‘‘दोबेटियां हैं फिर भी हंसती है,’’ जी बिलकुल यही पंक्ति शरण ने अपनी बहन को कही थी अलका के बारे में जब उन की बहन दूसरी संतान भी लड़की हो जाने पर दुखों के दरिया में डूब रही थी.
भले ही शरण की मंशा अलका को दुख पहुंचाने की नहीं रही हो पर बात मानसिकता की थी, जो अलका को गहरे चुभ गई थी.
इसी तरह अलका को अपनी उस रिश्तेदार की सास की हताश आवाज भी हमेशा गूंजती हुई प्रतीत होती जिन्होंने अपनी दूसरी पोती के जन्म के बाद अलका को इंगित करते हुए कहा था, ‘‘मेरी बहू भी हो गई इसी की तरह. अब डाक्टर ने और बच्चे करने से मना भी कर दिया है. हम तो कहीं के नहीं रहे.’’
ऐसे हर जुमले को अलका ने एक चुनौती की ही तरह लिया. उसे लगता कि उस के मांसमज्जा रक्त से निर्मित उस की संतान ही उस के लिए अनमोल है चाहे उस का लिंग कुछ भी हो. जब उसे दूसरी बेटी हुई थी तो अधिकांश लोग मानो अफसोस जाहिर करते हुए मिलते मानो उस से कोई भूल हो गई हो. पहला निर्णय तो उस ने अपनी नसबंदी करवा कर इस बहस को ही खत्म कर दिया कि कुदरत ने चाहा तो अगली बार लड़का होगा.
चूंकि बेटा था ही नहीं तो भेदभाव जैसा प्रश्न उठा ही नहीं. उस ने हर लिहाज से अपनी बेटियों को बहुत काबिल बनाया. आज उस की बेटियां उम्र की तीसरे दशक में हैं और हर लिहाज से एक उदाहरण हैं उस की जानपहचान और रिश्तेदारी में.
अलका खुद एक मजबूत और उन्नत सोच वाली महिला है तो बेटियों को भी मजबूत और स्ट्रौंग बनना ही था. कहा भी जाता है कि इतनी मजबूत बनो कि आप की बेटी आप जैसा बनना पसंद करे और बेटा आप की जैसी सोच वाली महिला की तरफ आकर्षित हो.