कुछ अरसा पहले रिलीज हुई बौलीवुड की सब से ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म ‘दंगल’ महिला पहलवानों गीता फोगट और बबीता फोगट की वास्तविक जिंदगी पर आधारित थी. इस में बड़ी खूबसूरती से चित्रण किया गया कि कैसे बहुत ही कम उम्र में उन के पिता महावीर फोगट ने कुश्ती में गोल्ड मैडल लाने के अपने अधूरे सपने को पूरा करने की जिम्मेदारी का बोझ नन्ही गीता और बबीता के कंधों पर डाल दिया, क्योंकि उन का कोई बेटा नहीं था.

ऐसे में बहुत ही कम उम्र में नाजुक सी गीता और बबीता पिता की मेहनत से इतनी मजबूत बन गईं कि अपने से बड़ी उम्र के बलिष्ठ पहलवान लड़कों को भी चारों खाने चित्त करने लगीं. 2010 व 2014 के कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीत कर पिता के साथसाथ पूरे देश का भी नाम रोशन कर दिया. ऐसा नहीं है कि लड़कियां किसी भी नजरिए से लड़कों से कम होती हैं या फिर जिंदगी में लड़कों की तरह किसी भी तरह की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम नहीं होतीं. जरूरत पड़े तो वे कुछ भी कर सकती हैं.

आजकल ज्यादातर घरों में संतान के नाम पर 1 या 2 बेटियां ही होती हैं. ऐसे में न चाहते हुए भी उन के नाजुक कंधों पर ही बुजुर्ग मांबाप की देखभाल, उन के सपने पूरे करने या परिवार से जुड़ी दूसरी जिम्मेदारियां आ जाती हैं, जिन्हें वे बखूबी निभाती भी हैं. कितनी ही बेटियां हैं, जिन्होंने एक मुकाम हासिल कर घर वालों को सम्मानित किया है.

उदाहरण के लिए इंदिरा गांधी को ही ले लीजिए. वे एक बेटी ही तो थीं, मगर देश की पहली और अब तक की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री बन कर परिवार की प्रतिष्ठा को नए आयाम तक पहुंचाया.

बेटियां होती हैं बेटों से अधिक जिम्मेदार

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में कहा था कि 1 बेटी 5 बेटों से बेहतर होती है. वैज्ञानिक रूप से भी यह प्रमाणित हो चुका है कि बेटियां अपने मांबाप से भावनात्मक रूप से अधिक जुड़ी रहती हैं और उन की देखभाल करने में बेटों से अधिक रुचि लेती हैं.

बेटियां बड़ी हो कर मांबाप की अच्छी दोस्त बन जाती हैं. वे भी अपने दिल की बात बेटियों से ही अधिक शेयर करते हैं. बेटा तभी तक बेटा होता है जब तक उस की शादी नहीं होती. बेटियां हमेशा बेटियां ही रहती हैं. वे मांबाप को भावनात्मक सहारा देती हैं, उन्हें खुश रखती हैं. शादी से पहले तो वे अपने मांबाप की देखभाल करती ही हैं, शादी के बाद भी दोनों परिवारों की देखभाल करती हैं. वे अपने फर्ज से कभी मुंह नहीं मोड़तीं.

क्षेत्र कोई भी हो लड़कियों ने मौका मिलने पर न सिर्फ दायित्व निभाया वरन समाज में अपना अलग मुकाम भी बनाया है.

ट्रैवल एजेंट उज्ज्वला पादुकोण शादी के बाद एक बेटे को जन्म देना चाहती थीं, क्योंकि उन का कोई भाई नहीं था. वे अपने मन में पैदा इस रिक्तता को बेटे के जरीए भरना चाहती थीं. मगर 1986 में उन के घर बिटिया ने जन्म लिया. उन के पति अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त बैडमिंटन खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण व उज्ज्वला पादुकोण ने बड़े प्यार से बच्ची का नाम दीपिका रखा. वही दीपिका आज घरघर में पहचानी जाती हैं. उज्ज्वला स्वीकारती हैं कि उन्हें दुनिया की सब से अच्छी 2 बेटियां मिली हैं. दीपिका की छोटी बहन अनीषा गोल्फ प्लेयर हैं.

