एक पुरानी कहावत है, ‘लकीर का फकीर बनना’ यानी कहेसुने को गांठ बांध लेना और आंख मूंद कर एक ही ढर्रे पर चलते जाना. यदि घर में धार्मिक मान्यताओं पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है तो घर के बच्चे भी इस में शामिल हो जाते हैं और आंखें मूंदे वही सब करते हैं, जो उन्हें कहा जाता है.

बात सिर्फ पूजाअर्चना या अंधभक्ति तक ही सीमित नहीं है, कई बार तो इन अंधविश्वासों के कारण किशोरों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ जाता है. इस बारे में चंदन कुमार एक वाकेआ सुनाते हैं, कि औल इंडिया मैडिकल प्रवेश परीक्षा के दौरान मेरी मां ने घर से निकलते वक्त मुझे सख्त हिदायत दी कि बगल वाले मंदिर के  पुजारी का आशीर्वाद लिए बगैर परीक्षा देने मत जाना और जो मन्नत का धागा है उसे जरूर अपनी कलाई पर बंधवा लेना, इसे भूलना मत.

इस चक्कर में मैं काफी देर तक मंदिर में पुजारी की प्रतीक्षा करता रहा. वे किसी कार्यवश बाहर गए थे. जब वे काफी देर तक नहीं आए तो आखिर मुझे वहां से निकलना पड़ा. न पुजारी आए औैर न मैं धागा अपनी कलाई पर बंधवा पाया. उलटे देर से पहुंचने पर ऐग्जाम में नो ऐंट्री होतेहोते बची.

मेरे जीवन का यह बहुत कड़वा अनुभव था. मैं ने उस दिन से हर बात को पत्थर की लकीर मानना छोड़ दिया. अब मैं सहीगलत का आकलन कर उस बात पर अमल करता हूं.

एक किशोर होने के नाते मैं अपने दोस्तों को भी यही सलाह दूंगा कि लकीर का फकीर न बनें बल्कि अपने विवेक का इस्तेमाल कर कदम बढ़ाएं.

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