Serial Story: शिवानी (भाग-3)

अजय ने परेशान होते हुए कहा, ‘‘चलो, डाक्टर को दिखा लेते हैं.’’ ‘‘नहीं, बस ऐसे ही तबीयत बहुत सुस्त रहती है आजकल…यों ही मन घबरा जाता है.’’

‘‘हां, मां भी कह रही थीं, ये सब प्रैगनैंसी की वजह से ही होगा, ठीक हो जाएगा. तुम आराम करो.’’ शिवानी आखें बंद कर चुपचाप लेटी रही. अजय उस का सिर सहलाता रहा. अजय ने मन ही मन शिवानी को खुश करने के लिए उसे एक सरप्राइज देने की सोची. वह शिवानी के सब दोस्तों को जानता था. अपने विवाह में सब से अच्छी तरह मिल चुका था. बाद में भी अकसर मिलते रहे थे. उस के पास रमन का फोन नंबर भी था. उस ने उसे ही फोन पर कहा, ‘‘भई, तुम्हारी फ्रैंड खुशखबरी सुनाने वाली है… एक पार्टी हो जाए?’’

‘‘वाह, बधाई हो, बिलकुल हो जाए पार्टी.’’ ‘‘चलो, तुम बाकी सब से बात कर लो. शिवानी के लिए सरप्राइज है सब का आना. सब हमारे घर पर संडे को डिनर के लिए आ जाओ, शिवानी अभी कुछ सुस्त चल रही है. बाहर जाने पर शायद उसे परेशानी हो.’’

‘‘हांहां, मैं सब से बात कर लूंगा.’’ ‘‘अपनी पत्नी और रीता के पति को भी इन्वाइट करना मेरी तरफ से.’’

‘‘हां, ठीक है. सब आएंगे.’’ रमन की पत्नी मंजू भी इस पार्टी का कारण सुन कर खुश हुई. रमन ने अपने पूरे गु्रप को इस पार्टी की सूचना दे दी. सब तैयार थे. अजय ने घर में सब को बता दिया था पर शिवानी को कुछ पता न था. गौतम के कुछ मेहमान आएंगे, उसे यही पता था. वह लता और उमा के साथ हलकेफुलके काम करती रही.

शाम को लता ने कहा, ‘‘जाओ बेटा, तैयार हो जाओ. अब सब आते ही होंगे.’’ शिवानी तैयार होने चली गई. 7 बजे रमन

और मंजू, रीता अपने पति सुजय के साथ आए तो शिवानी उन्हें देख हैरान भी हुई और खुश भी, ‘‘वाह, इतने दिन बाद तुम लोगों को देख कर अच्छा लगा.’’ उन चारों ने भी अभी और आने वाले दोस्तों के बारे में कुछ नहीं बताया. वे घर के बाकी सदस्यों का अभिवादन कर आराम से ड्राइंगरूम में बैठ गए. शिवानी को चारों ने गुड न्यूज सुनाने की बधाई दी. शिवानी का मन फिर उदास हो गया. पल भर के लिए चारों को देख कर उस अनहोनी को भूल गई थी. अजय भी आ गया था.

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इतने में रेखा, अनिता, सुमन, मंजू, सोनिया, रीता, संजय, अनिल और कुणाल भी

आ गए. तब शिवानी को समझ आया अजय ने उस का मन ठीक करने के लिए उस के दोस्तों को इन्वाइट किया है. सब को सामने देख कर शिवानी को उस रात की याद आ गई जब इन्हीं में से किसी ने उस के साथ विश्वासघात किया था. उस की उड़ी रंगत को सब ने प्रैगनैंसी का कारण समझा. सब मस्ती के मूड में थे. हंसीमजाक शुरू हो गया था. लता और उमा मेड माया के साथ मिल कर सब को वैलकम ड्रिंक्स और स्नैक्स सर्व कर रही थीं. गौतम और विनय भी आ गए. सब ने उन का अभिवादन किया. फिर सब को थोड़ी आजादी देते हुए गौतम, विनय, लता और उमा सब अंदर चले गए. अजय सब से हिलमिल चुका था.

शिवानी के दिल में एक बवंडर सा उठ रहा था. वह रमन, कुणाल, संजय और अनिल का चेहरा बारबार देखती, अंदाजा लगाती कहीं संजय तो नहीं, नहींनहीं संजय तो उस का बालसखा है, उस ने कभी कोई हरकत नहीं की थी. अनिल या फिर कुणाल या रमन नहीं, रमन तो मैरिड है, अनिल, कुणाल तो बहुत ही मर्यादा में रहने वाले दोस्त हैं. बचपन से घर आतेजाते रहे हैं, फिर इन में से कौन था उस रात. सोचतेसोचते शिवानी को सिर की नसें फटती महसूस हो रही थीं.

उसे चैन नहीं आ रहा था. उस का मन कर रहा था चीखचीख कर पूछे इन लड़कों से कौन था उस रात… इन में से किस का अंश पल रहा है उस की कोख में, उसे तो कुछ पता ही नहीं है.

सब खाना खा कर वाहवाह कर ही रहे थे कि शिवानी अपनी मनोदशा को नियंत्रण में रखने की कोशिश करते हुए भी निढाल होती चली गई, उठने की कोशिश की पर बेहोश होती चली गई. पास बैठी रेखा ने ही उसे फौरन संभाला. अजय को आवाज दी, सब बहुत परेशान हो गए. पल भर में ही माहौल बदल गया. लता ने कहा, ‘‘फौरन डाक्टर मनाली को बुलाओ अजय.’’ अजय फोन करने के बाद शिवानी को उठा कर बैडरूम तक ले गया. सब परेशान चुपचाप खड़े थे. संजय भी चुपचाप खड़ा था. उस रात के बाद वह शिवानी से आज ही मिला था. उसे यह नहीं पता था कि शिवानी के गर्भ में उस की संतान है. वह अपनी हरकत के लिए जरा भी शर्मिंदा नहीं था.

डाक्टर मनाली ने आ कर शिवानी का चैकअप किया, फिर कहा, ‘‘उमा, शिवानी का ब्लडप्रैशर हाई है. क्या यह किसी टैंशन में है?’’ अजय ने कहा, ‘‘नहीं तो. सब हंसबोल रहे थे पर अचानक पता नहीं क्या हुआ. कैसे आजकल बहुत सुस्त रहती है.’’

दवाइयां और कुछ निर्देश दे कर डाक्टर चली गईं. सब दोस्तों ने भी फिर मिलते हैं, कहते हुए विदा ली. घर के सदस्य शिवानी की हालत पर

दुखी थे. उमा कह रही थीं, ‘‘क्या हो गया इसे. किस चिंता में रहती है… पता नहीं क्या सोचती रहती है.’’ लता ने कहा, ‘‘आप परेशान न हों, आराम करेगी तो ठीक हो जाएगी.’’

शिवानी ने आंखें खोलीं, पर बोली कुछ नहीं. एक उदास सी नजर सब के चेहरे पर डाली. मन ही मन और दुखी हुई. सब से सच छिपाने का अपराधबोध और हावी हो गया. आंखों की कोरों से आंसू बह चले तो उमा जैसे तड़प उठीं, ‘‘न बेटा, दुखी मत हो. ऐसी हालत में तबीयत कभी ठीक, कभी खराब चलती रहती है. कोई चिंता न करो. बस, खुश रहो.’’ शिवानी खुद को संभाल कर मुसकराई तो सब के चेहरे पर भी मुसकान उभरी.

रात को सोने के समय अजय शिवानी के सिर को सहलाते हुए उस का मन बहलाने के लिए उस के दोस्तों की बातें करने लगा तो वह कहने लगी, ‘‘अजय, मुझ से बस अपनी बात करो, बस अपनी. किसी और की नहीं.’’ ‘‘अच्छा ठीक है, पर शिवानी मुझे सचसच बताओ कि तुम्हें कुछ टैंशन है क्या?’’

‘‘नहीं अजय, बस बहुत सुस्त रहती है तबीयत आजकल, पर तुम चिंता न करो. मैं अपना ध्यान रखूंगी,’’ कहते हुए शिवानी ने अपना सिर अजय के कंधे से सटा लिया. अजय शिवानी की उदासी का कारण खराब तबीयत समझ कर शांत हो गया.

जैसेजैसे समय बीत रहा था, घर में तैयारियों की बात होती रहती थी. रमेश और सुधा भी अकसर उस से मिलने आते रहते थे. शिवानी अकेले में सोचती, ‘यह कैसी गर्भावस्था है, कैसे इस बच्चे को पालूंगी, मुझे तो जरा भी ममता का एहसास नहीं हो रहा.’ उस की कितनी ही रातें रोते बीत रही थीं, कोई कितना रो सकता है, इस का अनुभव उसे स्वयं न था.

देखतेहीदेखते उस के हौस्पिटल जाने का दिन आ गया. गौतम ने रमेश और सुधा को भी सूचना दे दी. गर्भावस्था का पूरा समय शिवानी ने जिस तनाव में बिताया था और पूरे परिवार का जो स्नेह उसे मिलता आया था, वह सब शिवानी को याद आ रहा था. शारीरिक और मानसिक, तीव्र पीड़ा के पलों को झेलते हुए उस ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया. लता तो खुशी के मारे रो ही पड़ी. सब ने एकदूसरे को गले लगा कर बधाई दी. सुधा ने फौरन कुछ पैसे अजय को देते हुए कहा, ‘‘हमारी तरफ से मिठाई लानी है, बेटा.’’ अजय, ‘‘अच्छा, लाता हूं,’’ कह कर मुसकराते हुए चला गया. नवजात शिशु सब के आकर्षण का केंद्र बन गया था.’’

उमा ने बच्चे को देखते हुए कहा, ‘‘अरे, यह तो बिलकुल अजय पर गया है.’’ लता ने कहा, ‘‘नहीं, शिवानी की झलक दिखाई देती है.’’

गौतम हंसे, ‘‘मुझे तो यह दादी पर लग रहा है.’’ सब हंस रहे थे. शिवानी के मन में अब तक बच्चे को देखने का जरा भी उत्साह नहीं था. वह चुपचाप निढाल पड़ी थी. अजय मिठाई ले आया था. सब एकदूसरे का मुंह मीठा करवा रहे थे. उमा ने डाक्टर, नर्स और आसपास के लोगों को भी मिठाई खिलाई. शिवानी के दिल पर पत्थर सी चोट लग रही थी.

शिवानी के चेहरे पर नजर डालते हुए अजय ने कहा, ‘‘ठीक हो न?’’ ‘‘हां.’’

‘‘अब सारी तबीयत ठीक हो जानी चाहिए. अब कोई उदासी नहीं चलेगी, समझीं,’’ हंसते हुए अजय ने कहा तो लता भी बोलीं, ‘‘हां, अब सारी तबीयत ठीक हो जानी चाहिए, पहले की तरह खुश रहना, बेटा.’’ शिवानी फीकी सी हंसी हंस दी. वह यही सोच रही थी कि ये सब इस बच्चे की इतनी खुशियां मना रहे हैं जिस के पिता का भी मुझे नहीं पता, कौन है. यह बच्चा तो मुझे हमेशा उस धोखे की याद दिलाता रहेगा जो मैं ने अपने परिवार को दिया है. कैसे पालूंगी इसे…

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तभी बाहर अजीब सा शोर सुनाई दिया, तो सभी बाहर चल दिए. शिवानी को अभी बहुत कमजोरी थी. वह चुपचाप आंखें बंद कर लेटी थी. बराबर ही पालने में बच्चा लेटा था. थोड़ी देर बाद एक नर्स अंदर आई तो शिवानी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ है?’’

‘‘कल से एक लड़की दाखिल थी. रात ही उस ने बेटे को जन्म दिया था. अब वह लड़की बच्चे को छोड़ कर गायब है. उस के दिए पते पर, फोन पर सब देख लिया, सब फर्जी जानकारी थी. पता नहीं कौन थी. बच्चा पैदा कर छोड़ कर गायब हो गई. अभी एक बेऔलाद पतिपत्नी यहां किसी को देखने आए थे. सारी बात सुन कर उस बच्चे को गोद लेने के लिए तैयार हैं.’’

‘‘एक सगी मां बच्चे को पैदा करते ही छोड़ कर चली गई, अब 2 पराए लोग उस बच्चे के लिए इतने उतावले हैं कि पूछो मत. दोनों इतने खुश हैं, मैडम कि शादी के 10 साल बाद उन के जीवन में एक नन्हीं खुशी आ ही गई. उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि वह किस का होगा, दोनों बस उस बच्चे को गोद लेने के लिए छटपटा रहे हैं. पता नहीं कौन थी क्या मजबूरी थी.’’

