काश, आप ने ऐसा न किया होता- भाग 1: कैसे थे बड़े भैया

‘‘भैया, वह आप के साथ इतनी बदतमीजी से बात कर रहा था…क्या आप को बुरा नहीं लगा? आप इतना सब सह कैसे जाते हैं. औकात क्या है उस की? न पढ़ाईलिखाई न हाथ में कोई काम करने का हुनर. मांबाप की बिगड़ी औलाद…और क्या है वह?’’

‘‘तुम मानते हो न कि वह कुछ नहीं है.’’

भैया के प्रश्न पर चुप हो गया मैं. भैया उस की गाड़ी के नीचे आतेआते बड़ी मुश्किल से बचे थे. क्षमा मांगना तो दूर की बात बाहर निकल कर इतनी बकवास कर गया था. न उस ने भैया की उम्र का खयाल किया था और न ही यह सोचा था कि उस की वजह से भैया को कोई चोट आ जाती.

‘‘ऐसा इनसान जो किसी लायक ही नहीं है वह जो पहले से ही बेचारा है. अपने परिवार के अनुचित लाड़प्यार का मारा, ओछे और गंदे संस्कारों का मारा, जिस का भविष्य अंधे कुएं के सिवा कुछ नहीं, उस बदनसीब पर मैं क्यों अपना गुस्सा अपनी कीमती ऊर्जा जाया करूं? अपने व्यवहार से उस ने अपने चरित्र का ही प्रदर्शन किया है, जाने दो न उसे.’’

अपनी किताबें संभालतेसंभालते सहसा रुक गए भैया, ‘‘लगता है ऐनक टूट गई है. आज इसे भी ठीक कराना पड़ेगा.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, सस्ते में छूट गया मैं,’’ सोम भैया बोले, ‘‘मेरी ही टांग टूट जाती तो 3 हफ्ते बिस्तर पर लेटना पड़ता. मुझ पर आई मुसीबत मेरी ऐनक ने अपने सिर पर ले ली.’’

‘‘मैं जा कर उस के पिता से बात करूंगा.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं किसी से कुछ भी बात करने की. बौबी की जो चाल है वही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाली है. जो लोग जीवन में बहुत तेज चलना चाहते हैं वे हर जगह जल्दी ही पहुंचते हैं…उस पार भी.’’

कैसे विचित्र हैं सोम भैया. जबजब इन से मिलता हूं, लगता है किसी नए ही इनसान से मिल रहा हूं. सोचने का कोई और तरीका भी हो सकता है यह सोच मैं हैरान हो जाता हूं.

‘‘अपना मानसम्मान क्या कोई माने नहीं रखता, भैया?’’

‘‘रखता है, क्यों नहीं रखता लेकिन सोचना यह है कि अपने मानसम्मान को हम इतना सस्ता भी क्यों मान लें कि वह हर आम आदमी के पैर की जूती के नीचे आने लगे. मैं उस की गाड़ी के नीचे आ जाता, आया तो नहीं न. जो नहीं हुआ उस का उपकार मान क्या हम प्रकृति का धन्यवाद न करें?’’

‘‘बौबी की बदतमीजी क्या इतनी बलवान है कि हमारा स्वाभिमान उस के सामने चूरचूर हो जाए. हमारा स्वाभिमान बहुत अमूल्य है जिसे हम बस कभीकभी ही आढ़े लाएं तो उस का मूल्य है. जराजरा सी बात को अपने स्वाभिमान की बलि मानना शुरू कर देंगे तो जी चुके हम. स्वाभिमान हमारी ताकत होना चाहिए न कि हमारी कमजोर नस, जिस पर हर कोई आताजाता अपना हाथ धरता फिरे.’’

अजीब लगता है मुझे कभीकभी भैया का व्यवहार, उन का चरित्र. भैया बंगलौर में रहते हैं. एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं. मैं एम.बी.ए. कर रहा हूं और मेरी परीक्षाएं चल रही हैं. सो मुझे पढ़ाने को चले आए हैं.

‘‘इनसान अगर दुखी होता है तो काफी सीमा तक उस की वजह उस की अपनी ही जीवनशैली होती है,’’ भैया मुझे देख कर बोले, ‘‘अगर मैं ही बच कर चलता तो शायद मेरा चश्मा भी न टूटता. हमें ही अपने को बचा कर रखना चाहिए.’’

‘‘तुम्हें अच्छे नंबरों से एम.बी.ए. पास करना है और देश की सब से अच्छी कुरसी पर बैठना है. उस कुरसी पर बैठ कर तुम्हें बौबी जैसे लोग बेकार और कीड़े नजर आएंगे जिन के लिए सोचना तुम्हें सिर्फ समय की बरबादी जैसा लगेगा. इसलिए तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

मैं ने वैसा ही किया जैसा भैया ने समझाया. शांत रखा अपना मन और वास्तव में मन की उथलपुथल कहीं खो सी गई. मेरी परीक्षाएं हो गईं. भैया वापस बंगलौर चले गए. घर पर रह गए पापा, मां और मैं. पापा अकसर भैया को साधुसंत कह कर भी पुकारा करते हैं. कभीकभी मां को भी चिढ़ा देते हैं.

‘‘जब यह सोमू पैदा होने वाला था तुम क्या खाया करती थीं…किस पर गया है यह लड़का?’’

‘‘वही खाती थी जो आप को भी खिलाती थी. दाल, चावल और चपाती.’’

‘‘पता नहीं किस पर गया है मेरा यह साधु महात्मा बेटा, सोम.’’

इतना बोल कर पापा मेरी तरफ देखने लगते. मानो उन्हें अब मुझ से कोई उम्मीद है क्योंकि भैया तो शादी करने को मानते ही नहीं, 35 के आसपास भैया की उम्र है. शादी का नाम भी लेने नहीं देते.

‘‘यह लड़का शादी कर लेता तो मुझे भी लगता मेरी जिम्मेदारी समाप्त हो गई. हर पल इस के खानेपीने की चिंता रहती है. कोई आ जाती इसे भी संभालने वाली तो लगता अब कोई डर नहीं.’’

‘‘डर काहे का भई, मैं जानता हूं कि तुम अपने जाने का रास्ता साफ करना चाहती हो मगर यह मत भूलो, हम दोनों अभी भी तुम्हारी जिम्मेदारी हैं. विजय के बालबच्चों की चिंता है कि नहीं तुम्हें…और बुढ़ापे में मुझे कौन संभालेगा. आखिर उस पार जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है तुम्हें कि जब देखो बोरियाबिस्तर बांधे तैयार नजर आती हो.’’

मां और पापा का वार्त्तालाप मेरे कानों में पड़ा, आजकल पापा इस बात पर बहुत जल्दी चिढ़ने लगे हैं कि मां हर पल मृत्यु की बात क्यों करने लगी हैं.

‘‘मैं टीवी का केबल कनेक्शन कटवाने वाला हूं,’’ पापा बोले, ‘‘सुबह से शाम तक बाबाओं के प्रवचन सुनती रहती हो,’’ और अखबार फेंक कर पापा बाहर आ कर बैठ गए…बड़ाबड़ा रहे थे. बड़बड़ाते हुए मुझे भी देख रहे थे.

‘‘क्या जरूरत है इस की? क्या मेरे सोचने से ही मैं उस पार चली जाऊंगी. संसार क्या मेरे चलाने से चलता है? आप इस बात पर चिढ़ते क्यों हैं,’’ शायद मां भी पापा के साथसाथ बाहर चली आई थीं. बचपन से देख रहा हूं, पापा मां को ले कर बहुत असुरक्षित हैं. मां क्षण भर को नजर न आईं तो पापा इस सीमा तक घबरा जाते हैं कि अवश्य कुछ हो गया है उन्हें. इस के पीछे भी एक कारण है.

हमारी दादी का जब देहांत हुआ था तब पापा की उम्र बहुत छोटी थी. दादी घर से बाहर गईं और एक हादसे में उन की मौत हो गई. पापा के कच्चे मन पर अपनी मां की मौत का क्या प्रभाव पड़ा होगा वह मैं सहज महसूस कर सकता हूं. दादी के बिना पता नहीं किस तरह पापा पले थे. शायद अपनी शादी के बाद ही वह जरा से संभल पाए होंगे तभी तो उन के मन में मां उन की कमजोर नस बन चुकी हैं जिस पर कोई हाथ नहीं रख सकता.

‘‘मैं ने कहा न तुम मेरे सामने फालतू बकबक न किया करो.’’

‘‘मेरी बकबक फालतू नहीं है. आप अपना मन पक्का क्यों नहीं करते? मेरी उम्र 55 साल है और आप की 60. एक आदमी की औसत उम्र भी तो यही है. क्या अब हमें धीरेधीरे घरगृहस्थी से अपना हाथ नहीं खींच लेना चाहिए? बड़ा बेटा अच्छा कमा रहा है…हमारा मोहताज तो नहीं. विजय भी एम.बी.ए. के बाद अपनी रोटी कमाने लगेगा. हमारा गुजारा पेंशन में हो रहा है. अपना घर है न हमारे पास. अब क्या उस पार जाने का समय नहीं आ गया?’’

पापा गरदन झुकाए बैठे सुन रहे थे.

‘‘मैं जानता हूं अब हमें उस पार जाना है पर मुझे अपनी परवा नहीं है. मुझे तुम्हारी चिंता है. तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा.’’

‘‘इसीलिए तो कह रही थी कि सोम की शादी हो जाती तो बहू आप सब को संभाल लेती. कोई डर न होता.’’

बात घूम कर वहीं आ गई थी. हंस पड़ी थीं मां. माहौल जरा सा बदला. पापा अनमने से ही रहे. फिर धीरे से बोले, ‘‘पता चल गया मुझे सोमू किस पर गया है. अपनी मां पर ही गया है वह.’’

‘‘इतने साल साथ गुजार कर आप को अब पता चला कि मैं कैसी हूं?’’

‘‘नौकरी की आपाधापी में तुम्हारे चरित्र का यह पहलू तो मैं देख ही नहीं पाया. अब रिटायर हो गया हूं न, ज्यादा समय तुम्हें देख पाता हूं.’’

काश, आप ने ऐसा न किया होता- भाग 2: कैसे थे बड़े भैया

सच कह रहे हैं पापा. भैया बड़े हैं. लगता है मां का सारा का सारा चरित्र उन्हें ही मिल गया. जो जरा सा बच गया उस में कुछ पापा का मिला कर मुझे मिल गया. मैं इतना क्षमावादी नहीं हूं जितने भैया और मां हैं. हो सकता है जरा सा बड़ा हो जाऊं तो मैं भी वैसा ही बन जाऊं.

भैया मुझ से 10 साल बड़े हैं. हम दोनों भाइयों में 10 साल का अंतर क्यों है? मैं अकसर मां से पूछता हूं.

कम से कम मेरा भाई मेरा भाई तो लगता. वह तो सदा मुझे अपना बच्चा समझ कर बात करते हैं.

‘‘यह प्रकृति का खेल है, बेटा, इस में हमारा क्या दोष है. जो हमें मिला वह हमारा हिस्सा था, जब मिलना था तभी मिला.’’

अकसर मां समझाती रहती हैं, कर्म करना, ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाना हमारा कर्तव्य है. उस के बाद हमें कब कितना मिले उस पर हमारा कोई बस नहीं. जमीन से हमारा रिश्ता कभी टूटना नहीं चाहिए. पेड़ जितना मरजी ऊंचा हो जाए, आसमान तक उस की शाखाएं फैल जाएं लेकिन वह तभी तक हराभरा रह सकता है जब तक जड़ से उस का नाता है. यह जड़ हैं हमारे संस्कार, हमारी अपने आप को जवाबदेही.

समय आने पर मेरी नियुक्ति भी बंगलौर में हो गई. अब दोनों भाई एक ही शहर में हो गए और मांपापा दिल्ली में ही रहे. भैया और मैं मिल गए तो हमारा एक घर बन गया. मेरी वजह से भैया ने एक रसोइया रख लिया और सब समय पर खानेपीने लगे. बहुत गौर से मैं भैया के चरित्र को देखता, कितने सौम्य हैं न भैया. जैसे उन्हें कभी क्रोध आता ही नहीं.

‘‘भैया, आप को कभी क्रोध नहीं आता?’’

एक दिन मेरे इस सवाल पर वह कहने लगे, ‘‘आता है, आता क्यों नहीं, लेकिन मैं सामने वाले को क्षमा कर देता हूं. क्षमादान बहुत ऊंचा दान है. इस दान से आप का अपना मन शांत हो जाता है और एक शांत इनसान अपने आसपास काम करने वाले हर इनसान को प्रभावित करता है. मेरे नीचे हजारों लोग काम करते हैं. मैं ही शांत न रहा तो उन सब को शांति का दान कैसे दे पाऊंगा, जरा सोचो.’’

