इंचियोन एशियाड में सीमा पूनिया के डिस्कस थ्रो में गोल्ड मैडल जीतने के बाद वहां यह सवाल उठा कि क्या ऐथलैटिक्स में भारतीय महिलाओं की कामयाबी के पीछे उन के पति का हाथ होता है? लेकिन गौरतलब यह है कि यह कोई नई बात नहीं कि भारतीय महिला खिलाड़ी बतौर कोच अपने पति को चुन लेती हैं. सीमा पूनिया की कामयाबी के पीछे उन के पति अंकुश पूनिया की कड़ी मेहनत है, तो इस से पहले कृष्णा पूनिया व अंजु बौबी जौर्ज को शिखर तक पहुंचाने में उन के कोच रहे पतियों की कड़ी मेहनत व लगन है. इस से भी पहले 70 के दशक में जलाजा और नरेश की जोड़ी जगजाहिर है.

मैरी कौम की कामयाबी में भी उन के पति का जबरदस्त सहयोग रहा, तो बौक्सर सरिता के पति थोइबा सिंह इंचियोन में गलत फैसले से इतने व्यथित हुए कि वे निर्णायकों को गलत शब्द तक कहने लगे. ये तमाम पति अपनी पत्नियों के लिए जनून को जीते रहे हैं. ये वे पति हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन ही पत्नी के नाम लिख दिया है. ये पत्नी की तरक्की में अपने ख्वाब पूरे होते हुए देखते हैं. इन्होंने कभी यह अपेक्षा नहीं की कि पत्नी 24 घंटे उन की सेवा में लगी रहे. यही नहीं, इन की ख्वाहिश अपने जीवनसाथी के साथ अपने तिरंगे के सम्मान से जुड़ने में भी रही है. वाकई कितनी सम्मोहक है यह ख्वाहिश.

हैरत की बात तो तब होती है जब किसी देश में खेलों के प्रति नकारात्मक रवैया होता है और वहां ऐसी दमदार प्रतिभाएं उभरती नजर आती हैं. घर से ले कर स्कूल तक जहां सब बच्चों को किताबी कीड़ा बनने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं, खेल मैदानों की अवधारणा जहां दिनबदिन गायब हो रही है, बिल्डिंग के कैंपस को जहां बच्चों के खेल से नहीं चमचमाती गाडि़यों से लगाव है, पार्क में खेलते हुए बच्चों को जहां पार्क से निकाल दिया जाता है, वहीं ऐसे माहौल में यदि कोई खेल प्रतिभा उभर कर सामने आती है, तो यह खिलाड़ी और उस के परिवार का निजी जनून है.

कामयाबी के हमराही

पिछले दिनों एक फिल्म ‘मैरी कौम’ सिनेमाघरों में आई. बौक्सिंग चैंपियन मैरी कौम की जिंदगी पर आधारित यह फिल्म तकनीकी पहलू से तो बेहतर थी ही, फिल्म की और भी कई बातें अच्छी थीं. मैरी कौम की जीवन यात्रा पटकथा के लिए शानदार सामग्री थी और फिल्म की पूरी टीम ने इस प्रेरक कथा को परदे पर साकार करने के लिए आला दरजे का काम किया. सब से ज्यादा दिलचस्प बात यह रही कि असली जिंदगी में मैरी कौम के लिए सब से बड़ी चुनौती तो बौक्सिंग रिंग के बाहर थी, चेहरे पर बरसने वाले मुक्के नहीं. कैरियर के लिए अपनों को राजी करना, शादी, गर्भावस्था और मातृत्व आदि ये बातें मैरी कौम के लिए ज्यादा कठिन थीं. सामान्य जीवन की ये वे चुनौतियां हैं, जो किसी भी महिला के लिए अपने सपने को साकार करना कठिन बना देती हैं. मैरी कौम ने इन्हीं सब चुनौतियों को मात दी और जीत हासिल की. यही बात उन्हें आइकोन बनाती है. कहानी में एक और सितारा है और वह है मैरी कौम का पति ओनलर कौम जो हर वक्त अपनी पत्नी का जबरदस्त समर्थक बना रहा. बौक्सिंग रिंग पर मैरी कौम का उत्साह बढ़ाने से ले कर घर पर बच्चों की लंगोटी बदलने वाले तक का किरदार निभाने वाले ओनलर ने मैरी कौम के सपने को मरने नहीं दिया. उन्होंने अपना खुद का कैरियर गर्दिश में डाल दिया और पत्नी को प्रैक्टिस के लिए भेज कर घर पर बच्चों की बखूबी देखरेख की. ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि जीत मैरी कौम ने ही नहीं, ओनलर ने भी हासिल की थी.

फिल्म में मैरी कौम ने ही नहीं, उन के पति ओनलर ने भी दर्शकों का खूब दिल जीता. दर्शकों में कई लड़कियां रश्क करती पाई गईं कि क्या अद्भुत पति है.

