सर्वोच्च न्यायालय इन दिनों ट्रिपल तलाक यानी तलाक तलाक तलाक कह कर मुसलिम शादीशुदा औरत को छोड़ देने वाले धार्मिक कानून पर विचार कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी थोड़े असमंजस में है. चुनाव जीतने से पहले तो वह ढोल पीटपीट कर सामान्य विवाह कानून की वकालत करती थी पर अब मुसलिम धार्मिक कानून के बारे में कुछ भी कहने से कतरा रही है. उस का कहना है कि मामला औरत के अस्तित्व का है, धर्म का नहीं, पर यह दलील लचर है, क्योंकि सरकार तो खुद सैकड़ों फैसले हिंदू संस्कृति समाज को ले कर करती फिर रही है.

कांग्रेस सरकार भी यही करती रही है पर भाजपा सरकार कुछ ज्यादा ही उत्साहित रहती है और कभी योग, कभी वंदेमातरम, कभी भारत माता को हिंदू देवी का रूप दे कर, तो कभी धर्म का सा रूप दे कर जनता को कुछ करने पर मजबूर करती रहती है. मुसलिम कानून में परिवर्तन की आवश्यकता है, क्योंकि यह पुराना और आज के युग के लायक नहीं पर सवाल है कि यह परिवर्तन करे कौन? कठमुल्ले तो उलटा चाहते हैं कि जो थोड़ाबहुत बदलाव आया है वह भी बंद हो जाए और समाज हदीस के अनुसार चले. उन्हें मोबाइल, कारों, हवाईजहाजों, मिसाइलों से शिकायत नहीं है, जो धर्म की स्थापना के समय नहीं थीं पर रोजमर्रा के व्यवहार में पुराने चिपके रहना चाहते हैं.

अदालतें समझती हैं 3 बार तलाक कह कर पत्नी से छुटकारा पाना गलत है पर उसे अवैध घोषित करने पर धर्म की स्वतंत्रता का उल्लंघन माना जाएगा, जो भारत के ही नहीं दुनिया के सभी संविधानों में किसी न किसी रूप में है. औरत मुसलिम हो या हिंदू अथवा ईसाई जब धर्म से बंध जाती है तो उस के पास चौइस रहती ही नहीं कि वह धर्म के एक हिस्से को माने और दूसरे को नहीं. अदालत में जिन औरतों ने दुहाई दी है वे एक तरफ तो कह रही हैं कि वे मुसलिम हैं, पर मुसलिम कानून के अनुसार हुए विवाह के एक नियम को गलत मान रही हैं. यह दोगलापन है.

व्यक्तिगत कानूनों का पर्याय कम से कम भारत में तो मौजूद है. यहां कानूनों की भरमार है, जो विवाह, विरासत, जन्म, मृत्यु पर धर्म को नकारने का हक देते हैं. जो औरतें मुसलिम ट्रिपल तलाक के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट गई हैं उन्हें तार्किक स्पैशल मैरिज ऐक्ट जैसे कानूनों का रास्ता अपनाने से कोई नहीं रोकता.

धर्म से छिटक कर अधार्मिक या नौनबिलीवर बनना आसान नहीं है पर यही उपाय है जिस से धर्म की मोटी दीवारों को तोड़ा जा सकता है. धर्म प्रचारक तो लगे रहेंगे कि धर्म की दुकानें चलती रहें. न हिंदू पंडे चाहेंगे कि घंटों चलने वाले फेरे बंद हों, न पादरी चाहेंगे कि उबाऊ खड़े हों, बैठे हों वाली कवायद के बिना ईसाई विवाह हों और न ही मुल्ला चाहेंगे कि मुसलिम विवाह के उलझे कानूनों में कोई कमी की जाए.

रास्ता तो एक ही है कि धर्म की जंजीरों से मुक्त हों. सुप्रीम कोर्ट यह कहेगा नहीं और ट्रिपल तलाक पर मामला अधर में लटका रहेगा या गेंद संसद की तरफ लुढ़का दी जाएगी. अदालतों का हस्तक्षेप वहां जरूरी है जहां रास्ता न हो. भारत में तो मौजूद है, उसे अपनाने की हिम्मत करो मुहतरिमाओ.

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