शिवानी सांस रोके नर्स की बात सुन रही थी. नर्स चली गई तो जैसे शिवानी की आंखें खुलीं. वह जैसे होश में आई. एक दंपती किसी गैर के बच्चे के लिए तरस रहे हैं और वह अपने बच्चे से पीठ फेरे लेटी है. इस का पिता जो भी हो, मां तो वही है न. उस का भी तो अंश है बच्चा. मां के हिस्से की ममता पर तो इस का हक है ही न. और मां का ही क्यों, हर रिश्ते के स्नेह का पात्र बनने वाला है यह. दादादादी, नानानानी, अजय, सब की खुशियों का कारण बना है यह. फिर वह मां की ममता से ही क्यों दूर रहे और इस बच्चे का कुसूर भी तो नहीं है कोई… उस अजनबी दंपती के बारे में, अपने बच्चे के बारे में सोचतेसोचते पिछले कई महीनों का उस का मानसिक संताप दूर होता चला गया.

वह धीरे से उठी. बच्चे का चेहरा देखते हुए झुक कर उसे गोद में उठाया. नर्ममुलायम सा स्पर्श कई महीनों से जलतेतपते तनमन को सहलाता चला गया.

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Serial Story: शिवानी (भाग-2)

थोड़ी देर बैठ कर सब बातें करती रहीं. उन के जाने के बाद शिवानी का मन हुआ मां को सब सचसच बता दे पर उस की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि सुधा उस के जाने के पक्ष में ही नहीं थीं. किस मुंह से कहे, उन का डर सच साबित हुआ है. वह फिर रोने लगी तो सुधा ने कहा, ‘‘चल बेटा, डाक्टर को दिखा लेते हैं.’’

‘‘नहीं मम्मी, अब तो ठीक हूं.’’

फिर वह स्वयं को सामान्य दिखाते हुए थोड़ी बहुत बातें करती रही. 1-2 दिन और बीत गए. सब उस से फोन पर संपर्क में थे ही.

शिवानी बेचैन थी. उस का मन हर समय घबराया, उलझा सा रहता था. वह सुधा से कहने लगी, ‘‘मम्मी, अब ससुराल चली जाती हूं. अजय नहीं हैं तो मैं भी यहां आ गई. अच्छा नहीं लगता.’’ ‘‘हां, ठीक है बेटा. जैसी तेरी मरजी.’’

रमेश ही उसे छोड़ने गए. उसे देखते ही सब के चेहरे खिल उठे. उमा चहक उठीं, ‘‘अच्छा हुआ, आ गई बेटा. घर में बिलकुल रौनक नहीं थी.’’

रमेश भी हंसे, ‘‘संभालो अपनी बहू को आप लोग, अब इस का मायके में मन नहीं लगता.’’ शिवानी भी सब के साथ मुसकरा दी. रमेश चले गए.

डिनर करते हुए सब शिवानी के आने पर खुश थे. यह सब ने साफसाफ महसूस किया, पर उमा ने उसे टोक भी दिया, ‘‘बेटा, जब से आई ओ तब से मुंह उतरा हुआ है. अभी तक तबीयत ठीक नहीं लग रही है क्या?’’ ‘‘नहीं मां, ठीक है.’’

विनय ने गौतम से कहा, ‘‘भैया, अजय का टूअर अब कम ही रखना, नहीं तो बहू ऐसे ही उदास रहेगी या इसे भी आगे से साथ ही भेजना.’’ ‘‘हां, यह ठीक रहेगा.’’

अगला पूरा हफ्ता शिवानी अपने साथ घटी घटना को भूलने की नाकाम कोशिश करती रही. अपने को काम में उलझाए रखती पर उस रात को भूलना बहुत मुश्किल था और सब से बड़ी बात थी, इस अपराधबोध के साथ जीना कि उस ने यह बात सब से छिपा ली. वह किसी से यह बात शेयर करना चाह रही थी पर किस से करे, यह समझ नहीं आ रहा था. अपनी मम्मी को बताना चाहती थी पर उस ने उन की बात नहीं सुनी थी, इसलिए हिम्मत नहीं हो रही थी. अजय आ गया तो सब के चेहरे खिल उठे. लता ने कहा, ‘‘देखो, मेरी बहू कितनी उदास रही. अब जल्दी कहीं मत जाना.’’

अजय ने शिवानी को देखा. उस की आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे, उस ने तो इन आंसुओं को इतने दिन की दूरी ही समझा. रात को एकांत में अजय के सीने पर सिर रख कर शिवानी बुरी तरह फफक पड़ी. अजय परेशान हो गया, ‘‘मेरे पीछे तुम्हें कोई परेशानी हुई है क्या?’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा तो कुछ नहीं है, एक बारगी तो शिवानी का मन हुआ इतने प्यार करने वाले पति से कुछ न छिपाए पर अंजाम सोच कर सिहर गई. अजय ने उस के रोने को फिर अपना जाना ही समझा.’’ कुछ दिन और बीते. शिवानी मन ही मन घुटती रही. वह चाह कर भी किसी से हंसबोल नहीं पा रही थी. एक अपराधबोध हर समय उस के मन पर हावी रहता था. उस ने सब से सच छिपा लिया था पर वह मन ही मन बहुत बेचैन रहने लगी थी.

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इस बार जब तय समय पर उसे पीरियड्स नहीं हुए, तो उस का माथा ठनका. उस ने कुछ दिन और इंतजार किया. फिर एक दिन अजय के औफिस जाने के बाद उसे उमा से कहा, ‘‘मां, आज थोड़ी देर मम्मी से मिलने चली जाऊं?’’ ‘‘हां, जरूर जाओ.’’

शिवानी ने रास्ते में ही प्रैगनैंसी चैक करने वाली किट खरीदी और मम्मी के यहां पहुंच गई. रमेश कालेज में ही थे. शिवानी से फोन पर बात होने के बाद सुधा अपने कालेज से जल्दी आ गईं. शिवानी का उतरा चेहरा देख परेशान हुईं, क्या बात है बेटा, तबीयत फिर खराब है क्या? ‘‘नहीं मम्मी, ठीक हूं.’’

दोनों थोड़ी देर बातें करती रहीं, फिर सुधा शिवानी के लिए कुछ चायनाश्ता बनाने

किचन में चली गईं तो शिवानी ने बाथरूम में खुद ही टैस्ट किया. वह गर्भवती थी. उस के होश उड़ गए. माथे पर पसीने की बूंदे चमक उठीं. उस ने बारबार अपने पिछले पीरियड, अपने साथ हुए रेप और अजय के साथ बने संबंधों का हिसाब लगाया और वह इस परिणाम पर पहुंची कि यह बच्चा अजय का नहीं उसी का है, जिस ने उसे नशे में बेसुध कर उस के साथ जबरदस्ती संबंध बनाया था. वह रो पड़ी. सुधा मन ही मन चिंतित थीं कि उन की बेटी को हुआ क्या है, उस का हंसनामुसकराना, चहकना सब कहां चला गया है.

हाथमुंह धो कर शिवानी बाहर आई तो सुधा को उस की सूजी आंखें देख कर झटका लगा, ‘‘क्या हुआ शिवानी, तुम कुछ बताती क्यों नहीं?’’ ‘‘मैं चाय लाती हूं, तुम थोड़ा लेट लो.’’

शिवानी चुपचाप लेट कर मन ही मन इस फैसले पर पहुंची कि वह अबौर्शन करवा लेगी. वह इस अनहोनी का अंश अपने अंदर नहीं पनपने देगी. सुधा चाय लाई तो वह चुपचाप चाय पीने लगी. सुधा ने कहा, ‘‘शिवानी, तुम्हें बहुत अच्छी ससुराल मिली है न?’’

‘‘हां, मां.’’ ‘‘पर तुम कुछ परेशान सी दिखती हो आजकल?’’

‘‘कुछ नहीं है मां, यह सिरदर्द ही आज परेशान कर रहा है,’’ मां कुछ और न सोचे, यह सोच कर वह झूठ ही हंसनेबोलने लगी. वापस जाते हुए रास्ते में शिवानी की मनोदशा बहुत अजीब थी. किसी को भी बिना बताए वह अबौर्शन का पक्का इरादा कर चुकी थी. घर पहुंच कर सब से सामान्य बातें करने में भी उसे बहुत मेहनत करनी पड़ रही थी. मन ही मन घुटती जा रही थी.

अगले दिन सुबह से ही उमा को तेज बुखार हो गया. उन की तबीयत काफी बिगड़ने लगी तो उन्हें हौस्पिटल में दाखिल करवाना पड़ा. सब उन की सेवा में जुट गए. शिवानी सब कुछ भूल कर उन की सेवा में लग गई. 3 दिन बाद उन की हालत कुछ संभली. अगले दिन ही उन्हें डिस्चार्ज किया जाना था. शिवानी उन के पास ही बैठी सोच रही थी कि बस अब 2-3 दिन में वह अबौर्शन करवा लेगी. अचानक उसे चक्कर सा आया. उलटी आने को हुई. वह बाथरूम में भागी. लता भी वहीं थीं, उमा ने उठने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘लता, देखना, बहू को क्या हुआ है?’’

लता ने बाथरूम में झांका, शिवानी उलटी के बाद पस्त थी. वह शिवानी को सहारा देते हुए बाहर लाईं. उसे चेयर पर बिठा कर पानी पिलाया. शिवानी के पीले पड़े चेहरे को देखते हुए उमा ने कहा, ‘‘क्या हो गया? ठीक तो हो न?’’

‘‘हां मां, यों ही चक्कर आ गया था.’’ लता मुसकराई, ‘‘यों ही या कोई खास

बात है?’’ ‘‘नहीं चाची, बस जी मिचला रहा था बहुत देर से.’’

‘‘यों ही थोड़े जी मिचलाता है बहूरानी. चलो यहां हमारी पुरानी डाक्टर हैं मनाली, उन्हें दिखा लेते हैं. मुझे तो खुशखबरी की उम्मीद लग रही है, दीदी.’’ उमा ने कहा, ‘‘जाओ लता, अभी दिखा आओ. मैं तो अब ठीक ही हूं.’’

शिवानी ने बहुत आनाकानी की पर उस की एक न चली. डाक्टर मनाली ने शिवानी के गर्भवती होने की पुष्टि कर दी. शिवानी के चेहरे का रंग उड़ गया. लता चहक उठी. शिवानी को बाहों में भर गले से लगा लिया, ‘‘बधाई हो बहू… वाह इतने सालों बाद घर में कोई नन्हा मेहमान आएगा,’’ खुशी के मारे लता की आवाज कांप रही थी.

उमा ने सुना तो वह बैड से उठ खड़ी हुईं. ‘‘इस खुशखबरी ने तो सारी कमजोरी ही खत्म कर दी,’’ उन्होंने शिवानी को बधाई देते हुए गले से लगा लिया. गौतम, विनय और अजय आए तो सब यह सुन कर चहक उठे. उमा की बीमारी भूल सब एकदूसरे को बधाई देने में व्यस्त थे. शिवानी की उड़ी रंगत की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया. वह बहुत परेशान थी. वह अब कैसे अबौर्शन करवा पाएगी, वह अपनी सोच में इतनी गुम थी कि सब के खुशी से भरे स्वर उस के कानों तक पहुंच भी नहीं रहे थे.

अचानक लता ने उसे झकझोरा, ‘‘क्या हो गया? घबरा रही हो? अरे, बड़ी खुशी का दिन है आज, तुम किसी बात की चिंता न करना. हम सब तुम्हारा बहुत ध्यान रखेंगे.’’ शाम को उमा के डिस्चार्ज होने के बाद सब घर लौट आए. उमा को कमजोरी तो थी पर इस खबर ने उन के अंदर एक उत्साह भर दिया था. उन्होंने रमेश और सुधा को भी फोन पर बधाई दी. वे दोनों भी बहुत खुश हुए.

सुधा ने रमेश से कहा, ‘‘तो यह बात थी. इसलिए शिवानी इतनी ढीलीढीली लग रही थी. मैं तो पता नहीं क्याक्या सोचने लगी थी. चलो, सब ठीक है.’’ शिवानी की अजीब हालत थी. वह तो अबौर्शन की सोच रही थी. अब कहां जश्न मनाया जा रहा था, हर समय सब आने वाले नन्हे मेहमान की बातें करते रहते थे. इतना स्नेह, इतना प्यार देने वाले परिवार से झूठ बोलने के अपराधबोध से वह मुक्त नहीं हो पा रही थी.

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अजय ने एक दिन कहा भी, ‘‘शिवानी, अब तुम पहले जैसी नहीं रहती हो. तुम्हारी वह हंसी जैसे कहीं खो सी गई है, पता नहीं क्या सोचती रहती हो. मुझ से भी पहले की तरह बातें नहीं करती हो. क्या हुआ है शिवानी?’’ शिवानी का मन हुआ अपने मन पर पड़ा बोझ अजय से बांट ले, बता दे उसे जिस नन्हे मेहमान की खुशी सब मना रहे हैं, उसे खुद ही नहीं पता कि वह किस की संतान है. यह सोचते ही शिवानी के आंसू बहते ही चले गए. अजय घबरा गया. फौरन उसे सीने से लगा लिया.

