बस्तरमें आयोजित होने वाले पारंपरिक पर्वों में बस्तर दशहरा सर्वश्रेष्ठ है. बस्तर के आदिवासियों की अभूतपूर्व भागीदारी का ही प्रतिफल है कि बस्तर दशहरे की पहचान अब राष्ट्रीय स्तर तक ही सीमित नहीं है वरन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी स्थापित हो चुकी है. देशी एवं विदेशी पर्यटकों के लिए बस्तर दशहरा अब मुख्य आकर्षण का केंद्र बन चुका है.
रथ चलाने की प्रथा
यह मुख्यरूप से दंतेश्वरी देवी पर केंद्रित होता है. यह त्योहार संपूर्ण रूप से स्थानीय मान्यताओं एवं आदिवासी प्रथाओं का मिश्रण है. अनेक पारंपरिक जनजातीय, स्थानीय एवं हिंदू धर्म के देवीदेवता दंतेश्वरी देवी के मंदिर में एकत्रित होते हैं, जोकि पर्व का केंद्र बिंदु होता है.
कहते हैं कि राजा पुरुषोत्तम देव जब पुरी धाम से बस्तर लौटे तभी से गोंचा और दशहरा पर्वों में रथ चलाने की प्रथा चली.
मजबूत बुनियाद
75 दिवसीय सुप्रसिद्ध बस्तर दशहरे की शुरुआत श्रावण की हरेली अमावस्या से होती है एवं समापन अश्विन महीने की पूर्णिमा की 13वीं तिथि को होता है. इस पर्व पर आदिवासी समुदाय ही नहीं, बल्कि समस्त छत्तीसगढ़ी गर्व करते हैं. इस पर्व में अन्नदान एवं श्रमदान की जो परंपरा विकसित हुई
उस से साबित होता है कि हमारे समाज में सामुदायिक भावना की बुनियाद बेहद
मजबूत है.
सांस्कृतिक परंपरा
बस्तर दशहरे में होने वाली रस्में बेहद रोचक एवं अनूठी हैं जैसे पाट जात्रा, काछिन गादी, नवरात: जोगी बिठाई, रथपरिक्रमा, दुर्गाष्टमी निशाजात्रा, जोगी उठाई, मावली परघाव, विजयादशमी भीतर रैनी, बाहिर रैनी, मुरिया दरबार, ओहाड़ी आदि.
बस्तर दशहरा बहुआयामी है. धर्म, संस्कृति, कला, इतिहास और राजनीति से तो इस का प्रत्यक्ष संबंध जुड़ता ही है, साथ ही साथ परोक्षरूप से भी बस्तर दशहरा समाज की उच्च एवं परिष्कृत सांस्कृतिक परंपरा का गवाह बनता है. आज का बस्तर दशहरा पूर्णतया दंतेश्वरी का दशहरा है.