एक रात की उजास : क्या उस रात बदल गई उन की जिंदगी

शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

दूरी: समाज और परस्थितियों से क्यों अनजान थी वह

लेखक- भावना सक्सेना

फरीदाबाद बसअड्डे पर बस खाली हो रही थी. जब वह बस में बैठी थी तो नहीं सोचा था कहां जाना है. बाहर अंधेरा घिर चुका था. जब तक उजाला था, कोई चिंता न थी. दोपहर से सड़कें नापती, बसों में इधरउधर घूमती रही. दिल्ली छोड़ना चाहती थी. जाना कहां है, सोचा न था. चार्ल्स डिकेन्स के डेविड कौपरफील्ड की मानिंद बस चल पड़ी थी. भूल गई थी कि वह तो सिर्फ एक कहानी थी, और उस में कुछ सचाई हो भी तो उस समय का समाज और परिस्थितियां एकदम अलग थीं.

वह सुबह स्कूल के लिए सामान्यरूप से निकली थी. पूरा दिन स्कूल में उपस्थित भी रही. अनमनी थी, उदास थी पर यों निकल जाने का कोई इरादा न था. छुट्टी के समय न जाने क्या सूझा. बस्ता पेड़ पर टांग कर गई तो थी कैंटीन से एक चिप्स का पैकेट लेने, लेकिन कैंटीन के पास वाले छोटे गेट को खुला देख कर बाहर निकल आई. खाली हाथ स्कूल के पीछे के पहाड़ी रास्ते पर आ गई. कहां जा रही है, कुछ पता न था. कुछ सोचा भी नहीं था. बारबार, बस, मां के बोल मस्तिष्क में घूम रहे थे. अंधेरा घिरने पर जी घबराने लगा था. अब कदम वापस मोड़ भी नहीं सकती थी. मां का रौद्र रूप बारबार सामने आ जाता था. उस गुस्से से बचने के लिए ही वह निकली थी. निकली भी क्या, बस यों लगा था जैसे कुछ देर के लिए सबकुछ से बहुत दूर हो जाना चाहती है, कोई बोल न पड़े कान में…

पर अब कहां जाए? उसे किसी सराय का पता न था. जो पैसे थे, उन से उस ने बस की टिकट ली थी. अंधेरे में बस से उतरने की हिम्मत न हुई. चुपचाप बैठी रही. कुछ ऐसे नीचे सरक गई कि आगे, पीछे से खड़े हो कर देखने पर किसी को दिखाई न दे. सोचा था ड्राइवर बस खड़ी कर के चला जाएगा और वह रातभर बस में सुरक्षित रह सकेगी.

बाहर हवा में खुनक थी. अंदर पेट में कुलबुलाहट थी. प्यास से होंठ सूख रहे थे. पर वह चुपचाप बैठी रही. नानीमामी बहुत याद आ रही थीं. घर से कोई भी कहीं जाता, पूड़ीसब्जी बांध कर पानी के साथ देती थीं. पर वह कहां किसी से कह कर आई थी. न घर से आई थी, न कहीं जाने को आई थी. बस, चली आई थी. किसी के बस में चढ़ने की आहट आई. उस ने अपनी आंखें कस कर भींच लीं. पदचाप बहुत करीब आ गई और फिर रुक गई. उस की सांस भी लगभग रुक गई. न आंखें खोलते बन रहा था, न बंद रखी जा रही थीं. जीवविज्ञान में जहां हृदय का स्थान बताया था वहां बहुत भारी लग रहा था. गले में कुछ आ कर फंस गया था. वह एक पल था जैसे एक सदी. अनंत सा लगा था.

‘‘कौन हो तुम? आंख खोलो,’’ कंडक्टर सामने खड़ा था, ‘‘मैं तो यों ही देखने चढ़ गया था कि किसी का सामान वगैरा तो नहीं छूट गया. तुम उतरी क्यों नहीं? जानती नहीं, यह बस आगे नहीं जाएगी.’’ उस के चेहरे का असमंजस, भय वह एक ही पल में पढ़ गया था, ‘‘कहां जाओगी?’’

उस समय, उस के मुंह से अटकते हुए निकला, ‘‘जी…जी, मैं सुबह दूसरी बस से चली जाऊंगी, मुझे रात में यहीं बैठे रहने दीजिए.’’

‘‘जाना कहां है?’’

…यह तो उसे भी नहीं पता था कि जाना कहां है.

कुछ जवाब न पा कर कंडक्टर फिर बोला, ‘‘घर कहां है?’’

यह वह बताना नहीं चाहती थी, डर था वह घर फोन करेगा और उस के आगे की तो कल्पना से ही वह घबरा गई. बस, इतना ही बोली, ‘‘मैं सुबह चली जाऊंगी.’’

‘‘तुम यहां बस में नहीं रह सकती, मुझे बस बंद कर के घर जाना है.’’

‘‘मुझे अंदर ही बंद कर दें, प्लीज.’’

‘‘अजीब लड़की हो, मैं रातभर यहां खड़ा नहीं रह सकता,’’ वह झल्ला उठा था, ‘‘मेरे साथ चलो.’’

कोई दूसरा रास्ता न था उस के पास. इसलिए न कोई प्रश्न, न डर, पीछेपीछे चल पड़ी.

बसअड्डे तक पहुंचे तो कंडक्टर ने इशारा कर एक रिकशा रुकवाया और बोला, ‘‘बैठो.’’ रिकशा तेज चलने से ठंडी हवा लगने लगी थी. कुछ हवा, कुछ अंधेरा, वह कांप गई.

उस की सिहरन को सहयात्री ने महसूस करते हुए भी अनदेखा किया और फिर एक प्रश्न उस की ओर उछाल दिया, ‘‘घर क्यों छोड़ कर आई हो?’’

‘‘मैं वहां रहना नहीं चाहती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कोई मुझे प्यार नहीं करता, मैं वहां अनचाही हूं, अवांछित हूं.’’

‘‘सुबह कहां जाओगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कहां रहोगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कोई तो होगा जो तुम्हें खोजेगा.’’

‘‘वे सब खोजेंगे.’’

‘‘फिर?’’

‘‘परेशान होंगे, और मैं यही चाहती हूं क्योंकि वे मुझे प्यार नहीं करते.’’

‘‘तुम सब से ज्यादा किसे प्यार करती हो?’’

‘‘अपनी नानी से, मैं 3 महीने की थी जब मेरी मां ने मुझे उन के पास छोड़ दिया.’’

‘‘वे कहां रहती हैं?’’

‘‘मथुरा में.’’

‘‘तो मथुरा ही चली जाओ?’’

‘‘मेरे पास टिकट के पैसे नहीं हैं.’’ अब वह लगभग रोंआसी हो उठी थी.

वह ‘हूंह’ कह कर चुप हो गया था.

हवा को चीरता मोड़ों पर घंटी टुनटुनाता रिकशा आगे बढ़ता रहा और जब एक संकरी गली में मुड़ा तो वह कसमसा गई थी. आंखें फाड़ कर देखना चाहा था घर. घुप्प अंधेरी रात में लंबी पतली गली के सिवा कुछ न दिखा था. कुछ फिल्मों के खौफनाक दृश्यों के नजारे उभर आए थे. देखी तो उस ने ‘उमराव जान’ भी थी. आवाज से उस की तंद्रा टूटी.

‘‘बस भइया, इधर ही रोकना,’’ उस ने कहा तो रिकशा रुक गया और उन के उतरते ही अपने पैसे ले कर रिकशेवाला अंधेरे को चीरता सा उसी में समा गया था. वह वहां से भाग जाना चाहती थी. कंडक्टर ने उस का हाथ पकड़ एक दरवाजे पर दस्तक दी थी. सांकल खटखटाने की आवाज सारी गली में गूंज गई थी.

भीतर से हलकी आवाज आई थी, ‘‘कौन?’’

‘‘दरवाजा खोलो, पूनम,’’ और दरवाजा खोलते ही अंदर का प्रकाश क्षीण हो सड़क पर फैल गया. उस पर नजर पड़ते ही दरवाजा खोलने वाली युवती अचकचा गई थी. एक ओर हट कर उन्हें अंदर तो आने दिया पर उस का सारा वजूद उसे बाहर धकेलरहा था. दरवाजा एक छोटे से कमरे में खुला था, ठीक सामने एक कार्निस पर 2 फूलदान सजे थे, बीच में कुछ मोहक तसवीरें. एक कोने में एक छोटा सा रैक था जिस पर कुछ डब्बे थे, कुछ कनस्तर, एक स्टोव और कुछ बरतन, सब करीने से लगे थे. एक ओर छोटा पलंग जिस पर साफ धुली चादर बिछी थी और 2 तकिए थे. चादर पर कोई सिलवट तक न थी.

कुल मिला कर कम आय में सुचारु रूप से चल रही सुघड़ गृहस्थी का आदर्श चित्र था. वह भी ऐसा ही चित्र बनाना चाहती थी. बस, अभी तक उस चित्र में वह अकेली थी. अकेली, हां यही तो वह कह रहा था. ‘‘पूनम, यह लड़की बसअड्डे पर अकेली थी. मैं साथ ले आया. सुबह बस पर बिठा दूंगा, अपनी नानी के घर मथुरा चली जाएगी.’ युवती की आंखों में शिकायत थी, गरदन की अकड़ नाराजगी दिखा रही थी. वह भी समझ रहा था और शायद स्थिति को सहज करने की गरज से बोला, ‘‘अरे, आज दोपहर से कुछ नहीं खाया, कुछ मिलेगा क्या?’’

युवती चुपचाप 2 थालियां परोस लाई और पलंग के आगे स्टूल पर रखते हुए बोली, ‘‘हाथमुंह धो कर खा लो, ज्यादा कुछ नहीं है. बस, तुम्हारे लिए ही रखा था.’’ दोपहर से तो उस ने भी कुछ नहीं खाया था किंतु इस अवांछिता से उस की भूख बिलकुल मर गई थी. घर का खाना याद हो आया, सब तो खापी कर सो गए होंगे, शायद. क्या कोई उस के लिए परेशान भी हो रहा होगा? जैसेतैसे एक रोटी निगल कर उस ने कमरे के कोने में बनी मोरी पर हाथ धो लिए और सिमट कर कमरे में पड़ी इकलौती प्लास्टिक की कुरसी पर बैठ गई.

पूनम नाम की उस युवती ने पलंग पर पड़ी चादर को झाड़ा और चादर के साथ शायद नाराजगी को भी. फिर जरा कोमल स्वर में बोली, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा, घर क्यों छोड़ आई?’’ ‘‘जी’’ कह कर वह अचकचा गई.

‘‘नहीं बताना चाहती, कोई बात नहीं. सो जाओ, बहुत थकी होगी.’’ शायद वह उस की आंखों के भाव समझ गई थी. एक ही पलंग दुविधा उत्पन्न कर रहा था. तय हुआ महिलाएं पलंग पर सोएंगी और वह आदमी नीचे दरी बिछा कर. वे दोनों दिनभर के कामों से थके, लेटते ही सो गए थे. हलके खर्राटों की आवाजें कमरे में गूंजने लगीं. उस की आंख में तो नींद थी ही नहीं, प्रश्न ही प्रश्न थे. ऐसे प्रश्न जिन का वह उत्तर खोजती रही थी सदा.

वह समझ नहीं पाती थी कि मां उस से इतनी नफरत क्यों करती है. वह जो भी करती है, मां के सामने गलत क्यों हो जाता है. उस ने तो सोचा था मां को आश्चर्यचकित करेगी. दरअसल, उस के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता हुई थी और वह प्रथम आई थी. अगले दिन एक जलसे में प्रमाणपत्र और मैडल मिलने वाले थे. बड़ी मुश्किल से यह बात अपने तक रखी थी.

सोचा था कि प्रमाणपत्र और मैडल ला कर मां के हाथों में रखेगी तो मां बहुत खुश हो जाएगी. उसे सीने से लगा लेगी. लेकिन ऐसा हो न पाया था. मां की पड़ोस की सहेली नीरा आंटी की बेटी ऋतु उसी की कक्षा में पढ़ती थी. वह भूल गई थी कि उस रोज वीरवार था. हर वीरवार को उन की कालोनी के बाहर वीर बाजार लगता था और मां नीरा आंटी के साथ वीर बाजार जाया करती थीं.

शाम को जब मां नीरा आंटी को बुलाने उन के घर गई तो ऋतु ने उन्हें सब बता दिया था. मां तमतमाई हुई वापस आई थीं और आते ही उस के चेहरे पर एक तमाचा रसीद किया था, ‘अब हमें तुम्हारी बातें बाहर से पता चलेंगी?’

‘मां, मैं कल बताने वाली थी मैडल ला कर.’

‘क्यों, आज क्यों नहीं बताया, जाने क्याक्या छिपा कर रखती है,’ बड़ी हिकारत से मां ने कहा था.

वह अपनी बात तो मां को न समझा सकी थी लेकिन 13 बरस के किशोर मन में एक प्रश्न बारबार उठ रहा था- मां मेरे प्रथम आने पर खुश क्यों नहीं हुई, क्या सरप्राइज देना कोई बुरी बात है? छोटा रवि तो सांत्वना पुरस्कार लाया था तब भी मां ने उसे बहुत प्यार किया था. फिर अगले दिन तो मैडल ला कर भी उस ने कुछ नहीं कहा था. और कल तो हद ही हो गई थी.

स्कूल में रसायन विज्ञान की कक्षा में छात्रछात्राएं प्रैक्टिकल पूरा नहीं कर सके थे तो अध्यापिका ने कहा था, ‘अपनाअपना लवण (सौल्ट) संभाल कर रख लेना, कल यही प्रयोग दोबारा दोहराएंगे.’ सफेद पाउडर की वह पुडि़या बस्ते के आगे की जेब में संभाल कर रख ली थी उस ने. कल फिर अलगअलग द्रव्यों में मिला कर प्रतिक्रिया के अनुसार उस लवण का नाम खोजना था और विभिन्न द्रव्यों के साथ उस की प्रतिक्रिया को विस्तार से लिखना था. विज्ञान के ये प्रयोग उसे बड़े रोचक लगते थे.

स्कूल में वापस पहुंच कर, खाना खा कर, होमवर्क किया था और रोजाना की तरह, ऋतु के बुलाने पर दीदी के साथ शाम को पार्क की सैर करने चली गई थी. वापस लौटी तो मां क्रोध से तमतमाई उस के बस्ते के पास खड़ी थी. दोनों छोटे भाई उसे अजीब से देख रहे थे. मां को देख कर और मां के हाथ में लवण की पुडि़या देख कर वह जड़ हो गई थी, और उस के शब्द सुन कर पत्थर- ‘यह जहर कहां से लाई हो? खा कर हम सब को जेल भेजना चाहती हो?’ ‘मां, वह…वह कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल का सौल्ट है.’ वह नहीं समझ पाई कि मां को क्यों लगा कि वह जहर है, और है भी तो वह उसे क्यों खाएगी. उस ने कभी मरने की सोची न थी. उसे समझ न आया कि सच के अलावा और क्या कहे जिस से मां को उस पर विश्वास हो जाए. ‘मां…’ उस ने कुछ कहना चाहा था लेकिन मां चिल्लाए जा रही थी, ‘घर पर क्यों लाई हो?’ मां की फुफकार के आगे उस की बोलती फिर बंद हो गई थी.

वह फिर नहीं समझा सकी थी, वह कभी भी अपना पक्ष सामने नहीं रख पाती. मां उस की बात सुनती क्यों नहीं, फिर एक प्रश्न परेशान करने लगा था- मां उस के बस्ते की तलाशी क्यों ले रही थी, क्या रोज ऐसा करती हैं. उसे लगा छोटे भाइयों के आगे उसे निर्वस्त्र कर दिया गया हो. मां उस पर बिलकुल विश्वास नहीं करती. वह बचपन से नानी के घर रही, तो उस की क्या गलती है, अपने मन से तो नहीं गई थी.

13 बरस की होने पर उसे यह तो समझ आता है कि घरेलू परिस्थितियों के कारण मां का नौकरी करना जरूरी रहा होगा लेकिन वह यह नहीं समझ पाती कि 4 भाईबहनों में से नानी के घर में सिर्फ उसे भेजना ही जरूरी क्यों हो गया था. जिस तरह मां ने परिवार को आर्थिक संबल प्रदान किया, वह उस पर गर्व करती है.

पुराने स्कूल में वह सब को बड़े गर्व से बताती थी कि उस की मां एक कामकाजी महिला है. लेकिन सिर्फ उस की बारी में उसे अलग करना नौकरी की कौन सी जरूरत थी, वह नहीं समझ पाती थी और यदि उस के लालनपालन का इतना बड़ा प्रश्न था तो मां इतनी जल्दी एक और बेबी क्यों लाई थी और लाई भी तो उसे भी नानी के पास क्यों नहीं छोड़ा. काश, मां उसे अपने साथ ले जाती और बेबी को नानी के पास छोड़ जाती. शायद नानी का कहना सही था, बेबी तो लड़का था, मां उसे ही अपने पास रखेगी, भोला मन नहीं जान पाता था कि लड़का होने में क्या खास बात है.

वह चाहती थी नानी कहें कि इसे ले जा, अब यह अपना सब काम कर लेती है, बेबी को यहां छोड़ दे, पर न नानी ने कहा और न मां ने सोचा. छोटा बेबी मां के पास रहा और वह नानी के पास जब तक कि नानी के गांव में आगे की पढ़ाई का साधन न रहा. पिता हमेशा से उसे अच्छे स्कूल में भेजना चाहते थे और भेजा भी था.

वह 5 बरस की थी, जब पापा ने उसे दिल्ली लाने की बात कही थी. किंतु नानानानी का कहना था कि वह उन के घर की रौनक है, उस के बिना उन का दिल न लगेगा. मामामामी भी उसे बहुत लाड़ करते थे. मामी के तब तक कोई संतान न थी. उन के विवाह को कई वर्ष हो गए थे. मामी की ममता का वास्ता दे कर नानी ने उसे वहीं रोक लिया था. पापा उसे वहां नए खुले कौन्वैंट स्कूल में दाखिल करा आए थे. उसे कोई तकलीफ न थी. लाड़प्यार की तो इफरात थी. उसे किसी चीज के लिए मुंह खोलना न पड़ता था. लेकिन फिर भी वह दिन पर दिन संजीदा होती जा रही थी. एक अजीब सा खिंचाव मां और मामी के बीच अनुभव करती थी.

ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी, मां से दूर होती जा रही थी. मां के आने या उस के दिल्ली जाने पर भी वह अपने दूसरे भाईबहनों के समान मां की गोद में सिर नहीं रख पाती थी, हठ नहीं कर पाती थी. मां तक हर राह नानी से गुजर कर जाती थी. गरमी की छुट्टियों में मांपापा उसे दिल्ली आने को कहते थे. वह नानी से साथ चलने की जिद करती. नानी कुछ दिन रह कर लौट आती और फिर सबकुछ असहज हो जाता. उस ने ‘दो कलियां’ फिल्म देखी थी. उस का गीत, ‘मैं ने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा…’ उस के जेहन में गूंजता रहता था. नानी के जाने के बाद वह बालकनी के कोने में खड़ी हो कर गुनगुनाती, ‘चाहे मेरी जान जाए चाहे मेरा दिल जाए नानी मुझे मिल जाए.’

…न जाने कब आंख लग गई थी, भोर की किरण फूटते ही पूनम ने उसे जगा दिया था. शायद, अजनबी से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहती थी. ब्रैड को तवे पर सेंक, उस पर मक्खन लगा कर चाय के साथ परोस दिया था और 4 स्लाइस ब्रैड साथ ले जाने के लिए ब्रैड के कागज में लपेट कर, उसे पकड़ा दिए थे. ‘‘न जाने कब घर पहुंचेगी, रास्ते में खा लेना.’’ पूनम ने एक छोटा सा थैला और पानी की बोतल भी उस के लिए सहेज दी थी. उस की कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि नम हो आई थी, अजनबी कितने दयालु हो जाते हैं और अपने कितने निष्ठुर.