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Serial Story: शिवानी (भाग-1)

विवाह के बाद का 1 महीना कब बीत गया, शिवानी को पता ही नहीं चला. बनारस के जानेमाने समृद्घ, स्नेहिल, सभ्य परिवार की इकलौती बहू बन कर शिवानी खुद पर नाज करती थी. बीएचयू में ही मंच पर एक कार्यक्रम पेश करते हुए वह कब गौतम दंपती के मन में उन के इकलौते बेटे अजय की दुलहन के रूप में जगह बना गई, किसी को पता ही न चला. यह रिश्ता बिना किसी अवरोध के तय हो गया. शिवानी भी अपने अध्यापक मातापिता रमेश और सुधा की इकलौती संतान थी. गौतम का अपना बिजनैस था. परिवार में पत्नी उमा, बेटा अजय, उन के छोटे भाई विनय और उन की पत्नी लता सब एकसाथ ही रहते थे. उमा और लता में बहनों जैसा प्यार था. विनय और लता बेऔलाद थे. अपना सारा स्नेह अजय पर ही लुटा कर उन्हें चैन आता था.

गौतम परिवार में शिवानी का स्वागत धूमधाम से हुआ था. अजय पिता और चाचा के साथ ही बिजनैस संभालता था. लंबाचौड़ा बिजनैस था, जिस में टूअर पर जाने का काम अजय ने संभाल रखा था. विवाह के बाद की चहलपहल में समय जैसे पलक झपकते ही बीत गया. एक दिन औफिस से आ कर अजय ने शिवानी से कहा, ‘‘अगले हफ्ते मुझे इंडिया से बाहर कई जगह टूअर पर जाना है.’’

यह सुन कर शिवानी एकदम उदास हो गई, पूछा, ‘‘मुझे भी ले जाओगे?’’ ‘‘अभी तो तुम्हारा पासपोर्ट भी नहीं बना है. पहले तुम्हारा पासपोर्ट बनवा लेते हैं, फिर अगली बार साथ चलना.’’

घर में शिवानी की उदासी सब ने महसूस की. उमा ने कहा, ‘‘विवाह की भागदौड़ में ध्यान ही नहीं रहा कि पासपोर्ट की जरूरत पड़ सकती है. कोई बात नहीं बेटा, अगली बार साथ चली जाना. इस के तो टूअर लगते ही रहते हैं… ये दिन हम सासबहू मिल कर ऐंजौय करेंगे.’’ उमा के स्नेहिल स्वर पर अपनी उदासी एकतरफ रख शिवानी को मुसकराना ही पड़ा.

लता ने भी कहा, ‘‘अब इस के लिए अच्छेअच्छे गिफ्ट्स लाना… भरपाई तो करनी पड़ेगी न.’’ सभी शिवानी का मूड ठीक करने के लिए हंसीमजाक करते रहे. शिवानी भी फिर धीरेधीरे हंसतीमुसकराती रही.

रात को एकांत मिलते ही अजय ने कहा, ‘‘मेरा भी मन तो नहीं लगेगा तुम्हारे बिना पर मजबूरी है… अब बाहर के काम मैं ही संभालता हूं. जल्दी निबटाने की कोशिश करूंगा. तुम बिलकुल उदास मत होना. आराम से घूमनाफिरना और फिर हम टच में तो रहेंगे ही. विवाह के बाद अपने दोस्तों से भी नहीं मिली हो न… सब से मिलती रहना. मैं जल्दी आ जाऊंगा.’’ शिवानी का मन उदास तो बहुत था पर अजय के स्पर्श से मन को ठंडक भी पहुंच रही थी. अजय की बाहों के सुरक्षित घेरे में वह बहुत देर तक चुपचाप ऐसे ही बंधी पड़ी रही. 2 दिन बाद अजय चला गया. शिवानी को लगा जैसे वह अकेली हो गई है. वह सोचने लगी कि कैसा होता है पतिपत्नी का रिश्ता. जो कुछ दिन पहले तक अजनबी था, आज उसी के बिना एक पल भी रहना मुश्किल लगता है, सब कुछ उसी के इर्दगिर्द घूमता रहता है.

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उमा और लता ने उसे कुछ उदास सा देखा, तो उमा ने कहा, ‘‘जाओ बहू, अपने मम्मीपापा के पास कुछ दिन रह आओ, लोकल मायके में अकसर रहने को नहीं मिलता है… जब भी गई हो थोड़ी देर में लौट आई हो. अब कुछ दिन रह लो. टाइमपास हो जाएगा.’’ शिवानी को मायके आ कर अच्छा लगा. रमेश और सुधा बेटी की ससुराल से पूरी तरह संतुष्ट थे.

सुधा ने कहा भी, ‘‘बेटा, वे बहुत अच्छे लोग हैं. उन के साथ तुम हमेशा प्यार से रहना. बहुत ही कम लड़कियों को ऐसा घरवर मिलता है.’’ अजय फोन पर तो शिवानी के संपर्क में रहता ही था. 2 दिन हुए थे. शिवानी के दोस्तों जिन में लड़केलड़कियां दोनों शामिल थे, सब ने शिवानी के लिए एक पार्टी रखी.

उस की सहेली रेखा ने कहा, ‘‘तुम्हारे लिए ही रखी है पार्टी. आजकल बोर हो रही हो न? कुछ टाइमपास करेंगे. खूब धमाल करेंगे.’’ शिवानी ने अजय को फोन पर पार्टी के बारे में बताया, तो वह खुश हुआ. बोला, जरूर जाना…ऐंजौय करो.

पिता रमेश ने तो सुन कर ‘‘हां, जाओ,’’ कहा पर मां सुधा ने मना करते हुए कहा ‘‘दिन भर जहां मन हो, घूमफिर लो, पर रात में रुकना मुझे अच्छा नहीं लगता.’’ ‘‘अरे मम्मी, संजय के फार्महाउस पर पार्टी है और अब तो मैं मैरिड हूं. आप चिंता न करें. सब पुराना गु्रप ही तो है.’’

‘‘नहीं शिवानी, मुझे इस तरह रात में रुकना पसंद नहीं है.’’ सुधा शिवानी के रात भर बाहर रुकने के पक्ष में बिलकुल नहीं थीं पर शिवानी ने जाने की तैयारी कर ही ली. तय समय पर वह तैयार हो कर रेखा के घर गई. वहां अनिता, सुमन, मंजू, सोनिया, रीता, संजय, अनिल, कुणाल, रमन सब पहले से मौजूद थे. सब पुराने सहपाठी थे. सब की खूब जमती थी. संजय का फार्महाउस बनारस से बाहर 1 घंटे की दूरी पर था. 2 कारों में सब 1 घंटे में फार्महाउस पहुंच गए.

इन सब में रीता, रमन और शिवानी विवाहित थे. सब मिल कर चहक उठे थे. 6 बज रहे थे. सब से पहले कोल्ड ड्रिंक्स का दौर शुरू हुआ. सब एकदूसरे का गिलास भरते रहे. खूब हंसीमजाक के बीच भी शिवानी को अपना सिर भारी होता महसूस हुआ. वह थोड़ा शांत हो कर एक तरफ बैठ गई. उस के बाद म्यूजिक लगा कर सब थिरकने लगे. सब लोग कालेज स्टूडैंट्स की तरह मस्ती के मूड में थे. वहीं एक सोफे पर शिवानी निढाल सी बैठी थी. रेखा ने कहा, ‘‘तू किसी रूम में जा कर थोड़ा लेट ले.’’

‘‘हां ठीक है.’’ संजय के फार्महाउस की देखभाल माधव काका और उन की पत्नी करते थे. बहुत पुराने लोग थे. संजय ने उन्हें आवाज दी, ‘‘काकी, शिवानी को एक रूम में ले जाओ और आराम करने देना इसे. इस की तबीयत ठीक नहीं है.’’

रेखा भी साथ जा कर शिवानी को लिटा आई. फिर सब के साथ डांस में व्यस्त हो गई. सब ने जम कर धमाल किया. खूब डांस कर के थक गए तो माधव और जानकी ने सब का खाना लगा दिया. सब डिनर के लिए शिवानी को उठाने गए पर वह गहरी नींद में बेसुध थी. रेखा ने कहा, ‘‘इसे सोने दो. उठेगी तो खा लेगी. यह तो शादी के बाद कुछ ज्यादा ही नाजुक हो गई है?’’

सब इस मजाक पर हंसने लगे. सब ने डिनर किया. उस के बाद जिस का जहां मन किया, सोने के लिए लेट गया. रेखा, रीता, सुमन दूसरे कमरे में जा कर सो गई थीं. इस फार्महाउस में 3 रूम थे. तीसरा रूम इस समय खाली था. शिवानी को कोई होश नहीं था. वह बिलकुल बेसुध थी. रात को 3 बजे संजय ने सब पर एक नजर डाली. सब गहरी नींद में सोए थे. संजय चुपचाप उठ कर सीधा शिवानी के रूम में गया. उस ने शिवानी पर कामुक नजरें डाली. शिवानी को वह पहले से ही पसंद करता था.

आज उस ने शिवानी के ड्रिंक्स में नशीला पदार्थ मिला दिया था. यह सब प्रोग्राम उस ने सोचसमझ कर बनाया था. दरवाजा अंदर से बंद कर के वह शिवानी की तरफ बढ़ गया. शिवानी ने बेहोशी में ही हाथपांव मारे, अपने को बचाने की कोशिश भी की, लेकिन नशे के असर से उस की आंख ही नहीं खुल रही थी. हाथपांव भी निर्जीव ही लग रहे थे.

संजय अपने इरादे में सफल हो चुका था. शिवानी के साथ जबरदस्ती संबंध बना कर वह अपनी योजना के सफल होने पर मुसकराता हुआ कपड़े पहन कर रूम से निकल कर बाकी दोस्तों के बीच जा कर सो गया.

सुबह सब से पहले नशे का असर खत्म होते ही शिवानी की ही आंखें खुलीं. जरा होश आया तो महसूस हुआ कि उस के साथ बीती रात क्याक्या हुआ है. वह कांप उठी. गुस्से के कारण उस का मन हुआ अभी जा कर बलात्कारी को जान से मार दे. आवेश में वह बिस्तर से उठी और कांपते कदमों से सिर पकड़ कर ड्राइंगरूम में जाते ही चौंक गई.

सब सोए पड़े थे. दूसरे रूम में भी झांका. सब सो रही थीं. शिवानी के पैर डगमगा गए कि यह क्या हो गया. उसे तो यह भी नहीं पता कि किस ने रेप किया है… किस से क्या कहेगी, वह अब क्या करेगी… तनमन से निढाल वह वापस बैड पर आ गिरी. आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. वह बहुत देर तक रोती रही. मन हुआ कि चीखचीख कर सब को बता दे कि उस के साथ क्या अनर्थ हुआ है. फिर धीरेधीरे सब 1-1 कर उठते गए. सब उस के पास उस की तबीयत पूछने आ रहे थे. उस ने सब लड़कों के चेहरे पढ़ने की कोशिश की पर किसी के चेहरे से उसे कुछ पता नहीं चल सका.

बहुत कुछ सोच कर वह चुप रही. सब फ्रैश हो गए तो संजय ने माधव को नाश्ता बनाने के लिए कहा. संजय बिलकुल सामान्य ढंग से कह रहा था, ‘‘चलो, नाश्ता कर के निकलते हैं… शिवानी की तबीयत ठीक नहीं लग रही है… यह घर जा कर डाक्टर को दिखा लेगी.’’ शिवानी ने संजय के चेहरे को भी ध्यान से देखा पर वह हमेशा की तरह हंसतामुसकराता ही लगा. शिवानी को सुस्त देख कर सब को उस की चिंता हो रही थी. मन ही मन कलपती शिवानी वापस घर आ गई. शिवानी को छोड़ने सब से पहले सब उसी के घर आए.

सुधा से लिपट कर वह रो दी तो रमेश घबरा गए. पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ तबीयत तो ठीक है? रमन ने कहा, ‘‘अंकल, कल रात ही इस की तबीयत खराब हो गई थी.’’

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‘‘अरे, क्या हुआ? फोन क्यों नहीं किया?’’ ‘‘पापा, मैं जल्दी सो गई थी, सिर भारी था.’’

सुधा परेशान हो गईं, ‘‘चल, डाक्टर को दिखा लेते हैं.’’ ‘‘नहीं मम्मी, अब थोड़ा ठीक हूं. बस आराम कर लूंगी.’’

सब चले गए. अजय भी शिवानी का हाल सुन कर परेशान हो गया. लता और उमा भी उस से मिलने आ गईं. शिवानी का दिल भर आया. उस की मनोदशा का तो किसी को अंदाजा ही नहीं था. उमा कह रही थीं, ‘‘आराम ही करना, जब मन हो, आ जाना. वैसे तुम्हारे बिना हमारा मन नहीं लग रहा है. घर खालीखाली लगता है.’’

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किराएदार: भाग 3- कंजूस व्यवहार के शिवनाथजी का कैसे बदला नजरिया?

