Serial Story: जुनून (भाग-3)

उसे सताने वाला न जाने कहां गायब हो गया था. उस के लिए अब कोई फूल या उपहार रख कर नहीं जाता था. उन पुरानी बातों को भूल कर रिया एक बार फिर से अपनी पढ़ाई में दिलोजान से जुट गई. उसे लगने लगा कि जिंदगी में अब सब ठीक चल रहा है.

एक दिन भीड़ में किसी उचक्के ने रिया को छूने की कोशिश की तो रिया ने विरोध किया. रोहित उस के साथ ही खड़ा था. उस ने तैश में आ कर उस गुंडे का कौलर पकड़ लिया.

नौबत मारपीट तक आ गई तो रिया घबरा गई. उस ने किसी तरह रोहित को समझाबुझा कर मामला शांत करवाया.

दोनों अपने गंतव्य स्टेशन पर ट्रेन से उतर गए. ‘‘तुम्हें क्या जरूरत थी इस तरह उस गुंडे से उलझने की?’’ रिया बोली तो रोहित बोल पड़ा, ‘‘हिम्मत भी कैसे हुई उस की तुम्हें हाथ लगाने की? और क्या करता मैं? चुपचाप तमाशा देखता?’’

‘‘तो क्या उस की जान ले लेते?’’ रिया खीझ कर बोली.

‘‘अगर तुम न रोकती तो मैं सच में उस की जान ले लेता,’’ रोहित ने जवाब दिया.

रिया अवाक रह गई. उस ने रोहित की तरफ देखा. उस का चेहरा गुस्से में लाल था. ‘‘क्या बोल रहे हो, रोहित? मामूली बात पर कोई किसी की जान लेता है क्या?’’ रिया को हंसी आ रही थी उस की बातों पर.

‘‘रिया, अगर कोई भी तुम्हें छुए तो मैं…’’ कहतेकहते रोहित अचानक चुप हो गया. फिर नरम लहजे में बोला, ‘‘मेरे दोस्तों के साथ कोई बदतमीजी करे तो मुझे गुस्सा आ जाता है.’’

‘‘हाऊ स्वीट, तुम सच में कितने अच्छे हो जो दोस्तों की इतनी परवा करते हो,’’ रिया ने उस का गाल पकड़ कर खींचा.

उसे हमेशा घर के पास तक छोड़ने के बाद रोहित वापस चला जाता था. हाथमुंह धो कर जब रिया फारिग हुई तो उस की नजर उस किताब पर पड़ी जो वह अपने साथ ले आई थी. यह किताब हमेशा रोहित के हाथ में रहती थी. उस गुंडे से हाथापाई के दौरान किताब रोहित के हाथों से गिर पड़ी थी जिसे रिया ने उठा लिया था और बातोंबातों में उसे देना भूल गई थी.

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उस ने यों ही किताब के पन्ने पलटे. कुछ पन्नों पर कुछ लिखावट की गई थी. एक पन्ने पर उसे अपना नाम लिखा हुआ मिला. उस ने गौर से देखा, लिखावट कुछ जानीपहचानी लगी. कुछ और पन्ने रिया ने पलटे, ज्यादातर पन्नों पर उस का नाम था और उस के नाम के साथ एक और नाम लिखा हुआ था. 2 नामों को एकसाथ दिल के आकार में जोड़ कर लिखा गया था.

उस ने उन लिखे हुए अक्षरों को बारबार देखा. कोई संदेह नहीं था कि किताब में लिखे शब्दों की लिखावट उन गिफ्टकार्ड के अक्षरों से हुबहू मिलती थी.

रिया सन्न रह गई. अचानक सारा राज ताश के पत्तों की तरह उस के सामने खुल गया. रिया के लिए यकीन करना मुश्किल था कि वह रोहित ही था जो उसे गुमनाम तोहफे भेजा करता था. खौफ की ठंडी लहर उस की रीढ़ की हड्डी से गुजर गई. जिस डर पर काबू पाने में उसे इतना वक्त लगा था वह अब एक नाम और चेहरे के साथ उस की जिंदगी में लौट आया था.

इस वक्त वह घर पर बिलकुल अकेली थी. शिखा अपनी पारिवारिक व्यस्तता के चलते कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर गई थी. मगर क्यों? उस ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? उस के मन में ऐसे तमाम सवाल उमड़ रहे थे जिन का जवाब सिर्फ रोहित दे सकता था.

उस ने ठान लिया कि वह रोहित को बेनकाब कर के रहेगी. इतने दिनों से वह रिया का दोस्त बन कर उस के भरोसे का फायदा उठा रहा था. जो उस का गुनाहगार था उसे ही रिया अपना सब से बड़ा हमदर्द समझती रही.

अगले दिन रिया बहुत देर तक बेसब्री से रोहित का इंतजार करती रही. मैट्रो में सफर करने वालों की भीड़ एक के बाद एक आ कर गुजर गई मगर रोहित उसे कहीं नजर न आया. अंत में निराश हो कर वह अपने इंस्टिट्यूट के लिए चल पड़ी.

देर शाम घर वापस आते हुए रिया को कई बार लगा कि कोई उस का पीछा कर रहा है. वह गली के पास मुड़ी और एक खंभे की आड़ में छिप गई.

बहुत हुआ लुकाछिपी का खेल. आज तो वह उस साए को धर दबोचेगी. रिया ने पूरी हिम्मत जुटा ली, चाहे कुछ हो जाए वह जान कर रहेगी कि आखिर कौन उस का पीछा करता है.

जैकेट के हेडकवर से चेहरे को छिपाए उस शख्स ने गली में कदम रखा ही था कि रिया ने झपट कर उस का नकाबरूपी हुड खींच लिया.

उस शख्स को जब तक संभलने का मौका मिलता, उस का चेहरा बेनकाब हो चुका था.

‘‘रोहित.’’ रिया को एक और झटका मिला, ‘‘अच्छा तो छिपछिप कर मेरा पीछा करने वाले भी तुम ही हो और मुझे वो फूल और गिफ्ट भी तुम ही भेजते थे.’’ सिर झुकाए रोहित चुपचाप रिया के सामने खड़ा था.

‘‘अब चुप क्यों हो? जवाब दो,’’ उसे नफरत से देखते हुए रिया ने कहा.

‘‘मुझे माफ कर दो, रिया. ये सब मैं ने तुम्हारे प्यार को पाने के लिए किया. बहुत प्यार करता हूं मैं तुम से.’’

‘‘तुम ने यह सोचा भी कैसे? तुम सिर्फ मेरे दोस्त थे और अब आज से हमारा दोस्ती का रिश्ता भी खत्म हो गया. आज के बाद मुझ से मिलने की कोशिश भी मत करना.’’

‘‘प्लीज रिया, ऐसा मत करो. देखो, मान जाओ. न जाने कब से मैं तुम्हारे प्यार के लिए तरस रहा हूं,’’ रोहित गिड़गिड़ाया.

‘‘नहीं रोहित, मेरी जिंदगी में प्यारमुहब्बत के लिए कोई जगह नहीं है. मेरे लिए सब से जरूरी मेरा परिवार और मेरा कैरियर है. पर तुम नहीं समझोगे ये सब,’’ रिया अब तक अपने गुस्से को सब्र में बंधे हुए थी.

‘‘रिया, मेरा प्यार कुबूल कर लो, प्लीज,’’ रोहित उस से प्यार की भीख मांग रहा था.

रिया रोहित के छल और फरेब से पहले ही आहत थी. उस ने रोहित के घडि़याली आंसुओं की कोई परवा नहीं की.

जनून में आ कर रोहत ने रिया का रास्ता रोक लिया. ‘‘रिया, अगर तुम ने मेरा प्यार कुबूल नहीं किया तो मैं खुद को मार डालूंगा,’’ धमकी भरे अंदाज में रोहित ने कहा.

‘‘तो मार डालो खुद को,’’ रिया ने दांत भींच कर सख्ती से कहा और एक जोर का धक्का दे कर रोहित को अपने रास्ते से हटाया.

‘‘ठीक है, रिया, मैं मरूंगा तो तुम्हें भी मरना होगा, तुम मेरी नहीं हो सकती तो किसी और की भी नहीं हो पाओगी.’’

रोहित की जबान से इतनी खतरनाक धमकी सुन कर रिया सन्न रह गई. उस ने पलट कर रोहित को देखा. अंधेरे में रोहित के इरादे खूंखार लग रहे थे. उस ने अपने कपड़ों में छिपा बड़ा सा खंजर निकाल लिया. उस की आंखों में वहशीपन देख कर रिया के चेहरे का रंग उड़ गया.

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‘‘नहीं रोहित, प्लीज मुझे जाने दो,’’ रिया गिड़गिड़ाई. रोहित के हाथ में चाकू देख कर रिया के पसीने छूट गए, किस हद तक जा सकता है वह, उस ने सोचा नहीं था.

रोहित उस की तरफ खतरनाक इरादे से बढ़ता ही जा रहा था. वह पूरी ताकत के साथ रोहित से बचने के लिए भाग रही थी. दूरदूर तक कोई मदद नहीं दिख रही थी. वह चीख कर मदद की गुहार लगा रही थी. रोहित किसी साए की तरह उस के पीछे लगा हुआ था. कुछ ही दूर पर उसे अपना घर नजर आया. दोगुनी ताकत लगा कर वह दौड़ रही थी. किसी तरह वहां तक पहुंच जाए एक बार उस की सांसें उखड़ने लगी थीं. मगर उस के पैर नहीं रुके.

किसी जानवर की सी ताकत से उस का पीछा करता रोहित उस के पास पहुंच गया था. रिया ने उसे परे धकेलने के लिए जोर लगाया. रोहित ने उस का हाथ अपनी मजबूत गिरफ्त में ले लिया. बेबस रिया उस की गिरफ्त से छूटने के लिए छटपटाने लगी. वह बारबार मदद के लिए पुकार रही थी. तभी रोहित ने खंजर से उस पर वार कर दिया. विस्फारित नजरों से रिया ने अपने ही खून को पानी की तरह बहते देखा.

वह अर्धमूर्छित हालत में जमीन पर गिर पड़ी. उस की आंखें मुंदने लगी. मां का आंचल उस की आंखों में तैरने लगा. उस के बाद उसे कुछ होश न रहा.

पूरे शहर में इस घटना की चर्चा थी. न्यूज चैनलों से ले कर गलीमहल्लों के नुक्कड़ों पर लोग इस खौफनाक वारदात के बारे में ही बातें कर रहे थे. महज 20 साल की एक महत्त्वाकांक्षी, होनहार लड़की किसी सिरफिरे दरिंदे के जनून का शिकार हो गई.

अस्पताल के डाक्टरों के मुताबिक, रिया को करीब 10 से 12 बार चाकू से गोदा गया था. पुलिस पोस्टमौर्टम रिपोर्ट का इंतजार कर रही थी.

रिया के घर वाले सदमे में थे और मां को बारबार बेहोशी के दौरे पड़ रहे थे. शिखा और रिया के दोस्तों से पूछताछ के नतीजे में पुलिस ने रोहित को गिरफ्तार कर लिया था. शिखा को अपनी गलती पर बारबार पछतावा हो रहा था, आखिर क्यों उस ने उस दिन पुलिस स्टेशन में जा कर रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाई. अगर उस दिन वह रिया की बात न मान कर पुलिस स्टेशन में शिकायत कर देती, तो शायद रोहित बहुत पहले ही गिरफ्तार हो चुका होता और आज उस की सब से अजीब दोस्त रिया जिंदा होती.

एक सिरफिरे के जनून ने एक मासूम कली को खिलने से पहले ही कुचल डाला था.

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Serial Story: जुनून (भाग-2)

वह रिया को टकटकी लगाए देखे जा रहा था, कभी उस के एकदम पास आ जाता, कभी उस की गरम सांसें रिया के चेहरे से टकरा जातीं. वह जितना दूर जाने की कोशिश करती, वह उस के उतने ही करीब आ रहा था. रिया अब असहज होने लगी, सारा मजा किरकिरा हो चला था.

न जाने क्या था उन आंखों की गहराई में कि उस का मन चाहा कि वह फौरन वहां से हट जाए. हाथ में बियर का बड़ा सा मग ले कर शिखा लौटी तो रिया ने चैन की सांस ली.

‘‘बहुत देर से डांस कर रही हूं, मैं थक गई हूं, अब चलते हैं,’’ रिया उस के कान में फुसफुसाई. पार्टी देर तक चलने वाली थी मगर शिखा के साथ रिया वहां से चली आई. वे 2 आंखें अब भी रिया का पीछा कर रही थीं. अपने कमरे में बिस्तर पर लेटते ही रिया को गहरी नींद ने आ घेरा. न जाने कितनी देर से उस के मोबाइल की घंटी बज रही थी. नींदभरी आंखें मलतेमलते उस का हाथ अपने मोबाइल तक पहुंचा.

