क्या युवाओं को बाकी लोगों से ज्यादा गुस्सा आता है? इस सवाल का जवाब है- जी, हां! बहुत ज्यादा आता है. दुनिया में रोड रेज के जितने मामले सामने आते हैं, चलती फिरती जितनी भी मार कुटाइयां होती हैं, उनमें 90 फीसदी से ज्यादा में युवाओं की भागीदारी होती है. शायद इसीलिए कहा जाता है कि युवाओं के नाक पर गुस्सा रखा होता है. लेकिन पहली बात तो यह कि यह बात सिर्फ युवकों पर ही लागू होती है, युवतियों पर नहीं. दूसरी बात यह कि सभी युवक बहुत गुस्सैल नहीं होते. कुछ में ही गुस्सा नाक पर रखा होता है, जिसकी वजह होती है उनमें टेस्टोस्टोरोन हार्मोन का ज्यादा होना. अब सवाल है हम इन गुस्सैल युवाओं के बारे में बात क्यों कर रहे हैं? क्योंकि कोविड-19 जैसी महामारी में भी इस गुस्से की एक खास किस्म की नकारात्मक भूमिका देखी गई है.
जाॅन हाॅपकिंस यूनिवर्सिटी का आंकलन है कि कोविड-19 के चलते पूरी दुनिया में हुए लाॅकडाउन के दौरान गुस्सैल लोग ज्यादा मानसिक बीमारियों और तनाव का शिकार हुए हैं. मरने वालों में भी उन लोगों की ही तादाद ज्यादा है, जो पहले से ही मानसिक बीमारियों से ग्रस्त थे या कि तनाव के मरीज थे. इसलिए कोविड-19 के साइड इफेक्ट गुस्सैल युवाओं पर ज्यादा देखे गये हैं. माना जा रहा है कि कोविड-19 के चलते जिन लोगों की नौकरी सबसे पहले छूटी है, उसमें बड़ी संख्या गुस्सैल युवकों की है. लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह तात्कालिक समस्या नहीं है. कुछ युवकों को बाकियों के मुकाबले ज्यादा गुस्सा आता ही है जिसके जैविक कारण होते हैं यानी पूरी तरह से इसके लिए मेल बायोलाॅजी जिम्मेदार है.
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दरअसल कुछ युवकों में टेस्टोस्टेरोन नामक हार्मोन्स की अधिकता होती है. जिन युवकों में ये हार्मोन औसत से ज्यादा होता है, वे ज्यादा गुस्सैल और झगड़ालू होते हैं. जिन युवाओं में इसका स्तर कम होता है, वे कम गुस्सैल और झगड़ालू होते हैं. टेस्टोस्टेरोन हार्मोन का स्तर सबसे अधिक 19 से 30 वर्ष के युवाओं में होता है. इसी उम्र के युवा सबसे ज्यादा लड़ते-झगड़ते हैं. चूंकि महिलाओं में यह न के बराबर होता है, इसलिए इसी उम्र की महिलाएं लड़ाई झगड़े से दूर रहती हैं. इस हार्मोन की उपस्थिति से पुरुषों में आपस में प्रतिस्पर्धा का भाव जन्म लेता है, जो एक अवस्था पर पहुंचने के बाद झगड़े या दुश्मनी में बदल जाता है.
पुरुषों में सहनशक्ति का कम होना भी इसी रसायन के कारण होता है. लेकिन इन दिनों इसका जो सबसे खतरनाक असर देखा गया है, वह यह है कि जिन युवाओं में यह हार्मोन ज्यादा था, लाॅकडाउन में उन्हें बाकियों के मुकाबले ज्यादा बेचैनी हुई है. इन युवाओं का घरों में झगड़ा भी ज्यादा हुआ है और सबसे खतरनाक असर तो यह कि इस लाॅकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर जो ब्रेकअप हुए हैं, उनमें सबसे ज्यादा संख्या ऐसे ही युवाओं की है, जिनमें टेस्टोस्टोरोन हार्मोन्स की मात्रा ज्यादा थी.
बहरहाल ये समस्या नई नहीं है. मैलकाॅम पाॅट्स ने अपनी पुस्तक ‘सेक्स एंड वारः हाऊ बायोलाॅजी एक्सप्लेंस वार एंड आॅफर्स ए पाथ आॅफ पीस’ में टेस्टोस्टेरोन माॅलीक्यूल को ही बड़े-बड़े जनसमुदाय के विनाश का कारण बताया है. पाॅट्स, कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी में पाॅपुलेशन और फैमिली प्लानिंग के प्रोफेसर रहे हैं. उन्होंने इस तथ्य की खोज उस समय की थी, जब एक स्पेनी मनोविज्ञानी और यूनेस्को के एंथ्रोपोलोजिस्ट ने बयान दिया था कि यह तर्क वैज्ञानिक रूप से गलत है कि इंसान को युद्ध करने के गुण पूर्वजों से मिले होते हैं, जो कि एक समय में जानवर थे. पाॅट्स कहते हैं कि यह बात सही है कि पुरुष एक शांत जीव नहीं है. यह प्राणी बहुत कम समय में ही खतरनाक रूप धारण कर सकता है. आदिकाल में युद्धों के दौरान जो भी नरसंहार या बड़ी संख्या में महिलाओं के साथ बलात्कार होते थे, उसकी वजह कोई एक संस्कृति या सभ्यता नहीं थी बल्कि यह सब कुछ टेस्टोस्टेरोन माॅलीक्यूल के कारण होता रहा है.
