सैलिब्रेशन- भाग 2: क्या सही था रसिका का प्यार

वैभव की मदद से रसिका की नई गृहस्थी आसानी से जम गई. घरेलू कामों के लिए विमला को भी वैभव ने ही भेजा था. सबकुछ सुचारु रूप से व्यवस्थित हो गया था.

वैभव के सन्निध्य से रसिका के जीवन को पूर्णता मिल गई थी. उस का जीवन पूरी तरह उलटपुलट गया था. वैभव रसिका के साथ ही रहने लगा था.

वैभव का साथ मिलने से रसिका के जीवन में सुरक्षा, खुशी, प्यार और जीवन का जो अधूरापन था, वह सब दूर हो कर खुशियों का एहसास होता. लेकिन यह समाज किसी को जीने नहीं देना चाहता.

मान्या हो या काव्या दोनों की आंखों में प्रश्नचिह्न देख रसिका अपनी आंखें चुराने के लिए मजबूर हो जाती थी.

वैभव ने तो बता ही दिया था कि उस के 2 बेटे हैं और पत्नी गांव में रहती है. उन की जिम्मेदारी उसी की है.

रसिका वैभव को अपना सर्वस्व मान बैठी थी. कब ये सब हुआ, उसे स्वयं मालूम न था.

उस दिन रसिका के सिर में दर्द था, इसलिए औफिस से जल्दी आ गई थी.

काव्या को रोता देख उस ने रोने का कारण पूछा तो काव्या ने बताया, ‘‘मम्मी, मैं सोनी आंटी के घर खेल रही थी, तो उन की दादी बोलीं कि तुम मेरे घर में मत आया करो. तुम्हारी मम्मी पराए मर्द के साथ रहती हैं.’’

रसिका गुस्से से तमतमा उठी, ‘‘तुम क्यों जाती हो उन के घर?’’

बेटी को तो रसिका ने डांट दिया, लेकिन उस की स्वयं की आंखें छलछला उठी थीं.

‘‘मम्मी पराया मर्द क्या होता है?’’

इस मासूम को वह क्या उत्तर देती. वह चुपचाप बाथरूम में जा कर सिसक उठी.

मान्या चुपचुप रहती. पर वैभव अंकल का घर पर रहना उसे भी अच्छा नहीं लगता. इसलिए  न तो वह पार्क में खेलने जाती और न ही पड़ोस में किसी से बात करती.

मगर सुजाता आंटी अकसर आतेजाते उसे बुला कर फालतू पूछताछ करती रहती थीं.

‘‘इधर आओ मान्या,’’ एक बुजुर्ग आंटी ने उसे बुलाया, जिन्हें वह जानती नहीं थी.

‘‘ये तुम्हारे पापा नहीं हैं,’’ उसी आंटी ने कहा.

मान्या आंखों में आंसू भर कर अपने दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ी. घर पहुंच कर वह सूने घर में फूटफूट कर रोती रही. तब छोटी काव्या ने उसे गिलास में पानी ला कर दिया और उस के आंसू पोंछ कर बोली, ‘‘क्यों रो रही हो दीदी?’’

उस ने सिसकते हुए कहा, ‘‘तुम नहीं समझोगी काव्या.’’

‘‘दीदी, तुम रोया मत करो. समझ लिया करो मैं ने सुना ही नहीं.’’

मान्या को काव्या पर बहुत प्यार आया. फिर खाना निकाल कर दोनों ने साथ खाया.

काव्या बोली, ‘‘दीदी, वहां नानी अपने हाथों से कैसे प्यार से खाना खिलाती थीं. वहां सब लोग कितना प्यार भी करते थे… दीदी, चलो टीवी देखते हैं.’’

‘‘नहीं काव्या मुझे होमवर्क करना है नहीं तो मम्मी आ कर डांट लगाएंगी.’’

काव्या के बहुत कहने पर दोनों बहनें कार्टून फिल्म लगा कर बैठ गईं. फिर सब भूल गईं.

रसिका 6 बजे औफिस से घर लौट आई. आज उस का मूड खराब था. वैभव ने अपने बेटे पार्थ का कृष्णा कोचिंग में एडमिशन करवा दिया था, इसलिए अब 6 महीने वह यहीं उन के साथ ही रहेगा.

बेटियों को टीवी देखते देख उस का गुस्सा 7वें आसमान पर पहुंच गया, ‘‘तुम लोगों को केवल टीवी देखना है… पढ़नेलिखने से कोई मतलब नहीं है?’’

डांट के डर से दोनों ने जल्दी से टीवी बंद कर दिया और अपनीअपनी किताबें खोल कर बैठ गईं.

स्कूल का सालाना फंक्शन था. सब बच्चों के मम्मीपापा अपने बच्चों का प्रोग्राम देखने आए थे. मान्या ने भी डांस में भाग लिया था. उस की आंखें भी दूरदूर तक मां को तलाश रही थीं. लेकिन मम्मी के लिए पार्क का टैस्ट ज्यादा महत्त्वपूर्ण था. वह मायूस हो गई.

दिन बीतते रहे. मौम की प्राथमिकता वैभव अंकल और पार्थ थे. मां के लिए उन दोनों को खुश रखना ज्यादा जरूरी था.

घर की बात स्कूल तक सहेलियों और कैब के ड्राइवर के माध्यम से पहुंच जाती थी. वह स्कूल में अपनी सहेलियों की निगाहों में ही ‘अछूत कन्या’ बन गई थी. उन के मार्मिक प्रश्न कई बार उस के दिल को दुखा देते थे.

‘‘क्यों मान्या, तुम्हें अपने पापा की शक्ल याद है कि नहीं?’’

‘‘ये अंकल तुम्हें मारते होंगे?’’

‘‘प्लीज, घर की बात यहां मत किया करो,’’ वह झुंझला उठी थी.

रसिका ने फ्लैट खरीदने के लिए फंड से रुपए निकाले. कुछ रुपए वैभव ने अपने भी लगाए थे, इसलिए स्वाभाविक था कि रजिस्ट्री में उस का नाम भी हो. अकाउंट भी साझा हो गया था.

मान्या कालेज में पहुंच गई थी. उस का स्वभाव बदलता जा रहा था. अब वह रसिका की एक भी बात सुनने को तैयार नहीं थी. फैशनेबल कपड़े, स्कूटी, कोचिंग और ट्यूशन के बहाने घर से गायब रहती. यदि रसिका कुछ कहती तो तुरंत जवाब देती कि आप अपनी दुनिया में व्यस्त रहो. मेरी अपनी दुनिया है. आप बस अंकल और पार्थ का खयाल रखें.

मान्या ने बचपन में अपने आसपास पड़ोसियों के द्वारा इतना तिरस्कार और अपमान झेला था कि अब वह उस अपमान का बदला अपने पैसे और नित नए फैशन के बलबूते दूसरों को आकर्षित कर के अपना प्रभुत्व बढ़ा कर लेती थी.

मान्या औनलाइन तरहतरह की डिजाइनर ड्रैसें और्डर करती रहती. यदि कभी रसिका उसे टोक दे, तो तुरंत उस के मुंह पर जवाब दे देती, ‘‘आप से तो कम ही खर्च करती हूं… आप को औफिस जाना होता है, तो मुझे भी कालेज जाना होता है.’’

रसिका बेटी के सामने अपनेआप को मजबूर पा रही थी. उसे सुधारने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था.

मान्या ने अपने स्कूल के समय में बहुत अपमान झेला था. लड़कियां उस से दोस्ती नहीं करती थीं. उसे अपने गु्रप में शामिल नहीं करती थीं. उसे अजीब निगाहों से देखती थीं.

सब अपनेअपने पापा के प्यार की बातें करतीं, कोई पिक्चर जाती, कोई घूमने जाती. सब फेसबुक पर फोटो शेयर करतीं. ये सब देखसुन कर मान्या की आंखें छलछला उठतीं. वह दूसरी तरफ मुंह घुमा कर उन की बातें सुनती, क्योंकि यदि उन की तरफ नजरें घुमाती तो वे बोलतीं, ‘‘तुम क्या जानो… तुम्हारे पापा को तो तुम्हारी मम्मी छोड़ कर पराए मर्द के साथ रह रही हैं.’’

यह कड़वा सच था. इस वजह से उस का मन घायल हो उठता था. वह बमुश्किल अपने आंसू रोक पाती थी.

उस के पड़ोस में रहने वाली रेनू उस के घर की 3-3 बात स्कूल में पहुंचा देती और फिर उन लोगों को चटखारे ले कर बातें बनाने का मौका मिल जाता.

बेटा- भाग 2: क्या वक्त रहते समझ पाया सोम

एक दिन दीप टिफिन मेज पर पटक कर बोला, ‘मैं आज से टिफिन नहीं ले जाऊंगा. सब बच्चे पकौड़े, इडली, पुलाव और जाने क्याक्या ले कर आते हैं परंतु तुम तो परांठे के सिवा कुछ बनाना ही नहीं जानतीं.’

मैं चिढ़ते हुए बोली, ‘सुबह इतने सारे काम होते हैं. छप्पन भोग बनाना मेरे वश का नहीं है. अपने बाप से कहो, नौकरानी रख लें, वही रचरच कर बनातीखिलाती रहेगी.’

दीप ने टिफिन गुस्से से जमीन पर फेंक दिया, ‘मु झे नहीं ले जाना यह सड़ा परांठा.’

मैं चीख कर बोली, ‘खाना फेंक रहे हो. 2-4 दिन भूखे रहोगे तो सब सम झ में आ जाएगा.’

सोम दौड़ेदौड़े आए. दीप का हाथ पकड़ कर बाहर ले गए. उन्होंने निश्चय ही उस की मुट्ठी में रुपए रख दिए होंगे. वह हंसताखिलखिलाता साइकिल पर चढ़ कर स्कूल चला गया.

अंदर आते ही सोम बोले, ‘तुम भी कम थोड़े ही हो, जब तुम्हें पता है कि वह परांठा नहीं पसंद करता है तो कुछ और बना दो लेकिन तुम कुत्ते की दुम की तरह हो. चाहे कितनी सीधी करो, टेढ़ी की टेढ़ी रहती है.’

‘आप मत चिल्लाइए, उस को बिगाड़ने में आप ही ज्यादा जिम्मेदार हैं. आप ने उसे रुपए क्यों दिए?’

‘वह भूखा रहता कि नहीं?’

‘तो क्या हुआ? एकाध दिन भूखा रहता तो दिमाग ठिकाने आ जाता. आप खुद खाने की प्लेट फेंकते हो, वही उस ने भी सीख लिया है.’

‘चुप रहो, ज्यादा चबड़चबड़ मत करो.’

मैं रोतेरोते किचन से चली आई. यह सब तो रोज का काम हो गया था.

दीप 9वीं कक्षा में आ गया था. उस की दोस्ती कक्षा के रईस, आवारा टाइप लड़कों से थी न कि पढ़ने में होशियार बच्चों से. एक दिन वह बोला, ‘पापा, यश मैथ्स की कोचिंग कर रहा है. मुझे भी कोचिंग जौइन करनी है.’

सोम दीप की किसी बात के लिए मना करना नहीं जानते थे. वे उस की हर फरमाइश पूरी करते.

‘पापा, आशू हमेशा ब्रैंडेड शर्ट ही पहनता है. मेरे पास तो एक भी नहीं है.’

अगले दिन ही सोम औफिस से लौटते हुए ब्रैंडेड शर्ट ले कर आए थे. शर्ट देख कर वह खुशी से सोम से चिपट कर बोला, ‘मेरे अच्छे पापा, आप बहुत अच्छे हैं.’

उसे सोम के ओवरटाइम की कोई फिक्र नहीं थी.

उसी साल सिया की शादी हो गई थी. दीप आजाद हो गया था. दिया से तो उस की अधिकतर बोलचाल ही बंद रहती थी.

सोम का प्रमोशन हो कर मंगलोर पोस्टिंग हो गई थी. वे दिया और दीप की पढ़ाई के कारण उन्हें श्याम भैया की देखरेख में यहीं छोड़ कर चले गए थे.

दीप घर से बाहर ज्यादा रहता, ‘मैं ट्यूशन पढ़ने जा रहा हूं,’ कह कर वह घंटों के लिए गायब हो जाता. उस पर डांटफटकार का कोई असर नहीं था. 2-3 महीने में सोम आते तो मैं मां होने के नाते शिकायतों का पुलिंदा खोल कर उन्हें सुनाने की कोशिश करती जिसे सोम ध्यान से सुनते भी नहीं थे.

हंस कर लाड़ से इतराते हुए दीप से कहते, ‘क्यों भई दीप, अपनी मम्मी का कहा माना करो. इन्हें परेशान मत किया करो. ये तुम्हारी ढेरों शिकायतें करती रहती हैं. हां, तुम्हारी इस वर्ष बोर्ड की परीक्षा है. तुम्हारी तैयारी कैसी चल रही है?’

‘फर्स्ट क्लास, पापा. मेरे तो सारे सब्जैक्ट्स तैयार हैं. रिवीजन चल रहा है.’

मेरी बातों से ज्यादा उन्हें बेटे की बातों पर विश्वास था. सोम निश्ंिचत थे कि उन की बीवी को तो हमेशा बड़बड़ करने की आदत है.

दीप का हाईस्कूल का रिजल्ट निकलने वाला था. सोम छुट्टी ले कर मंगलोर से आ गए थे. सोम बेटे से लडि़याते हुए बोले थे, ‘दीप, तुम्हारे 80 प्रतिशत अंक तो आ ही जाएंगे.’

दीप बोला था, ‘श्योर, पापा.’

‘भई, फिर तुम क्या इनाम लोगे?’

मेरा मन नहीं माना था, बीच में ही बोल पड़ी थी, ‘सिया ने जब पूरे कालेज में टौप किया था तो आप ने कभी नहीं पूछा था.’

‘अरे, वह तो बेटी थी. यह तो मेरा बेटा है, मेरा नाम रोशन करेगा.’