‘‘हैलो,’’ उस ने फोन उठाया, ‘‘हैलो, हैलो.’’

दूसरी तरफ से कोई जवाब न पा कर उसे झल्लाहट हुई. कुछ देर खामोशी रही और दूसरी तरफ से फोन कट गया.

रात के 2 बज रहे थे. न जाने किस का फोन था. उस ने करवट बदली और एक बार फिर से नींद की आगोश में चली गई.

सुबहसुबह शिखा ने चहकते हुए उसे उठाया, ‘‘उठ रिया देख तेरे लिए क्या आया है?’’

‘‘क्या है?’’ खीझ कर रिया उठ बैठी.

‘‘कोई तुम्हारे लिए यह रख कर गया है दरवाजे पर. कौन है मैडम, हमें कभी बताया नहीं,’’ शरारती लहजे में शिखा खिलखिला रही थी.

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दिलकश महकते फूलों से सजा हुए एक बुके था, साथ में लगा हुए एक छोटा सा कार्ड. रिया ने उलटपलट कर उस गुलदस्ते को देखा, कार्ड पर उस का नाम लिखा था फौर रिया विद लव.

‘‘मुझे नहीं पता यह किस ने भेजा और क्यों?’’ रिया का दिमाग चकराया. आज तो उस का जन्मदिन भी नहीं था, फिर किस ने उसे फूल भेजे हैं.

‘‘यार, नहीं बताना चाहती तो ठीक है, नाटक क्यों कर रही है,’’ शिखा बुरा लगने के अंदाज में बोली.

दोनों की दोस्ती इतनी गहरी थी कि दोनों एकदूसरे से कुछ नहीं छिपाती थीं कभी. रिया ने शिखा का मूड ठीक करने के लिए उसे कस कर आलिंगन में भर लिया. ‘‘सच में मुझे कुछ नहीं पता, ये फूल किस ने भेजे.’’  उस ने कसम खाने के लिए गले को छुआ.

‘‘फिर तो बड़ी अजीब बात है कि कोई यों ही फूल भेज रहा है,’’ शिखा कंधे उचका कर बोली.

‘‘तू उदास मत हो, क्या पता कल तेरे नाम का बुके आ जाए,’’ रिया ने चुहल की और दोनों जोरों से हंस पड़ीं.

बुके उठा कर रिया ने अपनी मेज पर सजा दिया. मगर यह सिलसिला सिर्फ फूलों तक नहीं थमा. रोज कोई चुपके से उस के दरवाजे पर उपहार रख के चला जाता था. रिया को लगा कोई उस के साथ शरारत कर रहा है. वह उपहारों को उठा लेती, शिखा के साथ मिल कर उन्हें खोलती और दोनों एकदूसरे को छेड़ कर खूब हंसतीं. मगर, मामला अब धीरेधीरे गंभीर हो चला.

तोहफे अब भी आते थे लेकिन रिया को अब हंसी नहीं आती थी, बल्कि एक अजीब सा खौफ उस के मन में छाने लगा. कोई जानपहचान वाला उसे तंग करने के लिए यह सब नहीं कर रहा था.

फूलों और तोहफों के सिलसिले ने जब थमने का नाम नहीं लिया तो रिया के मन का डर बढ़ने लगा. वह हर वक्त यही खैर मनाती कि उसे आज कोई फूल या उपहार न मिले दरवाजे पर. मगर वहां कुछ न कुछ रोज ही रखा रहता. लाल रंग के दिल के आकार के तकिए, महंगी विदेशी ब्रैंड की चौकलेट्स और बड़ेबड़े गिफ्टकार्ड जिन पर उस का नाम सजा होता. लेकिन कौन था इन तोहफों को भेजने वाला, यह राज था.

एक दिन घर लौटते वक्त उसे लगा कि कोई उस का पीछा कर रहा है. उस ने कई बार पलट कर देखा, 2-3 बार अलगअलग दुकानों में बेमतलब घुस गई. लोगों की भीड़ में आखिर वह किस पर शक करती.

‘शायद मेरा वहम है,’ उस ने खुद को ही तसल्ली दी. रोज की तरह रिया ने जब सुबह का अखबार उठाने के लिए दरवाजा खोला तो पाया वहां आज फिर एक डब्बा रखा हुआ था. वह समझ गई कि उस में क्या होगा. सिर से पैर तक एक बिजली सी उस के तन में कौंध गई. आज उस का गुस्सा सातवें आसमान पर था. उस ने डब्बा उठाया और बगैर खोले गैस का चूल्हा जला कर उस पर रख दिया.

शिखा ने गैस पर आग की लपटें देखीं. वह तुरंत भागती हुई आई और चूल्हा बुझा कर डब्बे पर पानी की बालटी उड़ेल दी. ‘‘यह क्या कर रही है रिया,होश में तो है? अभी पूरा घर ही जल जाता.’’

‘‘मैं तंग आ गई हूं, शिखा. अब बरदाश्त नहीं होता. न जाने कौन है जो मुझे चैन से जीने नहीं दे रहा. अब तो सुबह के खयाल से ही डर लगता है. वही फूल, वही सब रोजरोज नहीं झेला जाता.’’

रिया फफकफफक कर रोने लगी. उस के सब्र का बांध टूट गया था. उस की इस हालत पर शिखा बहुत परेशान हो उठी. आखिर वह भी एक लड़की थी. रिया के दुख से वह वाकिफ थी.

शिखा ने उसे अपने आलिंगन में ले लिया, फिर बोली, ‘‘चुप हो जा, रिया. तू रो मत. जो भी तेरे साथ ये सब कर रहा है, अब बचेगा नहीं. तू आज ही मेरे साथ पुलिस स्टेशन चल. तुझे तंग करने वाले को अब पुलिस ही सबक सिखाएगी.’’

‘‘नहीं, मैं पुलिस के पास नहीं जाऊंगी. बात मेरे घर वालों तक पहुंच जाएगी.’ मांबाबूजी का चेहरा रिया की आंखों के आगे तैर गया.

‘‘तू नहीं जानती, शिखा, मेरे मांबाबूजी को. बहुत कमजोर दिल के हैं वे लोग. फौरन मुझे वापस बुला लेंगे. और मेरे सारे सपने अधूरे…’’ कहते हुए रिया की रुलाई फूट पड़ी.

रिया के पास बैठ कर बड़ी देर तक शिखा उसे हौसला बंधाती रही. उस का दिमाग रिया की परेशानी दूर करने का उपाय ढूंढ़ रहा था.

मानसिक तनाव की वजह से रिया का मन अब ट्रेनिंग में नहीं लग रहा था, उसे यों लगता था मानो कोई उस के हर पल की खबर रख रहा है. रातों को अजीबअजीब से सपने आते. मन का डर उस के चेहरे पर दिखने लगा. चेहरे पर हरदम बनी रहने वाली मुसकान अब गायब हो गई थी.

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एक दिन उस की ट्रेनर मिस सिन्हा ने उसे अपने पास बुलाया, ‘‘क्या बात है, रिया? कई दिनों से देख रही हूं आजकल तुम कुछ खोईखोई सी रहती हो, क्लास में भी अब पहले जैसा उत्साह नहीं दिखाती? एनी प्रौब्लम?’’

रिया इस प्रश्न से सकपका गई. यह बात अगर जगजाहिर हुई तो उस का मखौल बन कर रह जाएगा. ‘‘नो, मैम, सब ठीक है. कोई प्रौब्लम नहीं है,’’ रिया ने मुसकरा कर कहा.

‘‘हूं, आई होप सो,’’ मिस सिन्हा बोलीं.

एक सीसीटीवी कैमरा घर के गेट पर लगाने का खयाल शिखा के दिमाग में आया. रिया को भी यह बात दुरुस्त लगी. जो भी गिफ्ट रखने दरवाजे के पास आएगा, उन्हें कैमरे में उस की तसवीर दिख जाएगी. उन्होंने मकानमालकिन से कैमरा लगवाने की बात की तो उस ने शकभरी नजर से दोनों को घूरा.

दोनों ने महल्ले में बढ़ती चोरी की वारदात का जिक्र किया तो वह मान गई.

यह अजीब इत्तेफाक था कि सीसीटीवी कैमरे के लगते ही फूल और गिफ्ट आने एकाएक बंद हो गए. हफ्ता बगैर किसी परेशानी के गुजर गया.

घर से इंस्टिट्यूट तक वह मैट्रो ट्रेन में सफर करती थी. मैट्रो की भीड़ में अपने लिए जगह तलाश करती रिया को अचानक किसी ने नाम ले कर पुकारा. रिया ने चौंक कर पुकारने वाले की तरफ देखा. कुछ जानापहचाना सा लगा उसे वह लड़का जो उस के लिए एक सीट खाली करा कर उसे बैठने का इशारा कर रहा था.

‘‘थैंक्स,’ रिया ने मुसकरा कर शुक्रिया अदा किया.‘ आप मेरा नाम कैसे जानते हैं?’’ रिया ने पूछा.

‘‘उस दिन पार्टी में मैं आप से मिला था.’’

रिया को याद आया. यह वही लड़का था जो उस दिन विवेक के जन्मदिन की पार्टी में उस के साथ डांस कर रहा था.

रोहित ने उसे बताया कि वह किसी पौलिटैक्निक कालेज का छात्र है. उन की मुलाकात अब रोज ही होने लगी. रिया के लिए वह हमेशा कोई सीट खाली करा देता ताकि वह आराम से सफर कर सके. उस की तहजीब और शराफत से रिया के मन में अब उस की छवि बदल गई थी.

पार्टी में रिया को रोहित बदतमीज किस्म का लगा था पर कुछ दिनों में रोहित की शराफत और तहजीबभरे रवैए से रिया प्रभावित हुए बिना न रह सकी. रिया रोहित पर आंख मूंद कर विश्वास करने लगी थी. रिया की हर छोटीबड़ी मुश्किल में रोहित हमेशा मदद के लिए आगे रहता था.

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Serial Story: जुनून (भाग-1)

रिया बेतहाशा भाग रही थी उस साए से बचने के लिए, मगर उस की पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था. भयभीत हिरनी की तरह शिकारी से बचने के लिए उस ने मदद के वास्ते अपनी नजरें चारों तरफ दौड़ाईं. मगर कहीं कोई नजर नहीं आया. पूरा शहर जैसे रातोंरात वीरान हो गया था. अब तक वह नकाबपोश उस के बेहद करीब पहुंच चुका था, भागने का कोई रास्ता अब बचा नहीं था. खुद को बचाने की कोशिश में उस ने पूरी ताकत लगा कर उस नकाबपोश का मुकाबला करना चाहा, मगर उस की कोशिशें उस दरिंदे की ताकत के सामने हार गईं. कपड़ों की तह में छिपा खंजर निकाल उस ने रिया पर हमला बोल दिया. दर्द में तड़पती हुई वह खून से लथपथ जमीन पर गिर पड़ी.

‘‘मुझे बचा लो, मां, मुझे बचा लो,’’ वह    बदहवास लहजे में चीख रही थी.

‘‘रिया उठ, रिया क्या हुआ? रिया, रिया,’’ कोई उसे झंझोड़ कर उठाने की कोशिश कर रहा था.

उस ने आंखें खोलीं तो देखा, वह अपने कमरे के बिस्तर पर लेटी हुई थी. उस की कुरती पसीने से भीगी हुई थी, पूरा शरीर अब भी थरथर कांप रहा था.

‘‘कोई बुरा सपना देखा क्या? बाप रे, कितनी जोर से चीखी तुम, मैं तो डर ही गई थी.’’ रूममेट शिखा हैरानपरेशान उस के सिरहाने खड़ी थी.

‘‘बहुत डरावना सपना देखा, यार. कोई मेरी जान लेने की कोशिश कर रहा था,’’ रिया ने माथे का पसीना पोंछते हुए कहा.

‘‘सपना ही था न, खत्म हो गया, बस. अब उठ कर जल्दी से तैयार हो जा वरना आज फिर क्लास लगेगी,’’ शिखा ने कहा.

मगर रिया अभी तक उस सपने के सदमे में थी. कुछ देर तक वह यों ही चुपचाप बैठी रही. फिर उन बुरे खयालों को दिमाग से झटक कर वह बाथरूम में घुस गई.

