गर्भ की दुनिया: गर्भवती होने के बाद वृंदा के साथ क्या हुआ

‘‘वृंदा गर्भ में शिशु का आना अगर कुदरत की कृपा है तो उस की देखभाल करना मातापिता का परम कर्तव्य सम झी,’’ अहिल्या देवी ने सम झाते हुए अपनी बेटी वृंदा से कहा.

वृंदा अपने उभरे हुए पेट को आंचल से ढकते हुए प्रतिउत्तर में इतना ही कह पाई, ‘‘दरअसल, पेट के अंदर गर्भाशय के आसपास बड़ी आंत, छोटी आंत एवं

किडनियां होती हैं. ऐसे में मान के चलिए वे सभी आपस में पड़ोसियों की तरह रहते हैं एवं अपना दुखसुख बांटते हैं.’’

गर्भ में पल रहा शिशु मांबेटी की सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था.

‘‘बड़ी आंत दीदी, यह वृंदा कौन है?’’ गर्भाशय में पल रहे शिशु ने अपनी पड़ोसिन बड़ी आंत से पूछा.

‘‘बुद्धू, वृंदा तुम्हारी मां का नाम है,’’ बड़ी आंत ने इठलाते हुए कहा.

‘‘अभी बुलाने से कुछ नहीं होगा ,जब तुम बाहर निकलोगी तब वह सुनेगी,’’ छोटी आंत ने बीच में ही टोका.

‘‘बाहर कब निकलूंगा?’’ शिशु ने फिर पूछा.

‘‘और 3 महीने के बाद,’’ दोनों आंतों ने एकसाथ कहा.

रसोई में मेथी का साग पक रहा

था जिस की महक से वृंदा को उलटी

आने लगी.

‘‘कोई मु झे ऊपर खींच रहा है… मु झे बचाओ छोटी आंत दीदी, बड़ी आंत दीदी बचाओ,’’ शिशु छटपटाने लगा.

‘‘लो कर लो बात हम तो खुद ही परेशान रहते हैं तुम्हारी वजह से. हम क्या बचाएं तुम्हें. तुम्हारी वजह से तुम्हारी मां कभी खट्टा खाती है तो कभी मीठा और

कभी तीखी मिर्ची.’’

‘‘खट्टामीठा तक तो ठीक लेकिन उफ यह मिर्ची तो दम निकल देती है,’’ बड़ी आंत ने शिकायत करते हुए कहा.

जैसे ही उलटियां खत्म हुईं, ‘‘अब जा कर कहीं जान में जान आई,’’ शिशु ने राहत की सांस ली.

‘‘दीदी, सुना आप लोगों ने… कुछ सुरीला सा सुनाई दे रहा है मु झे, बहुत अच्छा लग रहा है.’’

‘‘तुम सुनो हम तो यह सब सुनते ही रहते हैं हमेशा,’’ छोटी आंत ने इठलाते हुए कहा.

‘‘यह मंदिर की घंटी की आवाज है तुम्हारी मां तुम्हारे लिए भगवानजी से प्रार्थना कर रही होगी,’’ बड़ी आंत ने कहा.

‘‘प्रार्थना क्या होती है,’’ शिशु ने जानना चाहा.

‘‘बुद्धू, कुछ नहीं जानता,’’ शिशु द्वारा बारबार प्रश्न पूछे जाने से तंग आ कर किडनी ने कहा जिसे मुश्किल से आराम करने का मौका मिला था.

‘‘मैं जानता नहीं… जानती हूं,’’ शिशु ने गरदन टेढ़ी कर जवाब दिया.

‘‘तुम्हारी मां तुम्हारी सलामती के लिए भगवानजी से प्रार्थना कर रही होगी,’’ बड़ी आंत ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘मैं तो सही से ही हूं मु झे क्या हुआ है,’’ शिशु ने अंगड़ाई लेते हुए कहा.

तभी वृंदा ने डाक्टर द्वारा दी गई विटामिन की गोलियां खाईं.

‘‘आ छि:.. छि:… मां ने क्या खाया पता नहीं मु झे तो बहुत कड़वी लगी,’’ शिशु ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘दवाइयां खाई होंगी तभी तो तुम स्वस्थ और तंदुरुस्त रहोगे,’’ किडनी ने सफाई का काम करते हुए कहा.

‘‘उफ, मु झे सांस लेने में दिक्कत हो रही है,’’ शिशु ने शोर मचाया.

‘‘अरे बावले, वह कोई काम कर रही होगी जिस में उन को मेहनत लग रही होगी इसीलिए ऐसा हो रहा है तुम चिंता मत करो,’’ छोटी आंत ने अपना दिमाग

लगाया.

वृंदा रोज रात को केसर वाला दूध पीती थी ताकि उस का बच्चा सुंदर और स्वस्थ पैदा हो.

‘‘रोज रात को जो मां पीती है न वह मु झे बहुत अच्छा लगता है,’’ शिशु ने होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा.

छोटी आंत बड़ी आंत दोनों हंसने लगीं.

‘‘हां, वह तो हमें भी अच्छा लगता है और हमें ही क्यों किडनी दोनों जुड़वां भाइयों को भी अच्छा लगता है. दूध पीने से शरीर स्वस्थ और पाचनतंत्र भी ठीकठाक

रहता है. तभी तो हम दूध को बैलेंस डाइट कहते हैं यानी संतुलित आहार.’’

‘‘वाह… वाह… आज तो मेरी पड़ोसिन बड़े ज्ञान की बातें कह रही हैं,’’ दाईं किडनी ने जो छोटी आंत की प्रशंसक थी ने मुसकराते हुए कहा.

रविवार का दिन था. वृंदा के पति मोहन ने टीवी पर डरावनी फिल्म चला रखी थी जिसे देख वृंदा बारबार डर रही थी, जिस का असर शिशु पर हो रहा था. बच्चा

सहम कर शांत हो गया.

थोड़ी देर बाद बड़बड़ाने लगा, ‘‘यह किस की हथेली का स्पर्श है… यह स्पर्श तो

थोड़ा अलग है मां जैसा कोमल नहीं है.’’

‘‘यह अवश्य तुम्हारे पिता होंगे.’’

‘‘अच्छा हां पहले भी कई बार इस स्पर्श को मैं ने महसूस किया है,’’ शिशू मुसकराने लगा है और हाथपैर चलाने लगा, जिसे महसूस कर वृंदा मोहन की हथेली

पकड़ कर पेट पर यहांवहां रखने लगी.

‘‘बेबी किकिंग, किकिंग,’’ बोल कर दोनों हंसने लगे.

थोड़ी देर बाद.

‘‘इतना शोर तो कभी नहीं होता है आज क्या हो गया है,’’ शिशु ने सहमते हुए कहा.

‘‘मु झे भूख लगी है. लगता है कई दिन से मां ने खाना नहीं खाया.’’

‘‘सही कह रहे हो शायद तुम्हारी मां किसी बात से दुखी है.’’

‘‘यह दुख क्या होता है दीदी?’’

‘‘दुख, दुख का मतलब अब इसे कैसे सम झाऊं,’’ छोटी आंत ने हैरान होते हुए कहा.

‘‘देखो जब तुम्हारी मां कड़वी दवाई पीती है तुम कैसा मुंह बना लेते हो, उदास हो जाते हो वही दुख है और जब तुम्हारी मां मीठा दूध पीती है तब तुम कितने

खुश हो जाते हो वही खुशी है. जब तुम बाहर निकलोगे तो और भी कई बातों का ज्ञान होगा तुम्हें,’’ बड़ी आंत ने बाखूबी मोरचा संभाला.

‘‘बाहर की दुनिया तो हम ने कभी नहीं देखी. हम तो हमेशा ही इस कोठरी में बंद रहते हैं लेकिन तुम तो नसीब वाला हो तुम्हें बाहर जाने का मौका मिलेगा…’’

‘‘हमें भूल मत जाना,’’ दोनों किडनियों ने एकसाथ कहा.

‘‘नहीं भूलूंगा,’’ शिशु ने आश्वासन दिया और सोने की कोशिश करने लगा.

‘‘मां इतनी तेज क्यों चल रही हो… मैं… मैं गिर जाऊंगा न.’’

और तभी बाहर में…

‘‘वृंदा, तुम्हें कई बार कहा है मु झे गंदे कपड़े पसंद नहीं. देखो मेरे सारे कपड़े गंदे पड़े हैं. क्या पहन कर मैं आफिस जाऊं बताओ?’’ मोहन ने चिल्लाते हुए

कहा.

‘‘कल तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही थी इसीलिए नहीं धो पाई लाइए आज धो देती हूं.’’

‘‘बस बस तुम्हें तो बहाना चाहिए, तुम औरतों को केवल बहाना चाहिए. बहाना काम से छुट्टी मिलने का वरना 4 कपड़े धोने में क्या जाता है? बच्चा तो अभी

पेट में है तब तुम्हारे इतने नखरे हैं. बाहर आ जाए तो पता नहीं,’’ मोहन ने गुस्से से लाल होते हुए कहा.

वृंदा रोतेरोते कपड़े उठा कर जाने लगी.

‘‘बसबस रहने दो,’’ कहते हुए मोहन ने धक्का दे दिया, वृंदा लड़खड़ा कर गिर पड़ी.

गिरते वक्त उस का पेट ड्रैसिंग टेबल के कोने से टकराया जोर से चीख निकल गई और वृंदा बेहोश हो गई.

वृंदा को इस हालत में देख मोहन का गुस्सा छूमंतर हो गया. गले में घिघी बंध गई.

ओह, ‘‘सौरी वृंदा सौरी.’’

‘‘मैं भी कितना बेवकूफ हूं, छोटी सी बात को इतना बड़ा कर दिया,’’ मोहन बेहोश वृंदा को होश में लाने की कोशिश करते हुए बोला.

‘‘मां, मां, देखो वृंदा को क्या हो गया?’’ मोहन लगभग रोते हुए बोला.

तब तक अंदर बच्ची निस्तब्ध हो चुकी थी.

‘‘बड़ी दीदी, देखो न इस में कितनी देर से कुछ हलचल नहीं हुई,’’ छोटी आंत ने परेशान होते हुए कहा.

‘‘कोई न, सो रही होगी.’’

‘‘नहीं जीजी सोती भी है न तो करवट बदलती रहती है. मैं ने कई बार देखा है. देखो न जीजी देखो न.’’

‘‘अरे हां, क्या हुआ इसे. किसी अनहोनी की आशंका से दोनों सहम जाती हैं. बेहोश वृंदा को हौस्पिटल ले जाया गया. वस्तुस्थिति जान कर डाक्टर ने गुस्सैल

निगाह से मोहन की ओर देखा.’’

‘‘सिस्टर, पेशेंट को इमरजेंसी वार्ड में ले चलो,’’ डाक्टर ने चीखते हुए कहा.

‘‘ठीक तो हो जाएगा न मेरा बच्चा सही सलामत तो होगा न,’’ मोहन ने गिड़गिड़ाते हुए डाक्टर से पूछा.

डाक्टर ने उस की एक न सुनी और भागते हुए इमरजेंसी वार्ड में पहुंची.

बच्चा अंदर में निस्तेज पड़ा हुआ था किसी प्रकार की कोई हलचल न थी. काफी कोशिश करने के बाद वृंदा को होश आया.

‘‘मेरे बच्चे को बचा लीजिए मेरे बच्चे को बचा…’’ वृंदा इतना बोल कर रोने लगी.

‘‘हम कोशिश कर रहे हैं. हम अपनी

पूरी कोशिश कर रहे हैं. तुम बस अच्छा सोचो, तुम्हारे अच्छा सोचने से बच्चे पर अच्छा असर पड़ेगा. तुम्हारे पेट में चोट लगने की वजह से बच्चा अपने जगह से

अलग हो चुका है, इनफैक्ट उल्टा हो चुका है,’’ डाक्टर ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘अब क्या होगा?’’ पतिपत्नी ने एकसाथ कहा.

‘‘देखती हूं कुछ सीनियर डाक्टर आ रहे हैं. हो सकता है हमें आज ही बच्चे को बाहर निकालना पड़े या हो सकता है स्थिति सामान्य

हो जाए.’’

अल्ट्रासाउंड कर बच्चे की स्थिति देखी गई. उचित

उपचार हुआ और बच्चे के दिल की धड़कने सुनाई देने लगी.

‘‘जीजी देखो न मुन्नी वापस आ गया गई,’’ छोटी आंत जो बारबार उसे निहार रही थी खुश हो कर बोली.

‘‘कुछ बोलती क्यों नहीं? क्या हुआ था तु झे,’’ बड़ी आंत ने दुलारते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं, किसी ने मु झे जोर से धक्का दे दिया और उस के बाद क्या हुआ मु झे पता नहीं,’’ शिशु ने रोआंसा होते हुए कहा.

‘‘आप को पता है उस के बाद क्या हुआ?’’ शिशु ने दोनों से पूछा.

‘‘ज्यादा कुछ तो नहीं लेकिन बस तुम एकदम शांत हो गई थी.’’

‘‘मु झे याद आ रहा है इन दिनों कई हाथों

ने मु झे अजीब तरीके से सहलाया और न जाने

मेरे ऊपर किस किस तरह की दवा लगाई गई,

तब जा कर सब ठीक हुआ,’’ शिशु ने आपबीती सुनाई.

इस घटना के बाद हर छोटेछोटे आहट पर वह सहम जाती थी, शांत हो जाती थीं और आखिर में वह दिन आया जब उसे गर्भ से बाहर निकलना था. छोटी आंत

और बड़ी आंत ने मुसकरा कर उसे विदा किया.

 

किडनी भाइयों ने, ‘‘अलविदा मेरे नन्हे दोस्त,’’ कह कर रुखसत किया.

मुन्नी अब एक नए संसार में आ चुकी थी. आज वह अपने मां के गोद में लेटी हुई थी जो चिरपरिचित थी, लेकिन जैसे ही मोहन के गोद में गई तो नैपी बदलवाने

की फरमाइश कर बैठी.

सभी ने एक साथ हंसते हुए कहा, ‘‘अब हुए असल में कपड़े गंदे.’’

कोशिशें जारी हैं: शिवानी और निया के बीच क्या था रिश्ता

‘‘पहलीबार पता चला कि निया तुम्हारी बहू है, बेटी नहीं…’’ मिथिला शिवानी से कह रही थी और शिवानी मंदमंद मुसकरा रही थी.

‘‘क्यों, ऐसा क्या फर्क होता है बेटी और बहू में? दोनों लड़कियां ही तो होती हैं. दोनों ही नौकरियां करती हैं. आधुनिक डै्रसेज पहनती हैं. आजकल यह फर्क कहां दिखता है कि बहू सिर पर पल्ला रखे और बेटी…’’

‘‘नहीं… फिर भी,’’ मिथिला उस की बात काटती हुई बोली, ‘‘बेटी, बेटी होती है और बहूबहू. हावभाव से ही पता चल जाता है. निया तुम से जैसा लाड़ लड़ाती है, छोटीछोटी बातें शेयर करती है, तुम्हारा ध्यान रखती है, वैसा तो सिर्फ बेटियां ही कर सकती हैं. तुम दोनों की ऐसी मजबूत बौंडिग देख कर तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि तुम दोनों सासबहू हो. ऐसे हंसतीखिलखिलाती हो साथ में कि कालोनी में इतने दिन तक किसी ने यह पूछने की जहमत भी नहीं उठाई कि निया तुम्हारी कौन है. बेटी ही समझा उसे.’’

‘‘ऐसा नहीं है मिथिला. यह सब सोच की बातें हैं. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर लड़कियां ठीक ही होती हैं. लेकिन जिस दिन लड़की पहला कदम घर में बहू के रूप में रखती है, रिश्ते बनाने की कोशिश उसी पल से शुरू हो जानी चाहिए, क्योंकि हम बड़े हैं, इसलिए कोशिशों की शुरूआत हमें ही करनी चाहिए और अगर उन कोशिशों को जरा भी सम्मान मिले तो कोशिशें जारी रहनी चाहिए. कभी न कभी मंजिल मिल ही जाती है. हां, यह बात अलग है कि अगर तुम्हारी कोशिशों को दूसरा तुम्हारी कमजोरी समझ रहा है तो फिर सचेत रहने की आवश्यकता भी है,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘यह तो तुम ठीक कह रही हो… पर तुम दोनों तो देखने में भी बहनों सी ही लगती है. ऐसी बौंडिग कैसे बनाई तुम ने? प्यार तो मैं भी करती हूं अपनी बहू से पर पता नहीं हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि यह रिश्ता एक तलवार की धार की तरह है. जरा सी लापरवाही दिखाई तो या तो पैर कट जाएगा या फिसल जाएगा. तुम दोनों कितने सहज और बिंदास रहते हो,’’ मिथिला अपने मन के भावों को शब्द देती हुई बोली.