एक दोपहर लंच के समय एक महिला सहयोगी से बातचीत होने लगी. मैं कहां से हूं. घर में कौनकौन हैं आदि.

‘‘मेरे बड़े भाई हैं यहां और मैं उन के साथ रहता हूं.’’

भैया और उन की कंपनी का नाम- पता बताया तो वह महिला चौंक सी गई. उसी पल से उस का मेरे साथ बात करने का लहजा बदल गया. वह मुझे सिर से पैर तक ऐसे देखने लगी मानो मैं अजूबा हूं.

‘‘नाम क्या है आप का?’’

‘‘जी विजय सहगल, आप जानती हैं क्या भैया को?’’

‘‘हां, अकसर उन की कंपनी से भी हमारा लेनदेन रहता है. सोम सहगल अच्छे इनसान हैं.’’

मेरी दोस्ती उस महिला के साथ बढ़ने लगी. अकसर वह मुझ से परिवार की बातें करती. अपने पति के बारे में, अपने बच्चों के बारे में भी. कभी घर आने को कहती, मेरे खानेपीने पर भी नजर रखती. एक दिन नाश्ता करते हुए उस महिला का जिक्र मैं ने भैया के सामने भी कर दिया.

‘‘नाम क्या है उस का?’’

अवाक् रह गए भैया उस का नाम सुन कर. हाथ का कौर भैया के हाथ से छूट गया. बड़े गौर से मेरा चेहरा देखने लगे.

‘‘क्या बात है भैया? आप का नाम सुन कर वह भी इसी तरह चौंक गई थी.’’

‘‘तो वह जानती है कि तुम मेरे छोटे भाई हो…पता है उसे मेरा?’’

‘‘हां पता है. आप की बहुत तारीफ करती है. कहती है आप की कंपनी के साथ उस की कंपनी का भी अच्छा लेनदेन है. मेरा बहुत खयाल रखती है.’’

‘‘अच्छा, कैसे तुम्हारा खयाल रखती है?’’

‘‘जी,’’ अचकचा सा गया मैं. भैया के बदले तेवर पहली बार देख रहा था मैं.

‘‘तुम्हारे लिए खाना बना कर लाती है या रोटी का कौर तुम्हारे मुंह में डालती है? पहली बार घर से बाहर निकले हो तो किसी के भी साथ दोस्ती करने से पहले हजार बार सोचो. तुम्हारी दोस्ती और तुम्हारी भावनाएं तुम्हारी सब से अमूल्य पूंजी हैं जिन का खर्च तुम्हें बहुत सोच- समझ कर करना है. हर इनसान दोस्ती करने लायक नहीं होता. हाथ सब से मिला कर चलो क्योंकि हम समाज में रहते हैं, दिल किसीकिसी से मिलाओ…सिर्फ उस से जो वास्तव में तुम्हारे लायक हो. तुम समझदार हो, आशा है मेरा इशारा समझ गए होगे.’’

‘‘क्या वह औरत दोस्ती के लायक नहीं है?’’

‘‘नहीं, तुम उसी से पूछना, वह मुझे कब से और कैसे जानती है. ईमानदार होगी तो सब सचसच बता देगी. न बताया तो समझ लेना वह आज भी किसी की दोस्ती के लायक नहीं है.’’

भैया मेरा कंधा थपक कर चले गए और पीछे छोड़ गए ढेर सारा धुआं जिस में मेरा दम घुटने लगा. एक तरह से सच ही तो कह रहे हैं भैया. आखिर मुझ में ही इतनी दिलचस्पी लेने का क्या कारण हो सकता है.

दोपहर लंच में वह सदा की तरह चहचहाती हुई ही मुझे मिली. बड़े स्नेह, बड़े अपनत्व से.

‘‘आप भैया से पहली बार कब मिली थीं? सिर्फ सहयोगी ही थे आप या कंपनी का ही माध्यम था?’’

मुसकान लुप्त हो गई थी उस की.

‘‘नहीं, हम सहयोगी कभी नहीं रहे. बस, कंपनी के काम की ही वजह से मिलनाजुलना होता था. क्यों? तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘नहीं, आप मेरा इतना खयाल जो रखती हैं और फिर भैया का नाम सुनते ही आप की दिलचस्पी मुझ में बढ़ गई. इसीलिए मैं ने सोचा शायद भैया से आप की गहरी जानपहचान हो. भैया के पास समय ही नहीं होता वरना उन से ही पूछ लेता.’’

‘‘अपनी भाभी को ले कर कभी आओ न हमारे घर. बहुत अच्छा लगेगा मुझे. तुम्हारी भाभी कैसी हैं? क्या वह भी काम करती हैं?’’

तनिक चौंका मैं. भैया से ज्यादा गहरा रिश्ता भी नहीं है और उन की पत्नी में भी दिलचस्पी. क्या वह यह नहीं जानतीं, भैया ने तो शादी ही नहीं की अब तक.

‘‘भाभी बहुत अच्छी हैं. मेरी मां जैसी हैं. बहुत प्यार करती हैं मुझ से.’’

‘‘खूबसूरत हैं, तुम्हारे भैया तो बहुत खूबसूरत हैं,’’ मुसकराने लगी वह.

‘‘आप के घर आने के लिए मैं भाभी से बात करूंगा. आप अपना पता दे दीजिए.’’

उस ने अपना कार्ड मुझे थमा दिया. रात वही कार्ड मैं ने भैया के सामने रख दिया. सारी बातें जो सच नहीं थीं और मैं ने उस महिला से कहीं वह भी बता दीं.

‘‘कहां है तुम्हारी भाभी जिस के साथ उस के घर जाने वाले हो?’’

भाभी के नाम पर पहली बार मैं भैया के होंठों पर वह पीड़ा देख पाया जो उस से पहले कभी नहीं देखी थी.

‘‘वह आप में इतनी दिलचस्पी क्यों लेती है भैया? उस ने तो नहीं बताया, आप ही बताइए.’’

‘‘तो चलो, कल मैं ही चलता हूं तुम्हारे साथ…सबकुछ उसी के मुंह से सुन लेना. पता चल जाएगा सब.’’

काश, आप ने ऐसा न किया होता- भाग 3: कैसे थे बड़े भैया

अगले दिन हम दोनों उस पते पर जा पहुंचे जहां का श्रीमती गोयल ने पता दिया था. भैया को सामने देख उस का सफेद पड़ता चेहरा मुझे साफसाफ समझा गया कि जरूर कहीं कुछ गहरा था बीते हुए कल में.

‘‘कैसी हो शोभा? गिरीश कैसा है? बालबच्चे कैसे हैं?’’

पहली बार उन का नाम जान पाया था. आफिस में तो सब श्रीमती गोयल ही पुकारते हैं. पानी सजा लाई वह टे्र में जिसे पीने से भैया ने मना कर दिया.

‘‘क्या तुम पर मुझे इतना विश्वास करना चाहिए कि तुम्हारे हाथ का लाया पानी पी सकूं?

‘‘अब क्या मेरे भाई पर भी नजर डाल कुछ और प्रमाणित करना चाहती हो. मेरा खून है यह. अगर मैं ने किसी का बुरा नहीं किया तो मेरा भी बुरा कभी नहीं हो सकता. बस मैं यही पूछने आया हूं कि इस बार मेरे भाई को सलाखों के पीछे पहुंचा कर किसे मदद करने वाली हो?’’

श्रीमती गोयल चुप थीं और मुझ में काटो तो खून न था. क्या भैया कभी सलाखों के पीछे भी रहे थे? हमें क्या पता था यहां बंगलौर में भैया के साथ इतना कुछ घट चुका है.

‘‘औरत भी बलात्कार कर सकती है,’’ भैया भनक कर बोले, ‘‘इस का पता मुझे तब चला जब तुम ने भीड़ जमा कर के सब के सामने यह कह दिया था कि मैं ने तुम्हें रेप करने की कोशिश की है, वह भी आफिस के केबिन में. हम में अच्छी दोस्ती थी, मुझे कुछ करना ही होता तो क्या जगह की कमी थी मेरे पास? हर शाम हम साथ ही होते थे. रेप करने के लिए मुझे आफिस का केबिन ही मिलता. तुम ने गिरीश की प्रमोशन के लिए मुझे सब की नजरों में गिराना चाहा…साफसाफ कह देतीं मैं ही हट जाता. इतना बड़ा धोखा क्यों किया मेरे साथ? अब इस से क्या चाहती हो, बताओ मुझे. इसे अकेला लावारिस मत समझना.’’

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं चाहती सिर्फ माफी चाहती हूं. तुम्हारे साथ मैं ने जो किया उस का फल मुझे मिला है. अब गिरीश मेरे साथ नहीं रहता. मेरा बेटा भी अपने साथ ले गया…सोम, जब से मैं ने तुम्हें बदनाम करना चाहा है एक पल भी चैन नहीं मिला मुझे. तुम अच्छे इनसान थे, सारी की सारी कंपनी तुम्हें बचाने को सामने चली आई. तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ा…मैं ही कहीं की नहीं रही.’’

‘‘मेरा क्या नहीं बिगड़ा…जरा बताओ मुझे. मेरे काम पर तो कोई आंच नहीं आई मगर आज किसी भी औरत पर विश्वास कर पाने की मेरी हिम्मत ही नहीं रही. अपनी मां के बाद तुम पहली औरत थीं जिसे मैं ने अपना माना था और उसी ने अपना ऐसा रूप दिखाया कि मैं कहीं का नहीं रहा और अब मेरे भाई को अपने जाल में फंसा कर…’’

‘‘मत कहो सोम ऐसा, विजय मेरे भाई जैसा है. अपने घर बुला कर मैं तुम्हारी पत्नी से और विजय से अपने किए की माफी मांगनी चाहती थी. मेरी सांस बहुत घुटती है सोम. तुम मुझे क्षमा कर दो. मैं चैन से जीना चाहती हूं.’’

‘‘चैन तो अपने कर्मों से मिलता है. मैं ने तो उसी दिन तुम्हारी और गिरीश की कंपनी छोड़ दी थी. तुम्हें सजा ही देना चाहता तो तुम पर मानहानि का मुकदमा कर के सालों अदालत में घसीटता. लेकिन उस से होता क्या. दोस्ती पर मेरा विश्वास तो कभी वापस नहीं लौटता. आज भी मैं किसी पर भरोसा नहीं कर पाता. तुम्हारी सजा पर मैं क्या कह सकता हूं. बस, इतना ही कह सकता हूं कि तुम्हें सहने की क्षमता मिले.’’

अवाक् था मैं. भैया का अकेलापन आज समझ पाया था. श्रीमती गोयल चीखचीख कर रो रही थीं.

‘‘एक बार कह दो मुझे माफ कर दिया सोम.’’

‘‘तुम्हें माफ तो मैं ने उसी पल कर दिया था. तब भी गिरीश और तुम पर तरस आया था और आज भी तुम्हारी हालत पर अफसोस हो रहा है. चलो, विजय.’’

श्रीमती गोयल रोती रहीं और हम दोनों भाई वापस गाड़ी में आ कर बैठ गए. मैं तो सकते में था ही भैया को भी काफी समय लग गया स्वयं को संभालने में. शायद भैया शोभा से प्यार करते होंगे और शोभा गिरीश को चाहती होगी, उस का प्रमोशन हो जाए इसलिए भैया से प्रेम का खेल खेला होगा, फिर बदनाम करना चाहा होगा. जरा सी तरक्की के लिए कैसा अनर्थ कर दिया शोभा ने. भैया की भावनाओं पर ऐसा प्रहार सिर्फ तरक्की के लिए. भैया की तरक्की तो नहीं रुकी. शोभा ने सदा के लिए भैया को अकेला जरूर कर दिया. कब वह दिन आएगा जब भैया किसी औरत पर फिर से विश्वास कर पाएंगे. यह क्या किया था श्रीमती गोयल आप ने मेरे भाई के साथ? काश, आप ने ऐसा न किया होता.

उस रात पहली बार मुझे ऐसा लगा, मैं बड़ा हूं और भैया मुझ से 10 साल छोटे. रो पड़े थे भैया. खाना भी खा नहीं पा रहे थे हम.

‘‘आप देख लेना भैया, एक प्यारी सी, सुंदर सी औरत जो मेरी भाभी होगी एक दिन जरूर आएगी…आप कहते हैं न कि हर कीमती राह तरसने के बाद ही मिलती है और किसी भी काम का एक निश्चित समय होता है. जो आप की थी ही नहीं वह आप की हो कैसे सकती थी. जो मेरे भाई के लायक होगी कुदरत उसे ही हमारी झोली में डालेगी. अच्छे इनसान को सदा अच्छी ही जीवनसंगिनी मिलनी चाहिए.’’