उस की एयरहोस्टैस की ट्रेनिंग को अभी कुछ ही अरसा गुजरा था. इस नए शहर में उस के लिए सबकुछ नया था. शहर की तेजतर्रार जिंदगी के साथ रिया अभी कदम से कदम मिला कर चलना सीख रही थी. अपने घरपरिवार से दूर इस बड़े शहर में आने का उस का एक ही मकसद था, अपने भविष्य को सुनहरा बनाना और इस के लिए वह जीजान से मेहनत भी कर रही थी.

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उस के छोटे से कसबे में इतनी सुविधाएं नहीं थीं कि रिया अपने सपनों की उड़ान भर पाती. 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों में पास करने के बाद उस के हौसले और मजबूत हो गए थे. कुछ करने की तमन्ना उस के मन में शुरू से ही थी. छोटी सी रिया जब अपनी छत पर से गुजरने वाले हवाईजहाजों को देखती तो उस का जी चाहता कि वह भी किसी जहाज में बैठ कर आसमान की ऊंचाइयों से नीचे झांके, अपना छोटा सा घरआंगन और आंगन में अपने परिवार वालों को ऊपर से देख कर हाथ लहराए.

बड़ी मानमनौवल के बाद उस के बाबूजी किसी तरह राजी हुए थे और मां तो इस खयाल से ही डर रही थी कि उस की बिटिया इतने बड़े शहर में अकेले कैसे रहेगी. यह रिया का ही जनून था जो उस ने अकेले अपने दम पर ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट में दाखिला लेने के लिए भागदौड़ की थी.

घर छोड़ते वक्त मां के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. बाबूजी ने किसी तरह पैसों का इंतजाम किया था. कर्ज का बोझ और गरीबी की लाचारी उन के चेहरे पर हर वक्त झलकती थी. रिया मांबाप की सारी परेशानियां समझती थी, इसीलिए नौकरी कर के वह अपने परिवार का सहारा बनना चाहती थी. बड़ी बहादुरी से उस ने अपने आंसू रोक कर मां को तसल्ली दी कि बस, एक बार अच्छी सी नौकरी मिल जाए तो वह बाबूजी के सारे कर्ज उतार देगी. इतना सुख देना चाहती थी अपने मांबाप को वह कि लोग उस की मिसाल दें.

शहर में अकेले रहने की चुनौतियां कुछ कम नहीं थीं. शिखा से उस की मुलाकात इंस्टिट्यूट में ही हुई थी. एक ही इंस्टिट्यूट में होने के कारण दोनों का मकसद भी एक था और साथ में रहने से उन दोनों के खर्चे बचते. दोनों ने फैसला लिया कि वीमेन होस्टल के बजाय एक कमरा किराए पर ले कर रहा जाए.

एक ढंग का कमरा तो मिला मगर मकानमालकिन उम्रदराज और कुछ खब्ती निकली. उस की शर्त थी कि किसी तरह का कोई बवाल या हुड़दंग नहीं होना चाहिए और 3 महीने का अग्रिम किराया एकमुश्त देना होगा. इतना खर्च करना उस की जेब पर भारी पड़ रहा था, लेकिन यह तसल्ली थी कि एक सुरक्षित माहौल में रह कर दोनों अपनी ट्रेनिंग पूरी कर सकती हैं.

जल्द ही रिया ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट के होनहार छात्रों में शुमार हो गई. उस का एक ही लक्ष्य था और उस के लिए वह पूरी लगन के साथ अपनी पढ़ाई में ध्यान देती थी. इसी दौरान उस के बहुत से नए दोस्त भी बन गए. उन दोस्तों की संगत में उसे बड़े शहर के बहुत से अनछुए पहलुओं को जानने का मौका मिला. दोस्तों के साथ मिल कर मौजमस्ती करना, पब और डिस्को जाना आदि बातें अब उस की जिंदगी का हिस्सा थीं.

कभी सादगी से रहने वाली रिया अब किसी फैशन पत्रिका की मौडल सी नजर आने लगी थी. यह कायाकल्प उस के ग्लैमर से भरे एयरहोस्टैस की नौकरी की पहली जरूरत भी थी.

रिया में खूबसूरती के साथसाथ आत्मविश्वास भी गजब का था. उसे पसंद करने वालों में उस के कई पुरुष मित्र थे. ट्रेनिंग में साथी लड़के उस की एक नजर के लिए तरसते और वह जैसे जान के भी अनजान बन जाती. प्यार के चक्कर में पड़ कर वह अपनी मंजिल से भटकना नहीं चाहती थी.

अपने पैरों पर खड़ी होने का सपना ही उस का पहला प्यार था जिसे हर हाल में उसे पूरा करना था. मां का उदास चेहरा याद आते ही एक आग सी लग जाती उस के तनबदन में और वह खुद को दोगुनी ऊर्जा से भर कर ट्रेनिंग में झोंक देती.

रिया की सहेली का खास दोस्त था विवेक, जिस के जन्मदिन की पार्टी में रिया और बाकी दोस्त आमंत्रित थे. पैसे वाले बाप के बेटे विवेक को पार्टियां देने और खूबसूरत लड़कियों से दोस्ती करने का शौक था. इन पार्टियों का सारा खर्च उस के कारोबारी पिता के लिए किसी मामूली जेबखर्च से अधिक नहीं होता था, जहां शराब पानी की तरह बहाई जाती और जवानी के जोश में डूबे कमउम्र लड़केलड़कियां देर रात तक हुड़दंग मचाते.

फाइवस्टार होटल की दावत के अनुरूप कपड़े खरीदने के लिए रिया ने पूरे 2 महीने तक कंजूसी कर के पैसे बचाए थे. कपड़े, मेकअप से ले कर नए जूते तक खरीद डाले थे उस ने. पहली बार किसी फाइवस्टार होटल के नजारे देख कर उस की आंखें चुंधिया गईं. शानोशौकत क्या होती है, यह उसे आज एहसास हुआ.

विवेक अपने दोस्तों के साथ बैठ कर जाम पे जाम चढ़ाए जा रहा था. रिया की तरह ही कई बला की खूबसूरत लड़कियां वहां मेहमान थीं और महफिल की शान में चारचांद लगा रही थीं. विवेक रिया को ललचाई नजरों से घूर रहा था. रिया ने हाथ मिला कर उसे जन्मदिन की बधाई दी तो बहुत देर तक उस ने रिया का हाथ नहीं छोड़ा.

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उत्तेजक संगीत की धुन में कई जवान जोड़े डांसफ्लोर पर थिरक रहे थे. शिखा ने हाथ पकड़ कर रिया को डांसफ्लोर की तरफ खींचा. ‘‘नहींनहीं, मुझे नाचना नहीं आता,’’ रिया ने प्रतिरोध में हाथ छुड़ाया.

‘‘कम औन रिया, चल न, बड़ा मजा आएगा,’’ शिखा पूरे मूड में थी.

‘‘यार, मुझे नहीं आता नाचना. मेरा मजाक बन के रह जाएगा,’’ रिया को झिझक हो रही थी.

‘‘चल मेरे साथ, मैं सिखा दूंगी,’’ रिया के मना करने के बावजूद शिखा उसे अपने साथ ले चली.

कुछ ही देर में रिया भी उसी मस्ती के माहौल में डूबने लगी. एक सुरूर सा उस के तनमन पर छाने लगा. उस का चेहरा लाखों में एक था, उस पर कमसिन उम्र और मासूम अदाएं. सुर्ख लाल रंग की मिनी ड्रैस में वह आज कहर ढा रही थी. उस की छठी इंद्रिय अनजान नहीं थी इस बात से कि न जाने कितनी ही बेकरार नजरें उसे निहार रही थीं.

मगर, एक जोड़ी आंखें उस का पीछा तब से कर रही थीं जब से उस ने यहां कदम रखा था. रिया पर से वे आंखें एक पल को भी नहीं हटी थीं. मगर इस से बेखबर रिया डांसफ्लोर पर किसी नागिन सी झूम रही थी.

‘‘गला सूख रहा है. मैं अभी आई कुछ पी कर,’’ शिखा उस के कान में लगभग चीखती हुई बोली.

‘‘मेरे लिए भी कुछ लेते आना,’’ रिया ने भी चिल्ला कर कहा. पुरजोर बजते कानफोड़ू संगीत में कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.

‘‘ठीक है,’’ कह कर शिखा होटल के बार की तरफ बढ़ गई.

‘‘मे आई हैव द प्लेजर टू डांस विद यू,’’ उस अजनबी ने रिया के पास आ कर पूछा. रिया औपचारिकता से मुसकरा दी तो वह अजनबी उस के साथ थिरकने लगा.

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सौदामिनी: सब ओर से छली गई सौदामिनी के साथ क्या हुआ?

Serial Story: सौदामिनी (भाग-2)

रईस दद्दा ने सौदामिनी के लालनपालन में कहीं कोताही नहीं की थी लेकिन अनुशासन में बंधी वह न ज्यादा पनप पाई न ही पढ़लिख पाई. मृदुल जैसा सच्चा प्रेमी मिला लेकिन छीन लिया गया. आदित्य के पल्ले से बांध दी गई जिस ने पत्नी होने का उसे अधिकार कभी दिया ही नहीं. सास ने घर की मानमर्यादा के नाम पर उस की जबान बंद कर दी. क्या सौदामिनी ने अपने साथ होते अन्याय के आगे हथियार डाल दिए?

जानने के लिए आगे पढ़िए.

कोई एक बरस बाद राय साहब ने अपनी लाड़ली बेटी को पीहर बुलवा भेजा था. रोजरोज बेटी को मायके बुलाने के पक्ष में वे कतई नहीं थे. आदित्य के साथ सजीधजी सौदामिनी मायके आई तो राय साहब कृतकृत्य हो उठे. रुके नहीं थे आदित्य, बस औपचारिकता निभाई और चले गए. राय साहब ने भी कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी थी. धनदौलत की तुला पर बेटी की खुशियों को तोलने वाले दद्दा ने उस के अंतस में झांकने का प्रयत्न ही कब किया था? जितने दिन सौदामिनी पीहर में रही, अम्मा, बाबूजी रोज उसे बुलवा भेजते थे. वह कभी कुछ नहीं कहती थी. बस, अपने खयालों में खोई रहती. आखिर एक दिन अम्मा ने बहुत कुरेदा तो वह पानी से भरे पात्र सी छलक उठी, ‘मेरी इच्छाअनिच्छा, भावनाओं, संवेदनाओं को जाने बिना, क्या मेरे जीवन में ठुकराया जाना ही लिखा है, चाची? एक ने ठुकराया तो दूसरे के आंगन में जा पहुंची. अब आदित्य ने ठुकराया है तो कहां जाऊं?’

अम्मा और बाबूजी ने विचारविमर्श कर के एक बार दद्दा को बेटी के जीवन का सही चित्र दिखलाना चाहा था. वस्तुस्थिति से पूरी तरह परिचित होने के बाद भी दद्दा न चौंके, न ही परेशान हुए. वैसे भी ब्याहता बिटिया को घर बिठा कर उन्हें समाज में अपनी बनीबनाई प्रतिष्ठा पर कालिख थोड़े ही पुतवानी थी. उन्होंने सौदामिनी को बहुत ही हलकेफुलके अंदाज में समझाया, ‘पुरुष तो स्वभाव से ही चंचल प्रकृति के होते हैं. हमारे जमाने में लोग मुजरों में जाया करते थे. अकसर रातें भी वहीं बिताते थे और घर की औरत को कानोंकान खबर नहीं होती थी. शुक्र कर बेटी, जो आदित्य ने अपने संबंध का सही चित्रण तेरे सामने किया है. अब यह तुझ पर निर्भर करता है कि तू किस तरह से उस को अपने पास लौटा कर लाती है.’

पिता द्वारा आदित्य का पक्ष लिया जाना उसे बुरा नहीं लगा था, बल्कि इस बात की तसल्ली दे गया था कि जैसे भी हो, उसे अपनी ससुराल में ही समझौता करना है.

समय धीरेधीरे सरकने लगा था. सौदामिनी को समय के साथ सबकुछ सहने की आदत सी पड़ने लगी थी. भीतर उठते विद्रोह का स्वर, कितना ही बवंडर मचाता, संस्कारों की मुहर उस के मौन को तोड़ने में बाधक सिद्ध होती.

इसी तरह 2 वर्ष बीत गए. सौदामिनी का हर संभव प्रयत्न व्यर्थ ही गया. आदित्य उस के पास लौट कर नहीं आए. स्नेह के पात्र की तरह आदमी घृणा के पात्र को एक नजर देखता अवश्य है, पर आदित्य के लिए उस की पत्नी मात्र एक मोम की गुडि़या थी, संवेदनाओं से कोसों दूर, हाड़मांस का एक पुतलाभर.