‘‘बहू तो तुम्हारी भी बहुत प्यारी है मिथिला.’’

‘‘है तो,’’ मिथिला एक लंबी सांस खींच कर बोली, ‘‘पर सासबहू के रिश्ते का धागा इतना पतला होता है शिवानी कि जरा सा खींचा तो टूटने का डर, ढीला छोड़ा तो उलझने का डर. संभलसंभल कर ही कदम रखने पड़ते हैं. निश्चिंत नहीं रह सकते इस रिश्ते में.’’

‘‘हो सकता है… सब के अपनेअपने अनुभव व अपनीअपनी सोच है… निया के साथ मुझे ऐसा नहीं लगता,’’ शिवानी बात खत्म करती हुई बोली.

‘‘ठीक है शिवानी, मैं चलती हूं… कोई जरूरत हो तो बता देना. निया भी औफिस से आती ही होगी,’’ कहती हुई मिथिला चली गई. शिवानी इतनी देर बैठ कर थक गई थी, इसलिए लेट गई.

शिवानी को 15 दिन पहले बुखार ने आ घेरा था. ऐसा बुखार था कि शिवानी टूट गई थी. पूरे बदन में दर्द, तेज बुखार, उलटियां और भूख नदारद. निया ने औफिस से छुट्टी ले कर दिनरात एक कर दिया था उस की देखभाल में. उस की हालत देख कर निया की आंखें जैसे हमेशा बरसने को तैयार रहतीं. शिवानी का बेटा सुयश मर्चेंट नेवी में था. 6 महीने पहले वह अपने परिवार को इस कालोनी में शिफ्ट कर दूसरे ही दिन शिप पर चला गया था. 4 साल होने वाले थे सुयश व निया के विवाह को.

शिवानी के इतना बीमार पड़ने पर निया खुद को बहुत अकेला व असहाय महसूस कर रही थी. पति को आने के लिए कह नहीं सकती थी. वह बदहवास सी डाक्टर, दवाई और शिवानी की देखरेख में रातदिन लगी थी. इसी दौरान पड़ोसियों का घर में ज्यादा आनाजाना हुआ, जिस से उन्हें इतने महीनों में पहली बार उन दोनों के वास्तविक रिश्ते का पला चला था, क्योंकि सुयश को किसी ने देखा ही नहीं था. निया जौब करती, शिवानी घर संभालती. दोनों मांबेटी की तरह रहतीं और देखने में बहनों सी लगतीं.

निया की उम्र इस समय 30 साल थी और शिवानी की 52 साल. हर समय प्रसन्नचित, शांत हंसतीखिलखिलाती शिवानी ने जैसे अपनी उम्र 7 तालों में बंद की हुई थी. लंबी, स्मार्ट, सुगठित काया की धनी शिवानी हर तरह के कपड़े पहनती. निया भी लंबी, छरहरी, सुंदर युवती थी. दोनों कभी जींसटौप पहन कर, कभी सलवारसूट, कभी चूड़ीदार तो कभी इंडोवैस्टर्न कपड़े पहन कर इधरउधर निकल जातीं. उन के बीच के तारतम्य को देख कर किसी ने यह पूछना तो गैरवाजिब ही समझा कि निया उस की कौन है.

शिवानी लेटी हुई सोच रही थी कि कई महिलाएं यह रोना रोती हैं कि उन की बहू उन्हें नहीं समझती. लेकिन न हर बहू खराब होती है, न हर सास. फिर भी अकसर पूरे परिवार की खुशी के आधार, इस प्यारे रिश्ते के समीकरण बिगड़ क्यों जाते हैं. जबकि दोनों की जान एक ही इंसान, बेटे व पति के पास ही अटकी रहती है और उस इंसान को भी ये दोनों ही रिश्ते प्यारे होते हैं. इस एक रिश्ते की खटास बेटे का सारा जीवन डांवाडोल कर देती है, न पत्नी उसे पूरी तरह पा पाती है और न मां.

बहू जब पहला कदम घर में रखती है तो शायद हर सास यह बात भूल जाती है कि वह अब हमेशा के लिए यहीं रहने आई है, थोड़े दिनों के लिए नहीं और एक दिन उसी की तरह पुरानी हो जाएगी. आज मन मार कर अच्छीबुरी, जायजनाजायज बातों, नियमों, परंपराओं को अपनाती बहू एक दिन अपने नएपन के खोल से बाहर आ कर तुम्हारे नियमकायदे, तुम्हें ही समझाने लगेगी, तब क्या करोगे?

बेटी को तुम्हारी जो बातें नहीं माननी हैं उन्हें वह धड़ल्ले से मना कर देती है, तो चुप रहना ही पड़ता है. लेकिन अधिकतर बहुएं आज भी शुरूशुरू में मन मार कर कई नापसंद बातों को भी मान लेती हैं. लेकिन धीरेधीरे बेटे की जिंदगी की आधार स्तंभ बनने वाली उस नवयौवना से तुम्हें हार का एहसास क्यों होने लगता है कुछ समय बाद. उसी समय समेट लेना चाहिए था न सबकुछ जब बहू ने अपना पहला कदम घर के अंदर रखा था.

दोनों बांहों में क्यों न समेट लिया उस खुशी की गठरी को? तब क्यों रिश्तेदारों व पड़ोसियों की खुशी बहू की खुशी से अधिक प्यारी लगने लगी थी. बेटी या बहू का फर्क आज के जमाने में कोई खानपान या काम में नहीं करता. फर्क विचारों में आ जाता है.

बेटी की नौकरी मेहनत और बहू की नौकरी मौजमस्ती या टाइमपास, बेटी छुट्टी के दिन देर तक सोए तो आराम करने दो, बहू देर तक सोए तो पड़ोसी, रिश्तेदार क्या कहेंगे? बेटी को डांस का शौक हो और घर में घुंघरू खनकें तो कलाप्रेमी और बहू के खनकें तो घर है या कोठा? बेटी की तरह ही बहू भी नन्हीं, कोमल कली है किसी के आंगन की, जो पंख पसारे इस आंगन तक उड़ कर आ गई है.

आज पढ़लिख कर टाइमपास नौकरी करना नहीं है लड़कियों के शौक. अब लड़कियों के जीवन का मकसद है अपनी मंजिल को हर हाल में पाना. चाहे फिर उन का वह कोई शौक हो या कोई ऊंचा पद. वे सबकुछ संभाल लेंगी यदि पति व घरवाले उन का बराबरी से साथ दें, खुले आकाश में उड़ने में उन की मदद करें.

ऐसा होगा तो क्यों न होगी इस रिश्ते की मजबूत बौंडिंग. सास या बहू कोई हव्वा नहीं हैं, दोनों ही इंसान हैं. मानवीय कमजोरियों व खूबियों से युक्त एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत. शिवानी अपनी सोचों के तर्कवितर्क में गुम थी कि तभी बाहर का दरवाजा खुला, आहट से ही समझ गई शिवानी कि निया आ गई. एक अजीब तरह की खुशी बिखेर देती है यह लड़की भी घर के अंदर प्रवेश करते ही. निया लैपटौप बैग कुरसी पर पटक कर उस के कमरे में आ गई.

‘‘हाय ममा.. हाऊ यार यू…,’’ कह कर वह चहकती हुई उस से लिपट गई.

‘‘फाइन… हाऊ वाज युअर डे…’’

‘‘औसम… पर मैं ने आप को कई बार फोन किया, आप रिसीव नहीं कर रही थीं. फिर सुकरानी को फोन कर के पूछा तो उस ने बताया कि आप ठीक हैं. वह लंच दे कर चली गई थी.’’

‘‘ओह, फोन. शायद औफ हो गया है.’’ शिवानी मोबाइल उठाती हुई बोली, ‘‘चल तेरे लिए चाय बना देती हूं.’’

‘‘नहीं, चाय मैं बनाती हूं. आप अभी कमजोर हैं. थोड़े दिन और आराम कर लीजिए’’, कह कर निया 2 कप चाय बना लाई और चाय पीतेपीते दिन भर का पूरा हाल शिवानी को सुनाना शुरू कर दिया.

‘‘अच्छा अब तू फ्रैश हो जा बेटा. चेंज कर ले. सुकरानी भी आ गई. मनपसंद कुछ बनवा ले उस से.’’

‘‘ममा, सुकरानी के हाथ का खा कर तो ऊब गई हूं. आप एकदम ठीक हो जाओ. कुछ ढंग का खाना तो मिलेगा,’’ वह शिवानी की गोद में सिर रख कर लेट गई और शिवानी उस के बालों को सहलाती रही.

जब सुयश शिप पर होता था तो निया शिवानी के साथ ही सो जाती थी. खाना खा कर दिन भर की थकी हुई निया लेटते ही गहरी नींद सो गई. उस का चेहरा ममता से निहारती शिवानी फिर खयालों में डूब गई. ‘कौन कहता है कि इस रिश्ते में प्यार नहीं पनप सकता… उन दोनों का जुड़ाव तो ऐसा है कि प्यार में मांबेटी जैसा, समझदारी में सहेलियों जैसा और मानसम्मान में सासबहू जैसा.’

छत को घूरतेघूरते शिवानी अपने अतीत में उतर गई. पति की असमय मृत्यु के बाद छोटे से सुयश के साथ जिंदगी फूलों की सेज नहीं थी उस के लिए. कांटों से अपना दामन बचाते, संभालते जिंदगी अत्यंत दुष्कर लगती थी कभीकभी. वह ओएनजीसी में नौकरी करती थी. पति के रहते कई बार घर और सुयश के कारण नौकरी छोड़ देने का विचार आया. पर अब वही नौकरी उस के लिए सहारा बन गई थी. सुयश बड़ा हुआ. वह उसे मर्चेंट नेवी में नहीं भेजना चाहती थी पर सुयश को यह जौब बहुत रोमांचक लगता था. सुयश लंबे समय के लिए शिप पर चला जाता और वह अकेले दिन बिताती.

इसलिए वह सुयश पर शादी के लिए दबाव डालने लगी. तब सुयश ने निया के बारे में बताया. निया उस के दोस्त की बहन थी. निया मराठी परिवार से थी और वह हिमाचल के पहाड़ी परिवार से. सुन कर ही दिल टूट गया उस का. पता नहीं कैसी होगी? पर विद्रोह करने का मतलब इस रिश्ते में वैमनस्य का पहला बीज बोना.

उस ने कुछ भी बोलने से पहले लड़की से मिलने का मन बना लिया पर जब निया से मिली तो सारे पूर्वाग्रह जैसे समाप्त हो गए. लंबी, गोरी, छरहरी, खूबसूरत, सौम्य, चेहरे पर दिलकश मुसकान लिए निया को देख कर विवाह की जल्दी मचा डाली. निया अपने मम्मीपापा की इकलौती लाडली बेटी थी. अच्छे संस्कारों में पली लाडली बेटी को प्यार लेना और देना तो आता था पर जिम्मेदारी जैसी कोई चीज लेना आजकल की बच्चियों को नहीं आता. बिंदास तरह से पलती हैं और बिंदास तरह से रहती हैं.

और इस बात को बेटी न होते हुए भी, बेटी की मां जैसा अनुभव कर शिवानी ने निया के गृहप्रवेश करते समय ही गांठ बांध लिया. दोनों बांहों से उस ने ऐसा समेटा निया को कि उस का माइनस तो कुछ दिखा ही नहीं, बल्कि सबकुछ प्लसप्लस होता चला गया. निया देर से सो कर उठती, तो घर में काम करने वाली के पेट में भी मरोड़ होने लगती पर शिवानी के चेहरे पर शिकन न आती.

निया के कुछ कपड़े संस्कारी मन को पसंद न आते पर पड़ोसियों से ज्यादा परवाह बहूबेटे की खुशियों की रहती. उन दोनों को पसंद है, पड़ोसी दुखी होते हैं तो हो लें. कुछ महीने रह कर सुयश 6 महीने के लिए शिप पर चला गया. निया अपनी जौब छोड़ कर आई थी इसलिए वह अपने लिए नई जौब ढूंढ़ने में लगी थी. शिवानी ने सुयश के जौब में आने के बाद रिटायरमैंट ले लिया था. वह अब दौड़तीभागती जिंदगी से विराम चाहती थी. फिलहाल जो एक कोमल पौधा उस के आंगन में रोपा गया था, उसे मजबूती देना ही उस का मकसद था.

पर सुयश के शिप पर जाने के बाद निया मायके जाने के लिए कसमसाने लगी थी. शिवानी इसी सोच में थी कि अब उसे अकेले नहीं रहना पड़ेगा. पर जब निया ने कहा, ‘‘ममा, जब तक सुयश शिप में है, मैं मुंबई चली जाऊं? सुयश के आने से पहले आ जाऊंगी?’’

न चाहते हुए भी उस ने खुशीखुशी निया को मुंबई भेज दिया. यह महसूस कर कि अभी वह बिना पति के इतना लंबा वक्त उस के साथ कैसे बिताएगी. नए रिश्ते को, नए घर को अपना समझने में समय लगता है. सुयश के आने से कुछ दिन पहले ही निया वापस आई. हां, वह मुंबई से उसे फोन करती रहती और वह खुद भी उसी की तरह बिंदास हो कर बात करती. अपने जीवन में उस की खूबी को महसूस कराती. घर में उस की कमी को महसूस कराती पर अपनी तरफ से आने के लिए कभी नहीं कहती.

सुयश ने भी कुछ नहीं कहा. निया वापस आई तो शिवानी ने उसे बिछड़ी बेटी की तरह गले लगा लिया. सुयश कुछ महीने रह कर फिर शिप पर चला गया. पर इस बार निया में परिवर्तन अपनेआप ही आने लगा था. स्वभाव तो उस का प्यारा पहले से ही था पर अब वह उस के प्रति जिम्मेदारी भी महसूस करने लगी थी. इसी बीच निया को जौब मिल गई.

शिवानी खुद ही निया के रंग में रंग गई. निया ने जब पहली बार उस के लिए जींस खरीदने की पेशकश की तो उस ने ऐतराज किया, ‘‘ममा पहनिए, आप पर बहुत अच्छी लगेगी.’’

और उस के जोर देने पर वह मान गई कि बेटी भी होती तो ऐसा ही कर सकती थी. समय बीततेबीतते उन दोनों के बीच रिश्ता मजबूत होता चला गया. औपचारिकता के लिए कोई जगह ही नहीं रह गई. कोशिश तो किसी भी रिश्ते में सतत करनी पड़ती है. फिर एक समय ऐसा आता है जब उन कोशिशों को मुकाम हासिल हो जाता है.

जितना खुलापन, प्यार, अपनापन, विश्वास, उस ने शुरू में निया को दिया और उसे उसी की तरह जीने, रहने व पहनने की आजादी दी, उतना ही वह अब उस का खयाल रखने लगी थी. बेटी की तरह उस की छोटीछोटी बातें अकसर उस की आंखों में आंसू भर देती. कभी वह उस को शाल यह कह कर ओढ़ा देती, ‘‘ममा ठंड लग जाएगी.’’ कभी उस की ड्रैस बदला देती, ‘‘ममा यह पहनो. इस में आप बहुत सुंदर लगती हैं. मेरी फ्रैंड्स कहती हैं तेरी ममा तो बहुत सुंदर और स्मार्ट है.’’

निया ने ही उसे ड्राइविंग सिखाई. हर नई चीज सीखने का उत्साह जगाया. वह खुद ही पूरी तरह निया के रंग में रंग गई और अब ऐसी स्थिति आ गई थी कि दोनों एकदूसरे को पूछे बिना न कुछ करतीं, न पहनतीं. हर बात एकदूसरे को बतातीं. इतना अटूट रिश्ता तो मांबेटी के बीच भी नहीं बन पाता होगा. सोच कर शिवानी मुसकरा दी.

सोचतेसोचते शिवानी ने निया की तरफ देखा. वह गहरी नींद में थी. उस ने उस की चादर ठीक की और लाइट बंद कर खुद भी सोने का प्रयास करने लगी. दूसरे दिन रविवार था. दोनों देर से सो कर उठीं.

दैनिक कार्यक्रम से निबट कर दोनों बैडरूम में ही बैठ कर नाश्ता कर रही थीं कि उन की पड़ोसिनें मिथिला, वैशाली, मधु व सुमित्रा आ धमकीं. निया सब को नमस्ते कर के उठ गई.

‘‘अरे वाह, आओआओ… आज तो सुबहसुबह दर्शन हो गए. कहां जा रही हो चारों तैयार हो कर?’’ शिवानी मुसकरा कर नाश्ता खत्म करती हुई बोली.

