हैप्पी एंडिंग: भाग-2

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

शाम को जब सभी भाई गली में क्रिकेट खेल रहे होते, मां, चाचियां रसोई में और

दादी ड्योढ़ी में बैठी पड़ोस की महिलाओं से बात कर होतीं, मुझे अच्छा समय मिल जाता छत पर जाने का… उम्मीद के मुताबिक सुमित मेरा ही इंतजार कर रहे होते… संकोच और डर के साथ शुरू हुई हमारी बात, उन की बातों में इस कदर खो जाती… कब अंधेरा हो जाता पता ही नहीं चलता.

उस दिन भाई की आवाज सुन कर मैं प्रेम की दुनिया से यथार्थ में आई, सुमित से विदा ले कर नीचे आई ही थी कि घरवालों के सवालों के घेरे में खड़ी हो गई.

‘‘कहां गई थी?’’

‘‘छत पर इतनी रात को अकेले क्या कर रही थी?’’

‘‘दिमाग सही रहता है कि नहीं तुम्हारा.’’

मैं चुपचाप सिर झुकाए खड़ी थी, क्या बोलूं… सच बोल दूं… ‘‘आप सभी की तमाम बंदिशों को तोड़ कर किसी से प्यार करने लगी हूं, मेरे जन्म के साथ ही जिस डर के साये में दादी ने सभी को जिंदा रखा है आखिरकार वह डर सच होने जा रहा है.’’ मेरे शब्द मेरे दिमाग में चल रहे थे जुबां पर लाने की हिम्मत नहीं थी… कुछ नहीं बोली मैं, सुनती रही… जब सब बोल कर थक गए तो मैं अपने कमरे में चली गई.

ऐसे ही समय बीतता गया और मेरा प्यार परवान चढ़ता गया. 10 दिनों के बाद सुमित मद्रास के लिए निकल गए, उस दिन मैं छत पर उस की बाहों में घंटों रोती रही वह मुझे समझाता रहा, विश्वास दिलाया कि वह मुझे कभी नहीं भूलेगा, हमारा प्रेम आत्मिक है जो मरने के बाद भी जिंदा रहेगा.

‘‘हमें इंतजार करना होगा रीवा, पढ़ाई पूरी करने के बाद ही हम घर वालों से बात कर

सकते हैं.’’

‘‘मैं तो पढ़ाई पूरी करने के बाद भी बात नहीं कर सकती, तुम जानते हो मेरे परिवार को… जिस दिन उन्हें भनक भी लग गई तो वे बिना सोचे मेरी शादी किसी से भी करा देंगे और मैं रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकती.’’

‘‘हम्म… मुझे एहसास है इस बात का, मैं ने एक डरपोक लड़की से प्रेम कर लिया है,’’ हंसते हुए सुमित ने कहा तो मेरी भी हंसी छूट गई.

इसी तरह 4 वर्ष बीत गए… हर गर्मियों

की छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए सुमित आते हम ऐसे छिप कर मिलते फिर पूरा साल खतों

के सहारे बिताते… बीना आंटी को हम दोनों के बारे में सब पता था… मेरे खत उन्हीं के पते पर आते थे, बीना आंटी मुझे बहुत प्यार करती थी. उन के लिए तो मैं 4 साल पहले ही उन की बहू बन गईर् थी.

मैं बीकौम कर रही थी उधर सुमित को डाक्टर की डिगरी मिल गई. एमडी करने के लिए वह पुणे शिफ्ट हो गया और मैं दादी की आंखों की किरकिरी बनती जा रही उन्होंने वह मेरी शादी के लिए पिताजी पर जोर डालना शुरू कर दिया था, हर दिन पंडितजी को बुलावा जाता, नएनए रिश्ते आते, कुंडली मिलान के बाद रिश्तों की लिस्ट बनती फिर शुरू हो जाता आनाजाना, मैं ने बीना आंटी से कहा वे मां से बात करें नहीं तो दादी मेरी शादी कहीं और करा देंगी.

बीना आंटी ने मां से बात की तो मां को विश्वास नहीं हुआ इतनी बंदिशों के बाद उन की बेटी ने प्रेम करने की हिम्मत कैसे कर ली वह भी दूसरी जाति में.

‘‘तू चल अपने कमरे में’’ पहली बार मां का यह सख्त रूप देख रही थी.

‘‘मां, मैं सुमित से ही शादी करूंगी नहीं तो खुद को मार लूंगी.’’

‘‘तो किस ने रोका तुम्हें. वैसे भी मारी जाओगी इस से अच्छा है खुद को मार लो, मेरा परिवार तो गुनाह करने से बच जाएगा.’’

‘‘मां’’ मैं ने तड़पते हुए कहा.

गुस्से से मां कांप रही थी उन की ममता ने उन्हें रोक लिया था नहीं तो शायद उस

दिन उन्होंने मेरा गला दबा दिया था.

चुपचाप मेरे लिए दूल्हा ढूंढ़ने का तमाशा देखने वाली मेरी मां… दादी के साथ मिल कर खुद दूल्हा ढूंढ़ रही थी.

इस घर में एकमात्र सहारा मेरी मां मुझ से दूर हो गई थी, बीना आंटी ने सुमित से बात की… सुमित उधर परीक्षा शुरू होने वाली थी और इधर मेरी जिंदगी की.

कभी सोचती…

‘‘खुद को मार लूं या सुमित के पास भाग जाऊं?’’

‘‘नहीं… नहीं सुमित के पास नहीं जा सकती नहीं तो ये लोग उस को मार देंगे, बीना आंटी को भी बदनाम कर देंगे… कुछ भी कर सकते हैं.’’

भाइयों को रईसी विरासत में मिली थी पढ़ाई छोड़ राजनीति और गुंडागर्दी में आगे थे.

मेरी कोई सहेली भी नहीं थी जिस से दिल की बात कर सकूं. बीना आंटी से बात न करने की मां की सख्त हिदायत थी. अब तो सुमित के खत भी नहीं मिलते, उस की कोई खबर नहीं… मैं कहां जाती… किस से बात करती, यहां सब दादी के इशारे पर चलते थे.

कालेज से घर… घर से कालेज यही मेरी लाइफ थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब मेरी शादी की डेट फिक्स हो गई… एनआरआई दूल्हा, पैसेरुपए वाले और क्या चाहिए था इन लोगों को.

मैं एक जीतीजागती, चलतीफिरती गुडि़या बन गई थी जिस के अंदर भावनाओं का ज्वार ज्वालामुखी का रूप ले रहा था, मैं चुप थी… क्योंकि मेरी मां चुप थी. यहां बोलने का कोई फायदा नहीं सभी ने अपने दिल के दरवाजे पर बड़ा ताला लगा रखा था, जहां प्रेम को पाप समझा जाए वहां मैं कैसे अपने प्रेम की दुहाई दे कर अपने प्रेम को पूर्ण करने के लिए झोली फैलाती, यहां दान के बदले प्रतिदान लेने की प्रथा है, इन के लिए सच्चा प्रेम सिर्फ कहानियों में होता है. लैला मजनू, हीररांझा ये सब काल्पनिक कथाएं ऐसे विचारों के बीच मेरा प्रेम अस्तित्वहीन था.

अब तो कोई चमत्कार ही मुझे मेरे प्रेम से मिला सकता था. हैप्पी ऐंडिंग तो

कहानियों में होती है असल जिंदगी में समझौते से ऐंडिंग होती है. फिर भी एक आस थी मेरे मन में, सुमित मुझे नहीं छोड़ेगा, वह जरूर आएगा… दुलहन के लाल जोड़े में बैठी उसी आखिरी आस के सहारे बैठी थी… कभी लगता… अभी दूसरे दरवाजे से सुमित निकल कर आएंगे और मैं उन का हाथ थामे यहां से निकल जाऊंगी… लेकिन उस को नहीं आना था और वह नहीं आया, मेरा प्रेम झूठा था या उस के वादे… दिल टूटा और

मैं रीवा… उस पल में मर गई, प्रेम कहानियों

से प्यार करने वाली मैं… कहानियों से नफरत करने लगी, सब कुछ झूठ और धोखे का पुलिंदा बन गया…

मंडप में बैठी मैं शून्य थी, मुझे याद भी नहीं कैसे रस्में हुई, शादी हुई… मैं होश में नहीं थी.

