गुजरात, जी महान गुजरात जहां गांधी हुए थे और जो आज आर्थिक व राजनीतिक सत्ता का केंद्र है, औरतों से कैसे व्यवहार करता है, इस का एक नमूना एक औरत का 6ठे बच्चे के पैदा होने से मिलता है, जिस ने नसबंदी करा रखी थी.

कलोल जिले के थेरिसा गांव की सुनीता ठाकोर ने फरवरी, 2007 में नसबंदी कराई थी. उसे आश्चर्य हुआ कि नसबंदी के बाद भी उस का एक अपंग बच्चा हो गया.

इस औरत ने प्राइमरी हैल्थ सैंटर के साथ लड़ने की ठानी और अदालत से उसे लंबी सुनवाइयों और तारीखों के बाद ₹3-4 लाख का मुआवजा भी मिल गया.

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सवाल मुआवजे का या प्राइमरी हैल्थ सैंटर की लापरवाही का तो है ही, सब से बड़ा सवाल है कि पति ने यह औपरेशन क्यों नहीं कराया? सारे देश में यह हो रहा है कि नसबंदी अगर कराई जाती है तो औरतों की कराई जा रही है, क्योंकि मर्द अपने को नपुंसक कहलाने को तैयार नहीं है.

औरतों की नसबंदी को लौटाया नहीं जा सकता और कठिन होती है पर फिर भी होती है, क्योंकि मर्द अपने को कमजोर कहलवाना नहीं चाहते. बहुत मर्दों के दिमाग में होता है कि कहीं पत्नी ने तलाक ले लिया या मर गई तो क्या होगा. दूसरी से वे बच्चे पैदा नहीं कर सकेंगे. वे औरत को मजबूर करते हैं. औरतें जानती हैं कि एक बच्चे को पालना और संभालना कितना कठिन और खर्चीला है? इसलिए वे यह अन्याय भी सह लेती हैं.

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इस मामले में जिस भी अदालत ने औरत को मुआवजा दिलाया उसे पति पर भी फाइन लगाना चाहिए था ताकि पत्नियों को बदला मिल सके कि वे कभी अकेली औपरेशन न कराएं. हमेशा पतिपत्नी दोनों का औपरेशन हो. बच्चे पैदा करने का जिम्मा पति का भी उतना ही है जितना पत्नी का. अनचाहे बच्चों को रोकने की जिम्मेदारी दोनों को एकसाथ लेनी चाहिए.

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