साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अविश्वसनीय जीत हासिल करके अपने सहयोगियों के साथ केंद्र में सरकार बनाया था, उस सरकार का शपथ ग्रहण समारोह भारत की विदेशनीति के लिहाज से एक नया अध्याय था. यह पहला ऐसा मौका था, जब भारत के किसी प्रधानमंत्री ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में भारतीय उपमहाद्वीप के सभी देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया था और सभी इस समारोह में आये थे. विदेशनीति के जानकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस मास्टर स्ट्रोक से दंग रह गये थे. क्योंकि सरकार बनने के पहले तक सबको यही लगता था कि अगर भाजपा सरकार बनाती है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो भारत की विदेशनीति कैसी होगी? लेकिन मोदी सरकार ने इस सवाल का ऐसा जवाब दिया जिसका किसी के पास पहले से कोई अंदाजा ही नहीं था.

साल 2014 में चुनाव के पहले संभावित भाजपा सरकार की जिस विदेशनीति को लेकर सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे थे, बाद में पांच सालों तक सबसे ज्यादा सरकार को उसी मोर्चे में सफल होते देखा गया. लगा जैसे सरकार ने आने के पहले कई सालों तक खास तौरपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेशनीति का कुछ खास ही होमवर्क किया है. जिस कारण वह सत्ता में आते ही तमाम बड़े देशों की यात्राएं कीं और सबने गर्मजोशी के साथ भारत को रिश्तों की एक नयी मंजिल के रूप में लिया. लेकिन लगता है जो आशंकाएं 2014 में तमाम जानकारों को थीं, वे आशंकाएं अब 2020 में फिर से पैदा हो गई हैं या यूं कहें वही आशंकाएं अब हकीकत का रूप लेती दिख रही हैं. निश्चित रूप से भारत की विदेशनीति के लिए अचानक एक बड़ी कठिन परीक्षा आ गई है. आजादी के बाद से यह पहला ऐसा मौका है, जब न केवल भारत अपने तीन पड़ोसियों के साथ सरहदी तनाव में उलझा हुआ है बल्कि दो और पड़ोसियों के साथ भी रिश्ते अगर खराब नहीं हैं तो गर्मजोशी वाले भी नहीं है.

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