लड़कियों पर हावी क्यों फिगर फोबिया

कई वर्षों से सिनेमा, टीवी और मौडलिंग के बढ़ते दबाव की वजह से सौंदर्य के मानदंड तेजी से बदलने लगे हैं. साफ शब्दों में कहा जाए तो आजकल जरूरत से ज्यादा खूबसूरत दिखने की अनर्गल चाहत, ऊपर से फैशन का अनावश्यक दबाव और उस पर खुले बाजार की मार ने यहां बहुतकुछ बदल डाला है.

सौंदर्य की इस मौजूदा परिभाषा से इत्तफाक रखने वाले भी इस सचाई को स्वीकार करने लगे हैं कि फिगर का यह फोबिया कई तरह की मुसीबतों को जन्म देने लगा है. सौंदर्य में नए अवतार जीरो फिगर की चाहत युवतियों के दिलोदिमाग पर इस हद तक हावी है कि वे सौंदर्य ही नहीं, अपने स्वास्थ्य को भी दांव पर लगा रही हैं.

नकल में माहिर होती युवा पीढ़ी को अब इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि कल तक प्रीति जिंटा, रानी मुखर्जी और काजोल जैसी गोलमटोल व गदराए यौवन की मल्लिकाएं लोगों की पहली पसंद हुआ करती थीं. आज तो जिसे देखो वही दिशा पाटनी, अनन्या पांडे, आलिया भट्ट और दीपिका पादुकोण जैसी फिगर पाना चाहती हैं.

टीवी, सिनेमा और मौडलिंग की इस भेड़चाल पर टिप्पणी करते हुए मशहूर मौडल और मिस चंडीगढ़ रह चुकीं दिशा शर्मा ने कहा कि करीना कपूर की फिल्म ‘टशन’ जैसी फिगर प्राप्त करने के लिए अब कालेजगोइंग युवतियां ही नहीं, बल्कि नवविवाहिता और कईकई बच्चों की मांएं भी डाइटिंग के साथसाथ जिस प्रकार ऐंटीबायोटिक दवाएं गटक रही हैं, उस ने उन के सामने कई तरह की शारीरिक समस्याएं खड़ी कर दी हैं.

दरअसल भारत में जीरो फिगर की गपशप पहली बार करीना कपूर ‘टशन’ फिल्म से ले कर आई थीं. इस फिल्म में करीना कपूर ने तोतिया रंग की सैक्सी बिकिनी पहनी थी. उस सीन को समुद्र में फिल्माया गया. इस के बाद से ही बड़े जोरशोर से जीरो फिगर यानी सैक्सी दिखना सम?ा गया. हाल में दीपिका पादुकोण ने भी फिल्म ‘पठान’ में बिकिनी पहनी. वह तो बवाल भगवा बिकिनी पर मच गया, वरना जिस करीने से दीपिका पादुकोण की फिगर को फिल्माया गया उस ने यंग लड़कियों के दिमाग में जरूर रश्क पैदा किया होगा.

आज जितने भी फैशन शो होते हैं वहां जीरो फिगर वाली मौडल ही रहती हैं. हालांकि कई पश्चिमी देशों ने जीरो फिगर वाली मौडल्स की प्रतियोगिताओं और फैशन परेडों के इतर ऐसी मौडल्स के लिए भी प्रतियोगिताएं आयोजित करनी शुरू की हैं जो चरबीयुक्त हैं. लेकिन इस के बावजूद जीरो फिगर आज युवतियों के सिर चढ़ कर बोल रहा है.

समस्या यह है कि इस से मासिकधर्म में गड़बड़ी, सिर चकराने और पेट में जलन होने की शिकायतें देखी गई हैं लेकिन बाजारवाद ने जीरो फिगर को इस हद तक लोकप्रिय बना दिया है कि तमाम समस्याओं के बावजूद यह ट्रैंड में रहता है.

जीरो फिगर की अवधारणा

सौंदर्य के मानक हर समय और स्थान के अनुरूप कभी स्थायी नहीं होते. जीरो फिगर 32-22-34  के नाम में परिभाषित है. इस में छाती 32 इंच, हिप 34 इंच और कमर की माप 22 इंच है, जो आमतौर पर किसी 8-9 साल की बच्ची का होता है.

इसी साइज को मौडलिंग और सौंदर्य प्रतियोगिता की दुनिया में मुफीद माना जाता है. हलकी और छरहरी काया की प्राप्ति के लिए कम से कम भोजन कर के मौडलिंग के क्षेत्र में जमी लड़कियों की मजबूरी को तो समझ जा सकता है मगर आजकल इस के लिए लड़कियों का मकसद युवाओं को आकर्षित करना भी है. भले ही इस के लिए उन्हें कोई भी कीमत चुकानी पड़े.

आजकल कमर ही क्यों, चेहरे पर चरबी की जरा सी भी परत जमा न हो, इस के लिए अब कौस्मेटिक सर्जरी के अलावा भी बहुत से विकल्पों का इस्तेमाल किया जा रहा है. चंडीगढ़ स्थित एक जिम की संचालिका कहती हैं, ‘‘केवल फिगर की दीवानगी में शरीर को कंकाल बनाना सम?ादारी की बात नहीं है. यह एक जनून है और हद से गुजर जाने के बाद यही चाहत आगे चल कर मानसिक बीमारी बन जाती है.’’

बेकाबू हो रही है ग्लैमर की स्थिति

ग्लैमरस फिगर वैसे तो हर औरत की चाहत होती है लेकिन जीरो फिगर की चाहत में युवतियां जिस प्रकार संतुलित आहार तक को नजरअंदाज कर रही हैं, वह अत्यंत घातक है. इस से शरीर में पौष्टिक तत्त्वों की कमी से पाचनतंत्र भी कमजोर पड़ जाता है, जिस से इंसान की भूख मर जाती है.

इस से एनोरौक्सिया की चपेट में आने पर चक्कर आना, बेहोशी के दौरे पड़ने की संभावना भी बढ़ जाती है. साथ ही, इस से गर्भाशय की समस्या और हड्डियों के कमजोर होने का भी खतरा बना रहता है.

औरत के शरीर को रोज औसतन 1,500 से 2,500 कैलोरी की जरूरत होती है लेकिन जब यह घट कर 1,200 रह जाती है तो शरीर अंदरूनी हिस्सों और हड्डियों से इस कमी को पूरा करना शुरू कर देता है, जोकि स्वास्थ्य के लिए काफी बुरा संकेत है.

समय से पहले बुढ़ापे को आमंत्रण

फिगर को मैंटेन रखने का दबाव मौडलिंग, एंकरिंग और अभिनय से जुड़ी युवतियों पर रहने की बात तो फिर भी समझ में आती है लेकिन शादी की तारीख नजदीक आते ही विवाह की तैयारियों में जुटी युवतियां भी जीरो फिगर की गिरफ्त में आए बिना नहीं रहतीं.

शादी से ठीक पहले कमर को पतला करने का क्रेज युवतियों के दिलोदिमाग पर इस कदर हावी होता है कि इस के लिए वे 15 से 16 किलोग्राम वजन कम कर लेती हैं. 18 से 25 साल के आयुवर्ग की युवतियों में यह प्रवृत्ति सर्वाधिक देखने को मिलती है.

हाल ही में वेटवाचर पत्रिका द्वारा कराए गए सर्वे में कहा गया है कि युवतियां भूख मार कर भले ही छरहरे बदन की मल्लिकाएं बन जाएं मगर थोड़े समय बाद उन का रूप प्रौढ़ औरत जैसा दिखाई देने लगता है. वे उम्र से पूर्व ही बड़ी दिखाई देने लगती हैं. सच तो यह है कि भरे गाल और मांसल देह वाली औरत बड़ी उम्र में भी ज्यादा युवा दिखाई देती है.

डाइटिंग के साइड इफैक्ट

आमतौर पर महिलाएं पतली होने के लिए डाइटिंग पर फोकस करती हैं. मशहूर महिला रोग विशेषज्ञ डा. सुषमा नौहेरिया की राय में वजन कम करने और फिर खुद को संतुलित रखने के लिए जौगिंग, व्यायाम का सहारा लेना डाइटिंग और वजन घटाने वाली दवा लेने से कहीं बेहतर है.

अत्यधिक डाइटिंग से समूचे शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ता है, मसलन, उपवास की स्थिति से शरीर में पाचक तत्त्वों का संचार कम होने से इंसान की पाचनशक्ति क्षीण हो जाती है, जिस से लिवर और मांसपेशियों पर बुरा असर पड़ता है. कुछ मामलों में हार्मोन असंतुलन की वजह से युवतियों में मासिकधर्म भी अनियमित होता देखा गया है. अत्यधिक व्यायाम या जिम जाने से शरीर में पानी की कमी के साथसाथ चेहरे पर झुर्रियां और आंखों के नीचे काले घेरे भी नजर आने लगते हैं.

परंपरा के नाम पर यह कैसा अंधविश्वास

आज सुबहसुबह मौर्निंग वाक पर जाते समय सामने वाली भाभीजी से लिफ्ट में मुलाकात हो गई. आमतौर पर 9 बजे तक सोई रहने वाली सासबहू को इतनी सुबहसुबह सजाधजा देख कर मैं चौंक गई और बोली, ‘‘अरे, आज इतनी सुबहसुबह कहां चल दीं आप दोनों?’’

‘‘आज शीतला सतमी है न तो उसी की पूजा करने पास के मंदिर में जा रहे हैं,’’ अपने हाथों में पूजा के थाल की ओर इशारा कर के वे बोलीं और फिर वे दोनों तो कार में बैठ कर पूजा करने चली गईं पर मैं सोच में पढ़ गई कि आज के समय में भी ये पढ़ीलिखीं महिलाएं चेचक जैसी बीमारी के प्रकोप से बचने के लिए शीतला सप्तमी की पूजा कर के पूरा दिन 1 दिन पूर्व बना बासा खाना खा रही हैं.

