आरुषि हत्याकांड पर जिस तरह से मीडिया बौराया है वह दर्शाता है कि हमारा यह शक्तिशाली टूल केवल क्रिकेट के बैट या  हौकी स्टिक की तरह मारने लायक रह गया है, कुछ स्कोर करने  लायक नहीं. पतिपत्नी के घर में रहते 13 साल की इकलौती बेटी  की हत्या हो जाए और उसी घर में अगले दिन एक नौकर की लाश मिले, यह आश्चर्य की बात तो है पर घंटों उस पर चैनल दर चैनल

4-5 लोग अपने खयाली पुलाव पकाते रहें और देश के खाली  बैठे लोग कयास लगाते रहें कि किस ने मारा और डाक्टर दंपती निर्दोष है या दोषी, पागलपन की निशानी है.  किसी हत्या पर जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है पर उस के लिए पागलपन छा जाए और अखबारों के पन्ने भर जाएं, फिल्म बन जाए, सुप्रीम कोर्ट तक मामला जाए और फिर कभी इसे पकड़ा जाए कभी उसे, एक देश की दिमागी हालत दर्शाता है कि हम तुच्छ बातों पर इतना समय लगा देते हैं कि गंभीर मुद्दे ही रह जाते हैं.

अगर तलवार दंपती बेटी के बारे में कुछ राज नहीं बताना चाहते तो यह उन का हक है. वे समझदार हैं, अतियोग्य हैं और ऊंचनीच समझते हैं, उन्हें उन पर छोड़ दें. अगर तथ्य व सुबूत नहीं हैं, तो मामला बंद कर दें न कि मातापिता को बेबात की कैद में डाल दें. यह देश की कानून व्यवस्था से ज्यादा जनमन के थोथेपन की पोल खोलता है. आरुषि को न्याय कब मिलेगा यह सवाल उठाने वाले टीवी चैनल कौन होते हैं जब उस के मातापिता हैं और कठघरे में  खड़े हैं पर उन के खिलाफ सुबूत ही नहीं हैं.

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