यूरोप के कई देशों की तरह आस्ट्रिया ने भी पूरा चेहरा ढकने वाले बुरके पर पाबंदी लगा दी है. इस से मुसलिम औरतों को चलतेफिरते कैदखाने में रहने की मजबूरी से कुछ तो नजात मिलेगी. बुरका किसी भी तरह से चरित्र रक्षा का कवच है, यह गलत है. असल में तो यह मर्दों की पोल खोलता है कि वे इतने कामुक हैं कि औरत का चेहरा देखते ही बौरा सकते हैं. ऐसा समाज किस काम का जो अपने लोगों को औरतों की इज्जत करना तक न सिखा सके?
ऐसा नहीं कि यह किसी धर्म विशेष की ही खासीयत है. सभी धर्मों ने औरतों के पहरावे पर समयसमय पर पाबंदियां लगाई हैं. भारत में आज भी हिंदू औरतों को कितने ही अवसरों पर परदा करने को मजबूर करा जाता है. ईसाई समाज ने भी इसी तरह कपड़ों पर सदियों तक पाबंदियां लगा रखी थीं. यह तो 19वीं सदी के बाद हुआ है कि औरतों को मनचाहा करने की छूट मिली है.
औरतों पर पाबंदियां असल में समाज के लिए बेहद हानिकारक होती हैं. समाज उत्पादक औरतों को बेकार में खो देता है और वे बच्चे पालने और चूल्हाचौका संभालने के काम में लगी रहती हैं.जिस समाज ने औरतों को बराबरी का स्थान दिया है, वह आगे बढ़ा है. जब भी औरतों को अपने पिता के घर या ससुराल से अलग हो कर कहीं अकेले रहना पड़ता है वे आमतौर पर सैकड़ों काम कर लेती हैं और तभी खाली हाथ आए शरणार्थी 10-15 सालों में पैसे वाले बन जाते हैं, क्योंकि उस समय आदमीऔरत बराबरी के स्तर पर कंधे से कंधा मिला कर काम करते हैं.