‘पापा, मुझे अपने दोस्तों को तो होटल में पार्टी देनी पड़ेगी.’

‘देना, जरूर देना. अपना मन मत छोटा करना. मु झे पहले से बता देना कि कितने रुपए चाहिए.’

दीप का रिजल्ट इंटरनैट पर देखा गया. उस के 51 प्रतिशत अंक देख कर सोम ने आव देखा न ताव, उस पर थप्पड़ों की बरसात कर दी थी. बेटे को बचाने के चक्कर में 1-2 हाथ मेरे भी लग गए थे.

घर में मातम का माहौल था, परंतु दीप पर कोई असर नहीं था. वह ढीठ की तरह कह रहा था, ‘मेरे तो सारे पेपर अच्छे हुए थे, जाने कैसे इतने कम अंक आए हैं. जरूर कहीं गड़बड़ है. मैं स्क्रूटनी करवाऊंगा.’

सोम को बहुत बड़ा सदमा लगा था. शर्म के कारण वे 2-3 दिन घर से बाहर नहीं निकले. वे सम झ नहीं पा रहे थे कि दीप को सही रास्ते पर कैसे लाएं.

तमाम दौड़धूप कर के सोम ने दीप का ऐडमिशन कौमर्स में करवाया. बेटे को अपने पास बिठा कर प्यार से खूब सम झाया, ‘बेटा दीप, मेरे पास कोई दौलत नहीं रखी है कि मैं तुम्हें कोई दुकान या व्यापार करवा सकूं. तुम्हें मेहनत से पढ़ना होगा क्योंकि तुम्हें पढ़लिख कर भविष्य में आईएएस औफिसर बनना है.’

‘जी पापा, मैं अब मन लगा कर पढ़ाई करूंगा.’ आंखों में आंसू भर कर सोम मंगलोर चले गए.

दीप फिर पुराने रवैए पर लौट आया था. कोचिंग के बहाने वह दिनभर घर से गायब रहता. जब घर में रहता तो या तो मोबाइल पर बातें करता या इयरफोन कानों में लगा कर गाने सुनता.

श्याम भैया ने एक दिन डांटते हुए कहा, ‘दीप बेटा, पढ़ाई पर ध्यान दो. इस वर्ष तुम्हारी इंटर की बोर्ड परीक्षा है. हाईस्कूल की तरह इस बार रिजल्ट खराब न हो.’

दीप बिगड़ कर बोला, ‘चाचा, मैं अपना भलाबुरा सम झता हूं. आप को उपदेश देने की जरूरत नहीं है.’

श्याम भैया ने उस दिन के बाद से दीप की हरकतों की ओर से अपनी आंखें बंद कर लीं. दीप की शामें दोस्तों के साथ रैस्टोरैंट में पिज्जाबर्गर खाए बिना नहीं बीतती थीं. सब बीयर पार्टी का भी लुत्फ उठाते थे. खर्चे से बचाए हुए जो रुपए अलमारी के कोनों में मैं छिपाए रखती थी, आसानी से उन पर वह हाथ साफ करता रहता. धीरेधीरे उस की हिम्मत बढ़ती जा रही थी. मैं परेशान रहती. परंतु यदि भूल से भी दीप से कुछ कहती तो वह मुझ से लड़ने पर उतारू हो जाता था. मैं मन ही मन घुटती रहती. मेरे दिल के दर्द को कोई सुनने वाला नहीं था. दिनबदिन मैं सूख कर कांटा होती जा रही थी.

एक दिन श्याम भैया मुझे डाक्टर के पास ले कर गए तो डाक्टर ने तमाम टैस्ट कर डाले. ईसीजी करने के बाद उन्होंने दिल की बीमारी बताई. डाक्टर ने ढेर सारी दवाएं और पूरी तरह आराम करने की सलाह दी.

सोम मेरी बीमारी की खबर सुन कर भागे चले आए. मेरी हालत देख उन की आंखों में आंसू आ गए थे. दीप पक्का नाटकबाज था. जब तक सोम थे, उन के सामने कौपीकिताब खोल कर बैठा रहता. सोम का और मेरा भी काम में हाथ बंटाता. मेरी देखभाल भी करता. सोम को लगा कि मेरी बीमारी के कारण वह सुधर गया है.

चाबी का गुच्छा

रेवती जैसी बहू पा कर मनोरमाजी निहाल हो गई थीं. रूप, गुण, व्यवहार में अव्वल रेवती ने सहर्ष घर की बागडोर थाम ली थी. लेकिन उसे अपनी अलमारी की चाबी का गुच्छा देते हुए आखिर क्यों मनोरमाजी का दिल दहल उठता और दिल में तरहतरह के विचार उठने लगते थे?

मनोरमाजी अलसाई सी उठीं. एक जोरदार अंगड़ाई ली, हालांकि उठने में काफी देर हो गई थी जबकि वे भरपूर नींद सोई थीं. बेटे की शादी हुए 2 ही दिन हुए थे. महीनों से वे तैयारी में लगी थीं और अभी भी घर अस्तव्यस्त सा ही था. सोचा, उठ कर चाय बना लें. बहू को अपने हाथों से चाय पिलाने की इच्छा से जैसे उन के अंदर चुस्ती आ गई. वे किचन की ओर बढ़ी ही थीं कि ट्रे में चाय के कप को सजाए बहू आती दिखी. साथ में प्लेट में बिस्कुट भी रखे थे.

‘‘चलिए मम्मी, साथ बैठ कर चाय पीते हैं. कितनी थकीथकी सी लग रही हैं.’’

पलभर को तो मनोरमाजी अवाक् रह गईं. उन्हें उम्मीद नहीं थी कि शादी के

2 दिन बाद बहू स्वयं रसोई में जा कर चाय बना लेगी और उन्हें साधिकार पीने को भी कहेगी. चाय पीतेपीते उन्हें याद आया कि आज तो बहू पगफेरे के लिए मायके जाएगी.

‘‘बेटा, कितने बजे आएंगे तुम्हारे भाई तुम्हें लेने?’’

‘‘मम्मी, शाम तक ही आएंगे. आप बता दीजिए कि क्या बनाना है? और मम्मी, मायके भी तो कुछ ले कर जाना होगा.’’

‘‘ठीक है, देखते हैं. तुम चिंता मत करो. मैं सब तैयारी कर दूंगी. तुम जा कर तैयार हो जाओ. अभी 2 दिन हुए हैं तुम्हारी शादी को, अभी से काम की टैंशन मत लो. आसपड़ोस की औरतें और रिश्तेदार भी आएंगे तुम्हारी मुंह दिखाई करने. कम से कम हफ्तेभर तो यह सिलसिला चलेगा,’’ मनोरमाजी ने अपनी बहू रेवती से कहा.

थोड़ी देर बाद रेवती तैयार हो कर आ गई. ‘कितनी सुंदर लग रही है,’ मनोरमाजी ने मन ही मन सोचा. नैननक्श, गठन और स्वभाव सब नपेतुले हैं. लगता ही नहीं कि उसे 2 ही दिन हुए हैं इस घर में आए, कितनी जल्दी घुलमिल गई है सब से.

‘‘मम्मी, जरा चाबी तो देना. खाने का सामान, नई क्रौकरी वगैरह निकालनी है. मैं चाहती हूं कि भैया के आने से पहले ही सारी तैयारी कर लूं, ताकि फिर आराम से बैठ कर गपें मारी जा सकें,’’ रेवती ने बहुत ही सहजता से कहा.

सुनते ही मनोरमाजी का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. आते ही उन के चाबी के गुच्छे पर अधिकार जमाना चाहती है पर प्रत्यक्ष में कुछ नहीं बोलीं. मना भी नहीं कर सकती थीं, इसलिए चाबी दे दी. जब से वे इस घर में ब्याह कर आई थीं, पहली बार उन्होंने किसी को चाबी दी थी. मन में तरहतरह के विचार आने तो स्वाभाविक थे.

‘‘अब आप निश्ंिचत हो कर बैठिए. मैं सब मैनेज कर लूंगी. शादी की वजह से कितनी थक गई हैं आप,’’ रेवती ने चाबी का गुच्छा उन से लेते हुए कहा.

रसोई से खटरपटर की आवाजें आती रहीं. बीचबीच में रेवती पूछती भी जाती कि फलां चीज कैसे बनेगी या फलां चीजें कहां रखी हैं. वे अपने कमरे में बैठीबैठी जवाब देती रहीं, पर जब देखा कि बहू की मदद करने बेटा भी रसोई में पहुंच गया है तो उन्हें वहां जाना ही पड़ा.

बहू ने 10-12 डिश बनाने के लिए सामान निकाला हुआ था. उन के सब से कीमती क्रौकरी और कटलरी सैट टेबल पर लगे हुए थे. यहां तक कि अपने सामान से उस ने टेबल मैट्स निकाल कर भी सजा दिए थे. उन का नया कुकर, कड़ाही और करछियां भी धोपोंछ कर करीने से रखे हुए थे. किचन के स्लैब पर भी सामान बिखरा हुआ था. इतना फैलाव देख कर उन्हें पलभर को कुढ़न तो हुई पर रेवती के चेहरे पर छाई खुशी और जोश को देख कर वे कुछ बोली नहीं.

चाबी का गुच्छा बहू की कमर में लटक रहा था. उन का मन हुआ कि वे उसे मांग लें, पर हिम्मत ही नहीं हो रही थी. इतनी सारी चीजें बनातेबनाते दोपहर के 3 बज गए थे.

‘‘मम्मी, अब आप जा कर थोड़ी देर आराम कर लीजिए और हां, ये आप की चाबियां,’’ रेवती ने जैसे ही उन्हें चाबियों का गुच्छा थमाया, उन्होंने उसे ऐसे पकड़ लिया मानो कोई बहुत कीमती चीज उन के हाथ में आ गई हो.

शाम को रेवती का भाई, भाभी, बच्चे, उस की छोटी बहन सब आए. हर थोड़ीथोड़ी देर बाद वह उन से चाबी मांगती, ‘‘मम्मी, जरा यह निकालना है, चाबी दीजिए न…फलां चीज तो निकाली ही नहीं, निकाल देती हूं. मेरी ससुराल में भैया पहली बार आए हैं, उन पर अच्छा इंप्रैशन पड़ना चाहिए.’’

वे चाबी का गुच्छा अवश्य उसे देतीं पर जब तक उन्हें वापस नहीं मिल जाता, उन का सारा ध्यान उसी पर अटका रहता.

सेवासत्कार में शाम हो चली थी. रेवती अपने भैया के साथ मायके के लिए प्रस्थान कर गई.

अगले दिन उन का बेटा नीरज रेवती को उस के मायके से ले आया. वह उन से गले लग कर ऐसे मिली मानो उन से पलभर की जुदाई बरदाश्त न हो. मनोरमाजी को रेवती का उन पर इस तरह स्नेह उड़ेलना बहुत अच्छा लग रहा था. पर भीतर से उन्हें यह बात भी तंग कर रही थी कि कहीं रेवती उन के चाबी के गुच्छे पर अधिकार कर उन की सत्ता को ही चुनौती न दे दे.

रेवती का यों खुले मन से इस घर को अपनाना उन्हें बहुत खुशी दे रहा था लेकिन एक तरफ जहां उन्हें रेवती का चुलबुलापन और उस की स्मार्टनैस अच्छी लग रही थी वहीं दूसरी ओर डरा भी रही थी. कितने ही घरों में वे ऐसा होते देख चुकी थीं कि बहू के आते ही बेटा तो पराया हो ही जाता है साथ ही, बहू सास को भी बिलकुल कठपुतली बना देती है.

मार्केट में उस दिन कांता ने भी तो उन्हें सतर्क किया था, ‘संभल कर रहना, मनोरमा, अब बहू आ गई है. आजकल की ये लड़कियां बिलकुल मीठी छुरी होती हैं, लच्छेदार बातों में फंसा कर सब हथिया लेती हैं. तुम तो वैसे ही इतनी सीधी हो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें वह घर से ही बाहर कर दे.’

मनोरमाजी जब भी रेवती को देखतीं या उस के व्यवहार से खुश होतीं, उन का दिल यह सब मानने को तैयार नहीं होता था. रेवती उन का बहुत ध्यान रखती थी और उचित मानसम्मान देती थी.

‘‘मम्मी, आज शाम को घूमने चलेंगे,’’ सुबह ही रेवती ने उन्हें बता दिया था. उन्हें लगा कि कहीं पिक्चर वगैरह या डिनर का प्रोग्राम होगा इसलिए पिं्रटेड सिल्क की साड़ी पहन वे तैयार हो गईं.

‘‘अरे मम्मी, यह साड़ी नहीं चलेगी. हम लोग डिस्को जा रहे हैं. चलिए, मैं देखती हूं कौन सी साड़ी ठीक रहेगी.’’

‘‘लेकिन मैं डिस्को में जा कर क्या करूंगी. तुम लोग चले जाओ,’’ मनोरमाजी बोलीं.

‘‘ऐसे कैसे नहीं चलेंगी, मम्मी. एक बार चल कर तो देखिए, आप खूब ऐंजौय करेंगी.’’

‘‘हांहां, मम्मी, आप और पापा दोनों चलिए न. रेवती इतने प्यार से कह रही है तो मान लीजिए न,’’ नीरज ने भी जब कहा तो ना करने का सवाल ही नहीं उठता था.

‘‘देखिए, यह नैट वाली साड़ी ठीक रहेगी. लेकिन इस के ब्लाउज की फिटिंग तो सही नहीं लग रही है. जरा स्टोर की चाबी तो दीजिए, मैं सिलाई मशीन निकाल कर इसे ठीक कर देती हूं.’’

रेवती ने फटाफट ब्लाउज ठीक कर दिया. सचमुच फिटिंग एकदम बढि़या हो गई थी. मनोरमाजी को बहुत अच्छा लगा, पर उस ने चाबी वापस नहीं की है, यह बात उन्हें खटक गई. डिस्को में जाने का मनोरमाजी का हालांकि यह पहला अनुभव था पर उन्होंने ऐंजौय बहुत किया. बीचबीच में उन्हें यह खयाल परेशान करने लगता कि बहू के पर्स में चाबी है.