डबडबाई आंखों में ढेर सारा प्यार और अनुराग लिए भैया ने मुझे गले लगा लिया. कुछ देर हम दोनों भाई एकदूसरे के गले लगे रहे. तनिक संभले भैया और बोले, ‘‘बहुत तेज चलने वालों का यही हाल होता है. जो इनसान किसी दूसरे के सिर पर पैर रख कर आगे जाना चाहता है प्रकृति उस के पैरों के नीचे की जमीन इसी तरह खींच लेती है. मैं तुम्हें बताना ही भूल गया. कल पापा से बात हुई थी. बौबी का बहुत बड़ा एक्सीडेंट हुआ है. उस ने 2 बच्चों को कुचल कर मार दिया. खुद टूटाफूटा अस्पताल में पड़ा है और मांबाप पुलिस से घर और घर से पुलिस तक के चक्कर लगा रहे हैं. जिन के बच्चे मरे हैं वे शहर के नामी लोग हैं. फांसी से कम सजा वे होने नहीं देंगे. अब तुम्हीं बताओ, तेज चलने का क्या नतीजा निकला?’’

वास्तव में निरुत्तर हो गया मैं. भैया ने सच ही कहा था बौबी के बारे में. उस का आचरण ही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाला है. मनुष्य काफी हद तक अपनी पीड़ा के लिए स्वयं ही जिम्मेदार होता है.

दूसरे दिन कंपनी के काम से जब मुझे श्रीमती गोयल के पास जाना पड़ा तब उन का झुका चेहरा और तरल आंखें पुन: सारी कहानी दोहराने लगीं. उन की हंसी कहीं खो गई थी. शायद उन्हें मुझ से यह भी डर लग रहा होगा कि कहीं पुरानी घटना सब को सुना कर मैं उन के लिए और भी अपमान का कारण न बन जाऊं.

पहली बार लगा मैं भी भैया जैसा बन गया हूं. क्षमा कर दिया मैं ने भी श्रीमती गोयल को. बस मन में एक ही प्रश्न उभरा :

आप ने ऐसा क्यों किया श्रीमती गोयल जो आज आप को अपनी नजरें शर्म से झुकानी पड़ रही हैं. हम आज वह अनिष्ट ही क्यों करें जो कब दुख का तूफान बन कर हमारे मानसम्मान को ही निगल जाए. इनसान जब कोई अन्याय करता है तब वह यह क्यों भूल जाता है कि भविष्य में उसे इसी का हिसाब चुकाना पड़ सकता है.

काश, आप ने ऐसा न किया  होता.

बेटा- भाग 3: क्या वक्त रहते समझ पाया सोम

डाक्टर की दवाओं और सोम की देखभाल से मेरा स्वास्थ्य जल्दी ही सुधरने लगा. सोम ने इन दिनों महसूस किया कि श्याम भी दीप से नाराज और खिंचेखिंचे से रहते थे परंतु पुत्र के मोह में उन्हें श्याम ही गलत लगे थे.

एक दिन मैं दीप पर  झुं झला रही थी तो श्याम भैया भी उस की हां में हां मिला कर कुछ बोलने लगे. सोम को यह अच्छा नहीं लगा. इसलिए बीच में बात काटते हुए मेरी ओर इशारा कर के बोले, ‘तुम लोग सम झते क्यों नहीं हो? वह जवान हो गया है. अपना भलाबुरा खुद सम झता है. हर समय टोकाटाकी करना अच्छा नहीं होता,’ फिर श्याम भैया की ओर मुखातिब हो कर बोले थे, ‘श्याम, तुम्हें भी सम झना चाहिए कि यही उस के खानेखेलने की उम्र है. फिर तो आगे चल कर जिम्मेदारियों में पड़ जाएगा.’

मैं थोड़ी नाराज हो कर बोली थी, ‘आप की आंखों पर बेटे के मोह की पट्टी बंधी हुई है. आप सम झते क्यों नहीं हैं? आप का बेटा बिगड़ गया है. उस के लक्षण अच्छे नहीं हैं. उस का संगसाथ अच्छे लड़कों का नहीं है.’

सोम मुझ पर चिल्ला पड़े थे, ‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. हर समय ऊटपटांग बातें करना तुम्हारा काम है.’

मैं भी नाराज हो कर जोर से बोली थी, ‘आप ने तो कसम खा रखी है, मेरी बात न मानने की. मैं तो दिल की मरीज हूं, मर जाऊंगी. आप ही बुढ़ापे में सिर पर हाथ रख कर रोएंगे. तब मु झे और मेरी बातों को याद करेंगे.’

सोम की छुट्टियां समाप्त हो गई थीं. वे चले गए थे. ट्रांसफर करवाने की कोशिश में लगे हुए थे. सोम के जाते ही दीप अपने असली रंग में आ गया. एक दिन उस ने अलमारी से घर खर्च के रखे हुए 2 हजार रुपए निकाल लिए.

मैं ने घर में शोर मचा दिया. मैं ने दिया से, फिर दीप से भी रुपयों के बारे में पूछा. दीप ने हड़बड़ाहट में नौकरानी गुडि़या का नाम ले लिया.

सुबह का समय था, इसलिए श्याम भैया भी घर पर ही थे. उन्होंने दीप से पूछा, ‘तुम ने उसे रुपए निकालते हुए देखा था?’

‘हां, वह अलमारी के पास खड़ी हो कर अपने कुरते के अंदर कुछ छिपा रही थी.’

गुडि़या कसमें खाती रही कि उस ने रुपए नहीं लिए हैं लेकिन श्याम भैया पर क्रोध का जनून सवार था. उन्होंने उस की तलाशी ले कर बेइज्जती भी की. उस को 1-2 थप्पड़ भी जड़ दिए. पुलिस में शिकायत करने की धमकी भी दी. लेकिन रुपए उस ने लिए हों तब तो मिलें. काम करने वाली से जरूर मैं हाथ धो बैठी थी. इस बीच दीप कब छूमंतर हो गया, कोई नहीं देख पाया.

गुडि़या की अम्मा ने महल्ले में बदनामी और कर दी थी. वह चिल्लाचिल्ला कर कहती फिर रही थी, ‘बड़े लोग होंगे अपने घर के. मेरी भी कोई इज्जत है. मेहनत कर के पेट भरते हैं. दीप बाबू बिलकुल आवारा हैं. उन्होंने ही रुपए चुराए हैं. वे हमारी गुडि़या को छेड़ रहे थे, उस के शोर मचाने पर उन्होंने उस से बदला लेने के लिए उस पर चोरी का इलजाम लगा दिया. दीप तो पक्का चोर है.’

श्याम भैया तो महल्ले में किसी से आंख भी नहीं मिला पा रहे थे. मैं भी शर्म से पानीपानी हो गई थी. बेटे की नीच हरकतों के कारण मैं ज्यादातर बीमार और अकेली रहने लगी थी.

श्याम भैया ने दीप की नित्य नईनई करतूतों से परेशान हो कर आंगन के बीच में दीवार खड़ी करवा कर सोम से सारे संबंध तोड़ लिए थे. देवरदेवरानी से नाता टूटने का सदमा  झेलना मुझे बहुत भारी पड़ रहा था. घर के सारे काम मुझे अकेले ही करने पड़ते थे. अकसर मैं हांफती हुई पलंग पर लेट जाती थी. अंदर ही अंदर दिनभर घुटती रहती थी.

दीप गिरतेपड़ते बीकौम पास कर चुका था. दोस्तयारों के साथ यहांवहां घूमताफिरता और बातें लंबीलंबी करता. सोम बेटे की नौकरी के लिए फार्म भरवाते रहते, परंतु सफलता कहीं नहीं मिलती थी. वे दीप की नौकरी के लिए यहांवहां भागते रहते, सिफारिश के लिए लोगों के हाथपैर जोड़ते रहते. निराश हो कर अपने फंड के पैसे से दीप के लिए एक छोटी सी मोबाइल की दुकान भी खुलवाई. लेकिन दीप के लिए वह उस के स्टैंडर्ड की नहीं थी. 8-10 दिन से ज्यादा उस पर वह नहीं बैठा. फलस्वरूप सोम के पैसे बरबाद हो गए.

वे मन ही मन बेटे के भविष्य को ले कर निराश हो गए थे. एक ओर मेरी बीमारी और दूसरी ओर बेरोजगार बेटा. इसी बीच दिया की शादी भी आ गई थी. शादी में होने वाले खर्च को देख कर एक दिन दीप बोला, ‘फंड के सारे रुपए पापा दिया की शादी में खर्च कर दे रहे हैं, तो मेरे लिए क्या बचेगा?’

बेटे की यह बात सुनते ही मैं सकते में आ गई थी, यदि सोम को बेटे की यह बात पता चलेगी तो उन्हें कितना दुख होगा.

दीप के दोस्त अपनीअपनी नौकरी में व्यस्त हो गए थे. स्वयं दीप अपनी बेरोजगारी से तंग आ चुका था. न तो वह समय से नहाता था, न खाता था, चुपचाप अपने कमरे में लेटा हुआ टकटकी लगा कर छत को निहारता रहता.

हंसताखिलखिलाता हुआ घर उदासी और मनहूसियत के बादल के पीछे छिप सा गया था. सोम और उन के लाड़ले के बीच आपस में बोलचाल लगभग बंद सी हो गई थी.

तभी एक दिन दीप सोम से आ कर बोला, ‘पापा, यदि आप घर गिरवी रख कर कुछ रुपयों का इंतजाम कर दें तो मु झे नौकरी जरूर मिल जाएगी. एक एजेंट से मेरी बात हुई है, उस ने मु झे बताया है कि 3 लाख रुपए लगेंगे, उस के एवज में स्थायी नौकरी दिलवाने का वादा किया है.’

‘देखो दीप, तुम किसी ठग के चक्कर में मत पड़ना. कुछ धोखेबाज लोगों का यही धंधा है कि वे जवान लड़कों को बहलाफुसला कर उन्हें बड़ेबड़े ख्वाब दिखा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.’

दीप क्रोधित हो कर चिल्ला उठा था, ‘पापा, आप तो मेरा जीवन बरबाद कर के छोडि़एगा. आप मेरे बाप हैं कि दुश्मन.’

यह सुन कर मैं चुप नहीं रह पाई और बोल पड़ी, ‘दीप, पापा से इस तरह बात करते हो.’

‘बुढि़या, तुम तो चुप ही रहो. खांसखांस कर जीना हराम कर रखा है.’

सोम ने तमक कर हाथ उठा लिया था. मैं ने  झट से उन का हाथ पकड़ लिया था, ‘यह क्या कर रहे हो?’

‘मारो, मारो, और क्या कर सकते हो. तुम दोनों ने मेरे लिए किया ही क्या है? न तो अच्छे स्कूल में पढ़ाया. न डोनेशन दे कर इंजीनियर बनाया. कौमर्स में ऐडमिशन करवा के कहीं का नहीं छोड़ा. बस, पैदा कर के छोड़ दिया. मेरी बेकारी के लिए तुम ही जिम्मेदार हो. तुम यह घर और बुढि़या तुम अपने जेवर ले कर चाटो. मु झे बेकार देख कर तुम बहुत खुश हो रही होगी न. एक दिन रेल की पटरी पर जा कर सो जाऊंगा तो घी के दीपक जलाना.’

सोम और मेरे लिए यह सब अप्रत्याशित था. रोंआसी आवाज में सोम बोले थे, ‘दीप, इतने नाराज न हो, बेटा. मैं अपने औफिस में तुम्हारी नौकरी की जुगाड़ में जीजान से लगा हुआ हूं. बड़े साहब से बात भी हो गई है. उन्होंने कहा है कि अभी अस्थायी पद होगा. यदि ठीक से काम करेगा तो स्थायी कर दिया जाएगा.’

‘रहने दो एहसान करने को. खबरदार, जो मेरे लिए किसी से बात की. मैं घर छोड़ कर कहीं चला जाऊंगा. दोनों चैन से रहना.’

मृगतृष्णा- भाग 3: मंजरी ने क्या किया जीजाजी की सच्चाई जानकर

सच में मृदुला का फोन बंद आ रहा था और राजन का भी. कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं? मां की घबराहट देख कर मैं ने उस के घर जाने का मन बना लिया, ‘‘मां, मैं उस के घर जा कर देखती हूं, आप चिंता मत करो.’’

लेकिन अब मुझे भी घबराहट होने लगी थी, क्योंकि फिर मैं ने उसे कई बार फोन लगाया, पर बंद ही मिलता. किशोर को जब मैं ने सारी बात बताई, तो कहने लगे कि मैं चिंता न करूं. चल कर देखते हैं.

‘‘पर आप का औफिस?’’ जब मैं ने पूछा, तो किशोर बोले कि वे मुझे मृदुला के घर छोड़ कर उधर से ही औफिस निकल जाएंगे और आते वक्त लेते आएंगे.