पाॅट्स की बात को सही साबित करने के लिए भारतीय पौराणिक ग्रंथ महाभारत का उदाहरण दिया जा सकता है. पाॅट्स के अनुसार यह रसायन 19 से 30 वर्ष में पुरुषों में ज्यादा सक्रिय रहता है. यही कारण था कि महाभारत के युद्ध में शामिल सभी बुजुर्ग योद्धा उतने जोश से नहीं लड़ते थे. लड़ाई को लेकर सबसे ज्यादा उत्साह युवाओं में ही दिखता था. इस युद्ध में जिस वीरता का परिचय सबसे कम आयु के अभिमन्यु ने दिया था, उसके आगे तो अर्जुन भी फीके पड़ गए थे. युवा अभिमन्यु में टेस्टोस्टेरोन हार्मोन का स्तर सबसे ज्यादा था, जिसके कारण उनमें युद्ध को लेकर एक अलग ही जोश था. मानव की जन्म प्रक्रिया पर लंबे समय से अध्ययन कर रहीं एन गिब्सन की बीबीसी में छपी एक राय के मुताबिक, ‘यह बात बिल्कुल सही है कि इंसान में दया और अच्छाई जैसे गुण भी हार्मोन्स और जीन के करण ही होते हैं; लेकिन इसी के साथ इसमें भी कुछ गलत नहीं है कि कई सदियों से ही इंसान खून-खराबा, मारपीट, यहां तक की अपनी ही प्रजाति को भोजन भी बनाता रहा है यानी अच्छाई के साथ उसमें बुराई के गुण भी शुरूआती दौर से थे.’
वास्तव में इस तमाम गुस्से के पीछे कोई विचारधारा नहीं बल्कि रसायनिक उत्प्रेरणा होती है.
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हमने यह अकसर ही देखा है कि किसी खतरनाक गतिविधि में युवा ही शामिल होते हैं, इसके पीछे वजह होती है उनके शरीर में मौजूद जेंडर हार्मोंस का उच्चतम स्तर. हैरानी की बात यह है कि हार्मोंस का यह स्तर अलग-अलग समाज के लोगों में भिन्न-भिन्न होता है. पाटॅ्स के इस शोध से यह तो साबित होता है कि पुराने समय में हुए युद्ध का कारण मनोविज्ञान नहीं बल्कि जीवविज्ञान रहा है; लेकिन आधुनिक युग में इस शोध का उतना महत्व नहीं है. आज के समय में युद्ध की परिभाषा काफी बदल चुकी है. अब लोग जज्बातों से कम और दिमाग से ज्यादा सोचते हैं. ऐसी स्थिति में लड़ाई भी दिमाग से ही लड़ी जाती है. शरीर में टेस्टोस्टेरोन माॅलीक्यूल का आज के समय में एक ही नुकसान नजर आता है. वह है युवा पीढ़ी में बढ़ते गुस्से के चलते उनका तनाव में घिर जाना, मानसिक बीमारियों की चपेट में आ जाना और अपने गुस्सैल स्वभाव के कारण कॅरियर को चैपट कर लेना. कोविड-19 के दौरान यह इसलिए भी ज्यादा खतरनाक बनकर उभरा है क्योंकि एक साथ इसके सारे खतरे नतीजे के रूप में सामने आ गये हैं.
जो युवक ज्यादा गुस्सैल थे, उनमें इम्यून की कमी के कारण कोविड-19 के संक्रमण का सबसे ज्यादा खतरा बना. इसी हार्मोन के चलते अपने गुस्से के कारण वे दफ्तरों में छंटनी का पहले शिकार हुए और इसी हार्मोन के चलते अपने गुस्से को काबू न कर पाने के कारण इस दौरान सबसे ज्यादा उनके ब्रेकअप हुए. कहने का मतलब ये है कि टेस्टोस्टेरोन हार्मोन के जितने ज्यादा नुकसान हो सकते थे, वे सब इस समय एक साथ घटित हो गये हैं. ऐसे में मेडिकल वैज्ञानिकों के सामने यह नये सिरे से चुनौती है कि वे गुस्से को काबू में करने का सबसे कारगर उपाय ढूंढ़ें.