जागते हुए कसबे में सड़क बुहारने की आवाजों और दिन की तैयारी के छिटपुट संकेतों के बीच एक रिकशा फिर उन्हें बसअड्डे तक ले आया था. उस अजनबी, जिस का वह अभी तक नाम भी नहीं जानती थी, ने मथुरा की टिकट ले, उसे बस में बिठा दिया था. कृतज्ञ व नम आंखों से उसे देखती वह बोली थी, ‘‘शुक्रिया, क्या आप का नाम जान सकती हूं?’’ मुसकान के साथ उत्तर मिला था, ‘‘भाई ही कह लो.’’

‘‘आप के पैसे?’’

‘‘लौटाने की जरूरत नहीं है, कभी किसी की मदद कर देना.’’

बस चल पड़ी थी, वह दूर तक हाथ हिलाती रही. मन में एक कसक लिए, क्या वह फिर कभी इन परोपकारियों से मिल पाएगी? नाम, पता, कुछ भी तो न मालूम था. और न ही उन दोनों ने उस का नामपता जोर दे कर पूछा था. शायद जोर देने पर वह बता भी देती. बस, राह के दोकदम के साथी उस की यात्रा को सुरक्षित कर ओझल हो रहे थे.

बस खड़खड़ाती मंथर गति से चलती रही. वह 2 सीट वाली तरफ बैठी थी और उस के साथ एक वृद्धा बैठी थी. वह वृद्धा बस में बैठते ही ऊंघने लगी थी, बीचबीच में उस की गरदन एक ओर लुढ़क जाती. वह अधखुली आंखों से बस का जायजा ले, फिर ऊंघने लगती. और वह यह राहत पा कर सुकून से बैठी थी कि सहयात्री उस से कोई प्रश्न नहीं कर रहा. स्कूल के कपड़ों में उस का वहां होना ही किसी की उत्सुकता का कारण हो सकता था.

वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी. किनारे के पेड़ों की कतारें, उन के परे फैले खेत और खेतों के परे के पेड़ों को लगातार देखने पर आभास होता था जैसे कि उस पार और इस पार के पेड़ों का एक बड़ा घेरा हो जो बारबार घूम कर आगे आ रहा हो. उसे सदा से यह घेरा बहुत आकर्षक लगता था. मानो वही पेड़ फिर घूम कर सड़क किनारे आ जाते हैं.

खेतों के इस पार और उस पार पेड़ों की कतारें चलती बस से यों लगतीं मानो धरती पर वृक्षों का एक घेरा हो जो गोल घूमता जा रहा हो. उसे यह घेरा देखते रहना बहुत अच्छा लगता था. वह जब भी बस में बैठती, बस, शहर निकल जाने का बेसब्री से इंतजार करती ताकि उन गोल घूमते पेड़ों में खो सके. पेड़ों और खयालों में उलझे, अपने ही झंझावातों से थके मस्तिष्क को बस की मंथर गति ने जाने कब नींद की गोद में सरका दिया.

आंख खुली तो बस मथुरा पहुंच चुकी थी. बिना किसी घबराहट के उस ने अपनेआप को समेट कर बस से नीचे उतारा. एक पुलकभर आई थी मन में कि नानीमामी उसे अचानक आया देख क्या कहेंगी, नाराज होंगी या गले से लगा लेंगी, वह सोच ही न पा रही थी. रिकशेवाले को देने के पैसे नहीं थे उस के पास, पर नाना का नाम ही काफी था.

इस शहर में कदम रखने भर से एक यकीन था शंकर विहार, पानी की टंकी के नजदीक, नानी के पास पहुंचते ही सब ठीक हो जाएगा. नानीनाना ने बहुत लाड़ से पाला थाउसे. बचपन में इस शहर की गलियों में खूब रोब से घूमा करती थी वह. नानाजी कद्दावर, जानापहचाना व बहुत इज्जतदार नाम थे. शहरभर में नाम था उन का. तभी आज बरसों बाद भी उन का नाम लेते ही रिकशेवाले ने बड़े अदब से उसे उस के गंतव्य पर पहुंचा दिया था.

रिकशेवाले से बाद में पैसे ले जाने को कह कर वह गली के मोड़ पर ही उतर गई थी और चुपचाप चलती हमेशा की भांति खुले दरवाजे से अंदर आंगन में दाखिल हो गई थी. शाम के 4 बज रहे थे शायद, मामी आंगन में बंधी रस्सी पर से सूखे कपड़े उतार रही थीं. उसे देखते ही कपड़े वहीं पर छोड़ कर उस की ओर बढ़ीं और उसे अपनी बांहों में कस कर भींच लिया और रोतेरोते हिचकियों के बीच बोलीं, ‘‘शुक्र है, तू सहीसलामत है.’’ वे क्यों रो रही हैं, उस की समझ में न आया था.

वह बरामदे की ओर बढ़ी तो मामी उस का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले जाते हुए बोलीं, ‘‘जरा ठहर, वहां कुछ लोग बैठे हैं.’’ नानी को इशारे से बुलाया. उन्होंने भी उसे देखते ही गले लगा लिया, ‘‘तू ठीक तो है? रात कहां रही? स्कूल के कपड़ों में यों क्यों चली आई?’’ न जाने वो कितने सवाल पूछ रही थीं.

उसे बस सुनाई दे रहा था, समझ नहीं आ रहा था. शायद एकएक कर के पूछतीं तो वह कुछ कह भी पाती. आखिरकार मामा ने सब को शांत किया और उस से कपड़े बदलने को कहा. वह नहाधो कर ताजा महसूस कर रही थी. लेकिन एक अजीब सी घबराहट ने उसे घेर लिया था. घर में कुछ बदलाबदला था. कुछ था जो उसे संशय के घेरे में रखे था.

आज वह यहां एक अजनबी सा महसूस कर रही थी, मानो यह उस का घर नहीं था. ऐसा माहौल होगा, उस ने सोचा नहीं था. सब के सब कुछ घबरा भी रहे थे. वह नानी के कमरे में चली गई. पीछेपीछे मामी चाय और नाश्ता ले कर आ गईं. तीनों ने वहीं चाय पी. मामी और नानी शायद उस के कुछ कहने का इंतजार कर रहे थे और वह उन के कुछ पूछने का. कहा किसी ने कुछ भी नहीं.

मामी बरतन वापस रखने गईं तो वह नानी की गोद में सिर टिका कर लेट गई. सुकून और सुरक्षा के अनुभव से न जाने कब वह सो गई. आंख खुली तो बहुत सी आवाजें आ रही थीं. और उन के बीच से मां की आवाज, रुलाईभरी आवाज सुनाई दे रही थी. वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, लगता था उस की सारी शक्ति किसी ने खींच ली हो. काश, वह यहां न आ कर किसी कब्रिस्तान में चली गई होती.

मां और मामा उस के व्यवहार और चले आने के कारणों का विश्लेषण कर रहे थे. उसे उठा देख मां जोरजोर से रोने लगी थी और उसे उठा कर भींच लिया था. तेल के लैंप की रोशनी के रहस्यमय वातावरण में सब उसे समझाने लगे थे, वापस जाने की मनुहार करने लगे थे. वह चीख कर कहना चाहती थी कि वापस नहीं जाएगी लेकिन उस के गले से आवाज नहीं निकल रही थी.

कस कर आंखें मींचे वह मन ही मन से मना रही थी कि काश, यह सपना हो. काश, तेल का लैंप बुझ जाए और वे सब घुप अंधेरे में विलीन हो जाएं. उस की आंख खुले तो कोई न हो. लेकिन वह जड़ हो गई थी और सब उसे समझा रहे थे. हां, सब उसे ही समझा रहे थे. वह तो वैसे भी अपनी बात समझा ही नहीं पाती थी किसी को. सब ने उस से कहा, उसे समझाया कि मां उस से बहुत प्यार करती है.

सब कहते रहे तो उस ने मान ही लिया. उस के पास विकल्प भी तो न था. वह मातापिता के साथ लौट आई. अब मां शब्दों में ज्यादा कुछ न कहती. बस, एक बार ही कहा था, हम तो डर गए हैं तुम से, तुम ने हमारा नाम खराब किया, सब कोई जान गए हैं. वह घर में कैद हो गई. कम से कम स्कूल में कोई नहीं जानता. प्रिंसिपल जानती थी, उसे एक दिन अपने कमरे में बुलाया था.

अपने को दोस्त समझने को कहा था. वह न समझ सकी. दिन गुजरते रहे. बरस बीतते रहे. जिंदगी चलती रही. पढ़ाई पूरी हुई. नौकरी लगी. विवाह हुआ. पदोन्नति हुई. और आज जब उस के दफ्तर में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने छुट्टी मांगते हुए बताया कि वह अपनी एक वर्ष की बिटिया को नानी के घर में छोड़ना चाहती है तो ये बरसों पुरानी बातें उस के मस्तिष्क को यों झिंझोड़ गईं जैसे कल की ही बातें हों.

आज एक बड़े ओहदे पर हो कर, बेहद संजीदा और संतुलित व्यवहार की छवि रखने वाली, वह अपना नियंत्रण खोती हुई उस पर बरस पड़ी थी, ‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकती, सुवर्णा. यदि तुम्हारे पास बच्चे की देखभाल का समय नहीं था तो तुम्हें एक नन्हीं सी जान को इस दुनिया में लाने का अधिकार भी नहीं था. और जब तुम ने उसे जन्म दिया है तो तुम अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती.

‘‘नानी, मामी, दादी, बूआ सब प्यार कर सकती हैं, बेइंतहा प्यार कर सकती हैं पर वे मां नहीं हो सकतीं. आज तुम उसे छोड़ कर आओगी, वह शायद न समझ पाए. वह धीरेधीरे अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठा लेगी. खुश भी रहेगी और सुखी भी. तुम भी आराम से रह सकोगी. लेकिन तुम दोनों के बीच जो दूरी होगी उस का न आज तुम अंदाजा लगा सकती हो और न कभी उसे कम कर सकोगी. ‘‘जिंदगी बहुत जटिल है, सुवर्णा, वह तुम्हें और तुम्हारी बच्ची को अपने पेंचों में बेइंतहा उलझा देगी. उसे अपने से अलग न करो.’’ वह बिना रुके बोलती जा रही थी और सुवर्णा हतप्रभ उसे देखती रह गई.+

जोरू का गुलाम : रोहिणी और सासूमां का कैसा था रिश्ता

दफ्तर से आज आधे दिन की छुट्टी ले कर रोहिणी घर आ गई. वह चाहती तो थी कि सीधे डाक्टर के पास चली जाए लेकिन दोपहर का वक्त था और इस वक्त उस लेडी डाक्टर की डिस्पैंसरी बंद होती है जिसे रोहिणी दिखाना चाहती थी. वैसे भी कल्याण में जहां रोहिणी का घर है वहां से डिस्पैंसरी ज्यादा दूर नहीं है इसलिए उस ने सोचा कि वह अपने पति अलंकार के दफ्तर से लौटने के पश्चात उस के साथ चली जाएगी.

पिछले कुछ दिनों से रोहिणी को सुबह उठने में काफी तकलीफ हो रही थी. उसे बहुत ज्यादा आलसपन भी महसूस होने लगा था और कभीकभी सुबह के वक्त हलका बुखार भी रहता. वह किचन में भी ठीक से खाना नहीं बना पा रही थी. किचन में मसालों की गंध उसे असहनीय लगने लगे थी. पहले तो रोहिणी को लगा कि शायद मौर्निंग सिकनैस की वजह से उसे ऐसा हो रहा है लेकिन आज तो औफिस में भी उसे काम करने में बड़ी तकलीफ होने लगी तो वह घर आ गई और आते वक्त अलंकार को भी फोन पर बता दिया ताकि वह भी घर जल्दी आ जाए और वे दोनों डाक्टर के पास जा सके.

वी.टी से कल्याण की दूरी ट्रेन से लगभग 2 घंटे की है, जिस की वजह से घर आते हुए रोहिणी पूरी तरह से थक चुकी थी. वैसे तो वह रोज ही थक जाती थी पर आज उसे कुछ ज्यादा ही थकान महसूस हो रही थी. रोहिणी ने सोचा कि घर जाते ही वह पहले थोड़ी देर आराम करेगी उस के बाद ही घर के कामों को हाथ लगाएगी लेकिन यहां घर पहुंची तो उस ने देखा सासूमां संपदा सोफे पर लगभग लेटी हुई हैं और ससुरजी किचन में हैं. आमतौर पर ससुरजी किचन में कम ही दिखाई देते थे. रोहिणी कुछ कहती उस से पहले ही उसे दफ्तर से जल्दी आया देख संपदा कहने लगीं, ‘‘अरे रोहिणी तुम जल्दी आ गई हो. चलो अच्छा हुआ. मेरे सिर में काफी दर्द है, मेरे बहुत मना करने पर भी तुम्हारे बाबा मेरे लिए चाय बना रहे हैं, जरा तुम जा कर देख लो वे ठीक से चाय बना भी रहे हैं या नहीं. तुम तो जानती हो मैं ने कभी दूसरी औरतों की तरह इन्हें जोरू का गुलाम बना कर नहीं रखा, कभी इन से घर का कोई काम नहीं कराया इसलिए तो इन्हें ठीक से चाय बनाना भी नहीं आता. अब तुम आ ही गई हो तो जा कर जरा चाय बना लाओ और सुनो मेरे लिए पानी की गरम थैली भी ले आना. न जाने क्यों आज सुबह से मेरे घुटनों में भी दर्द है.’’

रोहिणी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करती उस से पहले ही रोहिणी के ससुर चाय और गरम पानी की थैली ले कर आ गए. रोहिणी को जल्दी आया देख कर बोले, ‘‘अरे बेटा तुम कब आई? पता होता तो तुम्हारे लिए भी चाय बना देता. लो तुम मेरी चाय ले लो. मैं अपने लिए दूसरी बना लेता हूं.’’

यह सूनते ही संपदा भड़क गई और कहने लगी, ‘‘ये कैसी बातें कर रहे हैं आप? घर में

बहू के होते हुए आप चाय बनाएंगे शोभा देगा क्या? आप चाय पीजिए, यह अपने लिए चाय खुद बना लेगी. तुम जाओ रोहिणी कुछ खाने के लिए भी बना कर ले आओ और अपने लिए चाय भी बना लेना.’’

रोहिणी की आंखें नम हो गईं. वह चिल्ला कर कहना चाहती थी कि उस की तबीयत ठीक नहीं है, उसे किचन से आने वाले मसाले की स्मैल बरदाश्त नहीं हो रही है और वह इस वक्त आराम करना चाहती है लेकिन उस ने ऐसा कुछ नहीं कहा क्योंकि वह जानती थी कि यदि अभी वह कुछ भी कहेगी तो घर पर महाभारत छिड़ जाएगा और वह न डाक्टर के पास चैकअप के लिए जा पाएगी और न ही अभी आराम कर पाएगी इसलिए रोहिणी चुपचाप किचन में जा कर परेशानी होते हुए भी पकौड़े बना कर ले आई और संपदा के सामने रख कर अपने कमरे में चली गई.

संपदा नहीं चाहतीं कि रोहिणी के रहते कोई और घर के काम करे क्योंकि उन का मानना था कि घर की बहू को ही घर के सारे काम करने चाहिए, इसी में सास का मान और शान है. यदि अलंकार कभी रोहिणी की किचन में या किसी और काम में हाथ बंटाने की कोशिश भी करता तो वे अपने बेटे को जोरू का गुलाम कहने से नहीं चूकतीं. यह जुमला अलंकार के पुरुषत्व को ठेस पहुंचाता. यह बात संपदा बखूबी जानती थी. अलंकार इसलिए संपदा या घर के किसी अन्य सदस्य की उपस्थिति में रोहिणी की किसी भी प्रकार से मदद करने से कतराता. थोड़ी देर आराम करने के बाद भी रोहिणी की थकान दूर नहीं हुई.

तभी संपदा की आवाज आई, ‘‘रोहिणी… रोहिणी तुम्हारा आराम फरमाना हो गया हो तो रात के खाने की तैयारी शुरू कर दो, आज आनंद और संगीता आ रहे हैं. दोनों रात का खाना खा कर ही जाएंगे. कुछ अच्छा बना लेना.’’

रोहिणी सम?ा गई अब आराम कर पाना संभव नहीं क्योंकि जब भी उस की ननद संगीता और ननदोई आनंद घर आते हैं कोई अपनी जगह से हिलता तक नहीं है. पानी भी सब के हाथों में ले कर पकड़ाना पड़ता है.

संगीता और संपदा दोनों मांबेटी रूम में ऐसे जम कर बैठ जाती हैं जैसे बात करने के अलावा घर पर कुछ और काम ही न हो. ससुरजी और अलंकार भी बस आनंद के साथ ही बैठे रहते हैं और हर थोड़ी देर में चाय और उस के साथ

कुछ न कुछ खाने की फरमाइश का यह सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक संगीता और आनंद घर वापस नहीं लौट जाते और बेचारी रोहिणी दौड़दौड़ कर सब की फरमाइशें भी पूरी करती और संगीता के 2 साल के बेटे मोनू को

भी संभालती.

जब भी रोहिणी इस विषय में अलंकार से कुछ कहती तो उस का बस एक ही जवाब होता, ‘‘तुम क्या चाहती हो तुम्हारे रहते आनंद के सामने मां घर का काम करें या कुछ घंटों के लिए आई मेरी बहन तुम्हारा हाथ बंटाए? अपनी ससुराल में तो वह बेचारी काम करती ही है. अब यहां भी करे या फिर तुम यह चाहती हो कि मैं तुम्हारे आगेपीछे घूमूं, किचन में तुम्हारा हाथ बटाऊं ताकि लोग मु?ो जोरू का गुलाम कहें.’’

 

इतना सब सुनने के बाद रोहिणी के पास कुछ कहने को रह ही नहीं जाता और

उस की जबान पर बस यह बात आ कर ठहर जाती कि इतना पढ़नेलिखने के बाद आज भी लोगों की मानसिकता वहीं के वहीं है. अब भी उन की सोच में कोई बदलाव नहीं है. यदि कोई पति घर के काम करता है या फिर अपनी पत्नी का किसी काम में हाथ बंटाता है तो वह जोरू का गुलाम और पत्नी घर से बाहर जा कर अपने कार्य क्षेत्र में पूरा दिन काम करती है, अपने पति का आर्थिक रूप से सहयोग करती है, घर का पूरा काम करती है, घर के हर सदस्य के जरूरतों का खयाल रखती है तो वह क्या है? घर की बहू है या घर की गुलाम. रोहिणी अपने ही विचारों में खोई हुई थी कि संपदा ने फिर आवाज लगाई और रोहिणी तबीयत ठीक न होने के बावजूद किचन में आ कर काम करने लगी. उस ने सारा खाना आनंद और संगीता की पसंद अनुसार ही बनाया ताकि उसे यह सुनने को न मिले कि अरे यह क्या बना दिया, यह तो आनंद को पसंद नहीं या फिर यह तो संगीता नहीं खाती उस की पसंद का कुछ और बना दो.

खाना बनतेबनते ही अलंकार भी दफ्तर से लौट आया और थोड़ी देर में संगीता भी अपने पति और बेटे के साथ आ पहुंची. सभी को चायनाश्ता कराने के बाद जब रोहिणी ने अलंकार से कहा, ‘‘चलो हम डाक्टर के पास चलते हैं. तुम तो जानते हो मेरी तबीयत बिलकुल भी ठीक नहीं चल रही है, खाने के वक्त तक हम लौट आएंगे.’’

रोहिणी के ऐसा कहते पर अलंकार कहने लगा, ‘‘अरे यह तुम क्या कह रही हो? अभी संगीता और आनंद आए हुए हैं उन्हें इस तरह छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लगेगा और फिर आनंद क्या सोचेगा मेरे बारे में. एक काम करते हैं कल चलते हैं.’’

आनंद से यह सब सुन रोहिणी से रहा नहीं गया और वह बोल पड़ी, ‘‘कोई क्या सोचेगा, कौन क्या कहेगा इस बात की चिंता है तुम्हें लेकिन बीवी की सेहत खराब है, वह उसी हालत में घर और बाहर के काम रह रही है इस बात का खयाल नहीं है क्योंकि तुम्हें तो सिर्फ और सिर्फ अपनी इमेज की ही चिंता है. यदि मेरे साथ चले जाओगे तो कहीं कोई तुम पर यह व्यंग्य न कस दे कि देखो जोरू का गुलाम अपनी बीवी का पल्लू पकड़ कर चला गया, तो ठीक है तुम अपनी इमेज संभालो मैं मम्मीजी से बात कर लेती हूं और डाक्टर को दिखा आती हूं,’’ कह कर रोहिणी वहां से चली गई.

