Valentine’s Day 2024: अनोखी- भाग 3- प्रख्यात से मिलकर कैसा था निष्ठा का हाल

‘‘अरे रुकिए तो वकील साहब. मेरे जूते मिलेंगे तभी तो,’’ सिकंदर जूते ढूंढ़ते हुए बोला.

प्रख्यात कीचड में खड़ा कभी खुद को, तो कभी अपने गंदे हो रहे पांवों को खीज कर देख रहा था. पैसे निकाल कर उसे देने ही पड़े.

‘‘हैलो पैसे मिल गए?’’ सखी का फोन था.

‘‘हां, जल्दी बता कहां हैं जूते?’’

‘‘सच बोल रही है न?’’

‘‘हां भई, अब बता न.’’

‘‘जा जूते सिकंदर की गाड़ी में रखे हैं.’’

‘‘वादा किया था कोई शरारत नहीं करेगी पर मानी नहीं शैतान… इस की शादी में सारा बदला लूंगी अच्छी तरह,’’ सुदीपा ने मुसकराते हुए कार की ओर इशारा किया.

सभी तुरंत भाग कर गाड़ी में जा बैठे. गाड़ी वकील को 33 सैक्टर छोड़ने चल पड़ी.

‘‘अनोखी सखी है आप की… कोई अनोखा ही मिलना चाहिए उन्हें,’’ प्रख्यात जूते पहनते हुए बोला.

‘‘सही में… मैं तो उस के लिए यही

कामना करती हूं… शुक्र करो बहुत कम शरारत ही की उस ने… अरे मैं तो कालेज से देख रही

हूं. कभी किसी के सीट पर गोंद चिपकाना, तो कभी किसी की चोटी चेयर से बांधना… टीचरों के अपने ही नामकरण किए थे. इंगलिश वाली मैडम को सूर्पणखा तो बौटनी वाली को मां

शारदे, कैमिस्ट्री वाली को काली खप्परवाली, फिजिक्स टीचर को दुर्गति दुर्गा… अपने बचपन के तो तमाम शरारती किस्से मजे ले कर सुनाते नहीं थकती.’’

सिकंदर और सुदीपा को कोर्ट मैरिज के बाद घर वालों के बड़े गुस्से का सामना करना पड़ा. काफी समय नाराजगी रही, खूब डांट पड़ी. प्रख्यात ने अपनी तरफ से उन्हें काफी सम झाने की कोशिश की. फिर सही में मातापिता दोबारा शादी के बाद ही उन्हें पतिपत्नी के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार

हो गए. सब के मन में खुशी की लहर दौड़ने लगी. पूछ कर शादी की तारीख 3 महीने बाद तय की गई.

रात को प्रख्यात घर पहुंचा तो मां ने उसे उस की सगाई का कार्ड दिखाया जो अभीअभी छप कर आया था.

‘‘देख प्रख्यात कितना सुंदर है तेरी सगाई का कार्ड… दे आ अपने दोस्तों को भी.’’

‘‘आयुष्मति निष्ठा…’’ वह चौंका. उसे लाली याद आ गई. उस का नाम भी…’’

‘‘अब तो यह फोटो देख ले उस का… कितनी प्यारी है. तभी तो रिश्ता आते ही हम ने हां कर दी… तूने हमेशा मना किया देखने को, अब बाद में न कहना. देख ले अभी भी…’’ मम्मी अपनी सही और सुंदर पसंद दिखाने को बेचैन हो उठी थीं.

कुतूहलवश एक नजर उस ने देख ही लिया.

शुक्र है शक्ल उस लाली निष्ठा की नहीं. नाम से तो मैं तो घबरा ही गया था. लाली के पीछे से बौयकट, आगे से माथे को पूरा ढकते साधना कट हेयर, उस की हलकी सी भूरी आंखें… जुड़ी हुई भवें, सामने दांतों के बीच गैप… स्लाइड सी चल पड़ी प्रख्यात के दिमाग में.

‘‘क्या सोच रहा है. अच्छी नहीं लगी क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी ऐसा कुछ नहीं. आप ने

पसंद की है तो अच्छी कैसे नहीं होगी,’’ वह मुसकराया.

सिकंदर के मातापिता ने थाईलैंड डैस्टिनेशन वैडिंग का निश्चय किया. वे सभी सहमत हुए तो उन की तैयारी शुरू हो गई. इधर रिसर्च पूरा होने के पहले ही प्रख्यात की जौब प्लेसमैंट के लिए मेल आ गया कि जल्दी थीसिस अप्रूव होते ही जौइन करें. मुंबई की नामी मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब मिल गई थी. निष्ठा तो उस के लिए सही रही, यह खुशखबरी कैसे बताए उसे एक  िझ झक मन में लिए वह निकल पड़ा अपने होस्टल अपनी थीसिस जल्दी पूरी कर सबमिट करने के लिए.

‘‘मेरी सखी अंतर्ध्यान हो गई… किसी रिश्तेदार की शादी में गई है हाऊ बोरिंग… उस के साथ हर पल रोचक रहता मेरा.’’

‘‘अब मेरा सखा भी चला गया रिसर्च सबमिशन के लिए… अपनी सगाई के समय ही आएगा.’’

सही ही कहा था सिकंदर ने. प्रख्यात वाकई अपनी सगाई के दिन ही पहुंचा था.

‘‘कमाल करता है यार इतना बिजी था… अभी तक लड़की को न देखा न बात की होगी… क्या सोचती होगी वह… मम्मापापा का संस्कारी बौय,’’ सिकंदर ने थोड़ा गुस्सा किया.

‘‘अच्छा चल पहले जल्दी सैलून चल अच्छी तरह तैयार हो कर आ. फिर यह आंटी की लाई शानदार ड्रैस पहनना.’’

प्रख्यात तैयार हो कर सब के साथ वेन्यू पहुंचा तो निष्ठा के पिता व भाइयों ने स्वागत किया. निष्ठा की प्रतीक्षा में स्टेज पर बैठे प्रख्यात के दिल की धड़कनें तेज हो रही थीं. निष्ठा आई तो चेहरे पर घूंघट डाल रखा था. सिकंदर और सुदीपा ने उसे थाम लिया, बधाई दी.

सुदीपा गले मिल कर बोली, ‘‘बहुत बधाई सखी, पर ज्यादा तंग न करना बेचारे को. बात पच नहीं रही थी फिर भी हम दोनों ने कुछ नहीं बताया इसे,’’ सुदीपा ने मुसकराते हुए उस की हथेली दबा दी.

‘‘हां, बिना मु झे पहले देखे मिले. मंगनी करने का फल तो भुगतना होगा जनाब को… न कौल की न मिले,’’ वह घूंघट में हंसी.

लड़कियां तो शादी के समय भी आजकल घूंघट नहीं करतीं यह तो… मम्मी तो बता रही थीं कि बड़े मौर्डन खयालात के हैं ये लोग… प्रख्यात सोचे जा रहा था.

सखी पास आ कर बैठ गई. सब ने तालियां बजाईं.

‘‘प्रख्यात घूंघट उठा. फिर सगाई की रस्म शुरू की जाए,’’ मम्मी की आवाज थी.

‘‘मगर मम्मी…’’

‘‘यहां भी तु झे मम्मी की हैल्प चाहिए?’’ वातावरण में ठहाका गूंज उठा.

प्रख्यात ने जब घूंघट उठाया तो हैरान हो उठा. निष्ठा ने उसे चिढ़ाने के

लिए अपनी आंखें पूरी स्क्विंट कर ली थीं. उस की भवें लाली जैसी ही जुड़ी थीं. वह पसीने से नहा गया. मम्मी को देखने लगा.

दूसरे ही पल निष्ठा ने आंखें ठीक कर लीं, तो राहत हुई. सुदीपा टिशू से उस की काजल से बनी भवें साफ कर हंसने लगी.

‘‘यही सखी है, लाली भी और आप की निष्ठा भी… बोला था न शादी करूंगी तो तुम

से. पूरी नजर रख रही हूं तब से ही… बैठी रही तुम्हारे इंतजार में… आंटीअंकल को सब पता

था, पार्क में भी उस दिन मैं ही थी. जब दिल

नहीं माना तो जंगली घास की बाली घुसा दी तुम्हारी शर्ट में. मम्मी को तो पहचान लिया

होगा. बुद्धू सिंह. तुम्हें सरप्राइज का जबरदस्त  झटका देना था. इसीलिए कोर्ट में चेहरा छिपाते हुए जल्दी ही भाग गई थी. तुम्हें तंग करने

का अलग ही मजा है. अब तो जिंदगी भर ये

मजे लूंगी,’’ और फिर हंसते हुए बड़ी नजाकत

से रिंग सेरेमनी के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.

प्रख्यात हैरान हो अनोखी लाली का

बदला रूप मंत्रमुग्ध हो देखे जा रहा था.

बचपन में वह अनोखी की अनोखी शरारतों से डरता भी था पर रोज इंतजार भी करता था.

शायद उस की नित नई रंगभरी शरारतों का

इंतजार उसे अच्छा भी लगता था. इसीलिए तो आज वह पूरा जीवन इस जीवंत रंग में रंगने

के लिए अपने को बिना डर के सहर्ष तैयार पा रहा था.

‘‘अब पहना भी दो कहां खो गए? जल्दी करो, निहारते ही रहोगे क्या?’’

‘‘पहनाओ प्रख्यात वरना अनोखी फिर

कोई शरारत न कर दे,’’ एकसाथ कई आवाजें गूंजीं.

फिर ठहाकों और तालियों के बीच

आखिर मुसकराते हुए निष्ठा को मंगनी रिंग

पहना दी.

Valentine’s Day 2024: अनोखी- भाग 2- प्रख्यात से मिलकर कैसा था निष्ठा का हाल

‘‘अबे चल कोई फिल्म है क्या? मैं आंटी से बात करता हूं अगर तू वाकई सीरियस है तो,’’ प्रख्यात हंसा था.

‘‘अच्छा इतना ही सयाना है तो मेरी आंटी से लड़की से मिलने देने को क्यों नहीं कहता… ये पुरातनपंथी मानने वाले नहीं…’’

‘‘अरे कुछ ही दिनों की बात है. रहने देते हैं न उन्हें सुख से अपने संस्कारों में, अपनी मान्यताओं में. 15 को तो मिल ही लूंगा…’’

‘‘पसंद न आई तो?’’ सिकंदर अभी भी नहीं पचा पा रहा था कि प्रख्यात बिना देखे शादी के लिए कैसे मान रहा है.

‘‘अरे घर वाले ही हैं अच्छा ही सोचा होगा,’’ कह प्रख्यात मुसकराया.

‘‘फिर भी… कमाल है तू… हद ही है… अच्छा सुन अगले सोमवार कर लेते हैं शादी… वह कह रही थी कि हम सीधा कोर्ट आ जाएंगे… तू वहां का सब संभाल लेना. तेरे दोस्त वहां हैं न. फिर घर जा कर सब का आशीर्वाद ले लेंगे. उन्हें देना ही पड़ेगा घर वाले जो हैं,’’ वह प्रख्यात की बात दोहराते हुए हंसा था.

‘‘कमाल है, तू उलटापलटा काम करेगा और मेरी नकल उतारेगा… मैं इन बातों में साथ नहीं देने वाला… आंटीअंकल से मु झे डांट नहीं खानी… मेरा रैपो क्यों खराब करना चाहता है?’’

‘‘अबे यार उस की दोस्त सखी तो उस की मदद को साथ आ रही है,’’ सिकंदर बोला.

‘‘दोस्तसखी एक ही बात है. नाम नहीं कह सकता?’’

‘‘यही नाम मालूम है मु झे. वह हमारी शादी तक में सब संभाल लेगी. उस के बाद काम तेरा, तू कैसा दोस्त है यार… अच्छा चल किसी दोस्त को ही बोल दे वहां सब तैयारी रखे.’’

‘‘अरे यार आंटी से बात करने दे. ऐसे बिलकुल ठीक नहीं लगता,’’ प्रख्यात फिर हिचकिचाया.

‘‘अरे तब तो वे बिलकुल नहीं होने देंगी. दादी की सारी मान्यताएं उन्हें सिर ओढ़नी हैं… मान ले मेरा कहा यार… लड़के की तरफ से विटनैस तो तू ही होगा वरना मैं तेरी सगाई में नहीं आऊंगा सम झ ले,’’ वह छोटे बच्चे की तरह रूठ कर बोला तो प्रख्यात हंस दिया.

‘‘चल डन. तू मिला न मिला अपनी से मु झे बट मैं तु झे आज ही मिला दूंगा. शाम को 7 बजे क्वालिटी में. अभी उस से बात करता हूं… हम रोज ही मिलते हैं. तेरा बता देता हूं कि आज तू भी साथ होगा.’’

शाम को प्रख्यात मिला तो सुदीपा के व्यवहार से काफी इंप्रैस हुआ. फिर सोचने लगा कि हां फिट बैठेगी इस के घर में पर इस फंटूश को कैसे पसंद कर लिया इस ने. पर फिर थोड़ी देर में ही उसे पता चल गया कि आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है.

‘‘भाई प्लीज, आप हमारी शादी में हमारे साथ रहना, गवाह बनना कोर्ट में… बहुत डर लग रहा है. मांपापा की मरजी के बिना कभी कोई काम नहीं किया. मेरी दोस्त भी आएगी… उसी ने तो मु झे हिम्मत दिलाई है. बड़ी दिलेर है. किसी भी बात का उसे डर नहीं. एकदम बिंदास है. आप मिलना उस से, हम ग्रैजुएशन से दोस्त हैं… आप अपने दोस्त को वहां बोल देना सारी तैयारी, औपचारिकताएं पूरी रखे. मांपापा पहले तो नहीं मान रहे पर यकीन है बाद में मान जाएंगे,’’ सुदीपा बोली.

सुदीपा की मासूमियत भरी अनुनय देख कर प्रख्यात पिघल गया, ‘‘ओके फिर… आना ही पड़ेगा विवाह में, लड़के वाला जो बन रहा हूं…’’

वे सब रैस्टोरैंट से बाहर निकल आए.