विदाई के वक्त बीना आंटी दरवाजे पर खड़ी थीं मैं रोते हुए उन के गले लग गई… मैं ने फुसफुसा कर कहा ‘‘मेरा प्यार छिन लिया अभी कुछ वक्त पहले मैं ने सुमित को बेवफा समझा… वह वहां अनजान बैठा है और मैं किसी और के नाम का सिंदूर सजा कर खड़ी हूं.’’

आगे पढें- मां मेरे गले लगने आई मैं एक कदम पीछे हट गई…

अब आओ न मीता- भाग 1 क्या सागर का प्यार अपना पाई मीता

ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी. मीता भीड़ के बीच खड़ी अपना टिकट कनफर्म करवाने के लिए टी.टी.ई. का इंतजार कर रही थी. इतनी सारी भीड़ को निबटातेनिबटाते टी.टी.ई. ने मीता का टिकट देख कर कहा, ‘‘आप एस-2 कोच में 12 नंबर सीट पर बैठिए, मैं वहीं आऊंगा.’’

5 दिन हो गए उसे घर छोड़े. आशा दी से मिलने को मन बहुत छटपटा रहा था. बड़ी मुश्किल से फैक्टरी से एक हफ्ते की छुट्टी मिल पाई थी. अब वापसी में लग रहा है कि ट्रेन के पंख लग जाएं और वह जल्दी से घर पहुंच जाए. दोनों बेटों से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा था उस का मन…और सागर? सोच कर धीरे से मुसकरा उठी वह.

यह टे्रन उसे सागर तक ही तो ले जा रही है. कितना बेचैन होगा सागर उस के बिना. एकएक पल भारी होगा उस पर. लेकिन 5 युगों की तरह बीते 5 दिन. उस की जबान नहीं बल्कि उस की गहरीगहरी बोलती सी आंखें कहेंगी…वह है ही ऐसा.

मीता अतीत में विचरण करने लगी. ‘परसों दीदी के पास कटनी जा रही हूं. 4-5 दिन में आ जाऊंगी. दोनों बच्चों को देख लेना, सागर.’ ‘ठीक है पर आप जल्दी आ जाना,’ फिर थोड़ा रुक कर सागर बोला, ‘और यदि जरूरी न हो तो…’

‘जरूरी है तभी तो जा रही हूं.’ ‘मुझ से भी ज्यादा जरूरी है?’ ‘नहीं, तुम से ज्यादा जरूरी नहीं, पर बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिल पाई है एक हफ्ते की. फिर अगले माह बच्चों के फाइनल एग्जाम्स हैं, अगले हफ्ते होली भी है. सोचा, अभी दीदी से मिल आऊं.’ ‘तो एग्जाम्स के बाद चली जाना.’

‘सागर, हर चीज का अपना समय होता है. थोड़ा तो समझो. मेरी दीदी बहुत चाहती हैं मुझे, जानते हो न? मेरी तहसनहस जिंदगी का बुरा असर पड़ा है उन पर. वह टूट गई हैं भीतर से. मुझे देख लेंगी, दोचार दिन साथ रह लेंगी तो शांति हो जाएगी उन्हें.’ ‘तो उन्हें यहीं बुला लीजिए…’

‘हां, जाऊंगी तभी तो साथ लाऊंगी. एक बार तो जाने दो मुझे. मेरे जाने का मकसद तुम ही तो हो. दीदी को बताने दो कि अब अकेली नहीं हूं मैं.’

इतने में नीलेश और यश आ गए, अपनी तूफानी चाल से. अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाने की दोनों में होड़ लगी थी. मीता ने दोनों की प्रोग्रेस रिपोर्ट देखी. टेस्ट में दोनों ही फर्स्ट थे. दोनों को गले लगा कर मीता ने आशीर्वाद दिया…पर उस की आंखें नम थीं…कितने अभागे हैं राजन. बच्चों की कामयाबी का यह गौरव उन्हें मिलता पर…

दोनों बच्चों ने अपने कार्ड उठाए. वापस जाने को पीछे मुड़ते इस के पहले ही दोनों सागर के पैरों पर झुक गए, ‘…और आप का आशीर्वाद?’

‘वह तो सदा तुम दोनों के साथ है,’ कहते हुए सागर ने दोनों को उठा कर सीने से लगा लिया और कहा, ‘तुम दोनों को इंजीनियर बनना है. याद है न?’ ‘हां, अंकल, याद है पर शाम की आइसक्रीम पक्की हो तो…’ ‘शाम की आइसक्रीम भी पक्की और कल की एग्जीबिशन भी. वहां झूला झूलेंगे, खिलौने खरीदेंगे, आइसक्रीम भी खाएंगे और जितने भी गेम्स हैं वे सब खेलेंगे हम तीनों.

‘हम तीनों मीन्स?’ यश बोला. ‘मीन्स मैं, तुम और नीलेश.’ ‘और मम्मी?’ ‘वह तो बेटे, कल तुम्हारी आशा मौसी के पास कटनी जा रही हैं. 4-5 दिन में लौटेंगी. मैं हूं ना. हम तीनों धूम मचाएंगे, नाचेंगे, गाएंगे और मम्मी को बिलकुल भी याद नहीं करेंगे. ठीक?’

दोनों बच्चे खुश हो कर बाहर चल दिए. मीता आश्चर्यचकित थी. पहले बच्चों के उस व्यवहार पर जो उन्होंने सागर से आशीर्वाद पाने के लिए किया, फिर सागर के उस व्यवहार पर जो उस ने बच्चों के संग दोहराया. सागर की गहराई को अब तक महसूस किया था आज उस की ऊंचाई भी देख चुकी वह.

किस मिट्टी का बना है सागर. चुप रह कर सहना. हंस कर खुद के दुखदर्द को छिपा लेना. कहां से आती है इतनी ताकत? मीता शर्मिंदा हो उठी. ‘नहीं, सागर, तुम्हें इस तरह अकेला कर के नहीं जा सकती मैं. एक हफ्ता हम घर पर ही रहेंगे. माफ कर दो मुझे. तुम्हारा मन दुखा कर मुझे कोई भी खुशी नहीं चाहिए. मैं बाद में हो आऊंगी.’

‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मुझ से पहले तो आप पर आप के परिवार का हक है. फिर रोकने का हक भी तो नहीं है मुझे…आप की अपनी जिम्मेदारियां हैं जो मुझ से ज्यादा जरूरी हैं. फिर आशा दी को यहां बुलाना भी तो है…’

एकाएक झटके से ट्रेन रुक गई. आसपास फिर वही शोर. पैसेंजरों का चढ़नाउतरना, सब की रेलपेल जारी थी.

मीता पर सीधी धूप आ रही थी. हलकी सी भूख भी उसे महसूस होने लगी. एक कप कौफी खरीद कर वह सिप लेने लगी. सामने की सीट पर बैठे 3-4 पुलिस अफसर यों तो अपनी बातों में मशगूल लग रहे थे लेकिन हरेक की नजरें उसे अपने शरीर पर चुभती महसूस हो रही थीं.

सागर और मीता का परिचय भी एक संयोग ही था. कभी- कभी किसी डूबते को तिनका बन कर कोई सहारा मिल जाता है और अपने हिस्से का मजबूत किनारा तेज बहाव में कहीं खो जाता है. यही हुआ था मीता के संग. अपने बेमेल विवाह की त्रासदी ढोतेढोते थक गई थी वह. पूरे 11 सालों का यातनापूर्ण जीवन जिया था उस ने. जिंदगी बोझ बनने लगी थी पर हारी नहीं थी वह. आत्महत्या कायरता की निशानी थी. उस ने वक्त के सामने घुटने टेकना तो सीखा ही न था. एक मजबूत औरत जो है वह.

मगर 11 सालों में पति रूपी दीमक ने उस के वजूद को ही चाटना शुरू कर दिया था.

तानाशाह, गैरजिम्मेदार और क्रूर पति का साथ उस की सांसें रोकने लगा था. प्रेम विवाह किया था मीता ने, लेकिन प्रेम एक धोखा और विवाह एक फांसी साबित हुआ आगे जा कर. पति को पूजा था बरसों उस ने, उस की एकएक भावना की कद्र की थी. उसे अपनी पलकों पर बैठाया, उसे क्लास वन अफसर की सीट तक पहुंचाने में भावनात्मक संबल दिया उस ने. यह प्रेम की पराकाष्ठा ही तो थी कि मीता ने अपनी शिक्षा, प्रतिभा और महत्त्वाकांक्षाओं को परे हटा कर सिर्फ  पति के वजूद को ही सराहा. सांसें राजन की चलतीं पर उन सांसों से जिंदा मीता रहती, वह खुश होता तो दुनिया भर की दौलत मीता को मिल जाती.