‘‘हां, यह सही रहेगा,’’ मैं बोली.

वहां पहुंचने पर जो मैं ने देखा, उसे देख स्तब्ध रह गई. मृदुला बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी और उस के शरीर पर जगहजगह चोट के निशान थे. चेहरा भी नीला पड़ गया था.

बहन को इस हालत में देख कर मेरी आंखें भर आईं, ‘‘मृदुला, ये सब क्या हुआ? ये चोटें कैसे और राजन जीजाजी कहां हैं?’’ मैं ने पूछा.

वह रो पड़ी. फिर जो बताया उसे सुन कर मुझे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था.

उस ने रोतेरोते बताया, ‘‘अगर मेरा पति बदसूरत होता, गरीब होता, लेकिन अगर वह मुझे प्यार करता, तो मैं खुद को दुनिया की सब से खुशहाल औरत समझती. मगर राजन का सुंदर होना मेरे लिए अभिशाप बन गया…

‘‘रोज नईनई लड़कियों के साथ रातें बीतती हैं. उन पर दिल खोल कर पैसे लुटाते

हैं. कभीकभी तो लड़की को घर भी ले आते हैं और जब मैं कुछ बोलती हूं तो उस के सामने ही मुझ पर थप्पड़ बरसाने लगते हैं. वह तो अच्छा है कि बच्चे होस्टल में रहते हैं, नहीं तो उन पर क्या असर पड़ता राजन की हरकतों का? जब से ब्याह हुआ है, एक दिन भी ऐसा नहीं गया, जब राजन ने मेरे रूपरंग को ले कर ताने न कसे हों.

‘‘कहते हैं कि उन्हें तो गोरी लड़की चाहिए थी… कैसे कालीकलूटी उन के मत्थे मढ़ दी गई… जानती है मंजरी, हमारा फोटो देख कर राजन को लगा था, उन की शादी तुम्हारे साथ होने वाली है, इसलिए उन्होंने शादी के लिए हां बोल दी थी. लेकिन जब पत्नी के रूप में मुझे देखा, तो आगबबूला हो गए. पतिपत्नी के बीच की बात है, यह सोच कर अब परिवार वालों ने भी मेरा पक्ष लेना छोड़ दिया. लेकिन समाज में अपनी इज्जत के डर के कारण वे मुझे ढो रहे हैं. कहने को तो मैं उन के साथ गोवा, मलयेशिया घूमती हूं, पर वहां होती तो उन के साथ उन की मासूका ही. मैं तो बस पिछली सीट पर बैठे तमाशा देखती हूं.’’

राजन के जो सारे दोष आज तक दबेढके थे उन सभी को मृदुला 1-1 कर मेरे सामने खोलने लगी. आज तक मैं किशोर को संकीर्ण विचारों वाला और खराब इंसान समझती थी, लेकिन आज मुझे पता चला कि किशोर कितने अच्छे और सच्चे इंसान हैं.

एक लंबी सांस छोड़ते हुए फिर मृदुला कहने लगी, ‘‘जरा भी चिंता नहीं है उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की. मौजमस्ती में सारे पैसे लुटा रहे हैं. 2 महीनों से मकान का किराया बाकी है. मकानमालिक झिड़क जाता है. कहता है कि आप का मुंह देख कर चुप रह जाता हूं. बहन मानता है वह मुझे. लेकिन घोड़ा कब तक घास से दोस्ती कर सकता है मंजरी? अगर मकानमालिक ने निकाल दिया तो हम कहां जाएंगे? सही कहती हूं, तुम्हारे पति के पैर के धोवन भी नहीं हैं राजन. वे तुम सब के लिए कितना सोचते हैं, देखती नहीं क्या मैं. एकदम सीधेसच्चे इंसान.’’

विश्वास नहीं हो रहा था कि मृदुला जो कह रही है वह सच है. जिस इंसान के लिए मेरे दिल में ढेरों सम्मान था, वह एक पल में खत्म हो गया. कितना अच्छा इंसान समझती थी मैं राजन को. सोचने लगी थी कि काश, इस से मेरा ब्याह हो गया होता तो मैं कितनी सुखी होती. लेकिन मैं कितनी गलत थी. खुद को कोसती रहती थी यह कह कर कि क्यों मेरा किशोर जैसे इंसान से पाला पड़ा. मगर आज उसी किशोर पर मुझे नाज हो रहा है. दिखाते नहीं, पर मुझे प्यार बहुत करते हैं. यह मुझे अब समझ आया.

‘‘लेकिन तुम ये सब क्यों सहती रही अकेली? बताया क्यों नहीं हमें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तो क्या करती और क्या बताती तुम सब से? क्या हालत बदल देते तुम सब? तुम्हें हमेशा लगता था न मंजरी कि मैं बहुत सुखी हूं, तेरे इसी भ्रम को मैं जिंदा रखना चाहती थी. दिखाना चाहती थी उन लोगों को, जो कहते थे, इस कलूटी को कौन पूछेगा. झूठा ही सही, पर लोग तो सही मान रहे हैं न कि मैं बहुत सुखी हूं और मेरे पति मुझे बहुत प्यार करते हैं. मांपापा भी खुश हैं, तो रहने दो. मैं अपना दुख सुन कर उन्हें जीतेजी मौत के मुंह में नहीं धकेलना चाहती. इसलिए जो जैसा चल रहा चलने दे… तू यह बात कभी अपने मुंह से मत निकालना वरना तू मेरा मरा मुंह देखेगी.’’

अब जब उस ने इतनी बड़ी धमकी दे दी, तो फिर कैसे किसी से मैं कुछ कहती. लेकिन लगा, क्या सोचती रही थी मैं मृदुला के बारे में और क्या निकला. शाम को किशोर आ कर मुझे ले गए. रातभर मैं मृदुला के बारे में ही सोचसोच कर रोती रही. मेरा सूजा चेहरा देख कर किशोर को यही लगा कि मैं मृदुला की तबीयत को ले कर परेशान हूं, पर बात तो उस से भी बढ़ कर थी, पर बता नहीं सकती थी किसी को.

सुबह उठ कर रोज की तरह मैं ने एक तरफ चाय और दूसरी तरफ सब्जी बनाने

को कड़ाही चढ़ाई ही था कि पीछे से किशोर ने मुझे अपनी बांहों में घेर लिया और पूछा, ‘‘क्या बना रही हो?’’

‘‘नाश्ता और क्या,’’ मैं ने कहा.

‘‘मत बनाओ.’’

‘‘पर क्यों, मैं ने प्रश्नवाचक नजरों से देखा.’’

ये कहने लगे, ‘‘आज छुट्टी ली है ‘केसरी’ फिल्म देखने चलेंगे.’’

‘‘ज्यादा बातें न बनाओ. कल तक तो तुम्हें फिल्में अच्छी नहीं लगती थीं, फिर आज कैसे…’’

वे मेरे मुंह पर हाथ रख कर बोले, ‘‘तुम्हें अच्छी लगती हैं न अक्षय कुमार की फिल्में? और मुझे तुम,’’ मुसकराते हुए किशोर बोले.

मगर मैं मुंह बनाते हुए बोली, ‘‘अगर छुट्टी ले रखी थी, तो पहले बता देते, जरा देर और सो लेती. बेकार में जल्दी उठना पड़ा.’’

‘‘अच्छा, छोड़ो ये सब. यह बताओ, हमारी शादी की सालगिरह आने वाली है. कहां चलना है सैलिब्रेट करने? किशोर ने पूछा.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब कि गोवा चलें?’’ मेरे गाल पर चुंबन देते हुए किशोर बोले, तो मेरा मन गुदगुदा गया, ‘‘नहीं, कोई जरूरत नहीं फुजूलखर्ची करने की. गांव चलेंगे मांपिता का आशीर्वाद भी मिल जाएगा,’’ कह कर मैं अपनी भी चाय ले कर बालकनी में आ गई और चुसकियां लेने लगी.

पहले कभी सुबह इतनी सुहानी नहीं लगी थी जितनी आज लग रही थी. सोचने लगी, सबकुछ तो है मेरे पास. प्यार करने वाला पति, 2 प्यारेप्यारे बच्चे, अपना घर, जरूरत के सारे सुख. तो फिर किस मृगतृष्णा के पीछे भाग रही थी मैं? देखा, तो किशोर मुझे ही निहार रहे थे. जब मेरी नजरें उन से मिलीं, तो वे मुसकरा पड़े और मैं भी.

सैलिब्रेशन- भाग 3: क्या सही था रसिका का प्यार

कालेज में आने के बाद मान्या की समझ में आ गया कि रोने से कुछ नहीं होगा. अब उसे बिंदास हो कर जीना होगा.

मान्या को कुकिंग का शौक हो गया था. एक दिन खाने के शौकीन वैभव अंकल के लिए यूट्यूब पर देख कर मलाईकोफ्ते बनाए. अंकल ने खुश हो कर उस की जरूरत को समझते हुए उसे स्कूटी दिलवा दी.

वैभव ने उसे अपना एटीएम कार्ड भी दे दिया. अब तो उस के पंख निकल आए थे. कालेज कैंटीन और लड़कों के साथ दोस्ती के कारण उस का तो लाइफस्टाइल ही बदल गया था. एटीएम कार्ड से औनलाइन शौपिंग, फैशनेबल ड्रैसेज, नएनए हेयर कट में उस की दुनिया बदल गई.

वैभव को खुश रखने में उस का फायदा था. इसलिए वह उस के लिए हर संडे

कुछ स्पैशल बनाती और वह प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर अपने पास बैठा लेता और फिर खुश हो कर खाता. लेकिन मां को यह पसंद नहीं आता.

वह उसे कोई काम बता कर वहां से उठा देती.

कालेज में ढेरों दोस्त बन गए थे. वह सब को कैफेटेरिया में अकसर ट्रीट देती. उस की कुंठा पैसों के रास्ते बह गई थी.

वंश की बड़ी सी गाड़ी और उस के आकर्षक व्यक्तित्व में वह खो गई. उस का फाइनल ईयर था.

उधर काव्या इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने बैंगलुरु चली गई थी.

अब मान्या वैभव का काम आगे बढ़ कर देती. फिर चाहे वह सुबह की बैड टी हो या ब्रेकफास्ट. वह प्यार से उसे अपनी बांहों में भर लेता. रसिका ये सब देख कर सुलग उठती. लेकिन वैभव के सामने कुछ बोल नहीं पाती. दोनों के बीच वैभव का काम करने के लिए कंपीटिशन सा रहता.

रसिका मान्या को घूर कर देखती और फिर बोलती, ‘‘क्यों, किचन में घुसी रहती है? अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. काम करने के लिए विमला है तो?’’

मान्या वैभव की प्लेट में प्यार से पिज्जा रखते हुए बोली, ‘‘अंकल खा कर बताइए कैसा बना है? मैं ने यूट्यूब से देख कर टौपिंग करी है.’’

पिज्जा का एक टुकड़ा खुद खाने से पहले वैभव ने मान्या को खिलाया. फिर रसिका की घूरती आंखों से डर कर उस के मुंह में भी रखा और फिर खुश हो कर बोला, ‘‘लाजवाब, वैरी टेस्टी. मान्या कमाल है.’’

जबकि रसिका को पिज्जा स्वादहीन लग रहा था.

कुछ दिनों से रसिका देख रही थी कि वैभव औफिस में रोशनी को अपने कैबिन में बारबार बुलाता था कई बार उस ने झांक कर भी देखा. दोनों ठहाके लगाते हुए कौफी की चुसकियां ले रहे होते.

रसिका ने महसूस किया कि वैभव उस के हाथ से फिसलता जा रहा है. एक क्षण को उस के हाथपैर ठंडे हो गए. अब वह हैरानपरेशान रहने लगी थी. डिप्रैशन होने लगता था… आत्मविश्वास कम होता जा रहा था.

उन की मेड विमला अपने गुरूजी की महिमा का दिनभर बखान करती थी.

रसिका पति से तलाक लेने के बाद उसे पूरी तरह भूल चुका थी, क्योंकि वैभव ने उस के जीवन में रंग भर दिए थे. उसे पति जैसा ही सहारा मिल गया था.

रसिका ने जीजान से वैभव को खुश करने के लिए, उस के बेटे को भी अपने पास रखा, उसे पढ़ायालिखाया, उस की सारी सुखसुविधाओं का खयाल रखा. बीमार पड़ने पर पूरी देखभाल की. फिर भी वैभव उस से निगाहें फेर कर कभी रोशनी, तो कभी पूर्वा को प्यार भरी निगाहों से देखते हुए कौफी पीता, लौंग ड्राइव पर जाता है. रसिका के लिए ये सब जीतेजी मरने वाली बात हो गई थी, इसलिए वह गुरू की शरण में जाने के बारे में बारबार सोचती रहती.