घर लौट कर भी दिमाग में इसी परेशानी को ले कर वे सोईं. सुबह का चायनाश्ता सब रेवती ने तैयार कर दिया और वह भी बिना किसी गलती या देरी के. वे लगातार यही सोचती रहीं कि आखिर चाबी का गुच्छा मांगें कैसे, पता नहीं बहू उन के बारे में क्या सोचेगी या कहीं बेटे के ही कान न भर दे. अगली सुबह उन के कमरे में आ कर रेवती उन की अलमारी खोल कर बैठ गई.

‘‘मम्मी, आप का आज वार्डरोब देखा जाए. जो बेकार साडि़यां हैं उन्हें हटा दें और जो ब्लाउज ठीक करने हैं वे भी ठीक कर के रख देती हूं.’’

मनोरमाजी उसे हैरानी से देखती रहीं. कहतीं भी तो क्या? कुछ देर खटरपटर करने के बाद वह बोली, ‘‘मम्मी, बहुत थक गई हूं, जरा चाय पिला दो.’’

चाय बना कर वे लौटीं और टे्र को कौर्नर टेबल पर रख दिया. चाबी का गुच्छा वहीं रखा हुआ था. उसे देखते ही उन की आंखों में चमक आ गई लेकिन सवाल यह था कि वे उसे उठाएं कैसे? तभी रेवती का मोबाइल बजा और वह बात करने के लिए अपने कमरे में चली गई. मनोरमाजी ने तुरंत चाबी का गुच्छा उठा लिया. अपनी अलमारी को ताला लगा दिया और निश्ंिचत हो काम में लग गईं. चाबी का गुच्छा हाथ में आते ही उन्हें लगा मानो जंग जीत ली हो.

उस के बाद से मनोरमाजी थोड़ा ज्यादा सतर्क हो गईं. रेवती चाबी मांगती तो वे चाबी देने के बजाय खुद वहां जा कर ताला खोल देतीं या उस के पीछेपीछे जा कर खड़ी हो जातीं और खुद आगे बढ़ कर ताला बंद कर देतीं. रेवती के प्यार और अपनेपन को देख मनोरमाजी का मन यह तो मानने को तैयार नहीं था कि वह उन का दिल दुखाने या अपमान करने का इरादा रखती है, इस के बावजूद जबजब वह उन से चाबी का गुच्छा मांगती, उन के अंदर एक अजीब सी बेचैनी शुरू हो जाती. फिर उसे मांगने का बहाना तलाशने लगतीं.

‘‘बेटा, स्टोर से कुछ सामान निकालना है, जरा चाबी देना.’’

रेवती झट से कहती, ‘‘मम्मी, आप क्यों तकलीफ करती हैं. बताइए, क्या निकालना है, मैं निकाल देती हूं.’’

वह इतने भोलेपन से कहती कि मनोरमाजी कुछ कह ही नहीं पातीं.

एक दिन मनोरमाजी को कुछ काम  से बाहर जाना पड़ा और जल्दीजल्दी में वे चाबी का गुच्छा अलमारी में ही लगा छोड़ आईं. सारा वक्त उन का दिल धड़कता रहा कि अब तो रेवती उसे निकाल कर अपने पास रख लेगी. जब वे घर लौटीं तो देखा अलमारी बंद थी और गुच्छा नदारद था. वे सोचने लगीं, न जाने मेरे पीछे से इस लड़की ने क्याक्या सामान निकाल लिया होगा? वैसे भी तो जबतब उन की ज्वैलरी निकाल कर वह पहन लेती थी.

‘‘मम्मी, शाम को क्या खाना बनेगा? मैं और नीरज तो आज डिनर पर जा रहे हैं. आप का और पापाजी का ही खाना बनेगा,’’ रेवती मुसकराती हुई उन के सामने खड़ी थी.

‘‘रोटी, सब्जी ही बनेगी. तुम परेशान मत हो, मैं बना लूंगी,’’ मनोरमाजी ने कहा. पर उन की आंखें चाबी के गुच्छे को ढूंढ़ रही थीं. उस की कमर पर तो नहीं लटका हुआ था. फिर कहां है? आखिरकार रख ही लिया न इस ने. उन के मन में विचारों का तांता चल रहा था. पति ने पानी मांगा तो वे रसोई में आईं. देखा, स्लैब पर चाबी का गुच्छा पड़ा हुआ है.

जैसे ही उन्होंने अलमारी खोली तो उसे देख कर वे दंग रह गईं. अलमारी पूरी तरह व्यवस्थित थी. 5-6 मौडर्न ड्रैस, 4 लेटैस्ट डिजाइन की साडि़यां व स्वरोस्की और जरदोजी वर्क के 3 सूट करीने से हैंगर पर टंगे हुए थे. उन के गहने के डब्बे लौकर में एक लाइन से रखे हुए थे. अलमारी में परफ्यूम और डियो व कौस्मेटिक्स की नई रेंज भी रखी हुई थीं. सब से नीचे की दराज खोली तो देखा 2 जोड़ी नई चप्पलें रखी हैं.

ऐसा लग रहा था कि रेवती ने अपनी महीनों की कमाई से ये सारा सामान खरीदा था और उन की अलमारी की कायापलट की थी.

मनोरमाजी वहीं बैठ कर फूटफूट कर रोने लगीं. सब लोग घबरा कर उन के पास दौड़े आए. वे रोए जा रही थीं. पर किसी को बता नहीं सकती थीं और रेवती उन से ऐसे चिपक गई, मानो उस से ही कोई भूल हो गई हो. वह समझ ही नहीं पा रही थी कि अलमारी ठीक कर के उस से ऐसी कौन सी भूल हो गई कि मम्मी रोए जा रही हैं.

‘‘मैं बता नहीं सकती, मैं बता नहीं सकती…’’ मनोरमाजी लगातार यही कह रही थीं और उन का चाबी का गुच्छा एक कोने में पड़ा था.

कितने रूप: सुलभा को क्यों हुई जगदीश से नफरत

सुलभा का एक हाथ अधखुले किवाड़ पर था. वह उसी स्थान पर लकवा मारे मनुष्य की तरह जड़ सी हो गई थी. शरीर व मस्तिष्क दोनों पर ही बेहोशी सी तारी हो गईर् थी मानो. उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. क्या जो कुछ उस ने सुना वह सच है? जगदीश इस तरह की बात कर सकता है? जगदीश, उस का दीशू, जिसे वह बचपन से जानती है, जिस के विषय में उसे विश्वास था कि वह उस की नसनस से परिचित है…वह?

आगे क्या बातें हुईं वह उस के जड़ हो चुके कानों ने नहीं सुनीं. थोड़ी देर बाद जब उस के दोस्त की आवाज कान में पड़ी, ‘‘चलता हूं यार, तेरे रंग में भंग नहीं डालूंगा,’’ तो मानो उसे होश आया.

अधखुले कपाट को धीरे से बंद कर के अपनी चुन्नी से सिर और मुंह को अच्छी तरह ढक कर वह शीघ्रता से मुड़ी और लगभग दौड़ती हुई बगल में अपने घर के फाटक से अंदर प्रवेश कर के एक झाड़ी की आड़ में खड़ी हो गई.

जगदीश के दोस्त ने सड़क पार खड़ी अपनी कार का दरवाजा खोला, अंगूठा ऊपर कर घर के दरवाजे पर खड़े जगदीश को इशारा सा किया और कार स्टार्ट कर निकल गया.

जगदीश के अधिकांश मित्रों को वह पहचानती है, पर यह शायद कोईर् नया है. भाभी बता रही थीं, आजकल उस की बड़ेबड़ों से मित्रता है. इधर कंस्ट्रक्शन में काफी कमाई कर ली है उस ने.

जगदीश अपने घर के सदर दरवाजे में दोनों हाथ सीने पर बांधे सीधा तन कर खड़ा था. सुलभा कुछ क्षण उस की इस उम्र में भी सुंदर, सुगठित ऊंचीलंबी काया को देखती रही, फिर मुंह फेर लिया. आश्चर्य…? उसे जगदीश से घृणा या वितृष्णा का अनुभव नहीं हो रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि इसे निराशा कहे या विश्वास की टूटन या मन में स्थापित किसी प्रिय सुपरिचित मूर्ति का खंडित होना. वास्तव में उस के मस्तिष्क की जड़ता उसे कुछ अनुभव करने ही नहीं दे रही थी. कुछ भी सोचनेसमझने में असमर्थ वह थोड़ी देर यों ही खड़ी रही.

घर के अंदर बजती टैलीफोन की घंटी की आवाज ने उसे कुछ विचलित किया. वह समझ रही थी कि फोन जगदीश का ही होगा और उत्तर न पा कर वह कहीं खुद ही न आ धमके, घबरा कर फाटक खोल कर वह सड़क पर आ गई और बिना कुछ सोचेसमझे जगदीश के घर की विपरीत दिशा में तेजी से चलने लगी. वह इस समय जगदीश का सामना करने के मूड में बिलकुल नहीं थी. दो कदम चलते ही उसे औटो मिल गया. औटो में बैठ कर पीछे देखने पर उस ने पाया कि जगदीश अपने घर की सीढि़यां उतर चुका था. उस ने औटो वाले को तेज चलने का आदेश दिया.

उस के बचपन की सहेली सुधा उसे यों अचानक देख कर आश्चर्यचकित रह गई. वह बोली, ‘‘अरे तू, तू कब आई? तेरा तो पता ही नहीं चलता. कब मायके आती है कब जाती है. मिले हुए कितना अरसा हो गया, पता भी है? शुक्र है आज तुझे याद तो आई कि मैं भी इसी शहर में रहती हूं.’’

उस की धाराप्रवाह चलती बातों को बीच में ही रोक कर सुलभा ने तनिक हंस कर कहा, ‘‘अच्छा, बातें बाद में होंगी, पहले औटो वाले को पैसे तो दे दे, आते समय पर्र्स उठाना ही भूल गई. भैयाभाभी किसी पार्टी में गए हैं, उन्हें फोन कर दूंगी वापसी में वे मुझे लेते जाएंगे.’’

सुधा के साथ इधरउधर की बातों में सुलभा शाम की घटना को भुलाने की कोशिश करती रही. सुधा के पति दौरे पर थे, यह जानकर सुलभा को अच्छा लगा. उस के साथ ही बेमन से खाना भी खा लिया. घर पर तो शायद वह कुछ खा ही न पाती.

अकेले सांझ बिताने की बोरियत से छुटकारा पाने के उत्साह में, यों अचानक सहेली के आगमन से, सुधा का सुलभा की असमंजसता पर ध्यान ही नहीं गया. सुलभा ने चैन की सांस ली.

भैयाभाभी के साथ घर लौटते रात के 12 बज गए थे. पर सुलभा की आंखों में नींद नहीं थी. अब तक का जीवन एक फिल्म की रील की भांति उस के जेहन में घूम रहा था.

दोनों की माताएं शायद दूर की मौसेरी बहनें थीं. पर उन का परस्पर परिचय पड़ोसी होने के नाते ही हुआ था. उस दूर के रिश्ते की जानकारी भी परिचय होने के बाद ही हुई. पर विभाजन के बाद भारत आए विस्थापित परिवारों को इस नए और अजनबी परिवेश के चलते रिश्ते की इस पतली सी डोर ने भी मजबूती से बांध दिया था. कभीकभी तो इतना सौहार्द बेहद नजदीकी रिश्तों में भी नहीं हो पाता.

जगदीश और सुलभा हमउम्र थे. जहां सुलभा दोनों भाइयों में छोटी थी, वहीं जगदीश अपने मातापिता की जेठी संतान था. जो उन के ब्याह के 7-8 वर्षों बाद पैदा होने के कारण मातापिता, विशेषकर माता, का बहुत लाड़ला था और 5 वर्ष बाद दूसरे भाई के जन्म के बाद भी उस के लाड़प्यार में कमी नहीं आई थी.

जगदीश और सुलभा अभिन्न थे. दोनों एकसाथ स्कूल जाते, खेलते या लड़तेझगड़ते पर एकदूसरे के बिना मानो सुकून न मिलता. प्राइमरी के बाद सुलभा का दाखिला गर्ल्स स्कूल में हो गया था, तो भी कक्षा एक ही होने की वजह से दोनों की पढ़ाई अकसर एकसाथ ही होती. सुलभा पढ़ाई में अच्छी होने के कारण सदा अच्छी रैंक लाती, वहीं जगदीश जैसेतैसे पास हो जाता.

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बचपन में वे एकदूसरे को दीशू और सुली कह कर पुकारते. कालेज जौइन कर लेने के बाद सुलभा ने उसे पूरे नाम से पुकारना शुरू कर दिया था पर जगदीश कभीकभी सुली कह लेता था. वयस्क हो जाने के बाद भी दोनों का दोस्ती वाला व्यवहार और हंसीमजाक कभी किसी को नहीं खटका.

जब वे दोनों हाईस्कूल में थे, तब मौसी ने एक बार सुलभा से कहा था, ‘तू जगदीश को राखी क्यों नहीं बांधती.’ बीच में ही जल्द से बात काट कर जगदीश बोल उठा था, ‘रहने दो बीजी, राखी बांधने के लिए इतनी सारी चचेरी, फुफेरी बहनें क्या कम हैं? सुली तो मेरी दोस्त, सखी है. इसे वही रहने दो.’ दोनों की माताएं हंस पड़ी थीं.

सुलभा ने तब हंस कर कहा था, ‘हां, तुम्हारे जैसे फिसड्डी को भाई बताने में मुझे भी शर्म ही आएगी.’ जगदीश बनावटी गुस्से से उसे मारने उठा तो वह उस की मां के पीछे जा छिपी. मौसी ने उसे लाड़ से थपथपा कर कह दिया, ‘ठीक तो कह रही है, कहां हर साल अव्वल आने वाली हमारी सुलभा बेटी और कहां तुम, पास हो जाओ वही गनीमत.’ वैसे, सुलभा को भी उसे राखी बांधने का खयाल कभी नहीं आया था.