पुरुष प्रधान समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि प्राय: हर सफल व्यक्ति के पीछे कोई महिला होती है, लेकिन सफल होते ही वही पुरुष किसी और मरीचिका के पीछे भागने लगता है. प्रेम विवाह करने वाला प्रेम की नई परिभाषाएं तलाशने लगा. एक के बाद दूसरे की तलाश में भटकने लगा.

पद के साथ प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है यह भूल ही गया था राजन. यहां तो पद के साथसाथ शराब, ऐयाशी और ज्यादतियां आ जुड़ी थीं. प्रतिष्ठा को ताख पर रख कर राजन एक तानाशाह इनसान बनने लगा था, मीता का जीवन नरक से भी बदतर हो गया था. पतिपत्नी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. मीता की सारी कोशिशें बेकार हो गईं. उस का स्वाभिमान उसे उकसाने लगा. दोनों बेटों की परवरिश, उन का भविष्य और ममता से भारी न था यह नरक. नतीजा यह हुआ कि शहर छूटा, कड़वा अतीत छूटा और नरक सा घर भी छूट गया. धीरेधीरे आत्मनिर्भर होने लगी मीता. नई धरती, नए आसमान, नई बुलंदियों ने दिल से स्वागत किया था उस का. फैशन डिजाइनिंग का डिप्लोमा काम आ गया सो एक एक्सपोर्ट गारमेंट फैक्टरी में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई. दोनों बच्चों की परवरिश और चैन से जीने के लिए पर्याप्त था इतना कुछ. ज्ंिदगी एक ढर्रे पर आ गई थी.

मारने से मन नहीं मरता न? मीता का भी नहीं मरा था. बेचैन मीता रात भर न सो पाती. नैतिकता की लड़ाई में जीत कर भी औरत के रूप में हार गई थी वह. लेकिन जीवन तो कार्यक्षेत्र है जहां दिल नहीं दिमाग का राज चलता है. मीता फिर अपनी दिनचर्या से जूझने को कमर कस कर खड़ी हो जाती, चेहरे पर झूठा मुखौटा लगा कर दुनियादारी की भीड़ में शामिल हो जाती.

लेकिन पति से अलग हो कर जीने वाली अकेली औरत को तो कांटों भरा ताज पहनाना समाज अपना धर्म समझता है. अपने अस्तित्व, स्वाभिमान और आत्मविश्वास की रक्षा करना यदि किसी नारी का गुनाह है तो बेशक समाज की दोषी थी वह…

नीलेश अब चौथी और यश दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था. उस दिन पेरेंट्सटीचर्स  मीटिंग में जाना था मीता को. जाहिर है छुट्टी लेनी पड़ती. सागर दूसरे डिपार्टमेंट में उसी पद पर था. मीता ने जा कर उसे अपनी स्थिति बताई और न आने का कारण बता कर अपना डिपार्टमेंट संभालने की रिक्वेस्ट भी की. सागर ने मीता को आश्वासन दिया और मीता निश्ंिचत हो कर मीटिंग में चली गई.

पिछले 3 साल से सागर इसी फैक्टरी में सुपरवाइजर था…अंतर्मुखी और गंभीर किस्म का व्यक्तित्व था सागर का… सब से अलग था, अपनेआप में सिमटा सा.

दूसरे दिन मीता सब से पहले सागर से मिली. पिछले दिन की रिपोर्ट जो लेनी थी और धन्यवाद भी देना था. पता चला, सागर आया जरूर है लेकिन कल से वायरल फीवर है उसे.

‘तो आप न आते कल… जब इतनी ज्यादा तबीयत खराब थी तो एप्लीकेशन भिजवा देते,’ मीता ने कहा.

‘तो आप की दी जिम्मेदारी का क्या होता?’

‘अरे, जान से बढ़ कर थी क्या यह जिम्मेदारी.’

‘हां, शायद मेरे लिए थी,’ जाने किस रौ में सागर के मुंह से निकल गया. फिर मुसकरा कर बात बदलते हुए बोला, ‘आप सुनाइए, कल पेरेंट्सटीचर्स मीटिंग में क्या हुआ?’ फिर सागर खुद ही नीलेश और यश की तारीफों के पुल बांधने लगा.

आश्चर्यचकित थी मीता. सागर को यह सब कैसे पता?

‘हैरान मत होइए, क्योंकि जब मां आइडियल होती है तो बच्चे जहीन ही होते हैं.’

 

 

दाहिनी आंख: भाग 3- अनहोनी की आशंका ने बनाया अंधविश्वास का डर

 

मन अच्छा हो गया. मैं ने कमर पर कसे बेटे के हाथों को नरमी से थपथपाया. उस ने जैसे मेरी देह की भाषा पढ़ ली और पटरपटर बातें करने लगा, ‘‘मम्मा, पापा का काम कितनी देर में होगा?’’

‘‘बस, थोड़ी देर में.’’

‘‘फिर हम क्या करेंगे?’’

‘‘घर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, मम्मा, हम भारत भवन चलेंगे,’’ उस ने पूछा नहीं, बताया.

सपने सी वीआईपी सड़क खत्म हुई और अब हमें अतिव्यस्त चौराहा पार करना था. ठीक इसी समय, दाहिनी पलक फिर थरथराई और माथे की शिकन में तबदील हो गई. मैं सामने सड़क से गुजरती गाडि़यों को गौर से देखने लगी. स्कूटी बढ़ाने को होती और रुकरुक जाती. रहरह कर आत्मविश्वास टूट रहा था और मुझे लगने लगा कि जैसे ही मैं आगे बढ़ूंगी, इन में से एक बड़ा ट्रक तेज रफ्तार में अचानक आ निकलेगा और हमें रौंदता चला जाएगा. मेरे पैर स्कूटी के दोनों तरफ जमीन पर टिके थे. यह मैं थी जो हमेशा कहती रही कि ड्राइविंग करते वक्त बारबार जमीन पर पैर टिकाने वाले कच्चे ड्राइवर होते हैं और उन बुजदिल लमहों में मेरा बरताव नौसिखिए स्कूटर ड्राइवरों से भी बदतर था.

कई बार मैं आगे बढ़ी, डर और परेशानी से पीछे हटी और इस तरह पता नहीं मैं कितनी देर वहां तमाशा बनी खड़ी रहती, उस मोड़ पर जिसे मैं सैकड़ों दफा पार कर चुकी थी. पर भला हो उस कार वाले का जिस ने मेरे पीछे से आते हुए सड़क पार करने का इंडीकेटर दिया. झट मैं ने अपनी दुपहिया उस बड़ी कार की ओट में कर ली और उस के समानांतर चलते हुए आखिर सड़क पार कर ली.

अब हम कमला पार्क वाली व्यस्त रोड पर शनिमंदिर के सामने से गुजरे और पलभर को स्कूटी की गति धीमी कर के सिर झुका कर प्रणाम करते हुए कहा, ‘हमारी रक्षा करना.’

स्कूटी की गति कितनी कम हो गई थी, यह मुझे तब ध्यान आया जब पीछे से आते स्कूली बच्चे की साइकिल मुझ से आगे निकल गई. बेटे को और एकदो बार बेवजह डांटा या शायद मेरा तनाव था जो शब्दों में ढल रहा था, ‘‘चुपचाप चिपक कर बैठे रहना वरना आगे से कभी साथ नहीं लाऊंगी.’’

 

मां को डरा जान बच्चे कहीं ज्यादा डर जाते हैं. नैवेद्य अपनी कुल जमा ताकत से मुझ से चिपक गया. उस की सांसें भी सहमीसहमी सी थीं और मैं विचारहीन मन, कांपती अपशकुनी आंख माथे और चौकन्ने दिमाग से ड्राइविंग कर रही थी.

औफिस आ गया, दिल ने राहत की सांस ली. स्कूटी पार्क कर ही रही थी कि बेटे ने बिल्ंिडग की ओर दौड़ लगा दी.

‘‘नैवेद्य…’’ इतनी जोर से मेरी चीख निकली कि आसपास के लोग ठहर से गए. अपनी गलती महसूस होते ही मैं सकपका सी गई. बेटे के पास जा कर दबी जबान में उसे डांटा और फिर उस के लिए मुझे इतनी भयंकर असुरक्षा महसूस हुई कि मैं ने उसे गोद में उठा लिया. 5 साल के स्वस्थ बच्चे को गोद में उठाए सीढि़यों पर हांफती हुई चढ़ रही थी. मुझ को लोग आंखें फाड़ कर देख रहे थे. मैं बच्चे को कंधे से चिपकाए हुए थी. मन की स्थिति उस गाय जैसी हो गई थी जो अपने नवजात बच्चे की रक्षा के लिए भेडि़यों सरीखे कुत्तों का सामना करने को पूरी तरह तैयार होती है.