विमला अपनी मालकिन से संवेदना रखती थी. वह उस की कशमकश को देखसमझ रही थी.

रोजरोज उस का महिमामंडन सुनतेसुनते वह विमला के साथ उस के

गुरू के पास जाने को तैयार हो गई.

विमला अपनी मालकिन को अपने गुरू के पास ले जाने से पहले ही उस की पूरी कहानी सुना चुकी थी.

गुरू ने विमला को आशीर्वाद दिया था कि इस साल यकीनन उस के बेटा पैदा होगा. वह खुशी से कल्पनालोक में बेटे को गोद में खिलाती हुई महसूस कर रही थी.

रसिका के पहुंचने की खबर मिलते ही गुरू ने आंखें बंद कर ध्यान में लीन होने का नाटक किया.

आधे घंटे के इंतजार के बाद रसिका को अंदर बुलाया गया. वह कुछ कहती, उस से पहले ही गुरू ने उस की जन्मपत्रिका पढ़ कर सुना डाली.

गुरूजी पर अंधभक्ति के लिए उस का एक नाटक ही काफी था. रसिका की आंखों से धाराप्रवाह अश्रु बह निकले थे और उस ने आगे बढ़ कर गुरू के चरणों पर झुकना चाहा.

‘‘नहीं… नहीं… बेटी मेरा ब्रह्मचर्य मत भंग करो. मैं तो बालब्रह्मचारी हूं. मैं तो इस दुनिया में लोगों को कष्ट और संकट दूर करने के लिए ही आया हूं.

‘‘मैं तो हिमालय की कंदरा में जाने कितने बरसों से तपस्या करता रहा हूं. न ही मेरा कोई नाम है, न ही मुझे अपने जन्म का पता है.’’

रसिका नतमस्तक थी. बोली, ‘‘गुरूजी, अब आप ही मुझे बचाइए… वैभव दूसरी स्त्री के चक्कर में न पड़े.’’

‘‘बच्चा, मैं ने दिव्य दृष्टि से देख लिया है. वह रोशनी तुम्हारी जिंदगी में अंधेरा करना चाहती है.

‘‘यह भभूत ले जाओ… वैभव को खिलाती रहना. वह रोशनी की ओर अपनी नजरें भी नहीं उठाएगा.’’

रसिका खुशीखुशी क्व4 हजार का नोट उस के चरणों में रख कर ऐसा महसूस कर रही थी जैसे सारा जहां उस की मुट्ठी में आ गया हो.

फिर तो कभी कलावा, कभी ताबीज तो कभी हवनपूजा. धीरेधीरे उस का विश्वास गुरूजी पर बढ़ता गया क्योंकि रोशनी यह कंपनी छोड़ दूसरी में चली गई थी और वैभव फिर से उस के पास लौट आया था.

रसिका खुश हो कर गुरू की सेवा में अपनी तनख्वाह का 40वां भाग तो निश्चित रूप से देने लगी थी. उस के अतिरिक्त समयसमय पर अलग से चढ़ावा चढ़ाती.

रसिका अपना भविष्य सुधारने में व्यस्त थी. उधर बेटी मान्या और वंश की दोस्ती प्यार में बदल गई थी.

वंश रईस परिवार का इकलौता चिराग था. वह रंगबिरंगी तितलियों की खोज में रहता था. वह देखने में स्मार्ट था. उस के पिता का लंबाचौड़ा डायमंड का बिजनैस था. कनाट प्लेस में बड़ा शोरूम था. इसलिए उस के डिगरी का कोई खास माने नहीं था. कालेज तो लिए मौजमस्ती की जगह थी. वह फाइनल ईयर में थी और कैंपस भी हो गया था.

माधवीलता खुश हैं: क्या मिनी के लिए सही था वह रिश्ता

बहुत देर से ऐसी अस्तव्यस्त गतिविधियों को देख रही हूं. वे शीशे की मेज पर पेपरवेट नचा रही हैं. कभी पिनकुशन से पिन निकाल कर नाखूनों का मैल साफ करती हैं. अब नाखून ही कुतरना शुरू कर दिया. हैरानी होती है. होनी ठीक भी है. कोई और ऐसे करे तो समझ भी आए. ये सब बातें कोई संसार का 8वां आश्चर्य नहीं. अकसर लोग करते हैं. पर माधवीलता ऐसा करेंगी, यह नहीं सोचा जा सकता. फिर जब उन्होंने शून्य में ताकते हुए उंगली नाक में डाल कर घुमानी शुरू की तो सचमुच हैरानी अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई. ऐसी असभ्य, अशिष्ट हरकत माधवीलता तो कतई नहीं कर सकतीं.

माधवीलता हमारे कार्यालय में निदेशिका हैं. सुशिक्षित, उच्च अधिकारी. पति भी भारत सरकार में उच्चाधिकारी हैं. सुखी, संपन्न, सद्गृहस्थ. अब उम्र हो चली है, पर अभी खंडहर नहीं हुईं. उम्र 50-52 के करीब. बालों में सफेदी की झलक है, जिसे उन्होंने काला करने की कोशिश नहीं की. वे सुंदर हैं. अच्छी कदकाठी की हैं. पहननेओढ़ने का सलीका है उन में.

वे माथे पर बिंदी सजाती हैं. मांग में सिंदूर की हलकी सी छुअन. कार स्वयं चला कर आती हैं. 2 बच्चे हैं. बेटा आईपीएस में चुना गया है और आजकल प्रशिक्षण पर है. बेटी की हाल ही में  धनीमानी व्यापारी परिवार में शादी की है. लड़का इकलौता है. उस के मांबाप अशिक्षित, आढ़तिए नहीं हैं, खूब पढ़ेलिखे हैं.

व्यापारी वर्ग के लोग भी अब जब बहू की तलाश करते हैं तो सुंदर, सुशील, कौनवैंट में पढ़ी, भले घर की कन्या चाहते हैं. व्यापारी घराने की न हो तो उच्च अधिकारी परिवार की कन्या की जोड़ी भी ठीक मानी जाती है. शायद सोचते होंगे कि सरकारी अधिकारी रिश्तेदार हो तो शायद कुछ न कुछ सरकारी काम निकाल सकें.

सरकारी अधिकारी सोचते हैं कि नौकरीपेशा क्यों, मिल सके तो व्यापारी परिवार बेटी को मिले. नौकरी में रखा क्या है. हमेशा पैसों की किल्लत. मन का खर्च कर सको, मन का खापी सको, ऐसा कम ही होता है.

‘‘पैसे तो बस इतने ही होने चाहिए कि न खर्च करने से पहले सोचना पड़े और न पर्स के पैसे गिनने पड़ें,’’ माधवीलता ने अपनी बेटी की बात सुनाई थी.

मौका था उन की बेटी की सगाई की पार्टी का. वे बेटी की इच्छा को पूरा कर पा रही हैं, ऐसा संतोष आवाज से छलक रहा था. सचमुच सफलता की चमक होती ही कुछ और है, कहनी नहीं पड़ती, खुदबखुद बोलती है. उन की बेटी की शादी के मौके पर ही पहली बार पंचतारा होटल अंदर से देखने का सुअवसर मिला था. क्या शान, क्या ठाटबाट, क्या कहने.

जो गया सो ‘वाहवाह’ करता लौटा. इसे कहते हैं खानदानी आदमी. ‘फलों से लदे वृक्ष खुदबखुद झुक जाते हैं.’ होगा मुहावरा, माधवीलता के रूप में हम ने उन्हें इंसानी रूप धारण करते देखा है. शील, शिष्टाचार, सौंदर्य, संपन्नता, शोभा, सुखसंतोष आदि का अर्थ क्या होता है, वही माधवीलता के चेहरे पर वर्षों से देखा है.

वही माधवीलता आज अनमनी सी बैठी उंगली से नाक साफ कर रही हैं. अपनेआप होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदा रही हैं.

माधवीलता अपनेआप से खफा मालूम पड़ती हैं. कभी तो न ऐसे चिड़चिड़ाती थीं, न ऐसी अशिष्ट हरकतें करती थीं. क्या हुआ? प्रत्यक्षतया कोई कारण दिखाई न दे रहा था. हमेशा की मृदुभाषिणी, सुभाषिणी माधवीलता का ऐसा आचरण?

रहस्य ज्यादा दिन रहस्य न रहा. आदमी की फितरत ही ऐसी है कि न सुख पी सकता है अकेले, न दुख. दोनों में ही कहने को अपना साथी तलाश करता है. घरबाहर की अपनी बातें आमतौर पर वे करती नहीं हैं, पर उस दिन माधवीलता ने स्वयं बुला भेजा. दोचार इधरउधर की बातें हुईं, फिर बोलीं, ‘‘दिल्ली में अच्छा मनोचिकित्सक बताइए कोई.’’

मैं ने 5-6 नाम सुझाए. बात साफ न हुई. मन में खटक गया कि अंदर कुछ और तूफान है. बेटी को ले कर कुछ परेशानी हो सकती है. लेकिन कहें कैसे. बेटी की बात, मुंह से निकली और पराई हुई.

पूछने की जरूरत न हुई. 3-4 दिन बाद फिर बुला भेजा. ज्यादा उद्वेलित दिखीं. बोलीं, ‘‘दांपत्य असमंजस्य पर आप का भी तो बहुत काम है, आप ने शायद कुछ कार्यक्रम भी किए हैं…’’

‘‘जी, कार्यक्रम भी किए हैं और एक किताब भी छपी है.’’

फिर वे गोलगोल बात न कर थोड़ी ही देर में खुल गईं. शक साफ था. बात उन की विवाहित बेटी की उलझन को ले कर ही निकली. पता चला कि दामाद बेटी की नहीं सुनता, मां का आज्ञाकारी पुत्र है. मांबाप और बेटा तीनों ही लड़की को तंग करते हैं.

हमारा फर्ज था कि लड़की को भरपूर सहानुभूति दें और आजकल जैसे दुलहनों को दहेज के लिए सताया जा रहा है, उस पर अपने सुनेदेखे किस्से भी सुना दिए जाएं. पर क्या ऐसे किस्सों का पठनपाठन किसी के घर को बसा सकता है?

‘‘पुलिस में रिपोर्ट करें?’’ उन्होंने सलाह चाही.

‘‘थाने, कचहरी से घर नहीं बसते,’’ मैं जानती थी कि उन्हें सलाह नहीं, सहायता की आवश्यकता है. किंतु सलाह हमेशा सही देनी चाहिए.

मैं ने अपनी सहायता स्पष्ट की और फिर पूछा, ‘‘क्या आप ने विश्लेषण किया है कि वे बेटी को तंग क्यों कर रहे हैं?’’

‘‘वे हैं ही बुरे. गलत जगह रिश्ता हो गया,’’ वे दोटूक फैसला दे बैठीं.

‘‘बुरे होते तो आप उन्हें पसंद ही क्यों करतीं. अपनी प्यारीदुलारी बेटी को गलत जगह आप ने दिया ही क्यों होता? आइए, सोचें कि गलती क्या है. हो सकता है, कोई गलती न हो, सिर्फ गलतफहमी ही हो,’’ मैं ने उन्हें स्थिति पर साफसाफ सोचने पर आमंत्रित किया.

वे बहुत अनमनी सी मानीं, ‘‘दरअसल, वह मिन्नी को कुछ समझता नहीं. जो कुछ है, उस की मां है. वह जो कहती है, चाहती है, वही होता है.’’

‘‘घर उस का है.’’

‘‘घर मिन्नी का भी तो है.’’

‘‘उस का है. मिन्नी को बनाना है. ऐसा तो है नहीं कि बेटी इधर डोली से उतरी, उधर घर की चाबी सास ने उस के हवाले की. ऐसा तो सिर्फ सिनेमा में होता है. घर बनता है आपसी प्यार से, सद्भाव से, अधिकार से नहीं. सद्भावना अर्जित करनी पड़ती है, कहीं से अनुदान में नहीं मिलती.’’

‘‘ये सब मिन्नी की ससुराल वाले नहीं समझते.’’

‘‘यह ससुराल वालों को नहीं, मिन्नी को समझना है.’’

‘‘आप का मतलब है कि उन लोगों के साथ एडजस्ट करने के लिए मिन्नी खुद को मिट्टी में मिला ले?’’ उन के चेहरे पर साफसाफ नाराजगी दिखी.

मैं ने सोचा, ‘अपनी सलाह की गठरी बांध कर चुपचाप उठ जाऊं. मैं क्यों बेवजह माधवीलता की नाराजगी मोल लूं. उन की बेटी है, वे उस के बारे में जो सोचें. शायद ऐसा ही कुछ उन्होंने सोचा होगा कि ये क्यों मुख्तार बन रही हैं.’

बात वहीं थमी. शायद 20-25 दिन बीते होंगे. फुरसत के क्षणों में मैं ने पूछा, ‘‘मिन्नी कैसी है?’’