ऊपरनीचे दोनों की गृहस्थी अपने ढर्रे पर आगे बढ़ रही थी. उस दिन खापी कर वे सोए थे. अचानक शिवनाथजी के सीने में तेज दर्द उठा. वे जोरजोर से चीखे और मदन को आवाज दे कर बेहोश हो गए. मालिक की चीख सुन कर मदन दौड़ कर आया. रात के डेढ़ बजे थे. चारों ओर जाड़े की रात का सन्नाटा. अंदर की सीढि़यों का दरवाजा खोल कर मदन ने छत पर जा कर अमितआरती को जगाया. वे दोनों नीचे दौड़े आए. अमित घबरा गया.  ‘‘दादाजी, जल्दी जा कर डाक्टर को बुला लाओ. इन्हें दिल का दौरा पड़ा लगता है. हम इन के पास हैं.’’

मदन डाक्टर के पास गया. आधे घंटे में रोता हुआ लौटा, कोई नहीं आया.

‘‘इन को फौरन उपचार की जरूरत है,’’ आरती बोली, ‘‘दद्दू, पास में कौन सा अस्पताल है?’’

‘‘भारत अस्पताल. वह भी यहां से एक मील दूर होगा.’’

‘‘मैं जाता हूं और ऐंबुलैंस ले कर आऊंगा, तब तक तुम दोनों इन का ध्यान रखना,’’ अमित बोला.

‘‘पर बेटा, इतना कोहरा और ठंड है.’’

‘‘कोई बात नहीं दद्दू,’’ अमित बोला. और 20 मिनट में ही ऐंबुलैंस ले कर लौट आया.

‘‘आरती, ऊपर ताला लगा आओ. मुझे आज ही वेतन मिला है वह पैकेट और घर में जो पैसे रखे हैं सब ले आओ. बाबूजी को अभी ले जाना है.’’

आई.सी.यू. के बाहर अमित और आरती चुपचाप बैठे थे. 11 बजे मदन आया और पूछा, ‘‘मालिक कैसे हैं?’’

‘‘अभी होश नहीं आया है.’’

‘‘मैं ने उन के भतीजों को फोन किया था पर उन के पास समय नहीं है. समय मिला तो देखने आएंगे. बहूरानी, यह लो 2 हजार रुपए रखो. कब क्या जरूरत पड़ जाए. मैं जा कर घर देख कर आता हूं.’’  मौत और जीवन के खेल में शिवनाथजी के जीवन ने मौत को हरा दिया. इस के बाद भी डाक्टरों ने उन्हें 3 दिन तक और रोक कर रखा. वे घर आए तो 15 दिन तक आरती और अमित ने दौड़धूप, सेवा और देखभाल की. कोेई अपना सगा बेटा भी क्या सेवा करेगा, जो उन्होंने की. पता नहीं कितने पैसे खर्च किए उन्होंने. पर शिवनाथजी पर किसी बात का कोई असर नहीं था. स्वस्थ होते ही वे फिर अपने असली रूप में आ गए. अमित जब किराया देने आया तो उस के सारे किएधरे को भूल कर उन्होंने आराम से किराया ले कर रख लिया. मदन तक से एक बार भी नहीं पूछा कि तू ने कितना खर्च किया है.

उस दिन मदन टमाटर व प्याज खरीद  कर लाया तो वे बिगड़ पड़े, ‘‘आजकल टमाटर व प्याज सब से महंगे हैं. टैलीविजन पर रोज दिखा रहे हैं और तू यही ले आया. गलती से 100 का नोट क्या दे दिया कि तू ने तो शाही दावत का जुगाड़ कर लिया.’’

‘‘अब आप पैसा जोड़ते रहिए,’’ मदन बोला, ‘‘बड़ा घमंड है न आप को अपने पैसे पर. क्या कहते हैं आप पैसे को…बुढ़ापे की लाठी. तो कौन काम आई वह लाठी, जब मौत आप के सिरहाने आ कर खड़ी हुई थी. घना कोहरा, हाड़ गलाने वाली ठंड में एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक मैं गिड़गिड़ाता रहा, आप के डाक्टर साहब ने भी आने से मना कर दिया. ऊपर के किराएदार ही अपने सारे पैसे ले कर आप की जान बचाने को दौड़धूप करते रहे. रात 2 बजे अमित पैदल अस्पताल गया गाड़ी लाने, तब आप की लाठी ने कौन सा करतब दिखा दिया…’’

तभी आरती सूप ले कर आई. उस ने समझाबुझा कर मदन को शांत किया…

‘‘बाबूजी, मदन दादाजी की भी ढलती उम्र है. सुबह से दौड़धूप कर रहे हैं. आप इन को डांटिए नहीं. थोड़ा समझौता दोनों के ही लिए अच्छा है.’  शिवनाथजी चुप हो गए. सूप पीने लगे. मानो अमृत का स्वाद हो. लड़की जो भी बनाती है उसी में स्वाद आ जाता है. इस के बाद शिवनाथजी ने बंद मुट्ठी को थोड़ा खोला तो मदन के दिन वापस आ गए. अब शिवनाथजी थोड़ाथोड़ा बाहर भी जाने लगे. कभी रिकशे में तो कभी आटो में अकेले ही जाते. मदन को भी पता नहीं कि वे कहां जाते हैं. रविवार के दिन अमित को आरती सुबह उठाने का प्रयास कर रही थी कि मदन घबराया सा आया, ‘‘बिटिया, जरा भैया को नीचे भेज दो, मालिक उठ नहीं रहे.’’

अमित एकदम उठ बैठा, ‘‘क्या मतलब?’’

‘‘भैया, आज इतना दिन चढ़ आया,’’ मदन बोला, ‘‘मैं कई बार मालिक को जगा चुका हूं…’’

अमित समझ गया कि पिछली बार सब से दौड़धूप करवाई पर इस बार शांति से चुपचाप चले गए. उस ने चादर से शव को सिर तक ढक दिया.  ‘‘मैं डाक्टर को फोन करता हूं. इन का डैथ सर्टिफिकेट चाहिए.’’

मदन दहाड़ मार कर रो उठा.  काम निबटातेनिबटाते रात हो गई. उन का भतीजा व भानजा शिवनाथजी के मरने की खबर सुन कर दौड़े आए और क्रियाकर्म तक जम कर बैठे रहे.  वे मौका मिलते ही मदन से तरहतरह के सवाल पूछ लेते. मदन जानता ही क्या था जो उन्हें बताता. पहले ही दिन मदन ने एक चालाकी का काम किया था, शिवनाथजी के खानदानी वकील को उन की तिजोरी की चाबी यह कहते थमा दी थी, ‘‘वकील साहब, मालिक तिजोरी की चाबियां अपने तकिए के नीचे रखते थे. तिजोरी में क्या है मुझे भी नहीं पता. मालिक तो बस खर्चे के पैसे और मेरी पगार देते थे. उन के 3 अपने रिश्तेदार हैं जो यहां आए हैं, मुझे उन पर भरोसा नहीं. यह चाबी आप ले जाओ.’’  इस के बाद तीनों ने बारीबारी से मदन से तिजोरी की चाबी मांगी, लेकिन उस ने तीनों को एक ही उत्तर दिया कि चाबी तो वकील साहब के पास है. उन से  मांग लो.  श्राद्ध के दिन वकील ने कहा, ‘‘शिवनाथजी ने अभी 2 हफ्ते पहले अपनी पुरानी वसीयत बदल कर नई वसीयत की थी जो मेरे पास है. डाक्टर साहब, जज साहब और ब्रिगेडियर साहब उस के गवाह हैं. परसों 11 बजे आप तीनों जो उन के सगे हैं, मदन व किराएदार अमित अपनी पत्नी आरती के साथ मेरे घर पर आ जाएं. वसीयत के हिसाब से चलअचल संपत्ति का कब्जा भी दिया जाएगा.’’

भतीजे ने आपत्ति जताई, ‘‘हमारे घर की वसीयत में बाहर के किराएदार क्यों?’’

‘‘यह शिवनाथजी की इच्छा है. गवाह भी तो बाहर के लोग हैं. इन का आना जरूरी है.’’  जाने की इच्छा एकदम नहीं थी. फिर भी अमित मरने वाले की अंतिम इच्छा को महत्त्व देते हुए पत्नी आरती व मदन को ले कर वकील के घर ठीक समय पर गया. थोड़ी उत्सुकता मन में यह थी कि देखें इन सगों में किस की तकदीर जागी है. तीनों ही परेशान से दिखाई दे रहे थे.  उन में से एक ने अमित से पूछा, ‘‘क्यों भाई, क्या लगता है, वसीयत किस के नाम हो सकती है?’’

‘‘मुझे क्या पता? किराएदार हूं, वह भी मात्र 8 महीने पहले ही आया हूं. परिचय भी ठीक से नहीं था.’’

‘‘हम 3 ही हैं,’’ एक ने कहा, ‘‘हम तीनों को ही बराबर बांट गए होंगे. क्या कहते हैं आप?’’

‘‘पर मदन ने अपना पूरा जीवन उन की सेवा में बिताया. वह इस बुढ़ापे में कहां भटकेगा.’’

‘‘अरे, नौकर की जात, एक नौकरी गई तो दूसरी पकड़ लेगा. आप भी ले बैठे नौकर की चिंता.’’

वकील ने लिफाफे से वसीयत निकाली.  ‘‘यह शिवनाथजी की हाल ही में की गई नई वसीयत है. इस की 2 कापी और हैं. एक जज साहब के पास, दूसरी ब्रिगेडियर साहब के पास. उन का निर्देश है कि वसीयत के अनुसार घरसंपत्ति का कब्जा मैं असली हकदार को दिलवाऊं. मैं वसीयत पढ़ता हूं,’’ यह कह कर उस ने वसीयत पढ़ी : ‘चल व अचल मिला कर तकरीबन डेढ़ करोड़ की संपत्ति है. इस संपत्ति को छोड़ कर लाखों के आभूषण तिजोरी में मौजूद हैं. घर की कीमत भी आज की तारीख में 1 करोड़ रुपए है. यह सारी चलअचल संपत्ति किराएदार दंपती अमित और आरती के नाम है. मदन के नाम 3 लाख रुपए मासिक ब्याज के खाते में जमा हैं, जहां से उसे प्रतिमाह 3 हजार रुपए ब्याज मिलेगा और जब तक वह जीवित है तब तक इसी घर के निचले हिस्से में रहेगा. उस के बाद यह पूरा घर अमितआरती का होगा.’

‘‘ठीक, एकदम ठीक,’’ बुजुर्गों ने समर्थन किया, ‘‘अपना वह जो समय पर काम आए.’’

भतीजा चीखा, ‘‘मैं इस वसीयत  को नहीं मानता हूं. मैं उन का  सगा हूं.’’  ‘‘सगे होने का एहसास उन के मरने के बाद हुआ,’’ जज साहब बोले, ‘‘बीमारी में तो झांके तक नहीं.’’  ‘‘मैं यह वसीयत नहीं मानता.’’  ‘‘तो कोर्ट में जा कर चुनौती दो. अब उस घर से अपना सामान उठा  कर चलते बनो. मुझे इन को कब्जा दिलाना है.

‘‘अब आप लोग घर खाली कर दें नहीं तो कानून के गुनाहगार होंगे और मदन की सहायता कानून करेगा.

‘‘अब वह नौकर नहीं घर का मालिक है.’’  कोने में बैठा मदन रोए जा रहा था.

आरती उठ कर पास आई, बोली, ‘‘दद्दू, उठो, घर चलो. अब तो साथ ही रहेंगे हम.’’

उस ने सिर उठाया, ‘‘बहूरानी, मालिक…’’

‘‘हां, दद्दू, उन्होंने हम सब को हरा दिया और खुद जीत गए. पक्के खिलाड़ी जो ठहरे.’’

किराएदार: भाग 2- कंजूस व्यवहार के शिवनाथजी का कैसे बदला नजरिया?

पूर्व कथा

परले दरजे के कंजूस शिवनाथजी अपने बड़े से बंगले में नौकर मदन के साथ रहते थे. घरगृहस्थी के जंजाल में व्यर्थ पैसा खर्च होगा, यह सोच कर उन्होंने शादी तक नहीं की. हालांकि उन के पास बापदादा की छोड़ी हुई जायदाद और मां के लाखों के आभूषण थे, पर उन का मानना था कि पैसा बचा कर रखना बेहद जरूरी है. यह बुढ़ापे का सहारा है. नौकर मदन को भी वे मात्र 100 रुपए महीना तनख्वाह देते थे और साल में 2 जोड़ी कपड़े. बदले में वह सारे घर का काम करता था और बगीचे में अपने पैसों से ला कर खाद और बीज डालता था. एक दिन एक नवयुगल उन के घर आया और ऊपर का हिस्सा किराए पर रहने के लिए मांगा. पैसों के लालच में शिवनाथजी ने उन्हें किराएदार रख लिया. पति का नाम अमित व पत्नी का नाम आरती था. मदन ने उन के साथ जा कर ऊपर के हिस्से की साफसफाई करा दी.

अब आगे…

‘‘बाबूजी, आप का एडवांस.’’

