अगर हम इस गलतफहमी में रहने लगें कि देश और समाज आधुनिक हो गया है और आज की पीढ़ी पुरातनवादी सोच से ऊपर उठ चुकी है तो अपने को सुधार लें.
अगर हैदराबाद का ओस्मानिया विश्वविद्यालय युवाओं का गढ़ है, तो जातिवादी गुटों का भी. वहां कम से कम 60 जातियों से जुड़ी युवा संस्थाएं हैं, जो एकदूसरे की कट्टर दुश्मन हैं और जातिवाद के जहरीले दलदल में पैट्रोल, तेल, गंद डाल कर खुद को धन्य समझ रही हैं. कभीकभार पिछड़ी यानी अदर बैकवर्ड कास्ट्स एक मंच पर एकसाथ बैठ कर कुछ करने की योजना बनाती हैं, जैसे हार्दिक पटेल के गुजरात के आंदोलन को समर्थन देने के लिए हुआ पर उन में हर जाति की अलग पहचान का मुद्दा उभर आया.
युवाओं को इन जाति समूहों से बहुत परेशानी होती है. पहली और सब से बड़ी परेशानी तो यह होती है कि ये समूह प्यार में आड़े आते हैं. आमतौर पर इन समूहों को एक जाति के जने का दूसरी जाति में प्यार नहीं सुहाता, क्योंकि अगर प्यार और विवाह हो गया तो जातिवाद की चूलें हिल जाएंगी और जाति के नाम पर चल रही दुकानें ठप्प हो जाएंगी. गांवों और शहरों में भी इस का असर पड़ता है. अब हमारे यहां ऐसे महल्ले बनने लगे हैं, जिन में एक ही जाति के लोग रहते हैं और जातिवाद को पनाह देने वाले पंडेपुजारी यहां जम कर कमाते हैं.
अब पिछड़ी और दलित जातियों में भी पंडेपुजारियों की बरात बन गई है, जो भक्तों से मोटा दान पाती है और वे केवल कट्टरों को चाहते हैं, क्योंकि इसी बहाने उन को हड़काया जा सकता है. ओस्मानिया विश्वविद्यालय में हाल ही में गौमांस खाने पर हल्ला मचा. जो गाएं सड़कों पर कचरा खाती हैं, उन को काटने पर लोग आदमी का सिर काटने को तैयार थे और जो कहते थे कि इसे खाने का हमें पुश्तैनी हक है, आपस में सिर फोड़ने को तैयार थे. यह तो सरकार की दखल थी जो मामले को दबा दिया गया वरना धर्म और जाति पर बंटा ओस्मानिया विश्वविद्यालय मारपीट की क्लासें लगाने लगता. ऐसा सारे देश में हो रहा है. हर स्कूल, कालेज, दफ्तर, महल्ला, कालोनी जातियों पर बंटी है. किट्टी पार्टियों में भी एक ही जाति की औरतें नजर आती हैं मानो हर जाति पर कोई मुहर लगी रहती हो और किसी जाति वालों के 4 हाथ हैं और किसी की 3 आंखें.