‘‘हम उसे ले आए हैं. वहां तो वे लोग उसे मार ही देते.’’

‘‘आप ने फैसला कुछ जल्दी में नहीं किया?’’

‘‘नहीं, बहुत सोचसमझ कर किया है.’’

‘‘क्या सोचा? मिन्नी का क्या करोगे?’’

‘‘हम तलाक का केस दायर करेंगे. इन लोगों से पीछा छूटे तो फिर दूसरी जगह बात चलाएंगे.’’

‘‘मिन्नी से पूछा?’’

‘‘उस से क्या पूछना. वह तो बहुत परेशान है. उस की हालत देख कर मुझे बहुत दुख होता है.’’

सुन कर दुख तो मुझे भी हुआ. पर लगा, हाथ पर हाथ धर कर बैठना भी ठीक नहीं. यह कोई तमाशा नहीं कि दूर बैठे ताकते रहो.

एक समारोह में अचानक मिन्नी से  भेंट हो गई. उतरा चेहरा, सूनी

मांग, सूना माथा, सूनी आंखें… देख कर धक्का सा लगा. ब्याह के दिन कैसी सुंदर लगी थी. कुछ लड़कियों पर रूप चढ़ता भी बहुत है. अब वही लुटे शृंगार सी खड़ी थी. कंधे पर पत्रकारों वाला झोला लटक रहा था.

‘‘क्या कर रही हो आजकल?’’ मैं ने सहज भाव से पूछा.

‘‘स्वतंत्र पत्रकारिता,’’ उस का संक्षिप्त उत्तर था. माधवीलता की कही बात फिर याद हो आई, ‘पर्स में पैसे गिनने न पड़ें, खर्च करने से पहले सोचना न पड़े,’ यह इसी मिन्नी की इच्छा थी. जब वही मिला जो चाहा था तो फिर गड़बड़ कहां हुई?

संयोग से मिन्नी से छिटपुट मुलाकातें होती रहीं. लड़की टूटी सी मालूम होती थी. वह दृढ़ता न दिखाती जो ऐसा कड़ा निर्णय लेने के बाद चेहरे पर होनी चाहिए थी. पता नहीं, शायद कुछ तार कांपते थे जो टूटने से रह गए थे. मैं उस की सखी नहीं, उस की मां की सखी नहीं, उस की ताईचाची नहीं, फिर किस हक से पूछूं.

‘‘क्या कुछ हो रहा है?’’ आखिर एक दिन पूछ ही बैठी.

‘‘किस बारे में?’’

‘‘केस के संबंध में,’’ सहज भाव से कहा.

लड़की हतप्रभ. मां ने दफ्तर में बताया होगा, यह नहीं समझ सकी. झट से पूछा, ‘‘उन्होंने कहा आप से?’’

‘‘हां,’’ मैं जानती थी कि यह सच न था. पर मैं ने माना कि ‘उन्होंने’ का अर्थ मेरे लिए माधवीलता हैं और उस के लिए उस  का पति. उस ने चेहरे पर उत्सुकता छिपाई नहीं, सरलता से बोली, ‘‘मिले थे वे?’’

रेखांकित करने को इतना ही काफी था कि मन में कहीं कोई आकर्षण शेष है, वरना कहा होता, ‘मिला था क्या?’

मैं ने उसे कौफी के लिए आमंत्रित किया तो वह मना न कर सकी. मैं उस के ‘मिले थे’ वाले सूत्र को पकड़े बैठी थी. वहीं से कुरेदा. लड़की अपनी रौ में बोलती गई, ‘‘बहुत खराब लोग हैं. पता नहीं कैसे पढ़ेलिखे जानवर हैं. उन्होंने मेरा जीना दूभर कर दिया है.’’

‘‘क्या उस घर में सभी तुम से बुरा व्यवहार करते हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘अच्छा चलो, सोचें कि क्या बुरा बरताव करते हैं?’’

‘‘मैं आप को बता ही नहीं सकती. कल्पना ही नहीं की जा सकती. वे लोग एकदम आदिमकाल के हैं. औरतों को कुछ समझते ही नहीं. वे समझते हैं कि औरतें सिर्फ उन की जिंदगी को आसान बनाने के लिए हैं. उन को अपनेआप कुछ सोचनासमझना नहीं चाहिए, उन्हें देखने के लिए उन की आंखें इस्तेमाल करनी चाहिए, सुनने के लिए उन के कान. उस को उन की मरजी के बिना कुछ नहीं करना चाहिए.’’

‘‘कुछ ठोस बात? ये तो सब बड़ी अस्पष्ट सी बातें हैं. ऐसा तो आम हिंदुस्तानी घरों में होता ही है. शादी से पहले भी तो सारे फैसले पिता करते हैं, बाद में पति को यह अधिकार मिल जाता है.’’

‘‘आप इसे कम समझती हैं? क्या औरत होने का मतलब मन, कर्म और वचन के स्वातंत्र्य को पति के चरणों में समर्पित कर निरे शून्य में बदल जाना ही है? मिट्टी में मिल जाएं?’’ उस का गोरा चेहरा लाल हो गया.

मैं ने उसे समझाया, ‘‘अगर बीज अपने बीजत्व को ही संभाले रहे तो भरेपूरे वृक्ष का विस्तार कभी नहीं पा सकता. अगर अपने अंदर समाए उस विस्तार का एहसास है तो बीज का स्वरूप भी बदलना ही होता है. उसे मिट्टी में मिलना कहो या विस्तार पाना, मरजी तुम्हारी है.’’

पहले वह झिझकी. फिर बोली, ‘‘अगर मिट्टी में ही मिलना था तो फिर इस पढ़ाईलिखाई का मतलब क्या हुआ?’’

‘‘आम पढ़ीलिखी प्रतिभाशाली कन्याओं के सपनों में एक ऐसा घर बसा होता है जिस में रांझा, फरहाद या मजनूं से भी अधिक प्रेम करने वाला पति होता है, जिस का काम केवल प्यार करना है. वह कमाता है, धनी है, सुंदर है, शिष्ट है और शक्तिशाली भी है. सपनों में कोई लड़नेझगड़ने वाला, कुरूप, दुर्बल, कायर, व्यसनी व्यक्ति को तो नहीं देखता.

‘‘लेकिन जिंदगी सपनों से नहीं चलती. सच तो यह है कि संपूर्ण कोई नहीं होता. अगर पति में कमियां हैं तो कमियां पत्नी में भी हो सकती हैं, बल्कि होती हैं. उन की ओर कोई लड़की नहीं देखती. लड़की ही क्यों, कोई भी नहीं देखता. सपनों के इस घर में केवल एक पति, पत्नी और बस.

‘‘हां, कल्पना के शिशु जरूर होते हैं, लेकिन गोरे, गुदकारे, हंसते हुए. बच्चे रोते हैं, बीमार होते हैं, यह तो नहीं सोचा जाता. सपनों का महल होता है, जिस में शहजादा होता है और वह बालिका उस की रानी होती है. क्या इस घर में एक सासससुर, देवरजेठ, ननद, देवरानी, जेठानी होती हैं? जी नहीं, सपनों में खलनायिकाओं का क्या काम?

‘‘जिंदगी में ये सब होते हैं, अपने समस्त मानवीय गुणों और अवगुणों के साथ. संगसाथ रहने का मतलब यह है कि दूसरों के गुणों को बढ़ा कर देखा जाए और अवगुणों को नजरअंदाज किया जाए.’’

‘‘फिर सारी पढ़ाईलिखाई का मतलब?’’ मिन्नी बोली.

‘‘पढ़ाईलिखाई का मतलब यह है कि वह आप के व्यक्तित्व को कितना निखारती है. डिगरी का मतलब रास्ते का रोड़ा बनना नहीं, पथ को सुगम बनाना है. कितने बेहतर ढंग से आप चीजों को सुलझा सकती हैं…न कि आप डिगरी ले कर खुद अपने अहंकार में ऐसे कैद हो जाएं कि दूसरों को कम आंकना शुरू कर दें. जिन में सौ अवगुण हैं उन का एक गुण याद करने की कोशिश करो. हो सकता है उस में 99 अवगुण हों, लेकिन एक तो गुण होगा?’’

वह चुप रह गई. मैं ने फिर कुरेदा. उस के होंठ कुछ कहने को फड़के, पर शायद शब्द न मिले. मैं ने पकड़ने को तिनका सा दिया, ‘‘वे लोग तुम्हें प्यार करते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘वे लोग तुम्हें पसंद करते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘करते थे, न करते होते तो अपने प्यारे बेटे का ब्याह तुम से क्यों करते?’’

सचमुच उस के पास जवाब न था.

‘‘पति प्यार करता है?’’ मैं ने पूछा.

उस ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘कभी किसी दिन…?’’

मिन्नी की पलकें न उठीं. सचमुच सही नब्ज पकड़ी थी. कितना ही बुरा आदमी हो, एक क्षण को कभी तो अच्छा होता है. सीधे म्यान से तलवार निकाल कर कोई विवाह मंडप में नहीं पहुंचता. चीजें धीरेधीरे बिगड़ती हैं. अपनी नासमझी से उन्हें और बिगाड़ते हैं, लड़की के मातापिता अपनी बेटी के प्यार में और लड़के के मातापिता अपने बेटे के प्यार में.

हर कोई गिरह पर हाथ रखता है, सिरा कोई नहीं देता. स्नेह की डोर है कि उलझती चली जाती है. ज्यादा उलझी हो तो सुलझाने का समय और सब्र कम पड़ जाता है. ताकत से वह तोड़ी जाती है और तोड़ कर वहीं जोड़ो या कहीं और, गांठ तो पड़ती ही है.

मिन्नी की पलकें झुकी थीं. यादों में प्यार का कोई क्षण तो रहा होगा ही. लेकिन कैसे माने. जिसे शत्रु घोषित किया है उसी के लिए इस कोमल संवेदन को कैसे स्वीकारे, यह संकोच है और अहं भी है. उधर लड़का भी अकड़ा बैठा होगा. यह उस के ऐब गिनाती है, लेकिन गिनाने के लिए ऐब उस के पास भी कम न होंगे. ऐसे में कोई किसी को दूसरे के गुण नहीं गिनाता.

माधवीलता से बात की, ‘‘आप बेटी को ससुराल भेज दें.’’

‘‘कैसे? वे लोग कैसा व्यवहार करेंगे? कहीं मार ही न दें?’’ उन की बीसियों शंकाएं थीं.

‘‘बिगड़ तो रही है, बनाने की कोशिश एक बार करने में हर्ज ही क्या है? फिर मिन्नी भी चाहती है पति को. प्रयास करने में नुकसान क्या है?’’

‘‘सास ताने मारेगी कि आ गई,’’ मिन्नी को शंका थी.

‘‘अपने ही घर तो जाओगी. वह भड़केगी, उबलेगी, लेकिन फिर धीरेधीरे शांत हो जाएगी. पति के सामने सिर उठा लो तो बाहर वालों के सामने झुकता है. अच्छा तो यही है कि नजर उठने से पहले ही सिर झुका लेती. पहले नजरें उठेंगी फिर उंगलियां. दूसरी जगह क्या सबकुछ तुम्हारे मनमुताबिक का होगा? कोई भी बिंदी अतीत के इस दाग को नहीं छिपा सकती. घाव सब भर जाते हैं, दाग रह जाते हैं.

‘‘बाकी जिंदगी में भी तो समझौते करने पड़ेंगे. इस से अच्छा है कि पहली बार ही समझौता कर लो. बाद में बाहर वालों की हजार बातें सुनने से अच्छा है कि चार बातें घर वालों की ही सुन ली जाएं. चाहो तो सद्भावना अर्जित करने के लिए इसे सद्भावना निवेश मान लो. बिना किए तो प्रतिदान नहीं मिलता. अभी अहं का टकराव है और असल में अहं से भी अधिक सपनों का टकराव है.

‘‘अगर तुम्हारा पति तुम्हारा स्वप्नपुरुष नहीं निकला तो इस की भी उतनी ही संभावना है कि तुम भी अपने पति की स्वप्नसुंदरी न निकली हो. उस ने भी तो ऐसी छवि मन में बसाई होगी जिस की गरदन केवल स्वीकृति में ही हिलती होगी. एकदूसरे के सपनों को समझो और सपनों को अलगअलग देखने के बजाय साझे सपने देखने की कोशिश करो.’’

‘‘हम कोर्ट में चले गए हैं. अब लोग क्या कहेंगे?’’ उस की झिझक वाजिब थी.

‘‘लोग तो कहेंगे, जो चाहेंगे. लेकिन सब प्रसन्न ही होंगे कि एक घर टूटने से बच गया. इस पर बधाई ही देंगे. कोई अफसोस प्रकट करने नहीं आएगा. तुम्हारा फैसला क्यों बदल गया, यह भी कोई नहीं पूछेगा. जाओगी तो वह अकड़ेगा जरूर, फिर? सारी हायतौबा के बाद क्या करने को बचेगा?