‘‘हम सोच रहे थे शिवानी कि कालोनी का एक गु्रप बनाया जाए, जिस से साल में आने वाले त्योहार साथ में मनाएं मिलजुल कर,’’ मिथिला बोली.

‘‘इस से आपस में मिलनाजुलना होगा और जीवन की एकरसता भी दूर होगी,’’ वैशाली बात को आगे बढ़ाते हुए बोली.

‘‘हां और क्या… बेटेबहू तो चाहे साथ में रहें या दूर अपनेआप में ही मस्त रहते हैं. उन की जिंदगी में तो हमारे लिए कोई जगह है ही नहीं… बहू तो दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंकना चाहती है सासससुर को,’’ मधु खुद के दिल की भड़ास उगलती हुई बोली.

‘‘ऐसा नहीं है मधु… बहुएं भी आखिर बेटियां ही होती हैं. बेटियां अच्छी होती हैं फिर बहुएं होते ही वे बुरी कैसे बन जातीं हैं, मां अच्छी होती हैं फिर सास बनते ही खराब कैसे हो जाती हैं? जाहिर सी बात है कि यह रिश्ता नुक्ताचीनी से ही शुरू होता है. एकदूसरे की बुराइयों, कमियों और गलतियों पर उंगली रखने से ही शुरुआत होती है.

‘‘मांबेटी तो एकदूसरे की अच्छीबुरी आदतें व स्वभाव जानती हैं और उन्हें इस की आदत हो जाती है. वे एकदूसरे के स्वभाव को ले कर चलती हैं पर सासबहू के रूप में दोनों कुछ भी गलत सहन नहीं कर पाती हैं. आखिर इस रिश्ते को भी तो पनपने में, विकसित होने में समय लगता है. बेटी के साथ 25 साल रहे और बहू 25 साल की आई, तो कैसे बन पाएगा एक दिन में वैसा रिश्ता.’ उस रिश्ते को भी तो उतना ही समय देना पड़ेगा. कोशिशें निरंतर जारी रहनी चाहिए. एकदूसरे को सराहने की, प्यार करने की, खूबसूरत पहलुओं को देखने की,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘तुम्हें अच्छी बहू मिल गई न… इसलिए कह रही हो. हमारे जैसी मिलती तो पता चलता,’’ सुमित्रा बोली.

‘‘लेकिन बेटे की पत्नी व बहू के रूप में देखने से पहले उसे उस के स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ क्यों नहीं स्वीकार करते? उस की पहचान को प्राथमिकता क्यों नहीं देते? उस पर अपने सपने थोपने के बजाए उस के सपनों को क्यों नहीं समझते? उस के उड़ने के लिए दायरे का निर्धारण तुम मत करो. उसे खुला आकाश दो जैसे अपनी खुद की बेटी के लिए चाहते हो, उस के लिए नियम बनाने के बजाए उसे अपने जीवन के नियम खुद बनाने दो, उसे अपने रंग में रंगने के बजाए उस के रंग में रंगने की कोशिश तो करो, तुम्हें पता नहीं चलेगा, कब वह तुम्हारे रंग में रंग गई.

‘‘आखिर सभी को अपना जीवन अपने हिसाब से जीने का पूरा हक है. फिर बहू से ही शिकायतें व अपेक्षा क्यों?’’ बड़े होने के नाते आज उस की गलतसही आदतों को समाओ तो सही, कल इस रिश्ते का सुख भी मिलेगा. कोशिश तो करो. हालांकि, देर हो गई है पर कोशिश तो की जा सकती है. रिश्तों को कमाने की कोशिशें सतत जारी रहनी चाहिए सभी की तरफ से,’’ शिवानी मुसकरा कर बोली.

‘‘मैं यह नहीं कहती कि इस से हर सासबहू का रिश्ता अच्छा हो जाएगा पर हां, इतना जरूर कह सकती हूं कि हर सासबहू का रिश्ता बिगड़ेगा नहीं,’’ उस ने आगे कहा.

चारों सहेलियां विचारमग्न सी शिवानी को देख रहीं थी और बाहर से उन की बातें सुनती निया मुसकराती हुई अपने कमरे की तरफ चली गई.

तुम्हारी सास: भाग 1- क्या वह अपने बच्चे की परवरिश अकेले कर पाई?

पति विपुल की अचानक मृत्यु के गम से रेखा उभर नहीं पाई. वह डिप्रैशन में पहुंच गई. लाख कोशिश करने पर भी उठतेबैठते, खट्टीमीठी यादें उस के जेहन में उभर आतीं. विपुल के साथ गुजारे उन पलों को रेखा ने जीने का सहारा बना लिया.

रेखा को उदास देख कर मांजी को बहुत तकलीफ होती. उन की कोशिश होती कि रेखा खशु रहे. मांजी ने बहुत सम?ाने की कोशिश कर कहा, ‘‘जिस मां का जवान बेटा उस की आंखों के सामने गुजर जाए, उस मां के कलेजे से पूंछो, मु?ा पर क्या गुजरती होगी…’’ बेटे की मौत का गम कोई कम नहीं होता, मेरी आंखों के सामने मेरा जवान बेटा चला गया और मैं अभागिन बैठी रह गई. मैं किस के आगे रोऊं. मैं ने तो कलेजे पर पत्थर रख लिया, लेकिन बेटा हम दोनों एक ही नाव पर सवार हैं.’’

‘‘मांजी, विपुल अगर बीमार होते तो बात सम?ा में आती लेकिन अचानक विपुल का इस दुनिया को छोड़ कर चले जाना… न कुछ अपनी कही, न मेरी सुनी. मैं कितना अकेला महसूस कर रही हूं… कुछ कह भी नहीं पाई विपुल से.’’ ‘‘जिस के लिए तुम दुखी हो, वह मेरा भी बेटा था. एक बार मेरी तरफ देख मेरी बच्ची. वक्त हर जख्म का मरहम है. उसे जितना कुरेदोगी उतना उभर कर आएगा. शांत मन से सोच कर तो देखो. जो यादें तकलीफदेह हों,

उन्हें भूल जाना ही बेहतर है, बेटा,’’ मांजी ने रेखा के सिर पर हाथ रखा और कहा, ‘‘अब अपने बच्चे को देखो, यही हमारी दुनिया है. इस की खुशी में ही हमारी खुशी है. तुम खुश रहोगी तब ही मैं खुश रह पाऊंगी. विपुल और तुम एक ही औफिस में थे. तुम्हारे कंधों पर घर की जिम्मेदारी थी, इसलिए तुम्हें जौब छोड़नी पड़ी. अब बेटी वक्त आ गया है विपुल के छोड़े काम अब तुम्हें ही तो पूरे करने हैं. कल से तुम्हें औफिस भी जाना है. अब तुम्हें घर संभालना है… अब मैं तुम्हारी आंखों में आंसू न देखूं… चलो सोने की कोशिश करो.’’

रेखा को नींद नहीं आई. इस घर में उस की छोटी सी दुनिया थी, जो उस ने विपुल के साथ बसाई थी. विपुल के साथ लड़ना?ागड़ना, रूठनामनाना सब ही तो था. अब ये दीवारें उस के आंसुओं की गवाह हैं. यही सोचतेसोचते सारी रात पलकों में ही गुजर गई.

आज रेखा का जन्मदिन भी है. वह बिस्तर पर लेटी सोचने लगी कि अगर विपुल होते तो 4 दिन पहले से ही हंगामा हो रहा होता. पिछले साल की ही बात है. इस दिन विपुल ने घर ही सिर पर उठा लिया था. रेखारेखा करते मुंह नहीं सूखता था. उदास मन से बिस्तर छोड़ चादर की तह बनाई और फ्रैश होने चली गई. सोचा आज के दिन जल्दी नहा लेती हूं. मांजी और बबलू ने भी मेरे लिए कुछ प्लान किया होगा. नहा कर कपड़े पहन ही रही थी तो देखा ब्लाउज का हुक टूटा हुआ है. वह गाउन पहन कर मांजी के पास गई और उन के पैर छुए, मांजी ने रोज की तरह उस के सिर पर हाथ रखा, लेकिन जन्मदिन विश नहीं किया. रेखा ने मन में सोचा शायद मांजी को मेरा जन्मदिन याद नहीं रहा होगा.

आगे बढ़ कर अपने बेटे बबलू को उठाया और स्कूल जाने के लिए तैयार होने के लिए कहा, लेकिन यह क्या? बबलू ने भी उसे विश नहीं किया. किसी को याद नहीं कि आज उस का जन्मदिन है. हमेशा मांजी उस के जन्मदिन पर माथा चमूती थीं और बबलू चुम्मियां करने में कोई कसर नहीं छोड़ता था, पर आज ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. रेखा की आंखें भर आईं. वह बाथरूम में गई और चेहरे पर पानी की छींटे डाल कर अपनेआप को संभाला और औफिस जाने के लिए तैयार होने लगी. पीछे मुड़ विपुल की तसवीर को देखा तो लगा कि वे मुसकरा कर ‘आल दा बैस्ट’ कह रहे हों जैसे.

रेखा को बबलू को स्कूल बस तक छोड़ना भी था. सोचने लगी इन 3 महीनों में जिंदगी के रंग ही बदल गए. मेरे दुखसुख का साथी जिस के साथ जीनेमरने के वादे किए थे अब नहीं रहा, कैसे मैनेज होगा सबकुछ? मैनेज कर भी पाऊंगी या नहीं?

मांजी यह सब देख अपनी बहू रेखा के लिए चितिंत रहती थीं. उन की कोशिश रहती कि रेखा को किसी तरह की कोई तकलीफ न हो. वे आगे बढ़बढ़ कर उस का काम में हाथ बंटातीं. रेखा को देर होते देख, मांजी ने घड़ी की तरफ नजर की, मन में सोचा आज रेखा को इतनी देर क्यों लग रही है फिर आवाज लगाई, ‘‘अरे बहू (रेखा) क्या कर रही हो? जल्दी करो बेटा, घड़ी देखो तुम लेट हो रही हो.

बबलू की बस निकल गई तो तुम्हें स्कूल तक छोड़ना पड़ेगा.’’

रेखा ने जवाब में कहा, ‘‘बस मांजी जरा ब्लाउज में हुक टांक लूं फिर तैयार होती हूं.’’

‘‘लाओ बेटा, ब्लाउज मु?ो दे दो, हुक मैं लगा देती हूं.’’

‘‘अरे नहीं मांजी, आप मेरे ब्लाउज में हुक लगाएंगी, मु?ो अच्छा नहीं लगेगा.’’

मांजी ने फिर कहा, ‘‘इस में अच्छा नहीं लगने वाली क्या बात है बेटा? अगर मेरी जगह तुम्हारी मां होतीं तो वे भी ऐसा ही करतीं.’’

रेखा के उदास मन ने शादी के पहले की बात सोच कहा, ‘‘नहीं मांजी, ऐसा नहीं है, मेरी मां ऐसा कभी नहीं करतीं और 4 बातें मु?ो सुना देतीं, कहतीं कि बेटी तुम्हें पराए घर जाना है, अपना काम स्वयं करने की आदत डालो, ससुराल में कौन करेगा, तुम्हारी सास?’’ इतना कह हंस पड़ी.

तुम्हारी सास: भाग 2- क्या वह अपने बच्चे की परवरिश अकेले कर पाई?

‘‘परिवार में एकसाथ 3 लोगों का चले जाना मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई, उस पर बच्चे की परवरिश करना आसान नहीं था मेरे लिए.’’ दोनों ने एकदूसरे का दुख सुना और फिर मिलने का वादा किया. इस बीच दोनों बच्चों में भी दोस्ती हो गई.

बबलू ने खूब ऐंजौय किया. आज वह बहुत खुश था. कितने समय बाद उस ने बाहर का खाना खाया. आइस्क्रीम खाई और एक नया दोस्त भी बन गया. रेखा ने कहा, ‘‘चलें बेटा?’’

बबलू खुश होते हुए बोला, ‘‘हां मम्मी.’’

रेखा सुमित के बारे में सोचने लगी. उस

ने मांजी को सुमित के बारे में बताया. दोनों का दुख एक सा देख मांजी रेखा के लिए सुमित के सपने देखने लगीं. वे यह मौका खोना नहीं चाहती थीं. रेखा ने तो इसी तरह अकेले जीवन बिताने को अपनी नियति मान लिया था लेकिन मांजी ने ऐसा नहीं चाहा. बेटे विपुल को खोने के बाद बहू रेखा के लिए इस से अच्छा जीवनसाथी हो ही नहीं सकता. जातेजाते रास्ते में एक बार फिर सुमित मिल गया. मांजी से रहा नहीं गया, कह बैठीं, ‘‘बेटा, मिलते रहना, मु?ो अच्छा लगेगा. अपना फोन नंबर दे दो बेटा.’’

‘‘जी, मांजी.’’

मांजी रेखा का मन जाने बिना सुमित के सपने देखने लगीं. अब मांजी हर 2 दिन बाद किसी न किसी बहाने सुमित और उस के बेटे को  बुला लेतीं और खुश रहतीं. जैसा वह चाह रही थीं, वैसा ही हो रहा था. जिस दिन सुमित आता, मांजी दोनों को कमरे में छोड़ किसी न किसी बहाने वहां से चली जातीं.

रेखा का मन बदलने लगा. सुमित का साथ पा कर रेखा खुश रहने लगी. हर शाम सुमित का घर में इंतजार होता. सुमित परिवार का हिस्सा बनता जा रहा था. रेखा को भी सुमित का इंतजार रहता. घर में हंसी गूंजने लगी. दोनों बच्चे भी एकदूसरे के साथ खुश थे.

जिस दिन सुमित नहीं आता सब की शाम खमोशी में ही बीत जाती. न जाने क्यों रेखा भी उदास हो जाती. सब को सुमित की आदत सी पड़ गई थी. रेखा सोचती पता नहीं क्यों सुमित के आने के बाद सबकुछ कैसे बदल गया. क्यों मेरा मन बदलने लगा. लेकिन अतीत है कि पीछा ही नहीं छोड़ रहा. मेरे लिए क्या ठीक रहेगा? अतीत या वर्तमान? इसी ऊहापोह में रात गुजर जाती.

मांजी के हृदय में रेखा के लिए जो दुख था उस में सुकून था. सोचतीं जब प्यार परवाना चढ़ जाएगा तब सुमित और रेखा की कोर्ट मैरिज करेंगी. वक्त के साथसाथ एक दिन ऐसा आया भी. मांजी ने रेखा के सामने सुमित से कह डाला, ‘‘बेटा, मैं रेखा का हाथ तुम्हारे हाथों में सौंपने की सोच रही हूं… बबलू को पिता का प्यार मिल जाएगा और बेटी को मां का, तुम्हारा क्या खयाल है इस बारे में? तुम भी बच्चे के साथ अकेले हो. परेशानियां बहुत आती होंगी?’’

इतना सुनना था, रेखा बोली पड़ी, ‘‘नहीं मांजी ऐसा नहीं होगा. सुमित मेरा दोस्त है. अच्छा दोस्त है. मैं उस से हर दुख और परेशानी शेयर कर सकती हूं. लेकिन सुमित को एक पति के रूप में नहीं देख सकती. क्यों आए सुमित, तुम मेरे जीवन में? तुम ने चाहे मेरे दिल में कितनी भी जगह बना ली हो लेकिन प्रत्यक्षत: पराएपन की रेखा अभी भी उतनी ही मोटी है शायद यह कभी धुंधली भी नहीं हो पाएगी.’’

दोनों एकदूसरे को देख खामोश थे. रेखा कह बैठी, ‘‘सुमित क्या एकदूसरे का दुख बांटने के लिए पति बनना जरूरी है? हम एक अच्छे दोस्त के रूप में एकदूसरे का सहारा बन सकते हैं… क्या तुम भूल पाओगे निकिता को?’’ सुमित बिना कुछ कहे वहां से चला गया. मांजी से रहा नहीं गया. वे विचलित हो गईं. रेखा से कहा, ‘‘विधवा औरतों के लिए समाज अभिशाप है, सारा समाज जो मर्द बाहुल्य है तुम्हें एक अलग नजरिए से देखेगा. उस की गंदी नजर, गंदी हरकतें क्याक्या सहोगी? मैं ने भोगा है, इस दौर से गुजर चुकी हूं, जब अंधेरा होता है तो सवेरा भी फूटता है. परिवर्तन संसार का नियम है.’’

