दफ्तर से घर लौट रही थी माला कर्मकार. सियालदह-डायमंड हॉर्बर लोकल ट्रेन में शाम के साढ़े आठ बजे थे. शनिवार का दिन था, इसलिए उस समय लेडीज कंपार्टमेंट में कुछ गिनी-चुनी महिलाएं ही थीं. एकाध स्टेशन के बाद उनमें से एक-एक करके और भी चार-पांच महिलाएं उतर गयी. अब मनीषा समेत तीन महिलाएं रह गयीं. उनमें भी एक तो लोकल की हौकर थी. कल्याणपुर स्टेशन से ट्रेन यात्रियों को उतार कर जब ट्रेन छुटी तो अचानक चलती हुई ट्रेन की खिड़की के सामने एक नकाबपोश सामने आया और उसने खिड़की पर बैठी मनीषा पर एसिड फेंका. यह वह घड़ी थी, जब माला का पूरा जीवन ही बदल गया. एक जमीन को लेकर स्वरूप हलदार नामक एक बिल्डर के साथ माला के परिवार का विवाद था. बिल्डर जमीन चाहता था और माला का परिवार जमीन बेचने के लिए तैयार नहीं था. बिल्डर ने कई बार माला के परिवार को नतीजा भुगतने की धमकी दे चुका था. आखिरकार उसने माला पर एसिड फेंक कर अपनी धमकी को पूरा किया. अब वह हवालात में है. जमानत नहीं हो पा रही है.
मनीषा पैलान सुबह-सबेरे जब नींद से जग कर अपना चेहरा आईने में देखती है तो एसिड से झुलसे चहरे में गाल, आंखे, उससे नीचे गले और छाती की वीभत्सता से मनीषा का पूरा शरीर कांप जाता है. एक मग नाइट्रिक एसिड ने मनीषा की दुनिया को ही पूरी तरह झुलसा कर रख दिया है. बचपन से एक ही सपना था मनीषा का. अच्छी तरह पढ़-लिख कर सब्जी बेचनेवाले पिता मुन्नाफ पैलान का सहारा बनना. अपने छोटे-भाई-बहन की पढ़ाई का खर्च जुगाड़ना; ताकि सिर ऊंचा करके परिवार जी सके. इसीलिए पढ़ाई के साथ-साथ नर्सिंग ट्रेनिंग, कंप्यूटर कोर्स, ब्यूटिशियन कोर्स कर रही थी मनीषा. रूढि़वादी मुसलिम परिवार में जन्मी मनीषा कुछ भी करके अपने पिता और परिवार की लड़खड़ाती जिंदगी को संभालने की कोशिश कर रही थी.
2015 को मुहल्ले में बचपन से देखती आ रही सलीम हलदार से प्रेम और फिर एक दिन घर से भाग कर ब्याह किया. लेकिन कुछ ही दिन के बाद मनीषा के मन में अपने पांव पर खड़ा होकर पिता की मदद करने का सपना पूरे दम-खम के साथ कुलबुलाने लगा. मुसलिम परिवार में ऐसा सपना देखने की सख्त मनाही थी. जाहिर है पति-पत्नी में अनबन होने लगी. मनीषा ने तलाक लेने का फैसला किया. मनीषा कहती है कि सलीम भी तलाक के लिए तैयार था. लेकिन वह इसे मन से स्वीकार नहीं कर पाया.
17 नवंबर 2015 को सर्दी के मौसम की एक शाम. कंप्यूटर क्लास से मनीषा लौट रही थी. सलीम अपने कुछ दोस्तों के साथ अचानक सामने आया और एक मग एसिड फेंक कर नदारत हो गया. मनीषा से अलग होने का खुन्नस उसने एसिड हमला करके निकाला. सलीम से अलग होने के बाद मनीषा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके लिए एक बहुत बड़ी लड़ाई इंतजार कर रही है. लगातार थाना, पुलिस और अदालत के चक्कर लगाने के साथ अपनी लड़ाई लड़ने के लिए मन को तैयार करती चली गयी. मुहल्ले के लोग इस जुझारू खूबसूरत और जागरूक लड़की को हमेशा से हैरानी से देखा करते थे. हालांकि आज भी देखा करते हैं. लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि देखने का कारण बदल गया है.