कभीकभी जीवन में इंसान को जब कोई विकल्प सामने नजर नहीं आता तो उस का सब्र सारी सीमाएं तोड़ कर ज्वालामुखी के लावे के समान बह निकलता है. ऐसा ही एक दिन सौदामिनी के साथ भी हुआ था. घर से बाहर जा रहे आदित्य का मार्ग रोक कर वह खड़ी हुई, ‘किस कुसूर की सजा आप मुझे दे रहे हैं? आखिर कब तक यों ही मुंह मोड़ कर मुझ से दूर भागते रहेंगे?’

‘सजा कुसूरवार को दी जाती है सौदामिनी, तुम ने तो कुसूर किया ही नहीं, तो फिर मैं तुम्हें कैसे सजा दे सकता हूं? मैं ने सुहागरात को ही तुम से स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि हमारा विवाह मात्र एक समझौता है. तुम चाहो तो यहां रहो, न चाहो तो कहीं भी जा सकती हो. मेरी ओर से तुम पूर्णरूप से स्वतंत्र हो.’

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उस रात आदित्य का स्वर धीमा था, पर इतना धीमा भी नहीं था कि हवेली की दीवारों को न भेद सके. एक कमरे से दूसरे कमरे का फासला ही कितना था. दीवान साहब के कानों में आदित्य का एकएक शब्द पिघले सीसे के समान उतरता गया. अपना ही खून इतना बेगैरत हो सकता है? क्या उन की बहू परित्यक्ता का सा जीवन बिताती आई है? इस की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी.

उन्होंने पत्नी को बुला कर कई प्रश्न किए, पर कोई भी उत्तर संतोषजनक नहीं लगा था. तारिणी पूर्णरूप से बेटे की ही पक्षधर बनी रही थीं. दीवान साहब ने सौदामिनी को पीहर लौट जाने का सुझाव दिया था. वह वहां भी नहीं गई.

तब जीवन की हर समस्या की ओर व्यावहारिक दृष्टिकोण रखने वाले दीवान साहब ने बहू को आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया. दबी, सहमी सौदामिनी के लिए यह प्रस्ताव अप्रत्याशित सा ही था. बस, यही सोचसोच कर कांपती रही थी कि बरसों पहले छोड़ी गई किताब और कलम पकड़ने में कहीं हाथ कांपे तो क्या करेगी?

पर दृढ़निश्चयी दीवान साहब के आगे उस की एक भी न चली. उधर तारिणी ने सुना, तो घर में हड़कंप मच गया. पूरी हवेली की व्यवस्था ही चरमरा कर रह गई थी. इतने बरसों बाद बहू को पोथी का ज्ञान करवाना क्या उचित था? पर पति के सामने उन की आवाज घुट कर रह गई.

सौदामिनी की मेहनत, लगन और निष्ठा रंग लाई. उस का मनोबल बढ़ा, व्यक्तित्व में निखार आया. अब लोग उस की तरफ खिंचे चले आते थे, आदित्य का स्थान अब गौण हो चला था.

पत्नी के इस परिवर्तन पर आदित्य परेशान हो उठा था. वैसे भी पुरुष, नारी को अपने ऊपर या अपने समकक्ष कब देखना चाहता है. यदि चाहेअनचाहे पत्नी या उस के संबंधियों के प्रयास से ऐसा हो भी जाता है तो पुरुष की हीनभावना उसे उग्र बना देती है. ऐसा ही यहां भी हुआ था जो थोड़ाबहुत मान पति के अधीनस्थ हो कर उसे मिल रहा था, वह भी छिनता चला गया. पर सौदामिनी रुकी नहीं, आगे ही बढ़ती गई.

अमेरिका में उस के पत्र मुझे नियमित रूप से मिलते रहे थे. मन में राहत सी महसूस होती.

उधर दीवान साहब की दशा दिनपरदिन गिरती चली गई. बहू का दुख घुन के समान उन के शरीर को खाता जा रहा था. हर समय वे खुद को सौदामिनी का दोषी समझते. उस का जीवन उन्हें मझधार में फंसी हुई उस नाव के समान लगता, जिस का कोई किनारा ही न हो. भारीभरकम शरीर जर्जरावस्था में पहुंचता गया, जबान तालू से चिपकती गई. एक दिन देखते ही देखते उन के प्राणपखेरू उड़ गए और सौदामिनी अकेली रह गई.

उस दिन उसे लगा, वह रिक्त हो गई है. ऐसा कोई था भी तो नहीं, जो उस के दुख को समझ पाता. जिस कंधे का सहारा ले कर वह आंसुओं के चंद कतरे बहा सकती थी, वह भी तो स्पंदनहीन पड़ा था.

पिता की मृत्यु के बाद आदित्य पूर्णरूप से आजाद हो गया था. तेरहवीं की रस्म के बाद ही सूजी को घर में ला कर वह मुक्ति पर्व मनाने लगा था. सूजी उस के दिल की स्वामिनी तो थी ही, पूरे घर की स्वामिनी भी बन बैठी. घर की पूर्ण व्यवस्था पर उस का ही वर्चस्व था.

संवेदनशील सौदामिनी विस्मित हो पति का रवैया निहारती रह गई.

आदित्य का व्यवहार धीरेधीरे उसे परेशान नहीं, संतुलित करता गया. उस में निर्णय लेने की शक्ति आ गई थी.

अपने आखिरी पत्र में उस ने मुझे लिखा था…

‘सारे रस्मोंरिवाजों के बंधनों को तोड़ कर एक दिन मैं आजाद हो जाऊंगी. नासूर बन गए जुड़ाव की लहूलुहान पीड़ा से तो मुक्ति का सुख ज्यादा आनंददायक होगा. लगता है, वह समय आ गया है. अगर जिंदा रही तो जरूर मिलूंगी.

तुम्हारी सौदामिनी.’

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उस के बाद वह कहां गई, मैं नहीं जानती थी. दद्दा को भी मैं ने कई पत्र लिखे थे, पर उन्होंने तो शायद दीवान साहब की मृत्यु के बाद बेटी की सुध ही नहीं ली थी. बेटी को अपनी चौखट से विदा कर के ही उन के कर्तव्य की इतिश्री हो गई थी.

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Serial Story: सौदामिनी (भाग-1)

आबू की घुमावदार सड़कों और हरीभरी वादियों के बीच बसे उस छोटे से रमणीक स्थल पर मूकबधिरों की सेवा करती सौदामिनी से यों भेंट हो जाएगी, इस की तो मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. गहरा नीला रंग उसे सब से अधिक प्रिय था. गहरे नीले रंग की साड़ी में उस ने सलीके से अपनी दुर्बल काया को छिपा रखा था. हाथ में पकड़े पैन को, रजिस्टर पर तेजी से दौड़ाती हुई मैं उस को अपलक निहारती रह गई.

माथे पर चौड़ी लाल बिंदी और मांग में रक्तिम सिंदूर की आभा इस बात की पुष्टि कर रही थी कि इतना संघर्षभरा जीवन जीने के बाद भी अपने अतीत से जुड़े उन चंद पृष्ठों को वह अपने वर्तमान से दूर रखने में शायद असमर्थ थी. मेज की दराज से उस ने पुस्तकें निकालीं तो मैं ने उस का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पुकारा, ‘‘सौदामिनी, पहचाना नहीं क्या मुझे?’’

सौदामिनी चौंकी जरूर थी, पर मुझे पहचान लिया हो, ऐसा भी नहीं लगा था. वह अपनी जगह पर यों ही बैठी रही, न मुसकराई, न ही कुछ बोली. उस का शुद्ध व्यवहार मुझे अचरज में डाल गया था. सोचा, समय का अंतराल चाहे कितना ही क्यों न फैल जाए, इंसान का चेहरा, रूपरंग इतना तो नहीं बदल जाता कि उसे पहचाना ही न जा सके.

चश्मे को पोंछ कर उस ने फ्रेम को कुछ ऊपर खिसका दिया और पहचानने की कोशिश करने लगी. मैं ने फिर याद दिलाया, ‘‘सौदामिनी, मैं हूं, तनु, तुम्हारे अच्युत काका की बेटी.’’

‘‘अरे, तनु तुम? आओआओ, इतने बरसों बाद कैसे आना हुआ?’’ उस ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखते हुए पूछा.

फिर दराज बंद कर के उस ने चाबी का गुच्छा, पास ही खड़े चौकीदार को पकड़ाया और कमरा बंद करने का निर्देश दे कर बाहर निकल आई. कुछ ही कदमों के फासले पर हरीभरी झाडि़यों व लतिकाओं से घिरा हुआ उस का घर था. लौन का गेट खोल कर उस ने बाहर रखी चारपाई को, घुटने मोड़ कर सीधा किया और उस पर मोटी सी दरी बिछा कर बोली, ‘‘अमेरिका में रहते हुए तुम्हारी तो चारपाई पर बैठने की आदत छूट गई होगी? मुश्किल हो तो आरामकुरसी निकाल दूं?’’

‘‘कैसी बातें करती हो? यही सब तो वहां याद आता है…आम का अचार, उड़द की दाल की बडि़यां. सच पूछो तो यहां की मिट्टी की सोंधी महक ही तो बारबार मुझे खींच लाती है.’’

झुर्रीदार चेहरे पर हंसी प्रस्फुटित हुई थी, ‘‘अच्छा, यह तो बताओ, मेरा पता तुम्हें किस ने दिया?’’

‘‘अविनाश और मैं दोनों ही काम पर जाते हैं, इसलिए रोजरोज तो छुट्टी मिलती नहीं है. 5 वर्षों में एक बार आ पाते हैं. कुल मिला कर 3 सप्ताह की छुट्टी मिलती है, उन में 2 सप्ताह तो अम्मा, बाबूजी के पास रामपुर में ही बीत जाते हैं. बाकी एक सप्ताह किसी न किसी पहाड़ी जगह पर ही हम बिताते हैं. इस बार बच्चों ने आबू देखने की जिद की, तो यहीं चले आए.’’

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कुछ देर बाद चारों ओर पसरे मौन को मैं ने ही बींधा, ‘‘दरअसल, शारीरिक रूप से अपंग बच्चों पर मैं एक किताब लिख रही हूं. किसी ने तुम्हारे आश्रम का नाम सुझाया, तो यहीं चली आई.’’

मैं ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत कराया. वह चुपचाप गुमसुम सी बैठी रही, जैसे न ही कुछ पूछना चाह रही हो, न ही कुछ कहने की इच्छुक हो. वातावरण कुछ बोझिल सा हो चला था. दिसंबर की ठंडी धूप सामने वाले पेड़ पर जा अटकी थी. ठंडी हवाओं से कुछ सिहरन सी महसूस हुई तो मैं ने शौल ओढ़ ली.

‘‘यहां अकसर शाम को ठंड बढ़ जाती है. चलो, अंदर चल कर बैठते हैं. अब तो अंधेरा भी होने लगा है.’’

दरवाजा खोल कर उस ने मुझे अंदर बिठाया और खुद अलमारी में से कुछ निकालने लगी. पलस्तर उखड़े कमरे में

4 कुरसियां और मेजपोश से ढकी मेज के अलावा, कोने में एक पुराना पलंग था, जिस पर कांच सी पारदर्शी आंखों में तटस्थ सा भाव लिए एक छोटा सा बालक लेटा था. सौदामिनी को देख कर उस के चेहरे पर स्मित हास्य के चिह्न मुखर हो उठे थे. न जाने कौन सी भाषा में वह उस से प्रश्न करता जा रहा था और वह भी उसी की भाषा में उस की जिज्ञासा शांत करती जा रही थी.

मैं एकटक उसे निहारती रह गई. बालों में छिटके चांदी के तार, चेहरे पर पड़ आई झुर्रियों ने उसे असमय ही बुढ़ापे की ओर धकेल दिया था. दुग्ध धवल सा गौर वर्ण आबनूस की तरह काला हो चुका था. भराभरा सा गदराया शरीर संघर्ष करतेकरते दुर्बल काया का रूप ले चुका था.

‘‘यह मानव है, मेरा बेटा, बहुत प्यारा है न?’’ बच्चे के कपड़े बदलते हुए उस ने मुझ से कहा तो मैं चौंकी. कमरे में पसरी सड़ांध मेरे नथुनों में समाने लगी थी. बड़ी मुश्किल से मैं ने उबकाई को रोका. मेरी परेशानी माथे पर पड़ी सिलवटों से जाहिर हो उठी थी. वह शायद समझ गई थी. बोली, ‘‘वैसे तो हमेशा लघुशंका और दीर्घशंका के लिए संकेत देता है. आज ठंड कुछ ज्यादा है न, इसलिए…अच्छा, तुम बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

पर मेरा ध्यान कहीं और था, इस पसोपेश में थी कि यह बालक है कौन? जहां तक मुझे याद था, आदित्य के घर से जब वह लौटी थी तो निसंतान ही थी.