 

शादी के 1 साल बाद आज पहली बार रोहिणी ने इस प्रकार अलंकार से

बात की. इस से पहले उस ने कभी न अलंकार से और न ही घर के किसी दूसरे सदस्य से इस तरह ऊंची आवाज में बात

की थी.

रोहिणी गुस्से में तमतमाती हुई संपदा के कमरे की ओर बढ़ी, जहां संगीता और संपदा बातें कर रहे थे. जब रोहिणी कमरे के करीब पहुंची तो उस ने सुना संगीता अपने पति आनंद की शिकायत संपदा से कर रही है. वह कह रही थी, ‘‘मम्मी ये आनंद मेरी कोई बात नहीं सुनते और न ही मानते हैं, घर के किसी भी काम में मेरा हाथ नहीं बंटाते. घर का सारा काम और उस पर छोटे बच्चे को संभालना. मैं सुबह से ले कर शाम तक काम कर के थक जाती हूं. अगर मैं आनंद से कुछ करने को कहती हूं तो उलटा वे मु?ा से नाराज हो कर कहने लगते हैं कि मैं कोई जोरू का गुलाम नहीं हूं जो तुम्हारे इशारे पर काम करूं और यदि कभी आनंद हैल्प करना भी चाहें तो सासूमां इन्हें जोरू का गुलाम कह कर ताने देने लगती हैं. एक दिन तो सासूमां मु?ा से कहने लगीं कि तुम्हारे मायके में भी तुम्हरी भाभी ही सारा काम करती है जबकि वह तो जौब भी करती हैं फिर तुम क्यों नहीं कर सकती. मम्मी मैं तो तंग आ गई हूं, कुछ सम?ा ही नहीं आ रहा क्या करूं.’’

‘‘अरे तुम परेशान क्यों होती हो, तुम आनंद को सम?ाने की कोशिश करो. घरगृहस्थी अकेले से नहीं चलती पतिपत्नी दोनों को मिल कर इस गृहस्थीरूपी गाड़ी को चलाना पड़ता है. आनंद जरूर सम?ा जाएगा और तुम सब के सामने आनंद से कभी कुछ काम करने को मत कहा करो. तुम ने कभी देखा है, मैं तुम्हारे पापा से कभी किसी के सामने कुछ काम करने को कहती हूं नहीं न? ऐसा नहीं है तुम्हारे पापा चाय नहीं बनाते या घर का कोई काम नहीं करते, सब करते हैं लेकिन अकेले में इसलिए जब तुम दोनों अकेले में होते हो तभी आनंद से कुछ काम करने को कहा करो. इस से तुम्हारी सास को ताने मारने का मौका ही नहीं मिलेगा सम?ा?’’ संपदा सम?ाती हुई संगीता से कह रही थीं.

सारी बातें सुनने के बाद रोहिणी ने कमरे में यों प्रवेश किया जैसे उस ने कुछ सुना ही न हो. रोहिणी को कमरे में देख संपदा और संगीता ऐसे घबरा गई जैसे उन की कोई चोरी पकड़ी गई हो.

रोहिणी बढ़ी विनम्रतापूर्वक बोली, ‘‘मम्मीजी आज मेरी डाक्टर से अपौइंटमैंट है, मु?ो जाना है, मैं जल्दी ही लौट आऊंगी खाने के पहले.’’

समय की नजाकत को देखते हुए संपदा ने रोहिणी को जाने की इजाजत दे दी. जब रोहिणी घर लौटी तो अलंकार की आंखों में पछतावा और दुख था. वह जानता था कि रोहिणी को उस की जरूरत है. वैसे रोहिणी आत्मनिर्भर है. वह अकेले जा सकती है लेकिन रोहिणी के साथ जाना उस का फर्ज था और वे लोग क्या कहेंगे कि मायाजाल में फंस कर रह गया.

रोहिणी को देखते ही संपदा ने कहा, ‘‘सब ठीक तो है न? डाक्टर ने क्या कहा?’’

रोहिणी गहरी सांस भरती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी फिक्र की कोई बात नहीं है सब ठीक है बस कल एक टैस्ट करवाना है,’’ कह कर रोहिणी सब के लिए खाना परोसने लगी.

सभी के खाना खाने और संगीता व आनंद के जाने के पश्चात रोहिणी ने अलंकार को सम?ाया कि परेशान होने वाली कोई बात नहीं है क्योंकि अलंकार टैस्ट की बात सुन कर घबरा गया था. उस के चेहरे से यह बात साफ ?ालक रही थी.

दूसरे दिन जब शाम को रोहिणी की रिपोट आई तो पता चला कि रोहिणी मां बनने वाली है.

यह सुन कर सभी के चेहरे पर खुशी

की लहर दौड़ गई. रोहिणी को मां बनने की खुशी तो थी लेकिन वह यह बात भी जानती थी कि बच्चे के आने के बाद उस की जिम्मेदारियां और काम दोगुना हो जाएंगा क्योंकि अब भी रोहिणी की परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं था.

रोहिणी मां बनने वाली है यह जानने के बावजूद न संपदा घर के कामों में उस का हाथ बंटा रही थीं और न अलंकार. संपदा को घर के कामों में रोहिणी का हाथ बंटाना सास की शान के खिलाफ लगता और अलंकार जोरू का गुलाम नहीं कहलाना चाहता था. अब तो संपदा के ताने की लिस्ट में कुछ और ताने भी जुड़ गए थे जैसे आजकल की बहुएं तो पति को उंगलियों पर नचाना चाहती हैं, अरे भई हम ने भी तो 2-2 बच्चे जने हैं और उन्हें बिना किसी की मदद से बड़ा किया है. हमें तो कभी किसी की मदद की जरूरत नहीं पड़ी और आजकल की लड़कियां तो बस ससुराल वालों से काम कराने के मौके ढूंढ़ती रहती हैं.

रोहिणी घर के काम, दफ्तर के काम और अपनी प्रैगनैंसी की वजह से स्वास्थ्य में हो रहे उतारचढ़ाव से परेशान होने लगी थी लेकिन उसे कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा था. वह अलंकार को सम?ा ही नहीं पा रही थी कि घर का काम करना या पत्नी का हाथ बंटाने का अर्थ जोरू का गुलाम नहीं होता.

 

अचानक रविवार की एक सुबह संगीता रोती हुई अपने बेटे मोनू के

साथ घर पहुंची. संपदा बेटी को इस हाल में देख कर घबरा गई. अलंकार और उस के पिता भी परेशान हो गए. संगीता लगातार बिना कुछ कहे रोए जा रही थी.

तभी रोहिणी संगीता को शांत कराती हुई बोली, ‘‘आखिर बात क्या है जो तुम इस तरह आ गई हो? कुछ तो बताओ?’’

तब संगीता रोती हुई कहने लगी, ‘‘भाभी, आनंद मेरी कोई हैल्प नहीं करते. आज सुबह मैं किचन में थी और मोनू ने अपनी ड्रैस गीली कर ली और जब मैं ने आनंद से कहा कि वे मोनू की ड्रैस चेंज कर दें तो वे मु?ा से ?ागड़ने लगे और कहने लगे कि यह तुम्हारा काम है, तुम संभालो और जब मैं ने कहा कि मैं किचन में इंगेज हूं तो आनंद मु?ा से कहने लगे कि मैं कोई जोरू का गुलाम नहीं जो तुम्हारे इशारे पर नाचूं और इतना ही नहीं आज तो आनंद ने मु?ा पर हाथ भी उठा दिया. अब आप ही बताइए भाभी अपने बच्चे के कपड़े बदलने से क्या कोई जोरू का गुलाम हो जाता है? ऊपर से यदि किसी दिन आनंद मेरी कोई हैल्प करना भी चाहें तो सासूमां उन्हें जोरू का गुलाम कह कर रोक देती हैं.’’

संगीता का इतना कहना था कि संपदा संगीता को डांटते हुए कहने लगीं, ‘‘मैं ने तुम से कितनी बार कहा है सब के सामने आनंद से काम करने को मत कहा कर. जो कहना है अकेले में कहा कर. तु?ो सम?ा नहीं आती क्या मेरी बात?’’

संपदा का इतना कहना था कि रोहिणी के संयम का बांध टूट गया और वह संपदा से कहने लगी, ‘‘क्यों अकेले में कहेंगी, पति जब चाहे सब के सामने अपनी पत्नी को थप्पड़ जड़ सकता है, जो मन में आए कह सकता है और पत्नी अपने पति से एक काम नहीं कह सकती. छोटी सी हैल्प की उम्मीद नहीं रख सकती क्यों? यह सब आप जैसे लोगों की दोहरी व निम्न मानसिकता का नतीजा है.

‘‘जब एक पत्नी, पति का हर छोटे से छोटा काम करती है तो वह पत्नी धर्म कहलाता है और पति का पत्नी के प्रति कोई धर्म नहीं है. मम्मीजी यदि आप संगीता को यह सम?ाने के बजाय कि अपने पति से अकेले में काम के लिया कहा कर आनंद को यह सम?ातीं कि पत्नी का हाथ बंटाने से पति जोरू का गुलाम नहीं होता तो यह नौबत नहीं आती. किसी ने बिलकुल ठीक ही कहा है बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाएं.’’

जब रोहिणी यह सब कह ही रही थी आनंद भी वहां आ गया था और सिर ?ाकाए खड़ा था. अलंकार की आंखें भी शर्म और पछतावे से ?ाकी हुई थीं. संपदा को भी इस बात का दुख था कि वह स्वयं एक नारी हो कर नारी के दर्द को सम?ाने में चूक गई.

अभी यह सब चल ही रहा था कि रोहिणी के ससुर सब के लिए चाय बना कर ले आए.

यह देख कर संपदा ने कहा, ‘‘चाय के साथ नमकीन भी हो जाए.’’

यह सुन कर रोहिणी किचन की ओर मुड़ी ही थी कि अलंकार ने कहा, ‘‘तुम आराम से बैठो नमकीन मैं ले आता हूं क्योंकि अब मैं सम?ा चुका हूं कि पत्नी का हाथ बंटाने से पति जोरू का गुलाम नहीं हो जाता.’’?

यह सुन कर पूरा हौल ठहाकों से गूंज उठा.

प्यार की झंकार : लव मैरिज के बावजूद भी मृगया और राज के बीच क्यों बढ़ने लगी दूरियां ?

Writer- Savi Sharma

‘‘मृगया कहां हो? कुछ चैक साइन करने हैं,’’ राज ने फोन कर मृगया से कहा. वह आज औफिस नहीं आई थी कुछ काम था.

‘‘थोड़ी देर में आ जाऊंगी,’’ मृगया बोली.

अब अकसर राज मृगया से चैक साइन करवाने में ?ां?ालाने लगा. उस ने मृगया से कहा कि चैक साइन करने की पावर मु?ो भी दो. मगर वह इस विषय पर खामोश हो जाती. उस के लिए यह निर्णय आसान नहीं था वह अभी भी राज पर इतना यकीन नहीं कर पाई थी कि उसे पावर दे या बिजनैस में हिस्सेदार बनाए.

अब राज मृगया से छोटीछोटी बातों पर ?ागड़ा करता. राज के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आने लगा.

‘‘मृगया कहां हो?’’ राज बाहर से आ कर रात 10 बजे घर में घुसते हुए चिल्लाया.

मृगया जो कृश को सुलाने की कोशिश कर रही थी कमरे से निकल बाहर आई, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो?’’

‘‘राज, मैं ने तुम्हें कितनी बार फोन मिलाया तुम ने नहीं उठाया. आज दोस्त भी हंस रहे थे कि मेरी औकात कुछ नहीं है. बिल ज्यादा हो गया तो मैनेजर ने भी बिन तुम से बात किए पैसे देने से मना कर दिया,’’ अपमान और ग्लानि से राज का चेहरा तमतमा रहा था, ‘‘मेरी हैसियत ही क्या है. तुम मालकिन और मैं क्या?’’

मृगया पलभर को सकते में आ गई कि कहीं उसे राज को सम?ाने में कोई गलती तो नहीं हुई. उसे याद आने लगा राज का भोला चेहरा, भोली सी बच्चे जैसी मुस्कान और उस का मृगया के लिए सोचना. वह अतीत के बादलों पर पिघलने लगी…

राज ने देखा आज मृगया औफिस पहले आ गई. पूछा, ‘‘अरे आज आप इतनी जल्दी? पहले रोज देर हो जाती थी?’’ राज ने मुसकरा कर कहा.

‘‘मृगया ने एक नजर राज को देखा और फिर अपने कैबिन की ओर बढ़ गई. उस के पास समय ही नहीं होता है कि फालतू किसी की बात पर ध्यान दे.

पहले घर देखो भले ही कितने काम वाले हों फिर भी देखना तो पड़ता ही है. एक छोटा बेटा, बिस्तर पर पड़ी सास और इतना बड़ा घर. गार्डन भी खूब बड़ा और खूबसूरत, पति मृदुल को कितना शौक था फूलों का. दिन चांदी के रातें सोने की थीं.

रात के 11 बजे अचानक फोन आया. अभी 2 घंटे पहले मृदुल बिजनैस के सिलसिले में अमेरिका की फ्लाइट में बैठे थे टेक औफ के पहले बात हुई थी निश्चिंत हो वह सो गई थी. एक साल का कृश उस के पास सो रहा था.

‘‘हैलो आप को खेद के साथ सूचित कर रहे हैं जो फ्लाइट अमेरिका के लिए उड़ी थी. वह तकनीकी खराबी के कारण इमरजैंसी लैंडिंग में क्षतिग्रस्त हो गई है यात्रियों को काफी चोटें आई हैं, पूरी डीटेल बाद में दी जाएगी.’’

सपनों को वक्त का बाज इस तरह भी नोचता है यह कल्पना मृगया की सोच से परे थी.

जिंदगी ने आसमान से अचानक जमीन पर ला पटका. मृदुल उस के जीवन में सुख के हस्ताक्षर कर वाष्प बन न जाने कहां अंतरिक्ष में छिप गया. मृदुल तो चले गए रह गया बड़ा बिजनैस, मां और छोटा बेटा. मृगया की सोचने की शक्ति ही खत्म हो गई.

मां ने तो बेटे के गम में बिस्तर ही पकड़ किया. मृगया जो खिलाती चुपचाप खातीं. चुपचाप शून्य में निहारती रहतीं. वक्त ने दूसरी बार यह घाव दिया था. मृदुल के पिता भी जब मृदुल 8वीं में था तभी छोड़ गए थे. अब दोबारा यह घाव उन्हें पत्थर बना गया.

मृगया ने वक्त के साथ संभलना शुरू किया. शायद जिंदगी के साथ चलतीफिरती मशीन बन गई थी.

राज को मृगया की पूरी स्थिति पता थी. यह भी जानता था कि इस के पति का बहुत बड़ा बिजनैस था.

अभी कुछ दिनों पहले ही मृगया ने औफिस शुरू किया था पर अब वह नौकरी छोड़ने का निर्णय कर रही थी.

राज ने नौक कर पूछा, ‘‘क्या मैं आ सकता हूं?’’

मृगया ने सपाट स्वर में जवाब दिया, ‘‘आइए,’’ फिर सीट की तरफ इशारा किया, बैठिए.’’

‘‘राज,’’ अगर आप नाराज न हों तो आप से एक सवाल पूछना चाहता हूं?’’

‘‘पूछिए.’’

‘‘आप नौकरी छोड़ रही हैं?’’

‘‘हां, अब पति का काम संभालना है, पहले यह नौकरी अपने शौक के लिए करती थी, अब समय नहीं है.’’

औपचारिक बातें कर राज मृगया के सामने प्रस्ताव रख गया कि यदि उसे बिजनैस में किसी सहायता की आवश्यकता हो तो वह ख़ुशी से करेगा.

आज 8 महीने हो गए. मृगया पति के बिजनैस को संभाल रही है. पति के रहते कभी उसने बिजनैस स्किल सम?ाने की कोशिश ही नहीं की या उसे यह एक आफत ही लगता था. हां कंपनी में जौब करना अलग बात है पर पूरा बिजनैस संभालना अलग बात है. दिनोंदिन उस की उल?ान बढ़ती जा रही थी.

‘‘हैलो राज क्या तुम मेरे औफिस आ

सकते हो?’’

‘‘हां, बताइए कब आना है?’’

‘‘कल 1 बजे मेरे औफिस आ कर मिलो.’’

‘‘ओके.’’

अगले दिन राज मृगया के औफिस आया. औपचारिक बातों के बाद मृगया ने उसे अपना औफिस जौइन करने के लिए कहा.

राज ने हामी भर दी. उस की भोली सूरत पर छाई चिंता की लकीरें उसे अपनी ओर खींचती थीं. फिर मृगया का औफर भी अच्छा था.

अब कभीकभी मृगया के घर भी राज को जाना पड़ता. कुछ काम के बारे में जल्दी निर्णय लेना होता तो घर चला जाता.

घर जा कर कभी मां का हाल लेता कभी आया के साथ खेल रहे बच्चे से बात करता.

अब बिना फोन किए भी राज मृगया के घर चला जाता. अभी तक उस की शादी भी नहीं हुई थी. मातापिता गांव में रहते थे.

एक रोज काम के बारे में बात करते रात के 10 बज गए.

‘‘अरे, आज तो बहुत देर हो गई है. अब खाना खा कर जाना,’’ मृगया बोली.

राज भी मान गया.

औपचारिक से कब अनौपचारिक हो गए राज और मृगया पता ही नहीं चला.

एक रात सोते में राज ने सपना देखा कि उस की और मृगया की शादी हो रही है. अचानक हड़बड़ाहट में उठ बैठा. पूरा पसीने में भीग था. न जाने कितने सवालों ने आ घेरा. खुद भी तो यही चाह रहा था फिर यह बेचैनी क्यों? पूरी रात आंखों में निकल गई. एक पल न सो सका.

एक दिन इतवार को राज ने मृगया को फोन किया, ‘‘मृगया, मैं बहुत दिनों से तुम से कुछ कहना चाह रहा हूं.’’

‘‘कहो.’’

‘‘अगर हम बंधन में बंध जाएं तो? देखो कृश भी मु?ा से घुलमिल गया है और मैं भी तुम को…’’

‘‘मैं भी क्या?’’ मृगया ने ठंडे स्वर में पूछा.

‘‘मैं भी तुम से प्यार करता हूं,’’ राज हकलाते हए कह गया.

‘‘तुम जानते हो मैं विधवा हूं और एक बच्चा है. अभी तुम भावावेश में कह रहे हो… फिलहाल अभी मैं ने कुछ सोचा नहीं है.’’

‘‘मृगया कहां हो? सब काम निबट गया हो तो जरा आना,’’ मां ने मृगया को आवाज लगाई.

मृगया आई तो मां ने स्नेह से पास बैठाया और सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए  कहा, ‘‘मृगया… बेटा राज अच्छा इंसान है. देख ले, सोच ले जल्दी नहीं है. मैं जानती हूं तू मृदुल को बहुत प्यार करती है. पर मैं कब तक जिंदा रहूंगी. कृश और तुम्हारा पूरा जीवन पड़ा है. तेरा सारा बिजनैस संभालने में भी मदद कर रहा है. भला इंसान है.’’

‘‘ठीक है मां सोचती हूं पर कहीं धोखा दिया तो? अगर मन में पैसों का लालच हुआ तो? अभी कुंआरा है फिर एक विधवा से शादी?’’

‘‘बेटा, तुम शुरू में बिजनैस में सां?ा मत करना. कुछ समय देखना फिर जो ठीक लगे करना.’’

आखिर कुछ दिन बाद मृगया ने राज से शादी के लिए हां कह दी. राज और मृगया विवाह बंधन में बंध गए. मृगया ने तमाम उल?ानें मन में समेटे राज के साथ नए वैवाहिक जीवन में कदम रखा.