‘‘मांजी जिन रिश्तों में सम?ाता करना पड़े वे रिश्ते जिंदा तो रहते हैं पर उन में जिंदगी नहीं होती. बबलू, आप और मैं इस में किसी चौथे की गुंजाइश नहीं और मैं खुश हूं. यही मेरी दुनिया है. धूल लग जाए तो मिटाना आसान होता है, लेकिन जहां जंग लग जाए न तो मुश्किल.’’

मांजी की आंखों के सामने कितने चित्र बनतेबिगड़ते रहे. उन का न इक्का काम आया न दुक्का और वे हार गईं. इतना कह रेखा अपने कमरे में चली गई, अभी भी विपुल की महक से कमर भरा हुआ था. उस महक से जो रोमरोम में बसी थी. अगले दिन, स्कूल जाने के लिए रेखा ने बबलू से कहा, ‘‘जाओ नहा कर आओ.’’

बबलू नहाने के लिए बाथरूम की ओर भाग गया. कुछ देर बाद बबलू ने आवाज लगाई, ‘‘मम्मी तौलिया देना जरा. बबलू के तौलिया मांगने पर रेखा को अपनी बात याद आ गई और एक हलकी सी मुसकान उस के होंठों पर तैर गई.

मांजी यह देख पूछ बैठीं, ‘‘इस मुसकान की वजह बेटा?’’ मु?ो अपनी शादी से पहले की बात याद आ गई. मैं नहाने जा रही थी, तो तौलिया ले जाना भूल गई, नहाने के बाद मैं ने मां को आवाज लगाई, ‘‘मां, जरा तौलिया पकड़ा देना

तो मां ने तौलिया तो दे दिया लेकिन साथ में कहा कि बेटी आज तो मैं दे रही हूं, आगे से ध्यान रखना यह गल्ती दोबारा न हो… अभी से आदत डाल लो, ससुराल में ऐसा हुआ तो कौन देगा, तुम्हारी सास? लेकिन मांजी यह गल्ती एक दिन फिर हो गई. मैं ने मां को तौलिया पकड़ाने के लिए आवाज लगाई तो मां नहीं आईं. मेरे बदन का सारा पानी इंतजार में सूख गया लेकिन मां ने तौलिया नहीं दिया. मु?ो इस सास नाम ने बहुत परेशान किया.’’ मांजी हंसते हुए बोली, ‘‘अच्छा तो यह बात थी.’’

अगले दिन रेखा औफिस के लिए तैयार होने जा रही थी. कुछ देर भी हो गई थी, हड़बड़ में नहाने के लिए तौलिया ले जाना भूल गई. नहाने के बाद बाथरूम से अवाज लगाई कि विपुल जरा तौलिया दे देना. दरवाजा खोल कर हाथ बाहर निकाला, तो मांजी ने हाथ में तौलिया पकड़ा दिया.

रेखा के मुख से विपुल नाम सुन मांजी सोच बैठीं, ‘‘इन यादों पर किसी का वश नहीं.’’ उधर जैसे ही रेखा ने तौलिया पकड़ा अचानक मां के कहे शब्द उस के मानसपटल पर घूम गए कि कपड़ों के साथ तौलिया ले जाने की आदत डालो बेटी वरना ससुराल में तौलिया कौन पकड़ाएगा, तुम्हारी सास? रेखा वहीं सिर पकड़ कर बैठ गई.

मन का बोझ: भाग 1

 

कुम्हार का गधा अपनी पीठ पर बो?ा ढोता है. लेकिन पीठ से वह बो?ा उतरते ही गधा बो?ारहित हो जाता है क्योंकि वह वजनरूपी बो?ा था. मगर कुम्हार के मन का बो?ा उतरने का नाम ही नहीं लेता. लगता है वह तो उस के साथ उस की अंतिम सांस तक रहने वाला है. ऐसे ही हर आदमी अपने मन में कोई न कोई बो?ा लिए जीता है जो उस के साथ अंतकाल तक रहता है.

अभिषेक के पापा का चूडि़यों का छोटा सा बिजनैस था. उस का बड़ा भाई आशुतोष इस बिजनैस में उन का हाथ बंटाता था. अभिषेक पढ़ने में होनहार था, इसलिए यह तय हुआ कि उच्च शिक्षा के लिए उसे किसी बड़े शहर भेजा जाए.

इंटर करने के बाद अभिषेक का एडमिशन कुछ डोनेशन दे कर दक्षिण भारत के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज में करा दिया गया. अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अभिषेक को उम्मीद थी कि उसे जल्द ही कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी. मगर उस का न तो कहीं प्लेसमैंट हुआ और न ही और कहीं जल्दी नौकरी लगी.

इस समय तक आशुतोष ने अपने पापा के बिजनैस पर पूरी पकड़ बना ली थी और वह यह बिलकुल नहीं चाहता था कि अभिषेक घर वापस आ कर उस के बिजनैस में कोई दखल दे, हिस्से की बात तो बहुत दूर. अभिषेक के पापा अनुभवी थे. वे बखूबी जानते थे घरघर मटियालेचूल्हे. इसलिए उन्होंने भाइयों को आपसी अनबन से बचाने के लिए एक रिश्तेदार की सिफारिश अभिषेक से कोलकाता की एक फर्म में नौकरी पर लगवा दिया. वह खुशीखुशी कोलकाता के लिए रवाना हो गया. पापा ने चैन की सांस ली. आशुतोष तो मन ही मन खुश हो रहा था कि चलो बला टली.

अब अभिषेक के पापा बड़े गर्व से सीना तान कर कहते, ‘‘भाई, मैं तो औरतों की कलाइयों में चूडि़यां पहनातेपहनाते थक गया. लेकिन देखो, अब इस मनिहार का बेटा कोलकाता में इंजीनियर हो गया इंजीनियर.’’

अभिषेक की नौकरी लगते ही उस के लिए रिश्ते आने लगे. आशुतोष भी चाह रहा था कि जल्दी से जल्दी अभिषेक की शादी हो और वह कोलकाता में ही सैटल हो जाए ताकि वह घर की तरफ न देखे. फिर तो घर की सारी संपत्ति पर अपना ही हक.

अभिषेक के पापा आशुतोष के मनोभाव को भलीभांति सम?ाते थे. वे जानते थे कि आशुतोष अपने सगे छोटे भाई को घर की संपत्ति में से फूटी कौड़ी भी नहीं देना चाहता. वे यह भी जानते थे कि आशुतोष के सामने अब उन की अपनी कोई अहमियत नहीं रह गई है. आशुतोष ने पूरा बिजनैस अपने हाथ में ले लिया है. उस ने दुकान को आधुनिक तरीके से डैकोरेट करवा लिया था. औरतों को चूडि़यां पहनाने के लिए 2 लड़कियां रख ली थीं. बस, उन की इतनी हैसियत रह गई थी कि समय बिताने के लिए दुकान पर जा कर बैठ जाते थे और आवश्यकता पड़ने पर औरतों की कलाइयां में अभी भी चूडि़यां पहना देते थे. कभी आशुतोष को किसी काम से बाहर जाना पड़ जाता था तो उस दिन उन्हें गल्ले पर बैठ जाने का मौका भी प्राप्त हो जाता था.

उन्हीं दिनों अभिषेक के परिवार वालों को अभिषेक के लिए एक रिश्ता पसंद आ गया. लड़की वाले रुड़की के रहने वाले थे. लड़की का नाम शीतल था. वह उच्च शिक्षा प्राप्त थी. शीतल ने रुड़की विश्वविद्यालय से भौतिक विज्ञान में एमएससी कर रखी थी. वर्तमान में वह रुड़की के ही एक डिगरी कालेज में पढ़ा रही थी और शाम को कोचिंग क्लासेज भी ले रही थी. उस की आमदनी बहुत अच्छी थी. अभिषेक और शीतल ने भी एकदूसरे को पसंद कर लिया. जल्द ही दोनों की शादी हो गई.

लेकिन अभी वे हनीमून मना कर लौटे ही थे जब फर्म के मैनेजर ने एक दिन अभिषेक को अपने कैबिन में बुलाया और कहा, ‘‘अभिषेक, बड़े अफसोस के साथ आप को बताना पड़ रहा है कि आप का काम कहीं से भी संतोषजनक नहीं है. या तो आप का कालेज आप को इंजीनियरिंग की बारीकियां सिखा नहीं पाया या फिर आप नहीं सीख पाए. नियमानुसार फर्म आप को 1 महीने पहले नोटिस दे रही है, उस के बाद आप की सेवाएं समाप्त.’’

यह सुन कर अभिषेक के पैरों तले की जमीन खिसक गई. वह अपनी कमजोरी जानता था. इंजीनियरिंग की डिगरी पा लेना अलग बात है और इंजीनियरिंग के काम में माहिर होना अलग. उसे पता था कई इंजीनियरिंग कालेज केवल पैसे कमाने की मशीन बन कर रह गए हैं. वे केवल इंजीनियरिंग की डिगरियां बांटने का धंधा भर कर रहे हैं. न तो उन के पास इंजीनियरिंग के स्टूडैंट्स को पढ़ाने के लिए ढंग के टीचर हैं और न ही प्रयोगशालाओं में ढंग के उपकरण. वे हर साल न जाने कितने स्टूडैंट्स का जीवन दांव पर लगा रहे हैं.

अभिषेक ने जीवन में संघर्ष करना तो सीखा ही नहीं था. उस ने कोई और विकल्प ढूंढ़ने के बजाय अपने मातापिता की शरण ली और उन्हें सचाई से अवगत कराया. शीतल से यह बात अभिषेक और उस के परिवार वालों ने पूरी तरह छिपा कर रखी. शीतल के लाए दहेज की एक बड़ी रकम आशुतोष ने शादी में खर्च के नाम पर हड़प ली थी. अभिषेक को यह बात पसंद तो नहीं आई थी लेकिन उस की यह हिम्मत भी नहीं थी कि वह इस मसले पर कुछ बोले. अब तो बिलकुल नहीं जब उस की नौकरी जाती रही. वह पूरी तरह से अपने परिवार पर निर्भर हो गया.

 प्रमोशन: भाग 3- क्या बॉस ने सीमा का प्रमोशन किया?

शाम को घर से बाहर गए सदस्य 1-1 कर लौटने लगे. रमाकांत भी बैंक से एक मित्र के घर चले जाने के कारण शाम को ही लौटे.

सीमा से कोई भी सीधे मुंह पेश नहीं आया. उस की बात का कोईर् जवाब ठीक से नहीं दे रहा था. परेशान हो कर सीमा अपने बैडरूम में कैद हो गई.

सीमा के लिए रात का खाना तो उस की ननद व सास ने बना दिया, पर खाने का बुलावा देने उसे कोई नहीं आया. पूरे घर का माहौल मातमी हो रहा था. हरेक से डांट खा कर रोंआसा रोहित भी उस की बगल में आ लेटा.

सीमा का खाना थाली में लगा कर जब राजीव शयनकक्ष में आया तब तक रोहित सो चुका था.

‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं है,’’ उदास सीमा ने ?ाठा बहाना बना कर खाना खाने से इनकार किया तो राजीव फौरन फट पड़ा.

‘‘मेरी परेशानियों को बेकार का ड्रामा कर के बढ़ाओ मत,’’ दबे क्रोध के कारण राजीव की आवाज कांप उठी, ‘‘तुम्हारी नासम?ा के कारण उधर घर वाले मु?ा से नाराज हैं और इधर तुम मु?ो परेशान करने पर तुली हुई हो. अच्छा होता अगर मैं शादी के बाद तुम्हें नौकरी करने की इजाजत ही नहीं देता.’’

‘‘मैं ने इजाजत ले कर नहीं बल्कि आप और आप के सब घर वालों के दबाव में आ कर नौकरी करी थी. मु?ो कोई शौक नहीं था घर से बाहर निकल कर परेशान होने का,’’ सीमा का स्वर ऊंचा हो गया.

‘‘मेरे घर वालों ने आज तक हर सुखसुविधा का खयाल रखा है. गृहस्थी के सभी ?ां?ाटों से तुम नौकरीपेशा होने के कारण ही बची रही हो.’’

‘‘मैं लखपति नहीं बन गई हूं नौकरी कर के. अपने क्व4 हजार के व्यक्तिगत खर्चे को छोड़ कर सारी कमाई हर महीने मैं ने आप के पिता के हाथों में रखी है.’’

‘‘अरे, उन की जिम्मेदारियों को पूरा करने

में हम दोनों हाथ नहीं बंटाएंगे, तो कौन करेगा

यह काम?’’

‘‘लेकिन उन की जिम्मेदारियों को पूरा करने की खातिर मैं अकेलेपन, दुख और अशांति का शिकार बनने को तैयार नहीं हूं.’’

‘‘तुम से कुछ सालों के लिए सम?ादारी भरा व्यवहार करने की मैं उम्मीद भी नहीं रखता हूं अब. बस, मेरे लिए अपने स्वार्थी व्यवहार के कारण इस घर में रहना कठिन मत बनाओ.’’

‘‘मु?ो स्वार्थी कहना उलटा चोर कोतवाल को डांटने जैसा है.’’

‘‘अच्छा बाबा, हम सब चोर हैं और तुम कोतवाल,’’ राजीव ने नाटकीय अंदाज में उस के सामने जोर से हाथ जोड़े, ‘‘अब चुपचाप खाना खाओ और मेरी जान बख्शो.’’

राजीव नाराज नजर आता बाहर घूमने चला गया. सीमा 2-4 कौर से ज्यादा गले से नीचे नहीं उतार सकी. घर के किसी सदस्य के सामने पड़ने से बचने के लिए वह बचा खाना व बरतन रसोई में रखने भी नहीं गई.

राजीव ने लौट कर अपनी नाराजगी भरी खामोशी कायम रखी. दोनों आंखें मूंदे देर तक  बेचैनी से करवटें बदलते रहे.

 

रविवार का दिन शनिवार से भी बदतर गुजरा. रमाकांत ने सुबह ही सुबह

छोटे बेटे संजीव को डांटते हुए घर में हंगामा खड़ा कर दिया.

‘‘नामाकूल. लफंगे,’’ रमाकांत छोटे बेटे

पर बरसे, ‘‘अगर तू पढ़लिख कर आज अच्छी नौकरी कर रहा होता, तो मु?ो किसी के एहसान की जरूरत नहीं रहती. सिर्फ क्व14 हजार कमा

कर तू मोटरसाइकिल और कार के सपने कैसे देखता है, गधे? तू तो जिंदगीभर को दुनिया

वालों की ठोकरें खाने को तैयार होगा.’’

‘‘बड़े भैया और भाभी का गुस्सा मु?ा पर निकालते हुए मु?ो गालियां सुनाने की आप को कोई जरूरत नहीं है,’’ संजीव बुरी तरह बौखला गया, ‘‘मु?ो किसी से कुछ नहीं चाहिए. मैं अपनी जरूरतें और शौक खुद पूरे कर सकता हूं.’’

‘‘वह तो कोई भी कर सकता है पर तेरी बहन के कोटा के कोर्स और उस की शादी का क्या होगा? मैं अपना सबकुछ तुम दोनों पर खर्च कर दूंगा, तो हम बूढ़ेबुढि़या की आगे जरूर दुर्गति होगी. इस स्वार्थी संसार में किसी से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए.’’

‘‘यह डायलौग मु?ो नहीं, भैयाभाभी को सुनाओ.’’

‘‘ज्यादा बोलेगा तो जबान खींच लूंगा,’’ रमाकांत चीख पड़े.

?ागड़ा बढ़ता देख सुचित्रा बीच में बोली, तो रमाकांत उस के पीछे पड़ गए. कुछ देर बाद राजीव और सविता को भी उन्होंने लपेट लिया और खूब कड़वी चुभती बातें सभी को सुनाईं.

सीमा अपने कमरे से बाहर ही नहीं आई. उस से मिलने भी कोई नहीं अंदर आया. रोहित भी सहमासहमा सा अपनी मां के आसपास

बना रहा.

उस रात भी राजीव और सीमा 2 अजनबियों की तरह अगलबगल सोए. एकदूसरे के मनोभावों को न सम?ाने के घाव की टीस ने उन्हें देर रात तक जगाए रखा.

अगले दिन सोमवार की सुबह सीमा औफिस जाने की तैयारी करने लगी. उस दिन सविता उसे नियत समय पर बैड टी दे गई. उसे नाश्ता व लंच बौक्स भी हमेशा की तरह तैयार मिला. उस दिन बस यही अंतर था कि कोई भी उस के साथ मुसकराते हुए नहीं बोल रहा था. एक खिंचाव, एक शिकायत वह सब के हावभावों से साफ महसूस कर रही थी.