एसिड हमले की वारदात के बाद पुलिसी कार्रवाई के बाद सलीम समेत अन्य पांच अभियुक्त जमानत पर छुट्टा घूमते रहे. धमकियां दे रहे हैं. मामला उठा लेने के लिए लगातार दबाव बना रहे हैं. आखिरकार मनीषा को अपना कस्बा छोड़ कर कोलकाता चले आना पड़ा. यहां मनीषा ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाईकोर्ट ने 17 जुलाई को राज्य सरकार को तीन लाख रु. हर्जाना के तौर पर मनीषा को दिए जाने का आदेश दिया. गौरतलब है कि प. बंगाल में एसिड हमले की पीडि़तों को तीन लाख हर्जाना देने का कानून है. इस कानून के तहत हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया. इतना ही नहीं, जमानत पर छुट्टा घूम रहे पांचों अभियुक्तों को भी फिर से गिरफ्तारी के साथ जांच का भी आदेश दिया हाईकोर्ट ने. मुख्य अभियुक्त सलीम फरार है. अन्य सभी अभियुक्तों को पुलिस गिरफ्तार कर चुकी है.
पर जहां तक तीन लाख रु. के हर्जाने का सवाल है तो 21 वर्षीय मनीषा बड़े आत्मविश्वास के साथ कहती है कि उसकी अपने योग्यता से कोई नौकरी मिल गयी तो कुछेक सालों में तीन लाख रु. जमा कर लेना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं. सिर्फ त्वचा ही तो जल कर सिकुड़ गयी है. इससे जीना का रास्ता तो बंद नहीं हो जाता है न? नौकरी करके अपने पैरों पर खड़े होने के लिए चिकनी त्वचा एक मात्र योग्यता नहीं हो सकती है.
इलाज के दौरान जब पूरे चेहरे पर बैंडेज था, तब अस्पताल के बिस्तर पर लेटी हुई मनीषा ने खुद को सांत्वना दे दिया था कि जीवन यहीं खत्म नहीं हो जाता. इसके आगे भी दुनिया है. पर उसके लिए खुद को तैयार करना होगा. वैसे इस दिन एक और सचाई से भी वह रूबरू हो गयी थी कि यह दुनिया बड़ी बेदर्द है. तमाशा देखती है. दरअसल, बैंडेज से ढंके पूरे चेहरे के बावजूद उसके कांनों तक लोगों की कुछ फुसफुसाहट पहुंच रही थी. वह कहती है कि बेड के करीब खड़े लोग कह रहे थे कि भले घर की लड़कियों के साथ तो ऐसा नहीं होता है! ये लोग केवल तमाशा देखने के लिए पहुंचे थे.
जब यह हासदा नहीं हुआ था तब मनीषा दुनिया में अपने लिए जगह बनाने की जद्दोजहद किया करती थी. वह कहती है कि कभी उसने किसी राजकुमार का सपना नहीं देखा है. बस, एक ही सपना था कि कोई अच्छी नौकरी ढूंढ़ना है. तैयारी के तौर पर वह टीवी देख-देखकर अंग्रेजी-हिंदी सीखती थी. ‘स्मार्ट’ होने की कोशिश किया करती थी. यह तैयारी बीच में थम गयी. गौरतलब है कि एसिड हमले के बाद 21 दिनों के गलत इलाज के कारण उसकी आंखें नष्ट हो चुकी है. अब धुंधला-धुंधला-सा दिखता है.
पर जीवन के प्रति जीजीविषा में कहीं कोई कमी नहीं है. वह बताती है कि अभी उसी दिन की बात है लोकल ट्रेन में उसकी आप बीती सुनकर एक सहयोगी यात्री ने यहां तक पूछ लिया कि सिर्फ एसिड ही फेंका था या रेप भी हुआ? ऐसी दुनिया से रूबरू होने के बाद भी यह मनीषा ही है जो आत्मविश्वास से लबालब है. मनीषा का मनाना है कि उसका जला चेहरा दरअसल, समाज का आईना है. उसके जले चेहरे में उस जैसी अनगिनत लड़कियों का संघर्ष भी शामिल है.