शिवनाथजी ने रुपए गिने, पूरे 3 हजार, खुश हुए. फिर बोले, ‘‘देखो, किराया समय पर देते रहे तो कोई बात नहीं, मैं तुम को हटाऊंगा नहीं पर मेरी कुछ शर्तें हैं. एक तो बिजली का बिल तय समय पर दोगे. ज्यादा लोगों का आनाजाना मुझे पसंद नहीं. ऊपर जाने के लिए तुम बाहर वाली सीढ़ी ही इस्तेमाल करोगे और रात ठीक 10 बजे गेट पर ताला लग जाएगा, उस से पहले ही तुम को घर आना होगा. किसी उत्सव, पार्टी में जाना हो तो मदन से दूसरी चाबी मांग लेना. तुम नौकरी कहां करते हो?’’

‘‘मेरे दोस्त की एक फर्म है. कल से काम पर जाऊंगा. फर्म का नाम याद नहीं है.’’

‘‘तुम साथ में कोई सामान क्यों नहीं लाए?’’

‘‘घर मिलेगा या नहीं, यह पता नहीं था.’’

‘‘अब क्या करोगे?’’

‘‘रसोई का सामान खरीदने जा रहे हैं.’’

‘‘ठीक है.’’

अमित व आरती चले गए और 2 घंटे के बाद लौटे तो उन के हाथों में गृहस्थी का सामान था. रात को आरती नीचे आई तो तौलिए से ढका थाल ले कर आई और बोली, ‘‘बाबूजी, खाना…’’

शिवनाथजी उस समय समाचार देख रहे थे. मदन रात के खाने के लिए आलू काटने बैठा था. वे अवाक् रह गए.

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‘‘आज मेरी गृहस्थी में पहली बार खाना बना है. हमारे यहां बड़ों को भोग लगाने का नियम है.’’

‘वाह, लड़की तो संस्कारी लगती है,’ शिवनाथजी ने मन ही मन सोचा, ‘अवश्य अच्छे घर की होगी.’

मदन ने उठ कर थाल लिया. आलू- टमाटर की डोंगा भर कर सब्जी थी. साथ में हलवा और पूरी. पूरे कमरे में खाने की सुगंध छा गई.  आरती चली गई. आज बहुत दिन बाद शिवनाथजी को जल्दी भूख लगी.

‘‘मदन, खाना लगा दे.’’

घर का काम जैसेतैसे निबटा कर मदन बाग में आ जाता और काम करने लगता. आरती भी घर का पूरा काम कर के बाग में मदन का हाथ बंटाती. पौधों में पानी डालती, छंटाई कर देती, बेलों को लपेट कर सहारा देती, झुकी डाल में डंडी लगा कर उन्हें खड़ा कर देती. मदन खुश होता. फिर अपने बचपन की बात, बड़े मालिक और मालकिन की बात, आरती को बताता.

‘‘बहूरानी, ऐसा इंसान तुम ने कहीं देखा है जो पत्नी को खिलाने के डर से शादी ही न करे.’’

आरती हंसतेहंसते लोटपोट हो जाती.  ‘‘दादाजी, शादी तो आप ने भी नहीं की.’’

‘‘मेरी बात और है बिटिया,’’ मदन दुखी हो सिर हिलाता, ‘‘होश संभालते ही अपने को नौकर पाया. बड़े मालिक सड़क से उठा कर लाए थे. मैं जानता भी नहीं कि मेरे मांबाप कौन थे. बस, मां की हलकी सी याद है. दूसरे के अन्न पर, पराए घर में जो जीवन काटे उसे कौन अपनी बेटी देगा?’’

आरती ने बात पलटी.  ‘‘इतना बड़ा और इतनी सुगंध से भरा फूलों वाला घर पहले कभी नहीं देखा. क्या इन पौधों को कोलकाता से लाए हो?’’

‘‘न बहूरानी. 2 कोठी छोड़ कर तीसरी कोठी रायबाबू की है. उन को बढि़याबढि़या फूल बहुत पसंद हैं. पैसा भी खूब खर्च करते हैं. उन के बगीचे में गंधराज का यह फूल बहुत बड़ा हो गया था तो माली ने छंटाई कर के डाल बाहर फेंक दी. मैं उठा लाया. 2 लगा दिए और दोनों ही लग गए. दूसरा बाहर दरवाजे के पास है.’’

‘‘दादा, मैं  1-2 फूल ले सकती हूं?’’

‘‘अरे, क्यों नहीं बिटिया. तुम जितने चाहो ले लो, बहुत हैं.’’

किराएदार क्या आए, 2 बूढ़ों को ले कर उदास खड़ा घर कैसा खिल उठा. उस दिन आरती मटरपनीर और पालक के पकौड़े दे गई. गरम रोटी बना कर मदन ने खाना परोसा तो शिवनाथजी ज्वालामुखी की तरह फट पड़े.

‘‘क्या है यह सब? मेरा श्राद्ध है क्या आज?’’

अब मदन के धीरज का बांध टूटने लगा, पर बहुत शांत स्वर में बोला, ‘‘नहीं.’’

‘‘तो यह शाही खाना बनाने का मतलब? क्या कटोरा ले कर मुझ से भीख मंगवाने का इरादा है?’’

‘‘मालिक, कटोरा ले कर आप नहीं मैं भीख मांगूंगा.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘आप गिन कर सागसब्जी के पैसे देते हैं, उन में ये महंगे मटर और पनीर आ सकते हैं क्या? आप आराम से खाइए. ये सब बिना पैसों के किराएदार के घर से आया है. बस, रोटी घर के आटे की है.’’

चैन की सांस ले शिवनाथजी ने थाली खींच ली. सब्जी की सुगंध के साथ गरम रोटी ने भूख तेज कर दी थी. खापी कर बिस्तर पर लेट कर मन ही मन वे बोले, ‘यह मदन भी गधा है एकदम. वह क्या जाने पैसे में कितना दम है. अरे, पैसा भरोसा है, आदमी की ताकत है.’

किराएदार नवविवाहित जोड़ा है. ऐसे जोड़े घर में रहें तो उस घर के माहौल में अपनेआप एक मधुर रस घुल जाता है. 2 बूढ़ों के इस घर में भी वही हुआ. शांत पड़े घर में अचानक से खिलखिलाती हंसी की मधुर गूंज, कभी छेड़छाड़ का आभास, कभी सैंट, पाउडर और सुगंधित साबुन की सुगंध नीचे तक तैर आती. शिवनाथजी की अनुभूति तो पैसे के हिसाबकिताब में उलझ कर जाने कब की दम तोड़ चुकी थी. पर मदन पुलकित होता और मन ही मन दोनों की सलामती की कामना करता.

लड़की के संस्कार अच्छे हैं. आजकल की लड़कियों जैसे शरीर उघाड़ू कपड़े नहीं पहनती. खाना भी बहुत अच्छा बनाती है. अकसर कुछ न कुछ बना कर दे जाती है. शायद यही वजह है कि मदन को आरती से बड़ा  स्नेह हो गया था. दोनों को देख कर मदन को लगता मानो उस के ही बच्चे हैं. मदन इसलिए भी खुश था कि उस घर का सन्नाटा तो टूटा और शिवनाथजी प्रसन्न थे कि 3 हजार रुपए की ऊपर की आमदनी घरबैठे बिना मांगे ठीक समय पर मिल जाती है. लड़का सज्जन है, लड़की भी भले घर की है.

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बरसात समाप्त हो कर हल्की ठंड पड़ने लगी. सुबहशाम कोहरा भी  पड़ने लगा. उन्हें यहां आए 3 महीने हो गए थे.  अचानक एक दिन मदन को लगा कि घर में जो मधुर रस गूंज रहा था उस की ताल कहीं से टूटी है. गुनगुनाहट थम सी गई है. अब खिलखिलाहट भी नहीं गूंजती. आरती का मुख कमल सा खिला रहता था लेकिन अब उस पर एक मलिन छाया है. कहीं न कहीं इन दोनों के बीच कोई बात जरूर है पर इस तरह की बात एकदम से पूछी नहीं जा सकती. वह भी उन के बीच कुल 3 महीने का परिचय है. प्यार जो है वह तो है ही पर कृतज्ञता बहुत ज्यादा है.

उस दिन आरती नीचे आई ही नहीं. ऐसा कभी हुआ नहीं. क्या तबीयत ठीक नहीं? मदन ने कई प्रकार के फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता बनाया और ऊपर गया. जीना बालकनी में खुलता है. वहां पहुंच कर देखा, आरती ध्यानमग्न  सी बैठी कुछ सोच रही है. मुख पर चिंता की काली छाया. बात कुछ गंभीर ही है.

‘‘बहूरानी…’’

चौंक कर आरती ने मुड़ कर देखा. थोड़ा हंसी.  ‘‘आओ, दादाजी.’’

‘‘ये फूल मैं अपनी बिटिया के लिए लाया हूं. आज क्या तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘जी…दादाजी, यों ही थोड़ा सिर भारी सा है…कितने सुंदर फूल हैं…’’

फूलों को सजा कर आरती लौटी और बोली, ‘‘दादाजी, कई दिन से मैं आप से एक बात कहने की सोच रही थी.

‘‘दादाजी, मैं दिन भर घर में बैठेबैठे ऊब जाती हूं. मुझे दोचार ट्यूशन  दिला दोगे? यहां मुझे कोई जानता नहीं है…आप कहोगे तो मेरा काम जल्दी हो जाएगा.’’

‘‘तुम ट्यूशन करोगी, बहूरानी?’’ मदन ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं ने एम.एससी. किया है. शादी से पहले भी मैं पढ़ाया करती थी. दादाजी, अब आप से क्या छिपाना. हम दोनों ही मामूली परिवार से हैं और हमारी जाति भी अलगअलग है. घर वालों ने शादी की अनुमति नहीं दी तो हम ने प्रतीक्षा की. जब अमित के एक दोस्त ने यहां उन की नौकरी लगवा दी तब हम ने मंदिर में जा कर शादी कर ली. हमारे कुछ जोड़े हुए पैसे थे, कुछ आभूषण जिन्हें बेच कर किराया दिया और गृहस्थी का सामान ले लिया. अमित को कुल 4 हजार रुपए मिलते हैं. 3 हजार किराया दे कर हाथ में जो बचता है उस से पूरा महीना खाएं क्या? उस पर हाथ का जो पैसा था, सब समाप्त हो गया. दोचार ट्यूशन दिला दो तो हम भूखे रहने से बच जाएं.’’

मदन का दिल भर आया. उन्होंने पूरे 4 हजार की ट्यूशन दिला दी. विज्ञान के अध्यापक कम ही मिलते हैं. ट्यूशन के बजाय एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गई. 12 से 4 बजे तक क्लास लेनी थी. समस्या का समाधान होते ही आरती फिर पहले की तरह खिल उठी.

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किराएदार: भाग 1- कंजूस व्यवहार के शिवनाथजी का कैसे बदला नजरिया?

इस इलाके में बहुत सुंदरसुंदर घर हैं और इन घरों के मालिक भी पैसों के लालच से खुद को बचाए हुए हैं. इसी इलाके के सब से सुंदर घरों में एक घर शिवनाथजी का है जहां पर एक सुंदर बगीचा भी है. शिवनाथजी अकेले हैं. उन्हें किसी प्रकार के नशे की लत नहीं है. उन के विरोधी कहते हैं कि वे किसी भी प्रकार का नशा इसलिए नहीं करते क्योंकि वे एक भी पैसा खर्च नहीं करना चाहते. हर पैसे में उन की सांस अटकी रहती है. पैसे खर्च होने के डर से उन्होंने शादी तक नहीं की. पड़ोसियों से ज्यादा मेलजोल इसलिए नहीं रखा कि उन के आने पर चाय, चीनी और दूध का खर्चा होगा.

घर में उन को छोड़ बस उन के पिता का लाया एक नौकर मदन है, जो अब 60 साल का बूढ़ा हो चला है. वह घरबाहर का सारा काम कर के आज भी मालिक से 100 रुपए पाता है. खाना और होली, दीवाली को एकएक जोड़ी कपड़े उसे मालिक की तरफ से मिलते हैं. चूंकि मोहन को बागबानी का शौक है अत: अपने इस शौक के लिए वह पौधों के खाद, बीज आदि में अपनी पगार का आधा पैसा लगा देता है. उस का अपना कोई नहीं है. यह बगीचा, पेड़पौधे, फूल ही उस का परिवार हैं.

शिवनाथजी की आयु 80 साल की है पर उन को देख कर लगता है कि अभी 60 साल के आसपास के हैं. लंबा, गठीला शरीर, साफ रंग. शायद वे इस शरीर को निरोग रखने का रहस्य जानते हैं. जीभ और मन पर उन का पूरा संयम है. पर मदन कुछ और कहता है, ‘‘संयम तो उन का ढकोसला है, असली कारण है कंजूसी. खर्चे के डर से जो इंसान शादी नहीं करता, पड़ोसियों से कोई संपर्क नहीं रखता था क्या वह पैसे खर्च कर के खाने, पहनने, घूमने का शौक रखेगा. अरे, मेरा दुनिया में कहीं कोई और ठिकाना होता तो यह 2 जोड़ी कपड़े, रोटी और 100 रुपए महीने पर मैं यहां पड़ा रहता? मालिक के पास कितना पैसा है इस का अंदाजा नहीं है.’’