दोनों साथ मिल कर औफिस जाते. काम को और बेहतर तरीके से करने लगे. अब मृगया राज पर कुछकुछ विश्वास करने लगी थी. शादी को साल होने को आया. अगले महीने ही तो ऐनिवर्सरी है.

मगर आज राज का यह रूप अचानक उस की सोच को विराम लगा. मृगया जैसे अतीत से वर्तमान में लौट आई. एक अनिश्चितता ने उसे परेशान कर दिया. वह सीधे अपनी सासूमां के पास जा कर गमसुम बैठ गई.

मां ने देखा कि मृगया परेशान है. बोलीं, ‘‘यहां आओ बेटा, कोई दुविधा है?’’ कहते हुए उन्होंने उसे पास बैठा लिया.

मृगया फूटफूट कर रो पड़ी ‘‘क्या हुआ, ऐसे क्यों रो रही हो बेटा?’’

‘‘मां जिस का डर था वही हुआ, राज कह रहे हैं उन्हें शादी कर के क्या मिला. आज चिल्ला रहे थे कि 1-1 पैसे के लिए हाथ फैलाना पड़ता है. मां मैं ने गलती की राज से शादी कर के.’’

‘‘नहीं मृगया ऐसी बात नहीं. सोच राज अच्छा नौजवान व पढ़ालिखा लड़का है. उसे लड़कियों की कमी नहीं थी. वह तेरे पास आया. तु?ो अपनाया. कृश को भी पिता का प्यार दिया, अपना नाम दिया. लेकिन सोच उस के पास सबकुछ दे कर अधिकार क्या है? वह ठीक कह रहा है अगर अब भी उसे हर बार पैसे के लिए मैनेजर को फोन करना पड़े तो उस का अपमान ही होगा और तेरा भी. मृगया उसे अब पूरी तरह अपना ले उसे उस के अधिकार दे कर.’’

मृगया सोचने लगी मां ठीक कह रही हैं मृदुल के बाद उस का जीवन कितना

नीरस हो गया था. जीवन मशीन की तरह चल रहा था. उस नीरस जीवन में राज ने ही रंग भरे हैं. कृश को भी पिता का प्यार मिला. राज ने उसे अपना जीवन दे दिया और वह खुद अब तक भ्रम में ही खड़ी है. कहीं ऐसा न हो वह प्यार की ?ांकार अब न सुन पाए तो पूरा जीवन बिन प्यार खाली ही गुजरेगा? मृदुल तो उस का अतीत था. उस का आज सिर्फ और सिर्फ राज है. अब पूरा हक दे कर उसे अपनाएगी. उस ने मुसकरा कर दूर से आते राज को देखा और समर्पण, प्यार और विश्वास से उस की आंखों में सतरंगी धनुष खिलने लगे.

सच के पैर: क्या थी गुड्डी के भैयाभाभियों की असलियत

बूआजी आएंगी फलमिठाई लाएंगी, नई किताबें लाएंगी सब को खूब पढ़ाएंगी…’ छोटी गा रही थी.

‘बूआजी आते समय मेरे लिए नई ड्रैसेज जरूर ले आना,’ दूसरी की मांग होती. इस तरह की मांगें हर साल गरमी की छुट्टियां आते ही भाइयों के बच्चों की होती. जिन्हें गुड्डी मायके जाते ही पूरा करती. मगर एक बार जब वह मायके गई, तो बड़े भैयाभाभी की बातचीत सुन उस के पांव तले की जमीन ही जैसे खिसक गई.

‘‘बड़ी मुश्किल से दोनों का तलाक कराया,’’ भाभी कह रही थीं.

‘‘और क्या, अगर तलाक नहीं होता तो क्या गुड्डी हमें इतना देती? देखना, बड़ी की शादी में कम से कम 10 लाख उस से लूंगा,’’ भैया कह रहे थे.

‘‘बदले में क्या देते हैं हम लोग? हर साल एक मामूली साड़ी पकड़ा देते हैं. वह इतने में भी अपना सर्वस्व लुटा रही है,’’ हंसते हुए उस की भाभी ने कहा तो वह जैसे धड़ाम से जमीन पर आ गिरी. सच में उस का शोषण तीनों भाइयों ने किया है. उसे याद आ गई 20 वर्ष पूर्व की घटना. उस के विवाह के लिए लड़का देखा जा रहा था. पिताजी तीनों बेरोजगार बेटों की लड़ाई व बहुओं की खींचतानी झेल न पाए और गुजर गए. फिर तो उस की शादी के लिए रखे क्व5 लाख वे सब खूबसूरती से डकार गए.

उस का विवाह उस से लगभग दोगनी उम्र के व्यक्ति रमेश से कर दिया गया और दहेज तो दूर सामान्य बरतनभांडे तक उसे नहीं दिए गए. यह देख मां से न रहा गया. वे बोल पड़ीं, ‘‘अरे थोड़े जेवर और जरूरी सामान तो दो, लोग क्या कहेंगे?’’ ‘‘आप चुप रहें मां. हमें अपनी औकात में शादी करनी है. सारा इसे दे देंगे, तो मेरी बेटियों की शादी कैसे होगी?’’ बड़ा भाई डांट कर बोला तो वे चुप रह गईं. फिर तो गुड्डी ससुराल गई और उस के बाद उस की पढ़ाई और नौकरी तक इन सबों ने कभी झांका तक नहीं. रमेश पत्नी को पढ़ाने के पक्षधर थे, इसलिए उन के सहयोग से उस ने बीए की परीक्षा पास की. उस के कुछ दिनों बाद बैंक की क्लैरिकल परीक्षा पास कर ली, तो बैंक में नौकरी लग गई. रमेश पढ़ीलिखी पत्नी चाहते थे परंतु कमाऊ पत्नी नहीं. अत: जैसे ही उस की नौकरी लगी उन्होंने समझाने की कोशिश की, ‘‘क्या तुम्हारा नौकरी करना इतना जरूरी है?’’

‘‘हां क्यों न करें. इतनी औरतें करती हैं. फिर बड़ी मुश्किल से लगी है,’’ उस ने सरलता से जवाब दिया.

‘‘फिर बच्चे होंगे, तो कौन पालेगा?’’

‘‘क्यों, दाई रख लेंगे. आजकल बहुत से लोग रखते हैं. मैं भविष्य की इस छोटी सी समस्या के लिए नौकरी नहीं छोड़ सकती.’’ इस दोटूक जवाब पर रमेश कुछ नहीं बोले. पर उन का जमीर इस बात को स्वीकार न कर सका कि लोग उन्हें जोरू का गुलाम या जोरू की कमाई खाने वाला कहें. इधर उस के मायके के लोग उस की नौकरी की खबर सुनते ही मधुमक्खी के समान आ चिपके. पतिपत्नी की लड़ाई में हमेशा मायके वाले फायदा उठाते हैं. यहां भी यही हुआ. मायके वालों के उकसाने पर वह तलाक का केस कर नौकरी पर चली गई. बाद में आपसी सहमति पर तलाक हो भी गया. इस के बाद इस दूध देती गाय का भरपूर शोषण सब ने किया. कभी बड़े भैया की लड़की का फार्म भरना है तो कभी किसी की बीमारी में इलाज का खर्च, तो कभी कुछ और. ऐसा कर के हर साल वे सब इस से अच्छीखासी रकम झटक लेते थे.

उस वक्त गुड्डी का वेतन 30 हजार था. उस में से सिर्फ 10 हजार किराए के मकान में रहने, खानेपीने वगैरह में जाते थे. बाकी भाइयों की भेंट चढ़ जाता था. मगर उस दिन की भैयाभाभी की बातचीत ने उस के मन को हिला कर रख दिया. उस के बाद वह 4 दिन की छुट्टियां ले कर किसी काम से मधुबनी गई थी, तो वहां संयोगवश उस के पति साइकिल पर फेरी लगाते दिख गए. ‘‘ये क्या गत बना रखी है?’’ औपचारिक पूछताछ के बाद उस ने पहला प्रश्न किया.

‘‘कुछ नहीं, बस जी रहे हैं, तुम कैसी हो?’’ उन्होंने डबडबाई आंखों को संभालते हुए प्रश्न किया.

‘‘मैं ठीक हूं, आप की पत्नी और बच्चे?’’ उस का दूसरा प्रश्न था.

‘‘पत्नी ने मुझे छोड़ कर नौकरी का दामन थामा, तो बिन पत्नी बच्चे कहां से होते?’’ उन्होंने जबरदस्ती हंसने का प्रयास करते हुए कहा.

‘‘गांव में कौनकौन है?’’ पिताजी का निधन तुम्हारे सामने हो गया था. तुम्हारे जाने के 1 साल बाद मां गुजर गईं और सभी भाइयों ने परिवार सहित दूसरे शहरों को ठिकाना बना लिया,’’ उन का सीधा उत्तर था.

‘‘और आप?’’

इस प्रश्न पर वे थोड़ा सकुचा गए. फिर बोले, ‘‘मैं यहीं मधुबनी में रहता हूं. सुबह से शाम ढले तक कारोबार में लगा रहता हूं. सिर्फ रात में कमरे में रहता हूं.’’ ‘‘मुझे अपने घर ले चलिए,’’ कह कर वह जबरदस्ती उन के साथ उन के घर में गई. वहां एक पुरानी चारपाई, एक गैस स्टोव व जरूरत भर का थोड़ा सा सामान था. उसे बैठा कर वे सब्जी व जरूरी समान की व्यवस्था करने गए तब तक उस ने सारे समान जमा दिए. उन के लौट कर आते ही सब्जीरोटी बना कर उन्हें खिलाई और खुद खाई. उस रात वह उन के बगल में लेटी तो उन के सिर पर उंगलियां फेरते उस ने पूछा, ‘‘आप ने दूसरी शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्यों, क्या एक शादी काफी नहीं है? जब पहली पत्नी ने ही साथ नहीं दिया, तो दूसरी की बात मैं ने सोची ही नहीं.’’ इस जवाब से वह टूट गई. दोनों रात में एक हो गए. आंसुओं ने नफरत के बांध को तोड़ दिया.

अगले दिन चलते समय उस ने कहा, ‘‘आप मेरे साथ चल कर वहीं रहिए.’’ ऐसा न जाने किस जोश में आ कर वह बोल उठी थी. पर रमेश ने बात को संभाला, ‘‘यह ठीक नहीं होगा. हम दोनों तलाकशुदा हैं वैसी दशा में मेरा तुम्हारे साथ रहना…’’

‘‘ठीक है, मैं दरभंगा में रहती हूं. आप महीने में 1 बार वहां आ सकते हैं?’’ उस ने पूछा. ‘‘मिलने में कोई बुराई नहीं है,’’ रमेश ने फिर बात को संभाला. फिर बस स्टैंड तक जा कर बस में बैठा आए और हाथ में 200 रख दिए. प्यार की भूखी गुड्डी इस व्यवहार से गदगद हो गई. दूसरी ओर अपने सगे भैयाभाभी की कही बात उसे तोड़ रही थी. सच कड़वा होता है मगर यह इतना कड़वा था कि इसे झेल पाना मुश्किल हो रहा था. उस के यही सब सोचते जब उस के मोबाइल की घंटी बजी तो वह वर्तमान में लौटी.

‘‘क्यों इस बार छुट्टी में नहीं आ रही हो?’’ उस के बड़े भैया का स्वर था.

‘‘नहीं, इस बार आना नहीं हो सकता,’’ उस ने विनम्रता से जवाब दिया.

‘‘क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘कुछ नहीं भैया, बस जरूरी काम निबटाने हैं.’’ इस जवाब पर फोन कट गया. इस के बाद वह कई महीने मायके तो नहीं गई पर हर माह मधुबनी हो आती थी. रमेश उसे प्यार से घर लाते, उस का पूरा ध्यान रखते और भरपूर सुख देते. उन के साथ रात गुजारने में उसे असीम सुख मिलता था. वह इस प्यार से गदगद रहती. उस के जाते वक्त हर बार रमेश 100-200 या साड़ी हाथ में अवश्य रखते. फिर प्रेम से बस में चढ़ा आते. सब से बड़ी बात यह कि उन्होंने आज तक यह नहीं पूछा था कि अब वह किस पद पर है वेतन कितना मिलता है?

‘‘क्यों आप को मेरे बारे में कुछ नहीं जानना?’’ एक बार उस ने पूछा था.

‘‘जानता तो हूं कि तुम बैंक में हो,’’ उन्होंने सहज भाव से जवाब दिया. उन की सब से बड़ी बात यह थी कि वे अपने ऊपर 1 पैसा भी नहीं खर्च करने देते थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह उन की ओर झुकती चली गई. एक दिन अचानक बहुत दिनों से मायके न जाने पर उस की मां, बड़े, मझले और छोटे भैयाभाभी सभी आए. मझले को मैडिकल में लड़के का ऐडमिशन कराने हेतु 1 लाख चाहिए थे, वहीं बड़े भैया बड़ी लड़की की शादी हेतु पूरे 5 लाख की मांग ले कर आए थे. इसी प्रकार छोटा भी दुकान हेतु पुन: 2 लाख की मांग ले कर आया था. उन सब की मांग सुन कर वह फट पड़ी, ‘‘क्यों आप लोग अपना इंतजाम खुद नहीं कर सकते, जो जबतब आ जाते हैं? मेरी भी शादी हुई थी, तब आप तीनों ने क्या दिया था?’’

इस पर सब सकपका गए मगर छोटा बेहयाई से बोला, ‘‘हमारे पास नहीं था, इसलिए नहीं दिया. तुम्हारे पास है तभी न ले रहे हैं.’’ ‘‘कुछ नहीं, पहले पिछला हिसाब करो. मुझ से जो लिया लौटाओ. मेरे पास सब लेनदेन लिखा है.’’ तभी उस के पति का फोन आ गया. ‘‘क्यों क्या हुआ, कैसे हैं आप?’’

‘‘बस 2 दिन से थोड़ा सा बुखार है. तुम्हारी याद आ रही थी, इसलिए फोन कर दिया.’’ पति का थका स्वर सुन कर वह तुरंत बोली. ‘‘रात की बस पकड़ कर मैं आ रही हूं आप चिंता न करें.’’ फिर वह फोन रख कर जल्दीजल्दी जाने का समान पैक करने लगी.

‘‘क्या हुआ अचानक कहां चल दीं?’’ मां ने घबरा कर पूछा.

‘‘जा रही होगी गुलछर्रे उड़ाने,’’ मझला भाई बोला. ‘‘सुनो, अपनी औकात में रह कर बोला करो. ये मेरे पति का फोन था.’’ यह सुन कर सभी की आंखें फटी रह गईं.

‘‘तलाकशुदा पति से तेरा क्या मतलब?’’ उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मतलब तो शादी के बाद भाइयों का भी बहन की आमदनी या जायदाद से नहीं होता पर मेरे भाई तो बहन को दूध देती गाय समझ पैसा लूटते रहे. जब वापस देने की बारी आई तो बहाने करने लगे.’’ उस का यह रूप देख सब भौचक्के थे.

‘‘और हां मां, आप सब ने मिल कर मेरी शादी इसलिए तुड़वाई ताकि मेरे पैसे पर ऐश कर सकें.’’

‘‘बेटा, तुम गलत समझ रही हो,’’ मां ने फिर समझाना चाहा. ‘‘सच क्या है मां यह तुम भी जानती हो. पूरे 5 लाख जो पापा ने मेरी शादी के लिए रखे थे, इन तीनों ने डकार लिए थे. एक फटा कपड़ा तक नहीं दिया था. फिर 4 साल तक हाल नहीं पूछा. लेकिन जैसे ही नौकरी मिली चट से आ कर सट गए और तुम मां हो कर हां में हां मिलाती रहीं.’’ यह कड़वा सच उन सब के कानों में सीसे की तरह उतर रहा था. ‘‘आप लोग जाएं क्योंकि मुझे रात की बस से उन के पास जाना है. जब मेरा पूरा पैसा देने लायक हो जाएं तो आइएगा.’’ इतना कह कर वह तैयार हो कर घर से निकली, तो वे सब हाथ मलते ऐसे पछता रहे थे जैसे कारूं का खजाना हाथ से निकल गया हो और वह तेजी से बस स्टैंड की ओर बढ़ती जा रही थी.

पति वल्लभा: क्यों पति पर गुस्सा हुई कविता

मुझे न जाने क्या हो जाता है. मैं मन ही मन कविता की खूबसूरती से ईर्ष्या करती हूं. हालांकि मैं और कविता आपस में अच्छी दोस्त हैं, हमारे पतियों की भी आपस में बनती है और बच्चों की भी आपस में दोस्ती है. हम लोग जहां भी जाते हैं साथ जाते हैं. मेरा और कविता का परिचय विवाह पूर्व का है. हम दोनों शहर के एक ही महल्ले की हैं. हम दोनों ही युवतियां महल्ले के मनचले युवकों की धड़कनें हुआ करती थीं. लोगों को यह बता पाना मुश्किल था कि हम दोनों में से कौन अधिक सुंदर है.

संयोग देखिए हम लोगों का विवाह भी एक ही साथ एक ही शहर में यहां तक कि एक ही महल्ले में हुआ. तारीख भी एक ही. बस, महीने में फर्क था. मेरी शादी जनवरी में हुई तो कविता की फरवरी में.

शादी के बाद महल्ले वालों को भी यह बता पाना मुश्किल था कि कौन बहू ज्यादा सुंदर है. आज हम लोगों की शादी हुए 15 साल हो गए हैं. हम दोनों के ही 3-3 बच्चे हैं पर इस समय के अंतराल ने जहां मुझ में काफी परिवर्तन ला दिया है वहीं कविता के यौवन और सौंदर्य को मानों समय से कोई मतलब ही न हो. कैसे संभाल रखा है उन्होंने अपनी इस खूबसूरती को, कुछ समझ में नहींआता है. और उन के पति योगेश आज भी उन के उतने ही दीवाने हैं जितने 15 साल पहले थे. उन का अपना खुद का अच्छाखासा बिजनैस है पर औफिस जाने तक वे अपना पूरा समय कविता के साथ ही व्यतीत करते. औफिस से भी 2 बार फोन अवश्य करते. जब तक उन का फोन नहीं आता कविता लंच नहीं लेती और फिर औफिस से आने के बाद तो दोनों की जोड़ी हर समय साथ ही दिखाई देती.

यदि कहीं किसी जगह केवल महिला कार्यक्रम का आयोजन होता तो आयोजन समाप्त होने से पूर्व ही योगेश वहां उन्हें लेने के लिए मौजूद होते. इस बात का उन का काफी मजाक भी बनता, जिसे सुन कर कविता के गाल लाज से लाल हो उठते.

इधर मेरे पति का यह हाल था कि एक तो वे डाक्टर और वे भी दिल के. व्यस्तता का कोई अंत नहीं. रात में भी मरीज उन की जान नहीं छोड़ते. अकसर कोई न कोई इमरजैंसी केस आता रहता. इसलिए पार्टियों में भी अकसर मुझे अकेले ही जाना पड़ता. हालांकि योगेश और कविता मेरे साथ होते पर उस प्रेमी युगल की गुटरगूं मुझे मन से एकदम अकेला कर देती.

मुझे इस सब का कारण उन की बेइंतहा खूबसूरती ही लगती. पर उन की खूबसूरती का राज क्या है, यह जानने की उत्सुकता मुझे ही नहीं पूरे महल्ले की महिलाओं को रहती थी. तभी तो एक दिन महिला कार्यक्रम में एक महिला ने उन से यह पूछ ही लिया, ‘‘कविताजी आखिर आप की इस खूबसूरती का राज क्या है और आप इस के लिए क्या करती हैं, यह आज आप को बताना ही पड़ेगा.’’

कविता शरमाते हुए बोली, ‘‘कुछ भी नहीं, हां, कभीकभार अगर थोड़ी सी मोटी हो जाती हूं तो मुझे तो पता ही नहीं चलता पर ये तुरंत कहते हैं कि आजकल तुम्हारा वजन कुछ ज्यादा हो रहा है. तब मैं 2-4 दिन इन के साथ वाक पर जाती हूं और सब ठीक हो जाता है. मैं कभीकभी इन से पूछती भी हूं कि आप को कैसे पता चल जाता है तो ये कहते हैं कि जानेमन तुम्हारी छवि मेरी

आंखों और दिल में इस कदर बसी हुई है कि उस में जरा सा भी परिवर्तन मुझे तुरंत समझ में आ जाता है.’’

