Mother’s Day Special: जिद- मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

Mother’s Day Special: जिद- भाग 1- क्यों मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

रेवा अपनी मां की मृत्यु का समाचार पा कर ही हिंदुस्तान लौटी. वह तो भारत को लगभग भूल ही चुकी थी और पिछले कई वर्षों से लास एंजिल्स में रह रही थी. उस ने वहीं की नागरिकता ले ली थी. पिता के न रहने पर करीब 15 वर्ष पूर्व रेवा भारत आई थी. यह तो अच्छा हुआ कि छोटी बहन रेवती ने उसे तत्काल मोबाइल पर मां के न रहने का समाचार दे दिया था. इस से उसे अगली ही फ्लाइट का टिकट मिल गया और वह अपने सुपरबौस की मेज पर 15 दिन की छुट्टी की अप्लीकेशन रख कर, तत्काल फ्लाइट पकड़ने निकल गई. मां का अंतिम संस्कार उसी की वजह से रुका हुआ था. सख्त जाड़े के दिन थे. घाट पर रेवा, रेवती और उस के पति तथा परिवार के अन्य दूरपास के सभी नातेरिश्तेदार भी पहुंचे हुए थे. यद्यपि घाट पर छोटे चाचा और मौसी का बड़ा लड़का भी मौजूद थे लेकिन इस का समाधान घाट के पंडितों द्वारा ढूंढ़ा जा रहा था कि दोनों बहनों में से किस के पास मां को मुखाग्नि देने का अधिकार अधिक सुरक्षित है, तभी रेवती ने प्रस्तावित किया, ‘‘पंडितजी, मां को मुखाग्नि देने का काम बड़ी बेटी होने के कारण रेवा दीदी करेंगी. उन्होंने ही हमेशा मां के बड़े बेटे होने का फर्ज निभाया है.’’

काफी देर बहस होती रही. आखिर में बड़ी जद्दोजेहद के बाद यह निर्णय हुआ कि यह कार्य रेवा के हाथों ही संपन्न करवाया जाए. हमेशा जींसटौप पहनने वाली रेवा, आज घाट पर पता नहीं कहां से मां की साड़ी पहन कर आई थी और एकदम मां जैसी ही लग रही थी. ऐसा लग रहा था कि मां से हमेशा खफाखफा रहने वाली रेवा के मन पर मां के चले जाने का कुछ तो असर जरूर हुआ है. अगले 3-4 दिन बड़ी व्यस्तता में बीते. मां की मृत्यु के बाद के सभी संस्कार विधिविधान से संपन्न किए गए. पंडितों के अनुसार, बरसी का हवनयज्ञ आदि 10 दिन से पहले करना संभव नहीं होगा. रेवा के वापस जाने से 2 दिन पूर्व की तिथि नियत की गई. अगले दिन रेवती ने घर की साफसफाई की जिम्मेदारी संभाल ली. रेवा ने पहले ही कह दिया, ‘‘तू मां की लाड़ली बिटिया थी, इसलिए मां का ये घर, सामान, जमीनजायजाद व धनसंपत्ति, अब तू ही संभाल. न तो मेरे पास इतनी फुरसत है, न ही मुझे इस की जरूरत. और सुन, अब मैं इंडिया नहीं आ सकूंगी, इसलिए अपने पति शरद से पूछ कर, अगर कहीं मेरे हस्ताक्षर की जरूरत हो तो अभी करा ले.

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आखिर तू ही तो मां की असली वारिस है. मैं तो वर्षों पहले यहां से विदेश चली गई और वहीं की ही हो कर रह गई. तू ने ही मां और पापा की देखभाल की है, उन्हें संभाला है. समझी कि नहीं, रेवती की बच्ची.’’ रेवा दीदी के मुंह से काफी दिनों बाद ‘रेवती की बच्ची’ सुन कर रेवती को बड़ा अच्छा लगा जैसे बचपन के कुछ क्षण फिर से वापस आने को आतुर हों. घर की साफसफाई के बाद मां का सामान ठीक करने का नंबर आया. उन के कपड़े करीने से, बड़े सलीके से और तरतीबवार उन के वार्डरोब में हैंगर पर लटके हुए थे. शेष साडि़यां, ब्लाउज व पेटीकोट का सैट बना कर पौलिथीन में पैक कर के रखे हुए थे. मां ऐसी ही थीं, हर चीज उन्हें कायदे से रखने की आदत या यह कहो मीनिया था और वे यह चाहती थीं कि उन की बेटियां भी अपना घर उसी तरह सजासंवरा व सुव्यवस्थित रखें. बचपन में अगर नहाने के बाद तौलिया एक मिनट के लिए सही जगह फैलाने से रह जाता, तो समझो हम लोगों की शामत आ जाती थी. पापा थोड़े लापरवाह किस्म के इंसान थे और रेवा भी उन पर ही गई थी. सो, वे दोनों अकसर मां की डांट खाते रहते थे.

आखिर में, मां की बुकशैल्फ ठीक करने का नंबर आया. मां की रुचि साहित्यिक थी और जहां कहीं भी कोई अच्छी किताब उन्हें नजर आ जाती, वे उसे खरीदने में तनिक भी देर न लगातीं. इस प्रकार धीरेधीरे मां के पास दुर्लभ साहित्य का खजाना एकत्र हो गया था. बुकशैल्फ झाड़पोंछ कर किताबों को लगातेलगाते रेवती को किताबों के पीछे एक काले रंग की डायरी दिखाई दी जिस पर लिखा था, ‘सिर्फ प्रिय रेवा के लिए.’ रेवती कुछ देर उस डायरी को उलटपलट कर देखती रही. डायरी इस तरह सील थी कि उसे खोलना आसान नहीं था. रेवती ने डायरी झाड़पोंछ कर रेवा दीदी को पकड़ा दी.

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रेवा सोफे पर पसरी हुई थी, उस ने उचक कर पूछा, ‘‘यह क्या है?’’ ‘‘मां तेरे लिए एक डायरी छोड़ गई हैं, रख ले,’’ रेवती ने कहा. रेवा थोड़ी देर उस डायरी को उलटपलट कर देखती रही, फिर उस ने उसे वैसा ही रख दिया. उसे चाय की तलब लगी थी, उस ने रेवती से चाय पीने के लिए पूछा तो चाय बनाने किचन में चली गई. सोचने लगी कि मां ने पता नहीं, डायरी में क्या लिखा होगा. मां को तो जो कुछ लिखना था, रेवती को लिखना चाहिए था, आखिर वह उस की ‘ब्लूआइड’ बेटी जो थी.

रेवा सोचने लगी, ‘मां तो वैसे भी रेवती को ही चाहती थीं, मुझे तो उन्होंने हमेशा अपने से दूर ही रखा. पता नहीं मैं उन की सगी बेटी हूं भी या नहीं.’ फिर सोचने लगी कि चलो, अब तो मां चली ही गई, अब उन से क्या शिकवाशिकायत करना. उसे आज तक, बल्कि अभी तक, समझ में नहीं आया कि मां सब से तो अच्छी तरह बोलतीबतियाती थीं, पर उस के साथ हमेशा कठोर क्यों बन जाती थीं. रेवा शुरू से पढ़ने में बड़ी तेज थी और अपनी क्लास में हमेशा टौप करती, जबकि रेवती औसत दर्जे की स्टूडैंट थी. मां रेवती को रोज जबरदस्ती पढ़ाने बैठतीं और उस पर मेहनत करतीं, तब जा कर वह किसी तरह क्लास में पास होती थी. उधर, रेवा ने अपने स्कूलकालेज में मार्क्स लाने के कितने ही कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए और ऐसे नए मानक गढ़ दिए जिन का टूटना असंभव सा था. स्कूलकालेज में रेवा पिं्रसिपल व टीचर के प्यार से ज्यादा, इज्जत की हकदार बन बैठी थी. उस के क्लासमेट उस की ज्ञान की वजह से उस से एक तरह से डरते थे और एक दूरी बना कर ही रखते थे और इन्हीं कारणों से उस की कोई अच्छी सहेली भी नहीं बन सकी.

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Mother’s Day Special: जिद- भाग 3- क्यों मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

‘‘दीदी, चाय बना रही हूं, पियोगी.’’ रेवती की आवाज सुन कर रेवा वापस वर्तमान में लौट आई. उसे लगा कि बचपन की कड़वाहट फिर से मुंह को कसैला कर गई. कई बार रेवा मन को समझा चुकी है कि मां के जाने के बाद उसे अब सबकुछ भूल जाना चाहिए. परंतु वह क्या करे, मन के बेलगाम घोड़े अब भी उसी जानीपहचानी व अनचाही राह पर निकल पड़ते हैं. मां की बरसी के बाद रेवा ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. रेवती के बहुत कहने के बाद, उस ने मां के कपड़ों में से 1-2 साडि़यां रख लीं और मां की 1-2 छोटीबड़ी तसवीरें. आखिर नियत तिथि पर रेवा चली गई. यद्यपि उस ने लाख मना किया, पर रेवती व उस का पति राकेश उसे एअरपोर्ट तक छोड़ने आए. उस का छोटा बच्चा रेवा मौसी की गोद में ही बैठा रहा और लगातार उस से पूछता रहा, ‘‘मौसी, आप फिर कब आओगी?’’ रेवा उस नन्हे से, फिर से आने का वादा कर के सिक्योरिटी चैक से अंदर चली गई. उसे लगा कि जितना वह इन बंधनों को भूलना चाहती है, एक नया मोहपाश उसे बांधने को तैयार खड़ा मिलता है.