औफिस पहुंचने के कुछ देर बाद सीमा को उस के बौस जतिन ने अपने कक्ष में बुलवा लिया. प्रमोशन के बारे में ‘हां’ या ‘न’ कहने की घड़ी आ चुकी थी.

‘‘तुम्हारा सुस्त चेहरा देख कर ही मैं ने तुम्हारे निर्णय को जान लिया है. सीमा लखनऊ जाना तुम्हारे लिए कठिन होगा, मु?ो मालूम था,’’ जतिन ने सहानुभूति भरे स्वर में वार्त्तालाप आरंभ किया.

‘‘सर, मैं लखनऊ जाऊंगी,’’ सीमा ने ये शब्द कठिनाई से ही अपने गले से बाहर निकाले.

‘‘अरे, मैं तो सोच रहा था कि तुम प्रमोशन लेने से इनकार कर दोगी,’’ जतिन हैरान हो उठे.

‘‘मेरी प्रमोशन के साथसाथ मेरे पति और ससुराल वालों की भी प्रमोशन हुई है. उन सब की प्रमोशन को ‘न’ कहना मेरे लिए संभव नहीं था.’’

‘‘मैं कुछ सम?ा नहीं सीमा?’’ जतिन उल?ान का शिकार बन गए.

 

‘‘सर, प्रमोशन से मेरी पगार बढे़गी और इसी कारण उन सब की जरूरतें,

इच्छाएं और मांगें भी बढ़ कर फैल गईं. मेरे लिए प्रमोशन को न कहना संभव नहीं रहा.’’

‘‘अपने छोटे बच्चे को छोड़ कर लखनऊ

में अकेली कैसे रहोगी सीमा?’’ जतिन चिंतित नजर आए.

‘‘सर, सब के लिए मैं नोट छापने वाली मशीन हूं. मेरी अच्छी तरह से देखभाल करने की पूरी योजना उन सब ने तैयार कर रखी है. मशीन को कम काम करने या बंद होने की सुविधा नहीं होती. उस के सुखदुख को महसूस करने की शक्ति को कोई नहीं पहचानता… कोई महत्त्व नहीं देता,’’ बोलते हुए सीमा का गला भर आया.

‘‘वक्त बदल रहा है और अब शायद औरतों को पुरुषों के बराबर कष्ट ?ोलने की ताकत भी अपने अंदर पैदा करनी होगी. बैस्ट औफ लक, माई डियर. प्रमोशन स्वीकार करने के लिए मेरी शुभकामनाएं.’’

जतिन को नकली मुसकान के साथ धन्यवाद दे कर सीमा उन के कक्ष से बाहर आ गई. कैसी भी खुशी महसूस करने के बजाय उस का दिल इस वक्त जोरजोर से रोने को कर रहा था.

सोलमेट: भाग 1- शादी के बाद निकिता का प्रेमी ने उसके साथ क्या किया?

‘‘आज संडे को सुबह सवेरे ही अपने पति प्रणय को फोन में घुसे देख मैं ने उन्हें शरारतभरे अंदाज में अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘यह सुबहसुबह मोबाइल में क्या देखने लग गए तुम?’’ ‘‘अरे, कुछ नहीं, वह मेरे बौस का मैसेज है. अरजैंट मीटिंग रखी है, जाना पड़ेगा मु झे,’’ कह कर वे झटके से उठ कर बाथरूम में घुस गए. बाहर निकल कर कहने लगे कि नाश्ता नहीं करूंगा, टाइम नहीं है, इसलिए जल्दी से बस चाय बना दो. प्रणय के औफिस जाने की सुन कर वैसे ही मेरा चेहरा उतर चुका था, सो मैं भुनभुनाते हुए किचन में घुस गई. ‘‘लेकिन तुम ने तो कहा था इस संडे तुम पूरा दिन मेरे साथ बिताओगे?’’ किचन से ही पलट कर मैं ने पूछा, ‘‘कहा था न कि तुम मु झे अघोरा मौल शौपिंग कराने ले चलोगे. हम फिल्म देखेंगे, बाहर ही डिनर करेंगे यानी तुम ने सब झूठ कहा,’’ मैं ने मुंह बनाया. प्रणय हंस पड़ा, ‘‘अरे, नहीं बाबा… मैं ने तुम से कोई झूठ नहीं कहा. सच कहता हूं, मेरा भी मन था तुम्हारे साथ टाइम स्पैंड करने का.

लेकिन बौस ने अरजैंट मीटिंग रख दी तो क्या करें,’’ प्रणय ने बेचारगी दिखाते हुए कहा, तो मु झे और गुस्सा आ गया कि कैसा इंसान है यह. बोल नहीं सकता कि छुट्टी के दिन नहीं आ सकता, घर में भी काम होते हैं. ‘‘मन तो करता है तुम्हारे उस खूंसट बौस को भरभर कर गालियां दूं. अरे, खुद की बीवी तो है नहीं तो क्या जाने वह दूसरों की फिलिंग्स को. बोलते क्यों नहीं कि तुम कोई गुलाम नहीं हो उस के, जो जब बुलाए जाना पड़ेगा.’’ ‘‘गुलाम तो मैं तुम्हारा हूं माई सोलमेट. लेकिन रोटी का सवाल है न बाबा. नहीं कमाऊंगा तो खाऊंगा क्या? फिर मु झे बीवी के टुकड़ों पर पलना पड़ेगा,’’ बोल कर प्रणय हंसा.

मैं ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘ज्यादा कहानियां मत बनाओ? तुम हमेशा ऐसा करते हो. कहते हो नहीं जाऊंगा और चले जाते हो. छुट्टी का सारा मजा किरकिरा कर देते हो.’’ मेरी बात पर प्रणय ने मु झे अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘अच्छा, अब ज्यादा गुस्सा मत करो? मैं जल्द ही लौट आऊंगा. फिर तुम्हें शौपिंग कराने ले चलूंगा. हम फिल्म देखने भी चलेंगे और डिनर भी बाहर ही करेंगे, अब खुश?’’ ‘‘प्रौमिस?’’ मैं ने हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा. ‘‘पक्का प्रौमिस,’’ बोल कर प्रणय फटाफट तैयार हो कर औफिस के लिए निकल गए. गाड़ी में बैठते हुए मु झे इशारे से कहा कि मैं फोन करूंगी तो तुम तैयार रहना. प्रणय को ‘बाय’ बोल कर अभी मैं बालकनी से हाल में आई ही थी कि मेरे फोन की घंटी बजी. मु झे लगा प्रणय का ही फोन होगा. शायद वे अपना वालेट या कोई फाइल भूल गए होंगे घर पर. लेकिन फोन किसी अननोन नंबर से था.

इसी नंबर से कल भी फोन आया था मेरे फोन पर लेकिन मैं ने उठाया नहीं क्योंकि बेकार में लोग फोन करकर के कुछ भी ज्ञान बघारने लगते हैं कि आप यह स्कीम ले लो, वह लोन ले लो, बहुत फायदा है इस में वगैरहवगैरह. कैसेकैसे ठग हो गए हैं दुनिया में कि पूछो मत. फोन से ही लोगों का अकाउंट खाली कर देते हैं. अभी परसों ही मैं ने अखबार में पढ़ा था कि एक रिटायर्ड शिक्षक के फोन पर किसी अननोन नंबर से फोन आया. उस आदमी ने बताया वह बैंक से बोल रहा है क्रैडिट कार्ड संबंधी कुछ जानकारी चाहिए. शिक्षक ने जानकारी दे दी और फिर मिनटों में उस के अकाउंट से क्व85 हजार रुपए गोल हो गए. मु झे सम झ नहीं आता कि इतना ठगी के मामले सामने आने के बाद भी लोग अलर्ट क्यों नहीं हैं? उस रिटायर्ड टीचर ने अगर उसे कुछ न बताया होता, तो उस के पैसे तो बच जाते न. ठग लोग ऐसे ही होते हैं. कोई बैंकर बन कर लोगों को फंसाता है तो कोई किसी कंपनी का कस्टमर केयर अधिकारी बन कर लोगों को चुना लगा डालता है. लोगों को अपने जाल में फंसाने के इन के पास कई तरीके होते हैं

. वे कहते हैं न चोर के चौरासी बुद्धि. नयानया रास्ता खोज ही निकालते हैं ये लोगों को ठगने का. खैर, मैं तो भई सतर्क रहती हूं. खुद पर गर्व महसूस करते हुए गाना गुनगुनाते हुए किचन में अपने लिए कौफी बनाने जाने ही लगी कि मेरा फोन फिर बजा. फोन उसी नंबर से था इसलिए मैं ने इग्नोर किया. लेकिन बारबार जब उसी नंबर से फोन आने लगा तो लगा हो सकता अपने किसी पहचान वाले का ही फोन हो. इसलिए इस बार मैं ने फोन उठा लिया. अभी मैं ने ‘हैलो’ कहा ही कि सामने वाले के मुंह से अपना ‘निक नेम सुन कर मैं चौंकी क्योंकि इस नाम से मु झे 1-2 लोग ही बुलाते थे जो मेरे काफी करीब थे. ‘‘जी, कौन बोल रहे हैं आप?’’ मैं ने सवाल किया. सामने वाला आदमी हंसते हुए बोला, ‘‘तुम्हारा सोलमेट. पहचाना मु झे?’’ बोल कर वह ठहाके लगा कर जोर से हंसा. उस की हंसी सुन कर मेरे चेहरे का भाव ही बदल गया क्योंकि यह आदमी कोई और नहीं बल्कि, मेरा पुराना प्रेमी ऋतिक था. ‘‘तुम? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मु झे फोन करने की?’’ बोल कर मैं उस का फोन काटने ही लगी कि… ‘‘नहींनहीं, निक्की डियर, इस बार फोन काटने की गलती मत करना. वरना तुम सोच भी नहीं सकती मैं क्या कर सकता हूं.

वैसे तुम्हारे पति का नंबर है मेरे पास,’’ बोल कर वह फिर हंसा, तो मेरा खून खौल उठा. ‘‘चाहते क्या हो तुम?’’ मैं एकदम से चीख पड़ी. फिर सोचा कि मैं ने तो इस का नंबर ब्लौक कर दिया था. लेकिन लगता है इस बार इस ने मु झे किसी दूसरे नंबर से फोन किया और मैं पहचान न सकी, गलती हो गई मु झ से, ‘‘अब क्या चाहिए तुम्हें बोलो?’’ ‘‘पैसे वे भी पूरे क्व20 लाख,’’ बेशर्म की तरह हंसते हुए ऋतिक बोला कि पैसे के साथ वह मेरा इंतजार करेगा. उसी होटल के रूम नंबर 102 में, जहां हम अकसर मिलते थे. ‘‘क्व20 लाख? तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया? कहां से लाऊंगी मैं क्व20 लाख? औरऔर मैं क्यों आऊं तुम से मिलने?’’ ‘‘तुम्हें आना तो पड़ेगा निक्की डीयर और वे भी पूरे क्व20 लाख के साथ वरना तुम जानती हो मैं क्याक्या कर सकता हूं. न… न… मेरी बात को गीदड़ भभकी मत सम झना. सच बता रहा हूं, तुम्हारी सारी तसवीरें, जो तुम ने मेरे साथ खिंचवाई थी, फोन चैंटिंग और हां, हमारे प्राइवेट पल के वीडियोज, जो मैं ने अपने फोन में सेव कर रखे हैं प्यारीप्यारी इमोजी के साथ तुम्हारे पति के व्हाट्सऐप पर सैंड कर दूंगा.

फिर न कहना कि बताया नहीं. एक और बात, इस बार मेरे फोन को ब्लौक करने की गलती तो बिलकुल भी मत करना डियर निक्की जान,’’ बोल कर एक खतरनाक हंसी के साथ ऋतिक ने फोन रख दिया. मैं वहीं सोफे पर धम्म से बैठ गई. मेरा दिमाग सुन्न हो चुका था. कुछ सम झ नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं? कहीं सच में इस ने हमारी वे सारी तसवीरें और प्राइवेट पल के वीडियो प्रणय को भेज दिए तो क्या होगा. प्रणय तो मु झे अपनी जिंदगी से धक्के मार कर बाहर निकाल देंगे और मांपापा भी मु झे माफ नहीं करेंगे. ओह, अब क्या करूं मैं? अपना सिर पकड़ कर रो पड़ी मैं. तभी फिर मेरा फोन बजा. फोन उठाते ही मैं झल्ला पड़ी, ‘‘देखो, मैं तुम्हें आखिरी बार सम झा रही हूं. मैं सच में तुम्हारी पुलिस में कंप्लेन कर दूंगी… प्लीज, मु झे परेशान करना बंद करो.’’ ‘‘अरे, निकिता क्या हुआ तुम्हें? कौन परेशान कर रहा है मेरी जान को?’’ जब फोन पर प्रणय की आवाज सुनी तो मैं सकते में आ गई. ‘‘तुम, वह… वह मु झे लगा कि फिर… किसी कंपनी वाले ने फोन किया है,’’ मैं ने झट से बात बदली, ‘‘देखो न, ये कंपनी वाले भी न अजीब हैं. कब से फोन करकर के मु झे परेशान कर रहे हैं.’’ ‘‘अरे, तो फोन उठाओ ही मत न.

अच्छा, चलो मैं आता हूं,’’ कह कर प्रणय ने फोन रख दिया और कुछ ही समय में वह मेरे सामने थे. प्रणय को देखते ही मैं उन की बांहों में सिमट गई. मन से काफी डरी हुई थी मैं. मु झे यों अपने इतने करीब पा कर प्रणय शरारत से बोले, ‘‘क्या बात है अगर मु झे पता होता कि मेघ बरसने को तैयार हैं तो मैं औफिस जाता ही नहीं, कोई बहाना बना देता.’’ ‘‘तो बनाया क्यों नहीं?’’ मैं ने उन्हें प्यार से धक्का दिया. ‘‘पता नहीं था न कि आज तुम मूड में हो,’’ प्रणय हंसे. ‘‘ज्यादा बनो मत… और आज तो तुम्हारी कोई अरजैंट मीटिंग थी फिर इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’ मेरी बात पर प्रणय बोले कि मैं ने जो उस के बौस को भरभर गालियां दीं उन से वह डर गया. ‘‘मजाक मत करो… बोलो न जल्दी कैसे आ गए?’’ मेरी बात पर वे कहने लगे, ‘‘दरअसल, आज जिस क्लाइंड के साथ मीटिंग होने वाली थी वह किसी कारणवश आ नहीं पाया, इसलिए मीटिंग कैंसिल हो गई. ‘‘अच्छा हुआ,’’ मैं ने छुटकारे की सांस ली. ‘‘छोड़ो वे सब बातें. देखो, मैं, ‘ड्रीम गर्ल 2’ के 2 टिकट ले आया हूं. कब से तुम कह रही थी न तुम्हें ‘ड्रीम गर्ल 2’ देखनी है. चलो, अब जल्दी से तैयार हो जाओ क्योंकि 12 बजे का ‘शो’ है और 11 बजने को हैं. जाने में भी तो समय लगेगा न. अपनी कलाईघड़ी पर नजर डालते हुए प्रणय बोले. मगर अब मेरा मन फिल्म देखने का जरा भी नहीं हो रहा था. लग रहा था बस प्रणय मेरे पास ही बैठे रहें और मैं उन के कंधे पर सिर टिकाए सुकून से आंखें बंद कर सो जाऊं. ‘‘अरे, अब बैठेबैठे क्या सोचने लग गई तुम? तैयार हो जाओ भई,’’ प्रणय ने टोका तो मैं उठ कर कमरे में आ गई. अलमारी से मैरून रंग का कुरताप्लाजो निकाला, मैचिंग इयरिंग्स पहने, लिपस्टिक लगाई, बालों को खुला ही छोड़ दिया और बाहर आ गई. प्रणय ने मु झे भरपूर नजरों से देखा और मुसकरा कर बाहर निकल गए.