अब मेरी समझ में आ गया कि कविता की खूबसूरती का राज क्या है. वे पति वल्लभा हैं. मेरी मां कहा करती थीं कि जिस स्त्री का पति उसे अधिक प्यार करता है उस के चेहरे पर एक अजीब सा सौंदर्य रहता है और कविता शायद उसी सौंदर्य की स्वामिनी हैं. मैं ने घर जा कर अपने स्थूल होते शरीर को देखा और अपनी उपेक्षा का अनुभव किया.

रात को मैं ने अपने पति का ध्यान आकर्षित करने के लिए पूछा, ‘‘सुनिए, मैं मोटी हो गई हूं न?’’

उन्होंने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘नहीं तो.’’

मैं उन के इस उत्तर पर गुस्से से बिफर उठी, ‘‘क्या खाक नहीं… पता है इन 15 सालों में मेरा वजन लगभग 5 किलोग्राम बढ़ गया है पर आप को क्या? आप को मेरी कोई परवाह क्यों होने लगी. आप के घर का काम सुचारु रूप से जो चल रहा है. एक कविता हैं उन के पति को उन का इतना ध्यान रहता है कि 500 ग्राम वजन भी बढ़ता है तो वे बताते हैं और आप 5 किलोग्राम वजन बढ़ने पर भी कह रहे हैं नहीं तो.’’

मेरे पति बोले, ‘‘वजन बढ़ गया है, तो क्या हुआ. कोई बीमारी तो है नहीं. 15 वर्ष पूर्व तुम नववधू थीं अब गृहिणी और किशोर होते हुए बच्चों की मां हो. हर उम्र की एक गरिमा होती है. इस में परवाह न करने वाली बात कहां से आ गई. तुम तो मुझे हर समय हर अवस्था में अच्छी लगती हो.’’

मैं अपने पति की इस बात पर चुप तो हो गई पर मेरे मन में यह बात घर कर गई कि

कविता पति वल्लभा हैं और इस का उदाहरण मुझे समयसमय पर मिलता रहता. अगर मैं कभी बच्चों के स्कूल न जाने पर बच्चों की ऐप्लीकेशन देने सुबहसुबह उन के घर जाती तो वे मुझे एक खूबसूरत नाइटी पहने करीने से तैयार मिलतीं. जबकि सुबह की व्यस्तता के चलते मैं काफी अस्तव्यस्त रहती. जब मैं ने फिर उन से इस का कारण जानना चाहा तो उसी मोहक मुसकान से उत्तर मिला, ‘‘सुबह की चाय यही बनाते हैं. कहते हैं कि फ्रैश हो कर जल्दी तैयार हो कर आओ. तैयार हो कर इन के हाथ से चाय का कप लेती हूं. चाय पी कर बच्चों की तैयारी में लग जाती हूं.’’

सुबह चाय की उम्मीद करना तो इन से व्यर्थ था, पर एक दिन मैं थोड़ा जल्दी उठ कर पहले तैयार हुई और फिर चाय का कप ले कर इन के पास गई तो ये मुझे आंखें फाड़फाड़ कर देखने लगे, ‘‘सुबहसुबह तैयार क्यों हो गईं? कहीं जा रही हो या कोई आने वाला है?’’

मैं इन की इस टिप्पणी पर नाराज हो गई और बोली, ‘‘क्यों क्या तैयार हो कर कोई गुनाह किया है?’’ यह कहने के साथ ही मेरी आंखों से आंसू गिरने लगे.

यह देख कर मेरे पति बोले, ‘‘भई, ऐसा भी मैं ने क्या कह दिया जो तुम रोने लगीं?’’

मैं अपने रोने का कारण जब तक इन्हें समझाती उस के पहले ही अस्पताल से इमरजैंसी काल आ गई और ये अस्पताल जाने के लिए जल्दी-जल्दी तैयार होने लगे. एक बार कविता बीमार पड़ीं तो मैं उन्हें देखने गई. आप विश्वास कीजिए ऐसा लग रहा था कि पिक्चर की शूटिंग होने वाली हो. बढि़या बिस्तर पर करीने से कपड़े पहने व होंठों पर हलकी सी लिपस्टिक लगाए वे लेटी थीं. चेहरे पर बुखार की तपिश जरूर लग रही थी, पर वह भी उन की सुंदरता को द्विगुणित कर रही थी.

मुझे से नहीं रहा गया तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘आप बीमारी में भी तैयार रहती हैं?’’

इस का उत्तर मुझे उन से उन के चिरपरिचित अंदाज में ही मिला, ‘‘ये कहते हैं तुम्हारा उतरा चेहरा मुझे अच्छा नहीं लगता है. इसीलिए मुझे तैयार रहना पड़ता है.’’

कविता के बाद मैं बीमार पड़ी तो मैं ने भी सोचा कि कविता की तरह सजसंवर कर रहूं पर वायरल की कमजोरी की वजह से मुझ से तो उठा भी नहीं गया. मैं इन से बोली, ‘‘चेहरा बहुत खराब लग रहा है.’’

ये बोले, ‘‘नहीं तो.’’

मैं झुंझलाई, ‘‘नहीं तो क्या? मैं शीशे में अपना चेहरा भी नहीं देख पा रही हूं और आप बड़ी आसानी से कह रहे हैं नहीं तो.’’

ये बोले, ‘‘तो क्या कहूं? अरे, बीमार हो तो बीमार लग रही हो. ठीक हो जाओगी तो फिर पहले की तरह हो जाओगी. इस में इतना परेशान होने की क्या बात है?’’

मैं सारी शौपिंग भी अकेले करती पर अकेले साड़ी खरीदना बहुत खल जाता. लगता कोई तो बताने वाला हो कि मुझ पर क्या अच्छा लग रहा है क्या बुरा. पर इन के पास समय कहां? एक दिन मैं ने कविता से अपनी परेशानी बताई तो वे बोलीं, ‘‘कल हम दोनों जा रहे हैं. आप भी हमारे साथ चलिएगा.’’

मैं उन लोगों के साथ चली तो गई पर मन ही मन कुढ़ती रही. कविता कोई साड़ी पसंद कर अपने ऊपर रख कर योगेश को दिखातीं तो वे उस के बारे में अपनी राय बताते हुए कहते, ‘‘नहीं जानू, यह तुम पर ज्यादा अच्छी नहीं लग रही है… हां यह बहुत अच्छी लग रही है आदि.’’

योगेश को ब्राइट कलर बहुत अच्छे लगते थे. उन्होंने अपनी पत्नी को 10-12 साडि़यां ब्राइट कलर की दिलवाईं. मैं इतने ब्राइट कलर नहीं पहनती पर उन दोनों ने जिद कर के मुझे भी 2-3 साडि़यां ब्राइट कलर की दिलवा दीं.

मैं ने कहा भी, ‘‘मैं ब्राइट कलर नहीं पहनती हूं.’’ mपर वे लोग बोले, ‘‘क्यों नहीं पहनतीं. अभी आप की उम्र ही क्या है? और फिर ब्राइट कलर पहनने से इंसान की उम्र भी कम दिखती है.’’

मैं उन के कहने पर उन साडि़यों को घर ले आई पर जब उन्हें अपने पति को दिखाया तो वे बोले, ‘‘किसी को देने के लिए लाई हो क्या?’’

मैं ने कहा, ‘‘मतलब?’’

वे बोले, ‘‘तुम इतने ब्राइट कलर नहीं पहनती हो, इसलिए.’’

‘‘पहले नहीं पहनती थी तो क्या अब नहीं पहन सकती? कविता पहनती हैं कि नहीं. हम दोनों हमउम्र ही तो हैं.’’

मेरी इस बात पर वे हंस पड़े, ‘‘ठीक है, यह बात है तो पहनो भाई मैं कहां मना कर रहा हूं.’’

लेकिन मैं उन साडि़यों को नहीं पहन पाई. जब भी पहनने का मूड बनाती तो लगता मेरे ऊपर अच्छी नहीं लगेंगी. हमउम्र होने से क्या हुआ. कविता की बात और है. 3-4 महीने पहले वे सीढि़यों से गिर पड़ीं. हाई हील सैंडल पहने थीं. बैलेंस बिगड़ गया. कूल्हे और दाएं पैर में फै्रक्चर हो गया. बिस्तर से हिलनाडुलना मना हो गया. योगेश बड़े मनोयोग से पत्नी की सेवा करते. हम लोग भी जबतब उन का हालचाल लेने जाते रहते.

कुछ समय बाद उन की हड्डी तो जुड़ गई पर शायद लेटे रहने अथवा अच्छी सेवा के कारण वे थोड़ी स्थूल हो गईं. मैं जब उन का हालचाल लेने जाती तो वे अपनी स्थूलता के कारण चिंतित दिखाई देतीं.

मैं उन्हें समझाती, ‘‘आप इतनी मोटी नहीं हो गई हैं. और फिर जब आप सामान्य जीवन जीने लगेंगी तो फिर से छरहरी काया की स्वामिनी हो जाएंगी.’’

मेरी बात पर वे फीकी हंसी हंस देतीं. समय बीतता गया. उन का जीवन सामान्य हो चला था पर स्थूलता में खास परिवर्तन नहीं आया था.

एक दिन दोपहर में मैं उन के घर गई. काफी गपशप होती रही. उन की सास भी आ कर बैठ गईं. नौकर चायनाश्ता ले आया. नाश्ते में गुलाबजामुन भी थे घर के बने हुए. कविता की प्रिय डिश जिसे बनाना और खाना दोनों ही उन्हें अत्यधिक प्रिय था.

नौकर जब उन को गुलाबजामुन देने लगा तो उन्होंने मना कर दिया. बोलीं, ‘‘थोड़ी चीनी और चिकनाई कम कर दी है. दिन पर दिन मोटी जो होती जा रही हूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ऐसा भी क्या? यह तो आप की प्रिय डिश है लीजिए न.’’

मेरे और उन की सास के आग्रह करने पर उन्होंने गुलाबजामुन ले लिए. अभी उन्होंने खाना शुरू ही किया था कि योगेश बाहर से आ गए. कविता को गुलाबजामुन खाते देख कर तमतमा गए, ‘‘तुम गुलाबजामुन खा रही हो, कितनी बार कहा कि जबान पर कंट्रोल रखा करो. और मां तुम से भी मैं ने कह रखा है कि देखा करो कहीं ये मीठी और चिकनी चीजें तो नहीं खा रहीं.’’

मैं थोड़ा किनारे बैठी थी, इसलिए उन की नजर अभी तक मुझ पर नहीं पड़ी थी. अचानक जब उन की नजर मुझ पर पड़ी तो वे संभल गए. अपने स्वर को मृदु बना कर

बोले, ‘‘जानू, तुम्हारी भलाई के लिए कह रहा हूं डाक्टर ने मना किया है न.’’ और फिर वे भीतर चले गए.

मैं पूरी घटना से एकदम अचकचा गई थी. योगेशजी का इतना गुस्सा मेरे लिए अप्रत्याशित था. मैं ने कविता से पूछा, ‘‘क्या हुआ है आप को? डायबिटीज वगैरह हो गई है क्या?’’

कविता जो अपने पति के व्यवहार पर एकदम क्रोधित थीं. बोलीं, ‘‘डायबिटीज नहीं, मोटापा हुआ है मोटापा. अब क्या करूं अगर मोटी हो गई हूं? डाक्टर कहते हैं 35 साल के बाद औरतें थोड़ी मोटी हो जाती हैं और फिर दवा का भी थोड़ा साइड इफैक्ट है. हां, थोड़ाबहुत मीठे और चिकनाई का त्याग करने से नियंत्रण हो सकता है, इसी कारण मुझे मीठी और चिकनी चीजें छूने के लिए भी नहीं मिलती हैं. केवल उबला खाना, भला यह भी कोई जिंदगी है.’’ और कविता की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

मैं उस पति वल्लभा का चेहरा मायूस होते देखती रही.

उत्तरदायित्व: बहू दिव्या के कारण क्यों कठघरे में खड़ी हुई सविता

‘‘भई, मैं ने तो अपनी शादी से पहले ही सोच लिया था कि अगर अपनी मां की टोकाटाकी ‘यह मत करो, यह मत पहनो, ऐसे चलो, वैसे मत बोलो’ वगैरहवगैरह सहन कर सकती हूं तो सास की छींटाकशी भी चुपचाप सहन कर लूंगी और मैं ने जो सोचा था वह किया भी,’’ सविता ने बड़े दर्प से कहा, ‘‘अब सास बनने से पहले भी मैं ने फैसला कर लिया है कि जब मैं अपनी अनपढ़ नौकरानियों के नखरे झेलती हूं, उन की बेअदबी की अनदेखी करती हूं तो अपनी पढ़ीलिखी बहू की छोटीमोटी गलतियों को भी अनदेखा किया करूंगी.’’ फिर थोड़ा रुक कर आगे कहा, ‘‘कोई भी 2 व्यक्ति कभी भी एकजैसा नहीं सोचते, कहीं न कहीं सामंजस्य बैठाते हैं, तो फिर भला सासबहू के रिश्ते में समझौते की गुंजाइश क्यों नहीं है?’’

‘‘सौरभ की शादी कर लो, इस सवाल का जवाब तुम्हें खुदबखुद मिल जाएगा,’’ उस की अभिन्न सहेली नीलिमा व्यंग्य से बोली.

‘‘हां सविता, सौरभ की शादी के बाद देखेंगे क्या कहती हो,’’ किट्टी पार्टी में आई अन्य महिलाएं चहकीं.

‘‘वही कहूंगी जो आज कह रही हूं,’’ सविता के स्वर में आत्मविश्वास था.

सौरभ और दिव्या की शादी धूमधाम से हो गई. शादी के 2 वर्षों बाद भी किसी को सविता या दिव्या से एकदूसरे की शिकायत सुनने को नहीं मिली. दोनों के संबंध वाकई में सब के लिए मिसाल बन गए.

‘‘चालाक औरतों के हाथी की तरह खाने के दांत और, दिखाने के और होते हैं,’’ नीलिमा ने एक दिन मुंह बिचका कर ऊषा से कहा, ‘‘बाहर तो बहू से बेटी या सहेली वाला व्यवहार और घर में जूतमपैजार. यही सबकुछ सविता भी करती होगी अपनी बहू के साथ.’’

‘‘मुझे भी यही शक था नीलिमा. सो एक रोज जब मेरी जमादारनी नहीं आई तो मैं ने सविता की जमादारनी को बुला लिया और फिर उसे फुसला कर कुरेदकुरेद कर सविता और दिव्या के ताल्लुकात के बारे में पूछा,’’ ऊषा ने बताया.

‘‘अच्छा, फिर क्या पता चला?’’ सभी महिलाओं ने एकसाथ पूछा.

‘‘वही सबकुछ जो हमें पहले से मालूम था, बल्कि उसे और भी पुख्ता कर दिया,’’ ऊषा ने उसांस ले कर कहा, ‘‘यह नहीं है कि सविता दिव्या को डांटती नहीं है या दिव्या पलट कर जवाब नहीं देती, दोनों में मतभेद और मानमनौअल भी होते हैं, मगर पल भर के लिए. दोनों उस का ‘इशू (मसला) नहीं बनातीं और तूल नहीं देतीं.’’

इसी तरह कई वर्र्ष बीत गए. दिव्या के 2 बच्चे भी हो गए, लेकिन सासबहू के संबंध वैसे ही मधुर बने रहे. अचानक दिव्या का नर्वस ब्रेकडाउन होने की खबर सुन कर सब चौंक पड़े.

सब से ज्यादा हैरान, परेशान सविता थी. दिव्या को क्या टैंशन हो सकती है भला? पैसे की कोई कमी नहीं है. बच्चों की परवरिश भी अपने ढंग से ठीक कर रही है. बच्चे भी सुशील और होनहार हैं. बच्चों की पूरी जिम्मेदारी सविता और उस के पति गौरव पर डाल कर दिव्या और सौरभ स्वच्छंद हो कर घूमतेफिरते हैं. सौरभ भी जान छिड़कता है दिव्या पर. सविता चौंक पड़ी.

‘‘पति का पत्नी पर अधिक आसक्त होना, जरूरत से ज्यादा कामेच्छा भी तो पत्नी के तनाव का कारण हो सकती है?’’

सब शर्मलिहाज छोड़ कर सविता ने सौरभ से जवाबतलब किया.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है, मां. हमारे यौन संबंध बिलकुल सामान्य हैं. मैं ने दिव्या के साथ कभी भी कोई जोरजबरदस्ती नहीं की, जिसे ले कर वह तनावग्रस्त हो,’’ सौरभ ने आश्वासन दिया.

‘‘तो फिर इस तनाव की वजह क्या है?’’ सविता ने जिरह की, ‘‘जिस की वजह से दिव्या का नर्वस ब्रेकडाउन हुआ है?’’

‘‘अप्रत्यक्ष या वर्तमान में तो कुछ भी नहीं है,’’ सौरभ हंसा, ‘‘लेकिन अगर किसी अप्रत्यक्ष डर या भविष्य को ले कर कोई तनाव पाल ले तो इसे तो उसी के दिमाग का दोष कहा जाएगा.’’

‘‘एकदम गलत,’’ सविता भड़क उठी, ‘‘दिव्या तुम से कहीं ज्यादा संतुलित है.’’

‘‘तो फिर आप खुद ही उस से उस के तनाव की वजह पूछ लो, मां. और अगर आप के पास उस का हल हो तो सुझा भी दो.’’

‘‘कोई समस्या ऐसी नहीं होती जिस का कोईर् हल न हो.’’

‘‘दिव्या की समस्या कुछ ऐसी ही है.’’

‘‘मानो तुझे समस्या मालूम है?’’

‘‘हां, समस्या की जड़ ही मैं हूं,’’ सौरभ ने हंसते हुए बात काटी, ‘‘मगर मैं अपने को उखाड़ कर फेंकने वाला नहीं हूं. फिर भी आप दिव्या से तो बात कर ही लो और बेहतर रहे कि आज ही. क्योंकि अभी तो इलाज चल ही रहा है, तबीयत ज्यादा खराब हो गई तो डाक्टर तो आता ही है, वह संभाल लेगा.’’

सविता को बेटे की बातें अटपटी लगीं, लेकिन समस्या गंभीर थी. सो, उस ने दिव्या से पूछने का फैसला किया.

‘‘आजकल जो माहौल है, मां, उस में जब तक बच्चे स्कूल से न आ जाएं, घर के मर्द काम पर से न लौट आएं, तब तक सभी को घबराहट रहती है,’’ दिव्या ने कह कर टालना चाहा.

‘‘मगर सभी का तो इन और इन के अलावा रोजमर्रा की कई और चिंताओं को ले कर नर्वस ब्रेकडाउन नहीं होता,’’ सविता तुनक कर बोली, ‘‘देख दिव्या, अगर तू नहीं चाहती कि तेरे बारे में सोचसोच कर मैं भी तेरी तरह बीमार पड़ जाऊं और घर व बच्चे परेशान हो जाएं, तो तुझे मुझे अपनी टैंशन की वजह बतानी ही पड़ेगी.’’

पहले तो कुछ देर दिव्या चुप रही, फिर कुछ हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘आप जिद कर रही हैं, मांजी, इसलिए बताना पड़ रहा है. मेरी टैंशन की वजह आप हैं, मां.’’

सविता के सिर पर किसी ने जैसे बम विस्फोट कर दिया. ‘‘मेरी वजह से भी किसी को टैंशन हो सकती है, कभी सोचा नहीं था. खैर, मेरी वजह से कोई परेशान हो, यह तो मुझे कतई गवारा नहीं है. मैं अभी इन्हें फोन कर के नीतिबाग वाली कोठी खाली करवाने को कहती हूं. किराएदार के जाते ही हम दोनों वहां रहने चले जाएंगे,’’ सविता ने उठते हुए कहा.