हम तीसरी मंजिल पर बने औफिस के गलियारे में पहुंचे. सूने, ऊंचे, धूल से भरे गलियारे की सधी हवा में कबूतरों का संगीत पसरा था. औफिस के भीतर जाने से पहले मैं ने बेटे को गोद से उतार कर अपने को संयत किया.

अपना परिचय दे कर फाइल मैं ने एक बाबूनुमा आदमी को दे दी. काम करते क्लर्क ने बीच में रुक कर कहा कि मैं फाइल यहीं छोड़ जाऊं, वह बड़े साहब तक पहुंचा देगा, पर मैं वहीं खड़ी रही किसी नासमझ गूंगीबहरी की तरह. उस ने अपना काम रोका, अजीब तरह से मुझे घूरा और फाइल उठा कर अपने बड़े साहब के केबिन की ओर चला गया. जब उसे फाइल सहित केबिन में घुसते देख लिया तब जा कर मुझे यकीन हुआ कि फाइल इन के बौस के हाथों में सहीसलामत पहुंच जाएगी.

सीढि़यां उतरते हुए मन पहले से कुछ हलका था. एक तो इसलिए कि आधा काम निर्विघ्न पूरा हो चुका था. दूसरे किसी कष्टप्रद दशा में पड़े हुए जब कुछ देर हो जाती है तब हम परिस्थिति का सामना करने के लिए स्वाभाविक तौर पर तैयार हो चुके होते हैं. नदी में भीगे पंजों से जब हम घाट की रपटीली सीढि़यां चढ़ते हैं तो किस कदर चौकन्ने होते हैं, लेशमात्र को हमारा ध्यान नहीं भटकता, मैं उसी मनोस्थिति में पहुंच चुकी थी. बेटे को पीछे बैठाया, स्कूटी स्टार्ट की और चारों तरफ देखतेपरखते हुए घर के लिए चल पड़ी. बिलकुल बाएं किनारे बचबचा कर चलते हुए मैं स्वयं को लगातार आश्वस्त करती जा रही थी, सब सामान्य है.

‘‘मम्मा, पापा का काम हो गया?’’

‘‘हां, बेटा, हो गया.’’

‘‘तो अब हम भारत भवन जाएंगे,’’ बहुत देर बाद वह खुश लगा.

भारत भवन नैवेद्य को हद दर्जे तक पसंद है और वह जबतब वहां जाने की जिद लगाए रहता है. लंबेचौड़े कैनवास सा परिसर, सजावटी पाषाण प्रतिमाएं, सिरेमिक वर्कशौप के विचित्र शिल्प और झील का सुख भरा किनारा जहां जंगली फूलों में तितलियों का एक लोक बसा है, उसे जैसे पुकारता है. वहां वह अपनी ड्राइंग कौपी और मोम के रंग अकसर साथ ले जाता है और झील, जंगली फूलों, अपरिचित तितलियों और शाम के आकाश पर छाई चमगादड़ों की घुचड़पुचड़ पेंटिंग बनाया करता है और मैं एक मध्यवर्गीय मां, जो बेटे के अतिरिक्त काबिलीयत में अपना असुरक्षित भविष्य तलाशती है, उसे वहां ले जाने का अवसर कभी नहीं गंवाती.

‘‘नहीं नानू, आज नहीं.’’

‘‘क्यों नहीं?’’ वह इस कदर ठुनका कि स्कूटी डगमगाने लगी.

मैं इतना डरी कि गाड़ी रोक कर खड़ी हो गई. वह जिद पर था और मैं हरसंभव तरह से उसे टाल रही थी. वह नहीं माना और मुझे एक ग्लानिभरा झूठ बोलना पड़ा.

‘‘बेटा, गाड़ी में पैट्रोल बहुत कम है, बस इतना कि हम घर पहुंच पाएंगे. अगर भारत भवन गए तो पैट्रोल बीच में ही खत्म हो जाएगा, फिर हम घर कैसे जाएंगे? पापा भी शहर में नहीं हैं. हमारी मदद को कोई नहीं आएगा.’’

उस की नन्ही आंखों ने मेरे परेशान चेहरे पर सौ फीसदी यकीन कर लिया और गाड़ी स्टार्ट करते हुए भारी दिल से मैं ने अपनी दाहिनी आंख को कोसा, जिस के कारण मैं ने अपने बच्चे को आज धोखा दिया.

अब हम घर के रास्ते पर थे. बगल से तकरीबन मेरी ही उम्र की एक स्त्री कार चलाती हुई गुजरी, पैसेंजर सीट पर नैवेद्य के बराबर बच्चा बैठा था और ड्राइविंग करती अपनी मां से खुश हो कर बातें कर रहा था. उन पलों में मैं ने जाना कि डर, आस्थाओं और अंधविश्वासों का हैसियत और ताकत से कितना गहरा नाता है. अगर मैं इस समय मामूली दुपहिए पर न होती, जिसे चारों दिशाओं के वाहनों से उसी तरह सतर्क रहना पड़ता है जैसे तालाब में किसी नन्ही, अकेली मछली को बड़ी मछलियों और मगरमच्छों से, बल्कि किसी लग्जरी कार में होती तो क्या पता, दाहिनी आंख के फड़कने का अपशकुन मुझे इतना न डरा रहा होता? ईश्वर, धर्म और अंधविश्वास कमजोरों की देन है.

 

जैसे-जैसे हम घर के करीब आने लगे, मेरा खुद पर भरोसा लौटने लगा. हैंडिल पर कलाइयों की पकड़ मजबूत होने लगी और कालोनी के मोड़ से पहले का फोरलेन हाइवे मैं ने इंडीकेटर हौर्न दे कर सहजता से पार कर लिया.

‘रात होते ही सारे नास्तिक आस्तिक हो जाते हैं.’ मन इस प्रसिद्ध खयाल को दोहरा कर मुसकराया और अपने घर के सामने मैं ने स्कूटी रोकी.

हाथों में फूले गुब्बारे लिए बालकनी में मिसेज सिंह शायद नैवेद्य की ही प्रतीक्षा में थीं.

‘‘नानू, देखो, तुम्हारे लिए कितने गुब्बारे फुला कर रखे हैं. आओ खेलें.’’

बेटे ने मेरी ओर प्रश्नभरी नजरों से देखा और मेरे मुसकराते ही उस ने दौड़ लगा दी.

मैं हंस पड़ी, कमबख्त दाहिनी आंख अब तक फड़क रही है. मुझे भरोसा हो गया कि इस से कुछ होता नहीं है. मेरा आत्मविश्वास अंधविश्वासों से ज्यादा मजबूत है. अब चाहे दोनों आंखें फड़कें, मुझे वही करना है जो जरूरी है. आंख की वजह से न मैं रुकूंगी और न किसी पंडे को दान देने के बारे में सोचूंगी.

फौरगिव मी: भाग 3- क्या मोनिका के प्यार को समझ पाई उसकी सौतेली मां

मैं गाउन ले कर बाथरूम में गई. मेरा दिल उसे माफ करना चाहता था. मैं गाउन पहनने लगी. अचानक मु झे लगा यह उस की जीत होगी. उस की ही नहीं यह उन सारी दूसरी औरतों की जीत होगी जो बच्चों को मौम या डैड किसी एक के पास रहने को मजबूर कर देती हैं. मेरा मुंह का स्वाद कसैला हो गया. मैं ने गाउन पर कैंची चलानी शुरू कर दी. पाइपिंग लेस और गुलाब के फूल सब बिखर गए. पर शायद गाउन ही नहीं कटा उस दिन से बहुत कुछ कट गया. बहुत से फूल बिखर गए. मैं ने तमतमाते हुए उसे वह गाउन वापस करते हुए कहा, ‘‘लो अपना गाउन. तुम इस से मु झे नहीं खरीद सकती. मैं बिकाऊ नहीं हूं.’’

इस बार मोनिका की आंखें डबडबाई नहीं. वह फूटफूट कर रोने लगी. उस ने मेरा हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘आखिर मेरी गलती क्या है? आखिर तुम मु झे किस अपराध की सजा दे रही हो? अगर तुम्हें कुछ गलत लगता भी है तो क्या तुम उस बात को भूल कर मु झे माफ कर फिर से आगे नहीं बढ़ सकती?’’

