हमारे यहां साफसफाई एक त्योहार या मेहमान से जुड़ी एक अनयूजुअल चीज है वरना तो हम गंदगी के पूरी तरह आदी हैं. पहले दिल्ली की जम कर जी 20 के बाद साफसफाई हुई थी पर अब उस के निशान तक बचे नहीं सिवा कुछ फटे पोस्टरों के जिन में नरेंद्र मोदी विश्व नेता सा पोज बनाए दिख रहे हैं. जुलाई के अंतिम वीक में वर्ल्ड हैरीटेज कमेटी की दिल्ली की बैठक के लिए की गई साफसफाई भी इतनी बड़ी न्यूज थी कि कई अखबारों ने छापा कि एनक्रोचमैंट और क्लीनिंग जोर से चालू है.

हमारे डीएनए में सफाई अभी तक घुस नहीं पाई है क्योंकि हम ने कास्ट सिस्टम के मुताबिक क्लीनिंग की मोनोपौली केवल एक से लोगों को दे रखी है जो अब एक तरह से रिवोल्ट के कगार पर हैं. वे यह काम छोड़ कर कंस्टीम्यूशन की इक्वैलिटी की बात करने लगे हैं. वे मन मार कर सफाई करते हैं क्योंकि जहां वे खुद रहते हैं वहां की सफाई का कौंट्रैक्ट भी कोई म्यूनिसिपल बौडी किसी को नहीं देती. वहां तो गंदगी बस बरसात होने पर बह जाती है.

हमारे शहर गंदे हैं तो इसलिए कि क्लीनिंग थोड़ी सी ह्यूमन लेबर मांगती है. अगर आप ने कूड़ा डस्टबिन में डाला तो भी डस्टबिन को खाली कर के उस कूड़े को शहर के बाहर कही डंप करना भी एक मुश्किल काम है जिस में पैसा, प्लानिंग दोनों लगते हैं. हम चाहते हैं कि न पैसा लगे, न ऐनर्जी और सबकुछ अपनेआप क्लीन हो जाए.

शहरों की क्लीनिंग तभी संभव है जब पूरा शहर, ऊंचानीचा, जवान, बच्चा, बूढ़ा, सब लगें, सब को एहसास हो जैसे प्रोडक्शन की चेन होती है वैसे ही वेस्ट मैनेजमैंट की चेन है. प्रोडक्शन की चेन में भी हर स्टेज पर हर किसी को अपना कंट्रीब्यूशन देना होगा. नई चीजें डिजाइन करनी होंगी, डिस्पोजल की इंडियन टैक्नीक डैवलप करनी होगी जो बड़े शहरों में ही नहीं, छोटे गांवों में भी चल सके.

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