भोर में फै्रश हो दरवाजे का ताला खोलने आए शिवनाथजी ने ताले को गेट की छड़ में ही लटका दिया. मुड़ते ही उन्होंने सोचा, मैं अकेला कितने आराम से हूं. बीवी पालना तो हाथी पालने से भी महंगा है. अच्छा हुआ कि शादी के चंगुल में नहीं फंसा, नहीं तो बीवी के नखरे उठाने में लाखों खर्च हो जाते. मदन को 100 रुपए देने पड़ते हैं और उस के लिए यही बहुत है. हमारे पुराने जूते, चप्पल, कुरतापजामा, तौलिया, बनियान आदि सब भी तो हथिया लेता है, पैसों का क्या अचार डालेगा?

जब से सामान महंगा हुआ, तेलमसाले की मात्रा कम कर दी. चावल भी मोटा खाने लगे. बस, हार गए आटे के मामले में कि उस का कोई विकल्प नहीं. कभीकभार मदन महंगी गोभी ले आता तो वे बिगड़ते, ‘इतनी महंगी गोभी क्यों ले आया तू.’

‘आज सस्ती थी,’ मदन कहता. ‘काहे की सस्ती. इस के लिए कितना तेल, मसाला चाहिए. यह लौकी, तोरई की तरह बूंद भर तेल टपका कर बन जाएगी क्या? तू मुझे भीख मंगवा कर छोड़ेगा.’

‘मालिक, यह अपना मन मार कर, तन को कष्ट दे कर जो पैसा बचा कर रखते हो, यह किस के लिए? न आगे नाथ न पीछे पगहा तो इसे खाएगा कौन?’

‘तू ठहरा अनपढ़. तू क्या जाने पैसे का दम. लोग बच्चों को बुढ़ापे की लाठी कहते हैं. अरे, आजकल के बच्चे लाठी नहीं दरांती होते हैं. पैसे के लिए बूढ़े मांबाप का गला काट देते हैं और माल हड़प लेते हैं. असली बुढ़ापे की लाठी है पैसा. पैसा पास रहे तो सब दौड़दौड़ आएंगे.’

‘रहने दो मालिक. बच्चे से बूढ़ा हो गया. आप से पैसे की महिमा सुनतेसुनते. आप का पैसा आप को मुबारक.’

बाहर से लौट कर शिवनाथ ने उस पूरे घर पर नजर दौड़ाई तो कुछ पुरानी यादें सजीव हो उठीं. यह घर पिता ने बनवाया था. अम्मा और बाबूजी दोनों शौकीनमिजाज थे और दोनों ने मिल कर इस घर को सुंदर बनवाया था. उस समय आज जैसी जगह की मारामारी नहीं थी. बड़ेबड़े लोगों के बड़ेबड़े घर. किसी के घर में कोई किराएदार नहीं था. शायद यहां सब के घर बच्चों से भरे हैं. ऊपर की मंजिल की ओर नजर गई तो बड़ेबड़े कमरे, बड़ी सी एक रसोई, 2 बड़ेबड़े बाथरूम, लंबीचौड़ी बालकनी की याद आ गई.

बालकनी में खड़े हो कर अपने बगीचे को देखना आज भी अच्छा लगता है. मां को शौक था कि पीछे फलों के बाग में उम्दा किस्म के पौधे लगे हों, इसलिए पिताजी इलाहाबाद और लखनऊ गए तो वहां से अमरूद और आम के पौधे लेते आए थे जो अब मौसम के फलों का मजा देते हैं. उन के अलावा जामुन, लीची आदि के व अन्य भी तरहतरह के पेड़पौधे हैं. शिवनाथ चाहते थे कि पूरा बाग ठेके पर उठा दें तो लाखों की कमाई हो जाए. पूरे साल का खानापीना, कपड़ा, दवाई का खर्चा पूरा कर के भी हजारों बचें पर यह मदन का बच्चा खाना छोड़ कर सत्याग्रह पर बैठ गया तो, हार कर उन्हें चुप होना पड़ा.

वे मदन को इसलिए कुछ नहीं कहते क्योंकि बागबगीचे की देखभाल वही करता है. पैसे तो लेता ही नहीं ऊपर से खाद, बीज और पौधे अपनी जेब से लाता है. उन को बिना कुछ खर्च किए मौसम के फल, ताजी सब्जी मिल रहे थे.

अंदर आ कर मदन को जगाया. ‘‘अरे, उठ, दूध ला, चाय बना.’’

मदन उठा. फोल्डिंग मोड़ कर मुंहहाथ धो पैसे ले कर दूध लाने चल दिया. पाव भर दूध देने के लिए कोई दूधिया घर नहीं आता. डेयरी की थैली आधे लिटर की होती है. इसलिए मदन ही सुबह के समय ग्वाले से पाव भर दूध ले कर आता है.

ऊपर का हिस्सा खाली पड़ा है. कभीकभी शिवनाथ के मन में किराए का लालच आता पर किराए पर उठाने का साहस नहीं होता. 2 बूढ़ों का घर. अम्मा का सारा जेवर घर की अलमारी में पड़ा है. नकद पैसा भी कम नहीं, हर महीने जुड़ ही जाता है. लौकर का खर्चा नहीं बढ़ाया, घर की पक्की तिजोरी में सब रहता है. किराएदार पता नहीं कैसा होगा. दोनों को किसी दिन मार कर सब साफ कर गया तो?

मदन ने चाय बनाई. पीते हुए शिवनाथ बोले, ‘‘दूध 36 रुपए लिटर हो गया है. चाय में इतना दूध मत डाला कर. पाव भर को 2 दिन चला.’’ यह सुन कर मदन की आत्मा जल गई.

‘‘अब, बस भी करो मालिक, यह जो आत्मा है, उस को मार के आप पैसे जोड़ रहे हैं, यह किस काम आएगा?’’

‘‘आजकल तू बहुत बोलने लग गया है. कहा न, यह पैसा ही बुढ़ापे की लाठी है.’’

‘‘रहने दो मालिक, बुरे समय में पैसा नहीं, इंसान काम आता है. पैसा धरा का धरा रह जाता है.’’

‘‘अपना काम देख,’’ यह कह कर शिवनाथ फिर सोचने लगे कि अगर मदन ने काम छोड़ दिया तो 100 रुपए में नौकर मिलने से रहा. नया कोई आया तो पैसा अधिक लेगा और इतनी किफायत से चलेगा भी नहीं.

‘‘तुलसी की पत्ती तोड़ कर लाता हूं,’’ यह कह मदन बाहर चला गया और शिवनाथजी न्यूज चैनल खोल कर देखने लगे. तभी मदन लौट आया.

‘‘मालिक, जरा सुनिए.’’

‘‘क्या हुआ?’’ झल्ला कर शिवनाथ बोले.

‘‘आप से कोई मिलने आया है.’’

वे अवाक् हो बोले, ‘‘मुझ से…’’ क्योंकि उन के स्वभाव को उस कालोनी और आसपास के सभी जानते हैं, इसलिए कोई भी नहीं आता. 2-4 लोग हैं पर वे भी घर नहीं आते, फोन पर कुशल पूछ लेते हैं, सुबह कोई मिलने आए, ऐसी तो आत्मीयता किसी के साथ नहीं है.

‘‘वे आसपास के लोग हैं क्या?’’

‘‘यहां के नहीं लगते,’’ मदन बोला, ‘‘उन के हाथ में सामान है. कोई सगासंबंधी होता तो उसे मैं जानता ही.’’ 2 भांजे और 1 दूर का भतीजा है पर उन की नजर दौलत पर है यह अच्छी तरह शिवनाथजी जानते हैं पर वे मदन के परिचित हैं और साथ में सामान. शिवनाथजी बाहर आए. देखा तो दरवाजे के बाहर 2 कम उम्र के लड़के- लड़की खड़े हैं. कपड़े व हावभाव से अच्छे घर के लगते हैं. दोनों ही सुंदर हैं और पतिपत्नी से लगते हैं क्योंकि लड़की के गले में मंगलसूत्र और मांग में सिंदूर है. उन्होंने हाथ जोड़ कर शिवनाथजी को नमस्कार किया. लड़का बोला, ‘‘बाबूजी, मैं अमित हूं. यह मेरी पत्नी आरती है. हम आप से मदद मांगने आए हैं.’’

‘‘भई, मैं मामूली आदमी हूं. मैं आप की क्या मदद कर सकता हूं. घर पिताजी ने बनवाया है. मैं कम पढ़ालिखा हूं और नौकरी कभी नहीं की तो तंगहाली में जी रहा हूं.’’

‘‘नहीं बाबूजी, हम आप से रुपएपैसे की मदद नहीं मांग रहे. हम यहां नए हैं, रहने को जगह नहीं है. आरती साथ में है. जहांतहां असुरक्षित जगह पर रह भी नहीं सकता. आप हमें एक कमरा किराए पर दे देते तो…’’

‘‘मेरे पास किराए पर उठाने लायक कोई हिस्सा है कहां?’’

मदन बोल उठा, ‘‘मालिक, ऊपर का पूरा हिस्सा तो खाली पड़ा है. इस बरसात में ये बच्चे कहां जाएंगे. ऊपर से नई जगह और साथ में औरत. जमाना खराब है. किराया तो दे ही रहे हैं. ऊपर का हिस्सा दे दो.’’

‘‘पर मदन, इस इलाके में कोई भी मकान वाला किराएदार नहीं रखता और जो रखते हैं वे किराया ज्यादा लेते हैं…तुम दे पाओगे?’’

‘‘मेरा वेतन बहुत ज्यादा नहीं है. फिर भी अंकल कितना किराया है?’’ उस लड़के के मुंह से निकल पड़ा.

‘‘3 हजार रुपए और बिजली का अलग से. 1 महीने का अग्रिम किराया दे कर चाबी लेनी होगी.’’

‘‘जी, मैं अभी देता हूं,’’ यह बोलने के बाद उस लड़के ने बैग खोलने का प्रयास किया तो शिवनाथ ने उसे रोका.

‘‘ऊपर जा कर आराम से बैग खोलना और पैसे भेज देना. मदन चाबी ले कर जा और घर को धुलवाने व साफसफाई में इन की मदद कर देना. अभी सब के लिए चाय बना ला.’’

 

चाय पी कर पतिपत्नी दोनों ऊपर पहुंचे तो कमरे में एक डबलबैड गद्दे समेत पहले ही पड़ा था. मदन झाड़ू व बालटी ले आया और आरती के साथ मिल कर पूरा घर धोपोंछ कर चमका दिया. घर देख कर आरती बहुत खुश हुई. इतनी बड़ी छत, बालकनी. खुशी से उछल कर उस ने पूछा, ‘‘दादाजी, मैं यहां फूलों के गमले रख सकती हूं?’’

‘‘क्यों नहीं बेटी, एक तुलसी का पौधा जरूर लगाना. नीचे तो तुलसी का झाड़ है. अब खानेपीने का जुगाड़ कैसे करोगी, बरतन, गैस सब तो चाहिए…’’

‘‘आप चिंता न करो, दादाजी, घर मिल गया तो सब हो जाएगा. हम अभी बाजार जा कर नाश्ता करेंगे. फिर गृहस्थी का सामान ले कर आएंगे.’’

मदन नीचे आ कर अपने रोजाना के काम में लग गया. थोड़ी देर में अमित व आरती तैयार हो कर नीचे आए.

– क्रमश:

चुभन: क्यों संतुष्ट नहीं थी मीना?

Serial Story: चुभन (भाग-1)

‘‘कभी तो संतुष्ट होना सीखो, मीना, कभी तो यह स्वीकार करो कि हम लाखों करोड़ों से अच्छा जीवन जी रहे हैं. मैं मानता हूं कि हम अमीर नहीं हैं, लेकिन इतने गरीब भी नहीं हैं कि तुम्हें हर पल रोना पड़े,’’ सदा की तरह मैं ने अपना आक्रोश निकाल तो दिया, लेकिन जानता हूं कि मेरा भाषण मीना के गले में आज भी कांटा बन कर चुभ गया होगा. मैं क्या करूं मीना का, समझ नहीं पाता हूं. आखिर कैसे उस के दिमाग में यह सत्य बैठाऊं कि जीवन बस हंसीखुशी का नाम है.

पिछले 3 सालों से मीना मेरी पत्नी है. उस की नसनस से वाकिफ हूं मैं. जो मिल गया उस की खुशी तो उस ने आज तक नहीं जताई, जो नहीं मिल पाया उस का अफसोस उसे सदा बना रहता है.

मैं तो हर पल खुश रहना चाहता हूं. जीवन है ही कितना, सांस आए तो जीवन, न आए तो मिट्टी का ढेर. लेकिन मुझे तो खुश होने का समय ही नहीं मिलता और मीना, पता नहीं कैसे रोनेधोने के लिए भी समय निकाल लेती है.