सुलभा के बीए फाइनल में पहुंचते ही उस की दादी ने अपनी उम्र का हवाला देते हुए उस की शादी के लिए जल्दी करनी शुरू कर दी. उन्होंने इकलौती पोती का कन्यादान करने की ख्वाहिश जाहिर की थी.

सुलभा ने चिढ़ कर कहा था, ‘‘क्या मैं कोई गाय या बछिया हूं जो मेरा दान करेंगी बीजी?’’

‘अरे बेटी, लड़की के ब्याह के लिए यही कहा जाता है न.’

जगदीश ने छेड़ा, ‘देख ली अपनी औकात?’ वह मारने दौड़ी तो जगदीश जबान दिखाते हुए भाग गया.

बीए की परीक्षा होते ही सुलभा की शादी हो गई. हालांकि बाद में उस ने एमए और बीएड भी कर लिया था. 2 बच्चों के जन्म के बाद और पति की तबादले वाली नौकरी के कारण वह अधिक दिनों के लिए मायके न आ पाती, फिर मातापिता के न रहने पर और बच्चों की पढ़ाई के चलते मायके आना और भी कम हो गया.

हालांकि, पड़ोस होने के कारण हर बार आने पर जगदीश और उस

के परिवार से मुलाकात हो ही जाती. जगदीश किसी प्रकार एमए कर के पिता के साथ बिजनैस में लग गया था. मातापिता के न रहने पर अब वही घर का सर्वेसर्वा था. छोटा भाई इंजीनियरिंग की डिगरी ले कर दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था. इस बीच जगदीश ने भी शादी कर ली.

एक बार जगदीश की पत्नी उषा ने कहा था, ‘दीदी, आप मुझे भाभी क्यों नहीं कहतीं?’

‘क्योंकि तुम आयु में मुझ से छोटी हो और मुझे दीदी कहती हो. फिर मैं ने जगदीश को भी तो कभी भैया नहीं कहा. पर यदि तुम्हें अच्छा लगता है तो मैं तुम्हें भाभी ही कहा करूंगी, उषा भाभी,’ और मैं हंस पड़ी थी. उषा भी हंस दी पर उस का चेहरा लाल हो आया था मानो उस की कोई चोरी पकड़ी गई हो. पास बैठा जगदीश बिना कुछ बोले मुंह पर गंभीरता ओढ़े उठ कर चला गया था.

फिर एक दिन उषा ने हंसीहंसी में कहा था, ‘दीदी, आप अपने सखा की गोपियों के बारे में जानती हैं?’

सुलभा जगदीश के रसिक स्वभाव से परिचित थी. अधिकांश लड़़कियां भी उस सुदर्शन युवक से परिचित होने को उत्सुक रहतीं. पर सुलभा ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया था. कुछ आश्चर्य से ही बोली, ‘हां.’

‘आप को बुरा नहीं लगा, आप तो उन की सखी हैं न, उन की राधा’, उषा ने चुटकी लेते हुए कहा.

सुलभा हंस पड़ी थी. ‘बुरा तो रुक्मिणी को लगना चाहिए, नहीं?’

बचपन से दोनों परिवारों को उन में अभिन्नता देखते आने के कारण उन का आपसी व्यवहार स्वाभाविक ही लगता था. पर दूसरे परिवेश से आई उषा को शायद उन का व्यवहार असामान्य लगता है. सुलभा ने कई बार यह महसूस किया है, हालांकि इस बारे में गंभीरता से नहीं सोचा.

पर, अपने खुले स्वभाव के कारण विकास ने कभी अन्यथा नहीं लिया जबकि सुलभा ने देखा कि मिलने पर विकास जब जगदीश की पीठ पर धौल जमा कर ‘और साले साहब, क्या हालचाल हैं’  कहते हैं, ‘नवाजिश है आप की’ कहते जगदीश मन ही मन कसमसा जाता, हालांकि ऊपर से हंसता रहता है.

भाभी नहाने गई थीं. सुलभा और जगदीश बैठे बातें कर रहे थे. एकाएक किसी बात का रिस्पौंस न पा कर सुलभा ने जगदीश की ओर देखा, लगा जैसे उस ने सुलभा की बात सुनी ही न हो. वह जाने कैसी नजरों से उसे एकटक देख रहा था.

सुलभा कुछ सकुचा कर उठने को हुई कि जगदीश ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘सुनो सुली, मेरी बात ध्यान से सुनो और प्लीज नाराज मत होना. मैं…मैं तुम्हें…तुम मेरी बात समझ रही हो न. देखो इधर मेरी आंखों में देखो सुली, क्या तुम्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता? मैं…मैं तुम्हारे लिए वर्षों से तड़प रहा हूं. क्या तुम सचमुच कुछ भी नहीं समझतीं, या…’’

सुलभा उत्तेजित हो कर कुछ कहने को हुई, तो वह उस के मुंह पर हाथ रख कर बोला, ‘‘नहीं, पहले तुम मेरी पूरी बात सुन लो, सुली, अभी कुछ मत कहो. अच्छी तरह सोच लो. मैं आज रात 8 बजे के बाद अपने घर में तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा, प्लीज.’’ आंखों में आंसू भर कर उस ने हाथ जोड़ दिए. फिर बोला, ‘‘देखो, यह मेरी अंतिम इच्छा है. एक बार पूरी कर दो. इस के बाद मैं तुम से कुछ नहीं मांगूंगा.

‘‘देखो, मैं जानता हूं तुम और विकास एकदूसरे को बहुत प्यार करते हो, हालांकि यही बात मैं अपने और उषा के लिए नहीं कह सकता, शायद, इस के लिए मैं ही अधिक दोषी हूं. पर कभीकभी मुझे लगता है कि मुझे तुम्हारे ब्याह के समय ही विरोध करना चाहिए था. पर तब मैं अपनी भावनाएं अच्छी तरह समझ नहीं पाया था और बाद में बहुत देर हो चुकी थी.

‘‘तुम मेरी गर्लफ्रैंड्स के बारे में जानती हो, पर विश्वास मानो मैं उन सब में तुम्हें ही ढूंढ़ता रहा हूं. उषा बच्चों के साथ मायके गई हुई है और तुम्हारे भैयाभाभी को आज रात किसी पार्टी में जाना है. ऐसा अवसर फिर कभी नहीं मिलेगा. आजकल तुम यहां आती ही कितना हो. मुश्किल से 2-3 दिन या किसी विशेष अवसर पर. और अकेले तो कितने अरसे बाद आई हो. देखो, मेरा दिल मत तोड़ना सुली. तुम्हें अपने दीशू की कसम.’’ उसे कुछ कहने का मौका दिए बिना ही रूमाल से आंसू पोंछता वह जल्दीजल्दी चला गया.

सुलभा सन्न रह गई. उसे याद आया कुछ वर्षों पहले भी उस ने कुछ इसी तरह का इशारा किया था. वह लज्जा और क्रोध से लाल हो गई थी. उस का रौद्र रूप देख कर जगदीश सकपका गया था, कान पकड़ कर हंसते हुए बोला था, ‘सौरी बाबा, सौरी, मजाक कर रहा था.’

‘दिमाग ठीक है तुम्हारा? ऐसा भी मजाक होता है? बच्चे नहीं हो कि जो मुंह में आया बक दिया. आज के बाद मुझ से बात करने की भी कोशिश मत करना’, क्रोध और क्षोभ से वह उठ खड़ी हुई थी.

जगदीश एकदम घबरा गया था, ‘माफ कर दो सुली. मगर ऐसा गजब न करना, तुम्हारे पैर पड़ता हूं. माफ कर दो प्लीज.’ और उस ने सचमुच सुलभा के पैर पकड़ लिए थे.

तो क्या यह इतने वर्षों से ही यह इच्छा मन में रखे है, वह तो कब का उस बात को भूल चुकी थी. और आज इस उम्र में…सुलभा का बेटा इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर में है, बेटी मैडिकल के प्रथम वर्ष में है. खुद जगदीश की बेटी इस वर्ष कालेज जौइन करेगी.

उस ने अपने मन को टटोलने का यत्न किया. पर उस के अपने मन में तो सदा जगदीश के लिए दोस्तीभाव ही रहा है. उस का प्यार तो विकास ही है. और जगदीश का आज का प्रस्ताव क्या प्यार है? क्या पुरुष की दृष्टि में नारी का एक यही रूप है? छि:, उस का सिर घूम रहा था, दिमाग मानो कुछ भी सोचनेसमझने में असमर्थ हो रहा था. भाभी के कुछ एहसास करने पर सिरदर्द का बहाना बना कर वह अपने कमरे में जा कर लेट गई.

शाम तक उस की यही हालत रही. पहले उस ने सोचा, भैयाभाभी के साथ पार्टी में चली जाए, पर अनजान, अपरिचित लोगों से मिलने और वार्त्तालाप करने लायक उस की मनोस्थिति नहीं थी. फिर भाभी ने साथ चलने के लिए खास अनुरोध भी नहीं किया था. पार्टी उन की सहेली की शादी की वर्षगांठ की थी और उस ने शायद चुनिंदा लोगों को ही बुलाया था.

दिनभर वह इसी ऊहापोह में रही कि क्या करे. अंधेरा होने पर जब वह जगदीश के घर की ओर चली, तब तक तय नहीं कर पाई थी कि वह क्यों जा रही है और उस से क्या कहेगी. पर वह यह भी जानती थी कि उस के न जाने पर वह खुद ही आ धमकेगा.

जगदीश के घर के सदर दरवाजे के पल्ले यों ही भिड़े थे. सुलभा ने उसे खोलने के लिए पल्ले पर हाथ रखा ही था कि एक अपरिचित स्वर सुन कर ठिठक गई, ‘‘तो आज तुम बिलकुल नहीं लोगे? मैं ने तो सोचा था कि भाभी नहीं हैं, सो, आज जरा जम कर बैठेंगे.’’

‘‘नहीं यार, आज तो बिलकुल नहीं. उसे डिं्रक से सख्त नफरत है. आज जब मेरे जीवनभर का अरमान पूरा होने जा रहा है, मैं यह रिस्क नहीं ले सकता.’’

‘‘पर यार, मेरी समझ में नहीं आ रहा. अब इतने वर्षों बाद ऐसा भी क्या है. अरे, तुझे कोई कमी है. एक से एक परी तेरे एक इशारे की प्रतीक्षा में रहती है. और तू है कि इस अधेड़ उम्र की स्त्री के लिए इतना बेचैन हो रहा है?’’

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‘‘तू नहीं समझेगा. आज तक मुझे किसी युवती ने इनकार नहीं किया जिस पर भी मैं ने हाथ रखा, सिर्फ इसी ने…मुझे अपना सारा वजूद ही झूठा लगता था, मैं ने जिंदगी में कभी किसी स्तर पर हार नहीं मानी. न खेल में, न बिजनैस में, न प्रेम में. हार मैं सहन नहीं कर सकता. किसी कीमत पर नहीं. आज, आज लगता है मैं एवरेस्ट फतह कर लूंगा.’’

सुलभा को लगा था मानो किसी ने उस के कानों में पिघलता सीसा उड़ेल दिया हो. रातभर जगदीश के शब्द उस के वजूद पर कोड़े से बरसाते रहे. उस के गुस्से की सीमा नहीं थी. बचपन से ले कर आज तक का समय उस की आंखों के सामने फिल्म की रील सा घूम गया. वह अभी भी समझ नहीं पा रही थी कि बचपन से अब तक देखा, सुना और जाना हुआ सच था या आज का उस का यह रूप. मनुष्य के कितने रूप होते हैं? कब कौन सा रूप प्रकट हो जाएगा, कौन जान सकता है? क्या पुरुष का यही रूप उस का असली और सच्चा रूप है? क्या खून के रिश्तों के अलावा पुरुष की नजरों में स्त्रीपुरुष का यही एक रिश्ता है? बाकी सब गौण हैं? मित्रता भी एक दिखावा ही है? क्या वह अब किसी चीज पर विश्वास कर पाएगी?

सुबह अपना सामान संभालती वह सोच रही थी, भैयाभाभी से यों अचानक लौट जाने का कौन सा बहाना बनाएगी. वह अब कभी जगदीश का सामना पहले की तरह सहज भाव में कर पाएगी? पता नहीं. पर आज तो हरगिज नहीं कर पाएगी.

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बेटा- भाग 1: क्या वक्त रहते समझ पाया सोम

‘‘सिया, सिया, जल्दी आओ. देखो, तुम्हारे पापा कुछ बोल ही नहीं रहे हैं. जाने क्या हो गया.’’

सिया और समीर दोनों अपने कमरे से भागते हुए आए.

सिया ने ‘पापा, पापा’ पुकार कर उन का हाथ उठाया. उसे उन का हाथ बेजान लगा.

समीर ने डाक्टर को फोन किया.

सुजाता फूटफूट कर रोने लगी.

‘‘मम्मी, पापा को कुछ नहीं हुआ. आप रोइए मत, प्लीज, वरना मुझे भी रोना आने लगेगा.’’

डा. अनुराग समीर के मित्र थे, इसलिए तुरंत आ गए थे. उन्होंने आंख की पुतली देखी और ‘ही इज नो मोर’ कह कर कमरे से बाहर चले गए.

सिया मां से चिपट कर सिसकने लगी. जब कुछ देर वह रो चुकी तो समीर बोले, ‘‘सिया, अपने को संभालो.’’

समीर भी घबराए हुए थे. दीप की हरकतों से परेशान हो कर सिया मम्मीपापा को अपने साथ ले आई थी. अभी महीना भी पूरा नहीं हुआ था कि पापा सब लोगों को छोड़ कर चले गए.