वैब चौइस से उसे प्लेन में अच्छी सीट मिल गई थी और वह सामान रख कर सोने के लिए पसर गई. 1-2 घंटे की गहरी नींद के बाद रेवा की आंख खुल गई. पहले सीट के सामने वाली टीवी स्क्रीन पर मन बहलाने की कोशिश करती रही, फिर बैग से च्युंगम निकालने के लिए हाथ डाला तो साथ में मां की वह डायरी भी निकल आई. मन में आया कि देखूं, आखिर मां मुझ से क्या कहना चाहती थीं जो उन्हें इस डायरी को लिखना पड़ गया. कुछ देर सोचने के बाद उस ने उस पर लगी सील को खोल डाला और समय काटने के लिए पन्ने पलटने शुरू किए. एक बार पढ़ने का सिलसिला जब शुरू हुआ तो अंत तक रुका ही नहीं. पहले पेज पर लिखा, ‘‘सिर्फ अपनी प्रिय रेवा के लिए,’’ दूसरे पन्ने पर मोती के जैसे दाने बिखरे पड़े थे. लिखा था, ‘‘मेरी प्रिय छोटी सी लाडो बिटिया, मेरी जान, मेरी रेवू, जब तुम यह डायरी पढ़ रही होगी, मैं तुम्हारे पास नहीं हूंगी. इसीलिए मैं तुम्हें वह सबकुछ बताना चाहती हूं जिस की तुम जानने की हकदार हो.

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‘‘मैं अपने मन पर कोई बोझ ले कर जाना नहीं चाहती और तुम मेरी बात समझने तो क्या, सुनने के लिए भी तैयार नहीं थी. सो, जातेजाते अपनी वसीयत के तौर पर यह डायरी दे कर जा रही हूं क्योंकि तुम हमारी पहली संतान हो तुम, जैसी नन्ही सी परी पा कर मैं और तुम्हारे पापा निहाल हो उठे थे.

‘‘धीरेधीरे मैं तुम में अपना बचपन तलाशने लगी. छोटी होने के नाते मैं जिस प्यार व चीजों से महरूम रही, वे खिलौने, वे गेम मैं ढूंढ़ढूंढ़ कर तेरे लिए लाती थी. जब तुम्हारे पापा कहते, ‘तुम भी बच्चे के साथ बच्चा बन जाती हो,’ सुन कर ऐसा लगता कि मेरा अपना बचपन फिर से जी उठा है. धीरेधीरे मैं तुम में अपना रूप देखने लगी और तुम्हारे साथ अपना बचपन जीने लगी. जो कुछ भी मैं बचपन में नहीं हासिल कर पाई थी, अब तलाश करने की कोशिश करने लगी. ‘‘समय के साथ तुम बड़ी होने लगी और मेरी फिर से अपना बचपन सुधारने की ख्वाहिश बढ़ने लगी. तुम पढ़ने में बहुत तेज थी. प्रकृति ने तुम्हें विलक्षण बुद्धि से नवाजा था. तुम हमेशा क्लास में प्रथम आती और मुझे लगता कि मैं प्रथम आई हूं. यहां तुम्हें यह बताना चाहती हूं कि मैं बचपन से ही पढ़ाई में काफी कमजोर थी, पर तुम्हें यह बताती रही कि मैं भी हमेशा तुम्हारी तरह कक्षा में प्रथम आती थी. इसीलिए मेरे मन में एक ग्रंथि बैठ गई थी कि मैं तुम्हारे द्वारा अपनी उस कमी को पूरा करूंगी.

‘‘समय के साथसाथ मेरी यह चाहत सनक बनती चली गई और मैं तुम पर पढ़ाई के लिए अधिक से अधिक जोर डालने लगी. जब मुझे लगा कि घर पर तुम्हारी पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाएगी, तो मैं ने तुम्हारे पापा के लाख समझाने को दरकिनार कर छोटी उम्र में ही तुम्हें होस्टल में डाल दिया. इस तरह मैं ने तुम्हारा बचपन छीन लिया और तुम भी धीरेधीरे मशीन बनती चली गई. दूसरी तरफ रेवती पढ़ने में कमजोर थी और मैं उसे खुद ले कर पढ़ाने बैठने लगी. जरा सी डांट पर रो देने वाली रेवती, हमारे प्यारदुलार का ज्यादा से ज्यादा हकदार बनती चली गई और मुझे पता ही नहीं चला. और तो और, मुझे पता नहीं चला कि कब तुम्हारे हिस्से का प्यार भी रेवती के हिस्से में जाने लगा. ‘‘तुम्हारे लिए अपना प्यार जताने का हमारा तरीका थोड़ा अलग था. मैं सब के सामने तुम्हारी तारीफों के कसीदे पढ़ कर, उस पर गर्व करने को ही प्यार देना समझती रही. पर सच जानो रेवू, मैं तुम्हें उस से भी ज्यादा प्यार करती थी जितना कि रेवती को करती थी. पर क्या करूं, यह कभी बताने या दिखाने का मौका ही नहीं मिल सका या हो सकता है कि मेरा प्यार दिखाने या जताने का तरीका ही गलत था.

‘‘जैसेजैसे तुम बड़ी होती गई, तुम्हारे मन में धीरेधीरे विद्रोह के स्वर उभरने लगे. मैं तुम्हें आईएएस बनाना चाहती थी जिस से अपनी हनक अपने जानपहचान, नातेरिश्तेदारों व दोस्तों पर डाल सकूं. पर तुम ने इस के लिए साफ इनकार कर दिया और प्रतियोगिता के कुछ प्रश्न जानबूझ कर छोड़ दिए. तुम्हारी या कहो मेरी सफलता में कोई बाधा न आए, इसलिए मैं ने तुम्हें किसी लड़के से प्यारमुहब्बत की इजाजत भी नहीं दी थी. पर तुम ने उस में भी सेंध लगा दी और विद्रोह के स्वर तेज कर दिए और सरस से चुपचाप विवाह कर लिया.

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‘‘तुम तो विलक्षण प्रतिभा की धनी थी, इसलिए एक मल्टीनैशनल कंपनी ने तुम्हें हाथोंहाथ ले लिया. पर तुम ने अपनी मां के एक बड़े सपने को चकनाचूर कर दिया. इस के बाद तो तेरी मां ने सपना ही देखना बंद कर दिया. समय के साथ, मैं ने तुम्हारे पति को भी स्वीकार कर लिया और सबकुछ भूल कर तुम्हारे कम मिले प्यार की भरपाई करने में जुट गई. पर अब तुम इस के लिए तैयार नहीं थी, तुम्हारे मन में पड़ी गांठ, जिसे मैं खोलने या कम से कम ढीला करने की कोशिश कर रही थी, उसे तूने पत्थर सा कठोर बना लिया था. हां, अपने पापा के साथ तुम्हारा व्यवहार सदैव मीठा, स्नेहपूर्ण व बचपन जैसा ही बना रहा. ‘‘तुम्हारी यह बेरुखी या अनजानेपन वाला व्यवहार मेरे लिए सजा बनता गया, जिसे लगता है मैं अपने मरने के बाद भी साथ ले कर जाऊंगी. पर रेवू, कभी तूने सोचा कि मैं भी तो एक मां हूं और हर मां की तरह मेरा दिल भी अपने बच्चों के प्यार के लिए तरसता होगा. तुम और रेवती दोनों मेरी भुजाओं की तरह हो और मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैं ने अपने दाएं हाथ, अपनी रेवी पर ज्यादा भरोसा कर लिया. हर मां की तरह मेरे मन में भी कुछ अरमान थे, कुछ सपने थे जिन्हें मैं ने तुम्हारी आंखों से देखने की कोशिश की. अगर इस के लिए मैं गुनाहगार हूं, तो मैं अपना गुनाह स्वीकार करती हूं. पर अफसोस तूने तो बिना कुछ मेरी सफाई सुने, मेरे लिए मेरी सजा भी मुकर्रर कर दी और उस की मियाद भी मेरे मरने तक सीमित कर दी.

‘‘मैं ने यह डायरी इस आशय से तुम्हें लिखी है कि शायद आज तुम मेरी बात को समझ सको और अपनी मां को अब माफ कर सको. अंत में ढेर सारे आशीर्वाद व उस स्नेह के साथ जो मैं तुम्हें जीतेजी न दे सकी…तेरी मां.’’

डायरी का आखिरी पन्ना पलट कर, रेवा ने उसे बंद कर दिया. कभी न रोने वाली रेवा का चेहरा आंसुओं से तरबतर होता चला गया और इतने दिनों की वो जिद, वो गांठ भी साथ ही घुलने लगी. पर आज उस ने भी उन आंसुओं को न तो पोंछा, न ही रोका. उसे लगा सर्दी बढ़ गई है और उस ने कंबल को सिर तक ढक लिया. वह ऐसे सो गई जैसे कोई बच्चा अपनी मां की खोई हुई गोद में इतमीनान से सो जाता है. आज रेवा को भी लगा कि मां कहीं गई नहीं है और पूरी शिद्दत से आज भी उस के पास है. मां की गोद में सोई रेवा की आंखों से आंसू मोती बन कर बह रहे थे. तभी उसे लगा, मां ने उस के आंसू पोंछ कर कहा, ‘अब क्यों रोती है मेरी लाड़ो, अब तो तेरी मां हमेशा तेरे पास है.’ …और रेवा करवट बदल कर फिर गहरी नींद में चली गई.

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Mother’s Day Special: जिद- भाग 2- क्यों मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

मां ने तो वैसे भी उसे तीसरी क्लास से ही होस्टल में डाल दिया था. कई बार रोने के बाद भी उन का दिल नहीं पसीजा. खैर, पापा हर शनिवार की शाम को उसे घर ले जाने के लिए आ जाते और सोमवार की सुबह उसे स्कूल छोड़ जाते. रेवा के लिए वह एक दिन बड़ा सुकूनभरा होता, दिनभर वह अपने पापा के साथ मस्ती करती. मां कई बार पूछतीं कि कोर्स की कोई कौपीकिताब लाई कि नहीं, और वह इन प्रश्नों से बचने के लिए पापा के पीछे दुबक जाती. उस के 8वीं पास करने के साथ ही पापा का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया. सो, सप्ताह में एक दिन घर आनेलाने का चक्कर भी खत्म हो गया.