मैं भी दरवाजा लौक कर उन के पीछेपीछे चल पड़ी. मु झे साड़ी पहनना ज्यादा पसंद है पर उस में समय लगता है, इसलिए मैं ने कुरताप्लाजो ही पहन लिया. गाड़ी में बैठे खिड़की से बाहर झांकते हुए सोचने लगी कि अगर ऋतिक ने प्रणय को सबकुछ बता दिया तो अनर्थ हो जाएगा. नहींनहीं, ऐसा तो नहीं करेगा वह. सिर्फ मु झे डरा रहा है, लेकिन बता दिया तो क्या होगा. मेरे मन में सवालों का तांता लगा था और जवाब कुछ भी नहीं था मेरे पास. ‘‘ओ मैडमजी, आप ने क्या मु झे अपना ड्राइवर सम झ लिया है?’’ प्रणय की बातों से चौंक कर मैं उन की तरफ देखने लगी. ‘‘हां, आप से ही कह रहा हूं. पति हूं तुम्हारा, बात तो करो मु झ से. पता नहीं क्या सोच रही हो कब से.’’ ‘‘नहीं, कुछ नहीं वह बस… सम झ नहीं आ रहा था क्या कहूं मैं क्यों न कुछ दिनों की छुट्टी ले कर हम कहीं घूमने चलें?’’ ‘‘हां, जा तो सकते हैं पर अभी नहीं क्योंकि अगले महीने से मेरा औडिट शुरू होने वाला है,’’ बोल कर प्रणय ने गाड़ी घुमाई तो मु झे लगा कि वहां ऋतिक खड़ा है. ऋतिक का डर मेरे ऊपर इतना हावी हो चुका था कि हर जगह मु झे वही नजर आ रहा था.

गाड़ी पार्किंग के समय भी मु झे लगा जैसे उस की नजरें मु झ पर ही टिकी हैं. लेकिन यह मेरा भ्रम ही था शायद क्योंकि वह यहां कैसे हो सकता है. वह तो यहां से ढाईतीन हजार किलोमीटर दूर, अपने घर बिहार में रहता है, तो वह यहां कैसे हो सकता है. मैं ने अपने मन को सम झाया. लेकिन फिर लगा नहीं वह तो यहीं इसी शहर में है, तभी तो उस ने मु झे उसी होटल में मिलने बुलाया है. ओह यानी वह मेरा पीछा कर रहा है? मैं तो अब और भी डर गई कि पता नहीं कब प्रणय के सामने मेरा राज खुल जाए और मेरी गृहस्थी तितरबितर हो जाए. इसलिए मैं प्रणय से जिद करने लगी कि हम कहीं घूमने चलते ही हैं. मेरी बात पर प्रणय ने मु झे अजीब नजरों से देखा जैसे कह रहे हों कि मु झे यह अचानक क्या हो गया? क्यों मैं बच्चों की तरह जिद कर रही हूं? लेकिन मैं उन्हें क्या और कैसे बताती कि मैं यहां इस शहर से भगाना चाह रही हूं जितनी जल्दी हो सके. फिल्म अच्छी थी. प्रणय का तो हंसहंस कर पेट ही फूल गया. लेकिन मेरे चेहरे से हंसी गायब थी. मौल में भी मैं ने कुछ नहीं खरीदा, बस विंडो शौपिंग कर लौट आई. होटल में खाना भी बस जरा सा ही खाया. हमें घर आतेआते रात के 10 बज गए. मैं काफी थकी हुई महसूस कर रही थी. तन से नहीं मन से और मन से थका हुआ इंसान खुद को बहुत ही कमजोर महसूस करता है. मैं भी कर रही थी.

अंधविश्वास की बेड़ियां: पाखंड में अंधी सास को क्या हुआ बहू के दर्द का एहसास?

‘‘अरे,पता नहीं कौन सी घड़ी थी जब मैं इस मनहूस को अपने बेटे की दुलहन बना कर लाई थी. मुझे क्या पता था कि यह कमबख्त बंजर जमीन है. अरे, एक से बढ़ कर एक लड़की का रिश्ता आ रहा था. भला बताओ, 5 साल हो गए इंतजार करते हुए, बच्चा न पैदा कर सकी… बांझ कहीं की…’’ मेरी सास लगातार बड़बड़ाए जा रही थीं. उन के जहरीले शब्द पिघले शीशे की तरह मेरे कानों में पड़ रहे थे.

यह कोई पहला मौका नहीं था. उन्होंने तो शादी के दूसरे साल से ही ऐसे तानों से मेरी नाक में दम कर दिया था. सावन उन के इकलौते बेटे और मेरे पति थे. मेरे ससुर बहुत पहले गुजर गए थे. घर में पति और सास के अलावा कोई न था. मेरी सास को पोते की बहुत ख्वाहिश थी. वे चाहती थीं कि जैसे भी हो मैं उन्हें एक पोता दे दूं.

मैं 2 बार लेडी डाक्टर से अपना चैकअप करवा चुकी थी. मैं हर तरह से सेहतमंद थी. समझाबुझा कर मैं सावन को भी डाक्टर के पास ले गई थी. उन की रिपोर्ट भी बिलकुल ठीक थी.

डाक्टर ने हम दोनों को समझाया भी था, ‘‘आजकल ऐसे केस आम हैं. आप लोग बिलकुल न घबराएं. कुदरत जल्द ही आप पर मेहरबान होगी.’’

डाक्टर की ये बातें हम दोनों तो समझ चुके थे, लेकिन मेरी सास को कौन समझाता. आए दिन उन की गाज मुझ पर ही गिरती थी. उन की नजरों में मैं ही मुजरिम थी और अब तो वे यह खुलेआम कहने लगी थीं कि वे जल्द ही सावन से मेरा तलाक करवा कर उस के लिए दूसरी बीवी लाएंगी, ताकि उन के खानदान का वंश बढ़े.

उन की इन बातों से मेरा कलेजा छलनी हो जाता. ऐसे में सावन मुझे तसल्ली देते, ‘‘क्यों बेकार में परेशान होती हो? मां की तो बड़बड़ाने की आदत है.’’

‘‘आप को क्या पता, आप तो सारा दिन अपने काम पर होते हैं. वे कैसेकैसे ताने देती हैं… अब तो उन्होंने सब से यह कहना शुरू कर दिया है कि वे हमारा तलाक करवा कर आप के लिए दूसरी बीवी लाएंगी.’’

‘‘तुम चिंता न करो. मैं न तो तुम्हें तलाक दूंगा और न ही दूसरी शादी करूंगा, क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम में कोई कमी नहीं है. बस कुदरत हम पर मेहरबान नहीं है.’’

एक दिन हमारे गांव में एक बाबा आया. उस के बारे में मशहूर था कि वह बेऔलाद औरतों को एक भभूत देता, जिसे दूध में मिला कर पीने पर उन्हें औलाद हो जाती है.

मुझे ऐसी बातों पर बिलकुल यकीन नहीं था, लेकिन मेरी सास ऐसी बातों पर आंखकान बंद कर के यकीन करती थीं. उन की जिद पर मुझे उन के साथ उस बाबा (जो मेरी निगाह में ढोंगी था) के आश्रम जाना पड़ा.

बाबा 30-35 साल का हट्टाकट्टा आदमी था. मेरी सास ने उस के पांव छुए और मुझे भी उस के पांव छूने को कहा. उस ने मेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया. आशीर्वाद के बहाने उस ने मेरे सिर पर जिस तरह से हाथ फेरा, मुझे समझते देर न लगी कि ढोंगी होने के साथसाथ वह हवस का पुजारी भी है.

उस ने मेरी सास से आने का कारण पूछा. सास ने अपनी समस्या का जिक्र कुछ इस अंदाज में किया कि ढोंगी बाबा मुझे खा जाने वाली निगाहों से घूरने लगा. उस ने मेरी आंखें देखीं, फिर किसी नतीजे पर पहुंचते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी बहू पर एक चुड़ैल का साया है, जिस की वजह से इसे औलाद नहीं हो रही है. अगर वह चुड़ैल इस का पीछा छोड़ दे, तो कुछ ही दिनों में यह गर्भधारण कर लेगी. लेकिन इस के लिए आप को काली मां को खुश करना पड़ेगा.’’

‘‘काली मां कैसे खुश होंगी?’’ मेरी सास ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘तुम्हें काली मां की एक पूजा करनी होगी. इस पूजा के बाद हम तुम्हारी बहू को एक भभूत देंगे. इसे भभूत अमावास्या की रात में 12 बजे के बाद हमारे आश्रम में अकेले आ कर, अपने साथ लाए दूध में मिला कर हमारे सामने पीनी होगी, उस के बाद इस पर से चुड़ैल का साया हमेशाहमेशा के लिए दूर हो जाएगा.’’

‘‘बाबाजी, इस पूजा में कितना खर्चा आएगा?’’

‘‘ज्यादा नहीं 7-8 हजार रुपए.’’

मेरी सास ने मेरी तरफ ऐसे देखा मानो पूछ रही हों कि मैं इतनी रकम का इंतजाम कर सकती हूं? मैं ने नजरें फेर लीं और ढोंगी बाबा से पूछा, ‘‘बाबा, इस बात की क्या गारंटी है कि आप की भभूत से मुझे औलाद हो ही जाएगी?’’

ढोंगी बाबा के चेहरे पर फौरन नाखुशी के भाव आए. वह नाराजगी से बोला, ‘‘बच्ची, हम कोई दुकानदार नहीं हैं, जो अपने माल की गारंटी देता है. हम बहुत पहुंचे हुए बाबा हैं. तुम्हें अगर औलाद चाहिए, तो जैसा हम कह रहे हैं, वैसा करो वरना तुम यहां से जा सकती हो.’’

ढोंगी बाबा के रौद्र रूप धारण करने पर मेरी सास सहम गईं. फिर मुझे खा जाने वाली निगाहों से देखते हुए चापलूसी के लहजे में बाबा से बोलीं, ‘‘बाबाजी, यह नादान है. इसे आप की महिमा के बारे में कुछ पता नहीं है. आप यह बताइए कि पूजा कब करनी होगी?’’

‘‘जिस रोज अमावास्या होगी, उस रोज शाम के 7 बजे हम काली मां की पूजा करेंगे. लेकिन तुम्हें एक बात का वादा करना होगा.’’

‘‘वह क्या बाबाजी?’’

‘‘तुम्हें इस बात की खबर किसी को भी नहीं होने देनी है. यहां तक कि अपने बेटे को भी. अगर किसी को भी इस बात की भनक लग गई तो समझो…’’ उस ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

मेरी सास ने ढोंगी बाबा को फौरन यकीन दिलाया कि वे किसी को इस बात का पता नहीं चलने देंगी. उस के बाद हम घर आ गईं.

3 दिन बाद अमावास्या थी. मेरी सास ने किसी तरह पैसों का इंतजाम किया और फिर पूजा के इंतजाम में लग गईं. इस पूजा में मुझे शामिल नहीं किया गया. मुझे बस रात को उस ढोंगी बाबा के पास एक लोटे में दूध ले कर जाना था.

मैं ढोंगी बाबा की मंसा अच्छी तरह जान चुकी थी, इसलिए आधी रात होने पर मैं ने अपने कपड़ों में एक चाकू छिपाया और ढोंगी के आश्रम में पहुंच गई.

ढोंगी बाबा मुझे नशे में झूमता दिखाई दिया. उस के मुंह से शराब की बू आ रही थी. तभी उस ने मुझे वहीं बनी एक कुटिया में जाने को कहा.

मैं ने कुटिया में जाने से फौरन मना कर दिया. इस पर उस की भवें तन गईं. वह धमकी देने वाले अंदाज में बोला, ‘‘तुझे औलाद चाहिए या नहीं?’’

‘‘अपनी इज्जत का सौदा कर के मिलने वाली औलाद से मैं बेऔलाद रहना ज्यादा पसंद करूंगी,’’ मैं दृढ़ स्वर में बोली.

‘‘तू तो बहुत पहुंची हुई है. लेकिन मैं भी किसी से कम नहीं हूं. घी जब सीधी उंगली से नहीं निकलता तब मैं उंगली टेढ़ी करना भी जानता हूं,’’ कहते ही वह मुझ पर झपट पड़ा. मैं जानती थी कि वह ऐसी नीच हरकत करेगा. अत: तुरंत चाकू निकाला और उस की गरदन पर लगा कर दहाड़ी, ‘‘मैं तुम जैसे ढोंगी बाबाओं की सचाई अच्छी तरह जानती हूं. तुम भोलीभाली जनता को अपनी चिकनीचुपड़ी बातों से न केवल लूटते हो, बल्कि औरतों की इज्जत से भी खेलते हो. मैं यहां अपनी सास के कहने पर आई थी. मुझे कोई भभूत भुभूत नहीं चाहिए. मुझ पर किसी चुड़ैल का साया नहीं है. मैं ने तेरी भभूत दूध में मिला कर पी ली थी, तुझे यही बात मेरी सास से कहनी है बस. अगर तू ने ऐसा नहीं किया तो मैं तेरी जान ले लूंगी.’’

उस ने घबरा कर हां में सिर हिला दिया. तब मैं लोटे का दूध वहीं फेंक कर घर आ गई.

कुछ महीनों बाद जब मुझे उलटियां होनी शुरू हुईं, तो मेरी सास की खुशी का ठिकाना न रहा, क्योंकि वे उलटियां आने का कारण जानती थीं.

यह खबर जब मैं ने सावन को सुनाई तो वे भी बहुत खुश हुए. उस रात सावन को खुश देख कर मुझे अनोखी संतुष्टि हुई. मगर सास की अक्ल पर तरस आया, जो यह मान बैठी थीं कि मैं गर्भवती ढोंगी बाबा की भभूत की वजह से हुई हूं.

अब मेरी सास मुझे अपने साथ सुलाने लगीं. रात को जब भी मेरा पांव टेढ़ा हो जाता तो वे उसे फौरन सीधा करते हुए कहतीं कि मेरे पांव टेढ़ा करने पर जो औलाद होगी उस के अंग विकृत होंगे.

मुझे अपनी सास की अक्ल पर तरस आता, लेकिन मैं यह सोच कर चुप रहती कि उन्हें अंधविश्वास की बेडि़यों ने जकड़ा हुआ है.

एक दिन उन्होंने मुझे एक नारियल ला कर दिया और कहा कि अगर मैं इसे भगवान गणेश के सामने एक झटके से तोड़ दूंगी तो मेरे होने वाले बच्चे के गालों में गड्ढे पड़ेंगे, जिस से वह सुंदर दिखा करेगा. मैं जानती थी कि ये सब बेकार की बातें हैं, फिर भी मैं ने उन की बात मानी और नारियल एक झटके से तोड़ दिया, लेकिन इसी के साथ मेरा हाथ भी जख्मी हो गया और खून बहने लगा. लेकिन मेरी सास ने इस की जरा भी परवाह नहीं की और गणेश की पूजा में लीन हो गईं.

शाम को काम से लौटने के बाद जब सावन ने मेरे हाथ पर बंधी पट्टी देखी तो इस का कारण पूछा. तब मैं ने सारी बात बता दी.

तब वे बोले, ‘‘राधिका, तुम तो मेरी मां को अच्छी तरह से जानती हो.

वे जो ठान लेती हैं, उसे पूरा कर के ही दम लेती हैं. मैं जानता हूं कि आजकल उन की आंखों पर अंधविश्वास की पट्टी बंधी हुई है, जिस की वजह से वे ऐसे काम भी रही हैं, जो उन्हें नहीं करने चाहिए. तुम मन मार कर उन की सारी बातें मानती रहो वरना कल को कुछ ऊंचनीच हो गई तो वे तुम्हारा जीना हराम कर देंगी.’’

सावन अपनी जगह सही थे, जैसेजैसे मेरा पेट बढ़ता गया वैसेवैसे मेरी सास के अंधविश्वासों में भी इजाफा होता गया. वे कभी कहतीं कि चौराहे पर मुझे पांव नहीं रखना है.  इसीलिए किसी चौराहे पर मेरा पांव न पड़े, इस के लिए मुझे लंबा रास्ता तय करना पड़ता था. इस से मैं काफी थकावट महसूस करती थी. लेकिन अंधविश्वास की बेडि़यों में जकड़ी मेरी सास को मेरी थकावट से कोई लेनादेना न था.

8वां महीना लगने पर तो मेरी सास ने मेरा घर से निकलना ही बंद कर दिया और सख्त हिदायत दी कि मुझे न तो अपने मायके जाना है और न ही जलती होली देखनी है. उन्हीं दिनों मेरे पिताजी की तबीयत अचानक खराब हो गई. वे बेहोशी की हालत में मुझ से मिलने की गुहार लगाए जा रहे थे. लेकिन अंधविश्वास में जकड़ी मेरी सास ने मुझे मायके नहीं जाने दिया. इस से पिता के मन में हमेशा के लिए यह बात बैठ गई कि उन की बेटी उन के बीमार होने पर देखने नहीं आई.

उन्हीं दिनों होली का त्योहार था. हर साल मैं होलिका दहन करती थी, लेकिन मेरी सास ने मुझे होलिका जलाना तो दूर उसे देखने के लिए भी मना कर दिया.

मेरे बच्चा पैदा होने से कुछ दिन पहले मेरी सास मेरे लिए उसी ढोंगी बाबा की भभूत ले कर आईं और उसे मुझे दूध में मिला कर पीने के लिए कहा. मैं ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं ऐसा करूंगी तो मुझे बेटा पैदा होगा.