‘‘मम्मी, पापा शाम को तो एकदम ठीक थे. क्या आप से कुछ कहासुनी हुई थी?’’

‘‘नहीं, बेटी.’’

मम्मी को असमंजस में देख उस का शक पक्का हो गया था कि वे उस से कुछ छिपा रही हैं.

‘‘सच बताओ, मम्मी, रात में क्या हुआ था?’’

वे सिसकते हुए बोलीं, ‘‘दीप का फोन आया था. उस ने पापा के जाली दस्तखत बना कर मकान का सौदा तय कर लिया है और बयाना भी ले लिया है. इसी बात पर पापा नाराज हो उठे थे. जौइंट अकाउंट होने के कारण वह बैंक से रुपए पहले ही निकाल चुका था. 2 दिन पहले श्याम चाचा का भी फोन आया था. घर पर किसी लड़की को ले कर आया था उस के कारण उन से भी उस ने खूब गालीगलौज और हाथापाई की.

‘‘इसी बात को ले कर बापबेटे के बीच जोरजोर से बहस होती रही थी. मैं ने इन्हें सम झाने का प्रयास किया तो मु झे डांट दिया. फिर आधी रात में उठ कर कोई दवा खा कर बोले, ‘ऐसी औलाद से बिना औलाद होते तो ज्यादा सुखी होते.’’’

‘‘मम्मी, इतनी बात हो गई और आप ने मु झे कुछ भी नहीं बताया.’’

‘‘बेटा, तुम लोग रात में देर से थकेमांदे आए थे. यह सब तो मैं, जब से दीप जवान हुआ है तब से देखसुन रही हूं. मु झे क्या मालूम कि यह बात आज इन के दिल में ऐसी चुभ जाएगी.’’

समीर मम्मी और सिया से बोले, ‘‘बताओ, कहांकहां फोन करना है. मैं ने दिया और श्याम चाचा को फोन कर दिया है. कह दिया है आप जिन्हें ठीक सम िझए उन्हें सूचना दे दीजिए. आप के आने के बाद ही कुछ होगा.’’

समीर के मित्र और पड़ोसी एकत्र हो गए थे. उन सब की सहायता से शव को बरामदे में रख कर सब वहीं खड़े हो गए.

समीर ने बताया कि श्याम चाचा, दिया और सुचित्रा बूआ के आने में लगभग 5 घंटे लग जाएंगे, इसलिए उन लोगों के आने के बाद ही कुछ होगा. यह सुनते ही सब लोग तितरबितर हो गए.

वहां पर सिया, समीर और सुजाता ही रह गए. सुजाता की आंखों के सामने दीप के बचपन की बातें चलचित्र की तरह चलने लगीं.

सिया और दिया के बाद दीप के पैदा होने पर घर में खुशियां छा गई थीं. अम्मा, सोम और श्याम भैया को बेटे की खबर सुनते ही मानो कारूं का खजाना मिल गया था. परिवार में पहला बेटा था, इसलिए अतिरिक्त लाड़प्यार का हकदार था. सीमित आमदनी होने के कारण बेटियों की जरूरतों पर कटौती शुरू हो गई. ढाईतीन साल का दीप अपने मन का न होने पर तब तक रोता जब तक उस की जिद पूरी न हो जाती.

सोम ने दोनों बेटियों को तो सरकारी हिंदी स्कूलों में पढ़ाया था. चूंकि कौन्वैंट स्कूल महंगे होते थे इसलिए उन का बहाना होता था कि वहां पढ़ कर बच्चे बिगड़ जाते हैं. सिया, दिया दोनों मेहनती थीं. हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आतीं. इसलिए दोनों पढ़लिख कर डिगरी कालेज में लैक्चरर बन गईं.

परंतु जब दीप के ऐडमिशन का समय आया तो सोम ने उस का नाम कौन्वैंट स्कूल में 10 हजार रुपए डोनेशन दे कर लिखवाया था. सिया उस से 8 साल बड़ी थी, इसलिए उस से थोड़ा दबता था लेकिन दिया से तो उस की एक पल भी नहीं बनती थी.

दिया और दीप की आपसी मारपीट से परेशान हो कर मैं अकसर रो पड़ती थी. दोनों की गुत्थमगुत्था से खीज कर अकसर कहती, ‘ऐसा लगता है कि घर छोड़ कर कहीं चली जाऊं. लेकिन मेरा तो ठिकाना भी कहीं नहीं है.’

एक बार दोनों एक पैंसिल के लिए लड़ रहे थे. दीप ने दिया को गंदी सी गाली दी. सुनते ही मैं ने उसे एक जोरदार थप्पड़ लगा दिया था तो वह मुझ से ही चिपट गया और मेरी बांह में दांत गड़ा दिए थे. आज भी उस जख्म का निशान मेरी बांह पर बना हुआ है. जैसे ही दर्द से बिलबिला कर मैं ने उसे हलका सा धक्का दिया, वह जानबू झ कर मुंह के बल गिर पड़ा. होंठ में दांत चुभ जाने के कारण उस के खून छलक आया था. वह मुंह फाड़ कर जोरजोर से चिल्लाने लगा. अम्माजी खून देखते ही मुझ पर गरम हो उठी थीं.

‘मां हो कि दुश्मन, ऐसे धक्का दिया जाता है,’ वे दीप के आंसू पोंछ कर बोलीं, ‘मेरा राजकुमार है. अभी तुम्हारे लिए पैंसिल का पूरा डब्बा मंगवा कर दूंगी. तुम इस कलूटी को एक भी मत देना.’

अम्माजी दिया को लाड़ से कलूटी ही कहती थीं.

फिर दीप के कान में फुसफुसा कर बोलीं, ‘मेरे साथ आओ, मैं ने तुम्हारे लिए लड्डू छिपा कर रख रखे हैं,’ रोना तो महज उस का नाटक था.

मैं आंखों में आंसू भर कर रह गई थी. दीप ने एक लड्डू मुंह में रखा, दूसरा हाथ में और घर से फुर्र हो गया.

सोम बहुत गरममिजाज और कायदेकानून वाले थे. लेकिन बेटे की मोहममता में सारे कायदेकानून भूल जाते थे.

मैं सुबह से रात तक घर का काम करतीकरती थक जाती. मुंह अंधेरे ही उठ कर तीनों बच्चों का टिफिन पैक कर देती. खाना, कपड़ा, बरतन करतेकरते थक कर निढाल हो जाती थी.

तीनों बच्चों का दूध बना कर मेज पर रख देती थी. दीप चीखता हुआ कहता, ‘मु झे नहीं पीना सादा दूध, बौर्नविटा डालो तभी पीऊंगा.’

‘बौर्नविटा खत्म हो गया है, इसलिए चुपचाप दूध पियो, टिफिन बैग में रखो और स्कूल जाओ. वैन वाला कब से हौर्न बजा रहा है.’

मैं ने गिलास उठा कर दीप के मुंह में लगाने का प्रयास किया. आधा गिलास दूध देखते ही उस ने मेरे हाथ को  झटक दिया. हाथ से गिलास छूट कर दूध जमीन पर फैल गया. मैं चिल्ला कर बोली, ‘बहुत बदतमीज हो गया है. सिया, दिया को जितना देती हूं, चुपचाप पी कर चली जाती हैं. ये नालायक हर समय कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देता है.’

सोम कमरे से भागते हुए आए, डांटते हुए बोले, ‘तुम्हारा कोई भी काम ढंग से नहीं होता. जब तुम्हें पता है कि वह गिलास भर कर दूध पीता है तो तुम ने उसे चिढ़ाने के लिए जानबू झ कर आधा गिलास दूध क्यों दिया?’

‘मेरे लिए तो तीनों बच्चे बराबर हैं. मैं तो तीनों को एक सा खिलाऊंगी, पहनाऊंगी. मेरे लिए बेटाबेटी दोनों एक समान हैं,’ मैं ने जवाब दिया.

‘ज्यादा जबान मत चलाओ. सिया, दिया एक दिन दूध नहीं पिएंगी तो मर थोड़े ही जाएंगी,’ अम्माजी ने सोम के सुर में सुर मिलाया.

सिया दीप को बुलाने के लिए बाहर से आई थी. दादी और पापा की सारी बातें उस ने सुन ली थीं. 14 वर्ष की सिया सम झदार हो चुकी थी. उस दिन के बाद से उस ने दूध को हाथ भी नहीं लगाया. दिया दीप को जिद करते देख खुद भी वैसा ही करने लग जाती थी.

सैलिब्रेशन- भाग 1: क्या सही था रसिका का प्यार

कुहराभरीशाम के 6 बजे ही अंधेरा गहरा गया था. रसिका औफिस से थकी हुई घर में घुसी ही थी कि उस की छोटीछोटी दोनों बेटियां भागती हुई मम्मा… मम्मा कहती उस से लिपट गईं. छोटी काव्या सुबक रही थी.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘मम्मा, यहां सब लोग मुझे बेचारी कहते हैं. आज नानी के पास एक आंटी आई थीं. वे मुझे प्यार करती जा रही थीं और रोरो कर कह रही थीं कि हायहाय बिन बाप की बेटियों का कौन अपने लड़के से ब्याह करेगा.

‘‘मम्मा, मेरे पापा तो हैं. वे ऐसे क्यों कह रही थीं?’’

8 साल की नन्ही काव्या के प्रश्न पर रसिका समझ नहीं पा रही थी कि इस मासूम को कैसे समझाए. फिर उसे प्यार से गले से लगाते हुए बोली, ‘‘इन बातों को मत सुना करो. तुम तो मेरी राजकुमारी हो,’’ और फिर पर्स से चौकलेट निकाल कर उस की हथेली पर रख दी. वह खुश हो कर उछलती हुई चली गईर्.

मान्या 10 साल की थी. वह कुछकुछ समझने लगी थी कि अब पापा से उन का रिश्ता खत्म हो गया है, इसलिए घर या बाहर कोई भी बेचारी या उस की मम्मा के लिए बुरा बोलता तो वह उस से लड़ने को तैयार हो जाती थी.

इस कारण सब उस की शिकायत करते, ‘‘रसिका, अपनी बेटी को कुछ अदबकायदा सिखाओ. सब से लड़ने पर आमादा हो जाती है.’’

रसिका अकसर मान्या को समझाती, ‘‘बेटी, इन लोगों से बेकार में क्यों बहस करती हो… तुम वहां से हट जाया करो.’’

मगर उस का रोज किसी न किसी से पंगा हो ही जाता. कभी घर में तो कभी स्कूल में.

रसिका जानती थी कि दोपहर में मां के पास महिलाओं का जमघट लगता है और वे दोनों बच्चियों को सुनासुना कर बातें करतीं, ‘‘हाय, बुढ़ापे में गायत्री बहनजी की मुसीबत आ गई है. रसिका तो सजधज कर औफिस चली जाती और इन बिटियों के लिए खाना बनाओ, टिफिन तैयार करो, कितना काम बढ़ गया है बहनजी के लिए.’’

‘‘चुप रहो मीरा. मान्या सुन लेगी तो आ कर लड़ने लगेगी,’’ गायत्रीजी ने कहा तो सब चुप हो गईं.

मीराजी को अपनी हेठी लगी तो वे उठ खड़ी हुईं. बोलीं, ‘‘गायत्री बहन,

?जरा सी लड़की से आप डरती क्यों हैं? हमारी नातिन ऐसा बोले तो मैं तो 2 थप्पड़ रसीद कर दूं.’’

फिर मान्या के घर में घुसते ही सब अपनेअपने घर चली गईं.

नानी के कराहने की आवाज सुन कर मान्या उन के पास आई, ‘‘नानी, आप रहते दो.मैं माइक्रोवेव में खाना गरम कर लूंगी. आप आराम करो.’’

‘‘रहने दे छोरी, अपनी अम्मां से कह देगी कि नानी ने खाना भी नहीं दिया.’’

मान्या का मूड खराब हो गया, लेकिन मम्मी की बात याद कर के चुपचाप खाने बैठ गई.

संडे का दिन था. रसिका अपने कपड़े धो रही थी. तभी रोती हुई काव्या घर में घुसी.

‘‘क्या हुआ? क्यों रो रही हो?’’

‘‘मम्मा, रिचा आंटी कह रही थीं कि तुम मेरे घर खेलने मत आया करो. तुम्हारी मम्मी तलाकशुदा हैं. तुम्हारे पापा से लड़ाई कर के आ गई हैं.’’

रसिका परेशान थी. सुबह मां से बहस हो चुकी थी. अत: गुस्से में बेटी को गाल पर थप्पड़ लगा चीख कर बोली, ‘‘क्यों जाती हो उन केघर खेलने?’’

‘‘मम्मा तलाकशुदा क्या होता है?’’

बेटी के मासूम प्रश्न पर रसिका की आंखें छलछला उठीं. आंसू नहीं रोक पाई. अपने कमरे में जा कर चुपचाप आंसू बहाती रही. मां की निगाहें भी अब बदल गई थीं. उन को भी शायद अब रसिका का यहां रहना अच्छा नहीं लग रहा था. हर समय मुंह फुलाए रहती हैं. बच्चों से भी ढंग से बात नहीं करतीं.

रसिका के किचन में घुसते ही कहने लगती हैं, ‘‘मैं कर तो रही हूं. यह यहां क्यों रख दिया?’’

यदि रसिका कुछ बना देती तो खुद उसे छूती भी नहीं. उस में मीनमेख निकालतीं. रसिका को उलटासीधा बोलतीं. बच्चों को डांटतीं.

मान्या स्कूल से कोई फार्म लाईर् थी भरने के लिए. उस में पापा का नाम सुरेश चंद्र लिखवाते हुए रसिका को हलक में कुछ अटकता महसूस हुआ. पति का नाम लेते ही उस की आंखें क्रोध से लाल हो उठीं.