‘‘तुम मेरी मां के आंसुओं का कारण हो. तुम ने मेरी हैपी फैमिली को तहसनहस किया. मौमडैड को अलग किया, फिर डैड को मु झ से अलग किया. अब ओछी हरकतों से मु झे खरीदने की कोशिश कर रही हो,’’ मैं चिल्लाती जा रही थी. अपनी सारी नफरत एक बार में निकाल देना चाहती थी.

मैं ने आरोपों की  झड़ी लगा दी. मैं उसे रोता छोड़ कर अपने कमरे में चली गई. उस के बाद से हमारे बीच बातचीत बहुत कम हो गई. मोनिका ने मु झे मनाने की सारी कोशिशें बंद कर दीं. मैं खुश थी. मु झे लगा मैं ने अपनेआप को बिकने नहीं दिया. यह मेरी जीत थी.

समय आगे बढ़ता गया और मैं अपने कमरे में और कैद होती गई. कमरा जहां

लैपटौप था, जो मु झे सोशल मीडिया के हजारों लोगों से जोड़े रखता… काल्पनिक ही सही पर मैं ने भी अपनी एक फैमिली बना ली थी. एक बड़ी फैमिली जहां दर्द और खुशियां भले ही न बंटती हों पर इस से पहले कि मु झे काटने को दौड़े वह बेदर्द समय जरूर कट जाता था.

तभी अलार्म बजा और मैं अतीत से निकल कर वर्तमान में लौट आई. वर्तमान, जहां मैं जीत के बाद हार का सामना कर रही थी. मैं बारबार उसे हर्ट करने के लिए, उस का दिल दुखाने के लिए अपराधबोध महसूस कर रही थी. मैं ने सोच लिया था कि अब मैं जब भी उस से मिलने जाऊंगी उसे बांहों में भर कर कहूंगी, ‘‘मैं ने उसे माफ किया.’’

अब मैं अमेरिका में पलीबढ़ी 15 साल की किशोर लड़की थी या यों कह सकते हैं कि मैं एक होने वाली नवयुवती थी. नई जैनरेशन और आजाद खयाल होने के नाते अब मैं जानती थी कि किसी भी खत्म हो चुके रिश्ते के टूटने की वजह हमेशा दूसरी औरत ही नहीं होती. उस रिश्ते को तो टूटना ही होता है. मैं ने मोनिका को हमेशा दोषी माना क्यों? इस का उत्तर खुद मेरे पास नहीं था.

़वह भी जानती थी कि वह मेरी मां नहीं है और न ही कभी हो सकती है पर ‘हैपी फैमिली’ के अपने सपने को पूरा करने की उस ने बहुत कोशिश की. परंतु उस के सारे प्रयास मु झे उस की चाल लगते और उसे विफल करने में अपनी जीत. मैं हर साल उम्र में तो बड़ी हो रही थी, पर पता नहीं क्यों इस बात को सम झने में बड़ी नहीं हो पाई. काश, वक्त मु झे थोड़ा और वक्त दे और मैं अतीत को भूल कर आगे जी सकूं. क्या ऐसा होगा? मैं अधीर हो उठी.

1 हफ्ते तक कीमो व रैडीऐशन के चलते उसे उसी शीशे के कैबिन में रहना था. मैं उस से मिल नहीं सकती थी. पर मैं यह वक्त बरबाद नहीं करना चाहती थी. मैं ने बाजार जा कर वैसे ही गाउन का और्डर दे दिया, जो 1 हफ्ते बाद मिलना था. मैं मोनिका के सामने उसी गाउन में जाना चाहती थी. मोनिका की हालत बिगड़ने लगी थी. उस पर ट्रीटमैंट का कोई असर नहीं हो रहा था. रैडीऐशन की हीट से उस का सारा शरीर जल रहा था. मैं चिंतित थी पर उस के वार्ड में जाने और ठीक होने का इंतजार करने के अलावा मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था.

मेरी आशा के विपरीत शीशे के कैबिन से निकाल कर उसे वार्ड में शिफ्ट नहीं

किया गया, बल्कि उसे होस्पिक केयर के लिए हौस्पिटल में ही बने एक विशेष कक्ष में भेज दिया गया. डैड ने ही मु झे बताया कि होस्पिक केयर उन मरीजों को दी जाती है जो अपने जीवन की अंतिम अवस्था में होते हैं. यहां कोई ट्रीटमैंट नहीं होता. केवल मरीज का दर्द कम करने और उसे शांतिपूर्वक मृत्यु के आगोश में जाने देने की कोशिश भर होती है. मरीज के साथ यहां उन का परिवार भी रह सकता है. जो स्प्रिचुअल हीलिंग के वातावरण में अपने प्रियजन को फाइनल गुडबाय कह सके. डैड और जौन मोनिका के साथ रहने के लिए हौस्पिटल शिफ्ट हो गए. पर मैं मोनिका का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. मैं घर पर ही रह गई. यह हिम्मत जुटाने में मु झे 2 दिन लग गए. पर उस रैड गाउन को मैं नहीं पहन पाई. साधारण सा

मोनिका को इतनी कमजोर अवस्था में बैड पर

लेटे देख कर मैं भीतर तक कांप गई. मेरी आंखों में आंसू भर आए. मोनिका ने मु झे अपने करीब बुलाया. हम दोनों को कमरे में छोड़ कर डैड और जौन बाहर चले गए. मोनिका ने मु झे उठाने का इशारा किया.

मैं ने उसे सहारा दे कर उठाया. उस ने दूसरी बार मु झे प्यार से गले लगा लिया. मैं आंसुओं का वेग नहीं रोक पाई.  झर झर आंसू बहते ही जा रहे थे. मैं अपने दिल की बात कहना ही चाहती थी कि मु झे महसूस हुआ कि मोनिका ने मु झे कुछ ज्यादा ही कस के पकड़ा है. मैं ने सप्रयास उसे अपने से अलग किया. उस की आंखें मुझे ही घूर रही थीं. मु झे उस समय तक पता नहीं था कि मरना क्या होता है. पर किसी अनिष्ट की आशंका से मैं डाक्टरडाक्टर चिल्लाई. मोनिका हमें छोड़ कर सदा के लिए जा चुकी थी.

मोनिका के जाने के बाद हमारे जीवन में एक खालीपन सा भर गया. अब मैं ने महसूस किया कि उस ने न सिर्फ इस घर में, बल्कि

मेरे मन में भी एक जगह बना ली थी. जबजब उस पल को सोचती हूं एक टीस से उठती है. काश, मैं वह कह पाती जो मैं कहना चाहती थी. पर क्या वह उस समय सुन पाती? क्या कोई इंसान जब वह मृत्युशैया पर होता है, तो उस के लिए उन शब्दों का कोई महत्त्व होता है, जिन्हें वह जीवनभर सुनना चाहता है? क्यों हम जीवन को हमेशा चलने वाला मानते हैं. क्यों हमसमय रहते अपनी बात नहीं कह देते?

हम अपने क्रोध, नफरत, गुस्से को सहेजने के चक्कर में यह भूल जाते हैं कि जिस थाली को हम बड़ी शान से अगले पल को सौंप देना चाहते वह अगला पल 2 लोगों के जीवन में रहता भी है या नहीं. मु झे अपनी ही बातों से घबराहट होने लगी. मैं बालकनी में चली आई.

नीले आकाश में सफेद बादल तेजतेज घूम रहे हैं. मु झे चक्कर सा आ रहा है. मेरे मन में कोई चिल्ला रहा है मोनिका… मोनिका… मैं फिर ऊपर देखती हूं. घूमते बादलों को देख कर मैं जोर से चीखने लगती हूं, ‘‘मोनिका, प्लीज… प्लीज फौरगिव मी.’’

मगर मैं जानती हूं, इस बार अनसुना करने की बारी मोनिका की है.

संदेह के बादल- भाग 4

सुरभि को शक निश्चित रूप से शीतला पर ही था, क्योंकि दूसरा कोई घर में आता ही नहीं था. उन्होंने लाख समझाना चाहा, उस से चेन ढूंढ़ने के लिए कहा, पर वह नहीं मानी थी. शीतला हर प्रकार से अपनी सफाई दे रही थी. पर उन्हें इस बात की जरूरत ही नहीं थी. जिस औरत ने कभी 4 पैसे की हेराफरी नहीं की वह इतना बड़ा अपराध कैसे कर सकती है, यह तो वे जानते थे.