सौदामिनी चाय बनाने चली गई तो मैं पास ही पड़ी आरामकुरसी पर आंखें मूंद कर लेट गई. हवा के झोंकों से यादों के किवाड़ धीरेधीरे खुलने लगे तो मन दद्दा की हवेली में भटकने लगा था…

बाबूजी के चचेरे भाई थे, दद्दा. लोग उन्हें राय साहब भवानी प्रसाद के नाम से पहचानते थे. शहर के बीचोंबीच संगमरमर से बनी उन की कोठी की शान निराली थी.

दद्दा ने बड़ा ही निराला स्वभाव पाया, तबीयत शौकीन और अंदाज रईसी वाले. हर काम अपने ही ढंग से करते, न किसी के काम में हस्तक्षेप करते, न ही किसी की टीकाटिप्पणी बरदाश्त करते.

जन्म लेते ही सौदामिनी के सिर से मां का साया उठ गया था. पिता करोड़ों की जायदाद के इकलौते वारिस थे, पर प्यार और अपनत्व का आदानप्रदान करने में गजब के कंजूस. भावनाएं और संवेदनाएं तो उन्हें छू तक नहीं पाई थीं. हर शाम शहर के रईस लोगों के बीच शतरंज की बाजी खेलने वाले दद्दा ने अपनी बेटी के लालनपालन में कहीं कोताही की हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता. हर समय उस पर कड़ी निगरानी रखते थे.

सौदामिनी जरा सा सिसकती, तो दद्दा चिल्लाते. उन की चीखपुकार सुन कर सेविकाएं दौड़ी चली आतीं और बिटिया बिना दुलारेपुचकारे सहम कर यों ही चुप हो जाती. ठोकर खा कर गिरती, तो दद्दा एक ही गति में निरंतर चिंघाड़ते रहते. सेविकाओं की पेशी होती, कोई इधर दौड़ती कोई उधर भागती, और कोई खिलौनों की अलमारी के सामने जा खड़ी हो जाती पर सौदामिनी तो तब तक पिता का रौद्र रूप देख कर ही दहशत के मारे चुप हो चुकी होती थी.

स्कूल या कालेज सौदामिनी कभी गई ही नहीं. इस का कारण था, राय साहब की रूढि़वादी सोच. घर से बाहर बेटियों को निकालने के वे सख्त विरोधी थे. वे सोचते, लड़कों के संग बतिया कर उन की बिटिया कहीं भाग गई तो? पास ही एक मिशनरी स्कूल था, वहीं की एक ईसाई टीचर को उन्होंने सौदामिनी की शिक्षा के लिए नियुक्त कर दिया था. ऐसे में उस की शिक्षा का दायरा हिंदी, अंगरेजी की वर्णमाला तक ही सिमट कर रह गया था.

बेटी के प्रति अपनी आचारसंहिता में नित नए विधानों की रचना करने वाले दद्दा. उस के हर काम, हर गतिविधि पर कड़ी निगरानी रखने लगे.

सौदामिनी हर समय व्याकुल रहती जीवन की उन सचाइयों से परिचित होने के लिए, जिन की चर्चा अकसर वह अपनी सहेलियों से सुन लिया करती थी.

कलकत्ता का राजभोग और मथुरा के पेड़े खाते समय उस का मन कच्चे अमरूद खाने के लिए तरसता. ऐसे में दोपहरी में हम दोनों दद्दा की नजरें चुरा कर पिछवाड़े की बगिया में जा पहुंचतीं. पेड़ पर चढ़ कर कच्चे अमरूद ढूंढ़ने का आनंद वैसा ही था जैसे किसी गोताखोर के लिए मोती ढूंढ़ने का.

एक दिन यह खबर, न जाने कैसे दद्दा के दीवानखाने जा पहुंची. और तब सौदामिनी की पेशी हुई.

पिता का तिरस्कारपूर्ण स्वर सुन कर बालहृदय छलनी हो गया. सहम कर अपना मुंह अपने नन्हेनन्हे हाथों से छिपा कर वह देर तक रोती रही.

सौदामिनी हर समय सहमीसिमटी रहती थी, न हंसती न बोलती. पिंजरे के तार चाहे सोने के हों या लोहे के, कैद तो आखिर कैद ही है.

धीरेधीरे उस का मनोबल गिरता चला गया. हाथपांव पसीने में भीगे रहते, जबान लड़खड़ाने लगी. रात को सोती तो चीखनेचिल्लाने लगती. कई हकीम, डाक्टर और वैद्यों का इलाज करवाया गया, पर सौदामिनी की दशा दिनपरदिन बिगड़ती ही चली गई.

एक दिन दद्दा के मुनीम अपने अनुज, डाक्टर मृदुल को सौदामिनी के इलाज के लिए ले आए. अचानक अपने सामने किसी नए डाक्टर को देख कर राय साहब असमंजस में पड़ गए. एक तो मुनीम का भाई, दूसरा अनुभवहीन. सोचा, जहां बड़ेबड़े डाक्टर कुछ नहीं कर पाए, यह नौसिखिया क्या कर लेगा? बस, यही सोच कर दद्दा चुप्पी साधे रहे.

पर सौदामिनी की ऐसी दशा अम्मा, बाबूजी से सहन नहीं हो पा रही थी. पहली बार अम्मा ने तब दद्दा के सामने मुंह खोला था और न जाने क्या सोच कर वे मान भी गए.

मृदुल की दवा से सौदामिनी की दशा दिनपरदिन सुधरने लगी. मृदुल जानते थे, उस का रोग शारीरिक कम, मानसिक अधिक है. दवा से ज्यादा उसे प्यार और अपनत्व की जरूरत है. उधर सौदामिनी को स्वास्थ्यलाभ मिला, इधर राय साहब के विश्वास की जड़ें मृदुल पर जमने लगीं. वह तेजस्वी व्यक्तित्व और विलक्षण बुद्धि का स्वामी था, सदा अपने आकर्षण में सब को बांधे रखता. घंटों सौदामिनी के पास बैठा रहता.

मृदुल की संवेदनाओं ने न जाने कब अपमान, उपेक्षा और तिरस्कार के वज्र खंड तले सहमीसिमटी सौदामिनी के हृदय की बसंती बयार को सुगंधित झोंके के समान छू कर उस के दिल में प्रेम का बीज अंकुरित कर दिया.

सौदामिनी मृदुल के साहचर्य के लिए हर समय तरसती. उधर मृदुल भी सौदामिनी के ठहाकों, मुसकराहटों और उलझनों से अनजाने ही जुड़ते चले गए.

शुरूशुरू में राय साहब को इस प्रेमप्रसंग की जरा भी जानकारी नहीं मिली. प्यार, स्नेह, आसक्ति जैसी नैसर्गिक भावनाएं उम्र के किसी भी सोपान पर, जीवन के किसी भी मोड़ पर स्वाभाविक रूप से जन्म ले सकती हैं. उन के नियम, विधान के संसार में ऐसा सोचना भी प्रतिबंधित सा था.

ऊंची मानमर्यादा और प्रतिष्ठा के स्वामी राय साहब लाखों का दहेज देने की सामर्थ्य रखते थे. मुनीम के भाई के साथ अपनी इकलौती बेटी को ब्याह कर समाज में अपनी प्रतिष्ठा पर उन्हें कालिख थोड़े ही पुतवानी थी.

मैं उस प्रेमकहानी को कभी नहीं भूली, जिस की एकएक ईंट, राय साहब ने अपने छल से गिरवा दी थी और रह गया था, एक खंडहर.

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कुछ दिनों के लिए सौदामिनी को दद्दा ने उस के ननिहाल भिजवा दिया था. नाना की तबीयत बेहद खराब थी, इसलिए उन की सेवा के लिए कोई तो चाहिए ही था. पिता के बारे में सौदामिनी के मन में कोई दुर्भावना नहीं उपजी और न ही कोई राय बनी. जब तक लौटी, मुनीम और उन का अनुज पूरे दृश्यपटल से ओझल हो चुके थे. मृदुल यों बिना बताए क्यों चले गए, कहां चले गए? इस की जरा भी भनक न सौदामिनी को मिली, न ही हवेली वालों को.

छल, प्रवंचनाओं के छद्म भेदों से दूर सौदामिनी का मन मैला करना कोई बहुत कठिन काम नहीं था. जीवन के गूढ़ रहस्यों से अनभिज्ञ भोलीभाली बेटी के सामने दद्दा ने मृदुल के चरित्र का ऐसा घिनौना चित्रण प्रस्तुत किया कि उस का मन मृदुल के प्रति वितृष्णा से भर उठा.

प्रेम में चोट खाए हृदय का दुख समय के साथ ही मिटता जाएगा, यह सभी जानते थे. दद्दा भी जानते थे कि वक्त बड़े से बड़े जख्म भर देता है. समय बीतता गया. सौदामिनी के रिसते घाव भरने लगे.

विश्वास, अविश्वास के चक्रवात में उलझी सौदामिनी अब एक बार फिर प्रेम का घरौंदा बनाने के लिए सुनहरे स्वप्न संजोने लगी थी. इस घर से भावनात्मक रूप से वह जुड़ी ही कब थी, जो यहां मन रमता? करोड़पति पिता ने करोड़पति परिवारों की खोज शुरू कर दी थी. रिश्तों की कमी न थी. पर दद्दा को हर रिश्ते में कोई न कोई खामी नजर आती ही थी.

आखिर एक दिन बड़ी ही जद्दोजेहद के बाद उन्हें दीवान दुर्गा प्रसाद का इकलौता बेटा आदित्य अपनी सौदामिनी के लिए उपयुक्त लगा. आदित्य डाक्टर था, व्यक्तित्व का ही नहीं, कृतित्व का भी धनी था.

अतीत के सारे दुखद प्रसंगों को भूल कर सौदामिनी खुद को कल्पनाओं के मोहक संसार में पिरोने लगी थी.

दोनों ही पक्षों ने दिल खोल कर खर्चा किया था. दीवान साहब की प्रतिष्ठा का अंदाजा बरात में आए लोगों की भीड़ देख कर लगाया जा सकता था. जीवनपर्यंत सुखदुख का साथी बने रहने का संकल्प ले कर सौदामिनी ने ससुराल की देहरी पर कदम रखा था.

रात्रि की नीरवता चारों ओर पसरी हुई थी. सभी मेहमान अपनेअपने कमरों में सो चुके थे. कमरे के बाहर उस की सास तारिणी सामान को सुव्यविस्थत करने में जुटी हुई थीं. रात्रि का तीसरा पहर भी ढलने को था. लेकिन आदित्य का दूरदूर तक कहीं पता न था.

सुबह की पहली किरण के साथ आदित्य कमरे में लौटे तो सौदामिनी और भी सिमट गई.

वे बिना कोई भूमिका बांधे पास ही पड़ी कुरसी पर बैठ गए और बोले, ‘सौदामिनी, हमारे समाज में मातापिता बेटे के लिए पत्नी नहीं, अपने लिए कुलवधू ढूंढ़ते हैं, गृहलक्ष्मी ढूंढ़ते हैं,’ आदित्य के स्वर में ऐसा भाव था, जिस ने सौदामिनी के मन को छू लिया.

‘मैं किसी और को प्यार करता हूं. सूजी नाम है उस का…मेरे ही अस्पताल में नर्स है. तुम्हें बुरा तो लगेगा, पर मैं सच कह रहा हूं. मैं ने तो तुम्हें एक नजर देखा भी नहीं था. कई बार मैं ने इस विवाह का विरोध किया, पर मां न मानीं. सच पूछो तो उन्होंने भी तुम्हारी धनसंपदा को ही पसंद किया है, तुम्हें नहीं,’ इतना कह कर आदित्य दूसरे कमरे में चले गए थे और छोड़ गए थे सूनापन.

कल्पना का महल खंडित हो चुका था. सौदामिनी अपनी जगह से हिली, न डुली. उसे लगा, वह जमीन में धंसती चली जा रही है. ऐसे समय में कोई नवविवाहिता कह भी क्या सकती है. बस, आदित्य के अगले वाक्य की प्रतीक्षा करती रही. वे लौट आए थे, ‘इस घर में तुम्हें सारे अधिकार मिलेंगे, पर मेरे हृदय पर अधिकार सूजी का ही होगा. उसे भुलाना मेरे वश में नहीं,’ आदित्य की आंखों में भावुकता से अश्रुकण छलक आए.

