रात 10 बजे माया के घर के आगे एक बड़ी सी कार आ कर रुकी. स्लीवलेस टॉप और जींस पहने माया अपने फ्लैट की सीढ़ियों से दनदनाती हुई नीचे उतर रही थी कि सामने रूना आंटी टकरा गई. रूना आंटी उस की मां की पक्की सहेली है. अपनी जिम्मेदारी समझते हुए उन्होंने माया को टोका,” बेटा इतनी रात गए कहां जा रही हो? जरा सोचो तो लोग क्या कहेंगे.”

माया ने हंसते हुए आंटी का कंधा थपथपाया और बोली,” आंटी मैं ऑफिस जा रही हूं अपने सपनों को पूरा करने, जर्नलिस्ट का दायित्व निभाने. मुझे इस बात से कभी कोई सरोकार नहीं रहा कि लोग क्या कहेंगे. मेरी अपनी जिंदगी है. मेरी अपनी प्राथमिकताएं हैं. मेरे जीने का अपना तरीका है. इस में लोगों का क्या लेनादेना ? मैं क्या कभी लोगों से पूछती हूँ कि वे कब क्या कर रहे हैं?”

रूना आंटी को माया से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. वे चुपचाप खड़ी रह गई और माया जिंदगी को एक नया मकसद देने की ललक के साथ आगे बढ़ गई.

32  साल की माया दिल्ली में अकेली रहती है. रात में भी अक्सर काम के सिलसिले में उसे बाहर निकलना पड़ता है. रूना आंटी हाल ही में उस की सोसाइटी में शिफ्ट हुई है.

अक्सर बड़ेबुजुर्ग माया जैसी लड़कियों को तरहतरह की हिदायतें देते दिख जाते हैं. मसलन;

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‘ ऐसे कपड़े पहन कर कहां जा रही है ? जरा सोचो तो लोग क्या कहेंगे,’  ‘अरे, इतने लड़कों के साथ तू अकेली क्यों जा रही है ? समाज की कोई परवाह नहीं तुझे ?,’ ‘ क्लब में लड़कों के साथ डांस करते हुए शर्म नहीं आई तुझे ? यह भी नहीं सोचा कि लोग क्या कहेंगे,’  ‘ इतनी रात में अकेली कहां जा रही है ? सिर पर कपड़ा तो रख. ऐसे जाएगी तो लोग क्या कहेगे ?,’

‘इतनी जोरजोर से हंसना लड़कियों को शोभा नहीं देता,’  ‘ अरे, यह क्या लड़कों वाले काम करती रहती है. इतनी बड़ी हो गई है पर इतना भी नहीं सोचती कि लोग क्या कहेंगे.’

लोगों का क्या है उन्हें तो लड़की अकेली रह रही है तो परेशानी, लिव इन में रह रही है तो परेशानी, बच्चे नहीं हुए तो परेशानी, जॉब कर रही है तो परेशानी, लड़कों से हंस कर बातें कर ली तो परेशानी, क्लब में लेट नाईट चली गई तो परेशानी. और तो और पति के होते हुए भी गैरमर्द की तरफ नजर भर कर देख लिया तो भी परेशानी.

1. समाज की परवाह क्यों

लोगों की फ़िक्र न करें क्यों कि, हम लोग जानवर नहीं इंसान है. हम सब अपनी अलग पहचान और सोच ले कर पैदा हुए हैं. हम सिर्फ इस वजह से भीड़ की नकल नहीं कर सकते क्योंकि समाज ऐसा चाहता है. हम सबों के अलगअलग सपने हैं और उन्हें पूरा करने के लिए अपनी तरफ से हर संभव प्रयास करने का अधिकार हम सबों को है.

आप हर किसी को खुश नहीं रख सकते. यदि किसी की नजर में आप गलत है तो इस का मतलब यह नहीं कि वास्तव में ऐसा है. आप हर किसी की नजर में सही नहीं हो सकती.

आप के पास अधिक समय नहीं है. इसलिए अपना समय किसी दूसरे की सोच के हिसाब से जीने में बरबाद न करें.

हार केवल आप की होगी. याद रखिए कि आप की जीत का सेहरा लोग अपने सर बंधवाने में तनिक भी देर नहीं लगाएंगे पर आप की हार के लिए आप को ही उत्तरदायी ठहराया जाएगा. इसलिए अपने जीवन से और अपने मन से इस डर को निकाल फेंकिए कि लोग क्या कहेंगे.

हकीकत में किसी को भी आप की परवाह नहीं. लोगों की सोच के अनुसार चल कर भी यदि आप किसी परेशानी में फंस जाएंगी तो कोई आप की मदद के लिए आगे नहीं आएगा. अपनी मदद आप को खुद करनी है. इसलिए वह कीजिए जो आप करना चाहती हैं बिना यह सोचे कि दूसरे लोग क्या कहेंगे.

जो लोग अपने दिल की सुनते हैं वे ही सफल होते हैं. यदि आप इतिहास के पन्ने पलट कर देखेंगी तो पाएंगी कि कोई भी व्यक्ति सफल इसलिए बना क्यों कि उस ने अपने सपनों का पीछा किया और कठिन मेहनत की.