अस्पताल से जब छुट्टी मिली तो वह ईद का दिन था. घर लौटी तब पता कि हमलावर जमानत पर छूट कर मुहल्ले में लौट आए हैं और छाती फुला कर उसके घर के आसपास घूम रह हैं. उसी दम मनीषा ने संकल्प ले लिया कि पूरे साहस के साथ इनके सामने जाकर मुस्कुराते हुए उसे खड़ा होना है. उन्हें समझा देना है कि ‘तुम्हारा एसिड उसका कुछ भी नहीं जला पाया है. मेरे सपने को, मेरी मेरी चाह को जला नहीं सका है.’ आज भी मनीषा गानों पर थिकरती है. ब्यूटिशियन कोर्स से प्रशिक्षित मनीषा आज भी मुहल्ले की औरतों को सजाती-संवारती है.
इसी तरह मैयत्री भट्टाचार्य द्वारा अवैध संबंध बनाने से इंकार करने की सजा एसिड हमले से दी गयी. इसी साल 17 जून की घटना थी. प. बंगाल के वर्दमान जिला के रानाघाट स्टेशन में एक परिचित युवक ने मैयत्री के चेहरे को निशाना बना कर एसिड फेंका. इस हमले में मैयत्री का चेहरा ही झुलस गया और एक आंख भी जाती रही. लेकिन उस का मनोबल आज भी अपने चरम पर है. कलकत्ता मेडिकल कौलेज में इलाज करा रही है बास्केट बॉल की खिलाड़ी मैयत्री भट्टाचार्य. एसिड हमले में झुलसा है, बल्कि कंधा, हाथ और पैर भी जल गया है.
जब पहली बार उससे मिली थी तब स्थिति इतनी भयावह थी कि कंधे और दाहिने हाथ की त्वचा ही नहीं, मांसपेशियां तक गल गयी थी और वहां सेप्टिक हो गया था. उसके हाथों में स्लाइन का चैनल और चेहरे पर सफेद महलम लगा हुआ है. फिर भी वह दम साध कर दोषियों को सजा दिलाने और एसिड हमले की पीडि़तों के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ने का संकल्प लेती है. अन्य पीडि़तों को वह संदेश देना चाहती है कि जीवन सिमट नहीं जाता त्वचा की सिकुड़न से.
वह जानती है कि यह संघर्ष कठिन है, पर लड़ना ही होगा. अस्पताल से छुट्टी मिलने पर वह अपनी मास्टर्स की डिग्री भी पूरा करना चाहती है. इसी के साथ वह इस लड़ाई को सड़क पर लड़ना चाहती है. वह कहती है बलात्कार के विरोध में लोग सड़क पर उतरते हैं, लेकिन एसिड हमले का देश में कड़ाई से विरोध कोई नहीं करता. इसीलिए वह इसे एक लंबी लड़ाई मानती है. इस लड़ाई में आमलोगों का साथ चाहती है.
आंकड़ों की जुबानी
बहरहाल, एसिड सर्वाइवल फाउंडेशन इंडिया के आंकड़े कहते हैं कि एसिड हमले की वारदातें हमारे देश में बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं. 2011 में एसिड हमले की वारदात जहां महज 106 प्रकाश में आयी थी, वहीं 2015 आते-आते देश भर में 802 ऐसी वारदातों रिपोर्ट हुई हैं. जाहिर है यह चिंता का विषय है. हालांकि आंकड़े से पता चलता है कि एसिड हमले की वारदातों पर नियंत्रण करने में महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश एक हद तक कामयाब रहा है. वहीं उत्तरप्रदेश, प. बंगाल और दिल्ली ऐसी वारदातों के लिए बड़ा नाम कमाया है. 2011 से 2015 तक एसिड हमले के 147 मामलों के साथ सबसे ऊपर पायदान पर है. दूसरा स्थान प. बंगाल का है. 2011-2015 के बीच यहां 125 मामले प्रकाश में आए हैं. दिल्ली 96 हमलों के साथ तीसरे नंबर पर है. मध्यप्रदेश 61 वारदातों के साथ चौथे नंबर पर, 45 के साथ हरियाणा पाचवें, 42 के साथ पंजाब छठे, 38 के साथ आंध्रप्रदेश सातवें, 37 के साथ बिहार आठवें, 31 के साथ महाराष्ट्र नौवे, 30 के साथ तमिलनाडू दसवें, 24 वारदातों के साथ ओडिशा ग्यारहवें स्थान पर है. वहीं 21 एसिड हमले के साथ गुजरात बारहवें, 17 एसिड हमले के वारदातों के साथ असम और केरल तेरहवें, 14 के साथ कर्नाटक चौदहवें और 11 के साथ जम्मू-कश्मीर पंद्रहवेंस्थान पर है.