‘‘रुकिए मां, मैं ने आप से कहीं जाने के लिए नहीं कहा है और न ही मैं आप को कभी कहीं जाने दूंगी. बात मेरी टैंशन की हो रही है और वह आप के कहीं भी रहने या न रहने से कम नहीं होगी,’’ दिव्या ने असहाय भाव से कहा.

‘‘क्यों नहीं होगी, जब उस की वजह ही हटा दी जाएगी तो.’’

‘‘उस की वजह नहीं हटाई जा सकती, मां,’’ दिव्या ने बात काटी, ‘‘मुझे उस के साथ ही जीना है.’’

‘‘बेहतर रहे दिव्या, तू यह सब छोड़ कर अपनी परेशानी की वजह मुझे साफसाफ बता दे,’’ सविता ने कड़े स्वर में कहा.

‘‘परेशानी की वजह है, पापा के रतिका शर्मा के साथ विवाहेतर संबंध. पर आप का चुप रहना या  यह कहिए, रतिका को स्वीकार कर लेना.’’

सविता को जैसे किसी ने करंट छुआ दिया.

‘‘यह भी खूब रही, जब इन के और रतिका के रिश्ते को ले कर कभी मुझे भरी जवानी में कोई तनाव नहीं हुआ तो तुझे क्यों हो रहा है?’’ सविता ने हाथ नचा कर पूछा.

‘‘महज इसीलिए मां कि आप कभी इस रिश्ते को ले कर परेशान ही नहीं हुईं. आप ने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं. आप ने अपने पति को चुपचाप एक अन्य स्त्री के साथ बांट लिया. माना कि आप झगड़ा कर के खानदान की इज्जत नहीं उछालना चाहती थीं या सौरभ को टूटे परिवार का बच्चा कहलवाना नहीं चाहती थीं और आप की इस समझदारी और त्याग ने आप को ससुराल में महान बना दिया, लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’ सविता ने आवेग में पूछा, ‘‘उस सब से तुझे क्या फर्क पड़ा? तू क्यों गड़े मुरदे उखाड़ रही है?’’

‘‘मुझे ही तो फर्क पड़ा है, मां. जिन्हें आप गड़े मुरदे समझ रही हैं उन के साए मेरी जिंदगी पर छाए हुए हैं और हमेशा छाए रहेंगे,’’ दिव्या ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘शादी से पहले ही सौरभ ने मुझे पापा और रतिका के संबंध के बारे में बता दिया था. आप की सहनशीलता और त्याग को सराहते हुए कहा था कि उस के जीवन में आदर्श महिला सिर्फ उस की मां हैं और उन्हीं के सभी गुण वह अपनी बीवी में भी देखना चाहेगा. उस समय तो प्यार के ज्वार में मैं ने भी हामी भर ली थी कि मैं भी आप ही के पदचिह्नों पर चलूंगी, मगर अब लग रहा है कि यह तो असंभव है.’’

‘‘क्या असंभव है?’’

‘‘आप जैसा बनना या आप के पदचिह्नों पर चलना.’’

‘‘अरी, छोड़ बेटी, तू मुझ से कहीं अच्छी गृहिणी, पत्नी और मां है,’’ सविता सराहना के स्वर में बोली.

‘‘उस से कुछ फर्क नहीं पड़ता, मां. सवाल है मेरे सहनशील होने का, जो मैं कभी हो ही नहीं सकती. और न आप की तरह अपने पति को किसी दूसरी औरत के साथ बांट सकती हूं.’’

सविता बुरी तरह चौंक पड़ी.

‘‘नहीं, सौरभ का किसी दूसरी औरत के साथ कोई चक्कर नहीं हो सकता. दूसरी औरत के साथ फंसे लोग खुलेआम शाम घर आ कर बच्चों के साथ नहीं खेला करते,’’ सविता कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘और सौरभ बिला नागा बच्चों के सोने से पहले घर आ जाता है. खैर, यह बता, यह दूसरी औरत वाली बात तेरे दिमाग में आई कहां से?’’

‘‘पिछले हफ्ते छोटी चाची के पोते के मुंडन पर यह सब चचेरेफुफेरे भाईबहनोई बैठे अपनी सफलता और कमाई की बातें कर रहे थे. सुनील भैया ने कहा कि वे और सौरभ तो अब इतना कमा रहे हैं कि चाहें तो एक गृहस्थी और भी बसा लें. इस पर सौरभ बोला, ‘और हमारे पास तो एक्स्ट्रा (फालतू) बीवी रखने का लाइसैंस भी है. बीवियों के एतराज करने की परंपरा तो हमारे खानदान में है ही नहीं.’ मानती हूं मां, ये सब मजाक में कही गई बातें थीं.

‘‘लेकिन मजाक को हकीकत में बदलते क्या देर लगती है? सौरभ सफल, आकर्षक और दिलचस्प व्यक्ति है, उस पर तो हर आयु में औरतें कुरबान होती रहेंगी. कितने मोहपाश में बांधूंगी मैं उसे? देशविदेश में घूमता है, कभी भी कहीं भी फिसल सकता है. परिवार के धिक्कार या ‘लोग क्या कहेंगे’ का डर तो उसे है नहीं.

‘‘आप क्यों चुप रहीं, मां? क्यों नहीं खदेड़ा रतिका को अपनी जिंदगी से बाहर? क्यों नहीं अपना संपूर्ण हक जताया पति पर? क्यों बनीं त्याग की मूर्ति और क्यों की एक गलत परंपरा आदर्श के नाम पर स्थापित इस परिवार में? यह सवाल सिर्फ मेरा ही नहीं रिश्ते की मेरी सभी देवरानीजेठानियों का भी है, मां,’’ दिव्या फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘क्यों दिया आप ने हम सब को जीवनभर का यह दर्द? क्या हमारी पीढ़ी के प्रति आप का कोई उत्तरदायित्व नहीं था, मां?’’

सविता हतप्रभ सी देखती रही. उस के पास न तो दिव्या के सवालों के जवाब थे और न ही उस के तनाव का कोई इलाज.

काश… यह मेरी बहू बन जाए

राइटर-  डा. अनिता राठौर मंजरी

मैं 21वीं मंजिल से लिफ्ट में चढ़ी और ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया. मैं ईवनिंग वाक पर लगभग इसी समय निकलती हूं. 20वीं मंजिल पर लिफ्ट रुकी एक सुंदर सी लंबी, गोरी और आकर्षक नैननक्श वाली प्यारी सी लड़की चढ़ी. उसे देख कर मन का पक्षी चहक उठा कि काश यह मेरी बहू बन जाए. पिछले 1 वर्ष से मैं पूरे जोरशोर से अपने आकर्षक एवं स्मार्ट इंजीनियर बेटे के लिए एक प्यारी सी बहू की तलाश में हूं. कुछ सोच कर उस से बोली, ‘‘बेटा, आप इसी टावर में रहते हो?’’

‘‘जी,’’ उस ने संक्षिप्त जवाब दिया और मोबाइल पर नजर गड़ा दी.

मुझे बहुत गुस्सा आया कि अजीब है बस जी कह दिया और मेरी बात को आगे बढ़ाने से पहले ही विराम दे दिया. ग्राउंड फ्लोर पर आते ही वह तेज कदमों से चल पड़ी. शायद वह भी वाक पर निकली थी. कानों में इयर फोन लगाए बातों में मशगूल हो गई. मैं ने भी वाक शुरू कर दी. वह आगेआगे और मैं पीछेपीछे. मु?ो एक पेड़ के फूल बहुत अच्छे लगते थे और रोज 5 मिनट वहां बैठ कर खुशबू का आनंद लेती थी. आश्चर्य वह भी उसी पेड़ के पास रुकी. फोन सुनते हुए खुशबू का मजा लिया. मेरा ध्यान पेड़ और उस के फूलों में कम लड़की की तरफ ज्यादा था. मैं चल पड़ी लेकिन वह देर तक फोन करती खड़ी रही. अब वह मेरे पीछे और मैं उस के आगे. मैं जानबू?ा कर पीछे नहीं देखा कि कहीं वह यह न सम?ो मैं उसे देख रही हूं.

मेरा मन हुआ मैं भी मोबाइल चलाऊं हालांकि मु?ो पता था कि मेरा नैट नहीं चलेगा क्योंकि घर में वाईफाई से कनैक्ट है.  बेटा कहता है मम्मी रिचार्ज करवा लो लेकिन मैं ही मना कर देती हूं. मैं घर में ही तो रहती हूं फिर रिचार्ज करवाने से क्या फायदा?

तभी ओपन जिम आ गया. मैं साइकिल चलाने लगी. वह भी व्यस्त हो गई. जब वह बैंच पर बैठी तो मैं भी उस की बगल में बैठ गई. मु?ो उस से बात करने की तरकीब सू?ा, ‘‘बेटा, देखना मेरा नैट नहीं चल रहा है.’’

वह कानों से इयर फोन निकाल कर बोली, ‘‘आंटी, आप ने कुछ कहा?’’

उस की शहद जैसी मीठी आवाज सुन कर मन में गुदगुदी हुई काश यह मेरी बहू बन जाए.

‘‘बेटा, देखना मेरा नैट क्यों नहीं चल

रहा है?’’

उस ने तुरंत मेरा मोबाइल देखा और बोली, ‘‘आंटी, लगता है आप का प्लान खत्म हो गया है. रिचार्ज करवाना होगा.’’

मु?ो मौका मिल गया हालांकि मैं रिचार्ज करा सकती थी फिर भी अनजान बन कर बोली, ‘‘प्लीज बेटा, आप मेरा रिचार्ज करवा दो. मेरा बेटा बाहर गया हुआ है. उस का फोन भी नहीं लग रहा. अपना नंबर दे देना. बेटे के आते ही मैं पेटीएम करवा दूंगी. मैं तुम्हारे ही टावर के 21वें फ्लोर पर रहती हूं.’’

‘‘ओके, आंटी कोई बात नहीं,’’ कहते हुए उस ने मेरा फोन रिचार्ज करवा दिया और मेरा नैट तुरंत चालू हो गया.

उस का नंबर मैं ने ले लिया. उस का नंबर पा कर मैं खुश हो गई. फिर एक बार लगा काश यह मेरी बहू बन जाए. अपनी वाक अधूरी छोड ़कर अपने टावर में आ कर जल्द ही लिफ्ट से ऊपर पहुंच गई और फ्लैट का ताला खोला. जल्दी से उस प्यारी सी बच्ची का नंबर सेव करने लगी. अरे, उस का नाम तो पूछा ही नहीं तो किस नाम से सेव करूं? फिर मन में मुसकान तैर गई और ‘प्यारी बहू’ के नाम से उस का नंबर सेव कर लिया. डर लगा अगर बेटे ने देख लिया तो चिल्लाएगा कि ये सब क्या है मम्मी? किस का नंबर इस नाम से सेव कर लिया है? फिर सोचा अपने फोन में कुछ भी करने के लिए उसे फोन ही  नहीं दूंगी.

व्हाट्सऐप पर जल्दी सर्च किया, ‘‘हैलो बेटा, मैं आर टावर के 21वें फ्लोर वाली…’’ एक  मुसकराहट वाली इमोजी डाल दी जानबू?ा कर आंटी नहीं लिखा. फिर जल्दी से उसे पेटीएम किया. उस का नाम परी था. सच में वह परी जैसी ही तो है. फिर मनमयूर नृत्य करने लगा काश यह मेरी बहू बन जाए…

जल्द ही कागजकलम ले कर परी के लिए कविता लिखने लगी. कविता लिखने में इतनी मशगूल हो गई कि पता ही नहीं चला बाहर घंटी बज रही है. गेट खोला.

बेटा आया. बोला, ‘‘मम्मी मु?ो पता है आप लिखने में इतना खो जाते हो कि आप घंटी तो दूर ढोलनगाड़े की आवाज भी नहीं सुनते,’’ और फिर जोर से हंस पड़ा, ‘‘क्या लिख रहे हो आप?’’

‘‘अपनी बहू के लिए कविता.’’

‘‘क्या कह रहे हो आप?’’

‘‘अरे मजाक कर रही हूं,’’ कह जल्द

ही उसे खाना दे कर मैं ने व्हाट्सऐप खोल

लिया. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. परी औनलाइन थी.

‘‘हैलो बेटा, मैं ने पेटीएम कर दिया है,’’ और फिर मैसेज कर के उसे स्क्रीन शौट भेज दिया.

‘‘थैंक्स आंटी, इतनी जल्दी क्या थी?’’ फिर वह औफलाइन हो गई.

रात में उस का स्टेटस देखा, ‘‘लोग कहते हैं कि जिद अच्छी नहीं होती मगर मेरी जिद है नफरत मिटाने और प्यार फैलाने की.’’

अरे ये तो मेरी स्वरचित पंक्तियां हैं. तो क्या परी ने चोरी करी हैं. तुरंत मैसेज किया, ‘‘बेटा, क्या यह आप ने लिखा है?’’

‘‘नो आंटी, मैं चोरी नहीं करती किसी का लिखा अच्छा लगता है तो कौपी पेस्ट कर लेती हूं लेकिन रचना के नीचे मूल रचनाकार का नाम जरूर लिखती हूं.’’

मैं ने जल्दबाजी में नीचे रचनाकार का तो नाम देखा ही नहीं था. वहां अपना नाम देख कर गौरवान्वित हो उठी.

मैं उस के विषय में जानने के लिए उत्सुक थी. सो बोली, ‘‘बेटा, आप को वैसे ये पंक्तियां मिली कहां से?

‘‘बस यों ही फेसबुक पर दिखीं तो अच्छी लगीं और अपने स्टेटस पर डाल दीं.’’

‘‘तो आप उस रचनाकार को फेसबुक पर सर्च कर के फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दो न,’’ मैं उसे अपना फेसबुक फ्रैंड बनाना चाहती थी यह सोच कर उसे मैसेज कर दिया.

‘‘अरे आंटी… औफिस की वजह से टाइम ही नहीं मिलता… थोड़ाबहुत फेसबुक चला लेती हूं,’’ मैसेज सैंड कर के तुरंत गुड नाइट मैसेज कर दिया.

मैं मन मसोस कर रह गई. मैं चैटिंग के मूड में थी. मन मार कर शुभरात्रि लिखना पड़ा.

सुबहसुबह जी चाहा सुंदर सी कुछ पंक्तियां लिखते हुए उसे कोई अच्छा सा सुप्रभात संदेश भेजूं लेकिन फिर यह सोच कर नहीं किया कि कहीं वह यह न सम?ो कि मैं जबरदस्ती उस से चिपक रही हूं.

दूसरे दिन मौर्निंग वाकके लिए जैसे ही लिफ्ट में चढ़ी और लिफ्ट 20वीं मंजिल पर रुकी तो वह लिफ्ट में आई. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. सुबहसुबह फूल जैसे खिले खूबसूरत चेहरे को देख कर मेरा दिल खुशगवार हो उठी लेकिन उस ने मु?ो देखा तक नहीं. किसी से फोन पर व्यस्त थी. मु?ो गुस्सा तो बहुत आया पर क्या कर सकती थी मैं.

ग्राउंड फ्लोर पर आते ही वह तेज कदमों से सुसायटी के गेट से बाहर निकल गई. इतनी सुबह सोसाइटी गेट से बाहर निकलने की क्या जरूरत है जब सोसाइटी में वाककरने की इतनी जगह है? मैं यह क्या सोचने लगी. गई होगी किसी काम से. उस की चिंता सी होने लगी क्योंकि कुछ दिनों पहले ही सुना था सोसाइटी के बाहर दूसरी तरफ वाले रोड पर कुछ बदमाशों ने एक महिला की चेन छीन ली थी. वाक के बाद जब टावर पहुंची तो उसे लिफ्ट का इंतजार करते पाया. एक हाथ में दूध की थैली और ब्रैड थी और दूसरे हाथ में सब्जी की थैली थी. अच्छा तो ये लेने गई थी. जैसे ही लिफ्ट ग्राउंड फ्लोर पर रुकी हम दोनों एकसाथ अंदर चले गए. मैं ने ही 20-21 फ्लोर का बटन दबा दिया.

‘‘बेटा, आप अकेले रहते हो?’’

‘‘जी आंटी.’’

‘‘खाना खुद बनाते हो या मेड से बनवाते हो?’’

‘‘मैं खाना खुद बनाती हूं. मेड सफाई और बरतन के लिए रखी हुई है. सब लोग सोचते हैं कि जौब वाली लड़कियां काम नहीं करतीं लेकिन मैं ऐसी नहीं हूं. मैं सब काम कर लेती हूं. सफाई भी छुट्टी वाले दिन अपने हिसाब से करती हूं. कपड़े भी छुट्टी वाले दिन धोती हूं.’’

उस का फ्लोर आ गया. मैं ने मन में सोचा कितनी अच्छी लड़की है साफ

और स्पष्ट बोलती है. खाना भी खुद बनाती है, सफाई भी करती है और कपड़े भी धोती है. नहीं तो जौब वाली लड़कियां कहां करती

हैं ये सब काम. ऊपर से उन के मातापिता का डायलौग. क्या? मैं मन ही मन

मुसकराई कि काश यह मेरी बहू बन जाए तो खूब जमेगी हम दोनों की जब सासबहू साथसाथ बैठेंगी.

अब धीरेधीरे हम दोनों की

सुबहशाम नियमित मुलाकात होने लगी.

हम दोनों की खूब जमने लगी. अब हम एकदूसरे की आदतों, पसंदनापसंद और व्यवहार सम?ाने लगे थे. इसलिए एकदूसरे

से कुछ कहे बिना एकदूसरे की बात सम?ा जाते थे. अच्छी अंडरस्टैंडिंग हो गई थी हमारी आपस में. फोन पर खूब बातें भी होने लगी थीं.

जब भी उसे औफिस से आने में देर

हो जाती तो मैं चिंतित हो उठती और उसे फोन करती तो वह ?ाल्ला कर बोलती कि आप भी न… मैं कोई छोटी बच्ची थोड़े ही हूं.

और जब मु?ो कभी कोई तकलीफ हो जाती और वह मेरी चिंता करती तो मैं भी गुस्से से कहती कि मैं कोई छोटी बच्ची थोड़ी हूं जो मेरी चिंता कर रही हो? मु?ो लिखने का शौक था उसे पढ़ने का.

बस उस की एक आदत मु?ो बुरी लगती थी. उस का देर रात तक जागना. जब मैं कुछ कहती तो वह बोलती, ‘‘आंटी, दिन में तो औफिस की वजह से टाइम नहीं मिलता इसलिए रात में व्हाट्सऐप, फेसबुक और इंस्टाग्राम ने हमें देर रात जागने पर मजबूर कर दिया है. आप इन मुए तीनों को कोसिए. आप के भी तो ये दोस्त हैं,’’ जब वह हंस कर यह कहती तो मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाती थी कि बात तो वह सही कह रही है. मैं भी तो देर रात घुसी रहती हूं फेसबुक और व्हाट्सऐप में.

उसे मेरी एक आदत पसंद नहीं थी और वह थी बेवजह की टोकाटाकी. मैं ने कहा, ‘‘तुम बच्चों में अभी इतनी सम?ा नहीं है इसलिए सम?ाना जरूरी होता है जिस का तुम लोग गलत अर्थ लगा कर उसे टोकाटाकी कहते हो.’’

बात तो आप की सही है लेकिन हर वक्त टोकाटाकी… ऐसा लगता है जैसे

24 घंटे कोई सिर पर सवार है.’’

उस की बात सुन कर लगा सही कह रही है यह. धीरेधीरे 1 महीना गुजर गया. एक सुबह वह उदास स्वर में बोली, ‘‘आंटी, मु?ो जल्द ही यह फ्लैट छोड़ना होगा क्योंकि मेरा बौयफ्रैंड चाहता है कि मैं उस के साथ किसी दूसरी सोसाइटी में रहूं.’’

यह सुन कर मेरा दिल टूट गया साथ ही उसे बहू बनाने का सपना भी.

‘‘बेटा, बुरा नहीं मानो तो एक बात बोलूं?’’

‘‘जी जरूर बोलिए.’’

‘‘शादी से पहले इस तरह साथ रहना गलत है.’’

‘‘आंटी, वह चाहता है कि कुछ समय हम साथ गुजारें जो यहां संभव नहीं है.’’