अपनी सास की अक्ल पर मुझे एक बार फिर तरस आया. मैं ने उन का विरोध करते हुए कहा, ‘‘मांजी, मैं ने आप की सारी बातें मानी हैं, लेकिन आप की यह बात नहीं मानूंगी.’’

‘‘क्यों?’’ सास की भवें तन गईं.

‘‘क्योंकि अगर भभूत किसी ऐसीवैसी चीज की बनी हुई होगी, तो उस का मेरे होने वाले बच्चे की सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है.’’

‘‘अरी, भूल गई तू कि इसी भभूत की वजह से तू गर्भवती हुई थी?’’

उन के लाख कहने पर भी मैं ने जब भभूत का सेवन करने से मना कर दिया तो न जाने क्या सोच कर वे चुप हो गईं.

कुछ दिनों बाद जब मेरी डिलीवरी होने वाली थी, तब मेरी सास मेरे पास आईं और बड़े प्यार से बोलीं, ‘‘बहू, देखना तुम लड़के को ही जन्म दोगी.’’

मैं ने वजह पूछी तो वे राज खोलती हुई बोलीं, ‘‘बहू, तुम ने तो बाबाजी की भभूत लेने से मना कर दिया था. लेकिन उन पहुंचे बाबाजी का कहा मैं भला कैसे टाल सकती थी, इसलिए मैं ने तुझे वह भभूत खाने में मिला कर देनी शुरू कर दी थी.’’

यह सुनते ही मेरी काटो तो खून नहीं जैसी हालत हो गई. मैं कुछ कह पाती उस से पहले ही मुझे अपनी आंखों के सामने अंधेरा छाता दिखाई देने लगा. फिर मुझे किसी चीज की सुध नहीं रही और मैं बेहोश हो गई.

होश में आने पर मुझे पता चला कि मैं ने एक मरे बच्चे को जन्म दिया था. ढोंगी बाबा ने मुझ से बदला लेने के लिए उस भभूत में संखिया जहर मिला दिया था. संखिया जहर के बारे में मैं ने सुना था कि यह जहर धीरेधीरे असर करता है. 1-2 बार बड़ों को देने पर यह कोई नुकसान नहीं पहुंचाता. लेकिन छोटे बच्चों पर यह तुरंत अपना असर दिखाता है. इसी वजह से मैं ने मरा बच्चा पैदा किया था.

तभी ढोंगी बाबा के बारे में मुझे पता चला कि वह अपना डेरा उठा कर कहीं भाग गया है.

मैं ने सावन को हकीकत से वाकिफ कराया तो उस ने अपनी मां को आड़े हाथों लिया.

तब मेरी सास पश्चात्ताप में भर कर हम दोनों से बोलीं, ‘‘बेटी, मैं तुम्हारी गुनहगार हूं. पोते की चाह में मैं ने खुद को अंधविश्वास की बेडि़यों के हवाले कर दिया था. इन बेडि़यों की वजह से मैं ने जानेअनजाने में जो गुनाह किया है, उस की सजा तुम मुझे दे सकती हो… मैं उफ तक नहीं करूंगी.’’

मैं अपनी सास को क्या सजा देती. मैं ने उन्हें अंधविश्वास को तिलांजलि देने को कहा तो वे फौरन मान गईं. इस के बाद उन्होंने अपने मन से अंधविश्वास की जहरीली बेल को कभी फूलनेफलने नहीं दिया.

1 साल बाद मैं ने फिर गर्भधारण किया और 2 स्वस्थ जुड़वा बच्चों को जन्म दिया. मेरी सास मारे खुशी के पागल हो गईं. उन्होंने सारे गांव में सब से कहा कि वे अंधविश्वास के चक्कर में न पड़ें, क्योंकि अंधविश्वास बिना मूठ की तलवार है, जो चलाने वाले को ही घायल करती है.

अधूरा सा दिल: आखिर कैसा हो गया था करुणा का मिजाज?

‘‘आप को ऐक्साइटमैंट नहीं हो रही है क्या, मम्मा? मुझे तो आजकल नींद नहीं आ रही है, आय एम सो सुपर ऐक्साइटेड,’’ आरुषि बेहद उत्साहित थी. करुणा के मन में भी हलचल थी. हां, हलचल ही सही शब्द है इस भावना हेतु, उत्साह नहीं. एक धुकुरपुकुर सी लगी थी उस के भीतर. एक साधारण मध्यवर्गीय गृहिणी, जिस ने सारी उम्र पति की एक आमदनी में अपनी गृहस्थी को सुचारु रूप से चलाने में गुजार दी हो, आज सपरिवार विदेशयात्रा पर जा रही थी.

पिछले 8 महीनों से बेटा आरव विदेश में पढ़ रहा था. जीमैट में अच्छे स्कोर लाने के फलस्वरूप उस का दाखिला स्विट्जरलैंड के ग्लायन इंस्टिट्यूट औफ हायर एजुकेशन में हो गया था. शुरू से ही आरव की इच्छा थी कि वह एक रैस्तरां खोले. स्वादिष्ठ और नएनए तरह के व्यंजन खाने का शौक सभी को होता है, आरव को तो खाना बनाने में भी आनंद आता था.

आरव जब पढ़ाई कर थक जाता और कुछ देर का ब्रेक लेता, तब रसोई में अपनी मां का हाथ बंटाने लगता, कहता, ‘खाना बनाना मेरे लिए स्ट्रैसबस्टर है, मम्मा.’ फिर आगे की योजना बनाने लगता, ‘आजकल स्टार्टअप का जमाना है. मैं अपना रैस्तरां खोलूंगा.’

ग्लायन एक ऐसा शिक्षा संस्थान है जो होटल मैनेजमैंट में एमबीए तथा एमएससी की दोहरी डिगरी देता है. साथ ही, दूसरे वर्ष में इंटर्नशिप या नौकरी दिलवा देता है. जीमैट के परिणाम आने के बाद पूरे परिवार को होटल मैनेजमैंट की अच्छी शिक्षा के लिए संस्थानों में ग्लायन ही सब से अच्छा लगा और आरव चला गया था दूर देश अपने भविष्यनिर्माण की नींव रखने.

अगले वर्ष आरव अपनी इंटर्नशिप में व्यस्त होने वाला था. सो, उस ने जिद कर पूरे परिवार से कहा कि एक बार सब आ कर यहां घूम जाओ, यह एक अलग ही दुनिया है. यहां का विकास देख आप लोग हैरान हो जाओगे. उस के कथन ने आरुषि को कुछ ज्यादा ही उत्साहित कर दिया था.

रात को भोजन करने के बाद चहलकदमी करने निकले करुणा और विरेश इसी विषय पर बात करने लगे, ‘‘ठीक कह रहा है आरव, मौका मिल रहा है तो घूम आते हैं सभी.’’

‘‘पर इतना खर्च? आप अकेले कमाने वाले, उस पर अभी आरव की पढ़ाई, आरुषि की पढ़ाई और फिर शादियां…’’ करुणा जोड़गुना कर रही थी.

‘‘रहने का इंतजाम आरव के कमरे में हो जाएगा और फिर अधिक दिनों के लिए नहीं जाएंगे. आनाजाना समेत एक हफ्ते का ट्रिप बना लेते हैं. तुम चिंता मत करो, सब हो जाएगा,’’ विरेश ने कहा.

आज सब स्विट्जरलैंड के लिए रवाना होने वाले थे. कम करतेकरते भी बहुत सारा सामान हो गया था. क्या करते, वहां गरम कपड़े पूरे चाहिए, दवा बिना डाक्टर के परचे के वहां खरीदना आसान नहीं. सो, वह रखना भी जरूरी है. फिर बेटे के लिए कुछ न कुछ बना कर ले जाने का मन है. जो भी ले जाने की इजाजत है, वही सब रखा था ताकि एयरपोर्ट पर कोई टोकाटाकी न हो और वे बिना किसी अड़चन के पहुंच जाएं.

हवाईजहाज में खिड़की वाली सीट आरुषि ने लपक ली. उस के पास वाली सीट पर बैठी करुणा अफगानिस्तान के सुदूर फैले रेतीले पहाड़मैदान देखती रही. कभी बादलों का झुरमुट आ जाता तो लगता रुई में से गुजर रहे हैं, कभी धरती के आखिर तक फैले विशाल समुद्र को देख उसे लगता, हां, वाकईर् पृथ्वी गोल है. विरेश अकसर झपकी ले रहे थे, किंतु आरुषि सीट के सामने लगी स्क्रीन पर पिक्चर देखने में मगन थी. घंटों का सफर तय कर आखिर वो अपनी मंजिल पर पहुंच गए. ग्रीन चैनल से पार होते हुए वे अपने बेटे से मिले जो उन के इंतजार में बाहर खड़ा था. पूरे 8 महीनों बाद पूरा परिवार इकट्ठा हुआ था.

आरव का इंस्टिट्यूट कैंपस देख मन खुश हो गया. ग्लायन नामक गांव के बीच में इंस्टिट्यूट की शानदार इमारत पहाड़ की चोटी पर खड़ी थी. पहाड़ के नीचे बसा था मोंट्रियू शहर जहां सैलानी सालभर कुदरती छटा बटोरने आते रहते हैं. सच, यहां कुदरत की अदा जितनी मनमोहक थी, मौसम उतना ही सुहावना. वहीं फैली थी जिनीवा झील. उस का गहरा नीला पानी शांत बह रहा था. झील के उस पार स्विस तथा फ्रांसीसी एल्प्स के पहाड़ खड़े थे. घनी, हरी चादर ओढ़े ये पहाड़, बादलों के फीते अपनी चोटियों में बांधे हुए थे. इतना खूबसूरत नजारा देख मन एकबारगी धक सा कर गया.

हलकी धूप भी खिली हुई थी पर फिर भी विरेश, करुणा और आरुषि को ठंड लग रही थी. हालांकि यहां के निवासियों के लिए अभी पूरी सर्दी शुरू होने को थी. ‘‘आप को यहां ठंड लगेगी, दिन में 4-5 और रात में 5 डिगरी तक पारा जाने लगा है,’’ आरव ने बताया. फिर वह सब को कुछ खिलाने के लिए कैफेटेरिया ले गया. फ्रैश नाम के कैफेटेरिया में लंबी व सफेद मेजों पर बड़बड़े हरे व लाल कृत्रिम सेबों से सजावट की हुई थी. भोजन कर सब कमरे में आ गए. ‘‘वाह भैया, स्विट्जरलैंड की हौट चौकलेट खा व पेय पी कर मजा आ गया,’’ आरुषि चहक कर कहने लगी.

अगली सुबह सब घूमने निकल गए. आज कुछ समय मोंट्रियू में बिताया. साफसुथरीचौड़ी सड़कें, न गाडि़यों की भीड़ और न पोंपों का शोर. सड़क के दोनों ओर मकानों व होटलों की एकसार लाइन. कहीं छोटे फौआरे तो कहीं खूबसूरत नक्काशी किए हुए मकान, जगहजगह फोटो ख्ंिचवाते सब स्टेशन पहुंच गए.

‘‘स्विट्जरलैंड आए हो तो ट्रेन में बैठना तो बनता ही है,’’ हंसते हुए आरव सब को ट्रेन में इंटरलाकेन शहर ले जा रहा था. स्टेशन पहुंचते ही आरुषि पोज देने लगी, ‘‘भैया, वो ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ वाले टे्रन पोज में मेरी फोटो खींचो न.’’ ट्रेन के अंदर प्रवेश करने पर दरवाजे खुद ही बंद हो गए. अंदर बहुत सफाई थी, आरामदेह कुशनदार सीटें थीं, किंतु यात्री एक भी न था. केवल यही परिवार पूरे कोच में बैठा था. कारण पूछने पर आरव ने बताया, ‘‘यही तो इन विकसित देशों की बात है. पूरा विकास है, किंतु भोगने के लिए लोग कम हैं.’’

रास्तेभर सब यूरोप की अनोखी वादियों के नजारे देखते आए. एकसार कटी हरी घास पूरे दिमाग में ताजा रंग भर रही थी. वादियों में दूरदूर बसा एकएक  घर, और हर घर तक पहुंचती सड़क. अकसर घरों के बाहर लकडि़यों के मोटेमोटे लट्ठों का अंबार लगा था और घर वालों की आवाजाही के लिए ट्रकनुमा गाडि़यां खड़ी थीं. ऊंचेऊंचे पहाड़ों पर गायबकरियां और भेड़ें हरीघास चर रही थीं.

यहां की गाय और भेंड़ों की सेहत देखते ही बनती है. दूर से ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने पूरे पहाड़ पर सफेद रंग के गुब्बारे बिखरा दिए हों, पर पास आने पर मालूम होता है कि ये भेंड़ें हैं जो घास चरने में मगन हैं. रास्ते में कई सुरंगें भी आईं. उन की लंबाई देख सभी हैरान रह गए. कुछ सुरंगें तो 11 किलोमीटर तक लंबी थीं.

ढाई घंटे का रेलसफर तय कर सब इंटरलाकेन पहुंचे. स्टेशन पर उतरते ही देखा कि मुख्य चौक के एक बड़े चबूतरे पर स्विस झंडे के साथ भारतीय झंडा भी लहरा रहा है. सभी के चेहरे राष्ट्रप्रेम से खिल उठे. सड़क पर आगे बढ़े तो आरव ने बताया कि यहां पार्क में बौलीवुड के एक फिल्म निर्मातानिर्देशक यश चोपड़ा की एक मूर्ति है. यश चोपड़ा को यहां का ब्रैंड ऐंबैसेडर बनाया गया था. उन्होंने यहां कई फिल्मों की शूटिंग की जिस से यहां के पर्यटन को काफी फायदा हुआ.

सड़क पर खुलेआम सैक्स शौप्स भी थीं. दुकानों के बाहर नग्न बालाओं की तसवीरें लगी थीं. परिवार साथ होने के कारण किसी ने भी उन की ओर सीधी नजर नहीं डाली, मगर तिरछी नजरों से सभी ने उस तरफ देखा. अंदर क्या था, इस का केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है. दोनों संस्कृतियों में कितना फर्क है. भारतीय संस्कृति में तो खुल कर सैक्स की बात भी नहीं कर सकते, जबकि वहां खुलेआम सैक्स शौप्स मौजूद हैं.

दोपहर में सब ने हूटर्स पब में खाना खाने का कार्यक्रम बनाया. यह पब अपनी सुंदर वेट्रैस और उन के आकर्षक नारंगी परिधानों के लिए विश्वप्रसिद्ध है. सब ने अपनीअपनी पसंद बता दी किंतु करुणा कहने लगी, ‘‘मैं ने तो नाश्ता ही इतना भरपेट किया था कि खास भूख नहीं है.’’

अगले दिन सभी गृंडेलवाल्ड शहर को निकल गए. ऐल्प्स पर्वतों की बर्फीली चोटियों में बसा, कहीं पिघली बर्फ के पानी से बनी नीली पारदर्शी झीलें तो कहीं ऊंचे ऐल्पाइन के पेड़ों से ढके पहाड़ों का मनोरम दृश्य, स्विट्जरलैंड वाकई यूरोप का अनोखा देश है.

गृंडेलवाल्ड एक बेहद शांत शहर है. सड़क के दोनों ओर दुकानें, दुकानों में सुसज्जित चमड़े की भारीभरकम जैकेट, दस्ताने, मफलर व कैप आदि. एक दुकान में तो भालू का संरक्षित शव खड़ा था. शहर में कई स्थानों पर गाय की मूर्तियां लगी हैं. सभी ने जगहजगह फोटो खिंचवाईं. फिर एक छोटे से मैदान में स्कीइंग करते पितापुत्र की मूर्ति देखी. उस के नीचे लिखा था, ‘गृंडेलवाल्ड को सर्दियों के खेल की विश्व की राजधानी कहा जाता है.’

भारत लौटने से एक दिन पहले आरव ने कोऔपरेटिव डिपार्टमैंटल स्टोर ले जा कर सभी को शौपिंग करवाई. आरुषि ने अपने और अपने मित्रों के लिए काफी सामान खरीद लिया, मसलन अपने लिए मेकअप किट व स्कार्फ, दोस्तों के लिए चौकलेट, आदि. विरेश ने अपने लिए कुछ टीशर्ट्स और दफ्तर में बांटने के लिए यहां के खास टी बिस्कुट, मफिन आदि ले लिए. करुणा ने केवल गृहस्थी में काम आने वाली चीजें लीं, जैसे आरुषि को पसंद आने वाला हौट चौकलेट पाउडर का पैकेट, यहां की प्रसिद्ध चीज का डब्बा, बढि़या क्वालिटी का मेवा, घर में आनेजाने वालों के लिए चौकलेट के पैकेट इत्यादि.