दीपिका का फोकस भी शुरू से ही बैडमिंटन में रहा, क्योंकि कहीं न कहीं अपने पापा के सपनों को पूरा करने के लिए वे प्रयासरत थीं. उन्होंने कम उम्र से ही बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया था. जब वे स्कूल में थीं, तो सुबह जल्दी उठ जाती थीं. फिर फिजिकल ट्रेनिंग पूरी कर स्कूल जातीं. लौट कर बैडमिंटन खेलतीं और फिर होमवर्क खत्म कर के ही सोती थीं. वे नैशनल लैवल चैंपियनशिप प्रतियोगिता में भी खेली हैं. कुछ स्टेट लैवल टूरनामैंट्स में बेसबौल भी खेला है. पढ़ाई और खेल में ध्यान देने के साथसाथ वे चाइल्ड मौडल के रूप में भी काम करती रहीं.

10वीं क्लास में दीपिका के मन में फैशन मौडल बनने की चाहत पैदा हुई. इस बाबत उन्होंने अपने पिता से पूछा कि क्या वह बैडमिंटन खेलना छोड़ सकती है? पिता की स्वीकृति के बाद 2014 में उन्होंने फुलटाइम कैरियर के रूप में मौडलिंग को अपना लिया. फिर लगातार सफलता के मुकाम छूती रहीं. इसी दौरान उन्हें फिल्मों के औफर भी मिलने लगे. 2007 में उन की झोली में फिल्म ‘ओम शांति ओम’ आई, जिस के बाद सफलता और दीपिका एकदूसरे के पर्याय बन गए.

म्यूजिकल लीजैंड व सितारवादक रविशंकर को म्यूजिक वर्ल्ड का गौडफादर कहा जाता है. इंडियन क्लासिकल म्यूजिक को दुनिया भर में लोकप्रिय बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. बेटा न होने की वजह से उन्होंने अपना म्यूजिकल टेलैंट अपनी बेटी अनुष्का शंकर को सौंपा. पिता से ही अनुष्का ने सितार वादन सिखा. आज पितापुत्री की यह जोड़ी पूरी दुनिया में अपनी जुगलबंदी के लिए जानी जाती है.

20 साल की उम्र में अनुष्का को पहली दफा ग्रैमी अवार्ड के लिए नौमिनेट किया गया था. आज तक वे 6 दफा इस के लिए नौमिनेट की जा चुकी हैं. वे देश की पहली कलाकार हैं, जिन्होंने ग्रैमी अवार्ड प्रोग्राम में परफौर्म किया है.

मूल रूप से मणिपुर की रहने वाली अंतराश पिछले कई वर्षों से अपने घर की एकमात्र कमाऊ सदस्या हैं. वे कहती हैं कि उन के पिता बेरोजगार थे. भाई के पास भी नौकरी नहीं थी. ऐसी स्थिति में परिवार की देखभाल और मांबाप के सपने पूरे करने का जिम्मा उन्हीं पर था.

अंतराश के सामने कई चुनौतियां थीं पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. 2014 में प्रतिनिधि के रूप में अंतराश ने एवौन कंपनी जौइन की और अब वहां सेल्स लीडर एसईएल के पद पर हैं. आज वे इतनी सक्षम हैं कि परिवार की आर्थिक जरूरतें पूरी करने के साथसाथ अपने सपनों को भी साकार कर रही हैं.

आर्थिक स्वंतत्रता ने दिए नए आयाम

सरोज सुपर स्पैश्यलिटी अस्पताल, नई दिल्ली के मनोचिकित्सक डा. संदीप गोविल बताते हैं, ‘‘पहले महिलाएं पुरुषों की परछाईं होती थीं. पर आज उन का स्वतंत्र वजूद है. समाज में उन की हैसियत बढ़ी है. आज वे ऊंची शिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरियां करने लगी हैं. आज बहुत सी महिलाएं अपने परिवार का आर्थिक आधार हैं. वे न सिर्फ नौकरी कर रही हैं वरन बड़ेबड़े बिजनैस भी चला रही हैं.’’

