6 अगस्त, 2017, दिल्ली के लाजपत नगर में गटर की सफाई कर रहे  3 मजदूरों की जहरीली गैस के रिसाव के चलते मौत हो गई. यह पहली घटना नहीं है. इस से पहले दक्षिणी दिल्ली के घिटोरनी इलाके में सैप्टिक टैंक में मजदूरी करने उतरे 4 लोग भी मौत के मुंह में समा चुके हैं. इसी  तरह 3 मई, 2017 को पटना, बिहार में सफाई करने के दौरान गटर में गिरने से 2 सफाईकर्मियों की मौत हो गई.

स्वच्छ भारत अभियान के तहत नेता व अफसर हाथों में झाड़ू ले कर फोटो खिंचवा लेते हैं और इश्तिहारी ढोल बजा कर मीडिया में गाल भी बजा लेते हैं. लेकिन सचाई यह है कि साफसफाई के मामले में हम आज भी अमीर मुल्कों से कोसों पीछे हैं. सही व्यवस्था नहीं होने के कारण 1 सितंबर को दिल्ली के गाजीपुर में कचरे का पहाड़ का एक हिस्सा धंस जाने से 2 लोगों की मौत हो गई. ज्यादातर गांवों, कसबों व शहरों में आज भी गंदगी के ढेर दिखाई देते हैं.

वर्णव्यवस्था का जाल

हमारी धार्मिक, सामाजिक व्यवस्था ने हमें अपनी गंदगी, कूड़ाकरकट स्वयं साफ करने की सीख नहीं दी. हमें सिखाया गया है कि आप अपनी गंदगी वहीं छोड़ दें या बाहर फेंक दें. कोई दूसरा वर्ग है जो इसे उठाएगा. गंदगी उठाने वाले वर्ग को यह कार्य उस के पूर्वजन्म के कर्मों का फल बताया गया. गंदगी को उस की नियति करार दिया गया. इसलिए निचले वर्गों को बदबूदार गंदगी के ढेर में रहने की आदत है.

वर्णव्यवस्था में शूद्रों यानी पिछड़ों का काम ऊपर के 3 वर्णों की सेवा करना, उन का बचा हुआ भोजन खाना और उतरा हुआ कपड़ा पहनना बताया गया. इस व्यवस्था की वजह से यह वर्ग भी गंदगी को त्याग नहीं पाया. वहीं इन चारों वर्णों से बाहर का एक पांचवां वर्ण था दलित. उसे गांव, शहर से बाहर रहने का आदेश दिया गया. उसी का काम गंदगी उठाना, साफसफाई करना और मरे हुए पशुओं को ठिकाने लगाना था. सदियों बाद भी यह वर्ग इस सब से उबर नहीं पाया है.

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