इसी प्रकार का एक व्रत होता है वट सावित्री का जिस में महिलाएं यमदूत से भी लड़ कर मृत्यु लोक से अपने पति को वापस ले आने वाली सावित्री देवी की पूजा वरगद के पेड़ के नीचे बैठ कर करती हैं. इस दिन वे सभी युवा मौडर्न महिलाएं जो कभी लोअरटीशर्ट और जींसटौप के अलावा अन्य किसी परिधान में नजर नहीं आतीं वे सभी सिंदूर से लंबीलंबी मांग भर, हाथों में भरभर चूडि़यां और साड़ी पहने सोलहशृंगार में नजर आती हैं.

घरेलू अंधविश्वास

आगरा शहर के जानेमाने सर्जन की 35 वर्षीय पत्नी सुमेधा पब्लिक स्कूल में प्रिंसिपल है. हरतालिका व्रत में अपने घर की पूजा का सुखद बयां करते हुए वे कहती है ‘‘अपार्टमैंट की सभी महिलाएं हमारे घर पर ही एकसाथ पूजा करतीं हैं. निर्जल व्रत करने से शरीर रात्रि तक जबाब दे देता है. चूंकि रात्रि जागरण करना इस पूजा में अनिवार्य है इसलिए हम सभी मिल कर भजन करते हैं जिस से जागरण काफी आसान हो जाता है.’’

इस व्रत को जहां महिलाएं अपने सुखद दांपत्य के लिए तो कुंआरी लड़कियां अच्छे वर यानी उन्हें भी शंकरजी जैसा वर प्राप्त हो सके.

इन प्रमुख व्रतों के अतिरिक्त बिहार की छठ पूजा, करवाचौथ, सोलह सोमवार, मकर संक्रांति, अनंत चतुर्दशी, नवरात्रि, संतान सप्तमी, हलछठ और महाशिवरात्रि जैसी अनेकों पूजाएं हैं जिन में अधिकांश भारतीय स्त्रियां कभी वरगद, कभी चंद्रमा, कभी सूर्य, कभी बेलपत्र तो कभी शिवपार्वती की पूजा कर के उन से अपने सुखद दांपत्य, पति की दीर्घायु, बेटे के उत्तम स्वास्थ्य और परिवार के कल्याण आदि का वरदान मांगती नजर आती हैं.

ये उदाहरण समाज की हर उम्र की तथाकथित शिक्षित महिलाओं की सोच की एक छोटी सी बानगी मात्र हैं, जिन में कामकाजी हों या घरेलू अंधविश्वासों से भरे इन पूजापाठों में सभी की मानसिकता एक ही स्तर की होती. वास्तव में अंधविश्वास, पूजापाठ, पंडेपुजारियों का डर और धर्म की भेड़चाल ऐसे प्लेटफौर्म हैं जहां पर शिक्षित, अशिक्षित, उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय सभी महिलाओं की सोच एकसमान हो जाती है.

आखिर महिलाएं ही क्यों पिसती हैं

प्रश्न यह उठता है कि आखिर इन धार्मिक क्रियाकलापों में महिलाएं ही क्यों फंसी रहती हैं? क्यों वे पूरे परिवार की सलामती का ठेका अपने सिर पर लिए बाबाओं और मंदिरों के चक्कर लगाती रहती हैं? क्यों अपनी खुद की सेहत और प्रगति के बारे में सोचने के स्थान पर पूजापाठ, मंदिरों और कथाप्रवचनों में खुद को व्यस्त किए रहती हैं? आइए, एक नजर डालते हैं उन कारणों पर:

स्त्री को कमजोर बनाती है

नवरात्रि में बालिकाओं ?को देवी का दर्जा प्रदान कर के उन के पैर पूजन करना, लड़कियों से घर के बड़ों के पैर नहीं छुआना, कन्यादान, बेटियों के घर का कुछ भी खाने से पाप लगता है और कन्या को देवी का दर्जा देने, मरणोपरांत बेटे के द्वारा मुखाग्नि देने से ही मोक्ष मिलता है जैसी अनेक मान्यताएं और रस्में हमारे समाज में व्याप्त हैं जिन के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से स्त्रियों को बाल्यावस्था से ही उन्हें उन के कमजोर और अबला होने का एहसास कराया जाता है.

इस से बाल्यावस्था से ही लड़कियों के मन में यह एहसास उत्पन्न हो जाता है कि घर के पुरुषों के मुकाबले वे कमजोर और समाज की दोयम दर्जे की नागरिक हैं. इस के परिणामस्वरूप वे बाल्यावस्था से ही मानसिक और भावनात्मक रूप से कमजोर और परिवार के पुरुषों पर आश्रित होती जाती हैं.

इस बावत एक कालेज स्टूडैंट अस्मिता कहती है, ‘‘तुम लड़की हो फलाना काम नहीं कर सकती, देर रात अकेली बाहर नहीं जाना जैसे अनेक सामाजिक मानदंड हैं जिन्हें सुन कर ही हम बड़े होते हैं और कहीं न कहीं मन में यह बैठ जाता है कि हम समाज या परिवार के दूसरे श्रेणी के ही नागरिक हैं.’’

बड़ों का अनुकरण करने की प्रवृत्ति

बाल्यावस्था से ही लड़कियां अपनी मां, दादी या नानी को इस प्रकार की पूजाएं करते देख कर ही बड़ी होती हैं और इतने वर्षों तक निरंतर देखतेदेखते उन के अंदर डर बैठ जाता है कि यदि पूजाओं की इन परंपराओं को आगे नहीं बढ़ाया गया या विधिवत पूजाअर्चना नहीं की गई तो कभी भी परिवार या पति का अहित हो सकता है. बस अपनी इसी मानसिकता के चलते वे अपने परिवार और पति की सलामती के लिए इन्हें करती हैं.

ससुराल में भी सासूमां के द्वारा रस्मोरिवाज के नाम पर ऐसी ही अनगिनत परंपराओं को निभाना सिखाया जाता है. भले ही आज लड़कियां बाहर होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रही हैं परंतु दूर रह कर भी माताएं उन्हें अंधविश्वास के जाल से निकलने नहीं देतीं. शिवरात्रि से एक दिन पूर्व हीरेवा ने होस्टल में रहने वाली अपनी इकलौती बेटी को फोन किया, ‘‘याद है न कल शिवरात्रि का व्रत रखना है?’’

‘‘हां मां याद है इतने सालों से तो तुम रखवाती रही हो तो कैसे भूल सकती हूं.’’

अंधविश्वास के ये बीज लड़कियों के मन में अपनी इतनी गहरी पैठ बना लेते हैं कि चाह कर भी वे इन से मुक्त नहीं हो पातीं. सौफ्टवेयर इंजीनियर रीमा कहती है, ‘‘मु?ो पता है कि करवाचौथ व्रत से मेरे पति की उम्र पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, मेरा बीमार बेटा नजर उतारने से नहीं बल्कि डाक्टर को दिखाने से ही ठीक होगा पर फिर भी इन्हें न करने को मन नहीं मानता.’’

माताओं के द्वारा वर्षों से अपनी बेटियों को दी गई अतार्किक शिक्षा के कारण लड़कियां आजीवन इस मकड़जाल से बाहर ही नहीं निकल पातीं और पीढ़ी दर पीढ़ी इन परंपराओं को आगे बढ़ती रहती हैं.

धर्मभीरु स्वभाव और पंडेपुजारी

आज भी भारतीय समाज में अधिकांश महिलाएं धर्मभीरु स्वभाव की होती हैं और परिवार की सुरक्षा तथा जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं के निराकरण के लिए अंधविश्वासों, चमत्कारों और पंडेपुजारियों का सहारा लेती हैं. ये पुजारी उन के मन में भय उत्पन्न करते हैं कि यदि आप ने पूजा नहीं की तो परिवार के सदस्यों को आर्थिक या शारीरिक हानि हो सकती है जिस के कारण महिलाएं भयग्रस्त हो पूजापाठ में व्यस्त रहती हैं.

प्रत्येक व्रतउपवास के लिए धर्म के ठेकेदारों ने एक पुस्तक तय की है. व्रतउपवास के अनुसार उस पुस्तक की कहानी को पढ़ना आवश्यक होता है और उस पुस्तक में महिलाओं को डराने और कमजोर बनाने वाली कथा ही लिखी होती है.

इस के अतिरिक्त ये पुजारी अपनी आजीविका के लिए आमजन में धार्मिक भय उत्पन्न कर देते हैं, जिस से भयभीत हो कर महिलाएं इन के चंगुल में फंस जाती हैं.

लेखिका नीता कुछ वर्षों पूर्व अपने साथ हुई एक घटना का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘‘हमारे नएनवेले घर में एक पारिवारिक मित्र अपने किसी पुजारी गुरु को ले कर आए. उन पंडितजी ने हमारे यहां कुछ भी नहीं खाया. काफी देर रुकने के बाद जाते समय गेट पर वे मुझ से बोले के बेटा, मैं ने अपनी नजर से तुम्हारा पूरा घर देखा. सबकुछ बहुत अच्छा है परंतु हौल के एक कोने में एक बुरी आत्मा का वास है. यदि तुम ने इसे ठीक नहीं करवाया तो यह आत्मा इस घर के मुखिया का नाश कर देगी. परंतु चिंता की कोई बात नहीं है मैं अगली बार आऊंगा तो सब ठीक कर दूंगा,’’ कहते हुए उन्होंने अपने आने तक दीपक जलाने, मंत्रों का जाप करने जैसे कुछ उपाय मुझे बताए.

‘‘उन्होंने मुझे पकड़ा ही इसलिए कि मैं डर जाऊंगी. परंतु मैं एक लेखिका हूं और हमेशा दिल के स्थान पर दिमाग से काम लेती हूं. ये पंडितजी भी तो एक इंसान ही हैं और ये कैसे मेरा भलाबुरा बता सकते हैं. आज इस घटना को 10 साल हो गए हैं और हमारा परिवार पूरी तरह सुरक्षित और निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है.’’