2. हस्तक्षेप एक असहनीय पीड़ा

जब भी हम कोई नया कार्य शुरू करने जा रहे होते हैं या लोगों द्वारा तय मानदंडों से कुछ अलग करने वाले होते हैं तो हम में से अधिकतर यह सोच कर ही डर जाते हैं कि लोग क्या कहेंगे. यहाँ लोगों से तात्पर्य समाज से है जिसे हम ने मिल कर बनाया है. समाज में हम मिलजुल कर रहते हैं. कई तरह से एकदूसरे के ऊपर निर्भर भी रहते हैं. मगर यह निर्भरता सकारात्मक अर्थों में होनी चाहिए. एक ऐसी निर्भरता जो किसी की सफलता का मार्ग प्रशस्त कर सके, किसी के चेहरे पर मुस्कान ला सके. जहां सब एकदूसरे के बुरे समय में काम आए, एकदूसरे के दुखों को बांट सकें और सुखों को चौगुना कर सकें !

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लेकिन मुसीबत तब होती है जब समाज हमारे हर कार्य पर नजर रखने लगता है. नकारात्मक रूप से हस्तक्षेप करने लगता है. इस से न केवल सामाजिक सौहार्द व सामंजस्य बिगड़ने लगता है बल्कि व्यक्ति के अधिकारों पर भी सीधी चोट पहुँचती है.

कई बार देखा गया है कि जब किसी व्यक्ति के जीवन में सफलता का समय ठीक पीक पर होता है तभी कुछ संकुचित दृष्टिकोण के लोगों के हस्तक्षेप से व्यक्ति के सपने चकनाचूर हो जाते हैं. एक कसक ताउम्र पीड़ा पहुंचाती रहती है. समय आगे निकल जाता है परंतु वह दुख व्यक्ति के जीवन में ठहर जाता है.

3. हस्तक्षेप की सीमा निर्धारित कीजिए

अपने जीवन में लोगों के हस्तक्षेप की एक सीमा निर्धारित कीजिए. जीवन आप का है. लक्ष्य आप का है तो फैसले भी आप के ही होने चाहिए. आप के भविष्य की चिंता आप के घरपरिवार, मित्रों और आप से ज्यादा किसी और को नहीं हो सकती.

जरा सोच कर देखिए कि जब लोगों की बारी आती है तो क्या वे अपने जीवन में आप का हस्तक्षेप स्वीकार करते हैं ? नहीं न? तो आप क्यो?

4. पितृसत्तात्मक समाज की सोच 

दरअसल पितृसत्तात्मक समाज के पुरुष स्त्री को अपनी अमानत या जागीर समझते है. वे स्त्रियों को अपने अधीन रखना और अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं. वे ही उन की जिंदगी के निर्माता बनना चाहते हैं. स्त्री की ‘यौन पवित्रता’ के नाम पर पाबंदियों का जाल बनाते हैं जिस में फंस कर स्त्रियां तड़पती रह जाती हैं. धार्मिक नेता इस मानसिकता का फायदा उठाने से नहीं चूकते. वे अलगअलग तरह से स्त्री विरोधी नियमकायदों और पाबंदियों की फ़ेहरिस्तें जारी कर अपना मतलब साधते रहते हैं.

पढ़ीलिखी लड़कियां भी ऐसे लोगों की सुनने लगेंगी तो एक समय ऐसा भी आ सकता है कि उन का दम घुटने लगे. आजादी की खुली हवा में सांस लेना तो दूर लड़कियां अपनी पहचान भी खो देंगी.

5. ‘इज्जत’ के ठेकेदारों की असलियत

धार्मिक आदेशों, स्त्रियों की ‘सुरक्षा’ और जाति की इज्जत के नाम पर झंडा उठाने और बातें बनाने वाले यही लोग स्त्रियों के लिए सब से बड़े संकट हैं. राजस्थान और हरियाणा में गर्भ में बड़ी संख्या में लड़कियों की हत्या करने वाले इन लोगों के साथ स्त्रियां कैसे सुरक्षित रह पायेंगी यह सोचने की बात है. उन्हें बाहरी पुरुषों से पहले अपने ही घर के लोगों से ख़तरा है. कभी उन्हें गर्भ में ही मार डालना, कभी प्रेम करने की सजा के रूप में जान लेना, कभी फोन इस्तेमाल करने की सजा सुनाना तो कभी गिद्ध दृस्टि रख कर अपने घर की स्त्रियों की इजात की ही धज्जियाँ उड़ा देना. स्त्रियों की सांसों पर इन इज्जत के ठेकेदारों का ऐसा पहरा है जो मौत से भी कई हजार गुना अधिक भयावह और पीड़ादायक है.

आज भी हमारा समाज 2 तरह के जीवन मूल्यों से संचालित हो रहा है. एक जीवन मूल्य वर्णवादी-पितृसत्ता द्वारा स्थापित है. यह पूरी तरह से अन्याय और गैरबराबरी पर आधारित है जिस में उच्च जाति और पुरुष की सत्ता स्थापित की गई है. महिलाओं के खिलाफ फरमान जारी करने वालों का सामाजिक जीवन इन्हीं मूल्यों से संचालित हो रहा है.

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दूसरी तरफ वे जीवन मूल्य हैं जो संविधान ने प्रदान किए हैं. इन जीवन मूल्यों में आधुनिकता, स्वतंत्रता, समानता है. इन्हीं की वजह से आज महिलाएं आगे बढ़ पा रही हैं. देश के सामने सब से बड़ी चुनौती है कि कैसे इन सड़ेगले असमानता आधारित सामाजिक मूल्यों को ध्वस्त किया जाए और समानता के मूल्यों की स्थापना की जाए. लोगों के कहने की परवाह ज्यादातर लड़कियों को ही करना पड़ता है. लड़कियों पर ही लोगों की सवालिया नजरें आ कर टिकती हैं. लड़कियों के ही चालचलन सवाल उठते हैं. मगर कब तक ? समय आ गया है कि हम पितृसत्तात्मक ढांचें को तोड़ें  और समान अधिकार की राह पर आगे बढ़ें.

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