा और देखभाल की. कोेई अपना सगा बेटा भी क्या सेवा करेगा, जो उन्होंने की. पता नहीं कितने पैसे खर्च किए उन्होंने. पर शिवनाथजी पर किसी बात का कोई असर नहीं था. स्वस्थ होते ही वे फिर अपने असली रूप में आ गए. अमित जब किराया देने आया तो उस के सारे किएधरे को भूल कर उन्होंने आराम से किराया ले कर रख लिया. मदन तक से एक बार भी नहीं पूछा कि तू ने कितना खर्च किया है.

उस दिन मदन टमाटर व प्याज खरीद  कर लाया तो वे बिगड़ पड़े, ‘‘आजकल टमाटर व प्याज सब से महंगे हैं. टैलीविजन पर रोज दिखा रहे हैं और तू यही ले आया. गलती से 100 का नोट क्या दे दिया कि तू ने तो शाही दावत का जुगाड़ कर लिया.’’

‘‘अब आप पैसा जोड़ते रहिए,’’ मदन बोला, ‘‘बड़ा घमंड है न आप को अपने पैसे पर. क्या कहते हैं आप पैसे को…बुढ़ापे की लाठी. तो कौन काम आई वह लाठी, जब मौत आप के सिरहाने आ कर खड़ी हुई थी. घना कोहरा, हाड़ गलाने वाली ठंड में एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक मैं गिड़गिड़ाता रहा, आप के डाक्टर साहब ने भी आने से मना कर दिया. ऊपर के किराएदार ही अपने सारे पैसे ले कर आप की जान बचाने को दौड़धूप करते रहे. रात 2 बजे अमित पैदल अस्पताल गया गाड़ी लाने, तब आप की लाठी ने कौन सा करतब दिखा दिया…’’

तभी आरती सूप ले कर आई. उस ने समझाबुझा कर मदन को शांत किया…

‘‘बाबूजी, मदन दादाजी की भी ढलती उम्र है. सुबह से दौड़धूप कर रहे हैं. आप इन को डांटिए नहीं. थोड़ा समझौता दोनों के ही लिए अच्छा है.’  शिवनाथजी चुप हो गए. सूप पीने लगे. मानो अमृत का स्वाद हो. लड़की जो भी बनाती है उसी में स्वाद आ जाता है. इस के बाद शिवनाथजी ने बंद मुट्ठी को थोड़ा खोला तो मदन के दिन वापस आ गए. अब शिवनाथजी थोड़ाथोड़ा बाहर भी जाने लगे. कभी रिकशे में तो कभी आटो में अकेले ही जाते. मदन को भी पता नहीं कि वे कहां जाते हैं. रविवार के दिन अमित को आरती सुबह उठाने का प्रयास कर रही थी कि मदन घबराया सा आया, ‘‘बिटिया, जरा भैया को नीचे भेज दो, मालिक उठ नहीं रहे.’’

अमित एकदम उठ बैठा, ‘‘क्या मतलब?’’

‘‘भैया, आज इतना दिन चढ़ आया,’’ मदन बोला, ‘‘मैं कई बार मालिक को जगा चुका हूं…’’

अमित समझ गया कि पिछली बार सब से दौड़धूप करवाई पर इस बार शांति से चुपचाप चले गए. उस ने चादर से शव को सिर तक ढक दिया.  ‘‘मैं डाक्टर को फोन करता हूं. इन का डैथ सर्टिफिकेट चाहिए.’’

मदन दहाड़ मार कर रो उठा.  काम निबटातेनिबटाते रात हो गई. उन का भतीजा व भानजा शिवनाथजी के मरने की खबर सुन कर दौड़े आए और क्रियाकर्म तक जम कर बैठे रहे.  वे मौका मिलते ही मदन से तरहतरह के सवाल पूछ लेते. मदन जानता ही क्या था जो उन्हें बताता. पहले ही दिन मदन ने एक चालाकी का काम किया था, शिवनाथजी के खानदानी वकील को उन की तिजोरी की चाबी यह कहते थमा दी थी, ‘‘वकील साहब, मालिक तिजोरी की चाबियां अपने तकिए के नीचे रखते थे. तिजोरी में क्या है मुझे भी नहीं पता. मालिक तो बस खर्चे के पैसे और मेरी पगार देते थे. उन के 3 अपने रिश्तेदार हैं जो यहां आए हैं, मुझे उन पर भरोसा नहीं. यह चाबी आप ले जाओ.’’  इस के बाद तीनों ने बारीबारी से मदन से तिजोरी की चाबी मांगी, लेकिन उस ने तीनों को एक ही उत्तर दिया कि चाबी तो वकील साहब के पास है. उन से  मांग लो.  श्राद्ध के दिन वकील ने कहा, ‘‘शिवनाथजी ने अभी 2 हफ्ते पहले अपनी पुरानी वसीयत बदल कर नई वसीयत की थी जो मेरे पास है. डाक्टर साहब, जज साहब और ब्रिगेडियर साहब उस के गवाह हैं. परसों 11 बजे आप तीनों जो उन के सगे हैं, मदन व किराएदार अमित अपनी पत्नी आरती के साथ मेरे घर पर आ जाएं. वसीयत के हिसाब से चलअचल संपत्ति का कब्जा भी दिया जाएगा.’’

भतीजे ने आपत्ति जताई, ‘‘हमारे घर की वसीयत में बाहर के किराएदार क्यों?’’

‘‘यह शिवनाथजी की इच्छा है. गवाह भी तो बाहर के लोग हैं. इन का आना जरूरी है.’’  जाने की इच्छा एकदम नहीं थी. फिर भी अमित मरने वाले की अंतिम इच्छा को महत्त्व देते हुए पत्नी आरती व मदन को ले कर वकील के घर ठीक समय पर गया. थोड़ी उत्सुकता मन में यह थी कि देखें इन सगों में किस की तकदीर जागी है. तीनों ही परेशान से दिखाई दे रहे थे.  उन में से एक ने अमित से पूछा, ‘‘क्यों भाई, क्या लगता है, वसीयत किस के नाम हो सकती है?’’

‘‘मुझे क्या पता? किराएदार हूं, वह भी मात्र 8 महीने पहले ही आया हूं. परिचय भी ठीक से नहीं था.’’

‘‘हम 3 ही हैं,’’ एक ने कहा, ‘‘हम तीनों को ही बराबर बांट गए होंगे. क्या कहते हैं आप?’’

‘‘पर मदन ने अपना पूरा जीवन उन की सेवा में बिताया. वह इस बुढ़ापे में कहां भटकेगा.’’

‘‘अरे, नौकर की जात, एक नौकरी गई तो दूसरी पकड़ लेगा. आप भी ले बैठे नौकर की चिंता.’’

वकील ने लिफाफे से वसीयत निकाली.  ‘‘यह शिवनाथजी की हाल ही में की गई नई वसीयत है. इस की 2 कापी और हैं. एक जज साहब के पास, दूसरी ब्रिगेडियर साहब के पास. उन का निर्देश है कि वसीयत के अनुसार घरसंपत्ति का कब्जा मैं असली हकदार को दिलवाऊं. मैं वसीयत पढ़ता हूं,’’ यह कह कर उस ने वसीयत पढ़ी : ‘चल व अचल मिला कर तकरीबन डेढ़ करोड़ की संपत्ति है. इस संपत्ति को छोड़ कर लाखों के आभूषण तिजोरी में मौजूद हैं. घर की कीमत भी आज की तारीख में 1 करोड़ रुपए है. यह सारी चलअचल संपत्ति किराएदार दंपती अमित और आरती के नाम है. मदन के नाम 3 लाख रुपए मासिक ब्याज के खाते में जमा हैं, जहां से उसे प्रतिमाह 3 हजार रुपए ब्याज मिलेगा और जब तक वह जीवित है तब तक इसी घर के निचले हिस्से में रहेगा. उस के बाद यह पूरा घर अमितआरती का होगा.’

‘‘ठीक, एकदम ठीक,’’ बुजुर्गों ने समर्थन किया, ‘‘अपना वह जो समय पर काम आए.’’

भतीजा चीखा, ‘‘मैं इस वसीयत  को नहीं मानता हूं. मैं उन का  सगा हूं.’’  ‘‘सगे होने का एहसास उन के मरने के बाद हुआ,’’ जज साहब बोले, ‘‘बीमारी में तो झांके तक नहीं.’’  ‘‘मैं यह वसीयत नहीं मानता.’’  ‘‘तो कोर्ट में जा कर चुनौती दो. अब उस घर से अपना सामान उठा  कर चलते बनो. मुझे इन को कब्जा दिलाना है.

‘‘अब आप लोग घर खाली कर दें नहीं तो कानून के गुनाहगार होंगे और मदन की सहायता कानून करेगा.

‘‘अब वह नौकर नहीं घर का मालिक है.’’  कोने में बैठा मदन रोए जा रहा था.

आरती उठ कर पास आई, बोली, ‘‘दद्दू, उठो, घर चलो. अब तो साथ ही रहेंगे हम.’’

उस ने सिर उठाया, ‘‘बहूरानी, मालिक…’’

‘‘हां, दद्दू, उन्होंने हम सब को हरा दिया और खुद जीत गए. पक्के खिलाड़ी जो ठहरे.’’

किराएदार: भाग 2- कंजूस व्यवहार के शिवनाथजी का कैसे बदला नजरिया?

पूर्व कथा

परले दरजे के कंजूस शिवनाथजी अपने बड़े से बंगले में नौकर मदन के साथ रहते थे. घरगृहस्थी के जंजाल में व्यर्थ पैसा खर्च होगा, यह सोच कर उन्होंने शादी तक नहीं की. हालांकि उन के पास बापदादा की छोड़ी हुई जायदाद और मां के लाखों के आभूषण थे, पर उन का मानना था कि पैसा बचा कर रखना बेहद जरूरी है. यह बुढ़ापे का सहारा है. नौकर मदन को भी वे मात्र 100 रुपए महीना तनख्वाह देते थे और साल में 2 जोड़ी कपड़े. बदले में वह सारे घर का काम करता था और बगीचे में अपने पैसों से ला कर खाद और बीज डालता था. एक दिन एक नवयुगल उन के घर आया और ऊपर का हिस्सा किराए पर रहने के लिए मांगा. पैसों के लालच में शिवनाथजी ने उन्हें किराएदार रख लिया. पति का नाम अमित व पत्नी का नाम आरती था. मदन ने उन के साथ जा कर ऊपर के हिस्से की साफसफाई करा दी.

अब आगे…

‘‘बाबूजी, आप का एडवांस.’’