अपराधी के कठघरे में भयातुर, डरीसहमी सी शीतला के माथे पर उन्होंने ज्यों ही हाथ रखा था, वह बिलखबिलख कर रो पड़ी थी, ‘‘साहब, आप के घर का नमक खाया है. आप के साथ इतना बड़ा विश्वासघात मैं कैसे करूंगी?’’

पर सुरभि ने शीतला को जेल की चारदीवारी में बंद करवा कर ही चैन की सांस ली. आंख की किरच आंख से निकली ही भली. पर वह शायद यह नहीं समझ पाई थी कि झूठे अहं और संदेह के पलीते से भरा यह ऐसा भयानक विस्फोट था जिस ने पतिपत्नी के भावनात्मक संबंधों को हिला कर रख दिया.

प्रारूप शीतला की जमानत करवा आए थे, अपने घर पर उन्होंने उसे फिर काम नहीं दिया था. उन के लिए उस की आंखों में तिरते उन अनुत्तरित प्रश्नों की शलाकाएं झेलना सहज नहीं था. उस के बाद वे अकसर दौरे पर रहते. घर पर रहते भी तो उदास से, बहुत कम बोलते थे. अपनी किताबों की दुनिया में ही खोए रहते. मृदुल के साथ जरूर बोलबतिया लेते थे. उस विद्रोहिणी नारी ने उन का चैन लूट लिया था. उस का सान्निध्य उन्हें वितृष्णा से भर देता था.

शीतला के भूख से तड़पते बच्चे और अपाहिज पति की जब कभी कल्पना करते, मन तिरोहित हो उठता. उसे निकालना ही था, तो यों ही निकाल देती सुरभि, यों लांछन लगा कर तो उस ने उस बेचारी को कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. अपमानित तो वह हुई ही, अब तो कोई काम पर भी नहीं रखेगा उसे. मन खिन्न हो उठा था. वे खुद भी तो छटपटाने के सिवा कुछ नहीं कर सके. उन का अब घर पर जी नहीं लगता था. पत्नी कई बार रोकने का प्रयत्न करती, पर उन का हर प्रयत्न अकारथ सिद्ध होता, अब उन का मन बुरी तरह उचट गया था.

एक रात प्रारूप दौरे पर गए थे. सुरभि और मृदुल बंगले में अकेले थे. अचानक बत्ती गुल हो गई. एक तो अकेली, ऊपर से अंधेरा. गरमी और उमस से बचने के लिए उस ने खिड़की खोली और स्टोर में जा कर लालटेन में मिट्टी का तेल भरा. उसे ला कर वह ज्यों ही तिपाई पर रखने लगी थी कि लालटेन औंधेमुंह जमीन पर गिर पड़ी और पूरा तेल मेजपोश पर छलक गया और पलक झपकते ही आग ने मेज, परदों और फर्नीचर को अपने चुंगल में ले लिया. फिर देखते ही देखते आग ने विकरालरूप धारण कर लिया. अंधेरे  में जब वह पानी की बालटी लेने बाथरूम में पहुंची तब तक आधा कमरा आग की लपटों में जल गया.

कृत्यअकृत्य के चक्रवात में फंसी सुरभि को यह भी समझ नहीं आया कि बेटे को उठा कर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दे. डर और दहशत से आवाज भी घुट कर रह गई थी. चीखतीचिल्लाती भी तो उस नई अनजान जगह में उस की चीखें दीवारों से ही टक्कर मार कर, उस के कर्णपटल को भेद जातीं. कौन आता उस की सहायता करने?

तभी उस ने झोंपडि़यों की ओर से कुछ लोगों को अपने बंगले की ओर आते देखा. उस ने सोचा, सभी शीतला के रिश्तेदार होंगे. प्रारूप की अनुपस्थिति में लूटखसोट कर के घर का सामान ले जाएंगे और उसे और मृदुल को मार भी डालेंगे. कलुषित मन और सोच भी क्या कर सकता था? घबराहट के मारे सुरभि गश खा कर जमीन पर गिर पड़ी. उस के बाद क्या घटा, उसे नहीं मालूम.

आंख खुली तो वह अस्पताल में बिस्तर पर पड़ी थी. पास में बिस्तर पर मृदुल लेटा था. सामने प्रारूप खड़े थे. उन के सामने शीतला सपरिवार खड़ी थी.

उस के हाथों की ओर सुरभि की नजर चली गई थी. दोनों हाथों पर पट्टियां थीं. पूरा चेहरा जगहजगह से झुलस गया था. उस ने क्षीण स्वर में पूछा, ‘‘तुम्हारे हाथों को क्या हुआ?’’

‘‘आप को और मृदुल को बचाने के प्रयास में इस के हाथ बुरी तरह झुलस गए हैं. समय पर अगर यह आप को न बचाती तो आप का बचना नामुमकिन था,’’ डाक्टर ने सुरभि को बताया तो एकाएक वह भयानक मंजर उसे याद हो आया था.

देर तक वह शीतला को निहारती रही. पश्चात्ताप के आंसुओं की अविरल धारा अपनी सारी सीमाएं तोड़ कर बह निकली थी, पर तब भी वह कुछ कह नहीं सकी थी. एक बार फिर अहं सामने आ गया.

कुछ दिनोें तक अस्पताल में रहने के बाद सुरभि और मृदुल पूरी तरह से स्वस्थ हो घर आ गए थे. एक शाम प्रारूप के साथ सैर करते हुए वह शीतला की झोंपड़ी की ओर बढ़ने लगी तो प्रारूप ने उसे रोका, ‘‘उधर कहां जा रही हो?’’

‘‘आज मत रोको मुझे. एक बार वहां जा कर प्रायश्चित्त कर लेने दो,’’ कह कर वह आगे बढ़ी और शीतला की झोंपड़ी के बाहर जा कर रुक गई. चिथड़ों में लिपट शीतला के चेहरे पर मुसकान दौड़ गई, दौड़ कर उस ने चारपाई बिछाई और नम्रतापूर्वक उन के बैठने की प्रतीक्षा करने लगी. भूखेनंगे बच्चों को देख कर सुरभि का मन ग्लानि से भर उठा. वह मन ही मन सोचने लगी कि ईर्ष्या और डाह की विषबेल बो कर कैसा बदला लिया था उस जैसी शिक्षित नारी ने उस गरीब से? उस के पास पति था, प्यारा बेटा था, ऐश्वर्य, समृद्धि सभी कुछ तो था. खुद ही तो सहेजसमेट नहीं पाई इस सुख को. इस में दूसरों का क्या दोष? गाज गिराई भी तो उस पर जिस ने उस के पति की सेवा की? शीतला के साथ उस के पूरे परिवार को उस ने अपने परिहास की परिधि में घसीट लिया?

शीतला को पास बुला कर उस ने उसे अपने पास बैठाया. फिर उस का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘तुम्हारे ऊपर मैं ने इतने आरोप लगाए, फिर भी मेरी और मेरे बेटे की रक्षा की तुम ने, तुम वास्तव में ही महान हो, शीतला.’’

‘‘नहीं बीबीजी, मैं तो कुछ भी नहीं, महान तो बाबूजी हैं. इन्होंने मेरे बच्चों की भूख मिटाई. मेरे अपाहिज पति के इलाज के लिए ठेकेदार से पैसा दिलवाया और सब से बड़ा उपकार तो इन्होंने मेरी इज्जत बचा कर किया.’’

शीतला फिर बोली, ‘‘बीबीजी, एक रात शराब के नशे में मेरे पति ने मुझे ठेकेदार के पास भेज दिया था. उस ने सोचा, इसी तरह से 4 पैसे का जुगाड़ भी हो जाएगा और बच्चों को रोटी, कपड़ा मिलता रहेगा. अब आप ही बताओ कि जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो उस औरत पर क्या बीतती होगी? तब बाबूजी ने ही मेरी रक्षा की थी. मैं तो अपना भाई, पिता सबकुछ ही इन्हें मानती हूं. मैं ने आप के घर का नमक खाया है और फिर जब मेहनत करने के लिए ये 2 हाथ दिए हैं तो इंसान कुकर्म करे ही क्यों?’’

सुरभि की नजरों में शीतला बहुत ऊपर उठ गई थी. आसमान से भी ऊपर. आज शीतला के कथन ने उसे इस अवधारणा से मुक्त कर दिया था कि औरत और मर्द के बीच हर रिश्ता शरीर तक ही सीमित नहीं, भावनाओं व संवेदनाओं का भी अपना स्थान है.