इस शहर से जाने के बाद भी पापा, हर महीने एक बार छुट्टी वाले दिन जरूर मिलने आते और कभीकभार मम्मी भी साथ में आतीं. मां आते ही उस के हालचाल जानने से पहले ही पढ़ाई के बारे में पूछने बैठ जातीं. सो, पापा का अकेले आना, उसे हमेशा बड़ा भाता था. वह जो भी फरमाइश करती, पापा तुरंत पूरी करते, तरहतरह की ड्रैसेस दिलाते, लंच व डिनर बाहर ही होता व उस की मनपसंद आइसक्रीम दिन में कई बार खाने को मिलती. इस तरह धीरेधीरे रेवा अपनी मां से दूर होने लगी और अकसर एक रटारटाया मुहावरा उस के मुंह पर आने लगता, ‘‘मां तो बस, रेवती की ही मां हैं. सारा प्यार मां ने उस के लिए ही रख छोड़ा है, मुझ से तो वे प्यार करती ही नहीं.’’ इंटर तक रेवा उसी कालेज में पढ़ती रही और उस ने हाईस्कूल व इंटरमीडिएट में पूरे प्रदेश में मैरिट में प्रथम स्थान प्राप्त कर कीर्तिमान स्थापित कर दिया. उस कालेज की पिं्रसिपल ने तो फेयरवैल पार्टी वाली स्पीच में यहां तक कह दिया कि इस लड़की रेवा का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में होेने से कोई नहीं रोक सकता और इस कालेज को उस पर बहुत गर्व है.

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छोटे से शहर लखनऊ के उस छोटे कालेज से निकल कर रेवा को लेडी श्रीराम कालेज, दिल्ली में दाखिला हाथोंहाथ मिल गया. साथ ही, मां ने उसे आईएएस के ऐंट्रैंस की कोचिंग भी जौइन करा दी. फिर तो रेवा अपनी पढ़ाई की भागदौड़ में इस तरह मसरूफ हो गई कि उसे मां के पास रहने और उन का प्यारदुलार पाने का मौका ही नहीं मिला जिस के लिए वह हमेशा तरसती रही थी.

पता नहीं कैसे, एक दिन अचानक रेवा को लगने लगा कि वह तो एकदम मशीन बनती जा रही है और इस के लिए अब उस का मन कतई तैयार नहीं था. रहरह कर उसे अब बचपन के वे दिन याद आ रहे थे, जब वह मांबाप के प्यार से वंचित रही. धीरेधीरे उस में विद्रोह के मूकस्वर उठने लगे. सब से पहले उस ने कालेज में टौप करने के लक्ष्य को ढीला छोड़ना शुरू कर दिया. उस के मन में एकाएक खयाल आया कि अगर वह दूसरे स्थान पर आ जाती है, तो किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है. इस के बाद उस ने आईएएस कोचिंग में भी ढील देनी शुरू कर दी. इन बातों से रेवा की एक अजीब सी जिद हो गई. इस कारण वह क्लास में पहले द्वितीय, फिर तृतीय स्थान पर आ गई जिस से उस के सभी साथी आश्चर्यचकित रह गए. इसी तरह आईएएस कोचिंग के साप्ताहिक टैस्टों में उस के नंबर कमतर आने शुरू हो गए. जैसे ही मां को इस का पता चला, वे दिल्ली पहुंच गईं और उसे लगातार डांटती रहीं. रेवा को यह देख कर बड़ा सदमा लगा कि रेवती को हर साल नंबर कम आने पर प्यार से समझाने वाली मां, आज कहां खो गई हैं. मां तो डांट कर चली गईं, पर रेवा के मन में एक विद्रोह की चिनगारी को अनजाने में और भड़का गईं. रेवा सोचती रही कि मां अगर प्यार के दो बोल बोल कर समझा देतीं तो कौन सा आसमान छूना उस के लिए संभव न था.

इसी बीच एक और बात हो गई. मां की खास सहेली मंदिरा का लड़का और उस का बालपन का सखा सरस भी दिल्ली आ गया. एक दिन सरस से उस की मुलाकात एक मौल में हो गई. दोनों ने वहां कौफी पी और एकदूसरे का मोबाइल नंबर एक्सचेंज किया. फिर तो आपस में बातों का सिलसिला ऐसा चला कि बचपन की दोस्ती प्यार में कब बदल गई, पता ही न चला. सरस ने अपनी मां से जब इस बारे में बात की तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. अगला अवसर मिलते ही, सरस की मां मंदिरा आंटी, मां के पास पहुंच गई. जैसे ही उन्होंने मां को बताया कि सरस व रेवा आपस में प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं, मां का चेहरा उतर गया. जब उन्हें पता चला कि सरस ने इंजीनियरिंग की है और वह जौब पाने के लिए प्लेसमैंट फौर्म भर रहा है, तो मां ने इस शादी के लिए यह कह कर इनकार कर दिया कि रेवा को तो अभी आईएएस बनना है. एक इंजीनियर व आईएएस में शादी कैसे हो सकती है.

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जैसे ही रेवा को इस बात का पता चला, विद्रोह की वह छोटी सी चिनगारी एकदम ज्वाला बन गई. परिणामस्वरूप, उस ने प्रतियोगिता परीक्षा का एक पेपर ही छोड़ दिया. मां को जब इस का पता चला तो वे बहुत चीखीचिल्लाईं. कितनी ही बार पूछने पर भी कि उस ने ऐसा क्यों किया, रेवा खामोश बनी रही. कुछ असर न होता देख, मां रेवा को समझाने बैठ गई. काफी देर बाद, रेवा ने जो पहला वाक्य कहा, वह यह था कि वे उसे सरस से विवाह करने देंगी या नहीं, अन्यथा दोनों कोर्टमैरिज कर लेंगे. अब तो मां रोने बैठ गईं, परंतु इन बातों का रेवा पर कोई असर नहीं हुआ. कुछ दिन रुक कर वह दिल्ली लौट गई और उस ने पत्रकारिता के कोर्स में प्रवेश ले लिया. धीरेधीरे रेवा ने घर आना भी कम कर दिया. इधर, सरस को एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर जौब मिल गई और उधर रेवा को दूरदर्शन के न्यूज चैनल में काम मिल गया. मां ने लाख समझाया, पर रेवा ने भी जिद पकड़ ली और इस के बाद फिर आईएएस की प्रतियोगिता में बैठी ही नहीं. बाद में सरस और रेवा ने विवाह कर लिया जिस में मां शामिल तो हुईं पर बड़े ही बेमन से. इस के कुछ सालों बाद, रेवा सरस के साथ लास एंजिल्स चली गई और वहीं की नागरिकता ले ली.

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Mother’s Day Special: मां बनने के बाद भी कायम रहा जलवा

अक्सर एक महिला की जिंदगी की शुरुआत एक आज्ञाकारी, संस्कारी और प्यारी सी बेटी के रूप में होती है, जिस के कंधों पर जहां एक तरफ परिवार की इज्जत बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है तो वहीं दूसरी तरफ घर वालों की उम्मीदों पर खरा उतरने का दायित्व भी होता है. उस से यह अपेक्षा की जाती है कि वह मांबाप का कहा माने और कुछ ऐसा न करे कि कोई ऊंचनीच हो जाए.

कुछ घरों में बेटी को आगे बढ़ने का मौका दिया जाता है तो कुछ घरों में नहीं. जहां मौका दिया जाता है वहां वह कैरियर की बुलंदियां भी छूती है. शादी के बाद वह ससुराल पहुंचती है जहां का माहौल उस के लिए बिलकुल अजनबी होता है. नया परिवेश, नए लोग और नई अपेक्षाओं के बीच वह अपना वजूद कहीं भूल सी जाती है. यदि पति उदार है तो पत्नी को आगे बढ़ने का मौका देता है.

वैसे खुद स्त्री की पहली प्राथमिकता हमेशा से घरपरिवार रही है खासकर मां बनने के बाद उस की जिंदगी पूरी तरह अपने बच्चे के आसपास घूमने लगती है. बेटी और पत्नी से शुरू हुआ सफर मां पर आ कर खत्म हो जाता है और खुद की पहचान बनाने की चाह अंदर ही अंदर कसमसाती रहती है. कभी समाज आगे नहीं बढ़ने देता तो कभी वह खुद ही हिम्मत नहीं जुटा पाती.

खुद बनाएं पहचान

महिलाओं को यह बात समझनी चाहिए कि मां बनने का मतलब यह नहीं कि उन का कैरियर खत्म हो गया. मां बनने के बाद भी वे अपनी सुविधानुसार काम कर सकती हैं और अपनी पहचान बना सकती हैं.

आज ऐसी कई महिलाएं हैं, जिन्होंने मां बनने के बाद अपने कैरियर को नया रूप दिया और घर संभालने के साथसाथ अपनी अलग पहचान भी बनाई. उन की लगन देख कर ससुराल वालों ने भी उन का पूरा साथ दिया.

2 नन्हेनन्हे बच्चों की मां दीक्षा मिश्रा भी  इस का अच्छा उदाहरण है, जो एक ऐंटरप्रेन्योर और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर के तौर पर जानी जाती है.

बेहद आकर्षक और स्लिम फिगर वाली दीक्षा मिश्रा को देख कर यह यकीन करना कठिन होगा कि वह 2 बच्चों की मां है. दीक्षा ने अपने कैरियर की शुरुआत मीडिया पीआर प्रोफैशनल के रूप में की. वह मार्केटिंग और कौरपोरेट कम्युनिकेशन हैड के रूप में कई सालों तक बड़ेबड़े लग्जरी लाइफस्टाइल और हौस्पिटैलिटी ब्रैंड के साथ काम करती रही.

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शादी के करीब 3 साल बाद तक दीक्षा मिश्रा ने काम किया. फिर 2 बेटों के होने के बाद उन्होंने काम को नया रूप देने और एक ऐंटरप्रेन्योर और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर के तौर पर फ्रीलांस काम करने का फैसला लिया.

