दुनिया आज फिर तनाव, युद्धों के बादलों, तेज होती सेनाओं, नए नए बारूदी केंद्रों को झेल रही है. उरी में आतंकवादियों के हमले के बाद भारतीय सेना का दावा कि उस ने पाकिस्तान की सीमा में चल रहे आतंकवादी कैंपों को नष्ट कर दिया है, एक बड़े खतरे की ओर इशारा करता है. सरकारें, सेनाएं लड़ती रहें, कम फर्क पड़ता है. फर्क पड़ता है तब जब लड़ाई का परिणाम आम घरों, परिवारों, बच्चों, औरतों, बूढ़ों को झेलना पड़ता है.
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भारतपाक सीमा के निकट रह रहे लगभग 10 हजार गरीब किसानों और मजदूरों को अपने ठिकाने बदलने को कहा गया है. ये अब अपने देश में अपने ही लोगों के बनाए शरणार्थी हो गए हैं. इन की गिनती दुनिया भर के उन 20-25 करोड़ शरणार्थियों में तो नहीं हो रही है, जिन्हें युद्ध, गोलाबारी, भूख से बचने के लिए अपने खुशहाल घर छोड़ कर दूसरे देशों में कच्चेपक्के मकानों, टैंटों, सड़कों पर पनाह लेनी पड़ रही है पर उन की अपने ही देश में हालत बहुत अच्छी नहीं है.
शरणार्थियों के जत्थों में एक बात हर जगह सामान्य है और वह है औरतों की मुसीबत. जब सिर पर छत न हो, चूल्हा, गैस न हो, खाने का सामान न हो, ठंड में गरम कपड़े न हों, मैले कपड़े हों, तो इन सब समस्याओं को हल औरतों को ही करना पड़ता है. उन्हें न केवल अपनी इज्जत की रक्षा करनी होती है, बेटियों को भी लूटे जाने से बचाना होता है, रात का खाना भी तैयार करना होता है.
इन शरणार्थी शिविरों में जब भी सरकार का, किसी समाजसेवी संगठन का या फिर संयुक्त राष्ट्र संघ का राहत देने वाला ट्रक पहुंचता है तो मर्दों से ज्यादा औरतें भाग कर कुछ पाने के लिए भीड़ में कुचले जाने तक का जोखिम लेती हैं. लड़ाइयां देशों के नेता करवाते हैं, धर्म प्रचारक करवाते हैं, भाषा या रंग भेद के नाम पर उकसाने वाले करवाते हैं पर असली शिकार न सेनाएं होती हैं, न सरकारें, न धर्म प्रचारक और न ही नीति निर्धारक: शिकार तो बस औरतें होती हैं.