पति के अत्याचारों की याद आते ही मुंह कसैला हो उठा. सुरेश के साथ रसिका ने अपने जीवन के कीमती पल बिताए थे. वह उसे प्यार तो करता था, परंतु गुस्सैल स्वभाव का होने के कारण किस पल नाराज हो कर गालीगलौज और मारपीट पर उतर आए, पता नहीं. इसलिए रसिका हर समय डरीसहमी सी रहती थी.

जब काव्या की डिलिवरी के वक्त रसिका मायके में थी तो अकेलेपन में सुरेश इमली के गदराए बदन पर आसक्त हो गया और उस ने उस के दिल में जगह बना ली. उसी की संगत में उसे पीने का शौक लग गया. बस वह इंसान से जानवर बन बैठा.

जब एक दिन अबोध काव्या को ज्यादा रोने पर उसे उठा कर जमीन पर पटकने को तैयार हो गया, तब रसिका दुर्गा बन कर उस से बेटी को छुड़ा पाईर् थी. उसी क्षण उस ने उस नर्क से निकल भागने का निश्चय कर लिया.

अगले दिन जब सुरेश का नशा उतर गया तो उस के रोने, माफी मांगने का रसिका पर कोई असर नहीं हुआ. फिर 2-4 दिन के अंदर ही मौका देख कर वह वहां से निकल ली.

रसिका ने केवल पति के खूनी पंजों से मुक्ति चाही थी. पैसे की कोई चाहत नहीं की थी. इसलिए आपसी सहमति से जल्दी तलाक हो गया था. उस के शरीर के जख्मों को देख कर ससुराल वालों के पास भी कहने को कुछ नहीं था एवं अपने बेटे के गुस्से के कारण वे लोग स्वयं ही परेशान थे.

रसिका अपनी मां के पास रहने लगी थी. उन्होंने भी दिल खोल कर उस का साथ दिया था.

पिता की प्रतिष्ठा के कारण उसे औफिस में परीक्षा देने का अवसर मिल गया और पास हो जाने पर नौकरी भी मिल गई.

जीवननैया सुचारु रूप से चल पड़ी थी. वे बेटियों को मां को सौंप कर निश्चिंत हो गई थी. मां को पैसे दे कर या घर का सामान ला कर अपना काम पूरा हो गया समझती थी.

रसिका को न ही बच्चों के टिफिन की कभी फिकर हुई न ही अपने टिफिन की. उसे भी मां के हाथों का खाना और नाश्ता मिलता रहा. व्यवस्था चल निकली थी.

रसिका औफिस में अपनी खुशियां तलाश कर ठहाके लगाती. वैभव उस का बौस था. दोनों के बीच दोस्ती धीरेधीरे प्यार में बदल गई. वह औफिस से अकसर ओवरटाइम कह कर देर से आने लगी थी. छुट्टी वाले दिन भी वैभव के पास किसी न किसी बहाने पहुंच जाती.

समस्या तब खड़ी हो गई जब उस के और वैभव के अफेयर के चर्चे मां के कानों तक पहुंचे. फिर तो उन की निगाहें और बोलचाल सब बदल गया.

मान्या 24 साल की हो गई थी और काव्या 22 की. रसिका औफिस से वैभव की बाइक पर लौट रही थी. गली के नुक्कड़ पर मां और मान्या दोनों ने वैभव को रसिका को किस करते हुए देख लिया. फिर तो घर में हंगामा होना स्वाभाविक था. मां को अपनी बेइज्जती बरदाश्त नहीं हुई. कहासुनी में बात इतनी बढ़ गई कि अगले 2 दिनों के अंदर ही वैभव ने उन के लिए 2 कमरों का फ्लैट ढूंढ़ लिया.

अपना अपना मापदंड- भाग 2: क्या था शुभा का रिश्तों का नजरिया

‘‘मेरे साथ तो तेरी दादी का व्यवहार ऐसा ही है. डोली से निक ली थी उस पल भी उन्होंने ऐसा ही व्यवहार किया था. तुम्हारे पापा ने तुम्हारी बूआ से बस, इतना ही कहा था कि दीदी, जरा शुभा को कुछ खिला देना, उस ने रास्ते में भी कुछ नहीं खाया. पर भाई के शगुन करना तो दूर, मांबेटी ने रोनापीटना शुरू कर दिया और उन के रोनेधोने से घर आए तमाम मेहमान जमा हो गए थे.’’

22 साल पुरानी वह घटना आज फिर आंखों के सामने साकार हो उठी.

‘‘ ‘भाभी, यह क्या पागलपन है? आते ही बहू को अपना यह क्या रूप दिखा रही हो. बेटे ने उस की जरा सी चिंता कर के ऐसा कौन सा पाप कर दिया जो बेटा छिन जाने का रोना ले कर बैठ गई हो… घरघर मांएं हैं, घरघर बहनें हैं… तुम क्या अनोखी मांबहन हो जो बहू का घर में पैर रखना ही तुम से सहा नहीं जा रहा. हमारी मां ने भी तो अपना सब से लाड़ला बेटा तुम्हें सौंपा था. क्या उस ने कभी ऐसा सलूक किया था तुम से, जैसा तुम कर रही हो?’ ’’ पति की बूआ ने किसी तरह सब ठीक करने का प्रयास किया था.

तब का उन का वह रूप और आज का उन का यह रूप. उन की जलन त्योंत्यों बढ़ती रही ज्योंज्यों मेरे पति अपने परिवार में रमते रहे.

हम साथ कभी नहीं रहे क्योंकि पति की नौकरी सदा बाहर की रही, लेकिन यह भी सच है, यदि साथ रहना पड़ता तो रह भी न पाते. मेरी सूरत देखते ही उन का चेहरा यों बिगड़ जाता है मानो कोई कड़वी दवा मुंह में घुल गई हो. अकसर मैं सोचती हूं कि क्या मैं इतनी बुरी हूं.

मैं ने ऐसा कभी नहीं चाहा कि मैं एक बुरी बहू बनूं मगर क्या करूं, मेरी बुराई इसी कड़वे सच में है कि मैं अपने पति की पत्नी बन कर ससुराल में चली आई थी. मेरा हर गुण, मेरी सारी अच्छाई उसी पल एक काले आवरण से ढक सी गई जिस पल मैं ने ससुराल की दहलीज पर पैर रखा था. मेरा दोष सिर्फ इतना सा रहा कि अजय के पिता को अजय की दादी मानसिक रूप से कभी अपने से अलग ही नहीं कर पाईं. लाख सफल मान लूं मैं स्वयं को मगर ससुराल में मैं सफल नहीं हो पाई. न अच्छी बहू बन सकी न ही अच्छी भाभी.

‘‘दादी अकेली संतान थीं न अपने घर में…बूआ भी अकेली बहन. यही वजह है कि दादी और बूआ ने अपने खून के अलावा किसी को अपना नहीं माना. जो बेटे में हिस्सा बांटने चली आई वही दुश्मन बन गई. मैं भले ही उन का पोता हूं लेकिन तुम से प्यार करता हूं इसलिए मुझे भी अपना दुश्मन समझ लिया.

‘‘मां, दादी की मानसिकता यह है कि वह अपने प्यार का दायरा बड़ा करना तो दूर उस दायरे में जरा सा रास्ता भी बनाना नहीं चाहतीं कि हम दोनों को उस में प्रवेश मिल सके. वह न हमारी बनती हैं न हमें अपना बनाती हैं. हमतुम भला कब तक बंद दरवाजे पर सिर फोड़ते रहेंगे.

‘‘जाने दो उन्हें, मां… मत सोचो उन के बारे में. अगर हमारे नसीब में उन का प्यार नहीं है तो वह भी कम बदनसीब नहीं हैं न, जिन के नसीब में हम दोनों ही नहीं. जिसे बदला न जा सके उसे स्वीकार लेना ही उचित है. वह वहां खुश हम यहां खुश…’’

सारी कहानी का सार मेरे सामने परोस दिया अजय ने. पहली बार लगा, ससुराल में कोई साथी मिल गया है जो मेरी पीड़ा को जीता भी है और महसूस भी करता है. सब ठीक चल रहा था फिर भी अजय उदास रहता था. मैं कुरेदती तो गरदन हिला देता.

मेरी एक सहेली के पति एक शाम हमारे घर आए तो सहसा मैं ने अपने मन की बात उन से कह दी. उन के बडे़ भाई एक अच्छे मनोवैज्ञानिक हैं.

‘‘भैया, आप अजय को किसी बहाने से उन्हें दिखा देंगे क्या? मैं कहूंगी तो शायद न उसे अच्छा लगेगा न उस के पापा को. हर पल चुपचुप रहता है और उदास भी.’’

उन्होंने आश्वासन दे दिया और जल्दी ही ऐसा संयोग भी बन गया. मेरी उसी सहेली के घर पर कोई पारिवारिक समारोह था. परिवार सहित हम भी आमंत्रित थे. सभी परिवार आपस में खेल खेल रहे थे. कोई ताश, कोई कैरम.  सहेली के जेठ भी वहीं थे, जो बड़ी देर तक अजय से बतियाते रहे थे और ताश भी खेलते रहे थे. उस दिन अजय खुश था. न कहीं उदासी थी न चुप्पी.

दूसरे दिन उन का फोन आया. मेरे पति से उन की खुल कर बात हुई. मेरे पति चुप रह गए.

‘‘क्या बात है, क्या कहा डाक्टर साहब ने?’’

कुछ देर तक मेरे पति मेरा चेहरा बड़े गौर से पढ़ते रहे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘अजय अकेलेपन से पीडि़त है. उस के यारदोस्त 2-2, 3-3 भाईबहन हैं. उन के भरेपूरे परिवार को देख कर अजय को ऐसा लगता है कि एक वही है जो संसार में अकेला है.’’

क्या कहती मैं? एक ही संतान रखने की जिद भी मेरी ही थी. अब जो हो गया सो हो गया. बीता वक्त लौटाया तो नहीं जा सकता न. शाम को अजय कालिज से आया तो मन हुआ उस से कुछ बात करूं…फिर सोचा, भला क्या बात करूं… माना मांबेटे दोनों काफी हद तक दोस्त बन कर रहते हैं फिर भी भाईबहन की कमी तो है ही. पति अपने काम में व्यस्त रहते हैं और मेरी अपनी सीमाएं हैं, जो नहीं है उसे पूरा कैसे करूं?

अजय की हंसी धीरेधीरे और कम होने लगी थी. मैं ने जोर दे कर कुरेदा तो सहसा बोला, ‘‘मां, क्या मेरा कोई भाईबहन नहीं हो सकता?’’

हैरान रह गई मैं. अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ मुझे. बड़े गौर से मैं ने अपने बेटे की आंखों में देखा और कहा, ‘‘तुम 20 साल के होने वाले हो, अजय. इस उम्र में अगर तुम्हारा कोई भाई आ गया तो लोग क्या कहेंगे, क्या शरम नहीं आएगी तुम्हें?’’

‘‘इस में शरम जैसा क्या है, अधूराअधूरा सा लगता है मुझे अपना जीना. कमी लगती है, घर में कोई बांटने वाला नहीं, कोई मुझ से लेने वाला नहीं… अकेले जी नहीं लगता मेरा.’’

आत्ममंथन: क्या था प्रीतम का सच

‘‘तुम भी खा लेतीं,’’ गुस्सा छोड़ते हुए प्रीतम ने कहा.

‘‘नहीं, अभी नहीं. अभी तो मुझे बरतन मांजने हैं’’, मैं ने कहा.

‘‘क्यों, कामवाली नहीं आई क्या?’’

‘‘नहीं, कल उस की तबीयत खराब थी. कह रही थी शायद आज नहीं आ सकेगी.’’

‘‘फिर तुम ने पहले ही क्यों नहीं बता दिया? कम से कम मैं अपने अंडरगारमैंट्स धो कर सुखाने के लिए डाल देता.’’

‘‘मैं अपने कपड़ों के साथ धो डालूंगी. वैसे भी काम ही क्या रहता है सारा दिन. तुम दफ्तर चले जाते हो और रोहन स्कूल, तो मैं सारा दिन बेकार बैठी रहती हूं.’’

‘‘सच, कभीकभी लगता है कि मैं ने तुम से नौकरी छुड़वा कर कोई बड़ी गलती कर डाली है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं कहते. सच मानो तो मैं बहुत खुश हूं घर पर रह कर, वरना पहले तो बस दो कौर ठूंस लिए और दौड़ पड़े दफ्तर को बस पकड़ने के लिए. फिर सारा दिन फाइलों से सिर फोड़ना. अब तो आराम ही आराम है. न देर होने की चिंता, न बस छूट जाने की फिक्र’’, मैं ने बड़े ही नाटकीय ढंग से कहा. फिर भी लगा कि प्रीतम को विश्वास नहीं आ रहा है. वह पूछ बैठा, ‘‘सच कह रही हो?’’

‘‘तो क्या झूठ कह रही हूं?’’ मैं ने मुसकरा कर कहा.

प्रीतम आश्वस्त हो कर उठा. वाशबेसिन से हाथ धो कर आया और टौवल से हाथ पोंछते हुए बोला, ‘‘अब तुम भी जल्दी से स्नान कर के खाना खा लो.’’

‘‘पहले घर की सफाई तो कर लूं.’’

प्रीतम ने मोजेजूते पहने और मैं ने औफिस बैग थमाया. वह उठ कर जाने लगा तो मैं ने उसे स्नेहसिक्त दृष्टि से देख कर कहा, ‘‘शाम को जल्दी आ जाना.’’

‘‘जरूर.’’

प्रीतम मेरा दायां गाल थपथपा कर बाहर निकल गया. उस ने आंगन में खड़ी बाइक स्टार्ट की और फिर फ्लाइंग किस करता हुआ फाटक से बाहर निकल गया.

मैं चौखट से उसे ओझल होने तक देखती रही. फिर मुड़ पड़ी. घर खालीखाली और चुपचुप सा लगा. अंदर जाते ही एक प्रकार की घुटन सी महसूस हुई. मुझे बचपन से ही न अकेले रहने की आदत है, न चुप रहने की. प्रीतम के जाने के बाद कामवाली से बतियाने लगती हूं. उस का सारा काम हो जाए तो भी उसे बातों में उलझाए रखती हूं. लेकिन आज तो कामवाली भी नहीं आई थी. अब तो सिर्फ दीवारों से ही बात कर सकती थी.