दीक्षा कहती है, ‘‘मेरा एक बेटा 1 साल का और दूसरा 3 साल का है. ऐसे में फुलटाइम 9 से 9 बजे तक की जौब संभव नहीं थी, जबकि फ्रीलांसिंग के रूप में मैं अपने हिसाब से काम कर सकती हूं. इसलिए मैं ने इस औप्शन को चुना और घर से ही काम करने लगी.

‘‘मेरे पुराने कौंटैक्ट्स काम आए और मुझे आगे बढ़ने का मौका मिला. इस तरह काम करने में टाइम के हिसाब से काफी फ्लैक्सिबिलिटी रहती है और बच्चों के साथ काम संभालना कठिन नहीं होता. मेरे पति और सास मुझे पूरा सपोर्ट देते हैं.

‘‘पिछले 1 साल के दौरान मैं ने 100 से ज्यादा ब्रैंड्स के साथ काम किया है. इस तरह मैं अपनी प्रोफैशनल लाइफ के साथ मदरहुड को भी बेहद खूबसूरती से ऐंजौय कर रही हूं. सोशल मीडिया में मेरा हैंडल के नाम से है. मेरा मानना है कि शादी के बाद आप का सफर रुक नहीं सकता. मन में जज्बा हो तो आप आगे जरूर बढ़ सकती हैं.’’

मां बनने के बाद भी नाम कमाया

मेरी कौम

बौक्सिंग की दुनिया का लोकप्रिय नाम एमसी मैरीकौम एक मिसाल हैं. 3 बच्चों को जन्म देने के बाद भी इस महिला ऐथलीट ने रिंग में जलवा बिखेरा. वे 6 विश्व चैंपियन खिताब जीत चुकी हैं. एमसी मैरीकौम भारत के लिए महिला मुक्केबाजी में ओलिंपिक का मैडल हासिल करने वाली पहली भारतीय हैं. 2003 में मैरीकौम को अर्जुन पुरस्कार से नवाजा गया. 3 साल बाद 2006 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. 2009 में उन्हें सब से बड़ा खेल सम्मान ‘राजीव गांधी खेल रत्न’ पुरस्कार दिया गया.

ताइक्वांडो चैंपियन नेहा

यूपी के मथुरा की ताइक्वांडो चैंपियन नेहा की कहानी उन महिलाओं के लिए एक प्रेरणा है, जो शादी के बाद यह मान लेती हैं कि उन का कैरियर खत्म हो गया है. नेहा ने न सिर्फ शादी के बाद पढ़ाई की, बल्कि अपनी मेहनत के दम पर नैशनल ताइक्वांडो प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल भी हासिल किया.

शादी के बाद दूसरी लड़कियों की तरह नेहा को भी लगा था कि अब शायद वह इस खेल को कभी न खेल पाए. लेकिन जब बच्चे बड़े हुए और स्कूल जाने लगे तो नेहा ने दोबारा इस की प्रैक्टिस शुरू की. उस के हौसले को देखते हुए परिवार ने भी उस की मदद की.

पीटी उषा

पीटी उषा न केवल खिलाडि़यों की कई पीढि़यों के लिए प्रेरणा बनीं, बल्कि वे आज भी कई युवा ऐथलीटों के कैरियर को संवारने में अहम भूमिका निभा रही हैं.

पीटी उषा ने दौड़ने की शुरुआत तब की थी जब वह चौथी कक्षा में पढ़ती थी. 1980 में केवल 16 साल की उम्र में पीटी उषा ने मास्को में हुए ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक खेलों में हिस्सा लिया था. सीओल एशियाई खेलों में भारत ने 5 गोल्ड मैडल जीते थे और इन में से 4 स्वर्ण पदक अकेले उषा ने जीते थे. पीटी उषा को 1983 में अर्जुन अवार्ड दिया गया था. 1995 में उन्हें देश के चौथे सब से बड़े नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया गया.

शादी, मातृत्व और वापसी

1991 में शादी के कुछ ही दिनों बाद उषा ने ऐथलैटिक्स से ब्रेक ले लिया और अपने बेटे को जन्म दिया. अपने पति वी. श्रीनिवासन के हौसला देने पर उन्होंने खेल की दुनिया में वापसी की. जब उन्होंने 1997 में अपने खेलों के कैरियर को अलविदा कहा तब तक वे भारत के लिए 103 अंतर्राष्ट्रीय मैडल जीत चुकी थीं. उन्होंने ओलिंपिक में मैडल जीतने की चाहत रखने वाले युवा खिलाडि़यों को ट्रेनिंग देने के लिए एक अकैडमी शुरू की. उषा आज भी पूरी तरह एक्टिव हैं.

शुरू किया अपना ऐथलैटिक कैरियर

‘‘मिरैकल फ्रौम चंडीगढ़’’ के नाम से मशहूर 102 वर्षीय मन कौर भारत की सब से वरिष्ठ महिला ऐथलिट हैं. उन्होंने 93 वर्ष की उम्र में अपने ऐथलैटिक कैरियर की शुरुआत की थी. उन्हें भारत सरकार द्वारा नारी शक्ति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है.

जरूरी है जनून

जिस उम्र में इंसान एक कोने में बैठा अंतिम समय की बाट जोह रहा होता है यदि उस उम्र में कोई महिला ऐथलीट की फील्ड में अपने कैरियर की शुरुआत करे और अपार सफलता भी पाए तो क्या कहेंगे? यह जनून ही है न, जो 93 वर्षीय मन कौर ने 2011 में ऐथलैटिक्स में कदम रखा और उसी वर्ष लंबी कूद (3.21 मीटर) में एक रजत और 100 मीटर दौड़ में कांस्य पदक जीता. 2018 में उन्होंने औकलैंड में विश्व मास्टर्स खेलों में 100 मीटर स्प्रिंट जीत कर भारत को गौरवान्वित किया.

मन कौर को यह प्रेरणा और प्रोत्साहन उन के 78 वर्षीय बेटे गुरदेव ने दिया, जो स्वयं एक ऐथलीट हैं. मन कौर को ऐडवैंचर स्पोर्ट्स का भी शौक है. औकलैंड के स्काई टावर के शीर्ष पर चलने वाले सब से बुजुर्ग व्यक्ति होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है. 93 साल की उम्र से शुरुआत करने के बाद भी 102 वर्षीय मन कौर अब तक 20 से अधिक मैडल जीत चुकी हैं.

प्रशिक्षण और डाइट प्लान का पालन करती हैं

मन कौर अच्छी डाइट के साथसाथ नियमित रूप से ट्रेनिंग भी लेती हैं और जिम भी जाती हैं. हर बार जब वे खेल के मैदान में उतरती हैं, तो 5 बार 50 मीटर दौड़ लगाती हैं और 100 और 200 मीटर की 1-1 दौड़ लगाती हैं, जिस में मन कौर अपने शरीर पर काम करती हैं. दिन में 2 बार अंकुरित गेहूं से बनी रोटियां खाती हैं. वे फलों का रस, व्हीटग्रास जूस, नट्स और बीजों का सेवन करती हैं.

सिर्फ खिलाड़ी ही नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं ने अपना अलग मुकाम बनाया है. हीरोइनों को देखें तो करीना कपूर, शिल्पा शेट्टी, काजोल, ऐश्वर्या, रानी मुखर्जी, विद्या बालन, मलाइका अरोड़ा जैसी बहुत सी हीरोइनों ने अपना कैरियर कायम रखा और हमेशा सुर्खियों में रहीं. इसी तरह हजारों ऐंटरप्रेन्योर हैं, जो मां बनने के बाद भी खुद को साबित कर रही हैं.

सफल होने के लिए जरूरी हैं कुछ बातें

फोकस जरूरी: एक महिला शादी और बच्चों के बाद भी अपने कैरियर के क्षेत्र में सफल हो सकती है, मगर इस के लिए सब से पहले जरूरी है कि वह फोकस करे. उसे पता होना चाहिए कि उसे किस फील्ड में आगे बढ़ना है. अगर उस के मन में कंफ्यूजन रहा तो वह कहीं नहीं पहुंच सकती. मगर यदि उसे पहले से पता है कि कौन से काम में उस की रुचि और क्षमता है, जिस से वह बेहतर तरीके से आगे बढ़ सकती है, तो वह जरूर सफल होगी.

फ्रीलांस भी है एक औप्शन: शादी और बच्चों के बाद जरूरी नहीं कि आप कुछ ऐसा काम करें, जिस में आप को सुबह से ले कर शाम या रात तक के लिए बाहर जाना पड़े और बच्चों को घर वालों या कामवाली के भरोसे छोड़ना पड़े.

आप अपने लिए कोई फ्रीलांसिंग औप्शन भी खोज सकती हैं. अगर आप ने शादी से पहले काम किया हुआ है, तो आप के पुराने कौंटैक्ट काफी काम आएंगे. अगर आप ने पहले काम नहीं किया है और आप फ्रैशर हैं, तो भी अपनी क्रिएटिविटी से या कुछ नयापन दिखा कर अपने लिए काम ढूंढ़ सकती हैं.

आप कुछ ऐसा नया काम कीजिए, जिस में ज्यादा भागदौड़ न करनी पड़े और जिसे आप आसानी से खुद मैनेज कर सकें. याद रखिए दूसरों के भरोसे रहने से कुछ हासिल नहीं होता.

खुद पर यकीन: जब तक आप को खुद पर यकीन नहीं होगा तब तक घर वाले भी आप को प्रोत्साहित करने की नहीं सोचेंगे. लेकिन जब आप खुद पर यकीन रखती हैं कि मैं सही से मैनेज कर लूंगी तो रास्ते खुदबखुद खुल जाते हैं. बच्चे होने के बाद काम करने का मतलब यह जरूरी नहीं कि आप को बच्चों को अकेला छोड़ना पड़ेगा. आप कोई ऐसा बीच का रास्ता निकाल सकती हैं, जिस से बच्चे भी संभल जाएं और आप अपनी पहचान भी बनाती रहें. अगर आप छोटे बच्चों के साथ मैनेज नहीं कर पा रही हैं, तो थोड़ा इंतजार कर लें. बच्चे थोड़ा बड़ा हो जाएं तब अपने सपने को हकीकत का रूप दे सकती हैं.