तार्किक शिक्षा का अभाव

शहरी क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो आज भी पुरुषों के अनुपात में महिलाओं की शिक्षा का स्तर  बेहद कम है जिस के कारण उन की सोचने समझने की क्षमता बहुत कम हो जाती है. शहरी क्षेत्रों में इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाली आज की पीढ़ी को दी जाने वाली शिक्षा में तर्क के स्थान पर रटने वाली शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाता है जिस से युवा पीढ़ी में तार्किक क्षमता का अभाव पाया जाता है. इस कारण से वह किसी भी विषय पर तर्क शक्ति का प्रयोग करने के स्थान पर भेड़चाल में चलना अधिक पसंद करती है.

आज भी इंग्लिश माध्यम के स्कूलों में पढ़ीं और इन स्कूलों में अध्यापन कार्य करने वाली अनेक आधुनिकाएं अपने बच्चों और पति की सलामती के लिए व्रत रखतीं और नमक, तेल, राई, मिर्च से हरदम नजर उतारती पाई जाती हैं.

सूर्यग्रहण के दौरान 35 वर्षीय एक प्रशासनिक अधिकारी शेफाली ने न तो भोजन बनाया, न खाया और न ही घर से बाहर निकली, यही नहीं सूर्यग्रहण की अवधि के उपरांत शाम को स्नान भी किया जिस से अगले दिन बीमार भी हो गई. इस दौरान शेफाली जैसी अनेक इंग्लिश माध्यम से शिक्षा प्राप्त, घरों में आधुनिकतम फ्रिज का प्रयोग करने वाली तथाकथित आधुनिकाएं ग्रहण को निष्प्रभावी करने के लिए भोजन में कुश, दूब और तुलसी के पत्ते डालते नजर आईं, जबकि सूर्य और चंद्रग्रहण मात्र एक खगोलीय घटना है.

महिलाओं का संकुचित दृष्टिकोण

हमारे समाज में जहां लड़कियों का पालनपोषण बंधन और वर्जनाओं से युक्त किया जाता है वहीं लड़कों का पालनपोषण स्वच्छंद और उन्मुक्त से परिपूर्ण होता है. जैसे ही एक बालिका किशोरावस्था में कदम रखती है उस पर परिवार का संरक्षण और पाबंदियां बढ़ा दी जाती हैं. घर से बाहर निकलने, सखियोंसहेलियों से बात करने के लिए कठोर नियम बना दिए जाते हैं वहीं लड़कों पर इस प्रकार का कोई बंधन नहीं होता.

उन के बड़े होने के साथसाथ उन्मुक्तता भी बढ़ती जाती है. बाहर की दुनिया देख कर वे बहुतकुछ सीखते हैं जिस से लड़कियों की अपेक्षा उन के सोचने का नजरिया अधिक विस्तृत होता है.

भले ही आज अभिभावक अपनी बेटियों को बाहर भेज कर पढ़ रहे हैं परंतु वहां भी उन पर अप्रत्यक्ष रूप से अनेक पाबंदियां लगाई जाती हैं जिस से उन के व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पाता और उन का दृष्टिकोण संकुचित ही रह जाता है. इसीलिए वे आगे चल कर अपने परिवार के पुरुषों का अनुगमन करती नजर आतीं हैं.

पुरुषप्रधान समाज

भारतीय समाज पुरुषप्रधान समाज है जहां अकसर परिवार का मुखिया पुरुष होता है और अधिकांश घरों में कमाने वाला एकमात्र जरीया भी. सदियों से महिला को भजन, पूजन और सत्संग जैसे अनेक धार्मिक क्रियाकलापों का उत्तरदायित्व सौंप कर पुरुष अपनी मनमरजी करते रहे हैं और यही परंपरा आज भी चली आ रही है.

यही नहीं कई बार तो महिलाएं धर्मकर्म और पूजा में इतनी अधिक व्यस्त हो जाती हैं कि इस से उन का दांपत्य जीवन तक प्रभावित हो जाता है, पतिपत्नी का परस्पर रिलेशनशिप तक ढकोसलों और अंधविश्वासों की गिरफ्त में आ जाती है और फिर अपने रिश्ते को बचाने के लिए वे धर्म के ठेकेदारोंऔर पुजारियों का सहारा लेती नजर आती हैं.

तोड़ना होगा इस जाल को

यह सही है कि सदियों से समाज में चली आ रही इस भेड़चाल को रोकना काफी मुश्किल है परंतु जब तक महिलाएं स्वयं अपने पैरों में पड़ी इन बेडि़यों को नहीं तोड़ेंगी तब तक उन के व्यक्तित्व का समुचित विकास होना असंभव है और इस के लिए दिल नहीं दिमाग की तार्किक क्षमता का उपयोग करना होगा. समाज की पुरानी पीढ़ी के स्थान पर युवतियों को अपनी सोच को उन्नत बनाने के साथसाथ पुरानी पीढ़ी को भी बदलाव की ओर अग्रसर करना होगा क्योंकि आगे आने वाला युग पूर्णतया तकनीक पर आधारित होगा.

ऐसे में आगे आने वाली पीढ़ी को भी मानसिक रूप से सशक्त बनाए जाने की आवश्यकता है ताकि इन सब से दूर रह कर महिलाएं स्वयं अपने निर्णय ले कर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकें.

दिमाग का हो सही जगह उपयोग

दोस्तों के साथ बाहर जाने से मना करने पर या मर्यादित ड्रैस पहनने को कहने जैसी छोटीछोटी बातों पर लौजिक की बात करने वाली आज की युवा पीढ़ी धर्म के मामले में भेड़चाल का अंधानुकरण करने में कोई परहेज नहीं करती. एक नामीगिरामी कालेज से एमबीबीएस कर रही श्रेया एकादशी पर चावल न खाने का कारण पूछने पर कहती है, ‘‘पता नहीं मां और दादी ऐसा करती हैं तो मैं भी कर रही हूं.’’

वहीं तर्क पर भरोसा करने वाली इंटीरियर डिजाइनर ईवा कहती है, ‘‘मेरे लिए मेरा कर्म ही पूजा है. आम मम्मियों की तरह मेरी मां भी अकसर मु?ो अंधविश्वासों से भरी अनेक पूजाएं और व्रत करने के लिए कहती हैं. उस के उत्तर में मैं बस मां से यही कहती हूं, ‘‘यदि आप की ये भेड़चाल वाली पूजाएं मु?ो बिना काम किए पैसे दे दें तो मैं सब करने को तैयार हूं,’’ बस यहां मां चुप हो जाती है.

सोचने की बात है कि कोई भी पूजा, बाबा या मंदिर हमारा भला या बुरा कैसे कर सकता है. 2 युवा और मेधावी बच्चों की मां अनामिका कहती है, ‘‘जब बचपन में मेरे बच्चे बीमार पड़ते थे तो हर इंसान मु?ो नमकमिर्च से इन की नजर उतारने को कहता पर मैं ने कभी उन की नजर नहीं उतारी क्योंकि मेरा मानना है कि बच्चे की परेशानी आग में नमकमिर्च जलाने से नहीं बल्कि डाक्टरी इलाज से दूर होगी सो मैं हमेशा डाक्टर के पास ही गई.’’

विज्ञान और तर्क समझें

दकियानूसी परंपराओं, मान्यताओं, भेड़चालों से मुक्ति का एकमात्र रास्ता है अपने ज्ञानचक्षुओं को हरदम खुला रखना. किसी भी कार्य को महज इसलिए न किया जाए कि मेरे परिवार में होता आया है. मेरी मां या सास ऐसा ही करती थीं तो मैं ने भी कर लिया के स्थान पर इसे क्यों करें इस पर विचार करना होगा.

हमारे तथाकथित बाबा, पंडेपुजारी और धर्मरक्षक भी इस तथ्य को भलीभांति जानते हैं कि महिलाएं स्वभाव से भावुक और परिवार की सुरक्षा के प्रति अति संवेदनशील होती हैं, घर की महिला के अंदर परिवार की असुरक्षा का भय उत्पन्न करने से उन का कार्य आसान हो जाएगा. इसीलिए वे अपने जाल में महिलाओं को ही फंसाते हैं.

एक कर्नल की पत्नी मंजुल सिंह कहती हैं, ‘‘मेरे विवाह को 45 वर्ष हो गए. आज तक कभी कोई व्रत नहीं रखा. यहां तक कि जब ये युद्ध पर गए तब भी नहीं. आज तक हम कभी किसी बाबा के दरबार या मंदिर में नहीं गए क्योंकि मु?ो लगता है कि कोई भी व्रतउपवास कैसे मेरे पति की रक्षा कर सकता है. यही नहीं हमारे इस लंबे सुखद वैवाहिक जीवन में हम पतिपत्नी में कभी विवाद या अबोला तक नहीं हुआ क्योंकि सुखद दांपत्य के लिए किसी पूजापाठ, बाबा, मंदिर या व्रतउपवास की नहीं बल्कि आपसी प्यार, सम?ादारी और एकदूसरे की भावनाओं की कद्र करने की आवश्यकता होती है.’’

भेदभाव रहित हो पालनपोषण

आजकल अधिकांश मातापिता कहते हैं कि हम अपने बेटे और बेटी के पालनपोषण में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते परंतु क्या सच में वे अपनी बेटियों को मानसिक रूप से कमजोर कर देने वाली खोखली धार्मिक रस्मों और

रिवाजों से बचा पाते हैं? स्त्री को मानसिक रूप से मजबूत बनाने के लिए उसे कन्यादान, पैर पूजन और देवी का दर्जा देने जैसी अनेक कुरीतियों से बचाना होगा

कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न

यौन उत्पीड़न एक तरह का व्यवहार है. इसे यौन प्रकृति के एक अवांछित व्यवहार के रूप में परिभाषित किया गया है. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न दुनिया में एक व्यापक समस्या है चाहे वह विकसित राष्ट्र हो या विकासशील राष्ट्र या अविकसित राष्ट्र, महिलाओं के खिलाफ अत्याचार हर जगह आम है. यह पुरुषों और महिलाओं दोनों पर नकारात्मक प्रभाव देने वाली एक सार्वभौमिक समस्या है. यह विशेष रूप से महिला लिंग के साथ अधिक हो रहा है.