‘‘तुम ने अपने लिए तो कुछ लिया ही नहीं, लिपस्टिक या ब्लश ले लो या फिर कोई परफ्यूम,’’ विरेश के कहने पर करुणा कहने लगी, ‘‘मेरे पास सबकुछ है. अब केवल नाम के लिए क्या लूं?’’

शौपिंग में जितना मजा आता है, उतनी थकावट भी होती है. सो, सब एक कैफे की ओर चल दिए. इस बार यहां के पिज्जा खाने का प्रोग्राम था. आरव और आरुषि ने अपनी पसंद के पिज्जा और्डर कर दिए. करुणा की फिर वही घिसीपिटी प्रतिक्रिया थी कि मुझे कुछ नहीं चाहिए. शायद उसे यह आभास था कि उस की छोटीछोटी बचतों से उस की गृहस्थी थोड़ी और मजबूत हो पाएगी.

अकसर गृहिणियों को अपनी इच्छा की कटौती कर के लगता है कि उन्होंने भी बिना कमाए अपनी गृहस्थी में योगदान दिया. करुणा भी इसी मानसिकता में उलझी अकसर अपनी फरमाइशों का गला घोंटती आई थी. परंतु इस बार उस की यह बात विरेश को अखर गई. आखिर सब छुट्टी मनाने आए थे, सभी अपनी इच्छापूर्ति करने में लगे थे, तो ऐसे में केवल करुणा खुद की लगाम क्यों खींच रही है?

‘‘करुणा, हम यहां इतनी दूर जिंदगी में पहली बार सपरिवार विदेश छुट्टी मनाने आए हैं. जैसे हम सब के लिए यह एक यादगार अनुभव होगा वैसे ही तुम्हारे लिए भी होना चाहिए. मैं समझता हूं कि तुम अपनी छोटीछोटी कटौतियों से हमारी गृहस्थी का खर्च कुछ कम करना चाहती हो. पर प्लीज, ऐसा त्याग मत करो. मैं चाहता हूं कि तुम्हारी जिंदगी भी उतनी ही खुशहाल, उतनी ही आनंदमयी हो जितनी हम सब की है. हमारी गृहस्थी को केवल तुम्हारे ही त्याग की जरूरत नहीं है. अकसर अपनी इच्छाओं का गला रेतती औरतें मिजाज में कड़वी हो जाती हैं. मेरी तमन्ना है कि तुम पूरे दिल से जिंदगी को जियो. मुझे एक खुशमिजाज पत्नी चाहिए, न कि चिकचिक करती बीवी,’’ विरेश की ये बातें सीधे करुणा के दिल में दर्ज हो गईं.

‘‘ठीक ही तो कह रहे हैं,’’ अनचाहे ही उस के दिमाग में अपने परिवार की वृद्धाओं की यादें घूमने लगीं. सच, कटौती ने उन्हें चिड़चिड़ा बना छोड़ा था. फिर जब संतानें पैसों को अपनी इच्छापूर्ति में लगातीं तब वे कसमसा उठतीं

उन का जोड़ा हुआ पाईपाई पैसा ये फुजूलखर्ची में उड़ा रहे हैं. उस पर ज्यादती तो तब होती जब आगे वाली पीढि़यां पलट कर जवाब देतीं कि किस ने कहा था कटौती करने के लिए.

जिस काम में पूरा परिवार खुश हो रहा है, उस में बचत का पैबंद लगाना कहां उचित है? आज विरेश ने करुणा के दिल से कटौती और बेवजह के त्याग का भारी पत्थर सरका फेंका था.

लौटते समय भारतीय एयरपोर्ट पहुंच कर करुणा ने हौले से विरेश के कान में कहा, ‘‘सोच रही हूं ड्यूटीफ्री से एक पश्मीना शौल खरीद लूं अपने लिए.’’

‘‘ये हुई न बात,’’ विरेश के ठहाके पर आगे चल रहे दंपतियों का मुड़ कर देखना स्वाभाविक था.

कसौटी: क्यों झुक गए रीता और नमिता के सिर

मां के फोन वैसे तो संक्षिप्त ही होते थे पर इतना महत्त्वपूर्ण समाचार भी वह सिर्फ 2 मिनट में बता देंगी, मेरी कल्पना से परे ही था. ‘‘शुचिता की शादी तय हो गई है. 15 दिन बाद का मुहूर्त निकला है, तुम सब लोगों को आना है,’’ बस, इतना कह कर वह फोन रखने लगी थीं.

‘‘अरे, मां, कब रिश्ता तय किया है, कौन लोग हैं, कहां के हैं, लड़का क्या करता है?’’ मैं ने एकसाथ कई प्रश्न पूछ डाले थे. ‘‘सब ठीकठाक ही है, अब आ कर देख लेना.’’

मां और बातें करने के मूड में नहीं थीं और मैं कुछ और कहती तब तक उन्होंने फोन रख दिया था. लो, यह भी कोई बात हुई. अरे, शुचिता मेरी सगी छोटी बहन है, इतना सब जानने का हक तो मेरा बनता ही है कि कहां शादी तय हो रही है, कैसे लोग हैं. अरे, शुचि की जिंदगी का एक अहम फैसला होने जा रहा है और मुझे खबर तक नहीं. ठीक है, मां का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं रहता है, फिर शुचिता की शादी को ले कर पिछले कई सालों से परेशान हो रही हैं. पिताजी के असमय निधन से और अकेली पड़ गई हैं. भाई कोई है नहीं, हम 3 बहनें ही हैं. मैं, नमिता और शुचिता. मेरी और नमिता की शादी हुए काफी अरसा हो गया है पर पता नहीं क्यों शुचिता का हर बार रिश्ता तय होतेहोते रह जाता था. शायद इसीलिए मां इतनी शीघ्रता से यह काम निबटाना चाह रही हों.

जो भी हो, बात तो मां को पूरी बतानी थी. शाम को मैं ने फिर शुचिता से ही बात करनी चाही थी पर वह तो शुरू से वैसे भी मितभाषी ही रही है. अभी भी हां-हूं ही करती रही. ‘‘दीदी, मां ने बता तो दिया होगा सबकुछ…’’ स्वर भी उस का तटस्थ ही था.

‘‘अरे, पर तू तो पूरी बात बता न, तेरे स्वर में भी कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा है,’’ मैं तो अब झल्ला ही पड़ी थी. ‘‘उत्साह क्या, सब ठीक ही है. मां इतने दिन से परेशान थीं, मैं स्वयं भी अब उन पर बोझ बन कर उन की परेशानी और नहीं बढ़ाना चाहती. अब यह रिश्ता तो जैसे एक तरह से अपनेआप ही तय हो गया है, तो अच्छा ही होगा,’’ शुचिता ने भी जैसेतैसे बात समाप्त ही कर दी थी.

राजीव तो अपने काम में इतने व्यस्त थे कि उन को छुट्टी मिलनी मुश्किल थी. मेरा और बच्चों का रिजर्वेशन करवा दिया. मैं चाह रही थी कि 4-5 दिन पहले पहुंचूं पर मैं और नमिता दोनों ही रिजर्वेशन के कारण ठीक शादी वाले दिन ही पहुंच पाए थे. मेरी तरह नमिता भी उतनी ही उत्सुक थी यह जानने के लिए कि शुचि का रिश्ता कहां तय हुआ और इतनी जल्दी कैसे सब तय हो गया पर जो कुछ जानकारी मिली उस ने तो जैसे हमारे उत्साह पर पानी ही फेर दिया था.

जौनपुर का कोई संयुक्त परिवार था. छोटामोटा बिजनेस था. लड़का भी वही पुश्तैनी काम संभाल रहा था. उन लोगों की कोई मांग नहीं थी. लड़के की बूआ खुद आ कर शुचिता को पसंद कर गई थीं और शगुन की अंगूठी व साड़ी भी दे गई थीं.

‘‘मां,’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘जब इतने समय से रिश्ते देख रहे हैं तो और देख लेते. आप को जल्दी क्या थी. ऐसी क्या शुचि बोझ बन गई थी? अब जौनपुर जैसा छोटा सा पुराना शहर, पुराने रीतिरिवाज के लोग, संयुक्त परिवार, शुचि कैसे निभेगी उस घर में.’’ ‘‘सब निभ जाएगी,’’ मां बोलीं, ‘‘अब मेरे इस बूढ़े शरीर में इतनी ताकत नहीं बची है कि घरघर रिश्ता ढूंढ़ती रहूं. इतने बरस तो हो गए, कहीं जन्मपत्री नहीं मिलती, कहीं दहेज का चक्कर… और तुम दोनों जो इतनी मीनमेख निकाल रही हो, खुद क्यों नहीं ढूंढ़ दिया कोई अच्छा घरबार अपनी बहन के लिए.’’

मां ने तो एक तरह से मुझे और नमिता दोनों को ही डपट दिया था. यह सच भी था, हम दोनों बहनें अपनेअपने परिवार में इतनी व्यस्त हो गई थीं कि जितने प्रयास करने चाहिए थे, चाह कर भी नहीं कर पाए.

खैर, सीधेसादे समारोह के साथ शुचिता ब्याह दी गई. मैं और नमिता दोनों कुछ दिन मां के पास रुक गए थे पर हम रोज ही यह सोचते कि पता नहीं कैसे हमारी यह भोलीभाली बहन उस संयुक्त परिवार में निभेगी. हम लोग ऐसे परिवारों में कभी रहे नहीं. न ही हमें घरेलू काम करने की अधिक आदत थी. पिताजी थे तब काफी नौकरचाकर थे और अभी भी मां ने 2 काम वाली बाई लगा रखी थीं और खाना भी उन्हीं से बनवा लेती थीं.

फिर शुचि का तो स्वभाव भी सरल सा है. तेजतर्रार सास, ननदें, जेठानी सब मिल कर दबा लेंगी उसे. जब चचेरा भाई रवि विदा कराने गया तब हम लोग यही सोच कर आशंकित थे कि पता नहीं शुचि आ कर क्या हालचाल सुनाए. पर उस समय तो उस की सास ने विदा भी नहीं किया. रवि से यह कह कर कि महीने भर बाद भेजेंगी, अभी किसी बच्चे का जन्मदिन है, उसे भेज दिया था.

उधर रवि कहता जा रहा था, ‘‘दीदी, शुचि दीदी को आप ने कैसे घर में भेज दिया, वह घर क्या उन के लायक है. छोटा सा पुराने जमाने का मकान, उस में इतने सारे लोग…अब आजकल कौन बहुओं से घूंघट निकलवाता है, पर शुचि दीदी से इतना परदा करवाया कि मेरे सामने ही मुश्किल से आ पाईं. ‘‘ऊपर से सास, ननदें सब तेजतर्रार. सास ने तो एक तरह से मुझे ही झिड़क दिया कि बहू से घर का कामकाज तो होता नहीं है, इतना नाजुक बना कर रख दिया है लड़की को कि वह चार जनों का खाना तक नहीं बना सकती, पर गलती तो इस की मां की है जो कुछ सिखाया नहीं. अब हम लोग सिखाएंगे.

‘‘सच दीदी, इतनी रोबीली सास तो मैं ने पहली बार देखी.’’ रवि कहता जा रहा है और मेरा कलेजा बैठता जा रहा था कि इतने सीधेसादे ढंग से शादी की है, कहीं लालची लोग हुए तो दहेज के कारण मेरी बहन को प्रताडि़त न करें. वैसे भी दहेज को ले कर इतने किस्से तो आएदिन होते रहते हैं.

शुचि से मिलना भी नहीं हो पाया. मां से भी इस बारे में अधिक बात नहीं कर पाई. वैसे भी हृदय रोग की मरीज हैं वे.

शुचि से फोन पर कभीकभार बात होती तो जैसा उस का स्वभाव था हांहूं में ही उत्तर देती. बीच में दशहरे की छुट्टियों में फिर मां के पास जाना हुआ था. सोचा कि शायद शुचि भी आए तो उस से भी मिलना हो जाएगा पर मां ने बताया कि शुचि की सास बीमार हैं…वह आ नहीं पाएगी.

‘‘मां, इतने लोग तो हैं उस घर में फिर शुचि तो नईनवेली बहू है, क्या अब वही बची है सास की सेवा को, जो चार दिन को भी नहीं आ सकती,’’ मैं कहे बिना नहीं रह पाई थी. मुझे पता था कि उस की ननदें, जेठानी सब इतनी तेज हैं तो शुचि दब कर रह गई होगी. उधर मां कहे जा रही थीं, ‘‘सास का इलाज होना था तो पैसे की जरूरत पड़ी. शुचि ने अपने कंगन उतार कर सास के हाथ पर धर दिए…सास तो गद्गद हो गईं.’’

मैं ने माथे पर हाथ मारा. हद हो गई बेवकूफी की भी. अरे, छोटीमोटी बीमारी का तो इलाज यों ही हो जाता है फिर पुश्तैनी व्यापार है, इतने लोग हैं घर में… और सास की चतुराई देखो, जो थोड़ा- बहुत जेवर शुचि मायके से ले कर गई है उस पर भी नजरें गड़ी हैं. उधर मां कहती जा रही थीं, ‘‘अच्छा है उस घर में रचबस गई है शुचि…’’

मां भी आजकल पता नहीं किस लोक में विचरण करने लगी हैं. सारी व्यावहारिकता भूल गई हैं. शुचि के पास कुछ गहनों के अलावा और है ही क्या. मेरा तो मन ही उचट गया था. घर आ कर भी मूड उखड़ाउखड़ा ही रहा. राजीव से यह सब कहा तो उन का तो वही चिरपरिचित उत्तर था.

‘‘तुम क्यों परेशान हो रही हो. सब का अपनाअपना भाग्य है. अब शुचि के भाग्य में जौनपुर के ये लोग ही थे तो इस में तुम क्या कर सकती हो और मां से क्या उम्मीद करती हो? उन्होंने तो जैसे भी हो अपना दायित्व पूरा कर दिया.’’ फोन पर पता चला कि शुचि बीमार है, पेट में पथरी है और आपरेशन होगा. दूसरी कोई शिकायत हो सकती है तो पहले सारे टेस्ट होंगे, बनारस के एक अस्पताल में भरती है.

‘‘तुम लोग देख आना, मेरा तो जाना हो नहीं पाएगा,’’ मां ने खबर दी थी. नमिता भी छुट्टी ले कर आ गई थी. वहीं अस्पताल के पास उस ने एक होटल में कमरा बुक करा लिया था.

‘‘रीता, मैं तो 2 दिन से ज्यादा रुक नहीं पाऊंगी, बड़ी मुश्किल से आफिस से छुट्टी मिली है,’’ उस ने मिलते ही कहा था. ‘‘मैं भी कहां रुक पाऊंगी, छोटू के इम्तहान चल रहे हैं, नौकर भी आजकल बाहर गया हुआ है. बस, दिन में ही शुचि के पास बैठ लेंगे, रात को तो जगना भी मुश्किल है मेरे लिए,’’ मैं ने भी अपनी परेशानी गिना दी थी.

सवाल यह था कि यहां रुक कर शुचि की देखभाल कौन करेगा? कम से कम 10 दिन तो उसे अस्पताल में ही रहना होगा. अभी तो सारे टेस्ट होने हैं. हम दोनों शुचि को देखने जब अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि उस की दोनों ननदें आई हुई हैं. बूढ़ी सास भी उसे संभालने आ गई हैं और उन लोगों ने काटेज वार्ड के पास ही कमरा ले लिया था.

दबंग सास बड़े प्यार से शुचि के सिर पर हाथ फेर रही थीं. ‘‘फिक्र मत कर बेटी, तू जल्दी ठीक हो जाएगी, मैं हूं न तेरे पास. तेरी दोनों ननदें भी अपनी ससुराल से आ गई हैं. सब बारीबारी से तेरे पास सो जाया करेंगे. तू अकेली थोड़े ही है.’’

उधर शुचि के पति चम्मच से उसे सूप पिला रहे थे, एक ननद मुंह पोंछने का नैपकिन लिए खड़ी थी. ‘‘दीदी, कैसी हो?’’ शुचि ने हमें देख कर पूछा था. मुझे लगा कि इतनी बीमारी के बाद भी शुचि के चेहरे पर एक चमक है. शायद घरपरिवार का इतना अपनत्व पा कर वह अपनी बीमारी भूल गई है.

पर पता नहीं क्यों मेरे और नमिता के सिर कुछ झुक गए थे. कई बार इनसानों को समझने में कितनी भूल कर देते हैं हम. मैं ऐसा ही कुछ सोच रही थी.

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