मैं ने झूठे बरतन उठाए और सिंक में रख दिए. मेज पोंछ कर उस पर लगे शीशे में अपना चेहरा देखा. उस में मुझे अपना अक्स धुंधलाधुंधला सा दिखाई दिया. सोचा, कहीं मैं अपनेआप को झुठला तो नहीं रही हूं. कभीकभी मेरे मुंह से मेरे मन की बात निकलतेनिकलते क्यों रह जाती है? आज प्रीतम से जो कुछ कहा वह क्या सच है? फिर यह घुटन कैसी? ऐसा क्यों महसूस हो रहा है कि मैं किसी खूंटे से बंध गई हूं, बस, एक ही दायरे में घूमती हुई.

सवेरे मैं ने बहुत जरूरी बरतन ही मांजे थे. बाकी के यों ही पड़े थे. मैं उठ कर रसोई में गई और बरतन मांजने

शुरू कर दिए. बरतन ज्यादा नहीं थे. 3 आदमियों के बरतन होते ही कितने हैं?

शादी के बाद प्रीतम के साथ मैं यहां चली आई. यहां बड़ौदा में न मेरा कोई ससुराल वाला रहता था, न कोई मायके वाला. मायका था बेंगलुरु में और ससुराल मुंबई में. मांबाप का रिश्ता तो शादी के बाद टूट सा ही जाता है, लेकिन सास भी नहीं आई थीं मेरे साथ. उन्हें ससुर और मेरे देवरननदों की चिंता थी. प्रीतम शादी से पहले कभीकभार घर पर ही पका कर खा लेते थे. इसलिए उन्होंने गैस चूल्हा, सिलैंडर और कुछेक बरतन खरीद लिए थे. यहां आते वक्त मेरी मां और सास ने कुछ बरतन दे दिए थे और मेरी घरगृहस्थी अच्छी तरह बस गई थी.

सहेलियों से सुन रखा था कि अकेले रहने वाले व्यक्ति से शादी करने पर खूब मौज रहती है. लेकिन मैं यहां प्रीतम के साथ अकेले रहने पर भी उदास रहती हूं. घर जैसे खाने को दौड़ता है. शादी से पहले कभी इस तरह घंटों घर पर रहने की नौबत नहीं आई थी. कालेज की पढ़ाई के बाद नौकरी कर ली और छुट्टियों के दिनों में भी घर पर रही तो दोचार आदमियों से घिरी हुई.

मैं ने बरतन सजा कर रख दिए और झाड़ू लगाने लगी. घर बड़ा नहीं है. एक बैडरूम, एक ड्राइंगरूम, किचन और बाथरूम. झाड़ू लगा कर मैं गुसलखाने में गई और कपड़े धोने लगी. फिर स्नान कर के कपड़े सुखाने के लिए स्टैंड पर डाल दिए.

खाना खा कर मैं सोफे पर लेट गई और मुझे नींद सी आने लगी. सहसा दरवाजे की घंटी की आवाज सुन कर मैं हड़बड़ा कर उठी. जा कर देखा तो शशि थी.

‘अरे, आओआओ, कैसे भूल पड़ी?’’

‘‘आज रात की ड्यूटी है न, इसलिए सोचा कि तुम से मिल लूं.’’

मैं शशि को ले कर अंदर चली आई और उसे बिठाते हुए बोली, ‘‘क्या पियोगी?’’

‘‘कुछ नहीं. अभीअभी खाना खा कर आ रही हूं. अकेले बैठेबैठे बोर हो रही थी. सोचा, तुम्हारे साथ थोड़ी देर गपशप ही कर लूं.’’

‘‘अच्छा किया. मैं भी बैठी बोर हो रही थी. कभीकभी आ जाया करो न.’’

‘‘तुम तो कभी आतीं ही नहीं.’’

‘‘तुम्हारी ड्यूटी का तो कुछ पता ही नहीं चलता.’’

‘‘आज से 15 दिन के लिए रात की ड्यूटी है.’’

‘‘फिर तो जरूर आऊंगी,’’ मैं ने कहा.

शशि अस्तपाल में नर्स है. जब भी वह सफेद कपड़ों में सैंडिल ठकठकाती हुई अस्पताल जाती है तो मुझे रश्क सा होने लगता है. सोचती हूं मैं भी फिर से यहां किसी नौकरी पर लग जाऊं.

‘‘तुम क?हां तक पढ़ी हो?’’ शशि ने पूछा.

‘‘बीए तक.’’

‘‘अच्छा, सुना है शादी से पहले तुम नौकरी करती थीं.’’

‘‘हां, लेकिन ज्यों ही मंगनी हुई त्यों ही नौकरी छोड़ दी.’’

‘‘तुम ने खुद छोड़ दी या तुम्हारे पति ने छुड़वा दी?’’

‘‘उन्होंने.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ. वैसे भी तुम्हारे पति ऊंचे पद पर हैं और उन की अच्छीखासी तनख्वाह है. फिर तुम्हें क्या जरूरत है नौकरी करने की.’’

‘‘लेकिन घर पर ही बैठ कर क्या करूं? 3 जनों का खाना ही कितना होता है? कोई न कोई काम हो तो…’’

‘‘जिन के पास दांत हैं उन्हें चने नहीं मिलते और जिन के पास चने हैं उन के दांत नहीं.’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं.’’

‘‘देखो, कभीकभी मैं सोचती हूं कि यह नौकरी छोड़ कर घरगृहस्थी बसा लूं और तुम घरगृहस्थी से हाथ झटक कर नौकरी करना चाहती हो.’’

‘‘तो बसा क्यों नहीं लेती?’’

‘‘तुम शायद नहीं जानतीं कि पिताजी की मृत्यु के बाद घरगृहस्थी का सारा बोझ मुझ पर आ खड़ा है. मां पढ़ीलिखी हैं नहीं और बाकी सब भाईबहन छोटे हैं.’’

थोड़ी देर तक शशि बैठी, अपनी आगेपीछे की सुनाती रही, फिर उठ कर चली गई.

फड़फड़ की आवाज सुन कर मैं ने आंगन की तरफ दृष्टि दौड़ाई. आंगन में एक कबूतर आ कर बैठ गया था. रोज इसी वक्त आ कर बैठता है. मैं ने उठ कर ज्वार के दाने डाल दिए और एक बरतन में पानी डाल दिया. कबूतर दाने चुग कर और पानी पी कर थोड़ी देर गुटरगूं करता रहा. फिर फुर्र से उड़ गया. उस की उड़ान देख कर मेरी आंखों के आगे शादी से पहले का जीवन साकार हो उठा.

सवेरे जल्दीजल्दी तैयार हो कर नाश्ता करना, फिर लोकल ट्रेन में सफर कर के दफ्तर पहुंचना और कुछेक फाइलें देख कर चायकौफी के बहाने कैंटीन चले जाना, लंच आवर में खाना खा कर अपनी सहेलियों के साथ गौसिप, हंसीठट्ठा करना. शाम को 5 बजते ही दिन कैसे बीत जाता था, कुछ पता ही नहीं चलता था. अब तो पलपल बिताना मुश्किल हो गया है. दसियों बार दीवार घड़ी पर नजर चली जाती है. अब भी मैं ने दीवार घड़ी पर अपनी नजर फेंकी. ढाई बजे थे. प्रीतम के लौटने में अभी 3 घंटे बाकी हैं और रोहन के लौटने में ढाई घंटे.

बारबार जी चाहा, प्रीतम से कह दूं, मैं नहीं रह सकती घर पर इस तरह बेकार हाथ बांधे, मैं नौकरी करूंगी. आने दो प्रीतम को, आज कह कर ही रहूंगी, अब और चारदीवारी में कैद हो कर नहीं रह सकती.

कभीकभी तो प्रीतम के व्यवहार पर मन भिन्न हो उठता है. रुपए मांगो तो पूछ बैठता है, ‘क्यों, क्या खरीदना है? सभी तो ला कर दे देता हूं.’

हर माह वह राशन ला देता है और हर इतवार को सागभाजी. जब भी खरीदारी करनी हो तो साथ चल देता है और कुछ खरीदने लगूं तो कह देता है, ‘अरे, तुम्हारे पास इतनी साडि़यां पड़ी हैं, इतने गहने पड़े हैं, कितने तो सैडिल पड़े हैं. बस, मेरा तो मन यहीं आहत हो उठता है और मैं सोचने लगती हूं कि  कितना बुरा है प्रीतम. जब मुझे कुछ खरीदना हो तभी उसे किफायत सूझती है. काश, मैं खुद कमाती होती और खुद मनचाहा खरीद पाती. तब किसी के सामने हाथ पसारने की नौबत तो न आती.

कई बार मैं ने कहा, ‘तुम अपनी पूरी तनख्वाह ला कर मुझे दे दो. मैं घर चलाऊंगी.’ मगर वह मानता ही नहीं और मैं तड़प कर पूछ बैठती हूं, ‘क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं? क्या मैं फुजूल खर्च करूंगी.’

‘अरे, नहीं, ऐसी बात नहीं.’

‘तो फिर?’

‘तुम और मैं दोनों अलगअलग हैं क्या?’

‘नहीं तो.’

‘फिर?’

‘ठीक है, मुझे हर माह पौकेट मनी दे दिया करो.’

‘तुम्हें जितना चाहिए, खर्च कर लो. मैं मना तो नहीं करता.’

मगर पता नहीं क्यों मैं कभी उस की जेब में हाथ डाल कर पैसे नहीं निकाल पाई और मेरे पास इतना नहीं रहता कि मैं कुछ मनचाहा खरीद पाऊं. मैं ने शादी के बाद अगर नौकरी कर ली होती तो आज मेरे पास कितने ही रुपए होते. रोहन भी 5 साल का हो गया है. इन 6 सालों में मैं नौकरी कर रही होती तो मेरे पास अपने ही 3-4 लाख रुपए होते. सच, इतने सारे रुपयों का एहसास ही बड़ा आनंददायक लगा और मैं सोचने लगी, फिर तो मैं श्वेता की तरह मोतियों का सैट बनवा लूंगी और गुंजन की पत्नी की तरह हर महीने एक नई साड़ी खरीद लूंगी.

आज आने दो प्रीतम को, मैं उस से कह कर रहूंगी.

आसमान पर काले बादल छाने लगे थे. अचानक अंधेरा सा फैल गया. लोग इस आशंका से भागदौड़ करने लगे कि कहीं घर पहुंचने से पहले ही बारिश न होने लगे.

आज फिर सामने के चबूतरे पर कुछेक लड़के जमा हो कर जुआ खेल रहे हैं. पिछले महीने ही तो सूरज को पुलिस पकड़ कर ले गई थी. उस की मां की मृत्यु हो चुकी थी और उस का बाप दूसरा ब्याह इसलिए नहीं कर रहा था चूंकि उसे डर था कि कहीं सौतेली मां आ कर सूरज के साथ बुरा सुलूक न करे. जब तक उस का बाप नहीं आ जाता तब तक सूरज सारा दिन आवारागर्दी करता रहता है.

अरे, यह तो सुमित है. यह वहां क्यों बैठा है? क्या वह भी जुआ खेल रहा है? क्या स्कूल में छुट्टी हो गई? तब तो रोहन को भी आ जाना चाहिए था. मैं ने सुमित को आवाज दे कर बुलाना चाहा लेकिन वह मुझे चोर निगाहों से देख कर वहां से खिसक गया.

दो घर छोड़ कर अनुपमा को भी जनून सा सवार हो गया है. कार है, बंगला है फिर भी वह नौकरी पर जाती है. और उस के बच्चे? पूछो मत. सुमित को तो खैर आज ही देख रही हूं गली के इन लड़कों के साथ. लेकिन उस की जवान बेटियां अपने रसोइए के साथ हर समय हंसीठिठोली करती रहती हैं और वह भी सैंडोकट बनियान पहन कर उन लड़कियों से अजीबअजीब हरकतें किया करता है. कभी टांग अड़ा कर राह रोक लेता है तो कभी बांह दबा कर पीठ थपथपा देता है. एकाध बार अनुपमा को समझाया भी है लेकिन वह तो अपनी ही झोंक में कह देती है, ‘अब अगर नौकरी करनी है तो इन सब बातों को भुलाना ही पड़ेगा, वरना घरगृहस्थी कैसे चलेगी?’

भाड़ में जाए ऐसी नौकरी. पहले तो बालबच्चे हैं, घरगृहस्थी है. फिर दूसरे काम. रहा समय काटने का सवाल, तो किताबें पढ़ लो. मैं ने मैगजीन उठा ली और पढ़ने लगी. अचानक मेरी दृष्टि नए व्यंजनों के स्तंभ पर चली गई. शाही  टोस्ट बनाने का तरीका पढ़ कर लगा कि यह तो चुटकियों में बनाया जा सकता है. मैं ने झट चाशनी के लिए गैस चूल्हे पर पानी चढ़ा दिया और ब्रैड के टुकड़े करने लगी.

टेबल पर प्लेट सजाते हुए लगा कि यह भी तो एक काम है. दूसरे के लिए कुछ करने में भी तो एक सुख है. यह चाय की केतली में चाय डाल कर रखना, प्रीतम और रोहन के लिए हलका सा नाश्ता बना कर रखना, फिर उन का इंतजार करना, यह क्या काम नहीं? मैं बेकार कैसे हूं? मैं भी तो काम कर रही हूं.

फटफट की आवाज सुन कर मैं ने बाहर झांक कर देखा, प्रीतम और रोहन दोनों खड़े थे.

‘‘अरे, यह तुम्हें कहां मिल गया?’’

‘‘मुझे उस तरफ थोड़ा काम था. इसलिए सोचा क्यों न लौटते वक्त इसे भी लेता जाऊं.’’