सौदामिनी सोच रही थी, अगर उस के दिल पर उस का अधिकार नहीं तो इस घर में रह कर क्या करेगी? किलेनुमा उस हवेली में वह खुद को कैदी ही समझ रही थी.

कुछ ही देर में आदित्य की मां थाल में नए वस्त्र और आभूषण ले कर आईं, जिन्हें अपने शरीर पर धारण कर के उसे आगंतुकों से शुभकामनाएं लेनी थीं. सौदामिनी ने मां का लाड़प्यार कभी देखा नहीं था, सुना जरूर था कि मां का हृदय विशाल होता है, एक वटवृक्ष की तरह, जिस की छाया तले न जाने कितने पौधे पुष्पित, पल्लवित होते हैं. बस, यही सोच कर उन का हाथ पकड़ कर सौदामिनी सिसक उठी, ‘मांजी, सबकुछ जानते हुए भी, आप ने मेरा जीवन बरबाद क्यों किया? आप को उन की प्रेमिका से ही उन का विवाह करवाना चाहिए था.’

तारिणी ने अपना हाथ छुड़ाते हुए रुखाई से कहा, ‘बहू, रिश्ते जोड़ते समय खानदान, जात, वर्ग, परंपरा जैसी कई बातों को ध्यान में रखना पड़ता है.’

कांपते स्वर में उस ने इतना ही कहा, ‘चाहे इन सब बातों के लिए किसी दूसरी लड़की के जीवन की सारी खुशियां ही दांव पर क्यों न लग जाएं?’

‘ऐसा कुछ नहीं होता, बहू. पत्नी में सामर्थ्य हो तो साम, दाम, दंड, भेद जैसा कोई भी अस्त्र प्रयोग कर के अपने पति का मन जीत सकती है.’

सास ने कहा, ‘देखो सौदामिनी, तुम इस घर की बहू हो. इस घर की मानमर्यादा तुम्हें ही बना कर रखनी है. समाज में हमारा नाम है, इज्जत है. आदित्य और सूजी के संबंधों पर परदा पड़ा रहे, इसी में तुम्हारी भलाई है और हम सब की भी. किसी को इस विषय में कुछ भी पता नहीं चलना चाहिए. तुम्हारे ससुर दीवान साहब को भी पता नहीं चलना चाहिए. वे दिल के मरीज हैं. उन का ध्यान रख कर ही मैं ने तुम्हें इस घर की बहू बनाया है, वरना सूजी ही आती इस घर में. अगर उन्हें कुछ हो गया तो इस का उत्तरदायित्व तुम पर ही होगा.’

सभी का अपनाअपना मत था. कोई मजबूरी जतला रहा था, कोई धमकी दे रहा था. सौदामिनी को समाज के कठघरे में खड़ा करने वाले उस के तथाकथित संबंधी, उस की भावनाओं से सर्वथा अनभिज्ञ थे. राय साहब के साम्राज्य की इकलौती राजकुमारी का अस्तित्व ससुराल वालों ने कितनी बेरहमी से नकार दिया था.

नववधू अपमान का घूंट पी कर रह गई थी. न जाने क्यों, उस दिन मृदुल बहुत याद आए थे, ‘क्यों छोड़ कर चले गए उसे यों मझधार में? कम से कम एक बार मिल तो लेते, कुछ कहनेसुनने का मौका तो दिया होता.’

दीवान साहब नेक इंसान थे. एक बार सौदामिनी के जी में आया कि वह उन से सबकुछ कह दे, पर सहज नहीं लगा था. वह होंठ सीए रही थी.

– क्रमश:

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Serial Story: सौदामिनी (भाग-3)

सामने मेज पर रखी चाय बर्फ के समान ठंडी हो चुकी थी. गुमसुम सी बैठी सौदामिनी से मैं ने प्रश्न किया, ‘‘दीवान साहब के घर से निकल कर तुम कहां गईं, कहां रहीं?’’

सौदामिनी गंभीर हो उठी थी. उस के माथे पर सिलवटें सी पड़ गईं. ऐसा लगा, उस के सीने में जो अपमान जमा है, एक बार फिर पिघलने लगा है.

‘‘तनु, अतीत को कुरेद कर, वर्तमान को गंधाने से क्या लाभ? उन धुंधली यादों को अपने जीवन की पुस्तक से मैं फाड़ चुकी हूं.’’

‘‘जानती हूं, लेकिन फिर भी, जो हमारे अपने होते हैं और जिन्हें हम बेहद प्यार करते हैं, उन से कुछ पूछने का हक तो होता है न हमें. क्या यह अधिकार भी मुझे नहीं दोगी?’’

आत्मीयता के चंद शब्द सुन कर उस की आंखें भीग गईं. अवरुद्ध स्वर, कितनी मुश्किल से कंठ से बाहर निकला होगा, इस का अंदाजा मैं ने लगा लिया था.

‘‘जिस समय आदित्य की चौखट लांघ कर बाहर निकली थी, विश्वासअविश्वास के चक्रवात में उलझी मैं ऐसे दोराहे पर खड़ी थी, जहां से एक सीधीसपाट सड़क मायके की देहरी पर खत्म होती थी. पर वहां कौन था मेरा? सो, लौटने का सवाल ही नहीं उठता था.

‘‘आत्महत्या करने का प्रयास भी कई बार किया था, पर नाकाम रही थी. अगर जीवन के प्रति जिजीविषा बनी हुई हो तो मृत्युवरण भी कैसे हो सकता है? इतने बरसों बाद अपनी सूनी आंखों में मोहभंग का इतिहास समेटे जब मैं घर से निकली थी तो मेरे पास कुछ भी नहीं था, सिवा सोने की 4 चूडि़यों के. उन्हें मैं ने कब सुनार के पास बेचा, और कब ट्रेन में चढ़ कर यहां माउंट आबू पहुंच गई, याद ही नहीं. यहांवहां भटकती रही.

‘‘ऐसी ही एक शाम मैं गश खा कर गिर पड़ी. पर जब आंख खुली तो अपने सामने श्वेत वस्त्रधारी, एक महिला को खड़े पाया. उस के चेहरे पर पांडित्य के लक्षण थे. उस के हाथ में ढेर सारी दवाइयां थीं. मिसरी पगे स्वर में उस ने पूछा, ‘कहां जाना है, बहन? चलो, मैं तुम्हें छोड़ आती हूं.’

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‘‘किसी अजनबी के सामने अपना परिचय देने में डर लग रहा था. वैसे भी अपने गंतव्य के विषय में जब खुद मुझे ही कुछ नहीं मालूम था तो उसे क्या बताती. उस के चेहरे पर ममता और दया के भाव परिलक्षित हो उठे थे. मेरे आंसुओं को वह धीरेधीरे पोंछती रही. उस ने मुझे अपने साथ चलने को कहा और यहां इस आश्रम में ले आई.

‘‘कई दिनों से बंद पड़े एक कमरे को उस ने भली प्रकार से साफ करवाया, रोजमर्रा की जरूरी चीजों को मेरे लिए जुटा कर वह मेरे पास ही बैठ गई. कुछ देर बाद उस ने मेरे अतीत को फिर से कुरेदा तो मैं ने हिचकियों के बीच सचाई उसे बता दी.

‘‘उस का नाम श्यामली था. एक दिन वह बोली, ‘यों कब तक अंधेरे में मुंह छिपा कर बैठी रहोगी, सौदामिनी. जब जीवन का हर द्वार बंद हो जाए तो जी कर भी क्या करेगा इंसान?

‘‘‘जीवन एक अमूल्य निधि है, इसे गंवाना कहां की अक्लमंदी है? केवल भावनाओं और संवेदनाओं के सहारे जीवन नहीं जीया जा सकता. जीविकोपार्जन के लिए कुछ न कुछ साधन जुटाने पड़ते हैं.’

‘‘श्यामली इसी आश्रम की संचालिका थी. बरसों पहले उस ने और उस के डाक्टर पति ने इस आश्रम को स्थापित किया था. वह मुझे इसी आश्रम में बने एक स्कूल में ले गई. इधरउधर छिटकी, बिखरी कलियों को समेट कर एक कक्षा में बिठा कर पढ़ाना शुरू किया तो लगा, पूर्ण मातृत्व को प्राप्त कर लिया है. घर के बाहर कुछ सब्जियां वगैरा उगा ली थीं. समय भी बीत जाता, खर्च में भी बचत हो जाती.

‘‘दिन तो अच्छा बीत जाता था. शाम को अकेली बैठती तो गहरी उदासी के बादल चारों ओर घिर आते थे. श्यामली अकसर मुझे अपने घर बुलाती, पर कहीं जाने का मन ही नहीं करता था.

‘‘कई आघातों के बाद जीवन ने एक स्वाभाविक गति पकड़ ली थी. सहज होने में कितना भी समय क्यों न लगा हो, जीवन मंथर गति से चलने लगा था. अतीत की यादें परछाईं की तरह मिटने लगी थीं. उसी वातावरण में रमती गई, तो जीवन रास आने लगा.

‘‘इधर एक हफ्ते से श्यामली मुझ से मिली नहीं थी. मैं अचरज में थी कि वह इतने दिनों तक अनुपस्थित कैसे रह सकती है. कभी उस के घर गई नहीं थी. इसलिए कदम उठ ही नहीं रहे थे. पर जब मन न माना तो मैं उसी ओर चल दी.

‘‘दरवाजा श्यामली ने ही खोला था. मुझे देख कर उस के चेहरे पर स्मित हास्य के चिह्न मुखर हो उठे थे. उसे देख कर मुझे अपने अंदर कुछ सरकता सा महसूस हुआ. पहले से वह बेहद कमजोर लग रही थी.

‘‘उस ने आगे बढ़ कर मेरे कंधे पर हाथ रखा और अंदर ले गई. पालने में एक बालक लेटा हुआ था. मानसिक रूप से उस का पूर्ण विकास अवरुद्ध हो गया है, ऐसा मुझे महसूस हुआ था. पूरे घर में शांति थी.

‘‘‘पिछले कुछ दिनों से मेरे पति की तबीयत अचानक खराब हो गई. आजकल रोज अस्पताल जाना पड़ता है,’ उस ने बताया.

‘‘क्या कहते हैं, डाक्टर?’

‘‘‘उन्हें कैंसर है,’ उस का स्वर धीमा था.

‘‘कुछ देर बाद उस के पति के कराहने का स्वर सुनाई दिया, तो वह अंदर चली गई. साथ ही, मुझे भी अपने पीछे आने को कहा.

‘‘दुर्बल शरीर, खिचड़ी से बेतरतीब बाल, लंबी दाढ़ी…पर मैं उसे एक पल में पहचान गई थी. सामने मृदुल मृत्युशय्या पर लेटा था. सैलाब के क्षणों में जैसे समूची धरती उलटपलट जाती है, वैसे ही मेरे अंतस में भयावह हाहाकार जाग उठा था. वक्त ने कैसा क्रूर मजाक किया था, मेरे साथ? अतीत के जिस प्रसंग को मैं भूल चुकी थी, वर्तमान बन कर मेरे सामने खड़ा था. वितृष्णा, विरक्ति, घृणा जैसे भाव मेरे चेहरे पर मुखरित हो उठे थे. उस की पीड़ा देख कर मेरे चेहरे पर संतोष का भाव उभर आया.

‘‘‘अगर तुम यहां मृदुल के पास कुछ समय बैठो, तो मैं आश्रम का निरीक्षण कर आऊं?’ श्यामली ने मुझे वर्तमान में धकेला था.

‘‘‘हांहां, तुम निश्ंिचत हो कर जाओ, मैं यहीं पर हूं.’

‘‘श्यामली के जाने के बाद वातावरण असहज हो उठा था. मैं अपनेआप में सिमटती जा रही थी. मृदुल की मुंदी हुई आंखें हौलेहौले खुलने लगी थीं. उस के हावभाव में बेहद ठंडापन था. झील जैसी शांत शीतल छाया बिखेरती निगाहें उठा कर उस ने मुझे देखा और अपने पास रखी कुरसी पर बैठने को कहा. फिर हौले से बोला, ‘तुम यहां, इस शहर में?’

‘‘‘और अगर यही प्रश्न मैं तुम से करूं तो? मृदुल, क्या सपनों के राजकुमार यों ही जिंदगी में आते हैं? अगर श्यामली से ही ब्याह करना था तो मुझ से प्रेम ही क्यों किया था? मुझे तो अकेले जीने की आदत थी.’ रुलाई को बमुश्किल संयत करते हुए मैं ने पूछा तो उस ने अपनी कांपती मुट्ठी में मेरी दोनों हथेलियों को कस कर पकड़ लिया.