आंखें खुली रखें: अपनी आंखें हमेशा खुली रखें. आप की शादी हो गई और आप के बच्चे हो गए इस का मतलब यह नहीं कि अब सबकुछ खत्म हो गया. आप हमेशा मौके की तलाश में रहें.

यह बात दिमाग में रखें कि आप कभी भी अपना कैरियर बना सकती हैं. हमेशा अपनी सहेलियों और परिचितों के कौंटैक्ट में रहें. ऐसी महिला रिश्तेदारों के संपर्क में रहें, जो शादी और बच्चों के बाद भी कुछ न कुछ कर रही हैं. उन्हें देख कर आप के मन में कोई आइडिया जरूर आ सकता है.

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टाइम मैनेज करना जरूरी: शादी और बच्चों के बाद जब आप काम के लिए बाहर निकालती या घर से ही काम करती हैं, तो सब से जरूरी है कि आप टाइम मैनेजमैंट करना सीखें. आप को पहले से प्लानिंग कर के चलना होगा कि इस समय तक घर के काम निबटाने हैं और उस के बाद आप को यह काम करना है ताकि आप को कभी भी परेशान न होना या जल्दीबाजी न करनी पड़े और न ही घर वालों को ही कोई बात सुनाने का मौका मिले.

महिलाओं को यह बात समझनी चाहिए कि मां बनने का मतलब यह नहीं कि उन का कैरियर खत्म हो गया. मां बनने के बाद भी वे अपनी सुविधानुसार काम कर सकती हैं और अपनी पहचान बना सकती हैं.

आप कुछ ऐसा नया काम कीजिए, जिस में ज्यादा भागदौड़ न करनी पड़े और जिसे आप आसानी से खुद मैनेज कर सकें. याद रखिए दूसरों के भरोसे रहने से कुछ हासिल नहीं होता.

Mother’s Day Special: वीकेंड पर बनाएं मिर्ची वड़ा

जिन लोगों को तीखा और मसालेदार खाना पसंद है उनके लिए मिर्ची वड़ा एक परफेक्ट च्वाइस है. आप भी इस आसान रेसिपी को एक बार जरूर ट्राई करें.

सामग्री

हरी मिर्च- 8

बेसन- 1 कप

तेल- आधा कप

हल्दी- चुटकी भर

आलू- 2 (उबला हुआ)

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लाल मिर्च पाउडर- चुटकी भर

धनिया पत्ता- थोड़ा सा (बारीक कटा हुआ)

नमक- सवादानुसार

विधि

सबसे पहले सभी मिर्चों को बीच से काटें, उसके बीज निकालकर मिर्च को अलग रख दें.

अब उबले हुए आलू को छीलकर अच्छी तरह से मैश कर लें. इसमें लाल मिर्च पाउडर, नमक और धनिया पत्ती मिलाकर अच्छी तरह से मिक्स कर लें.

अब बेसन में हल्दी और नमक डालें और पानी डालकर गाढ़ा बैटर तैयार कर लें. अब बीच से कटी हुई हरी मिर्च के अंदर आलू का मिश्रण भर दें और उसे बेसन के मिश्रण में डिप करें.

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अब एक कढ़ाई में तेल गर्म करें और बेसन में लिपटी हुई मिर्चों को तेल में सुनहरा होने तक डीप फ्राई करें.

मिर्ची वड़ा तैयार है. इसे हरी चटनी के साथ सर्व करें.

Mother’s Day Special: रोशनी- मां के फैसले से अक्षिता हैरान क्यों रह गई?

खिड़कीसे आती रोशनी में बादामी परदे सुनहरे हुए जा रहे थे. मेरी नजर उन से होते हुए ड्राइंगरूम में सजे हलकेनीले रंग के सोफे, कांच की चमकती टेबल, शैल्फ पर सजे खूबसूरत शो पीसेज से वापस सामने बैठी अपनी बेटी अक्षिता के चेहरे पर टिक गई. मेरी पूरी कोशिश थी कि मैं टेबल पर रखे फोटोफ्रेम में उस की बगल में लगे लड़के के फोटो को न देखूं. बगल में बैठे आनंद के बमुश्किल दबाए गुस्से की भभक भी महसूस न करूं. पर ये सब मेरी कनपटी पर धमक पैदा कर रहे थे. सामने बैठी अक्षिता अपने दोस्त आयुष के साथ अपने लिव इन रिलेशनशिप में रहने के बारे में जाने क्याक्या बताए जा रही थी.

पर मैं उस की बात समझने में लगातार नाकामयाब हुई जा रही थी. दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था. और धड़कनें बेलगाम भाग रही थीं. मेरे चश्मे का कांच बारबार धुंधला रहा था, पर उसे उतार कर पोंछने की ताकत नहीं थी मुझ में. मन मान ही नहीं पा रहा था कि मेरी यह नन्ही सी बच्ची जो कुछ वक्त पहले तक मेरी उंगली पकड़ कर चलती थी, मम्मामम्मा करती आगेपीछे घूमती थी, अपने पापा से फरमाइशें करती नहीं थकती थी, बातबात पर रो देती थी. क्या बाहर रह कर नौकरी करते ही अचानक इतनी बड़ी हो गई कि इतना बड़ा कदम उठा बैठी… एक अनजान लड़के के साथ… वह भी बिना शादी किए?

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मेरे गले में कुछ अटकने लगा. डबडबाती आंखें बरसने को आतुर होने लगीं. बगल में बैठे आनंद की लगातार बढ़ती कसमसाहट बता रही थी कि अब उन का गुस्सा अपनी हद तोड़ने ही वाला है. ‘‘मम्मा,’’ अक्षिता का हाथ अपनी हथेलियों पर महसूस हुआ, तो मैं चौंक पड़ी.

मेज को हलके से खिसका कर वह मेरे सामने जमीन पर बैठते हुए मुझ से कह रही थी, ‘‘मैं नहीं चाहती थी कि आप को किसी और से यह बात पता चले. तभी आप को बुलाया. मैं आप दोनों को बहुत प्यार करती हूं… पर आप भी तो मेरी बात समझिए. मैं और आयुष… पसंदगी की वजह से साथ रहते हैं पर अपनेअपने बरतन और कपड़े खुद धोते हैं, सारे खर्चे शेयर करते हैं. न मैं उस का देर रात तक इंतजार करती हूं और न वह आप का नाम ले कर मुझे ताने दे सकता है… न मैं उस के लिए बेमन से व्रतउपवास रखने को बाध्य हूं, न ही वह मेरे लिए अपने तौरतरीके बदलने को. अपने कैरियर, अपनी फैमिली के बारे में खुद फैसले लेते हैं, एकदूसरे पर थोपते नहीं. हमारी इन्वैस्टमैंट्स… सेविंग्स सब अलग हैं. पतिपत्नी होने से बेहतर हम दोस्त बनना चाहते हैं पापा. क्या यह इतना गलत है?’’ आनंद के लाल चेहरे पर अब हैरानी थी.

अक्षिता ने आगे कहा, ‘‘शादी के बंधन में बंधने से पहले एकदूसरे को जाननेबूझने में कोई बुराई तो नहीं न? बाद में मजबूरी में शादीशुदा रिश्ता ढोते चले जाने या तलाक की नौटंकी करने से बेहतर है यह देखना कि हम एकदूसरे की इज्जत करते भी हैं या नहीं. अगर हम ऐसा कर पाए, तो शायद हम शादी कर भी लें और अगर नहीं, तो बिना दिल टूटने के खतरे के अलग हो जाएंगे.’’ ‘‘लेकिन…’’

मैं अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही अक्षिता ने मेरी गोद में सिर टिका लिया, ‘‘आप दोनों ने मुझे बहुत समझदार बनाया है. अपनी जिंदगी के किसी मुकाम पर पहुंचने से पहले मैं किसी और जिंदगी को इस दुनिया में नहीं लाऊंगी. इतना भरोसा तो मुझ पर है न?’’ मेरा हाथ उस का सिर सहलाने को उठा ही था कि आनंद को उठता देख गिर गया.

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वे बोले, ‘‘चलो वंदना…’’ अक्षिता के बुझे चेहरे को देख पहली बार मैं उन से कड़ाई से कुछ बोलने को हुई, तभी उस की पूरी बात ने हमें चौंका दिया. बोले, ‘‘अरे भई, अंदर आराम करते हैं. अब इस आयुष से मिल कर ही वापस जाएंगे.’’

अक्षिता एक झटके में उठ कर हमारे गले लग गई, ‘‘हांहां, मैं उसे फोन कर देती हूं. थैंक्यू पापा… थैंक्यू मम्मी.’’ अक्षिका का माथा चूमते हुए मैं सोच रही थी कि अपनी जिंदगी में सब को कभी न कभी खुद फैसले लेने शुरू कर देने ही चाहिए. मैं ने नहीं किए पर मेरी बेटी ले रही है. अब वह सही निकलेगा या गलत, यह वक्त बताएगा. हालांकि मेरी कामना अभी भी उसे लाल जोड़े में लिपटे इस आयूष के साथ विदा होते देखने की हो रही थी. लेकिन तब जब उस का यह रिश्ता प्यार और भरोसे पर टिका हुआ हो और अगर ऐसा न भी हुआ, तो भी हम हमेशा अपनी बेटी के साथ खड़े रहेंगे. यह फैसला अंदर जाते हुए मैं ले चुकी थी.

नई रोशनी ने हमारे मन में घुमड़ती शंका के बादलों को पूरी तरह भेद डाला था.