कानूनी पेंच से मुक्ति
फरवरी 2013 से पहले एसिड हमले का आंकड़ा पुख्ता आंकड़ा नहीं माना जा सकता. इसकी वजह यह है कि तब तक हमारे देश में एसिड हमला जैसी वारदात के लिए भारतीय आपराधिक कानून में अलग से कोई धारा नहीं थी. फरवरी 2013 को भारतीय दंड विधान में संशोधन किया गया. 326चए और 326 बी को गैर जमानती धारा के तहत ऐसे अपराध को चिह्नित किया गया. अपराध साबित होने पर न्यूतम सात और अधिकतम दस साल की सजा का प्रावधान किया गया है. इस तरह देखा जाए तो एसिड हमले का पुख्ता आंकड़ा 2014 में ही उपलब्ध हो पाया. इस साल नई धारा के तहत पूरे देश में 225 एसिड हमले के मामले दर्ज हुए और 2015 में यह बढ़ कर 249 तक पहुंच गए. जबकि 2012 में एसिड हमले का आंकड़ा पूरे देश में 106 और 2013 में 116 ही रहा है. जाहिर है आपराधिक धारा के तहत इन हमलों की पहचान न होने के कारण सही स्थिति का पता नहीं चल पाता था.
सरकारी स्तर पर उदासीनता
प. बंगाल की बात करें तो पिछले कुछ सालों से राज्य में एसिड हमले की वारदात लगातार बढ़ती जा रही है. 2013 से लेकर अब तक जिस कदर राज्य ऐसी घटना आए दिन हो रही है, उसे देख कर साफ लगता है कि पुलिस प्रशासन और सरकार उदासीन हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का आंकड़ा कहता है कि बीते पांच साल में राज्य में 131 मामले दर्ज हुए. वहीं 2014 और 2015 में 41-41 मामले पूरे राज्य में दर्ज हुए. पर मजेदार बात यह है कि किसी भी अभियुक्त को सजा नहीं हुई है.
एसिड सर्वाइवल फाउंडेशन इंडिया के विक्रमजीत सेन का मानना है कि गैर जमानती धारा में अभियुक्तों की गिरफ्तारी के बाद ही ये जमानत पर छूट जाते हैं. ऐसा इसलिए होता है कि पुलिस चार्जशीट पुख्ता तैयार नहीं करती और अभियुक्त जमानत पर छूट जाते हैं.
सलफ्यूरिक, नाइट्रिक और हाइड्रोक्लोरिक एसिड खरीदने-बेचने में नियंत्रण के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने दिशानिर्देश जारी किए है. जिसके तहत राज्य सरकार ने 31 मार्च 2014 में एसिड बिक्री से संबंधित कुछ नियम बनाए. मसलन; दूकानदारों को एसिड खरीददारों का एक अलग रेजिस्टर रखना होगा और रेजिस्टर में उसमें खरीदार का नाम पता विस्तार से दर्ज करना होगा. साथ में यह भी कहा गया कि एक्जीक्यूटिव मैजिस्ट्रेट जितनी हैसियत वाला कोई अधिकारी, पुलिस में सब-इंस्पेक्टर की हैसियत वाला पुलिस कर्मी औचक दौरा करके एसिड विक्रेताओं के रेजिस्टर की जांच कर सकता है. ममता सरकार ने एंफोर्समेंट ब्रांच को भी नियमित अभियान चलाने की ताकीद कर दी है. लेकिन इस नियम का पालन नहीं हो रहा है.
कानूनी पचड़े में पीडि़त
राज्य सरकार के मौजूदा नियमानुसार एसिड पीडि़त को अधिकतम दो लाख रु. हर्जाने व बतौर आर्थिक मदद के रुपए में दिए जाने का प्रावधान है. उधर 2013 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशा जारी करके कहा था कि एसिड पीडि़त को 15 दिनों के भीतर राज्य सरकार तीन लाख रु. दे. लेकिन अभी इसी साल जून में एसिड हमला पीडि़त मनीष पैलान ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाईकोर्ट ने तीन लाख रु. का हर्जाना सरकार को देने का निर्देश दिया. लेकिन अभी तक मनीषा को सरकार रकम नहीं दे पायी है.