जलाजा और नरेश

1970 के दशक में शादी से पहले धाविका जलाजा नैशनल चैंपियन थीं, लेकिन शादी के बाद पति नरेश ने उन्हें प्रशिक्षण दिया, जिस से उन के प्रदर्शन में लगातार सुधार आया. मददगार पति की बदौलत बाद में जलाजा ने नैशनल रिकौर्ड भी कायम किया. हालांकि नरेश खुद ट्रिपल जंपर थे, लेकिन उन्होंने अपना कैरियर दांव पर लगा कर सारा ध्यान जलाजा पर लगाया. नरेश की ही तरह रौबर्ट जौर्ज ने भी अपना कैरियर छोड़ कर अंजु की कोचिंग का जिम्मा लिया और कड़ी मेहनत व सफल प्रशिक्षण के चलते अंजु बौबी जौर्ज विश्व स्तरीय ऐथलीट बन गईं.

कृष्णा और वीरेंद्र पूनिया

गौरतलब है कि साल 2011 में फ्रैंच ओपन विजेता चीन की खिलाड़ी ली ने अपने पति जियांग शेन को अपने कोच के पद से बरखास्त कर दिया था. लेकिन उसी दौर में भारतीय डिस्कस थ्रोअर कृष्णा पूनिया ली के इस फैसले से बिलकुल भी सहमत नहीं थीं.  तब समाचार एजेंसी राइटर से बातचीत में कृष्णा ने कहा था कि ली के इस फैसले की कुछ वजहें रही होंगी. लेकिन मेरे मामले में ऐसा नहीं है. मेरे कैरियर की सफलता का बहुत बड़ा श्रेय मेरे पति व कोच वीरेंद्र को जाता है. मेरे बेटे के जन्म के बाद ऐथलैटिक्स में मैं जो कुछ कर पाई हूं, उस में उन की बहुत कड़ी मेहनत रही है. वीरेंद्र ने हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया है. साल 2010 और 2014 के कौमनवैल्थ गेम्स में पदक जीतने वाली कृष्णा के पति वीरेंद्र पूनिया को भी सर्वश्रेष्ठ इंडियन कोच के अवार्ड से नवाजा जा चुका है.

कृष्णा कहती हैं, ‘‘पति होने के नाते वे मुझ से जुड़ी हर बात बारीकी से जानते हैं. उन्हें मेरी सारी हैबिट्स पता हैं और यही वजह है कि जहां भी मैं गलती पर होती हूं, वे तुरंत मुझे टोक देते हैं. कोच व पति होने की वजह से वे ज्यादातर समय मेरे साथ ही होते हैं. इस वजह से मैं उन्हें मिस भी नहीं करती. ‘‘पति का कोच होना किसी भी ऐथलीट के लिए अच्छा ऐडवांटेज है, क्योंकि उन के साथ आप एकदम फ्री और फ्रैंक हो जाती हैं. किसी दूसरे कोच के मुकाबले वे आप को ज्यादा बेहतर समझते हैं. इस के अलावा माली वजहें भी हैं. सारे ऐथलीट्स इतने अमीर नहीं हैं कि खुद के लिए पर्सनल कोच रख पाएं.’’

सीमा व अुंश पूनिया

सीमा ने गोल्ड मैडल जीतने का श्रेय अपने पति अंकुश को दिया, जिन से उन की शादी साल 2011 में हुई थी. सीमा का कहना है, ‘‘अगर पति ही कोच हो, तो फायदा ज्यादा होता है. एक अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए सिर्फ अच्छी कोचिंग ही काम नहीं आती. कोचिंग के साथसाथ यह भी माने रखता है कि ऐथलीट क्या खा रहा है, क्या पी रहा है और उस की मानसिक हालत कैसी है? इन सब चीजों को पति से अच्छा कौन जानेगा और कौन उस का खयाल रखेगा?’’

दमदार पहलू

मिस्टर मैरी कौम तो महान हैं, लेकिन क्या लाखों भारतीय महिलाएं अपने पति के लिए रोज यही सब नहीं करतीं? यदि यही फिल्म किसी पुरुष बौक्सर पर होती, जिस में उस की पत्नी का पूरा सहयोग होता, वह घर पर बच्चों की देखभाल करती तो क्या हम उस की इतनी सराहना करते? ऐसा क्यों है कि किचन में काम करने वाले और बच्चों की देखभाल करने वाले पति के लिए तो अद्भुत जैसे विशेषण लगाए जाते हैं, लेकिन जब महिला यही काम करती है, तो कहा जाता है कि वह तो अपना काम कर रही है. यहां वह सराहना की हकदार क्यों नहीं है? एक जमाना था जब नौकरियों में शारीरिक श्रम बहुत ज्यादा हुआ करता था और शायद इसीलिए पुरुष काम की जगहों के लिए ज्यादा काबिल थे. आज एक अलग दुनिया है. आज कितने पुरुष ऐसे हैं जिन का काम महिलाएं नहीं कर सकतीं? इस के बावजूद जब महिला किसी पुरुष के लिए अपने सपनों और कैरियर की बलि देती है, तो इसे अपेक्षित ही माना जाता है. यह मामूली बात ही होती है. अब वक्त यह सब बदलने का है. यदि भारत को सामूहिक रूप से आगे बढ़ाना है, तो हमें अपने संसाधनों को ज्यादा सही तरीके से इस्तेमाल करना होगा और यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि महिलाएं हमारे मानव संसाधन का आधा हिस्सा हैं. हमें उन्हें उन की पूरी क्षमता तक पहुंचाने में हर संभव मदद करनी चाहिए.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...