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Mother’s Day Special: बच्चों के लिए बनाएं कैरेमल ब्रेड नगेट्स

इस समय कोरोना के कारण बच्चे बड़े सभी घरों में कैद हैं. बच्चे चाहे छोटे हों या बड़े उन्हें हर समय खाने के लिए कुछ न कुछ चाहिए होता है. ब्रेड तो बच्चों को यूं भी बहुत पसंद होती है और लगभग हर घर में उपलब्ध भी रहती है. आजकल तो ब्राउन, होल व्हीट, मल्टीग्रेन, गार्लिक, स्वीट, ओट्स जैसे कई फ्लेवर्स में ब्रेड आने लगी है. व्हाइट ब्रेड की अपेक्षा मल्टीग्रेन और ब्राउन ब्रेड खाना अधिक लाभप्रद होता है क्योंकि इसमें फाइबर अधिक मात्रा में पाया जाता है. अधिक मात्रा में या नियमित रूप से ब्रेड का सेवन करना सेहत के लिए नुकसानदेह हो सकता है इसलिए ब्रेड का सीमित मात्रा में प्रयोग करना चाहिए. कई बार प्रयोग करने के बाद ब्रेड के कुछ स्लाइस बच जाते हैं आज हम आपको ऐसी ही एक आसान रेसिपी बता रहे हैं जिनमें आप ताजी के साथ साथ रखी और बचे ब्रेड स्लाइस का उपयोग भी कर सकतीं हैं. तो आइए देखते हैं कि इसे कैसे बनाते हैं-

कितने लोंगों के लिए         6

बनने में लगने वाला समय    25 मिनट

मील टाइप                         वेज

सामग्री

ब्रेड स्लाइस             4

शकर                     2 टेबलस्पून

साल्टेड बटर            1 टेबलस्पून

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दूध                         1 टीस्पून

वनीला एसेंस            1 टीस्पून

कटे बादाम पिस्ता      1 टीस्पून

पानी                         1 टीस्पून

विधि

ब्रेड स्लाइस को आधे इंच के चौकोर टुकड़ों में काट लें. इन्हें एक नॉनस्टिक पैन में बिना चिकनाई के करारा होने तक रोस्ट करें. इन्हें एक प्लेट में निकालकर ठंडा होने रख दें. अब पैन में शकर और पानी डालकर एकदम मंदी आंच कर दें. जब शकर पूरी तरह घुल जाए और रंग हल्का सा ब्राउन होने लगे तो दूध और बटर डालकर अच्छी तरह चलाएं. जैसे ही शकर एकदम डार्क ब्राउन रंग में बदलने लगे तो वनीला एसेंस डालकर चलाएं और रोस्टेड ब्रेड के टुकड़े डालकर चलाएं और गैस बंद कर दें. इस दौरान आंच धीमी ही रखें.  तैयार नगेट्स को एक प्लेट में निकालकर कटे पिस्ता बादाम डालें. इन्हें एक चम्मच की सहायता से अलग अलग कर दें वरना ये आपस में चिपक जाएंगे. जब बच्चे कुछ मीठा खाने को मांगे तो आप उन्हें दें. इन्हें आप एयरटाइट जार में भरकर फ्रिज में एक हफ्ते तक स्टोर कर सकतीं हैं.

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Mother’s Day Special: मां की खुशबू

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…

प्रिया ने फोन उठाया, उधर सुशीला बूआ थीं.

‘‘हैलो बूआ, इतनी रात में फोन किया, कुछ खास बात है क्या?’’

‘‘खास ही है प्रिया, तुम से तो बताने में भी डर लग रहा है.’’

‘‘बूआ, पहेलियां मत बुझाओ, साफसाफ बताओ क्या हुआ?’’

वह घबरा कर बोली.

‘‘प्रिया, अभीअभी बनारस से उमा जीजी का फोन आया था, कह रही थीं कि बड़े भैया ने ब्याह कर लिया है.’’

‘‘क्या…’’

‘‘जीजी ने ही किसी तलाकशुदा से रिश्ता करवाया है.’’

सुनते ही प्रिया के हाथ से रिसीवर छूट गया. वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई. उसे शर्म भी आ रही थी. सास, जेठानी और ननदें सभी उस का मजाक बनाएंगी. वह किसी को अपना मुंह कैसे दिखाएगी. प्रपुंज से कैसे कहेगी कि पापा ने शादी कर ली है. वह अपने आंसुओं को रोक नहीं पा रही थी.

अपनी शादी के समय भी बड़ी बूआ पर वह कितनी जोर से नाराज हो उठी थी जब उन्होंने कहा था, ‘अब रघुनाथ के लिए बड़ी मुश्किल आ जाएगी, उस का तो जीना भी दूभर हो जाएगा. उसे दूसरी शादी कर लेनी चाहिए.’

उसे याद आने लगा जब वह आगरा जाती थी तो कितने हक से मां के सारे सामान को सहेजती थी. पापा कहते भी थे, ‘अब इन्हें सहेजने का क्या फायदा? कौन सा जानकी अब दोबारा लौट कर आने वाली है? बिटिया, तुम्हें जो भी चाहिए वह तुम ले जाओ.’

‘नहीं पापा, प्रपुंज मेरा खयाल रखते हैं. मुझे ससुराल में बहुत आराम है. किसी चीज की कोई कमी नहीं है,’ वह कहती फिर भी आते समय पापा रुपयों की गड्डी उस की मुट्ठी में बंद कर देते थे. उस की शादी में भी पापा ने दिल खोल कर खर्च किया था. सिर से पैर तक जेवर दिए थे. उसे सबकुछ दिलवाया था.

अपनी शादी में प्रिया रोतेरोते विदा के समय बेहोश हो गई थी. ससुराल वाले भी परेशान हो गए थे कि कैसी लड़की उन के घर आ रही है? वह ससुराल जरूर आ गई थी परंतु मन उस का वहीं रहता था. वह सोचती थी कि उस के 2 नेत्रहीन विकलांग जवान भाई पापा के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी हैं. अभी तक तो उस के कारण पापा, घर और भाइयों की तरफ से बिलकुल निश्ंिचत थे. अब तो घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारी उन्हीं की होगी.

आमतौर पर दिन में 2-3 बार पापा से बात करे बिना वह नहीं रह पाती थी. पापा ने तो हवा भी नहीं लगने दी. कल ही तो बात हुई थी, यह तो बताया था कि उमा बूआ के यहां जरूरी काम से जा रहे हैं पर इतनी बड़ी बात छिपा गए. यह सोच कर वह खीज उठी और उस के आंसू निकल आए. रोतेरोते उसे अपनी मां की बातें याद आने लगीं.

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छुटपन में प्यार से कहानी सुनाती हुई वे एकएक कौर उसे मुंह में खिलाती थीं. कितने प्यार भरे अच्छे दिन थे वे.

प्रपुंज के आने की आहट से वह चौंक गई. उस की ओर देखते हुए वे बोले, ‘‘क्या हुआ? बड़ी उदास लग रही हो, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ प्रिया अपने को रोक न सकी. वह प्रपुंज से लिपट कर फफक पड़ी. प्रपुंज उसे चुप कराने का प्रयास कर रहे थे परंतु प्रिया की सिसकी रुक ही नहीं रही थी. काफी देर के बाद वह बोली, ‘‘प्रपुंज, पापा ने शादी कर ली है.’’

प्रपुंज आश्चर्य से बोले, ‘‘क्या? पापा को इस बुढ़ापे में क्या सूझी… प्रिया? पापा ने दूल्हा बनते समय बालों में डाई लगा ली होगी न, सफेद बालों में पापा दूल्हा बन कर कैसे लग रहे होंगे.’’

प्रिया फिर से सिसकने लगी.

‘‘छोड़ो यार, आओ हम दोनों भी पापा की शादी की खुशी मनाएं,’’ प्रपुंज ने माहौल थोड़ा हलका करने का प्रयास किया.

क्रोधित हो कर प्रिया पैर पटकती हुई कमरे से बाहर चली गई. काफी वादविवाद के बाद दोनों में तय हुआ कि वे पापा से सारे संबंध तोड़ लेंगे.

रात को सोते समय भी प्रिया सोचने लगी. महीने भर पहले ही तो वह चचेरी बहन रोली की शादी में गई थी, तो तभी बड़ी बूआ कह रही थीं, ‘भैया की जिंदगी में तो मुसीबत ही मुसीबत है. घरवाली के बिना घर सूना है. कोई थाली परोसने वाला तो चाहिए ही.’

सुनते ही प्रिया नाराज हो उठी थी, ‘आप कहना क्या चाह रही हैं? पापा क्या इस उम्र में शादी करेंगे?’

बूआ बोलीं, ‘तो क्या हुआ? आगे की जिंदगी आसान हो जाएगी, लड़कों को भी तो कोई देखभाल करने वाला चाहिए.’

उन का इशारा उस के नेत्रहीन विकलांग जवान भाइयों की ओर था. वह क्रोध से तिलमिलाती हुई पापा के पास पहुंची थी. सारी बात जान कर पापा ने उसे अपने पास बिठाया, प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा, परंतु उस की बात का कोई उत्तर नहीं दिया. उन की चुप्पी उसे चुभ गई थी. वह पापा से नाराज हो गई थी. प्रपुंज ने उस से रास्ते में कई बार पूछा भी कि वह क्यों नाराज है? लेकिन वह क्या बताती? वह गुमसुम हो गई थी. फिर भी उसे विश्वास था कि पापा ऐसा नहीं कर सकते.

लेकिन प्रश्न तो यह है कि अब यह बात वह सब को कैसे बताएगी, इसी उधेड़बुन में सुबह हो गई.

