सुनीता पवार, (रोहिणी-नई दिल्ली)
अपने डैडू (पापा) को मैंने हमेशा अपना प्रेरक समझा है, अपना खुदा समझा है क्योंकि उन्होंने हम दोनों भाई-बहन के पालन पोषण में अपने सामर्थ्य से कहीं अधिक मेहनत और काम किया पर उफ्फ तक नहीं करी. दफ्तर से सीधे वह ट्यूशन पढ़ाने चले जाते थे, इतवार को भी वह घर नहीं रहते थे, रविवार को भी वह इनशोरेंस के काम में व्यस्त रहते.
मैं अपने डैडू को जब इतनी मेहनत करते देखती तो सोचती "डैडू एक दिन मैं आपको कुछ बन कर दिखाऊंगी, मैं कमाऊंगी और आपको सारे आराम दूंगी, आपको हवाई यात्रा पर लेकर जाऊंगी" पता नहीं मैं कितने ही सपने बुनती.
पढ़ाई में करते थे मदद...
स्कूल में मैं हमेशा प्रथम स्थान पर रहती, खेल-कूद में भी मैने बहुत इनाम जीते. मेरे डैडू की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी, चाहे कितनी ही देर रात डैडू घर लौटें लेकिन वह मेरे कहने से मुझे अंग्रेज़ी का पाठ जरूर समझाते और अगले दिन जब वह पाठ मैं पूरी कक्षा के सामने अर्थ सहित पढ़ती तो अध्यापिका भी मेरी तारीफ किये बिना न रहती.
एक दिन स्कूल में अंग्रेज़ी कविता बोलने की प्रतियोगिता थी, मेरे पिताजी ने मेरे लिए एक बहुत ही प्रेरणादायी अंग्रेज़ी कविता लिखी जिसका शीर्षक था " How should students be happy (विद्यार्थियों को कैसे प्रसन्न रहना चाहिए)?"
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जिस दिन अंग्रेज़ी कविता की प्रतियोगिता थी उस दिन मेरे डैडू भी स्कूल में उपस्थित थे, मेरी कविता को प्रथम स्थान ही नहीं मिला बल्कि स्कूल की वार्षिक पत्रिका में भी शामिल करने की घोषणा हुई. मेरे डैडू बहुत खुश थे, दूर खड़े तालियों से अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रहे थे. मुझे जो इतनी वाह-वाही मिल रही थी वो तो केवल मैं ही जानती थी कि ये सारी मेहनत तो मेरे डैडू की थी, मैं चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहती "थैंक्यू डैडू" पर ऐसा चाह भी न कर पाई.