कोई कितना भी बचाव, निषेध, रोकथाम और उपचार देने का प्रयास करता है, फिर भी ऐसा उल्लंघन हमेशा होता रहता है. यह महिलाओं के खिलाफ अपराध है, जिन्हें समाज का सबसे कमजोर तबका माना जाता है. इसलिए उन्हें कन्या भ्रूण हत्या, मानव तस्करी, पीछा करना, यौन शोषण, यौन उत्पीड़न से लेकर सबसे जघन्य अपराध बलात्कार तक, इन सभी प्रतिरक्षाओं को सहना पड़ता है. किसी व्यक्ति को उसके लिंग के कारण परेशान करना गैरकानूनी है.

 

यौन उत्पीड़न अवांछित यौन व्यवहार है, जिससे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने की उम्मीद की जा सकती है जो आहत, अपमानित या डरा हुआ महसूस करता है. यह शारीरिक, मौखिक और लिखित भी हो सकता है.

यौन उत्पीड़न में कई चीज़ें शामिल हैं:

  • वास्तविक या बलात्कार का प्रयास या यौन हमला.
  • जानबूझकर छूना, झुकना, मुड़ना या चुटकी बजाना.
  • चिढ़ाना, चुटकुले, टिप्पणी, या प्रश्न.
  • किसी पर सीटी बजाना.
  • किसी कर्मचारी के कपड़े, बाल या शरीर को छूना.
  • किसी अन्य व्यक्ति के आसपास खुद को यौन रूप से छूना या रगड़ना.

कार्यस्थल छोड़ने का मुख्य कारण :

सितंबर 2022 में जारी यूएनडीपी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत में काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 2021 में लगभग 36% से घटकर 2022 में 33% हो गया। कई प्रकाशनों ने कई मूल कारणों की पहचान की, जिनमें महामारी, घरेलू दायित्वों में वृद्धि और शादी एक बाधा के रूप में शामिल है. लेकिन क्या यही एकमात्र कारण हैं? नहीं, जिन अंतर्निहित कारणों पर हम अक्सर विचार करने में विफल रहे हैं उनमें से एक कार्यस्थल में उत्पीड़न है, जिसके कारण महिलाएं या तो कार्यबल छोड़ देती हैं या इसमें प्रवेश करने के लिए अनिच्छुक होती हैं.

महिलाओं ने वित्तीय रूप से स्वतंत्र बनकर, सरकारी, निजी और गैर-लाभकारी क्षेत्रों में काम करके समाज के मानकों को तोड़ने की कोशिश की है, जो उन्हें मालिकों, सहकर्मियों और तीसरे पक्ष से उत्पीड़न के लिए उजागर करता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, कार्यस्थल या कार्यालय में यौन उत्पीड़न के 418 मामले दर्ज किए गए. लेकिन ये संख्या केवल एक उत्पीड़न को इंगित करती है. अधिकांश लोगों का मानना है कि कार्यस्थल उत्पीड़न केवल यौन प्रकृति का हो सकता है लेकिन वास्तव में, विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न से संबंधित विभिन्न श्रेणियां हैं, जो सभी कर्मचारी को मानसिक रूप से प्रभावित करती हैं, जिससे अपमान और मानसिक यातना होती है जिसके परिणामस्वरूप उनकी कार्य क्षमता में कमी आती है और काम से छूटना होता है.

कुछ महिलाएं अभी भी कार्यस्थल में उत्पीड़न के खिलाफ कारवाही करने से डरती हैं. उन्ही महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की कुछ उल्लेखनीय शिकायतें जो राष्ट्रीय सुर्खियों में आईं, निम्नलिखित द्वारा दायर की गईं:

  1. रूपन देव बजाज, (आईएएस अधिकारी), चंडीगढ़ ने ‘सुपर कॉप’ के.पी.एस. गिल के खिलाफ की शिकायत.
  2. देहरादून में पर्यावरण मंत्री के खिलाफ अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ की एक कार्यकर्ता ने शिकायत की दर्ज.
  3. मुंबई में अपने सहयोगी महेश कुमार लाला के खिलाफ एक एयरहोस्टेस ने की कंप्लेन.

शिकायत कैसे दर्ज कर सकते हैं :

  • शिकायत घटना के 3 महीने के भीतर लिखित रूप में की जानी चाहिए. घटनाओं की श्रृंखला के मामले में, पिछली घटना के 3 महीने के भीतर रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए. वैध परिस्थितियों पर समय सीमा को और तीन महीने तक बढ़ाया जा सकता है.
  • शिकायतकर्ताओं के अनुरोध पर, जांच शुरू करने से पहले समिति सुलह में मध्यस्थता करने के लिए कदम उठा सकती है. शारीरिक/मानसिक अक्षमता, मृत्यु या अन्य किसी स्थिति में कानूनी उत्तराधिकारी महिला की ओर से शिकायत कर सकता है.
  • शिकायतकर्ता जांच अवधि के दौरान स्थानांतरण (स्वयं या प्रतिवादी के लिए) 3 महीने की छुट्टी या अन्य राहत के लिए कह सकता है.
  • जांच शिकायत के दिन से 90 दिनों की अवधि के भीतर पूरी की जानी चाहिए। गैर-अनुपालन दंडनीय है.

ब्रजभूषण शरण सिंह बनाम पहलवान: न्याय में देरी क्यों?

सैंकड़ों ऐसे मामले हैं जिन में किसी युवती या औरत की बिना सुबूत शिकायत पर बलात्कारछेड़छाड़बैड टच पर पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया और वह महीनों सालों जेल में छोड़ा. आश्चर्य की बात है कि देश के लिए दुनिया भर से तरहतरह के गोल्डसिल्वरब्रौंज मेडल लाने वाली पहलवान लड़कियों के खुले आरोपों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने ब्रजभूषण शरण सिंहजो रैसलिंग फेडरेशन औफ इंडिया का प्रमुख है और  वह भाजपा नेता हैको पुलिस छू तक नहीं रही.

भारतीय जनता पार्टी काबिले तारीफ है कि वह अपने कर्मठ सपोर्टर की इस हद तक सुरक्षा करती है कि जब 2 महीने से ये रैसलर युवतियां जंतरमंतर पर बैठ कर धरना दे रही हैं तो भी नेता को बचाने की कोशिश हो रही है. जब इन रैसलर्म और उन के मर्थकों ने संसद पर 28 मई को जाने की कोशिश की तो पुलिस ने उन की जम कर ऐसी धुनाई की जो उन्होंने ओलंपिक और दूसरे खेल टूर्नामैंटों ने नहीं सही हो. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.

यही नहीं उन के जेल में ले जाते समय बस में खींचे फोटो को फोटोशौप से मुरझाए चेहरों को मुस्कराते चेहरे बना दिए गए और पार्टी के विशाल डवैल सिस्टम में डाल कर साबित करने की कोशिश थी कि ये लड़कियां बस में पुलिस के पहरे में पिकनिक पर जा रही हैं.

असल में देश में कुश्ती को कोई खास इज्जत आज भी नहीं दी जाती क्योंकि इस में आने वाली लड़कियां समाज के पिछड़े वर्गों से आती हैं. जो बात आमिर खां ने अपनी फिल्म दंगल’ में दिखाई थी वही असल में हो रहा है कि ये पिछड़ी लड़कियां हावी न हो सकें. मामला चाहे बलात्कार का हो या न हो.

अगर सरकाररैसलिंग फेडरेशन और बाकी खेल फेडरेशन इस मामले में चुप हैं तो इसलिए कि सब बंटे हुए हैं और किसी को भी लड़कियों की छेडख़ानी पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

पहलवानों की कुश्तियां हमेशा इस देश में गरीबों का खेल समझ गया है. यह तो सिर्फ क्रिकेट है जो अंग्रेजी नबाबों का खेल था जिस में अच्छे घरों के लोग गए थेहांकीफुटबालहमारे अमीरों के खेल नहीं है. महिला क्रिकेट को भी वह भाव नहीं मिलता जो पुरुष क्रिकेट को मिलता है क्योंकि उस में पिछड़ी जातियों की लड़कियां हैं.

एक तो कुश्ती जैसा खेल की खिलाड़ी और ऊपर से लड़कियांउन्हें भला भाव कैसे दिया जा सकता है. यहां तो ऊंची जातियों की औरतों को भी पैर की जूती समझा जाता है और उन्हें सेवा करने की ट्रेङ्क्षनग जन्म होते ही दी जाती है. अच्छी औरत वही है जो पितापतिसांसससुरघर में मंदिरपंडोंपुजारियों और बच्चों की सेवा करे. वह आवाज उठाए तो चाहे चाहे जितनी जोर की होदबानी ही होगी. जंतरमंतर पर बैठी रैसलर्स अपना धर्म भूल गई हैं कि वे टुकड़ों के बदले सेवा के लिए हैबराबरी की इज्जत पाने का हक नहीं मांग सकती है.

धर्म के आगे चौपट होती शिक्षा

देश में मंदिरों और राजनीति के उद्योग के अलावा अगर कोई उद्योगधंधा फूलफल रहा है तो वह पढ़ाई का. केंद्र व राज्य सरकारों ने पिछले 30-40 सालों में ऊंची जातियों के साथ मिल कर मुफ्त अच्छी सरकारी पढ़ाई को ऐसा चौपट किया है कि आज हर घर की बड़ी आमदनी घर, खाने, कपड़ों, इलाज, सैरसपाटे पर नहीं जाती, इन 3 मदों- मंदिरों, राजनीति और पढ़ाई में जाती है.