शिवनाथजी ने रुपए गिने, पूरे 3 हजार, खुश हुए. फिर बोले, ‘‘देखो, किराया समय पर देते रहे तो कोई बात नहीं, मैं तुम को हटाऊंगा नहीं पर मेरी कुछ शर्तें हैं. एक तो बिजली का बिल तय समय पर दोगे. ज्यादा लोगों का आनाजाना मुझे पसंद नहीं. ऊपर जाने के लिए तुम बाहर वाली सीढ़ी ही इस्तेमाल करोगे और रात ठीक 10 बजे गेट पर ताला लग जाएगा, उस से पहले ही तुम को घर आना होगा. किसी उत्सव, पार्टी में जाना हो तो मदन से दूसरी चाबी मांग लेना. तुम नौकरी कहां करते हो?’’

‘‘मेरे दोस्त की एक फर्म है. कल से काम पर जाऊंगा. फर्म का नाम याद नहीं है.’’

‘‘तुम साथ में कोई सामान क्यों नहीं लाए?’’

‘‘घर मिलेगा या नहीं, यह पता नहीं था.’’

‘‘अब क्या करोगे?’’

‘‘रसोई का सामान खरीदने जा रहे हैं.’’

‘‘ठीक है.’’

अमित व आरती चले गए और 2 घंटे के बाद लौटे तो उन के हाथों में गृहस्थी का सामान था. रात को आरती नीचे आई तो तौलिए से ढका थाल ले कर आई और बोली, ‘‘बाबूजी, खाना…’’

शिवनाथजी उस समय समाचार देख रहे थे. मदन रात के खाने के लिए आलू काटने बैठा था. वे अवाक् रह गए.

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‘‘आज मेरी गृहस्थी में पहली बार खाना बना है. हमारे यहां बड़ों को भोग लगाने का नियम है.’’

‘वाह, लड़की तो संस्कारी लगती है,’ शिवनाथजी ने मन ही मन सोचा, ‘अवश्य अच्छे घर की होगी.’

मदन ने उठ कर थाल लिया. आलू- टमाटर की डोंगा भर कर सब्जी थी. साथ में हलवा और पूरी. पूरे कमरे में खाने की सुगंध छा गई.  आरती चली गई. आज बहुत दिन बाद शिवनाथजी को जल्दी भूख लगी.

‘‘मदन, खाना लगा दे.’’

घर का काम जैसेतैसे निबटा कर मदन बाग में आ जाता और काम करने लगता. आरती भी घर का पूरा काम कर के बाग में मदन का हाथ बंटाती. पौधों में पानी डालती, छंटाई कर देती, बेलों को लपेट कर सहारा देती, झुकी डाल में डंडी लगा कर उन्हें खड़ा कर देती. मदन खुश होता. फिर अपने बचपन की बात, बड़े मालिक और मालकिन की बात, आरती को बताता.

‘‘बहूरानी, ऐसा इंसान तुम ने कहीं देखा है जो पत्नी को खिलाने के डर से शादी ही न करे.’’

आरती हंसतेहंसते लोटपोट हो जाती.  ‘‘दादाजी, शादी तो आप ने भी नहीं की.’’

‘‘मेरी बात और है बिटिया,’’ मदन दुखी हो सिर हिलाता, ‘‘होश संभालते ही अपने को नौकर पाया. बड़े मालिक सड़क से उठा कर लाए थे. मैं जानता भी नहीं कि मेरे मांबाप कौन थे. बस, मां की हलकी सी याद है. दूसरे के अन्न पर, पराए घर में जो जीवन काटे उसे कौन अपनी बेटी देगा?’’

आरती ने बात पलटी.  ‘‘इतना बड़ा और इतनी सुगंध से भरा फूलों वाला घर पहले कभी नहीं देखा. क्या इन पौधों को कोलकाता से लाए हो?’’

‘‘न बहूरानी. 2 कोठी छोड़ कर तीसरी कोठी रायबाबू की है. उन को बढि़याबढि़या फूल बहुत पसंद हैं. पैसा भी खूब खर्च करते हैं. उन के बगीचे में गंधराज का यह फूल बहुत बड़ा हो गया था तो माली ने छंटाई कर के डाल बाहर फेंक दी. मैं उठा लाया. 2 लगा दिए और दोनों ही लग गए. दूसरा बाहर दरवाजे के पास है.’’

‘‘दादा, मैं  1-2 फूल ले सकती हूं?’’

‘‘अरे, क्यों नहीं बिटिया. तुम जितने चाहो ले लो, बहुत हैं.’’

किराएदार क्या आए, 2 बूढ़ों को ले कर उदास खड़ा घर कैसा खिल उठा. उस दिन आरती मटरपनीर और पालक के पकौड़े दे गई. गरम रोटी बना कर मदन ने खाना परोसा तो शिवनाथजी ज्वालामुखी की तरह फट पड़े.

‘‘क्या है यह सब? मेरा श्राद्ध है क्या आज?’’

अब मदन के धीरज का बांध टूटने लगा, पर बहुत शांत स्वर में बोला, ‘‘नहीं.’’

‘‘तो यह शाही खाना बनाने का मतलब? क्या कटोरा ले कर मुझ से भीख मंगवाने का इरादा है?’’

‘‘मालिक, कटोरा ले कर आप नहीं मैं भीख मांगूंगा.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘आप गिन कर सागसब्जी के पैसे देते हैं, उन में ये महंगे मटर और पनीर आ सकते हैं क्या? आप आराम से खाइए. ये सब बिना पैसों के किराएदार के घर से आया है. बस, रोटी घर के आटे की है.’’

चैन की सांस ले शिवनाथजी ने थाली खींच ली. सब्जी की सुगंध के साथ गरम रोटी ने भूख तेज कर दी थी. खापी कर बिस्तर पर लेट कर मन ही मन वे बोले, ‘यह मदन भी गधा है एकदम. वह क्या जाने पैसे में कितना दम है. अरे, पैसा भरोसा है, आदमी की ताकत है.’

किराएदार नवविवाहित जोड़ा है. ऐसे जोड़े घर में रहें तो उस घर के माहौल में अपनेआप एक मधुर रस घुल जाता है. 2 बूढ़ों के इस घर में भी वही हुआ. शांत पड़े घर में अचानक से खिलखिलाती हंसी की मधुर गूंज, कभी छेड़छाड़ का आभास, कभी सैंट, पाउडर और सुगंधित साबुन की सुगंध नीचे तक तैर आती. शिवनाथजी की अनुभूति तो पैसे के हिसाबकिताब में उलझ कर जाने कब की दम तोड़ चुकी थी. पर मदन पुलकित होता और मन ही मन दोनों की सलामती की कामना करता.

लड़की के संस्कार अच्छे हैं. आजकल की लड़कियों जैसे शरीर उघाड़ू कपड़े नहीं पहनती. खाना भी बहुत अच्छा बनाती है. अकसर कुछ न कुछ बना कर दे जाती है. शायद यही वजह है कि मदन को आरती से बड़ा  स्नेह हो गया था. दोनों को देख कर मदन को लगता मानो उस के ही बच्चे हैं. मदन इसलिए भी खुश था कि उस घर का सन्नाटा तो टूटा और शिवनाथजी प्रसन्न थे कि 3 हजार रुपए की ऊपर की आमदनी घरबैठे बिना मांगे ठीक समय पर मिल जाती है. लड़का सज्जन है, लड़की भी भले घर की है.

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बरसात समाप्त हो कर हल्की ठंड पड़ने लगी. सुबहशाम कोहरा भी  पड़ने लगा. उन्हें यहां आए 3 महीने हो गए थे.  अचानक एक दिन मदन को लगा कि घर में जो मधुर रस गूंज रहा था उस की ताल कहीं से टूटी है. गुनगुनाहट थम सी गई है. अब खिलखिलाहट भी नहीं गूंजती. आरती का मुख कमल सा खिला रहता था लेकिन अब उस पर एक मलिन छाया है. कहीं न कहीं इन दोनों के बीच कोई बात जरूर है पर इस तरह की बात एकदम से पूछी नहीं जा सकती. वह भी उन के बीच कुल 3 महीने का परिचय है. प्यार जो है वह तो है ही पर कृतज्ञता बहुत ज्यादा है.

उस दिन आरती नीचे आई ही नहीं. ऐसा कभी हुआ नहीं. क्या तबीयत ठीक नहीं? मदन ने कई प्रकार के फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता बनाया और ऊपर गया. जीना बालकनी में खुलता है. वहां पहुंच कर देखा, आरती ध्यानमग्न  सी बैठी कुछ सोच रही है. मुख पर चिंता की काली छाया. बात कुछ गंभीर ही है.

‘‘बहूरानी…’’

चौंक कर आरती ने मुड़ कर देखा. थोड़ा हंसी.  ‘‘आओ, दादाजी.’’

‘‘ये फूल मैं अपनी बिटिया के लिए लाया हूं. आज क्या तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘जी…दादाजी, यों ही थोड़ा सिर भारी सा है…कितने सुंदर फूल हैं…’’

फूलों को सजा कर आरती लौटी और बोली, ‘‘दादाजी, कई दिन से मैं आप से एक बात कहने की सोच रही थी.

‘‘दादाजी, मैं दिन भर घर में बैठेबैठे ऊब जाती हूं. मुझे दोचार ट्यूशन  दिला दोगे? यहां मुझे कोई जानता नहीं है…आप कहोगे तो मेरा काम जल्दी हो जाएगा.’’

‘‘तुम ट्यूशन करोगी, बहूरानी?’’ मदन ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं ने एम.एससी. किया है. शादी से पहले भी मैं पढ़ाया करती थी. दादाजी, अब आप से क्या छिपाना. हम दोनों ही मामूली परिवार से हैं और हमारी जाति भी अलगअलग है. घर वालों ने शादी की अनुमति नहीं दी तो हम ने प्रतीक्षा की. जब अमित के एक दोस्त ने यहां उन की नौकरी लगवा दी तब हम ने मंदिर में जा कर शादी कर ली. हमारे कुछ जोड़े हुए पैसे थे, कुछ आभूषण जिन्हें बेच कर किराया दिया और गृहस्थी का सामान ले लिया. अमित को कुल 4 हजार रुपए मिलते हैं. 3 हजार किराया दे कर हाथ में जो बचता है उस से पूरा महीना खाएं क्या? उस पर हाथ का जो पैसा था, सब समाप्त हो गया. दोचार ट्यूशन दिला दो तो हम भूखे रहने से बच जाएं.’’