सुदीपा की दोस्त सखी की बात सुन कर प्रख्यात को लाली फिर याद हो आई. वह भीतो ऐसी ही दबंग थी. कभी डेस्क में ब्लेड खोंस कर, चलती क्लास में बाजा बजाती. टीचर चिल्लाती कि कौन बजा रहा है, पर उस के डर से कोई नहीं बताता. शांति छा जाती. कभी पूरी क्लास की छुट्टी कराने का मन हो तो उस के निर्देश पर सभी किताब न लाने का बहाना बताते. पूरी क्लास को बैंचों पर खड़े रहने की सजा दे कर मैडम चली जातीं. बस पढ़ाई बंद और सीढ़ीनुमा क्लास की बैंचों पर चुपकेचुपके पकड़मपकड़म के मजे शुरू… कई दिनों से न जाने क्यों बारबार उस अनोखी शैतान की याद आ रही है. जिस के पल्ले पड़ी होगी उस का भला हो.

कोर्ट पहुंच कर प्रख्यात अचरज में था. सुदीपा को जींसटौप के

ऊपर ही चुन्नी ओढ़ा कर उस की दोस्त माथा ढकी साथ बैठी थी. सिकंदर भी सिंपल जींसटीशर्ट में था.

‘‘अरे यार तेरी शेरवानी कहां गई जो तूने उस दिन ली थी? मेरे साथ आज पहनी

क्यों नहीं?’’

‘‘लास्ट मोमैंट पर सखी ने तय किया.

मना किया कि बहुत खूबसूरत है ड्रैस पर कौन देख रहा है यहां, उस पर यह गरमी में क्या

तुक है भई… पक्की बात है दोनों के पेरैंट्स दोबारा धूमधाम से शादी करेंगे ही तब पहनना बेकार अभी वेस्ट क्यों करना. इसे ब्यूटीपार्लर

भी न जाने दिया. न दुलहन सी ड्रैसिंग करने दी कि यहां से सीधा कोर्ट जाना है. हमें भी लगा सही है.’’

‘‘तो मैं ही उल्लू बन गया, जो सूट कर आया हूं,’’ प्रख्यात पूरे सूट में था. न जाने क्यों उस ने कोर्ट में भी बाहर जूते उतारे और पास ही कुरसी पर बैठ गया. सब में तेज खिलखिलहट

जो उभरी थी वह सखी की ही थी, ‘‘नमस्ते’’.

मगर प्रख्यात खिसयाया सा नजरें नहीं

मिला पाया. न ही चेहरा ठीक से देख पाया

उस का. फिर एक ओर देखते हुए उस ने जवाब दिया, ‘‘नमस्ते.’’

फिर चोरी से देखना भी चाहा पर दिखी नहीं. न जाने कहां गायब हो गई.

थोड़ी देर बाद ही कैमरा चेहरे पर चढ़ाए फोटोशूट करती हुई नजर आई. प्रख्यात को उस का चेहरा अब और भी नहीं दिख रहा था.

‘‘जल्दी शुरू करो.’’

ज्यादा समय नहीं लगा, 1 घंटे में विवाह के सारे दस्तावेज, प्रमाणपत्र ले लिए गए. बधाई दे कर गले मिलने के बाद जब सब चलने को हुए तो कोर्ट के कमरे के बाहर से प्रख्यात के चमकते जूते गायब थे. सखी हैलमेट पहन अपनी स्कूटी स्टार्ट कर चुकी थी. अगेन कौंग्रैट्स सुदी सिक… मतलब सिकंदर भाई, मैं चली ड्यूटी बाय. थोड़ा ढूंढ़ो तुम. मिल जाएंगे… कोर्ट में सभी रिकौर्ड लेने में अभी बहुत टाइम है. थोड़ी मेहनत करो,’’ हंसते हुए वह फुर्र से निकल गई. रिम िझम बारिश होने लगी थी.

‘‘हैलो,’’ सुदीपा ने उस का फोन उठाया. सखी का ही था.

‘‘सुदीपा जरा दोनों से क्वहजारहजार जूता चुराई के मेरे वसूल लो फिर बताती हूं कहां छिपाए हैं… नो चीटिंग… पैसे दो जूते लो.’’

‘‘ओह तो यह कारगुजारी करने के लिए गायब हुई थी मैडम. अभी साली बन गई कोर्ट में ही,’’ सुदीपा हंसी.

‘‘तो अब दोनों नेग देने को भी तैयार हो जाओ. पैसे दे दो जूते ले लो. निकालिए आप हजारहजार रुपए.’’

‘‘वकील साहब हलकी फुहार में भी हैरानपरेशान पसीने से तर हो रहे थे. उन्हें अगले किसी मामले की तैयारी पर पहुंचने की जल्दी जो थी. वे उतावले थे जाने को. बारबार कहे जा रहे थे, ‘‘भैया पहले मु झे छोड़ दो 33 सैक्टर… देर हो रही है. वहां समय से क्लाइंट से मकान की राजस्ट्री के कागज तैयार कराने न पहुंचा तो मेरा नुकसान हो जाएगा.’’

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Valentine’s Day 2024: अनोखी- भाग 1- प्रख्यात से मिलकर कैसा था निष्ठा का हाल

पत्तियोंके  झुरमुट में फिर सरसराहट हुई. प्रख्यात ने सिर घुमा कर फिर देखने की कोशिश की. लग रहा था कोई उसे छिप कर देख रहा है. तभी पीछे शर्ट में कुछ चुभा. उस का हाथ  झट पीछे चला गया. जंगली घास की वह गेहूं जैसी बाली कैसे उस

की टीशर्ट में ऊपर पहुंच गई. उस ने निकाल कर एक ओर फेंक तो दी पर फिर सोचने लगा कि यह आई कहां से? इस तरह का कोई पौधा भी यहां नहीं दिख रहा. फिर उस ने सरसरी निगाह चारों ओर डाली.

‘‘क्या ढूंढ़ रहा है यार?’’ तभी बचपन से ग्रैजुएशन तक का साथी सिकंदर वहां आ पहुंचा.

‘‘तू अब आ रहा है? आधे घंटे से बोर हो कर वीडियो देखे जा रहा था… वह याद है तु झे वह जंगली घास की बाली हम बचपन में खेलखेल में एकदूसरे की ड्रैस में चुपके से घुसा देते थे. वही मेरी शर्ट में अभी न जाने कहां से आ गईर् थी… वही देख रहा था,’’ कह वह हंसा.

सिकंदर भी हंसा. फिर बोला, ‘‘कितना रोया करता था तू. लाली अकसर तेरी स्कूल ड्रैस में डाल दिया करती थी… तू रोता तो हम सब खूब मजे लेते, हंसते. कितनी पुरानी बात याद आ गई… कहीं वही तो नहीं आ गई… कितने मस्तीभरे दिन थे… किसी बात की चिंता नहीं होती थी.’’

‘‘सच में यार सब से शरारती, अनोखी लाली ही तो थी. हर दिन डरता भी था फिर भी शरारतों का इंतजार भी करता. कब क्या कर दे… न जाने कहां होगी अब… जी ब्लौक से ही तो चढ़ती थी स्कूल बस में. उस की मम्मी हिदायतें देते हुए उसे बस में चढ़ातीं, ‘‘लाली, स्कूल से अब कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए…किसी बच्चे को तंग नहीं करना लाली… अपना ही टिफिन खाना लाली… तेरी पसंद का ही सब रखा है लाली… तू सुन रही है न लाली… भैया जरा इस पर ध्यान रखना,’’ प्रख्यात उस की मम्मी की नकल करते हुए बोल रहा था.

‘‘तो हम भी उसे लालीलाली ही चिढ़ा कर पुकारने लगे थे. उस का असली नाम… याद नहीं आ रहा…हां वह तु झे चिढ़ कर प्रख्यात की जगह खुरपी खाद कहती थी यह याद है… और मु झे सिकंदर बंदर. हा… हा…’’

‘‘तू भूल गया मैं नहीं भूला उस का निष्ठा नाम… मेरी बगल में ही तो बैठती थी. होमवर्क के लिए अपनी कौपी टीचर से छिपा मेरी ओर सरका देती. खुंदक बहुत आती थी मु झे उस पर उस की अचरज भरी शैतानियों पर.’’

‘‘लंच के समय तु झे ही अकसर अपना डब्बा खाली मिलता, तू बहुत रोता तो अपनी मम्मी का दिया पौटिष्क लंच थमा जाती कि मम्मी ने अच्छे वाले छोटे कटहल भी छील कर इस में रखे हैं.

‘‘तू चिढ़ जाता कि ततहल मैं नहीं खाता तो ततहल कहकह कर हंसती. मैं बौक्स में देख कर तु झे सम झाता कि पागल, यह लीची को छोटा कटहल कह रही है.

‘‘सुंदर तो है तू रोतड़ू पर पौष्टिक खाना क्यों नहीं खाता? ये बर्गर, नूडल्स क्यों खाता है रोज? लंबातगड़ा होगा तभी तो शादी करूंगी तु झ से. मेरा लंच खा कर यह टौफी खा लेना. वह बड़े प्यार से तेरी शर्ट की पौकेट में डाल देती और तू भोंदू जब खाता तो फिर रोता कि चीटिंग की. फिर

इस ने रैपर में पता नहीं क्या भर दिया. थूथू… फिर वह खूब हंसती. रैपर में कभी इमली तो कभी मिट्टी निकलती. ऐसे ही छेड़ा करती. कभी रूमाल में जुगनू, तितलियां पकड़ लाती… पूरी क्लास को कुतूहल से भर देती… जहां भी होगी अपनी शैतानियों से बाज नहीं आई होगी यह तो तय है…’’

‘‘हां, हाई स्कूल के बाद हम बौयज सीनियर स्कूल में शिफ्ट हुए, तब जा कर उस से पीछा छूटा… अब तो मेरा कमर्शियल लौ का रिसर्च वर्क भी पूरा होने को है, फिर भी उसे कभी देखा नहीं और तू तो कालेज का फुटबौल चैंपियन था ही. आज 7-8 सालों में स्टेट कोच बन बैठा. यहां बहुत कम रहा, दूसरे शहर ही चला गया, उसे तू देखता कहां से.’’

‘‘और तू किताबों में घुसा रहा कहीं और देखने की तु झे फुरसत कहां थी… हो गई होगी शादीवादी किसी दूसरे शहर में और हो लिए होंगे उसे उस के जैसे ही शैतान बच्चे… हा… हा… भिंडी की ढेंपियां चेहरे पर चिपका कर दूसरों को डराते होंगे.’’

‘‘क्या बात करता है 7-8 सालों में उस के बच्चे?’’

‘‘और क्या, गै्रजुएशन के बाद अकसर पेरैंट्स विदा कर देते हैं… लड़की के पीछे ही पड़ जाते हैं.’’

‘‘अरे, लड़की क्या लड़के के पेरैंट्स भी पीछे पड़ जाते हैं जैसे मेरे… तय भी कर रखी

है. जौब लगते ही छोड़ेंगे नहीं, शादी करा के ही दम लेंगे.’’

‘‘फिर तो बधाई हो. कौन है कहां की है बता तो सही? तेरे पेरैंट्स ने तो सही ही किया है… तू भी तो पढ़ता ही जा रहा है… तेरे सारे एलएलबी के साथी ग्रैजुएशन के बाद ही काम

पर लग गए… चल बता उस के बारे में,’’ सिकंदर ने पूछा.

‘‘अरे कुछ भी नहीं मालूम,’’ प्रख्यात बोला.

‘‘यह क्या बात हुई भला?’’

‘‘हमारे यहां सब थोड़े पुराने खयालों के हैं. सब अच्छी तरह देख कर खुद ही तय करते हैं.’’

‘‘अरे, ऐसे कैसे?’’

‘‘हूं यार, अगले महीने की 15 को सगाई करने वाले हैं. तभी देखूंगा तेरे साथ ही. तू तो होगा ही न?’’ प्रख्यात मुसकराया.

‘‘यह भी कोई कहने की बात है… अब मेरी सुन, मेरा तो संयोगिता हरण की योजना बन रही है. इश्क हो गया है मु झे,’’ सिकंदर कुछ रुक कर बोला.

‘‘क्या बात करता है फिर… बाज नहीं आएगा. इश्कबाज… पर सीधे से क्यों नहीं करता?’’ प्रख्यात मुसकराया.

‘‘सुदीपा नाम है. ब्राह्मण है और मैं सिकंदर ठाकुर… दोनों परिवार

राजी नहीं. इसलिए तेरी मदद चाहिए. तु झे करनी ही पड़ेगी. इस बार सच्चा इश्क हुआ है… सच कह रहा हूं.’’

‘‘अब यह कहां मिल गई तु झे?’’ प्रख्यात मुसकराया.

‘‘इतनी सिंपल, इतनी भोलीभाली कि  पहली नजर में बस गई. रिसैप्शनिस्ट है. पूरी टीम के लिए रूम्स बुक थे वहां, पर उस ने मु झे पहचाना नहीं. डेढ़ घंटे तक सारे प्रूफ लिए, तब कहीं अंदर जाने दिया मु झे. फिर बाद में मालूम होने पर कि मैं कौन हूं बड़ी माफी मांगी मु झ से. बस उस की मासूमियत पर दिल आ गया मेरा. यही मेरा प्यार है. तीसरे दिन उस से पूछ ही लिया कि मु झ से शादी करोगी तो वह शरमा गई. मतलब हां था. मगर दूसरे दिन ही उस ने अपनी परेशानी सकुचाते हुए बता दी कि हम ब्राह्मण परिवार से हैं और परिवार दूसरी कास्ट में मैरिज के सख्त खिलाफ है. खिलाफ तो हमारा परिवार भी है. ठाकुर ठाकुरों में ही ब्याह करते हैं… पर हमें ही कुछ करना पड़ेगा इस प्रथा को तोड़ने के लिए. हम भाग कर कोर्ट में रजिस्टर मैरिज करेंगे तब तो घर वालों को राजी होना पड़ेगा.’’

आगे पढ़ें- ‘‘अबे चल कोई फिल्म है क्या? मैं आंटी से बात करता हूं…

बस एक बार आ जाओ

प्यार का एहसास अपनेआप में अनूठा होता है. मन में किसी को पाने की, किसी को बांहों में बांधने की चाहत उमड़ने लगती है, कोई बहुत अच्छा और अपना सा लगने लगता है और दिल उसे पूरी शिद्दत से पाना चाहता है, फिर कोई भी बंधन, कोई भी दीवार माने नहीं रखती, पर कुछ मजबूरियां इंसान से उस का प्यार छीन लेती हैं, लेकिन वह प्यार दिल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है. हां सुमि, तुम्हारे प्यार ने भी मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ी है. हमें बिछड़े 10 वर्ष बीत गए हैं, पर आज भी बीता हुआ समय सामने आ कर मुंह चिढ़ाने लगता है.

सुमि, तुम कहां हो. मैं आज भी तुम्हारी राहों में पलकें बिछाए बैठा हूं, यह जानते हुए भी कि तुम पराई हो चुकी हो, अपने पति तथा बच्चों के साथ सुखद जीवन व्यतीत कर रही हो और फिर मैं ने ही तो तुम से कहा था, सुमि, कि य-पि यह रात हम कभी नहीं भूलेंगे फिर भी अब कभी मिलेंगे नहीं. और तुम ने मेरी बात का सम्मान किया. जानती हो बचपन से ही मैं तुम्हारे प्रति एक लगाव महसूस करता था बिना यह सम झे कि ऐसा क्यों है. शायद उम्र में परिपक्वता नहीं आई थी, लेकिन तुम्हारा मेरे घर आना, मु झे देखते ही एक अजीब पीड़ा से भर उठना, मु झे बहुत अच्छा लगता था.

तुम्हारी लजीली पलकें  झुकी होती थीं, ‘अनु है?’ तुम्हारे लरजते होंठों से निकलता, मु झे ऐसा लगता था जैसे वीणा के हजारों तार एकसाथ  झंकृत हो रहे हों और अनु को पा कर तुम उस के साथ दूसरे कमरे में चली जाती थीं.’

‘भैया, सुमि आप को बहुत पसंद करती है,’ अनु ने मु झे छेड़ा.

‘अच्छा, पागल लड़की फिल्में बहुत देखती है न, उसी से प्रभावित होगी,’ और मैं ने अनु की बात को हंसी में उड़ा दिया, पर अनजाने में ही सोचने पर मजबूर हो गया कि यह प्यारव्यार क्या होता है सम झ नहीं पाता था, शायद लड़कियों को यह एहसास जल्दी हो जाता है. शायद युवकों के मुकाबले वे जल्दी युवा हो जाती हैं और प्यार की परिभाषा को बखूबी सम झने लगती हैं. ‘संभल ऐ दिल तड़पने और तड़पाने से क्या होगा. जहां बसना नहीं मुमकिन, वहां जाने से क्या होगा…’

यह गजल तुम अनु को सुना रही थी, मु झे भी बहुत अच्छा लगा था और उसी दिन अनु की बात की सत्यता सम झ में आई और जब मतलब सम झ में आने लगा तब ऐसा महसूस हुआ कि तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है. कैशौर अपना दामन छुड़ा चुका था और मैं ने युवावस्था में कदम रखा और जब तुम्हें देखते ही अजीब मीठीमीठी सी अनुभूति होने लगी थी. दरवाजे के खटकते ही तुम्हारे आने का एहसास होता और मेरा दिल बल्लियों उछलने लगता था. कभी मु झे महसूस होता था कि तुम अपलक मु झे देख रही हो और जब मैं अपनी नजरें तुम्हारी ओर घुमाता तो तुम दूसरी तरफ देखने लगती थी, तुम्हारा जानबू झ कर मु झे अनदेखा करना मेरे प्यार को और बढ़ावा देता था. सोचता था कि तुम से कह दूं, पर तुम्हें सामने पा कर मेरी जीभ तालु से चिपक जाती थी और मैं कुछ भी नहीं कह पाता था कि तभी एक दिन अनु ने बताया कि तुम्हारा विवाह होने वाला है. लड़का डाक्टर है और दिल्ली में ही है. शादी दिल्ली से ही होगी. मैं आसमान से जमीन पर आ गिरा.

यह क्या हुआ, प्यार शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया, ऐसा कैसे हो सकता है, क्या आरंभ और अंत भी कभी एकसाथ हो सकते हैं. हां शायद, क्योंकि मेरे साथ तो ऐसा ही हो रहा था. मेरा मैडिकल का थर्ड ईयर था, डाक्टर बनने में 2 वर्ष शेष थे. कैसे तुम्हें अपने घर में बसाने की तुम्हारी तमन्ना पूरी करूंगा. अप्रत्यक्ष रूप से ही तुम ने मेरे घर में बसने की इच्छा जाहिर कर दी थी, मैं विवश हो गया था.  दिसंबर के महीने में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. इसी माह तुम्हारा ब्याह होने वाला था. मेरी रातों की नींद और दिन का चैन दोनों ही जुदा हो चले थे. तुम चली जाओगी यह सोचते ही हृदय चीत्कार करने लगता था, ऐसी ही एक कड़कड़ाती ठंड की रात को कुहरा घना हो रहा था. मैं अपने कमरे से तुम्हारे घर की ओर टकटकी लगाए देख रहा था. आंसू थे कि पलकों तक आआ कर लौट रहे थे. मैं ने अपना मन बहुत कड़ा किया हुआ था कि तभी एक आहट सुनाई दी, पलट कर देखा तो सामने तुम थी. खुद को शौल में सिर से लपेटे हुए. मैं तड़प कर उठा और तुम्हें अपनी बांहों में भर लिया. तुम्हारी आवाज कंपकंपा रही थी.

‘मैं ने आप को बहुत प्यार किया, बचपन से ही आप के सपने देखे, लेकिन अब मैं दूर जा रही हूं. आप से बहुत दूर हमेशाहमेशा के लिए. आखिरी बार आप से मिलने आई हूं,’ कह कर तुम मेरे सीने से लगी हुई थी.

सुमि, कुछ मत कहो. मु झे इस प्यार को महसूस करने दो,’ मैं ने कांपते स्वर में कहा.

‘नहीं, आज मैं अपनेआप को समर्पित करने आई हूं, मैं खुद को आप के चरणों में अर्पित करने आई हूं क्योंकि मेरे आराध्य तो आप ही हैं, अपने प्यार के इस प्रथम पुष्प को मैं आप को ही अर्पित करना चाहती हूं, मेरे दोस्त, इसे स्वीकार करो,’ तुम्हारी आवाज भीगीभीगी सी थी, मैं ने अपनी बांहों का बंधन और मजबूत कर लिया. बहुत देर तक हम एकदूसरे से लिपटे यों ही खड़े रहे. चांदनी बरस रही थी और हम शबनमी बारिश में न जाने कब तक भीगते रहे कि तभी मैं एक  झटके से अलग हो गया. तुम कामना भरी दृष्टि से मु झे देख रही थी, मानो कोई अभिसारिका, अभिसार की आशा से आई हो. नहींनहीं सुमि, यह गलत है. मेरा तुम पर कोई हक नहीं है, तुम्हारे तनमन पर अब केवल तुम्हारे पति का अधिकार है, तुम्हारी पवित्रता में कोई दाग लगे यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता हूं. हम आत्मिक रूप से एकदूसरे को समर्पित हैं, जो शारीरिक समर्पण से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, तुम मु झे, मैं तुम्हें समर्पित हूं.

हम जीवन में कहीं भी रहें इस रात को कभी नहीं भूलेंगे. चलो, तुम्हें घर तक छोड़ दूं, किसी ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी. तुम कातर दृष्टि से मु झे देख रही थी. तुम्हारे वस्त्र अस्तव्यस्त हो रहे थे, शौल जमीन पर गिरा हुआ था, तुम मेरे कंधों से लगी बिलखबिलख कर रो रही थी. चलो सुमि, रात गहरा रही है और मैं ने तुम्हारे होंठों को चूम लिया. तुम्हें शौल में लपेट कर नीचे लाया. तुम अमरलता बनी मु झ से लिपटी हुई चल रही थी. तुम्हारा पूरा बदन कांप रहा था और जब मैं ने तुम्हें तुम्हारे घर पर छोड़ा तब तुम ने कांपते स्वर में कहा, ‘विकास, पुरुष का प्रथम स्पर्श मैं आप से चाहती थी. मैं वह सब आप से अनुभव करना चाहती थी जो मु झे विवाह के बाद मेरे पति, सार्थक से मिलेगा, लेकिन आप ने मु झे गिरने से बचा लिया. मैं आप को कभी नहीं भूल पाऊंगी और यही कामना करती हूं कि जीवन के किसी भी मोड़ पर हम कभी न मिलें, और तुम चली गईं.

10 वर्ष का अरसा बीत चला है, आज भी तुम्हारी याद में मन तड़प उठता है. जाड़े की रातों में जब कुहरा घना हो रहा होता है, चांदनी धूमिल होती है और शबनमी बारिश हो रही होती है तब तुम एक अदृश्य साया सी बन कर मेरे पास आ जाती हो. हृदय से एक पुकार उठती है. ‘सुमि, तुम कहां हो, क्या कभी नहीं मिलोगी?’

नहीं, तुम तड़पो, ताउम्र तड़पो,’ ऐसा लगता है जैसे तुम आसपास ही खड़ी मु झे अंगूठा दिखा रही हो. सुमि, मैं अनजाने में तुम्हें पुकार उठता हूं और मेरी आवाज दीवारों से टकरा कर वापस लौट आती है, क्या मैं अपना पहला प्यार कभी भूल सकूंगा?

प्यार और समाज: क्या विधवा लता और सुशील की शादी हो पाई

लेखक- शुभम पांडेय गगन

लता आज भी उस दर्दनाक हादसे को सोच कर रोने लगती है. उसे लगता है कि सारा मंजर उस के सामने किसी फ़िल्म की भांति चल रहा है. अभी मुश्किल से सालभर भी न हुआ जब उस के हाथों में राजन के नाम की मेहंदी सजी थी और उस की मांग में राजन द्वारा भरा सिंदूर चमक रहा था. अब उस की सूनी मांग हर किसी को रोने को मजबूर कर देती है.लता की उम्र अभी 24 साल है और वह बेहद खूबसूरत व पढ़ीलिखी है.

उस की शादी 6 महीने पहले शहर के एक बड़े व्यापारी  के इकलौते पुत्र राजन से हुई. राजन सुंदर और सुशील लड़का था जो लता को बहुत प्यार भी करता था. उन के प्यार को शायद किसी की नज़र लग गई और राजन की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. उस की मौत के बाद उस के घर वालों ने लता को बेसहारा कर के उस के मायके भेज दिया. तब से लता यहीं रहती है. उस के पिता शहर से बाहर रहते हैं. वह उन की अकेली बेटी है.

प्रकृति न जाने क्यों ऐसी तक़लीफ देती है जिस में मनुष्य न जी सकता, न मर सकता. लता के दुखों के पहाड़ ने उस की जिंदगी की सारी खुशियां को दबा दिया था. उस की यौवन से सजी बगिया आज वीरान हुई थी.  जिस उम्र में उस की सहेलियों ने अपने परिवार को बढ़ाने और पति के साथ अलगअलग जगहों पर घूमने के प्लान बना रहीं, उस उम्र में वह अकेली सिसकती है.

लता के घर की बगल में महेश का घर है. उन के घर में कई लोग किराए पर रहते हैं. उन में ही एक हैं सुशील, जो पेशे से एक अखबार में काम करते हैं. उन की उम्र 28 साल होगी. वे लंबे कद, सुंदर चेहरे व बढ़िया कदकाठी के मालिक हैं.

वे लता को उस की शादी के पहले से काफ़ी पसंद करते हैं. लेकिन कहने से डरते हैं. आज वे बालकनी में खड़े थे कि लता छत पर कपड़े डालने आई. उन्होंने उस को देखा. उस को देखते ही उन को अपने प्रेम की अनुभूति फिर से उमड़ पड़ी.

लता का सफेद बदन धूप में चमक रहा था. उस के लंबे कमर तक के बाल अपनी लटों में किसी को उलझाने के लिए पर्याप्त थे. उस का यौवन किसी भी को आकर्षित करने में महारथी था.

सुशील उस को देखता रहा. एक दिन उस को लता बाजार में मिली. उस ने कहा, “लता, मुझे तुम से कुछ बात करनी है.”

लता ने कहा, “बोलो सुशील.”

दोनों एकदूसरे को अच्छे से जानते थे. कोई पहली बार नहीं था कि वह उस से बात कर रही थी. एक दोस्त के नज़रिए से दोनों अकसर बात किया करते थे.

सुशील ने कहा, “कहीं बैठ कर बातें करें.”

दोनों बगल के पार्क में चले गए.

लता ने कहा, “बोलो सुशील.”

सुशील ने कहा, “लता, सच कहूं, मुझ से तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता. मैं शुरुआत के दिनों से ही तुम्हें बहुत पसंद करता हूं. मैं ने न जाने कितने सपनों में तुम्हें अपने पत्नी के रूप में स्वीकार किया. लेकिन मेरी इच्छा तुम्हें पाने की असफल रह गई.

“तुम अकेली  कब तक ऐसे दर्द को सहते रहोगी. तुम्हारी भी उम्र है और यह फासला बहुत बड़ा है जिसे अकेले काटना मुश्किल हो जाएगा. अगर तुम चाहो, मैं तुम्हारे साथ इस उम्र के सफर में चलना चाहता हूं.”

लता सारी बातें सुन कर चौंक गई, लेकिन अंदर ही अंदर उस के मन में कहीं न कहीं ये बातें बैठ भी गई थीं. उस के आंखों से अश्रु की धारा अनवरत गिरने लगी.

सुशील ने बड़े प्यार से उसे अपने रूमाल से पोंछा और कहा, “तुम सोचसमझ कर बताना, मैं इंतज़ार करूंगा तुम्हारे जवाब का.”

उस के बाद लता घर आई और उस ने इस विषय में काफ़ी सोचा. उस को उस की उम्र काटने की बातें घर कर गई थीं लेकिन उस के ह्रदय में अभी राजन का चेहरा बसा था.

लेकिन कहते हैं न, कि वक़्त बड़ा बलवान होता है जो दिल से लोगों को निकाल भी फेंकता और किसी अंजान को बसा भी देता है.

लता लगभग एक महीने न सुशील को दिखी न मिली. एक दिन उस के घर की घंटी बजी और जब उस ने दरवाजा खोला तो सामने सुशील खड़ा था.

उस ने कहा, “अंदर आने को नहीं कहोगी?”

लता ने उसे अंदर बुलाया और फिर चाय के लिए पूछा. लेकिन सुशील ने मना कर दिया.

सुशील ने उस को बैठाया और उस से फिर अपने सवाल का जवाब मांगा.

लता ने कहा, “सुशील, मुझे तुम्हारी बातों ने बहुत प्रभावित किया परंतु एक विधवा से शादी करना क्या तुम्हारे घर वाले स्वीकार करेंगे?”

सुशील ने कहा, “मानें या न मानें, मैं तुम से ही करूंगा.”

लता को न जाने क्यों उस पर विश्वास करने को दिल कर रहा था लेकिन वह यह भी जानती थी इस समाज में आज भी बहुत सी कुरीतियों और रूढ़िवादी सोचों का कब्जा है जो उस के मिलन में बाधा पैदा करेंगी.

लेकिन फिर भी उस ने सब से लड़ने का फैसला कर अपनी जिंदगी में आगे बढ़ने को सोच लिया और सुशील के प्रस्ताव को मान लिया.

धीरेधीरे दोनों का साथ घूमना, मिलना, घर आनाजाना भी शुरू हो गया. लता के घर में सिर्फ उस के पिताजी थे जो अकसर शहर से बाहर रहते थे. उन को लता ने सब बता दिया और वे भी बहुत खुश थे कि उन की बेटी जिंदगी में आगे बढ़ना चाहती है. एक पिता के लिए इस से खूबसूरत खबर क्या हो सकती थी.

एक दिन लता सुशील के घर गई. दरवाजा खुला था, वह सीधे अंदर गई. तभी किसी ने उस की कमर को पकड़ कर अपनी बांहों में भींच लिया. उस ने पलट कर देखा तो वह सुशील था.

उस ने कहा, “क्या कर रहे हो सुशील, छोड़ो मुझे?”

सुशील ने उस के कंधे पर चूमते हुए कहा, “अपनी जान को प्यार कर रहा हूं. क्या कोई गुनाह कर रहा?”

लता ने कहा, “तुम्हारी ही हूं. कुछ दिन रुक जाओ, फिर शादी के बाद करना प्यार. अभी छोड़ो.”

लेकिन सुशील उसे बेतहाशा कंधे, गले सब जगह चूमता रहा और अपनी बांहों में समेट रखा था. फिर लता ने भी छुड़ाने के असफ़ल प्रयास करना छोड़ उस की बाजुओं में खुद को समेट लिया.

सुशील की सशक्त बाजुओं में वह खुद समर्पित हो कर यौवन के प्रवाह के अधीन हो गई और दोनों काम के यज्ञ में आहुति बन गए.

दोनों का रिश्ता अब जिस्मानी हो चुका था. लता ने अपनी सीमा लांघ कर प्रेम में खुद को अशक्त कर लिया. सुशील ने भी उस के यौवन पर अपनी छाप छोड़ दी.

कुछ दिनों बाद सुशील अपने घर गया. लता ने 2 दिनॉ तक उस का फ़ोन बारबार मिलाया लेकिन कोई जवाब नहीं मिल रहा था.

न जाने क्यों उस के मन मे बुरेबुरे ही ख़याल आते रहे.  उस का मन अंदर ही अंदर किसी अनहोनी को ही सामने ला रहा था परंतु उसे यकीन था, समय हर बार ऐसे खेल नहीं खेल सकता.

3 दिनों बाद एक अलग नंबर से उस के फ़ोन पर घंटी बजी. उस ने तपाक से फ़ोन उठाया और बोली, “हेलो, कौन?”

उसे ज़रा भी देर नहीं लगी कि दूसरी तरफ सुशील था. लता ने धड़ाधड़ प्रश्नों की बौछार कर सुशील को बोलने के मौके का रास्ता अवरुद्ध कर दिया.

सुशील बोला, “लता, तुम सच में मुझ से प्यार करती हो.”

लता ने कहा, “पागल हो, अगर नहीं करती तो सारी सीमाएं तोड़ कर खुद को तुम में समर्पित न करती.”

सुशील ने कहा, ” लता, घर वाले मेरी कहीं और शादी करना चाहते हैं. वे तुम्हारे और मेरे रिश्ते के विरुद्ध हैं. हम दोनों चलो भाग कर शादी कर लें.”

लता स्तब्ध मौन थी. वह न हां बोल रही, न ही मना कर रही. उस को जिस बात का डर था आख़िर वही हो रहा था. उसे पता था कि यह समाज एक विधवा को अभी भी अछूत और कलंकित समझता है.

उस ने फ़ोन रख दिया और फूटफूट कर रोने लगी मानो सालों पहले बीता वही मंजर, जिसे वह भुला चुकी थी, फिर से आ गया हो.

अगले दिन सुबह उस के दरवाजे पर दस्तक हुई और उस ने दरवाजा खोला. सामने सुशील खड़ा था. उस के कंधे पर एक बैग लटक रहा था. उस ने तुरंत उस का हाथ पकड़ लिया और कहा, “लता, चलो, हम अभी शादी करते हैं.”

लता ने कहा, “अभी…ऐसे? क्या हुआ?”

सुशील ने कहा, “अगर तुम्हें मुझ से प्रेम है तो सवाल न करो और चुपचाप मेरे साथ चलो.”

लता ने उस के साथ जाना उचित समझा. दोनों सीधे कोर्ट गए और वहां कोर्ट मैरिज कर ली.

आज से लता फ़िर सुहागिन हो गई. उस के चेहरे पर अलग सुंदरता आ गई मानो चांद को ढके हुए बादलों का एक हिस्सा अलग हो गया.

समाज की कुरीतियों और रूढ़िवादी सोच को मात दे कर दो प्रेमियों ने अपनी प्रेमकहानी को मुक्कमल कर दिया. सुशील ने लता को नई जिंदगी दी. उसे अपना नाम दिया और जीवनभर चलने के वादे को पूरा किया.

एक रिक्त कोना: क्या सुशांत का अकेलापन दूर हो पाया

सुशांत मेरे सामने बैठे अपना अतीत बयान कर रहे थे: ‘‘जीवन में कुछ भी तो चाहने से नहीं होता है. इनसान सोचता कुछ है होता कुछ और है. बचपन से ले कर जवानी तक मैं यही सोचता रहा…आज ठीक होगा, कल ठीक होगा मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. किसी ने मेरी नहीं सुनी…सभी अपनेअपने रास्ते चले गए. मां अपने रास्ते, पिता अपने रास्ते, भाई अपने रास्ते और मैं खड़ा हूं यहां अकेला. सब के रास्तों पर नजर गड़ाए. कोई पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं. मैं क्या करूं?’’

वास्तव में कल उन का कहां था, कल तो उन के पिता का था. उन की मां का था, वैसे कल उस के पिता का भी कहां था, कल तो था उस की दादी का.

विधवा दादी की मां से कभी नहीं बनी और पिता ने मां को तलाक दे दिया. जिस दादी ने अकेले रह जाने पर पिता को पाला था क्या बुढ़ापे में मां से हाथ छुड़ा लेते?

आज उन का घर श्मशान हो गया. घर में सिर्फ रात गुजारने आते हैं वह और उन के पिता, बस.

‘‘मेरा तो घर जाने का मन ही नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं. पानी पीना चाहो तो खुद पिओ. चाय को जी चाहे तो रसोई में जा कर खुद बना लो. साथ कुछ खाना चाहो तो बिस्कुट का पैकेट, नमकीन का पैकेट, कोई चिप्स कोई दाल, भुजिया खा लो.

‘‘मेरे दोस्तों के घर जाओ तो सामने उन की मां हाथ में गरमगरम चाय के साथ खाने को कुछ न कुछ जरूर ले कर चली आती हैं. किसी की मां को देखता हूं तो गलती से अपनी मां की याद आने लगती है.’’

‘‘गलती से क्यों? मां को याद करना क्या गलत है?’’

‘‘गलत ही होगा. ठीक होता तो हम दोनों भाई कभी तो पापा से पूछते कि हमारी मां कहां है. मुझे तो मां की सूरत भी ठीक से याद नहीं है, कैसी थीं वह…कैसी सूरत थी. मन का कोना सदा से रिक्त है… क्या मुझे यह जानने का अधिकार नहीं कि मेरी मां कैसी थीं जिन के शरीर का मैं एक हिस्सा हूं?

‘‘कितनी मजबूर हो गई होंगी मां जब उन्होंने घर छोड़ा होगा…दादी और पापा ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा होगा उन के लिए वरना 2-2 बेटों को यों छोड़ कर कभी नहीं जातीं.’’

‘‘आप की भाभी भी तो हैं. उन्होंने घर क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘वह भी साथ नहीं रहना चाहती थीं. उन का दम घुटता था हमारे साथ. वह आजाद रहना चाहती थीं इसलिए शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गईं… कभीकभी तो मुझे लगता है कि मेरा घर ही शापित है. शायद मेरी मां ने ही जातेजाते श्राप दिया होगा.’’

‘‘नहीं, कोई मां अपनी संतान को श्राप नहीं देती.’’

‘‘आप कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरे पेशे में मनुष्य की मानसिकता का गहन अध्ययन कराया जाता है. बेटा मां का गला काट सकता है लेकिन मां मरती मर जाए, बच्चे को कभी श्राप नहीं देती. यह अलग बात है कि बेटा बहुत बुरा हो तो कोई दुआ भी देने को उस के हाथ न उठें.’’

‘‘मैं नहीं मानता. रोज अखबारों में आप पढ़ती नहीं कि आजकल मां भी मां कहां रह गई हैं.’’

‘‘आप खूनी लोगों की बात छोड़ दीजिए न, जो लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं वे तो बस अपराधी होते हैं. वे न मां होते हैं न पिता होते हैं. शराफत के दायरे से बाहर के लोग हमारे दायरे में नहीं आते. हमारा दायरा सामान्य है, हम आम लोग हैं. हमारी अपेक्षाएं, हमारी इच्छाएं साधारण हैं.’’

बेहद गौर से वह मेरा चेहरा पढ़ते रहे. कुछ चुभ सा गया. जब कुछ अच्छा समझाती हूं तो कुछ रुक सा जाते हैं. उन के भाव, उन के चेहरे की रेखाएं फैलती सी लगती हैं मानो कुछ ऐसा सुना जो सुनना चाहते थे.

आंखों में आंसू आ रहे थे सुशांत की.

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी मां जिंदा हैं और मेरे पास नहीं हैं. वह अब किसी और की पत्नी हैं. मैं मिलना चाह कर भी उन से नहीं मिल सकता. पापा से चोरी-चोरी मैं ने और भाई ने उन्हें तलाश किया था. हम दोनों मां के घर तक भी पहुंच गए थे लेकिन मां हो कर भी उन्होंने हमें लौटा दिया था… सामने पा कर भी उन्होंने हमें छुआ तक नहीं था, और आप कहती हैं कि मां मरती मर जाए पर अपनी संतान को…’’

‘‘अच्छा ही तो किया आप की मां ने. बेचारी, अपने नए परिवार के सामने आप को गले लगा लेतीं तो क्या अपने परिवार के सामने एक प्रश्नचिह्न न खड़ा कर देतीं. कौन जाने आप के पापा की तरह उन्होंने भी इस विषय को पूरी तरह भुला दिया हो. क्या आप चाहते हैं कि वह एक बार फिर से उजड़ जाएं?’’

सुशांत अवाक् मेरा मुंह देखते रह गए थे.

‘‘आप बचपना छोड़ दीजिए. जो छूट गया उसे जाने दीजिए. कम से कम आप तो अपनी मां के साथ अन्याय न कीजिए.’’

मेरी डांट सुन कर सुशांत की आंखों में उमड़ता नमकीन पानी वहीं रुक गया था.

‘‘इनसान के जीवन में सदा वही नहीं होता जो होना चाहिए. याद रखिए, जीवन में मात्र 10 प्रतिशत ऐसा होता है जो संयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है, बाकी 90 प्रतिशत तो वही होता है जिस का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है. अपना कल्याण या अपना सर्वनाश व्यक्ति अपने ही अच्छे या बुरे फैसले द्वारा करता है.

‘‘आप की मां ने समझदारी की जो आप को पहचाना नहीं. उन्हें अपना घर बचाना चाहिए जो उन के पास है…आप को वह गले क्यों लगातीं जबकि आप उन के पास हैं ही नहीं.

‘‘देखिए, आप अपनी मां का पीछा छोड़ दीजिए. यही मान लीजिए कि वह इस संसार में ही नहीं हैं.’’

‘‘कैसे मान लूं, जब मैं ने उन का दाहसंस्कार किया ही नहीं.’’

‘‘आप के पापा ने तो तलाक दे कर रिश्ते का दाहसंस्कार कर दिया था न… फिर अब आप क्यों उस राख को चौराहे का मजाक बनाना चाहते हैं? आप समझते क्यों नहीं कि जो भी आप कर रहे हैं उस से किसी का भी भला होने वाला नहीं है.’’

अपनी जबान की तल्खी का अंदाज मुझे तब हुआ जब सुशांत बिना कुछ कहे उठ कर चले गए. जातेजाते उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अब कब मिलेंगे वह. शायद अब कभी नहीं मिलेंगे.

सुशांत पर तरस आ रहा था मुझे क्योंकि उन से मेरे रिश्ते की बात चल रही थी. वह मुझ से मिलने मेरे क्लीनिक में आए थे. अखबार में ही उन का विज्ञापन पढ़ा था मेरे पिताजी ने.

‘‘सुशांत तुम्हें कैसा लगा?’’ मेरे पिता ने मुझ से पूछा.

‘‘बिलकुल वैसा ही जैसा कि एक टूटे परिवार का बच्चा होता है.’’

पिताजी थोड़ी देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे फिर कहने लगे, ‘‘सोच रहा हूं कि बात आगे बढ़ाऊं या नहीं.’’

पिताजी मेरी सुरक्षा को ले कर परेशान थे…बिलकुल वैसे जैसे उन्हें होना चाहिए था. सुशांत के पिता मेरे पिता को पसंद थे. संयोग से दोनों एक ही विभाग में कार्य करते थे उसी नाते सुशांत 1-2 बार मुझे मेरे क्लीनिक में ही मिलने चले आए थे और अपना रिक्त कोना दिखा बैठे थे.

मैं सुशांत को मात्र एक मरीज मान कर भूल सी गई थी. उस दिन मरीज कम थे सो घर जल्दी आ गई. फुरसत थी और पिताजी भी आने वाले थे इसलिए सोचा, क्यों न आज  चाय के साथ गरमागरम पकौडि़यां और सूजी का हलवा बना लूं.

5 बजे बाहर का दरवाजा खुला और सामने सुशांत को पा कर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘आज आप क्लीनिक से जल्दी आ गईं?’’ दरवाजे पर खड़े हो सुशांत बोले, ‘‘आप के पिताजी मेरे पिताजी के पास गए हैं और मैं उन की इजाजत से ही घर आया हूं…कुछ बुरा तो नहीं किया?’’

‘‘जी,’’ मैं कुछ हैरान सी इतना ही कह पाई थी कि चेहरे पर नारी सुलभ संकोच तैर आया था.

अंदर आने के मेरे आग्रह पर सुशांत दो कदम ही आगे बढे़ थे कि फिर कुछ सोच कर वहीं रुक गए जहां खड़े थे.

‘‘आप के घर में घर जैसी खुशबू है, प्यारीप्यारी सी, मीठीमीठी सी जो मेरे घर में कभी नहीं होती है.’’

‘‘आप उस दिन मेरी बातें सुन कर नाराज हो गए होंगे यही सोच कर मैं ने भी फोन नहीं किया,’’ अपनी सफाई में मुझे कुछ तो कहना था न.

‘‘नहीं…नाराजगी कैसी. आप ने तो दिशा दी है मुझे…मेरी भटकन को एक ठहराव दिया है…आप ने अच्छे से समझा दिया वरना मैं तो बस भटकता ही रहता न…चलिए, छोडि़ए उन बातों को. मैं सीधा आफिस से आ रहा हूं, कुछ खाने को मिलेगा.’’

पता नहीं क्यों, मन भर आया मेरा. एक लंबाचौड़ा पुरुष जो हर महीने लगभग 30 हजार रुपए कमाता है, जिस का अपना घर है, बेघर सा लगता है, मानो सदियों से लावारिस हो.

पापा का और मेरा गरमागरम नाश्ता मेज पर रखा था. अपने दोस्तों के घर जा कर उन की मां के हाथों में छिपी ममता को तरसी आंखों से देखने वाला पुरुष मुझ में भी शायद वही सब तलाश रहा था.

‘‘आइए, बैठिए, मैं आप के लिए चाय लाती हूं. आप पहले हाथमुंह धोना चाहेंगे…मैं आप के लिए तौलिया लाऊं?’’

मैं हतप्रभ सी थी. क्या कहूं और क्या न कहूं. बालक की तरह असहाय से लग रहे थे सुशांत मुझे. मैं ने तौलिया पकड़ा दिया तब एकटक निहारते से लगे.

मैं ने नाश्ता प्लेट में सजा कर सामने रखा. खाया नहीं बस, देखते रहे. मात्र चम्मच चलाते रहे प्लेट में.

‘‘आप लीजिए न,’’ मैं ने खाने का आग्रह किया.

वह मेरी ओर देख कर कहने लगे, ‘‘कल एक डिपार्टमेंटल स्टोर में मेरी मां मिल गईं. वह अकेली थीं इसलिए उन्होंने मुझे पुकार लिया. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था लेकिन मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया.’’

सुशांत की बातें सुन कर मेरी तो सांस रुक सी गई. बरसों बाद मां का स्पर्श कैसा सुखद लगा होगा सुशांत को.

सहसा सुशांत दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर बच्चे की तरह रो पड़े. मैं देर तक उन्हें देखती रही. फिर धीरे से सुशांत के कंधे पर हाथ रखा. सहलाती भी रही. काफी समय लग गया उन्हें सहज होने में.

‘‘मैं ने ठीक किया ना?’’ मेरा हाथ पकड़ कर सुशांत बोले, ‘‘आप ने कहा था न कि मुझे अपनी मां को जीने देना चाहिए इसलिए मैं अपना हाथ खींच कर चला आया.’’

क्या कहती मैं? रो पड़ी थी मैं भी. सुशांत मेरा हाथ पकड़े रो रहे थे और मैं उन की पीड़ा, उन की मजबूरी देख कर रो रही थी. हम दोनों ही रो रहे थे. कोई रिश्ता नहीं था हम में फिर भी हम पास बैठे एकदूसरे की पीड़ा को जी रहे थे. सहसा मेरे सिर पर सुशांत का हाथ आया और थपक दिया.

‘‘तुम बहुत अच्छी हो. जिस दिन से तुम से मिला हूं ऐसा लगता है कोई अपना मिल गया है. 10 दिनों के लिए शहर से बाहर गया था इसलिए मिलने नहीं आ पाया. मैं टूटाफूटा इनसान हूं…स्वीकार कर जोड़ना चाहोगी…मेरे घर को घर बना सकोगी? बस, मैं शांति व सुकून से जीना चाहता हूं. क्या तुम भी मेरे साथ जीना चाहोगी?’’

डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे सुशांत. एक रिश्ते की डोर को तोड़ कर दुखी भी थे और आहत भी. मुझ में सुशांत क्याक्या तलाश रहे होंगे यह मैं भलीभांति महसूस कर सकती थी. अनायास ही मेरा हाथ उठा और दूसरे ही पल सुशांत मेरी बांहों में समाए फिर उसी पीड़ा में बह गए जिसे मां से हाथ छुड़ाते समय जिया था.

‘‘मैं अपनी मां से हाथ छुड़ा कर चला आया? मैं ने अच्छा किया न…शुभा मैं ने अच्छा किया न?’’ वह बारबार पूछ रहे थे.

‘‘हां, आप ने बहुत अच्छा किया. अब वह भी पीछे मुड़ कर देखने से बच जाएंगी…बहुत अच्छा किया आप ने.’’

एक तड़पतेबिलखते इनसान को किसी तरह संभाला मैं ने. तनिक चेते तब खुद ही अपने को मुझ से अलग कर लिया.

शीशे की तरह पारदर्शी सुशांत का चरित्र मेरे सामने था. कैसे एक साफसुथरे सचरित्र इनसान को यों ही अपने जीवन से चला जाने देती. इसलिए मैं ने सुशांत की बांह पकड़ ली थी.

साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछने का प्रयास किया तो सहसा सुशांत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और देर तक मेरा चेहरा निहारते रहे. रोतेरोते मुसकराने लगे. समीप आ कर धीरे से गरदन झुकाई और मेरे ललाट पर एक प्रगाढ़ चुंबन अंकित कर दिया. फिर अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ लिए.

अपने लिए मैं ने सुशांत को चुन लिया. उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाऊंगी यह विश्वास है मुझे. लेकिन उन के मन का वह रिक्त स्थान कभी भर पाऊंगी ऐसा विश्वास नहीं क्योंकि संतान के मन में मां का स्थान तो सदा सुरक्षित होता है न, जिसे मां के सिवा कोई नहीं भर सकता. जो जीवन रहते बेटी को बेटी कह कर छाती से न लगा सकी.

संयोगिता पुराण: संगीता को किसका था इंतजार

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जी शुक्रिया: रंजीता से क्या चाहता था रघु

लेखक- नरेंद्र सिंह ‘नीहार’

रंजीता यों तो 30 साल की होने वाली थी, पर आज भी किसी हूर से कम नहीं लगती थी. खूबसूरत चेहरा, तीखे नैननक्श, गोलमटोल आंखें, पतलेपतले होंठ, सुराही सी गरदन, गठीला बदन और ऊपर से खनकती आवाज उस के हुस्न में चार चांद लगा देती थी. वह खुद को सजानेसंवारने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती थी.

रामेसर ने जब रंजीता को पहली बार सुहागरात पर देखा था, तो उस की आंखें फटी की फटी रह गई थीं. जब 22 साल की उम्र में रंजीता बहू बन कर ससुराल आई थी, तब टोेले क्या गांवभर में उस की खूबसूरती की चर्चा हुई थी.

पासपड़ोस की बहुत सी लड़कियां हर रोज अपनी नई भाभी को देखने पहुंच जाती थीं. वे एकटक नई भाभी को निहारती रहती थीं. जब उस की खूबसूरती को ले कर तरहतरह के सवालजवाब करतीं, तो वह हंस कर बोलती, ‘‘धत तेरे की, यह भी कोई बात हुई…’’

रामेसर ठहरा एक देहाती लड़का. बहुत ज्यादा पढ़ालिखा तो था नहीं, पर बिजली मेकैनिक का काम अच्छा जानता था. उसी के चलते तकरीबन 5,000 रुपए महीना वह कमा लेता था. काम करने वह पास के एक कसबे में जाता था. शाम ढले दालसब्जी और गृहस्थी का सामान ले कर लौटता था.

रंजीता सजसंवर कर उस का इंतजार कर रही होती थी. अगर कभी रामेसर को देर हो जाती तो रंजीता उसे उलाहना देते हुए कहती, ‘‘देखोजी, हम पूरे दिन आप के इंतजार में खटते रहते हैं, पर आप को एक बार भी हमारी याद तक नहीं आती. ज्यादा सताओगे तो हम अपने मायके चले जाएंगे.’’

यह सुन कर रामेसर उस की जीहुजूरी करने लग जाता था. रंजीता मान भी जाती थी. गरमागरम जलेबी उस की कमजोरी थी. रामेसर घर वालों से छिपतेछिपाते थोड़ी जलेबी अकसर ले आता था.

वक्त बुलेट ट्रेन से भी तेज रफ्तार के साथ आगे बढ़ता गया. 3 साल में घर में 2 बच्चे भी हो गए. फिर शुरुआत हुई उन की पढ़ाईलिखाई की.

गांव में बहुत अच्छे स्कूल तो नहीं थे इसलिए रंजीता ने रामेसर को कसबे में जा कर रहने के लिए राजी कर लिया.

कसबे में आ कर रामेसर पूरी तरह काम में रम गया. अब उसे पहले से ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही थी. किराए का घर, मोलतोल का सामान, बच्चों की फीस, ऊपर से गांव में मांबाप के लिए भी कुछ न कुछ भेजने की चिंता हमेशा रामेसर को खाए रहती थी. वह ओवरटाइम भी करने लगा था.

जिंदगी की भागदौड़ में रामेसर हांफने लगा था. अब उस में पहले जैसा जोश व ताजगी नहीं बची थी. वह खापी कर रात में जल्दी सो जाता था. उस के पास रंजीता की तारीफ करने के लिए न तो शब्द बचे थे और न ही समय बचा था.

उन्हीं दिनों रामेसर का दूर का रिश्ते का एक भाई रघु काम की तलाश में उस के पास आया. उस ने सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर ली. रामेसर के पास वाला ही कमरा किराए पर ले लिया.

रघु की ड्यूटी ज्यादातर रात में ही होती थी. वह आधे दिन आराम करता और बाकी दिन में अपने छोटेमोटे काम निबटा लेता. रंजीता से उस की पटरी खूब बैठती थी. खाली समय में वे दोनों खूब हंसीमजाक करते थे.

रघु रंजीता की तारीफ के पुल बांधता तो वह मुंह में आंचल भर कर हंस देती थी. रघु उस की मस्त हंसी में कहीं खो जाता था.

रघु की अभी शादी नहीं हुई थी. वह भाभी के चुलबुलेपन, रूपरंग और मदमस्त अदाओं का दीवाना हो चला था. रंजीता भी उसे छेड़ने का कोई मौका जाने नहीं देती थी.

एक दिन रंजीता रघु से बोली थी, ‘‘गांव कब जाओगे?’’

‘‘क्यों, आप के लिए कुछ लाना है क्या भाभी?’’

‘‘हां, लाना तो है… एक देवरानी.’’

रघु इस पर कुछ झेंप सा गया था.

उधर बच्चों के स्कूल में छुट्टियां हो गई थीं. रामेसर का साला बंटू शहर घूमने आया था. वापस जाते समय वह अपने साथ दोनों बच्चों को भी ले गया. नानी के घर के क्या कहने. जाना तो रंजीता भी चाहती थी मगर रामेसर के खयाल ने उसे रोक दिया था. उस के खानेपीने, कपड़े धोने की चिंता बनी हुई थी.

रामेसर सुबह 8 बजे अपना खाना ले कर घर से निकल जाता था और देर शाम 7-8 बजे तक ही घर लौटता था.

रघु की छुट्टी बुधवार को होती थी. एक दिन वह आराम से दोपहर के 1 बजे तक सो कर उठा. चाय बना कर पी.

बरतनों की खटपट की आवाज सुन कर रंजीता ने पुकारा, ‘‘अरे रघुजी, थोड़ा आना तो.’’

‘‘आया भाभी,’’ कह कर रघु दौड़ादौड़ा रंजीता के कमरे में गया. वह औंधे मुंह बिस्तर पर लेटी हुई थी.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘ज्यादा कुछ नहीं, थोड़ा सिरदर्द है. दुकान से दवा ला दो.’’

रघु पास की कैमिस्ट की दुकान से सिरदर्द की गोली ले आया.

रघु ने रंजीता को गोली थमा दी और पानी का गिलास भी भर कर ले आया.

‘‘रघु, तुम कितना ध्यान रखते हो हमारा,’’ रंजीता ने चेहरे पर मुसकान लाते हुए कहा.

‘‘भाभी, आप कहो तो थोड़ा सिर भी दबा दूं,’’ रघु ने अपनेपन में कहा.

रंजीता ने ‘हां’ में गरदन हिला दी. रघु उस के सिरहाने एक कुरसी पर बैठ गया. उस की जादुई उंगलियां रंजीता के माथे पर थिरकने लगीं. दवा के असर और रघु की सेवा से रंजीता के माथे का दर्द तो बंद हो गया, मगर बदन में एक झुरझुरी सी दौड़ गई.

अब एक अजब सा खिंचाव रंजीता के मन में आ गया था. वह बड़ी मुश्किल से खुद को रोक पा रही थी. उस ने बंद आंखों से ही कहा, ‘‘ठीक है रघु, तुम्हारा शुक्रिया.’’

‘‘अरे, शुक्रिया कैसा भाभी? अपने ही तो काम आएंगे. जब से यहां आया हूं, मेरे सिर में आज तक किसी ने मालिश नहीं की है. आप कर सकती हो क्या?’’

रंजीता सोच में पड़ गई कि आखिर आज रघु चाहता क्या है? बड़ी मुश्किल से वह खुद को रोक पाई थी. फिर आगपानी का मिलन. क्या करे, मना भी नहीं कर सकती. उस ने खुद को वक्त के हवाले कर दिया.

रंजीता की पतलीलंबी उंगलियां रघु के सिर में हलचल मचा रही थीं. वह धीरेधीरे सुधबुध खो रहा था. उस ने रंजीता की गोलमटोल हथेली को पकड़ कर चूम लिया.

रंजीता ने अपना हाथ खींचते हुए कहा, ‘‘यह क्या है रघु.’’

‘‘यह मेरा शुक्रिया है, भाभी.’’

रंजीता ने रोमांटिक होते हुए कहा, ‘‘बस, इतना सा शुक्रिया.’’

रघु ने रंजीता को अपने सामने की ओर खींच लिया. वह किसी धधकते ज्वालामुखी सी लग रही थी. आंखों के लाललाल डोरे अंदर की हलचल को साफ बयां कर रहे थे.

रघु ने अपने तपते होंठ रंजीता के गुलाबी होंठों पर रख दिए. इस के बाद हुई प्यार की बरसात में वे दोनों जम कर भीगे. जब एकदूसरे से अलग हुए तो दोनों ने मुसकराते हुए कहा, ‘जी शुक्रिया.’

बातों बातों में: सूरज ने अवनी को कैसे बचाया

उस गहरी घाटी के एकदम किनारे पहुंच कर अवनी पलभर के लिए ठिठकी, पर अब आगेपीछे सोचना व्यर्थ था. मन कड़ा कर के वह छलांग लगाने ही जा रही थी कि किसी ने पीछे से उस का हाथ पकड़ लिया. देखा वह एक युवक था.

युवक की इस हरकत पर अवनी को गुस्सा आ गया. उस ने नाराजगी से कहा, ‘‘कौन हो तुम, मेरा हाथ क्यों पकड़ा? छोड़ो मेरा हाथ. मुझे बचाने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है. यह मेरी जिंदगी है, इस का जो भी करना होगा, मैं करूंगी. हां प्लीज, किसी भी तरह का कोई उपदेश देने की जरूरत नहीं है.’’

जवाब देने के बजाय युवक जोर से हंसा. उस की इस ढिठाई पर अवनी तिलमिला उठी. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘न तो मैं ने इस समय हंसने वाली कोई बात कही, न ही मैं ने कोई जोक सुनाया, फिर तुम हंसे क्यों? और हां, तुम अपना नाम तो बता दो कि कौन हो तुम?’’

‘‘एक मिनट मेरी बात तो सुनो. जिंदगी के आखिरी क्षणों में मेरा नाम जान कर क्या करोगी. लेकिन अब तुम ने पूछ ही लिया है तो बताए देता हूं. मेरा नाम अमन है.’’

‘‘मुझे अब किसी की कोई बात नहीं सुननी. तुम यह बताओ कि हंसे क्यों?’’

‘‘तुम्हें जब किसी की कोई बात सुननी ही नहीं है तो मैं कैसे बताऊं कि हंसा क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मैं यह कह रही थी कि…’’ अवनी थोड़ा सकपकाई.

इसके बाद थोड़ी चुप्पी के बाद कहा, ‘‘इसलिए कि अगर तुम्हें आत्महत्या न करने के बारे में कुछ सीखसलाह देनी हो तो वह सब

मुझे नहीं सुनना. मैं कह रही थी कि… मुझे नहीं लगता कि इस में कोई हंसने जैसी बात थी. वैसे भी मेरा हाथ पकड़ने का तुम्हें कोई अधिकार

नहीं है.’’

‘‘ओह सौरी… रियली सौरी.’’ अमन ने अवनी का हाथ छोड़ दिया.

‘‘इट्स ओके… अब बताइए क्यों हंसे?’’

‘‘अब जब तुम मरने ही जा रही हो तो अंतिम पलों में कुछ भी जानने से क्या फायदा?’’

‘‘मात्र एक छोटा सा कुतूहल… नथिंग एल्स…’’

‘‘ओके… लेकिन मरने वाले की अंतिम इच्छा पूरी होनी चाहिए, वरना आत्मा भूत बन भटकती रहेगी और भूत मुझे जरा भी पसंद नहीं हैं.’’

‘‘यह जो तुम घुमाफिरा कर कह रहे हो, इस के बजाय सीधेसीधे कह दो न. क्योंकि अब मुझे देर हो रही है.’’

‘‘आज ही तो मुझे हंसी आई है, वह भी तुम्हारे भ्रम पर. कुछ भ्रम भी कितने मजेदार होते हैं. पर सभी का जानना जरूरी नहीं है.’’

‘‘भ्रम… मेरा? कैसा, किस चीज का और कैसा भ्रम?’’

‘‘बाप रे, एक साथ इतने सारे सवाल?’’

‘‘तुम इसी तरह बातें करते हुए मूल बात को खत्म करना चाहते हो.’’

‘‘बात खत्म करना चाहता हूं, वह भी तुम्हारी. नहीं जी, सुंदर लड़कियों की बात खत्म करने की बेवकूफी मैं नहीं कर सकता.’’

‘‘बस… बस, मस्का लगाने की कोई जरूरत नहीं है. लड़कियों को फंसाने का यह बहुत सरल उपाय है. पर यहां तुम्हारी दाल गलने वाली नहीं है. तुम्हें सीधीसीधी बात करनी है या नहीं?’’ अवनी की बातों में गुस्सा झलक रहा था. चेहरा भी गुस्से से थोड़ा लाल था.

‘‘अरे बाबा, एकदम सीधीसादी बात है. तुम ने कहा कि मुझे बचाने की कोई जरूरत नहीं है. मुझे तुम्हारे इसी भ्रम पर हंसी आ गई थी. वैसे भी हंसने की मेरी आदत नहीं है.’’

‘‘इस में भ्रम कैसा, फिर तुम ने मेरा हाथ क्यों पकड़ा?’’

‘‘तुम्हें बचाने के लिए नहीं, कुछ बताने के लिए.’’

‘‘क्या बताने के लिए?’’

‘‘यही कि अगर तुम्हारा इरादा सचमुच मरने का है तो इस के लिए यह जगह ठीक नहीं है. हां, हाथपैर तुड़वाने हों तो अलग बात है.’’

‘‘मतलब’’

‘‘मतलब साफ है. जरा ध्यान से नीचे देखो. यह खाई गहरी तो है, पर इस में गिर कर मौत हो जाएगी, इस की कोई गारंटी नहीं है.’’

‘‘इस गहरी खाई में कोई इतनी ऊंचाई से कूदेगा तो मरेगा नहीं तो क्या होगा.’’

‘‘आई एम सौरी टू से… पर तुम्हारा आब्जर्वेशन पावर यानी निरीक्षण शक्ति बहुत कमजोर है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘देख नहीं रही हो खाई में नीचे कितने पेड़ हैं. कहीं जमीन दिखाई दे रही है? अगर तुम यहां से कूदती हो तो गारंटी नहीं कि जमीन पर ही गिरो. किसी पेड़ पर गिरोगी तो हाथपैर तो टूट जाएगा, पर जान नहीं जाएगी. पेड़ में फंस गई तो न मर सकती हो न जी सकती हो. न नीचे जा सकती हो, न ऊपर आ सकती हो. त्रिशंकु की तरह लटकी रहोगी.

‘‘बस, उसी दृश्य की कल्पना कर के हंस पड़ा था. तुम पेड़ पर लटकी रहोगी तो देखने में कैसा लगेगा? बचाने के लिए भी चिल्लाओगी तो कोई बचाने के लिए भी नहीं पहुंच सकेगा. क्योंकि तुम्हारी आवाज किसी तक पहुंचेगी ही नहीं.’’

अवनी ने नीचे देखा. अमन की बात सच थी. नीचे घाटी पेड़ों से भरी थी. कहीं भी जमीन नहीं दिख रही थी. उस में फंस जाने की संभावना से नकारा नहीं जा सकता था. पर अभी उस का गुस्सा वैसा ही था. उस ने कहा, ‘‘लगता है, तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं है. पेड़ में भी फंस गई तो नीचे गिर ही जाऊंगी. पेड़ मुझे पकड़ तो नहीं लेगा.’’

‘‘ओह यस, यू आर राइट. यह तो मैं ने सोचा ही नहीं, यू आर जीनियस.’’

‘‘फिर खुशामद, मैं ने पहले ही कह दिया है कि इस की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘यस, यह तो मुझे पता है कि अब तुम्हारी खुशमद करने की मुझे कोई जरूरत नहीं है. यह सीधीसादी बात मैं सोच ही नहीं सका. जबकि तुम ने आगे तक सोच लिया. इसीलिए मैं ने कहा. तुम्हारी परफेक्ट प्लानिंग, अब तुम कूद सकती हो. गो अहेड…’’

अवनी ने अमन को गौर से देखा, वह उस का मजाक तो नहीं उड़ा रहा? पर अमन गंभीर दिखाई दिया. वह खाई में गौर से झांक रहा था. न चाहते हुए अवनी के मुंह से निकल गया, ‘‘तुम भी नीचे जाना चाहते हो क्या?’’

‘‘नहीं…नहीं.’’ उसी तरह खाई में झांकते हुए अमन ने कहा.

‘‘लग तो ऐसा रहा है, जैसे खाई के पेड़ गिन रहे हो?’’ अवनी ने व्यंग्य किया.

‘‘नहीं जी, इस तरह पेड़ गिनने में मेरी कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘तो इस तरह गिद्ध की तरह नीचे…’’

अवनी को बीच में ही रोक कर अमन ने कहा, ‘‘थैंक्स फार कौम्पलीमैंट्स, पर जरा नीचे देखिए.’’

‘‘क्या है वहां?’’

‘‘नीचे, एकदम नीचे तक पेड़ हैं. साफ दिखाई दे रहे हैं.’’

‘‘हां, तो क्या हुआ इन का?’’

‘‘इन्हें देख कर तुम्हारे मन में कोई विचार नहीं आया?’’

‘‘इस में विचार क्या करना है?’’

‘‘कोई महान विचार नहीं, एकदम सीधासादा, सिंपल, शुद्ध विचार.’’

अवनी की नाक फूलने पिचकने लगी. रंग भी लाल गुड़हल की तरह हो गया. किसी के मरते वक्त भला कोई इस तरह का मजाक करता है. लड़के बड़े होशियार होते हैं. इस पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता. अवनी का मन हुआ उसे ठीक से सुना दे.

‘‘इस में इतना उत्तेजित मत होइए. मैं तुम्हें समझाता हूं. तुम जो कह रही हो सच है, सौ प्रतिशत सच. कोई पेड़ तुम्हें पकड़ नहीं लेगा. चलो मान लेते हैं वह छोड़ देगा. पर मेरी बात भी एकदम झुठलाई नहीं जा सकती. छलांग लगाने के बाद तुम किसी पर गिरी तो उस में फंस जाओगी.

‘‘कहां फंसोगी, यह कोई निश्चित नहीं है. क्योंकि पेड़ पर फंसने के बाद जमीन और पेड़ में ज्यादा अंतर नहीं रह जाएगा. पेड़ पर और फिर जमीन पर गिरने पर हाथ पैर जरूर टूट जाएंगे. उस के बाद तो परेशानी और बढ़ जाएगी. इसलिए चलो मैं इस की अपेक्षा अच्छी जगह बताता हूं, जहां पर मर जाना निश्चित है. एक छलांग और खेल खत्म, पूरी गारंटी के साथ.’’ अमन ने कहा.

‘‘तुम मरने की जगह खोजने के एक्सपर्ट हो क्या?’’

‘‘नहीं दरअसल, हम दोनों एक ही गाड़ी की सवारी हैं, इसलिए…’’

‘‘यानी कि तुम भी मेरी तरह…’’

‘‘हां, मैं भी तुम्हारी तरह यहां मरने के भव्य इरादे के साथ आया हूं. इसीलिए अच्छी और गारंटेड जगह की तलाश कर रहा था. काफी शोध के बाद मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि संदेह वाला कोई भी काम करना ठीक नहीं है. जो भी काम करो, पक्का करो.’’

‘‘इस का मतलब तुम भी यहां आत्महत्या करने आए हो?’’

‘‘शंका का कोई समाधान नहीं है. इस सुनसान जगह पर घूमने नहीं आया, वह भी अकेले. तुम्हारी जैसी सुंदर लड़की साथ हो, तब इस सुनसान जगह पर आने में फायदा है.’’

‘‘बस, अब कुछ मत कहिएगा.’’

अवनी चुपचाप खड़ी अमन को ताक रही थी. उस ने अचानक कहा. ‘‘छोड़ो इस अंतहीन चर्चा को. पर तुम तो पुरुष हो. तुम्हें मरने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘क्यों, दुखी होने का अधिकार केवल औरतों का है क्या? तुम्हारा मानना है कि हम दुखी नहीं हो सकते?’’

‘‘पुरुष प्रधान समाज में सहन करने वाला काम ज्यादातर महिलाओं के हिस्से में आता है. इस से…’’

‘‘यह तुम्हारी व्यक्तिगत मान्यता है. इस अंतिम समय में मेरी इच्छा किसी तरह का वादविवाद करने की नहीं है. चलिए, मैं तुम्हें मरने की परफेक्ट जगह बताता हूं. अगर तुम्हारा मन हो तो चलो मेरे साथ. एक से दो भले.

‘‘जीवन में कोई अच्छा साथी नहीं मिला तो कोई बात नहीं, कम से कम मरते समय तो अच्छा साथी मिल गया. जीवन में हमसफर तो सभी को मिलते हैं, मौत का हमसफर किसे मिलता है. अकेले मरने में उतना मजा नहीं आता, अब तो तुम्हारे जैसा साथी पा कर मरने में भी मजा आ जाएगा.’’

‘‘तुम पर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ा, जो तुम मरने आ गए?’’ अवनी ने पूछा. उस की हैरानी अभी खत्म नहीं हुई थी. भला पुरुष को कौन सा दुख हो सकता है, जो इस तरह मरने आ जाएगा. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह लड़का भी उस की तरह आत्महत्या करने आया है.’’

‘‘छोड़ो न अब इस बात को. मैं ने कहा न, मुझे अब चर्चा में कोई रूचि नहीं है. दुख का नगाड़ा बजाने से क्या फायदा. मुझे पता है, मेरे मरने से मांबाप को बहुत तकलीफ होगी. वे बहुत रोएंगे. पर अब क्या, मर जाने के बाद मैं तो देखूंगा नहीं. मर जाने के बाद कौन देखता है, जिस को जो करना होगा, करता रहेगा.’’

इस के बाद अमन ने जेब से च्यूइंगम निकाल कर अवनी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लो च्यूइंगम खाओगी? अपनी इस अंतिम मुलाकात की सहयात्री के रूप में अंतिम भेंट.’’

‘‘एक नंबर के स्वार्थी हो. तुम्हें मम्मीपापा के रोने की जरा भी चिंता नहीं. तुम्हें उन से कोई मतलब नहीं.’’

‘‘यह तुम कह रही हो, तुम भी तो…?’’

अवनी चुप हो गई. वह सोच में पड़ गई. उसे सोच में डूबा देख कर अमन ने कहा. ‘‘छोड़ो इन फालतू के विचारों को. अगर इस तरह सब के बारे में सोचने लगे तो मर नहीं पाएंगे. लो यह च्युंगम खाओ.’’

‘‘मरते समय यह च्युंगम तुम भी न…’’

‘‘च्युंगम मुझे बहुत प्रिय है. तुम इसे एक तरह से आदत कह सकती हो. मरने से पहले अपनी अंतिम इच्छा खुद ही पूरी करनी है.’’ मुंह में च्युंगम डालते हुए अमन ने लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘आज की यह अंतिम च्युंगम तुम भी ले लो… लेनी है या नहीं?’’

अवनी सोच में डूबी थी. उसे इस तरह सोच में डूबी देख कर अमन ने कहा, ‘‘च्युंगम ही है, कोई जहर नहीं. फिर जहर ही होगा, अब मुझ पर या तुम पर कौन सा फर्क पड़ने वाला है. इस के बाद तो हमें खाई में छलांग लगाने की भी जरूरत नहीं पडे़गी.’’

अवनी ने च्युंगम ले कर मुंह में रख लिया.

‘‘छलांग लगाने के लिए ज्यादा हिम्मत की जरूरत नहीं है, पर थोड़ा डर जरूर लगता है. तुम्हें डर नहीं लग रहा? अमन ने पूछा’’

‘‘जब मरना है तो डर किस बात का.’’

‘‘पर मुझे तो डर लग रहा है. नीचे गिरने पर कितना लगेगा, कहां लगेगा, गिरते ही जान निकल जाएगी, यह निश्चित तो नहीं. गिरने के बाद थोड़ी देर भी जीवित रहे तो… बाप रे कितनी तकलीफ होगी. मरने से पहले वह पीड़ा सहन करनी पड़ेगी. मरना कोई आसान काम नहीं है. ‘मरने के एक हजार सरल उपाय’ नाम की एक किताब के बारे में सुना था. तुम ने इस किताब के बारे में सुना है कि नहीं?’’

अवनी ने ‘न’ में सिर हिला दिया.

‘‘मैं ने भी खाली सुना है देखा नहीं है. अगर पढ़ने को मिल जाती तो बहुत अच्छा होता. मरने का कोई सरल उपाय सूझ जाता. पर वह किताब यहां मिलती ही नहीं है. इस तरह की किताब न तो यहां मिलती है, न यहां के लेखक लिखते हैं. इस तरह का काम विदेशी लेखक ही करते हैं. छोड़ो इस बात को, अब इस सब के लिए बहुत देर हो चुकी है. चलो, अब उठो, जो करना है, करते हैं.’’

कोई जवाब देने के बजाय अवनी चुपचाप अमन को ताकती रही. जबकि अमन की नजरें सामने दिखाई दे रहे सूरज पर टिकी थीं. अवनी की ओर नजर घुमा कर उस ने धीरे से पूछा, ‘‘पांच मिनट और बैठ कर इंतजार कर सकते हैं?’’

‘‘किस का इंतजार?’’

‘‘सूर्य के अंतर्ध्यान होने की, देखो न उधर. अस्त होने की तैयारी में है. कल का उगता सूरज तो अब हम देख नहीं पाएंगे, चलो आज का अस्त होता सूरज ही देख लें. पर एक तरह से यह हमारा भ्रम ही है. यह सूरज यहां अस्त हो रहा है तो कहीं उग रहा होगा. यही नहीं, सूरज तो एक ही है, पर सवेरा रोजरोज अलग होता है.

‘‘कब, कौन सवेरा क्या रंग लाता है, कौन जानता है? अस्त होता सूरज मनुष्य को दार्शनिक बना देता है. देखो न, जातेजाते सूरज कैसा रंग वैभव फैला रहा है.’’ अमन ने सूरज की ओर ऊंगली उठा कर इशारा किया तो अवनी उसी ओर देखने लगी. आकाश में संध्या की लालिमा फैल रही थी. पहाड़ के उस पार का दृश्य बड़ा अद्भुत था.

‘‘चलो, अब अपने इरादे को अंतिम अंजाम देते हैं, तैयार हो जाओ.’’ अमन ने कहा, पर अवनी ने कोई जवाब नहीं दिया. थोड़ी देर दोनों मौन का आवरण ओढ़े च्यूइंगम चबाते रहे.

सूरज धीरेधीरे क्षितिज से ओझल हो रहा था. पक्षी पेड़ों पर कलरव कर रहे थे. इस तरह घाटी में अनजाना शोर फैल रहा था. अचानक अवनी ने धीमे से कहा, ‘‘मुझे बचाने के लिए आप को बहुतबहुत धन्यवाद… क्षणिक आवेश से उबारने के लिए…’’

‘‘मैं कोई तुम्हें बचाने के लिए थोड़े ही…मैं तो खुद…’’

अमन अपनी बात पूरी कर पाता, उस के पहले ही अवनी ने कहा, ‘‘आई एम श्योर, तुम यहां आत्महत्या करने नहीं आए थे.’’

शाम के धुंधलके में अमन के चेहरे पर हलकी मुसकराहट फैल गई तो अवनी की आंखों में नए जीवन की चमक थी. पेड़ और घाटी पक्षियों के कोलाहल से गूंज रही थी.

दिल जंगली: पत्नी के अफेयर होने की बात पर सोम का क्या था फैसला

रात के 10 बज रहे थे. 10वीं फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट से सोम कभी इस खिड़की से नीचे देखता तो कभी उस खिड़की से. उस की पत्नी सान्वी डिनर कर के नीचे टहलने गई थी. अभी तक नहीं आई थी. उन का 10 साल का बेटा धु्रव कार्टून देख रहा था. सोम अभी तक लैपटौप पर ही था, पर अब बोर होने लगा तो घर की चाबी ले कर नीचे उतर गया.

सोसाइटी में अभी भी अच्छीखासी रौनक थी. काफी लोग सैर कर रहे थे. सोम को सान्वी कहीं दिखाई नहीं दी. वह घूमताघूमता सोसाइटी के शौपिंग कौंप्लैक्स में भी चक्कर लगा आया. अचानक उसे दूर जहां रोशनी कम थी, सान्वी किसी पुरुष के साथ ठहाके लगाती दिखी तो उस का दिमाग चकरा गया. मन हुआ जा कर जोर का चांटा सान्वी के मुंह पर मारे पर आसपास के माहौल पर नजर डालते हुए सोम ने अपने गुस्से पर कंट्रोल कर उन दोनों के पीछे चलते हुए आवाज दी, ‘‘सान्वी.’’

सान्वी चौंक कर पलटी. चेहरे पर कई भाव आएगए. साथ चलते पुरुष से तो सोम खूब परिचित था ही. सो उसे मुसकरा कर बोलना ही पड़ा, ‘‘अरे प्रशांत, कैसे हो?’’

प्रशांत ने फौरन हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया, ‘‘मैं ठीक हूं, तुम सुनाओ, क्या हाल है?’’

सोम ने पूरी तरह से अपने दिलोदिमाग पर काबू रखते हुए आम बातें जारी रखीं. सान्वी चुप सी हो गई थी. सोम मौसम, सोसाइटी की आम बातें करने लगा. प्रशांत भी रोजमर्रा के ऐसे विषयों पर बातें करता हुआ कुछ दूर साथ चला. फिर ‘घर पर सब इंतजार कर रहे होंगे’ कह कर चला गया.

प्रशांत के जाने के बाद सोम ने सान्वी को घूरते हुए कहा, ‘‘ये सब क्या चल रहा है?’’

सान्वी ने जब कड़े तेवर से कहा कि जो तुम्हें सम झना है, सम झ लो तो सोम को हैरत हुई. सान्वी पैर पटकते हुए तेजी से घर की तरफ बढ़ गई. आ कर दोनों ने एक नजर धु्रव पर डाली. सान्वी ने धु्रव को ले जा कर उस के रूम में सोने के लिए लिटा दिया. अगले दिन उस का स्कूल भी था.

सान्वी के बैडरूम में पहुंचते ही सोम गुर्राया, ‘‘सान्वी, ये सब क्या चल रहा है? इतनी रात प्रशांत के साथ क्यों घूम रही थी?’’

‘‘ऐसे ही… वह दोस्त है मेरा… नीचे मिल गया तो साथ घूमने लगे.’’

‘‘यह नहीं सोचा कि कोई देखेगा तो क्या सोचेगा?’’

‘‘नहीं सोचा… ऐसा क्या तूफान खड़ा हो गया?’’

सुबह सोम को औफिस जाना था. वह बिजनैसमैन था. आजकल उस का काम घाटे में चल रहा था… उस का दिमाग गुस्से में घूम रहा था पर इस समय वह सान्वी के अजीब से तेवर देख कर चुपचाप गुस्से में करवट बदल कर लेट गया.

सान्वी ने रोज की तरह कपड़े बदले, फ्रैश हुई, नाइट क्रीम लगाई और मन ही मन मुसकराते हुए प्रशांत को याद करते उस की बातों में खोईखोई बैड पर लेट गई. बराबर में नाराज लेटे सोम पर उस का जरा भी ध्यान नहीं था. उस से बिलकुल लापरवाह थोड़ी देर पहले की प्रशांत की बातों को याद कर मुसकराए जा रही थी.

प्रशांत और सान्वी का परिवार 2 साल पहले ही इस सोसाइटी में करीबकरीब साथ ही शिफ्ट हुआ था. प्रशांत से उस की दोस्ती जिम में आतेजाते हुई थी जो बढ़ कर अब प्रगाढ़ संबंधों में बदल चुकी थी. प्रशांत की पत्नी नेहा और उन के 2 युवा बच्चों आर्यन और शुभा से वह बहुत बार मिल चुकी थी. आपस में घर भी आनाजाना हो चुका था. सब से नजरें बचाते हुए प्रशांत और सान्वी अपने रिश्ते में फूंकफूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे थे. दोनों का दिल किसी जंगली की तरह न किसी रिश्ते का नियम मानता था, न समाज का कोई कानून. दोनों को एकदूसरे को देखना, बातें करना, साथ हंसना, कुछ समय साथ बिताना बहुत खुशी दे जाता था. दोनों ने अब किसी की भी परवाह करनी छोड़ दी थी.

धु्रव छोटा था. उस की पूरी जिम्मेदारी सान्वी ही उठाती थी. सोम लापरवाह इंसान था. सोम से उस का विवाह उस की दौलत देख कर सान्वी के पेरैंट्स ने तय किया था पर शादी के बाद सोम की पर्सनैलिटी सान्वी को कुछ ज्यादा जंची नहीं. जहां सान्वी बहुत सुंदर, स्मार्ट, फिटनैस के प्रति सजग, जिंदादिली स्त्री थी, वहीं सोम ढीलाढाला सा नौकरों पर बिजनैस छोड़ दोस्तों के साथ शराब पीने में खुशी पाने वाला गैरजिम्मेदार, मूडी, गुस्सैल इंसान था.

सोम के मातापिता भी इसी बिल्डिंग में दूसरे फ्लैट में रहते थे. सान्वी उन के प्रति भी हर फर्ज पूरा करती आई थी. सासससुर को जब भी कोई जरूरत होती, इंटरकौम से सान्वी को बुला लेते. सान्वी फौरन जाती. सोम घरगृहस्थी की हर जिम्मेदारी सान्वी पर डाल निश्चिंत रहता. दोस्तों के साथ पी कर आता. अंतरंग पलों में सान्वी के साथ जिस तरह पेश आता सान्वी कलप कर रह जाती. कहां उस ने कभी रोमांस में डूबे दिनरातके सपने देखे थे और कहां अब पति के मूडी स्वभाव से तालमेल मिलाने की कोशिश ही करती रह जाती.

प्रशांत से मिलते ही दिल खिल सा गया था. प्रशांत उस की हर बात पर ध्यान देता, उस की हर जरूरत का ध्यान रखता  था. सोम कभीकभी मुंबई से बाहर जाता. धु्रव स्कूल में होता तब प्रशांत औफिस से छुट्टी कर धु्रव के आने तक का समय सान्वी के साथ ही बिताता. किसी भी नियम को न मानने वाले दोनों के दिल सभी सीमाएं पार कर गए थे. दोनों एकदूसरे की बांहों में तृप्त हो घंटों पड़े रहते.

सान्वी के तनमन को किस सुख की कमी थी, वह सुख जब प्रशांत से मिला तो उस की सम झ में आया कि अगर प्रशांत न मिला होता तो यह कमी रह जाती. मशीनी से सैक्स के अलावा भी बहुत कुछ है जीवन में… अब सान्वी को पता चला सैक्स सिर्फ शरीर की जरूरत के समय पास आना ही नहीं है, तनमन के अंदर उतर जाने वाला मीठा सा कोमल एहसास भी है.

प्रशांत न मिलता तो न जाने जीवन के कितने खूबसूरत पल अनछुए से रह जाते. उसे कोई अपराधबोध नहीं है. उस ने हमेशा सोम को मौका मिलने पर किसी के साथ भी फ्लर्ट करते देखा है. उस के टोकने पर हमेशा यही जवाब दे कर उसे चुप करवा दिया कि कितनी छोटी सोच है तुम्हारी… 2 बार वह रिश्ते की एक कजिन के साथ सोम को खुलेआम रंगरलियां मनाते पकड़ चुकी है, पर सोम नहीं सुधरा. पराई औरतों के साथ मनमानी हरकतें करना उस के हिसाब से मर्दानगी है. उसे खुशी मिलती है. आज प्रशांत के साथ उसे देख कर ज्यादा कुछ शायद इसलिए ही कह न सका… प्रशांत को याद करतेकरते सान्वी को नींद आ गई.

प्रशांत घर पहुंचा तो नेहा, आर्यन, शुभा सब लेट चुके थे. आर्यन, शुभा दोनों कालेज के लिए जल्दी निकलते थे. उन के लिए नेहा को भी टाइम से सोना पड़ता था.

प्रशांत चेंज कर के बैडरूम में आया तो नेहा ने पूछा, ‘‘इतना लेट?’’

‘‘हां, टहलना अच्छा लग रहा था.’’

‘‘किस के साथ थे?’’

‘‘सान्वी मिल गई थी, फिर सोम भी आ गया था.’’

नेहा चुप रही. पति की सान्वी से बढ़ती नजदीकियों की उसे पूरी खबर थी पर क्या करे, कैसे कहे, युवा बच्चे हैं… बहुत सोचसम झ कर बात करनी पड़ती है. प्रशांत को गुस्से में चिल्लाने की आदत है. शुभा सम झ रही थी कि सान्वी को क्या पता प्रशांत के बारे में… वह बाहर कुछ और है, घर में कुछ और जैसेकि आम आदमी होते हैं. 20 साल के वैवाहिक जीवन में नेहा प्रशांत की रगरग से वाकिफ हो चुकी थी. दूसरी औरतों को प्रभावित करने में उस का कोई मुकाबला नहीं था. नेहा की खुद की छोटी बहन से प्रशांत की अंतरंगता थी. वह कुछ नहीं कर पाई थी. जब उस की बहन की शादी कहीं और हो गई तब जा कर नेहा की जान में जान आई थी. पता नहीं कितनी औरतों के साथ वह फ्लर्ट कर चुका था. गरीब घर की नेहा अपने बच्चों को सुरक्षित भविष्य देने के चक्कर में प्रशांत के साथ निभाती आई थी, पर सान्वी का यह किस्सा आज तक का सब से ज्यादा ओपन केस हो रहा था. अब नेहा परेशान थी. सोसाइटी को यह पता था कि दोनों का जबरदस्त अफेयर है. दोनों डंके की चोट पर मिलते, मूवी देखते, बाहर जाते. प्रशांत तो लेटते ही खर्राटे भरने लगा था पर नेहा बेचैन सी उठ कर बैठ गई कि कैसे रोके प्रशांत की दिल्लगियां? कब सुधरेगा यह? बच्चे भी बड़े हो गए… वह जानती है बच्चों तक यह किस्सा पहुंच चुका है, बच्चे नाराज से रहते हैं, चुप रहने लगे हैं. आजकल नेहा का कहीं मन नहीं लग रहा है. क्या करे. इस बार जैसा तो कभी नहीं हुआ था. अब तो प्रशांत और सान्वी डंके की चोट पर बताते हैं कि हम साथ है.

नेहा रातभर सो नहीं पाई. सुबह यह फैसला किया कि बच्चों के जाने के बाद प्रशांत

से बात करेगी. बच्चे चले गए. प्रशांत थोड़ा लेट निकलता था. उस का औफिस पास ही था. नेहा ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘प्रशांत, बच्चों को भी तुम्हारा और सान्वी का किस्सा पता है… दोनों का मूड बहुत खराब रहता है… सारी सोसाइटी को पता है. मेरी फ्रैंड्स ने तुम दोनों को कहांकहां नहीं देखा. शर्म आती है अब प्रशांत… अब उम्र भी हो रही है. ये सब अच्छा नहीं लगता. मैं ने पहले भी तुम्हारी काफी हरकतें बरदाश्त की हैं… अब बरदाश्त नहीं हो रहा है. तुम उस के ऊपर पैसे भी बहुत खर्च कर रहे हो. यह भी ठीक नहीं है.’’

‘‘पैसे मेरे हैं, मैं उन्हें कहीं भी खर्च करूं और रही उम्र की बात, तो तुम्हें लगता होगा कि तुम्हारी उम्र हो गई, मैं सान्वी के साथ भरपूर ऐंजौय कर रहा हूं. दरअसल, उस का साथ मु झे यंग रखता है. यहां तो घर में तुम्हारे उम्र, बच्चे, खर्चों के ही बोरिंग पुराण चलते हैं और रही सोसाइटी की बात तो मैं किसी की परवाह नहीं करता, ठीक है? और कुछ?’’

नेहा का चेहरा अपमान और गुस्से से लाल हो गया, ‘‘पर मैं अब यह बरदाश्त नहीं करूंगी.’’

प्रशांत कुटिलता से हंसा, ‘‘अच्छा, क्या कर लोगी? मायके चली जाओगी? तलाक ले लोगी? हुंह,’’ कह कर वह तौलिया उठा कर नहाने चला गया.

नेहा की आंखों से क्षोभ के आंसू बह निकले. सही कह रहा है प्रशांत, क्या कर लूंगी, कुछ भी तो नहीं. मायका है नहीं. नेहा रोती हुई किचन में काम करती रही. मन में आया, सोम से बात कर के देखूं. सोम का नंबर नेहा के पास नहीं था. अब नेहा ने सान्वी से बात करना बिलकुल छोड़ दिया था. सोसाइटी में उस से आमनासामना होता भी तो वह पूरी तरह से सान्वी को इग्नोर करती. सान्वी भी बागी तेवरों के साथ चुनौती देती हुई मुसकराहट लिए पास से निकल जाती तो नेहा का रोमरोम सुलग उठता.

अपनी किसी सहेली से नेहा को पता चला कि सान्वी 2 दिन के लिए अपने मायके गई है. अत: सही मौका जान कर वह शाम को सोम से मिलने उस के घर चली गई. सोम ने सकुचाते हुए उस का स्वागत किया.

नेहा ने बिना किसी भूमिका के बात शुरू की, ‘‘आप को भी पता ही होगा कि सान्वी और प्रशांत के बीच क्या चल रहा है… आप उसे रोकते क्यों नहीं?’’

‘‘हां, सब पता है. आप प्रशांत को क्यों नहीं रोक रही हैं?’’

‘‘बहुत कोशिश की पर सब बेकार गया.’’

‘‘मेरी कोशिश भी बेकार गई,’’ कह कर सोम ने जिस तरह से कंधे उचका दिए, उसे देख नेहा को गुस्सा आया कि यह कैसा आदमी है… कितने आराम से कह रहा है कि कोशिश बेकार गई.

‘‘तो आप इसे ऐसे ही चलने देने वाले हैं?’’

‘‘हां, क्या कर सकता हूं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मैं स्ट्रौंग पोजीशन में हूं नहीं, अतीत की मेरी हरकतों के कारण आज वह मु झ पर हावी हो रही है.

‘‘मेरा बिजनैस घाटे में है. मैं सान्वी को रोक नहीं पा रहा हूं, सारा दिन बैठ कर उस की चौकीदारी तो कर नहीं सकता.

‘‘बच्चे, घर और मेरे पेरैंट्स की पूरी जिम्मेदारी वह उठाती है… पर ठीक है. कुछ तो करना पड़ेगा… वह लौट आए. फिर कोशिश करता हूं.’’

नेहा दुखी मन से घर आ गई. सोम बहुत कुछ सोचता रहा. सान्वी कैसे किसी से खुलेआम प्रेम संबंध रख सकती है. बहुत हो गया… हद हो गई बेशर्मी की. आ जाए तो उसे ठीक करता हूं, दिमाग ठिकाने लगाता हूं.

उस दिन फोन पर भी उस ने सान्वी से सख्त स्वर में बात की पर सान्वी पर जरा भी

फर्क नहीं पड़ा. सोम की बातों का उस पर फर्क पड़ना बंद हो चुका था. जब से दिल की सुनने लगी थी, दिमाग भी दिल के ही पक्ष में दलीलें देता रहता था. सो जंगली सा दिल बेखौफ आगे बढ़ता जा रहा था और खुश भी बहुत था.

सान्वी आ गई. अगले दिन जब धु्रव को स्कूल भेज सुस्ताने बैठी तो सोम उस के पास आ कर तनातना सा बैठ गया. सान्वी ने महसूस किया कि वह काफी गंभीर है.

‘‘सान्वी, जो भी चल रहा है उसे बंद करो वरना…’’

सान्वी पलभर में कमर कस कर मैदान में खड़ी हो गई, ‘‘वरना क्या?’’

‘‘बहुत बुरा होगा.’’

‘‘क्या बुरा होगा?’’

‘‘जो तुम कर रही हो मैं उसे बरदाश्त नहीं करूंगा.’’

‘‘क्यों? क्या तुम मु झ से कमजोर हो? मैं तुम्हारी ये सब हरकतें बरदाश्त करती रही हूं तो तुम क्यों नहीं कर सकते?’’

‘‘सान्वी,’’ सोम दहाड़ा, ‘‘तुम मेरी पत्नी हो… तुम मेरी बराबरी करोगी?’’

‘‘मैं वही कर रही हूं जो मु झे अच्छा लगता है. कुछ पल अपने लिए जी रही हूं तो क्या गलत है? जिस खुशी का तुम ने ध्यान नहीं रखा, वह अब मिल गई… खुश हूं, क्या गलत है? ये सब तो तुम बहुत सालों से करते आए हो.’’

‘‘सान्वी, सुधर जाओ, नहीं तो मु झे गुस्सा आ गया तो मैं कोर्ट में भी जा सकता हूं… तुम्हारे और प्रशांत के खिलाफ शिकायत कर सकता हूं.’’

‘‘हां, ठीक है, चलो कोर्ट… सारी उम्र मन मार कर जीती रहूं तो ठीक है?’’

‘‘सान्वी, बहुत हुआ. प्रशांत से रिश्ता खत्म करो, नहीं तो कानूनी काररवाई के लिए तैयार रहो… मैं प्रशांत को भी नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘अच्छा? कौन सी कानूनी काररवाई करोगे? नया कानून नहीं जानते? यह न अपराध है, न पुरुषों की बपौती. औरत को भी सैक्सुअल चौइस का हक है.’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो?’’

‘‘हां, शादीशुदा होते हुए भी सालों से पराई औरतों के साथ नैनमटक्का कर रहे हो, हमारे रिश्ते को एडलट्री की आग में तुम भी  झोंकते

रहे हो.’’

‘‘पर कोर्ट ने अवैध संबंधों में जाने के लिए नहीं कहा है, न उकसाया है.’’

‘‘पर यह तो साफ हो गया है कि न तुम मेरे मालिक हो, न मैं तुम्हारी गुलाम हूं. मु झे कानून की धमकी देने से कुछ नहीं होगा. तुम्हारी खुद की फितरत क्या रही है… अब बैठ कर सोचो कि मैं ने कितना सहा है. मु झे प्रशांत के साथ अच्छा लगता है. बस, मु झे इतना ही पता है और मु झे भी खुश रहने का उतना ही हक है जितना तुम्हें. और किसी भी जिम्मेदारी से मैं मुंह नहीं मोड़ रही हूं,’’ कह कर घड़ी पर नजर डालते हुए सान्वी ने आगे कहा, ‘‘ध्रुव के स्कूल से वापस आने से पहले मु झे घर के कई काम निबटाने होते हैं, उस के प्रोजैक्ट के लिए सामान लेने भी मु झे ही जाना है,’’ कह कर सान्वी उठ कर नहाने चली गई.

बाथरूम से उस के गुनगुनाने की आवाजें बाहर आ रही थीं. सोम सिर पकड़ कर बैठा था. कुछ सम झ नहीं आ रहा था कि अब क्या करे.

‘‘अगले दिन जब धु्रव को स्कूल भेज सुस्ताने बैठी तो सोम उस के पास आ कर तनातना सा बैठ गया. सान्वी ने महसूस किया कि वह काफी गंभीर है…’’

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