मंदिर हर कोने में बन रहे हैं और पैसा पा रहे हैं. पुलिस वाले, सरकारी अफसर हर समय नोटिस या बुलडोजर लिए खड़े हैं. हर कोने में प्राइवेट इंग्लिश मीडियम से टाई लगाए महंगी फीस दे कर अधकचरे लड़केलड़कियां खड़े हैं जो कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे प्राइवेट ऐजुकेशनल इंस्टिट्यूटों में पढ़े हैं. उन का नारा है- आओ, आओ डिगरी ले जाओ, तुरंत डिगरी लो. पढ़ो या न पढ़ो पर हमारी भव्य बिल्डिंग देखो, बाग देखो, बसें देखो, स्वीमिंग पूल देखो और डिगरी ले जाओ.

धर्म के धंधे की तरह इस सरकारी संरक्षण पाए प्राइवेट स्कूलिंग और बिलकुल नियंत्रण बिना चल रहा कोचिंग का धंधा 200 अरब रुपए से कम का नहीं है. किताबों, आनेजाने, कंप्यूटरों और फिर वहां फास्ट फूड जोमैटों का खर्च अलग.

कम से कम आधे ग्रैजुएटों की डिगरी बेकार है, बच्चों के मांबापों को समझाते हैं और वे हिचकिचाते हैं कि अपने बच्चों को इतने महंगे स्कूलों, विश्वविद्यालयों में भेजें या नहीं. अब ये लोग भारी पैसा प्रचार पर खर्चते हैं. सड़कों पर होर्डिंग लगते हैं, अखबारों के पहले पेज लिए जाते हैं, कंसल्टैंटों को मोटी रकम दी जा रही है, स्टूडैंट्स का डाटा तैयार हो रहा है, जो महंगे में बिकता है. सब बेकार की डिगरी देने के लिए.

आधे से तीनचौथाई ग्रैजुएट, इंजीनियर, डाक्टर, एमबीए, विशेषज्ञ अपने सब्जैक्ट की एबीसी नहीं जानते. हां, कुछ अंगरेजी बोल लेते हैं, बढि़या कपड़े पहन लेते हैं, स्कूटी, कार ड्राइव कर लेते हैं. स्टारबक और जोमैटो पर और्डर करना जानते हैं. उस के बाद बेकार मांबाप के पैसे पर आश्रित रहते हैं. लाखों तो यही सोच रहे हैं कि मांबाप के पुराने मकान को बेच कर जो पैसा मिलेगा उस से या तो विदेश चले जाएंगे या फिर देश में ही मौज की जिंदगी जी लेंगे.

हजारों कोचिंग दुकानों और किसी विश्वविद्यालय से जुड़े कालेज या इंस्टिट्यूट की नियमित फैकल्टी नहीं है. एक ही प्रोफैसर 4-4, 5-5 इंस्टिट्यूटों के रोल पर रहता है यानी सप्ताह में 1 दिन आ कर नाम दे कर खानापूर्ति करता है. स्टूडैंट्स को यह पता है क्योेंकि वे तो मौज करने आए हैं और क्लास का न होना पर डिगरी का मिल जाना ही तो उन्हें चाहिए. वे अपना समय आराम से बिता सकते हैं.

जिन्होंने ऐजुकेशन लोन ले रखा है उन्हें भी चिंता नहीं होती क्योंकि गारंटर मांबाप होते हैं जो बैंक का लोन न चुका पाने पर अपने जेवर बेच कर, घर बेच कर चुका देंगे. यह कोई अमेरिका थोड़े ही है जहां राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अरबों डौलर के स्टूडैंट फंड माफ कर दिए. हमारी फक्कड़ सरकार को तो मंदिरों और बुलडोजरों से फुरसत हो तो पढ़ाई पर ध्यान दे.

और झूठों की तरह भाजपा के प्रधानमंत्री ने लाखों नौकरियों को पैदा करने का  झूठ सैकड़ों बार बोला है. 2024 तक चमत्कार की तरह हरेक को घर बैठे अगर नौकरी नहीं मिली तो भी चुनाव जीतने के लिए हिंदूमुसलिम विवाद काफी है.  20-25 हजार रुपये महीने की मासिक इनकम वाले परिवार इन वादों के बल पर 2-2, 3-3 लाख की फीस पहले ही दिन भरते हैं और फिर बाकी साल इस उम्मीद पर जीते हैं कि बच्चे पढ़ कर कमा कर मांबाप का घर भरेंगे. उन्हें क्या मालूम कि इन प्राइवेट स्कूलों, कोचिंग क्लासों और यूनिवर्सिटीज में तो मौजमस्ती, शराब, सैक्स, ड्रग्स की पढ़ाई हो रही है.
सरकार को यह भाता है क्योंकि यही लड़के भगवा पट्टी बांधे हिंदूहिंदू के नारे लगाते हैं और बची शक्ति मंदिरों को देते हैं.

गलत है जैंडर के हिसाब से न्याय

दिसंबर, 2017 में एक आदमी की शादी हुई पर उस की पत्नी से नहीं बनी. 1 साल के भीतर ही ऐसे हालात हो गए कि उसे लगा इस रिश्ते में रहा तो मर जाएगा. इसलिए उस ने पत्नी से अलग होने का फैसला ले लिया और कोर्ट जा कर तलाक की अपील की. वह इंसान 10 साल तक केस लड़ता रहा, लेकिन इस दौरान उस पर क्या कुछ गुजरा वह बता नहीं सकता.

पत्नी ने 498-ए का केस कर दिया. वह जेल चला गया. लेकिन किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि सच क्या है. कहीं यह मुकदमा झठा तो नहीं है. खैर, किसी तरह उसे कोर्ट से जमानत मिली तो उस ने अपना केस खुद लड़ने का फैसला किया. फिजियोथेरैपिस्ट की नौकरी छोड़ कर उस ने वकालत की पढ़ाई की ताकि खुद को बेगुनाह साबित कर सके.

उस की मेहनत रंग लाई और वह बाइज्जत बरी हो गया. पत्नी से उसे तलाक भी मिल गया. लेकिन उसे पत्नी से आजाद होने की भारी कीमत चुकानी पड़ी. समय और पैसे की बाबादी हुई वह अलग.

टूट गया सब्र का बांध

ऐसा ही एक और मामला है जहां तलाक के बाद भी पत्नी ने अपने पति का पीछा नहीं छोड़ा. वह पति के औफिस जा कर हंगामा शुरू कर देती, उसे गालियां देती, शोर मचाती. आजिज आ कर वह इंसान नौकरी छोड़ कर भाग गया, तो वह उसे व्हाट्सऐप पर मैसेज कर परेशान करने लगी. उसे लोगों से पिटवाया, उसे अगवा करवा कर अपने घर में ला कर बंद कर दिया. फिर 100 नंबर पर कौल कर के पुलिस को बुला कर कहा कि वह उस का रेप करने की कोशिश कर रहा था. रेप केस में उस इंसान को जेल हो गई.

जेल से निकल कर जब वह फिर से जिंदगी जीने की कोशिश करने लगा तो वह फिर आ धमकी और उसे गालियां बकने लगी, मारा भी. अब उस इंसान के सब्र का बांध टूट गया था इसलिए उस ने 24 पन्ने का लंबा सुसाइड नोट लिख कर आत्महत्या कर ली.

आखिर उस इंसान की गलती क्या थी? पुरुष होने की? क्या कोर्ट को उस की बात नहीं सुननी चाहिए थी और क्या समाज का यह फर्ज नहीं बनता था कि वह दोनों का पक्ष सुने?

मेरठ की एक महिला ने सरकारी अस्पताल से फर्जी मैडिकल सर्टिफिकेट बनवा कर अपने पति के खिलाफ थाने में मुकदमा दर्ज करवाया. महिला की बातों में आ कर पुलिस ने उस के पति को गिरफ्तार भी कर लिया. लेकिन बाद में इस मामले की जांच में पता चला कि महिला का किसी गैरमर्द से नाजायज संबंध था और पति इस पर एतराज करता था. अपने पति को रास्ते से हटाने के लिए महिला ने यह योजना बनाई और पति को झूठे केस में फंसा कर उसे जेल करवा दी.

पुरुष भी होते हैं घरेलू हिंसा के शिकार

घरेलू हिंसा और शोषण की बात वैसे तो घर की चारदीवारी से बहुत मुश्किल से बाहर आ पाती है और अगर आती भी है तो अमूमन समझ जाता है कि पीडि़त महिला ही होगी. लेकिन कई बार पुरुष भी चुप रह कर यह सबकुछ झेलते हैं. शर्मिंदगी, समाज के डर के कारण वे अपना दर्द बयां नहीं कर पाते हैं और अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं.

हौलीवुड सुपर स्टार जौनी डेप के साथ भी यही हुआ कि पत्नी के हाथों घरेलू हिंसा के शिकार होते हुए भी वे चुप रहे कि लोग और समाज उन के बारे में क्या कहेंगे.

जौनी डेप की ऐक्स वाइफ ऐंबर डेप ने उन पर घरेलू हिंसा का आरोप लगाते हुए कहा था कि नशे की हालत में डेप उस का यौन उत्पीड़न करते हैं और उसे मारने की धमकी देते हैं. ऐंबर की तरफ से उस की डाक्टर ने भी गवाही दी थी कि शराब के नशे में जान उस के साथ जबरन संबंध बनाने की कोशिश करते हैं और उस के साथ मारपीट भी करते हैं.

डाक्टर ने गवाही में यह भी कहा कि एक बार जौनी इतने हिंसक हो गए थे कि वे ऐंबर के प्राइवेट पार्ट में कोकीन ढूंढ़ने की कोशिश करने लगे. मगर तमाम गवाहों, सुबूतों, वीडियो, औडियो और सैकड़ों मैसेज खंगालने के बाद यही पता चला कि जान डेप पर लगाए गए सारे इलजाम झूठे थे.

