दिल्ली जैसे कितने ही शहरों में होलसेल मार्केटें शहर की रिहायशी बस्तियों व घने बाजारों के बीचोंबीच हैं और धीरेधीरे आसपास के मकानों में भी घुस रही हैं. इन संकरी गलियों में न चलने की जगह है, न ठेलों की और न ही सैकड़ों मजदूरों के लिए, जो दुकानों का माल सप्लाई करने आते हैं. ये चल रही हैं क्योंकि रेल से आनेजाने में सुविधा है. दिल्ली के चावड़ीबाजार, सदरबाजार, पहाड़गंज, खारीबावली के इलाके ऐसे ही हैं.
इन इलाकों में रहने वालों के लिए मुसीबतें ही हैं. सदियों नहीं तो दशकों से रह रहे लोगों की जिंदगियां उन के बिना कुसूर के खराब हो रही हैं. उन्हें अपने पुश्तैनी मकान छोड़ कर भागना पड़ रहा है. कई फिल्मों ने इन इलाकों की घरेलू, व्यापारी, धार्मिक जिंदगी को पेश किया है पर रोमांटिक माहौल तो यहां असलियत से काफी दूर है. यहां की बदबू, भीड़, बिखराव, लटके तार जानलेवा हैं. जिन बस्तियों ने पुश्तों को शरण दी है वे अब खतरा बन गई हैं.
हर नई सरकार यहां सफाई का वादा करती है पर न व्यापारी, न उन के ग्राहक और न ही यहां रहने वाले लोग किसी ठोस प्लान पर सहमत हो पा रहे हैं. घरों में व्यापारिक काम न हो इस पर सुप्रीम कोर्ट कानून के अनुसार सख्त हो रहा है और इसीलिए बहुतों को मजबूर किया जा रहा है कि अपनी बसीबसाई दुकानों से 30-40 किलोमीटर दूर जाएं. इस पर भारी गुस्सा है और अडि़यल रवैया अपनाया जा रहा है. व्यापारियों को लगता है कि नई जगह उन्हें फिर से नई साख बनानी पड़ेगी, क्योंकि वहां उन की दुकान की पहचान खो जाएगी. यह सच है पर शहर की मजबूरी है.
शहरों के पुराने इलाकों को बदलना तो होगा. दिल्ली, भोपाल, आगरा, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई जैसे शहरों के पुराने इलाकों को तो म्यूजियम ही बनना पड़ेगा. वे धरोहरों के हिस्से हैं, आज के धंधों के नहीं. यूरोप के ज्यादातर शहरों के ऐसे इलाके केवल पर्यटकों के लिए बन गए हैं. पुराने मकानों में होटल बन गए हैं, हवेलियां म्यूजियम बना दी गई हैं. दुकानों में पर्यटकों का सामान बिकता है या रेस्तरां हैं. लोग सैर करने और पुराने माहौल में एक बार फिर जीने के लिए आते हैं.
व्यापारियों को नए जमाने के साथ तो चलना ही होगा. पुरानी सोच से चिपके रहने का अर्थ है खुद पुराना बना रहना. अगली पीढि़यों को इन्हीं इलाकों में रखना है तो इन का ढांचा वैसा ही रख कर इन्हें नया रंग देना जरूरी है.