दिल्ली में एक न्यायालय ने एक युवक को एक लड़की को तेजाब फेंक कर मारने के बाद उम्र कैद की सजा सुनाई थी. उस युवक ने अपील की कि वह बेगुनाह है पर उच्च न्यायालय ने बहुत सख्त रुख अपनाते हुए न केवल आरोप सही पाया, उम्रकैद जो अमूमन 13-14 साल की होती है को बढ़ा कर 25 साल कर दिया. यह एक अच्छा निर्णय है.
महेश नाम के इस युवक ने पड़ोस की 16 साल की लड़की पर तेजाब डाल दिया था, क्योंकि वह उसे भाव नहीं दे रही थी. लड़की बुरी तरह झुलस गई और काफी तड़पने के बाद उस की मृत्यु हो गई. बजाय पश्चात्ताप में जलने के युवक ने बचाव में बहाना लगाया कि उस के तो लड़की के साथ संबंध थे और लड़की ने आत्महत्या की थी और लड़की के मातापिता उसे केवल फंसा रहे हैं. उच्च न्यायालय ने मृतका के बयान और उस के मातापिता की गवाही को ही सही नहीं माना, उस ने मैडिकल रिपोर्ट में यह भी ढूंढ़ लिया कि उस की योनि की झिल्ली इंटैक्ट थी और उस के किसी से संबंध नहीं थे.
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जो देश अपने चरित्र पर रोज ढिंढोरा पीटता है, जो समाज लाखों मंदिरों की लाइन लगाए हुए है कि वहां से कई संस्कार टपकते हैं, उस के चरित्र की पोल ऐसे हजारों मामले खोलते हैं. यहां जितने अपराध होते हैं, उतने किसी और देश में शायद न होते हों. यहां हर कोने में खूंख्वार बैठे हैं. पड़ोस वाले पर भी भरोसा नहीं करा जा सकता. जिन बच्चों ने आपस में बचपन साथ बिताया हो, उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता. अपराध कर लेने के बाद अपराधी का परिवार अपने बच्चे को बचाने में जुट जाता है मानो वह कोई बड़ा काम कर आया हो.
लड़कियों की असुरक्षा का कारण यही है कि यहां धर्मविरोधी काम करने पर पूरा समाज एकत्र हो कर परिवार पर दबाव डालता है, अपराधी को बचाने के लिए उस के परिवार, जाति व इलाके के लोग जमा हो जाते हैं. अपराधियों को यहां इज्जत मिलती है खासतौर पर औरतों के प्रति अपराध करने वाले अपराधियों को. जेसिका लाल के हत्यारे मनु शर्मा को बचाने के लिए उस के परिवार ने करोड़ों रुपए खर्च कर दिए. उस के परिवार की इज्जत पर कोई आंच नहीं आई, क्योंकि उस ने तो सिर्फ एक लड़की की हत्या की थी. समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह की सुनें तो बलात्कार में तो लड़कों की बस गलती होती है, जो हो जाती है तो कोई फांसी थोड़ा देनी चाहिए.
उच्च न्यायालय ने सजा को और सख्त बनाया है पर क्या मालूम कब सरकार इस अपराधी को छोड़ दे. सरकारों के हाथों में बहुत से ऐसे नियम होते हैं, जिन में जेलों से छूट मिलती रहती है. निजता के प्रति सतर्क करने वाला फैसला सुप्रीम कोर्ट का कुछ समय पहले दिया गया निर्णय कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 जिस में समलैंगिक संबंधों को आधार माना गया था गैरसंवैधानिक मान कर निरस्त करना असल में समाज पर अन्य तरह से भी प्रभावी होगा. इसे अपराध न मानने के पीछे जो तर्क हैं उन में मुख्य है मानव की गरिमा, जिस में मानव को अपने विवेक से काम करने की छूट है.
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हम भारतीय धर्म की पकड़ के कारण बहुत कुछ भेड़चाल की तरह करते हैं और जो भी भीड़ के साथ नहीं चलता उसे सामूहिक बहिष्कार का दंड दे दिया जाता है. वैसे तो रीतिरिवाज सभी देशों में होते हैं पर हमारे यहां आमतौर पर सामाजिक मिलन को धर्म के साथ जोड़ने में धर्म के दुकानदार पूरी तरह सफल हो गए हैं. लोग घरों में अपनी उपलब्धि, जन्मदिन, वर्षगांठ उतनी शान से नहीं मनाते जितनी रामकथा, माता की चौकी, पाठ, हवन, किसी गुरु के आगमन को मनाते हैं.
ये सब असल में गरिमा को थोड़ाथोड़ा कम करते हैं, क्योंकि ढकोसलों या घिसेपिटे तरीकों में विश्वास न करने वाले या तो बुलाए ही नहीं जाते या फिर आ कर भी बेगाने महसूस करते हैं. संवैधानिक गरिमा और अधिकार तभी काम करते हैं जब समाज उन्हें मानता और चाहता हो. अफसोस यह है कि रीतिरिवाजों और रस्मों के चक्कर में इस तरह की ब्रेन वाशिंग की जा रही है कि हर जने को एक परंपरावादी बन कर अपनी निजता धार्मिक ठेकेदारों के हवाले कर देनी पड़ रही है.
समलैंगिकता के खिलाफ भारत में ही नहीं, दूसरे देशों में भी जो शोर मचाया जाता है वह मुख्यतया वहां के हावी धर्म के दुकानदारों द्वारा मचाया जाता है. पश्चिमी एशिया, यूरोप और अमेरिका में इसलामी व ईसाई धंधेबाज ही समलैंगिकता या गर्भपातों का विरोध करते हैं. ये ही हर निजी काम की पारंपरिक विधियां भी तय करते हैं. जन्म और मृत्यु पर क्या होगा, विवाह में क्या होगा, खाना खाने से पहले क्या करना होगा, त्योहार कैसे मनाने होंगे ये सब धर्म के दुकानदार तय करते हैं और काम में अपनी फीस लेते हैं. यह फैसला असल में औरतों, आदमियों और परिवारों को निजता व गरिमा के प्रति सतर्क रहने की खिड़की खोलने का काम करता है पर आप खुद ही गिरवी रखें तो कोई क्या कर सकता है.