मदन का दिल भर आया. उन्होंने पूरे 4 हजार की ट्यूशन दिला दी. विज्ञान के अध्यापक कम ही मिलते हैं. ट्यूशन के बजाय एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गई. 12 से 4 बजे तक क्लास लेनी थी. समस्या का समाधान होते ही आरती फिर पहले की तरह खिल उठी.

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किराएदार: भाग 1- कंजूस व्यवहार के शिवनाथजी का कैसे बदला नजरिया?

इस इलाके में बहुत सुंदरसुंदर घर हैं और इन घरों के मालिक भी पैसों के लालच से खुद को बचाए हुए हैं. इसी इलाके के सब से सुंदर घरों में एक घर शिवनाथजी का है जहां पर एक सुंदर बगीचा भी है. शिवनाथजी अकेले हैं. उन्हें किसी प्रकार के नशे की लत नहीं है. उन के विरोधी कहते हैं कि वे किसी भी प्रकार का नशा इसलिए नहीं करते क्योंकि वे एक भी पैसा खर्च नहीं करना चाहते. हर पैसे में उन की सांस अटकी रहती है. पैसे खर्च होने के डर से उन्होंने शादी तक नहीं की. पड़ोसियों से ज्यादा मेलजोल इसलिए नहीं रखा कि उन के आने पर चाय, चीनी और दूध का खर्चा होगा.

घर में उन को छोड़ बस उन के पिता का लाया एक नौकर मदन है, जो अब 60 साल का बूढ़ा हो चला है. वह घरबाहर का सारा काम कर के आज भी मालिक से 100 रुपए पाता है. खाना और होली, दीवाली को एकएक जोड़ी कपड़े उसे मालिक की तरफ से मिलते हैं. चूंकि मोहन को बागबानी का शौक है अत: अपने इस शौक के लिए वह पौधों के खाद, बीज आदि में अपनी पगार का आधा पैसा लगा देता है. उस का अपना कोई नहीं है. यह बगीचा, पेड़पौधे, फूल ही उस का परिवार हैं.

शिवनाथजी की आयु 80 साल की है पर उन को देख कर लगता है कि अभी 60 साल के आसपास के हैं. लंबा, गठीला शरीर, साफ रंग. शायद वे इस शरीर को निरोग रखने का रहस्य जानते हैं. जीभ और मन पर उन का पूरा संयम है. पर मदन कुछ और कहता है, ‘‘संयम तो उन का ढकोसला है, असली कारण है कंजूसी. खर्चे के डर से जो इंसान शादी नहीं करता, पड़ोसियों से कोई संपर्क नहीं रखता था क्या वह पैसे खर्च कर के खाने, पहनने, घूमने का शौक रखेगा. अरे, मेरा दुनिया में कहीं कोई और ठिकाना होता तो यह 2 जोड़ी कपड़े, रोटी और 100 रुपए महीने पर मैं यहां पड़ा रहता? मालिक के पास कितना पैसा है इस का अंदाजा नहीं है.’’

भोर में फै्रश हो दरवाजे का ताला खोलने आए शिवनाथजी ने ताले को गेट की छड़ में ही लटका दिया. मुड़ते ही उन्होंने सोचा, मैं अकेला कितने आराम से हूं. बीवी पालना तो हाथी पालने से भी महंगा है. अच्छा हुआ कि शादी के चंगुल में नहीं फंसा, नहीं तो बीवी के नखरे उठाने में लाखों खर्च हो जाते. मदन को 100 रुपए देने पड़ते हैं और उस के लिए यही बहुत है. हमारे पुराने जूते, चप्पल, कुरतापजामा, तौलिया, बनियान आदि सब भी तो हथिया लेता है, पैसों का क्या अचार डालेगा?

जब से सामान महंगा हुआ, तेलमसाले की मात्रा कम कर दी. चावल भी मोटा खाने लगे. बस, हार गए आटे के मामले में कि उस का कोई विकल्प नहीं. कभीकभार मदन महंगी गोभी ले आता तो वे बिगड़ते, ‘इतनी महंगी गोभी क्यों ले आया तू.’

‘आज सस्ती थी,’ मदन कहता. ‘काहे की सस्ती. इस के लिए कितना तेल, मसाला चाहिए. यह लौकी, तोरई की तरह बूंद भर तेल टपका कर बन जाएगी क्या? तू मुझे भीख मंगवा कर छोड़ेगा.’

‘मालिक, यह अपना मन मार कर, तन को कष्ट दे कर जो पैसा बचा कर रखते हो, यह किस के लिए? न आगे नाथ न पीछे पगहा तो इसे खाएगा कौन?’

‘तू ठहरा अनपढ़. तू क्या जाने पैसे का दम. लोग बच्चों को बुढ़ापे की लाठी कहते हैं. अरे, आजकल के बच्चे लाठी नहीं दरांती होते हैं. पैसे के लिए बूढ़े मांबाप का गला काट देते हैं और माल हड़प लेते हैं. असली बुढ़ापे की लाठी है पैसा. पैसा पास रहे तो सब दौड़दौड़ आएंगे.’

‘रहने दो मालिक. बच्चे से बूढ़ा हो गया. आप से पैसे की महिमा सुनतेसुनते. आप का पैसा आप को मुबारक.’

बाहर से लौट कर शिवनाथ ने उस पूरे घर पर नजर दौड़ाई तो कुछ पुरानी यादें सजीव हो उठीं. यह घर पिता ने बनवाया था. अम्मा और बाबूजी दोनों शौकीनमिजाज थे और दोनों ने मिल कर इस घर को सुंदर बनवाया था. उस समय आज जैसी जगह की मारामारी नहीं थी. बड़ेबड़े लोगों के बड़ेबड़े घर. किसी के घर में कोई किराएदार नहीं था. शायद यहां सब के घर बच्चों से भरे हैं. ऊपर की मंजिल की ओर नजर गई तो बड़ेबड़े कमरे, बड़ी सी एक रसोई, 2 बड़ेबड़े बाथरूम, लंबीचौड़ी बालकनी की याद आ गई.

बालकनी में खड़े हो कर अपने बगीचे को देखना आज भी अच्छा लगता है. मां को शौक था कि पीछे फलों के बाग में उम्दा किस्म के पौधे लगे हों, इसलिए पिताजी इलाहाबाद और लखनऊ गए तो वहां से अमरूद और आम के पौधे लेते आए थे जो अब मौसम के फलों का मजा देते हैं. उन के अलावा जामुन, लीची आदि के व अन्य भी तरहतरह के पेड़पौधे हैं. शिवनाथ चाहते थे कि पूरा बाग ठेके पर उठा दें तो लाखों की कमाई हो जाए. पूरे साल का खानापीना, कपड़ा, दवाई का खर्चा पूरा कर के भी हजारों बचें पर यह मदन का बच्चा खाना छोड़ कर सत्याग्रह पर बैठ गया तो, हार कर उन्हें चुप होना पड़ा.

वे मदन को इसलिए कुछ नहीं कहते क्योंकि बागबगीचे की देखभाल वही करता है. पैसे तो लेता ही नहीं ऊपर से खाद, बीज और पौधे अपनी जेब से लाता है. उन को बिना कुछ खर्च किए मौसम के फल, ताजी सब्जी मिल रहे थे.

अंदर आ कर मदन को जगाया. ‘‘अरे, उठ, दूध ला, चाय बना.’’

मदन उठा. फोल्डिंग मोड़ कर मुंहहाथ धो पैसे ले कर दूध लाने चल दिया. पाव भर दूध देने के लिए कोई दूधिया घर नहीं आता. डेयरी की थैली आधे लिटर की होती है. इसलिए मदन ही सुबह के समय ग्वाले से पाव भर दूध ले कर आता है.

ऊपर का हिस्सा खाली पड़ा है. कभीकभी शिवनाथ के मन में किराए का लालच आता पर किराए पर उठाने का साहस नहीं होता. 2 बूढ़ों का घर. अम्मा का सारा जेवर घर की अलमारी में पड़ा है. नकद पैसा भी कम नहीं, हर महीने जुड़ ही जाता है. लौकर का खर्चा नहीं बढ़ाया, घर की पक्की तिजोरी में सब रहता है. किराएदार पता नहीं कैसा होगा. दोनों को किसी दिन मार कर सब साफ कर गया तो?

मदन ने चाय बनाई. पीते हुए शिवनाथ बोले, ‘‘दूध 36 रुपए लिटर हो गया है. चाय में इतना दूध मत डाला कर. पाव भर को 2 दिन चला.’’ यह सुन कर मदन की आत्मा जल गई.

‘‘अब, बस भी करो मालिक, यह जो आत्मा है, उस को मार के आप पैसे जोड़ रहे हैं, यह किस काम आएगा?’’

‘‘आजकल तू बहुत बोलने लग गया है. कहा न, यह पैसा ही बुढ़ापे की लाठी है.’’

‘‘रहने दो मालिक, बुरे समय में पैसा नहीं, इंसान काम आता है. पैसा धरा का धरा रह जाता है.’’

‘‘अपना काम देख,’’ यह कह कर शिवनाथ फिर सोचने लगे कि अगर मदन ने काम छोड़ दिया तो 100 रुपए में नौकर मिलने से रहा. नया कोई आया तो पैसा अधिक लेगा और इतनी किफायत से चलेगा भी नहीं.

‘‘तुलसी की पत्ती तोड़ कर लाता हूं,’’ यह कह मदन बाहर चला गया और शिवनाथजी न्यूज चैनल खोल कर देखने लगे. तभी मदन लौट आया.

‘‘मालिक, जरा सुनिए.’’

‘‘क्या हुआ?’’ झल्ला कर शिवनाथ बोले.

‘‘आप से कोई मिलने आया है.’’

वे अवाक् हो बोले, ‘‘मुझ से…’’ क्योंकि उन के स्वभाव को उस कालोनी और आसपास के सभी जानते हैं, इसलिए कोई भी नहीं आता. 2-4 लोग हैं पर वे भी घर नहीं आते, फोन पर कुशल पूछ लेते हैं, सुबह कोई मिलने आए, ऐसी तो आत्मीयता किसी के साथ नहीं है.

‘‘वे आसपास के लोग हैं क्या?’’