‘‘तृप्ति के क्षण का यह मोल ज्यादा नहीं है. हो सकता है कि कुछ भी न कहे. तब लगेगा न कि अपनेआप इधर इतने दिन न आ कर भूल ही की. हो सकता है कि वह भी अपने मन के अंदर स्वीकारे कि तुम हार कर जीत गई हो और वह जीत कर हार गया है. दरअसल, जिंदगी में जीतहार कुछ होती ही नहीं है. जीतता वही है जो हार जाता है. जब दोनों जीतते हैं, तो दोनों ही हार जाते हैं, अपने सामने भी और जग के सामने भी. हार का आनंद कह कर नहीं समझाया जा सकता, उसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है.’’

माधवीलता को झिझक थी कि पता नहीं बेटी को क्याक्या झेलना पड़ेगा. उन्हें भी लगा कि बाद में जो झेलना पड़ेगा, उस से तो कम ही होगा.

कहानी होती तो शायद यों होती कि उस के बाद दोनों सुख से रहने लगे. पर यह कहानी नहीं है, जिंदगी है. इस का अंत कुछ यों है कि माधवीलता हैं वही सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत, शालीन महिला. वे चिड़चिड़ाती नहीं हैं. वही सौम्य, मृदु मुसकान उन के अधरों पर है.

आज उन्होंने सवाल उठाया है कि नवजात शिशुओं के पालनपोषण पर विशेष अभियान की आवश्यकता है ताकि नई माताएं लाभान्वित हो सकें. बच्चों का अच्छा पालनपोषण राष्ट्रीय आवश्यकता है.

सभा में हम सब सहज भाव से मुसकराए हैं, अफसरों के सुंदर प्रस्तावों की सब से सहज और सरल प्रतिक्रिया यही है.

माधवीलता खुश हैं और साथ ही हम सब भी.

बहू-बेटी: क्या सास को जया ने कैसे समझाया

घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाड़ ूबुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.

रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.

इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.

दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’

‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’

मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.

‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’

‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.

‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’

‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’

रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?

बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’

मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’

‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’

रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.

फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’

भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’

‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’

‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’

‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’

‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’

भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’

हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’

‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’

‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’

‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’

जया को मालूम था कि एक तो छुटकी मांजी की गोद में ज्यादा देर टिकती नहीं, दूसरे जहां उस ने कपड़े गंदे किए कि वह बहू को आवाज देने लगती हैं. स्वयं गंदे कपड़े नहीं छूतीं.

रश्मि को लगा, यहां भी कुछ गड़बड़ है. चुपचाप धीरे से छुटकी को गोद में ले कर बैठ गई और प्यार से उस का सुंदर मुख निहारने लगी. कुछ ही महीने की तो बात है, उस के घर भी मेहमान आने वाला है. वह भी ऐसे ही व्यस्त हो जाएगी. घर का पूरा काम न कर पाएगी तो उस की सास क्या कर लेगी, पर उस की सास तो सैलानी है, वह तो घर में ही नहीं टिकती. उस का सामाजिक दायरा बहुत बड़ा है. गरदन को झटका दे कर रश्मि मन ही मन बोली, ‘देखा जाएगा.’

मुश्किल से 15 मिनट हुए थे कि बच्ची रो पड़ी. हाथ से टटोल कर देखा तो पोतड़ा गीला था. उस ने जल्दी से कपड़ा बदल दिया, पर बच्ची चुप न हुई. शायद भूखी है. अब तो भाभी को बुलाना ही पड़ेगा. भाभी ने टोस्ट सेंक दिए थे, आमलेट बनाने जा रही थी. पिताजी अभी गरमगरम जलेबियां ले कर आए थे.

भाभी को जबरदस्ती बाहर कर दिया. बच्ची की देखभाल आवश्यक थी. फुरती से आमलेट बना कर ट्रे में रख कर मेज पर पहुंचा दिए. कांटेचम्मच, प्यालेप्लेट सब सही तरह से सजा कर पिताजी और अपने पति को बुला लाई. मां अभी नहा रही थीं. उस ने सोचा वह मां और भाभी के साथ खाएगी बाद में.

नाश्ते के बाद रश्मि ने कुछ काम बता कर पति को बाजार भेज दिया. अब मैदान खाली था. झट से झाड़ ू उठा ली. सोचा कि पति के वापस आने से पहले ही सारा घर साफसुथरा कर देगी. वह नहीं चाहती थी कि पति के ऊपर उस के मायके का बुरा प्रभाव पड़े. घर का मानअपमान उस का मानअपमान था. पति को इस से क्या मतलब कि महरी आई या नहीं.

जैसे ही उस ने झाड़ ू उठाई कि जया आ गई. दोनों में खींचातानी होने लगी.

‘‘ननद रानी, यह क्या कर रही हो? लोग क्या कहेंगे कि 2 दिन के लिए मायके आई और झाड़ ूबुहारु, चौकाबरतन सब करवा लिए. चलो हटो, जा कर नहाधो लो.’’

‘‘नहीं जाती, क्या कर लोगी?’’ रश्मि ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मेरा घर है, मैं कुछ भी करूं, तुम्हें मतलब?’’

‘‘है, मतलब है. तुम तो 2 दिन बाद चली जाओगी, पर मुझे तो सारा जीवन यहां बिताना है.’’

रश्मि ने इशारा समझा, फिर भी कहा, ‘‘अच्छा चलो, काम बांट लेते हैं. तुम उधर सफाई कर लो और मैं इधर.’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ जया ने दृढ़ता से कहा, ‘‘ऐसा नहीं होगा.’’

भाभी और ननद झगड़ ही रही थीं कि बच्ची ने रो कर फैसला सुना दिया. भाभी मैदान से हट गई. इधर मां ने दिन के खाने का काम संभाल लिया. छुटकी को नहलानेधुलाने व कपड़े साफ करने में ही बहू को घंटों लग जाते हैं. सास बहू की मजबूरी को समझती थी, पर एक अनकही शिकायत दिल में मसोसती रहती थी. बहू के आने से उसे क्या सुख मिला? वह तो जैसे पहले घरबार में फंसी थी वैसे ही अब भी. कैसेकैसे सपनों का अंबार लगा रखा था, पर वह तो ताश के पत्तों से बने घर की तरह बिखर गया.

वह कसक और बढ़ गई थी. नहीं, शायद कसक तो वही थी, केवल उस की चुभन बढ़ गई थी. दयावती के हाथ सब्जी की ओर बढ़ गए. फिर भी उस का मन बारबार कह रहा था, लड़की को देखो, 2 दिन के लिए आई है, पर घर का काम ऐसे कर रही है जैसे अभी विवाह ही न हुआ हो. आखिर लड़की है. मां को समझती है…और बहू…

संध्या हो चुकी थी. रश्मि और उस का पति विजय अभीअभी जनपथ से लौटे थे. कितना सारा सामान खरीद कर लाए थे. कहकहे लग रहे थे. चाय ठंडी हो गई थी, पर उस का ध्यान किसे था? विजय ने पैराशूटनायलोन की एक जाकेट अपने लिए और एक अपनी पत्नी के लिए खरीदी थी. रश्मि के लिए एक जींस भी खरीदी थी. उसे रश्मि दोनों चीजें पहन कर दिखा रही थी. कितनी चुस्त और सुंदर लग रही थी. दयावती का चेहरा खिल उठा था. दिल गर्व से भर गया था.

बहू रश्मि को देख कर हंस रही थी, पर दिल पर एक बोझ सा था. शादी के बाद सास ने उस की जींस व हाउसकोट बकसे में बंद करवा दिए थे, क्योंकि उन्हें पहन कर वह बहू जैसी नहीं लगती थी.

रात को गैस के तंदूर पर रश्मि ने बढि़या स्वादिष्ठ मुर्गा और नान बनाए. इस बार बहू अपने मायके से तंदूर ले कर आई थी, पर वह वैसा का वैसा ही बंद पड़ा था. उस पर खाना बनाने का अवकाश किसे था. सास को आदत न थी और बहू को समय न था. तंदूर का खाना इतना अच्छा लगा कि विजय ने रश्मि से कहा, ‘‘कल हम भी एक तंदूर खरीद लेंगे.’’

दयावती के मुंह से निकल गया, ‘‘क्यों पैसे खराब करोगे? यही ले जाना. यहां किस काम आ रहा है.’’

कमलनाथ ने कहा, ‘‘ठीक तो है, बेटा. तुम यही ले जाओ. हमें जरूरत पड़ेगी तो और ले लेंगे.’’

बहू चुप. उस के दिल पर तो जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया हो. उस ने अपने पति की ओर देखा. बेटे ने मुंह फेर लिया. एक ही इलाज था. कल ही बहन के लिए एक नया तंदूर खरीद कर ले आए. लेकिन इस के लिए पैसे और समय दोनों की आवश्यकता थी.

बेटी को अपना माहौल याद आया. एक बार तंदूर ले गई तो उस के ससुर व पति दोनों जीवन भर उसे तंदूर पर ही बैठा देंगे. दोनों को खाने का बहुत शौक था. इस के अलावा उसे याद था कि जब मां का दिया हुआ शाल सास ने उस की ननद को बिना पूछे पकड़ा दिया था तो उसे कितना मानसिक कष्ट हुआ था. आंखों में आंसू आ गए थे. भाभी की हालत भी वही होगी.

बात बिगड़ने से पहले ही उस ने कहा, ‘‘नहीं मां, यह तंदूर भाभी का है, मैं नहीं ले जाऊंगी. मेरे पड़ोस में एक मेजर रहते हैं. उन्होंने मुझे सस्ते दामों

पर फौजी कैंटीन से तंदूर लाने के

लिए कहा है. 2-2 तंदूर ले कर मैं

क्या करूंगी?’’

बेटी ने तंदूर के लिए मांग नहीं की थी, परंतु उस ने ससुराल लौटते ही मेजर साहब से तंदूर के लिए कहने का इरादा कर लिया था.

अगले दिन बेटी और दामाद चले गए. घर सूनासूना लगने लगा. चहलपहल मानो समाप्त हो गई थी. इस सूनेपन को तोड़ने वाली केवल एक आवाज थी और वह थी बच्ची के रोने की आवाज. वातावरण सामान्य होने में कुछ समय लगा. मां के मुंह से हर समय बेटी का नाम निकलता था. वह क्याक्या करती थी…क्या कर रही होगी…बच्चा ठीक से हो जाए…तुरंत बुला लूंगी. 3 महीने से पहले वापस नहीं भेजूंगी. बहू सोच रही थी, उसे तो पीछे पड़ कर 1 महीने बाद ही बुला लिया था.

दयावती की बहन की लड़की किसी रिश्तेदार के यहां विवाह में आई थी, समय निकाल कर वह मौसी से मिलने भी आ गई.

‘‘क्या हो रहा है, मौसी?’’

‘‘अरे, तू कब आई?’’ दयावती ने चकित हो कर कहा, ‘‘कुछ खबर भी नहीं?’’

‘‘लो, जब खुद ही चली आई तो खबर क्या भेजनी? आई तो कल ही हूं. शादी है एक. कल वापस भी जाना है, पर अपनी प्यारी मौसी से मिले बिना कैसे जा सकती हूं? भाभी कहां हैं? सुना है, छुटकी बड़ी प्यारी है. बस, उसे देखने भर आई हूं.’’

‘‘अरे, बैठ तो सही. सब देखसुन लेना. देख कढ़ी बना रही हूं. खा कर जाना.’’

‘‘ओहो…बस, मौसी, तुम और तुम्हारी कढ़ी. हमेशा चूल्हाचौका. अब भाभी भी तो है, कुछ तो आराम से बैठा करो.’’

दयावती ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘क्या आराम करना. काम तो जिंदगी की अंतिम सांस तक करना ही करना है.’’

‘‘हाय, दीदी, तुम्हारा कितना काम करती थी. सच, तुम्हें रश्मि दीदी की बहुत याद आती होगी, मौसी?’’

‘‘अब फर्क तो होता ही है बहू और बेटी में,’’ दयावती ने फिर गहरी सांस ली.

जया सुन रही थी. उस के दिल पर चोट लगी. क्यों फर्क होता है बहू और बेटी में? एक को तीर तो दूसरे को तमगा. जब सास की बहन की लड़की चली गई तो जया सोचने लगी कि इस स्थिति में बदलाव आना जरूरी है. सास और बहू के बीच औपचारिकता क्यों? वह सास से साफसाफ कह सकती है कि बारबार बेटी की रट न लगाएं. पर ऐसा कहने से सास को अच्छा न लगेगा. अब उसे ही बेटी की भूमिका अदा करनी पड़ेगी. न सास रहेगी, न बहू. हर घर में बस, मांबेटी ही होनी चाहिए.