‘‘मां, बहुत भूख लगी है?’’

‘‘हां, बेटा, आज तो मैं ने तुम्हारे लिए शाही टोस्ट बनाया है.’’

‘‘ओह मम्मी, तुम कितनी अच्छी हो.’’

रोहन मुझ से लिपट गया और मेरे दाएं गाल पर एक चुंबन जड़ दिया. ऐसा लगा जैसे मुझे पारिश्रमिक मिल गया हो.

प्रीतम हाथमुंह धो कर मेज पर आ कर बैठ गया, बोला, ‘‘सुनो, एक बैंक खुल रहा है, जिस में सिर्फ महिलाएं ही काम करेंगी. क्यों न तुम भी अप्लाई कर दो?’’

‘‘अरे, मुझे घर के कामों से फुरसत ही कहां मिलती है जो मैं नौकरी करने जाऊंगी?’’

‘‘समय निकालोगी तो फुरसत भी मिल जाएगी,’’ प्रीतम बोले.

‘‘लेकिन, मैं ऐसे ही ठीक तो हूं.’’

‘‘मैं चाहता हूं तुम बाहर निकलो, नौकरी करो और फिर घरखर्च में भी तो मदद हो जाएगी.’’

प्रीतम की बातें सुन कर पहले तो मैं अवाक रह गई, फिर मन में विचार कौंधा कि यह वही तो है जो मैं चाहती थी. अब जब मुझे मौका मिल ही रहा है तो मैं इनकार क्यों कर रही हूं? नहीं, मुझे मना नहीं करना चाहिए. मेरी कुंठा का समाधान आखिर यह ही तो है.

मैं ने नौकरी के लिए हामी भर दी. मैं ने अगले दिन अप्लाई भी कर दिया. एक हफ्ते बाद इंटरव्यू भी दे आई और नौकरी पक्की भी हो गई. यह मेरे लिए एक स्वप्नभर था. आज भी है. जिस आत्मग्लानि से मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी वह कितनी आसानी से खत्म हो गई. रोहन को समय देना आज भी मेरी पहली प्राथमिकता है लेकिन नौकरी के साथसाथ जिस खुशी से मैं भर जाती हूं वह सारी खुशी, सारा प्यार रोहन पर लुटा देती हूं.

आज मुझे नौकरी करते हुए 2 साल बीत गए हैं पर लगता है जैसे कल ही की तो बात है.

‘टिंगटोंग…’ दरवाजे की घंटी सुन कर मेरी तंद्रा भंग हुई.

‘‘अरे, प्रीतम आप, आज इतनी जल्दी कैसे?’’

‘‘यों ही, सोचा तुम्हें सरप्राइज दिया जाए.’’

‘‘कैसा सरप्राइज?’’ मैं ने उत्साहित भाव से पूछा.

‘‘यह लो,’’ कह कर प्रीतम ने एक लिफाफा मेरी ओर बढ़ा दिया.

‘‘यह तो किसी फ्लैट का अलौटमैंट लैटर है, पर किस का फ्लैट और कैसा फ्लैट?’’ मैं ने प्रीतम के समक्ष सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘हमारा फ्लैट है. हमें फ्लैट अलौट हुआ है.’’

‘‘कितने में?’’

‘‘50 लाख रुपए में. 10 लाख रुपए मैं ने अग्रिम भर दिए हैं और बाकी रुपए बैंक से लोन ले कर हम दोनों हर महीने ईएमआई में जितने रुपए आएंगे दे दिया करेंगे.’’

‘‘10 लाख? पर तुम्हारे पास कहां से आए?’’

‘‘जब से तुम्हारी नौकरी लगी है घरखर्च तो तुम्हीं उठा रही हो, तो बस, मैं बाकी खर्चे निकाल कर बचतखाते में जमा करता गया. और वैसे भी, तुम और मैं क्या अलग हैं? दोनों का होगा वह फ्लैट, तो दोनों ही खुशी से जीवन निर्वाह करेंगे हक और अधिकार से.’’

‘‘ओह, तुम कितने अच्छे हो,’’ कह कर मैं प्रीतम से लिपट गई.

एक कहानी का अंत: सुख के दिन क्यों न देख सकी पुष्पा

‘‘मेरे पूरे जिस्म में दर्द हो रहा है. पूरा जिस्म अकड़ रहा है. आह, कम से कम अब तो मुक्ति मिल जाए. कोई तो बुलाओ डाक्टर को,’’ पुष्पा कराहते हुए बोल रही थी.

‘‘शांत हो जाओ, मां. लो, मुंह खोलो, दवा पिलानी है,’’ मंजू बोली.

‘‘मेरी बच्ची, अब समय आ गया, मैं नहीं बचूंगी,’’ कहते हुए पुष्पा ने गिलास लगभग छीनते हुए पकड़ा और दवा एकदम गटक ली.

मंजू को लगा कि मां के जिस्म में चेतना आ रही है और वे सही हो जाएंगी. वैसे भी, पहले भी कई बार ऐसा ही कुछ हुआ था. अभी वह सोच ही रही थी कि गिलास के गिरने की आवाज आई और उस की मां पुष्पा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.

‘‘मां, मां, उठो, बात करो मु झ से. आंखें खोलो न.’’ पर मां तो जा चुकी थीं, दूर, बहुत दूर.

कमरे में सन्नाटा छा गया था. अगर कोई विलाप कर रहा था तो वह थी मंजू. रोते हुए उस ने अपने पति को सूचना दी और वहीं बैठ गई. वह मां के पार्थिव शरीर को पत्थर बनी ताकती रही.

‘‘रात के डेढ़ बजे हैं, सब काम सुबह होंगे,’’ कह कर भाईभाभी अपने कमरे की तरफ चल दिए. वह बारबार मां को छू कर देखती, उम्मीद लिए कि शायद वापस आ जाएंगी वे. फिर सब की शिकायत करेंगी उस से.

कितना दुखी जीवन था उस की मां पुष्पा का. मंजू ने जब से होश संभाला हमेशा मां को रोते ही देखा…एक जल्लाद पति, बृजेश, हमेशा नशे में धुत. कहने को तो स्कूल अध्यापक था, पर ताश खेलना और शराब पीना, बस, यही उस की दिनचर्या थी. जब देखो तब वह पुष्पा को जलील करता, नशे में मारता, गालियां देता. कई बार उस ने पुष्पा को जान से मारने की भी कोशिश की थी. लेकिन आदमी जो ठहरा, रात में अपने शरीर की पिपासा बु झाने से भी वह बाज न आता.

सबकुछ सह रही थी पुष्पा. सिर्फ और सिर्फ अपने 3 छोटे बच्चों के लिए. कहां जाती वरना. न तो सासससुर का साया था और न ही मातापिता का. नाम का भाई था जो कभीकभी पत्नी से छिप कर मिलने आ जाता था और चुपचाप कुछ रुपए उस के हाथ में रख जाता.

बृजेश की आधी से ज्यादा कमाई ऐयाशी में उड़ जाती. जैसेतैसे घर की गाड़ी चल रही थी, बच्चों के साथ परेशानियां भी बड़ी होने लगीं.

बृजेश के काले मन को पुष्पा भांप गई थी, इसलिए साए के जैसे वह मंजू के साथ रहती. एक दिन पड़ोस में गमी में जाना पड़ गया, तो वह मंजू की जिम्मेदारी अपने बड़े बेटे पर सौंप कर चली गईं. बृजेश को जैसे भनक लग गई थी, उस ने अपने बेटे को किसी काम से बाजार भेज दिया और मंजू को अपनी बांहों में दबोच लिया. वह अपने को छुड़ाने के लिए छटपटा रही थी पर बृजेश पर तो शैतान हावी था.

अचानक पुष्पा आ गई. यह देखते ही वह गुस्से से पागल हो गई. वहीं एक बांस रखा था, आव देखा न ताव, वह बृजेश को पीटने लगी, ‘कमीने, बेशर्म, चला जा यहां से. बाप के नाम पर धब्बा है तू. कभी सूरत मत दिखाना. मैं नहीं चाहती तेरा साया भी पड़े मेरे बच्चों पर.’ मंजू सहमी सी खड़ी देख रही थी यह सब. धमकी दे कर बृजेश वहां से चला गया.

अब पुष्पा सिलाई और बिंदी बनाने का काम करने लगी. उसी से घरखर्च चल रहा था. बड़े बेटे ने पढ़ाई छोड़ दी. उसे शराब और सट्टेबाजी की लत लग गई. अकसर नशे में वह मां को कोसता और गाली देता. वह बाप के जाने का दोषी मां को ठहराता था.

पुष्पा खून के आंसू पी कर रह जाती. पुष्पा को अब बड़े होते बच्चों की चिंता सताने लगी थी. सो, म झले बेटे को उस के मामा के घर भेज दिया आगे पढ़ने के लिए. इंटर पूरा करते ही मंजू के हाथ पीले कर दिए. म झले बेटे की पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी लग गई बैंक में. पुष्पा ने उस का भी विवाह कर दिया. जबकि बड़ा अभी कुंआरा था.

आशा के विपरीत म झले बेटे की बहू ने सब की जिम्मेदारी से बचने के लिए अलग घर बसाने की पेशकश की और शहर से बाहर चली गई. फिर कभी नहीं आई. कितनी बार पुष्पा ने उसे बुलाना चाहा पर उसे नहीं आना था सो नहीं आई. टूट चुकी थी पुष्पा. अब बड़े बेटे की जिम्मेदारी से निबटने के लिए उस का भी विवाह कर दिया.

इसी बीच, बृजेश को कैंसर हो गया. दरदर भटकते अब उसे घर की याद आई थी. पुष्पा को याद करता हुआ किसी तरह पहुंच ही गया उस के पास. अपने आखिरी दिनों में उस ने अपने किए की कई बार पुष्पा से क्षमा मांगी. पुष्पा ने उसे घर में रुकने की इजाजत तो दे दी पर दिल से माफ नहीं कर पाई. अब घर एक जंग का मैदान हो गया था.

पुष्पा कुछ भी कहती, बहू दानापानी ले कर चढ़ जाती. आखिरकार एक दिन बृजेश ने इस दुनिया से विदा ली. धीरेधीरे गमों को पीते हुए पुष्पा भी बिस्तर से लग गई, उस के पैर बेकार हो चुके थे. बहू उस की कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, उलटा आएदिन अपना हिस्सा मांगती. पुष्पा के पास अगर कुछ था तो यही एक मकान, जहां अब वह जिंदगी के बाकी बचे दिन काट रही थी. सब की नजर उस मकान पर थी. शायद पुष्पा की आंख बंद होने का इंतजार था.

पुष्पा ने एक आया सुनीता लगा ली थी. वही उस के सब काम नहलानाधुलाना आदि करती थी. आएदिन पुष्पा मंजू को फोन कर के उस से घर के सदस्यों की शिकायत करती. मंजू जब भी भाभी को सम झाना चाहती, वह टका सा जवाब देती. हार कर फिर वह मां को ही सम झाती. पुष्पा अकसर मंजू से बोलती, ‘लल्ली, तू नहीं सम झेगी, मेरे जाने के बाद पता चलेगा. सारा जीवन दे दिया पर कोई अपना नहीं हुआ. यह दुनिया पैसे की है. मु झे कोई नहीं पूछता, सारे दिन गफलत में पड़ी रहती हूं. जिस दिन कुछ खाने को मांग लिया उसी दिन तूफान.’

‘‘जीजी, जीजी,’’ सुनीता की आवाज से मंजू चौंकी. ‘‘जीजाजी आ गए. पति को देखते ही उस के सब्र का बांध टूट गया. वह खूब रोई. इतने में सुनीता ने एक पत्र उस के पति को देते हुए कहा, ‘‘अम्मा लिख गई हैं, कह रही थीं, मेरे बाद मंजू को देना.’’ शायद, पुष्पा को अपने आखिरी समय का एहसास हो गया था.

मंजू ने पत्र पति के हाथ से ले लिया. आंसू पोंछते हुए पत्र पढ़ने लगी.

‘मंजू बेटी, तू दुनिया की सब से अच्छी बेटी है. तू ने मेरी बहुत सेवा की. मेरी एक विनती है कि मेरे बाद मेरा क्रियाकर्म संबंधी काम एक दिन में ही पूरा कर देना, जिन बहूबेटों के पास जीतेजी मेरे लिए समय नहीं था उन को बाद में भी परेशान होने की जरूरत नहीं.

‘पिछले महीने ही तू मेरे लिए कपड़े लाई थी, वे सब बांट देना. मेरी रोटी के लिए जिन के पास रुपए नहीं थे वे मेरे बाद मु झ पर खर्च न करें. दामादजी, आप इस घर का सौदा कर दें. उस सौदे से मिलने वाली रकम के 3 हिस्से करना. एक हिस्सा इन दोनों लड़कों का और दो हिस्से में से एक सुनीता को दे देना. बेचारी ने बहुत ध्यान रखा मेरा. अगले महीने उस की लड़की की शादी है. एक हिस्सा मेरी नातिन का है. मंजू बेटी, तू मेरा बेटा भी थी. मेरी हर छोटी से छोटी जरूरत और इच्छा का खयाल रखा तू ने. शायद मैं जिंदा ही तेरी वजह से थी. कर्जदार हूं मैं तेरी. सदा खुश रहो. सब को तेरी जैसी बेटी मिले.’

‘‘मां.’’

सब की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. मां के कहेनुसार एक ही दिन में सब कार्य कर मंजू अपने पति के साथ भारी मन से वापस अपने घर चली गई.

मां के साथ ही उस के दुखों का अंत हो गया था. बड़ी दुखदायी, एक कहानी का अंत हो गया था. बड़ा लंबा वनवास था यह. 70 साल का सफर कम नहीं होता, जो पुष्पा ने अकेले ही तय किया था. जीवन जिया तो था उस ने लेकिन सुख के दिन क्या होते हैं, कभी नहीं देख सकी.

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