कोरोनाकाल में पूरे देश में लौकडाउन के चलते लोग अपनेअपने घर में कैद हो कर रह गए थे. उस दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में भी काफी बढ़ोतरी हुई थी. लेकिन उस दौरान सिर्फ महिलाएं ही घरेलू हिंसा की शिकार नहीं हुईं, बल्कि कई पुरुष भी घरेलू हिंसा के शिकार हुए थे. यह बात अलग है कि भारत में अभी तक ऐसा कोई सरकारी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं हुआ जिस से इस बात का पता चल सके कि घरेलू हिंसा में शिकार पुरुषों की तादाद कितनी है. लेकिन कुछ गैरसंस्थान इस दिशा में जरूर काम कर रहे हैं.

दुनियाभर में केवल महिलाओं और बच्चों के साथ ही नहीं, बल्कि पुरुषों के साथ भी अत्याचार के मामले सामने आ रहे हैं. सिर्फ भारत में हर साल लगभग 65 हजार से अधिक शादीशुदा पुरुष खुदकुशी कर लेते हैं, जिस का कारण उन पर दहेज, घरेलू हिंसा, रेप जैसे झूठे मुकदमों का दर्ज होना है.

महिलाओं की सुरक्षा के लिए बलात्कार, दहेज आदि कानून जरूरी हैं, लेकिन कहीं न कहीं इन कानूनों को हथियार बना कर कुछ महिलाएं इन का दुरुपयोग भी कर रही हैं. ऐसे केसों में जो पुरुष फंसे या फंसाए जा रहे हैं, उन की इज्जत, समय और जो पैसों की बरबादी होती है उस की भरपाई कौन करेगा? कानून का आज जो दुरुपयोग किया जा रहा है उसे रोकना बहुत जरूरी है नहीं तो निर्दोष पुरुषों की जिंदगी झूठे केसों में फंसती चली जाएगी.

हंसी के पात्र बन जाते हैं

‘सेव इंडिया फैमिली फाउंडेशन’ और ‘माई नेशन’ नाम की गैरसरकारी संस्थाओं के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि भारत में 90 फीसदी से कहीं ज्यादा पति 3 साल की रिलेशनशिप में कम से कम एक बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि पुरुष जब अपनी शिकायतें पुलिस या फिर किसी और प्लेटफौर्म में करनी चाहीं तो लोगों ने उन की बातों पर विश्वास नहीं किया, बल्कि वे और हंसी के पात्र बन गए.

एक स्टडी कहती है कि जीवन में कभी न कभी अपने पार्टनर के हाथों हिंसा ?ोलने में महिलाओं और पुरुषों की तादाद लगभग बराबर है. हालांकि गंभीर हिंसा के मामले पुरुषों में महिलाओं के मुकाबले थोड़े कम होते हैं.

झूठे रेप केस में फंसते पुरुष

दिल्ली के आत्मा राम सनातन धर्म कालेज की आर्ट्स की स्टूडैंट आयुषी भाटिया ने पिछले 1 साल में 7 रेप केस अलगअलग पुलिस स्टेशनों में दर्ज कराए. लेकिन ये सारे फाल्स रेप केस थे. सख्ती करने पर पुलिस के सामने आयुषी ने स्वीकार किया कि वह लड़कों पर रेप के झूठे आरोप लगा कर उन से जबरन पैसे वसूलती थी.

उस ने बताया कि कैसे वह जिम, इंस्टा, औनलाइन डेटिंग ऐप पर 20 से 22 साल के लड़कों से दोस्ती करती और फिर उन से मिलती थी. लड़के के साथ फिजिकल रिलेशनशिप और किसी के साथ प्यार के वादे के बाद वह उस पर रेप का आरोप लगा दिया करती थी. सब से अजीब बात तो यह कि उस ने 1 साल में 7 झूठे रेप केस पुलिस स्टेशन में दर्ज करवाए.

बलात्कार एक घिनौना अपराध तो है ही, लेकिन उस से भी ज्यादा घिनौना अपराध यह है कि एक निर्दोष व्यक्ति पर बलात्कारी होने का ठप्पा लग जाना क्योंकि यहां पर एक निर्दोष व्यक्ति के मानप्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है, साथ में उस की जिंदगी भी नर्क बन जाती है.

कुछ सालों पहले नई दिल्ली के करावल नगर के इब्राहिम खान पर बलात्कार का आरोप लगा था और आरोप भी किसी गैर ने नहीं, बल्कि उस की खुद की सगी बेटी ने लगाया था. संगीन आरोप था कि उस ने अपनी बेटी का रेप किया जिस से वह गर्भवती हो गई. इस आरोप के बाद इब्राहिम का सामाजिक बहिष्कार तो हुआ ही उसे जेल भी हुई. जेल में भी उसे कैदियों ने पीटा.

7 साल जेल में रहने के बाद साबित हुआ कि उस की बेटी ने उस पर झूठा इलजाम लगाया था क्योंकि वह बेटी के देह व्यापार में बाधक बन रहा था. बेटी के पेट में जो बच्चा था वह भी उस का नहीं था. अदालत ने इब्राहिम को बेगुनाह साबित होने पर उसे छोड़ तो दिया मगर तब तक उस की पूरी दुनिया तबाह हो चुकी थी.

एमपी में दर्ज हो रहे झूठे रेप केस

मध्य प्रदेश में सरकारी मुआवजा प्राप्त करने के लिए रेप केस के कई मामले दर्ज कराए गए. हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि अधिकतर केस झूठे और सरकारी मुआवजा लेने के लिए किए गए. दरअसल, एमपी में राज्य सरकार एससीएसटी एट्रोसिटी एक्ट के तहत पीडि़त महिला को 4 लाख रुपए का मुआवजा देती है. मामले में एफआईआर होने पर 1 लाख और कोर्ट में चार्ज शीट पेश होने पर 2 लाख रुपए दिए जाते हैं यानी 3 लाख रुपए तो सजा होने के पहले ही दे दिए जाते हैं. अगर आरोपी को सजा होती है तो 1 लाख रुपए और दिए जाते हैं. सजा न भी हो तो पहले दिया गया मुआवजा वापस नहीं मांगा जाता. यह प्रावधान केवल एससीएसटी वर्ग के लिए ही है, अन्य को नहीं.

झूठे रेप केस की अफवाह क्यों उठी

सागर की रहने वाली एक महिला ने एक व्यक्ति पर अपनी बेटी के बलात्कार का मामला दर्ज कराया. जब आरोपी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और कोर्ट में मामले की सुनवाई शुरू हुई तब दलित महिला ने ट्रायल कोर्ट में कबूला कि साधारण ?ागड़े में उस ने आरोपी पर अपनी नाबालिग बेटी से रेप का झूठा केस दर्ज करवाया था. यहां मुआवजे का लालच इस हद तक बढ़ चुका है कि झूठे आरोप लगा कर सरकारी मुआवजा हासिल किया जा रहा है.

यूपी के बरेली शहर की नेहा गुप्ता और साफिया नाम की 2 लड़कियां पैसे के लिए पुरुषों को फंसाने का रैकेट चला रही थीं. वे कई लड़कों पर बलात्कार के झूठे केस कर के पैसे हड़पने के बाद पकड़ी गईं.

बलात्कार की परिभाषा, जहां एक महिला के साथ उस की इच्छा के विरुद्ध, उस की सहमति के बिना, जबरदस्ती, गलत बयानी या धोखाधड़ी द्वारा या फिर ऐसे समय में जब वह नशे में या ठगी गई हो अथवा अस्वस्थ मानसिक स्वास्थ्य की हो और किसी भी मामले में यदि वह 18 साल से कम उम्र की हो, बलात्कार माना जाता है. लेकिन कुछ महिलाएं अपने लिए बनाए गए कानून का फायदा उठा कर पुरुषों को बदनाम करने का काम कर रही हैं.

पीडि़तों पर बुरा असर

उत्तरी इंगलैंड की रिसर्चर एलिजाबेथ बेट्स बताती हैं कि समाज पुरुषों को अपराधी मनाने में बिलकुल देर नहीं लगाता, लेकिन उन्हें पीडि़त मानने में उसे बड़ी दिक्कत होती है. वे कहती हैं टीवी पर कौमेडी शो में कई बार लोगों को हंसाने के लिए पुरुष पर अत्याचार होते दिखाया जाता है. इसलिए किसी महिला के हाथों पुरुष की पिटाई होते देख हमारा समाज हंसता है, जिस का अकसर पीडि़तों पर बुरा असर पड़ता है.

कई बार इस से जुड़ी शर्मिंदगी और मजाक उड़ाए जाने के डर से पुरुष सामने नहीं आते, हिंसा झूठलते हैं और मदद मांगने से शरमाते हैं. बेट्स की रिसर्च दिखाती है कि समाज में इसे जिस तरह से देखा जाता है उस का असर घरेलू हिंसा के शिकार पुरुषों पर पड़ता है. ऐसे पीडि़तों में हिंसा ?ोलने के कारण कई लौंग टर्म मानसिक और शारीरिक समस्याएं सामने आती हैं.

हमारे देश में जहां हर 15 मिनट पर एक रेप की घटना दर्ज होती है, हर 5वें मिनट में घरेलू हिंसा का मामला सामने आता है, हर 69वें मिनट में दहेज के लिए दुलहन की हत्या की जाती है और हर साल हजारों की संख्या में बेटियां पैदा होने से पहले ही मां के गर्भ में मार दी जाती हैं, ऐसे सामाजिक परिवेश में दीपिका नारायण भारद्वाज, जो कभी इन्फोसिस में सौफ्टवेयर इंजीनियर थी और फिर अपनी नौकरी छोड़ कर पत्रकारिता में आ गईं वह डौक्यूमैंटरी फिल्म भी बनाती हैं उन का कहना है कि क्या मर्द असुरक्षित नहीं हैं? क्या उन्हें भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है? क्या वे पीडि़त नहीं हो सकते?