प्रिया संयुक्त परिवार में रहती थी. सास से उसे मां का प्यार मिला था. जेठानी रीता भाभी से भी उस की पटती थी. हां, बच्चों के कारण कभी- कभी आपस में खींचतान हो जाती थी. पापा जो सामान उसे देते थे उस को देख कर भाभी को ईर्ष्या अवश्य होती थी परंतु वे उस को चेहरे या व्यवहार पर नहीं आने देती, यह बात प्रिया जानती थी. रीता भाभी का मायका संपन्न नहीं था, जबकि प्रिया अपने पापा के पैसे पर थोड़ा घमंड भी करती थी. सब से ज्यादा चिंता उसे यह थी कि अब रीता भाभी उस के पापा का मजाक उड़ाएंगी.

वह उठी, नहाधो कर किचन में गई. वहां उस की सास शकुंतलाजी प्रिया के उतरे हुए चेहरे को देखते ही समझ गईं, कहीं कुछ गड़बड़ है. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है, बहू? क्या तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है? तुम कमरे में जा कर आराम करो, मैं चाय बना कर तुम्हारे कमरे में भेज देती हूं.’’

‘‘नहीं, मां, मैं एकदम ठीक हूं,’’ उस ने कहा. जेठानी रीता भाभी ने भी कई बार जानने का प्रयास किया पर वह कुछ न बोली.

पलपल में ठहाके लगाने वाली प्रिया का रोना सा चेहरा घर में सभी को परेशान कर रहा था.

शकुंतलाजी ने प्रपुंज से भी पूछा, ‘‘प्रिया क्यों परेशान है? क्या तुम से झगड़ा हुआ है?’’

‘‘नहीं, मां,’’ प्रपुंज ने सकुचाते हुए बताया, ‘‘मां, आप किसी से मत कहना, उस के पापा ने दूसरी शादी कर ली है इसलिए प्रिया का मूड बहुत खराब है. वह अपने पापा से बहुत नाराज है.

‘‘मां, देखिए जरा, 60 साल की उम्र में सारे बाल सफेद हो चुके हैं, अब उन्हें शादी करने की सूझी?’’ प्रपुंज बोला.

शकुंतलाजी सुलझी हुई समझदार प्रौढ़ा थीं. वे सोचने लगीं तो उन्हें रघुनाथजी का निर्णय सही लगा, साथ ही प्रिया का क्रोध एवं अवसाद स्वाभाविक लगा. प्रपुंज के जाने के बाद उन्होंने स्वयं अपने हाथों से चाय बनाई. प्लेट में गरमागरम आलू के परांठे रखे. यह प्रिया का पसंदीदा नाश्ता था. वे स्वयं नाश्ता ले कर प्रिया के कमरे में पहुंचीं. प्रिया उदास लेटी थी. उन्हें देखते ही हड़बड़ा कर उठ बैठी.

उस की सूजी हुई लाल आंखें उस के मन का हाल बता रही थीं.

शकुंतलाजी बोलीं, ‘‘लो, पहले नाश्ता करो. फिर बात करेंगे.’’

प्रिया उन के आग्रह को ठुकरा न सकी. उस ने चुपचाप सिर झुका कर नाश्ता कर लिया. वह जब से ससुराल आई थी, सास से उस को मां का प्यार मिला था. निश्छल प्रिया अपने दिल की हर बात शकुंतलाजी से कह देती थी. जब वह नाश्ता कर चुकी तो उन्होंने उस से पूछा, ‘‘क्या बात है?’’

प्रिया अपने को संभाल न पाई. वह फूटफूट कर रोने लगी. सिसकती हुई वह बोली, ‘‘मां, पापा ने शादी कर ली है.’’

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शकुंतलाजी ने उसे गले से लगा लिया और प्यार से उस का सिर सहलाया. फिर बोलीं, ‘‘बेटी, धीरज रखो, यदि पापा ने शादी कर ली है तो तुम दुखी क्यों हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए. अपने पापा की स्थिति को समझने की कोशिश करो.

‘‘तुम्हारे पापा की ढलती उम्र है. उन के ऊपर तुम्हारे 2 नेत्रहीन विकलांग जवान भाइयों की जिम्मेदारी है, जो स्वयं कुछ भी करने लायक नहीं हैं. तुम स्वयं सोचो उन को वे किस तरह संभालेंगे. तुम ने मुझे कई बार बताया है कि आया सामान चुरा कर ले जाती है, अकसर छुट्टी भी कर लेती है इसलिए पापा को ब्रैड खा कर गुजारा करना पड़ता है. कभीकभी तो भूखे भी सो जाते हैं, कभी कच्चापक्का पका कर भाइयों को खिला देते हैं, कभी दूध पी कर ही सो जाते हैं. इन सब से छुटकारा पाने का इस से अच्छा उपाय हो ही नहीं सकता.

‘‘तुम्हारा क्रोध उचित है, यदि मैं तुम्हारी जगह होती तो शायद मेरी भी यही प्रतिक्रिया होती. परंतु बेटी, बचपना छोड़ो. अपने मन पर नियंत्रण रखो. क्रोध एवं पश्चात्ताप की कोई आवश्यकता ही नहीं है. तुम्हारे पिता ने तुम्हारे प्रति सारे कर्तव्य पूरे किए हैं. उन्हें अपनी तरह से जीने दो. शांत मन से विचार करो,’’ वे उसे तरहतरह से समझाती रहीं.

प्रिया के मन की क्रोध रूपी धूल थोड़ी साफ होने लगी थी. थकी हुई प्रिया को झपकी लग गई थी. उस ने स्वप्न में देखा कि मम्मी उस के सिर पर प्यार से हाथ फेर रही हैं, उस के आंसू पोंछ रही हैं.

वह चौंक कर उठ बैठी. अपने मन के बोझ को वह थोड़ा हलका महसूस कर रही थी. वह नीचे जा कर गृहस्थी के कामों में लग गई. पर अब वह उदास और गंभीर रहने लगी थी. बातबात में खिलखिलाने वाली प्रिया घरवालों से खिंचीखिंची रहती थी. बच्चों से भी ज्यादा बात नहीं करती थी. रीता भाभी ने उसे बड़े प्यार से समझाया, ‘‘प्रिया, तुम्हारी बूआ ने तो तुम्हारा बोझ हलका किया है. अब तुम्हें हर समय परेशान रहने की जरूरत नहीं है. तुम्हारे पापा और भाइयों की देखभाल करने वाला वहां कोई है. इस के लिए तुम्हें स्वयं पहल एवं प्रयास करना चाहिए था. खैर, अब अपने पापा से सामान्य रूप से बात करो. अपनी नई मां से मिलने जाओ. जो हो रहा है या हो चुका है उसे स्वीकार करो, इस के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है.’’

रीता भाभी की बातें उसे अच्छी तो लगीं परंतु वह पापा से बात करने का मन न बना सकी.

एक हफ्ते के बाद सुशीला बूआ उस से मिलने आईं. वह उन को देखते ही लिपट कर गले मिली. उस की आंखें भर आई थीं.

सुशीला बूआ से उस की बचपन से पटती थी. मां के देहांत के बाद उन्होंने ही उसे संभाला था. 2-3 महीने अपना घरद्वार छोड़ कर उस के साथ रही थीं. उस को प्यार से समझाती रहती थीं. उन की गोद में सिर रख कर वह घंटों आंसू बहाती रहती थी. बूआ ने ही उस की हिम्मत बंधाई थी, उसे जीना सिखाया था. सब से अधिक तो बूआ की इसलिए भी एहसानमंद है क्योंकि उन्होंने ही उस का रिश्ता प्रपुंज से करवाया था. उन से वह घंटों फोन पर बात करती थी, दिल की सारी बातें कह देती थी. घर भी पास में ही था इसलिए जबतब वह उन के घर भी जाती रहती थी.

‘‘अरे, पगली, क्या हुआ? तुम्हें तो खुश होना चाहिए. कल बड़े भैया का फोन आया था, कह रहे थे कि प्रिया से कैसे बात करूं, वह मुझ से बहुत नाराज है. बचपन से ही वह जिद्दी है.’’

‘‘और क्या कह रहे थे पापा?’’

‘‘बस, तुम सब के बारे में पूछ रहे थे, मुझ से बोले कि तुम प्रिया से मिल आओ. सब के हालचाल ले आओ. प्रिया को समझाने की कोशिश करो, वह अपना गुस्सा छोड़ दे,’’ बूआ ने बताया.

कुछ देर बैठ कर बूआ अपने घर लौट गईं. धीरेधीरे प्रिया ने अपने मन को समझा लिया. पापा की शादी की बात मन से निकाल अपनी गृहस्थी में रम गई थी.

लगभग 3 महीने हो चुके थे. न तो पापा का फोन उस के पास आया था न उस ने खुद किया था. वह उन्हें याद तो हर पल करती थी परंतु उस की जिद बापबेटी के बीच में बाधा बनी हुई थी.

एक दिन अचानक बड़ी बूआ उस के घर उस से मिलने आईं. मन ही मन वह बूआ से नाराज थी. उन्हें देख कर सोचा, सारा कियाधरा तो इन्हीं का है, अब आई हैं प्यार जताने को. बूआ उस के लिए बहुत सारा सामान लाई थीं.

प्रिया ने देखा, गोलू के लिए सुंदर सी ड्रैस थी. प्रपुंज के लिए भी शर्ट थी. उस के लिए साड़ी थी. एक पेटी आम की थी. घर के बने मेवे के लड्डू और मठरी. वह हैरानी से सब सामान देख रही थी. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह सब बूआ लाई हैं.

आज बूआ इतना लाड़ क्यों दिखा रही हैं? वह बूआ से पूछना चाह रही थी. अचानक ही उस की निगाह उस थैले पर पड़ गई जिस में से बूआ ने लड्डूमठरी का डब्बा निकाला था. क्षण भर में ही वह सब समझ गई. यह थैला वही है जिसे ले कर पापा हमेशा बाजार जाते थे. इस थैले में तो पापा की महक बसी थी, भला वह कैसे भूल सकती थी. उस के मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘‘बूआ, क्या पापा आए हैं?’’

