1984 के सिख दंगों के दौरान दिल्ली व आसपास के बहुत से इलाकों में मारे गए सिखों के हत्यारों में से 2-4 को ही सजा मिली है पर इस का हल्ला अभी भी मचाया जाता रहता है. यह हल्ला ठीक उस तरह का है जैसा औरतें अपने पतियों को आड़े हाथों लेने में करती हैं कि 20 साल पहले उन्होंने होली पर पड़ोसिन के ब्लाउज में रंग भरने की कोशिश की थी.

पति का गुलछर्रे कभीकभार उड़ा लेना गलत हो तो भी पत्नी जिंदगी भर उसे साइनबोर्ड की तरह अपनी जबान पर ले कर घूमेगी तो पतिपत्नी में खटास रहेगी और हल कुछ न होगा. ‘बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेय’ ही जीवन का सही फौर्मूला है. किसी गलत काम को हरदम हथियार की तरह इस्तेमाल करना एकदम गलत है.

सरकारों की तरह घरों में पति, पत्नी, बच्चे, सासें, ननदें, भाभियां, बहनोई आदि बहुत कुछ ऐसा कर देते हैं जो पीड़ा देता है, वर्षों देता है. घरों में जब बंटवारा होता है, तो बहुत सी घटनाएं होती हैं, जो दशकों तक याद रहती हैं. पतिपत्नी में तलाक होता है तो एकदूसरे पर सच्चेझूठे आरोप लगाए जाते हैं.

पर हर बार 2002 के गुजरात के मुसलिम दंगों की जवाबदेही में 1984 के सिख दंगों की बात दोहराई नहीं जा सकती. यह तो कांग्रेस की भलमनसाहत है कि 1984 के दंगों से 10-15 साल पहले सिख अलगाववादियों द्वारा की गई हत्याओं की याद नहीं दिलाती जब पूरा पंजाब देश से कट गया था. उन दिनों के लिए पूरी सिख कौम को 2017 में दोषी तो ठहराया नहीं जा सकता!

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