‘‘यहां के नहीं लगते,’’ मदन बोला, ‘‘उन के हाथ में सामान है. कोई सगासंबंधी होता तो उसे मैं जानता ही.’’ 2 भांजे और 1 दूर का भतीजा है पर उन की नजर दौलत पर है यह अच्छी तरह शिवनाथजी जानते हैं पर वे मदन के परिचित हैं और साथ में सामान. शिवनाथजी बाहर आए. देखा तो दरवाजे के बाहर 2 कम उम्र के लड़के- लड़की खड़े हैं. कपड़े व हावभाव से अच्छे घर के लगते हैं. दोनों ही सुंदर हैं और पतिपत्नी से लगते हैं क्योंकि लड़की के गले में मंगलसूत्र और मांग में सिंदूर है. उन्होंने हाथ जोड़ कर शिवनाथजी को नमस्कार किया. लड़का बोला, ‘‘बाबूजी, मैं अमित हूं. यह मेरी पत्नी आरती है. हम आप से मदद मांगने आए हैं.’’

‘‘भई, मैं मामूली आदमी हूं. मैं आप की क्या मदद कर सकता हूं. घर पिताजी ने बनवाया है. मैं कम पढ़ालिखा हूं और नौकरी कभी नहीं की तो तंगहाली में जी रहा हूं.’’

‘‘नहीं बाबूजी, हम आप से रुपएपैसे की मदद नहीं मांग रहे. हम यहां नए हैं, रहने को जगह नहीं है. आरती साथ में है. जहांतहां असुरक्षित जगह पर रह भी नहीं सकता. आप हमें एक कमरा किराए पर दे देते तो…’’

‘‘मेरे पास किराए पर उठाने लायक कोई हिस्सा है कहां?’’

मदन बोल उठा, ‘‘मालिक, ऊपर का पूरा हिस्सा तो खाली पड़ा है. इस बरसात में ये बच्चे कहां जाएंगे. ऊपर से नई जगह और साथ में औरत. जमाना खराब है. किराया तो दे ही रहे हैं. ऊपर का हिस्सा दे दो.’’

‘‘पर मदन, इस इलाके में कोई भी मकान वाला किराएदार नहीं रखता और जो रखते हैं वे किराया ज्यादा लेते हैं…तुम दे पाओगे?’’

‘‘मेरा वेतन बहुत ज्यादा नहीं है. फिर भी अंकल कितना किराया है?’’ उस लड़के के मुंह से निकल पड़ा.

‘‘3 हजार रुपए और बिजली का अलग से. 1 महीने का अग्रिम किराया दे कर चाबी लेनी होगी.’’

‘‘जी, मैं अभी देता हूं,’’ यह बोलने के बाद उस लड़के ने बैग खोलने का प्रयास किया तो शिवनाथ ने उसे रोका.

‘‘ऊपर जा कर आराम से बैग खोलना और पैसे भेज देना. मदन चाबी ले कर जा और घर को धुलवाने व साफसफाई में इन की मदद कर देना. अभी सब के लिए चाय बना ला.’’

 

चाय पी कर पतिपत्नी दोनों ऊपर पहुंचे तो कमरे में एक डबलबैड गद्दे समेत पहले ही पड़ा था. मदन झाड़ू व बालटी ले आया और आरती के साथ मिल कर पूरा घर धोपोंछ कर चमका दिया. घर देख कर आरती बहुत खुश हुई. इतनी बड़ी छत, बालकनी. खुशी से उछल कर उस ने पूछा, ‘‘दादाजी, मैं यहां फूलों के गमले रख सकती हूं?’’

‘‘क्यों नहीं बेटी, एक तुलसी का पौधा जरूर लगाना. नीचे तो तुलसी का झाड़ है. अब खानेपीने का जुगाड़ कैसे करोगी, बरतन, गैस सब तो चाहिए…’’

‘‘आप चिंता न करो, दादाजी, घर मिल गया तो सब हो जाएगा. हम अभी बाजार जा कर नाश्ता करेंगे. फिर गृहस्थी का सामान ले कर आएंगे.’’

मदन नीचे आ कर अपने रोजाना के काम में लग गया. थोड़ी देर में अमित व आरती तैयार हो कर नीचे आए.

– क्रमश:

चुभन: क्यों संतुष्ट नहीं थी मीना?

Serial Story: चुभन (भाग-1)

‘‘कभी तो संतुष्ट होना सीखो, मीना, कभी तो यह स्वीकार करो कि हम लाखों करोड़ों से अच्छा जीवन जी रहे हैं. मैं मानता हूं कि हम अमीर नहीं हैं, लेकिन इतने गरीब भी नहीं हैं कि तुम्हें हर पल रोना पड़े,’’ सदा की तरह मैं ने अपना आक्रोश निकाल तो दिया, लेकिन जानता हूं कि मेरा भाषण मीना के गले में आज भी कांटा बन कर चुभ गया होगा. मैं क्या करूं मीना का, समझ नहीं पाता हूं. आखिर कैसे उस के दिमाग में यह सत्य बैठाऊं कि जीवन बस हंसीखुशी का नाम है.

पिछले 3 सालों से मीना मेरी पत्नी है. उस की नसनस से वाकिफ हूं मैं. जो मिल गया उस की खुशी तो उस ने आज तक नहीं जताई, जो नहीं मिल पाया उस का अफसोस उसे सदा बना रहता है.

मैं तो हर पल खुश रहना चाहता हूं. जीवन है ही कितना, सांस आए तो जीवन, न आए तो मिट्टी का ढेर. लेकिन मुझे तो खुश होने का समय ही नहीं मिलता और मीना, पता नहीं कैसे रोनेधोने के लिए भी समय निकाल लेती है.

‘‘बचपन से ऐसी ही है मीना,’’ उस की मां ने कहा, ‘‘पता नहीं क्यों हर पल नाराज सी रहती है. जबतब भड़क उठना उस के स्वभाव में ही है. हर इंसान का अपनाअपना स्वभाव होता है, क्या करें?’’

‘‘हां, और आप ने उसे कभी सुधारने की कोशिश भी नहीं की,’’ अजय ने उलाहना दिया, ‘‘बच्चे को सुधारना मातापिता का कर्तव्य है, लेकिन आप ने उस की गलत आदतों को बढ़ावा ही दिया.’’

‘‘नहीं अजय, ऐसा भी नहीं है,’’ सास बोलीं, ‘‘संतुष्ट ही रह जाती तो शादी के बाद पढ़ती कभी नहीं. शादी के समय मात्र बी.ए. पास थी. अब एम.ए., बी.एड. है और आगे भी पढ़ना चाहती है. संतुष्ट नहीं है तभी तो…’’

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‘‘उस की इसी जिद में मैं पिस रहा हूं. अपनी पढ़ाईलिखाई में उसे मेरा कोई भी काम याद नहीं रहता. मुझे अपना हर काम स्वयं करना पड़ता है, कपड़ों से ले कर नाश्ते तक. घर जाओ तो एक कप चाय की उम्मीद पत्नी से मुझे नहीं होती.’’

मैं तो मीना के पास होने पर खुश होता हूं और वह रोती है कि शादी की अगर जिम्मेदारी न होती तो और भी ज्यादा अंक आ सकते थे. अरे, शादी की ऐसी कौन सी जिम्मेदारी है उस पर. मीना का बड़ा भाई मेरा दोस्त भी है. कभीकभार उस से शिकायत भी करता हूं.

‘‘कुछ लोग संसार में बस रोने के लिए ही आते हैं. उन्हें चैन से खुद तो जीना आता नहीं, दूसरों को भी चैन से जीने नहीं देना चाहते. तुम मीना को कुछ दिनों के लिए अपने घर ले जाओ. वह एम.एड. करना चाहती है. वहीं पढ़ाओ उसे. मेरी जिम्मेदारी उस पर भारी पड़ रही है,’’ एक दिन मैं ने उस के भाई से कह ही दिया.

‘‘क्या कह रहे हो, अजय?’’ विनय ने हैरानी जाहिर की तो मैं हाथ से छूट गए ऊन के गोले की तरह खुलता ही चला गया.

‘‘मेरी तो समझ में नहीं आता कि आखिर मीना चाहती क्या है. पढ़ना चाहती थी तो पढ़ती रहती, शादी क्यों की थी? 3 साल हो गए हैं हमारी शादी को पर परिवार बढ़ाना ही नहीं चाहती, क्या बुढ़ापे में संतान के बारे में सोचेगी? विनय, मेरी जगह तुम होते तो क्या यह सब सह पाते?

‘‘अच्छी खासी तनख्वाह है मेरी, मगर हर समय यही रोना ले कर बैठी रहती है कि उसे भी काम करना है, इसलिए और पढ़ना चाहती है. एम.ए., बी.एड. कर के कौन सा तीर मार लिया जो अब एम.एड. करने की ठानी है. दरअसल, उस का चाहा क्यों नहीं हुआ. यह शिकायत उस की आदत है और यह हमेशा रहेगी. बीत जाएगा उस का भी और मेरा भी जीवन इसी तरह चीखतेचिल्लाते.’’

विनय चुप था. क्या कहता? जाहिर से थे उस के भी हावभाव.

‘‘मैं जानता हूं, वापस ले जाना इस समस्या का हल नहीं है, कुछ दिनों के लिए ही ले जाओ. आजकल उस का रोनाधोना जोरों पर है. उसे समझा पाना मेरे बस से बाहर होता जा रहा है.’’

विनय सकपका गया. यह सब सुनने के बाद बोला, ‘‘ठीक है, कल इतवार है, मैं सुबह आ जाऊंगा. शाम तक तुम दोनों के पास रहूंगा. तुम चिंता मत करो. भाई हूं, उसे मैं समझाऊंगा.’’

अगली सुबह अभी हम नाश्ता कर ही रहे थे कि विनय ने दरवाजा खटखटा दिया. मीना बड़े भाई को देख कर भी उखड़ी ही रही.

‘‘यहां स्टेशन पर किसी काम से आया था. सोचा, आज का दिन तुम दोनों के साथ बिताऊंगा, लेकिन तुम्हारा तो चेहरा लटका हुआ है. नाश्ता नहीं किया है मैं ने, तुम खिला दोगी न?’’

कोई प्रतिक्रिया नहीं की मीना ने. एक मेहमान के लिए ही सही, स्वाभाविक मुसकान भी चेहरे पर नहीं आई. मेरे भैयाभाभी आए थे तो भी यही तमाशा किया था मीना ने.

‘‘मीना, मैं तुम से ही बात कर रहा हूं. यह क्या तरीका है घर आने वाले का स्वागत करने का?’’

विनय के व्यवहार पर तनिक चौंकी मीना कि सदा नाजनखरे उठाने वाला भाई क्या इस तरह भी बोल सकता है.

‘‘रहने दीजिए न आप, बात ही क्यों कर रहे हैं मुझ से,’’ तुनक कर दरवाजे से हट गई मीना और विनय अवाक सा कभी मेरा मुंह देखे तो कभी जाती हुई बहन का.