‘‘उसे यहां क्या परेशानी है?’’

‘‘मालूम नहीं कल शाम को वह मु?ो एक कौफीहाउस में मिलेगा. आप भी वहां आइए और उसे यह बात समझना कि वह जल्दी शादी करे क्योंकि मैं भी इस तरह अब मिल नहीं सकती.’’

‘‘नहीं बेटा मैं कौन होती हूं सम?ाने वाली. मैं क्यों टोकाटाकी करूं? तुम ने ही तो टोकाटाकी के लिए मना किया है.’’

‘‘आंटी, जब बच्चे गलत राह पर जा रहे हों तब बड़ों की टोकाटाकी जायज है.’’

‘‘ठीक है वह कब आ रहा है?’’

‘‘कल आप शाम 8 बजे कौफीहाउस आ जाइए. मैं आप को लोकेशन भेज दूंगी.’’

शाम के खाने की तैयारी कर के कौफीहाउस जाने के लिए कैब बुक कर ही रही थी कि बेटे का फोन आ गया, ‘‘मम्मी देर से घर आऊंगा. एक दोस्त के साथ कहीं जा रहा हूं.’’

कैब में बैठते ही मन में एक हूक उठी कि काश यह मेरी बहू बन जाए.

कौफीहाउस पहुंचते ही वहां अपने

बेटे को देख कर मैं खुशी के अतिरेक से चिल्ला पड़ी, ‘‘तू यहां? तू ही परी का बौयफ्रैंड है क्या?’’

‘‘परी… हां पर माते… मगर आप यहां क्या कर रही हैं? आप को परी के बारे में…’’ वह सकपकाया.

जब तक परी भी आ गई, ‘‘आप इसे जानती हैं आंटी?’’ वह हकलाते हुए बोली.

‘‘इसे क्या इस के पूरे खानदान को जानती हूं मैं. इस ने ही मेरी कोख से जन्म ले कर मु?ो मां बनने का गौरव प्रदान किया है.’’

‘‘लेकिन आप ने कभी जिक्र नहीं किया अपने साहबजादे का?’’ परी मुसकरा कर बोली.

‘‘हां मां, आप ने भी कभी मु?ो नहीं बताया कि यह आप की दोस्त है,’’ बेटा भी अचरज भरे स्वर में बोला.

‘‘बेटा, मां हूं तुम्हारी. तुम धीरेधीरे देर रात जो फोन पर बतियाते

थे मु?ो तभी शक हो गया था कि कुछ तो है? थोड़ी सी मशक्कत करने पर मैं ने तुम दोनों की प्रेम कहानी जान ली और भविष्य में अपनी बहू के साथ तालमेल स्थापित करने के लिए यह सब नाटक रचा और तुम दोनों को भनक भी नहीं होने दी.’’

‘‘जय हो माते, आप को तो सीआईडी में होना चाहिए,’’ कहते हुए वह मेरे कदमों में ?ाक गया.

परी भी बोली, ‘‘मान गए आप को होने वाली सासूमां उर्फ सीआईडी प्रदुमन,’’ और मेरे गले से लग गई.

काश मेरी यह बहू बन जाए का मेरा सपना पूरा हो गया था. मेरा बेटा अब तक मामला छिपा रहा था क्योंकि परी की जाति कुछ और थी और हमारी ऊंची थी. बेटा घबरा रहा था कि मैं इनकार न कर दूं मगर मैं तो उसे कब की बहू मान चुकी थी और फिर असली मुहर लगाने के लिए मैं ने उस के मातापिता को जल्दी ही अपने घर आने के लिए निमंत्रित कर दिया.

समझौता : रवि और नेहा के बीच कौनसा समझौता हुआ था

Writer- पुष्णा सक्सेना

रवि  का फोन देख कर नेहा को कुछ आश्चर्य हुआ. ने खुद फोन पर कहा, ‘‘कुछ इंपौर्टैंट बातें करनी हैं, 5 बजे शाम को तैयार रहना. मैं स्वयं लेने आ जाऊंगा,’’ और फिर फोन काट दिया.

‘क्या इंपौर्टैंट बातें होंगी,’ सोच कर नेहा मुसकरा पड़ी. अपने कालेज की साहसी स्टूडैंट्स में नेहा का नाम टौप पर था. शायद इसीलिए रवि का इनवाइट ऐक्सैप्ट करने में उसे अधिक देर नहीं लगी.

ठीक 5 बजे रवि की कार का हौर्न सुन कर नेहा बाहर आ गईर्. समय की पाबंदी नेहा का गुण था. पीछे से मां ने कहा भी, ‘‘अरे, घर में तो बुलातीं,’’ लेकिन तब तक नेहा बाहर निकल चुकी थी. रवि कार से बाहर निकल कर उस की प्रतीक्षा कर रहा था. नीली ब्रैंडेड जैकेट व जींस में रवि का व्यक्तित्व निखर उठा था.

‘‘हाय,’’ के साथ ही कार का दरवाजा खोल रवि ने नेहा को अपने साथ की अगली सीट पर बैठा लिया. कार के रवाना होते ही एक अजीब सी पुलक से नेहा अभिभूत हो उठी. फिर भी रवि का अनयूजुअल साइलैंस नेहा को कुछ परेशान कर रहा था.

रेस्तरां के एकांत कैबिन में पहुंचते ही साहसी नेहा का मन भी धड़कने लगा. बेहद रवि ने शालीनता के साथ कुरसी आगे खींच कर नेहा के बैठने का वेट किया.

‘‘क्या पसंद करेंगी, कोल्ड या हौट?’’ रवि ने बैठते हुए पूछा.

रवि के प्रश्न पर हलके स्मित के साथ नेहा ने कहा, ‘‘जो आप पसंद करें.’’

रवि गंभीरता से बोला, ‘‘देखो नेहा, तुम से कुछ बातें स्पष्ट करनी थीं. विश्वास है तुम मेरा मतलब सम?ा जाओगी.’’

कुछ सरप्राइज के साथ नेहा ने जैसे ही रवि की ओर देखा, वह बोला, ‘‘मां तुम्हें अपनी डौटर इन ला मान चुकी हैं. हर क्षण तुम्हारी प्रशंसा करती रहती हैं. तुम ने उन्हें पूरी तरह अपने मोहपाश में बांध लिया है पर मेरी प्रौब्लम कुछ और है. मैं कहीं और कमिटेड हूं.’’

रवि के अंतिम शब्दों ने नेहा को बुरी तरह चौंका दिया कि ओह वह किस इंद्रधनुषी स्वप्नजाल में फंस रही.

‘‘तो प्रौब्लम क्या है? आप वहां विवाह करने को स्वतंत्र हैं. मैं ने तो कोई बंधन नहीं लगाया. फिर प्रपोजल भी तो तुम्हारी तरफ से ही आया था. हम तो गए नहीं थे,’’ कहतेकहते नेहा का स्वर कुछ हद तक तीखा हो आया था.

‘‘यही तो प्रौब्लम है नेहा. मैं मां का एकमात्र बेटा हूं. बिना जाने मां की बात मानने का वचन दे बैठा हूं और अब अगर वचन तोड़ता हूं तो मां घर छोड़ कर गोवा चली जाएंगी. वहां हमारा एक फ्लैट है. उन की जिद तो तुम मु?ा से अधिक अच्छी तरह जानती हो. पिताजी के न रहने पर मां ने तुम्हें भी मेरी तरह इस बंधन को स्वीकार करने के लिए विवश किया था. मां कह रही थीं तुम इंडिपैंडैंट जीवन बिताना चाहती थीं. क्या यह सच नहीं है?’’

रवि के बात की सीरियसनैस पर नेहा हंस पड़ी, ‘‘क्या स्ट्रेंज बात है. मैं मैरिज कमिटमैंट में बंधना नहीं चाहती, यह आप की खुशी का मामला है.’’

रवि पूरे उत्साह से बोला, ‘‘बिलकुल यही बात है नेहा. हम दोनों विवश किए गए हैं. अब परिस्थिति यह है कि  अगर हम विवाह करते हैं तो मेरे मन के अलावा मेरा सबकुछ पत्नी के नाते तुम्हारा. तुम्हारी हर आवश्यकता का मैं ध्यान रखूंगा. बदले में तुम से कोई अपेक्षा नहीं रखूंगा. हां, कभीकभी पार्टियों में हमें कपल की सफल एक्टिंग भी करनी होगी. इन सब कष्टों के बदले मैं तुम्हें प्रतिमाह क्व40 हजार जेबखर्च के रूप में दूंगा. कहिए, क्या खयाल है तुम्हारा?’’

‘‘बहुतबहुत धन्यवाद,’’ नेहा के स्वर में उत्साह था या व्यंग्य रवि ठीक से सम?ा नहीं सका.

‘‘धन्यवाद किसलिए?’’

‘‘क्व40 हजार की रकम जो तुम दे रहे हो. क्या थैंक्स भी न दूं? फिर ये सब इतने स्पष्ट रूप से जो बताया है आप ने.’’

‘‘अगर न बताता तो?’’

‘‘आप से नफरत करती.’’

‘‘और अब?’’

‘‘अब कोशिश करूंगी आप का दृष्टिकोण सम?ा सकूं.’’

रवि ने आश्वस्त हो नेहा की ओर हलके से मुसकरा कर देखा, फिर कहा, ‘‘नेहा तुम सोच लो. तुम भी स्वतंत्र विचारों वाली लड़की हो. तुम्हें मैं हर संभव इंडिपैंडैंस दूंगा. हां, बदले में अपने लिए भी इंडिपैंडैंस चाहूंगा. 2 अच्छे फ्रैंड्स की तरह हम साथ रह सकते हैं न?’’

‘‘रवि इतने इंडिपैंडैंट हो कर भी आप

अपना मनचाहा पार्टनर नहीं पा सके, यह क्या कम आश्चर्य की बात नहीं है? मैं आप की मां

से सिफारिश करूंगी. शायद वे मेरी बात मान

लें. तब तो आप मेरे औवलाइज्ड रहेंगे न?’’

कह कर नेहा अपनी परिचित स्माइल के साथ उठने लगी.

‘‘नहीं… नहीं… नेहा ऐसा अनर्थ न कर बैठिएगा. मां का पूजापाठ, छुआछूत तुम

जानती हो क्या एक विदेशी, विधर्मी, मांसाहारी को वे इस जीवन में कभी अपना सकेंगी? उन का सपना तोड़ मृत्यु से पूर्व ही मैं उन्हें समाप्त नहीं कर सकता.’’

कुछ कटु हो कर नेहा ने तिक्त स्वर में कहा, ‘‘फिर आप कुछ और वर्ष मैरिज टाल

क्यों नहीं देते? मु?ा से आप क्या ऐक्सपैक्ट करते हो? मेरा अपना जीवन है, सपने हैं, मैं आज के लिए सैक्रिफाइस क्यों करूंगी?’’

रवि के उठते ही नेहा रेस्तरां से बाहर निकल आई और मन ही मन में बोली, ‘हूं क्या सरोगैंस है. मैं इन के पक्ष में निर्णय दूंगी. क्या सम?ाते हैं अपने को?’

नेहा को घर के दरवाजे पर छोड़ कर रवि चला गया. पर्स को एक ओर फेंक नेहा पलंग पर पड़ गई. उस की कुछ सोचनेसम?ाने की शक्ति चुक गई थी, ‘पाखंडी कहीं का, इस की मां के लिए मैं बलि चढ़ जाऊं,’ पर हर विरोध के बावजूद रवि का आकर्षक व्यक्तित्व बारबार स्मृति में आ उसे चिढ़ा जाता. अपने मृत धनी पिता का एकमात्र उत्तराधिकारी, विदेश से सौफ्टवेयर इंजीनियरिंग की डिगरी प्राप्त रवि का आकर्षण क्या कम था?

मध्यवर्गीय परिवार की नेहा के लिए जब रवि की मां ने प्रस्ताव रखा था तो मां, पिता,

छोटा भाई सब गर्व और उल्लास से भर गए थे. घर की बेटी इतने बड़े परिवार में जाएगी, इस

से बड़ा सुख और क्या हो सकता था? रवि का घर नेहा के घर के एकदम पास था. नेहा का परिवार एक फ्लैट में किराए पर रहता था. रवि

का पूरा बड़ा हाउस था. 4-5 लोग घर में काम करते थे. एकमात्र बेटे के विदेश चले जाने पर

रवि की मां अपना सारा स्नेह नेहा पर ही लुटाती थीं, हर छोटेबड़े काम के लिए वे नेहा पर ही निर्भर थीं. उस घर की डौटर इन ला बनने का स्वप्न नेहा ने कभी नहीं देखा था. पर रवि की बातें सुन कर नेहा को लगता जैसे वह उसे युगों से जानती हो.

रवि की पसंदनापसंद क्या है, यह रवि की मां नेहा को सुनाया करती थीं. नेहा डाक्टर

बन कर गांव में जाना चाहती थी. वह आजीवन विवाह न करने का निर्णय रवि की मां के प्रस्ताव और अनुरोध पर ही नहीं ले सकी थी. रवि की मां ने सु?ाव दिया था कि वह शहर में ही क्लीनिक खोल कर गरीबों की सेवा कर सकती है. हो सकता है वे लोग एक हौस्पिटल बनवा दें और यह योजना नेहा को भा गई थी.

मगर अब वह क्या करे? छोटा भाई

समन्वय बारबार हंस रहा था, मां का उत्सुक चेहरा उस से कुछ पूछ रहा था. एक बार नेहा

की इच्छा हुई कि अपनी मां को सबकुछ बता दे पर अपमान से मन तिलमिला उठा. सिरदर्द का बहाना कर वह सारी रात करवटें बदलती रही. कालेज के जीवन में नेहा ने हर चुनौती खुशी से

स्वीकार की थी पर यह चुनौती जीवनभर का

प्रश्न थी. सुंदर, सरल दिखने वाली नेहा के

मन की दृढ़ता सब जानते थे. अब वही नेहा असमंजस में पड़ गई थी कि क्या करे? सुबह

8 बजे रवि को उसे अपना निर्णय देना था. यह निर्णय उस के पक्ष में नहीं होना चाहिए. उस का दंभ टूटना ही चाहिए, यह सोचतेसोचते नेहा न जाने कब सो गई.

सुबह समन्वय ने ?ाक?ोर कर जगाया, ‘‘दी, क्या पूरी रात सपने देखती रहीं? जीजाजी की मां आई हैं.’’

हड़बड़ा कर नेहा ने रजाई फेंक दी. अस्तव्यस्त सी नेहा के उठने से पूर्व ही रवि की मां ने आ कर उस का माथा छुआ और परेशान हो कर बोलीं, ‘‘बुखार तो नहीं है वरना मेरी नेहा तो कभी इतनी देर तक नहीं सोती, 8 बजने वाले हैं.’’

रवि की मां अकसर वाक पूरी कर के नेहा की मां से मिलने आ जाती थीं और बिना संकोच के चाय पी कर जाती थीं. कई बार तो खुद किचन में चाय बना लेतीं जबकि अपने घर में कभी किचन में नहीं घुसती थीं.

तभी मोबाइल की घंटी सुन नेहा का मन धड़कने लगा. समन्वय ने शैतानी से मुसकरा कर फोन थमा दिया. उधर से रवि की सधी आवाज कानों में पड़ी, ‘‘कहिए नेहा, ठीक से सो सकी हो न? क्या निर्णय लिया तुम ने? क्या मैं बधाई दे सकता हूं तुम्हें?’’

‘‘जी, थैंक्स,’’ कह कर नेहा एकदम हड़बड़ा गई.

उधर से रवि का पूर्ण आश्वस्त स्वर कानों में बज उठा, ‘‘शुक्रिया, आई एम औब्लाइज्ड नेहा,’’ कह कर रवि ने फोन काट दिया.

इधर रवि की मां   के चेहरे पर प्रसन्नता ?ालक उठी थी. वे नेहा की मां से बोलीं, ‘‘देखा, सुबह होते ही फोन कर रहा है, एक हमारे दिन थे,’’ कह कर वे जोर से हंस दीं.

उस के बाद नेहा बहुत व्यस्त हो गई. रवि की मां खरीदारी करने के लिए नेहा को भी साथ ले जाती और रवि तो साथ होता ही था. नेहा

को कभीकभी आश्चर्य होता कि रवि कितनी सहज ऐक्टिंग कर लेता है. सगाई के मौके पर

रवि ने जिद की कि नेहा अपनी पसंद की अंगूठी स्वयं ले.

रवि के साथ अंगूठी खरीदने के लिए खड़ी नेहा ने किंचित व्यंग्य से कहा, ‘‘आप को तो पहले भी अनुभव होगा, अब फिर अंगूठी खरीदने के लिए उल्लास क्यों जता रहे हैं?’’

किंतु रवि ने नेहा की स्वीकृति की मुहर लगवा कर ही अंगूठी खरीदी. अंगूठी पहनाते समय रवि बड़ा सहज रहा. किंतु उस के हाथ के स्पर्श से जब नेहा के तार ?ान?ाना उठे तो वह बुरी तरह ?ां?ाला उठी.

विवाह भी तय हो गया. नेहा को अपने पर कौन्फिडैंस था. उस ने रवि की

बात नहीं बताई किसी को. ब्राइडगू्रम के रूप में रवि का मोहक व्यक्तित्व सब की प्रशंसा और कुछ की ईर्ष्या का कारण बन गया. विवाह की प्रथम रात्रि को न चाहते हुए भी वह संस्कारशील, लज्जाशील वधू बन कर बैठी रही.

कमरे में घुसते ही रवि ने परिहासपूर्ण

स्वर में कहा, ‘‘अरे, यह क्या? आप तो सचमुच ही न्यू ब्राइड लग रही हैं. हम दोनों मित्र हैं, याद है न?’’

लज्जा से नेहा का मन रोने को हो आया.

‘‘खैर, लीजिए जब तम रीति निभा रही हो तो मैं भी उपहार दे कर तुम्हारा घूंघट हटाऊंगा.’’

हाथों में बहुमूल्य हीरे के कंगन पहनाने के प्रयास पर नेहा चिढ़ गई, ‘‘आप के इस उपहार के लिए मैं ने यह वेश धारण नहीं किया. यह तो मां की जिद थी. मेरी ओर से ये कंगन आप अपनी उसी प्रियतमा को दे दीजिए.’’

रवि ने मुसकराते हुए हाथ जबरन पकड़ कर उन में कंगन पहना दिए, ‘‘उस की चिंता तुम्हें नहीं करनी होगी, नेहा. मैं उस की चिंता स्वयं

कर लूंगा.’’

जलती अग्निशिखा सदृश रवि का यह वाक्य नेहा के मन व प्राण को ?ालसा गया. क्रोध से कंगन उतार नेहा नीचे बिछे कालीन पर जा लेटी.

रवि ने स्नेह से पुकारा, ‘‘नेहा, हमारे सम?ौते में ऐसा तो कुछ नहीं था. पलंग काफी बड़ा है.’’

‘‘जी नहीं, मेरी नीचे सोने की आदत है,’’ नेहा बोली.

मगर रवि ने उसे बड़ी सहजता से उठा कर पलंग पर लिटा दिया, ‘‘मेरे यहां तुम्हें कष्ट हो, यह मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता नेहा.’’

दूसरे दिन प्राय: घर में रवि की मौसी, मामी उत्सुकता से नेहा का मुख निहार रही थीं. उस का अपमान व लज्जा से आरक्त चेहरा और रवि का प्रसन्न मुख उन्हें आश्वस्त कर गया. उन के परिहास नेहा के अंतर में गड़ जाते. अपने को सहज बनाए रख कर नेहा सब छोटेबड़े रीतिरिवाज पूरे करती गई.

इन सब रस्मों में रवि का सहयोग देख नेहा जल रही थी. वह सोच रही थी, पुरुष कितने पाखंडी होते हैं, ऊपर से आज्ञाकारी बनते हैं और अंदर से धूर्त होते हैं. अगर वह रवि की मां को सब बता दे तो? फिर रवि के भयभीत चेहरे को याद कर के नेहा चेष्टापूर्वक होंठों पर आई मुसकान दबा गई.