‘‘बचपन से ऐसी ही है मीना,’’ उस की मां ने कहा, ‘‘पता नहीं क्यों हर पल नाराज सी रहती है. जबतब भड़क उठना उस के स्वभाव में ही है. हर इंसान का अपनाअपना स्वभाव होता है, क्या करें?’’

‘‘हां, और आप ने उसे कभी सुधारने की कोशिश भी नहीं की,’’ अजय ने उलाहना दिया, ‘‘बच्चे को सुधारना मातापिता का कर्तव्य है, लेकिन आप ने उस की गलत आदतों को बढ़ावा ही दिया.’’

‘‘नहीं अजय, ऐसा भी नहीं है,’’ सास बोलीं, ‘‘संतुष्ट ही रह जाती तो शादी के बाद पढ़ती कभी नहीं. शादी के समय मात्र बी.ए. पास थी. अब एम.ए., बी.एड. है और आगे भी पढ़ना चाहती है. संतुष्ट नहीं है तभी तो…’’

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‘‘उस की इसी जिद में मैं पिस रहा हूं. अपनी पढ़ाईलिखाई में उसे मेरा कोई भी काम याद नहीं रहता. मुझे अपना हर काम स्वयं करना पड़ता है, कपड़ों से ले कर नाश्ते तक. घर जाओ तो एक कप चाय की उम्मीद पत्नी से मुझे नहीं होती.’’

मैं तो मीना के पास होने पर खुश होता हूं और वह रोती है कि शादी की अगर जिम्मेदारी न होती तो और भी ज्यादा अंक आ सकते थे. अरे, शादी की ऐसी कौन सी जिम्मेदारी है उस पर. मीना का बड़ा भाई मेरा दोस्त भी है. कभीकभार उस से शिकायत भी करता हूं.

‘‘कुछ लोग संसार में बस रोने के लिए ही आते हैं. उन्हें चैन से खुद तो जीना आता नहीं, दूसरों को भी चैन से जीने नहीं देना चाहते. तुम मीना को कुछ दिनों के लिए अपने घर ले जाओ. वह एम.एड. करना चाहती है. वहीं पढ़ाओ उसे. मेरी जिम्मेदारी उस पर भारी पड़ रही है,’’ एक दिन मैं ने उस के भाई से कह ही दिया.

‘‘क्या कह रहे हो, अजय?’’ विनय ने हैरानी जाहिर की तो मैं हाथ से छूट गए ऊन के गोले की तरह खुलता ही चला गया.

‘‘मेरी तो समझ में नहीं आता कि आखिर मीना चाहती क्या है. पढ़ना चाहती थी तो पढ़ती रहती, शादी क्यों की थी? 3 साल हो गए हैं हमारी शादी को पर परिवार बढ़ाना ही नहीं चाहती, क्या बुढ़ापे में संतान के बारे में सोचेगी? विनय, मेरी जगह तुम होते तो क्या यह सब सह पाते?

‘‘अच्छी खासी तनख्वाह है मेरी, मगर हर समय यही रोना ले कर बैठी रहती है कि उसे भी काम करना है, इसलिए और पढ़ना चाहती है. एम.ए., बी.एड. कर के कौन सा तीर मार लिया जो अब एम.एड. करने की ठानी है. दरअसल, उस का चाहा क्यों नहीं हुआ. यह शिकायत उस की आदत है और यह हमेशा रहेगी. बीत जाएगा उस का भी और मेरा भी जीवन इसी तरह चीखतेचिल्लाते.’’

विनय चुप था. क्या कहता? जाहिर से थे उस के भी हावभाव.

‘‘मैं जानता हूं, वापस ले जाना इस समस्या का हल नहीं है, कुछ दिनों के लिए ही ले जाओ. आजकल उस का रोनाधोना जोरों पर है. उसे समझा पाना मेरे बस से बाहर होता जा रहा है.’’

विनय सकपका गया. यह सब सुनने के बाद बोला, ‘‘ठीक है, कल इतवार है, मैं सुबह आ जाऊंगा. शाम तक तुम दोनों के पास रहूंगा. तुम चिंता मत करो. भाई हूं, उसे मैं समझाऊंगा.’’

अगली सुबह अभी हम नाश्ता कर ही रहे थे कि विनय ने दरवाजा खटखटा दिया. मीना बड़े भाई को देख कर भी उखड़ी ही रही.

‘‘यहां स्टेशन पर किसी काम से आया था. सोचा, आज का दिन तुम दोनों के साथ बिताऊंगा, लेकिन तुम्हारा तो चेहरा लटका हुआ है. नाश्ता नहीं किया है मैं ने, तुम खिला दोगी न?’’

कोई प्रतिक्रिया नहीं की मीना ने. एक मेहमान के लिए ही सही, स्वाभाविक मुसकान भी चेहरे पर नहीं आई. मेरे भैयाभाभी आए थे तो भी यही तमाशा किया था मीना ने.

‘‘मीना, मैं तुम से ही बात कर रहा हूं. यह क्या तरीका है घर आने वाले का स्वागत करने का?’’

विनय के व्यवहार पर तनिक चौंकी मीना कि सदा नाजनखरे उठाने वाला भाई क्या इस तरह भी बोल सकता है.

‘‘रहने दीजिए न आप, बात ही क्यों कर रहे हैं मुझ से,’’ तुनक कर दरवाजे से हट गई मीना और विनय अवाक सा कभी मेरा मुंह देखे तो कभी जाती हुई बहन का.

विनय के चेहरे पर अपमान के भाव ज्यादा थे. अपना ही सोना खोटा हो तो किसे दोष देता विनय. मेरे वे शिकायती शब्द असत्य नहीं हैं यह स्पष्ट था. मेरी परेशानी भी कम न होगी वह समझ रहा था.

‘‘मां बीमार हैं, मीना. चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना,’’ यह कह कर वह जाने लगी तो विनय ने बांह पकड़ रोकना चाहा.

तब मीना बड़े भाई का हाथ झटक कर बोली, ‘‘मुझे तो एम.एड. में दाखिला चाहिए.’’

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‘‘एम.एड. में दाखिला लेने के लिए क्या बदतमीजी करना जरूरी है?’’ विनय बोला, ‘‘तुम्हें तो छोटेबड़े का भी लिहाज नहीं है. जब पढ़लिख कर बदतमीजी ही सीखनी है तो तुम बी.ए. पास ही अच्छी थीं.’’

विनय के शब्द कड़वे हो गए, जो मुझे भी अच्छे नहीं लगे. मीना मेरी पत्नी है. कोई उस पर नाराज हो, मैं यह भी तो नहीं चाहता.

‘‘मीना, तुम अपने होशोहवास में तो हो? तुम बच्ची नहीं हो, जो इस तरह जिद करो. अपने घर के प्रति भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी बनती है.’’

‘‘मैं ने अपनी कौन सी जिम्मेदारी नहीं निभाई? मन मार कर वहीं तो रह रही हूं जहां आप ने ब्याह दिया है.’’

काटो तो खून नहीं रहा मुझ में और साथ ही विनय में भी. वह मुझ से नजरें चुरा रहा था.

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Serial Story: चुभन (भाग-2)

पिछला भाग पढ़ने के लिए- चुभन: भाग-1

‘‘मुझे आप के साथ कहीं नहीं जाना. कह दीजिएगा मां से कि अब यहीं जीनामरना है, बस…’’

‘‘कैसी पागलों जैसी बातें कर रही हो. अजय जैसा अच्छा इंसान तुम्हारा पति है. जैसा चाहती हो वैसा ही करता है, और क्या चाहिए तुम्हें?’’

मैं कमरे से बाहर चला गया. आगे कुछ भी सुनने की शक्ति मुझ में नहीं थी. कुछ भी सुनना नहीं चाहा मैं ने. क्या सोच कर विनय को बुलाया था पर उस के आ जाने से तो सारा विश्वास ही डगमगा सा गया. तंद्रा टूटी तो पता चला काफी समय बीत चुका है. शायद दोपहर होने को आ गई थी. विनय वापस जाने को तैयार था. बोला, ‘‘मीना को साथ ले जा रहा हूं. तुम अपना खयाल रखना.’’

मीना बिना मुझ से कोई बात किए ही चली गई. नाश्ता उसी तरह मेज पर रखा रहा. मीना ने मेरी भूख के बारे में भी नहीं सोचा. भूखा रहना तो मेरी तब से मजबूरी है जब से उस के साथ बंधा हूं. कभीकभी तरस भी आता है मीना पर.

मीना चली गई तो ऐसा लगा जैसे चैन आ गया है मुझे. अपनी सोच पर अफसोस भी हो रहा है कि मैं मीना को बहुत चाहता हूं. फिर उस का जाना प्रिय क्यों लग रहा है? ऐसा क्यों लग रहा है कि शरीर के किसी हिस्से में समाया मवाद बह गया और पीड़ा से मुक्ति मिल गई? जिस के साथ पूरी उम्र गुजारने की सोची उसी का चला जाना वेदना क्यों नहीं दे रहा मुझे?

एक शाम मैं ने विनय को समझाना चाहा, ‘‘मेरी वजह से तुम क्यों अपने परिवार से दूर रह रहे हो, विनय? चारु भाभी को बुरा लगेगा.’’

‘‘तुम्हारी भाभी ने ही तो कहा है कि मैं तुम्हारे साथ रहूं और फिर तुम मेरा परिवार नहीं हो क्या? हैरान हूं मैं अजय, मीना का व्यवहार देख कर. वह सच में बहुत जिद्दी है. मैं भी पहली बार महसूस कर रहा हूं… तुम बहुत सहनशील हो अजय, जो उसे सहते रहे. तुम्हारी जगह यदि मैं होता तो शायद इतना लंबा इंतजार न करता.

‘‘अजय, सच तो यह है कि अपनी बहन का बचपना देख कर मुझे अपनी पत्नी और भी अच्छी लगने लगी है. दोनों में जब अंतर करता हूं तो पाता हूं कि चारु समझदार और सुघड़ पत्नी है. मीना जैसी को तो मैं भी सह नहीं पाता.

‘‘अकसर ऐसा होता है अजय, मनुष्य उस वस्तु से कभी संतुष्ट नहीं होता, जो उस के पास होती है. दूसरे की झोली में पड़ा फल सदा ज्यादा मीठा लगता है. चारु की तुलना मैं सदा मीना से करता रहा हूं, मां ने भी अपनी बहू का अपमान करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. चारु मीना जितना पढ़लिख नहीं पाई, क्योंकि शादी के बाद हम उसे क्यों पढ़ातेलिखाते? बी.ए. पास है, बस, ठीक है. मीना को तुम ने मौका दिया तो हम ने झट उसे चारु से बेहतर मान भी लिया पर यह कभी नहीं सोचा कि मीना की इच्छा का मान रखने के लिए तुम कबकब, कैसेकैसे स्वयं को मारते रहे.’’

‘‘चारु भाभी की अवहेलना मैं ने भी अकसर महसूस की है. मीना के जाने से मेरा भी भला हो रहा है और चारु भाभी का भी. मैं भी चैन की सांस ले रहा हूं और चारु भाभी भी.

‘‘कैसी है मीना, तुम ने बताया नहीं? क्या घर वापस नहीं आना चाहती? क्या मेरी जरा सी भी याद नहीं आती उसे?’’

‘‘पता नहीं, मुझ से तो बात भी नहीं करती. च रु से भी कटीकटी सी रहती है.’’

‘‘किसी के साथ खुश भी है वह? तुम बुरा मत मानना, विनय. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के जीवन में कोई और है या था… कहीं उस की शादी जबरदस्ती तो नहीं की गई?’’ मैं ने सहसा पूछा तो विनय के माथे पर कुछ बल पड़ गए.

‘‘मैं ने मां से भी इस बारे में पूछा था. तुम मेरे मित्र भी हो, अजय, तुम्हारे साथ जरा सी भी नाइंसाफी मैं नहीं सह सकता, क्योंकि पिछले 6-7 सालों से मैं तुम्हें जानता हूं कि तुम्हारा चरित्र सफेद कागज के समान है. कोई तुम्हारी भावना का अनादर क्यों करे? मेरी बहन भी क्यों? जहां तक मां का विचार है तो वे यही कहती हैं कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.’’

‘‘तो आज मैं आ जाऊं उसे वापस ले आने के लिए? आखिर कोई कुछ तो इस समस्या का समाधान होना ही चाहिए. मीना मेरी पत्नी है, कुछ तो मुझे भी करना होगा न.’’

विनय की आंखें भर आईं. उस ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. संभवतयाउसे भी यही एक रास्ता सूझ रहा होगा कि मैं ही कुछ करूं.

अगली सुबह मैं अपनी ससुराल पहुंच गया. पूरे 15 दिन बाद मैं मीना से मिलने वाला था. सड़क की मरम्मत का काम चल रहा था. पूरे रास्ते पर कंकर बिछे थे, इसलिए स्कूटर घर से बहुत दूर खड़ा करना पड़ा. पैदल ही घर तक आया, इसीलिए मेरे आने का किसी को भी पता नहीं चला.