एक महिला के लिए घर की चारदीवारी से निकल कर काम करना और समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाना आसान नहीं है. लेकिन जीवन की हर चुनौती का डट कर सामना करना उन्हें मानसिक रूप से मजबूत और दृढ़निश्चयी बना देता है. आर्थिक आत्मनिर्भरता उन के जीवन को एक नई दिशा देती है.

बढ़ता आत्मविश्वास

जो महिलाएं अपने परिवार के लिए रोटी कमाने वाली (ब्रैड अर्नर) होती हैं, वे उन महिलाओं की तुलना में अधिक आत्मविश्वासी होती हैं, जो अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए पिता, पति या बेटे पर निर्भर रहती हैं. जब अपनी कमाई से वे अपनी ही नहीं, परिवार की भी जरूरतें पूरी करती हैं, तो उन में अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने का साहस उत्पन्न होता है. वे अपनी जिंदगी में उन समझौतों को नकार देती हैं, जो दूसरी महिलाओं को पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता के कारण करने पड़े थे. आर्थिक स्वतंत्रता से मिला आत्मविश्वास उन्हें अपने जीवन को उस दिशा में  आगे बढ़ाने में सहायता करता है, जिस दिशा में वे बढ़ना चाहती हैं.

आत्मनिर्भर महिलाओं को अपने भविष्य की चिंता नहीं रहती कि कल को अगर मातापिता नहीं रहे, उन की शादी नहीं हुई, तलाक हो गया या पति की मृत्यु हो गई तो वे क्या करेंगी? अगर उन के अपने बच्चे हैं, तो उन के भविष्य का क्या होगा? उन के जीवन में कोई दुर्घटना घटती है, तो भी वे आर्थिक दृष्टि से इतनी सक्षम होती हैं कि अपने जीवन को पटरी पर ला सकती हैं. भविष्य को ले कर सुरक्षा का भाव उन के व्यक्तित्व को मजबूत बनाता है.

चुनौतियों का सामना करने के टिप्स

डा. संदीप गोविल बताते हैं कि किसी महिला के लिए घर से बाहर निकल कर कमाना आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है. उसे समाज व कार्यस्थल पर कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और जब महिला सिंगल हो तब तो ये चुनौतियां और बढ़ जाती हैं.

– अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक और आशावादी रखें.

– मानसिक शांति के लिए ध्यान करें.

– अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखना सीखें.

– रोज कम से कम 30 मिनट ऐक्सरसाइज करें. इस से न सिर्फ शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने में सहायता मिलती है, बल्कि मानसिक शांति भी प्राप्त होती है.

– मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए शरीर को आराम देना भी बहुत जरूरी है. अपने शरीर की आवश्यकता के अनुसार 7-8 घंटे की नींद जरूर लें.

– सामाजिक रूप से सक्रिय रहें.

रोजगार में संभावनाएं बढ़ाने की जरूरत

एसोचैम व थौट आर्बिट्रेज की साझा रिसर्च में यह बात सामने आई है कि पिछले 10 सालों में भारत में फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट में 10% की गिरावट आई है. 2000 से 2005 के बीच जहां यह दर 34-37% थी. वहीं 2016 में घट कर 27% के आसपास रह गई है. इस के पीछे जो मुख्य वजहें सामने आईं, वे निम्न प्रकार हैं:

– रोजगार के कम अवसर.

– महिलाओं के लिए प्रतिकूल कार्यशैली.

– महिलाओं के प्रति परिवारों व समाज में रूढि़वादी सोच.

पिछले 10 सालों में भारत के पड़ोसी देश चीन में यह दर 64% तक पहुंच गई है, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि यदि हमें अपनी जीडीपी दर बढ़ानी है, तो महिलाओं के लिए भी पुरुषों के समान रोजगार की नई संभावनाएं तलाशनी होंगी. भारत की बेटियों के सपने पूरे होंगे तभी तो देश तरक्की करेगा.

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