‘‘हां, बिटिया, तुम्हारे सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. ये सब चीजें तो तुम्हारी नई मां ने ही तुम्हारे लिए भेजी हैं. तुम्हारे पापा तो तुम से मिलने के लिए तड़प रहे हैं.’’

मांपापा बाहर गाड़ी में ही थे. वह दौड़ कर नीचे गई. उसे देख पापा बोले, ‘‘बेटी, मुझे माफ कर दो, मैं ने तुम्हारी मां की जगह किसी और को दे दी है.’’

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यह सुन प्रिया का क्रोध आंसुओं की धारा बन कर बहने लगा. वह भरे हुए गले से बोली, ‘‘नई मां कहां हैं? इस लड्डूमठरी से तो मेरी मां की खुशबू आ रही है.’’

सबकुछ भूल कर वह मां के गले से लिपट गई.

Mother’s Day Special: रिश्तों की कसौटी- भाग 2

बड़ी होने पर मालती ने स्वयं से जीवनभर एक अच्छी और आदर्श पत्नी व मां बन कर रहने का वादा किया था, जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया था. उन की शादी से पहले की दीवाली आई. मालती के ससुराल वालों की ओर से ढेरों उपहार खुद अमित ले कर आया था. अमित ने अपनी तरफ से मालती को रत्नजडि़त सोने की अंगूठी दी थी. कितना इतरा रही थीं मालती अपनेआप पर. बदले में पिताजी ने भी अमित को अपने स्नेह और शगुन से सिर से पांव तक तौल दिया.

दोपहर के खाने के बाद बूआजी के साथ घर के सामने वाले बगीचे में अमित और मालती बैठे गपशप कर रहे थे. इतने में उन के चौकीदार ने एक बड़ा सा पैकेट और रसीद ला कर बूआजी को थमा दी.

रसीद पर नजर पड़ते ही बूआ खीजती हुई बोलीं, ‘2 महीने पहले कुछ पुराने अलबम दिए थे, अब जा कर स्टूडियो वालों को इन्हें चमका कर भेजने की याद आई है,’ और पैसे लेने वे घर के अंदर चली गईं. ‘लो अमित, तब तक हमारे घर की कुछ पुरानी यादों में तुम भी शामिल हो जाओ,’ कह कर मालती ने एक अलबम अमित की ओर बढ़ा दिया और एक खुद देखने लगीं.

संयोग से मालती के बचपन की फोटो वाला अलबम अमित के हाथ लगा था, जिस में हर एक तसवीर को देख कर वह मालती को चिढ़ाचिढ़ा कर मजे ले रहा था. अचानक एक तसवीर पर जा कर उस की नजर ठहर गई. ‘यह कौन है, मालती, जिस की गोद में तुम बैठी हो?’ अमित जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था.

‘यह मेरी मां हैं. तुम्हें तो पता ही है कि ये हमारे साथ नहीं रहतीं. पर तुम ऐसे क्यों पूछ रहे हो? क्या तुम इन्हें जानते हो?’ मालती ने उत्सुकता से पूछा. ‘नहीं, बस ऐसे ही पूछ लिया,’ अमित ने कहा.

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‘ये हम सब को छोड़ कर वर्षों पहले ही मुंबई चली गई थीं,’ यह स्वर बूआजी का था. बात वहीं खत्म हो गई थी. शाम को अमित सब से विदा ले कर दिल्ली चला गया.

इतना पढ़ने के बाद सुरभी ने देखा कि डायरी के कई पन्ने खाली थे. जैसे उदास हों. फिर अचानक एक दिन अमित साहनी के पिता का माफी भरा फोन आया कि यह शादी नहीं हो सकती. सभी को जैसे सांप सूंघ गया. किसी की समझ में कुछ नहीं आया. अमित 2 सप्ताह के लिए बिजनेस का बहाना कर जापान चला गया. इधरउधर की खूब बातें हुईं पर बात वहीं की वहीं रही. एक तरफ अमित के घर वाले जहां शर्मिंदा थे वहीं दूसरी तरफ मालती के घर वाले क्रोधित व अपमानित. लाख चाह कर भी मालती अमित से संपर्क न बना पाईं और न ही इस धोखे का कारण जान पाईं.

जगहंसाई ने पिता को तोड़ डाला. 5 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे, फिर चल बसे. मालती के लिए यह दूसरा बड़ा आघात था. उन की पढ़ाई बीच में छूट गई. बूआजी ने फिर से मालती को अपने आंचल में समेट लिया. समय बीतता रहा. इस सदमे से उबरने में उसे 2 साल लग गए तो उन्होंने अपनी पीएच.डी. पूरी की. बूआजी ने उन्हें अपना वास्ता दे कर अमित साहनी जैसे ही मुंबई के जानेमाने उद्योगपति के बेटे परेश से उस का विवाह कर दिया.

अब मालती अपना अतीत अपने दिल के एक कोने में दबा कर वर्तमान में जीने लगीं. उन्होंने कालेज में पढ़ाना भी शुरू कर दिया. परेश ने उन्हें सबकुछ दिया. प्यार, सम्मान, धन और सुरभी. सभी सुखों के साथ जीते हुए भी जबतब मालती अपनी उस पुरानी टीस को बूंदबूंद कर डायरी के पन्नों पर लिखती थीं. उन पन्नों में जहां अमित के लिए उस की नफरत साफ झलकती थी, वहीं परेश के लिए अपार स्नेह भी दिखता था. उन्हीं पन्नों में सुरभी ने अपना बचपन पढ़ा.

रात के 3 बजे अचानक सुरभी की आंखें खुल गईं. लेटेलेटे वे मां के बारे में सोच रही थीं. वे उन के उस दुख को बांटना चाहती थीं, पर हिचक रही थीं.

अचानक उस की नजर उस बड़ी सी पोस्टरनुमा तसवीर पर पड़ी जिस में वह अपने मम्मीपापा के साथ खड़ी थी. वह पलंग से उठ कर तसवीर के करीब आ गई. काफी देर तक मां का चेहरा यों ही निहारती रही. फिर थोड़ी देर बाद इत्मीनान से वह पलंग पर आ बैठी. उस ने एक फैसला कर लिया था. सुबह 6 बजे ही उस ने पापा को फोन लगाया. सुन कर सुरभी आश्वस्त हो गई कि पापा के लौटने में सप्ताह भर बाकी है. वह पापा की गैरमौजूदगी में ही अपनी योजना को अंजाम देना चाहती थी.

उस दिन वह दिल्ली में रह रहे दूसरे पत्रकार मित्रों से फोन पर बातें करती रही. दोपहर तक उसे यह सूचना मिल गई कि अमित साहनी इस समय दिल्ली में अपने पुश्तैनी मकान में हैं. शाम को मां को बताया कि दिल्ली में उस की एक पुरानी सहेली एक डाक्युमेंटरी फिल्म तैयार कर रही है और इस फिल्म निर्माण का अनुभव वह भी लेना चाहती है. मां ने हमेशा की तरह हामी भर दी. सुरभी नर्स और कम्मो को कुछ हिदायतें दे कर दिल्ली चली गई.

अब समस्या थी अमित साहनी जैसी बड़ी हस्ती से मुलाकात की. दोस्तों की मदद से उन तक पहुचंने का समय उस के पास नहीं था, इसलिए उस ने योजना के अनुसार अपने ससुर ईश्वरनाथ से अपनी ही एक दोस्त का नाम ले कर अमित साहनी से मुलाकात का समय फिक्स कराया. ईश्वरनाथ के लिए यह कोई बड़ी बात न थी. अगले दिन सुबह 10 बजे का वक्त सुरभी को दिया गया. आज ऐसे वक्त में पत्रकारिता का कोर्स उस के काम आ रहा था.

खैर, मां की नफरत से मिलने के लिए उस ने खुद को पूरी तरह से तैयार कर लिया. अगले दिन पूरी जांचपड़ताल के बाद सुरभी ठीक 10 बजे अमित साहनी के सामने थी. वे इस उम्र में भी बहुत तंदुरुस्त और आकर्षक थे. पोतापोती व पत्नी भी उन के साथ थे.

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परिवार सहित उन की कुछ तसवीरें लेने के बाद सुरभी ने उन से कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे पर असल मुद्दे पर न आ सकी, क्योंकि उन की पत्नी भी कुछ दूरी पर बैठी थीं. सुरभी इस के लिए भी तैयार हो कर आई थी. उस ने अपनी आटोग्राफ बुक अमित साहनी की ओर बढ़ा दी. अमित साहनी ने जैसे ही चश्मा लगा कर पेन पकड़ा, उन की नजर मालती की पुरानी तसवीर पर पड़ी. उस के नीचे लिखा था, ‘‘मैं मालतीजी की बेटी हूं और मेरा आप से मिलना बहुत जरूरी है.’’

पढ़ते ही अमित का हाथ रुक गया. उन्होंने प्यार भरी एक भरपूर नजर सुरभी पर डाली और बुक में कुछ लिख कर बुक सुरभी की ओर बढ़ा दी. फिर चश्मा उतार कर पत्नी से आंख बचा कर अपनी नम आंखों को पोंछा.

सुरभी ने पढ़ा, लिखा था : ‘जीती रहो, अपना नंबर दे जाओ.’ पढ़ते ही सुरभी ने पर्स में से अपना कार्ड उन्हें थमा दिया और चली गई.

फोन से उस का पता मालूम कर तड़के साढ़े 5 बजे ही अमित साहनी सिर पर मफलर डाले सुरभी के सामने थे. ‘‘सुबह की सैर का यही 1 घंटा है जब मैं नितांत अकेला रहता हूं,’’ उन्होंने अंदर आते हुए कहा.

सुरभी उन्हें इस तरह देख आश्चर्य में तो जरूर थी, पर जल्दी ही खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘सर, समय बहुत कम है. इसलिए सीधी बात करना चाहती हूं.’’ ‘‘मुझे भी तुम से यही कहना है,’’ अमित भी उसी लहजे में बोले.

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