प्रारूप कुछ कहना चाह ही रहे थे कि उस ने अपनी हथेली उन के होंठों पर रख दी. शीतला को अगले दिन ही काम पर आने के लिए कह कर वह लौट आई थी. अब नई सुबह, वह उस की प्रतीक्षा में खड़ी थी, जिस में संदेह और शंका के लिए कोई स्थान नहीं था.

हैप्पी एंडिंग: भाग-1

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

आज10 वर्ष के बाद फिर उसी गली में खड़ी थी. इन्हीं संकरी पगडंडियों के किनारे बनी इस बड़ी हवेली में गुजरा मेरा बचपन, इस हवेली की छत पर पनपा मेरा पहला प्यार… जिस का एहसास मेरे मन को भिगो रहा था. एक बार फिर खुली मेरी यादों की परतें, जिन की बंद तहों पर सिलवटें पड़ी हुई थीं, गलियों से निकलते हुए मेरी नजर चौराहे पर बने गांधी पार्क पर पड़ी, छोटेछोटे बच्चों की खिलखिलाहट से पार्क गुंजायमान हुआ था, पार्क के बाहर अनगिनत फूड स्टौल लगे हुए थे जिन पर महिलाएं खानेपीने के साथ गौसिप में खोई थीं… सुखद एहसास हुआ… चलो, आज की घरेलू औरतें चाहरदीवारी से कुछ समय अपने लिए निकाल रही हैं, मैं ने तो मां, चाचियों को दादी के बनाए नियम के अनुसार ही जीते देखा है, पूरा दिन घर के काम और रसोई से थोड़ी फुर्सत मिलती तो दादी बडि़यां, चिप्स और पापड़ बनाने में लगा देतीं.

चाचियां भुनभुनाती हुई मां के पीछे लगी रहतीं, किसी के अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी

कि कुछ समय आराम करने के लिए मांग सके. दादी के तानाशाही रवैये से सभी त्रस्त थे लेकिन ज्यादातर उन की शिकार मैं और मां बनते थे.

पूरे खानदान में मेरे रूपसौंदर्य की चर्चा होती तो वहीं दादी को मैं फूटी आंख नहीं सुहाती, मेरे स्कूल आनेजाने के लिए भाई को साथ लगा

दिया जो कालेज जाने तक साए की तरह साथ लगा रहता.

10 बेटों के बीच मैं एक एकलौती बेटी थी. सभी का भरपूर प्यार मिला लेकिन साथ कई बंदिशें भी, पिताजी अपने 5 भाइयों के साथ बिजनैस संभालने में व्यस्त रहते और भाइयों को मेरी निगरानी में लगा रखा था जो अपना काम बड़ी ईमानदारी से करते थे.

परीक्षा खत्म होने के साथसाथ गर्मियोें की छुट्टियों में कुछ दिन आजादी के मिलते थे जब मां अपने मायके और मैं और भाई मामा के घर खुद के बनाए नियम में जीते थे. मैं बहुत खुश थी, मामा के घर जाना है लेकिन अगली सुबह ही दादी ने घर में एक नया फरमान जारी किया… ‘‘रीवा कहीं नहीं जाएगी… लड़की जवान हो रही है. ऐसे में तो अपने सगों पर भरोसा नहीं तो मैं कैसे जाने दूं उसे तेरी ससुराल, कुछ ऊंचनीच हो गई तो सारी उम्र सिर फोड़ते रहोगे. तुम्हारी घरवाली जाना चाहे तो जा सकती है बस रीवा नहीं जाएंगी. पिताजी हमेशा की तरह सिर झुकाए हां में हां मिलाए जा रहे थे.’’

मेरी आंखों से गंगाजमुना की धार बह चली थी. पता नहीं उन दिनों इतना रोना क्यों आता था अब तो बड़ी से बड़ी बात हो जाए आंखें सूखी रहती हैं.

खूब रोनाधोना मचाया लेकिन कुछ काम नहीं आया. मुझ पर लगी इस बंदिश ने मां का मायका भी छुड़ा दिया. मां की तकलीफ देख कर दिल से आह निकली ‘‘काश… मैं लड़की नहीं होती’’ उस दिन पहली बार लड़की होने पर दु:ख हुआ था.

छत की मुंडेर पर बैठी चाची के रेडियो से गाने सुन रही थी, रफी के हिट्स चल रहे थे… दर्द भरे गानों में खुद को फिट कर दुखी होने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. तभी पीछे की छत से आवाज आई ‘‘गाना अच्छा है.’’

पीछे मुड़ कर देखा एक हैंडसम लड़का मेरी तरफ देख कर मुसकरा रहा था… ‘‘पर ये हैं कौन?’’ खुद से सवाल किया.

‘‘हाय… मैं सुमित, यह मेरी बूआ का घर है… आप का नाम?’’

अच्छा… तो ये बीना आंटी का भतीजा है.

‘‘मेरा नाम जानने की कोशिश न ही करो यही तुम्हारे लिए बेहतर होगा’’ कहते हुए मैं

अपने कमरे में चली आई. मैं वहां से चली तो आई पर न जाने कैसा एहसास साथ ले आई

थी. 17 की हो गई थी और आज तक कभी

किसी भी लड़के ने मुझ से बात करना तो दूर… नजर उठा कर देखने की भी हिम्मत नहीं की थी और इस का पूरा श्रेय मेरे आदरणीय भाइयों को जाता है.

और उस दिन पहली बार किसी लड़के ने मुझ से मुसकरा कर मेरा नाम पूछा था… जैसे मेरे अंदर प्रेम की सुप्तावस्था को थपकी दे कर उठा रहा हो, मैं उस के उठने के एहसास से ही भयभीत हो गई थी, क्योंकि मैं जानती थी कि यह एहसास एक बार जग गया तो मेरे साथ मेरी मां भी कभी न शांत होने वाले तूफान में फंस जाएंगी, जिस से निकलने की कोशिश मात्र से ही मेरे अस्तित्व की धज्जियां उड़ जाएंगी.

अगले दिन दिमाग के लाख मना करने के बाद भी दिल ने अपनी बात मुझ से मनवा ली और मैं फिर छत की मुंडेर के उस कोने में खड़ी हो गई. वह सामने ही खड़ा था लैमन यलो कलर की शर्ट के साथ ब्लू जींस में. बहुत हैंडसम दिख रहा था, बीना आंटी भी साथ में थी. उन्हें देख कर मैं ने अपने कदम पीछे करना चाहे तब तक बीना आंटी ने मुझे देख लिया था.

‘‘रीवा, इस बार अपने मामा के घर नहीं गई.’’

‘‘नहीं, आंटी… मां की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए दादी ने मना कर दिया.’’

‘‘ओह, काफी दिनों से सुरेखा भाभी से मिली नहीं, समय मिलते ही आऊंगी उन से मिलने.’’

‘‘जी… आंटी.’’

‘‘अरे हां… इस से मिलो, मेरा भतीजा सुमित… कल ही मद्रास से आया, वहां मैडिकल कालेज में पढ़ता है. 10 दिन की छुट्टियों में इस को बूआ की याद आ गई,’’ हंसते हुए बीना आंटी ने कहा.

‘‘बूआ, अच्छा हुआ मैं इस बार यहां आ गया यह तो पता चला आप के शहर में कितनी खूबसूरती छिपी है,’’ सुमित की आंखें मेरे चेहरे पर टिकी थीं.

मैं गुलाबी हो रही थी… शर्म से, प्रेम से, आनंद से.

मैं ही जानती हूं उस पल मैं वहां कैसे खड़ी थी. आंटी के जाते ही आंधी की तरह भागती हुई अपने कमरे में पहुंच गई, सुमित की आंखें जाने क्याक्या बयां कर गई थीं, उस की आंखों का स्थायित्व मुझे एक अदृश्य डोर में बांध रहा था… मैं बंधती जा रही थी… दिल के साथ अब दिमाग भी विद्रोही हो गया था… क्या इसे ही पहला प्यार कहते हैं, यह कैसा अनुभव है, दिल का चैन खत्म हो चुका था, अजीब सी बेचैनी छाई हुई थी, भूखप्यास सब खत्म… घर वालों को लगता मैं मामाजी के घर न जाने के कारण ऐसे गुमसुम सी, बेचैन हो कर छत के चक्कर लगाती हूं और उन का यह सोचना मेरे लिए अच्छा था, मुझ पर नजर थोड़ी कम रखी जाती.