वह मुसकराई. उसे एक तरकीब सूझी. परिणाम बुरा भी हो सकता था, परंतु उस ने खतरा उठाने का निर्णय ले ही लिया. अगले सप्ताह होली का त्योहार था. अगर कुछ बुरा भी लगा तो होली के माहौल में ढक जाएगा. उस ने छुटकी को उठा कर चूम लिया.

प्रात: जब वह कमरे से निकली तो जींस पहने हुए थी और ऊपर से चैक का कुरता डाल रखा था. हाथ में गुलाल था.

‘‘होली मुबारक हो, मांजी,’’ कहते हुए जया ने ननद की नकल करते हुए सास के गालों पर चुंबन जड़ दिए और मुंह पर गुलाल मल दिया. दयावती की तो जैसे बोलती ही बंद हो गई. इस से पहले कि सास संभलती, जया ने खिलखिला कर ‘होली है…होली है’ कहते हुए सास को पकड़ कर नाचना शुरू कर दिया. होहल्ला सुन कर कमलनाथ भी बाहर आ गए और यह दृश्य देख कर हंसे बिना न रह सके.

‘‘यह क्या हो रहा है, बहू?’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा.

‘‘होली है, पिताजी, और सुनिए, आज से मैं बहू नहीं हूं, बेटी हूं…सौ फीसदी बेटी,’’ यह कहते हुए उस ने ससुर के मुंह पर भी गुलाल पोत दिया.

इस से पहले कि कुछ और हंगामा खड़ा होता, पासपड़ोस के लोग मिलने आने लगे. स्त्रियां तो घर में ही घुस आईं. इसी बीच छुटकी रोने लगी. जया ने दौड़ कर छुटकी को उठा लिया और उस के कपड़े बदल कर सास की गोदी में बैठा दिया.

‘‘मांजी, आप मिलने वालों से निबटिए, मैं चायनाश्ता लगा रही हूं.’’

‘‘पर, बहू…’’

‘‘बहू नहीं, बेटी, मांजी. अब मैं बेटी हूं. देखिए मैं कितनी फुरती से काम निबटाती हूं.’’

लोग आ रहे थे और जा रहे थे. जया फुरती से नाश्ता लगालगा कर दे रही थी. रसोई का काम भी संभाल रही थी. गरमागरम पकौडि़यां बना रही थी, जूठे बरतन इकट्ठा नहीं होने दे रही थी. साथ ही साथ धो कर रखती जाती थी. सास को 2 बार रसोई से बाहर किया. उस का काम केवल छुटकी को रखना और मिलने वालों से बात करना था. सास को मजबूरन 2 बार छुटकी के कपड़े बदलने पड़े. सब से बड़ी बात तो यह थी कि दादी की गोद में छुटकी आज चुप थी, रोने का नाम नहीं. लगता था कि वह भी षडयंत्र में शामिल थी.

जब मेहमानों से छुट्टी मिली तो दयावती ने महसूस किया कि छुटकी कुछ बदल गई है. रोई क्यों नहीं आज? बल्कि शैतान हंस ही रही थी.

कमलनाथ ने आवाज दी, ‘‘बहू, जरा एक दहीबड़ा और दे जाना, बहुत अच्छे बने हैं.’’

रसोई से आवाज आई, ‘‘यहां कोई बहूवहू नहीं है, पिताजी.’’

‘‘बड़ी भूल हो गई बेटी,’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब तो मिलेगा न?’’

‘‘और हां बेटी,’’ सास ने शरमाते हुए कहा, ‘‘अपनी मां का भी ध्यान रखना.’’

सास के गले में बांहें डालते हुए जया ने कहा, ‘‘क्योें नहीं, मां, आप लोगों को पा कर मैं कितनी धन्य हूं.’’

रमेश ने जो यह नाटक देख रहा था, गंभीरता से कहा, ‘‘इन हालात में मेरी क्या स्थिति है?’’ और सब हंस पड़े.

बच्चे को कोरोना: निशानिका ने क्या कदम उठाया था

family story in hindi

अपना अपना मापदंड- भाग 3: क्या था शुभा का रिश्तों का नजरिया

‘‘मैं हूं न बेटा, मुझ से बात करो, मुझ से बांटो अपना सुख, अपना दुख… हम अच्छे दोस्त हैं.’’

‘‘आप तो मुझ से बड़ी हैं… आप तो सदा देती हैं मुझे, कोई ऐसा हो जो मुझ से मांगे, कोई ऐसा जिसे देख कर मुझे भी बड़े होने का एहसास हो… मैं स्वार्थी बन कर जीना नहीं चाहता… मैं अपनी दादी, अपनी बूआ की तरह इतने छोटे दिल का मालिक नहीं बनना चाहता कि रिश्तों को ले कर निपट कंगाल रह जाऊं, मेरा अपना कौन होगा मां. सुखदुख में मेरे काम कौन आएगा?’’

‘‘तुम्हारे पापा हर सुखदुख में तुम्हारी बूआ के काम आते हैं न. मां की एक आवाज पर भागे चले जाते हैं लेकिन जब उन की पत्नी अस्पताल में पड़ी थी तब कौन आया था उन के काम? क्या दादी या बूआ आई थीं यहां. मुझे किस ने संभाला था? कौन था मेरे पास?

‘‘रिश्तों के होते हुए भी क्या कभी तुम ने हमारे परिवार को सुखदुख बांटते देखा है? उम्मीद करना मनुष्य की सब से बड़ी कमजोरी है, अजय. वही सुखी है जिस ने कभी किसी से कोई उम्मीद नहीं की. जीवन की लड़ाई हमेशा अकेले ही लड़नी पड़ती है और सुखदुख में काम आता है हमारा चरित्र, हमारा व्यवहार. किसी के बन जाओ या किसी को अपना बना लो.

‘‘मैं 15 दिन अस्पताल में रही… कौन हमारा खानापीना देखता रहा, क्या तुम नहीं जानते? हमारा आसपड़ोस, तुम्हारे पापा के मित्र, मेरी सहेलियां. तुम्हारे दोस्त ने तो मुझे खून भी दिया था. जो लोग हमारे काम आए क्या वे हमारे सगेसंबंधी थे? बोलो?

‘‘भाईबहन के न होने से तुम्हारा दिल छोटा कैसे रह जाएगा? रिश्तों के होते हुए हमारा कौन सा काम हो गया जो तुम्हारा नहीं होगा. किसी की तरफ प्यार भरा ईमानदार हाथ बढ़ा कर देखना अजय, वही तुम्हारा हो जाएगा. प्यार बांटोगे तो प्यार मिलेगा.’’

‘‘मुझे एक भाई चाहिए, मां,’’ रोने लगा अजय.

‘‘जिन के भाई हैं क्या उन का झगड़ा नहीं देखा तुम ने? क्या वे सुखी हैं? हर घर का आज यही झगड़ा है… भाई ही भाई को सहना नहीं चाहता. किस मृगतृष्णा में हो… कल अगर तुम्हारा भाई तुम्हारा साथ छोड़ कर चला जाएगा तो तुम्हें अकेले ही तो जीना होगा…अगर हमारी संपत्ति को ले कर ही तुम्हारा भाई तुम से झगड़ा करेगा तब कहां जाएगी रिश्तेदारी, अपनापन जिस के लिए आज तुम रो रहे हो?

‘‘अजय, तुम्हारी अपनी संतान होगी, अपनी पत्नी, अपना घर. तब तुम अपने बच्चों के लिए करोगे या भाई के लिए? तुम से 20 साल छोटा भाई तुम्हारे लिए संतान के बराबर होगा. दोनों के बीच पिस जाओगे, जिस तरह तुम्हारे पापा पिसते हैं, मां की बिना वजह की दुत्कार भी सहते हैं और बहन के ताने भी सहते हैं…अच्छा पुत्र, अच्छा भाई बनने का पूरा प्रयास करते हैं तुम्हारे पापा फिर भी उन्हें खुश नहीं कर सके. उन का दोष सिर्फ इतना है कि उन्हें अपनी पत्नी, अपने बच्चे से भी प्यार है, जो उन की मांबहन के गले नहीं उतरता.

‘‘कल यही सब तुम्हारे साथ भी होगा. जरूरत से ज्यादा प्यार भी इनसान को संकुचित और स्वार्थी बना देता है. तुम्हारी दादी और बूआ का तुम्हारे पापा के साथ हद से ज्यादा प्यार ही सारी पीड़ा की जड़ है और यह सब आज हर तीसरे घर में होता है, सदा से होता आया है. जिस दिन पराया खून प्यारा लगने लगेगा उसी दिन सारे संताप समाप्त हो पाएंगे.

‘‘शायद तुम्हारी पत्नी का खून मुझे पानी जैसा न लगे…शायद मेरी बहू की पीड़ा पर मेरी भी नसें टूटने लगें… शायद वह मुझे तुम से भी ज्यादा प्यारी लगने लगे. इसी शायद के सहारे तो मैं ने अपनी एक ही संतान रखने का निर्णय लिया था ताकि मेरी ममता इतनी स्वार्थी न हो जाए कि बहू को ही नकार दे. मैं अपनी बेटी के सामने अपनी बहू का अपमान कभी न कर पाऊं इसीलिए तो बेटी को जन्म नहीं दिया…क्या तुम मेरे इस प्रयास को नकार दोगे, अजय?’’

आंखें फाड़ कर अजय मेरा मुंह देखने लगा था. उस के पापा भी पता नहीं कब चले आए थे और चुपचाप मेरी बातें सुन कर मेरा चेहरा देख रहे थे.

‘‘जीवन इसी का नाम है, अजय. वे घर भी हैं जहां बहुएं दिनरात बुजुर्गों का अपमान करती हैं और एक हमारा घर है जहां पहले दिन से मेरी सास मेरा अपमान कर रही हैं, जहां बेटी के तो सभी शगुन मनाए जाते हैं और बहू का मानसम्मान घर की नौकरानी से भी कम. बेटी का साम्राज्य घर के चप्पेचप्पे पर है और बहू 22 साल बाद भी अपनी नहीं हो सकी.’’

आवेश में पता नहीं क्याक्या निकल गया मेरे मुंह से. अजय के पापा चुप थे. अजय भी चुप था. मैं नहीं जानती वह क्या सोच रहा है. उस की सोच कुछ ही शब्दों से बदल गई होगी ऐसी उम्मीद भी नहीं की जा सकती लेकिन यह सत्य मेरी समझ में अवश्य आ गया है कि जीवन को नापने का सब का अपनाअपना फीता होता है. जरूरी नहीं किसी के पैमाने में मेरा सच या मेरा झूठ पूरी तरह फिट बैठ जाए.

मैं ने अपने जीवन को उसी फीते से नापा है जो फीता मेरे अपनों ने मुझे दिया है. मैं यह भी नहीं कह सकती कि अगर मेरी कोई बेटी होती तो मैं बहू को उस के सामने सदा अपमानित ही करती. हो सकता है मैं दोनों रिश्तों में एक उचित तालमेल बिठा लेती. हो सकता है मैं यह सत्य पहले से ही समझ जाती कि मेरा बुढ़ापा इसी पराए खून के साथ कटने वाला है, इसलिए प्यार पाने के लिए मुझे प्यार और सम्मान देना भी पड़ेगा.

हो सकता है मैं एक अच्छी सास बन कर बहू को अपने घर और अपने मन में एक प्यारा सा मीठा सा कोना दे देती. हो सकता है मैं बेटी का स्थान बेटी को देती और बहू का लाड़प्यार बहू को. होने को तो ऐसा बहुत कुछ हो सकता था लेकिन जो वास्तव में हुआ वह यह कि मैं ने अपनी दूसरी संतान कभी नहीं चाही, क्योंकि रिश्तों की भीड़ में रह कर भी अकेला रहना कितना तकलीफदेह है यह मुझ से बेहतर कौन समझ सकता है जिस ने ताउम्र रिश्तों को जिया नहीं सिर्फ ढोया है. खून के रिश्ते सिर्फ दाहसंस्कार करने के काम ही नहीं आते जीतेजी भी जलाते हैं.

तो बुरा क्या है अगर मनुष्य खून के रिश्तों से आजाद अकेला रहे, प्यार करे, प्यार बांटे. किसी को अपना बनाए, किसी का बने. बिना किसी पर कोई अधिकार जमाए सिर्फ दोस्त ही बनाए, ऐसे दोस्त जिन से कभी कोई बंटवारा नहीं होता. जिन से कभी अधिकार का रोना नहीं रोया जाता, जो कभी दिल नहीं जलाते, जिन के प्यार और अपनत्व की चाह में जीवन एक मृगतृष्णा नहीं बन जाता.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें