Hindi Moral Tales : बुद्धू कहीं का

Hindi Moral Tales :  ‘’कुणाल , बेटा अपनी पढाई पर ध्यान रखना.‘’

अम्मा सरला जी ने कुणाल के सिर पर आशीर्वाद देते हुये अपना हाथ फेरा था. मां पापा की आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे , वह भी अपने आंसू नहीं रोक पाया था. उसने मुंह फेर कर अपनी बांहों से आंसू पोछ कर अपने को संभालने की कोशिश की थी. वह दोनों आंसू पोछते हुये ट्रेन में बैठ  गये थे.वह कालेज की भीड़ में अकेला रह गया था. महानगर की भीड़ देख वह घबराया हुआ था. क्योंकि वह पहली बार अपने छोटे से शहर से बाहर आया था.

कुणाल छोटे शहर के सामान्य परिवार का लाडला बेटा था. वह पढने में काफी तेज था, इसीलिये दिल्ली विश्वविद्यालय में उसका एडमिशन आसानी से हो गया था. वह पहली बार यहां की भीड़भाड़, और आधुनिकता के रंग में रंगी सुंदर लड़कियों को देख कर सहम उठा था. इस वजह से वह ज्यादा किसी से बातचीत नहीं करता , न ही किसी से दोस्ती करता. वह अपनी पढाई में जुटा रहता , आखिर मां पापा की उम्मीदें उसके ऊपर ही तो टिकी हुई हैं.

आज इंट्रोडक्शन मीट थी ,वह बहुत घबराया हुआ था.  इतने बड़े स्टेज पर जाकर अपने बारे में बताना …

“ मैं कुणाल यू.पी. के फैजाबाद से…’’

उसकी कंपकंपाती  आवाज सुनकर हॉल में हल्की सी हंसी की आवाज गूंज उठी थी. वह आकर अपनी सीट पर बैठ गया था. सच तो यह था कि उस समय उसे अपने खास दोस्त मधुर की बहुत याद आ रही थी, जिसका एडमिशन दिल्ली में नहीं हो पाया था. वह सोच रहा था कि वह कहां फंस गया है काश  वह अपने पुराने दोस्तों के बीच लौट जाये ….वह सिकुड़ा सिमटा अपने में खोया हुआ बैठा था। तभी एक लड़की उसके पास आई, ’’माई सेल्फ निया , खालसा कॉलेज ‘’

किसी लड़की के साथ बातचीत और दोस्ती, उसके लिये यह पहला अवसर था. निया के बढे हुये हाथ की ओर उसने अपना हाथ बढा दिया था.

वह वहां की फैशनेबिल लड़कियों को देख कर घबराया करता था लेकिन निया के साथ दोस्ती हो जाने के बाद , उसके मन का संकोच अपने आप समाप्त हो गया और निया के साथ उसे मजा आने लगा था.

‘’क्या हुआ निया, तुम्हारा चेहरा क्यों बुझा हुआ है?’’

“मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है ,’’

“चलो कैंटीन में कॉफी पियोगी तो आराम मिलेगा.‘’

‘’क्लास है कुणाल’’

“कुछ नहीं , मैंने इस चैप्टर का नोट्स तैयार कर लिया है ,मैं तुम्हें दे दूंगा ‘’निया ऐसा दिखा रही थी कि वह उसके साथ जाकर कोई एहसान कर रही थी.

निया चूंकि दिल्ली से थी इसलिये उसके बहुत सारे साथी यहांपर थे , उसकी फ्रेंडलिस्ट बहुत लंबी थी. कैंटीन में उसका बड़ा ग्रुप पहले से ही वहां पर बैठा हुआ मानों वह लोग उन लोगों का ही इंतजार कर रहे थे, वह फिर एक बार थोड़ा हड़बड़ा गया था लेकिन उसने सबके साथ उसका परिचय करवाया. वहां पर गगन, शिवा, आयुष नमन् के साथ विनी , रिया , शीना सबके साथ उसकी हाय – हेलो के साथ दोस्ती की शुरुआत हुई. अब मुश्किल यह थी कि वह सब संपन्न परिवारो  के दिखाई पड़ रहे थे. जबकि वह बहुत ही साधारण परिवार से था , उसके पिता किसी तरह से उसके लिये फीस आदि का प्रबंध कर पाते थे.परंतु बेटे को बाहर कोई परेशानी न हो उसको मुंहमांगी रकम भेज दिया करते थे.

उसे दोस्ती निभाने के लिये ज्यादा पैसे की जरूरत होने लगी थी , इसलिये कभी कोचिंग , तो कभी फीस या बुक लेनी है ,इस बहाने से ज्यादा पैसे मंगाया करता था. निया के साथ उसका मिलना जुलना बढ गया था.

कहा जाये तो दोस्ती के साथ साथ अब वह उसकी गर्लफ्रेंड बन चुकी थी. यदि एक दिन भी वह उससे न मिलता तो बेचैन हो उठता था.

‘’कुणाल, कल शाम को तुम ऑनलाइन नहीं थे ?’’

अब वह कैसे कहता कि उसका नेट पैक समाप्त हो गया था. और पैसाबचाने के लिये ही उसने रिचार्ज नहीं करवाया था.

“ मैं  नोट्स बनाने में लगा रहा और एक्जाम भी तो नजदीक हैं.  इसीलिये किताबों से सिर मार रहा था…’’

“बोर मत किया करो…हर समय पढाई ..पढाई …मेरी ओर देखो… मैं तुम्हें कितना मिस कर रही थी …कल मैंने नया हेयर कट करवाया  है …. देखो मेरे चेहरे पर सूट कर रहा है कि नहीं….

कुणाल ने सिर उठा कर उसकी ओर देखा तो देखता ही रह गया…..नया हेयर स्टाइल , कटे हुये सेट किये स्ट्रेट बाल …धनुषाकार ताजा तरीन सेट की हुई आईब्रो के नीचे बड़ी बड़ी आंखें जो हर समय कुछ बोलने को बेताब रहतीं थी … रेड टी शर्ट और व्हाइट पैंट में वह गजब ढा रही थी. वह एकटक उसे देखता ही रह गया था.

उसने छेड़ने के अंदाज में कहा, ‘’ये क्या तुमने अपने बालों का क्या हाल बना लिया , तुम्हारे कर्ली हेयर तो तुम्हारी पहचान थे …’’

“अच्छे नहीं लग रहे हैं… मुझे टीज कर रहे हो …मारूंगी तुम्हें…

स्ट्रेट तो सभी के होते हैं ,तुम्हारे तो घुंघराले घुंघराले बाल थे ….

हां ,कर्ली थे… मुश्किलों  में तो मम्मा से परमिशन और 2000 रु- मिले , तब तो इन्हें स्ट्रेट करवा पाई. वह अपने बालों पर अपने हाथों को फेरती है … मॉम कहती हैं कि केमिकल से बाल खराब हो जायेंगें …

वह गौर से उसकी बातें सुनता है… ‘’मॉम की बात तो सही है लेकिन स्ट्रेट करवाने की तुम्हें क्या जरूरत पड़ गई?  कर्ली बाल में तो तुम बहुत सुंदर लगती थीं’’.

“क्या कहा…तेरी वजह से तो मैंने अपने बाल स्ट्रेट करवाये…उस दिन पार्टी में तू निशू के बालों से अपनी नजर नहीं हटा रहा था ….मुझे इग्नोर कर रहा था , उसी दिन मैंने निश्चय कर लिया था कि मैं उसी की तरह अपनी हेयर स्टाइल बनवाऊंगीं….’’

“अरी पगली मेरी निगाह तो उसके ओपन बैक पर थी , बाल तो बहाना था … उस दिन उसने कितनी स्मार्ट ड्रेस पहन रखी थी … कट स्लीव ..हाइ नेक …तुम्हारी तरह फुल स्लीव और हाई नेक वह नहीं पहनती ..

Really, she was looking like a model.

वह नाराज होकर उसकी पीठ पर धौल जमा कर बोली ,’’जाओ…जाओ …उसी निशू की बाहों में खो जाओ… वह तुम्हारी तरफ निगाहें भी नहीं उठायेगी … पता है , इस साल का पांचवां ब्वायफ्रेंड होगा तू’’.. वह पैर पटकती हुई अपनी स्कूटी की ओर जाने लगी तो कुणाल ने उसके हाथ से स्कूटी की चाभी छीन ली और बोला , ‘’कहां जा रही हो? मैं तो तुम्हें यूं ही छेड़ रहा था  .।‘’

‘’कुणाल , एसाइनमेंट तुमने पूरा कर लिया ?’’

“हां यार ,कल रात भर जग कर तो पूरा किया है.‘’

“डियर ,तुम मेरी हेल्प कर दोगे ?’’

ना चाहते हुये भी संकोच और दोस्ती बचाने के लिये वह बैठ कर उसका साइनमेंट पूरा करता रहा और वह बैठ कर अपने मोबाइल पर किसी के साथ हंस हंस कर चैटिंग करती रही थी.वह मन ही मन खीझ रहा था लेकिन कुछ कह नहीं सकता था. आखिर वह उसकी गर्लफ्रेन्ड जो ठहरी …

एक दिन निया  क्लास में परेशान सी उखड़ी-उखड़ी सी बैठी हुई थी।

‘’क्या हुआ …तुम्हारा मूड क्यों खराब है?’’

“आज मेरा मूड बहुत खराब है. तुम क्लास में जाओ … मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो …’’

“मुंह से तो बोलो ..बता भी … मैं तेरी हेल्प कर दूंगा ..’’

“कल पार्लर गई तो मेरी सारी पॉकेट मनी स्वाहा  हो गई , मॉम से पैसे मांगे तो वह नाराज हो गईं .. अब बताओ मेरा फोन बंद पड़ा है … कैसे रिचार्ज हो…. तुम जाओ यार ‘’

“बस इतनी सी बात , मैं ऱिचार्ज करवा दूंगा। उसने दिलेर बनते हुये उसका फोन रिचार्ज करवा तो दिया लेकिन पैसा खर्च हो जाने पर चिंतित हो गया था.

वह निया के सामने एक मुखौटा लगाये रहना चाहता था , जिससे उसकी दोस्ती बनी रहे. वह यह दिखाना चाहता था कि वह उसके लिये कुछ भी कर सकता है.

“कुणाल , मेरा कब से मन था कि थियेटर में अमोल पालेकर का प्ले देखूं …प्लीज  टिकट बुक कर दो ‘’… उसके दिमाग में अपने जेब और बैंक के एकाउंट के पैसों के ऊपर उथल पुथल मची हुई थी .. उसने अपने दोस्त अन्वय से रुपये मांगे तो टिकट बुक करवाया था. वह निया के साथ पाने की कल्पना से बड़ा खुश और एक्साइटेड था. परंतु वह नहीं जानता था कि वह किस भंवरजाल में फंसता जा रहा था.वहां पर भी उसके दोस्त मिल गये थे …फिर कॉफी और बर्गर ,उसका तो बैण्ड बज गया ….

एक्जाम की डेट आ गई थी , वह उसी की तैयारी में लगा था कि मेसेन्जर पर नोटिफिकेशन आया तो वह बेचैन होकर तुरंत देखने लगा …’’My valentine… Happy Vallentine day’’

उसके दिल की धड़कन बढ़ गई थी , निया उसे मेरा वैलेन्टाइन कह रही थी, अब तो उसे कोई मंहगा सा गिफ्ट देना पड़ेगा. वह उस दिन उसे जबर्दस्ती पिक्चर देखनी है कह कर ,ले गई थी .. तुरंत 1000 रु खर्च हो गये. वह मन ही मन सोच रहा था कि निया को सामने क्यों शाहखर्च बन जाता है …आखिर उसे अपनी पॉकेट का वजन भी तो देखना चाहिये.

पिछले महीने तो वह कोचिंग की फीस और बुक्स के बहाने से पापा से रुपये ले आया था … वह भी निया का कैसा दीवाना बन गया है… अम्मा बेचारी के चेहरे पर कितनी मायूसी छा गई थी , वह आंखों में आंसू भर  कर बोलीं थीं …’मुन्ना तुम पढ लिख कर कलक्टर बन जाओ तो हम सबन की जिन्दगी संवर जाये. तुम्हारे पापा का सपना भी पूरा होय जाये.‘

उसके चेहरे पर पश्चाताप था …वह इतना नालायक है कि जनाब ,एक लड़की के साथ इश्क फरमा रहे है…

लानत है ,कुणाल तुझ पर…उन क्षणों में उसने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि वह अब निया से दूरी बना लेगा.

परंतु ‘My Vallentine’ देखते ही सब कुछ भूल कर अमेजन की साइट पर गिफ्ट ढ़ूढने में मशगूल हो गया.

वह निया के सपने में खोया  हुआ, कल पैसे की जुगाड़ कैसे करेगा , इस उधेड़बुन में लगा रहा… अंत में निश्चय किया कि असलम से 1000 रु लूंगा तब काम चलेगा. लॆकिन उसकी आंखों से नींद उड़ी हुई थी. एक एक करके क्लास के कई लड़कों से वह रुपया मांग चुका है , जब भी लौटाने के लिये सोचता है , उसी समय निया का कोई ऐसा जरूरी काम सामने आ जाता है कि उसको खुश करने के चक्कर में पहले से ज्यादा खर्च हो जाता है. सोचते सोचते वह जाने कब नींद के आगोश में चला गया था.

पूरा क्लास जब उसका नाम निया के साथ जोड़ता है तो। वह गर्व से अपनी कॉलर ऊंची कर लेता है. निया जैसी सुंदर स्मार्ट लड़की उसकी गर्ल फ्रेन्ड है , सोचकर उसके चेहरे पर मुस्कुराहट छा जाती है.

“चल न कुणाल , कैण्टीन में पिज्जा खाते हैं ..मुझे बहुत भूख लगी है.‘’

“कुणाल प्लीज ये मेरा एसाइनमेंट पूरा कर दो. “

‘आज पिक्चर अंधाधुन का रिव्यू बहुत अच्छा आया है , उसकी रेटिंग 5 दी है. चलो न कुणाल …. ‘बस वह उसके फैलाये जाल में फंस जाता और वह फिर यहां वहां पैसे मांगता …यहां तक कि कई लड़कों से तो वह मुंह छिपाने के लिये उनके सामने ही नहीं पड़ता.

वह असलम से रुपये मांगने में बहुत शर्म महसूस कर रहा था लेकिन इश्क जो न करवाये वह थोड़ा….

उसका वैलेन्टाइन गिफ्ट पाकर वह बहुत खुश हुई थी. वह मंहगा सा पेन्डेन्ट सेट लाया था. वह गिफ्ट पाकर इतनी खुश हुई कि उसने प्यार से उसे सबके सामने किस कर लिया था. वह  खुशी के मारे खिल उठा था. लेकिन मन ही मन वह पैसे को लेकर चिंतित था. अब जब वह सबसॆ बार बार पैसे उधार ले चुका था , यहां तक कि वह सबसे मुंह छिपाता फिर रहा था , अखिल तो  उससे अपना पैसा मांगने का तगादा भी करता रहता था। अक्षत तो एक दिन गाली गलौज पर उतर आया था.

वह पैसे के लिये बहुत परेशान था इसलिये उसने पापा से पैसा मांगने के लिये बहाना बनाया ,’ अम्मा , मुझे टायफायड हो गया था , यहां तक कि मुझे हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा , इसी वजह से दोस्तों से रुपये उधार लेना पड़ा , कह कर वह रो पड़ा था. उसने सोचा कि पापा अब रुपये तुरंत भेज देंगें.

लेकिन पापा तो अम्मा को साथ लेकर अपने  बचवा का हाल जानने के लिये आ पहुंचे. वह उन लोगों को देख कर मन ही मन पछताया भी था कि वह कितना गिरा हुआ इंसान है ,  जो अपनी गर्ल फ्रेंड के लिये सफेद झूठ बोल रहा था. पापा जाते समय उसकी मुट्ठी मे नोट बंद कर बाहर चले गये तो अम्मा ने भी चुपके से अपनी ब्लाउज की अंदर से मुड़े तुड़े नोट निकाल कर उसके हाथ पर रखने चाहे तो शर्म के मारे उसकेहाथ कांप उठे थे.

उस समय अम्मा पापा के मायूस चेहरा और उनकी  बेचारगी  देख उसका सर्वांग कंपकंपा उठा था. परंतु निया का चेहरा देखते ही वह उसके प्यार के नशे में सब भूल जाता.

प्यार या रोमांस कितना आकर्षक है कि लड़का हो या लड़की उसे मदहोश कर देता है . .. उन दिनों में उसके ज्ञान तंतु तंद्रावस्था में पहुंचकर सुषुप्त से हो जाते हैं.

उसकी मुट्ठी में पापा के दिये हुये 500 के और 2000 के नोट थे वह अपनी प्रियतमा निया को खुश करने के लिये उसे आज डिस्को लेकर जाने के लिये उतावला हो उठा था …वहां पर उसकी बाहों मे उसकी निया होगी , हाथों में जाम होगा और जाम के सुरूर में वह निया को अपने आलिंगन में समेट लेगा  परंतु तुरंत ही उसकी अम्मा का चेहरा आंखों के सामने आ गया. वह बोलीं थीं , ‘’कुणाल ये पैसे तेरे पापा की खून पसीने की कमाई के हैं …संभाल कर खर्च करना. तुमसे हम लोगों को बहुत सारी उम्मीदें हैं …आशायें हैं …..’’ अम्मा की आंखों के आंसू याद कर उसके कदम ठिठक गये थे फिर अपने मन को समझाने की हजारों कोशिशें कर डालींथीं

लेकिन निया के मेसेज को देखते ही वह सब कुछ भूल गया ….

“l am missing you Kunal … come … l am waiting ….. “उसने अपने दिल को कड़ा कर के लिखा ….

“No, dear I am busy for tomorrow test . Sorry ‘’उसने बड़ी सी रोने वाली स्माइली डाल कर गहरी सांस ली

“Please help me … मेरे थोड़े से डाउट्स हैं , तुम क्लीयर कर दो … माई डियर मैं तुम्हारा उसी जगह इंतजार कर रही हूं ..अपनी वही कोने वाली जगह पर… जहां हम सबको देख सकते हैं परंतु हम लोगों को कोई नहीं ….’’ अब तो उसे जाना ही होगा क्योंकि उसका दिल हर समय धुक धुक करता था कि निया कहीं किसी दूसरे को अपना ब्वाय फ्रेण्ड न बना ले …. इसी उधेड़बुन में वह उसको मंहगे गिफ्ट देता , वह यहां वहां से पैसे लेकर उस पर खर्च करता ताकि वह उसकी मुट्ठी में बनी रहे. उसके सारे एसाइनमेंट पूरे करता …. वह तेजी से उठ कर  चल दिया था. निया मोबाइल पर किसी से चैटिंग में बिजी थी. उसे उससे कुछ नोट्स चाहिये  थे. फिर आओ एक कोल्ड कॉफी हो जाये … और वह बिल पे कर ही देगा …

उसका रूम मेट अम्बर था , वह उससे सीनियर था और छोटे शहर के साधारण परिवार से भी था . धीरे धीरे उससे दोस्ती हो गई थी.

“कुणाल , कितनी टफ और नीरस लाइफ है … कॉलेज, कोचिंग फिर नोट्स प्रिपेयर करना,देर रात तक टेस्ट की तैयारी.. बुक्स , पेपर सॉल्विंग… लाइफ एकदम डल …अपना छोटा सा शहर और अम्मा पापा बहुत याद आते हैं …

“रिलैक्स यार’’

“तू तो बड़े ग्रुप में दादा लोगों के साथ मौज मस्ती कर रहा है … तेरी तो गर्ल फ्रेंड भी है… तेरा क्या ..मस्ती कर…’’

‘मैं तो चला कोचिंग में …क्या नाम बताया ….निया वही फर्स्ट ईयर p.c.m. वाली …’

‘हां ..हां.. लेकिन तू उसे कैसे जानता है… ‘

“वह तो बड़ी फेमस है , उसके कई ब्वाय फ्रेंड रह चुके हैं अच्छा इस साल तुझे शिकार बनाया है …’’

“नो, यार she loves me .’’

वह जोर से ठहाके लगा कर हंसा था.

“ऐसे क्यों हंस रहे हो?’’

“तुम छोटे शहर के सीधे सादे से लड़के , इस महानगर में आधुनिकता के भंवर जाल में  फंस गये हो. तुम्हारी निया का मेरे सेक्शन के अभिनव के साथ बहुत दिनों से चक्कर चल रहा है. “

“ऐसा नहीं हो सकता?’’

तभी उसका मोबाइल के मेसेन्जर पर नोटिफिकेशन आया और वह तेजी से चला गया था. बात अधूरी छूट गई थी लेकिन उसकी आंखों की नींद उड़ गई थी. कुछ दिनों से वह महसूस कर रहा था कि जब निया का अपना मतलब होता तभी वह उसके मेसेज का जवाब देती और कुछ न कुछ खर्च करवा ही लेती … पैसे देने का ड्रामा तो करती लेकिन कभी देती नहीं… हमेशा उससे पैसे खर्च करवाती और कभी पिक्चर तो कभी थियेटर तो कभी बर्गर तो कभी कॉफी …. क्या सच में वह उसे चीट कर रही है … फिर भी उसे विश्वास नहीं हो रहा था… क्यों कि वह तो निया को जी जान से प्यार करता था. उसने तो भविष्य के अनगिनत सपने संजो रखे थे …. उसकी आंखों से आंसू बह निकले  थे.

बार बार उसे ख्याल आ रहा था कि अम्बर उससे झूठ क्यों बोलेगा भला….उसका क्या स्वार्थ हो सकता है… वह तो हर समय उसकी मदद ही करता रहा है. उसके मन में शर्मिंदगी सी महसूस हो रही थी , उससे भी तो उसने 1000 रुपये ले रखे हैं , जो आज तक नहीं दे पाया …आज उसे अपनी दीवानगी पर रोना आ रह़ा था कि ऐसा कोई सगा नहीं , जिसे उसने ठगा नहीं …

मां बाप कितने अरमानों से अपने खून पसीने की कमाई उस खर्च कर रहे है कि वह लायक बन कर परिवार का खेवनहार बने …वह आधुनिकता के आडम्बर की आंधी में अपनी जड़ों को ही भूल बैठा और इश्क के चक्कर में मामा , मौसी , बुआ, चाचा , दोस्त किसी को  हीं छोड़ा…. सबके सामने हाथ पसार कर , झूठ बोल कर , बहाने रच कर सबसे पैसा ऐंठता रहा … लानत है उस पर…

अभी भी वह मन ही मन सोच रहा था कि अम्बर की बात झूठ निकले … जबकि उसे याद आ रहा था कि अक्सर ऩिया उसके मेसेज का जवाब नहीं देती थी …मैं बिजी थी इसलिये देखा नहीं…. उसने मेसेन्जर , व्हाट्सऐप, इंस्ट्रा पर कई बार मेसेज किया , लेकिन इसने किसी का उत्तर नहीं दिया था. उससे मुलाकात हुये काफी दिन हो चुके थे. वह निराशा के झूले में हिचकोले लेने लगा था क्योंकि उसपर क्रोध या नाराजगी का हक तो कभी उसके पास था ही नहीं ….

दिन भर वह उखड़ा उखड़ा सा रहा . अपने रूम में ही अवसाद में लेटा रहा … नवह कॉलेज गया न ही कोचिंग में जाने का मन हुआ…. निया से मिले हुये दो महीने बीत चुके थे …शाम को अम्बर घबराया हुआ सा आया , देखो कुणाल , जो मैं कह रहा था , वह सही निकला …लो निया और गूंज की चैटिंग पढो … गूंज ने मेरे प्रामिस करने के बाद ही शेयर की है  …वह तुम्हें चीट कर रही थी ….

निया , आजकल तेरे और कुणाल के बीच बहुत खिचड़ी पक रही है …. इश्क हो गया क्या….इश्क माय फुट …

गूंज तू भी कुछ समझती नहीं … वह पढने में तेज है और बुद्धू की तरह मेरे एसाइनमेंट पूरे कर देता है…….. बेवकूफ की तरह जरा सा प्यार का नाटक कर दो ….बस फ्री में पिक्चर ,बर्गर ,कॉफी, थियेटर  सब फ्री में ….

हा…हा….हा..की ढेरों स्माइली

वह गांव का गंवई सचमुच का इश्क समझ बैठा … मेसेज पर मेसेज करता जा रहा है ….

बुद्धू कहीं का …..

कुणाल के चेहरे की रंगत उड़ गई थी …

वह अपनी आंखों के झिलमिलाते आंसुओं को नहीं छिपा पा रहा था.

Hindi Love Stories : अनकहा प्यार – क्या सबीना और अमित एक-दूसरे के हो पाए?

Hindi Love Stories : वेफिर मिलेंगे. उन्हें भरोसा नहीं था. पहले तो पहचानने में एकदो मिनट लगे उन्हें एकदूसरे को. वे पार्क में मिले. सबीना का जबजब अपने पति से झगड़ा होता, तो वह एकांत में आ कर बैठ जाती. ऐसा एकांत जहां भीड़ थी. सुरक्षा थी. लेकिन फिर भी वह अकेली थी. उस की उम्र 40 वर्ष के आसपास थी. रंग गोरा, लेकिन चेहरा अपनी रंगत खो चुका था. आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. जो मेहंदी के रंग में डूब कर लाल थे. आंखें बुझबुझ सी थीं.

वह अपने में खोईर् थी. अपने जीवन से तंग आ चुकी थी. मन करता था कि  कहीं भाग जाए. डूब मरे किसी नदी में. लेकिन बेटे का खयाल आते ही वह अपने झलसे और उलझे विचारों को झटक देती. क्याक्या नहीं हुआ उस के साथ. पहले पति ने तलाक दे कर दूसरा विवाह किया. उस के पास अपना जीवन चलाने का कोई साधन नहीं था. उस पर बेटे सलीम की जिम्मेदारी.

पति हर माह कुछ रुपए भेज देता था. लेकिन इतने कम रुपयों में घर चलाए या बेटे की परवरिश अच्छी तरह करे. मातापिता स्वयं वृद्ध, लाचार और गरीब थे. एक भाई था जो बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा चलाता था. अपना परिवार पालता था. साथ में मातापिता भी थे. वह उन से किस तरह सहयोग की अपेक्षा कर सकती थी.

उस ने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया. वह अंगरेजी में एमए के साथ बीएड भी थी. सो, उसे आसानी से नौकरी मिल गई. सरकारी नौकरी की उस की उम्र निकल चुकी थी. वह सोचती, आमिर यदि बच्चा होने के पहले या शादी के कुछ वर्ष बाद तलाक दे देता, तो वह सरकारी नौकरी तो तलाश सकती थी. उस समय उस की उम्र सरकारी नौकरी के लायक थी. शादी के कुछ समय बाद जब उस ने आमिर के सामने नौकरी करने की बात कही, तो वह भड़क उठा था कि हमारे खानदान में औरतें नौकरी नहीं करतीं.

उम्र गुजरती रही. आमिर दुबई में इंजीनियर था. अच्छा वेतन मिलता था. किसी चीज की कमी नहीं थी. साल में एकदो बार आता और सालभर की खुशियां हफ्तेभर में दे कर चला जाता. एक दिन आमिर ने दुबई से ही फोन कर के उसे यह कहते हुए तलाक दे दिया कि यहां काम करने वाली एक अमेरिकन लड़की से मुझे प्यार हो गया है. मैं तुम्हें हर महीने हर्जाखर्चा भेजता रहूंगा. मुझे अपनी गलती का एहसास तो है, लेकिन मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. एक बार वापस आया तो तलाक की शेष शर्तें मौलवी के सामने पूरी कर दीं और चला गया. इस बीच एक बेटा हो चुका था.

आमिर को कुछ बेटे के प्रेम ने खींचा और कुछ अमेरिकन पत्नी की प्रताड़ना ने सबीना की याद दिलाई. और वह माफी मांगते हुए दुबई से वापस आ गए. लेकिन सबीना से फिर से विवाह के लिए उसे हलाला से हो कर गुजरना था. सबीना इस के लिए तैयार नहीं हुई. आमिर ने मौलवी से फिर निकाह के विकल्प पूछे जिस से सबीना राजी हो सके. मौलवी ने कहा कि 3 लाख रुपए खर्च करने होंगे. निकाह का मात्र दिखावा होगा. तुम्हारी पत्नी को उस का शौहर हाथ भी नहीं लगाएगा. कुछ समय बाद तलाक दे देगा.

‘ऐसा संभव है,’ आमिर ने पूछा.

‘पैसा हो तो कुछ भी असंभव नहीं,’ मौलाना ने कहा.

‘कुछ लोग करते हैं यह बिजनैस अपनी गरीबी के कारण. लेकिन यह बात राज ही रहनी चाहिए.’

‘मैं तैयार हूं,’ आमिर ने कहा और सबीना को सारी बात समझई. सबीना न चाहते हुए भी तैयार हो गई. सबीना को अपनी इच्छा के विरुद्ध निकाह करना पड़ा. कुछ समय गुजारना पड़ा पत्नी बन कर एक अधेड़ व्यक्ति के साथ. फिर तलाक ले कर सबीना से आमिर ने फिर निकाह कर लिया.

दुबई से नौकरी छोड़ कर आमिर ने अपना खुद का व्यापार शुरू कर दिया. बेटे सलीम को पढ़ाई के लिए उसे होस्टल में डाल दिया. सबीना का भी आमिर ने अच्छी तरह ध्यान रखा. उसे खूब प्रेम दिया. लेकिन जबजब आमिर सबीना से कहता कि नौकरी छोड़ दो. सबकुछ है हमारे पास. सबीना ने यह कह कर इनकार कर दिया कि कल तुम्हें कोई और भा गई. तुम ने फिर तलाक दे दिया तो मेरा क्या होगा? फिर मुझे यह नौकरी भी नहीं मिलेगी. मैं नौकरी नहीं छोड़ सकती. इस बात पर अकसर दोनों में बहस हो जाती. घर का माहौल बिगड़ जाता. मन अशांत हो जाता सबीना का.

‘तुम्हें मुझ पर यकीन नहीं है?’ आमिर

ने पूछा.

‘नहीं है,’ सबीना ने सपाट स्वर में

जवाब दिया.

‘मैं ने तो तुम पर विश्वास किया. तुम्हें क्यों नहीं है?’

‘कौन सा विश्वास?’

‘इस बात का कि हलाला में पराए मर्द को तुम ने हाथ भी नहीं लगाया होगा.’

‘जब निकाह हुआ तो पराया कैसे रहा?’

‘मैं ने इस बात के लिए 3 लाख रुपए खर्च किए थे. ताकि जिस से हलाला के तहत निकाह हो, वह  हाथ भी न लगाए तुम्हें.’

‘भरोसा मुझ पर नहीं किया आप ने. भरोसा किया मौलवी पर. अपने रुपयों पर, या जिस से आप ने गैरमर्द से मेरा निकाह करवाया.’’

‘लेकिन भरोसा तो तुम पर भी था न.’

‘न करते भरोसा.’

‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे 3 लाख रुपए भी गए और तुम ने रंगरेलियां भी मनाई हों.’ आमिर की इस बात पर बिफर पड़ी सबीना. बस, इसी मुद्दे को ले कर दोनों में अकसर तकरार शुरू हो जाती और सबीना पार्क में आ कर बैठ जाती.

पार्क की बैंच पर बैठे हुए उस की दृष्टि सामने बैठे हुए एक अधेड़ व्यक्ति पर पड़ी. वह थोड़ा चौंकी. उसे विश्वास नहीं हुआ इस बात पर कि सामने बैठा हुआ व्यक्ति अमित हो सकता है. अमित उस के कालेज का साथी. 45 वर्ष के आसपास की उम्र, दुबलापतला शरीर, सफेद बाल, कुछ बढ़ी हुई दाढ़ी जिस में अधिकांश बाल चांदी की तरह चमक रहे थे. यहां क्या कर रहा है अमित? इस शहर के इस पार्क में, जबकि उसे तो दिल्ली में होना चाहिए था. अमित ही है या कोई और. नहीं, अमित ही है. शायद मुझ पर नजर नहीं पड़ी उस की.

अमित और सबीना एकसाथ कालेज में पूरे 5 वर्ष तक पढ़े. एक ही डैस्क पर बैठते. एकदूसरे से पढ़ाई के संबंध में बातें करते. एकदूसरे की समस्याओं को सुलझने में मदद करते. जिस दिन वह कालेज नहीं आती, अमित उसे अपने नोट्स दे देता. जब अमित कालेज नहीं आता, तो सबीना उसे अपने नोट्स दे देती. कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दोनों मिल कर भाग लेते और प्रथम पुरुस्कार प्राप्त करते हुए सब की वाहवाही बटोरते. जिस दिन अमित कालेज नहीं आता, सबीना को कालेज मरघट के समान लगता. यही हालत अमित की भी थी. तभी तो वह दूसरे दिन अपनत्वभरे क्रोध में डांट कर पूछता. ‘कल कालेज क्यों नहीं आईं तुम?’

सबीना समझ चुकी थी कि अमित के दिल में उस के प्रति वही भाव हैं जो उस के दिल में अमित के प्रति हैं. लेकिन दोनों ने कभी इस विषय पर बात नहीं की. सबीना घर से टिफिन ले कर आती जिस में अमित का मनपसंद भोजन होता. अमित भी सबीना के लिए कुछ न कुछ बनवा कर लाता जो सबीना को बेहद पसंद था. वे अपनेअपने सुखदुख एकदूसरे से कहते. अमित ने बताया कि उस के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. घर में बीमार बूढ़ी मां है. जवान बहन है जिस की शादी की जिम्मेदारी उस पर है. अपने बारे में क्या सोचूं? मेरी सोच तो मां के इलाज और बहन की शादी के इर्दगिर्द घूमती रहती है. बस, अच्छे परसैंट बन जाएं ताकि पीएचडी कर सकूं. फिर कोई नौकरी भी कर लूंगा.’’

सबीना उसे सांत्वना देते हुए कहती, ‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा.

सबीना के घर की उन दिनों आर्थिक स्थिति अच्छी थी. उस के अब्बू विधायक थे. उन के पास सत्ता भी थी और शक्ति भी. कभी कहने की हिम्मम नहीं पड़ी उस की अपने अब्बू से कि वह किसी हिंदू लड़के से प्यार करती है. कहती भी थी तो वह जानती थी कि उस का नतीजा क्या होगा? उस की पढ़ाईलिखाई तुरंत बंद कर के उस के निकाह की व्यवस्था की जाती. हो सकता है कि अमित को भी नुकसान पहुंचाया जाता. लेकिन घर वालों की बात क्या कहे वह? उस ने खुद कभी अमित से नहीं कहा कि वह उस से प्यार करती है. और न ही अमित ने उस से कहा.

अमित अपने परिवार, अपने कैरियर की बातें करता रहता और वह अमित की दोस्त बन कर उसे तसल्ली देती रहती. पैसों के अभाव में सबीना ने कई बार अमित के लाख मना करने पर उस की फीस यह कह कर भरी कि जब नौकरी लग जाए तो लौटा देना, उधार दे रही हूं.

और अमित को न चाहते हुए भी मदद लेनी पड़ती. यदि मदद नहीं लेता तो उस का कालेज कब का छूट चुका होता. कालेज की तरफ से कभी पिकनिक आदि का बाहर जाने का प्रोग्राम होता, तो अमित के न चाहते हुए भी उसे सबीना की जिद के आगे झकना पड़ता. कई बार सबीना ने सोचा कि अपने प्यार का इजहार करे लेकिन वह यह सोच कर चुप रह गई कि अमित क्या सोचेगा? कैसी बेशर्म लड़की है? अमित को पहल करनी चाहिए. अमित

कैसे पहल करता? वह तो अपनी गरीबी

से उबरने की कोशिश में लगा हुआ था. अमित सबीना को अपना सब से अच्छा दोस्त मानता था. अपना सब से बड़ा शुभचिंतक. अपने सुखदुख का साथी. लेकिन वह भी कर न सका अपने प्यार

का इजहार.

प्यार दोनों ही तरफ था. लेकिन कहने की पहल किसी ने नहीं की. कहना जरूरी भी नहीं था. प्यार है, तो है. बीए प्रथम वर्ष से एमए के अंतिम वर्ष तक, पूरे 5 वर्षों का साथ. यह साथ न छूटे, इसलिए सबीना ने भी अंगरेजी साहित्य लिया जोकि अमित ने लिया था. अमित ने पूछा भी, ‘तुम्हारी तो हिंदी साहित्य में रुचि थी?’

‘मुझे क्या पता था कि तुम अंगरेजी साहित्य चुनोगे,’ सबीना ने जवाब दिया.

‘तो क्या मेरी वजह से तुम ने,’ अमित ने पूछा.

‘नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. सोचा कि अंगरेजी साहित्य ही ठीक रहेगा.’

‘उस के बाद क्या करोगी?’

‘तुम क्या करोगे?’

‘मैं, पीएचडी.’

‘मैं भी, सबीना बोली.’

लेकिन एमए पूरा होते ही सबीना के निकाह की बात चलने लगी. उस के पिता चुनाव हार चुके थे. और सारी जमापूंजी चुनाव में लगा चुके थे. बहुत सारा कर्र्ज भी हो गया था उन पर. जब सबीना ने निकाह से मना करते हुए पीएचडी की बात कही, तो उस के अब्बू ने कहा, ‘बीएड कर लो. पढ़ाई करने से मना नहीं करता. लेकिन पीएचडी नहीं. मैं जानता हूं कि पीएचडी के नाम पर पीएचडी करने वालों का कैसा शोषण होता है? निकाह करो और प्राइवेट बीएड करो. अपने अब्बू की बात मानो. समय बदल चुका है. मेरी स्थिति बद से बदतर हो गई है. अपने अब्बू का मान रखो.’ अब्बू की बात तो वह काट न सकी, सोचा, जा कर अमित के सामने ही हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार कर दे.

अमित को जब उस ने बीएड की बात बताई और साथ ही निकाह की, तो अमित चुप रहा.

‘तुम क्या कहते हो?’

‘तुम्हारे अब्बू ठीक कहते हैं,’ उस ने उदासीभरे स्वर में कहा.

‘उदास क्यों हो?’

‘दहेज न दे पाने के कारण बहन की शादी टूट गई.’ सबीना क्या कहती ऐसे समय में चुप रही. बस, इतना ही कहा, ‘अब हमारा मिलना नहीं होगा. कुछ कहना चाहते हो, तो कह दो.’

‘बस, एक अच्छी नौकरी चाहता हूं.’

‘मेरे बारे में कुछ सोचा है कभी.’

वह चुप रहा और उस ने मुझे भी चुप रहने को कहा, ‘कुछ मत कहो. हालात काबू में नहीं हैं. मैं भी पीएचडी करने के लिए दिल्ली जा रहा हूं. औल द बैस्ट. तुम्हारे निकाह के लिए.’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश कर रहे थे. जो कहना था वह अनकहा रह गया. और आज इतने वर्षों के बीत जाने के बाद वही शख्स नागपुर में पार्क में इस बैंच पर उदास, गुमसुम बैठा हुआ है. सबीना उस की तरफ बढ़ी. उस की निगाह सबीना की तरफ गई. जैसे वह भी उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘पहचाना,’’ सबीना ने कहा.

कुछ देर सोचते हुए अमित ने कहा, ‘‘सबीना.’’

‘‘चलो याद तो है.’’

‘‘भूला ही कब था. मेरा मतलब, कालेज का इतना लंबा साथ.’’

‘‘यह क्या हुलिया बना रखा है,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘अब यही हुलिया है. 45 साल का वक्त की मार खाया आदमी हूं. कैसा रहूंगा? जिंदा हूं. यही बहुत है.’’

‘‘अरे, मरें तुम्हारे दुश्मन. यह बताओ, यहां कैसे?’’

‘‘मेरी छोड़ो, अपने बारे में बताओ.’’

‘‘मैं ठीक हूं. खुश हूं. एक बेटे की मां हूं. प्राइवेट स्कूल में टीचर हूं. पति का अपना बिजनैस है,’’ सबीना ने हंसते

हुए कहा.

‘‘देख कर तो नहीं लगता कि खुश हो.’’

‘‘अरे भई, मैं भी 40 साल की हो गई हूं. कालेज की सबीना नहीं रही. तुम बताओ, यहां कैसे? और हां, सच बताना. अपनी बैस्ट फ्रैंड से झठ मत बोलना.’’

‘‘झठ क्यों बोलूंगा. बहन की शादी हो चुकी है. मां अब इस दुनिया में नहीं रहीं. मैं एक प्राइवेट कालेज में प्रोफैसर हूं. मेरा भी एक बेटा है.’’

‘‘और पत्नी?’’

‘‘उसी सिलसिले में तो यहां आया हूं. पत्नी से बनी नहीं, तो उस ने प्रताड़ना का केस लगा कर पहले जेल भिजवाया. किसी तरह जमानत हुई. कोर्ट में सम?ौता हो गया. आज कोर्ट में आखिरी पेशी है. उसे ले जाने के लिए आया हूं. अदालत का लंचटाइम है, तो सोचा पास के इस बगीचे में थोड़ा आराम कर लूं,’’ उस ने यह कहा तो सबीना ने कहा, ‘‘मतलब, खुश नहीं हो तुम.’’

उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘खुश तो हूं लेकिन सुखी नहीं हूं.’’

जी में तो आया सबीना के, कि कह दे कालेज में जो प्यार अनकहा रह गया, आज कह दो. चलो, सबकुछ छोड़ कर एकसाथ जीवन शुरू करते हैं. लेकिन कह न सकी. उसे लगा कि अमित ही शायद अपने त्रस्त जीवन से तंग आ कर कुछ कह दे. लगा भी कि वह कुछ कहना चाहता था. लेकिन, कहा नहीं उस ने. बस, इतना ही कहा, ‘‘कालेज के दिन याद आते हैं तो तुम भी याद आती

हो. कम उम्र का वह निश्छल प्रेम, वह मित्रता अब कहां? अब तो

केवल गृहस्थी है. शादी है. और उस शादी को बचाने की हर

संभव कोशिश.’’

‘‘आज रुकोगे, तुम्हारा तो ससुराल है इसी शहर में,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘नहीं, 4 बजे पेशी होते ही मजिस्ट्रेट के सामने समझौते के कागज पर दस्तखत कर के तुरंत निकलना पड़ेगा. 8 दिन बाद से कालेज की परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं. फिर, बस खानापूर्ति के लिए, समाज के रस्मोरिवाज के लिए कानूनी दांवपेंच से बचने के लिए पत्नी को ले कर जाना है. ऐसी ससुराल में कौन रुकना चाहेगा. जहां सासससुर, बेटी के माध्यम से दामाद को जेल की सैर करा दी जा चुकी हो.’’ उस के स्वर में कुछ उदासी थी.

‘‘अब कब मुलाकात होगी?’’ सबीना ने पूछा.

इस घने अंधकार में उजाले का टिमटिमाता तारा लगा अमित. सबीना की आंखों में आंसू आ गए. आंसू तो अमित की आंखों में भी थे. सबीना ने आंसू छिपाते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, अब कब मुलाकात होगी.’’

‘‘शायद ऐसे ही किसी मोड़ पर. जब मैं दर्द में डूबा हुआ रहूं और तुम मिल जाओ अचानक. जैसे आज मिल गईं. मैं तो तुम्हें देख कर पलभर को भूल ही गया था कि यहां किस काम से आया हूं. मेरी कोर्ट में पेशी है. अपनी बताओ, तुम कैसी हो?’’

सबीना उस के दुख को बढ़ाना नहीं चाहती थी अपनी तकलीफ बता कर. हालांकि, समझ चुका था अमित कि उस की दोस्त खुश नहीं है. ‘‘बस, जिंदगी मिली है, जी रही हूं. थोड़े दुख तो सब के हिस्से में आते हैं.’’

‘‘हां, यह ठीक कहा तुम ने,’’ अमित ने कहा.

‘‘मेरे कोर्ट जाने का समय हो गया, मैं चलता हूं.’’

‘‘कुछ कहना चाहते हो,’’ सबीना ने कुरेदना चाहा.

‘‘कहना तो बहुतकुछ चाहता था. लेकिन कमबख्त समय, स्थितियां, मौका ही नहीं देतीं,’’ आह सी भरते हुए अमित ने कहा.

‘‘फिर भी, कुछ जो अनकहा रह गया हो कभी,’’ सबीना ने कहा. सबीना चाहती थी कि वह अमित के मुंह से एक बार अपने लिए वह अनकहा सुन ले.

‘‘बस, यही कि तुम खुश रहो अपनी जिंदगी में. मैं भी कोशिश कर रहा हूं जीने की. खुश रहने की. जो नहीं कहा गया पहले. उसे आज भी अनकहा ही रहने दो. यही बेहतर होगा. झठी आस पर जी कर क्यों अपना जीना हराम करना.’’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश करते हुए अपनीअपनी अंधेरी सुरंगों की तरफ बढ़ चले. जो पहले अनकहा रह गया था, आज भी अनकहा ही रह गया.

Hindi Stories Online : तुम सही थी निशा

Hindi Stories Online :  ‘अभी तुम 10-15 मिनट हो न यहां?’’ वैभव ने गार्डन में निशा के करीब जा कर पूछा.

‘‘कुछ काम है?’’ निशा ने पलट कर सवाल किया.

निशा का यह औपचारिक व्यवहार वैभव को अजीब लगा. वह झेंपता हुआ बोला, ‘‘कोई काम नहीं है. बस, तुम्हें न्यू ईयर का गिफ्ट देना है. तुम्हारे लिए एक डायरी खरीद कर रखी है. तुम पहली जनवरी को तो आई नहीं, 10 को आई हो. मैं कई दिन डायरी ले कर गार्डन आया, लेकिन आज नहीं ले कर आया. रुकना, मैं डायरी ले कर आ रहा हूं.’’

‘‘तुम डायरी लेने घर जाओगे? रहने दो, मुझे नहीं चाहिए. कई डायरियां हैं घर में,’’ निशा बोली.

‘‘यह मैं ने कब कहा कि तुम्हारे पास डायरी नहीं है. तुम्हारे पास सबकुछ है. बस, मेरी खुशी के लिए ले लो. मैं ने बड़े प्रेम से उसे तुम्हारे लिए रखा है. मैं लेने जा रहा हूं,’’ निशा के जवाब को सुने बिना वैभव वहां से चला गया.

कुछ देर बाद वह बतौर गिफ्ट डायरी ले कर गार्डन में वापस आया. तब तक निशा के आसपास काफी लोग आ गए थे. वहां उस ने गिफ्ट देना उचित नहीं समझा, लेकिन जब निशा गार्डन से जाने लगी तो वैभव रास्ते में उस से मिला.

‘‘लो,’’ वैभव ने डायरी आगे बढ़ाते हुए बड़े प्रेम से कहा.

लेकिन निशा ने डायरी लेने के लिए हाथ आगे नहीं बढ़ाया. वह चुपचाप खड़ी रही.

‘‘लो,’’ वैभव ने दोबारा कहा.

‘‘नहीं, मैं इसे नहीं ले सकती,’’ निशा ने सीधे शब्दों में इनकार कर दिया.

‘‘आखिर क्यों?’’ वैभव ने खुद को अपमानित महसूस करते हुए जानना चाहा.

‘‘मैं घरपरिवार वाली हूं, मैं इसे किसी भी हालत में नहीं ले सकती,’’ निशा यह कह कर आगे बढ़ गई.

इस बार वैभव ने भी कुछ नहीं कहा. उस के दिल को जबरदस्त धक्का लगा. वह डायरी को अपनी कमीज के नीचे छिपाते हुए विपरीत दिशा की ओर चल पड़ा. उस की आंखों में आंसू उमड़ आए थे. कुछ दूर चलने के बाद वह एकांत में बैठ गया और सोचने लगा कि वह उस डायरी का क्या करे?

तभी उस के मन में आया कि डायरी को वह योग सिखाने वाले गुरुजी को दे देगा. तत्काल उस ने उस पृष्ठ को फाड़ा, जिस पर बड़े प्यार से निशा को संबोधित करते हुए नववर्ष की शुभकामना लिखी थी. उस ने जा कर गुरुजी को डायरी दे दी. गुरुजी ने गिफ्ट सहर्ष स्वीकार कर लिया और उसे आशीर्वाद दिया, लेकिन उसे वह खुशी नहीं मिली, जो निशा से मिलती. अभी भी उस का मन अशांत था और वह यकीन ही नहीं कर पा रहा था कि एक छोटी सी डायरी स्वीकार करने में निशा ने इतनी हठ क्यों दिखाई.

वह तरहतरह की बातें सोच रहा था, ‘चलो, इस गिफ्ट के बहाने हकीकत पता लग गई. जिस निशा को मैं जीजान से चाहता हूं, उस के मन में मेरे प्रति इतनी भी भावना नहीं है कि वह मेरा गिफ्ट तक ले सके. मैं भ्रम में जी रहा था.

‘अब उस से कोई संबंध नहीं रखूंगा. आज से सारा रिश्ता खत्म…नहीं…नहीं, लेकिन क्या मैं ऐसा कर पाऊंगा? क्या मैं उस से दूर रह कर जी पाऊंगा…शायद नहीं…क्यों नहीं जी पाऊंगा? उस से दूरी तो बना ही सकता हूं. दूर से देख लिया करूंगा, लेकिन मिलूंगा नहीं और न ही बात करूंगा. वह यही तो चाहती है. कब उस ने मुझ से मन से बात की? मैं ही तो उस से बात करता था. 10 शब्द बोलता था तो ‘हांहूं’ वह भी कर देती थी. कोई लगाव थोड़े ही था. लगाव तो मेरा था कि उस के बिना रातदिन बेचैन रहा करता था. उस के लिए तड़पता रहा, जिस ने आज मेरा इतना बड़ा अपमान कर दिया.

‘अगर ऐसा मालूम होता तो मैं उसे गिफ्ट देने का विचार ही मन में न लाता. ऐसी बेइज्जती मेरी इस से पहले कभी नहीं हुई. अब मैं उस से नजरें मिलाने लायक भी नहीं रहा. क्या मुंह ले कर उस के सामने जाऊंगा? अब तो दूरी ही ठीक है.’

लेकिन क्या ऐसा सोचने से मन बदल सकता था वैभव का? उस का प्यार बारबार उस पर हावी हो जाता और वह निशा से दूर रहने का निर्णय ले पाने में असफल हो जाता.

दिनभर उस का मन किसी काम में नहीं लगा. वह बेचैन रहा. उसे रात को ठीक से नींद भी नहीं आई. तरहतरह के विचार उस के मन में आते रहे.

वह उस बात को अपनी पत्नी सरिता से भी शेयर नहीं कर सकता था. हालांकि निशा के बारे में वह सरिता को बताया करता था, लेकिन यह बताने की उस की हिम्मत न थी. उसे डर था कि सरिता उस का मजाक उड़ाएगी. अंदर ही अंदर वह घुट रहा था.

अगले दिन सुबह 5 बजे वह जागा. रात को उस ने निश्चय किया था कि कुछ दिन तक वह गार्डन नहीं जाएगा, लेकिन सुबह खुद को रोक नहीं सका. निशा की एक झलक पाने के लिए वह बेचैन हो उठा और घर से चल पड़ा.

रास्ते में तरहतरह के विचार उस के मन में आते रहे, ‘आज निशा मिलेगी तो उस से बात नहीं करूंगा. अभिवादन भी नहीं. वह अपनेआप को समझती क्या है? उसे खुद पर घमंड है, तो मैं भी किसी मामले में उस से कम नहीं हूं. उस से मेरा कोई स्वार्थ नहीं है. बस, एक लगाव है, अपनापन है, जिसे वह गलत समझती है.’

लेकिन जब गार्डन आती हुई निशा अचानक दिखी, तो वैभव खुद को रोक नहीं पाया. वह उसे देखने लगा. निशा भी उसी की ओर देख रही थी. वैभव के मन में आया कि वह रास्ता बदल ले, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका.

निशा वैभव के करीब आ गई, लेकिन वह उस की ओर न देख कर सामने देख रही थी. वैभव की निगाहें उसी पर थीं. वह सोच रहा था, ‘देखो न, आज इस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. जाओजाओ, मैं ही कौन सा मरा जा रहा हूं, तुम से बात करने के लिए. मैं आज निशा की तरफ बिलकुल नहीं देखूंगा आखिर वह अपनेआप को समझती क्या है और ऐसे ही कब तक अपनी मनमरजी चलाती है.‘

तभी निशा उस की ओर पलटी. वैभव के हाथ तत्काल अभिवादन की मुद्रा में जुड़ गए. निशा ने भी अभिवादन का जवाब दिया, लेकिन आगे उन दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई.

इस के बाद गार्डन में दोनों अपनेअपने क्रियाकलाप में लग गए, लेकिन वैभव का मन बारबार निशा की ओर भाग रहा था.

ऐसे ही कई दिन गुजर गए. वैभव को निशा के बिना चैन नहीं था, लेकिन वह ऊपर से खुद को ऐसा दिखाने की कोशिश करता कि जैसे उस का निशा से कोई सरोकार ही नहीं है.

निशा सबकुछ समझ रही थी. एक दिन उस ने वैभव को रोका और मुसकराते हुए पूछा, ‘‘नाराज हो क्या?’’

‘‘नहीं. नाराज उन से हुआ जाता है, जो अपने हों. आप से मैं क्यों नाराज होने लगा?’’

निशा मुसकराते हुए बोली, ‘‘कुछ भी कहो, लेकिन नाराज तो हो. तुम्हारा चेहरा, दिल का हाल बयान कर रहा है, लेकिन तुम ने मेरी मजबूरी नहीं समझी.’’

‘‘एक छोटा सा गिफ्ट लेने में क्या मजबूरी थी?’’ वैभव ने तल्खी के साथ पूछा.

‘‘मजबूरी थी, वैभव. तुम ने समझने की कोशिश नहीं की,’’ निशा ने कहा.

‘‘मैं भी जानूं कि क्या मजबूरी थी?’’ वैभव ने जानना चाहा.

‘‘वैभव, सिर्फ भावनाओं से ही काम नहीं चलता. आगेपीछे भी सोचना पड़ता है. मैं ने कहा था न कि मैं घरपरिवार वाली हूं. तुम ने इस पर तो विचार नहीं किया और नाराज हो कर बैठ गए,’’ निशा ने कहा, ‘‘मैं अगर तुम्हारा गिफ्ट ले कर घर जाती तो घर के लोगपूछते कि किस ने दिया? सोचो, मैं क्या जवाब देती?

‘‘डायरी में तुम ने अपना नाम तो जरूर लिखा होगा. तुम्हारा नाम देख कर घर वाले क्या सोचते? इस बारे में तो तुम ने कुछ सोचा नहीं. बस, मुंह फुला लिया. बेवजह शक पैदा होता और मेरे लिए परेशानी खड़ी हो जाती. ऐसा भी हो सकता था कि मेरा गार्डन में आना हमेशा के लिए बंद हो जाता. तब हम दोनों मिल भी न पाते.’’

यह सुन कर वैभव को अपनी गलती का एहसास हुआ. उस के सारे गिलेशिकवे दूर हो गए और वह बोला, ‘‘तुम अपनी जगह सही थी, निशा.

‘‘तुम ने तो बड़ी समझदारी का काम किया. मुझे माफ कर दो. तुम्हारा फैसला ठीक था.

‘‘अब मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. एक छोटा सा गिफ्ट तुम्हें वाकई परेशानी में डाल सकता था.’’

Hindi Kahaniyan : क्या यही प्यार है – क्यों दीपाली की खुशहाल गृहस्थी हुई बर्बाद?

Hindi Kahaniyan : दीपाली की शादी में कोई अड़चन नहीं हो सकती थी, क्योंकि वह बहुत सुंदर थी. किंतु उस के मातापिता को न जाने क्यों कोई लड़का जाति, समाज में जंचता नहीं था. खूबसूरत दीपाली की शादी की उम्र निकलती जा रही थी. पिता कालेज में प्रिंसिपल थे. किसी भी रिश्ते को स्वीकार नहीं कर रहे थे. अंतत: हार कर दीपाली ने एक गुजराती युवक अरुण के साथ अपने प्रेम की पींगें बढ़ानी शुरू कर दीं. दीपाली और अरुण का प्रेम 3-4 साल चला. मृत्युशैया पर पड़े प्रिंसिपल साहब ने मजबूरन अपनी सुंदर बेटी को प्रेम विवाह की इजाजत दे दी.

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दीपाली के विवाह बाद उस के पिता की मौत हो गई. उधर अरुण एक सच्चे प्रेमी की तरह दीपाली को पत्नी का सम्मान देते हुए अपने परिवार में अपनी मां के पास ले गया. घर का व्यवसाय था. आर्थिक स्थिति मजबूत थी. अरुण दीपाली को जीजान से चाहता था. किंतु दीपाली को अरुण की मां कांतिबेन का स्वभाव नहीं सुहाता था.  कांतिबेन अपनी पारिवारिक परंपराओं का पालन करती थीं जैसे सिर पर पल्लू डालना आदि. वे दीपाली को जबतब टोक देतीं कि वह हाथपांव ढक कर रखे, सिर पर आंचल डाले आदि. यह सब गुजराती परिवार में बहू का सामान्य आचरण था. किंतु दीपाली को यह कतई पसंद नहीं था.

इसी वजह से इस अंतर्जातीय विवाह में दरार पड़ने लगी. शुरू में अरुण ने दीपाली को समझाबुझा कर शांत रखने की मनुहार की. किंतु अरुण की मानमनौअल तब बेकार हो गई जब दीपाली इस टोकाटाकी से बेहद चिढ़ गई और अरुण के बहुत समझाने पर भी मायके चली गई. दीपाली मायके गई तो उस की मां माया ने उसे समझाने के बदले अपनी दूसरी बेटियों संग भड़काना शुरू कर दिया.

दीपाली की बहन राजश्री ने तो आग में घी डालने का काम कर दिया. वैसे भी राजश्री की आदत सब के घर मीनमेख निकाल कर कलह कराने की थी. दीपाली के विवाह को भी उस ने नहीं छोड़ा. सभी बहनों को वह सास के प्रति कठोरता बरतने की शिक्षा देने लगी.  मां और बहन के बहकावे में आ कर दीपाली ने अपने पति अरुण के प्यार से मुख मोड़ लिया. बेचारा अरुण कितनी बार आता, रूठी पत्नी को मनाता पर न तो दीपाली टस से मस हुई, न उस की मां माया. मायके में भाभी सारा काम कर लेती, दीपाली मां के साथ घूमतीफिरती रहती. रात को खापी कर सो जाती.

घरेलू कामकाज न होने तथा खाने और बेफिक्री से सोने से दीपाली का शरीर  काफी भर गया. अब वह सुकोमल की जगह मोटी सी बन गई. हालांकि आकर्षक वह अब भी थी. पर पति के प्रेम को ठुकराने से उस के सौंदर्य में वह मासूमियत नहीं छलकती.  दीपाली अपने मायके में खानेसोने में दिन गुजारने में मस्त थी तो दूसरी तरफ अरुण अपनी पत्नी के लिए हमेशा उदास रहता. कांतिबेन भी चाहती थीं कि उन की बहू घर लौट आए तो बेटे का परिवार आगे बढ़े और वे भी बच्चों को खेलाएं.  मगर फिर दीपाली अपनी ससुराल नहीं गई. अरुण उस से पहले मिलने आता रहा, पर बाद में फोन तक ही शादी सिमट गई. अकेले रहते हुए भी अरुण ने न कहीं चक्कर चलाया और न ही दीपाली ने उसे तलाक दिया. वह अरुण की जिंदगी को अधर में लटकाए रही.

अरुण मनातेमनाते थक गया. दिल में दीपाली के लिए सच्ची चाहत थी. जिंदगी ऐसे ही खाली व अकेले कटने लगी. वह नहीं सोच सका कि दीपाली से अलग भी दुनिया हो सकती है. पत्नी से दूर रह कर वह खोयाखोया सा रहता था. एक दिन न जाने बाइक चलाते किन खयालों में गुम था कि एक ट्रक से टकरा गया. माथे पर गहरी चोट लगी.  कांतिबेन व उस के पति ने दीपाली को खबर भेजी. मगर न दीपाली ने और न ही उसकी मां ने अस्पताल जा कर अरुण को देखना उचित समझा. उलटे इस नाजुक मौके पर दीपाली की मां ने अरुण के पिता से सौदेबाजी शुरू कर दी.  उधर अरुण अस्पताल में इलाज करा रहा था, इधर दीपाली की मां ने कहला भेजा कि दीपाली अब उस की सास के संग हरगिज नहीं रहेगी. उसे एक नई जगह, नए क्वार्टर में बसाया जाए.

अपने घायल बेटे के सुख के लिए उस के पिता नारायण ने यह शर्त भी कबूल कर ली. किंतु जख्मी बेटे की तीमारदारी में वे ऐसे व्यस्त रहे कि अलग से घरगृहस्थी से मुक्त सजासजाया कमरा बेटे के लिए अरेंज नहीं कर सके.  इसी तरह कुछ दिन और निकल गए, पर अपने कमजोर हो चुके जख्मी पति को देखने दीपाली अस्पताल नहीं आई. वह बस नए कमरे की मांग पर अड़ी रही. मानो उसे अपने पति से ज्यादा परवाह अपने लिए अलग कमरे की थी.  अरुण को अस्पताल से डिस्चार्ज करा कर उस के पिता घर ले आए. फिर बेटे की नई गृहस्थी बसाने के लिए नए कमरे की व्यवस्था में जुट गए.  किंतु घायल अरुण के दिल पर दीपाली की इस स्वार्थी शर्त का और बुरा प्रभाव पड़ा. वह अब और ज्यादा गुमसुम रहने लगा. पहले की भांति वह रूठी पत्नी को मनाने के लिए अब फोन भी नहीं करता. न ही दीपाली अपनी अकड़ छोड़ कर पति से बात करती.

इसी निराशा ने अरुण को भीतर से तोड़ दिया. वह जैसे समझ गया कि जिसे उस ने इतना जीजान से चाहा, वह गर ब्याहता हो कर भी उसे जख्मी हालत में देखने नहीं आई, तो उस के संग आगे की जिंदगी व्यतीत करने की क्या अपेक्षा करनी. अरुण के सारे स्वप्न झुलस गए. जो प्रेम का भाव उसे जीवन जीने की ऊर्जा देता था, वह अब लुप्त हो गया था. वह खाली सा महसूस करता.  इसी हालत में एक रात अरुण उठा. सिर पर अभी भी पट्टी बंधी थी. मां दूसरे कमरे में सोई थीं. पत्नी से फोन पर बात होती नहीं थी. दीपाली से अब उसे प्रेम की आशा नहीं थी. उस ने देख लिया था कि जिसे वह अभी तक चाह रहा था, वह तो पत्थर की एक मूर्त भर थी.  बेखयाली में, बेचैनी में अरुण उठा और जीने की तरफ बढ़ा और फिर चंद सैकंडों में सीढि़यां लुढ़कता चला गया. सीढि़यों के नीचे पहुंचने तक उस के प्राणपखेरू उड़ चुके थे. जिस जख्मी पति को दीपाली देखने नहीं आई थी, वही पति की मौत पर उस के मांबाप से पति का हिस्सा मांगने अपनी मां, बहन, भाई व जीजा को ले कर आ गई.

जिस ने भी दीपाली को देखा वह समझ गया कि इस मतलबपरस्त लड़की ने एक विजातीय लड़के को झूठे प्रेमजाल में फंसा उस का जीवन बरबाद कर उसे मरने को मजबूर कर दिया. वही अब सासससुर से अपने पति का हिस्सा मांग रही है. तो क्या यही है प्यार? क्या यही विवाह का हश्र है?

Hindi Moral Tales : सिर्फ अफसोस – सीरत की जगह सूरत देखने वाले शैलेश का क्या हुआ अंजाम?

Hindi Moral Tales : शैलेश यही कुछ 4 दिन के लिए मसूरी में अपनी कंपनी के काम के लिए आया था. काम 3 दिन में ही निबट गया तो सोचा कि क्यों न आखिरी दिन मसूरी की हसीन वादियों को आंखों में समेट लिया जाए और निकल पड़ा अपने होटल से. होटल से निकल कर उस ने फोन से औनलाइन ही कैब बुक कर दी और निकल गया मसूरी की सुंदरता को निहारने. कैब का ड्राइवर मसूरी का ही निवासी था, ऐसा उस की भाषा से लग रहा था. शायद इसीलिए उसे शैलेश को मसूरी घुमाने में किसी भी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ रहा था.

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वह उन रास्तों से अच्छी तरह परिचित था जो उस की यात्रा को तीव्र और आरामदायक बनाएंगे. कैब का ड्राइवर पहाड़ों में रहने वाला सीधासाधा पहाड़ी व्यक्ति था. वह बिना अपना फायदा या नुकसान देखे खुद भी शैलेश के साथ निकल पड़ा और शैलेश को हर जगह की जानकारी पूरे विस्तार से देने लगा था. अब शैलेश भी ड्राइवर के साथ खुल चुका था. शैलेश ने पूछा, ‘‘भाईसाहब, आप का नाम क्या है?’’

‘‘मेरा नाम महिंदर,’’ ड्राइवर ने बताया.

अब दोनों मानो अच्छे मित्र बन गए हों. महिंदर ने शैलेश को सारी जानीमानी जगहों पर घुमाया. समय कम था, इसीलिए शैलेश हर जगह नहीं घूम सका. मौसम काफी खुशनुमा था पर शैलेश को नहीं पता था कि मसूरी में मौसम को करवट बदलते देर नहीं लगती. देखते ही देखते  झमा झम बारिश होने लगी. महिंदर को इन सब की आदत थी, उस ने शैलेश से कहा, ’’घबराइए मत साहब, यहां आइए इस होटल में.’’

शैलेश ने देखा कि महिंदर जिस को होटल बोल रहा था वह असल में एक ढाबा था. शैलेश को महिंदर के इस भोलेपन पर थोड़ी हंसी आई पर उस ने अपनी हंसी को होंठों पर नहीं आने दिया क्योंकि वह ढाबा भी प्रकृति की गोद में इतना सुंदर लग रहा था कि पूछो मत.

शैलेश ने महिंदर से कहा, ’’सच में भाईसाहब, इस के आगे तो हमारी दिल्ली के बड़ेबड़े पांचसितारा वाले होटल भी फीके हैं.’’

ठंडा मौसम था. शैलेश थोड़ा सिकुड़ सा रहा था. महिंदर सम झ गया था कि शैलेश को इस ठंड की आदत नहीं है. उस ने अपने और शैलेश के लिए 2 गरमागरम कौफी का आर्डर दे दिया.

महिंदर ने अब शैलेश की चुटकी लेना शुरू कर दिया, ‘‘और भाईसाहब, शादीवादी हुई कि नहीं अभी तक?’’

‘‘क्या लगता है?’’ शैलेश ने प्रश्न के बदले प्रश्न किया.

‘‘लगते तो धोखा खाए आशिक हो.’’

शैलेश ने महिंदर की बात का बुरा नहीं माना, बल्कि धीरे से हंस दिया.

शैलेश के चेहरे पर हंसी देख महिंदर तपाक से उस की तरफ उंगली दिखाता हुआ बोला, ‘‘है ना? सही बोला ना साब?’’

ढाबे के कर्मचारी ने उन के सामने उन की कौफियों के कप रख दिए और चलता बना.

महिंदर ने फिर उसी बात को छेड़ते हुए पूछा, ‘‘बताओ न साब, क्या किस्सा था वह.’’

शैलेश पहले तो थोड़ा  िझ झका, फिर अपना किस्सा सुनाने को तैयार हो गया.

शैलेश ने बताना शुरू किया, ‘‘उस वक्त मैं 11वीं जमात में दाखिल हुआ था. मैट्रिक पास करने के बाद 11वीं जमात में वह मेरा पहला दिन था. उस दिन कई न्यूकमर्स भी पहली बार स्कूल आए थे. उन्हीं में से एक थी रबीना. रबीना को पहली बार देख कर मेरे दिल में उस के लिए किसी प्रकार की कोई भावना तो नहीं उमड़ी पर धीरेधीरे हम दोनों में दोस्ती होनी शुरू हो गई और वह मु झे अपने बाकी दोस्तों से ज्यादा प्यारी भी हो गई. रबीना का बदन काफी गोरा था जो धूप में जाने से और गुलाबी हो उठता. उस के हाथों पर छोटेछोटे भूरे रंग के रोएं, बाल भी कहींकहीं से भूरे, भराकसा जिस्म, ऊपर से सजसंवर के उस का स्कूल में आना मु झे बड़ा आकर्षित करता था. रबीना के प्रति मेरी नजदीकियां बढ़ती चली जा रही थीं पर एक लड़की थी जो अकसर मेरे और रबीना के बीच आ जाती, वह थी संजना.’’

‘‘संजना कौन हैं साब?’’ जिज्ञासु महिंदर ने शैलेश से पूछा.

‘‘संजना तो वह थी जिस की बात मैं ने मानी होती तो आज पछताना नहीं पड़ता.’’

महिंदर अब और सतर्क हो कर किस्सा सुनने लगा.

‘‘रबीना तो अभी कुछ ही दिनों पहले मेरी जिंदगी में आई थी पर संजना तो बचपन से ही मेरे दिल में बसती थी. संजना और मैं ने जब से पढ़ना शुरू किया तब से हम साथ ही थे. हमारे घर वाले भी एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते थे. संजना मेरा पहला प्यार थी और मैं उस का. पर जब से रबीना मेरी जिंदगी में आई, मैं हर दिन रबीना के थोड़ा और पास आता गया और संजना से दूर होता गया. मु झे रबीना के नजदीक देख कक्षा के तमाम छात्र जलते थे. लड़कियों को रबीना से जलन होती और लड़कों को मु झ से. पर सब से ज्यादा कोई जलता था तो वह थी मेरी संजना. उस का जलना मु झे जब फुजूल का लगता था पर अब वाजिब लगता है. भला आप जिसे चाहते हों अगर वह आप के सामने ही किसी और का होने लगे तो इंसान का खून तो वैसे ही जल जाए. संजना मु झ से हमेशा कहती थी.’’

शैलेश की नजर बाहर गई, बारिश थम चुकी थी पर उस का किस्सा और उन की कौफी अभी आधी बची थी.

महिंदर ने पूछा, ‘‘क्या कहती थी?’’

शैलेश ने किस्सा चालू रखा, ‘‘संजना जब भी मु झ से ज्यादा चिढ़ जाती तो बोलती, ‘तुम भूलो मत वह एक मुसलमान है. तुम्हारा आगे एकसाथ कोई भविष्य नहीं है, काम तो मैं ही आऊंगी, इसीलिए संभल जाओ वरना बाद में बहुत पछताना पड़ेगा.’ पर रबीना के इश्क में मैं ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी, कुछ और दिखता ही नहीं था. देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. मैं ने और रबीना ने एक ही कालेज में दाखिला लेने की पूरी तैयारी भी कर ली. पर 12वीं जमात के बाद संजना आगे क्या करेगी, न तो मैं ने कभी जानने की कोशिश की और न उस ने कभी बताने की.

देखते ही देखते समय बीतता गया. संजना का नंबर भी अब उस की यादों की तरह मेरे फोन से मिट गया. अब मेरी फोन की कौल हिस्ट्री में सिर्फ रबीना के नाम की ही एक लंबी लिस्ट होती और उस से घंटों बात करने का रिकौर्ड. हमारे इश्क के चर्चे पूरे कालेज में होने लगे और रबीना भी मु झे उतना ही पसंद करती थी जितना मैं उसे.

‘‘न तो मैं ने कभी सोचा कि वह पराए धर्म की है और न उस ने. स्कूल के समय में तो मैं रबीना के जिस्म की तरफ आकर्षित था. उस की खूबसूरती के लिए उसे चाहता था पर अब मैं उसे दिल से चाहने लगा था. मैं ने कालेज में होस्टल में रहने के बावजूद कभी रबीना से जिस्मानी रिश्ता नहीं बनाना चाहा. अब मु झे पता चला दिल से प्यार करना किसे कहते हैं. मु झे अब रबीना कैसे भी स्वीकार थी. चाहे वह पराए धर्म की हो या कभी उस की सुंदरता चली भी जाए तो भी मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता था.’’

शैलेश किस्सा बीच में रोक बाहर देखने लगा. मौसम फिर करवट बदल रहा था. हलकीहलकी बूंदाबांदी फिर शुरू हो गई.

शैलेश फिर अपने अधूरे किस्से पर वापस आया और महिंदर से पूछा, ‘‘हां, तो मैं कहां पर था.’’

‘‘आप रबीना को दिल से चाहने लगे थे,’’ महिंदर ने याद दिलाया.

‘‘हां, अब हम एकदूसरे को अपना जीवनसाथी बनाना चाहते थे, पर अब एक सब से बड़ी अड़चन थी जिसे हम हमेशा से नजरअंदाज करते रहे थे. वह थी हमारी अलगअलग कौमें. चलो और कोई बिरादरी या जात होती तो चलता पर एक हिंदू और मुसलिम की जात को हमारा समाज हमेशा से एकदूसरे का दुश्मन सम झता है. हमें अच्छी तरह से मालूम था कि न तो मेरे घर वाले इस शादी के लिए मानेंगे और न ही रबीना के. मैं ने रबीना से कहा था कि ‘तुम हिंदू हो जाओ न.’

‘‘तब उस ने मु झ से धीरे से कहा, ‘तुम मुसलमान हो जाओ. मैं अपने अम्मीअब्बा की इकलौती हूं. मैं हिंदू हो गई तो उन का क्या होगा.’

‘‘मैं ने कहा, ‘ऐसे तो मैं भी इकलौता हूं अपने मांबाप का और तुम सम झती क्यों नहीं, हिंदू धर्म एक शुद्ध और सात्विक धर्म है और तुम एक बार हिंदू बन गई तो मैं अपने मांबाप को मना ही लूंगा.’

‘‘‘और मेरे अम्मीअब्बा का क्या? अरे, इकलौती बेटी के लिए कितने सपने देखते हैं. उस के वालिद पता है? एक वालिद उस के लिए अच्छा शौहर ढूंढ़ने के सपने देखते हैं, उस के निकाह के सपने देखते हैं, उस के लिए अपनी सारी जमापूंजी लगा देते हैं और बदले में सिर्फ समाज के सामने इज्जत से उठी नाक चाहते हैं जो मेरे हिंदू बनने पर शर्म से कट जाएगी,’ रबीना ने भी अपना पक्ष साफसाफ मेरे सामने रख दिया.

‘‘‘और अगर मैं मुसलमान बन गया तो मेरे मांबाप का तो सिर गर्व से उठ जाएगा न?’ मैं ने भी गरम दिमाग में बोल दिया पर अगले ही पल लगा कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए था.

‘‘वह उठ कर चली गई. मु झे लगा कि अभी गुस्सा है, जब शांत हो जाएगी, फिर आ जाएगी मेरे पास. पर मु झे क्या पता था कि वह मु झ से वास्ता ही छोड़ देगी और इतनी आसानी से मु झे भुला देगी. स्कूल के समय में जिस तरह रबीना के पीछे मरने वालों की कोई कमी नहीं थी उसी प्रकार कालेज में भी लड़के रबीना के प्रति आकर्षित रहते. मु झ से मनमुटाव होने के बाद उस ने अपना नया साथी ढूंढ़ लिया जो उसी की कौम का था और हमारे ही कालेज का था. कालेज भी अब खत्म हो चुका था और हमारा एकदूसरे से वास्ता भी. मैं ने कई महीनों तक उस को सोशल मीडिया पर मैसेज करने की कोशिश की पर हर जगह से खुद को ब्लौक पाया. मेरा नंबर उस ने ब्लैक लिस्ट में डाल दिया. अब मेरे कानों में संजना की उस दिन वाली बात गूंजने लगी, ‘काम तो मैं ही आऊंगी.’ कुछ दिन उदास रहा और खुद को यही तसल्ली देता रहा कि वह तो वैसे भी मुसलिम थी, चली गई तो क्या हुआ, पर मैं ने अपने मांबाप को तो नहीं छोड़ा न.

‘‘मु झे आज सम झ में आया कि जिसे तुम चाहो अगर वह तुम्हारे सामने ही किसी और की हो जाए तो कैसा लगता है, और कुछ ऐसा ही लगता होगा मेरी संजना को उस वक्त. मैं ने तय किया कि फिर संजना का हाथ पकड़ं ूगा. पर मन में ही विचार किया कि किस मुहं से जाऊंगा उस के पास? क्या कहूंगा उस से कि क्या हुआ मेरे साथ और मान लो कह भी दिया तो क्या वह फिर से स्वीकार करेगी मु झे?

‘‘मैं ने अपना स्वाभिमान छोड़ कर सोच लिया कि जो कुछ हुआ सब बता दूंगा उसे, उसे ही जीत जाने दूंगा. अगर अपनेआप को गलत साबित कर के मैं फिर उस का हो जाऊं तो क्या बुराई है? पर उसे ढूंढ़ने पर पता चला कि अब वह दिल्ली में नहीं रहती. सारे सोशल मीडिया को छान मारा पर वह वहां पर भी कहीं नहीं मिली. फिर हताश हो कर अपनी जिंदगी को रुकने नहीं दिया बल्कि एक कंपनी में जौब कर लिया. और संजना का मिलना न मिलना प्रकृति के ऊपर छोड़ दिया.’’

‘‘फिर क्या हुआ साब?’’ महिंदर सुनना चाहता था कि आगे क्या हुआ.

‘‘फिर क्या होगा? जिंदगी चल ही रही है. आज नहीं तो कल वह मिल जाएगी, अगर न भी मिली तो भी सम झ लूंगा कि मेरी ही गलती की सजा है जो उस वक्त उस की कद्र नहीं कर पाया.’’

शैलेश ने बाहर देखा, मौसम की मार और जोर से पड़ने लगी और जिस तरह से वह और महिंदर मौसम की मार से बचने के लिए ढाबे में घुसे थे उसी तरह और पर्यटक भी ढाबे के अंदर पनाह लेने लगे. ढाबे का कर्मचारी फटाफट अपनी सारी टेबलों पर कपड़ा मारने लगा और उन से बैठने को कहने लगा.

तभी शैलेश की नजर एक नौजवान औरत पर पड़ी जो उसी बरसात से बचते हुए ढाबे में आई थी. उस औरत को देख शैलेश की आंखें उस पर गड़ी की गड़़ी रह गईं. मानो दिमाग पर जोर दे कर कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो.

शैलेश को पराई औरत को ऐसे घूरते देख महिंदर बोला, ‘‘अरे साब, ऐसे मत देखो वरना बिना बात में दोनों को खुराक मिल जाएगी अभी.’’

‘‘क्यों?’’ शैलेश ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘दिखता नहीं क्या, नईनई शादी हुई है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘अरे साब, आधे हाथ चूडि़यों से भरे हैं और माथे पे सिंदूर नहीं दिखता क्या?’’ महिंदर भोलेपन में फिर से बोला, ‘‘कोई बात नहीं साब, आप को कैसे पता होगा, पर मु झे सब पता है नईनई शादी के बाद लड़कियां ऐसे ही फैशन करती हैं. मेरी वाली भी करती थी न,’’ कह कर महिंदर शरमा गया.

शैलेश अनबना सा रह गया मानो महिंदर की बात वह मानना नहीं चाहता था.

‘‘अरे क्या हुआ साब? जानते हो क्या इसे?’’ महिंदर ने पूछा.

‘‘अरे यही तो मेरी संजना है. पर यह शादी और मसूरी का क्या चक्कर?’’ संजना अब पहले से ज्यादा खूबसूरत दिखने लगी थी. उस का जिस्म भी भर गया था, चेहरे पर ऐसी चमक मानो जिंदगी में कोई चिंता ही न हो. पर संजना के माथे का सिंदूर और कलाइयों पर चूडि़यां शैलेश को अंदर से खाए जा रही थीं. कुछ सम झ में भी नहीं आ रहा था कि वह यहां कैसे.

शैलेश अपनी टेबल से उठ खड़ा हुआ और जा कर संजना के सामने अचानक से प्रकट हो गया. दोनों एकदूसरे को मसूरी में देख चौंक गए. उन्होंने ऐसा इत्तफाक सिर्फ कहानियों और फिल्मों में ही देखा था.

संजना ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘तुम? और यहां?’’

‘‘मैं तो काम से आया था कल निकल जाऊंगा, लेकिन तुम यहां कैसे?’’ शैलेश ने पूछा.

‘‘मेरी कुछ दिनों पहले ही शादी हुई है,’’ संजना ने एक नौजवान की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘इन्होंने ही प्लान बनाया था हमारा हनीमून मसूरी में ही मनेगा.’’

संजना ने आगे बड़े ही मजाकिया लहजे में पूछा मानो उसे सब पता हो, ‘‘और अपना सुनाओ कैसी चल रही है तुम्हारी और रबीना की जिंदगी, शादीवादी हुई?’’ यह कह कर संजना मुसकरा गई.

बरसात फिर से थम गई. शैलेश इस से पहले कुछ बोलता, संजना के पति ने उसे इशारा कर जल्दी से चलने को कहा. संजना ने भी जवाब सुने बिना ही शैलेश को अलविदा कर दिया और आगे बढ़ गई. संजना ने पीछे मुड़ कर शैलेश को देखा और बड़ी ही बेरहमी से कहा, ‘‘क्यों, आना पड़ा न मेरे ही पास.’’

भोले महिंदर ने शैलेश को दिलासा दिलाते हुए उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘चलो साब, वरना फिर बारिश शुरू हो जाएगी, वापस भी तो जाना है न.’’

शैलेश दूर जाती संजना को देख रहा था. वक्त उस के हाथ से निकल चुका था. अब कभी वापस नहीं आएगा.

Latest Hindi Stories : अपने घर में – सास-बहू की जोड़ी

Latest Hindi Stories : लंच के समय स्कूल के गैस्टरूम में बैठा सागर बेसब्री से अपनी दोनों बेटियों का इंतजार कर रहा था. आज वह उन्हें अपनी होने वाली पत्नी श्वेता से मिलवाना चाहता था. कल वह श्वेता से शादी करने वाला था.

वह श्वेता की तरफ प्यारभरी नजरों से देखने लगा. उसे श्वेता बहुत ही सुलझी हुई और खूबसूरत लगती थी. श्वेता के लंबे स्ट्रेट बाल, आंखों में शरारत, दूध सा गोरा रंग और चालढाल तथा बातव्यवहार में झलकता आत्मविश्वास. श्वेता के आगे नीरजा उसे बहुत साधारण लगती थी. वह एक घरेलू महिला थी.

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नीरजा से सागर की अर्रेंज मैरिज हुई थी. शुरूशुरू में सागर नीरजा से भी प्यार करता था. पर सागर की महत्त्वाकांक्षाएं काफी ऊंची थीं. उस ने अपने कैरियर में तेजी से छलांग मारी. वह आगे बढ़ता गया और नीरजा पीछे छूटती गई.

सागर ने शहर बदला, नौकरी बदली और इस के साथ ही उस की पसंद भी बदल गई. नई कंपनी में उसे श्वेता का साथ मिला. तब उसे समझ आया कि उसे तो एक बला की खूबसूरत लड़की अपना जीवनसाथी बनाने को आतुर है और कहां वह गंवार( उस की नजरों में) नीरजा के साथ बंधा पड़ा है. बस, यहीं से उस का रवैया नीरजा के प्रति बदल गया था और एक साल के अंदर ही उस ने खुद को नीरजा से आजाद कर लिया था. पर वह अपनी दोनों बेटियों के मोह से आजाद नहीं हो सका था. दोनों बेटियों में अभी भी उस की जान बसती थी.

उस ने श्वेता को अपने बारे में सबकुछ बता दिया था और अब दोनों कोर्ट मैरिज कर हमेशा के लिए एकदूसरे के होने वाले थे. पर इस से पहले श्वेता ने ही इच्छा जताई थी कि वह उस की बेटियों से मिलना चाहती है. इसलिए आज दोनों बच्चियों से मिलने उन के स्कूल आए थे. सागर अकसर स्कूल में ही अपनी बेटियों से मिला करता था.

तभी 4 नन्हीनन्ही आंखों ने दरवाजे से अंदर झांका, तो सागर दौड़ कर उन के पास पहुंचा और उन्हें सीने से लगा लिया. 10 साल की मिनी थोड़ी समझदार हो चुकी थी. जब कि 6 साल की गुड़िया अभी नादान थी. सागर ने उन दोनों को श्वेता से मिलवाते हुए कहा, “देखो बच्चो, आज मैं आप को किन से मिलवाने वाला हूं?”

“ये कौन हैं, इन के बाल कितने सुंदर है?” गुड़िया ने पूछा तो सागर ने गर्व से श्वेता की तरफ देखा और बोला, “बेटी, ये आप की मम्मी हैं. कल से यर आप की नई मम्मी कहलाएंगी. कल ये आप के पापा की पत्नी बन जाएंगी.”

श्वेता ने प्यार से बच्चों की तरफ हाथ बढ़ाया, तो थोड़ा पीछे हटती हुई गुड़िया ने पूछा, “पर पापा, हमारी मम्मी तो हमारे पास ही हैं. फिर नई मम्मी की क्या जरूरत?”

“पर बेटा, ये मम्मी ज्यादा अच्छी हैं. है न?”

“नो, नैवर. पापा, हमें नई मम्मी की कोई जरूरत नहीं. हमारी मम्मी बहुत अच्छी हैं. एंड यू नो पापा…” मिनी ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

“क्या बेटी, बताओ…”

“यू नो, आई हेट यू. आई हेट यू फौर दिस.” यह कह कर रोती हुई मिनी ने गुड़िया का हाथ थामा और तेजी से कमरे से बाहर निकल गई.

श्वेता ने जल्दी से अपने बढ़े हुए हाथों को पीछे कर लिया. अपमान और क्षोभ से उस का चेहरा लाल हो उठा था. सागर की आंखें भी पलभर में उदास हो गईं. उसे लगा जैसे उस के दिल का एक बड़ा टुकड़ा आज टूट गया है. उस ने श्वेता की तरफ देखा और फिर आ कर निढाल सा कुरसी पर बैठ गया. उस ने सोचा भी नहीं था कि उस की अपनी बेटी उस से नफरत करने लगेगी.

श्वेता ने रूखी आवाज में कहा, “चलो सागर, यहां रुक कर कोई फायदा नहीं. तुम्हारी बेटियां मुझे नहीं अपनाएंगी. लगता है तुम्हारी पत्नी ने पहले से ही उन के मन में मेरे खिलाफ जहर भर दिया है.”

सागर ने कुछ भी नहीं कहा. दोनों चुपचाप वापस चले गए.

इधर, नीरजा ने जब सुना कि उस का सागर दूसरी शादी करने वाला है तो वह और भी टूट गई. उस ने तुरंत अपनी सास कमला देवी को फोन लगाया, “मम्मी, कल आप का बेटा नई बहू ले कर आ रहा है. मुबारक हो, आप की जिंदगी में एक बार फिर बहू का सुख वापस आने वाला है.”

“चुप कर नीरजा, तेरे सिवा मेरी न कोई बहू है और न कभी होगी. मैं शरीर से भले ही यहां हूं पर मेरा दिल अब भी तेरे और तेरी दोनों बच्चियों के पास ही है. तू मेरी बेटी से बढ़ कर है. तेरी जगह कोई नहीं ले सकता, समझी पगली. और जानती है, तू मेरी बेटी कब बनी थी?”

“कब मम्मी?”

“उस रात जब मुझे तेज बुखार था. सागर ने मेरी तरफ देखा भी नहीं. पर तूने रातभर जाग कर मुझे ठंडी पट्टियां लगाई थीं. मेरी सेवा की थी. उसी रात मैं ने तुझे अपनी बेटी मान लिया था.”

“मम्मी, आप की जैसी मां पा कर मैं धन्य हो गई. आज मेरी मां जिंदा होतीं तो वे भी आप का प्यार देख कर…,” कहतेकहते वह रोने लगी तो सास ने टोका, “देख बेटी, मुझे मां कहा है न, फिर रोनेधोने की क्या जरूरत? हमेशा मुसकराती रह मेरी बच्ची. अपने बेटे पर तो मेरा काबू नहीं पर दुनिया की और किसी भी मुसीबत को तेरे पास भी नहीं फटकने दूंगी. जानती है यह बात?”

“जी मम्मी?”

“जब मेरे पति ने मुझे तलाक दिया था तब मेरे पास कोई नहीं था. मैं उन से कोई सवाल भी नहीं कर सकी थी. तेरे गम को मैं समझ सकती हूं. तलाक के बाद औरत मन से बिलकुल अकेली रह जाती है. पर तू जरा भी चिंता न कर. तेरे साथ हमेशा तेरी यह मां रहेगी तेरा मानसिक संबल बन कर.”

सास की बातें सुन रोतेरोते भी नीरजा के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. सास की बातों से उसे बहुत सुकून मिला. आज वह अकेली नहीं, बल्कि सास का सपोर्ट उस के साथ था.

नीरजा के अपने मांबाप पहले ही गुजर चुके थे. एक भाई था जो मुंबई में सैटल था. 3 बहने थीं जिन का घर इसी शहर में था. पर चारों भाईबहनों ने उस से कन्नी काट ली थी. ऐसे में तलाक के बाद उस का और उस की दोनों बच्चियों का संबल उस की सास ही थी और यह उस के लिए बहुत बड़ा सहारा था. जब भी वह परेशान होती या अकेला महसूस करती तो सास से बात कर लेती.

नीरजा ने एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ली थी. सैटरडे, संडे उस की छुट्टी होती थी. उस दिन कमला देवी जरूर आतीं. उस के और अपनी पोतियों के साथ समय बितातीं. उन की हर समस्या का हल निकालतीं और फिर शाम तक अपने घर लौट जातीं.

इधर, दूसरी शादी के बाद जब भी सागर ने मिनी और गुड़िया से मिलना चाहा, तो मिनी ने साफ इनकार कर दिया. अब उसे अपने पापा से बात करना भी पसंद नहीं था. उस ने पापा के बिना जीना सीख लिया था और गुड़िया को भी सिखा दिया था. वह उस पापा को कभी माफ नहीं कर पाई जिस ने उस की सीधीसादी मां को छोड़ कर किसी और के साथ शादी कर ली थी.

वक्त इसी तरह निकलता गया. नई शादी से सागर को कोई संतान नहीं हुई थी. दिनोंदिन श्वेता के नखरे बढ़ते जा रहे थे. सागर का जीना मुहाल हो गया था. दोनों के बीच अकसर झगड़े होने लगे थे. श्वेता अकसर घर से बाहर निकल जाती. सागर भी देररात शराब पी कर घर लौटता.

कमला देवी यह सब देखसमझ रही थीं. पर वह अपने बेटे के स्वार्थी रवैये से भी अच्छी तरह परिचित थीं, इसलिए उन्हें बेटे पर तरस नहीं बल्कि गुस्सा आता था. कमला देवी को अकसर वह समय याद आता जब पति से तलाक के बाद उन की जिंदगी का एक ही मकसद था और वह था सागर को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना. इस के लिए उन्होंने अपनी सारी शक्ति लगा दी थी. स्कूलटीचर की नौकरी करते हुए बेटे को ऊंची शिक्षा दिलाई, काबिल बनाया. मगर अब एहसास होने लगा था कि कितना भी काबिल बना लिया, वह रहा तो अपने बाप का बेटा ही जो बाप की तरह ही शराबी, स्वार्थी और बददिमाग निकला.

इधर कमला द्वारा नीरजा को अपनाने और हर जगह उस की तारीफ किए जाने की वजह से नातेरिश्तेदारों का व्यवहार भी नीरजा के प्रति काफी अच्छा बना रहा. सागर के चचेरेममेरे भाईबहनों के घर कोई भी आयोजन होता तो नीरजा और उस की बेटियों को परिवार के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य की तरह आमंत्रित किया जाता और उन की पूरी आवभगत की जाती. यही नहीं, सागर के विवाहित दोस्त भी नीरजा को अवश्य बुलाते. यह सब देख कर सागर और श्वेता भुनभुनाते हुए घर लौटते.

श्वेता चिढ़ कर कहती, “देख लो तुम्हारी रिश्तेदारी में हर जगह अभी भी मुझ से ज्यादा नीरजा की पूछ होती है. लगता है जैसे मैं जबर्दस्ती पहुंच गई हूं. तुम्हारी मां भी जब देखो, नीरजा और उस की बेटियों से ही चिपकी रहती हैं.”

सागर समझाने के लिहाज से कहता, “बुरा तो मुझे भी लगता है पर क्या करूं श्वेता? नीरजा के साथ मेरी बेटियां भी हैं न. बस, इसीलिए चुप रह जाता हूं.”

एक दिन तो हद ही हो गई. सागर के एक दोस्त के बेटे की बर्थडे पार्टी थी. आयोजन बहुत शानदार रखा गया था. सागर के सभी दोस्त वहां मौजूद थे. सागर ने इधरउधर नजरें दौड़ाईं. उसे नीरजा कहीं भी नजर नहीं आई. सागर ने चैन की सांस लेते हुए श्वेता को कुहनी मारी और बोला, “शुक्र है, आज नीरजा नहीं है.”

श्वेता मुसकरा कर बच्चे को गिफ्ट देने लगी. तभी दरवाजे से नीरजा और उस की दोनों बेटियों ने प्रवेश किया. नीरजा ने खूबसूरत सी बनारसी साड़ी पहन रखी थी और बाल खुले छोड़े थे. उस के आकर्षक व्यक्तित्व ने सब का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया. श्वेता जलभुन गई और सागर पर अपना गुस्सा निकालने लगी.

कुछ देर बाद जब पार्टी उफान पर थी तो सागर किनारे खड़े अपने दोस्तों के ग्रुप को जौन करता हुआ बोला, ‘यार, यह थोड़ा अजीब लगता है कि तुम लोग अब तक हर आयोजन में नीरजा को जरूर बुला लेते हो. तुम लोग जानते हो न, कि मैं नीरजा से अलग हो चुका हूं. अब उसे बुलाने की क्या जरूरत?”

एक दोस्त गुस्से में बोला, “क्या बात कह दी यार, तू अलग हुआ है भाभी से. पर हम तो अलग नहीं हुए न. उन से हमारा जो रिश्ता था वह तो रहेगा ही न.”

“पर क्यों रहेगा? जब वह मेरी पत्नी ही नहीं, तो तुम लोगों की भाभी कैसे हो गई?” सागर ने गुस्से में कहा तो एक दोस्त हंसता हुआ बोला, “ठीक है यार, भाभी नहीं तो दोस्त ही सही. यही मान ले कि अब एक दोस्त की हैसियत से हम सब उन्हें बुलाएंगे. रही बात तेरी, तो ठीक है. तेरी वर्तमान बीवी यानी श्वेता को भी हम न्योता भेज दिया करेंगे, मगर नीरजा को नहीं छोड़ेंगे. समझा?”

इस बात पर काफी देर तक उन के बीच तूतू मैंमैं होती रही. श्वेता पास खड़ी सबकुछ सुन रही थी. अंदर ही अंदर उसे नीरजा पर गुस्सा आ रहा था. उसे महसूस हो रहा था जैसे नीरजा उस की खुशियों के आगे आ कर खड़ी हो जाती है. सागर और उस के बीच कहीं न कहीं नीरजा अब भी मौजूद है. घर लौटते समय भी पूरे रास्ते श्वेता हमेशा की तरह सागर से लड़तीझगड़ती रही.

एक दिन शनिवार को जब कमला देवी बहू और पोती के साथ थीं, तो दोपहर में उछलतीकूदती मिनी घर में घुसी. आते ही उस ने मां और दादी के पैर छुए. नीरजा ने खुशी की वजह पूछी, तो मिनी खुशी से चिल्लाई, “मम्मा मैडिकल एंट्रेंस टैस्ट में मेरे बहुत अच्छे नंबर आए हैं और मुझे यहां के सब से बेहतरीन मैडिकल कालेज में दाखिला मिल रहा है.”

“सच बेटी?” दादी ने खुशी से पोती को गले लगा लिया.

मगर नीरजा थोड़ी उदास स्वर में बोली, “बेटा, यहां दाखिले में और उस के बाद पढ़ाई में कुल खर्च लगभग कितना आएगा?”

अब मिनी भी सीरियस हो गई थी. सोचते हुए उस ने कहा, “मम्मा, मेरे खयाल से लगभग दोढाई लाख रुपए तो लग ही जाएंगे. इस से ज्यादा भी लग सकते हैं.”

“पर बेटा, इतने रुपए मैं कहां से लाऊंगी?”

“मम्मा, मेरी शादी वाली जो एफडी आप ने रखी है न, बस, उसे तोड़ दो.”

“पागल है क्या? नहीं नीरजा, तू वैसा कुछ नहीं करेगी. पढ़ाई का खर्च मैं उठाऊंगी मिनी, ” कमला देवी ने कहा.

“पर कैसे मम्मी? आप के पास इतने रुपए कहां से आएंगे?”

“बेटा, मैं ने अपनी नौकरी के दौरान कुछ रुपए बचा कर अलग रखे थे. वे रुपए मैं ने कभी सागर को भी नहीं दिए. अब उन्हें अपनी मिनी के मैडिकल की पढ़ाई के लिए खर्च करूंगी. इस का अलग ही सुख होगा.”

“नहीं मम्मी, उन्हें आप न निकालें. वैसे भी, इस उम्र में आप को पैसे अपने पास रखने चाहिए. कल को सागर ने कुछ गलत व्यवहार किया या बिजनैस डुबो दिया तो आप…?”

“अरे नहीं बेटा. जिस के पास तेरे जैसी बेटी और इतनी प्यारी पोतियां हैं उसे क्या चिंता? और फिर मेरी पोती डाक्टर बनेगी. इस से ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है?

अगले दिन ही कमला देवी ने पोती की पढ़ाई के लिए रुपयों का इंतजाम कर दिया.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. सागर के जीवन में अब कुछ नहीं बचा था. श्वेता कई सालों से औफिस के किसी कलीग के साथ अफेयर चला रही थी. इधर सागर अब और भी ज्यादा शराब में डूबा रहने लगा था. छोटीछोटी बात पर वह मां पर भी बरस जाता. कमला देवी का दिल कई दफा करता कि सबकुछ छोड़ कर चली जाए. पर बेटे का मोह कहीं न कहीं आड़े आ जाता. जितनी देर श्वेता और सागर घर में रहते, झगड़े होते रहते. कमला देवी का घर में दम घुटता. उन की उम्र भी अब काफी हो चुकी थी. वे करीब 80 साल की थीं. उन से अब ज्यादा दौड़भाग नहीं हो पाती. नीरजा के पास भी वे कईकई दिन बाद जा पातीं.

एक दिन उन्हें अपने पेट में दर्द महसूस हुआ. यह दर्द बारबार होने लगा. एक दिन कमला देवी ने बेटे से इस का जिक्र किया तो बेटे ने उपेक्षा से कहा, “अरे मां, तुम ने कुछ उलटासीधा खा लिया होगा. वैसे भी, इस उम्र में खाना मुश्किल से ही पचता है.”

“पर बेटा, यह दर्द कई दिनों से हो रहा है.”

“कुछ नहीं मां, बस, गैस का दर्द होगा. तू अजवायन फांक ले,” कह कर सागर औफिस के लिए निकल गया.

अगले दिन भी दर्द की वजह से कमला देवी ने खाना नहीं खाया. पर सागर को कोई परवा न थी. दोतीन दिनों बाद जब कमला देवी से रहा नहीं गया तो उन्होंने फोन पर बहू नीरजा को यह बात बताई. नीरजा एकदम से घबरा गई. वह उस समय औफिस में थी, तुरंत बोली, “मम्मी, मैं अभी औफिस से छुट्टी ले कर आती हूं. आप को डाक्टर को दिखा दूंगी.”

“अरे बेटा, औफिस छोड़ कर क्यों आ रही है? कल दिखा देना.”

“नहीं मम्मी, कल शनिवार है और वे डाक्टर शनिवार को नहीं बैठते. मैं अभी आ रही हूं.”

एक घंटे के अंदर नीरजा आई और उन्हें हौस्पिटल ले कर गई. बेटे और बहू के व्यवहार में अंतर देख कर उन का दिल भर आया. डाक्टर ने ऊपरी जांच के बाद कुछ और टैस्ट कराने को लिख दिए. नीरजा ने फटाफट सारे टैस्ट कराए और जो बात निकल कर सामने आई वह किसी ने सोचा भी नहीं था. कमला देवी को पेट का कैंसर था. डाक्टर ने साफसाफ बताया कि कैंसर अभी ज्यादा फैला नहीं है. पर इस उम्र में औपरेशन कराना ठीक नहीं रहेगा. कीमोथेरैपी और रेडिएशन से इलाज किया जा सकता है.

नीरजा ने तुरंत अपने औफिस में 15 दिनों की छुट्टी की अरजी डाल दी और सास की तीमारदारी में जुट गई. मिनी ने भी अपने संपर्कों के द्वारा दादी का बेहतर इलाज कराना शुरू किया. कीमोथेरैपी लंबी चलनी थी, सो, नीरजा ने औफिस जौइन कर लिया. मगर उस ने कभी सास को अकेला नहीं छोड़ा. उस की दोनों बेटियों ने भी पूरा सहयोग दिया.

सागर एक दोबार मां से मिलने आया, पर कुछ मदद की इच्छा भी नहीं जताई. नीरजा सास को कुछ दिनों के लिए अपने घर ले आई और दिल से सेवासुश्रुषा करती रही. अब कमला देवी की तबीयत में काफी सुधार था.

एक दिन उन्होंने नीरजा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बेटी, मैं चाहती हूं कि तू उस घर में वापस चले.”

नीरजा ने हैरानी से सास की ओर देखते हुए कहा, “आप यह क्या कह रही हैं मम्मी? आप जानती हो न, अब मैं सागर के साथ कभी नहीं रह सकती. कुछ भी हो जाए, मैं उसे माफ नहीं कर सकती.”

“पर बेटा, मैं ने कब कहा कि तुझे सागर के साथ रहना होगा. मैं तो बस यही चाहती हूं कि तू अपने उस घर में वापस चले.”

“पर वह घर मेरा कहां है मम्मी? वह तो सागर और श्वेता का घर है. मैं उन के साथ… यह संभव नहीं मम्मी.”

“बेटा, वह घर सागर का नहीं. तू भूल रही है. वह घर तेरे ददिया ससुर ने मेरे नाम किया था. उस दोमंजिले, खूबसूरत, बड़े से घर को बहुत प्यार से बनवाया था उन्होंने और अब उस घर को मैं तेरे नाम करना चाहती हूं.”

“नहीं मम्मी, इस की कोई जरूरत नहीं है. सागर को रहने दो उस घर में. मैं अपने किराए के घर में ही खुश हूं.”

“तू खुश है, पर मैं खुश नहीं, बेटा. मुझे अपने घर में रहने की इच्छा हो रही है. पर अपने बेटे के साथ नहीं बल्कि तेरे साथ. मैं तेरे आगे हाथ जोड़ती हूं, मुझे उस घर में ले चल. वहीँ, मेरी सेवा करना. उसी घर में मेरी पोतियों की बरात आएगी. मेरा यह सपना सच हो जाने दे, बेटा.”

नीरजा की आंखें भीग गईं. वह सास के गले लग कर रोने लगी. सास ने उसे चुप कराया और सागर को फोन लगाया, “बेटा, तू अपना कोई और ठिकाना ढूंढ ले. मेरा घर खाली कर दे.”

“यह तू क्या कह रही है मां? घर खाली कर दूं? पर क्यों?”

“क्योंकि अब उस में मैं, नीरजा और अपनी पोतियों के साथ रहूंगी.”

“अच्छा, तो नीरजा ने कान भरे हैं. भड़काया है तुम्हें.”

“नहीं सागर, नीरजा ने कुछ नहीं कहा. यह तो मेरा कहना है. सालों तुझे उस घर में रखा, अब नीरजा को रखना चाहती हूं. तुझे बुरा क्यों लग रहा है? यह तो होना ही था. इंसान जैसा करता है वैसा ही भरता है न बेटे. तुम दोनों पतिपत्नी तब तक अपने लिए कोई किराए का घर ढूंढ लो. और हां, थोड़ा जल्दी करना. इस रविवार मुझे नीरजा और पोतियों के साथ अपने घर में शिफ्ट होना है बेटे. ”

अपना फैसला सुना कर कमला देवी ने फोन काट दिया और नीरजा की तरफ देख कर मुसकरा पड़ीं.

Inspirational Hindi Stories : हीरो – क्या समय रहते खतरे की सीमारेखा से बाहर निकल पाई वह?

Inspirational Hindi Stories :  बादलों की गड़गड़ाहट के साथ ही मूसलाधार बारिश शुरू हो गई थी. अपने घर की बालकनी में बैठी चाय की चुसकियों के साथ बारिश की बौछारों का मैं आनंद लेने लगी. आंखें अनायास ही सड़क पर तितरबितर होते भीड़ के रैले में किसी को तलाशने लगीं लेकिन उसे वहां न पा कर उदास हो गईं. आज ये फुहारें कितनी सुहानी लग रही हैं, जबकि यही गड़गड़ाहट, आसमान में चमकती बिजली की आंखमिचौली उस दिन कितना कहर बरपाती प्रतीत हो रही थी. समय और स्थान परिवर्तन के साथसाथ एक ही परिदृश्य के माने कितने बदल जाते हैं.

2 बरस पूर्व की यादें अभी भी जेहन में आते ही शरीर में झुरझुरी सी होने लगती है और इस के साथ ही आंखों के सामने उभर आता है एक रेखाचित्र, ‘हीरो’ का, जिस की मधुर स्मृति अनायास ही चेहरे पर मुसकान ला देती है.

उस दिन औफिस से निकलने में मुझे कुछ ज्यादा ही देर हो गई थी. काफी अंधेरा घिर आया था. स्ट्रीट लाइट्स जल चुकी थीं. मैं ने घड़ी देखी, घर पहुंचतेपहुंचते साढ़े 10 तो बज ही जाएंगे. मां चिंता करेंगी, सोच कर लिफ्ट से उतरते ही मैं ने मां को फोन लगा दिया.

‘हां, कहां तक पहुंची? आज तो बहुत तेज बारिश हो रही है. संभल कर आना,’ मां की चिंता उन की आवाज से साफ जाहिर हो रही थी.

‘बस, निकल गई हूं. अभी कैब पकड़ कर सीधे घर पहुंचती हूं और फिर मुंबई की बारिश से क्या घबराना, मां? हर साल ऐसे ही तो होती है. मेहमान और मुंबई की बारिश का कोई ठिकाना नहीं. कब, कहां टपक जाए कोई नहीं बता सकता,’ मैं बड़ी बेफिक्री से बोली.

‘अरे, आज साधारण बारिश नहीं है. पिछले 10 घंटे से लगातार हो रही मूसलाधार बारिश थमने या धीमे होने का नाम नहीं ले रही है. हैलो…हैलो…’ मां बोलती रह गईं.

मैं भी देर तक हैलो… हैलो… करती बिल्डिंग से बाहर आ गई थी. सिगनल जो उस वक्त आने बंद हुए तो फिर जुड़ ही नहीं पाए थे. बाहर का नजारा देख मैं अवाक रह गई थी. सड़कें स्विमिंग पूल में तबदील हो चुकी थीं. दूरदूर तक कैब क्या किसी भी चलती गाड़ी का नामोनिशान तक न था. घुटनों तक पानी में डूबे लोग अफरातफरी में इधरउधर जाते नजर आ रहे थे. महानगरीय जिंदगी में एक तो वैसे ही किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं होता और उस पर ऐसा तूफानी मंजर… हर किसी को बस घर पहुंचने की जल्दी मची थी.

अपने औफिस की पूर्णतया वातानुकूलित इमारत जिस पर हमेशा से मुझे गर्व रहा है, पहली बार रोष उमड़ पड़ा. ऐसी भी क्या वातानुकूलित इमारत जो बाकी दीनदुनिया से आप का संपर्क ही काट दे. अंदर हमेशा एक सा मौसम, बाहर भले ही पतझड़ गुजर कर बसंत छा जाए. खैर, अपनी दार्शनिकता को ठेंगा दिखाते हुए मैं तेज कदमों से सड़क पर आ गई और इधरउधर टैक्सी के लिए नजरें दौड़ाने लगी. लेकिन वहां पानी के अति बहाव के कारण वाहनों का रेला ही थम गया था. वहां टैक्सी की खोज करना बेहद मूर्खतापूर्ण लग रहा था. कुछ अधडूबी कारें मंजर को और भी भयावह बना रही थीं. मैं ने भैया से संपर्क साधने के लिए एक बार और मोबाइल फोन का सहारा लेना चाहा, लेकिन सिगनल के अभाव में वह मात्र एक खिलौना रह गया था. शायद आगे पानी इतना गहरा न हो, यह सोच कर मैं ने बैग गले से कमर में टांगा और पानी में उतर पड़ी. कुछ कदम चलने पर ही मुझे सैंडल असुविधाजनक लगने लगे. उन्हें उतार कर मैं ने बैग में डाला.

आगे चलते लोगों का अनुसरण करते हुए मैं सहमसहम कर कदम बढ़ाने लगी. कहीं किसी गड्ढे या नाले में पांव न पड़ जाए, मैं न जाने कितनी देर चलती रही और कहां पहुंच गई, मुझे कुछ होश नहीं था. लोकल ट्रेन में आनेजाने के कारण मैं सड़क मार्गों से नितांत अपरिचित थी. आगे चलने वाले राहगीर भी जाने कब इधरउधर हो गए थे मुझे कुछ मालूम नहीं. मुझे चक्कर आने लगे थे. सारे कपड़े पूरी तरह भीग कर शरीर से चिपक गए थे. ठंड भी लग रही थी. अर्धबेहोशी की सी हालत में मैं कहीं बैठने की जगह तलाश करने लगी तभी जोर से बिजली कड़की और आसपास की बत्तियां गुल हो गईं. मेरी दबी सी चीख निकल गई.

फुटपाथ पर बने एक इलैक्ट्रिक पोल के स्टैंड पर मैं सहारा ले कर बैठ गई. आंखें स्वत: ही मुंद गईं. किसी ने झटके से मुझे खींचा तो मैं चीख मार कर उठ खड़ी हुई. ‘छोड़ो मुझे, छोड़ो,’ दहशत के मारे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. अंधेरे में आंखें चौड़ी कर देखने का प्रयास करने पर मैं ने पाया कि एक युवक ने मेरी बांह पकड़ रखी थी. ‘करेंट खा कर मरना है क्या?’  कहते हुए उस ने मेरी बांह छोड़ दी. वस्तुस्थिति समझ कर मेरे चेहरे पर शर्मिंदगी उभर आई. फिर तुरंत ही अपनी असहाय अवस्था का बोझ मुझ पर हावी हो गया. ‘प्लीज, मुझे मेरे घर पहुंचा दीजिए. मैं पिछले 3 घंटे से भटक रही हूं.’

‘और मैं 5 घंटे से,’ उस ने बिना किसी सहानुभूति के सपाट सा उत्तर दिया.

‘ओह, फिर अब क्या होगा? मुझ से तो एक कदम भी नहीं चला जा रहा. मैं यहीं बैठ कर किसी मदद के आने का इंतजार करती हूं,’ मैं खंभे से थोड़ा हट कर

बैठ गई.

‘मदद आती नहीं, तलाश की जाती है.’

‘पर आगे कहीं बैठने की जगह भी न मिली तो?’ मैं किसी भी हाल में उठने को तैयार न थी.

‘ऐसी सोच के साथ तो सारी जिंदगी यहीं बैठी रह जाओगी.’

मेरी आंखें डबडबा आई थीं. शायद इतनी देर बाद किसी को अपने साथ पा कर दिल हमदर्दी पाने को मचल उठा था. पर वह शख्स तो किसी और ही मिट्टी का बना था.

‘आप को क्या लगता है कि मैं किसी फिल्मी हीरो की तरह आप को गोद में उठा कर इस पानी में से निकाल ले जाऊंगा? पिछले 5 घंटे से बरसते पानी में पैदल चलचल कर मेरी अपनी सांस फूल चुकी है. चलना है तो आगे चलो, वरना मरो यहीं पर.’

उस के सख्त रवैए से मैं सहम गई थी. डरतेडरते उस के पीछे फिर से चलने लगी. तभी मेरा पांव लड़खड़ाया. मैं गिरने ही वाली थी कि उस ने अपनी मजबूत बांहों से मुझे थाम लिया.

‘तुम आगे चलो. पीछे गिरगिरा कर बह गई तो मुझे पता भी नहीं चलेगा,’ आवाज की सख्ती थोड़ी कम हो गई थी और अनजाने ही वह आप से तुम पर आ गया था, पर मुझे अच्छा लगा. अपने साथ किसी को पा कर मेरी हिम्मत लौट आई थी. मैं दूने उत्साह से आगे बढ़ने लगी. तभी बिजली लौट आई. मेरे दिमाग में बिजली कौंधी, ‘आप के पास मोबाइल होगा न?’

‘हां, है.’

‘तो मुझे दीजिए प्लीज, मैं घर फोन कर के भैया को बुला लेती हूं.’

‘मैडम, आप को शायद स्थिति की गंभीरता का अंदाजा नहीं है. इस क्षेत्र की संचारव्यवस्था ठप हो गईर् है. सिगनल नहीं आ रहे हैं. पूरे इलाके में पानी भर जाने के कारण वाहनों का आवागमन भी रोक दिया गया है. हमारे परिजन चाह कर भी यहां तक नहीं आ सकते और न हम से संपर्क साध सकते हैं. स्थिति बदतर हो इस से पूर्व हमें ही किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचना होगा.’

‘लेकिन कैसे?’ मुझे एक बार फिर चारों ओर से निराशा ने घेर लिया था. बचने की कोईर् उम्मीद नजर नहीं आ रही थी. लग रहा था आज यहीं हमारी जलसमाधि बन जाएगी. मुझे अपने हाथपांव शिथिल होते महसूस होने लगे. याद आया लंच के बाद से मैं ने कुछ खाया भी नहीं है. ‘मुझे तो बहुत जोर की भूख भी लग रही है. लंच के बाद से ही कुछ नहीं खाया है,’ बोलतेबोलते मेरा स्वर रोंआसा हो गया था.

‘अच्छा, मैं तो बराबर कुछ न कुछ उड़ा रहा हूं. कभी पावभाजी, कभी भेलपुरी, कभी बटाटाबड़ा… मुझे समझ नहीं आता तुम लड़कियां बारबार खुद को इतना निरीह साबित करने पर क्यों आमादा हो जाती हो? तुम्हें क्या लगता है मैं अभी सुपरहीरो की तरह उड़ कर जाऊंगा और पलक झपकते तुम्हारे लिए गरमागरम बटाटाबड़ा ले कर हाजिर हो जाऊंगा. फिर हम यहां पानी के बीच गरमागरम बड़े खाते हुए पिकनिक का लुत्फ उठाएंगे.’

‘जी नहीं, मैं ऐसी किसी काल्पनिकता में नहीं जी रही हूं. बटाटाबड़ा तो क्या, मुझे आप से सूखी रोटी की भी उम्मीद नहीं है.’ गुस्से में हाथपांव मारती मैं और भी तेजतेज चलने लगी. काफी आगे निकल जाने पर ही मेरी गति थोड़ी धीमी हुई. मैं चुपके से टोह लेने लगी, वह मेरे पीछे आ भी रहा है या नहीं?

‘मैं पीछे ही हूं. तुम चुपचाप चलती रहो और कृपया इसी गति से कदम बढ़ाती रहो.’

उस के व्यंग्य से मेरा गुस्सा और बढ़ गया. अब तो चाहे यहीं पानी में समाधि बन जाए, पर इस से किसी मदद की अपेक्षा नहीं रखूंगी. मेरी धीमी हुई गति ने फिर से रफ्तार पकड़ ली थी. अपनी सामर्थ्य पर खुद मुझे आश्चर्य हो रहा था. औफिस से आ कर सीधे बिस्तर पर ढेर हो जाने वाली मैं कैसे पिछले 7-8 घंटे से बिना कुछ खाएपीए चलती जा रही हूं, वह भी घुटनों से ऊपर चढ़ चुके पानी में. शरीर से चिपकते पौलीथीन, कचरा और खाली बोतलें मन में लिजलिजा सा एहसास उत्पन्न कर रहे थे. आज वाकई पर्यावरण को साफ रखने की आवश्यकता महसूस हो रही थी. यदि पौलीथीन से नाले न भर जाते तो सड़कों पर इस तरह पानी नहीं भरता. पानी भरने की सोच के साथ मुझे एहसास हुआ कि सड़क पर पानी का स्तर काफी कम हो गया है.

‘वाह,’ मेरे मुंह से खुशी की चीख निकल गई. वाकई यहां पानी का स्तर घुटनों से भी नीचा था. तभी एक बड़े से पत्थर से मेरा पांव टकरा गया. ‘ओह,’ मैं जोर से चिल्ला कर लड़खड़ाई. पीछे आ रहे युवक ने आगे आ कर एक बार फिर मुझे संभाल लिया. अब वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे चलाने लगा क्योंकि मेरे पांव से खून बहने लगा था और मैं लंगड़ा रही थी. पानी में बहती खून की धार देख कर मैं दहशत के मारे बेहोश सी होने लगी थी कि उस युवक के उत्साहित स्वर से मेरी चेतना लौटी, ‘वह देखो, सामने बरिस्ता होटल. वहां काफी चहलपहल है. उधर इतना पानी भी नहीं है.

हम वहां से जरूर फोन कर सकेंगे. हमारे घर वाले आ कर तुरंत हमें ले जाएंगे. देखो, मंजिल के इतने करीब पहुंच कर हिम्मत नहीं हारते. आंखें खोलो, देखो, मुझे तो गरमागरम बड़ापाव की खुशबू भी आ रही है.’

मैं ने जबरदस्ती आंखें खोलने का प्रयास किया. बस, इतना ही देख सकी कि वह साथी युवक मुझे लगभग घसीटता हुआ उस चहलपहल की ओर ले चला था. कुछ लोग उस की सहायतार्थ दौड़ पड़े थे. इस के बाद मुझे कुछ याद नहीं रहा. चक्कर और थकान के मारे मैं बेहोश हो गई थी. होश आया तो देखा एक आदमी चम्मच से मेरे मुंह में कुनकुनी चाय डाल रहा था और मेरा साथी युवक फोन पर जोरजोर से किसी को अपनी लोकेशन बता रहा था. मैं उठ कर बैठ गई. चाय का गिलास मैं ने हाथों में थाम लिया और धीरेधीरे पीने लगी. किसी ने मुझे 2 बिस्कुट भी पकड़ा दिए थे, जिन्हें खा कर मेरी जान में जान आई.

‘तुम भी घर वालों से बात कर लो.’

मैं ने भैया को फोन लगाया तो पता चला वे जीजाजी के संग वहीं कहीं आसपास ही मुझे खोज रहे थे. तुरंत वे मुझे लेने निकल पड़े. रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, लेकिन आसपास मौजूद भीड़ की आंखों में नींद का नामोनिशान न था. हर किसी की जबान पर प्रकृति के इस अनोखे तांडव की ही चर्चा थी.

‘मेरा साला मुझे लेने आ रहा है. तुम्हें कहां छोड़ना है बता दो… लो, वे आ गए.’अपनी गर्भवती पत्नी को भी गाड़ी से उतरते देख वह हैरत में पड़ गया, ‘अरे, तुम ऐसे में बाहर क्यों निकली? वह भी ऐसे मौसम में?’ बिना कोईर् जवाब दिए उस की पत्नी उस से बुरी तरह लिपट गई और फूटफूट कर रोने लगी. वह उसे धीरज बंधाने लगा. मेरी भी आंखें भर आईं. पत्नी को अलग कर वह मुझ से मुखातिब हुआ, ‘पहली बार कोई हैल्प औफर कर रहा हूं. चलो, हम छोड़ देंगे.’

‘नहीं, थैंक्स, भैया और जीजाजी बस आ ही रहे हैं. लो, वे भी आ गए.’

‘अच्छा बाय,’ वह चला गया.

हम ने न एकदूसरे का नाम पूछा, न पता. उस की स्मृतियों को सुरक्षित रखने के लिए मैं ने उसे एक नाम दे दिया है, ‘हीरो’  वास्तविक हीरो की तरह बिना कोई हैरतअंगेज करतब दिखाए यदि कोई मुझे उस दिन मौत के दरिया से बाहर ला सकता था तो वही एक हीरो. उस समय तो मुझे उस पर गुस्सा आया ही था कि कैसा रफ आदमी है, लेकिन आज मैं आसानी से समझ सकती हूं उस का मुझे खिझाना, आक्रोशित करना, एक सोचीसमझी चालाकी के तहत था ताकि मैं उत्तेजित हो कर तेजतेज कदम बढ़ाऊं और समय रहते खतरे की सीमारेखा से बाहर निकल जाऊं. सड़क पर रेंगते अनजान चेहरों के काफिले में आज भी मेरी नजरें उसी ‘हीरो’ को तलाश रही हैं.

Famous Hindi Stories : पापा जल्दी आ जाना

 Famous Hindi Stories : ‘‘पापा, कब तक आओगे?’’ मेरी 6 साल की बेटी निकिता ने बड़े भरे मन से अपने पापा से लिपटते हुए पूछा.

‘‘जल्दी आ जाऊंगा बेटा…बहुत जल्दी. मेरी अच्छी गुडि़या, तुम मम्मी को तंग बिलकुल नहीं करना,’’ संदीप ने निकिता को बांहों में भर कर उस के चेहरे पर घिर आई लटों को पीछे धकेलते हुए कहा, ‘‘अच्छा, क्या लाऊं तुम्हारे लिए? बार्बी स्टेफी, शैली, लाफिंग क्राइंग…कौन सी गुडि़या,’’ कहतेकहते उन्होंने निकिता को गोद में उठाया.

संदीप की फ्लाइट का समय हो रहा था और नीचे टैक्सी उन का इंतजार कर रही थी. निकिता उन की गोद से उतर कर बड़े बेमन से पास खड़ी हो गई, ‘‘पापा, स्टेफी ले आना,’’ निकिता ने रुंधे स्वर में धीरे से कहा.

उस की ऐसी हालत देख कर मैं भी भावुक हो गई. मुझे रोना उस के पापा से बिछुड़ने का नहीं, बल्कि अपना बीता बचपन और अपने पापा के साथ बिताए चंद लम्हों के लिए आ रहा था. मैं भी अपने पापा से बिछुड़ते हुए ऐसा ही कहा करती थी.

संदीप ने अपना सूटकेस उठाया और चले गए. टैक्सी पर बैठते ही संदीप ने हाथ उठा कर निकिता को बाय किया. वह अचानक बिफर पड़ी और धीरे से बोली, ‘‘स्टेफी न भी मिले तो कोई बात नहीं पर पापा, आप जल्दी आ जाना,’’ न जाने अपने मन पर कितने पत्थर रख कर उस ने याचना की होगी. मैं उस पल को सोचते हुए रो पड़ी. उस का यह एकएक क्षण और बोल मेरे बचपन से कितना मेल खाते थे.

मैं भी अपने पापा को बहुत प्यार करती थी. वह जब भी मुझ से कुछ दिनों के लिए बिछुड़ते, मैं घायल हिरनी की तरह इधरउधर सारे घर में चक्कर लगाती. मम्मी मेरी भावनाओं को समझ कर भी नहीं समझना चाहती थीं. पापा के बिना सबकुछ थम सा जाता था.

बरामदे से कमरे में आते ही निकिता जोरजोर से रोने लगी और पापा के साथ जाने की जिद करने लगी. मैं भी अपनी मां की तरह जोर का तमाचा मार कर निकिता को चुप करा सकती थी क्योंकि मैं बचपन में जब भी ऐसी जिद करती तो मम्मी जोर से तमाचा मार कर कहतीं, ‘मैं मर गई हूं क्या, जो पापा के साथ जाने की रट लगाए बैठी हो. पापा नहीं होंगे तो क्या कोई काम नहीं होगा, खाना नहीं मिलेगा.’

किंतु मैं जानती थी कि पापा के बिना जीने का क्या महत्त्व होता है. इसलिए मैं ने कस कर अपनी बेटी को अंक में भींच लिया और उस के साथ बेडरूम में आ गई. रोतेरोते वह तो सो गई पर मेरा रोना जैसे गले में ही अटक कर रह गया. मैं किस के सामने रोऊं, मुझे अब कौन बहलानेफुसलाने वाला है.

मेरे बचपन का सूर्यास्त तो सूर्योदय से पहले ही हो चुका था. उस को थपकियां देतेदेते मैं भी उस के साथ बिस्तर में लेट गई. मैं अपनी यादों से बचना चाहती थी. आज फिर पापा की धुंधली यादों के तार मेरे अतीत की स्मृतियों से जुड़ गए.

पिछले 15 वर्षों से ऐसा कोई दिन नहीं गया था जिस दिन मैं ने पापा को याद न किया हो. वह मेरे वजूद के निर्माता भी थे और मेरी यादों का सहारा भी. उन की गोद में पलीबढ़ी, प्यार में नहाई, उन की ठंडीमीठी छांव के नीचे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करती थी. मुझ से आज कोई जीवन की तमाम सुखसुविधाओं में अपनी इच्छा से कोई एक वस्तु चुनने का अवसर दे तो मैं अपने पापा को ही चुनूं. न जाने किन हालात में होंगे बेचारे, पता नहीं, हैं भी या…

7 वर्ष पहले अपनी विदाई पर पापा की कितनी कमी महसूस हो रही थी, यह मुझे ही पता है. लोग समझते थे कि मैं मम्मी से बिछुड़ने के गम में रो रही हूं पर अपने उन आंसुओं का रहस्य किस को बताती जो केवल पापा की याद में ही थे. मम्मी के सामने तो पापा के बारे में कुछ भी बोलने पर पाबंदियां थीं. मेरी उदासी का कारण किसी की समझ में नहीं आ सकता था. काश, कहीं से पापा आ जाएं और मुझे कस कर गले लगा लें. किंतु ऐसा केवल फिल्मों में होता है, वास्तविक दुनिया में नहीं.

उन का भोला, मायूस और बेबस चेहरा आज भी मेरे दिमाग में जैसा का तैसा समाया हुआ था. जब मैं ने उन्हें आखिरी बार कोर्ट में देखा था. मैं पापापापा चिल्लाती रह गई मगर मेरी पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मुझ से किसी ने पूछा तक नहीं कि मैं क्या चाहती हूं? किस के पास रहना चाहती हूं? शायद मुझे यह अधिकार ही नहीं था कि अपनी बात कह सकूं.

मम्मी मुझे जबरदस्ती वहां से कार में बिठा कर ले गईं. मैं पिछले शीशे से पापा को देखती रही, वह एकदम अकेले पार्किंग के पास नीम के पेड़ का सहारा लिए मुझे बेबसी से देखते रहे थे. उन की आंखों में लाचारी के आंसू थे.

मेरे दिल का वह कोना आज भी खाली पड़ा है जहां कभी पापा की तसवीर टंगा करती थी. न जाने क्यों मैं पथराई आंखों से आज भी उन से मिलने की अधूरी सी उम्मीद लगाए बैठी हूं. पापा से बिछुड़ते ही निकिता के दिल पर पड़े घाव फिर से ताजा हो गए.

जब से मैं ने होश संभाला, पापा को उदास और मायूस ही पाया था. जब भी वह आफिस से आते मैं सारे काम छोड़ कर उन से लिपट जाती. वह मुझे गोदी में उठा कर घुमाने ले जाते. वह अपना दुख छिपाने के लिए मुझ से बात करते, जिसे मैं कभी समझ ही न सकी. उन के साथ मुझे एक सुखद अनुभूति का एहसास होता था तथा मेरी मुसकराहट से उन की आंखों की चमक दोगुनी हो जाती. जब तक मैं उन के दिल का दर्द समझती, बहुत देर हो चुकी थी.

मम्मी स्वभाव से ही गरम एवं तीखी थीं. दोनों की बातें होतीं तो मम्मी का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो जाता और पापा का धीमा होतेहोते शांत हो जाता. फिर दोनों अलगअलग कमरों में चले जाते. सुबह तैयार हो कर मैं पापा के साथ बस स्टाप तक जाना चाहती थी पर मम्मी मुझे घसीटते हुए ले जातीं. मैं पापा को याचना भरी नजरों से देखती तो वह धीमे से हाथ हिला पाते, जबरन ओढ़ी हुई मुसकान के साथ.

मैं जब भी स्कूल से आती मम्मी अपनी सहेलियों के साथ ताश और किटी पार्टी में व्यस्त होतीं और कभी व्यस्त न होतीं तो टेलीफोन पर बात करने में लगी रहतीं. एक बार मैं होमवर्क करते हुए कुछ पूछने के लिए मम्मी के कमरे में चली गई थी तो मुझे देखते ही वह बरस पड़ीं और दरवाजे पर दस्तक दे कर आने की हिदायत दे डाली. अपने ही घर में मैं पराई हो कर रह गई थी.

एक दिन स्कूल से आई तो देखा मम्मी किसी अंकल से ड्राइंगरूम में बैठी हंसहंस कर बातें कर रही थीं. मेरे आते ही वे दोनों खामोश हो गए. मुझे बहुत अटपटा सा लगा. मैं अपने कमरे में जाने लगी तो मम्मी ने जोर से कहा, ‘निकी, कहां जा रही हो. हैलो कहो अंकल को. चाचाजी हैं तुम्हारे.’

मैं ने धीरे से हैलो कहा और अपने कमरे में चली गई. मैं ने उन को इस से पहले कभी नहीं देखा था. थोड़ी देर में मम्मी ने मुझे बुलाया.

‘निकी, जल्दी से फे्रश हो कर आओ. अंकल खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’

मैं टेबल पर आ गई. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘निकी, कपड़े कौन बदलेगा?’

‘ममा, आया किचन से नहीं आई फिर मुझे पता नहीं कौन से…’

‘तुम कपड़े खुद नहीं बदल सकतीं क्या. अब तुम बड़ी हो गई हो. अपना काम खुद करना सीखो,’ मेरी समझ में नहीं आया कि एक दिन में मैं बड़ी कैसे हो गई हूं.

‘चलो, अब खाना खा लो.’

मम्मी अंकल की प्लेट में जबरदस्ती खाना डाल कर खाने का आग्रह करतीं और मुसकरा कर बातें भी कर रही थीं. मैं उन दोनों को भेद भरी नजरों से देखती रही तो मम्मी ने मेरी तरफ कठोर निगाहों से देखा. मैं समझ चुकी थी कि मुझे अपना खाना खुद ही परोसना पड़ेगा. मैं ने अपनी प्लेट में खाना डाला और अपने कमरे में जाने लगी. हमारे घर पर जब भी कोई आता था मुझे अपने कमरे में भेज दिया जाता था. मैं टीवी देखतेदेखते खाना खाती रहती थी.

‘वहां नहीं बेटा, अंकल वहां आराम करेंगे.’

‘मम्मी, प्लीज. बस एक कार्टून…’ मैं ने याचना भरी नजर से उन्हें देखा.

‘कहा न, नहीं,’ मम्मी ने डांटते हुए कहा, जो मुझे अच्छा नहीं लगा.

खाने के बाद अंकल उस कमरे में चले गए तथा मैं और मम्मी दूसरे कमरे में. जब मैं सो कर उठी, मम्मी अंकल के पास चाय ले जा रही थीं. अंकल का इस तरह पापा के कमरे में सोना मुझे अच्छा नहीं लगा. जाने से पहले अंकल ने मुझे ढेर सारी मेरी मनपसंद चाकलेट दीं. मेरी पसंद की चाकलेट का अंकल को कैसे पता चला, यह एक भेद था.

वक्त बीतता गया. अंकल का हमारे घर आनाजाना अनवरत जारी रहा. जिस दिन भी अंकल हमारे घर आते मम्मी उन के ज्यादा करीब हो जातीं और मुझ से दूर. मैं अब तक इस बात को जान चुकी थी कि मम्मी और अंकल को मेरा उन के आसपास रहना अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन पापा आफिस से जल्दी आ गए. मैं टीवी पर कार्टून देख रही थी. पापा को आफिस के काम से टूर पर जाना था. वह दवा बनाने वाली कंपनी में सेल्स मैनेजर थे. आते ही उन्होंने पूछा, ‘मम्मी कहां हैं.’

‘बाहर गई हैं, अंकल के साथ… थोड़ी देर में आ जाएंगी.’

‘कौन अंकल, तुम्हारे मामाजी?’ उत्सुकतावश उन्होंने पूछा.

‘मामाजी नहीं, चाचाजी…’

‘चाचाजी? राहुल आया है क्या?’ पापा ने बाथरूम में फे्रश होते हुए पूछा.

‘नहीं. राहुल चाचाजी नहीं कोई और अंकल हैं…मैं नाम नहीं जानती पर कभी- कभी आते रहते हैं,’ मैं ने भोलेपन से कहा.

‘अच्छा,’ कह कर पापा चुप हो गए और अपने कमरे में जा कर तैयारी करने लगे. मैं पापा के पास पानी ले कर आ गई. जिस दिन पापा मेरे सामने जाते मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं उन के आसपास घूमती रहती थी.

‘पापा, कहां जा रहे हो,’ मैं उदास हो गई, ‘कब तक आओगे?’

‘कोलकाता जा रहा हूं मेरी गुडि़या. लगभग 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘मेरे लिए क्या लाओगे?’ मैं ने पापा के गले में पीछे से बांहें डालते हुए पूछा.

‘क्या चाहिए मेरी निकी को?’ पापा ने पैकिंग छोड़ कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा. मैं क्या कहती. फिर उदास हो कर कहा, ‘आप जल्दी आ जाना पापा… रोज फोन करना.’

‘हां, बेटा. मैं रोज फोन करूंगा, तुम उदास नहीं होना,’ कहतेकहते मुझे गोदी में उठा कर वह ड्राइंगरूम में आ गए.

तब तक मम्मी भी आ चुकी थीं. आते ही उन्होंने पूछा, ‘कब आए?’

‘तुम कहां गई थीं?’ पापा ने सीधे सवाल पूछा.

‘क्यों, तुम से पूछे बिना कहीं नहीं जा सकती क्या?’ मम्मी ने तल्ख लहजे में कहा.

‘तुम्हारे साथ और कौन था? निकिता बता रही थी कि कोई चाचाजी आए हैं?’

‘हां, मनोज आया था,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई बोलीं, ‘तुम जाओ यहां से,’ कह कर मेरी बांह पकड़ कर कमरे से निकाल दिया जैसे चाचाजी के बारे में बता कर मैं ने उन का कोई भेद खोल दिया हो.

‘कौन मनोज, मैं तो इस को नहीं जानता.’

‘तुम जानोगे भी तो कैसे. घर पर रहो तो तुम्हें पता चले.’

‘कमाल है,’ पापा तुनक कर बोले, ‘मैं ही अपने भाई को नहीं पहचानूंगा…यह मनोज पहले भी यहां आता था क्या? तुम ने तो कभी बताया नहीं.’

‘तुम मेरे सभी दोस्तों और घर वालों को जानते हो क्या?’

‘तुम्हारे घर वाले गुडि़या के चाचाजी कैसे हो गए. शायद चाचाजी कहने से तुम्हारे संबंधों पर आंच नहीं आएगी. निकिता अब बड़ी हो रही है, लोग पूछेंगे तो बात दबी रहेगी…क्यों?’

और तब तक उन के बेडरूम का दरवाजा बंद हो गया. उस दिन अंदर क्याक्या बातें होती रहीं, यह तो पता नहीं पर पापा कोलकाता नहीं गए.

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

घड़ी ने रात के 2 बजाए. मुझे लगा अब मुझे सो जाना चाहिए. मगर आंखों में नींद कहां. मैं ने अलमारी से पापा की तसवीर निकाली जिस में मैं मम्मीपापा के बीच शिमला के एक पार्क में बैठी थी. मेरे पास पापा की यही एक तसवीर थी. मैं ने उन के चेहरे पर अपनी कांपती उंगलियों को फेरा और फफक कर रो पड़ी, ‘पापा तुम कहां हो…जहां भी हो मेरे पास आ जाओ…देखो, तुम्हारी निकी तुम्हें कितना याद करती है.’

एक दिन सुबह संदीप अखबार पढ़तेपढ़ते कहने लगे, ‘जानती हो आज क्या है?’

‘मैं क्या जानूं…अखबार तो आप पढ़ते हैं,’ मैं ने कहा.

‘आज फादर्स डे है. पापा के लिए कोई अच्छा सा कार्ड खरीद लाना. कल भेज दूंगा.’

‘आप खुशनसीब हैं, जिस के सिर पर मांबाप दोनों का साया है,’ कहतेकहते मैं अपने पापा की यादों में खो गई और मायूस हो गई, ‘पता नहीं मेरे पापा जिंदा हैं भी या नहीं.’

‘हे, ऐसे उदास नहीं होते,’ कहतेकहते संदीप मेरे पास आ गए और मुझे अंक में भर कर बोले, ‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने उन्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. अखबारों में भी उन का विवरण छपवा दिया पर अब तक कुछ पता नहीं चला.’

मैं रोने लगी तो मेरे आंसू पोंछते हुए संदीप बोले थे, ‘‘अरे, एक बात तो मैं तुम को बताना भूल ही गया. जानती हो आज शाम को टेलीविजन पर एक नया प्रोग्राम शुरू हो रहा है ‘अपनों की तलाश में,’ जिसे एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेता होस्ट करेगा. मैं ने पापा का सारा विवरण और कुछ फोटो वहां भेज दिए हैं. देखो, शायद कुछ पता चल सके.’?

‘अब उन्हें ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है…इतने सालों में हमारी फोटो और उन के चेहरे में बहुत अंतर आ गया होगा. मैं जानती हूं. मुझ पर जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती,’ कह कर मैं वहां से चली गई.

मेरी आशाओं के विपरीत 2 दिन बाद ही मेरे मोबाइल पर फोन आया. फोन धर्मशाला के नजदीक तपोवन के एक आश्रम से था. कहने लगे कि हमारे बताए हुए विवरण से मिलताजुलता एक व्यक्ति उन के आश्रम में रहता है. यदि आप मिलना चाहते हैं तो जल्दी आ जाइए. अगर उन्हें पता चल गया कि कोई उन से मिलने आ रहा है तो फौरन ही वहां से चले जाएंगे. न जाने क्यों असुरक्षा की भावना उन के मन में घर कर गई है. मैं यहां का मैनेजर हूं. सोचा तुम्हें सूचित कर दूं, बेटी.

‘अंकल, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. बहुत एहसान किया मुझ पर आप ने फोन कर के.’

मैं ने उसी समय संदीप को फोन किया और सारी बात बताई. वह कहने लगे कि शाम को आ कर उन से बात करूंगा फिर वहां जाने का कार्यक्रम बनाएंगे.

‘नहीं संदीप, प्लीज मेरा दिल बैठा जा रहा है. क्या हम अभी नहीं चल सकते? मैं शाम तक इंतजार नहीं कर पाऊंगी.’

संदीप फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘ठीक है, आता हूं. तब तक तुम तैयार रहना.’

कुछ ही देर में हम लोग धर्मशाला के लिए प्रस्थान कर गए. पूरे 6 घंटे का सफर था. गाड़ी मेरे मन की गति के हिसाब से बहुत धीरे चल रही थी. मैं रोती रही और मन ही मन प्रार्थना करती रही कि वही मेरे पापा हों. देर तो बहुत हो गई थी.

हम जब वहां पहुंचे तो एक हालनुमा कमरे में प्रार्थना और भजन चल रहे थे. मैं पीछे जा कर बैठ गई. मैं ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं और उस व्यक्ति को तलाश करने लगी जो मेरे वजूद का निर्माता था, जिस का मैं अंश थी. जिस के कोमल स्पर्श और उदास आंखों की सदा मुझे तलाश रहती थी और जिस को हमेशा मैं ने घुटन भरी जिंदगी जीते देखा था. मैं एकएक? चेहरा देखती रही पर वह चेहरा कहीं नहीं मिला, जो अपना सा हो.

तभी लाठी के सहारे चलता एक व्यक्ति मेरे पास आ कर बैठ गया. मैं ने ध्यान से देखा. वही चेहरा, निस्तेज आंखें, बिखरे हुए बाल, न आकृति बदली न प्रकृति. वजन भी घट गया था. मुझे किसी से पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. यही थे मेरे पापा. गुजरे कई बरसों की छाप उन के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. मैं ने संदीप को इशारा किया. आज पहली बार मेरी आंखों में चमक देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए.

भजन समाप्त होते ही हम दोनों ने उन्हें सहारा दे कर उठाया और सामने कुरसी पर बिठा दिया. मैं कैसे बताऊं उस समय मेरे होंठों के शब्द मूक हो गए. मैं ने उन के चेहरे और सूनी आंखों में इस उम्मीद से झांका कि शायद वह मुझे पहचान लें. मैं ने धीरेधीरे उन के हाथ अपने कांपते हाथों में लिए और फफक कर रो पड़ी.

‘पापा, मैं हूं आप की निकी…मुझे पहचानो पापा,’ कहतेकहते मैं ने उन की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं, जैसे बचपन में किया करती थी. प्रार्थना कक्ष के सभी व्यक्ति एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. वे सब हमारे पास जमा हो गए.

पापा ने धीरे से सिर उठाया और मुझे देखने लगे. उन की सूनी आंखों में जल भरने लगा और गालों पर बहने लगा. मैं ने अपनी साड़ी के कोने से उन के आंसू पोंछे, ‘पापा, मुझे पहचानो, कुछ तो बोलो. तरस गई हूं आप की जबान से अपना नाम सुनने के लिए…कितनी मुश्किलों से मैं ने आप को ढूंढ़ा है.’

‘यह बोल नहीं सकते बेटी, आंखों से भी अब धुंधला नजर आता है. पता नहीं तुम्हें पहचान भी पा रहे हैं या नहीं,’ वहीं पास खड़े एक व्यक्ति ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘क्या?’ मैं एकदम घबरा गई, ‘अपनी बेटी को नहीं पहचान रहे हैं,’ मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी.

पापा ने अपना हाथ अचानक धीरेधीरे मेरे सिर पर रखा जैसे कह रहे हों, ‘मैं पहचानता हूं तुम को बेटी…मेरी निकी… बस, पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया हूं. मुझे माफ कर दो बेटी.’

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा था. अपार स्नेह देखा मैं ने उन की आंखों में. मैं कस कर उन से लिपट गई और बोली, ‘अब घर चलो पापा. अपने से अलग नहीं होने दूंगी. 15 साल आप के बिना बिताए हैं और अब आप को 15 साल मेरे लिए जीना होगा. मुझ से जैसा बन पड़ेगा मैं करूंगी. चलेंगे न पापा…मेरी खुशी के लिए…अपनी निकी की खुशी के लिए.’

पापा अपनी सूनी आंखों से मुझे एकटक देखते रहे. पापा ने धीरे से सिर हिलाया. संदीप को अपने पास खींच कर बड़ी कातर निगाहों से देखते रहे जैसे धन्यवाद दे रहे हों.

उन्होंने फिर मेरे चेहरे को छुआ. मुझे लगा जैसे मेरा सारा वजूद सिमट कर उन की हथेली में सिमट गया हो. उन की समस्त वेदना आंखों से बह निकली. उन की अतिभावुकता ने मुझे और भी कमजोर बना दिया.

‘आप लाचार नहीं हैं पापा. मैं हूं आप के साथ…आप की माला का ही तो मनका हूं,’ मुझे एकाएक न जाने क्या हुआ कि मैं उन से चिपक गई. आंखें बंद करते ही मुझे एक पुराना भूला बिसरा गीत याद आने लगा :

‘सात समंदर पार से, गुडि़यों के बाजार से, गुडि़या चाहे ना? लाना…पापा जल्दी आ जाना.’

Short Stories in Hindi : वक्त का दोहराव

Short Stories in Hindi :  शशांक दबे पांव छत पर पहुंचा. पूरे महल्ले में निस्तब्धता छाई हुई थी. कहीं आग से झुलसे मकान, टूटी दुकानें, सड़कों पर टूटी लाठियां, ईंटपत्थर और कहींकहीं तो खून के धब्बे भी नजर आ रहे थे. कितना खौफनाक मंजर था. हिंदू-मुसलिम दंगे ने नफरत की ऐसी आग लगाई है कि इंसान सभ्यता की सभी हदों को लांघ कर दरिंदगी पर उतर आता है.

राजनीतिबाज न जाने कब बाज आएंगे अपनी रोटियां सेंकने से. शशांक के अंतर में अपने दादाजी के कहे वो शब्द याद आ रहे थे कि नेता लोग राजनीति खेल जाते हैं और कितने ही लोग अपनी जान से खेल जाते हैं…

भारत-पाकिस्तान का बंटवारा. मानो एक हंसतेखेलते परिवार का दोफाड़ कर दिया गया. कौन अपना, कौन पराया. हिंदू-मुसलमानों के मन में ऐसा जहर घोला कि देखते ही देखते कल तक एक ही थाली में साथसाथ खाते दोस्त एकदूसरे की जान के दुश्मन बन बैठे. अपने पिताजी के मुंह से सुनी थी उस ने उस वक्त की दास्तान. आज वही कहानी फिर से उस की आंखों के सामने पसरने लगी थी…

हवेलीनुमा दोमंजिला घर और बहुत बड़ा चौक, चौक को पार कर के एक बहुत बड़ा दरवाजा, दरवाजा क्या था, पूरा किले का दरवाजा था, बड़ीबड़ी सांकल, सेफ पोल, बड़ेबड़े ताले उस दरवाजे को खोलना व बंद करना हर एक के बस की बात नहीं थी. मास्टर जीवन लाल ही उसे अपने मुलाजिमों के साथ मिल कर खोलते व बंद करते थे.

लेकिन आज यह क्या, वही दरवाजा, ऐसे लगता था कि बस अब गिरा तब गिरा. लगता भी क्यों न, आज एक बहुत बड़ा झुंड उस दरवाजे को धकेल रहा था, पीट रहा था, यह कैसा झुंड था?

मास्टर जीवनलाल जिन का इस पूरे शहर में नाम था, इज्जत थी, रुतबा था, आज वही मास्टरजी अपने पूरे परिवार के साथ इस हवेली में सांस रोके बैठे हैं.

परिवार में पत्नी, 3 बेटे, 3 बेटियां, बहू, सालभर का एक पोता सभी तो हैं, हंसता खेलता परिवार है.

कुछ समय से चल रही हिंदू मुसलमानों की आपस की दूरियां दिख तो रही थीं पर हालात ऐसे हो जाएंगे, किसी ने सोचा भी न था.

मुसलमान और हिंदू एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे, आपस में इतनी नफरत होगी, कभी किसी ने सोचा भी न था. यह क्या हो गया भाइयो, जन्मजन्म से एकदूसरे के साथ रहते आए परिवार एकदूसरे से इतनी नफरत क्यों करने लगे.

हालात ऐसे हो गए थे कि जवान लड़कियों को उठा कर ले जाया जा रहा था.  बूढ़ों को मार दिया जा रहा था. मास्टर जीवन लाल अपनी तीनों जवान लड़कियों और बहू को हवेली की ऊपर वाली मंजिल पर पलंग के नीचे छिपाए हुए थे और दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देख रहे थे. कभी भी दरवाजा टूट सकता था.

मास्टर जीवन लाल का बड़ा बेटा, कटार लिए खड़ा था कि दरवाजा खुलते ही वह अपनी तीनों बहनों व पत्नी को इसलिए मार डालेगा कि कोई उन्हें उठा कर नहीं ले जा पाए. बहनें व पत्नी सामने मौत खड़ी देख ऐसे कांप रही थीं जैसे आंधी में डाल पर लगा पत्ता फड़फड़ा रहा हो.

पर यह क्या, दरवाजे के पीटने और धकेलते रहने के बीच एक आवाज उभरी. वह आवाज थी मास्टर जीवन लाल के किसी विद्यार्थी की. वह कह रहा था कि अरे, क्या कर रहे हो. यह तो मेरे मास्टरजी का घर है. इस घर को छोड़ दो. आगे चलो, और देखते ही देखते बाहर कुछ शांति हो गई.

रात का यह तूफान जब गुजर गया तो मास्टर जीवन लाल ने सोचा कि यहां से अपने पूरे परिवार को सहीसलामत कैसे बाहर निकाला जाए. इस सोच में वे दरवाजा खोल कर बाहर निकले तो बाहर का भयानक दृश्य देख कर रो पड़े. लाशें पड़ी हैं, कोई तड़प रहा है, कोई पानी मांग रहा है. जिस गली में वे और उन का परिवार बड़ी शान से होली, दीवाली, ईद मनाते थे, पड़ोसियों के साथ हंसीमजाक, मौजमस्ती होती थी, वही गली आज खून से नहाई हुई है. सभी आज कितने बेबस व लाचार हैं, किस को पानी पिलाएं, किस को अस्पताल पहुंचाएं. रात आए तूफान से घबराए, आगे आने वाले तूफान से अपने परिवार को बचाने के लिए वे क्या करें. अपनी तीनों जवान बेटियों को आगे आने वाले तूफान से बचाने की गरज से सबकुछ अनदेखा कर के वे आगे बढ़ गए.

मास्टर जीवन लाल जब बाहर का जायजा लेने निकले तो उन्हें पता चला कि हिंदुओं से यह जगह खाली कराई जा रही है. हिंदुओं को किसी तरह लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है और वहां से आगे.

मास्टर जीवन लाल ने यह सुना तो वे जल्दी ही अपने परिवार की हिफाजत के लिए वापस मुड़े और घर पहुंच कर उन्होंने बीवी व बच्चों से कहा कि घर खाली करने की तैयारी करो. अब यहां से सबकुछ छोड़छाड़ कर जाना होगा.

इतना सुनते ही पूरा परिवार शोक में डूब गया. ऐसा होना लाजिमी भी है. सालों से यहां रह रहे थे. यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए, यहीं पढ़े और फिर उन से कहा जाए कि यहां तुम्हारा कुछ नहीं है, तुम यहां से जाओ, कैसा लगेगा. खैर, मास्टर जीवन लाल ने हिम्मत दिखाते हुए सब को तैयार किया और जरूरी कागजात व कुछ पैसे लिए. फिर उस आलीशान हवेली को हमेशा के लिए आंसुओं से अलविदा किया.

पैर हवेली के बाहर निकले तो इतने भारी थे कि उठ ही नहीं रहे थे. दिल हाहाकार कर रहा था. परंतु फिर भी उन्होंने अपने परिवार को देखा हिम्मत की और चल पड़े.

अब मास्टर जीवन लाल बिना छत, बेसहारा अपने परिवार के साथ खुले आसमान के नीचे खड़े थे. अब उन के पास कुछ न था. हाय समय का फेर देखो, कुछ समय पहले तो खुशियों की लहरें उठ रही थीं और अब यह क्या हो गया. यह कैसा तूफान था. इस तूफानी बवंडर में कैसे फंस गए. कब बाहर निकलेंगे इस तूफान से, पता नहीं.

अब मास्टर जीवन लाल के पास एक ही मकसद था कि अपने परिवार को सहीसलामत हिंदुस्तान पहुंचाया जाए. मास्टर जीवन लाल को पता चला कि ट्रक भर कर लोगों को लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है. बहुत कोशिश के बाद मास्टर जीवन लाल की बहू व पत्नी को एक ट्रक में जगह मिल गई. और पीछे रह गईं मास्टरजी की बेटियां व बेटे.

उफ्फ अब क्या करें अब जो रह गए उन्हें किस के सहारे छोड़ें और जो चले गए उन्हें आगे का कुछ पता नहीं. मास्टरजी इस कशमकश में खड़े थे कि फिर लोगों का जनून उभरा. मार डालो, काट डालो की आवाजें. मास्टरजी फिर से परेशान हो गए. अब वे बेटियों को कहां छिपाएं. मास्टरजी की आंखों से आंसू बह निकले.

इतने में मास्टरजी को एक फरिश्ते की आवाज सुनाई दी. सलाम अलैकम, भाईजान. मास्टरजी ने जब उस ओर देखा तो मास्टरजी के सामने चलचित्र की तरह पुरानी घटनाएं याद आ गईं. दो जिस्म एक जान हुआ करते थे. दोनों परिवार एकसाथ सारे तीजत्योहार एकसाथ मनाते थे. फिर अचानक सलीम भाई को विदेश जाना पड़ गया. और अब मिले तो इस हाल में. न हवेली अपनी थी, न ही देश अपना रह गया था. सबकुछ खत्म हो चुका था. मास्टरजी लुटेपिटे खड़े थे.

सलीम भाई ने मास्टरजी को गले लगा लिया. मास्टरजी का हाल देख कर सलीम भाई भी रो पड़े. सलीम भाई ने मास्टरजी को एक बहुत बड़ी तसल्ली दी, कहा कि भाईजान, आप की बेटियां मेरी बेटियां. अब तुम इन की फिक्र छोड़ो और लाहौर जा कर भाभीजी और बहू को खोजो. मास्टरजी के पास अब कोई चारा भी नहीं था. सलीम भाई का विश्वास ही था, और वे आगे बढ़ गए.

कितना सहा होगा उस वक्त लोगों ने जब अपनी जड़ों से उखड़ कर रिफ्यूजी बन गए होंगे. धर्म क्या यही सिखाता है हमें, तोड़ दो रिश्तों को, मानवीय संवेदनाओं का खून कर दो.

बरसों पुरानी हिंदू, मुसलमान की वह नफरत आज भी बरकरार है तो इन नेताओं की वजह से, धर्म के ठेकेदारों की वजह से, अंधविश्वास की गठरी उठाए लोगों की अंधभक्ति की वजह से.

काश, जल्दी ही हमें समझ में आ जाए कि धर्म तो दिलों को मिलाता है, चोट पर मरहम लगाता है. खून की नदियां नहीं बहाता, बच्चों को रुलाता नहीं, औरतों की इज्जत नहीं उतारता, बसेबसाए घरों को उजाड़ता नहीं. काश, यह बात आने वाली हमारी पीढ़ी जल्दी ही समझ जाए.

Women’s Day 2025 : एहसास – लाड़-प्यार में पली बढ़ी सुधांशी को जब पता चला नारी का पूर्ण सौंदर्य

Women’s Day 2025 : कितने चाव से इस घर में सुधांशी बहू बन कर आई थी. अपने मातापिता की इकलौती बेटी होने के कारण लाड़ली थी. उस के मुंह से बात निकली नहीं कि पूरी हो जाती थी. ज्यादा आजादी की वजह से बेपरवा भी बहुत हो गई थी. मां जब कभी पिताजी से शिकायत भी करतीं तो वे यही कह कर टाल देते, ‘‘एक ही तो है, उस के भी पीछे पड़ी रहती हो. ससुराल जा कर तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दब ही जाना है. अभी तो चैन से रहने दो.’’

मां बेचारी मन मसोस कर रह जातीं.

आज उस ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था. पति एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर कार्यरत थे. घर में एक ननद और सास थी.

शादी के बाद 1 महीना तो मानो पलक झपकते ही बीत गया. घर में सभी उसे बेहद चाहते थे. नईनवेली होने के कारण कोई उस से काम भी नहीं करवाता था. सुशांत भी उस का पूरा ध्यान रखता. उस की हर फरमाइश पूरी की जाती. सुधांशी भी नए घर में बेहद खुश थी. उस की ननद गरिमा दिनभर काम में लगी रहती, मगर भाभी से कभी कुछ नहीं कहती.

सुशांत का खयाल था कि धीरेधीरे सुधांशी खुद ही कामों में हाथ बंटाने लगेगी, लेकिन सुधांशी घर का कोई भी काम नहीं करती थी. उस की लापरवाही को देख कर सुशांत ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो सुशी, गरिमा मेरी छोटी बहन है. उस के सिर पर पढ़ाई का बोझ है और फिर इस उम्र में मां से भी ज्यादा काम नहीं हो पाता. तुम कामकाज में गरिमा का हाथ बंटा दिया करो.’’

‘‘भई, मैं ने तो अपने मायके में कभी एक गिलास पानी का भी नहीं उठाया और फिर मैं ने नौकरानी बनने के लिए तो शादी नहीं की,’’ अदा से अपने बाल संवारती हुई सुधांशी ने जवाब दिया.

सुशांत को उस से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद न थी. फिर भी उस ने गुस्से पर काबू करते हुए कहा, ‘‘घर का काम करने से कोई नौकरानी नहीं बन जाती, फिर नारी का पूर्ण सौंदर्य तो इसी में है कि वह अपने साथसाथ घर को भी संवारे.’’

सुधांशी ने उस की बात का कोई जवाब न दिया और मुंह फेर कर सो गई. सुशांत ने चुप रहना ही उचित समझा. सुबह जब वह उठी तो सुशांत दफ्तर जा चुका था. सुधांशी को ऐसी उम्मीद तो जरा भी न थी. उस ने तो सोचा था कि सुशांत उसे मनाएगा. दिनभर बिना कुछ खाएपीए कमरा बंद कर के लेटी रही. गरिमा ने उसे खाना खाने के लिए कहा भी, मगर उस ने मना कर दिया.

‘‘भाभी सुबह से भूखी हैं, उन्होंने कुछ नहीं खाया,’’ शाम को सुशांत के लौटने पर गरिमा ने उसे बताया.

सुशांत तुरंत उस के कमरे में गया और स्नेह से सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘क्या अभी तक नाराज हो. चलो, खाना खा लो.’’

‘‘मुझे भूख नहीं है, तुम खा लो.’’

‘‘अगर तुम नहीं खाओगी तो मैं भी कुछ नहीं खाऊंगा. अगर तुम चाहती हो कि मैं भी भूखा ही सो जाऊं तो तुम्हारी मरजी.’’

‘‘अच्छा चलो, मैं खाना लगाती हूं,’’ मुसकराते हुए सुधांशी उठी. बात आईगई हो गई. इस के बाद तो जैसे उसे और भी छूट मिल गई. रोज नईनई फरमाइशें करती. खाली वक्त में घूमने चली जाती. घर का उसे जरा भी खयाल न था. कई बार सुशांत के मन में आता कि उसे डांटे लेकिन फिर मन मार कर रह जाता.

आज सुशांत को दफ्तर जाने में पहले ही देर हो रही थी. उस ने कमीज निकाली तो देखा, उस में बटन नहीं थे. झल्ला कर सुधांशी को आवाज दी, ‘‘तुम घर में रह कर सारा दिन आईने के आगे खुद को निहारती हो, कभी और कुछ भी देख लिया करो. मेरी किसी  भी कमीज में बटन नहीं हैं. क्या पहन कर दफ्तर जाऊंगा?’’

‘‘लेकिन मुझे तो बटन लगाना आता ही नहीं. गरिमा से लगवा लो.’’

‘‘तुम्हें आता ही क्या है? सिर्फ शृंगार करना,’’ कह कर सुशांत बिना बटन लगवाए ही दफ्तर चला गया.

आज उस का मन दफ्तर में जरा भी नहीं लग रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि शादी कर के भी वह संतुलनपूर्ण जीवन नहीं बिता पा रहा है. उस ने जैसी पत्नी की कल्पना की थी उस का एक अंश भी उसे सुधांशी में नहीं मिल पाया था. दिखने में तो सुधांशी सौंदर्य की प्रतिमा थी. किसी बात की कोई कमी न थी, उस के रूप में. लेकिन जीवन बिताने के लिए उस ने सिर्फ सौंदर्य प्रतिमा की कल्पना नहीं की थी. उस ने ऐसे जीवनसाथी की कल्पना की थी जो मन से भी सुंदर हो, जो उस का खयाल रख सके, उस की भावनाओं को समझ सके.

‘‘अरे यार, क्या भाभी की याद में खोए हुए हो?’’ हर्षल की आवाज ने उसे चौंका दिया.

‘‘हां, नहीं, नहीं तो.’’

‘‘यों हकला क्यों रहे हो? क्या शादी के बाद हकलाना भी शुरू कर दिया?’’ हर्षल ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘कभी भाभीजी को घर भी ले कर आओ या उन्हें घर में छिपा कर ही रखोगे?’’

‘‘नहीं यार, यह बात नहीं है. किसी दिन समय निकाल कर हम दोनों जरूर आएंगे,’’ सुशांत ने उठते हुए कहा.

आज उस का मन घर जाने को नहीं हो रहा था. खैर, घर तो जाना ही था. बेमन से घर चल दिया.

‘‘भैया, तुम्हारे जाने के बाद भाभी मायके चली गईं,’’ घर पहुंचते ही गरिमा ने बताया.

‘‘बहू बहुत गुस्से में लग रही थी, बेटा, क्या तुम से कोई बात हो गई?’’ मां ने घबराते हुए पूछा.

‘‘नहीं, नहीं तो, यों ही चली गई होगी. बहुत दिन हो गए न उसे अपने मातापिता से मिले,’’ सुशांत ने बात संभालते हुए कहा.

‘‘भैया, तुम्हारा खाना लगा दूं?’’

‘‘नहीं, आज भूख नहीं है मुझे,’’ कह कर सुशांत अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. बिस्तर पर अकेले लेटेलेटे उसे सुधांशी की बहुत याद आ रही थी.

याद करने पर बीते हुए सुख के लमहे भी दुख ही देते हैं. ऐसा ही कुछ सुशांत के साथ भी हो रहा था. सुशांत जानता था कि जब तक वह सुशी को लेने नहीं जाएगा वह वापस नहीं आएगी. लेकिन वह ही उसे लेने क्यों जाए? गलती तो सुशी की है. जब उसे ही परवा नहीं, तो वह भी क्यों चिंता करे? लेकिन उस का मन नहीं मान रहा था. बिस्तर से उठ कर गैलरी में आ कर टहलने लगा.

सोचने लगा कि अगर वह सुशी की तरह जिद करेगा तो बात और बिगड़ जाएगी. अगर उसे अपने फर्ज का एहसास नहीं तो क्या वह भी अपना फर्ज भूल जाएगा? उसे सुशी के साथ किए गए अपने व्यवहार पर गुस्सा आने लगा था. इसी कशमकश में उसे पता ही नहीं चला कि सूरज निकल आया और उस ने पूरी रात यों ही काट दी.

आज उस का दफ्तर जाने को बिलकुल मन नहीं हो रहा था. मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वह सुधांशी को समझा कर वापस ले आएगा. सुशी के बिना उसे एकएक पल भारी पड़ रहा था. उसे लग रहा था कि उस की दुनिया एक वृत्त के सहारे घूमती रहती है, जिस का केंद्रबिंदु सुशी है.

उधर सुशी भी कम दुखी न थी. लेकिन उस का अहं उस के और सुशांत के बीच दीवार बन कर खड़ा था. उसे लग रहा था जैसे हर पल सुशांत उस का पीछा करता रहा हो या शायद वह ही सुशांत के इर्दगिर्द मंडराती रही हो. अपने खयालों में खोई हुई ही थी कि मां ने बताया, ‘‘नीचे सुशांत आया है. तुम्हें बुला रहा है.’’

उसे तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. जल्दीजल्दी तैयार हो कर नीचे आई.

‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं. अगर तुम खुशी से अपने मांबाप के पास रहने आई हो, तो ठीक है, लेकिन अगर नाराज हो कर आई हो तो अपने घर वापस चलो,’’ सुशांत ने अधिकार से सुधांशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

सुशांत को इस तरह मिन्नत करते देख उस के मन में फिर अहं जाग उठा, ‘‘मैं उस घर में बिलकुल नहीं जाऊंगी.

तुम इसलिए ले जाना चाहते हो ताकि अपनी मांबहन के सामने मुझे लज्जित कर सको.’’

‘‘तुम पत्नी हो मेरी और तुम्हारा पति होने के नाते इतना तो हक है मुझे कि तुम्हारा हाथ पकड़ कर जबरदस्ती ले जा सकूं. बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं. अपना सामान बांध कर आ जाओ,’’ कह कर सुशांत कमरे से बाहर निकल गया.

जाने की खुशी तो सुधांशी को भी कम नहीं थी, वह तो सुशांत पर सिर्फ यह जताना चाहती थी कि उसे उस का घर छोड़ने का कोई अफसोस नहीं था.

घर पहुंच कर सुशांत ने सुधांशी को कुछ नहीं कहा. मामला शांत हो गया. अब तो सुशांत ने उसे टोकना भी बंद कर दिया था.

एक दिन सुशांत दफ्तर से लौटा तो देखा, मां रसोई में काम कर रही हैं. पूछने पर पता चला कि गरिमा काम करते हुए फिसल गई थी. पैर में चोट आई है. डाक्टर पट्टी बांध गया है.

‘‘सुधांशी कहां है, मां?’’ सुधांशी को घर में न देख कर सुशांत ने पूछा.

मां ने थोड़े गुस्से में कहा, ‘‘बहू तो सुबह से अपनी किसी सहेली के यहां गई हुई है.’’

शाम के 7 बज रहे थे और सुधांशी का कोई पता न था. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला. सामने सुधांशी खड़ी थी.

‘‘अफसोस है, हम लोग फिल्म देखने चले गए थे. लौटतेलौटते थोड़ी देर हो गई. बहुत थक गई हूं आज,’’ पर्स कंधे से उतारते हुए सुधांशी ने कहा.

सुशांत चुप ही रहा. उस ने सुधांशी से कुछ नहीं कहा.

अगले दिन जब सुधांशी कमरे से बाहर आई तो डाक्टर को आते हुए देखा.

‘‘मांजी, अपने यहां कौन बीमार है?’’ उस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘गरिमा के पैर में चोट लगी है,’’ मां ने सपाट लहजे में उत्तर दिया.

‘‘गरिमा को चोट लगी है और किसी ने मुझे बताया भी नहीं?’’

‘‘तुम्हें शायद सुनने की फुरसत नहीं थी, बहू,’’ मां के स्वर की तल्खी को सुधांशी ने महसूस कर लिया था.

वह तुरंत गरिमा के पास गई, ‘‘अब कैसी हो, गरिमा?’’

‘‘ठीक हूं, भाभी,’’ धीमे स्वर में गरिमा ने जवाब दिया.

‘‘मुझे तो तुम्हारे भैया ने भी कुछ नहीं बताया तुम्हारी चोट के बारे में,’’ सुधांशी ने थोड़ा झेंपते हुए कहा.

‘‘उन्होंने तुम्हें परेशान नहीं करना

चाहा होगा, भाभी,’’ गरिमा ने बात टालते हुए कहा.

मगर आज सुधांशी को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अजनबी हो कर रह गई है. शायद घर वालों की बेरुखी का कारण उसे मालूम था, लेकिन वह जानबूझ कर ही अनजान बनी रहना चाहती थी.

शाम को सुशांत लौटा तो उस ने शिकायत भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं कि गरिमा को चोट लगी है?’’

‘‘तुम पहले ही थकी हुई थीं,’’ सुशांत ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘और हां, आज शाम को मेरे एक दोस्त ने हमें खाने पर बुलाया है. तैयार हो जाना.’’

घूमने की बात सुनते ही सुधांशी खुश हो गई. जल्दी से अंदर जा कर तैयार होने लगी. एक पल उसे गरिमा की चोट का खयाल भी आया मगर फिर उस ने नजरअंदाज कर दिया.

‘‘भई, खाने में मजा आ गया. भाभीजी तो बहुत अच्छा खाना पकाती हैं,’’ सुशांत ने उंगलियां चाटते हुए कहा, ‘‘तुम तो बहुत खुशकिस्मत हो, हर्षल, जो तुम्हें इतना अच्छा खाने को मिल रहा है.’’

‘‘यार, तुम भी तो कम नहीं हो. इतनी सुंदर भाभी हैं हमारी. जितनी सुंदर वे खुद हैं उतना ही अच्छा खाना भी पकाती होंगी,’’ हर्षल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अमिता, खाना तो हो गया है. अब जरा हम लोगों के लिए कुछ मिठाई भी ले आओ.’’

अमिता मिठाई लाने चली गई, ‘‘और भाभीजी, अब आप कब हमें अपने हाथ का बना खाना खिला रही हैं?’’ हर्षल ने सुधांशी से पूछा.

सुधांशी ने सुशांत की तरफ देखा और झेंप गई. अमिता का घर देख कर उसे खुद पर शर्म आ रही थी. अमिता सांवली थी और दिखने में भी कोई खास न थी, लेकिन उस ने अपना पूरा घर जिस सलीके से सजा रखा था उस से उस की सुंदरता का परिचय मिल रहा था. सारा खाना भी अमिता ने खुद ही बनाया था. लेकिन उस ने तो कभी खाना बनाने की जरूरत ही नहीं समझी थी. सुशांत को इस तरह अमिता के खाने की प्रशंसा करते देख उसे शर्मिंदगी का एहसास हो रहा था. तभी अमिता मिठाई ले आई. सब को देने के बाद एक टुकड़ा फालतू बचा था, ‘‘लो हर्षल, इसे तुम ले लो,’’ अमिता ने मिठाई हर्षल को देते हुए कहा.

‘‘भई, नहीं, तुम ने इतनी मेहनत की है, इस पर तुम्हारा ही हक है,’’ इतना कह कर हर्षल ने मिठाई का टुकड़ा अमिता के मुंह में रख दिया.

आधा टुकड़ा अमिता ने खाया और आधा हर्षल को खिलाती हुई बोली, ‘‘मेरी हर चीज में आधा हिस्सा तुम्हारा भी है.’’

यह देख सभी लोग हंस पड़े.

सुधांशी उन दोनों को बहुत गौर से देख रही थी. आज उस का परिचय प्यार के एक नए रूप से हो रहा था. यह भी तो प्यार है कितना पवित्र, एकदूसरे के लिए समर्पण की भावना लिए हुए. उसे महसूस हो रहा था कि प्यार सिर्फ वह नहीं जो रात के अंधेरे में किया जाए. प्यार के तो और भी रूप हो सकते हैं. लेकिन उस ने तो कभी सुशांत की पसंद जानने की भी कोशिश न की. उस ने तो हमेशा अपनी आकांक्षाओं को ही महत्त्व दिया.

‘‘चलो, हम दूसरे कमरे में बैठ कर बातें करते हैं, ये लोग तो अपने दफ्तर की बातें करेंगे,’’ अमिता ने सुधांशी को उठाते हुए कहा.

अमिता और सुधांशी के विचारों में जमीनआसमान का फर्क था. अमिता घर के बारे में बातें कर रही थी, जबकि सुधांशी ने कभी घर के बारे में कुछ सोचा ही नहीं था. तभी अमिता ने कहा, ‘‘बड़ी सुंदर साड़ी है तुम्हारी, क्या सुशांत ने ला कर दी है?’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ चौंक सी गई सुधांशी, ‘‘मैं ने खुद ही खरीदी है.’’

‘‘भई, ये तो मुझे कभी खुद लाने का मौका ही नहीं देते. इस से पहले कि मैं लाऊं ये खुद ही ले आते हैं. लेकिन इस बार मैं ने भी कह दिया है कि अगर मेरे लिए साड़ी लाए तो बहुत लड़ूंगी. हमेशा मेरा ही सोचते हैं. यह नहीं कि कभी कुछ अपने लिए भी लाएं. इस बार मैं उन्हें बिना बताए उन के लिए कपड़े ले आई. दूसरों की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है वह अपनी इच्छाएं पूरी करने में नहीं है.’’

‘‘चलो, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सुशांत ने उस की बातों में खलल डालते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अब चलते हैं. किसी दिन आप लोग भी समय निकाल कर आइए न,’’ सुधांशी ने चलते हुए कहा.

आज हर्षल के घर से लौटने पर सुधांशी के मन में हलचल मची हुई थी. उस के कानों में अमिता के स्वर गूंज रहे थे, ‘एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है, अपनी इच्छाएं पूरी करने में वह नहीं है.’

लेकिन उस ने तो कभी दूसरों की जरूरतों को जानना भी नहीं चाहा था. उस ने तो यह भी नहीं सोचा कि घर में किस चीज की जरूरत है और किस की नहीं? और एक अमिता है, सुंदर न होते हुए भी उस से कहीं ज्यादा सुंदर है. जिम्मेदारियों के प्रति अमिता की सजगता देख कर सुधांशी के मन में ग्लानि का अनुभव हो रहा था.

‘‘अमिता भाभी, बहुत अच्छी हैं न,’’ सुधांशी ने मौन तोड़ते हुए कहा.

‘‘हां,’’ सुशांत ने ठंडी आह छोड़ते हुए कहा.

उस रात सुधांशी चैन से सो न सकी. सुबह उठी तो उसे तेज बुखार था. सुशांत ने तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने दवा दे दी. सुधांशी को आराम करने के लिए कह कर सुशांत दफ्तर चला गया. सुधांशी को बुखार के कारण सिर में बहुत दर्द था. तभी गरिमा लड़खड़ाते हुए आई, ‘‘कैसी तबीयत है, भाभी? लाओ, तुम्हारा सिर दबा दूं,’’ कह कर सिर दबाने लगी.

मां भी बहुत चिंतित थीं. समयसमय पर मां दवा दे रही थीं. आज सुधांशी को महसूस हो रहा था कि उस ने कभी भी इन लोगों की तरफ ध्यान नहीं दिया, लेकिन फिर भी उस के जरा से बुखार ने किस तरह सब को दुखी कर दिया. अपने पैर में चोट होने के बावजूद गरिमा उस का कितना ध्यान रख रही थी. मां भी कितनी परेशान थीं उस के लिए?

3-4 दिन में सुधांशी ठीक हो गई. आज वह सुशांत से पहले ही उठ गई थी. चाय बना कर सुशांत के पास आई, ‘‘उठिए जनाब, चाय पीजिए, आज दफ्तर नहीं जाना है क्या?’’

सुशांत को तो अपनी आंखों पर यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न, आज इतनी जल्दी कैसे जाग गईं?’’ उस ने हड़बड़ाते हुए पूछा.

‘‘जल्दी कहां, मेरी आंखें तो बहुत देर में खुलीं,’’ शून्य में देखते हुए सुधांशी ने कहा.

आज उस ने घर के सारे काम खुद ही किए थे. काम करने में मुश्किल तो बड़ी हो रही थी, मगर फिर भी यह सब करना उसे अच्छा लग रहा था. आज वह पहली बार नाश्ता बनाने के लिए रसोई में आई थी.

‘‘मांजी, आज से नाश्ता मैं बनाया करूंगी,’’ मांजी के हाथ से बरतन लेते हुए सुधांशी ने कहा.

‘‘बहू, तुम नाश्ता बनाओगी?’’ मां ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं जानती हूं, मांजी, मुझे कुछ बनाना नहीं आता, लेकिन आप मझे सिखाएंगी न? बोलिए न मांजी, आप सिखाएंगी मुझे?’’

‘‘हां बहू, अगर तुम सीखना चाहोगी तो जरूर सिखाऊंगी.’’

आज सुशांत को बड़ा अजीब लग रहा था. उस का सारा सामान उसे जगह पर मिल गया था. कपड़े भी सलीके से रखे हुए थे. जब तैयार हो कर नाश्ते के लिए आया तो सुधांशी को नाश्ता लाते देख चौंक गया.

‘‘आज तुम ने नाश्ता बनाया है क्या?’’

‘‘क्यों? मेरे हाथ का बना नाश्ता क्या गले से नीचे नहीं उतर पाएगा?’’ मुसकराते हुए सुधांशी बोली.

‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सैंडविच उठाते हुए सुशांत बोला, ‘‘सैंडविच तो बड़े अच्छे बने हैं. तुम ने खुद बनाए हैं?’’ सुशांत ने पूछा, फिर कुछ रुपए देते हुए बोला, ‘‘तुम कल अपनी साडि़यों के लिए पैसे मांग रही थीं न, ये रख लो.’’

सुशांत के दफ्तर जाने के बाद जब सुधांशी ने सैंडविच चखे तो उस से खाए नहीं गए. नमक बहुत तेज हो गया था. उसे सुशांत का खयाल आ गया, जो इतने खराब सैंडविच खा कर भी उस की तारीफ कर रहा था, शायद उस का दिल रखने के लिए सुशांत ने ऐसा किया था. उस की पलकें भीग गईं. प्यार की भावना को देख कर उस का मन श्रद्धा से भर उठा.

उस ने जल्दीजल्दी सारा काम खत्म किया. घर का काम करने में आज उसे अपनत्व का एहसास हो रहा था. फिर उसे सुशांत के दिए गए पैसों का खयाल आया. उस ने गरिमा को साथ लिया

और बाजार गई. सुशांत के दफ्तर से लौटने से पहले उस ने सारा काम निबटा लिया था.

‘‘अपनी साडि़यां ले आईं?’’ शाम को चाय पीतेपीते सुशांत ने पूछा.

‘‘मेरे पास साडि़यों की कमी कहां है? आज तो मैं ढेर सारा सामान ले कर आई हूं,’’ इतना कह कर उस ने सारा सामान सुशांत के सामने रख दिया, ‘‘यह मां की साड़ी है, यह गरिमा का सूट और यह तुम्हारे लिए.’’

सुशांत उसे अपलक निहार रहा था. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही सुधांशी है, जिसे अपनी जरूरतों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था. आज उसे सुधांशी पहले से कहीं अधिक सुंदर लगने लगी थी.

‘‘अपने लिए कुछ नहीं लाईं?’’ प्यार से पास बिठाते हुए सुशांत ने पूछा.

‘‘क्या तुम सब लोग मेरे अपने नहीं हो? सच तो यह है कि आज पहली बार ही मैं अपने लिए कुछ ला पाई हूं. यह सामान ला कर जितनी खुशी मुझे हुई है उतनी कई साडि़यां ला कर भी न मिल पाती. सच, आज ही मैं प्यार का वास्तविक मतलब समझ पाई हूं.

‘‘प्यार एक भावना है, समर्पण की चेतना, खो जाने की प्रक्रिया, मिट जाने की तमन्ना. इस का एहसास शरीर से नहीं होता, अंतर्मन से होता है, हृदय ही उस का साक्षी होता है,’’ कह कर सुधांशी ने अपना सिर सुशांत के सीने पर रख दिया.

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