घर में सबकुछ सहज, सामान्य चल रहा था. मां ने रवि से कहा, ‘‘नेहा को मालदीव

घुमा ला.’’

भयभीत नेहा एकांत की कल्पना से सिमट मां से याचनापूर्ण शब्दों में बोली, ‘‘नहीं मां, मैं तुम्हें यहां अकेले छोड़ कर नहीं जाऊंगी.’’

रवि की दुष्ट मुसकान पर नेहा का सर्वांग जल उठा. वह चाहती थी कि रवि की प्रिया के विषय में कुछ जाने पर रवि ने कभी नेहा से उस विषय में बात ही नहीं की.

फिर भी रवि की अज्ञात प्रिया नेहा के साथ हर पल जीती थी. रात में रवि ने पूछा, ‘‘अच्छा नेहा क्या मैं तुम्हारे लिए सचमुच इतना असाध्य हूं कि  मेरे साथ घूमने जाने की कल्पना मात्र से जाड़ों में भी तुम्हें पसीना आ गया?’’

नेहा ने शांत रह कहा, ‘‘अगर यह सच है तो क्या गलत था? क्या मेरे साथ रहते हुए भी आप हर पल किसी और के साथ नहीं रहते? फिर हमारे सम?ौते में इस तरह के दिखावोें की बात तो आप ने की नहीं थी?’’ कह कर नेहा करवट बदल सोने का अभिनय करने लगी.

नेहा के एक मित्र डाक्टर आनंद उस से मिलने आया. नेहा के विवाह के समय डाक्टर आनंद एक कौन्फ्रैंस में भाग लेने अमेरिका गया था. नेहा उस की बहुत प्रशंसिका थी. रवि का परिचय करा नेहा डाक्टर आनंद से बातों में इस तरह व्यस्त हो गई मानो रवि का अस्तित्व ही

न हो.

डाक्टर आनंद के जाते ही रवि एकदम रिक्त कंठ से बोला, ‘‘अगर तुम्हें उन से इतना लगाव था तो उन से विवाह क्यों नहीं कर लिया?’’

नेहा बड़े शांत स्वर में बोली, ‘‘जिस से बहुत लगाव हो उसी से विवाह किया जाए, यह जरूरी तो नहीं.’’

जैसे ही रवि ने यह सुना वह तिलमिला कर बाहर चला गया.

आनंद प्राय: आता रहता. उस का विनोद स्वभाव रवि की मां को बहुत प्रिय था. इसीलिए मां के आग्रह पर हस्पताल जाने के पूर्व डाक्टर आनंद प्राय: उन के घर आता और रवि की मां

व नेहा के साथ ही कौफी पीता था. वापस जाते समय डाक्टर आनंद को कभीकभी रवि भी

मिल जाता.

रवि आश्चर्यजनक रूप से दफ्तर से जल्दी वापस आने लगा था. उधर नेहा ने परिस्थितियों से सम?ौता कर लिया था. उत्सव, समारोहों में नेहा की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी. कभीकभी पार्टियों में प्रशंसकों से घिरी नेहा को खोज पाना रवि के लिए समस्या हो जाती. जब डांस पार्टियां होती थीं तो अकसर नेहा रवि को छोड़ कर किसी और के साथ नाचना शुरू कर देती.

नेहा का कंठ मधुर था. अब तो मानो उस के गीतों में वेदना साकार हो जाती थी. एक दिन पार्टी में उस ने गाया भी.

रवि उस से बोला, ‘‘तुम इतना अच्छा गा लेती हो, इस का मु?ो पता नहीं था.’’

अपने लिए पहली बार प्रशंसा सुन कर नेहा को अच्छा लगा. संयत, सधी आवाज में बोली, ‘‘मैं क्या हूं यह जानना तो हमारे सम?ौते की शर्त नहीं थी, फिर यह दुख क्यों?’’

उत्तर में कोई व्यंग्य न था पर रवि क्षुब्ध

हो उठा.

रवि के दफ्तर जाते समय नेहा बोली, ‘‘रवि, अगर में क्लीनिक न खोल किसी बड़े अस्पताल में नौकरी कर लूं तो आप को आपत्ति तो नहीं होगी?’’

रवि ने बहुत ही कठोर शब्दों में कहा, ‘‘क्यों घर पर डाक्टर आनंद से मिलने में कोई असुविधा है क्या? पर तुम तो शायद उसी के साथ काम करना चाहोगी. अगर जेबखर्च अपर्याप्त है तो और बढ़ जाएगा पर तुम्हारा अस्पताल में नौकरी करना मु?ो कभी स्वीकार न होगा.’’

‘‘ठीक है, मैं पास ही क्लीनिक खोल

लूंगी. और हां, आप का दिया जेब खर्च मैं ने कभी छुआ भी नहीं है. पर वक्त काटना मु?ो कठिन लगता है,’’ कहती हुई नेहा तीर सी कमरे से बाहर चली गई.

दूसरे दिन दफ्तर से आते ही रवि ने मां से कहा, ‘‘10 दिनों का अवकाश ले आया हूं. नेहा से कह दो मालदीव जाना है.’’

सुनते ही नेहा ने उत्तर दिया, ‘‘कल से क्लीनिक खोलने की व्यवस्था करनी है, इसलिए जाना असंभव है.’’

एकांत पाते ही रवि ?ाल्ला उठा, ‘‘हमें

जाना ही होगा, क्लीनिक बाद में खोला जा

सकता है.’’

‘‘आप की स्वतंत्रता में मैं कभी बाधा नहीं बनी. फिर आप ने मेरी स्वतंत्रता का भी आश्वासन दिया था.’’

आवेश में नेहा को जबरदस्ती आलिंगन में ले रवि बोला, ‘‘तुम मेरी पत्नी हो, मैं पति के नाते तुम्हें आज्ञा देता हूं कि तुम्हें चलना है.’’

आश्चर्य से नेहा का मुख खुला का खुला रह गया, ‘‘आप की पत्नी होने

के नाते क्या मैं केवल आप की आज्ञा पालन करने के लिए हूं? कहां गया आप का वादा? जब जी चाहा, पत्नी बना लिया, जब चाहा दूर धकेल दिया,’’ नेहा एकदम फूट पड़ी. कई दिनों का बांध एकसाथ टूट गया.

रवि ने हंसते हुए बड़े स्नेह से नेहा का सिर अपने सीने से चिपका लिया और स्नेहिल हाथों से उस के मुख पर बिखरी जुलफों को हटाते हुए बोला, ‘‘बस हार गईं? आखिर निकलीं न बुद्धू. अरे भई, जब मां ने कहा था कि तुम मु?ा से विवाह करने को उत्सुक नहीं हो तो मेरा अहं आहत हुआ था. मेरा संबंध न किसी और से था न है न होगा. मैं तो मां की तरह बस तुम्हारा पुजारी हूं और रहूंगा. क्या इतना सा सत्य भी तुम मेरी आंखों में नहीं पढ़ पाईं?’’

नेहा आश्चर्य से सिर उठा कर बोली, ‘‘क्या इतने दिनों तक आप मु?ा से भी ऐक्टिंग करते रहे?’’ कहते वह शर्म से लाल हो उठी.

‘‘हां, सच इतने दिन बेकार जरूर गए पर इस रोमांस में क्या मजा नहीं आया नेहा?’’ फिर एक पल रुक रवि ने पूछा, ‘‘सच बताना नेहा, क्या डाक्टर आनंद से तुम्हें कुछ ज्यादा ही

लगाव है?’’

‘‘धत्, वे तो मु?ो बड़े भाई जैसे पूज्य हैं. उन्होंने ही तो मु?ो डाक्टर बनने की प्रेरणा दी थी.’’

नेहा को अपनी बांहों में समेट स्नेह चुंबन अंकित कर रवि ने पूछा, ‘‘अब मालदीव चलना है या क्लीनिक खोलोगी?’’

नेहा ने लजाते हुए पूछा, ‘‘इतना तंग क्यों किया रवि?’’

‘‘एक नए अनुभव के लिए. अगर उसी पुरातनपंथी ढंग से विवाह कर लेते तो क्या तुम्हारे लिए इतनी चाहत होती? कितनी बार ईर्ष्या से डाक्टर आनंद को पीटने को जी चाहा था.’’

नेहा की चढ़ती भृकुटि देख रवि हंस पड़ा, ‘‘माफी चाहता हूं भूल गया था कि वे पूजनीय हैं. सच, कितनी बार अपने में समेट लेने के लिए जी मचला था पर जब विदेश में था तभी सोच लिया था कि जब तक तुम्हारे मन में अपने लिए चाह नहीं जगा लूंगा, तब तक मात्र आम भारतीयों की तरह पति बन कर अधिकार नहीं लूंगा,’’ फिर हंस कर नेहा को छेड़ा, ‘‘क्यों, कैसा रहा हमारा घर वाला हनीमून?’’

‘‘तुम्हारे हनीमून की ऐसी की तैसी. मां न जाने क्या सोचती होंगी,’’ कहते हुए नेहा अपने को छुड़ा कर नीचे भाग गई.

रीते मन की उलझन

शाम के 7 बज चुके थे. सर्दियों की शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. बस स्टैंड पर बसों की आवाजाही लगी हुई थी. आसपास के लोग भी अपनेअपने रूट की बस का इंतजार कर रहे थे. ठंडी हवा चल पड़ी थी. हलकीफुलकी ठंड शालू के रोमरोम में हलकी सिहरन पैदा कर रही थी. वह अपनेआप को साड़ी के पल्लू से कस कर ढके जा रही थी.

शालू को सर्दियां पसंद नहीं है. सर्दियों में शाम होते ही सन्नटा पसर जाता है. उस पसरे सन्नाटे ने ही उस के अकेलेपन को और ज्यादा पुख्ता कर दिया था. सोसाइटी में सौ फ्लैट थे. दूर तक आनेजाने वालों की हलचल देख दिन निकल जाता लेकिन शाम होतेहोते वह अपनेआप को एक कैद में ही पाती थी. उस कैदखाने में जिस में मखमली बिस्तर व सहूलियत के साजोसामान से सजा हर सामान होता था. वह अकेली कभी पलंग पर तो कभी सोफे पर बैठी मोबाइल पर उंगलियां चलती तो कभी बालकनी में खड़ी यू आकार में बने सोसाइटी के फ्लैटों की खिड़कियों की लाइटें देखती जो कहीं डिम होतीं तो कहीं बंद होतीं. चारों तरफ सिर्फ सन्नाटा होता था.

सोसाइटी के लौन में दोपहर बाद बच्चों के खेलनेकूदने के शोर से उस सन्नाटे में जैसे हलचल सी नजर आती. वह भी रोजाना लौन में वाक के लिए चली जाती और कुछ देर हमउम्र पास पड़ोसिनों के साथ अपना वक्त गुजार आती. फिर भी शाम की चहलपहल के बाद सिर्फ सन्नाटा ही होता. अपने शाम के खाने की तैयारी के बाद भी उस के पास होता सिर्फ रोहन का इंतजार. वह जैसेजैसे अपनी उन्नति की सीढि़यां चढ़ रहा था वैसेवैसे उस का घर के लिए वक्त कम होता जा रहा था. कई बार उस ने शिकायत की लेकिन रोहन उसे एक ही बात कहता, ‘‘शालू, तुम नहीं सम?ागी बौस बनना आसान नहीं है. प्राइवेट सैक्टर है इतनी सहूलियत हमें कंपनी इसीलिए ही देती है कि हम टाइम पर काम करें.’’

रोहन की बातों पर शालू चुप हो जाती थी और उस छोटी सी बहस के बाद दोनों के बीच कोई वार्त्तालाप न होता. रात रोहन अपने लैपटौप पर कुछ न कुछ औफिशियल काम करने लगता. न जाने कब सोता. रोज की यही दिनचर्या थी, उस की. उस के बाद कभीकभी तो रोहन हफ्ते 15 दिन के टूर से लौटता और कभी विदेश जा कर महीनेभर बाद लौटता. इस दौरान शालू अकेली ही रहती. कभीकभी अपनी सहेलियों से, पासपड़ोसियों से मिल आती लेकिन इन सब से कब तक उस का वक्त गुजरता. उसे अपनी सहेलियों को उन के परिवार व पति के साथ देख खुशी तो होती साथ ही जलन भी होती. उस के घर की चारदीवारी में तनहाई और अकेलापन उस के मन को रीता किए जा रहा था.

आजकल दोनों में काम की बात ही होती थी. पहले सी आपसी नोक?ांक, हंसीमजाक भी अब बंद हो गया था. कभीकभी रोहन उसे पार्टी में व बाहर ले कर जाता था. वह कभी गलत राह पर भी नहीं था यह शालू को विश्वास था लेकिन उस के पास उस के लिए भी तो वक्त नहीं था.

एक दिन शालू ने रोहन को अपनी सहेली की ऐनिवर्सरी पार्टी में चलने को कहा. रोहन के साथ चलने की हां भरने पर ही वह बड़े शौक से रोहन की पसंद की शिफौन की गुलाबी साड़ी पहन तैयार हुई. बाल भी खुले रखे साथ में पर्ल सैट पहन उस ने उस दिन अपनेआप को दर्पण में बारबार निहारा. आज काफी अरसे बाद वह रोहन के साथ अपनी सहेलियों के बीच जा रही थी वह बहुत खुश थी लेकिन धीरेधीरे शाम से रात हो गई. वह रोहन का इंतजार करती रही. फोन करती तो स्विच्ड औफ. न जाने कब रोहन का इंतजार करतेकरते उस की सोफे पर ही आंख लग गई.

रात 12 बजे रोहन ने घर की बैल बजाई तो उस ने अपनी सूजी हुई लाल आंखों को छिपाते हुए गेट खोल दिया. अपने सामने शालू को तैयार देख रोहन को याद आया कि उसे तो आज शालू की फ्रैंड की ऐनिवर्सरी में जाना था. वह शालू को देखते ही बोला, ‘‘ओह सौरी शालू, मीटिंग लंबी चली… मैं तुम्हे कौल भी नहीं कर पाया.’’

रोहन को उस दिन शालू ने कुछ न कहा. गेट खोलकर वह कमरे में चली गई और चेंज कर बिस्तर पर औंधे मुंह लेटी रही. न जाने कितनी बार रोहन ने बात करने की कोशिश की लेकिन शालू आज बुत बनी थी.

सुबह शालू चुपचाप नाश्ता बना कर पैकिंग में लग गई. रोहन औफिस के लिए

निकलने लगा तो उस ने पूछा, ‘‘यह पैकिंग… तुम कहीं जा रही हो?’’

शालू ने कहा, ‘‘हां, मायके.’’

रोहन रात की बात याद कर बोला, ‘‘सौरी, वह कल टाइम ही नहीं मिला. शालू प्लीज.’’

‘‘रोहन अब तुम्हारी सौरी और प्लीज से मैं थक चुकी हूं. मु?ो जाने दो,’’ उस दिन वह रोहन के घर से अकेले निकल पड़ी थी. उस ने बहुत रोका लेकिन अब शायद उस की बरदाश्त से बाहर था वहां रुकना.

मायके पहुंची तो अचानक उसे देख कर सब हैरान थे लेकिन वह सरप्राइज विजिट का नाम दे 15 दिन रुक गई. मगर धीरेधीरे मां को सब सम?ा आने लगा. उन्होंने शालू से पूछा तो वह हंस कर अपने दर्द को छिपा इतना ही कह पाई, ‘‘क्या, मैं यहां कुछ दिन अपनी मरजी से नहीं रुक सकती?’’

मां ने शालू की नजरों को पढ़ते हुए कहा, ‘‘बेटा रह तो सकती हो पर अब तुम्हारी मरजी के साथ रोहन की मंजूरी भी जरूरी है.’’

मां के इतना कहते ही शालू का छिपा दर्द उभर उठा और वह अपनी आंखों में भरे आंसुओं को मां के आगे रोक न सकी. अपनी उदासी व अपना अकेलापन बयां कर गई.

तब मां ने उसे बताया, ‘‘तुम्हारे आने के दूसरे दिन ही रोहन ने मु?ो फोन पर सब बता दिया. वह अपनी नौकरी के कारण तुम्हें समय नहीं दे पाता. उस का उसे भी दुख है लेकिन वह तुम्हारे बिना परेशान है. कुछ निर्णय जल्दबाजी में सही नहीं होते. बेटा. रात ही मेरी उस से बात हुई. तुम ने इतने दिनों में उसे फोन भी नहीं किया और उस का फोन भी अटैंड नहीं किया.

‘‘इतनी नाराजगी भी अच्छी नहीं. वह तुम्हें लेने आना चाहता है. वह जो कुछ कर रहा है पैसा कमाने के लिए ही तो कर रहा है. अभी तुम्हारी शादी को सालभर हुआ है तुम दोनों की पूरी जिंदगी पड़ी है. गृहस्थी में बहुत से त्याग करने पड़ते हैं… रोहन को कुछ समय दो बेटा, एकदूसरे का साथ दो.’’

कुछ देर बात कर मां उस के कमरे की मूनलाइट का स्विच औन कर जातेजाते उसे फिर एक बार सोचने के लिए कह गई. मूनलाइट की सफेद रोशनी में वह बिस्तर पर लेटी रोहन के साथ बीते पल याद करने लगी…

जब उसे बुखार हुआ तो रोहन ने औफिस की जरूरी मीटिंग भी कैंसिल कर दी थी और दिनरात उस का खयाल रखा था जैसे कोई किसी बच्चे का रखता है. उस वक्त जब वायरल फीवर से उस की नसनस में दर्द था उसे टाइमटाइम पर दवा, जूस सब देता. कितना खयाल रखता था और एक बार वह 10 दिन की कह कर मां के पास आई थी तो रोहन 5 दिन बाद ही आ कर उसे सरप्राइज दे शिमला ट्रिप प्लान कर आया था. दोनों बांहों में बांहें डाले शिमला की वादियों में घूमते रहे. तब दिनरात कब बीतते थे पता ही न चलता.

रोहन ने शालू की नाराजगी पर कभी जोर से बात नहीं की. वह हर बार उसे समझाने की कोशिश करता और सौरी भी कह देता लेकिन न जाने उसे ही धीरेधीरे क्या हो गया. उस ने चुप्पी साध ली. शालू रोहन की थकान को उस की बेरुखी सम?ाती थी जब वह कमरे में आ कर सो जाता. कभी सोचा ही नहीं कि घर से बाहर आराम कहां है और मैं ने उसे घर आने के बाद अपने प्यार के सहारे की जगह नाराजगी और चुप्पी ही दी. उस ने कभी कुछ न कहा. वह जिस प्यार को भूल बैठी थी वह फिर आज उस के दिल की परतों को हटा सहलाने लगा था. उस का रिश्ता प्यार के एहसास को बटोरने लगा था. उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था. न जाने कैसे आहिस्ताआहिस्ता उस ने रोहन को अपनेआप से इतना दूर कर दिया. अब वह रोहन को और इंतजार नहीं करवाना चाहती थी.

‘‘यह लो, चाय पी लो. तुम्हें ठंड लग जाएगी बस आने वाली है. आधा घंटा बाकी है,’’ रोहन की आवाज से वह एकाएक वर्तमान में लौट आई. सामने 2 चाय के कप लिए रोहन मुसकरा रहा था. उसे देख कर वह भी मुसकरा दी. उस समय ऐसा लग रहा था जैसे दोनों के बीच कोई दूरी न हो, दोनों ने एकदूसरे को माफ कर दिया हो.

पास की बैंच पर बैठ कर दोनों ने चाय पी. शालू रोहन के हाथ में हाथ डाले उस के कंधे पर सिर रख बस का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में बस आ गई. रोहन ने बस में सामान रखा और बस में चढ़ने के लिए शालू का हाथ थाम लिया. बस चल पड़ी. दोनों एकदूसरे में खोए सफर तय कर रहे थे.

अब वे कभी न खत्म होने वाली राह पर चल पडे़ थे. रोहन के चेहरे पर शालू की बिखरी लटें अपना आधिपत्य जता रही थीं. शालू रोहन की अदा पर मंदमंद मुसकरा रोहन के आगोश में सिमटी जा रही थी. वह खुश थी कि आज रोहन ने उस के रीते मन की उल?ान को अपने प्रेम भरे साथ से सुल?ा दिया.

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