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दाहिनी आंख: भाग 1- अनहोनी की आशंका ने बनाया अंधविश्वास का डर

लेखिकाइंदिरा दांगी

उस दिन मेरी दाहिनी आंख फड़क रही थी. शकुनअपशकुन मानने वाले हिंदुस्तानी समाज के इस गहरे यकीन पर मुझे कभी भरोसा नहीं कि स्त्री के बाएं अंगों का फड़कना शुभ होता है, दाएं का अशुभ. पुरुषों के लिए विपरीत विधान है, दायां शुभ बायां अशुभ. क्या बकवास है. इस बाईंदाईं फड़कन का मुझ पर कुल प्रभाव बस इतना रहा है कि अपनी गरदन को कुछ अदा से उठा कर, चमकते चेहरे से आसपास के लोगों को बताती रही हूं, मैं इन सब में यकीन नहीं रखती.

जब से मैं ने अपने मातापिता से इस संसार के बारे में जाना तब से खुदमुख्तार सा जीवन जी रही हूं. चलतीफिरती संस्कृति बन चुकी अपनी मां के मूल स्वभाव के ठीक विपरीत मैं ने हर परंपरारिवाज, विश्वासअंधविश्वास के जुए से अपनी गरदन बचाई और सैकड़ों दलीलों के बाद भी मेरा माथा आस्थाओं, अंधविश्वासों के आगे नहीं झुकाया जा सका. कालेज के दिनों में मैं ने ईश्वर के अस्तित्व पर भी उंगलियां उठाईं, उस के बारे में अपनी विचित्र परिभाषाएं दीं. शादी के बाद भी सब ने मुझे आधुनिक गृहिणी के तौर पर ही स्वीकारा. कांच की खनखन चूडि़यों से पति की दीर्घायु का संबंध, बिछियों की रुपहली चमक से सुहाग रक्षा, बिंदीसिंदूर की शोखी से पत्नीत्व के अनिवार्य वास्ते, सजीसंवरी सुहागिन के?रूप में ही मर जाने की अखंड सौभाग्यवती कामनाएं… और भी न जाने कितना कुछ, मैं ने अगर कभी कुछ किया भी तो बस यों ही. हंगामों से अपनी ऊर्जा बचाए रखने के लिए या कभी फैशन के मारे ही निभा लिया, बस.

जब मैं गर्भवती थी, अदृश्य रक्षाओं से तब भी भागती रही, कलाई पर काले कपड़े में हींग बांधने, सफर के दौरान  चाकूमाचिस ले कर चलने और इत्रफुलेल, मेहंदी निषेध की अंधमान्यताएं मुझे बराबर बताई जाती रहीं लेकिन मैं ने सिर्फ अपनी गाइनोकोलौजिस्ट यानी डाक्टर पर भरोसा किया. फिर जब मेरा बेटा हुआ, तावीजगंडों, विचित्रविचित्र टोटकों, नमकमिर्च और राई के धुएं और काले टीके से मैं ने उसे भी बचा लिया.

दिल को विश्वास था कि मैं बस उस का पूरापूरा ध्यान रखूं तो वह स्वस्थ रहेगा और वह रहा भी. हालांकि इस घोर नास्तिकता ने मेरी वृद्ध विधवा सास को इतना आहत किया कि वे सदा के लिए अपने सुदूर पुश्तैनी गांव जा बसीं, जहां कथित देवताओं, पुरखों और रिवाजों से पगपग रचे परिवेश में उन का जीवन ऐसा सुंदर, सहज है जैसे हार में जड़ा नगीना.

हां, तो उस दिन मेरी दाईं आंख फड़क रही थी जो कतई ध्यान देने वाली बात नहीं थी. पति बिजनैस टूर पर एक हफ्ते से बाहर थे और आज शाम लौटने वाले थे. मैं और मेरा 5 साल का बेटा नैवेद्य घर पर थे. हम मांबेटे अपनेअपने में मस्त थे. वह टैलीविजन पर कोई एनीमेशन मूवी देख रहा था और मैं शाम के खाने की तैयारियों में लगी थी. बड़े दिनों बाद घर लौटते पति की शाम को हार्दिकता के रंगों से सजाने की तैयारियां लगभग पूरी होने को थीं. मैं रसोई में थी कि खिड़की से टूटते बादलों को देख मेरे होंठों पर एक गजल खुदबखुद आ गई :

‘तेरे आने की जब खबर महके,

तेरी खुशबू से सारा घर महके…’

कि अचानक, सैलफोन की प्रिय पाश्चात्य रिंगटोन गूंजी :

‘यू एंड आई, इन दिस ब्यूटीफुल वर्ल्ड…’

दूसरे सिरे पर पति थे. हम ने संयत लेकिन अपनत्व भरे स्वर में एकदूसरे का हालचाल जाना. उन्होंने कहा कि उन के बौस ने एक जरूरी फाइल मांगी है जो भूलवश घर पर है, और मुझे वह फाइल अभी उन के दफ्तर पहुंचानी होगी. मुझे ‘हां’ कहना चाहिए था और मैं ने कहा भी. वैसे भी सब्जी लाने, बिजली का बिल जमा करने, गेहूं पिसवाने से ले कर लौकर से जेवर ले आने, रख आने जैसे तमाम घरेलू काम मैं अकेली ही करती रही हूं. मेरे पास एक चमचमाती दुपहिया गाड़ी है और मैं अनुशासित ड्राइवर मानी जाती हूं.

फोन रखते ही मैं जाने की तैयारियां करने लगी. चुस्त जींस और कसी कुरती पहन मैं तैयार हो गई. बेटे नानू यानी नैवेद्य की कोई दिक्कत नहीं थी. ऐसे मौकों पर मिसेज सिंह फायदे और कायदे की पड़ोसी साबित होती हैं. उन के बेटाबहू सुदूर दक्षिण के किसी शहर में इंजीनियर हैं और ऊंचे पैकेज पर कार्यरत उन 2 युवा इंजीनियरों को चूड़ीबिंदी, साड़ी वाली बूढ़ी मां की जरूरत महसूस नहीं होती.

मिसेज सिंह की एक प्रौढ़ बेटी भी है जो विदेश में पतिबच्चों के साथ सैटल है और मातापिता अब उस से पुरानी तसवीरों, सैलफोन और वैबकौम इंटरनैट में ही मिल पाते हैं.

मिस्टर सिंह रिटायर हो चुके हैं और शामसवेरे की लंबी सैर व लाफ्टर क्लब से भी जब उन का वक्त नहीं कटता तो अपनी अनंत ऊब से भागते हुए वे वृद्धाश्रमों, अनाथालयों या रेलवे स्टेशन जैसी जगहों पर घंटों जिंदगी की तलाश में भटकते हैं जबकि मिसेज सिंह पूरा समय घर में रहती हैं.

थायरायड उन की उतनी खतरनाक बीमारी नहीं है जितनी उन की सामाजिकता.

पहले वे पड़ोसियों के यहां घंटों बैठी रहा करती थीं, पर जब लोग उन से ऊबने लगे, काम के बहाने कतराने लगे तो मिसेज सिंह ने यहांवहां बैठना छोड़ दिया. अब वे चढ़ती दोपहरी से ढलती शाम तक बालकनी में बैठी रहती हैं और कभीकभी तो आधी रात के वक्त भी इस एकाकी बूढ़ी को सड़क के सूने अंधकार में ताकते देखा जा सकता है.

 

सिंह दंपती स्वयं से ही नहीं, एकदूसरे से भी ऊबे हुए हैं और इसी भीतरी सूनेपन ने उन के सामाजिक व्यक्तित्व को मधुरतम बना दिया है. आसपड़ोस के हर मालिककिराएदार परिवार के लिए उन की बुजुर्गीयत का झरना कलकल बहता रहता है. मिसेज सिंह जब भी कहीं घूमने जाती हैं, सारी पड़ोसिनों के लिए सिंदूर, चूडि़यां, लोहेतांबे के छल्ले (उन्हें सब के नाप याद हैं) लाना नहीं भूलतीं. यहां के तमाम नन्हे बच्चों की कलाइयों के पीले, तांबई या काले चमकीले मोतियों वाले कड़े किसी न किसी तीर्थस्थान का प्रसाद हैं और निसंदेह मिसेज सिंह के ही उपहार हैं. होली, दीवाली, करवाचौथ जैसे त्योहारों पर मैं भी इस अतृप्ता के पैर छूती हूं. आंटीजी कहती हूं, बच्चे से दादी कहलवाती हूं और बदले में निहाल मिसेज सिंह जरूरत पड़ने पर मेरे बच्चे को इस स्नेहखयाल से संभालती हैं जो एक दादी या नानी ही अपने वंशज के लिए कर सकती है.

 

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