‘‘उस के स्पर्श में दया, ममता और अपनत्व के भाव थे. वह हौले से बोला, ‘क्या दोषारोपण के सारे अधिकार तुम्हारे ही पास हैं? मुझे लगता है तुम ने उतना ही सुना और समझा है, जितना शायद तुम ने सुनना और समझना चाहा है. अपने इर्दगिर्द की सारी सीमाएं तोड़ दो और फिर देखो, क्या कोई फरेब दिखता है, तुम्हें?’

‘‘मैं उसे एकटक निहारती रही. अपना सिर पीछे दीवार से टिका कर उस ने आंखें बंद कर लीं. उन बंद आंखों के पीछे बहुतकुछ था, जो अनकहा था.

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‘‘आखिर मृदुल ने खुद ही मौन बींधा, ‘तुम्हारे पिता राय साहब बड़े आदमी थे. वहां का रुख तक वे अपने अनुसार मोड़ने में सिद्धहस्त थे. यह मुझ से ज्यादा शायद तुम समझती होगी. जिन दिनों मैं तुम्हारे पास आया करता था, मेरे भैया की तबीयत अचानक खराब हो गई थी. डाक्टर ने दिल का औपरेशन करने का सुझाव दिया था. देखा जाए तो भारत में न डाक्टरों की कमी है, न ही अस्पतालों की, पर तुम्हारे पिता ने उस समय मुझे भैया को ले कर अमेरिका में औपरेशन करने का सुझाव दिया था.

‘‘‘तुम तो जानती हो, मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, पर राय साहब ने आननफानन सारी तैयारी करवा कर 2 टिकट मेरे हाथ में पकड़वा दिए थे. उस समय मेरा मन उन के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो उठा था.

‘‘‘तुम सोच रही होगी, मैं तुम से मिलने क्यों नहीं आया? मैं तुम्हारे घर गया था, पर तब तक तुम ननिहाल जा चुकी थीं. कुछ ही दिन बीते तो अमेरिका में तुम्हारे ब्याह की खबर सुनी थी. तुम्हारे पिता के प्रति मन घृणा से भर उठा था. शतरंज की बिसात पर 2 युवा प्रेमियों को मुहरों की तरह प्रयोग कर के कितनी कुशलता से उन्होंने बाजी जीत ली थी. फिर तुम ने भी तो सच को समझने का प्रयास ही नहीं किया.’

‘‘छोटे बालक की तरह वह सिसकता रहा. अतीत की धूमिल यादें, एक बार फिर मानसपटल पर साकार हो उठी थीं. झूठी मानमर्यादा और सामाजिक प्रतिष्ठा की दुहाई देने वाले मेरे पिता को, 2 युवा प्रेमियों को अलग करने से क्या मिला? मृदुल को तो फिर भी गृहस्थी और पत्नी का सुख मिला था. लुटती तो मैं ही रही थी. कितनी देर तक पीड़ा के तिनके हृदयपटल से बुहारने का प्रयास करती रही थी, पर बरसों से जमी पीड़ा को पिघलने में समय तो लगता ही है.

‘‘घर पहुंच कर सुख को मैं कोसने लगी कि मृदुल से क्यों मिली. मृगतृष्णा ही सही, आश्वस्त तो थी कि उस ने मुझे छला है. धोखा दिया है. अब तो घृणा का स्थान दया ने ले लिया था. उस से मिलने को मन हर समय आतुर रहता. उस के सान्निध्य में, कुंआरे सपने साकार होने लगते. यह जानते हुए भी कि मैं अंधेरी गुफा की ओर बढ़ रही हूं, खुद को रोक पाने में अक्षम थी.

‘‘एक दिन मेरे अंतस से पुरजोर आवाज उभरी, ‘यह क्या कर  रही है तू? जिस महिला ने तुझे जीवनदान दिया, जीने की दिशा सुझाई, उसी का सुखचैन लूट रही है. मृदुल तेरा पूर्व प्रेमी सही, अब श्यामली का पति है. फिर तू भी तो आदित्य की ब्याहता पत्नी है. श्यामली के जीवन में विष घोल रही है?’

‘‘मन ने धिक्कारा, तो पैरों में खुदबखुद बेडि़यां पड़ गईं. श्यामली से भी मैं दूर भागने लगी थी. अपने ही काम में व्यस्त रहती. मन उचटता तो गूंगेबहरे, विक्षिप्त बच्चों के पास जा पहुंचती. इस से राहत सी महसूस होती थी. श्यामली संदेशा भिजवाती भी, तो बड़ी ही सफाई से टाल जाती.

‘‘एक रात श्यामली के घर से करुण क्रंदन सुनाई दिया था. मन हाहाकार कर उठा. दौड़ती हुई मैं श्यामली के पास जा पहुंची, लोगों की भीड़ जमा थी.

‘‘पाषाण प्रतिमा बनी श्यामली पति के सिरहाने गुमसुम सी बैठी थी. पास ही, उस का बेटा लेटा हुआ था. सच, पुरुष का साया मात्र उठ जाने से औरत कितनी असहाय हो उठती है. मुझे जिंदगी ने छला था तो उसे मौत ने.

‘‘उस दिन के बाद मैं प्रतिदिन श्यामली के पास जाती. घंटों उस के पास बैठी रहती. उस की खामोश आंखों में मृदुल की छवि समाई हुई थी.

‘‘पति की मौत का दुख घुन की तरह उस के शरीर को बींधता रहा था. उस की तबीयत दिनपरदिन बिगड़ने लगी थी. वह अकसर कहती, ‘मृदुल बहुत नेक इंसान थे. जीवन के इस महासागर में, उन्हें बहुत कम समय व्यतीत करना है, यह शायद वे जानते थे. उन्होंने कभी किसी को चोट नहीं पहुंचाई, कभी किसी को दुख नहीं दिया. पर अब मुझे जीवन की तल्खियों से जूझने के लिए अकेला क्यों छोड़ गए?’

‘‘जब निविड़ अंधकार में प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं देती, तब आदमी जिंदगी की डोर झटक कर तोड़ देने को मजबूर हो जाता होगा. श्यामली का जीवन भी ऐसा ही अंधकारपूर्ण हो गया होगा, तभी तो एक दिन चुपके से उस ने प्राण त्याग दिए थे और जा पहुंची थी अपने मृदुल के पास.

‘‘मृदुल की मृत्यु के बाद मैं उसी के घर में उस के साथ रहने लगी थी. हर समय उस का बेटा मेरे ही पास रहता. हर समय उस के मुख पर एक ही प्रश्न रहता कि उस के बाद उस के बेटे का क्या होगा? मैं उसे धीरज बंधाती, उस का मनोबल बढ़ाती, पर वह भीतर ही भीतर घुटती रहती.

‘‘‘जीने का मोह ही नहीं रहा,’ उस ने एक दिन बुझीबुझी आंखों से कहा था, ‘एक बात कहूं? मेरी मृत्यु के बाद इस आश्रम और मेरे बेटे मानव का दायित्व तुम्हारे कंधों पर होगा,’ उसे मेरी हां का इंतजार था, ‘हमारा रुपयापैसा, जमापूजीं तुम्हारी हुई सौदामिनी…’

‘‘मैं चुप थी. क्या इतना बड़ा उत्तरदायित्व मैं संभाल सकूंगी? मन इसी ऊहापोह में था.

‘‘फिर थोड़ा रुक कर वह बोली, ‘मृत्युवरण से कुछ समय पूर्व ही मृदुल ने अपने और तुम्हारे संबंधों के बारे में मुझे सबकुछ बता दिया था. यह भी कहा था कि अगर मुझे कुछ हो जाए तो मानव का दायित्व मैं तुम्हें सौंप दूं. उन की अंतिम इच्छा क्या पूरी नहीं करोगी? एक बार हां कह दो, तो चैन से इस संसार से विदा ले लूं.’

‘‘मन कृतकृत्य हो उठा था. साथ ही, मृदुल का मेरे प्रति अटूट विश्वास इस अवधारणा से मुक्त कर गया था कि सप्तपदी और विवाह का अनुष्ठान तो मात्र एक मुहर है जो 2 इंसानों को जोड़ता है. असल तो है, मन से मन का मिलन.

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‘‘मानव का उत्तरदायित्व लेने से हिचकिचाहट तो हुई थी. एक बार फिर समाज और इस के लोग मेरे सामने आ गए थे. मन कांपा था, लोग अफवाहें फैलाएंगे. फिकरे कसेंगे, पर एक झटके से मन पर नियंत्रण भी पा लिया था. सोचा, जिस समाज ने हमेशा घाव ही दिए, उस की चिंता कर के इस बच्चे का जीवन क्यों बरबाद करूं? मृदुल के विश्वास को क्यों धोखा दूं?’’

आसमान पर चांद का टुकड़ा कब खिड़की की राह कमरे में दाखिल हो गया, हम दोनों को पता ही नहीं चला. मैं उठ कर बाहर आई, तो चांद मुसकरा रहा था.

सुबह का भूला: क्यों अपने देश लौटना चाहते थे बीजी और दारजी?

सुबह का भूला: भाग-1

सतविंदरजल्दीजल्दी सारे काम निबटा कर घर से निकल ही रहा था कि केट ने पूछ लिया, ‘‘अभी से?’’

‘‘हां, और क्या, 2 घंटे तो एअरपोर्ट पहुंचने में भी लग जाने हैं,’’ सतविंदर उल्लास से लबरेज था किंतु पास बैठे अनीटा और सुनीयल सुस्त से प्रतीत हो रहे थे. आंखों ही आंखों में सतविंदर ने अपनी पत्नी केट से कारण जानना चाहा. उस ने भी नयनों की भाषा में उसे शांत रह, चले जाने का इशारा किया. फिर एक आश्वासन सा देती हुई बोली, ‘‘जाओ, बीजी दारजी को ले आओ. तब तक हम सब नहाधो कर तैयार हो जाते हैं.’’

पूरे 21 वर्षों के बाद बीजी और दारजी अपने इकलौते बेटे सतविंदर की गृहस्थी देखने लंदन आ रहे थे. सूचना प्रोद्यौगिकी में अभियांत्रिकी कर, आईटी बूम के जमाने में सतविंदर लंदन आ गया था. वह अकसर अपने इस निर्णय पर गर्वांवित अनुभव करता था, ‘बीइंग एट द राइट प्लेस, एट द राइट टाइम’ उस का पसंदीदा जुमला था. नौकरी मिलने पर सतविंदर ने लंदन के रिचमंड इलाके में एक कमरा किराए पर लिया. नीचे के हिस्से में मकानमालिक रहते थे और ऊपर सतविंदर को किराए पर दे दिया गया था. कमरा छोटा था किंतु उस के शीशे की ढलान वाली छत की खिड़की से टेम्स नदी दिखाई देती थी.

यह एक अलग ही अनुभव था उस के लिए, ऊपर से किराया भी कम था. सो, सतविंदर खुशी से वहां रहने लगा. मकानमालिक की इकलौती लड़की केट सतविंदर के लिए दरवाजा खोलती, बंद करती. मित्रता होने पर वह सतविंदर को लंदन घुमाने भी ले जाने लगी. सतविंदर ने पाया कि केट बहुत ही सुलझी हुई, समझदार व सौहार्दपूर्ण लड़की है. जल्द ही दोनों एकदूसरे की तरफ खिंचाव अनुभव करने लगे. केट के दिल का हाल उस के नेत्र अपनी मूकभाषा द्वारा जोरजोर से कहते किंतु धर्म की दीवार के कारण दोनों चुप थे. परंतु केट की भलमनसाहत ने सतविंदर का मन ऐसा मोह लिया कि उस ने चिट्ठी द्वारा अपने बीजी व दारजी से अनुमति मांगी. उन की एक ही शर्त थी कि शादी अपने पिंड में हो. सतविंदर, केट व उस के मातापिता सहित अपने गांव आया और धूमधाम से शादी हो गई.

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कुछ सालों में सतविंदर व केट के घोंसले में 2 नन्हे सुर सुनाई देने लगे. अब उन की गृहस्थी परिपूर्ण थी. बीजी बहुत प्रसन्न थीं कि पराए देश में भी उन की आंख के तारे का खयाल रखने वाली मिल गई थी. साथ ही सतविंदर को बनाबनाया घर मिल गया. कुछ समय बाद उस ने अपने ससुर के व्यवसाय में हिस्सेदारी कर ली. आज उस की गिनती लंदन के जानेमाने रईसों में होती थी. उस की तेज प्रगति का श्रेय कुछ हद तक उस की शादी को भी जाता था. सतविंदर व केट अपने बच्चों को ले कर अकसर भारत जाया करते. लेकिन जब से बच्चे बड़े हुए, तब से कभी उन की शिक्षा, कभी उन के कहीं और छुट्टी मनाने के आग्रह के चलते उन का भारत जाना कुछ कम होता गया.