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मैं घर के आंगन में खड़ा था. मां और भाभी दोनों रसोई में व्यस्त थीं. उन्होंने मुझे देखा नहीं. चुपचाप सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर मीना के कमरे के पास पहुंचा और पति के अधिकार के साथ दरवाजा धकेला मैं ने.

‘‘चारु, तुम जाओ. मैं ने कहा न मुझे भूख नहीं है… जानती हूं तुम्हारी चापलूसी को, सभी को मेरे खिलाफ भड़काती हो… अनपढ़, गंवार कहीं की… तुम जलती हो मुझ से.’’

मीना की यह भाषा सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. आहट पर ही इतनी बकवास कर रही है तो आमनेसामने झगड़ा करने में उसे कितनी देर लगती होगी. कैसी औरत मेरे पल्ले पड़ गई है जिस का एक भी आचरण मेरे गले से नीचे नहीं उतरता.

‘‘चारु भाभी क्यों जलेगी तुम से? ऐसा क्या है तुम्हारे पास, जरा बताओ तो मुझे? तुम तो मानसिक रूप से कंगाल हो.’’

काटो तो खून नहीं रहा मीना में. मेरा स्वर और मेरी उपस्थिति की तो उस ने कल्पना भी न की होगी. अफसोस हुआ मुझे खुद पर और सहसा अपना आक्रोश न रोक पाने पर.

‘‘चारु भाभी के अच्छे व्यवहार जैसा कुछ है तुम्हारे पास? तुम तो न अपने मांबाप की सगी हो न भाईभाभी की. न ससुराल में तुम्हें कोई पसंद करता है न मायके में. यहां तक कि पति भी तुम से खुश नहीं है. ऐसा कौन है तुम्हारा, जो तुम से प्यार कर के खुद को धन्य मानता है?’’

सन्न रह गई मीना. शायद यह आईना उसे मैं ही दिखा सकता था. आंखें फाड़फाड़ कर वह मुझे देखने लगी.

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Serial Story: चुभन (भाग-3)

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‘‘तुम तो बस, यही चाहती हो कि हर कोने में तुम्हारा ही अधिकार हो. मायके का यह कमरा हो या ससुराल का घर, हर इंसान बस तुम्हारे ही चाहने पर कुछ चाहे या न चाहे. मीना, यह भी जान ले कि इनसान का हर कर्म, हर व्यवहार एक दिन पलट कर वापस आता है. इतना जहर न बांटो कि हर दिशा से बस जहर ही पलट कर तुम्हारे पास वापस आए.’’

रो पड़ा था मैं यह सोच कर कि कैसे इस पत्थर को समझाऊं. सामने खिड़की के पार मजदूरों के बच्चे खेल रहे थे. हाथ पकड़ कर मैं मीना को खिड़की के पास ले आया और बोला, ‘‘वह देखो, सामने उन बच्चों को. सोच सकती हो वे कैसी गरमी सह रहे हैं? तुम कूलर की ठंडी हवा में चैन से बैठी हो न. जरा सोचो अगर उन्हीं मजदूरों के घर तुम्हारा जन्म होता तो आज यही जलते कंकड़ तुम्हारा बिस्तर होते. तब कहां होते सब नाजनखरे? यह सब चोंचले तभी तक हैं जब तक सब सहते हैं.

‘‘तुम विनय की पत्नी का इतना अपमान करती हो, आज अगर वह तुम्हें कान से पकड़ कर बाहर निकाल दे तब कहां जाएगी तुम्हारी यह जिद, तुम्हारा लड़नाझगड़ना? क्यों मेरे साथसाथ इन सब का भी जीना हराम कर रखा है तुम ने?’’

अपना अनिश्चित भविष्य देख कर मैं घबरा गया था. शायद इसीलिए जैसे गया था वैसे ही लौट आया. किसी को मेरे वहां जाने का पता भी न चला. विनय बारबार फोन कर के ‘क्या हुआ, कैसे हुआ’ पूछता रहा. क्या कहता मैं उस से? कैसे कहता कि मेरी पत्नी उस की पत्नी का अपमान किस सीमा तक करती है.

शाम ढल आई. इतवार की पूरी छुट्टी जैसे रोते शुरू हुई थी वैसे ही बीत गई. रात के 8 बज गए. द्वार पर दस्तक हुई. देखा तो हाथ में बैग पकड़े मीना खड़ी थी. क्या सोच कर उस का स्वागत करूं कि घर की लक्ष्मी लौट आई है या मेरी जान को घुन की तरह चाटने वाली मुसीबत वापस आ गई है?

‘‘तुम?’’ मेरे मुंह से निकला.

बिना कुछ कहे मीना भीतर चली गई. शायद विनय छोड़ कर बाहर से ही लौट गया हो. दरवाजा बंद कर मैं भी भीतर चला आया. दिल ने खुद से प्रश्न किया, कैसे कोई बात शुरू करूं मैं मीना से? कोई भी द्वार तो खुला नजर नहीं आ रहा था मुझे. हाथ का बैग एक तरफ पटक वह बाथरूम में चली गई. वापस आई तब लगा उस की आंखें लाल हैं.

‘‘चाय लोगी या सीधे खाना ही खाओगी? वैसे खाना भी तैयार है. खिचड़ी खाना तुम्हें पसंद तो नहीं है पर मेरे लिए यही बनाना आसान था, इसलिए 15 दिन से लगभग यही खा रहा हूं.’’

आंखें उठा कर मीना ने मुझे देखा तो उस की आंखें टपकने लगीं. चौंकना पड़ा मुझे, क्योंकि यह रोना वह रोना नहीं था जिस पर मुझे गुस्सा आता था. पहली बार मुझे लगा मीना के रोने पर प्यार आ रहा है.

‘‘अरे, क्या हुआ, मीना? खिचड़ी नहीं खाना चाहतीं तो कोई बात नहीं, अभी बाजार से कुछ खाने के लिए ले आता हूं.’’

‘‘आप मुझे लेने क्यों नहीं आए इतने दिन? आज आए भी तो बिना मुझे साथ लिए चले आए?’’

‘‘तुम वापस आना चाहती थीं क्या?’’

हैरान रह गया मैं. बांहों में समा कर नन्ही बालिका सी रोती मीना का चेहरा ऊपर उठाया. लगा, इस बार कुछ बदलाबदला सा है. मुझे तो सदा यही आभास होता रहता था कि मीना को कभी प्यार हुआ ही नहीं मुझ से.

‘‘तुम एक फोन कर देतीं तो मैं चला आता. मुझे तो यही समझ में आया कि तुम आना ही नहीं चाहती हो.’’

सहसा कह तो गया, मगर तभी ऐसा भी लगा कि मैं भी कहीं भूल कर रहा हूं. मेरे मन में सदा यही धारणा रही, जो भी मिल जाए उसी को सिरआंखों पर लेना चाहिए. प्रकृति सब को एकसाथ सब कुछ नहीं देती, लेकिन थोड़ाथोड़ा तो सब को ही देती है. वही थोड़ा सा यदि बांहों में चला आया है तो उसे प्रश्नोत्तर में गंवा देना कहां की समझदारी है. क्या पूछता मैं मीना से? कस कर बांहों में बांध लिया. ऐसा लगा, वास्तव में सब कुछ बदल गया है. मीना का हावभाव, मीना की जिद. कहीं से तो शुरुआत होगी न, कौन जाने यहीं से शुरुआत हो.

तभी फोन की घंटी बजी और किसी तरह मीना को पुचकार कर उसे खुद से अलग किया. दूसरी तरफ विनय का घबराया सा स्वर था. वह कह रहा था कि मीना बिना किसी से कुछ कहे ही कहीं चली गई है. परेशान थे सब, शायद उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि वह मेरे पास लौट आएगी. मेरा उत्तर पा कर हैरान रह गया विनय.

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वह मुझे लताड़ने लगा कि पिछले 4-5 घंटे से मीना तुम्हारे पास थी तो कम से कम एक फोन कर के तो मुझे बता देते. उस के 4-5 घंटे घर से बाहर रहने की बात सुन कर मैं भौचक्का रह गया, क्योंकि मीना मेरे पास तो अभीअभी आई है.

एक नया ही सत्य सामने आया. कहां थी मीना इतनी देर से?

उस के मायके से यहां आने में तो 10-15 मिनट ही लगते हैं. मीना से पूछा तो वह एक नजर देख कर खामोश हो गई.

‘‘तुम दोपहर से कहां थीं मीना? तुम्हारे घर वाले कितने परेशान हैं.’’

‘‘पता नहीं कहां थी मैं.’’

‘‘यह तो कोई उत्तर न हुआ. अपनी किसी सहेली के पास चली गई थीं क्या?’’

‘‘मुझ से कौन प्यार करता है, जो मैं किसी के पास जाती? लावारिस हूं न मैं, हर कोई तो नफरत करता है मुझ से… मेरा तो पति भी पसंद नहीं करता मुझे.’’

फिर से वही तेवर, वही रोनापीटना, मगर इस बार विषय बदल गया सा लगा. मन के किसी कोने से आवाज उठी कि पति पसंद नहीं करता उस का कारण भी तुम जानती हो. जब इतना सब पता चल गया है तुम्हें तो क्या यह पता नहीं चलता कि पति की पसंद कैसे बना जाए.

प्रत्यक्ष में धीरे से मीना का हाथ पकड़ा और पूछा, ‘‘मीना, कहां थीं तुम दोपहर से?’’

मेरे गले से लग पुन: रोने लगी मीना. किसी तरह शांत हुई. उस के बाद, जो उस ने बताया उसे सुन कर तो मैं दंग ही रह गया.

मीना ने बताया, ‘‘घर की चौखट लांघते समय समझ नहीं पाई कि कहां जाऊंगी. आप ने सुबह ठीक ही कहा था, मेरी जिद तब तक ही है जब तक कोई मानने वाला है. मेरे अपने ही हैं, जो मेरी हर खुशी पूरी करना चाहते हैं. 4 घंटे स्टेशन पर बैठी आतीजाती गाडि़यां देखती रही… कहां जाती मैं?’’

विस्मित रह गया मैं मीना का चेहरा देख कर. सत्य है, जीवन से बड़ा कोई अध्यापक नहीं और इस संसार से बड़ी कोई पाठशाला कहीं हो ही नहीं सकती. सीखने की चाह हो तो इंसान यहां सब सीख लेता है. निभाना भी और प्यार करना भी. यह जो सख्ती विनय के परिवार ने अब दिखाई है यही अगर बचपन में दिखाई जाती तो मीना इतनी जिद्दी कभी नहीं होती. हम ही हैं जो कभीकभी अपना नाजायज लाड़प्यार दिखा कर बच्चों को जिद्दी बना देते हैं.

‘‘एक बार तो जी में आया कि गाड़ी के नीचे कूद कर अपनी जान दे दूं. समझ नहीं पा रही थी कि मैं कहां जाऊं,’’ मीना ने कहा और मैं अनिष्ट की सोच कर कांप गया. पसीने से भीग गया मैं. ऐसी कल्पना कितनी डरावनी लगती है.

मैं ने कस कर छाती में से लगा लिया मीना को. मीना जोश में आ कर कोई गलत कदम उठा लेती तो मेरी हालत क्या होती. मैं ऐसा कैसे कर पाया मीना के साथ. 15 दिन तक हालचाल भी पूछने नहीं गया और आज सुबह जब गया भी तो यह भी कह आया कि मीना का पति भी मीना से प्यार नहीं करता. रो पड़ा मैं अपनी नादानी पर. एक नपातुला व्यवहार तो मैं भी नहीं कर पाया न.

‘‘अजय, आप पसंद नहीं करते न मुझे?’’

‘‘मुझे माफ कर दो, मीना, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.’’

‘‘आप ने अच्छा किया जो ऐसा कहा. आप ऐसा नहीं कहते तो मुझे कुछ चुभता नहीं. कुछ चुभा तभी तो आप के पास लौट पाई.

‘‘मैं जानती थी, आप मुझे माफ कर देंगे. मैं यह भी जानती हूं कि आप मुझ से बहुत प्यार करते हैं. आप ने अच्छा किया जो ऐसा किया. मुझे जगाना जरूरी था.’’

मैं मीना के शब्दों पर हक्काबक्का था. स्वर तो फूटा ही नहीं मेरे होंठों से. बस, मीना के मस्तक पर देर तक चुंबन दे कर पूरी कथा को पूर्णविराम दे दिया. जो नहीं हुआ उस का डर उतार फेंका मैं ने. जो हो गया उसी का उपकार मान मैं ने ठंडी सांस ली.

‘‘मैं एक अच्छी पत्नी और एक अच्छी मां बनने की कोशिश करूंगी,’’ रोतेरोते कहने लगी मीना और भी न जाने क्याक्या कहा.

अंत भला तो सब भला. लेकिन एक चुभन मुझे भी कचोट रही थी कि कहीं मेरा व्यवहार अनुचित तो नहीं था?

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