विनय के चेहरे पर अपमान के भाव ज्यादा थे. अपना ही सोना खोटा हो तो किसे दोष देता विनय. मेरे वे शिकायती शब्द असत्य नहीं हैं यह स्पष्ट था. मेरी परेशानी भी कम न होगी वह समझ रहा था.

‘‘मां बीमार हैं, मीना. चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना,’’ यह कह कर वह जाने लगी तो विनय ने बांह पकड़ रोकना चाहा.

तब मीना बड़े भाई का हाथ झटक कर बोली, ‘‘मुझे तो एम.एड. में दाखिला चाहिए.’’

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‘‘एम.एड. में दाखिला लेने के लिए क्या बदतमीजी करना जरूरी है?’’ विनय बोला, ‘‘तुम्हें तो छोटेबड़े का भी लिहाज नहीं है. जब पढ़लिख कर बदतमीजी ही सीखनी है तो तुम बी.ए. पास ही अच्छी थीं.’’

विनय के शब्द कड़वे हो गए, जो मुझे भी अच्छे नहीं लगे. मीना मेरी पत्नी है. कोई उस पर नाराज हो, मैं यह भी तो नहीं चाहता.

‘‘मीना, तुम अपने होशोहवास में तो हो? तुम बच्ची नहीं हो, जो इस तरह जिद करो. अपने घर के प्रति भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी बनती है.’’

‘‘मैं ने अपनी कौन सी जिम्मेदारी नहीं निभाई? मन मार कर वहीं तो रह रही हूं जहां आप ने ब्याह दिया है.’’

काटो तो खून नहीं रहा मुझ में और साथ ही विनय में भी. वह मुझ से नजरें चुरा रहा था.

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Serial Story: चुभन (भाग-2)

पिछला भाग पढ़ने के लिए- चुभन: भाग-1

‘‘मुझे आप के साथ कहीं नहीं जाना. कह दीजिएगा मां से कि अब यहीं जीनामरना है, बस…’’

‘‘कैसी पागलों जैसी बातें कर रही हो. अजय जैसा अच्छा इंसान तुम्हारा पति है. जैसा चाहती हो वैसा ही करता है, और क्या चाहिए तुम्हें?’’

मैं कमरे से बाहर चला गया. आगे कुछ भी सुनने की शक्ति मुझ में नहीं थी. कुछ भी सुनना नहीं चाहा मैं ने. क्या सोच कर विनय को बुलाया था पर उस के आ जाने से तो सारा विश्वास ही डगमगा सा गया. तंद्रा टूटी तो पता चला काफी समय बीत चुका है. शायद दोपहर होने को आ गई थी. विनय वापस जाने को तैयार था. बोला, ‘‘मीना को साथ ले जा रहा हूं. तुम अपना खयाल रखना.’’

मीना बिना मुझ से कोई बात किए ही चली गई. नाश्ता उसी तरह मेज पर रखा रहा. मीना ने मेरी भूख के बारे में भी नहीं सोचा. भूखा रहना तो मेरी तब से मजबूरी है जब से उस के साथ बंधा हूं. कभीकभी तरस भी आता है मीना पर.

मीना चली गई तो ऐसा लगा जैसे चैन आ गया है मुझे. अपनी सोच पर अफसोस भी हो रहा है कि मैं मीना को बहुत चाहता हूं. फिर उस का जाना प्रिय क्यों लग रहा है? ऐसा क्यों लग रहा है कि शरीर के किसी हिस्से में समाया मवाद बह गया और पीड़ा से मुक्ति मिल गई? जिस के साथ पूरी उम्र गुजारने की सोची उसी का चला जाना वेदना क्यों नहीं दे रहा मुझे?

एक शाम मैं ने विनय को समझाना चाहा, ‘‘मेरी वजह से तुम क्यों अपने परिवार से दूर रह रहे हो, विनय? चारु भाभी को बुरा लगेगा.’’

‘‘तुम्हारी भाभी ने ही तो कहा है कि मैं तुम्हारे साथ रहूं और फिर तुम मेरा परिवार नहीं हो क्या? हैरान हूं मैं अजय, मीना का व्यवहार देख कर. वह सच में बहुत जिद्दी है. मैं भी पहली बार महसूस कर रहा हूं… तुम बहुत सहनशील हो अजय, जो उसे सहते रहे. तुम्हारी जगह यदि मैं होता तो शायद इतना लंबा इंतजार न करता.

‘‘अजय, सच तो यह है कि अपनी बहन का बचपना देख कर मुझे अपनी पत्नी और भी अच्छी लगने लगी है. दोनों में जब अंतर करता हूं तो पाता हूं कि चारु समझदार और सुघड़ पत्नी है. मीना जैसी को तो मैं भी सह नहीं पाता.

‘‘अकसर ऐसा होता है अजय, मनुष्य उस वस्तु से कभी संतुष्ट नहीं होता, जो उस के पास होती है. दूसरे की झोली में पड़ा फल सदा ज्यादा मीठा लगता है. चारु की तुलना मैं सदा मीना से करता रहा हूं, मां ने भी अपनी बहू का अपमान करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. चारु मीना जितना पढ़लिख नहीं पाई, क्योंकि शादी के बाद हम उसे क्यों पढ़ातेलिखाते? बी.ए. पास है, बस, ठीक है. मीना को तुम ने मौका दिया तो हम ने झट उसे चारु से बेहतर मान भी लिया पर यह कभी नहीं सोचा कि मीना की इच्छा का मान रखने के लिए तुम कबकब, कैसेकैसे स्वयं को मारते रहे.’’

‘‘चारु भाभी की अवहेलना मैं ने भी अकसर महसूस की है. मीना के जाने से मेरा भी भला हो रहा है और चारु भाभी का भी. मैं भी चैन की सांस ले रहा हूं और चारु भाभी भी.

‘‘कैसी है मीना, तुम ने बताया नहीं? क्या घर वापस नहीं आना चाहती? क्या मेरी जरा सी भी याद नहीं आती उसे?’’

‘‘पता नहीं, मुझ से तो बात भी नहीं करती. च रु से भी कटीकटी सी रहती है.’’

‘‘किसी के साथ खुश भी है वह? तुम बुरा मत मानना, विनय. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के जीवन में कोई और है या था… कहीं उस की शादी जबरदस्ती तो नहीं की गई?’’ मैं ने सहसा पूछा तो विनय के माथे पर कुछ बल पड़ गए.

‘‘मैं ने मां से भी इस बारे में पूछा था. तुम मेरे मित्र भी हो, अजय, तुम्हारे साथ जरा सी भी नाइंसाफी मैं नहीं सह सकता, क्योंकि पिछले 6-7 सालों से मैं तुम्हें जानता हूं कि तुम्हारा चरित्र सफेद कागज के समान है. कोई तुम्हारी भावना का अनादर क्यों करे? मेरी बहन भी क्यों? जहां तक मां का विचार है तो वे यही कहती हैं कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.’’

‘‘तो आज मैं आ जाऊं उसे वापस ले आने के लिए? आखिर कोई कुछ तो इस समस्या का समाधान होना ही चाहिए. मीना मेरी पत्नी है, कुछ तो मुझे भी करना होगा न.’’

विनय की आंखें भर आईं. उस ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. संभवतयाउसे भी यही एक रास्ता सूझ रहा होगा कि मैं ही कुछ करूं.

अगली सुबह मैं अपनी ससुराल पहुंच गया. पूरे 15 दिन बाद मैं मीना से मिलने वाला था. सड़क की मरम्मत का काम चल रहा था. पूरे रास्ते पर कंकर बिछे थे, इसलिए स्कूटर घर से बहुत दूर खड़ा करना पड़ा. पैदल ही घर तक आया, इसीलिए मेरे आने का किसी को भी पता नहीं चला.

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मैं घर के आंगन में खड़ा था. मां और भाभी दोनों रसोई में व्यस्त थीं. उन्होंने मुझे देखा नहीं. चुपचाप सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर मीना के कमरे के पास पहुंचा और पति के अधिकार के साथ दरवाजा धकेला मैं ने.

‘‘चारु, तुम जाओ. मैं ने कहा न मुझे भूख नहीं है… जानती हूं तुम्हारी चापलूसी को, सभी को मेरे खिलाफ भड़काती हो… अनपढ़, गंवार कहीं की… तुम जलती हो मुझ से.’’

मीना की यह भाषा सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. आहट पर ही इतनी बकवास कर रही है तो आमनेसामने झगड़ा करने में उसे कितनी देर लगती होगी. कैसी औरत मेरे पल्ले पड़ गई है जिस का एक भी आचरण मेरे गले से नीचे नहीं उतरता.

‘‘चारु भाभी क्यों जलेगी तुम से? ऐसा क्या है तुम्हारे पास, जरा बताओ तो मुझे? तुम तो मानसिक रूप से कंगाल हो.’’

काटो तो खून नहीं रहा मीना में. मेरा स्वर और मेरी उपस्थिति की तो उस ने कल्पना भी न की होगी. अफसोस हुआ मुझे खुद पर और सहसा अपना आक्रोश न रोक पाने पर.

‘‘चारु भाभी के अच्छे व्यवहार जैसा कुछ है तुम्हारे पास? तुम तो न अपने मांबाप की सगी हो न भाईभाभी की. न ससुराल में तुम्हें कोई पसंद करता है न मायके में. यहां तक कि पति भी तुम से खुश नहीं है. ऐसा कौन है तुम्हारा, जो तुम से प्यार कर के खुद को धन्य मानता है?’’

सन्न रह गई मीना. शायद यह आईना उसे मैं ही दिखा सकता था. आंखें फाड़फाड़ कर वह मुझे देखने लगी.

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Serial Story: चुभन (भाग-3)

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‘‘तुम तो बस, यही चाहती हो कि हर कोने में तुम्हारा ही अधिकार हो. मायके का यह कमरा हो या ससुराल का घर, हर इंसान बस तुम्हारे ही चाहने पर कुछ चाहे या न चाहे. मीना, यह भी जान ले कि इनसान का हर कर्म, हर व्यवहार एक दिन पलट कर वापस आता है. इतना जहर न बांटो कि हर दिशा से बस जहर ही पलट कर तुम्हारे पास वापस आए.’’

रो पड़ा था मैं यह सोच कर कि कैसे इस पत्थर को समझाऊं. सामने खिड़की के पार मजदूरों के बच्चे खेल रहे थे. हाथ पकड़ कर मैं मीना को खिड़की के पास ले आया और बोला, ‘‘वह देखो, सामने उन बच्चों को. सोच सकती हो वे कैसी गरमी सह रहे हैं? तुम कूलर की ठंडी हवा में चैन से बैठी हो न. जरा सोचो अगर उन्हीं मजदूरों के घर तुम्हारा जन्म होता तो आज यही जलते कंकड़ तुम्हारा बिस्तर होते. तब कहां होते सब नाजनखरे? यह सब चोंचले तभी तक हैं जब तक सब सहते हैं.