दीपिका ने 2012 में पुरुष पक्षधर के इस मुद्दे पर रिसर्च शुरू की थी और पाया कि ज्यादातर दहेज प्रताड़ना केस झूठे होते हैं. झूठे आरोप में फंसाए जाने के कारण कई बेटों के मातापिता ने बदनामी के डर से आत्महत्या कर ली. वह पहली महिला हैं जिन का कहना है कि भारत में असली प्रताड़ना पुरुष झेल रहे हैं. हालांकि ऐसी बात नहीं है. महिलाएं भी कम प्रताडि़त नहीं हो रही हैं.

दीपिका नारायण का कहना है कि बदलाव लाना है तो पुरुषों के सहयोग की जरूरत है, न कि कुछ प्रतिशत पुरुषों के दुर्व्यवहार का उदाहरण दे कर पूरी पुरुष जाति को आपराधिक मानसिकता का ठहरा देना. उन का कहना है कि ऐसे ज्यादातर संगठनों का नेतृत्व कर रही महिलाएं खुद को महान कहलवाने, दूसरों के किए कामों में मुफ्त की स्पोर्टलाइट लेने, कानून, संविधान और सरकार को अपनी तरफ झकाने ताकि बैठेबैठाए बिना कुछ किए मुफ्त की रोटी और तारीफ मिलती रहे, हमारी सामाजिक बनावट में गलत हस्तक्षेप कर रही हैं. उन के हठ से तमाम घर बरबाद हो रहे हैं.

पुरुष ही शोषक नहीं

यह बात सच है कि दुनिया की आधी आबादी आज भी हर स्तर पर संघर्ष कर रही है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उसे वह स्थान नहीं मिल पा रहा है जिस की वह अधिकरिणी है. लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि समानता के इस संघर्ष के बीच एक ऐसी धारा बह निकली जहां पुरुषों को सदैव शोषक और महिलाओं को शोषित के रूप में दिखाया जाता रहा है. लेकिन सत्य तो यह है कि ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, प्रेम, जैसे मानवीय अमनीभव पुरुष और स्त्री में समान रूप से प्रभावित होते हैं तो सिर्फ पुरुष ही शोषक कैसे हो सकता है.

यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आमजन से ले कर हमारी न्यायिक व्यवस्था पुरुषों की पीड़ा की उपेक्षा करती है. घरेलू हिंसा, दहेज, यौन उत्पीड़न अधिनियम महिलाओं की सुरक्षा और सम्मानपूर्वक जीवन देने के लिए बनाए गए हैं. ये लैंगिक समानता को स्थापित करने के लिए आवश्यक भी हैं. लेकिन जब एक के साथ न्याय और दूसरे के साथ अन्याय हो तो समाज ही बिखर कर रह जाएगा.

कुछ महिलाएं इन कानूनों का इस्तेमाल अपने निजी हितों के लिए करने लगी हैं. वे इन्हें पुरुषों से बदला लेने का रास्ता समझने लगी हैं. 2005 में उच्चतम न्यायालय ने इसे कानूनी आतंकवाद की संज्ञा दी थी, वहीं विधि आयोग ने अपनी 154वीं रिपोर्ट में इस बात को स्पष्ट शब्दों में स्वीकारा था कि आईपीसी की धारा 498ए का दुरुपयोग हो रहा है.

ट्रेड वाइफ साजिश या मजबूरी

आजकल ट्रेड वाइफ बनने का चलन सुर्खियों में है. ट्रेड वाइफ यानी वह ट्रैडिशनल या पारंपरिक बीवी जिसे घर की जिम्मेदारी संभालना पसंद हो. यह चलन पश्चिमी देशों से शुरू हुआ है. जिस तरह 50 के दशक की महिलाएं घर में रह कर अपनी किचन के काम करने, बच्चों को संभालना और पति को खुश रखने में अपनी खुशी समझती थी वही दौर अब फिर से दोहराया जाने लगा है.

लेकिन यदि कोई महिला अपना कैरियर भी साथ में संभालना चाहती है, मगर दोहरी जिंदगी का तनाव सहतेसहते थक जाती है तो मजबूरन उसे अपने कैरियर के साथ सम?ाता करना पड़ता है जो कतई सही नहीं है क्योंकि 21वीं सदी के इस दौर में आज भी जब हम बात करते हैं महिलाओं के कामकाजी या गृहिणी होने के बारे में तो अधिकतर पुरुषों का रु?ान गृहिणी होने पर अधिक होता है और यदि कामकाजी होना भी बेहतर माना जाता है तो उस के लिए अच्छी गृहिणी होने का गुण सर्वप्रथम माना जाता है.

तभी गृहिणी एक बेहतर स्त्री होने का सम्मान मिलता है वरना समाज की नजरों में यह सम्मान पाने का उस का सपना सपना ही रह जाता है. कई बार महिलाएं ऐसी सोच के चलते अपना अच्छाखासा कैरियर छोड़ कर घर में रहना ही पसंद करती हैं क्योंकि वे दोहरी जिंदगी जीतेजीते ऊब जाती हैं. कठपुतली नहीं है औरत

एक पढ़ीलिखी महिला होने के बावजूद अधिकतर महिलाओं को अपने पति या ससुराल वालों के हाथों की कठपुतली बनते आसानी से देखा जा सकता है क्योंकि शादी के बाद उन्हें कई चीजों के साथ सम?ाता करना पड़ता है और शादी के बाद उन का ध्यान खुद से हट कर अपनी गृहस्थी को संवारने में लग जाता है.

शादी से पहले जैसे खिलखिलाती चिरैया की तरह चहकते रहना उन्हें पसंद हुआ करता था वहीं अब वह हसीं सिर्फ मुसकराहट में बदल जाती है.

शादी के बाद कहीं भी आनेजाने से पहले सासससुर और पति की इजाजद लेना उन की मजबूरी बन जाती है. छोटी से छोटी बात में भी उन की मरजी जाननी पड़ती है. कोई भी निर्णय लेने के लिए वे उन सभी पर डिपैंड होने लगती हैं.

एक महिला अपना जैसे वजूद ही भूलने लगती है. यदि कोई महिला कामकाजी हो तो उस से उम्मीद की जाती है कि वह अपने काम के साथसाथ एक सफल गृहिणी का भी पूरा फर्ज अदा करे. यदि ऐसा करने में वह असफल हो जाए या वह पूरा समय अपने परिवार को न दे पाए तो उसे कई बार मानसिक तनाव से भी गुजरना पड़ता है.

दांव पर कैरियर

शादी के बाद लड़की की प्राथमिकता उस के पति, सास, ससुर और बच्चों की खुशी बनने लगती है. वह उन की पसंद का खयाल रखती है. वह खुद से पहले परिवार की चिंता करती है. यहां तक कि औफिस और घर के कामकाज में सारा दिन खटने के बाद भी वह कई बार घर वालों की आलोचनाओं का सामना करतेकरते थक जाती है और अंत में अपने कैरियर के साथ समझता कर परिवार की खुशी को अपनी खुशी मानने लगती है और खुद को ट्रेड वाइफ के टैग से नवाजने लगती है.

असल में यह एक महिला की खुद की पसंद है कि उसे घर के कामों मे व्यस्त रह कर खुश रहना है या वह अपने कैरियर को संवारते हुए अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करती है. मगर कई बार ट्रेड वाइफ बनना उस की मजबूरी बन जाती

है और मजबूरी अपने ग्रहस्थ जीवन को बेहतर बनाने की.

इसीलिए वह भी एक जिम्मेदारी निभा कर सुकून में रहना पसंद करने लगती है. उसे इस बात का कोई पछतावा भी नहीं होता क्योंकि वह इसी में खुश होती है. पहले जहां कैरियर को ले कर उत्सुकता बनी रहती थी वहीं अब उसे किट्टी पार्टियों या भजनकीर्तनों को समय देना रास आने लगता है.

अधिकतर घरों में आज भी शादी के बाद लड़कियों का यही हाल है. आज भी हमारे समाज में लड़कियों के लिए शादी समझौते का दूसरा नाम है.

दायरे तोड़ती स्त्री देह

सदियों से दुनिया ने औरत को सात परदों में छिपा कर और चारदीवारी में घेर कर रखा है. उस पर हर पल नजर रखी गई कि कहीं वह समाज के ठेकेदारों द्वारा स्त्री के लिए विशेषरूप से रची गई मर्यादाओं का उल्लंघन तो नहीं कर रही. उस की हर सीमा का निर्धारण पुरुष ने किया. उस के तन और मन को कब किस चीज की जरूरत है, उस को कब और कितना दिया जाना चाहिए, हर बात को पुरुष ने अपनी सुविधानुसार तय किया. मगर हर बात की एक सीमा होती है. आखिर यह दबावछिपाव भी कहीं तो जा कर रुकना था.

शिक्षा ने औरत को मजबूती दी. लोकतंत्र ने उसे जमीन दी खड़े होने की. सोचने विचारने और अपने अधिकारों को जानने का अवसर दिया. बीते कई दशकों में स्त्री ने कभी बागी हो कर, कभी घरेलू परिस्थितियों से तंग आ कर, कभी घर की लचर परिस्थितियों में आर्थिक संबल बनने के लिए चारदीवारी से बाहर कदम निकाला. बीती 2 सदियों में आर्थिक मजबूती के साथ स्त्री वैचारिक स्तर पर भी काफी मजबूत हुई है. उस को मात्र जिस्म नहीं, बल्कि एक इंसान के रूप में पहचान मिली है.

बेड़ियों से आजाद नारी देह

आज की औरत अपनी इच्छाओं का इजहार करने से झिझकती नहीं है. वह कुछ ऊंचनीच होने पर नतीजा भुगतने को भी तैयार है. अपनी पर्सनैलिटी और समझ से वह उन दरवाजों को भी अपने लिए खोल रही है, जो अभी तक औरतों के लिए बंद थे. सब से बड़ी क्रांति तो देह के स्तर पर आई है. स्त्री देह जिस पर मर्द सदियों से अपना हक मानता आता है, उस देह को उस ने उस की नजरों की बेडि़यों से स्वतंत्र कर लिया है.