पिछले वर्ष दीवाली के त्योहार पर केट,

बीजी से फोन पर बात कर रही थी, ‘बच्चों की व्यस्तता के कारण हमारा आना अभी संभव नहीं है, बीजी.’ फिर अचानक ही केट के मुंह से निकला, ‘आप लोग क्यों नहीं आ जाते यहां?’ तब से कागजी कार्यवाही पूरी करतेकराते आज बीजी और दारजी लंदन आ रहे थे. दोनों बहुत हर्षोल्लासित थे. पहली बार हवाई सफर कर रहे थे और वह भी विलायत का. इस उम्र में उन्हें उत्साह के साथसाथ इतनी दूर सफर करने की थोड़ी चिंता भी थी. सामान भी खूब था. ठंडे प्रदेश जा रहे थे. दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय एअरपोर्ट देख कर दोनों को सुखद आश्चर्य हुआ. हवाई जहाज के जरीए वे आखिरकार लंदन पहुंच गए.

सतविंदर पहले से ही एअरपोर्ट पर प्रतीक्षारत था. गले मिलते ही बीजी और दारजी के साथसाथ सतविंदर की आंखें भी नम हो चलीं. बीजी की एक हलकी सी हिचकी बंधते ही सतविंदर ने टोका, ‘‘अभी आए हो बीजी, जा नहीं रहे जो रोने लगे.’’ अपने बेटे की बड़ी गाड़ी में सवार हो, उस के घर जाते समय रास्ते में लंदन की सड़क किनारे की हरियाली, वहां का सुहाना मौसम, सड़क पर अनुशासन, सड़क पर न कोई जानवर, न आगे निकलने की होड़ और न ही हौर्न का कोई शोर, सभी ने उन का मन मोह लिया था.

‘‘यह तो आज आप के आने की खुशी सी है जो इतनी धूप खिली है वरना यहां तो अकसर बारिश ही होती रहती है,’’ सतंिवदर ने बताया.

घर के दरवाजे पर केट खड़ी इंतजार कर रही थी. उस ने पूरी खुशी के साथ उन का स्वागत किया. बीजी और दारजी बेहद प्रसन्न थे. उन्हें उन के कमरे में छोड़ केट उन के लिए चायनाश्ते का इंतजाम करने में लग गई.

‘‘मेरे पोतापोती कित्थे होंगे? उनानूं देखण वास्ते आंखें तरस गी,’’ बीजी से अब और प्रतीक्षा नहीं हो रही थी. दारजी की नजरें भी जैसे उन्हें ही खोज रही थीं. सतविंदर ने दोनों को आवाज लगाई तो अनीटा और सुनीयल आ गए. बीजी और दारजी फौरन उन दोनों को गले से लगा लिया, ‘‘हुण किन्ने वड्डे हो गए नै.’’

‘‘यह कौन सी भाषा बोल

रहे हैं, डैड? हमें कुछ समझ नहीं आ रहा,’’ सुनीयल ने बेरुखी से कहा, ‘‘और बाई द वे, हमारे नाम अनीटा और सुनीयल हैं, अनीता व सुनील नहीं.’’

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सुनीयल की इस बदतमीजी पर सतविंदर की आंखें गुस्से में उबल पड़ीं कि तभी केट वहां आ गई. अभीअभी आए बीजी व दारजी के समक्ष कोई कहासुनी न हो जाए, उस ने त्वरित बात संभालते हुए सब को चायनाश्ता दिया और बच्चों को अपने कमरे में जाने को कह दिया, ‘‘जाओ, तुम दोनों अपनी पढ़ाई करो.’’

केट समझदार थी जो घरपरिवार को साथ ले कर चलना चाहती थी और जानती भी थी. किंतु पराए देश, पराई संस्कृति में पल रहे बच्चों का क्या कुसूर? अनीटा अभी 15 साल की थी और सुनीयल 18 का. मगर जिस देश में वे पैदा हुए, बड़े हो रहे थे उस की मान्यताएं तो उन के अंदर घर कर चुकी थीं. उन्हें बीजी और दारजी से बात करना जरा भी पसंद न आता.

उन के लाए कपड़े व तोहफे भी उन्हें बिलकुल नहीं भाए.

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सुबह का भूला: भाग-2

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बीजी व दारजी भी समझ रहे थे कि अपने ही पोतापोती के साथ संपर्कपुल बनाने के लिए उन्हें थोड़ा और धैर्य, थोड़ी और कोशिश करनी होगी.

अगले हफ्ते सतविंदर व केट, बीजी व दारजी को लंदन के प्रसिद्ध म्यूजियम घुमाने ले गए, ‘‘यहां के म्यूजियम शाम 5 बजे बंद हो जाते हैं, इसलिए हमें जल्दी चलना चाहिए.’’ नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में डायनासोर की हड्डियों का ढांचा, अन्य विशालकाय जानवरों के परिरक्षित शरीर, कोहिनूर हीरे की प्रतियां आदि देख कर दारजी बेहद खुश हुए. विक्टोरिया व अल्बर्ट म्यूजियम में संगमरमर की मनमोहक मूर्तियां, टीपू सुलतान के कपड़े तथा उन की मशहूर तलवार, दुनियाभर से इकट्ठा किए हुए बेशकीमती कालीन, मूर्तियां, कांच, कांसे व चांदी के बरतन इत्यादि देख वे हक्केबक्के रह गए, ‘‘इन गोरों ने केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया ही लूटी.’’

बीजी व दारजी के पिंड की तुलना में लंदन एक

बहुत भिन्न संस्कृति वाला देश था. सब अपनेआप में मस्त तथा व्यस्त. किसी को किसी से कोई आपत्ति नहीं, कोई मोरल पुलिसिंग नहीं, सब को अपने जीवन के निर्णय लेने की आजादी. हर किसी को अपना परिधान चुनने की छूट. विवाह से पहले साथ रहने की और यदि साथ खुश नहीं, तो विवाहोपरांत अलग रहने की भी आजादी. हर नस्ल का इंसान यहां दिखाई दे रहा था. एक सच्चा सर्वदेशीय शहर.

घर पर बीजी ने ध्यान दिया कि सुबहसवेरे सतविंदर और केट अपनेअपने दफ्तर निकल जाते. न कुछ खा कर जाते और न ही लंच ले कर जाते. बीजी से रहा न गया, ‘‘पुत्तर, तुम दोनों भूखे सारा दिन काम में कैसे बिताते हो? कहो तो सुबह मैं परांठे बना दिया करूं, कोई देर नहीं लगती है?’’

इस पर सतविंदर ने हंस कर कहा, ‘‘बीजी, यहां का यही दस्तूर है. हम रास्ते में एक रेस्तरां से एकएक सैंडविच और कौफी का गिलास लेते हैं, ट्यूब (मेट्रो रेल) स्टेशन पर गाड़ी पार्क कर, अपनीअपनी दिशा पकड़ लेते हैं. लंच में भी हम अन्य सभी की

भांति दफ्तर के पास स्थित रेस्तरां में कुछ खाने का सामान ले आते हैं. यहां ‘औन द गो’ खाने का ही रिवाज है-चलते जाओ, खाते जाओ, काम करते जाओ. आखिर टाइम इज मनी.’’

बीजी को यह जान कर भी हैरानी हुई कि लंदन कितना महंगा शहर है- एक सैंडविच करीब ढाई सौ रुपए का. मगर एक बार जब सतविंदर और केट उन्हें भी रेस्तरां ले गए तो बिल में कुछ अलग ही हिसाब आया देख दारजी बोल बैठे, ‘‘यह रेस्तरां तो और भी महंगा है.’’

अगले दिन से घर यथावत चलने लगा. बच्चे पढ़ने जाने लगे, सतविंदर

अपना व्यवसाय संभालने में व्यस्त हो गया और केट घर व दफ्तर संभालने में. बीजी और दारजी ने ध्यान दिया कि अनीटा को छोड़ने एक काला लड़का आता है जो उम्र में उस से काफी बड़ा प्रतीत होता है. फिर एक शाम खिड़की पर बैठी बीजी की पारखी नजरों ने अनीटा और उस काले लड़के को चुंबन करते देख लिया. उन का कलेजा मुंह को आ गया. ‘जरा सी बच्ची और ऐसी हरकत? जैसा किसी देश का चलन होगा, वैसे ही संस्कार उस में मिलेंगे उस में पल रहे बच्चों को’, सोच कर बीजी चुप रह गईं. परंतु उस रात उन्होंने दारजी के समक्ष अपना मन हलका कर ही डाला, ‘‘निक्की जेई कुड़ी हैगी साड्डी…की कीत्ता?’’

‘‘तू सोचसोच परेशान न होई…कुछ हल खोजते हैं,’’ दारजी की बात से वे कुछ शांत हुईं.

सुबहसुबह बीजी चाय का कप थामे, बालकनी में खड़ी दूर तक विस्तृत रिचमंड हिल और आसपास फैली टेम्स नदी देख रही थीं. सेंट पीटर चर्च और उस के इर्दगिर्द मनोरम हरियाली. कितनी सुंदर जगह है. किंतु दिल में ठंडक हो तब तो कोई इस अनोखे प्राकृतिक सौंदर्य का घूंट भरे. मन तो उद्विग्न था कल रात के दृश्य के बाद से. कुछ देर में केट भी अपना कप लिए बीजी के पास आ खड़ी हुई. तभी बीजी ने मौके का फायदा उठा केट से कल रात वाली बात कह डाली, ‘‘संकोच तो बहुत हुआ पुत्तर पर अपना बच्चा है, टाल भी तो नहीं सकते न.’’

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‘‘आप की बात मैं समझती हूं, बीजी, और यह बात मैं भी जानती हूं, लेकिन यहां हम बच्चों को यों टोक नहीं सकते. यह उन की जिंदगी है. यहां भारत से अलग संस्कृति है. छुटपन से ही लड़केलड़कियों में दोस्ती हो जाती है और कई बार आगे चल कर वे अच्छे जीवनसाथी बनते हैं. कई बार नहीं भी बनते. पर यह उन का निजी निर्णय होता है,’’ केट ने संक्षिप्त शब्दों में बीजी को विदेश में रह रहे लोगों की जिंदगी के एक महत्त्वपूर्ण पहलू से अवगत करा दिया. बीजी को यह बात पसंद नहीं आई मगर वे चुप रह गईं.

परंतु अपने स्कूल जाने को तैयार अनीटा ने उन की सारी बातें सुन लीं. वह सामने आई और उन्हें देख मुंह बिचकाती हुई अपने विद्यालय चली गई. जाते हुए जोर से बोली, ‘‘मौम, आज शाम मुझे देर हो जाएगी. मैं अपने बौयफ्रैंड के साथ एक पार्टी में जाऊंगी, मेरी प्रतीक्षा मत करना.’’

वहां के अखबार से दारजी बीजी को खबरें पढ़, अनुवादित कर सुनाते जिस से उन्हें पता चलता कि ब्रितानियों में सब से अधिक बाल अवसाद, किशोरावस्था में गर्भ, बच्चों में बढ़ती हिंसात्मक प्रवृत्ति, असामाजिक व्यवहार तथा किशोरावस्था में शराब की लत जैसी परेशानियां हो रही हैं. कारण भी सामने थे- अभिभावकों की ओर से रोकटोक की कमी. मातापिता भी मानो ‘अधिकार’ और ‘आधिकारिक’ शब्दों के अर्थों का अंतर समझना भूल चुके थे.

एक सुबह सतविंदर भी वहीं बैठा उन दोनों की यह गुफ्तगू सुन रहा था.

‘‘दारजी, यहां आप बच्चों को सिर्फ मुंहजबानी समझा सकते हैं, समझ गए तो बढि़या वरना आप का कोई जोर नहीं. यहां कोई जोरजबरदस्ती नहीं चलती. आप बच्चे को गाल पर तो क्या पीठ पर धौल भी नहीं जमा सकते, यह अपराध है. मैं आप को एक सच्चा किस्सा सुनाता हूं, मेरा एक मुलाजिम है जिस का छोटा बेटा बिना देखे सड़क पर दौड़ गया. पीछे से आती कार से टक्कर हो गई. घबराया हुआ वह बच्चे को अस्पताल ले कर भागा. अच्छा हुआ कि अधिक चोट नहीं आई थी. बस, धक्के के कारण वह बेहोश हो गया था. खैर, सब ठीक हो गया. फिर कुछ दिनों बाद वह बच्चा एक दिन अचानक दोबारा सड़क पर बिना देखे दौड़ लिया.

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