‘‘तुम विनय की पत्नी का इतना अपमान करती हो, आज अगर वह तुम्हें कान से पकड़ कर बाहर निकाल दे तब कहां जाएगी तुम्हारी यह जिद, तुम्हारा लड़नाझगड़ना? क्यों मेरे साथसाथ इन सब का भी जीना हराम कर रखा है तुम ने?’’

अपना अनिश्चित भविष्य देख कर मैं घबरा गया था. शायद इसीलिए जैसे गया था वैसे ही लौट आया. किसी को मेरे वहां जाने का पता भी न चला. विनय बारबार फोन कर के ‘क्या हुआ, कैसे हुआ’ पूछता रहा. क्या कहता मैं उस से? कैसे कहता कि मेरी पत्नी उस की पत्नी का अपमान किस सीमा तक करती है.

शाम ढल आई. इतवार की पूरी छुट्टी जैसे रोते शुरू हुई थी वैसे ही बीत गई. रात के 8 बज गए. द्वार पर दस्तक हुई. देखा तो हाथ में बैग पकड़े मीना खड़ी थी. क्या सोच कर उस का स्वागत करूं कि घर की लक्ष्मी लौट आई है या मेरी जान को घुन की तरह चाटने वाली मुसीबत वापस आ गई है?

‘‘तुम?’’ मेरे मुंह से निकला.

बिना कुछ कहे मीना भीतर चली गई. शायद विनय छोड़ कर बाहर से ही लौट गया हो. दरवाजा बंद कर मैं भी भीतर चला आया. दिल ने खुद से प्रश्न किया, कैसे कोई बात शुरू करूं मैं मीना से? कोई भी द्वार तो खुला नजर नहीं आ रहा था मुझे. हाथ का बैग एक तरफ पटक वह बाथरूम में चली गई. वापस आई तब लगा उस की आंखें लाल हैं.

‘‘चाय लोगी या सीधे खाना ही खाओगी? वैसे खाना भी तैयार है. खिचड़ी खाना तुम्हें पसंद तो नहीं है पर मेरे लिए यही बनाना आसान था, इसलिए 15 दिन से लगभग यही खा रहा हूं.’’

आंखें उठा कर मीना ने मुझे देखा तो उस की आंखें टपकने लगीं. चौंकना पड़ा मुझे, क्योंकि यह रोना वह रोना नहीं था जिस पर मुझे गुस्सा आता था. पहली बार मुझे लगा मीना के रोने पर प्यार आ रहा है.

‘‘अरे, क्या हुआ, मीना? खिचड़ी नहीं खाना चाहतीं तो कोई बात नहीं, अभी बाजार से कुछ खाने के लिए ले आता हूं.’’

‘‘आप मुझे लेने क्यों नहीं आए इतने दिन? आज आए भी तो बिना मुझे साथ लिए चले आए?’’

‘‘तुम वापस आना चाहती थीं क्या?’’

हैरान रह गया मैं. बांहों में समा कर नन्ही बालिका सी रोती मीना का चेहरा ऊपर उठाया. लगा, इस बार कुछ बदलाबदला सा है. मुझे तो सदा यही आभास होता रहता था कि मीना को कभी प्यार हुआ ही नहीं मुझ से.

‘‘तुम एक फोन कर देतीं तो मैं चला आता. मुझे तो यही समझ में आया कि तुम आना ही नहीं चाहती हो.’’

सहसा कह तो गया, मगर तभी ऐसा भी लगा कि मैं भी कहीं भूल कर रहा हूं. मेरे मन में सदा यही धारणा रही, जो भी मिल जाए उसी को सिरआंखों पर लेना चाहिए. प्रकृति सब को एकसाथ सब कुछ नहीं देती, लेकिन थोड़ाथोड़ा तो सब को ही देती है. वही थोड़ा सा यदि बांहों में चला आया है तो उसे प्रश्नोत्तर में गंवा देना कहां की समझदारी है. क्या पूछता मैं मीना से? कस कर बांहों में बांध लिया. ऐसा लगा, वास्तव में सब कुछ बदल गया है. मीना का हावभाव, मीना की जिद. कहीं से तो शुरुआत होगी न, कौन जाने यहीं से शुरुआत हो.

तभी फोन की घंटी बजी और किसी तरह मीना को पुचकार कर उसे खुद से अलग किया. दूसरी तरफ विनय का घबराया सा स्वर था. वह कह रहा था कि मीना बिना किसी से कुछ कहे ही कहीं चली गई है. परेशान थे सब, शायद उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि वह मेरे पास लौट आएगी. मेरा उत्तर पा कर हैरान रह गया विनय.

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वह मुझे लताड़ने लगा कि पिछले 4-5 घंटे से मीना तुम्हारे पास थी तो कम से कम एक फोन कर के तो मुझे बता देते. उस के 4-5 घंटे घर से बाहर रहने की बात सुन कर मैं भौचक्का रह गया, क्योंकि मीना मेरे पास तो अभीअभी आई है.

एक नया ही सत्य सामने आया. कहां थी मीना इतनी देर से?

उस के मायके से यहां आने में तो 10-15 मिनट ही लगते हैं. मीना से पूछा तो वह एक नजर देख कर खामोश हो गई.

‘‘तुम दोपहर से कहां थीं मीना? तुम्हारे घर वाले कितने परेशान हैं.’’

‘‘पता नहीं कहां थी मैं.’’

‘‘यह तो कोई उत्तर न हुआ. अपनी किसी सहेली के पास चली गई थीं क्या?’’

‘‘मुझ से कौन प्यार करता है, जो मैं किसी के पास जाती? लावारिस हूं न मैं, हर कोई तो नफरत करता है मुझ से… मेरा तो पति भी पसंद नहीं करता मुझे.’’

फिर से वही तेवर, वही रोनापीटना, मगर इस बार विषय बदल गया सा लगा. मन के किसी कोने से आवाज उठी कि पति पसंद नहीं करता उस का कारण भी तुम जानती हो. जब इतना सब पता चल गया है तुम्हें तो क्या यह पता नहीं चलता कि पति की पसंद कैसे बना जाए.

प्रत्यक्ष में धीरे से मीना का हाथ पकड़ा और पूछा, ‘‘मीना, कहां थीं तुम दोपहर से?’’

मेरे गले से लग पुन: रोने लगी मीना. किसी तरह शांत हुई. उस के बाद, जो उस ने बताया उसे सुन कर तो मैं दंग ही रह गया.

मीना ने बताया, ‘‘घर की चौखट लांघते समय समझ नहीं पाई कि कहां जाऊंगी. आप ने सुबह ठीक ही कहा था, मेरी जिद तब तक ही है जब तक कोई मानने वाला है. मेरे अपने ही हैं, जो मेरी हर खुशी पूरी करना चाहते हैं. 4 घंटे स्टेशन पर बैठी आतीजाती गाडि़यां देखती रही… कहां जाती मैं?’’

विस्मित रह गया मैं मीना का चेहरा देख कर. सत्य है, जीवन से बड़ा कोई अध्यापक नहीं और इस संसार से बड़ी कोई पाठशाला कहीं हो ही नहीं सकती. सीखने की चाह हो तो इंसान यहां सब सीख लेता है. निभाना भी और प्यार करना भी. यह जो सख्ती विनय के परिवार ने अब दिखाई है यही अगर बचपन में दिखाई जाती तो मीना इतनी जिद्दी कभी नहीं होती. हम ही हैं जो कभीकभी अपना नाजायज लाड़प्यार दिखा कर बच्चों को जिद्दी बना देते हैं.

‘‘एक बार तो जी में आया कि गाड़ी के नीचे कूद कर अपनी जान दे दूं. समझ नहीं पा रही थी कि मैं कहां जाऊं,’’ मीना ने कहा और मैं अनिष्ट की सोच कर कांप गया. पसीने से भीग गया मैं. ऐसी कल्पना कितनी डरावनी लगती है.

मैं ने कस कर छाती में से लगा लिया मीना को. मीना जोश में आ कर कोई गलत कदम उठा लेती तो मेरी हालत क्या होती. मैं ऐसा कैसे कर पाया मीना के साथ. 15 दिन तक हालचाल भी पूछने नहीं गया और आज सुबह जब गया भी तो यह भी कह आया कि मीना का पति भी मीना से प्यार नहीं करता. रो पड़ा मैं अपनी नादानी पर. एक नपातुला व्यवहार तो मैं भी नहीं कर पाया न.

‘‘अजय, आप पसंद नहीं करते न मुझे?’’

‘‘मुझे माफ कर दो, मीना, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.’’

‘‘आप ने अच्छा किया जो ऐसा कहा. आप ऐसा नहीं कहते तो मुझे कुछ चुभता नहीं. कुछ चुभा तभी तो आप के पास लौट पाई.

‘‘मैं जानती थी, आप मुझे माफ कर देंगे. मैं यह भी जानती हूं कि आप मुझ से बहुत प्यार करते हैं. आप ने अच्छा किया जो ऐसा किया. मुझे जगाना जरूरी था.’’

मैं मीना के शब्दों पर हक्काबक्का था. स्वर तो फूटा ही नहीं मेरे होंठों से. बस, मीना के मस्तक पर देर तक चुंबन दे कर पूरी कथा को पूर्णविराम दे दिया. जो नहीं हुआ उस का डर उतार फेंका मैं ने. जो हो गया उसी का उपकार मान मैं ने ठंडी सांस ली.

‘‘मैं एक अच्छी पत्नी और एक अच्छी मां बनने की कोशिश करूंगी,’’ रोतेरोते कहने लगी मीना और भी न जाने क्याक्या कहा.

अंत भला तो सब भला. लेकिन एक चुभन मुझे भी कचोट रही थी कि कहीं मेरा व्यवहार अनुचित तो नहीं था?

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पिघलते पल: क्या फिर बस पाई मानव और मिताली की गृहस्थी?