हालांकि इस बारे में गृह विभाग के अधिकारी के अनुसार इस देरी की वजह कानूनी अड़चन है. दरअसल, वित्त विभाग की मंजूरी मिलने के बावजूद कानून में बदलाव की अनुमति कानून विभाग से अभी तक नहीं मिला है. ने के कारण मामला अधर में लटका हुआ है. जाहिर है राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार हर्जाना नहीं दे पा रही है. सुप्रीम कोर्ट का निर्देश मान कर तीन लाख रु. का हर्जाना देने के लिए राज्य सरकार को वित्त विभाग की अनुमति चाहिए और वित्त विभाग इस रकम की मंजूरी दे चुका है. लेकिन कानून विभाग द्वारा पुराने कानून में संशोधन किए राज्य सरकार पीडि़त को वह रकम नहीं दे सकती. बंगाल में एपीडीआर जैसे मानवाधिकार संगठन और स्वयंसेवी संगठनों के लगातार दबाव बनाने के बाद हुआ सिर्फ इतना है कि सरकारी अस्पतालों में पीडि़त का निशुल्क इलाज का निर्देश सरकार ने जारी करके छुट्टी पा ली है.
एक मिसाल यह भी
एसिड हमला न केवल उसके चेहरे-मोहरे को बिगाड़ देने की कवायद है, बल्कि उसके पूरे वजूद को वभीत्स बनाने की एक नाकाम कोशिश है. ‘नाकाम कोशिश’ इसलिए क्योंकि इस तरह का हमला पीडि़त को दरअसल, पीडि़त नहीं बनाता; बल्कि उनमें सबसे डट कर मुकाबला करने का माद्दा ही पैदा करता है. तमाम प्रतिकूलताओं से संघर्ष का जुनून भी पैदा करता है. आगरा के फतेहाबाद रोड में गेटवे होटल के ठीक सामने शिरोस हैंगआउट इसी बात का प्रमाण है. इस कैफेटेरिया को एसिड हमले की पीडि़त लड़कियां व महिलाएं चलाती हैं. एसिड ने भले ही इनके चेहरे को बिगाड़ दिया है, लेकिन इनके चेहरे पर हजारों वाट की मुस्कुराहट को हमलावर मद्धिम करने में कामयाब नहीं हुए.
एसिड अटैक सर्वाइवलों के पुर्नवास की अपनी ही तरह का देश में यह पहला प्रोजेक्ट है. बल्कि कहा जाना चाहिए कि एसिड सर्वाइवल द्वारा चलाया जानेवाला यह देश का पहला कैफेटेरिया है. बिगड़े-विकृत चेहरे, समाज की उपेक्षा, आस-पड़ोस के लोगों की सहानुभूति, हास-परिहास, डर-भय को अंगूठा दिखा कर ये लड़कियां शिरोज हैंगआउट चला रही हैं.
2014 में अकेले उत्तरप्रदेश में 186 एसिड हमले के मामले पुलिस ने दर्ज किए थे. इसके बाद अखिलेश यादव ने दिल्ली की एक स्वयंसेवी संस्था छांव फाउंडेशन के सहयोग से इन लड़कियों की पुनर्वास योजना लेकर आगे आयी. मजेदार बात यह है कि इस कैफेटेरिया में चाय-कौफी और स्नैक्श के साथ कम्युनिटी रेडियो सुनने का लुत्फ और लाइब्रेरी में बढ़ने की भी सहूलियत है. इसके अलावा समय-समय पर यहां आर्ट वर्कशाप और एग्जिबिशन भी आयोजित किए जाते हैं. इन विशेषताओं के साथ यह कैफेटेरिया आगरा में न केवल स्थानीय लोगों के बीच बल्कि देशी-विदेशी पर्यटकों के बीच बहुत ही कम समय में लोकप्रिय हो गया. इसकी लोकप्रियता को देखते हुए लखनऊ में भी इसकी एक शाखा खोल ली गयी है. जाहिर है उप्र की यह मिसाल उम्मीद जगाती है. पर इसमें सरकार और समाज का साथ जरूरी है.