धार्मिक व सामाजिक मर्यादाएं जो उस के जिस्म को जकड़े हुए थीं, उन को काट कर उस ने दूर फेंक दिया है. अब वह अपनी शारीरिक जरूरत के लिए खुल कर बात करती है. पहले जहां एक औरत अपनी इच्छाओं का इजहार करने में संकोच करती थी, वहीं अब बैडरूम में बिस्तर पर लाश की मानिंद पड़े रहने के बजाए वह अपनी इच्छाओं के उछाल से मर्द को हक्काबक्का कर देती है.

उस का बैडरूम हर रोज नई उत्तेजना से भरा होता है. शादी से पहले सहमित से सैक्स संबंध बनाने में भी उसे कोई झिझक नहीं है.

इस नई उन्मुक्त स्त्री की हलचल कई दशक पहले से सुनाई देनी शुरू हो गई थी. विवाह की असमान स्थितियों में कैद, नैतिक दुविधाओं से ग्रस्त और अपराधबोध के तनाव से उबर कर अब एक नई स्त्री का पदार्पण हो चुका है, जो अपना भविष्य खुद लिखती, खुद बांचती है, जो अपने मनपसंद कपड़े पहन कर देर रात पार्टियां अटैंड करती है. बड़ेबड़े सपने देखती है और उन्हें पूरा करने का माद्दा रखती है.

मेरी जिंदगी मेरी शर्तें

एक सर्वे के मुताबिक वर्ष 2003 में जहां पोर्न देखने की आदत को सिर्फ 9 फीसदी महिलाओं ने कबूल किया था, वहीं यह संख्या अब 40 फीसदी पर पहुंच गई है. अब औरत अपनी चाहत का, प्यार का गला नहीं दबाती, बल्कि बेझिझक अपने प्रेमी से शारीरिक संबंध स्थापित करती है, फिर चाहे वह शादी के पहले ही क्यों न हो. अब यह उस की इच्छा पर है कि वह किस पुरुष से शादी करना चाहती है. उस की इच्छा पर है कि वह कब मां बनना चाहती है. अगर वह शादी के बंधन में नहीं बंधना चाहती तो उस के बिना भी वह अपनी शारीरिक जरूरत पूरी करने और मां बनने के लिए स्वतंत्र है.

आज की नारी अपने साथ हुए अन्याय पर भी बोलने लगी है. छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न, हिंसा, बलात्कार पर वह खुद को गुनाहगार नहीं समझती, बल्कि जिस ने उस के साथ ये गुनाह किए हैं उस को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने की हिम्मत रखती है. ‘मीटू’ कैंपेन इस का ताजा उदाहरण है. इंटरनैट सेवाओं ने औरत को काफी सपोेर्ट दिया है और सोशल मीडिया ने उसे अपनी भावनाएं व्यक्त करने का प्लेटफौर्म दिया है.

स्त्री और पुरुष दोनों ही कमोबेश एकदूसरे के प्रति एक ही तरह की वासना से प्रेरित होते हैं. अपनी शारीरिक खूबसूरती का एहसास आज की स्त्री को बखूबी है और वह उसे और ज्यादा सजानेतराशने की कोशिश प्रतिपल करती रहती है. अपनी इस खूबी का प्रयोग उसे कब, कहां और कितना करना है, यह भी वह बखूबी जानती है.

वर्कप्लेस पर बौस को खुश कर के नौकरी में तरक्की पाने के लिए उस का शरीर उस का खास हथियार बन गया है. मीडिया इंडस्ट्री, फिल्म इंडस्ट्री, टीवी या मौडलिंग के क्षेत्र में स्त्री का जिस्म उस के टेलैंट से ज्यादा माने रखता है और उस की सफलता के रास्ते तैयार करता है. तरक्की के लिए सैक्स को आधार बनाने में अब उसे कोई आपत्ति नहीं है. इस यौन आजादी ने स्त्री को पुरुष के समकक्ष और कहींकहीं उस से भी आगे खड़ा कर दिया है.

यह सच अब समाज को स्वीकार कर लेना चाहिए कि सैक्स की जरूरत और अहमियत जितनी पुरुष के लिए है, उतनी ही स्त्री के लिए भी है. अगर पुरुष अपनी पत्नी के अलावा दूसरी स्त्रियों से संबंध रख सकता है, उन से भावनात्मक और यौन संबंध बना सकता है, विवाहेत्तर संबंध रख सकता है और उन के साथ खुशी महसूस कर सकता है, तो फिर एक स्त्री ऐसा क्यों नहीं कर सकती? स्त्री क्यों जीवनपर्यंत एक ही पुरुष से जबरन बंधी रहे? क्यों वह अपनी अनिच्छा के बावजूद उस की शारीरिक जरूरतें पूरी करती रहे? अगर उस का पति उस की भावनात्मक और शारीरिक जरूरतों को पूरा करने में अक्षम है तो दूसरे पुरुष से वह नाता क्यों नहीं जोड़ सकती?

यह चिंता करने की बात है कि तनुश्री दत्ता के बाद जो भी मामले ‘मीटू’ के सामने आए हैं किसी में भी सताने वाले पुरुष ने यह नहीं कहा कि औरत ने अपने को समर्पित किया था. वे यही कहते हैं कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं.

सुरक्षित आर्थिक भविष्य

आर्थिक आजादी ने स्त्री को पुरुष की गुलामी से मुक्त किया है. उस में चुस्ती और खूबसूरती को बढ़ाया है. आज उन के खूबसूरत शरीर और हसीन चेहरे वर्कप्लेस को भी ताजगी दे रहे हैं. पुरुष सहयोगियों के मुकाबले स्त्रियां अपने वर्कप्लेस पर ज्यादा खुश नजर आती हैं. आज सचाई यह है कि स्त्रियों के लिए सुरक्षित आर्थिक भविष्य के साथ संतोषजनक रिश्ते का बेहतर माहौल जैसा आज है, वह पहले कभी नहीं था.

स्त्री की आजादी को उच्चतम न्यायालय ने भी खूब सपोर्ट किया है. चाहे लिवइन रिलेशनशिप की बात हो या विवाहेत्तर संबंधों की, अदालत ने स्त्री के पक्ष में ही अपने तमाम फैसले सुनाए हैं. इस से औरतों में जोश और उत्साह का माहौल है. बंदिशों को तोड़ कर ताजी हवा में सांस ले रही औरत अपनी सुरक्षा के प्रति आज खूब जाग्रत है. ‘मीटू’ कैंपेन इस का ताजा उदाहरण है.

10-20 साल पहले जो औरतें अपने साथ हुई अश्लीलता पर अनेक सामाजिक बंधनों में बंधी होने और आर्थिक रूप से ज्यादा सक्षम न होने की मजबूरी के चलते चुप्पी साध कर बैठी थीं, आज सोशल मीडिया पर अपना दर्द चीखचीख कर बता रही हैं, बकायदा एफआईआर भी दर्ज करा रही हैं और आरोपियों को जेल की सलाखों के पीछे भेजने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने को तैयार हैं.

पुरुषों ने समझ रखा है कि औरतों के साथ चाहे जो कर लो, वे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए मुंह नहीं खोलेंगी. कुछ को सैक्स के बदले पद या पैसा दे कर उन्हें लगने लगा था कि हर स्त्री देह बिकाऊ है. हर औरत गाय है जब मरजी दूह ले और फिर लात मार कर चला जाए.

ये ‘मीटू’ कैंपेन का नतीजा है कि देश के विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर को न सिर्फ अपना पद गंवाना पड़ा, बल्कि दुनिया भर में उन के नाम की छीछालेदर हुई. उन की ओछी आपराधिक हरकतों से राजनीतिक जगत और मीडिया जगत दोनों शर्मसार हैं.

जागरूक है आधी आबादी

आज औरत अगर अपनी आजादी के प्रति जागरूक है तो अपने प्रति होने वाले अपराध के प्रति भी. इस से पुरुषों में भय पैदा हुआ है. वर्कप्लेस पर, घर में, पार्टी में, सार्वजनिक स्थलों पर पहले जहां औरतों के साथ छेड़छाड़ और अश्लील हरकतें करना पुरुष अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे और उन के खिलाफ कोई काररवाई नहीं होती थी, अब वह समय खत्म हो गया है. अब वह अपने गलत कृत्य पर ऐक्सपोज कर दिया जाएगा, उस के खिलाफ बकायदा मुकदमा दर्ज होगा, उसे सजा होगी और वह सब इसलिए होगा क्योंकि औरत जागरूक हो चुकी है.

‘मीटू’ कैंपेन का असर दूरगामी होगा. मगर इस के कुछ साइडइफैक्ट भी होंगे. जैसे औरतों को कार्यालयों में काम मिलना कुछ हद तक प्रभावित हो सकता है. उन के सहकर्मी उन से हंसीमजाक करते वक्त थोड़ा रिजर्व रहेंगे. मगर इस से डर कर या घबरा कर कदम पीछे खींचने की हरगिज जरूरत नहीं है. यह इफैक्ट कुछ समय का ही होगा.

जब शारीरिक संबंधों में औरत की रजामंदी को शामिल किया जाने लगेगा, तब यह अपराध के दायरे से निकल कर आंनद की पराकाष्ठा छू लेगा. जिस दिन औरत की ‘हां’ का मतलब ‘हां’ और ‘न’ का मतलब ‘न’ होना पुरुष की समझ में आ जाएगा, उस दिन पुरुषस्त्री संबंध इस धरती पर नई परिभाषा रचेंगे और खूबसूरत रूप में सामने आएंगे.

देह की स्वतंत्रता का मतलब है कि जो सहमति से प्यार चाहे उसे ही उपलब्ध है. स्त्री खिलौना नहीं है कि खेलो और छोड़ कर चल दो.

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