Serial Story: पिघलते पल (भाग-3)

अभि के साथ मिताली को देख कर मानव चौंक गया. आंखें चार हुईं. आज मिताली के चेहरे पर हमेशा की तरह कठोरता नहीं थी. बहुत समय बाद देख रहा था मिताली को… जिंदगी के संघर्ष ने उस के रूपलावण्य को कुछ धूमिल कर दिया था. किसी का प्यार, किसी की सुरक्षा जो नहीं थी उस की जिंदगी में… लेकिन उसे क्या… उस ने अपने विचारों को झटका दिया. तीनों चुपचाप खड़े थे. अभि बड़ी उम्मीद से दोनोें को देख रहा था कि दोनों कोई बात करेंगे. बहुत कुछ कहने को था दोनों के दिलों में पर शब्द साथ नहीं दे रहे थे.

‘‘चलें अभि,’’ आखिर उन के बीच पसरी चुप्पी को तोड़ते हुए मानव ने सिर्फ इतना ही कहा. फिर से मिताली से आंखें चार हुईं तो उसे लगा कि मिताली की आंखों में आज कुछ नमी है. मानव को भी अपने अंदर कुछ पिघलता हुआ सा लगा. बिना कुछ कहे वह मुड़ने को हुआ.

तभी मिताली बोल पड़ी, ‘‘मानव.’’

इतने समय बाद मिताली के मुंह से अपना नाम सुन कर मानव ठिठक गया.

‘‘कल अभि के स्कूल में पेरैंट्सटीचर मीटिंग है. क्या तुम थोड़ा समय निकाल कर आ सकते हो… अभि को अच्छा लगेगा.’’

मानव का दिल किया, हां बोले, पर प्रत्युत्तर में बोला, ‘‘मुझे टाइम नहीं है… कल टूअर पर निकलना है,’’ कह कर बिना उस की तरफ देखे ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और अभि के लिए दरवाजा खोल दिया. निराश सा अभि भी आ कर कार में बैठ गया.

मिताली अपनी जगह खड़ी रह गई. उस का दिल किया कि वह मानव को आवाज दे, कुछ बोले पर तब तक मानव कार स्टार्ट कर चुका था. मानव और अपने बीच जमी बर्फ को पिघलाने की मिताली की छोटी सी कोशिश बेकार सिद्ध हुई. वह ठगी सी खड़ी रह गई. मानव के इसी रुख के डर ने उसे हमेशा कोशिश करने से रोका. थके कदमों से वह घर की तरफ चल दी.

शाम को अभि घर आया तो मिताली ने हमेशा के विपरीत उस से कुछ नहीं पूछा. अभि भी गुमसुम था. आज उस का व मानव का अधिकांश समय अपनेआप में खोए हुए ही बीता था. अभि ने एक बार भी मानव से पेरैंट्सटीचर मीटिंग में आने की जिद्द नहीं की.

अभि को छोड़ कर मानव जब घर पहुंचा तो मिताली व मिताली की बात दिलदिमाग में छाई थी और साथ ही अभि की बेरुखी भी चुभी हुई थी. अभि ने एक बार भी उसे आने के लिए नहीं कहा. शायद उसे उस से ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी. सोचतेसोचते अनमना सा मानव कपड़े बदल कर बिना खाना खाए ही सो गया.

दूसरे दिन मिताली अभि के साथ स्कूल पहुंची. वे दोनों अभि की क्लास के बाहर पहुंचे तो सुखद आश्चर्य से भर गए. मानव खड़ा उन का इंतजार कर रहा था. उसे देख कर अभि मारे खुशी के उछल पड़ा.

‘‘पापा,’’ कह कर वह दौड़ कर मानव से लिपट गया. उस की उस पल की खुशी देख कर दोनों की आंखें नम हो गईं. मिताली पास आ गई. उस के होंठों पर मुसकान खिली थी.

‘‘थैंक्स मानव… अभि को इतनी खुशी देने के लिए.’’

जवाब में मानव के चेहरे पर फीकी सी मुसकराहट आ गई.

पेरैंट्सटीचर मीटिंग निबटा कर दोनों बाहर आए तो उत्साहित सा अभि मानव से अपने दोस्तों को मिलाने लगा. उस की खुशी देख कर मानव को अपने निर्णय पर संतुष्टि हुई. उसे उस के दोस्तों के बीच छोड़ कर मानव उसे बाहर इंतजार करने की बात कह कर बाहर निकल आया. पीछेपीछे खिंची हुई सी मिताली भी आ गई.

दोनों कार के पास आ कर खड़े हो गए. दोनों ही कुछ बोलना चाह रहे थे पर बातचीत का सूत्र नहीं थाम पा रहे थे. इसलिए दोनों ही चुप थे.

‘‘अभि बहुत खुश है आज,’’ मिताली किसी तरह बातचीत का सूत्र थामते हुए बोली.

‘‘हां, बच्चा है… छोटीछोटी खुशियां हैं उस की,’’ और दोनों फिर चुप हो गए.

‘‘ठीक है… मैं चलता हूं. अभि से कह देना मुझे देर हो रही थी… रविवार को आऊंगा,’’ थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मानव बोला और फिर पलटने को हुआ.

‘‘मानव,’’ मिताली के ठंडे स्वर में पश्चात्ताप की झलक थी, ‘‘एक बात पूछूं?’’

मानव ठिठक कर खड़ा हो गया. बोला, ‘‘हां पूछो,’’ और फिर उस ने मिताली के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, जहां कई भाव आ जा रहे थे.

मिताली चुपचाप थोड़ी देर खड़ी रही जैसे मन ही मन तोल रही हो कि कहे या न कहे.

‘‘पूछो, क्या पूछना चाहती हो.’’

मानव का अपेक्षाकृत कोमल स्वर सुन कर मिताली का दिल किया कि जिन आंसुओं को उस ने अभी तक पलकों की परिधि में बांध रखा है, उन्हें बह जाने दे. पर प्रत्यक्ष में बोली, ‘‘सच कहो, क्या कभी इन 2 सालों में मेरी कमी नहीं खली तुम्हें… क्या मेरे बिना जीवन से खुश हो?’’ मिताली का स्वर थका हुआ था. लग रहा था कि ये सब कहने के लिए उसे अपनेआप से काफी संघर्ष करना पड़ा होगा, लेकिन कह दिया तो लग रहा था कि कितना आसान था कहना. कह कर वह मानव के चेहरे पर नजर डाल कर उस के चेहरे पर आतेजाते भावों को पढ़ने का असफल प्रयास करने लगी.

‘‘क्या तुम्हें मेरी कमी खली? क्या तुम खुश हो मेरे बिना जिंदगी से?’’ पल भर की चुप्पी के बाद मानव बोला.

मिताली को समझ नहीं आया कि तुरंत क्या जवाब दे मानव की बातों का, इसलिए चुप खड़ी रही.

‘‘छोड़ो मिताली,’’ उसे चुप देख कर मानव बोला, ‘‘अब इन बातों का क्या फायदा… इन बातों के लिए अब बहुत देर हो चुकी है.’’

‘‘जब देर नहीं हुई थी तब भी तो तुम ने एक बार भी नहीं बुलाया,’’ सप्रयास मिताली बोली. उस का स्वर भीगा था.

‘‘मैं ने बुलाया नहीं तो मैं ने घर छोड़ने के लिए भी नहीं कहा था. घर तुम ने छोड़ा. तुम्हें इसी में अपनी खुशी दिखी. जैसे अपनी मरजी से घर छोड़ा था वैसे ही अपनी मरजी से लौट भी सकती थीं,’’ मिताली के स्वर का भीगापन मानव के स्वर को भी भिगो गया था.

‘‘एक बार तो बुलाया होता मैं लौट आती,’’ मिताली का स्वर अभी भी नम था.

‘‘तुम तब नहीं लौटती मिताली. ऐसा ही होता तो तुम घर छोड़ती ही क्यों. घर छोड़ते समय एक बार भी अपने बारे में न सोच कर अभि के बारे में सोचा होता तो तुम्हारे कदम कभी न बढ़ पाते. तुम्हारी जिद्द या फिर मेरी जिद्द हम दोनों की जिद्द में मासूम अभि पिस रहा है. उस का बचपन छिन रहा है. उस का व्यक्तित्व खंडित हो रहा है. क्या दे रहे हैं हम उसे… न खुद खुश रह पाए न औलाद को खुशी दे पाए,’’ कह कर अपने नम हो आए स्वर को संयत कर मानव कार की तरफ मुड़ गया.

कार का दरवाजा खोलते हुए मानव ने पलट कर पल भर के लिए मिताली की तरफ देखा. क्या था उन निगाहों में कि मिताली का दिल किया कि सारा मानअभिमान भुला कर दौड़ कर जा कर मानव से लिपट जाए. इसी पल उस के साथ चली जाए.

एकाएक मानव वापस उस के करीब आया. लगा वह कुछ कहना चाहता है पर वह कह नहीं पा रहा है.

‘‘हां,’’ उस ने अधीरता से मानव की तरफ देखा.

‘‘नहीं कुछ नहीं,’’ कह कर मानव जिस तेजी से आया था उसी तेजी से वापस मुड़ कर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. कार स्टार्ट की और चला गया. वह खोई हुई खड़ी रह गई कि काश मानव कह देता जो कहना चाहता था पर उस का आत्मसम्मान आड़े आ गया था शायद.

अभि के साथ घर पहुंची. अभि उस दिन बहुत खुश था. वह ढेर सारी बातें बता रहा था. खुशी उस के हर हावभाव, बातों व हरकतों से छलक रही थी. ‘कितना कुछ छीन रहे हैं हम अभि से,’ वह सोचने लगी.

कुछ पल ऐसे आ जाते हैं पतिपत्नी के जीवन में जो पिघल कर पाषाण की तरह कठोर हो कर जीवन की दिशा व दशा दोनों बदल देते हैं और कुछ ही पल ऐसे आते हैं जो मोम की तरह पिघल कर जीवन को अंधेरे से खींच कर मंजिल तक पहुंचा देते हैं. उस के और मानव के जीवन में भी वही पल दस्तक दे रहे थे और वह इन पलों को अब कठोर नहीं होने देगी.

दूसरे दिन मानव औफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था कि दरवाजे की घंटी बज उठी. ‘कौन हो सकता है इतनी सुबह’, सोचते हुए उस ने दरवाजा खोला तो सामने मिताली और अभि को मुसकराते हुए पाया. वह हैरान सा उन्हें देखता रह गया.

‘‘तुम दोनों?’’ उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगे मानव?’’ मिताली संजीदगी से बोली.

‘‘तुम अपने घर आई हो मिताली… मैं भला रास्ता रोकने वाला कौन होता हूं,’’ कह मानव एक तरफ हट गया.

मिताली और अभि अंदर आ गए. मानव ने दरवाजा बंद कर दिया. उस ने खुद से मन ही मन कुछ वादे किए. अब वह अपनी खुशियों को इस दरवाजे से कभी बाहर नहीं जाने देगा.

 

Serial Story: पिघलते पल (भाग-2)

मानव और मिताली के झगड़े दिनोंदिन बढ़ते चले गए. धीरेधीरे झगड़ों की जगह शीतयुद्ध ने ले ली. दोनों के बीच बातचीत बंद या बहुत ही कम होने लगी. फिर एक दिन मिताली ने विस्फोट कर दिया यह कह कर कि उसे नौकरी मिल गई है और उस ने औफिस के पास ही एक फ्लैट किराए पर ले लिया है. वह और अभि अब वहीं जा कर रहेंगे.

मानव हैरान रह गया. उस ने कहना चाहा कि अकेले वह नौकरी के साथ अभि को कैसे पालेगी और यदि नौकरी करनी ही है तो यहां रह कर भी कर सकती है. लेकिन उस का स्वाभिमान आड़े आ गया कि जब मिताली को उस की परवाह नहीं तो उसे क्यों हो. फिर मिताली ने उसी दिन नन्हे अभि के साथ घर छोड़ दिया. तब से अब तक 2 साल होने को आए हैं, 6 साल का अभि 8 साल का हो गया है. मानव की जिंदगी नौकरी के बाद इन 2 घरों की दूरी नापने में ही बीत रही थी.

तभी रैड लाइट पर मानव ने कार को ब्रैक लगाए तो उस की तंद्रा भंग हुई. कब तक चलेगा यह सब. वह पूरीपूरी कोशिश करता कि अभी का व्यक्तित्व उन के झगड़ों और मनमुटावों से प्रभावित न हो. उसे दोनों का प्यार मिले. लेकिन ऐसा हो ही नहीं पा रहा. नन्हे अभि का व्यक्तित्व 2 भागों में बंट गया था. बड़े होते अभि के व्यक्तित्व में अधूरेपन की छाप स्पष्ट दिखने लगी थी.

तभी सिगनल ग्रीन हो गया. मानव ने अपनी कार आगे बढ़ा दी. घर पहुंचा तो मन व्यथित था. अभि के अनगिनत सवालों के उस के पास जवाब नहीं थे. वह सोचने लगा कि इतने ही सवाल अभि मिताली से भी करता होगा, क्या उस के पास होते होंगे जवाब… आखिर कब तक चलेगा ऐसा?

दोनों के मातापिता ने पहलेपहल दोनों को समझाया, लेकिन दोनों ही झुकने को तैयार नहीं हुए. आखिर थकहार कर दोनों के मातापिता चुप हो गए. पर पिछले कुछ समय से मानव के मातापिता जो बातें दबेढके स्वर में कहते थे अब वे स्वर मुखर होने लगे थे कि ऐसा कब तक चलेगा मानव… साथ में नहीं रहना है तो तलाक ले लो और जिंदगी दोबारा शुरू करने के बारे में सोचो.

यह बात मानव के तनबदन में सिहरन पैदा कर देती कि क्या इतना सरल है एक अध्याय खत्म करना और दूसरे की शुरुआत करना… आखिर उस की जो व्यस्तता आज है वह तब भी रहेगी और फिर अभि? उस का क्या होगा? फिर वही प्रश्नचिह्न उस की आंखों के आगे आ जाता. आखिर क्या करे वह… बहुत चाहा उस ने कि जिस तरह मिताली खुद ही घर छोड़ कर गई है वैसे ही खुद लौट भी आए, लेकिन इस इंतजार को भी 2 साल बीत गए. खुद उस ने कभी बुलाने की कोशिश नहीं की. अब तो जैसे आदत सी पड़ गई है अकेले रहने की.

इधर अभि घर के अंदर दाखिल हुआ तो सीधे अपने कमरे में चला गया. उस का नन्हा सा दिल भी इंतजार करतेकरते थक गया था. कब मम्मीपापा एकसाथ रहेंगे. वह खिन्न सा अपनी स्टडी टेबल पर बैठ गया. हर हफ्ते रविवार आता है. पापा आते हैं, उसे ले जाते हैं, घुमातेफिराते हैं, उस की पसंद की चीजें दिलाते हैं, उस की जरूरतें पूछते हैं और शाम को घर छोड़ देते हैं. मम्मी सोमवार से अपने औफिस चल देती हैं और वह अपने स्कूल. हफ्ता बीतता है. फिर रविवार आता है. वही एकरस सी दिनचर्या. कहीं मन नहीं लगता उस का. पापा के साथ रहता है तो मम्मी की याद आती है और मम्मी के साथ रहता है तो पापा की याद आती है. पता नहीं मम्मीपापा साथ क्यों नहीं रहते?

तभी मिताली अंदर आ गई. उसे ऐसे अनमना सा बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा? कैसा रहा तुम्हारा दिन आज?’’

अभि ने कोई जवाब नहीं दिया. वैसे ही चुपचाप बैठा रहा.

‘‘क्या हुआ बेटा?’’ वह उस के बालों में उंगलियां फिराते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं,’’ कह कर अभि ने मिताली का हाथ हटा दिया.

‘‘तुम ऐसे चुपचाप क्यों बैठे हो? किसी ने कुछ कहा क्या तुम्हें?’’

‘‘नहीं,’’ वह तल्ख स्वर में बोला. फिर क्षण भर बाद उस की तरफ मुंह कर उस का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘मम्मी, यह बताओ कि हम पापा के पास जा कर कब रहेंगे? हम पापा के साथ क्यों नहीं रहते? मुझे अच्छा नहीं लगता पापा के बिना… चलिए न मम्मी हम वहीं चल कर रहेंगे.’’

‘‘बेकार की बात मत करो अभि,’’ मिताली का कोमल स्वर कठोर हो गया, ‘‘रात काफी हो गई है. खाना खाओ और सो जाओ. सुबह स्कूल के लिए उठना है.’’

‘‘नहीं, पहले आप मेरी बात का जवाब दो,’’ अभि जिद्द पर आ गया.

‘‘अभि कहा न कि बेकार की बातें मत करो. हम यहीं रहेंगे… खाना खाओ और सो जाओ,’’ कह कर मिताली हाथ छुड़ा कर किचन में चली गई.

अभि बैठा रह गया. ‘दोनों ही उसे जवाब देना नहीं चाहते. जब भी वह सवाल करता है दोनों ही टाल देते हैं या फिर डांट देते हैं. आखिर वह क्या करे,’ वह सोच रहा था.

काम खत्म कर के मिताली कमरे में आई तो अभि खाना खा कर सो चुका था. वह उस के मासूम चेहरे को निहारने लगी. कितनी समस्याओं से भरा था अभि के लिए उस का बचपन. वह उस के पास लेट कर उस का सिर सहलाने लगी. अभि के सवालों के जवाब नहीं हैं उस के पास. निरुद्देश्य सी जिंदगी बस बीती चली जा रही है. वह गंभीरता से बैठ कर कुछ सोचना नहीं चाहती. एक के बाद एक दिन बीता चला जा रहा है. कब तक यह सिलसिला यों ही चलता रहेगा. अभि बड़ा हो रहा है. उस के मासूम से सवाल कब जिद्द पर आ कर कल कठोर होने लगें क्या पता.

मानव के साथ भी जिंदगी बेरंग सी हो रही थी पर उस से अलग हो कर भी कौन से रंग भर गए उस की जिंदगी में. उस समय तो बस यही लगा कि मानव को सबक सिखाए ताकि वह उस की कमी महसूस करे. अपनी जिंदगी में वह पत्नी के महत्त्व को समझे. पर यह सब बेमानी ही साबित हुआ. शुरूशुरू में उस ने बहुत इंतजार किया मानव का कि एक न एक दिन मानव आएगा और उसे मना कर ले जाएगा. कुछ वादे करेगा उस से और वह भी सब कुछ भूल कर वापस चली जाएगी पर मानव के आने का इंतजार बस इंतजार ही रह गया. न मानव आया और न वह स्वयं ही वापस आ गई.

हर बार सोचती जब मानव को ही उस की परवाह नहीं, उसे उस की कमी नहीं खलती तो वही क्यों परवाह करे उस की. और दिन बीतते चले गए. देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. उन दोनों के बीच की बर्फ की तह मोटी होतेहोते शिलाखंड बन गई. धीरेधीरे वह इसी जिंदगी की आदी हो गई. पर इस एकरस दिनचर्या में अभि के सवाल लहरें पैदा कर देते थे. वह समझ नहीं पाती आखिर यह सब कब तक चलेगा.

कल मां फोन पर कह रही थीं कि यदि उसे वापस नहीं जाना है तो अब अपने भविष्य के बारे में कोई निर्णय ले. कुछ आगे की सोचे. आगे का मतलब तलाक और दूसरी शादी. क्या सब इतना सरल है और अभि? उस का क्या होगा. वह भी शादी कर लेगी और मानव भी तो अभि दोनों की जिंदगी में अवांछित सा हो जाएगा.

यह सोच आते ही मिताली सिहर गई कि नहीं और फिर उस ने अभि को अपने से चिपका लिया. पहले ही कितनी उलझने हैं अभि की जिंदगी में. वह उस की जिंदगी और नहीं उलझा सकती. वह लाइट बंद कर सोने का प्रयास करने लगी. पता नहीं क्यों आज दिल के अंदर कुछ पिघला हुआ सा लगा. लगा जैसे दिल के अंदर जमी बर्फ की तह कुछ गीली हो रही है. कुछ विचार जो हमेशा नकारात्मक रहते थे आज सकारात्मक हो रहे थे. समस्या को परखने का नजरिया कुछ बदला हुआ सा लगा. वह खुद को ही समझने का प्रयास करने लगी. सोचतेसोचते न जाने कब नींद आ गई.

सुबह अभि उठा तो सामान्य था. वैसे भी कुछ बातों को वह अपनी नियति मान चुका था. वह स्कूल के लिए तैयार होने लगा. अभि को स्कूल भेज कर वह भी अपने औफिस चली गई. सब कुछ वही था फिर भी दिल के अंदर क्या था जो उसे हलकी सी संतुष्टि दे रहा था… शायद कोई विचार या भाव… पूरा हफ्ता हमेशा की तरह व्यस्तता में बीत गया. फिर रविवार आ गया.

मानव जब बिल्डिंग के नीचे अभि को लेने पहुंचता तो अभि को फोन कर देता और अभि नीचे आ जाता. पर आज मिताली अभि के साथ नीचे आ गई. अभि के लिए यह आश्चर्य की बात थी.

आगे पढ़ें- अभि के साथ मिताली को देख कर…

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